Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्कः-१३१
॥श्री महावीरजिनेन्द्राय नमः ।।
॥ हालारदेशोद्धारक पू. आ. श्रीविजयामृतसूरिभ्यो नमः॥ तपोगच्छनायक श्री सोमसुन्दरमरि-श्री मुनिसुन्दरसूरि-श्री जयचन्द्रसूरि शिष्य पण्डित श्री जिनहर्ष गणि कृता
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ज सम्यक्त्व-कौमुदी
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
सम्पादकः संशोधकश्वतपोमूर्ति पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकर्पूरसूरीश्वर-पट्टधर-हालारदेशोद्धारक-पूज्याचार्यदेव श्रीविजयामृतसूरीश्वर-पट्टधरः
पूज्याचार्य श्री विजयजिनेन्द्रसूरीश्वरः
सहायक : ४५, दिग्विजय प्लोट जामनगरस्थः श्री हालारी विशा ओसवाल तपगच्छ उपाश्रय धर्मस्थानक ट्रस्टः
प्रकाशिका-श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला-लाखापावल-शांतिपुरी (सौराष्ट्र) वीर सं० २५१० । वि० सं० २०४० : सन् १९८४ : प्रतयः ७५०
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
. - अनुक्रमणिका -
XXXX
सम्यक्त्वकौमुदी
॥२॥
६१
क्रमः प्रस्तावः पृष्ठ १. प्रथमः प्रस्तावः १ २. द्वितीयः प्रस्ताव: ३. तृतीयः प्रस्तावः
चतुर्थः प्रस्ताव: ५. पञ्चमः प्रस्तावा १४८ ६. षष्ठः प्रस्ताव: १८१
सप्तमःप्रस्ताव: २००
४.
चन
आभार अने अनुमोदना जणावतां आनन्द थाय छे के श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला तरफथी प्राचीन साहित्य प्रकाशन योजनामां आ श्रीमज्जिनहर्षगणि संकलित श्री सम्यक्त्व. कौमुदी प्रगट थाय छे. आ ग्रंथ श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर तरफथी वि. सं. १९७०मां प्रगट थयो हतो, सम्यक्त्व स्वरूप, सम्यक्त्व प्राप्तिनां निमित्त अने कथाओथी सभर आ श्री सम्यक्त्वकौमुदी ग्रन्थ हालारदेशोद्धारक पूज्याचार्यदेवश्री विजय अमृतसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर पू. आचार्यश्री विजय जिनेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजना सदुपदेशथी श्री हालारी वोशा ओसवाल तपगच्छ जैन उपाश्रय अने धर्मस्थानक ट्रस्ट (४५, दिग्विजय प्लोट जामनगर) तरफथी मलेल सहकारथी तेमना तरफथी प्रगट थाय छे. गइ साल पण तेमना तरफथी श्री स्वप्नप्रदीप अने शाकुनसारोद्धार प्रगट थयेल छे आ साल श्री अध्यात्मोपनिषद् भाषांतर साथे तथा आ श्री सम्यक्त्व कौमुदी तेमना तरफ थी प्रगट थाय छे.
आ रीते प्राचीन साहित्यना प्रकाशनमा आ श्रीसंघनी उदारता मारे आभार मानवा साथे तेमनी भावनानी खूब-खूब अनुमोदना करीए छोए अने आ रीते भविष्य मां पण श्रुतसाहित्यना उद्धारमा सहायक बने एज शुभ अभिलाषा राखीए छीए. शाक मारकेट सामे
लि०जामनगर (सौराष्ट्र)
महेता मगनलाल चत्रभुज ता०१-१०-८४
व्यव. श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला
मुद्रक :गौतम आर्ट प्रिन्टर्स
नेहरू गेट बाहर ब्यावर (राज.)
XXXXXXXXXX
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
:: सम्पादकीय :
कौमुदी
॥३॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXX*)
श्री अरिहंत परमात्मानुशासन ए सत्यदर्शन शासन | गणि पण जणाव्यु छे. तेओ महो. श्री जिनमंडनगणिना छे. जगत्ना स्वरूपनु वास्तविक ज्ञान तेमां छे. अने ते ज्ञान | विद्या शिष्य हता. पामी ज्ञेयहेय अने उपादेयना विभागने समजी सद्दही शक्य | तेमणे रयणसेहरनरवइकहा, सम्यक्त्वकौमुदी (सं. आचरण करवानु छे.
१४८७), वस्तुपाल चरित्र महाकाव्य (चितोडमां सं. १४६७) श्री सम्यक्त्वकौमुदी ए श्री अरिहंतना शासननो वास्त- विंशतिस्थानक प्रकरण (वीरमगाममांसं.१५०२), विचाराविक श्रद्धाने प्रगट करनारु शास्त्र छे. सम्यक्त्व पामवाना मृतसंग्रह, आरामशोभा कथा ( ग्रं. ४५१) सुरपण्णत्ति हेतुओ अने दृष्टांतो तेमा छे. सम्यक्त्व पामनारनी श्रद्धा अने टीप्पण, चन्दपण्णत्ति टिप्पण, वरतारा, अनर्धरा धववृसि, स्थिरतानी सौरभ एमां छे. प्रसंगोने पामीने आ ग्रन्थमा अष्टभाषामय श्री सीमंधर स्तवन, गुरु नाम गुप्त विमलाचल सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, देशविरति, सर्वविरति, वीशस्थानक, मंडन श्री प्रादिनाथ स्तोत्र, कुमारपाल रास, जबूस्वामी रास
अग्यार प्रतिमा, आठदृष्टि, जिनप्रासाद, जिनप्रतिमा विगेरे ग्रन्थो रच्या छे. श्री रत्नशेखरसू. म. विरचित श्राद्ध| विधान आदिनु स्वरूप वर्णव्युछे.
विधि कौमुदी तेमणे शोधो छे. आ ग्रन्थना कर्ता पू. आ. श्री सोमसुदरसू. पट्टधर पू. तेमणे गिरनार तीर्थ उपर सं. १५११मां कोट बहार आ. श्री मुनिसुन्दरसू. पट्टधर पू. आ. श्री जयचन्द्रसू. ना | चौमुख जिनालयमा प्रतिष्ठा करी छे. तेमने आ-उदयनंदीसूरि शिष्य श्री जिनहर्ष गणिवर छे. तेमनु बीजु नाम जिनहंस ] गुरु भाइ हप्ता तथा पं. साधुविजय गणि शिष्य हता जेमणे
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX:
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
वच्चेना प्रसंगो रष्टांतो द्वारा अनेक बोध वर्णव्या छे अने भव्यजीवो रसपूर्वक वांची सांभली शके अने सम्यक्त्वने पामी शके सुलभबोधी बनी शके तेवा रहस्योथी आ ग्रन्थ भरेलो छे.
॥४॥
आ ग्रन्थनु संपादन सं. १९७३मां पू. प्र- श्री कांतिविजयजी गणिवरना शिष्य पू. मुनिश्री चतुरविजयजी महाराजे करेल हतु.
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
विजयप्रकरण, हेतुखंडन प्रकरण वि. रच्या छे तेमने पण पं. सोमविजय गणि, पं. कमलविजय गणि, पं. शुभवर्धन गणि विगेरे शिष्यो हता.
___ आ. जयचंद्रसू. म. ए १५०६मा, आ. सोमदेवसू. ए १५७३मां सम्यक्त्वकौमुदी नामना ग्रन्थो रच्या छे तथा आ. गुणाकरसू. ए १५०४मां सम्यक्त्वकौमुदी कथा रची छे एम जैन साहित्यना संक्षिप्त इतिहासमा छै. परन्तु आ सम्यक्तकौमुदीनी तेमां नोंध लेवाइ नथी.
आ ग्रन्थमा राजगृही नगरीना श्रेणिक राजाना राज्यमां अर्हदास श्रावक हता ते सम्यग्दृष्टि हता तेमने सम्यक्त्व प्राप्त केवी रीते थयूते वर्णन छे तथा तेमनी आठ स्त्रीओमां मित्रधी, चन्द्रश्री, विष्णुश्री, नागश्री, पद्मलता, स्वर्णलता. विद्युल्लता ए सात सम्यक्त्व केवी रीते पामी ते प्रसंगो वर्णव्या छे. ज्यारे आठमी कुन्दलता जे आ बघा दृष्टांतो आदिने मिथ्यात्वना योगे सद्दहती नथी एम सम्यक्त्व अने मिथ्यात्वनु द्वन्द्व चाले छे.
लि.
सं. २०४० आसो सुद २ पू. सिद्धिसू. म. स्वर्ग दिन तपगच्छ जैन उपाश्रय ४५, दिग्विजय प्लोट जामनगर (सौराष्ट्र)
जिनेन्द्र सूरि
॥४॥
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः
सम्यक्त्वकौमुदी
॥ अहम् ॥ ॥ पू. आ. श्री विजयमेघमूरिभ्यो नमः ॥
श्रीमन्जिनहर्षगणिविरचिता ॥ सम्यक्त्वकौमुदी॥
॥ प्रथमः प्रस्तावः ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ॐ नमः शाश्वतानन्दविज्ञानोदयशालिने । श्रीयुगादिजिनेन्द्राय स्वामिने परमात्मने ॥१॥ श्रीवीरः सर्व विद्याद्धिा वैरिजयश्रियम् । त्रिजगजनरक्षायां जागत्येकोऽपि योऽद्भुतम् ॥ २॥ सर्वज्ञवृषभाः सन्तु शिवाय वृषभादयः । राजहंसी यते नित्यं शिवश्रीयत्पदाम्बुजे ॥३॥ जयन्तु गुरवस्तेऽङ्गिकरुणावरुणालया। कल्पवल्लीव यद्भक्तिर्व्यनक्ति निखिलाः श्रियः॥४॥ जिनो देवो गुरुः साधुधमस्तद्दर्शितस्तथा। रत्नत्रयमिदं जीयाजन्तुजातशिवावहम् ॥५॥ रत्नद्वीपोपमं प्राप्य नृभवं भववारिधौ । धर्मचिन्तामणियः सुधियाऽभीष्टसिद्धये ॥ ६॥ यतः
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुद
प्रथमः प्रस्तावः
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKKK*
भवकोटीदुष्पापामवाप्य नृभवादिसकलसामग्रीम् । भवजलधियानपात्रे धर्मे यत्नः सदा कार्यः ॥१॥ सर्वापत्तिभिरत्रासे धर्मः सूर्योपमः स्मृतः । विश्वाभीष्टसुखश्रेणिदाने कल्पद्रुमस्तथा ॥७॥ योऽब्धि चुलुकता निन्ये महर्षिर्घटसंभवः। सोऽपि पापाब्धिशोषाय धर्ममेव समीहते ॥८॥ ये पृथ्वीमनृणीक प्रभवः पृथिवीभुजः । तेऽपि कर्मऋणान्मुक्ताः स्युर्धर्मेश्वरसंश्रयात् ॥ ६ ॥ स सर्व देशभेदाभ्यां द्विविधोऽभिदधे जिनैः । आद्यः संयमिनामिष्टो द्वितीयो गृहमेधिनाम् ॥ १० ॥ द्विविधस्यास्य धर्मस्य मूलं सद्दर्शनं मतम् । प्ररोहाणां यथा कन्दो मणीनामिव रोहणः ॥ ११ ॥ अनन्तपुद्गलावर्त्तान् भ्रामं भ्रामं भवार्णवे । कोटाकोव्यब्धितः शेषा स्थितिं कृत्वाऽष्टकर्मणाम् ॥ १२ ॥ अपार्धपुद्गलावतशेषायां तु भवस्थितौ । सम्यक्त्वं लभते जीवो ग्रन्थिभेदे कृते सति ॥ १३ ॥ युग्मम् ।। यतः
कोटाकोट-यो नाशं सर्वा एकां मुक्त्वा नीता यावत्तु ।।
तावत्तस्याः स्तोके क्षीणे ग्रन्थिमपूर्वेणाशु भिनत्ति ॥१॥ भिन्ने ग्रन्थौ सहजकठिने तत्र वीर्यातिरेकान्मुक्तिप्रह्वो भवति नियतं हन्त स आमोक्षाप्तेरचलगतिना येन जीवोऽवशिष्टां, क्लिष्टां कर्मस्थितिमपि दहेदिन्धनानीव वह्निः ॥२॥ पल्योपमपृथक्त्वेन यस्मिन् प्राप्ते निधाविव । सर्वसौख्यकरी देशविरतिं लभतेऽङ्गभाक् ॥ १४ ॥ तदनेकविधं ख्यातमनेकगुणभूषितम् । सत्यारोपमं मोक्षसंपदः क्षायिकादिकम् ॥ १५ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२॥
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
प्रथम: प्रस्ताव:
कौमुदी
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततो भव्योपकाराय सम्यक्त्वव्यक्तिहेतवे । सम्यक्त्वकौमुदीमेतां वक्ष्ये ग्रन्थानुसारतः ॥ १६ ॥ तथा हिजम्बूपपदभृद्द्वीपो निष्प्रतीपोऽस्ति संपदाम् । सूर्याचन्द्रमसौ द्वौ द्वौ यस्योद्योताय जाग्रतः ॥ १७ ॥ तीर्थकृज्जन्मभूमित्वात्ख्यातं तीर्थतया सताम् । तत्रास्ति भरतक्षेत्रं सत्रं सुत्रामपूःश्रियः॥ १८ ॥ देशः स्वर्गसमोद्देशस्तस्मिन् गौडोऽस्ति विश्रुतः । बिभ्रदापीडता पृथ्व्या विद्याविक्रीडयाऽद्भुतः ॥ १९ ॥ नगरं नगरङ्कत्वकारिमन्दिरमण्डितम् । तत्रासीत्स्वस्तिकाकारं पृथिव्याः पाटलीपुरम् ॥ २०॥ यस्य मध्ये विराजन्ते जिनप्रासादपङ्क्तयः । बहिर्गङ्गोमयस्तुङ्गाः परमोदकसंपदः ॥२१॥ एतत्पुण्यं पुरं यस्य स्थानेऽभूद्धर्मसाधनम् । स पाडलतरोः प्राणी कथं नैकावतारकः १ ॥ २२ ॥ तत्र वित्रासितारातिः संप्रतिजेंगतीपतिः। त्रिखण्डभरताभोगमण्डिताखण्डशासनः ॥२३॥ कृतज्ञेष्वग्रणीजैनधर्माम्भोनिधिचन्द्रमाः। आसीहासीकृतस्वर्गनायको निजसंपदा ॥ २४ ॥ युग्मम् ॥ ऐश्वर्य भरतार्द्धस्य विश्वविस्मयकारकम् । अव्यक्त्वं पालितायेन लेभे सामायिकादहो ! ॥२५॥ यतःकिं भणिमो महिमाए जिणिंदधम्मे अवत्तसामइए । भरहडवई दुमओ जाओ संपइनरिंदुत्ति ॥ १॥ सोऽन्यदा विदधद्राज्यं जगामोजयिनी पुरीम् । स्वदेशे हि नृपाः क्वापि कदाचित्कुर्वते स्थितिम् ॥२६॥ जीवन्तस्वामिप्रतिमारथयात्रामहोत्सवम् । कुर्वन्नस्ति क्षणे तस्मिन् श्रीसङ्घोऽनघभक्तिभृत् ॥ २७ ॥ विम्बं तत्र जिनेन्द्रस्य भद्रपीठोपरि स्थितम् । सर्वालंकृतिसंशोभि नानापूजाविराजितम् ॥२८॥
RRRREKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥३॥
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रथमः प्रस्ताव:
॥४॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
उपरि ध्रियमाणोधच्छत्रत्रयविशेषितम् । नृपाङ्गजकरस्थाभ्यां चामराभ्यां विराजितम् ॥ २६ ॥ दिव्यातोद्यततिध्वानाकारितैर्नागरवजैः। निजश्रेयोऽभिवृद्धयर्थ पूज्यमानं पदे पदे ॥ ३०॥ कीर्तिपात्रेषु दीनादिजनेषु च विशेषतः । ददद्भिर्मुदितस्वान्तः पुरोगैर्दानमद्भुतम् ॥ ३१ ॥ राजामात्यगणाधीशप्रमुखैमुख्यपूरुषैः । सर्वज्ञशासनोद्योतकारिभिर्निमितोत्सवम् ॥ ३२ ॥ महारथे जगज्जन्तुमनोरथसुरद्रुमे । निवेश्यागरुकपूरधूपधूपितविष्टपे ॥ ३३ ॥ भ्राम्यते सर्वशान्त्यर्थ नृपमन्त्रिगृहादिषु । अनेकसुन्दरीश्रेणिगीयमानगुणस्थितिः ॥ ३४ ॥ षड्भिः कुलकम् ॥ प्राच्यपुण्यानुभावेन रथोऽयं यस्य वेश्मनि । वजन याति स्वयं युग्ययुग्मेन प्ररितः पथि ॥३५॥ तद्दिने तेन तत्रैव धन्यंमन्येन देहिना । संस्थाप्य पूज्यते सर्वपूजामिभक्तिनिर्भरम् ।। ३६॥ फलताम्बूलवासोभिश्चन्दनै जनैस्तथा । श्रीमच्छ्मणसङ्घस्य भक्तिराधीयतेऽधिकम् ॥ ३७॥ पूज्यन्ते गुरवः शुद्धैर्विशेषात् सिचयादिभिः । यतो गुर्वचनायोगो नृजन्मन्येव जायते ॥३०॥ आस्तिकेषु च वात्सल्यं क्रियते मुक्तिदायकम् । गृहौचित्येन दीयन्ते दीनादिभ्यो धनान्यपि ॥ ३४ ॥ तस्मिन्नवसरे तत्र श्रीमदार्यसुहस्तिनः । युगोत्तमाः समाजग्मुर्दशपूर्वधुरंधराः ॥ ४० ॥ श्रीसङ्घाकारितास्ते तु रथयात्रामहोत्सवे । अभूवनग्रगा यस्माद् गुरुः सन्मार्गदर्शकः ॥ ४१॥ राजवेश्माङ्गणं प्राप्ते रथेऽथ पृथिवीपतिः । गुरून् दृष्वा तदा दाद्दथ्यौ वातायनस्थितः॥ ४२ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥४॥
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रथमः प्रस्ताव
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
असौ वाचंयमस्वामी मन्मनोऽम्भोधिचन्द्रमाः । क्वापि दृष्ट इवाभाति किंत्वेतन्न स्मराम्यहम् ॥ ४३ ॥ विमृश्यनिति भूभ" मूर्छया न्यपतद्भुवि । आः ! किमेतदिति वदन् मिमेल च परिच्छदः ॥ ४४ ॥ वीजितो व्यजनैः सिंच्यमानश्च चन्दनद्रवः। सस्मार प्राक्तनों जातिमुदस्थाच्च जवान्नृपः ॥ ४५ ॥ तं प्राग्जन्मगुरु ज्ञात्वा जातिस्मृत्या महीपतिः । आयासीद्वन्दितु वेगात्तदानन्दवशंवदः ॥ ४६ ॥ रथोपरि स्थितां नत्वा प्रतिमामहतो मुदा । पञ्चाङ्गस्पृष्टभूपीठः स ननाम गुरु पुनः ॥ ४७॥ . स्वकरौ कुड़मलीकृत्य ततः प्रोवाच पार्थिवः । कोऽहमस्मि प्रभो ! यूयं मा जानीताधुना न वा ॥४८॥ आचार्योऽप्यूचिवान् राजन् ! त्वां त्रिखण्डमहीपतिम् । कस्कोऽधुना न जानाति ? विवस्वन्तमिवोदितम् ॥ ४६ ॥ विश्वेऽधुना स्फुरत्युच्चे यधव्यवस्थितिः । भवतो यस्य माहात्म्याद्गुरोरिव गुणोन्नतिः ॥ ५० ॥ नैतद्भवपरिज्ञानं विभो ! पृच्छामि किं त्वहम् । स्वरूपं प्राग्भवस्यास्मि जिज्ञासुभवतोऽन्तिके ॥ ५१॥ राज्ञेत्युक्ते गुरुः स्माह ज्ञात्वा श्रौतोपयोगतः । भवे प्राच्ये महाराज ! त्वमासीदु गतेश्वरः ॥ ५२ ॥ अस्माकं संनिधौ प्राप्याव्यक्तसामायिकव्रतम् । तत्पुण्यस्यानुभावेन त्वमभूः संप्रतिनृपः ॥ ५३॥ ततः समग्रं भूपालचरित्रं प्राक्तनं गुरुः । आचख्यौ तत्र लोकानां समक्षं बोधिहेतवे ॥ ५४ ।। श्रुत्वा स्वरूपं भूपालस्तदा प्राग्भवसंभवम् । गुरु विज्ञपयामास सञ्जातप्रत्ययः सुधीः ॥ ५५ ॥ त्वं प्रसीद प्रभो! मह्य राज्यं स्वीकुरु सांप्रतम् । किञ्चिदप्यनृणीमावं स्वामिन्नहमपि श्रये ॥ ५६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ ५॥
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुद
प्रथमः प्रस्ताव:
