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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
जैनेतर प्राचीन ग्रन्थों में गृहस्थाश्रम के महत्त्व का उल्लेख मिलता है। हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि गृहस्थ-धर्म साक्षात् स्वर्गादि के अभ्युदय एवं परम्परा से मोक्ष का कारण है। महा पुराण में गृहस्थ के विषय में वर्णित है-- पूजा करने वाले यजमान जिसकी पूजा करते हैं और दूसरों से भी कराता है, जो वेद एवं वेदांग के विस्तार को स्वयं पढ़ता है तथा दूसरों को पढ़ाता है, जो यद्यपि पृथ्वी का स्पर्श करता है तथापि पृथ्वी सम्बन्धी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते हैं, जो अपने प्रशंसनीय गुणों से इसी पर्याय में देव पर्याय को प्राप्त होता है, जिसके अणिमा अर्थात् छोटापन नहीं है, किन्तु महिमा है, जिसके गरिमा है परन्तु लघिमा नहीं है, जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओं के गुण विद्यमान हैं। उपर्युक्त गुणों से जिसकी महिमा बढ़ रही है, जो देवरूप हो रहा है और लोक को उल्लंघन करने वाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है । ऐसा भव्य गृहस्थ पृथ्वी पर पूजित होता है । सत्य, शौच, क्षमा और दम्भ आदि धर्म सम्बन्धी आचरणों से वह अपने में प्रशंसनीय देवत्व की सम्भावना करता है। पद्म पुराण में उल्लिखित है कि वे गृहस्थधर्म के सुख में लीन विवेकी श्रावक हो गये। महा पुराण में गृहस्थों को वर्णोत्तम, महीदेव, सुश्रुत, द्विजसत्त्वम, निस्तारक, ग्रामपति और मानार्ह आदि शब्दों से सम्बोधित कर उसका सत्कार करते थे। हरिवंश पुराण में गृहस्थ को धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ का सेवन करते हुए दिखाया गया है। यही कारण है कि गृहस्थ अपनी स्त्री में संतोष रखते हैं, जिससे उनमें काम शुद्धि पायी जाती थी। पद्म पुराण में गृहस्थ धर्म को मुनिधर्म का छोटा-भाई कहा गया है । जैन पुराणों में
१. मनुस्मृति ६।८६-६०; विष्णुधर्मसूत्र ५६।२७-२६; वसिष्ठ ७१७, ८।१४-१६;
बौधायनधर्मसूत्र २।२।१; महाभारत, उद्योगपर्व ४०।२५; शान्तिपर्व २७०।६-७ २. हरिवंश १८५१ ३. महा ३६।१०३-१०७ ४. पद्म १०६।१२५
वर्णोत्तमो महीदेवः सुश्रु तो द्विजसत्त्वमः ।
निस्तारको ग्रामपतिः मानार्ह श्चेति मानितः ॥ महा ३८।१४७ ६. हरिवंश ६४।८ ७. महा ३६।३१ ८. पद्म ३२।१४६
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