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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
३३. इन्द्रोपपाद क्रिया : योगों का समाधानकर अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर, जिसने प्राणों का परित्याग किया है ऐसा साधु पुण्य के आगे-आगे चलने पर इन्द्रोपपाद क्रिया को प्राप्त होता है । वह इन्द्र दिव्य अवधिज्ञानरूपी ज्योति के द्वारा जान लेता है कि मैं इन्द्रपद में उत्पन्न हुआ हूँ ।'
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३४. इन्द्राभिषेक क्रिया : पर्याप्तक होते ही जिसे अपने जन्म का ज्ञान हो गया है, ऐसे इन्द्र का फिर श्रेष्ठ देवगण इन्द्राभिषेक करते हैं । २
३५. विधिदान क्रिया : नम्रीभूत हुए इन उत्तमोत्तम देवों को अपनेअपने पद पर नियुक्त करता हुआ, वह इन्द्र विधिदान क्रिया में प्रवृत्त होता है । ' ३६. सुखोदय क्रिया : अपने-अपने विमानों की शुद्धि देने से संतुष्ट हुए देवों से घिरा हुआ वह पुण्यात्मा इन्द्र चिरकाल तक देवों के सुखों का अनुभव करता है ।
३७. इन्द्रत्याग क्रिया : इन्द्र अपनी आयु शेष होने पर देवताओं को उपदेश देकर इन्द्रपद त्याग से दुःखी नहीं होता है । इस तरह जो स्वर्ग के भोगों का त्याग करता है, वह इन्द्रत्याग क्रिया होती है । धीरवीर पुरुष स्वर्ग के ऐश्वर्य को बिना किसी कष्ट के छोड़ देते है ।"
३८. इन्द्रावतार क्रिया : जो इन्द्र आयु के अन्त में अर्हन्त देव का पूजन कर स्वर्ग से अवतार लेना चाहता है, उसके आगे की अवतार क्रिया वर्णित है । मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष के इच्छुक इन्द्र को शुभ सोलह स्वप्न द्वारा अगले माहात्म्य का ज्ञान हुआ । इस तरह स्वर्गावतार क्रिया को इन्द्र प्राप्त करता है ।
३६. हिरण्योत्कृष्टजन्मता क्रिया : वे माता महादेवी के श्री आदि देवियों के द्वारा शुद्ध किये हुए रत्नमय गर्भागार के समान गर्भ में अवतार लेते हैं । गर्भ में आने पर विभिन्न सम्पदाओं आदि से सूचित हो जाता है । गर्भ में भी तीन ज्ञान को धारण करते हैं तथा हिरण्य (सुवर्ग) वर्षा से उत्कृष्टता सूचित होने से हिरण्यो - स्कृष्टजन्म क्रिया सार्थक होती है ।"
४०. मन्दराभिषेक क्रिया : जन्म के अनन्तर आये हुए इन्द्रों के द्वारा
१. महा ३८ १६० १६४
२.
वही ३८।१६५ - १६८
३. वही ३८।१६६ ४. वही ३८ |२००
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५.
६.
७.
महा ३८।२०३-२१३
वही ३८।२१४ - २१६
वही ३८।२१७-२२४
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