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सामाजिक व्यवस्था
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दुकल वस्त्र का वर्णन आचारांगसूत्र में उपलब्ध है । वासुदेव शरण अग्रवाल के विचारानुसार सम्भवतः कूल का तात्पर्य देशज या आदिम भाषा में कपड़ा से था, जिससे कोलिक (कोली) शब्द बना है। दोहरी चादर या थान के रूप में विक्रयार्थ आने के कारण यह द्विकूल या दुकूल नाम से सम्बोधित होने लगा । २ बाण ने दुकूल से निर्मित उत्तरीय, साड़ियाँ, पलंगपोश, तकिया के गिलाफ आदि का उल्लेख किया है।
कुशा के वस्त्र : साधु लोग अपने गुह्यांग के आवरणार्थ कुश, चीवर एवं वृक्षों की छालों को प्रयुक्त करते थे। इससे यह ज्ञात होता है कि कुश को कूटकर वस्त्र निर्मित करते थे।
वासस् : ऋग्वेद एवं कालान्तर के साहित्य में धारणीय वस्त्र हेतु वासस् शब्द प्रचलित था।' कपड़े के लिए वासस्, वसन एवं वस्त्र शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अमरकोश में कपड़े के छः पर्यायवाची शब्द-वस्त्र, आच्छादन, वास, चेल, वसन एवं अंशुक-प्राप्य हैं।
कुसुम्भ : यह लाल रंग का सूती और रेशमी वस्त्र होता था। सम्भवतः गरीब लोग सूती कुसुम्भ का प्रयोग करते थे और धनी लोग रेशमी वस्त्र का ।
नेत्र' : नेत्र वृक्ष-विशेष की छाल से रेशमी वस्त्र निर्मित होता था। हरिवंश पुराण में इसके लिए 'महानेत्र' शब्द प्रयुक्त हुआ है। कालिदास ने सर्वप्रथम नेत्र का उल्लेख किया है। बाणभट्ट ने कई स्थलों पर नेत्र-निर्मित वस्त्रों का चित्रांकन किया है। १२
१. 'दुकूल' गौड विषय विशिष्ट कार्यासिकम्-आचारांग २।५।१३ २. वासुदेव शरण अग्रवाल-वही, पृ० ७६ ३. वही, पृ० ७६ ४. कुशचीवरवल्कलैः-हरिवंश ६।११५; पद्म ३।२६७ ५. पद्म ३।२६३ ६. मोती चन्द्र-वही, पृ० १५ ७. अमरकोश २।६।२१५ ८. महा ३।१८८ ६. महा ४३।२११ १०. हरिवंश ११।१२१ ११. रघुवंश ७।२६ १२. हर्षचरित, पृ० ३१, ७२; १४३
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