पूर्व निर्हेतुकं कर्तु रुपकारं शरीरिणः । उपकुर्वन् जनः पश्चात्कोटय'शेन समो न हि ॥ ५७ ॥ धन्यः प्रागुपकुर्वीत धन्यो मन्येत तत्कृतम् । धन्यः प्रत्युपकुर्वीत त्रयोऽमी पुरुषोत्तमाः ॥ ५ ॥ आचार्योऽप्यवदद्राजन् ! कृतज्ञैकशिरोमणे । । वयं विमुक्तसावद्याः किं कुर्मो राज्यसंपदा १ ॥५६॥ औदार्य नृपतेरयं गुरोनिस्सङ्गता तथा । सीमानं परमं प्राप्तं द्वयमेतत्तदाऽजनि ॥६॥ परं राजन् ! जिनेन्द्रस्य शासनस्य प्रभावकः । सम्यग्धर्म समासाद्य भव त्वं भरतेशवत् ॥ ६१॥ ततो धर्मस्य जिज्ञासां विज्ञाय नृपतेः पुरः । गुरुभिर्विदधे तत्र देशना मोहनाशिनी ॥ ६२ ॥ तथा हि-- अकामनिर्जरायोगाभ्रमतात्र भवेऽङ्गिना । निरस्य कर्मणां भूयः कोटाकोटिमिताः स्थितीः॥ ६३ ॥ धर्मः सम्यग् जिनेन्द्रोक्तः समस्तसुखसेवधिः । चिन्तामणिवि प्रायः प्राप्यते कमलाघवात् ॥ ६४ ।। युग्मम् ॥ धर्मकल्पद्रुमः सम्यग्भावादाराधितः सताम् । ऐहिकामुष्मिकश्रीणां प्रापणे प्रतिभूर्भवेत् ॥ ६५ ॥ तस्य श्रीधर्मरत्नस्य महिमा मीयते कथम् ? । भुक्तिमुक्ती प्रदत्ते यः प्राणिनामेकहेलया ॥ ६६ ॥ तस्य धर्मतरोमूलं कूलं संसारवारिधेः । प्रोक्तं सम्यक्त्वमर्हद्भिस्तत्त्वश्रद्धानलक्षणम् ॥ ६७ ॥ यतःधम्मस्स होइ मूलं सम्मत्तं सव्वदोसपरिमुक्कं तं पुण विसुद्धदेवाइसव्वसद्दहणपरिणामो॥१॥ विना सम्यक्त्वरत्नेन व्रतानि निखिलान्यपि । नश्यन्ति तत्क्षणादेव ऋते नाथाद्यथा चमूः ॥ ६८ ॥ तद्विमुक्तः क्रियायोगः प्रायः स्वल्पफलप्रदः। विनानुकूलवातेन कृषिकर्म यथा भवेत् ॥६६॥
RXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥६
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
119 11
**************
ध्यानं दुःखनिधानमेव तपसः सन्तापमात्रं फलं, स्वाध्यायोऽपि हि वन्ध्य एव सुधियां तेऽभिग्रहाः कुग्रहाः । अश्लीलाः खलु दानशीलतुलना तीर्थादियात्रा वृथा, सम्यक्त्वेन विहीनमन्यदपि यत् तत्सर्वमन्तगंडु ॥ ७० ॥ अस्मादुत्कृष्टमन्यन्नो वस्त्वस्ति त्रिजगत्यपि । रत्नराज्यादिलाभेभ्योऽप्यस्य लाभोऽधिकः स्मृतः ॥ ७१ ॥ यतः - सम्यक्त्वरत्नान्न परं हि रत्नं सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् ।
सम्यक्त्वबन्धोर्न परो हि बन्धुः सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः ॥ १ ॥ संसारसागरस्तावदुदुस्तरः प्राणिनां भवेत् । तावद्दुः खोदयस्तीत्रो न यावद्बोधिराप्यते ॥ ७२ ॥ तिर्यग्नारकयोर्गत्योर्द्वारे सम्यक्त्वमर्गला । निर्वाणमानव स्वर्गसुखद्वारै ककुञ्चिका ॥ ७३ ॥ सर्वविदेवता मेऽस्तु सर्वदोषविवर्जितः । ज्ञानदर्शनचारित्रालङ्कृता गुरवस्तथा ॥ ७४ ॥ अर्हत्प्रणीतो धर्मश्च क्षमादिदशभेदभृत् । ईदृशः परिणामो यः सम्यक्त्वं तन्निगद्यते ॥ ७५ ॥ युग्मम् || मिथ्यात्वमोहनीयस्य क्षयादिभिरनेकधा । एवंविधपरीणामो जन्तोः पुण्योदयाद्भवेत् ॥ ७६ ॥ यतः - क्षायिकोपशमिकं प्रथमं तत्प्राहुरौपशमिकं च तथाऽन्यत् ।
क्षायिकं च निगदन्ति जिनेन्द्राः कर्मणः क्षयशमादिविभेदात् ॥ १ ॥ वश्येन्द्रियाः सकलजीवकृपालवो ये द्रव्यादिभावनिपुणाः सुगुणानुरागाः । औचित्य कृत्यनिरता गुरुदेवभक्ताः शङ्कादिदोषरहिताः सततं प्रशान्ताः ॥ ७७ ॥
(************************
प्रथमः प्रस्तावः
116 11
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
XXXX
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रथमः प्रस्ताव:
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
सर्वज्ञशासनसमुन्नतिसावधानाः संवेगरगसुभगाश्चतुराशयाश्च । ते प्राप्य पुण्यवशतः शिवसौख्यबीजं सम्यक्त्वमुत्तमतमाः खलु पालयन्ति ॥ ७८ ॥ युग्मम् ॥ योऽतीवशुद्धपरिणामविविक्तचेताः शङ्कादिदोषरहितो विषयेष्वसक्तः।
सत्यं तदेव मनुते खलु यजिनेन्द्रीतं भवेदनुपमो हृदि तस्य बोधिः ॥ ७९ ॥ अत्रान्तरे नरेशः श्रीसंप्रतिः कृतिनां वरः । श्रीगुरून मुकुलीकृत्य कराविति व्यजिज्ञपत् ॥८॥ सुरासुरगणाक्षोभ्यं श्लाघ्यं श्लाघ्यस्थितेरपि । केन पुण्यवता पूर्व सम्यक्त्वं पालितं प्रभो ! ॥ ८१॥ सम्यक्त्वपालनात्कस्य विश्वविश्वातिशायिनी। अभवच्च फलप्राप्तिर्लोकद्वयकृतोदया ॥ ८२॥ युग्मम् ॥ इत्याकण्यं नरेन्द्रस्य वाचं वाचंयमेश्वराः । क्षीराश्रवादिलब्धीनां निधयोऽभिदधुस्तदा ॥ ८३॥ सद्दर्शनमनासाद्य राजन् ! मुक्ति शरीरिणः । न गता न गमिष्यन्ति न च गच्छन्ति केचन ।। ८४ ॥ विरतेः स्खलितः प्राणी कदाचिन्मुक्तिभाग भवेत् । न पुनदर्शनाद्धृष्टः संयम पालयन्नपि ॥ ८५॥ यतःभट्टेण चरित्ताओ सुडुकरं दसणं गहेअव्वं । सिझंति चरणरहिआ दंसणरहिआ न सिझंति ॥१॥ याः काश्चित्सम्पदः श्लाघ्या यत्किश्चित्पदमद्भुतम् । आसादयन्त्यमी जीवास्तत्सम्यक्त्वभवं फलम् ॥८६॥ अर्हद्दासगृहस्थस्य तथापि शृणु भूपते ! । सदर्शनफलस्पष्टं दृष्टान्तं विष्टपाद्भुतम् ॥ ८७ ॥ तथा हिअस्त्यत्र भरतक्षेत्रे देशः स्वर्गनिवेशवत् । मगधाख्यो लसवश्रीदः सुमनोनन्दनस्थितिः ॥ ८८॥ ।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥८
॥
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
***
प्रथमः प्रस्ताव:
******************
पुरं राजगृहं नाम धाम तत्राखिलश्रियाम् । जगद्गुरुपदाम्भोजरजःपुञ्जपवित्रितम् ॥ ८ ॥ नितकोपकारित्वं विवेके कलहंसताम् । योगं परमहेलाभिरसत्यप्रियतां तथा ॥१०॥ भजन्तोऽप्यभजन्तश्च जना यत्र महाशयाः । स्याद्वादनृपतेमुद्रा नोत्सृजन्ति कदाचन ॥ १॥ युग्मम् ॥ यत्र सत्पात्रदानस्य सौभाग्यं दर्शयनिह । साक्षात् श्रीशालिभद्रोऽभूत् सदा देवाङ्गभोगभृत् ॥ २॥ प्रियालापाः प्रिया अष्टौ मुक्त्वाऽभूद्यौवनेऽप्यहो ! । मुनिर्धन्यो धनी धन्यो ब्रह्मगुप्तीनव श्रयन् ॥ १३ ॥ सुलसाऽऽसीत्सतीधुर्या सम्यक्त्वस्वर्णवर्णिका । यया जगत्त्रयस्त्रैणशीर्षे शेखरितं गुणैः ॥ ६४॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। तस्मिन् श्रीश्रेणिकः स्वामी नामीव गुणवृद्धिभूः । शुद्धसद्दर्शनस्वर्णवर्णिकानिकषोपलः । ६५ ॥ श्रीवीरचरणाम्भोजरजस्तिलकितालिकः । आसीदासीकृतारातिसन्ततिः प्रथितद्यतिः ॥ ६६ ॥ उत्सर्पिण्यामथो भावी प्रथमस्तीर्थनायकः । पद्मनाभः सुवर्णाभः श्रीमान् यो भरतावनौ ॥ १७ ॥ अभवचिल्लणा देवी देवीव भुवमागता । तस्य शस्यगुणोत्कृष्टा प्रिया प्रेमवती सती ॥ ८ ॥ शिश्राय मानसं यस्या मानसङ्गविवर्जितम् । श्रीमद्देवगुरुव्यक्तभक्तिहंसीव सर्वदा ॥ ६ ॥ अभयादिकुमाराख्यः साक्षादिव बृहस्पतिः। तस्य राज्यधुराधारः सचिवः समभूत् शुचिः॥ १०॥ द्विरावश्यककर्ता यो हर्ता सर्वापदां जने । त्रिकालं जिनपूजायामुद्यतः परमाहेतः ॥ १०१ ॥ विदधत् पौषधं शुद्धं प्रायः सर्वेषु पर्वसु । मज्जाजैन इति ख्याति लेभे सर्वातिशायिनीम् ।। १०२ ॥ युग्मम् ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
।।६॥
:
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
1120 11
तत्रैव नगरे श्रीमान् जिनधर्मप्रभावकः । उद्दामतममिध्यात्वतिरस्कारै कभास्करः ॥ १०३ ॥ स्वभ्रुजोपार्जितानेकद्रव्यकोटिव्य योज्ज्वलः । अर्हद्दासोऽभवत् श्रेष्ठी सम्यग्दृष्टिषु विश्रुतः ॥ १०४ ॥ युग्मम् ॥ मित्रश्रीश्चन्द्रश्रीश्च विष्णुश्रीरपरा पुनः । नागश्रीः पञ्चमी पद्मलता स्वर्णलता तथा ॥ १०५ ॥ विद्युल्लताभिघा कुन्दलतेति प्रथिताह्वयाः । आसंस्तस्याष्ट गेहिन्यो देहिन्य इव सिद्धयः ॥ १०६ ॥ सद्दर्शनमहारङ्गरङ्गमण्डपनाटिकाः । आद्याः सप्त पुनः कुन्दलता मिध्यात्वमोहिता ॥ १०७ ॥ व्यतीचारं गृहाचारं पालयन् कलयन् गुणान् । भुञ्जानः स सुखं ताभिः समं लेभे श्रियः फलम् ।। १०८ ॥ अवकेशी तरुः केषां केषांचिद्विषपादपः । नृभवः पुण्यलभ्योऽयमन्येषां देवभूरुहः ॥ १०६ ॥
बालकाभाः श्रियः कस्य कस्यचिज्जातिसन्निभाः । कस्यापि कदलीतुल्याः कस्य त्वाम्रतरूपमाः ॥ ११० ॥ यतः - काचिद्वालकवन्महीतलगता मूलच्छिदाकारणं द्रव्योपार्जन पुष्पिताऽपि विफला काचित्तु जातिप्रभा । काचित् श्रीः कदलीव भोगसुभगा सत्पुण्यबीजोज्झिता सर्वाङ्ग सुभगा रसाललतिकावत् कस्य संपद्यते ॥ १ ॥
अथा खिलसुरश्रेणिशीर्षे शेखरितक्रमः । जगत्त्रयजनाभीष्टघटना त्रिदशद्रुमः ॥ १११ ॥ अपश्चिमजिनाधीशो वैभारोर्वीधरोपरि । सर्वज्ञः समवासार्षीन्महर्षिश्रेणिसंश्रितः ॥ ११२ ॥ युग्मम् ॥ दुन्दुभीनां दिवि श्रुत्वा गम्भीरमधुरं ध्वनिम् । दृष्ट्राऽन्योन्यविरुद्धानां जन्तूनां सङ्गमं पुनः ॥ ११३ ॥ तदान्तर्मानसं दध्यावेवमुद्यानपालकः । लोकोत्तरमिदं किश्चिन्मां प्रीणयति सांप्रतम् ॥ ११४ ॥
KXXX
प्रथमः प्रस्तावः
1120 11
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रथमः प्रस्तावः
RRRRRRRRXXXXXXXXXXXXXX
इति चिन्ताश्चितस्वान्तो यावदग्रे व्रजत्यसौ । तावदालोकते स्मैवं विस्मयाविष्टमानसः ॥ ११५ ॥
छत्रत्रयं त्रिभुवनाद्भुतराज्यलीलासंसूचकं धवलचश्चलचामरालीः । इन्द्रध्वज विविधवर्णपताकिकाढ्य वप्रत्रयं रजतहेममणीमयं च ॥११६ ॥ सिंहासनं स्फटिकरत्नमयं सपादपीठं सुरासुरविचित्रविमानपङ्क्तिम् । चैत्यमं द्रतविमुद्रितविश्वतापं निस्तन्द्रचन्द्रवदनास्त्रिदशाङ्गनाश्च ॥ ११७ ॥ सर्वतु सत्कफलपुष्पभराभिराममाराममानमदनेकमहीरुहौषम । सोपानपद्धतिमनन्तपदाधिरोहनिश्रेणिकामिव विशेषविभक्तियुक्ताम् ॥ ११८ ॥ लोकत्रयोत्तमपवित्रचरित्रवन्तं देवाधिदेवममराधिपवृन्दवन्धम् ।
श्रीवर्द्धमानमसमानमहोदयिश्रीशोभायमानमभितश्च जगत्पुनानम् ॥ ११९ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ।। व्यचिन्तीति पुनस्तेन विरोधिप्राणिसङ्गमः। यो दृष्टः कारणं तत्र प्रभावोऽस्य महेशितुः॥१२०॥ यतः
सारङ्गी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यज्यन्ति, श्रित्वा साम्यकरूढं प्रशमितकलुषं श्रीजिनं क्षीणमोहम् ॥ १ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXI
११॥
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १२ ॥
*********
अथैतन्मनुजेन्द्राय श्री जिनेन्द्रागमादिकम् । निवेद्य हृदयानन्दि कृतकृत्यो भवाम्यहम् ॥ १२१ ॥ फलपुष्प स्फुरत्पाणिर्वनपालस्ततः परम् । विज्ञो विज्ञपयामास गत्वा राज्ञे जिनागमम् ॥ १२२ ॥ कर्णामृतवं वर्णगुरुराकर्ण्य तद्वचः । सर्वाङ्गीणमलङ्कारं तस्मै मौलिं विना ददौ ॥ १२३ ॥ चतुरङ्गबलाकीर्णः संकीर्णा पृथिवीं सृजन् । एवं वव्राज राजेन्द्रः प्रणन्तुं प्रभुमादरात् ॥ २२४ ॥ न्यपतन् पत्तयः पूर्वं प्रभुप्राप्तप्रसत्तयः । तनुत्राणपवित्राङ्गाश्वित्रकृच्छस्त्रपाणयः ॥ १२५ ।। प्राचलन्नचलप्रायाः सच्छाया गजराजयः । पञ्चवर्णपताकाभिर्मण्डिताः खण्डितारयः ॥ १२६ ॥ हेपारवप्रतिच्छन्दैः स्वच्छन्दै रोदसीतले । शब्दाद्वैतकृतश्चेलु र्हरयोऽपि स्योद्भूताः ॥ १२७ ॥ रथाः पृथ्व्यां व्रजन्ति स्म जयलक्ष्मीमनोरथाः । स्वचक्रचक्रचीत्कारवाचालितदिगन्तराः ॥ १२८ ॥ चिल्लाद्या महादेव्यः सुखारूढसुखासनाः । ऐयरुः पुरतो वीरवन्दनायोत्सुका इव ॥ १२६ ॥ नाना तूर्यवैर्बन्दिश्रेणीजयजयारवैः । कर्णेऽपि पतितं नैव तस्मिन् शुश्राव कश्चन ॥ १३० ॥ अर्हद्दासोऽपि सर्वद्धर्या वन्दितुं जिनमाययौ । आनन्दोद्गतरोमाञ्चकञ्चुकश्चतुराग्रणीः ॥ १३१ ॥ अथ प्रदक्षिणीकृत्य श्रेणिकः श्रीजिनेश्वरम् । स्तौति स्म भूयसी भक्तिभक्तभव्यभयापहम् ॥ १३२ ॥ अद्य भवत्त्रिभुवनाधिपते ! त्वदीयपादारविन्द विधिवन्दनकर्मणा मे । सद्धर्मबान्धव ! महीधवधोरणीभिः पूज्याधुना नरभवः सफलोदयश्रीः ॥ १३३ ॥
****
**********
प्रथमः
प्रस्तावः
॥ १२ ॥
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१३॥
XXXKXX
***************
धन्यास्त एव भुवि देव ! तवांघ्रिसेवाहेवा किनो नवनवाद्भुतभावतो ये । मन्यामहे परममसमान देहभूभारभूतजनुषः खलु देहिनोऽन्यान् ॥ १३४ ॥ एवं स्तुत्वा जगन्नाथं नरनाथो यथोचितम् । अलश्चक्रे निजं स्थानं दिवस्पतिसमद्युतिः ॥ १३५ ॥ अदासादयः श्रेष्ठवृषभा वृषभाविताः । यथाक्रमं जिनं नत्वा दत्तानन्दमुपाविशन् ॥ १३६ ॥ पञ्चत्रिंशद्गुणोदारगिरा श्रुतिसुधा किरा । अथैवं विदधे धर्मदेशनां वीरतीर्थकृत् ॥ १३७ ॥ अस्मिन्नसारे संसारे मराविव सुरद्रुवत् । धर्मोऽयं भूरिभिर्भाग्यैः प्राणिभिः प्राप्यते परम् ॥ १३८ ॥ तस्योत्पत्तिमहीपीठं दुर्लभो नृभवो भवेत् । प्ररोहजनकं बीजं बोधिरेव बुधैः स्मृतः ॥ १३६ ॥ अनुकूलानिलः प्रायः सुसाधुगुरुसङ्गमः । विशालमालवालं च विवेको हृदि निर्मलः ॥ १४० ॥ भवेत्सद्दर्शनं शुद्धं मूलमायतिकारणम् । तत्त्वातत्त्वविचारस्तु बन्धुरस्कन्धबन्धति ॥ १४१ ॥ दानशीलतपोभावा मुख्यशाखा इमाः पुनः । प्रशाखा विदुषो ख्याताः समतामृदुतामुखाः ॥ १४२ ॥ पल्लवाः कमलोल्लासाः सकलाः सकला नृणाम् । असमानि सुमानि स्युर्नृ नाक सुखसंपदः ॥ १४३ ॥ शुक्लध्यान ऋतूलास सिद्धिसौख्यं फलं पुनः । कदाचिद्यद्रसास्वादे क्लेशलेशोऽपि नो भवेत् ॥ १४४॥ षड्भिः कुलकम् ॥ प्राप्तोऽपि धर्मकल्पदुरीदृशो भाग्ययोगतः । विना पयःप्रवाहेण भवेत्क्षीणः क्षणे क्षणे ॥ श्रीजिनेन्द्रार्चनानीरप्रवाहस्तु प्ररूपितः । अतो यत्नवता भाव्यं तत्र प्राणभृता भृशम् ॥
१४५ ॥
१४६ ॥
*****
*****
प्रथमः प्रस्तावः
॥१३॥
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रथमः प्रस्ताव
॥१४॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
वाञ्छति स्वल्पकालेन पुमान् शिवफलानि यः। त्रिवेलं तेन यत्नेन पूजा कार्या जिनेशितुः॥१४७॥ जो पूएइ तिसंझं जिणिंदरायं तहा विगयदोस । सो तइयभवे सिज्झइ अह वा सत्तहमे जमे ॥१४८॥ एषा स्तोकाऽपि लोकानां विवेकेन कृता सती । महाफलाय जायेत काले जलदवृष्टिवत् ॥१४६ ॥ यतः
जिनपूजनं जनानां जनयत्येकमपि संपदः सकलाः ।
जलमिव जलदविमुक्तं काले शस्यश्रियो निखिलाः॥१॥ क्रूरकर्मद्रुमारामसमृलोन्मूलनक्षमा । पूजैव जगदैश्वर्यहेतुः सेतुर्भवाम्बुधौ ॥ १५० ॥
किं बहुनाऽर्हता पूजा बुधैरष्टविधा स्मृता । तत्तत्फलभरप्राप्तिव्यक्तमाहात्म्यशालिनी ॥ १५१ ॥ यतःपुष्पात्पूज्यपदं जलादिमलता सडूपधूमादिषवृन्दध्वंसविधिस्तमोपहननं दीपाद्धृतास्निग्धता । क्षेमश्चाक्षतपात्रतः सुरभिता वासात्फलादूपता, नृणां पूजनमष्टधा जिनपतेरौचित्यलभ्यं फलम् ॥१॥ द्रव्यभावप्रकाराभ्यां द्विधा संक्षेपतोऽर्चना । द्रव्यादनेकभेदा स्यादनन्ता भावतः पुनः ॥ १५२ ॥ आद्योत्कृष्टं फलं ख्यातमच्युतस्वर्गसंपदः । भावोत्कृष्टफलं त्वन्तमु हत्तेनापि नितिः ॥ १५३ ॥ यतःउक्कोसं दव्वथयं आराहियं जाइ अच्चुयं जाव । भावत्थएण पावइ अंतमुहूत्तेण निव्वाणं ॥२॥ एवमहेद्वचः श्रुत्वा कृत्वा मनसि वासनाम् । देवपूजाव्रतं लोकरनेकैः प्रत्यपद्यत ॥ १५४ ॥ कृत्यवित् श्रवणोत्तंसीकृत्य वीरजगद्गुरोः । वाचः सुधामुचश्चञ्चद्रोमाञ्चाञ्चितविग्रहः ॥ १५५ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४॥
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १५ ॥
*****
************
अर्हद्दासाभिधः श्रेष्ठी नैष्टिकश्रेणिशेखरः । प्रणम्य प्राञ्जलिर्भक्त्या प्रावदद्विदुराग्रणीः ॥ १५६ ॥ युग्मम् ॥ कार्या त्रिलोकीश ? मया त्रिकालं पूजा जिनेन्द्रस्य विशुद्धभक्त्या । चतुर्दशीमुख्य विशेषपर्व दिने पुरा शेषजिनार्चना च ॥ १५७ ॥
