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सामाजिक व्यवस्था
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३. जन्मोत्सव : संसार में सामान्यतः साधारण से साधारण व्यक्ति को भी पुत्र जन्म के कारण प्रसन्नता होती है ।' पुत्र जन्म से दम्पत्ति को हर्षातिरेक होता है । धनाढ्य या निर्धन सभी अपनी सामर्थ्यानुसार पुत्र जन्मोत्सव मनाते हैं । २ इस अवसर पर घण्ट ध्वनि, सिंह ध्वनि, पटह ध्वनि एवं शंख ध्वनि करते हैं ।" पुत्रोत्पत्ति होने पर जन्मोत्सव की प्रथा प्रचलित है । जिसमें भाई-बन्धु, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मिल आदि सम्मिलित होते हैं । भगवतीसूत्रानुसार पुत्र जन्मोत्सव पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार नृत्य - गान, वाद्य एवं नाटक आदि का आयोजन तथा दानादि का वितरण करते हैं ।" राजा एवं सामन्त के यहाँ यह उत्सव विशिष्ट प्रकार से सम्पन्न होता था । इस अवसर पर नगर को सुसज्जित किया जाता था । राजपथ को सुगन्धित ( चन्दन) जल से तिञ्चित किया जाता था । घर-आंगन को कुंकुम - केसर आदि से सुवासित करते थे । संगीत वाद्य एवं नृत्य आदि का आयोजन किया जाता था । ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार कन्या के जन्म पर भी जन्मोत्सव का आयोजन किया जाता था।
(ब) सामाजिक उत्सव : आधुनिक समाज में जिस प्रकार आजकल सामाजिक उत्सवों का आयोजन होता है, इसी प्रकार प्राचीन काल में सामाजिक उत्सवों का महत्त्वपूर्ण स्थान था । हमें जैन साहित्य में भी सामाजिक उत्सवों का रोचक वर्णन उपलब्ध होता है, जिसका विवरण निम्नवत् है :
१. विवाहोत्सव : सामाजिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित रखने के लिए विवाह अनिवार्य माना जाता है । विवाह के पावन सूत्र में बँध कर पति-पत्नी अपनी जीवन नौका को सहज भाव से इस संसार में खेते हैं । विवाहोत्सव के अवसर पर ध्वजा एवं तोरण से नगर को भली-भाँति सुसज्जित करते हैं । विवाह मण्डप भी सुन्दर ढंग से सुसज्जित किया जाता था । वर-वधू को स्त्रियाँ गवाक्षों से देखती थीं । स्वयंवर की छटा निराली होती थी । विवाह के अवसर पर विभिन्न प्रकार के
१. महा ५६ । २०
२. वही २६।१
३. हरिवंश १६।१४
४.
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पद्म २६।१४७
५.
भगवती सूत्र ११।११।४२६
६. झिनकू यादव - जैन साहित्य में उत्सव महोत्सव, श्रमण वर्ष २३, अंक ११,
• सितम्बर १६७२, पृ० २६ ज्ञाताधर्मकथा ८, पृ०६६
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