________________
सामाजिक व्यवस्था
१११
स्त्रियाँ स्वभावतः चंचल, कपटी, क्रोधी और मायाचारिणी होती हैं। पुरुषों को स्त्रियों की बातों पर विश्वास न कर विचारपूर्वक कार्य करने पर बल दिया गया है। वासना के आवेश में आकर नारियाँ धर्म का परित्याग भी कर देती हैं। स्त्रियाँ दोषों की माताएँ एवं सर्पिणी के समान हैं । २ स्त्रियाँ उत्पत्ति मात्र से विषकन्या और अनार्य होती हैं । पाण्डव पुराण के अनुसार स्त्रियाँ अपने कुल को गिराती हैं।
५. विभिन्न रूपों में स्त्रियों की स्थिति : आलोचित जैन पुराणों के अध्ययन से स्त्रियों की स्थिति का विभिन्न रूपों में अधोलिखित प्रकार से विवेचित किया जा रहा है :
(i) कन्या (ii) पत्नी (iii) माता (iv) विधवा (v) वीराङ्गना (vi) सेविका (vii) वेश्या
(i) कन्या : जैन पुराण के अनुशीलन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि कन्या का जन्म माता-पिता के लिए अभिशाप न होकर प्रीति का कारण होता है। महा पुराण में वर्णित है कि माता-पिता अपनी कन्याओं का लालन-पालन, शिक्षादीक्षा, एवं देखभाल पुत्रों के समान ही किया करते थे। यही कारण है कि जैन महा पुराण में कन्या की महत्ता प्रदर्शित करते हुए वर्णित है कि कन्यारत्न से श्रेष्ठ अन्य कोई रत्न नहीं है । जैनेतर मत्स्य पुराण में शील सम्पन्न कन्या को दस पुत्रों के समान माना गया है।
१. महा ४३।१००-११३ २. वही ७१।२३७-२३८ ३. वही ७१।२४१; तुलनीय-अंगुत्तरनिकाय २।२, पृ० ४६८ में स्त्रियों को
अतिक्रोधी, प्रतिशोधी, घोरविषी, द्विजिह्वी तथा मित्रद्रोही कहा गया है। पाण्डव ७।२४८ महा ६।८३; पद्म ८७ तुलनीय-कालिदास की कृतियों में कन्या को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है। कुमारसम्भव में कन्या को कुल का प्राण कहा गया है । भगवतशरण उपाध्याय--गुप्तकाल का सांस्कृतिक इतिहास, वाराणसी १६६६, पृ० २२१
महा १६।६८ ७. कन्यारत्नात् परं नान्यद् इत्यत्राहः प्रभृत्यतः । महा ४३।२३८ ८. दशपुत्रसमा कन्या या न स्याच्छोक्तवजिता । मत्स्य पुराण १५४।१५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org