________________
२१६
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन दण्ड का उद्देश्य विनाशात्मक एवं संहारकारक न होकर सुधारात्मक होता था।'
___ जैन आगमों में सात प्रकार की दण्डनीति वर्णित हैं ।२ आलोच्य जैन पुराणों में हा, मा, धिक् -तीन दण्डनीतियाँ मर्यादा के लिए विहित हैं । जैन आगमों में चोरी को निन्दनीय निरूपित किया गया है और चोरी के अपराध में कठोर दण्ड की व्यवस्था का विधान विहित है। महा पुराण में धनापहरण के आरोप में तीन प्रकार के दण्ड की व्यवस्था है : (१) अपराधी का सर्वसम्पत्तिहरण (२) अपराधी को शक्तिशाली पहलवान से तीन बूंसा लगवाना (३) अपराधी को कांसे के तीन थाल नया गोबर खिलाना। इस ग्रन्थ में अन्यत्र वर्णित है कि अन्याय से अन्य के धन का हरण करना ही चोरी कहलाती है। चोरी दो प्रकार की होती है : (१) स्वभाव चोरी : सम्पन्नता के उपरान्त भी आदतवश की गई चोरी को स्वभाव चोरी कहते थे । (२) कषाय चोरी-व्यय की अधिकता से उत्पन्न धनाभाव की पूर्ति चोरी द्वारा की जाती है, उसे कषाय चोरी कहते थे । यह उल्लेखनीय है कि दोनों प्रकार की चोरी निन्दनीय थी। चोरी करने वाला व्यक्ति दुःख एवं पाप का भागी होता है । महा पुराण में चोर को थप्पड़, लात, चूंसा आदि से मार कर दण्डित करते थे । कभीकभी मारते-मारते चोर की मृत्यु भी हो जाया करती थी। पद्म पुराण में सुरंग द्वारा चोरी का उल्लेख उपलब्ध है। उक्त पुराण में चोरी के अपराध में मृत्यु दण्ड की व्यवस्था निरूपित है।' मृत्यु-दण्ड के अपराधी की जमानत हो जाती थी। महा पुराण में उल्लेख आया है कि यदि ब्राह्मण चोरी करते हुए पकड़ा जाय तो उसे देश से निष्कासित कर देने का विधान था ।" जैनेतर साहित्य में भी इस अपरा
१. उपवासमेकरानं दण्डोत्सर्गे नराधिपः ।
विशुद्धयेदात्मशुद्धयर्थं निरानं तु पुरोहितः । महाभारत शान्तिपर्व ३।१७ २. जगदीश चन्द्र जैन-वही, पृ० ४२ । ३. मर्यादारक्षणोपाय हामाधिक्कारनीतयः । हरिवंश ७।१७६; महा १६।२५० ४. जगदीश चन्द्र जैन-वही, पृ० ८१-८२ ५. महा ५६११७५-१७६ ६. वही ५६।१७८-१८७ ७. वही ८।२२६ ८. पन ५।१०३ ६. वही ३४१७६ १०. वही ३४१८० ११. महा ७०।१५५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org