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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
(ii) वनक्रीड़ा : जैन पुराणों में उल्लिखित है कि राजा एवं धनाढ्य व्यक्ति सपत्नीक प्रकृति का आनन्द लेने के लिए वन में जाया करते थे । वहाँ पर इच्छानुसार वे वनक्रीड़ा किया करते थे । इस क्रीड़ा में नायक-नायिका तथा पतिपत्नी सामूहिक रूप से आमोद-प्रमोद, हास-परिहास, मनोविनोद में भाग लेते थे । जैन पुराणों में वन, उपवन, एवं उद्यान समानार्थक हैं । उद्यान में विभिन्न प्रकार के वृक्षों की मनोहर छटा, सभागृह, स्नानगृह, लतागृह पक्षियों का कलरव, झरने एवं पहाड़ी प्रदेशों का आनन्द उपलब्ध होता था । महा पुराण में वर्णित है कि वसन्त ऋतु में आम्रमञ्जरी के प्रस्फुटन से नायक-नायिकाएँ आम्रकुञ्ज में जाकर सहकारवनक्रीड़ा अर्थात् रमण कार्य करते थे । *
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(iii) दोलाक्रीड़ा : नारियों के क्रीड़ा के लिए दोलागृह होते थे ।" वे दोलाक्रीड़ा (झूला) में पेंग मारकर झूलती थीं और मधुर धुन में गीत गाती थीं । झूले पर बैठने के लिए आसन बना रहता था । दोलाक्रीड़ा का समय वर्षा ऋतु में होता था । कादम्बरी के अनुसार दोले में छोटी-छोटी घंटियाँ बँधी होती थीं और सामान्यतः इनका उपयोग सूर्यास्त होने पर होता था ।
(iv) कन्दुकक्रीड़ा : स्त्री-पुरुष दोनों ही कन्दुक क्रीड़ा के प्रेमी होते थे । इस क्रीड़ा में छोटे और बड़े कन्दुक प्रयोग में लाये जाते थे । वर्तमान समय में कन्दुक का विकसित रूप फुटबाल है । प्राचीनकाल में कन्दुकक्रीड़ा का विशेष प्रचलन था । (v) दण्डक्रीड़ा " : आधुनिक काल में बालक शैशवावस्था में गुल्ली-डण्डा खेलते हैं । यही प्राचीन समय में दण्डक्रीड़ा कहलाता था ।
पद्म ५।२६६-३०३; महा १४।२०७-२०८
महा ८1१६-२०, १४।२०८ हरिवंश १४।२०- २१, तुलनीय - पिंडनियुक्ति २१४-२१५; राजप्रश्नीयटीका, पृ० ५
३.
पद्म ४६।१५६ - १६१; महा ४५1१८३; अवदानकल्पलता २६।७६१-८०३ महा ६८
४.
५. वही ७।१२५; तुलनीय - रघुवंश ६।४६
६.
पद्म ३६।४, ६।२२६ हरिवंश १४/२०
७.
हजारी प्रसाद द्विवेदी - प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद,
कादम्बरी १।२१२
१.
२.
८.
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१०. वही १४ |२००
महा ४५ | १८३; तुलनीय - रघुवंश १६।८३; कुमारसम्भव ५।११
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पृ० ४१
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