था चतुर्मासिक वार्षिकादिप्रसिद्धपर्वस्वपि शुद्धबुद्धया । स्नात्राभिषेकः स्वकुटुम्बलोकश्रितेन कार्यश्च महोत्सवौषैः ॥ १५८ ॥ सर्वेषु चैत्येषु जनेश्वराणां तथा नमस्कारविधिविधेयः ।
स्ववेश्मचैत्ये विधिनार्चनां च विधाय सङ्गीतमथो निशायाम् ॥ १५६ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
एवं मे निश्चयो भूयात्वत्प्रसादेन सर्वदा । स्थिरस्वान्तो व्रते भूयाः प्रशंशेसति तीर्थकृत् ॥ १६० ॥ प्रणम्य श्रीजिनाधीशं विधिना मगधाधिपः । मौलौ वतंसं पाणिभ्यां तन्वन् विज्ञप्तवानिति ॥ १६१ ॥ प्रभो ! धर्मस्य सर्वस्वं सर्वोत्कृष्टसुखप्रदम् । मम स्वरूपं न्यक्षेण सम्यक्त्वस्य प्रकाशय ॥ १६२ ॥ उवाच भगवानेवं देवानन्दात्मजस्तदा । विज्ञप्तो नरदेवेन देवाधीशादिपदाम् ॥ १६३ ॥ भगवद्भिर्जिनैः सर्वैर्धर्मसाधनमादिमम् । सम्यग्दर्शनमाम्नातं तदनेकविधं पुनः ॥ १६४ ॥ उक्तं चएगविह दुविह तिविहं चउहा पंचविह दसविहं सम्मं । एगविहं तत्तरुई निस्सग्गुवएसओ भवे दुविहं ॥ १ ॥
************************)
प्रथमः
प्रस्तावः
॥ १५ ॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुद
11 28 11
******
*********
खइयं खओवसमियं उवसमियं इय तिहा नेयं ।
स्वइयाइसासणजुअं चउहा वेअगजुअं च पंचविहं ॥ २ ॥
अभिग्रहिक भेदेमिध्यात्वं पञ्चधा स्मृतम् । अधर्मे धर्मसंज्ञादिभेदैर्दशविधं तथा ॥ १६५ ॥ त्रिविधं त्रिविधेनैतद्विमोक्तव्यं मनीषिणा । संसारमूलबीजाभं सम्यक्त्वे शुद्धिमिच्छता ॥ १६६ ॥ यतःता मिच्छत्तं भववुट्ठिकारणं सव्वहा विवज्जिज्जा । तं पुण समभिहियं णेगहा दुक्खतरुषीयं ॥ १ ॥ तथा
कवि मिच्छते पन्नत्ते ! गोयमा ! दसविहे । तंजहा - अधम्मे धम्मसन्ना १, धम्मे अधम्मसन्ना १ २, उम्मग्गे मग्गसन्ना ३, मग्गे उम्मग्गसन्ना ४, अजोवे जीवसन्ना ५, जीवे अजीवसन्ना ६, असाहूसु साहुसन्ना ७, साहसु असाहुसन्ना ८, असुत्ते सुत्तसन्ना ९, सुत्ते असुत्तसन्ना १० ॥ अभिग्गहियं १ अभिगहियं २ तह अभिनिवेसिअं चेव ३ । संसइय ४ मणाभोगं ५ मिच्छत्तं पंचहा भणिअं ॥ १ ॥ देवपूजातपोदानशीलादीनि शरीरिणाम् । सम्यक्त्वमिलितान्येव फलन्ति परमार्थतः ॥ १६७ ॥ उक्तं चदानानि शीलानि तपांसि पूजा सत्तीर्थयात्रा प्रवरा दया च । सुश्रावकत्वं व्रतधारणं च सम्यक्त्वमूलानि महाफलानि ॥ १ ॥ आचारैरष्टभिर्यस्य स्वान्तं निःशङ्कितादिभिः । पूतं स एव सदृष्टिप्रवरः प्रथितः सताम् ॥ १६८ ॥
K★★★★★
प्रथमः प्रस्तावः
॥ १६ ॥
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १७ ॥
*************
यथा यथार्हतां भक्तिः सद्गुरूणां च निस्तुषा । वर्द्धते दर्शनस्यापि नैर्मल्यं हि तथा तथा ॥ १६६ ॥ यस्य सद्दर्शनं शुद्धं पश्चात चारवर्जनात् । भवे भवे भवेदेष वर्द्धिष्णुमुखसङ्गमः ॥ १७० ॥ जैनेश्वरपदं चक्रपदमिन्द्रपदं तथा । प्रौढराजपदं प्राप्य क्रमेण शिवशर्मभृत् ॥ १७१ ॥ युग्मम् ॥ इत्यर्ह देशनां श्रुत्वा तत्वालोकप्रदीपिकाम् । मिथ्यात्वतिमिरध्वंसविशुद्धीभूतहृत्तदा ।। १७२ ॥ क्षपकश्रेणिमारूढः सप्तकक्षपणावधि । सम्यक्त्वं क्षायिकं चक्र े दृढं श्रेणिकभूपतिः ॥ १७३ ॥ युग्मम् ॥ arrest सम्यक्त्वं विमलीकृत्य दीपकम् । नत्वा जगद्गुरोरेवं विज्ञप्तिं विदधे तदा ॥ १७४ ॥ नाथौपशमिकादीनां सम्यक्त्वानां प्रसादय । विभागं मे ततः स्माह जिनस्तस्याग्रतः पुनः ॥ १७५ ॥ प्रदेशतोऽपि मिथ्यात्वदलिकानामवेदनात् । सम्यक्त्वमौपशमिकं प्रसन्नाम्बुसमं भवेत् ॥ १७६ ॥ क्षायोपशमिकं श्रेष्ठिन् ! तत्प्रदेशानुभूतितः । किञ्चित्कलुषनीराभं सद्दर्शनमुदीरितम् ॥ १७७ ॥ त्रिविधस्यापि पुञ्जस्य क्षयेन क्षायिकं स्मृतम् । सम्यक्त्वं सर्वथा शुद्धपयः पूरोपमं तथा ।। १७८ ॥ असंप्राप्तस्य मिथ्यात्वं सम्यक्त्वात्तु निपेतुषः । सासादनं भवेद्वम्यमानान्नानुभवोपमम् ॥ १७६ ॥ सम्यक्त्वा रसोत्कर्षवेदनाद्वेदकं मतम् । परेषां देहिनामेतद्दीपनाद्दीपकं पुनः ॥ १८० ॥ सासादनोपशमिके पञ्चकृत्व शरीरिणाम् । असंख्यात मिता वाराः क्षायोपशमिकं तथा ॥ १०१ ॥ क्षायिकं वेदकं च स्युरेकवारं भवोदधौ । अन्यानि प्रतिपातीनि विनान्त्यं दर्शनद्वयम् ॥ १८२ ॥ युग्मम् ॥
FXXXX
प्रथमः
प्रस्तावः
॥ १७ ॥
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १८ ॥
****
************
खाओक्स मोवसमिय सम्माणं भन्नए अह विसेसो । उवसमगो नो वेयइ पएसओ वावि मिच्छत्तं ॥ १८३॥ कलुषं व खओवसमी पसन्नसलिलं व उवसमियसंमी । खाइय सम्मद्दिट्ठी विन्नेओ विमलसलिलं व ॥ १८४॥ अंतमुत्तं मी उक्कोसजहन्नओ अ सव्वाणि । पणवारा उवसमिए असंखवारा खओवसमं ॥ १८५ ॥ श्रुत्वेत्यभिग्रहं श्रेष्ठी स्वीचक्र ऽथाईतः पुरः । जिनं जिनमतस्थांश्च विनाऽन्यं न नमाम्यहम् ॥ १८६ ॥ ततः श्रेणिक भूपाद्याः प्रणम्य परमेश्वरम् । तीर्थोद्योतोद्यता जग्मुः सानन्दाः स्वस्वमन्दिरम् ॥ १८७ ॥ अपश्चिमस्तीर्थपतिर्धरित्रीं पवित्रयन् त्रासितसर्वशत्रुः । अन्यत्र देशेऽथ शुभप्रदेशे भास्वानिव द्योतचिकीर्व्यहार्षीत् ॥१८८॥ भक्त्या त्रिर्जिनपूजनं विरचयन् षोढा द्विरावश्यकं तत्त्वातत्त्वविचारसारहृदयः सत्पात्रदानोद्यतः । अर्हद्दासगृही गृहागत इलाधीशाधिकः संपदा, निन्ये शासनमार्हतं निरुपमां प्रौढिं प्रभूतोत्सवैः ॥ १८६ ॥
॥ इति श्रीसम्यक्त्वकौमुद्यां तपोगच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरि श्रीमुनिसुन्दर सूरिश्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यपण्डित जिन हर्षगणिकृतायां प्रथमः प्रस्तावः ।। १ ।। ग्रन्थानम् २२ अक्षराणि २० ॥
॥ अथ द्वितीयः प्रस्तावः ॥
तस्मिन्नथ नृपादेशादेशे स्यान्मगधाभिधे । समस्तजनतानन्दी कौमुदीविदितोत्सवः ॥ १ ॥ वर्षद्वादशकप्रान्ते स स्यात् सिंहस्थवर्षवत् । जने जानपदी यस्माद्वयवस्था दुरतिक्रमा || २ ॥
द्वितीय प्रस्तावः
112=11
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१६॥
KKRIKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
स पुनर्जायते प्रायः कार्तिकेऽङ्गयात्तिंशान्तये । मासे वा सवसन्तोषी चतुर्मासकवासरे ॥३॥ महे महेला निखिलास्तु तस्मिन् कौसुम्भवस्त्रद्वयसंभृताङ्गयः । अनेकभोगाङ्गविशेषशोभासंजातसौभाग्यगुणप्रकर्षा ॥४॥X
द्वितीय
प्रस्तावः उदारशृङ्गाररसप्रगल्भा मनोज्ञवल्मा वनमध्यमाप्य । सृजन्ति पूजा कुलदेवतानां गायन्ति गीतानि समं सखीभिः॥५॥
क्रीडा विचित्रां रचयन्ति चारु कुर्वन्ति हर्षेण च नृत्यकृत्यम् । दानान्यमानानि परस्परेण यच्छन्ति तुच्छेतरकौतुकोत्काः ॥ ६॥ त्रिभिविशेषकम् ॥ नासौ भवेच्चेद्विषये तदा स्यान्महत्तरं विड्वरमाशु लोके ।
निहन्ति यस्मादिह पूज्यपूजाव्यतिक्रमो मङ्गलमङ्गभाजाम् ॥ ७॥ पुरेऽन्यदा धराधीशः कौमुदीमहहेतवे। पटहोद्घोषणामेवं कारयामास सर्वतः॥ ८॥ हंहो ! पौरजनाः ! यूयं प्रमोदोत्साहशालिनः । कुरुध्वं कौमुदीपर्व महोत्सवपुरस्सरम् ॥ ६ ॥ सर्वोऽपि सुन्दरीवर्गः सुन्दरीकृतविग्रहः । सुपर्वसुन्दरीशोभाविद्विषं वेषमाश्रयन् ॥ १०॥ उद्यानान्तर्जवाद्गत्वा कृत्वा देवीपदार्चनाम् । सद्यस्कहृदयानन्दिनैवेद्याद्युपहारतः ॥११॥ विचित्रगीतनृत्यादिक्रीडा पीडान्तकारिणम् । कुर्वन्नहर्निशं तत्र यथेष्टं तिष्ठतु ध्रुवम् ॥ १२ ॥ त्रिभिविशेषकम् ।। पुमांसः सकलाः केलिं कलयन्तु कलाविदः। पुरमध्येऽन्यथा राजग्राह्यभावो भविष्यति ॥ १३ ॥ यतःआज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणां गुरूणां मानखण्डना । वृत्तिच्छेदो दिजातीनामशस्त्रवध उच्यते ॥१॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥२०॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
आकर्योद्घोषणामेवमुररीकृतभूषणाः । लीलावत्यो वने गन्तुं सामग्री कुर्वते यथा ॥ १४ ॥ दूर्वामुर्वीतलाद्वाले ! स्थाले स्थापय सत्वरम् । चन्दनं चन्दने ! सज्जीकुरु देवाभिनन्दनम् ॥१५॥ प्रगुणीकुरु कल्याणि ! कल्याणाय कुटुम्बिनः । प्रीणितस्वबंधूकानि मधूनि च दधीनि च ॥ १६॥ वयस्ये ! त्वं प्रशस्यानि कुसुमानि समानय । विधूपमं विधेहि त्वं विदग्धे ! शीर्षशेखरम् ॥ १७ ॥ सैन्दरं विदुरे ! पूर सूरारुणमुपानय । सीमन्तिनीप्रियं येन कुर्वे सीमन्तमण्डनम् ॥१८॥ कार्यान्तरं तिरस्कृत्य कस्तूरों सखि ! मर्दय । गल्लस्थलेऽधुना येन विदधे पत्रवल्लिकाम् ॥११॥ कुन्तले ! कुन्तलोत्तंसं सप्रशंसं विधापय । मिश्रीकरोमि येनाहं कुसुमैरसमै रयात् ॥ २०॥ वारिणा हारिणा भद्रे ! द्रुतं द्रावय कुङ्कुमम् । अङ्ग रङ्गमयं कुर्वे सरङ्गाऽहं निजं यथा ॥ २१ ॥ तन्त्रङ्गि! सत्वरं देहि दिव्यानि वसनानि मे । पवित्रे शतपत्राक्षि ! पादुके घेहि पादयोः॥ २२ ॥ कजलं सजलं जामे ! सज्जीकुरु जवात्तथा । शलाकाशकलं बाले ! लोचनाञ्जनहेतवे ॥ २३ ॥ कस्तूरीविस्तरं मुश्च चतुरे ! बत रेऽद्भुतम् । सानन्दे ! स्पन्दसे किं न ? मुग्धे ! मन्दायसे मुधा ॥ २४ ॥ कर्पूरि ! गुरुक' रपूरपूरितमञ्जसा । लीलावति ! च ताम्बूलं रसालं लीलयाऽऽनय ॥ २५ ॥ एवमन्योन्यमालापैः सत्वरं स्त्रीजनवजम् । सामग्रीमखिलां कृत्वा वजन्तं वीक्ष्य कानने ॥ २६ ॥ अद्दासाभिधः श्राद्धो दध्यावध्यामधर्मधीः । कथं सपरिवारस्य भाविनी मे जिनार्चना ॥२७॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥२१॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
चतुर्मासकपर्वाद्य सर्वसत्कर्मकारणम् । सुधान्धसोऽपि कुर्वन्ति यत्र स्नात्रमहोत्सवम् ॥ २८ ॥ सर्वादरेण कतव्या जिनार्चाऽद्य विवेकिना । मयाऽपि निश्चयस्त्वेवं जगृहे जिनसंनिधौ ॥ २४॥ गृहिण्यो मे नपादेशाद्वजन्त्यः सन्ति कानने । समं स्वपरिवारेण कौमुद्यत्सववाञ्छया॥३०॥ ज्योत्स्नया वियुतश्चन्द्रो विद्युता वा पयोधरः । यथा न शोभते लोके गृहिणोऽपि तथा स्त्रिया ॥ ३१॥ इत्यन्तर्मनसं ध्यात्वा प्रोद्भुतप्रतिभस्ततः । विशालं कनकस्थालं नानामणिगणोज्ज्वलम् ॥ ३२ ॥ पाणौ कृत्वा गतो राजकुले सुभटसङ्कुले । ननाम च नृपं यावन्मुक्त्वा प्राभृतमग्रतः॥३३॥ अवदन्मेदिनीनाथस्तावदानन्दमेदुरः । निवेदय निदानं मे श्रेष्ठिन्नागमने निजे ॥ ३४॥ अथ श्रेष्ठी नमत्कायः सच्छायवदनाम्बुजः। स्वमौलौ शेखरीकृत्य पाणियुग्मं जगौ यथा ॥ ३५ ॥ नृदेवाद्य चतुर्मासीपर्व सर्वाधघातकम् । यत्र नन्दीश्वरे यात्रा सुपर्वाणोऽपि कुर्वते ॥३६॥ मयापि श्रीमहावीरजिनाग्रे जगृहे पुरा । समग्रपुरचैत्यानां विधिना पूजनव्रतम् ॥ ३७॥ साधूनां विश्वबन्धूनां वन्दनाऽभिग्रहस्तथा । समं स्वीयकुटुम्बेन सर्वेणामुष्य वासरे ॥ ३८॥ रात्रावेकत्र चैत्ये तु कृत्वा पूजां जगद्गुरोः। गीतनृत्यादिकं कार्य कार्यमित्यस्ति मे विभो! ॥ ३१ ॥ कौमुदीमहनिर्माणे त्वदादेशो जनेऽधुना। एवं सति यथा भावी व्रतभङ्गो न मे मनाग ॥ ४० ॥ यथा च भवदादेशः पालितः स्यान्नृपालक ! । आदिश्यतां तथाऽवश्यमार्हतश्रेणिभूषण !॥४१॥
॥२१॥
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुद
॥ २२ ॥
************************
एवं निशम्य वसुधाधवधोरणीन्द्रः श्रीश्रेणिकः सकललोकसुपर्वशाखी । चित्ते व्यचिन्तयदिदं प्रबलप्रमोदपुरपश्चितवपुः पुलकप्रपञ्चः ॥ ४२ ॥
अहो ! महामोहकरं विधूय महोत्सवं विस्मितविश्वमेनम् । अयं महात्मा दधते विशुद्धां सर्वज्ञधर्मे निजबुद्धिमेवम् ॥४३॥ पुण्यात्मनाऽनेन मदीयदेशः पुरं तथैतत्सकलं गृहं च । पवित्रितं चारुचरित्रभाजा जिनेन्द्रपूजोद्यतमानसेन ॥ ४४ ॥ एवंविधा भवेद्भूयांसो नगरे मम । पुमांसः सकलं राज्यं तदा हि सफलं भवेत् ॥ ४५ ॥ अथोवाच प्रजाधीशः प्रकटं श्रेष्ठिपुङ्गवम् । त्वं धन्यः कृतकृत्यस्त्वं श्लाघ्यं जन्म तवैव हि ॥ ४६ ॥ यस्त्वमेवंविधे विश्वप्रमादपदकारणे । अतुच्छोत्सवसंभारे धर्मकर्मणि कर्मठः ॥ ४७ ॥ प्रमादपरवान् प्राणी सांसारिकमहोत्सवे । जायमाने मवेद्भूम्ना प्रायो धर्मपराङ्मुखः ॥ ४८ ॥ तं तावत्क्रिया तावत्तावन्नियमधीरता । न यावद्देहिनां कार्यं भवेत्संसारसंभवम् ॥ ४६ ॥ त्वयैव मम साम्राज्ये प्राज्यता जाय तेऽखिले । अतस्त्वं सर्व सामग्र्या पूर्जा निश्शङ्कमाचर ॥ ५० ॥ स्वद्गृहिण्योऽपि कुर्वन्तु स्थिता निजगृहे पुनः । त्वया समं महाभाग ! जिनपूजा महोत्सवम् ॥ ५१ ॥ ममापि जायतां पुण्यं पुण्यं त्वदनुमोदनात् । कतु: साहाय्यदातुश्च शास्त्रे तुल्यं फलं स्मृतम् ॥ ५२ ॥ निगद्यैवं मणिस्थालं पश्चात्तस्मै नृपोऽर्पयत् । महान्तो धर्मकार्येषु न कुर्वन्ति प्रतिग्रहम् ॥ ५३ ॥ प्रसादं विशदं दत्वा ततः सन्मानपूर्वकम् । विससर्ज जवाच्छु ष्ठिपुङ्गवं मगधाधिपः ॥ ५४ ॥
10
******
द्वितीय
प्रस्तावः
॥ २२ ॥
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
द्वितीय प्रस्तावः
२३॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततोऽसौ गृहमागत्य गन्तुकामा वनं प्रति । निवार्य गृहिणीः सर्वाः सर्वज्ञार्चाचिकीर्षया ॥५॥ समं स्वपरिवारेण कृतस्नानादिकक्रियः । आश्चर्यपात्रं सर्वेषां स्नात्रोत्सवविधिं व्यधात् ॥५६॥ ___ केचिन्नाट्यविधि विधूतदुरितं श्राद्धा व्यधुः श्रद्धया, केचिद्गीतकला सुधैकमधुरामस्राक्षुरत्यादृताः।
केऽप्यातोद्यमनेकधा जिनपतेरग्रे तदा वादयामासुर्भावभृतश्च केऽपि विदधुर्बिम्बार्चनामष्टधा ॥५७॥ श्रीखण्डद्रवचर्च चतुरताभाजोऽसृजन् केचन, व्यक्ताः केऽपि च मङ्गलानि रचयाञ्चक्रुस्त्वखण्डाक्षतैः ।
कपू रागरुधूपधूमलहरीव्याप्तान्तरिक्षोदरे, तस्मिन्नाहतपुङ्गवे जिनगृहे स्नात्रोत्सवं कुर्वति ॥५८॥ युग्मम् ॥ ततः सर्वेषु चैत्येषु परिपाट्या जिनावलीः। विधिना पूजयन्नेष निनाय श्लाध्यता दिनम् ॥५६॥ विशेषेण निशीथिन्यां निजावासजिनालये। विधाय विधिवत्पूजां विडोजा इव भक्तिमान् ॥६॥ मरुजं विरजीकुर्वमात्मानं विदुराग्रणीः। आनन्दाद्वादयामास नादाचेनकृते पुनः ॥६१। युग्मम् ॥ स्पष्टभावाः प्रिया अष्टौ श्रेष्ठिनस्ताः पतिव्रताः । गीतनृत्यादिकं दिव्यं रचयामासुरादरात् ॥६२॥ अथाखिलपुरीलीलावतीवर्गो विनोदभाग् । उद्याने क्रीडति स्वैरं तदानी कौमुदीक्षणेः ॥६३॥ मन्त्रिणं वेत्रिणाऽऽकार्य नरेन्द्रो निद्रयोज्झितः । तस्मिन्नवसरेऽवादीदेवं क्रीडावशंवदः॥४ सविलासं विलासिन्यो यस्मिन् लीलावनेऽधुना । विलसन्ति विनोदार्थ गम्यते तत्र मन्त्रिराट् ॥६५॥ लीलावतीततिर्लीलास्तन्वती स्वैरिणी मुदा । आकर्षयेत्क्षणादेव योगिनोऽपि मनोमृगम् ॥६६॥ यतः
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२३॥
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ २४ ॥
