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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
[छ] स्त्री-दशा इसमें सन्देह नहीं कि हमारे आलोचित जैन पुराणों के रचना-काल में समाज में स्त्रियों की दशा गिरी हुई थी । जैनेतर तत्कालीन प्रचलित मान्यतानुसार स्त्रियाँ नैतिक और आध्यात्मिक पतन का कारण मानी गई थीं। पारम्परिक मान्यता के अनुसार उन्हें निर्बल और निष्क्रिय नैतिक कलिकर्म का प्रतीक माना जाता था।' नैतिक और आध्यात्मिक अक्षु से पृथक् होकर यदि धार्मिक दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो ऐसा प्रतीत होगा कि वे आलोच्य काल के बहुत पूर्व ही उपनयन संस्कार के लिए अनुपयुक्त मानी जाती थीं । ऐसी परिस्थिति में उन्हें शूद्रों की श्रेणी में रखा जाता था और उनकी स्थिति दिन प्रतिदिन गिरती गई । २
हमारे आलोचित पुराणों से ज्ञात होता है कि जैन सम्प्रदाय ने उनकी स्थिति में सुधार लाने की चेष्टा की थी। जैसा कि संस्कार विषयक अध्याय में विवेचित कर चुके हैं । जैन पुराणों ने स्त्रियों के लिए भी उपनयन संस्कार को एक अपेक्षित क्रिया बतायी है। यथार्थता तो यह है कि आलोच्य पुराणों के रचना काल में दो विचारधाराएँ प्रवाहित हो रही थीं। एक ने स्त्रियों की अवनत-स्थिति का अंकन किया है तो दूसरे ने उनकी उन्नत स्थिति की ओर संकेत किया है। यह उल्लेखनीय है कि दूसरी विचारधारा का समाहार न केवल आलोचित ग्रन्थों में ही है, अपितु तांत्रिक साहित्य में भी उनकी उन्नतिशील दशा का चित्रण है । तांत्रिक विचारधारा के अनुसार स्त्रियाँ दैवी शक्ति की स्रोत मानी जाती थीं।
इस द्वैधी विचारधारा के अतिरिक्त एक तृतीय विचारधारा भी पल्लवित हो रही थी, जिसका सम्बन्ध तत्कालीन शासक-परिवार से था अथवा उसका सम्बन्ध बौद्ध परम्परा से भी माना जा सकता है। राजतरंगिणी में सुगन्धा और दिहा के विषय में कथित है कि वे सफल एवं कुशल शासन संचालिका थीं। इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में छुद्दा और शिल्ला नामक वीरांगनाओं का उल्लेख मिलता है।
१. स्त्रियों को सामान्य-स्थिति : प्राचीन काल के पितृ-प्रधान संस्कृ- . तियों के समाज में कन्या का जन्म अप्रसन्नता का कारण होता था। इसलिए वहाँ
१. यादव-वही, पृ० ७१; प्रबोध १२७ २. अल्तेकर-द पोजीशन ऑफ वीमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन, बनारस, १६३८,
पृ० ४२६ ३. यादव-वही, पृ० ७१ ४. यादव-वही, पृ० ७१-७२
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