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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन करने के लिए राजा को निर्देश दिया है । पद्म पुराण में वर्णित है कि विदेशों में राजा अपने राजदूत नियुक्त करते थे ।२।।
७. राजनय के षड्-सिद्धान्त : राजनय के मूल तत्त्वों में षड्-सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन सिद्धान्तों का उपयोग परराष्ट्रों पर होता था। इनका यथोचित प्रयोग कर राजा सफलता के शिखर पर आरूढ़ होता था । महा पुराण के अनुसार सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वैधीभाव षड्-सिद्धान्त हैं।'
(i) सन्धि : युद्ध-रत दो राजाओं में किसी कारण से मैत्रीभाव हो जाना ही सन्धि कहलाती है। यह दो प्रकार की होती है : सावधि सन्धि-निश्चितकालीन मित्रता को सावधि सन्धि कहा गया है । अवधि रहित सन्धि–वह सन्धि है जिसमें समयसीमा का प्रतिबन्ध नहीं रहता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अमिष, पुरुषान्तर, आत्मरक्षण, अदृष्टपुरुष, दण्डमुख्यात्म रक्षण, दण्डोपनत, परिक्रम, उपग्रह, प्रत्यय, सुवर्ण, कयाल आदि सन्धियों का भी उल्लेख किया है ।" जैनेतर अग्नि पुराण में सोलह प्रकार की सन्धियों का वर्णन प्राप्य है।'
(ii) विग्रह : शत्रु तथा उसे जीतने वाला अन्य विजयी राजा दोनों ही परस्पर एक दूसरे का जो अपकार करते हैं, उसे विग्रह की संज्ञा प्रदान किया गया है।
(iii) आसन : जब कोई राजा यह समझकर कि इस समय मुझे कोई अन्य और मैं किसी अन्य को नष्ट करने में समर्थ नहीं हूँ और जो राजा शान्तिभाव से रहता है। इसे आसन कहते हैं। इस गुण को राजाओं की वृद्धि का कारण बताया गया है। १. महा ५४११४४ २. पद्म ४४।३१ ३. सन्धिः विग्रहो नेतुरासनं यानसंश्रयो ।
द्वैधीभावश्च षट् प्रोक्ता गुणाः प्रणयिनः श्रियः । महा ६८।६६-६७ कृतविग्रहयोः पश्चात्केनचिद्धेतुना तयोः ।
मैत्रीभावः स सन्धिः स्यात्सावधिविंगतावधिः । महा ६८।६७-६८ ५. अर्थशास्त्र ७१३ ६. बी० बी० मिश्र-पालटी इन् द अग्नि पुराण, कलकत्ता, १६६५, पृ० १६४ ७. परम्परापकारोऽरिविजिगीष्वोः स विग्रहः। महा ६८।६८; पद्म ३७१३ ८. मामिहान्योऽहमप्यन्यमशक्तो हन्तुमित्यसो ।
तूष्णींभावो भवेन्नेतुरासनं वृद्धिकारणम् ॥ महा ६८६६
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