**********
सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया । मनो न भिद्यते यस्य स योगी अथवा पशुः || १ || अभय: सचिवाधीशो निर्भयो नीतिवित्तमः । नृपोदितं वचः कर्णातिथीकृत्य न्यवेदयत् ॥६७॥ क्रीडन्तीषु प्रभो स्त्रीषु सांप्रतं गमने वने । विरोधो विविधैः सार्धं दुर्धरो नागरैर्भवेत् ॥ ६८ ॥ राज्यभ्रंशाय जायेत विरोधो बहुभिः सह । यथा वनविनाशाय बलवान् काननानलः ॥ ६९ ॥ यदुक्तम्बहुभिर्न विरोधव्यं दुर्जयो हि महाजनः । स्फुरन्तमपि नागेन्द्रं भक्षयन्ति पिपीलिकाः || १॥ मन्त्रिणोक्तमनाकर्ण्याखर्व गर्वैकपर्वतः । सावज्ञं व्यतनोद्वाचं मगधावसुधाधिपः ॥७०॥ उन्मूलिताशेषविपक्षपक्षलक्षोद्भवद्भूरितरप्रतापे । क्रुद्धे समृद्धे मयि मेदिनीशे, किं कतु मीशाः १ खलु ते वराकाः ॥७१॥ श्रुत्वेति नृपतेर्याणीं प्रमाणी मन्त्रिपुङ्गवः । वाचं विस्तारयामास न्याय मार्गप्रकाशिनीम् ॥७२॥ प्रत्येकमसमर्थानां पृथिवीनाथ ! जायते । सामर्थ्यं समुदायेन तृणानामिव देहिनाम् ॥७३॥ यतःबहूनामसमर्थानां समुदायो हि दुर्जयः । तृणैरावेष्टिता रज्जुर्जायते नागबन्धनम् ॥ १ ॥ समं तु समुदायेन विरोधो जायते तदा । यदा भाग्यविपर्यासो नृणामुदयमाश्रयेत् ॥७४॥ महाजनविरोधेन विनाशः स्याद्धररापतेः । अत्रार्थे शृणु वृत्तान्तं सुयोधनमहीपतेः ॥७५॥ तथा हि भरतक्ष हस्तिनागपुरे पुरे । आसीत् सुयोधनो राजा प्रजापालन पण्डितः ॥ ७६ ॥ कमलानघरूपश्रीः कमला कमलानना । अभूदन्तःपुरप्रष्टा प्राणेशा प्राणवत्प्रिया ॥७७॥
******
********
द्वितीय
प्रस्ताव:
॥ २४ ॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥२५॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX
गुणपालस्तयोः पुत्रः पात्रं सौभाग्यसंपदः । धामाधिकतया श्लाघ्यो लघीयानपि रत्नवत् ॥७॥ राजकार्यस्वतन्त्रोऽभून्मन्त्रीशः पुरुषोत्तमः । बलिवन्धननिष्णातः सत्यभामासमन्वितः ॥७॥ अभवत्सुभगाचारः कपिलो विपुलोदयः । शान्तिकर्मरतो भूपहितकर्ता पुरोहितः॥८॥ यमदण्डः प्रचण्डोऽभूदुर्गपालः स्फुरद्वलः । येन वित्रासितो लोके शास्त्रेऽभूत्तस्करध्वनिः ॥१॥ एकातपत्रसाम्राज्यं प्राज्यन्यायसमन्वितम् । स कुर्वन् सुखसंभारं बभार स्फारपुण्यभूत ॥२॥ अन्यदा मण्डितास्थानमण्डपस्यास्य भूभृतः । चरा विज्ञपयामासुरेवं प्रच्छन्नचारिणः ॥३॥ देशः पुण्यनिवेशस्ते प्रत्यर्थिपृथिवीभुजा । देवोपद्यते मत्तगजेन्द्रेणेव काननम् ॥८॥ विभो ! भवन्तः सौख्याब्धिमग्ना यद्गणयन्ति न । देशभङ्गप्रजापीडां तन युक्तं कदाचन ॥८॥ न देहेन न गेहेन न रूपेण न लीलया । प्रजानां रक्षणादेव राजा राजति केवलम् ।।८६॥ सुखं शेते सुखं भुङ्क्ते सुखं खेलति लीलया। प्रजाभ्यो धनमादाय दायाद इव निस्त्रपः ॥७॥ देशभङ्ग प्रजाध्वंसं यः पश्येत्तेजसोभितः । रौरवान्न परं तस्य स्थानमस्ति महीभुजः ॥८॥ चरवाचो निशम्यैवं स जगाद मदोत्कटम् । तिष्ठामि यावदालस्यनिद्रामुद्रितविक्रमः॥८६॥ स्वैरं चरन्त्यमी तावद्वैरिणो हरिणोपमाः । पञ्चवक्त्र इवोदन के पुनः कुपिते मयि १॥ 8 ॥ युग्मम् ॥ यतःतावत्स्वैरममी चरन्तु हरिणाः स्वच्छन्दसंचारिणो, निद्रामुद्रितलोचनो मृगपतिर्यावदगुहां सेवते ।
॥२५॥
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥ २६॥
उन्निद्रस्य विधूतकेशरसटाभारस्य निर्गच्छतो, नादे श्रोत्रपथंगते हतधियां सन्त्येव दीर्घा दिशः ॥१॥ एवमुक्त्वा ददौ दानं स तेषां पारितोषिकम् । उग्रसंग्रामनिष्णातान सुभटानेवमभ्यधात् ॥६॥ विशुद्धोभयपक्षाणां भो वीराः ! गुणशालिनाम् । सांप्रतं समयो वोऽस्ति वरणाय जयश्रियः॥१२॥ एतदर्थ मया नीता भवन्तो मे क्रमागताः । राज्यश्रीसंविभागेन वृद्धिं निश्छद्मचेतसा ॥ ९३ ॥ यद्यद्विलोक्यते वस्तु तत्तल्लात्वा प्रयत्नतः । सजीभवन्तु संग्रामविधये निधये श्रियाम् ॥ १४ ॥ भुक्त्वा राज्ञा समं भोगान् संग्रामे यः पराङ्मुखः । स भटः पातयत्येव स्वर्गस्थान सप्त पूर्वजान् ॥ ६५ ।। यतःशीतभीताश्च ये विप्रा रणभीताश्च क्षत्रियाः। तेन पापेन लिप्येऽहं यन्न हन्यां जयद्रथम् ॥१॥ निर्मायेति महोत्साहं वीराणां रणकर्मणे। सामग्री कारयामास नृपो वैरजिगीषया ।। ६६ ॥ पूजोत्सवा नृपावासे दिव्यास्त्रगजवाजिनाम् । पुरोधसा विधीयन्ते शान्तिकं कर्म कुर्वता ।। ६७ ॥ विघ्नोपशान्तये वीरनिं पात्रेषु दीयते । विधाभिर्विविधाभिश्च क्रियते देवताच
8८॥ पूज्यन्ते गुरवः सर्वैर्मान्यन्ते च महत्तराः । तोष्यन्ते स्वर्णदानेन बन्दिचारणमार्गणाः ॥ ६ ॥ दानेऽपि स्वर्णकोटोनाममन्वाना निजप्रियाः । सुभटाः सान्त्वयामासः प्रणामादेव पादयोः ॥ १०॥ अयुतं हस्तिनामेकं वाजिना तानि सप्त च । राजाऽपि सज्जयामास वैरिभिः सममाजये ॥ १०१॥ एवं विधाय सामग्री रणाय नरनायकः । गन्तुकामः समाहूय दुर्गपालं समादिशत् ।। १०२॥
॥२६॥
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥ २७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
भो भद्र ! भवता कार्य यत्नतो जनपालनम् । दुर्गरक्षाविधौ स्थेयं सावधानतया तथा ॥ १०३ ॥ राजकार्याणि वर्याणि कर्तव्यान्यपराण्यपि । यावदायाम्यहं गेहे पाणौकृत्य जयश्रियम् ॥ १०४॥ इत्युक्त्वा दुर्गपालस्य महीपालः पुरात्ततः । प्राचलज्जययात्रायै चतुरङ्गबलोल्वणः ॥ १०५ ॥ आरभ्य तद्दिनात्तेन जनानन्दप्रदायिना । रक्षणं कुर्वता यत्नात् सर्वः कोऽपि सुखीकृतः ॥१०६ ॥ आवर्जिता जवात्तेन नृदेवतनयादयः। नागरैः श्रेष्ठिभिः सार्द्ध साधुवादविधायिना ॥ १०७ ॥ अथापास्य द्विषद्वर्ग मिथ्यात्वमिव सन्मतिः । सद्दर्शनमिवारोप्य तद्देशे शासनं निजम् ॥१०८॥ पुरे प्रत्यागतस्तत्र सूत्रितानुपदोत्सवे । कतिभिर्वासरै राजा जयश्रीसङ्गमोज्ज्वलः ॥ १०६॥ युग्मम् ॥ तदा लोकः समग्रोऽपि संमुखं पृथिवीपतेः। विविधैर्विधृतानन्दः प्राभृते निभृतोऽगमत् ॥ ११०॥ प्राभृतानि पुरोधाय वृत्ति वैनयिकों दधत् । ववन्देऽथ नृदेवस्य स पादौ दलितापदौ ॥१११॥ दत्वा सन्मानमानन्दादवादीदिति तं नृपः । यूयं कुशलिनः सर्वे वर्तध्वं भो महाजनाः !॥११२ ॥ तैरूचे दुर्गपालस्य स्वामिन् ! न्यायमहोदधेः । प्रसादात्सुखिनोऽतीव वयं वर्तामहेऽधुना ॥ ११३ ॥ श्रुत्वैतद्वचनं राजा चिन्तामेवं दधौ हृदि । विस्मृत्यैभिरिति प्रोचे किं वा मेऽभूद्विपर्ययः १ ॥ ११४ ॥ ताम्बूलं दापयित्वा तु कियद्वेलाविलम्बतः । राज्ञा पृष्टा पुनः प्रोचुस्ते तथैव पुरीजनाः ॥ ११५॥ ततोऽन्तःकोपभृद्भपो भूतिच्छन्न इवानलः । अदर्शयन बहिस्तापं विससजे महाजनम् ॥ ११६ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२७॥
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ २८ ॥
*********
सृजन्नातोद्यनिर्घोषैः शब्दाद्वैतमयीर्दिशः । राजधानीमलश्चक्रे व्योमोल्लेखिध्वजाद्भुताम् ॥ ११७ ॥ युग्मम् ॥ ततः प्रभृति भूभर्तुरिति चिन्ता मनस्यभूत् । अहो ! सर्वपुरीलोकं स्वायत्तीकृतवानयम् ॥ ११८ ॥ तदसौ दुरभिप्रायी राज्यद्रोही च निश्चितम् । गुणाधिकाय भृत्याय प्रायो द्रुह्यन्ति यन्नृपाः ॥ ११६ ॥ अत एव उपायेन निर्ग्राह्यः केनचिन्मया । अन्यथा मम राज्यश्रीमूलनाशो भविष्यति ।। १२० ।। यतः - नियोगिहस्तापित राज्यभारास्तिष्ठन्ति ये स्वैरविहारसाराः । बिडालहस्तार्पितदुग्धपूराः स्वपन्ति ते मूढधियः क्षितीन्द्राः ॥ १ ॥
एवं strifer तस्थौ राजा तच्छललिप्सया । कस्याऽप्यग्रे न चाचख्यो तत्स्वरूपं कदाचन ॥ १२१ ॥ यतः - अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च । वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥ १ ॥ इङ्गिताकार मेधावी पुराध्यक्षत्रजाग्रणीः । तज्ज्ञात्वा चिन्तयामास कदाचिन्मानसे निजे ॥ १२२ ॥ अहो ! आजन्मवर्याणि राजकार्याण्यहं व्यधाम् । तथाऽपि पृथिवीनाथो दुष्टत्वं नैव मुञ्चति ॥ १२३ ॥ यमवञ्जगतीजानियः कार्यशतैरपि । आवर्जितोऽपि सौजन्यं भजते नैव जातुचित् ॥ १२४ ॥ यतः - काके शौचं द्यतकारेषु सत्यं सर्पे क्षान्तिः स्त्रीषु कामोपशान्तिः । क्लीवे धैर्यं मद्य तत्त्वचिन्ता राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ॥ १ ॥ कियत्येवं गते काले भूपालेन पुरोधसम् । सचिवं च समाहूय स्वाभिप्रायो निवेदितः ॥ १२५ ॥
*****:
द्वितीय
प्रस्तावः
॥ २८ ॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय
प्रस्ताव:
॥२६॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ताभ्यामप्यभिमेने तदैवयोगात्तथैव च । इति संश्रूयते लोके यतः सूक्तं पुरातनम् ॥ १२६ ॥ तादृशी जायते बुद्धियवसायाश्च तादृशाः । सहायास्तादृशा ज्ञेया यादृशी भवितव्यता॥१॥ अन्यदा कश्चनोपायं समायं तेत्रिभिः समम् । आलोच्य भूभृतः कोशे खात्रकर्म कृतं निशि ॥ १२७॥ कोशस्थितानि वस्तुनि शस्तान्यन्यत्र वेश्मनि । संस्थाप्य गुप्तं गच्छद्धिस्तैः पुनः पापकर्मतः ॥ १२८॥ पादुके पृथिवीमा मन्त्रिणा नाममुद्रिका । व्यस्मारिषत तत्रैव कण्ठसूत्रं पुरोधसा ॥ १२६ ॥ अथ प्रभाते भूभर्ता कैतवैकनिकेतनम् । दुर्गपालं समाहूय रोषवानित्यभाषत ॥ १३०॥ मन्प्रसादेन रे दुष्ट ! दुर्गपालपदश्रियम् । भुञ्जानः कुरुषे रक्षां लोके राजकुले न तु ॥ १३१ ॥ गृहीतानि गृहादद्य मदीयात्परमोषिणा । केनापि शस्तवस्तूनि सारभूतानि सम्पदः॥१३२॥ समलिम्लुचवस्तूनि तानि मे द्राग समपेय । पराभवं करिष्यामि नो चेचौरोचितं तव ॥ १३३ ॥ इत्यासाद्य नृपादेशं खात्रालोकनहेतवे । यमदण्डोऽवजद्यावत् संयुक्तः कतिभिर्जनैः॥१३४ ॥ तावत्खात्रमुखे तत्र पादुकामुद्रिकादिकम् । महीभृत्सचिवादीनामालुलोके. स भाग्यतः॥१३५॥ तान्यादाय स विज्ञाय नृपादीन् पश्यतोहरान् । अमन्दखेदवांश्चक्रे चिन्ताचश्चलता हृदि ॥ १३६ ।। अहो । यदि महीनाथो न्यायपाथोनिधिः स्वयम् । स्वकीयं वेश्म मुष्णाति समं च सचिवादिभिः ॥१३७ ॥ तदन्त्र केनचिद्धाव्यं निमित्तेन महीयसा । महतामीदृशी चेष्टा प्रायो भाग्यविपर्ययात् ॥ १३८॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२६॥
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥३०॥
KAXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
राजा यत्र स्वयं चौरः सहायाः सचिवादयः । एतन्मया पुरः कस्य स्वरूपं तन्निरूप्यते ॥ १३॥ ततः कोलाहलं श्रुत्वा समग्रोऽपि महाजनः । आयासीत्तत्क्षणादेव नृदेवसदनाङ्गणे ॥१४॥ समग्रमपि वृत्तान्तं कथयामास पार्थिवः । तस्मै विनयनम्राय कोपाटोपारुणच्छविः ॥१४१॥ नृपादेशात्ततः खात्रस्थानमालोक्य विस्मितः । महाजनो नमस्कृत्य नृपमेवं व्यजिज्ञपत् ॥१४॥ दुर्गपालस्य भूपाल ! दीयतां सप्तवासरी । आसुरीभावमुत्सृज्य चौरालोकनहेतवे ॥१४३ ॥ समस्तवस्तुसंभारं चौरं च न प्रयच्छति । अयं महीपते ! सप्तदिनानन्तरमेव चेत् ॥ १४४ ॥ तदा दण्डस्त्वया कार्यः कार्याकाविचारतः । तदुक्तं महतः कष्टात् प्रतिपन्नं च भूभुजा ॥१४५॥ एवं विधाय सम्बन्धं प्रणिपत्य च भूपतिम् । पुरीजनः समं तेन जगाम निजधामनि ॥ १४६ ॥ इतश्च दुर्गपालोऽपि राजमन्त्रिसुतादिकम् । निःशेष खात्रवृत्तान्तं ज्ञापयामास युक्तितः ॥ १४७ ॥ तेऽप्यूचुर्मा भयं कार्षीः सत्पक्षस्थापका वयम् । युक्तमेव करिष्यामो भूभृतो भवतोऽथवा ॥ १४८॥ यतोऽत्र न कदाऽप्यासीत्तस्करव्यापृतिः पुरे । न्यायनिष्ठे गुणश्रेष्ठे त्वयि रक्षाविचक्षणे ॥ १४६ ॥ साम्प्रतं तव राज्ञो वा भेदेन समभूत् पुरे । कौशागारे नरेन्द्रस्य प्रचारश्चौरसंभवः ॥ १५ ॥ तेन सम्यग परिज्ञाय गुणदोषविचारणाम् । न्यायमार्ग भणिष्यामो भूभृतोऽपि पुरो वयम् ॥१५१॥ पीत्वा तद्वाक्यपीयुषमेषोऽभाषिष्ट तोषवान् । सर्व भवत्प्रसादेन मम भव्यं भविष्यति ॥ १५२॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥३१॥
जानमपि ततः सर्व धूर्त्तवृत्तिं प्रवृत्तयन् । अकाषींनगराध्यक्षस्तस्करालोकनं पुरे ॥ १५३ ॥ अथाद्य दिवसे प्राप्य प्रातः पार्थिवसंसदम् । यमदण्डोऽनमद्यावत्तावदाह स्म भूमिभृत् ॥१५४॥ रे रे दुष्टमते ! दृष्टः क्रूरश्चौरस्त्वया क्वचित् । सकोपाय स भृपाय नत्वा विज्ञप्तवानिति ॥ १५५॥ सर्वत्रालोकितः स्वामिन् ! मया चौरः पुरादिषु । शुद्धधर्मप्रणेतेव परं दृष्टो न हि क्वचित ॥१५६ ॥ ततोऽब्रवीन्महीनेता तमेवं सेवकब्रुवम् । निरर्थकमियान् कालविलम्ब कुत्र तेऽजनि ॥ १५७ ॥ सोऽप्यवादीन्महादेव ! कथकेन कथा पथि । कथ्यमाना मयाऽश्रावि श्रवणानन्ददायिनी ॥१५८ ॥ एतावत्यलगद्वेला तेन मे विपुलाधिप ! । यतः कथारसप्रायो रसानामवधिः स्मृतः॥ १५ ॥ भूपः स्माह हसन् मृत्युर्यया स्वस्यैव विस्मृतः । तां कथां नियंथीभूय ममाग्रे कथयाधुना ॥ १६० ॥ आसाद्य स नृपादेशं सामाजिकबजप्रियाम् । प्रीतः प्रारब्धवानेवं कथा कथयितु यथा ॥ १६१ ॥ एकस्मिन् पृथिवीभागे गतोद्वेगेऽस्ति काननम् । वेश्मेव महतां सर्वसत्त्वानामुपकारकम् ॥ १६२ ॥ यस्मिन् विश्वजनाभीष्टसर्वतु फलसंपदा । कुर्वते स्वकुलीनत्वं कृतार्थ पृथिवीरुहाः॥१६३॥ नानाविहङ्गमग्रामा ग्रामाचारपरा इव । स्वैरमश्नन्ति सर्वत्र । पिबन्ति विलसन्ति च ।। १६४ ॥ तापसा वेतसाचारं विनीताकारधारिणः । मजन्तः पयसि प्रायो न त्यजन्ति कदाचन ॥ १६५ ॥ धर्मोपदेशपीयूषप्रपा तापतृषापहाम् । पालयन्त्यङ्गिवात्सल्यान्मुनयो विनयोज्ज्वलाः॥१६६॥ चतुभिः कलापकम् ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXVEERXXXWS
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय
सम्यक्त्वकौमुद
प्रस्तावः
॥३२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
वारिभिः पूरितं तत्र पवित्रं दूरितश्रमत् । आसीत सरोवरं राजहंसराजिविराजितम् ॥ १६७ ॥ विशालः सालनामाऽभूत् प्रोन्नतोऽपि नतोऽधिकम् । विटपी निकटे तस्य फलगौरवसंपदा ॥ १६८॥ यः फलानि नमन्नेव निर्विशेषं ददद्भुवि । औपम्यमुत्तमैरेव यदि प्रापत् कथंचन ॥ १६ ॥ तस्योपरि कृतावासा राजहंसाः परः शताः । आसन् पुत्रकलत्रादिकुटुम्बोत्कटचेतसः॥ १७० ॥ परागमोदितस्त्रान्ताः कविषु प्रथितप्रभाः। विवेकवन्तो ये ख्याता न स्युः सद्गतयः कथम् ॥ १७१ ॥ अन्यदा राजहंसेन ज्यायसा सर्वपक्षिणाम् । दीक्ष्य वल्लयङ्कुरं वृक्षमूलमभ्युद्गतं नवम् ॥ १७२ ॥ अभाणि तरुणश्रेणी हंसानां हितकाम्यया । एवढ्द्धेषु वृद्धत्वं यदनागतमूत्रिता ॥ १७३ ॥ युग्मम् ।। लताङ्कुरममुं वत्साः ! मूलं वोऽनर्थसन्ततेः । सुखप्रयाससंसाध्यं निमूलं कुरुत द्रुतम् ।। १७४ ॥ अन्यथा भवतां भावी सर्वेषां दुःखकारणम् । उच्छेद्या आदितो नूनं वैरिव्याधिविषाकुराः ।। १७५ ॥ युग्मम् ॥ इत्याकण्य मरालौघो लघीयान् दधिोऽवदत् । अहो! बिभेति वृद्धोऽपि भवानद्यापि मृत्युतः ॥ १७६ ।। अकस्माद्धयमस्माभिः कस्यावृद्ध ! विधीयते । को हि जानाति कि भावि भविष्यत्समये पुनः॥ १७७॥ निशम्यैवं वचस्तेषां दध्यौ वृद्धो द्विजोत्तमः । अहो ! अमी महामूर्खा यौवनोन्मादमेदुराः ॥ १७८ ।। मयोक्तं नैव मन्यन्ते मन्युवन्तो गुणावहम् । हितोपदेशमत्युग्रं कोपं कुर्वन्ति केवलम् ॥ १७६ ॥ युग्मम् ॥ यतःप्रायः संप्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । विलूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥१॥
CXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥३२॥
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ३३ ॥
******
**************
१८३ ॥
१८४ ॥
