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सामाजिक व्यवस्था
बाधित अन्य लोगों के पारिव्रज्य को छोड़कर इसी पारिव्रज्य को ग्रहण करने का विधान वर्णित है।
४. सुरेन्द्रता क्रिया : पारिव्रज्य के फल का उदय होने से जो सुरेन्द्र पद की उपलब्धि होती है वही सुरेन्द्रता क्रिया हुई । इसका वर्णन पहले वर्णित है ।२
५. साम्राज्य क्रिया : जिसमें चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों एवं रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोग रूपी सम्पदाओं की परम्परा प्राप्त होती है, ऐसे चक्रवर्ती का बड़ा भारी राज्य साम्राज्य क्रिया कहलाती है।
६. आर्हन्त्य क्रिया : अर्हत् परमेष्ठी का भाव अर्थात् कर्मरूप जो उत्कृष्ट कृत्य है, वह आर्हन्त्य क्रिया है। इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणक रूप सम्पदाओं की प्राप्ति होती है। स्वर्ग से अवतीर्ण हुए अर्हन्त्य परमेष्ठी की जो पञ्चकल्याणक रूप सम्पदाओं की उपलब्धि होती है, उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं। यह आर्हन्त्य क्रिया तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली है।
७. परिनिवत्ति क्रिया : संसार के बन्धन से मुक्त हुए परमात्मा की जो अवस्था होती है, वह परिनिर्वृत्ति क्रिया कहलाती है। इसका अन्य नाम 'परंनिर्वाण' भी है। समस्त कर्म रूपी मल के विनष्ट होने से अन्तरात्मा की शुद्धि को ही सिद्धि कहते हैं । यह सिद्धि अपने आत्मतत्त्व की प्राप्ति रूप है, अभाव नहीं। इसके अतिरिक्त यह आदि गुणों के नाश-स्वरूप भी नहीं है।
द] मृतक-संस्कार : उपर्युक्त कृत्यों के अतिरिक्त मृतक संस्कार का उल्लेख जैन पुराणों में उपलब्ध है, परन्तु इसका समायोजन उक्त निर्धारित तीन वर्गों में न करके पृथक रखा गया है। इसका मुख्य उद्देश्य यह रहा होगा कि मृतक-संस्कार अशुभ का द्योतक होता है । ऐसी स्थिति में इसे उनके साथ नहीं रखा गया है।
महा पुराण में दो प्रकार की मृत्यु का उल्लेख है : शरीर-मरण (आयु के अन्त में शरीर का त्याग) और संस्कार-मरण (व्रती पुरुषों का पापों का परित्याग)। शरीर-मरण में ही मृतक-संस्कार की व्यवस्था की गई है। जैन पुराणों में मृत
१. महा ३६।१५५-२०० २. वही ३६।२०१ ३. वही ३६२०२ ४. वही ३६२०३-२०४
५. महा ३६।२०५-२०६
६. वही ३६।१२२ ___७. वही ५६५८, ६८७०३
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