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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
१३. लिपिसंख्यान क्रिया : अनेक शास्त्राचार्यों ने इस संस्कार को विद्यारम्भ, अक्षरारम्भ, अक्षरस्वीकरण, अक्षरलेखन आदि नामों से सम्बोधित किया है।' बालक के जन्म के पाँचवें वर्ष में अक्षर-ज्ञान कराने की विधि सम्पन्न करने की व्यवस्था है । इस क्रिया में भी अपने वैभव के अनुसार पूजा आदि का विधान है और अध्ययन कराने में कुलवती गृहस्थ को ही उस बालक के अध्यापक पद पर नियुक्त करना चाहिए। इस क्रिया का विशेष मंत्र इस प्रकार है-'शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थपारगामी भव' अर्थशास्त्र रघुवंश, उत्तररामचरित, कादम्बरी, अपरार्क, मार्कण्डेय पुराण, संस्कारप्रकाश एवं संस्कार रत्नमाला में विद्यारम्भ-संस्कार का वर्णन उपलब्ध है।
१४. उपनीति-क्रिया या उपनयन-संस्कार : 'उप' उपसर्ग पूर्वक 'नी' धातु से 'अन्' प्रत्यय होकर 'उपनयन' शब्द बनता है। गुरु के समीप शिष्य को लाना उपनीति अर्थात् गुरु के समीप लाया हुआ शिष्य । उपनयन संस्कार के बाद बालक आचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाता है ।
[१] समय : महा पुराण के अनुसार संस्कार के पूर्व सभी जन्म से ब्राह्मण होते हैं, किन्तु व्रतों से संस्कृत होने से द्विजन्म गुण से युक्त होने के कारण द्विज कहलाते हैं। महा पुराण में वर्णित है कि गर्भ के आठवें वर्ष में बालक की उपनीति (उपनयन) क्रिया होती है। इसमें केश-मुण्डन, व्रतबन्धन तथा मौजीबन्धन की क्रियाएँ सम्पादित होती हैं। सर्वप्रथम बालक का जिनालय में अर्हन्तदेव की पूजा के उपरान्त भौन्जीबन्धन का विधान है। तदनन्तर ब्रह्मचारी को शिखाधारी, धवल उत्तरीय तथा धौत वस्त्र से सज्जित, विकृत वेष रहित व्रत के चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत
१. राजबली पाण्डेय-वही, पृ० १३७ २. महा ३८।१०२-१०३ ३. वही ४०।१५२; तुलनीय-'श्रीगणेशायनमः, सरस्वत्यैनमः, गृहदेवताभ्योनमः,
लक्ष्मीनारायणभ्यां नमः, ऊँ नमः सिद्धाय ।' राजबली पाण्डेय-वही, पृ० १४१
१४२ ४. पी० वी० काणे-वही, पृ० २६६-२६७ ५. महा ४०।१५६; तुलनीय-गौतमधर्मसूत्र १२
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