________________
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
[ठ] मनोरञ्जन
१. महत्त्व एवं उपादेयता : मानव प्रवृत्ति से ही विनोद प्रिय रहा है । निरन्तर कार्यरत रहने के कारण जब मनुष्य थकान का अनुभव करता है या जीवन के एकरसता से ऊब जाता है तो उससे मुक्ति पाने के लिए उसको ऐसे साधन की आवश्यकता पड़ती है, जिसके द्वारा उसे आनन्द एवं स्फूर्ति की अनुभूति हो और अपने अतीत को विस्मृत कर उत्साह के साथ अपने जीवन-पथ पर अग्रसर हो सके। इसलिए प्राचीनकाल से मनुष्य विविध प्रकार से अपना मनोरञ्जन करता रहा है ।
१६८
जैन पुराणों में मनोरञ्जन विषयक जो सामग्री प्राप्त होती है उससे एक ओर मनोरञ्जन के अनेक प्रकारों का पता चलता है तो दूसरी ओर मनोरञ्जन की सात्विकता के विषय में जैन पुराणकारों की विशेष दृष्टि की भी जानकारी होती है । महा पुराण के अनुसार इस संसार में सभी लोग अपने मन के विषयभूत पदार्थ ( मनोरञ्जन) की कामना करते हैं।' इसी पुराण में आवश्यकता से अधिक मनोरञ्जन में लिप्त होना वर्जित किया गया है । 3 आधिक्य को ही व्यसन की संज्ञा प्रदत्त की जाती है ।
२. मनोरञ्जन के प्रकार : सोमेश्वर ने बीस प्रकार के विनोदों (मनोरञ्जनों) का उल्लेख किया है ।" मनोविनोद के साधनों को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है :
शारीरिक : इसमें शरीर को स्वस्थ एवं सबल बनाने के लिए दौड़धूप, कुश्ती, नाना प्रकार के खेल - कूद, शिकार आदि हैं ।
मानसिक : मानसिक शक्तियों के विकासार्थं नृत्य-गीत, नाट्य-अभिनय, कविता-पाठ, आख्यान - कहानी - कथा आदि की प्रथा और कुछ बुद्धि प्रधान खेल जैसे शतरंज, चौपड आदि इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं ।
१. महा २६।१५३
२. वही ३६।७६
३. शिव शेखर मिश्र - मानसोल्लास : एक सांस्कृतिक अध्ययन, वाराणसी, १६६६,
इलाहाबाद, सं० २०१३
४.
पृ० ३२१
मन्मथ राय -- प्राचीन भारतीय मनोरञ्जन, पृ० १०-१७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org