निगद्येति फले व्यक्तिर्भाविनीति विचिन्तयन् । ततस्तूष्णीं स्थितो वृद्धद्विजस्तस्थौ क्वचित्तरौ ॥ १८० ॥ कालान्तरेण संवृद्ध आरुरोह लताङ्कुरः । वृक्षोपरि परिक्षीणभाग्ययोगेन पक्षिणाम् ॥ १८१ ॥ लता वितानमालम्ब्य कश्चिद्वयाधाधमोऽन्यदा । चटितो मण्डयामास पाशं तत्र दुराशयः ॥ १८२ ॥ चारं चारं धरापीठे स्वच्छन्दं ते सितच्छदाः । विश्रामाय पुनः सायं समीयुस्तत्र पादपे ॥ मायापाशमजानन्तो निपेतुस्तत्र ते क्षणात् । नितम्बिनीनामङ्गेषु निर्विवेकहृदो यथा ॥ सर्वेषां कूजतां तेषां पाशेन विवशात्मनाम् । वृद्धोऽभ्यधात्तटस्थैौर्वीरुहस्थो हंसनायकः ॥ नोपदेशः कृतः पूर्व हे सुताः ! मे सुखावहः । सांप्रतं गतबुद्धीनां भवतां मृतिरागमत् ॥ वरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्यातो बुद्धिमत्ता । बुद्धिहीना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ॥ १ ॥ हे तात ! जीवनोपायं प्रसन्नीभूय देहि नः । सगद्गदमिति प्रोचुः शोचन्तस्ते स्वचेष्टितम् ॥ १८७ ॥ दयावानवदवृद्धो विशारदधुरन्धरः । उपायो दुर्लभो वत्साः ! विनष्टेऽथ प्रयोजने ॥ १८८ ॥ यतः - अज्ञानभावादथवा प्रमादादुपेक्षणाद्वचत्ययभाजि कार्ये ।
१८५ ॥
१८६ ॥ यतः -
पुंसः प्रयास विफलः समस्तो गतोदके कः खलु सेतुबन्धः ॥१॥ तथाऽपि मृतवद्यूयं तिष्ठत भ्रष्टसन्धयः । करिष्यत्यन्यथा व्याधो भवतां गलमोटनम् ॥ १८६ ॥ अकार्षु स्ते तथा तस्मान्मृर्खाः पश्चात्तु मन्वते । प्रातगृ हीतुकामस्तान् स व्याधः समुपागमत् ॥ १६० ॥
****
द्वितीय प्रस्तावः
॥ ३३ ॥
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ३४ ॥
***********
समाजं राजहंसानां मृतप्रायं विचेष्टितम् । सोऽपि विज्ञाय मूढात्मा मुमोचाथ तरोरधः ॥ १६१ ॥ सर्वेऽप्यनुक्रमं तेन यावन्मुक्ता अधोभुवि । तावदुड्डीय ते जग्मुट्ट द्रवाचा चतुर्दिशि ॥ १६२ ॥ व्याधोऽपि विफलारम्भस्ततः प्राप निजं गृहम् । भवन्ति प्रायशः पापा असंपूर्ण मनोरथाः || १६३ ॥ पक्षिणस्ते प्रमोदेन ध्वनन्तो मधुरध्वनिम् । ज्यायो हंसपदाम्भोजं प्रणिपत्यावदन्निति ॥ १६४ ॥ भवत्प्रसादपीयूक्यूषधाराऽभिषेकतः । अस्माभिर्जीवितं लेमे विभो ! भुवनवल्लभम् ॥ १६५ ॥ अहो ! वृद्धोपदेशस्य मुखे कटुकताजुषः । महौषधरसस्येव परिणामस्तु शीतलः ॥ १६६ ॥ वृद्धोपदेशममृतोपममादरेण ये स्वादुशीतलतमं कृतिनः पिबन्ति ।
ते राज्यजीवितसमृद्धिसुखानि चन्द्रगुप्तक्षमापतिरिव द्रुतमाप्नुवन्ति ॥ १६७ ॥ यतः - वृद्धवाक्यं सदा कार्य प्राज्ञैश्च गुणशालिभिः । पश्य हंसान् वने षडान् वृद्धवाक्येन मोचितान् ॥ १ ॥ ततः सितच्छदश्रेणी स्वच्छन्दानन्दधारिणी । वृद्धादेशविधौ निष्ठाः श्लोकमेवं तदाऽवदत् ॥ १६८ ॥ दीर्घकालं स्थिता यस्मिन् पादपे निरुपद्रवे । मूलादेवोद्गता वल्ली शरणाद्भयमागतम् ॥ १६६ ॥ विनष्टं मूलतः कार्यमित्यभिप्रायमात्मनः । सूचितो दुर्गपालेन न ज्ञातो भूभृता पुनः ॥ २०० ॥ इत्याख्यानमाख्याय स ययौ निजवेश्मनि । तदभिप्रायवानेव नृपोऽप्यन्तरःपुरं श्रितः ॥ २०१ ॥ ॥ इति प्रथमदिनकथा ॥
*****
द्वितीय
प्रस्तावः
॥ ३४ ॥
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
द्वितीय प्रस्ताव:
कौमुदी
॥३५॥
श्रेयस्कामः समाधाय प्रातःकृत्यं यथोचितम् । देवपूजादयादानपरमेष्ठिजपादिकम् ॥ २०२॥ रचितानेकशृङ्गारसारोदारवपुष्टमः । आस्थानी मण्डयामास द्वितीयेऽसि महीपतिः ॥ २०३॥ राजवर्गः समग्रोऽपि नृदेवं देवतामिव । नत्या प्रसादयामास स्वमनोऽभीष्टसिद्धये ॥ २०४ ॥ कृत्वाऽवसरविक्षेपं दुर्गपालगणाग्रणीः। प्रणनाम नृणां नाथं वार्नाथमिव नाविकः ॥२०५॥ रे! त्वया तस्करोऽदर्शि न वेति वदति प्रभौ । तेनोचे न मयाऽऽलोक्यालोक्यमानोऽपि स क्वचित् ॥ २०६॥ नृपोऽलपत् किमर्थ ते जाता कालविलम्बना । सोऽब्रवीत् कुम्भकारेण कथ्यमाना कथा श्रुता ॥ २०७॥ कथितं नरनाथेन यया रे ! विस्मृतस्तव । दुरन्तमरणातङ्कस्तां का कथयाधुना ॥ २०८ ॥ एवमादेशमासाद्य भूपालाद्दुर्गपालकः । ससंरम्भं सभालोकं कुर्वाणोऽचकथत् कथाम् ॥ २०६ ।। तद्यथाअस्मिन्नेव पुरे कुम्भकारः स्फारयशोभरः । नानाविज्ञानसंपन्नो वर्तते पाल्हणायः॥२१॥ प्रजापेभ्यो मुनिभ्योऽपि प्रजापतितया कथम् । नासौ वर्णाधिको वर्ण्यः स्यात् सर्वाश्रमपोषकः ॥ २११ ॥ आनीयानीय स न्यायान्मृतिको वृत्तिहेतवे । एकस्या एव मृत्खानेवतिन्या निकटे पुरः ॥ २१२॥ भाजनौघं सदाकारं कारं कारं निरन्तरम् । विविधैमधुरालापी विक्रीणाति क्रयाणके ॥ २१३ ॥ युग्मम् ॥ तस्य गेहेऽन्यदा कश्चित्साधुः सिन्धुः शमाम्भसः । वासार्थी सायमायासीत् सीमा ज्ञानक्रियावताम् ॥ २१४ ॥ विनयात्तं नमस्कृत्य कुम्भकृत शुभभावभृत् । शुश्रूषमाणः पप्रच्छ स्वरूपं पुण्यपापयोः ॥ २१५ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥३५॥
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
महर्षिस्तं बभाषेऽथ कारुण्यक्षीरसागरः । भद्रेऽयं तव जिज्ञासा वदत्यासन्नसिद्धिताम् ॥ २१६ ॥ धर्मार्थ देहिनो ज्ञानकष्टानुष्ठानतत्पराः । अधर्ममेव कुर्वन्ति विचारजडबुद्धयः ॥ २१७ ॥ यतःधर्मार्थ क्लिश्यते लोको न च धर्म परीक्षते । कृष्णं नीलं सितं रक्तं कीदृशं धर्मलक्षणम् ॥ १ ॥
वेदप्रामाण्यं कस्यचित् कत वादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः।।
संतापारम्भः पापहानाय चेति प्रध्वस्तज्ञाने पञ्चलिङ्गानि जाडये ॥ २१८॥ वधो धर्मो जलं तीर्थ गौर्नमस्या गुरुगृही। अग्निर्देवो द्विकः पात्रं येषां तैः कोऽस्तु संस्तवः ॥ १२ ॥ अहिंसासंभवो धर्मः स हिंसातः कथं भवेत । न तोयजानि पद्मानि जायन्ते जातवेदसः॥२२० ॥ वेदमन्त्रैहु ता यज्ञे यदि स्वर्यान्ति जन्तवः । इष्टैरिष्टद्युभिः पित्रादिभिस्तक्रियतां क्रतुः ॥ २२१ ॥ नागानमन्ति निर्जीवान जीवतो घ्नन्ति निदयाः। पुण्यं दवाग्निदानेऽपि मन्यन्ते तत्र केचन ॥ २२२ ।। आसतां बालिशास्तत्र नानाशास्त्रविदामपि । शौण्डानामिव वीक्ष्यन्ते निर्विचाराः प्रवृत्तयः ॥ २२३ ।। पूज्यन्ते देववत्तत्रोदुम्बरोखलादयः । अग्रकूरप्रदानाय वायसस्यापि पात्रता ॥ २२४ ।। जायन्ते योषितां कुक्षाववशा ये पुनः पुनः । सुरेभ्य इष्यते मूखैः पदं तेभ्योऽपुनर्भवम् ॥ २२५॥ येषां परिग्रहो दारधनधान्यादिगोचरः । यतन्ते ते गुरूभूय भूयसां भवतारणे ॥ २२६ ॥ यतः
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKKK
॥३६॥
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX*
अन्धो यथा विलगितः पथि यत्र धूतस्तस्य स्वरूपमविदन्नपि तेन याति ।
तबद्यदि प्रवरिवर्ति विचारवन्ध्यं सल्लोचनोऽपि तदसौ खलु देवदोषः॥१॥ अधर्मा स्वल्पधर्मा वा भूयो धर्माल्पपापभूः । शुद्धधर्ममयी चात्र चतुर्धाऽनुष्ठितिर्मता ॥ २२७ ॥ पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मवादिनाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ २२८ ॥ सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतत्पश्चपदस्थितिः । देशतस्तु गृहस्थानां धर्मोऽयं सर्वसौख्यदः ॥२२९ ॥ इत्यादिदेशनां श्रुत्वा स श्राद्धोऽजनि तत्त्ववित् । पापभीरुतया क्रूरारम्भसंरम्भवर्जकः ॥ २३ ॥ तस्यामेवान्यदा खानौ खनन पुण्यानुभावतः । निधानं धनभृत् प्रापन्निदानं शर्मणामसौ॥ २३१ ॥ तबलेन धनी जज्ञे लेभे ज्ञातिषु गौरवम् । दानं वेश्मानुमानेन ददौ दीनजने पुनः ॥ २३२ ॥ मन्दिरं विदधे नव्यं कैलासगिरिसोदरम् । नानादेशागतप्राणिश्रेणिवासाहभूमिकम् ॥ २३३ ॥ क्रमादुद्वाहयामास पुत्रपौत्रादिसन्ततीः । तादृक्लोकचमत्कारप्रौढोत्सवपुरस्सरम् ॥ २३४ ॥ ततोऽसौ शिल्पिनां श्रेणी प्रापद्राजप्रसादतः। महत्तरपदं यस्माद्धनं सर्वार्थसाधकम् ॥ २३५ ॥ यतः
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतिमान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता सच दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ॥१॥ पर कुलक्रमायातं शिल्पिकर्म न मुश्चति । वंशानुसारतः प्रायः पुमांसः स्युः क्रियोद्यताः ॥ २३६॥
R॥३७॥
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥३८॥
सामग्री प्रगुणीकृत्य मृदानयनहेतवे । एकदा तु मृदः खानि तामेव गतवानसौ ॥ २३७॥ जननी सर्वसौख्यानां तां खानि जननीमिव । माननीयामयं यावत् खनति स्म कुशादिभिः ॥ २३८ ॥ मयैवैतावतीं वृद्धि गमितोऽपि खनत्यसौ । मां कृतघ्न इवाद्यापि दुरधीरिति हेतुना ।। २३६ ॥ दुस्तटी विकटाकाराऽपतत्तस्योपरिद्रुतम् । स्वामिद्रोही कृतघ्नश्च किं कुत्रापि सुखी भवेत् ? ॥२४०॥ कटी भग्ना झटित्येव तथा तस्य यथा भवेत् । यष्टिं विनाऽयमुत्थातुं पटीयानपि न प्रभुः ॥ २४१ ॥ ततः कुम्भकृता तेन पतितेन महापदि । साक्षिकं सर्वलोकानां गार्थका पठिता यथा ॥ २४२॥ जेण भिक्खं बलिं देमि जेण पोसेमि अप्पयं । तेण मे कडिया भग्गा जायं सरणओ भयं ॥२४॥ अभिप्रायः पुनस्तेन स्वस्यैवं सूचितोऽपि हि । भूभृताऽसूययाऽऽक्रान्तचेतसा नावधारितः ।। २४४॥ एवं सभाजनं सर्व विधाय रसभाजनम् । स प्रणम्य महीनाथं जगाम निजधामनि ॥ २४५ ॥ राजाऽपि राजकार्याणि विचिन्त्य सचिवादिभिः। आस्थानी क्षणमास्थाय धवलागारमाश्रयत् ॥ २४६ ॥
॥इति द्वितीयदिनकथा ॥ तृतीयेऽथ दिने राज्ञा तथैवास्थानमीयुषा । पृष्टोऽसौ द्विष्टचित्तेन वदति स्म कथा यथा ॥ २४७॥ इहव भरतक्षेत्रे भूवधृतिलकोपमः । देशः पश्चालनामास्ति समस्तस्वस्तिपूरितः॥ २४८ ।। वरशक्तिपुरं तत्र स्वर्लोकव्यक्तिवर्णिका । अस्त्यानन्दपदं पुंसां भूलोकाम्भोजकर्णिका ॥ २४६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥३८॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ३६ ॥
********
**********
तस्मिन् सुधर्मभूपाल: कृपालुजनमण्डनम् । सुधर्माधिपवद्धर्यो बभूव सुमनोवजे ॥ २५० ॥ प्रजापः समितिप्रष्ठः क्षमाभारधुरंधरः । जज्ञे धर्मवतां मुख्यो यो राजा जैनसाधुवत् ॥ २५१ ॥ सद्दर्शनपरागाढ्ये मानसे विमलात्मनि । सदा लीलायते यस्य जिनधर्मसितच्छदः || २५२ ॥ अर्ह त्पूजादयादानैस्तीर्थयात्रार्हगौरवैः । येन पुण्यवता निन्ये गुरुतां जैनशासनम् ॥ २५३ ॥ तस्याजनि महादेवी देवीव दिव्यदीधितिः । श्रीजिनेन्द्रमताम्भोजहंसी जिनमतिः सती ॥ २५४ ॥ पात्रदानं गृहाचारचातुर्य पतिभक्तताम् । बाह्यमण्डनयुक्ताऽपि दधौ याऽन्तरमण्डनम् ।। २५५ ।। मन्त्री सर्वज्ञधर्मद्रुलवित्रीभूतचेष्टितः तस्यासीज्जयदेवाह्वश्चार्वाक मतवासितः ॥ २५६ ॥ यो देवगुरुधर्मादिस्वर्गसिद्धिसुखादि च । मिथ्यात्वोदयमूढात्मा न श्रद्धत्ते कथंचन ।। २५७ ॥ परं नरेन्द्रसंसर्गाच्छद्मना धर्मकर्मणि । सरङ्ग ं भजते बाह्य मुद्गशैलसमानहृत् ॥ २५८ ॥ यथा धर्मयं राज्यं तस्य पालयतोऽनिशम् । चरैरागत्य विज्ञप्तमन्यदा विनयानतैः ॥ २५६ ॥ विभो ! वसन् महापल्ल्यां गुहायामिव केशरी । लुण्टाकश्वरटः ख्यातविक्रम श्रीर्महाबलः ॥ २६० ॥ तनुते भवतो देशे स्वर्गोद्देशोपमेऽधुना । मन्दग्रह इवातङ्क' क्रूरदृष्टिबलोत्कटः ।। २६१ ॥ इत्याकर्ण्य नरेन्द्रेण मृगेन्द्रेणेव गर्जता । अखर्वगर्व संभारभारिणा भणितं यथा ॥ २६२ ॥ तावत्प्रचण्डदोर्दण्डो गजेन्द्र इव गर्जतु । चरटोऽयं निजाटोपाद्भापयन् जनतां मम ॥ २६३ ॥
**************************
द्वितीय प्रस्तावः
॥ ३६ ॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
द्वितीय
कौमुदी
प्रस्ताव:
॥४०॥
न यावत्संमुखं यामि दामिताखिलशात्रवः । आलस्यनिद्रया मुक्तश्चतुरङ्गबलोल्वणः ॥ २६४ ॥ यतःतावदगर्जन्ति मातङ्गा बने मदभरालसाः । कोपस्फुरितलाङ्कलो यावन्नायाति केसरी ॥१॥ सन्तोष्याभीष्टदानेन ततस्तश्विरपूरुषान् । सेनान्यं रणसामग्रय दिशन् दध्यो हृदि स्वयम् ॥ २६५ ।। राजाऽपि यो निजे देशे जनबाधामुपेक्षते । स मृत्वा याति पापात्मा धीवरेभ्योऽधमा गतिम् ॥ २६६ ॥ यस्मिन् जीवति सीमानमाक्रमन्ति द्विषो निजम् । स कथं गणयेद्भूमानात्मानं शस्त्रपाणिषु ॥ २६७ ॥ इदं तपो जपोऽप्येष व्रतमेतत्परं स्मृतम् । उपद्रवात्प्रजानां यद्रक्षणं यत्नतः प्रभोः ॥ २६८ ॥
एवं विचार्य चतुरङ्गबलैबलिष्ठः कृत्वा जिनेश्वरपदार्चनमष्टधा सः ।
सम्मान्य सद्गुरुमुखानगरीजनं च वव्राज वैरिविजयाय जयन्ततेजाः ॥ २६६ ॥ बजतो जययात्रायै स्वर्नदीवारिपूरवत् । अनीकं ववृधे तस्य वाहिनीभिः पदे पदे ।। २७० ॥ सेनान्याज्ञाममन्वाना जयश्रीलम्पटा भटाः । पूर्व वर्मनि गच्छन्तो गुरूनप्यतिचक्रमुः ॥ २७१ ॥ नालिकेरीपयः केचित् पपुः पीयूषसन्निभम् । वपुस्तापोपशान्त्यर्थं मृबीकानां परे रसम् ॥ २७२ ॥ ताडद्रुमद्रवं केचिदेहोन्मादैककारणम् । तत्रान्ये सुलभं मार्गे शीधु खजूरिकाभवम् ॥ २७३ ।। युग्मम् ॥ क्रमेण निजदेशस्य सीमानं प्राप्य भूपतिः । सेनान्या विश्रमाद्यर्थ स्कन्धावारमकारयत् ॥ २७४ ॥ यद्यस्ति सुभटंमानी भवान् दशयिता तदा । रणाङ्गणं समागत्य सद्यःप्रातर्निजाननम् ॥ २७५ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥४०॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्तावः
४१॥
kkkRXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
आयातमेव जानीहि तत्र मां दिवसोदये । इदं निवेदयामास प्रत्यर्थिनृपतेनृपः ॥ २७६ ।। युग्मम् । रजन्यामेव राजानौ निर्माय रणकर्मणे । सामग्रीमुत्सुकस्वान्तौ तौ वरीतुं जयश्रियम् ॥ २७७ ॥ प्रातः प्रौढद्विपारूढाविन्द्रोपेन्द्राविवोत्कटौ । चलच्चामररोचिष्णू लुलत्कुण्डलमण्डितौ ॥ २७८ ।। नव्यदिव्यातपत्राभ्यां वारिताहर्षतिद्युती । षट्त्रिंशतायुधैरिदै स्तन्वानौ लीलया श्रमम् ॥ २७६ ।। अहं पूर्विकया दानं ददानौ मार्गणबजे । शस्त्राधिष्ठायिनीदेवीः स्मरन्तौ मानसे निजे ॥ २८०॥ सुवर्णवर्मणोर्दीप्त्या दीप्यमानतनुश्रियौ । कोपाटोपोत्कटाकारौ चतुरङ्गचमूवृतौ ॥ २८१॥ अकाष्टी प्रबलं युद्धं क्षुभिताखिलभूतलम् । प्रधानपुरुषश्रेणिसंहारप्रलयोपमम् ॥ २८२ ॥ षभिः कुलकम् ॥ तमस्विन्येव तन्वन्त्या तमांसि द्विषतां बलम् । अथ विह्वलता नीत्वा मोहिन्या विद्ययाऽखिलम् ॥ २८३॥ क्रौञ्चबद्धं तमावद्धय गजेन्द्राच्चरटोत्कटम् । अपातयद्रणक्षोण्या सुधमक्षोणिपालकः ॥ २८४ ॥ युग्मम् ॥ देशाधिष्ठायिका देवी हृष्टा दुष्टानुशासनात् । तदानीं नृपतेमौलौ ववर्ष कुसुमोत्करम् ॥ २५ ॥ सैनिकैर्विदधे प्रीतैस्तदा जयजयारवः । विश्वं साराविणं चक्र जयदुन्दुभयस्तथा ॥ २८६ ॥ सचिवः शिवदेवोऽथ महाबलनृपाङ्गजम् । बलदेवं पुरस्कृत्य नानाप्राभृतसंभृतम् ॥ २८७ ॥ विनयाद्वामनी वृत्तिं दर्शयन् भूपतेः पदौ । आगत्य भृतलन्यस्तमस्तकः प्रणिपत्य च ॥ २८८॥ संतोष्य चाटुभिर्वाक्यैः स्वं स्वामिनममोचयत् । अमात्यस्यैव हि बलं यदापदि महीभुजाम् ॥२८६॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
