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राजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था
२१६ आगमों में प्रजा से दसांश भाग कर स्वरूप लेने का विधान था ।' डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल के विचारानुसार यही कर राजा का वेतन होता था।२
भूमि से प्राप्त आय को बलि और अन्य प्रकार की आय (फल, जलाने की लकड़ी, फूल आदि) को भोग वर्णित किया गया है। ह्वेनसांग के यात्रा काल में नदी के घाट और सड़क की चुंगी बहुत निम्न थी। राजस्व के रूप में प्राप्त आय का प्रधान स्रोत कृषि था। इसके अतिरिक्त धातुओं के निर्माण, उद्योग, पशुपालन, सुरा, वेश्या, नट, नर्तक, गायक, घाट, बाजार आदि पर कर वसूल किया जाता था। कालिदास ने आय के सात प्रधान साधनों का उल्लेख दिया है-(१) भू-कर, (२) सिंचाई, (३) मादक द्रव्य, (४) राजकीय एकाधिकार एवं अन्य कार्य-कलाप, (५) राजकर, (६) विजय, उपहार, भेंट और (७) राजकोश में आगत अनधिकृत सम्पत्ति । हर्ष के काल में परिस्थिति में परिवर्तत हो जाने के परिणामस्वरूप आय के साधनों में भी परिवर्तन-परिवर्धन हो गया था। उस समय भी आय के प्रमुख सात साधनों का वर्णन उपलब्ध है-(१) उद्रंग (भूमि शुल्क), (२) उपरिकर, . (३) धान्य, (४) हिरण्य, (५) शारीरिक श्रम, (६) न्यायालय शुल्क और (७) अर्थदण्ड । पूर्व मध्यकाल में राष्ट्रकूट, चालुक्य, प्रतिहार, परमार, चौहान, गहड़वाल आदि राजवंशी के राजाओं के लेखों और तत्कालीन साहित्यिक साधनों के अनुसार उस समय भाग, भोग, हिरण्य, उपरिकर आदि राज्य के आय के स्रोतों पर प्रकाश पड़ता है।
प्राचीन आचार्यों ने आय के साधन और उनकी मात्रा का सुन्दर विवेचना किया है । साधारणतया उपज का छठा भाग राजा कर के रूप में प्रजा से ग्रहण करने का अधिकारी था। किन्तु आपत्ति-काल में राजा को भारी कर लगाने के लिए प्रजा
१. जगदीश चन्द्र जैन-वही, पृ० ४२ २. जायसवाल-वही, पृ० १६५ ३. बी० बी० मिश्र-वही; पृ० १४६-१५१ ४. भगवत शरण उपाध्याय-कालिदास का भारत, भाग १, काशी, १६६३,
पृ० २५१ ५. कैलाश चन्द्र जैन-प्राचीन भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाएँ, भोपाल,
१६७१, पृ० २६३ ६. कैलाश चन्द्र जैन-वही, पृ० २६३-२६४ ७. विष्णुधर्मसूत्र ३।२२-२३; गौतम १०।२४; मनु ७।१३०
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