________________
१६६
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
ईंधन, कन्या, चमरी गाय के बाल, मृग नाभि आदि बहुत सी वस्तुएँ राजा को उपहार स्वरूप प्रदान की जाती थीं ।'
साहित्यिक साक्ष्य के अतिरिक्त पुरातात्त्विक स्रोतों से भी राजाओं को उपहार प्रदत्त करने की प्रथा की पुष्टि होती है । प्रयाग प्रशस्ति में वर्णित है कि समुद्रगुप्त को उसके अधीनस्थ राजाओं ने आत्मनिवेदन, कन्यादान एवं अपने-अपने क्षेत्रों के उपयोग-निमित्त गरुड़मुद्रा से अंकित राजाज्ञार्थ प्रार्थना-पत्र और विविध उपायों द्वारा उसकी सेवा की थी । २
५.
राजा : अधिकार एवं कर्त्तव्य : राजा अपने राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता था । वह राजतंत्र, सेना, प्रशासन तथा न्यायपालिका का प्रधान होता था। उसके अधिकार असीमित थे । वह अपने देश के उच्च अधिकारियों, राजदूतों, मंत्रियों एवं राज्यपालों की नियुक्ति करता था । महा पुराण के अनुसार राज्य से अपेक्षा की जाती थी कि वह युद्ध में मृत व्यक्ति के स्थान पर उसके पुत्र या भाई को उसके पद पर नियुक्त करेगा । जैन पुराणों में राजा की दिनचर्या के विषय में उल्लेख आया है कि राजा शय्या से उठकर देव एवं गुरुओं की पूजा-अर्चना करता था । इसके उपरान्त वह रानी के साथ सभागृह में सिंहासन पर विराजमान होता था । महा पुराण में राजा की वृत्ति के विषय में उल्लिखित है कि निष्पक्ष होकर सबको एक समान देखना, कुल-मर्यादा की रक्षा करना, बुद्धि द्वारा अपनी रक्षा
१. हरिवंश ११।१०-२०; महा २७ १५२, २८।४२-४४, ३१।६१-६३।३१।१४१; पद्म २८२, ६ । ६०
'आत्मनिवेदन-कन्योपायनदान - गरुत्मदङ्कस्वविषयमुक्ति शासनयाचना
पाय सेवा - कृतबाहु - वीर्य्य - प्रसर-धरणिबन्धस्य पृथिव्यामप्रतिरथस्य ।' इलाहाबाद स्तम्भ लेख २३; द्रष्टव्य - उदयनरायण राय - — गुप्त राजवंश तथा उसका युग, इलाहाबाद, १६७७, पृ० ६८१
गुलाब चन्द्र चौधरी - पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ नार्दर्न इण्डिया फ्राम जैन सोर्सेज, अमृतसर १६६३, पृ० ३३३ ; बट कृष्ण घोष - हिन्दू राजनीति में राष्ट्र की उत्पत्ति, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, टीकमगढ़, १६४६, पृ० २७२; अर्थशास्त्र
519
तथा नृपोऽपि सङ्ग्रामे भृत्यमुख्येव्यसौ सति ।
तत्पदे पुत्रमेवास्य भ्रातरं वा नियोजयेत् ॥ महा ४२ । १५१
महा ४१।१२१, ६२ १००, ६४ १८
३.
४
५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org