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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
बान्धव और शरण कथित है । इसी पुराण में पिता, पति एवं पुत्र को कुलवती स्त्रियों का आधार वर्णित किया गया है । ૨
आदिकाल से नारियों में धार्मिक प्रवृत्ति रही है । उस समय वे सभी धार्मिक कृत्य पुरुष के सहयोग से करती थीं । जैन एवं बौद्ध आगमों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि नारियों को न केवल गृहस्थाश्रम में पुरुषों के समान धर्माचरण करने का अधिकार प्राप्त था, अपितु भिक्षुणी बनने में उन पर संघ की ओर से किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था ।"
(iii) माता : माता का समाज में सर्वोच्च स्थान है । पुत्र का जन्म देने से स्त्री का मान बढ़ जाता है और लोग उसकी प्रशस्ति करते हैं । वैदिककालीन पिता दस पुत्रों की कामना करता है । स्मृति काल में यही पिता आठ पुत्रों की कामना करता है ।" मनु के मतानुसार माता का अपेक्षा सहस्र गुणा उच्चतर है ।" यही कारण है कि उन्होंने पतित देवकोटि में रखा है ।
वैदिक परम्परा के पुराणों में माता को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है ।" जैन पुराणों में माता अत्यधिक श्रद्धेय थी तथा समाज में उसे विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया था । पद्म पुराण में वर्णित है कि यथार्थ में इस संसार में माता ही सर्वश्रेष्ठ बन्धु है ।' यद्यपि कन्या विषयक युक्ति में अन्तर्विरोध है तथापि स्त्रियों का समाज में प्रतिष्ठित स्थान था । पद्म पुराण में माता की महत्ता का वर्णन करती हुई इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी का कथन है कि हे माता ! तू तीनों लोकों की कल्याण
१.
पद्म ३०/१६६
२.
पिता नाथोऽथवा पुत्रः कुलस्त्रीणां त्रयी गतिः । पद्म ३१।१७७
३. कोमल चन्द्र जैन - जैन और बौद्ध आगमों में नारी जीवन, अमृतसर, १६६७,
४.
५.
६.
७.
पृ० १८३
अल्तेकर - वही, पृ० ११८
मनु २।१४५
वही ११।६०
एस० एन० राय - वही, पृ० २६३
स्थान पिता की माता को भी
८.
पद्म १०१।३७
६. वही ८०1७०
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