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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
[ग]. आश्रम-व्यवस्था
सामान्यतया आश्रम शब्द की व्याख्या 'श्रम्' धातु के आधार पर की जाती है। 'आश्रम्यन्ति अस्मिन् इति आश्रमः' अर्थात् ऐसी जीवन-पद्धति जिसमें मनुष्य 'श्रम्' करता हुआ अपने आपको समाज के लिए निर्धारित कर्तव्यों के अनुकूल सक्षम बनाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनियों ने आश्रम-व्यवस्था को ब्राह्मण धर्म से उद्धृत किया है, तथापि इसमें संदेह नहीं है कि जैनोचित अनुशासन के अनुकूल उन्होंने इसमें संशोधन का भी प्रयास किया है । महा पुराण ने स्पष्टतया स्वीकार किया है कि जैनियों के चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास हैं। इसके साथसाथ महा पुराण का यह भी कथन है कि उन आश्रमों में शुचिता आवश्यक है।' किन्तु, महा पुराण में यह भी वणित है कि अन्तर्भेदों के कारण इन आश्रमों के अनेक प्रकार बन जाते हैं ।२ पद्म पुराण में सागार और अनगार आश्रम का उल्लेख मिलता है।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्प्रदायोचित विशिष्ट मान्यताओं के उपरान्त भी जैन मत को आश्रम-व्यवस्था स्वीकार है। भारतीय आश्रमव्यवस्था के अनुशीलन करने वाले विद्वानों ने आपस्तम्बधर्मसूत्र, गौतमधर्मसूत्र, वशिष्ठधर्मसूत्र और मनुस्मृति आदि अन्थों के आधार पर यह स्वीकार किया है कि आश्रम-व्यवस्था व्यक्ति के जीवन के विभिन्न स्तरों का प्रशिक्षण स्थल है तथा इसके अनुशासन की आधारशिला है । डॉ० पन्यारी नाथ प्रभु के मतानुसार वस्तुतः इन चारों अवस्थाओं के माध्यम से मनुष्य अपना गन्तव्य निश्चित करता है और ये
१. चतुर्णामाश्रमाणां च शुद्धिः स्थादार्हते मते ।
चातुराश्रम्यमन्येषां अविचारितसुन्दरम् ।। ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः ।
इत्याश्रमास्तु जैनानाम् उत्तरोत्तरशुद्धितः ।। महा ३६।१५१-१५२ २. महा ३६।१५३ ३. पद्म ५।१६६ ४. आपस्तम्बधर्मसूत्र २।६।२१।१; गौतम धर्मसूत्र ३२; वसिष्ठधर्मसूत्र ७।१-२,
द्रष्टव्य, पी०वी० काणे - हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, भाग २, खण्ड १, पृ० ४१७-४१८
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