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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
३. राज्य के उद्देश्य एवं कार्य : पद्म पुराण में उल्लिखित है कि इच्छानुसार कार्य करना ही राज्य कहलाता है ।' महा पुराण में उस राज्य की निन्दा की गयी है जिसका अन्त अश्रेयष्कर है तथा जिसमें निरन्तर पापों की उत्पत्ति एवं सुख का अभाव है और सशंकित मनुष्य महान् दुःख प्राप्त करते हैं ।२ डॉ० अल्तेकर के मतानुसार शान्ति, सुव्यवस्था की स्थापना और जनता का सर्वाङ्गीण नैतिक; सांस्कृतिक तथा भौतिक विकास करना राज्य का उद्देश्य था। राज्य के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है :
(i) आवश्यक कार्य : इसके अन्तर्गत वे सभी कार्य आते हैं, जो समाज के संगठन के लिए नितान्त अनिवार्य हैं, जैसे बाह्य शत्रु के आक्रमण से रक्षा, प्रजा के जान-माल का संरक्षण, शान्ति-सुव्यवस्था और न्याय का प्रबन्ध इत्यादि।
(ii) ऐच्छिक या लोकहितकारी कार्य : शिक्षा, दान, स्वास्थ्य रक्षा, व्यवसाय, डाक एवं यातायात का प्रबन्ध, जंगल तथा खानों का विकास, दीन-अनाथों की देख-रेख आदि ऐच्छिक या लोकहितकारी कार्य के अन्तर्गत आते हैं।
जैन पुराणों में राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध नहीं है, तथापि उनके अनुशीलन से उपर्युक्त विचारों का ही द्योतन होता है । जैनाचार्यों ने राज्य को मनुष्यों के सर्वांगीण विकास का केन्द्र माना है। इसी लिए प्रजा के कल्याणार्थ राजाओं को प्रत्येक क्षण सचेष्ट और प्रोत्साहित करना चाहिए।
४. राज्य के सप्तांगसिद्धान्त : महा पुराण में राज्य की सात प्रकृतियों (अंगों) का वर्णन उपलब्ध है-स्वामी, अमात्य, दण्ड, जनस्थान, गढ़, कोश तथा मित्र । जैनेतर ग्रन्थों में भी राज्य के सप्तांगों की विवेचना प्राप्य है । वस्तुतः
१. स्वैच्छाविधानमात्रं हि ननु राज्यमुदाहृतम् । पद्म ८८।२४ २. राज्ये न सुखलेशोऽपि दुरन्ते दुरितावहे ।।
सर्वतः शङ्कमानस्य प्रत्युतानासुखं महत् ॥ महा ४२।१२० ३. अल्तेकर-वही, पृ० ३६ ४. अल्तेकर-वही, पृ० ४२-४३ ५. स्वाम्यमात्यो जनस्थानं कोशो दण्ड: सगुप्तिकः ।
मित्रं च भूमिपालस्य सप्तः प्रकृतयः स्मृताः ।। महा ६८१७२ ६. अर्थशास्त्र ६।१; मनु २६४; याज्ञवल्क्य १३५३; विष्णुधर्मसूत्र ३१३३; ___ महाभारत शान्ति ६६।६४-६५; मत्स्य पुराण २२५।११; अग्नि पुराण २३३।१२;
कामन्दक १।१६; मानसोल्लास अनुक्रमणिका श्लोक २०
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