॥४१॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥४२॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततस्तद्गृहसर्वस्वमादायो:दिवस्पतिः। आनन्दयन् जनपदं स्वपुरोपान्तमागमत् ॥ २६० ॥ सप्राभृतः पुरीलोकैः सहर्षेः सन्मुखागतः । संगतः कुरुते यावत् स प्रवेशं निजे पुरे ।। २६१॥ दुस्तटीव झटित्येव तावद्वप्रप्रतोलिका । अकस्मादेव सर्वाऽपि पपातोत्पातसूचिनी ॥ २६२ ॥ तां निरीक्ष्य तथाभूतां विहगाभावशङ्कितः । बहिरेव नराधीशस्तद्दिनं स्थितवान् पुरः ॥२६३॥ तत्क्षणादेव भूपालस्तां नवीनामकारयत । स्वर्गिणां मनसेव स्याद्राज्ञां वाचा यदीप्सितम् ॥ २६४॥ पुनः प्रवेशवेलायां द्वितीयेऽहनि साऽपतत् । अचीकर शचीशाभस्ता नव्यां नृपतिर्जेवात ॥ २६५ ॥ तृतीयेऽपि तथैवैषा यदा घस्र निपेतुषी । स्थिरीकृताऽपि यत्नेन नानोपायविधानतः ॥ २६६ ॥ तदा बहिःस्थितेनैव भूभुजा सचिवादयः। पृष्टाः केन प्रकारेण स्थिरैषा जायतेऽधुना ॥ २१७॥ परस्परं विमृश्याथ तैनृ पाय निवेदितम् । देव ! दिव्यदृशः स्माहुनिमित्तनिपुणा यथा ॥ २६८ ॥ पुराधिष्ठायिनी देवी भवन्तं प्रति कोपतः। प्रत्यहं पातयत्येतां प्रतोली वलिवाञ्छ्या ।। २६६ ।। यद्यकस्य मनुष्यस्य बलिरस्य प्रदीयते । तदानों जायते राजन् । निश्चलैषा प्रतोलिका ॥३०॥ निशम्यैवं वचो भूभृद्ध्यातवानिति मानसे । अहो! एषां विमूढत्वं कीदृग् पापैकशालिनाम् ॥ ३०१॥ येषामहद्वचोदीपो नो भिनत्त्यान्तरं तमः । पण्डिता अपि ते प्रायः पुमांसः स्युबैहिमुखाः ॥ ३०२ ।। सम्यग्मार्गमजानन्तो मिथ्यात्वतमसाञ्चिताः । निर्विवेकं विचेष्टन्ते देहिनो मद्यपा इव ॥३०३ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥४२॥
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥४३॥
*******
अथाभाषिष्ट तानेष कृपापीयूषपूरितः । नगरेण गरेणेव कार्य नास्त्यमुना मम ॥ ३०४ ॥ यत्कृते क्रियते प्राणिहिंसा दुर्गतिदायिनी । किं तेन कनकेन स्याद्येन कर्णच्छिदा भवेत् ॥ ३०५ ॥ एकजीववधोद्भूतात् पातकात् श्रभ्रपातकात् । हेमकोटिप्रदानेऽपि न शुद्धिर्जायते नृणाम् ॥ ३०६ ॥ यतः - मेरुगिरिकण दाणं धन्नाणं देइ कोडिरासीओ। इक्कं वह जीवं न छुट्टए तेण पावेणं ॥ १ ॥ यत्राहं विहितावासः सर्ववर्णसमन्त्रितः । जायते नगरं तत्र विचित्रावासमण्डितम् ॥ ३०७ ॥
अन्योऽपि मतिमान् यस्तु स्वात्मनो हितमीहते । कायेन मनसा वाचा कार्य तेनाङ्गिपालनम् ॥ ३०८ ॥ यतःन कर्तव्या स्वयं हिंसा प्रवृत्तां तां निवारयेत् । जीवितं बलभारोग्यं शश्वद्वाच्छन् महीपतिः ॥१॥ हिंसा विधीयमाना चेत् कल्पते शर्मकर्मणे । तदा विपरसास्वादो दद्याज्जीवितसंपदम् ॥ ३०६ ॥ यतः - सकमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्तादमृतमुरगवत्क्त्राज्जीवितं कालकूटात् । रुपगममजीर्णात्साधुवादं विवादादभिलषति वधाद्यः प्राणिनां सौख्यमिच्छेत् ॥ १ ॥ कृपाधर्मानुभावेन भवेयुर्नियतं नृणाम् | आरोग्यरूपसौभाग्यबलैश्वर्यादिसंपदः ॥ ३१० ॥ जीव हिंसाविरत्याख्यं यद्वतं गुरुसाक्षिकम् । अङ्गीचक्रे मया द्विविधत्रिविधात्मकम् ॥ ३११ ॥ प्राणान्तेऽपि न कुर्वेऽहं खण्डनं तस्य कर्हिचित् । व्रतभङ्गो ददात्येव घोरां नरकयातनाम् ॥ ३१२ ॥ नीचा इव गरीयांसो यद्यापदि निजं व्रतम् । विमुञ्चन्ति तदा तेषां को विशेषो भवेत्स्फुटम् १ || ३१३ ॥
****
****
द्वितीय
प्रस्तावः
॥ ४३ ॥
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुद
द्वितीय प्रस्तावः
॥४४॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
व्रतस्य स्थिरतामेवं विज्ञाय वसुधापतेः । आकार्य नगरीलोकमवोचन सचिवादयः ॥ ३१४ ॥. रुधिरामिषदानेन यदि कस्यापि देहिनः । विधीयते बलिदेव्यै नृपेण विधिपूर्वकम् ॥ ३१५ ॥ तदानीं स्थिरतामेति पूर्वद्वारप्रतोलिका । नैवेद्यादिककर्माणि जायन्ते त्वन्यथा वृथा ॥ ३१६ ॥ न करोति स्वयं राजा परं नैवानुमन्यते । कदाग्रहगृहीतात्मा प्राणिहिंसां कदाचन ॥ ३१७ ॥ यत्राहं नगरं तत्र जल्पन्निति दृढाग्रहः । स्कन्धावारपदे नव्यं पुरं कतु समीहते ॥ ३१८ ।। युग्मम् ॥ इति विज्ञाय युष्माभिः सर्वकार्यधुरंधरैः। विज्ञप्यं भृभुजे युक्त्या यद्युक्तं तद्विधीयताम् ॥ ३१॥ तेऽपि विज्ञप्तिमातेनुः प्रणिपत्य महीपतिम् । एकजन्तुवधः स्वामिन् बहथै विदुषां मतः ॥ ३२ ॥ यतःत्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्याथे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥१॥ यद्यस्ति भवतो जीवहिंसाविरतिमद्भुतम् । तदा वयं करिष्यामः सर्वमेतत्पुरः कृते ॥३२१ ॥ राज्ञोचे प्रजया यत्तु विधीयते शुभाशुभम् । षष्ठांशेन नरेशेन प्राप्यते तदसंशयम् ॥ ३२२ ॥ यतः
यथैव पुण्यस्य सुकर्मभाजां षष्टांशभागी नृपतिः सुवृत्तः।
तथैव पापादिकुकर्म भाजां षष्ठांशभागी नृपतिः कुवृत्तः ॥१॥ भूयोऽपि प्रजया प्रोचे पापभागोऽखिलोऽपि नः । केवलं भवतः पुण्यभागो भवतु भूपते ! ॥ ३२३ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥४४॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ४५ ॥
*********
एवं निशम्य वसुधाधिपतिः प्रजाया वाक्यान्यकार्य करण कपरायणायाः । सत्कमकर्मठमतिः सुचिरं चकार चित्तं विचारचतुरं कृपयावगाढः || ३२४ ॥ आरोग्यमिन्द्रियबलं पटुता शरीरे सौभाग्यमायुरतुलं सकलाधिपत्यम् । संगीयते निखिलजीवकृपासु पर्ववल्ल्याः फलं जिनवरैर्जगदेकनाथैः ॥ ३२५ ॥ लोकस्तथाऽपि कुगुरूदितमोहितात्मा सम्यग् जिनेन्द्रवचनेष्वनिविष्टचेताः । निन्द्यामवद्यवसतिं वितनोति हिंसां चित्तं महातिजननीमपि मङ्गलार्थम् ॥ ३२६ ॥ एवं विचिन्तयन् यावत् स्थितो मौनेन भूपतिः । अनिषिद्धं भवेन्नूनं प्रपन्नमिति बुद्धितः ॥ ३२७ ॥ ते द्रव्योद्ग्रहणं चक्र ः तावत्कार्यं चिकीर्षवः । प्रायेण यतते प्राणी सर्वः पापाय कर्मणे ।। ३२८ ॥ तेन द्रव्येण निर्माय महान्तं हेमपूरुषम् । सर्वाङ्गसुन्दराकारं नानाऽलङ्कारभारिणम् ॥ ३२६ ॥ शकटारूढमाधाय भ्रमन्तो निखिले पुरे । उद्घोषणां तदाऽस्नाक्षुस्ते जना वृजिनावृताः ॥ ३३० ॥ दीयते धनलक्षेण समं हेममयः पुमान् । अयं तस्मै नरेन्द्रेण दत्ते यस्तनयं निजम् ॥ ३३१ ॥ अथास्ति नगरे सर्वदरिद्राणां निदर्शनम् । भूदेवो वरदेवाख्यो निर्दयो मूर्खशेखरः ॥ ३३२ ॥ रुद्रदत्ता प्रिया तस्य रौद्राचारपरायणा । तनया विनयाधाराः सप्त सन्ति तयोः पुनः ॥ ३३३ ॥ भूदेवेनाथ जगदे निशम्योद्घोषणां तदा । लोभान्धचेतसा तेन रुद्रदत्ता स्वगेहिनी ॥ ३३४ ॥
********
*************
द्वितीय प्रस्तावः
॥ ४५ ॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ४६ ॥
******
************
इन्द्रदत्तं सुतं दत्वा कनीयांसं गृहेश्वरि ! । अयमादीयते द्रव्यसंयुतः स्वर्णपूरुषः ॥ ३३५ ।। आयोवः पुत्राः सांप्रतं सन्ति वेश्यमनि । दयिते ! सति कल्याणे भविष्यन्त्यपरे पुनः ॥ ३३६ ॥ नास्ति गेहे पुनः किञ्चिद्धनं सर्वार्थसाधकम् । तद्विहीना न शोभन्ते गृहिणः ससुता अपि ॥ ३३७ ॥ हे प्रिये ! धनमाहात्म्यं पश्य त्वं विश्वतोऽद्भुतम् । निन्द्योऽपि यत्प्रभावेण वन्द्यो भवति तत्क्षणात् ॥ ३३८ ॥ प्रतिपन्नं तयाऽप्येवं मात्राऽपि धनलोभतः । अहो ! संसारनैरस्यं स्वार्थः सर्वेषु यत्प्रियः ॥ ३३६ ॥ धृत्वाऽथ वरदेवेन पटहं कटरे कथि । ममेदं दीयतां सर्वं यथा वो दीयतेऽङ्गजः ॥ ३४० ॥ ततः पौरजनाः प्रोचुस्त्वया चेद्गलमोटनम् । क्रियते नृपतेरग्रे तदा सर्वमिदं तव ॥ ३४१ ॥ लोभग्रस्तेन तेनाऽपि तथेति प्रत्यपद्यत । अनुज्ञातं जनन्याऽपि धिग् संसारकुचेष्टितम् ॥ ३४२ ॥ ज्ञात्वा स्वरूपं तत्पित्रोरिन्द्रदत्तो व्यचिन्तयत् । अहो ! असारसंसारनैरस्यं किं निरूप्यते १ । ३४३ ॥ इन्द्रजालोपमेष्वत्र पितृमातृसुतादिषु । मुग्धा मुधैव कुर्वन्ति स्नेहं गेहं महापदाम् ॥ ३४४ ॥ सर्वेषां संसृतौ प्रायः स्त्रार्थ एव हि वल्लभः । निजार्थानामभावे स्युः स्वजनाः शत्रुसंनिभाः || ३४५ ॥ ईदृगेव स्वभावोऽयं क्षुधार्तस्याङ्गिनोऽथ वा । अनार्येष्वपि कार्येषु यन्मनो वल्गति द्रुतम् || ३४६ ॥ इति चिन्ताञ्चितस्वान्तं वरदेवो द्विजोऽङ्गजम् । दत्वा गृहीतवान् सर्वं तद्धनं धनलोभतः ॥ ३४७ ॥ यतः— हमूलानि दुःखानि रसमूलाश्च व्याधयः । लोभमूलानि पापानि त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भव ॥१॥
XXXXX
द्वितीय प्रस्तावः
| ॥ ४६ ॥
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥४७॥
******
ततः सद्वस्रताम्बूल भूषणादिविभूषितः । आनिन्ये पुरलोकेन स शिशुनृपतेः पुरः ॥ ३४८ ॥ सालङ्कारं सदाकारं विस्मेरवदनाम्बुजम् । दृष्ट्राऽभाषिष्ट तं भूपः सर्वेषां पश्यतामिति ॥ ३४६ ॥ किमर्थं कुरुषे हास्यं भो भद्र ! द्विजबालक !। लघोरपि भयं किं ते न चास्ति मरणादपि १ ॥ ३५० ॥ भणति स्मेन्द्रदत्तोऽपि राजानं मुदिताननः । अवश्यंभाविनो मृत्योः किं भयेन १ भुवः पते ! ॥ ३५१ ॥ तातेनोद्वेजितः सूनुर्मातरं शरणं श्रयेत् । पितरं शरणीकुर्यान् मातुरुद्विग्नमानसः ।। ३५२ ॥ उभाभ्यां पीडितस्त्राणं प्राणार्थी पार्थिवं व्रजेत् । पराभूतश्च तेनापि स्थानं कुर्यान्महाजनम् ॥ ३५३ ॥ समानशीलयुक्तेषु सर्वेष्वपि नृपादिषु । मादृशानामनाथानां कस्तदा शरणं भवेत् १ ॥ ३५४ ॥ यतः - माता यदि विषं दद्यात्पिता विक्रयते सुतम् । राजा हरति सर्वस्वं का तत्र परिवेदना १ ॥ १ ॥ अत एव भ्रुवो देव ! धीरत्वेन ममाधुना । अस्तु सर्वोपकाराय मरणं शरणं श्रियः ॥ ३५५ || किं नावधारितं नेतः ! श्रीजीमृतमहीपतेः । त्रिलोकचूडारत्नस्य चरितं सकलाद्भुतम् ॥ ३५६ ॥ दारिद्र्यमुद्रामुन्मुद्रय कल्पद्रुमप्रसत्तितः । निःशेषभूतलस्यापि निदानोज्झितदानतः || ३५७ ॥ शङ्खचूडद्विजिह्वस्य रचार्थ विनतात्मजात् । कृपया कल्पयामास यः स्वप्राणान् प्रियानपि ॥ मया तु निखिलस्यापि लोकस्य समहीभृतः । उपकारकृते स्वामिन् ! जीवितं दीयतेऽधुना ॥ ३५६ ॥ महानन्दमयं तेन वर्तते हृदयं मम । पुण्यैरेवेदृशं योगं पुमानासादयेत्कलौ ॥ ३६० ॥
३५८ ॥
*************************
द्वितीय
प्रस्तावः
॥४७॥
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥४८॥
KXXXXXXXXXXXXXXX*
वचः सौधरसं पीत्वा तस्यैवं शस्यचेतसः। उवाच वसुधाधीशः कृपाकल्पलतावृतः ।। ३६१ ॥ न मे कार्य पुरेणापि न प्रतोल्या प्रयोजनम् । ईदृशं क्रियते पापं यदर्थ दुःखदायकम् ॥ ३६२ ।। पवित्रेऽत्र महीपीठे विधास्ये नगरं नवम् । न तु प्राणिवधं कुर्वे सर्वज्ञमतविभ्रुवम् ॥ ३६३ ।। जानन्नपि वचो जैनं सम्यक्तत्वप्रकाशकम् । यः कुमार्ग व्रजेज्जन्तुर्वस्तु वृत्त्यान्ध एव सः ॥ ३६४ ॥ राजानं दृढधर्माणं सत्त्वाढ्य च द्विजाङ्गाजम् । तदा निरीक्ष्य हृष्टाऽभूत्प्रत्यक्षा पुरदेवता ॥ ३६५ ॥ अवादीदिव्यरूपा सा समक्षं संसदामिति । धन्योऽसि त्वं महीनाथ ! सनाथं च त्वया जगत् ॥ ३६६॥ यस्येदृशी दृढा बुद्धिर्जीवरक्षाव्रतस्थितौ । सुरासुरनराक्षोभ्या दृश्यते ते महात्मनः ॥ ३६७॥ प्रायः स्वल्पेऽपि कार्येऽपि सत्वहीनाः शरीरिणः । यतन्ते व्रतभङ्गाय तत्त्वातत्वविदोऽपि हि ।। ३६८ ।। सम्यग्ज्ञानक्रिया यस्य प्राणेभ्योऽप्यधिका मता । स श्लाघ्यो न भवेत् कस्य ? यथा पुण्याट्यभूपतिः ॥ ३६९ ॥ इन्द्रदत्त ! नमस्तुभ्यं ग्रामण्ये सत्त्वशालिनाम् । इन्द्रादयोऽपि कुर्वन्ति किं पुनर्मादृशो जनः१॥३७० ॥ इति प्रशंसनापूर्वं तयोरुपरि निर्ममे । सुपर्वा सुमनोवृष्टिं विष्टपाश्चर्यदायिनीम् ॥ ३७१ ॥ प्रतोली तत्क्षणादेव तया देवतया नवा । अकारि कनकाकारा विश्वविस्मयकारिणी ॥ ३७२ ॥ प्रवेशं नगरे तस्मिन्नुच्छ्रितध्वजशालिनि । ततः प्रजाव्रजानन्दी विदधे वसुधाधिपः ॥ ३७३ ।। इन्द्रदत्तोऽपि मान्योऽभूत्ततः सर्वत्र सत्त्वतः। परोपकारनिष्ठात्मा यदाप्नोति महोदयम् ।। ३७४ ।।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
RRRRIATKARI
॥४८॥
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥४४॥
KKARRAXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
वितीर्य सूनवे राज्यं क्रमेणाक्रान्तशत्रवे । स चारित्रधुरं भेजे त्रिदशैरपि दुर्वहाम् ॥ ३७५ ॥ आराध्य संयमं सप्तदशधा भूपतिस्ततः । वैमानिकसुरो जज्ञे कल्पे माहेन्द्रनामनि ॥ ३७६ ॥ एवं संसूचिताकूतविबोधविमुखं नृपम् । नमस्कृत्यागमद्धाम पुरारक्षमहत्तरः ॥ ३७७ ॥ राजाऽपि रचितानेकराजकार्यपरंपरः । अन्तःपुरपदं प्राप्य लेमे योगीव संमदम् ॥ ३७८ ॥
॥ इति तृतीयदिनकथा ॥ पुनश्चतुर्थेऽपि दिने राज्ञा पृष्टस्तथैव सः । उपाख्यानमिदं दक्षो व्याचख्यौ रचिताञ्जलिः ॥ ३७६ ॥ एकस्मिन् कानने जीणे संकीणे विटपवजैः। सरोभिर्वारिभिः पूर्णैः परितः परिवेष्टिते ॥ ३८० ॥ विदम्भा बहडिम्भाऽस्ति हरिणी हरिणान्विता । स्वैरं स्वादतणास्वादपयःपानप्रमोदिनी ॥ ३८१ ॥ सदाटव्यामटन्ती सा सयथा मृगगेहिनी । स्वैरं सुष्वाप चिक्रीड स्वरं प्राणप्रियाऽन्विता ॥३२॥ इतः कस्मिंस्तदासन्ने नगरे क्षितिमण्डने । अन्वर्थनामवान् भूमानभवत् शत्रुमर्दनः ॥ ३८३ ॥ सुबाहुप्रमुखास्तस्य तनया विनयान्विताः। भूयांसो वल्लभाः सन्ति नानाराज्ञीतनूद्भवाः॥ ३८४ ॥ अन्यदा केनचित्सूनोरेकस्याऽपि मृगामकः । आदाय काननात्तस्माद्विनोदायोदितद्यतिः॥ ३८५॥ अलङ्कारैरलंचक्रे रनगाङ्ग यनिर्मितैः । ग्रीवाशृङ्गाङ्ग्रिभागेषु राजसमृगशावकम् ॥ ३८६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥५०॥
ततश्च रमते तेन सर्वतोऽप्यस्खलद्गतिः । कुर्वन् कौतूहलाल्लीला भूपभूर्भू पवेश्मनि ॥ ३८७ ॥ मृगेण रममाणं तं सलील बहुकेलिभिः । विलोक्य तनया जहुरन्येऽपि मृगकाक्षिणः ॥ ३८८॥ कलावानपि यं भेजे क्रीडार्थमिव चन्द्रमाः। यं च दधे निजाङ्कन श्रीशान्तिर्भगवानपि ॥ ३८६ ॥ यस्तु लीलावतीनेत्राम्भोजसौभाग्यमाप्तवान् । सारङ्गः स कुरङ्गोऽपि कं न कुर्यात् सरङ्गकम् ? ॥ ३६० ॥ ततः पृथ्वीपतिः प्रोचे मन्युना तैरुदश्रुभिः । अस्मभ्यं देहि हे तात ! सारङ्गान् रङ्गदायिनः ॥ ३६१॥ भूभृताऽपि समाहूय व्याधाः सर्वेऽप्युदीरिताः । कुत्रचित्कानने सन्ति नानारूपा मृगा इमे ॥ ३१२॥ केनचित कथितं तेषु नाथ ! जीर्णाह्वये वने । सन्ति सारङ्गस्थानि पृथूनि विविधानि च ।। ३६३ ॥ व्याधवेषं ततः कृत्वा तदाकण्ये स्वयं नृपः । जगाम कानने तत्र मृगश्रेणिजिघृक्षया ॥ ३६४॥ तदनं विषमं वीक्ष्य हरिणग्रहणेषिणा । एवं विरचिता तेन बुद्धिधर्मविरोधिनी ॥३६५ ॥ चतुदिशि तटाकानां पालीः प्रस्फोट्य भूभृता । व्यधीयत तदुद्यानमभितः पयसा प्लुतम् ॥ ३६६ ॥ उद्यानं परितो गर्ताखननं निर्मितं तथा। वतिश्च जीर्णपत्राद्यैस्तत्रावालि दुरात्मभिः॥ ३६७॥ सर्वत्र मण्डिताः पाशा जीवाशाध्वंसिनस्तथा । धर्मवाधाकृतो व्याधाः स्थापिता विविधायुधाः॥३॥८॥ एवं कृत्वा नरेन्द्रेण धृत्वाऽनेकमृगाभकाः । अर्पिता निजपुत्राणां मोहः पापपदं यतः॥ ३६६ ॥ एवं विलोक्य केनापि पण्डितेन विवेकिना । जनानां प्रतिबोधाय तदानीं पठितं यथा ॥ ४०॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥५०॥
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
रज्ज्या दिशः प्रवितता सलिलं विषेण पाशैर्मही हुतभुजा ज्वलिता बनान्ताः।
