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सामाजिक व्यवस्था
[घ] संस्कार [क्रिया ]
[१] 'संस्कार' शब्द : व्युत्पत्ति एवं अर्थ : 'संस्कार' शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की जा सकती है : एक व्युत्पत्तिमूलक और दूसरा व्यवहारमूलक । जहाँ तक प्रथम व्याख्या का सम्बन्ध है, इस शब्द की निष्पत्ति 'सम्' पूर्वक 'कृ' धातु में 'घ' प्रत्यय से मानी गई है । 'संस्कृयते अनेन इति संस्कार:' । इसका अर्थ है संस्करण या परिमार्जन अथवा शुद्धीकरण । मूलतः इसका तात्पर्य शुद्धीकरण से है, जिसका प्रयोग संस्कृत साहित्य में अनेक अर्थों में हुआ है, जैसे शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य, पूर्णता, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि, संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण, प्रभाव, स्वरूप, स्वभाव, क्रिया, स्मरणशक्ति, स्मरणशक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव, शुद्धि - क्रिया, धार्मिक विधि-विधान, अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता आदि अर्थों में हुआ है । कतिपय विद्वानों ने 'संस्कार' शब्द को लैटिन के 'सीरीमोनिया' (Caerimonia) और अंग्रेजी के 'सेरीमनी' (Ceremony) शब्दों का समस्तरीय माना है । 'संस्कार' शब्द का इन दोनों शब्दों में मौलिक समानता भले ही हो, किन्तु व्यापक अभिप्राय में इनमें पर्याप्त भिन्नता है । 'सीरीमोनिया' और 'सेरीमनी' शब्द सामान्यतः धार्मिक कृत्यों के द्योतक हैं । द्वितीय, व्यवहारमूलक व्याख्या की दृष्टि से 'संस्कार' शब्द इनसे पर्याप्त भिन्न है । इसका अभिप्राय नितान्त बाह्य धार्मिक क्रियाओं, अनुशासनपरक अनुष्ठान, आडम्बर, निस्तत्त्व कर्मकाण्ड, राज्य के द्वारा निर्दिष्ट प्रचलनों, औपचारिकताओं तथा अनुशासनपरक व्यवहार से नहीं है । ऐसी स्थिति में संस्कार को उक्त दोनों शब्दों का समानार्थक नहीं माना जा सकता । इसके विपरीत 'संस्कार' शब्द के तात्पर्य से न्यूनाधिक सीमा तक समता रखने वाला अंग्रेजी का 'सेक्रामेण्ट' (Sacrament) शब्द है, जिसका उद्देश्य है आन्तरिक शुचिता और जिसके विधि-विधान आन्तरिक शुचिता के दृश्यमान बाह्य प्रतीक माने जा सकते हैं ।
सामान्यतया प्राचीन भारतीय आदर्श के व्यवस्थापकों ने 'संस्कार' का तात्पर्य ऐसी क्रिया से माना है, जिसके द्वारा व्यक्ति-विशेष की पात्रता सामाजिक गतिविधि के अनुकूल बनाई जाती थी, उदाहरणार्थ, जैमिनी-सूत्र ( ३।१।३ ) की व्याख्या में शबर ने संस्कार शब्द की व्याख्या करते हुए वर्णन किया है कि 'संस्कारो नाम स भवति यस्मिञ्जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य' - संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। इसी प्रकार कुमारिलभट्ट ने तन्त्रवात्तिक में कहा है कि- 'योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते'
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