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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
अन्तःपुर होते थे, जिनका सम्बन्ध अनेक रानियों से था । राजकुल के अतिरिक्त यह प्रथा अन्य सम्पन्न परिवारों में भी प्रचलित थी । इस प्रथा का एक मात्र कारण राजाओं की विलासिता को माना जा सकता है । कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में हर्ष नामक राजा के विलासोचित क्रिया-कलापों का उल्लेख करते हुए उसके निरर्थक एवं निर्बन्ध्य प्रयासों की ओर संकेत किया है । इसकी सामाजिक प्रतिक्रिया के परिणाम में तत्कालीन शासक उपहास के विषय बन चुके थे । उदाहरणार्थ, दशवीं शती के अरबी लेखक इब्न खुर्दब ने भारतीय नरेशों के विलासप्रियता की कटु आलोचना करते हुए लिखा है कि वे अपनी विलासिता को धर्म-सम्मत मानते थे । २
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४. विवाहार्थं वर-कन्या की आयु : वैदिक, उत्तर वैदिक, रामायण एवं महाभारत में युवावस्था में विवाह होने का उल्लेख उपलब्ध है। सूत्रों, स्मृतियों एवं टीकाकारों ने कन्या के लिए विवाह योग्य आयु कम बतलायी है । जैन सूत्रों विवाह की आयु कम थी ।' अल्बेरुनी के अनुसार ११वीं शती में हिन्दुओं में विवाह की आयु कम हो गयी थी । ब्राह्मण वर की सामान्य आयु १२ वर्ष थी । क्षेमेन्द्र ने बाल विधवा का उल्लेख किया है । ढाका संग्रहालय से प्राक् मुस्लिम काल की स्थापत्य कलाकृतियों के आधार पर कन्या के विवाह की आयु १३-१४ वर्ष कथित है । "
जैन पुराणों के अनुशीलन से ऐसा ज्ञात होता है कि वर-कन्या का विवाह बड़े होने पर किया जाता था । उपर्युक्त विवेचित विवाह प्रकारों एवं विवरणों के आलोक में ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि उनका विवाह अल्पायु में नहीं होता था । ५. वर-कन्या के गुण एवं लक्षण : भारतीय आदर्श के अनुसार समान स्थिति वालों में ही विवाह करना अपेक्षित है । इस परम्परा की निर्देशिका जो
बी० एन० एस० यादव - वही, पृ० ६८-६६
यादव - वही, पृ० १२३; हबीन - हिन्दुस्तानी पत्रिका, वर्ष १६३१, पृ० २७३
प्रीतिप्रभा गोयल -- हिन्दू विवाह मीमांसा, बौरुन्दा, १६७६, पृ० ६३ - १०५; कृष्ण देव उपाध्याय - हिन्दू विवाह की उत्पत्ति और विकास, वाराणसी, १६७४, पृ० १२१; शकुन्तल राव शास्त्री - वीमेन इन द सेक्रेड लाज, पृ० १७५
४. पिण्डनिर्युक्ति टीका ५०६
५. यादव - वही, पृ० ७०
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