व्याधाः पदान्यनुसरन्ति गृहीतचापाः कं देशमाश्रयति डिम्भयुता कुरङ्गी १ ॥४०१॥ कोधनः क रदृष्टिश्च यत्र राजा भवेत्स्वयम् । सेवकः सह लोकानां तत्र पीडा पदे पदे॥४०२॥ इतीरितकथाकूतमजानानं जनाधिपम् । प्रणिपत्य पुराध्यक्षः प्राप्तवानिजमन्दिरम् ॥ ४०३ ॥ राजा राजसभातीतः करणस्थितिमुक स्वयम् । आत्मेव परमानन्दं लेभेऽन्तःपुरमागतः ॥ ४०४ ॥
॥ इति चतुर्थदिनकथा ॥ पञ्चमेऽपि दिने राज्ञा व्याहृतोऽथ तथैव सः । कथामेवं नमत्कायः सच्छायवदनोऽवदत् ॥ ४०५॥ गौडदेशावनीभालतिलके पाडलीपुरे । वस्तुपालः प्रजापालः कल्पसालोऽभवद्भुवि ॥ ४०६ ॥ प्रार्थनावर्जितं दानं दृष्टा यस्यार्थिनां सदा । मात्राधिकं मरु जग्मुर्तीणा इव सुरद्रमाः॥ ४०७ ॥ भारतीभूषणस्तस्य भारती हृदि भूषणम् । विद्वज्जनशिरोरत्नं मन्त्र्यभूमिविश्रुतः ॥ ४०८ ॥ प्रज्ञानवनवोल्लेखान मनीषी क्षितिभृत्सदा । कारं कारं कवित्वानि महाथ न्द्रिवत् ॥ ४०॥ अर्थापयति विद्वद्भिर्नानादेशसमागतः। मानाधिकः प्रदानश्च प्रीतः प्रीणाति तानलम् ॥ ४१०॥ युग्मम् ॥ ततोऽसौ नृपतिजज्ञे सर्वत्र ख्यातिभाजनम् । सभाजितोऽभितो नानापण्डितै विश्वमण्डनैः ॥ ४११॥ हीनोऽपि प्रौढिमाप्नोति किं पुनः पृथिवीपतिः १ । तादृग्विद्यारमादारैः क्षणादेव त्रिभिर्गुणैः ॥ ४१२ ॥
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥५२॥
XXXXXXXXXXXXXXXX
आत्मनो भूषणं विद्या शरीरस्य हरिप्रिया । दानस्योदारता शीलं पुनः सर्वस्य भूषणम् ॥ ४१३ ॥ एकदान्तःसमं विद्वद्गोष्ठयां सचिवपुङ्गवः । बहुधाऽषयत्पद्यं भूभृतः प्रतिभाबलात् ॥ ४१४॥ राजाऽपि विदधे दोषोद्धारं काव्ये स्वबुद्धितः । मन्त्रिणा तु विशेषेण तददृषि पदे पदे ॥ ४१५ ॥ एवं तयोश्चिरं विद्यामदाध्मातेकचेतसोः । गुणदोषविचारेण विवादोऽभूदरुन्तुदः ॥ ४१६ ॥ कुपितेन ततो राज्ञा बन्धयित्वा दृढं करौ । गङ्गापगापयःपूरे प्रक्षिप्तः सचिवो निशि ॥ ४१७ ॥ प्राचीनपुण्ययोगेन स पपात स्थलोपरि । सहायो धर्म एवास्ति यतः सर्वत्र देहिनः ।। ४१८॥ व्यचिन्ति मन्त्रिणा तत्र स्थितेन न कविं कविः । क्षमते लोकरूढिर्या राज्ञा सत्यीकृता तु सा ॥४१६ ॥
शिष्टाय दुष्टो विरताय कामी निसर्गतो जागरकाय चौरः ।
धर्मार्थिने कुप्यति पापवृत्तिः शूराय भीरुः कवये कविश्च ॥४२० ॥ अथागमत्पयःपूरस्तत्राकस्माद्दुरुत्तरः। उपरिष्टान्महामेघपुष्टवृष्टिसमुद्भवः ॥ ४२१॥ वारिपूरेण तेनाशु प्लाव्यमानेन मन्त्रिणा । अवादि प्राकृतं पद्यमिदं हृदि मुदावहम् ॥ ४२२ ॥ यथारोहंति जेण षीयाई जेण तप्पंति पायवा । तस्स मज्झे मरिस्सामि जायं सरणओ भयम् ॥१॥ एतद्गाथानुभावेन मन्याश्रितमहीतटम् । विहाय पयसा गन्तुमारब्धं नीचवर्मना ॥ ४२३ ॥ अधोऽधना जलं वीक्ष्य वहमानं सविस्मयः । पुनः पद्यमिदं ब्रूते स तदा सुस्थमानसः॥४२४ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥५२॥
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्तावः
॥ ५३॥
KRRRXXRXXXXXXXXXXXXXX
शैत्यं नामगुणस्तवैव भवतः स्वाभाविकी स्वच्छता, किं ब्रमः ? शुचितां ब्रजन्त्यशुचयः सङ्गन यस्यापरे । किं चातः परमस्ति ते स्तुतिपदं ? त्वं जीवितं देहिनां,
त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः ! कस्त्वां निरोर्बु क्षमः ? ॥१॥ बहिम क्तः क्षणादेव बदन्नेवं पयःस्तुतिम् । मन्त्रिराजः सरिदेव्या तत्पुण्याकृष्टचेतसा ॥४२५ ॥ तत्र मुक्तश्चरः कश्चित् स्वरूपं मन्त्रिणोऽखिलम् । राज्ञे विज्ञपयामास यथावद्देवताकृतम् ॥ ४२६ ॥ ततो दध्यौ धराधीशो विरूपं विदधे मया । आश्रितेचिता नैव गुणदोषविचारणा ॥ ४२७ ॥ यतः
चन्द्रः क्षयी प्रकृतिवक्रतनुर्जडात्मा, दोषाकरः स्फुरति मित्रविपत्तिकाले।
मूर्ना तथाऽपि विधृतः परमेश्वरेण, न ह्याश्रितेषु महतां गुणदोषचिन्ता ॥२॥ ततो मन्त्री समाहृय प्रसन्नेन महीभृता । सत्कृत्य बहुमानेन स्थापितः प्राक्तने पदे ॥ ४२८ ॥ कोपनीयो महीजानिन नर्मवचनैरपि । इति चिन्तापरो मन्त्री राजकार्यकरोऽभवत् ॥ ४२६ ॥ क्रमादवसरं प्राप्य राज्यभारधुरं निजाम् । न्यस्य पुत्रे स्वयं जज्ञे मन्त्री जैनमुनिर्महान् ॥ ४३० ॥ दुर्लभां धर्मसामग्री यः प्राप्य स्वात्मनो हितम् । न कुर्यात् समये किश्चिद्विवेकी स कथं मतः १॥ ४३१ ॥ एवं कां महीनाथ ! शृण्वतो बुधसंसदि । समाऽभूत्समयक्षेपो दुर्जयं हि श्रुतीन्द्रियम् ॥ ४३२ ॥
॥ ५३॥
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥५४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX*****
इति प्रकाशितस्यापि रहस्यस्य पराङ्मुखम् । प्रणम्य वसुधाधीशं दुर्गपालोऽगमद्गृहम् ॥ ४३३ ॥ विषयग्रामसंवन्धिचिन्तां त्यक्त्वाऽथ भूपतिः। आत्मावासं श्रयन भेजे स समाधिं सुसाधुवत् ॥ ४३४ ॥
॥ इति पञ्चमदिनकथा ॥ भूभुजाऽथ दिने षष्ठे पृष्टः पूर्वमिवावदत् । पुरारक्षस्तदाख्यानं संख्यावत्कौतुकप्रदम् ॥ ४३५॥ कुरुदेशावनीखण्डमण्डनं पण्डितप्रियम् । पुरं नागपुरं रम्यं पुन्नागावलिशालितम् ॥ ४३६ ॥ तत्रासीन्त्रासितारातिः सत्ततिप्रीतिपूरकः । सुभद्राख्यः क्षमापालः सुभद्रापतिविक्रमः ॥ ४३७ ।। तस्य चेतोविनोदाय कपयः सन्ति भूरयः । भूयः क्रीडाभृतोऽतुल्यचापल्यजितवायवः ॥ ४३८ ॥ चञ्चलेस्तैर्विशामीशो यथा स्त्रीलोचनाञ्चलैः । आकृष्टो रममाणः स्वं विसस्मार कुधीहितम् ॥ ४३६ ॥ भूपप्राप्तप्रसादानां तेषामुपप्लवं पुरे । कुर्वतामपि नो कश्चिद्विवाधां कुरुते भयात् ॥४४०॥ राज्ञाऽथान्तःपुरीक्रीडाहेतवे नूतनं वनम् । चम्पकाशोकपुन्नागनारङ्गकदलीमयम् ॥ ४४१॥ तमालतालहन्तालविशालं सालशालितम् । अकारि सुखकारिश्रि भद्रशालवनोपमम् ।। ४४२ ॥ युग्मम् ।। तस्मिन्नरेश्वरः शश्वत स्वान्तःपुरपरीवृतः । लीलायते मरालीभृन्मराल इव हर्षलः ॥ ४४३ ॥ तत्रान्यदा तरुभ्रशं कपयश्चापलाश्चिताः । कुतोऽप्यागत्य कुर्वन्ति शीधुपानमदोल्वणाः ॥ ४४४ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ ५४॥
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुद
द्वितीय प्रस्ताव
॥ ५५ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
उपद्रवन्तः सोद्रेकाः सर्वतः काननश्रियम् । न भयं वनपालानामानयन्ति मनागपि ॥ ४४५॥ विच्छायं काननं दृष्ट्वा कपीनां दुष्टचेष्टितैः। खिन्ना निवेदयामासुभूपालं वनपालकाः ॥ ४४६ ॥ श्रुत्वा तत्पृथिवीपालः कालवत्कुपिताशयः । तस्य रक्षाकृते त्रैषीत्स्व क्रीडावानरव्रजम् ॥ ४४७॥ समशीलैः सजातीयः कपिभिस्तैश्चिरादपि । मिलिताः कलितानन्दा कुर्वन्तस्तुमुलं भृशम् ४४८॥ तथैव ते च चेष्टन्ते पीत्वा ताडीयमासवम् । भूपोपकारमस्माषु : कृतघ्ना इव ते पुनः ॥ ४४९ ॥ नृपप्रासादपात्राणां तेषामन्यायकारिणाम् । वनौकसां न कोऽपीष्टे दण्डं कर्तुं मनागपि ॥ ४५० ॥ राजा वा राजमान्यो वा यदन्यायपरो भवेत् । तदा सामान्यलोकेन निषेधुं शक्यते कथम् ? ॥ ४५१ ॥ एतद्दृग्गोचरीकृत्य कपीना चेष्टितं तदा । गाथामेतामभाषिष्ट कश्चिदुद्यानपालकः ।। ४५२ ॥ आरामरक्खया मक्कडा सुरा रक्खया सुंडा । अजरक्खया वयाओ मूलविणहूं तु तं कज्जं ॥४५३॥ निर्विवेकमना भूमान् हितं यो वेत्ति न स्वयम् । किं करोति सुधीस्तत्र परस्तचोपदेशकः१४५४ ॥ यतःएकं हि चक्षरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सहसंवसतिर्दितीयम । एतदद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने ननु कोऽपराधः ॥१॥ व वनं फलववृक्षं रक्षणं वानरैः क्व च । निर्विचारं वदन राजा कुबुद्धिः केन वायते ॥ ४५५ ॥ इत्थं कथानकव्याजाद्यमदण्डोऽपि भूभुजः। संस्थाप्य परमोषित्वं जगाम स्वगृहं प्रति ॥ ४५६ ॥
॥५५॥
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥५६॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
षट्त्रिंशता गुणैरिद्वो गुरुगुरुगुणैरिव । क्षमाभृद्भवनं प्राप्य स्वस्त्रीगणमदीदिपत् ॥ ४५७ ॥
॥ इति षष्ठदिनकथा॥ सप्तमेऽपि दिने पृष्टो भूनाथेन तथैव सः । विदग्धो वदति स्मैवं कथा पृथुरसप्रपाम् ॥ ४५८ ॥ अवन्तीदेशमध्यश्रीमेखलासीद्गलत्खला । उज्जयिनीपुरी पुण्यसंपदा जयिनी दिवः ॥ ४५६ ।। सार्थवाहः स्फुरत्कीर्तिप्रवाहः संपदा पदम् । यशोभद्रोऽभवत्तत्र पवित्रः पुण्यकर्मभिः ॥ ४६० ॥ सम्यग्दर्शनपूतात्मा सप्तक्षेत्रधनव्ययी। सदा स्वदारसन्तोषी यो जज्ञे जगदुत्तमः ॥ ४६१ ॥ अभूतां दयिते तस्य यशोदा च यशोमती । सती मल्लिके पुण्यलावण्यरसदीपिके ॥ ४६२ ॥ वृद्धा तस्याभवन्माता पालिका च गृहस्थिते। धनश्रीनिकृतेः सम धर्मतत्त्वपराङमुखी ॥ ४६३ ।। कुर्वती व्यवहारेण देवपूजादिकाः क्रियाः । शब्दादिकगुणग्रामे विधवाऽपि हि सस्पृहा ॥ ४६४ ॥ यतःपट्टकूलानी ताम्बूलं नाटकप्रेक्षणानि च । शृङ्गाररसगीतानि दुग्धदध्यादिभोजनम् ॥१॥ कपुरदेवपुष्पाद्यास्वादनं वरदर्शनम् । सिन्दूरकज्जलालक्तकुङ्कुमादिविभूषणम् ॥ २॥ सीमन्तकरणं द्यताम्भ:क्रीडा नमभाषणम् । स्फारालङ्कारनिर्माणं पुष्पोत्तंसादिविक्रियम् ॥३॥ एकाकित्वभ्रमणं परगृहगमनं रहो नरैमिलनम् । गेहद्वारे रमणं शयनं पल्यशय्यादौ ॥४॥ एतानि हि न कल्पन्ते विधवायाः कुलस्त्रियः । यौवनोन्मादहेतूनि कारणेन विना कचित् ॥ ५॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
।। ५७ ।।
******
अन्यदा व्यवसायार्थं दूरदेशान्तरं गमी । नानाक्रपाणक श्रेणि सार्थवाहः समाददौ ।। ४६५ ॥ आगच्छन्मन्दिरे सायं वैकालिक चिकीर्षया । एकाक्येवोत्सुको बाढं यामिनीपातभीतितः ॥ ४६६ ॥ अशोकवनिकामध्ये वृक्षस्कन्धोपरि स्थिताम् । स्वमातुः सव्यलोकिष्ट शाटिकां स्फटिकोज्ज्वलाम् ||४६७॥ युग्मम् || किमियं विस्मृता मात्र केनाहृताऽथ वा । इति तर्काकुलो यावत् पश्यति स्म सतां रयात् ॥ ४६८ ॥ तावदैक्षिष्ट वृद्धेन पुंसा केनापि संगताम् । रागोद्रेकवतीं व्रीडामुक्तां च जननीं निजाम् ॥ ४६६ ॥ ततोऽसौ चिन्तयामास निवासः पुण्यसंपदाम् । अहो ! कन्दर्पदेवस्य शासनं दुरतिक्रमम् ॥ ४७० ॥ देषा यौवनातीता जराक्रान्ता तपस्विनी । विषयैर्विह्वलीभूता भूताविष्टेव दृश्यते ॥ ४७१ ।। आरङ्कमा महीनाथं सर्वः कोऽपि शरीरभाग् । विकलीभावमाधत्ते स्मरग्रहविडम्बितः || ४७२ ।। यतःकिमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यस्त्रिदशपतिरहिल्यां तापसीं यत्सिषेवे । हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मराग्नावुचित मनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ॥ १ ॥ सव्वगहाणं भवो महागहो सव्वदोसपायड्डी । कामग्गहो दुरप्पा जेणभिभूयं जगं सव्वं ॥२॥ यत्र दुराचारा गृहाधारतया मता । जरत्यपि निरीश्येत वधूनां तत्र का गतिः १ ॥ ४७३ ॥ यतः - "मूलविणा वल्ली जं. जाणह तं करिज सुण्हाओ । अंबाए पंगुरणं दिट्ठ एरंडमूलंमि ॥ १ ॥" इति विज्ञाय सार्थेशः स्फुरद्वराग्यरङ्गवान् । पात्रत्राः संपदः सर्वाः कृत्वा न्यायाजिताः स्वयम् ||४७४ ||
*****
********
द्वितीय प्रस्तावः
॥ ५७ ॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय
प्रस्ताव
५८॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXX****
जिनचन्द्रगुरोः पावें प्रियाभ्यां परिवारितः । सर्वसौख्यसखीं दीक्षामाहती स उपाददे ॥ ४७५ ॥ युग्मम् ॥ तपस्यां पालयन् पञ्चमहाव्रतधुरंधरः। गुप्तित्रयपवित्रात्मा समितिप्रयतोऽनिशम् ॥ ४७६ ॥ आत्मवत् षनिकायांश्च रक्षन् शिक्षाविचक्षणः। द्विचत्वारिंशता दोषैराहारं शुद्धमाश्रयन् ॥ ४७७॥ त्रिदण्डविरतः सम्यक् कषायांश्चतुरो जयन् । नवगुप्तिमयं शीलं शीलयन् शशिनिर्मलम् ॥ ४७८ ॥ साम्यामृतसरोमग्नः परीषहांश्च सासहिः । स मुनिः केवलज्ञानं प्राप्य प्राप्तः परं पदम् ॥ ४७९ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ सार्थनाथकथामेवं शृण्वतो मे महीपते ! । अनेहा गतवान् भूयान् रसावेशवशात्मनः ।। ४८०॥ एवं संसूचिताकूतः सप्तमे दिवसे तु सः। प्रकाश्य पुरलोकाय वृत्तान्तं स्वगृहं ययौ ॥ ४८१॥ गमयित्वा पहुं कालं विषयादिविचारतः । राजा निजालयं प्रापत संवेगं मध्यमाङ्गिवत् ॥ ४८२ ॥
॥ इति सप्तमदिनकथा । अथाष्टमे दिने राजा ज्वलत्क्रोधाग्निनाधिकम् । देवपूजादिकं प्रातःकृत्यं कृत्वा यथोचितम् ॥ ४८३ ॥ अनेकराजसामन्तामात्यश्रेष्ठिपुरस्कृतः । सिंहासनमलचक्र चक्रपाणिरिवोद्धतः॥४८४॥ यमदण्डं समाहूय विधूय नयपद्धतिम् । सोऽध्यक्षं पुरलोकानामुवाचेति मदोत्कटः ॥ ४८५ ॥ अरे दुष्ट ! दुराचार ! पुरश्रीपश्यतोहरः । पापपूरस्त्वया चौरः क्वाऽपि दृग्गोचरीकृतः॥४८६ ॥ दुर्गपालस्ततोऽवादीददीनवदनद्युतिः । नैव स्वामिन् ! मया दृष्टः स्पष्टं निष्टङ्कितोऽपि सः॥४८७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व. कौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥ ५४॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततः पृथ्वीपति, सर्वमाकार्य नगरीजनम् । बभाषे रोषसंभारसिन्दूरारुणलोचनः ॥ ४८८ ॥ अमुना भो जनाः! सप्त वासराश्चातुरीकृता । गमिता धूर्तवृत्त्यैव मदादीनवजानता ॥ ४८६॥ सचौरराजवस्तूनि यदि नातः परं त्वसौ । अर्पयिष्यति कुर्वेऽहं तदानीमस्य निग्रहम् ॥ ४६० ॥ इत्याकर्ण्य भुवो भतु वचनं वचनात्मकम् । आनीय दर्शयामास चौरचिह्नानि स क्षणात् ॥ ४६१॥ पादुके पृथिवीशस्य मुद्रिका मन्त्रिणस्तथा । हेमसूत्रमयं यज्ञोपवीतं च पुरोधसः ॥ ४९२ ॥ चौराभिज्ञानवस्तूनि सर्वाण्येतानि भूपते ! विलोकय प्रसन्नेन मनसेत्यब्रवीच सः॥ ४६३॥ तान्यालोक्य पुरस्थानि तदा भूपादयोऽभवन् । प्रम्लानवदनाम्भोजाः साशङ्कमनसोऽधिकम् ।। ४६४ ॥ पुराऽपि ज्ञातवृत्तान्ता राजमन्त्रिसुतादयः । सामन्तवेष्ठिलोकाश्च चक्रुरेवं विचारणाम् ॥ ४६५ ॥ चिह्न रेभिर्विभाव्यन्ते विच्छायमुखपङ्कजाः। चौराः क्र रैककर्माणो राजमन्त्रिपुरोधसः ॥ ४६६ ॥ यत्र राजा स्वयं चौरः समन्त्री सपुरोहितः । जायते तत्र लोकानां काननं शरणं ध्रुवम् ॥ ४६७ ॥ भृत्यवर्गाय सन्न्यायपालिने ख्यातिशालिने । असूयति नराधीशः प्रायश्चेटकचेष्टितः ॥ ४६८ ॥ अन्योन्यं निर्ममे तत्र विचारं तु महाजनः। अमी पुरे दुराचारा नायतो कुशलाय नः॥ ४६॥
येन केनाप्युपायेन निष्काश्यैतान दुराशयान् । स्थापनीयाः पदे तेषां सूनवोऽमी महाशयाः ॥ ५०० ॥ यतःमित्रं शाठ्यपरं कलत्रमसतीं पुत्रं कुलध्वंसिनं मूर्ख मन्त्रिणमुत्सुकं नरपतिं वैद्यं प्रमादान्वितम् ।
॥ ५९॥
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव
॥६०॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
देवं रागयुतं गुरु विषयिणं धर्म दयावर्जितं, यो नैव त्यजति प्रमोहवशतः स त्यज्यते श्रेयसा ॥१॥
