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सामाजिक व्यवस्था
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उक्त उल्लेखों के आधार पर सामान्यतया यही निष्कर्ष निकलता है कि द्विज शब्द का प्रयोग करते हुए जैन पुराण इनके प्रति श्रद्धालु हैं। किन्तु यह तथ्य विचार-विमर्श का प्रश्न बन जाता है कि वे श्रद्धेय द्विज कौन थे? इस प्रश्न के उत्तर में ऐसी सहज सम्भावना की जा सकती है कि वस्तुतः इनकी श्रद्धा विषयक वे ब्राह्मण हैं, जो जैन मतावलम्बी थे। अन्यथा जैनेतर ब्राह्मणों के प्रति इनकी दृष्टि सिद्धान्ततः अनुदार ही थी। जैन पुराणों के अनुसार ब्राह्मणत्व के आधारभूत तीन कारण हैंतप, शास्त्र-ज्ञान तथा जाति । इन तीनों में प्रस्तुत ग्रन्थ ने तप को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है और यह भी उल्लिखित है कि सबसे बड़ी तपस्या अहिंसा व्रत है। इस महाव्रत के विषय में ऐसा कहा गया है कि वस्तुतः ब्राह्मण का यही लक्षण है। लम्बायमान शिखा ही ब्राह्मणत्व का प्रतीक नहीं है। ध्यान वह अग्नि है जिससे ब्राह्मणत्व की सिद्धि होती है और उसका 'शान्त-दान्त-चित्त' ही मुक्ति का कारण बनती है। पद्म पुराण के अनुसार ब्राह्मण वह व्यक्ति है जो ऋषभदेव रूपी ब्रह्मा का भक्त है। इसके अतिरिक्त महा पुराण ने उन ब्राह्मणों की निन्दा की है जो इस ग्रन्थ के अनुसार कलियुग में उत्पन्न होकर जाति-विषयक अभिमान के कारण सदाचार से भ्रष्ट होकर मोक्ष-मार्ग में बाधक एवं विरोधी बनेंगे तथा धन की आशा से निम्नकोटि के शास्त्रों के द्वारा लोगों को मोहित करते रहेंगे। प्रस्तुत ग्रन्थ में ऐसे ब्राह्मणों को अधर्मी घोषित करते हुए पुनः कहा है कि ये लोग कलियुग में हिंसा को धर्म बतायेंगे । इसी पुराण ने इस प्रसंग में वेद की भी निन्दा की है और इसे हिंसा का प्रतीक बताया है। ऐसे ब्राह्मणों की वेद निर्धारित वेषभूषा (विशेषतया यज्ञोपवीत) को स्पष्टतया पाप का प्रतीक माना है और उन्हें धारण करने वाले ब्राह्मणों को धूर्त वर्णित किया है ।" पद्मपुराण ने भी जैनमत द्वारा विहित-आरम्भ में विरत रहना, शील एवं क्रिया युक्त होना-आचरणों को न करने वाले ब्राह्मणों को केवल नाम मात्र का ब्राह्मण घोषित किया है। इसी लिए महा पुराण ने ऐसे दुराचारी, पापी तथा
१. महा ४२।१६२ २. वही ४२११७६-१६१ ३. वही ३८।४३; पद्म १०६८०-८१ ४. पद्म ११।२०१
आयुष्मन् भक्ता...."सन्मार्गपरिपन्थिनः । महा ४१।४६-५३ ६. पद्म १०६१८२, ४।११५-१२०
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