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सामाजिक व्यवस्था
चारों अवस्थाएँ प्रशिक्षण की चार श्रेणियों के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं । '
उक्त वर्णन से यह भी स्पष्ट है कि आश्रमों की जो संख्या अथवा क्रम स्मार्त एवं पारम्परिक पुराणों में उपलब्ध है, वही जैन पुराणों को भी मान्य है । इसमें संदेह नहीं है कि भारतीय परम्परा में आश्रम व्यवस्था बहुत प्राचीन है । यद्यपि वैदिक ग्रन्थों में आश्रम शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है तथापि जैसाकि काणे का सुझाव है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास अथवा इनके समानार्थक शब्दों का प्रसंग वैदिक ग्रन्थों ने अनेक स्तरों पर किया है। ऐसा भी सुझाव है कि उपनिषदों के काल तक आश्रमबोधक भावना की आधारशिला प्रतिष्ठित हो चुकी थी । उत्तरवर्ती स्तरों पर विकसित आश्रम - व्यवस्था का मूल इन्हीं ग्रन्थों में ढूंढा जा सकता है । जैन पुराणों में आश्रम व्यवस्था विषयक जो जानकारी मिलती है, उसका वर्णन निम्नांकित है ।
१. ब्रह्मचर्याश्रम : महा पुराण में ब्रह्मचर्याश्रम के विषय में विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । बालक की आठ वर्ष की आयु में उपनीति - क्रिया (उपनयन संस्कार) सम्पन्न होती थी । इस क्रिया में बालक का केश मुण्डन, व्रतबन्धन तथा मौञ्जीबन्धन ( ( कटिप्रदेश में मूँज की रस्सी का बन्धन) किया जाता था । प्रस्तुत क्रिया में अनेक विधि-विधान सम्पन्न किये जाते थे । ब्रह्मचारी को अर्हन्तदेव की पूजा जिनालय में करनी पड़ती थी । मौञ्जी-बन्धन के अतिरिक्त उसे श्वेत दुपट्टा एवं धोती धारण करना पड़ता था । इसके उपरान्त उसे यज्ञोपवीत धारण कराया जाता था, जिसे व्रत का प्रतीक माना जाता था । उसे भिक्षावृत्ति में नियुक्त किया जाता था तथा भिक्षावृत्ति से प्राप्त आहार का अग्रभाग वह अर्हन्तदेव को समर्पित करता था । इसके उपरान्त शेष भाग को वह स्वयं ग्रहण करता था। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मचारी जिस मुञ्जा-मेखला और यज्ञोपवीत को धारण करता था उसे विशेष विधि से बनाते थे । यह मुञ्जा तीन लरों से बनती थी और इसे विशुद्धि
१.
२.
३.
४.
प्रभु - वही, पृ० ७८
द्रष्टव्य, काणे - वही, पृ० ४१८
द्रष्टव्य, रानाडे - ए कांस्ट्रक्टिव सर्व ऑफ उपनिषदिक
पृ० ६०-६१; प्रभु -वही, पृ० ८४ राजबली
पृ० २६२
महा ३८।१०४ - १०८
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फिलासफी,
पाण्डेय - हिन्दू संस्काराज,
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