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सामाजिक व्यवस्था
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को मनोहर चैत्यालय में ले जाकर अर्हन्तदेव की पूजा कराते थे। विवाह के दूसरे दिन वर-वधू महापूत चैत्यालय (घर के बाहर जिन मन्दिर) जाते थे ।२ विवाह के दिन से वर-वधू देव एवं अग्नि की साक्षीपूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्य व्रत रहते थे।' प्रसंगतः यहाँ उल्लेखनीय है कि वैदिक परम्परा में केवल तीन रात्रि के लिए ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते थे। कालिदास इक्ष्वाकु-वंशीय राजाओं के विवाह का उद्देश्य केवल सन्तानोत्पत्ति माना है, न कि काम प्रेरित काम वासना की पूर्ति ।" इस संदर्भ में जैनाचार्यों ने गार्हस्थ्य जीवन में ब्रह्मचर्य-व्रत के निर्वाह पर बार-बार बल दिया है तथा समागम क्रिया के लिए काल विषयक नियम और सीमा की ओर पुनः-पुनः संकेत भी किया है।
पद्म पुराण के अनुसार विवाहोपरान्त वर-वधू स्व-विवेकानुसार स्थान पर जाकर विवाह का प्रथम आनन्द (हनीमून) मनाते हैं । पाणिग्रहणोपरान्त वर-वधू के लिए जो अन्य क्रियाएँ विहित थीं, उनमें देशाटन (विशेषतः तीर्थस्थल का दर्शन)
लोकप्रिय माना जाता था। तदुपरान्त वर-वधू वैभवपूर्वक घर लौटते थे। निर्धारित .. वेला में काम-वासना से निरपेक्ष केवल सन्तानोत्पत्ति को लक्ष्य में रखकर वर-वधू का
समागम स्पृहणीय माना जाता था। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि जैनाचार्यों ने सृष्टि को अनवरत चलाने के लिए ही सन्तानोत्पत्ति को प्रधान लक्ष्य माना है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए काम-वासना को गौण स्थान पर रखा है। वैसे जैन धर्म विशेष रूप से निवृत्ति प्रधान धर्म है और ब्रह्मचर्य पर विशेष रूप से बल दिया गया है।
१. पद्म ८।८०; महा ४३।२६३ २. महा ७।२७१ ३. वही ३८।१३१ ४. बौधायनधर्मसूत्र १।५।१६-१७; आपस्तम्बधर्मसूत्र ८१८-१० ५. प्रजायै गृह्यमेधिनाम्...। रघुवंश, प्रथम सर्ग ६. पद्म ६।५६ ७. महा ३८।१२७-१३४
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