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सामाजिक व्यवस्था
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(vi) रासक्रीड़ा' : बालक-बालिकाओं के वासना-रहित क्रीड़ा को रासक्रीड़ा कहा गया हैं।
(viii) द्यूतक्रीड़ा : धूत-व्यसन की निन्दा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि क्रोधज [मद्य, मांस, शिकार], कामज [जुआ, चोरी, वेश्या एवं परस्त्री-गमन]इन सात व्यसनों में धू त सदृश निकृष्ट अन्य कोई व्यसन नहीं है ।२ जैन पुराणों में जुआड़ियों के विषय में कथित है कि वह क्रमशः सत्य, लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, माता-पिता, बाल-बच्चे, स्त्री और स्वतः को हारता (नष्ट करता) है। जुआड़ियों की मनोदशा का चित्रण जैन पुराणों में वर्णित है कि जुआ खेलने वाला मनुष्य आसक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है। इन आवश्यक कार्यों के अवरोध हो जाने से वह रोगी हो जाता है । जुए से धन के स्थान पर पाप का संचय करता है, निन्द्य कार्य करता है, सबका शत्रु बन जाता है । दूसरों से याचना करता है, धन के लिए अयोग्य कर्म करता है, जिससे बन्धुजन उसे त्याग देते हैं और राजा से दण्ठित हो अनेक कष्ट (दण्ड) सहन करता है।
(ix) मगया-विनोद क्रीड़ा : हरिवंश में मृगया-विनोद क्रीड़ा को व्यसन वर्णित किया गया है। प्राचीन काल से राजा वनों में मृगयार्थ जाया करते थे। उसके साथ विशाल सेना भी जाती थी। इस प्रकार मनोविनोद के साथ-साथ अपनी दूरस्थ प्रजा विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान भी हो जाता था । अहिंसा प्रधान धर्म के कारण मृगयाविनोद को जैन ग्रन्थों में निन्दनीय कथित है। राजा सोमेश्वर ने मृगया के इकतीस भेद कहा है, किन्तु मानसोल्लास में केवल इक्कीस के ही वर्णन उपलब्ध हैं। १. हरिवंश ३५॥६६ २. क्रोधजेषु निषूक्तेषु कामजेषु चतुर्षु च ।
नापरं व्यसनं द्यू तान्निकृष्टं प्राहुरागमाः ।। महा ५६१७५; हरिवंश २११५५;
पद्म ८५।१२० ३. महा ५६७६-७७; हरिवंश ४६।३ ४. वही ५६७८-८०; पद्म ८५।१२० ५. वही ॥१२८; तुलनीय-अभिज्ञानशाकुन्तल २१५ ६. हरिवंश ६२।२६; तुलनीय-अर्थशास्त्र ८।३; मनु ७।४४-५० ७. अभिज्ञानशाकुन्तल १७-११ ८. हरिवंश ५५६१-६३ ।। ६. मन्मथ राय-वही, पृ० २७६
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