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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
६. पुण्ययज्ञा क्रिया : सद्धर्मी पुरुष के साथ चौदह पूर्व विद्याओं का अर्थ सुनने वाली पुण्ययज्ञा नामक भिन्न प्रकार की क्रिया होती है।'
७. दढ़चर्या क्रिया : अपने मत के शास्त्र समाप्त कर अन्य मत के ग्रन्थों या दूसरे विषयों को सुनने वाले उसके दृढ़चर्या नामक क्रिया होती है ।
८. उपयोगिता क्रिया : दृढ़वती को उपयोगिता क्रिया होती है। पूर्व के दिन उपवास के अन्त (रात्रि) में प्रतिमायोग धारण करना उपयोगिता क्रिया कथित है ।
९. उपनीति क्रिया : शुद्ध एवं भव्य उत्कृष्ट पुरुषों के योग्य चिन्ह धारित रूप को उपनीति क्रिया कथित है। देवता और गुरु की साक्षीपूर्वक विधि के अनुसार अपने वेष, सदाचार और समय की रक्षा करना ही उपनीति क्रिया होती है। इसमें वेष, वृत्त और समय के पालन का विधान है।
१०. व्रतचर्या क्रिया : यज्ञोपवीत से युक्त हुआ भव्य पुरुष शब्द और अर्थ दोनों को अच्छी तरह उपासकाध्ययन के सूत्रों का अभ्यास कर व्रतचर्या क्रिया धारण करता है।
११. व्रतावतरण क्रिया : समस्त विद्याओं के अध्ययनोपरान्त श्रावक जब उस गुरु के समीप सम्यक् विधि से आभूषण आदि ग्रहण करता है तब उसकी प्रतावरण नाम की क्रिया होती है।
१२. विवाह क्रिया : जब वह भव्य पुरुष अपनी पत्नी को उत्तम व्रतों के योग्य श्रावक की दीक्षा से युक्त करता है तब इसे विवाह क्रिया की अविधा दी गई है । अपनी पत्नी के संस्कार का इच्छुक उस भव्य पुरुष का उसी स्त्री के साथ पुनः विवाह संस्कार होता है और उस संस्कार में सिद्ध भगवान् की पूजा आदि समस्त विधियाँ सम्पन्न की जाती है।"
१३. वर्णलाभ क्रिया : जिन्हें वर्णलाभ हो चुका है और जो अपने समान ही आजीविकाधारी ऐसे अन्य श्रावकों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के अभिलाषी उस भव्य पुरुष की वर्णलाभ क्रिया होती है।
१. महा ३६५० २. वही ३६५१ ३. वही ३६०५२ ४. वही ३६५३-५६
महा ३६५७ ६. वही ३६।५८ ७. वही ३६५६-६० ८. वही ३६०६१
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