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सामाजिक व्यवस्था
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तो दूसरी ओर जैन जैन पुराणों में वर के विद्यागम इन नौ गुणों
धर्मशास्त्रीय' वारिधारा चली आ रही थी, उसका सम्यक् निर्वाह यदि एक ओर जैनेतर पूर्वकालीन पौराणिक - सम्प्रदाय ने स्वीकार किया था, पुराणों ने इनके पारम्परिक मन्तव्य से प्रेरणा प्राप्त किया था। कुल, शील, धन, रूप, समानता, बल, अवस्था, देश और पर विशेष बल दिया है। महा पुराण में वर्णित है कि कुल, रूप, सौन्दर्य, पराक्रम, वय, विनय, विभव, बन्धु एवं सम्पत्ति आदि गुण श्रेष्ठ वर में उपलब्ध होते हैं ।" जैन पुराणों में वर की उच्च कुलीनता पर विशेष बल दिया गया है । पद्म पुराण में श्रेष्ठ कन्या को विनयी, सुन्दर, चेष्टायुक्त वर्णित किया है।" महा पुराण में वर्णित है कि यदि कन्या में अच्छे लक्षण नहीं होते हैं, तब उसे कोई पुरुष ग्रहण नहीं करता और ऐसी परिस्थिति में उसे मृत्युपर्यन्त पिता के घर में रहना पड़ता है ।" जैन आगमों में विवाहार्थ कन्या का वर के अनुरूप वय, लावण्य, रूप, यौवन तथा समान कुल में उत्पन्न होने पर बल दिया है ।"
यह उल्लेखनीय है कि उक्त लक्षणों के सुनिरीक्षण का प्रधान उद्देश्य दाम्पत्यजीवन को सुखद बनाना और सामाजिक व्यवस्था के मूलाधार गार्हस्थ्य एवं पारिवारिक जीवन को संतुलित बनाना रहा होगा । यह परम्परा भारतीय जीवन में प्रारम्भ से चलती आ रही थी। इसके प्रमाण पूर्वकालीन सूत्र एवं स्मृति ग्रन्थों से ही मिलने लगते हैं । उदाहरणार्थ, आश्वलायनगृहसूत्र में उसी कन्या के साथ विवाह अपेक्षित माना गया है, जो बुद्धि, रूप, शील और स्वास्थ्य से सम्पन्न हो ।
१. मनुस्मृति ३।७
२.
विष्णु पुराण ३।१२।२२, ४१/६२, १/१५ | ६४ ; वायु पुराण ५४।११२, १०७।४-५; मत्स्य पुराण १५४।४९५, २२७।१८ महा ४३।१६१
पद्म १०१।१४, ८६ महा ६२०६४, ४३।१८६; पाण्डव ४।२४ मन्दोदर्याः कुलं रूपं सौन्दर्यं विक्रमो नयः ।
३.
४.
विनयो विभवो बन्धुः सम्पदन्ये च ये स्तुताः । महा ६७।२२१; पद्म ६|४१; तुलनीय - यम (स्मृति चन्द्रिका १, पृ० ७८ ); आपस्तम्ब गृह्यसूत्र ३।२०; बृहत्पराशर (सम्पादित जीवानन्द), पृ० ११८
६.
पद्म १०१।१४-१५, ६।४६; महा ७।१६६; तुलनीय - आश्वलायनगृह्यसूत्र १।५।१ ७. पद्म १७।५३, ६।४२; तुलनीय - शतपथब्राह्मण १/२/५/१६ भारद्वाजगृह्यसूत्र १।११; मानवगृह्यसूत्र १।७।६-७; लौगाक्षिगृह्यसूत्र १५ ४ ७; गौतम ४१; मनु ३|४, १० वायु पुराण ३३१७; विष्णु पुराण ३।१०।१६-२४; मत्स्य पुराण २२७/१५
५.
८.
महा ६८ । १६५
६. ज्ञाताधर्म 919; भगवतीशतक ११।११
१०.
आश्वलायनगृह्यसूत्र १।५।३
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