विदधे सोऽथ विज्ञप्ति विचार्यैवं महीपतेः । येषामेतानि वस्तूनि ते प्रभो ! पश्यतोहराः ॥ ५०१॥ विनष्टं कार्यमेतन्नो विमृश्येति नपादयः । यमदण्डे तदा दण्डं विधातु नाभवन् क्षमाः ॥ ५०२॥ न्यायः सखा भवेद्यस्य पक्षपाती च पूर्जनः । नृपोऽपि शङ्कते तस्मात् किमन्यः प्राकृतो जनः ॥ ५०३ ॥ प्रपञ्चेन तिरस्कृत्य तान् क्रमेण महाजनः । अतिष्ठिपत् पदे तेषां तत्पत्रान् न्यायशालिनः॥ ५०४॥ सर्वलोकविरोधेन भ्रष्टाः स्वीयपदस्थितेः । तेऽपमानभरं प्रापुर्विरोधो हि हिताय नो ॥ ५०५ ॥ अत एव महादेव ! साकं केनापि धीमता । विरोधो नैव कर्तव्यो विशेषाद्बहुभिर्जनः ।। ५०६ ॥ पराभवपदं नीत्वा नोपेक्ष्यो बुद्धिचक्षुषा । यादृशस्तादृशः प्राणी स्माहुर्नीतिविदो जनाः ॥ ५०७ ॥ पराभवो न कर्तव्यो यादृशे तादृशे जने । तेन टिट्टिभमात्रेण समुद्रो व्याकुलीकृतः ॥ ५०८ ॥ ततः सुयोधनो भूभृत्तां परित्यज्य नीवृतम् । युक्तो मन्त्रिपुरोधाभ्यां देशाद्देशान्तरं भ्रमन् ॥ ५०६ ॥ धर्मघोषगुरुं प्राप्य शुद्धधर्मप्रकाशकम् । जातसंवेगनिर्वेदश्चारित्रं प्रत्यपद्यत ॥ ५१० ॥ पुंसां पुण्यात्मनां प्रायो द्विविधैव स्थितिभवेत् । साम्राज्यकमलाभोगोऽथवा चारित्रसंपदः ।। ५११ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
सम्यक्त्वकौमुदी
XXXXXXXXX
एवं सुयोधनधराधिपतेश्चरित्रं श्रुत्वा प्रकाशितविरोधफलस्वरूपम् ।
मन्त्रीश्वरेण कथितं प्रथितं पृथिव्यां पृथ्वीश्वरोऽजनि तदाऽद्भुतहर्षवर्षी ॥ ५१२ ॥ ॥ इति श्रीसम्यक्त्वकौमुद्यां तपोगच्छनायकश्रीसोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यैः
पण्डितजिनहर्षगणिभिः कृतायां द्वितीयः प्रस्तावः ।। ग्रन्थाप्रम् ५६८ अक्षर १७ ।।
प्रस्ताव:
॥६
॥
॥ अथ तृतीयः प्रस्तावः॥ ततो देवगुरुध्यानमेकतानतया नृपः । कृतवान् कृतिकल्पद्रः क्षणं स्वान्तस्थिरीकृते ॥१॥ अतीवविषयाविद्धं परं चश्चललक्षवत् । न मनः स्थिरतां भेजे क्षणमप्यवनीभुजः॥२॥ सुकरं मलधारित्वं सुकर कष्टसेवनम् । मनसस्तु स्थिरीभावो देहिनां दुष्करः परम् ॥ ३॥ पुनः कुतूहलावेगतरङ्गतरलाशयः । अभ्यधादभयं मन्त्रिधौरेयं मगधाधिपः ॥ ४ ॥ सांप्रतं यत्त्वया प्रोचे सांप्रतं तन्महामते ।। यदाखुभिनरेन्द्रोऽपि गजार्थं व्याकुलीकृतः ॥ ५॥ गते सत्यधुनोद्याने विरोधः स्याजनैः समम् । विरोधे च श्रियो हानिः कर्मबन्धश्च जायते ॥ ६ ॥ परं कौतूहलाक्रान्तं स्वान्तं मे तरलीभवत । उत्कण्ठते पुरीमध्ये मध्यलोकं विलोकितुम् ॥ ७॥ यत्तत्कार्यवशं राज्ञश्चेतः कार्य विचक्षणः । इत्यालोच्यावदपमेवमस्तु तु धीसखः ॥ ८॥
KXXXXX
॥६१॥
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय
प्रस्ताव:
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततोऽञ्जनप्रयोगेण नीत्वा रूपमदृश्यताम् । पश्यन्तौ विविधाश्चर्य शृण्वन्तौ बहुधा गिरः ॥ ६ ॥ चतुष्पथादिमागेषु प्रपादेवकुलादिषु । मध्ये पुरं निशायां तो भ्रमतुनृ पमन्त्रिणौ ॥ १०॥ युग्मम् ।। आलुलोकेऽथ भूपालश्छायां कस्यापि देहिनः । निरीक्षितं प्रयत्नेन न रूपं कुत्रचित्पुनः॥११॥ ततोऽसौ सचिवं स्माह किमिदं दृश्यते भुवि । पिण्डीभूतमिवैकत्र चलाचलतमं तमः ॥ १२॥ उवाच सचिवः स्वामिन्नेष लोहखुराभिधः । सिद्धाञ्जनकलाशाली प्रसिद्धश्चौरकर्मणा ॥ १३ ॥ कैतवालीगृहं रात्रावदृश्यीकृतविग्रहः । मुष्णाति न्यायनिष्णानां वेश्मानि धनशालिनाम् ॥ १४ ।। युग्मम् ॥ न कोऽप्यस्य प्रतीकारं कर्हिचित् कतु मीश्वरः । नानारूपपरावर्तविद्यागर्वितचेतसः ॥ १५॥ अभ्यधान्मगधाधीशः कस्य वेश्मनि यात्ययम् । तत्स्वरूपं परिज्ञातुममुना सह गम्यते ॥ १६ ॥ इन्युदीर्य क्षमास्वामी समन्त्री तमनुव्रजन् । बभ्राम नगरे तत्र विचित्राश्चर्यसस्पृहः ॥ १७ ॥ अथ व्रजन्नसौ चौरः क रकावधिःक्रमात् । श्रेष्ठिनः सदने प्रापदहद्दासाभिधाभृतः ॥ १८॥ अत्रान्तरे नरेन्द्राभः समृद्ध्या श्रेष्टिकुञ्जरः । निर्मिताष्टोपवासीः स्वाः प्रेयसीरित्यभाषत ॥ १६ ।। अद्योद्याने स्त्रियः सर्वाः सालङ्काराः स्फुरन्मुदः । गताः सन्ति नृपादेशात्कौमुद्युत्सवहेतुना ॥ २० ॥ श्रीमच्छ्रेणिकराजेन्द्र विज्ञप्य विनयादिने । जिनस्नात्रोत्सवाद्यर्थ भवन्त्यः स्थापिता गृहे ॥ २१ ॥ लौकिकक्षणकार्याय सोत्कण्ठं यदि वो मनः । सांप्रतं तु भवन्त्योऽपि वजन्तु विपिने तदा ॥ २२ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥ ६२॥
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव:
॥६३॥
अहं निश्छद्मसद्धर्मध्यानाधीनमना निशि । पूजा द्रव्यमयीं कृत्वा करिष्ये भावपूजनम् ॥ २३ ॥ इति प्राणप्रियप्रोक्तं श्रुत्वा ता विनयानताः। प्रोचुरद्य प्रभोऽस्माकं बभूव क्षपणाष्टकम् ।। २४ ॥ उपावृत्तिस्तु पापेभ्यो वासश्च सह सद्गुणैः । उपवासदिने कर्तुं युज्यते विमलात्मनाम् ॥ २५ ॥ तेन नः कानने गन्तुं न युक्तं महहेतवे । आर्यपुत्रैः समं पूजा कर्तव्या द्विविधाहताम् ॥ २६॥ सांसारिकक्षणारम्भ त्वरते तस्य मानसम् । यो न वेत्ति जिनाधीशवाक्यं विश्वरविप्रभम् ।। २७ ॥ महाः सर्वेऽपि सुप्रापा ऐहिकानन्ददायिनः । दुर्लभा वाहती भक्तिर्लोकद्वयसुखावहा ॥ २८॥ सोऽवक धन्यतमा यूयं ज्ञाततत्त्वाश्च निश्चितम् । यासां हि दृढधर्मत्वमेवं प्रौढोत्सवेऽपि वः ॥ २६ ॥ प्रायश्चलाचलं स्त्रीणां सुधियामपि मानसम् । लोकप्रवाहतो दृष्टं वातोत्क्षिप्ताकैतूलवत् ।। ३०॥ प्रासादशिखरे तुङ्ग वंशे बद्धा गुणोत्करैः । पताका कम्पते वातान्निर्मलाऽपि स्वभावतः ॥ ३१ ॥ इत्युदीर्य शुचीभृय भूम्ना भावेन भावितः । अगादयं प्रियायुक्तः स्वावासजिनवेश्मनि ॥ ३२ ॥
स द्रव्यपूजा विधिवद्विधाय श्रद्धासमृद्धः परमेश्वरस्य ।
साई प्रियाभिः प्रियधर्मिकाभिर्भावार्चनाथ स्तुतिमित्यपाठीत् ॥ ३३ ॥ जय त्वं जगदानन्दकन्दपल्लवनाम्बुद ! । योगीन्द्रहृदयाम्भोजविलासैकसितच्छद ! ॥ ३४ ॥ सर्वातिशयसंपन्नः सर्वाभीष्टफलप्रदः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वात्मा त्वं जय प्रभो ? ॥३५॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥६३॥
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥६४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
त्वनामकीर्तनादेव देवदेवपतिस्तुत !! भवार्तयो विलीयन्ते सुधास्वादादिवामयाः ॥ ३६॥ यस्य त्वदर्शनं देव ! द्विधा सम्यक् प्रजायते । तस्य विश्वत्रयोत्कृष्टाः संपदः स्युः पदे पदे ॥ ३७॥ इत्थं स्तुतो जगन्नाथ ! सनाथ त्वं शिवश्रिया । प्रसीद परमानन्दसंपदः कुरु मां पदम् ॥ ३८ ॥ स्तुन्वैवं भुवनाधीशं प्रियाभिः प्रेरितः सुधीः । संगीतकविधि श्रेष्ठी विधूतकलुषो व्यधात् ॥३१॥ दृष्ट्वा तदर्चनायोगं विश्वविश्वत्रयाद्भुतम् । समन्त्री नृपतिर्दध्यो स्तेनेन सममागतः ॥ ४०॥ अयमेव भुवि श्लाघ्यः प्रथमो गृहमेधिषु । ईदृशी यस्य जागर्ति हृदि भक्तिर्जिनेश्वरे ॥४१॥ यतः
भक्तिर्जिनेषु दृढता जिनभाषितेषु श्रद्धा च धर्मकरणेषु गुणेषु रागः।
दानेषु तीव्ररुचिता विनयेषु वृत्तिः कस्यापि पुण्यपुरुषस्य भवत्यवश्यम् ॥१॥ सिद्धिसीमन्तिनीदूतीं कृत्वा भावार्चनां ततः । विरतं श्रेष्ठिनं कान्ता जगदुर्जगदुत्तमम् ॥ ४२ ॥ हंहो स्वामिन् ! कथं जज्ञे सम्यक्त्वं भवतां हृदि । स्वर्णाचलवदक्षोभ्यं मनागप्यमरैरपि ॥ ४३ ॥ वाचं विस्तारयामास श्रेष्ठी तासां पुरः पुनः । यथास्थितार्थसंयुक्तां सम्यक्त्वपथदीपिकाम् ॥ ४४ ॥
अस्मिन्नेव पुरे राजा पुराऽजनि प्रसेनजित् । शत्रराजीभिरजितो राजीवोपमलोचनः ॥ ४५ ॥ जनं यः स्मारयामास दानैर्जीमूतवाहनम् । धर्मात्मजं च धर्मेण न्यायैर्दाशरथिं तथा ॥४६॥ यस्य पुत्रः पवित्रश्रीश्रेणिकः प्रीणितप्रजम् । भुनक्ति सांप्रतं पुण्यप्राज्यं साम्राज्यमद्भुतम् ॥४७॥
KXXXXXXKREKKARXKKKRXKAKKRA
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥६५॥
K*****
गुरुणेव प्रजा येन पाल्यमाना महीभुजा । पराभवभवं तापं न प्रापत्वापि भूतले ॥ ४८ ॥ यस्याग्रतो जनो मेने न तृणायापि वासवम् । मुनयोऽपि वितन्वन्ति तथा सद्दर्शनस्पृहाम् ॥ ४६ ॥ श्रेष्ठी श्रेष्ठाग्रणीरत्र जिनदत्तोऽभवत्कृती । राज्यमान्यः श्रियां धाम विश्वाङ्गिषु कृपापरः ।। ५० ।। चैत्यं सहस्रकूटाख्यं निकषा निजमन्दिरम् । योऽचीकरञ्जगद्भतु भवार्णवत्तरीनिभम् ॥ ५१ ॥ उक्तं चरम्यं येन जिनालयं निजभुजोपात्तेन कारापितं, मोक्षार्थं स्वधनेन शुद्धमनसा पुसा सदाचारिणा । वेद्यं तेन नरामरेन्द्रमहितं तीर्थेश्वराणां पदं प्राप्तं जन्मफलं कृतं जिनमतं गोत्रं समुद्योतितम् ॥ १ ॥ परं परोपकारार्थं गृहाश्रमनिवासिनः । अहमाईतमार्गस्थो यस्याभूवं तनूद्वहः ॥ ५२ ॥ प्रसेनजिति राजेन्द्रे राज्यं कुर्वति लीलया । अन्यदाऽत्र समायासीत् केशिदेवमुनीश्वरः ॥ ५३ ॥ आनन्दी मेदिनीपालस्तमानन्तुं नतामरम् । अगमज्जिनदत्तेन सार्द्धमन्तःपुरीवृतः ॥ ५४॥ नत्वा यथोचितं तेषु निविष्टेषु महीतले । निर्ममे निर्ममेशेन सम्यग्धर्मप्रकाशनम् ॥ ५५ ॥
भवेऽङ्गी चतुरशीतिं योनिलक्षान् भ्रमन् भृशम् । मानुष्यं लभते पुण्यान्निधानमिव दुर्गतः ॥ ५६ ॥ धर्मस्तत्रापि दुष्प्रापः प्रणीतः परमर्षिभिः । सम्यग्दर्शनसंशुद्धः साधुश्राद्धव्रतैवृतः ॥ ५७ ॥ धर्मस्य द्विविधस्यापि द्वारं सद्दृष्टिरुच्यते । तृणवद्वयादिदृष्टान्तैरष्टधा सा पुनः स्मृता ॥ ५८ ॥
तृण १ गोमय २ काष्ठाग्निकण ३ दीपप्रभोपमा ४ । रत्न ५ ताराऽ६ ७ चन्द्रा ८ मा सदृष्टेष्टिरष्टधा ॥ ५६ ॥
***
***************
तृतीय प्रस्तावः
॥६॥
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥६६॥
RXXXXXXXXXXXXXXXX
तृणाग्निसदृशी दृष्टिः कस्यचिद्रुचितो भवेत् । झटिस्त्युत्पन्नमात्राऽपि याति मोहोदयात्क्षयम् ॥ ६०॥ गोमयानलवद्दीप्ता कस्यचित काष्ठवह्निवत । कस्यापि दोपवद्दीपा दृष्टिः शुद्धतरा भवेत् ॥ ६१॥ कस्यचिद्रत्नवत्कान्त्या ताराभा सा समुल्लसेत् । सूर्यबिम्बोपमा काचिच्चन्द्रदीप्तिसमा परा ॥ ६२॥ यथोत्तरं भवेदेषा यस्य यस्य शरीरिणः । आसन्नसिद्धिता प्रास्तस्य तस्य प्रकीर्तिता ॥ ६३॥ शमसंवेगनिर्वेदाः कृपा सर्वेषु जन्तुषु । तत्त्वश्रद्धानमभ्रान्तमेतासां लक्षणं स्मृतम् ॥ ६४ ॥ विरतिर्जायते यस्य देशतः सर्वतोऽथवा । औचित्यादिगुणोपेता सम्यग्दर्शनपूर्विका ॥६५॥ तस्य श्लाध्यतमः ख्यातो नृभवो भवभेदिभिः । सर्वार्थसाधकत्वेन प्रार्थनीयः सुरैरपि ॥६६॥ सम्यग्दर्शनशुद्धं यो ज्ञानं विरतिमेव चाप्नोति । दुःखनिमित्तमपीदं तस्य सुलब्धं भवति जन्म ॥ ६७॥ निशम्येति गुरोः पावें जिनदत्तः स तत्त्वविद् । श्रीसम्यक्त्वयुतं धर्ममग्रहीत् श्रावकोचितम् ॥ ६८॥ गृहस्थधर्ममादाय सम्यग्दर्शनसंयुतम् । राजाऽपि च गुरु नत्वा निजावासमशिश्रियत् ।। ६६ ।। अथात्रैवाभवद्रूप्यखुरः प्रखरकर्मभूः। नानाविधधियां धाम चौरः पूर इवैनसाम् ।। ७० ॥ स्वैग्माट पुरस्यान्तस्तताप निखिलं जनम् । न योऽमन्यत भूपाज्ञा मन्त्रिणोऽजीगणत्तृणम् ॥ ७१ ॥ क्षणाचौरः क्षणात्साधुः सार्थवाहः क्षणात्तथा । क्षणाद्धर्मवता मुख्यो यश्चाजनि जने स्फुटम् ॥ ७२ ॥ कान्तयेवाक्षशौण्डात्मा व्यसनानां तु वारिधिः । स द्यूतक्रीडयाऽन्येधुर्दिदेवाहर्निशं पुरे ॥ ७३ ।।
TXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥६७॥
*******
**********
याचकेभ्यो वितीर्यास्य द्यूतप्राप्तं धनं महत् । त्वरितं क्रममाणस्य भोजनार्थ गृहं प्रति ॥ ७४ ॥ भूमिभृद्भवनाभ्यासे सर्वाक्षाकृष्टिकार्मणम् । आगाद्रसवतीगन्धः सुगन्धिद्रव्यदर्पहृत् ॥ ७५ ॥ युग्मम् ॥ रोमाञ्चकञ्चुकाकीर्णगात्रः पात्रं स पाप्मनाम् । तद्गन्धाद्द्भार्घ्यमापन्नो दध्यौ बुद्धयौषधीनिधिः ॥ ७६ ॥ अहो ! परिमलः कोऽपि देवानामपि दुर्लभः । रसवत्या नरेन्द्रस्य पद्मिन्या इव योषितः ॥ ७७ ॥ धन्यास्त एव संसारे प्रष्ठाः पुण्यवतां तथा । एवंविधं सदा भोज्यं भुञ्जते ये गृहाश्रमे ॥ ७८ ॥ येsपि गृहमेधित्वे पुण्यहीनाः शरीरिणः । भोजनावसरे दीनामवस्थां विभ्रतेऽधिकाम् ॥ ७६ यतः - कुग्रामवासः कुनरेन्द्रसेवा कुभोजनं क्रोधमुखो व भार्या ।
कन्याबहुत्वं च दरिद्रता च षड् जीवलोके नरका भवन्ति ॥ १ ॥ तदेनां परमानन्दास्वादसोदरसौरभाम् । कस्मादहं न भुज्जेऽद्य पुण्यप्राप्तां रमामिव ॥ ८० ॥ आमहीनाथमारङ्क ं सर्वः कोऽपि शरीरभाग् । मिष्टान्न भोजनस्यार्थे यतते रसनावशः ॥ ८१ ॥
अमन्यमानः कष्टानि श्रोत्रियो धनवानपि । भुक्तिलाभाय मन्येत न दूरं दशयोजनीम् ॥ ८२ ॥ अदृश्यं रूपमाधाय विमृश्येति स दुष्टधीः । सिद्धाञ्जनप्रयोगात्तां बुभुजे भूभुजा समम् ॥ ८३ ॥ एवं तु जेमतस्तस्य प्रच्छन्नं नृपभाजने । भोज्यास्वादनलुब्धस्य दिनानि कतिचिद्ययुः ॥ ८४ ॥ भुञ्जानं सर्वशक्त्याऽपि राजानं वीक्ष्य दुर्बलम् । दिनेन्दुमिव विच्छायं मन्त्री स्माह रहस्यदः ॥ ८५ ॥
****************
तृतीय
प्रस्तावः
॥६७॥
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्तावः
॥६
॥
XXXX*******************
स्वामिन् ! कृशतमं कस्माज्जायमानं दिने दिने । जीर्णपर्णोपमं तेजो वपुर्बिभ्रतवेक्ष्यते ॥८६॥ तेन त्वां बाधते कश्चिद्वयाधिराधिरथोत्कटः । किमस्ति भोजनाजीणं ? किं बुभुक्षा न विद्यते १ ॥७॥ भुवो विभुरथोवाच सचिवं शुचिचेतसम् । न बाधां विदधात्यङ्ग रोगः कोऽपि ममाधुना ॥ ८८ ॥ परं यत्कारणं मन्त्रिन् ! कृशत्वस्यापि मे हृदि । लज्जान्तरायमाधत्ते तस्य जिह्वानखेलने ॥ ८ ॥ इति मन्त्री नृपं स्माह शरीरस्य प्रयोजने । विधीयमानं मन्दाक्षं राजन्नौचित्यमश्चति ॥१०॥ साधारणो वपुर्धर्मः प्रायः सर्वेषु देहिषु । तेन का क्रियते लज्जा तत्स्वरूपनिरूपणे ॥ १॥ देहाभावे न धर्मः स्याद्धर्माभावे न सद्गतिः । न सद्गति विना देही सर्वाङ्गसुखमश्रुते ॥ १२ ॥ श्रुत्वैतन्नृपतिः प्राह यद्येवं तन्निशम्यताम् । बह्वाहारादपि प्रायः क्षुधा मे नोपशाम्यति ॥ ३॥ यथा तथाऽपि भोज्येन गमयन्ति बहून्यपि । दिनानि नैव याचन्ते मानिनः खलु देहिनः ॥१४॥ ततश्च भोजने शक्तिमतृप्तिं च महीपतेः । विज्ञाय सचिवो दध्यौ विस्मयाविष्टमानसः॥१५॥ विद्यौषधाञ्जनैः सिद्धः कश्चिदुमुखशेखरः । भुञ्जानो भूभुजा साधं भाव्यतेऽदृश्यदेहभृत् ॥ ६६ ॥ येन केनाप्युपायेन ज्ञातव्योऽयं मयाऽधुना । आपत्स्वालोक्यते राज्ञा बलं मन्त्रिण एव यत् ॥ १७ ॥ आपन्मग्नं महीनाथं वेगादुत्तारयन्ति ये । त एव मन्त्रिणः श्लाघ्याः कल्पकोपमबुद्धयः ॥ १८ ॥ विपन्मग्नं तु राजानं निजं वाञ्छन्ति मन्त्रिणः । अधमा आत्मवृत्त्यर्थमुत्तमास्तु सुखासितम् ॥ ६ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥६॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
।। ६६ ।।
***********
नानोपायान् सृजन् मन्त्री तदालोकन कौतुकी । आकारयद्रजः कीर्णं भोजनावासभूतलम् ॥ १०० ॥ तद्द्वारे स्थापिता आप्तपुरुषाः परुषाशयाः । द्वाः पिधानविधौ तेन सङ्कं तं कृतपूर्वः ॥ १०१ ॥ सोऽपि तस्मिन् दिने तत्र तस्थौ भोजनवेश्मनि । दम्भवान्निभृतं पश्यन् तच्चिह्नानि मनीषया ॥ १०२ ॥ कृतस्नानः शुचिः श्रीमान् समभ्यर्च्य जिनेश्वरान् । अथागमन्नृपो यावद्भोजनाय स विष्टरे ॥ १०३ ॥ आयासीद्रसगृद्धात्मा तावता स मलिम्लुचः । लक्षितस्त्वंघ्रिभिस्तेन रजसि प्रतिविम्वितैः ॥ १०४ ॥ स द्वारं दापयामास पुरा सङ्क तितैर्नरैः । आर्द्रेन्धनौषधादीनां संनिपातप्रपञ्चतः ॥ १०५ ॥ गृहान्तः कारयामास धूमस्तोमं च दुस्सहम् । लोचनानुपयः पूरद्रावकर्मणि कर्मठम् ॥ १०६ ॥ युग्मम् || तद्बलेन गलन्नेत्रयुग्मादञ्जनमद्भुतम् । अपतत्तत्क्षणान्चौरो जज्ञे दृश्यवपुः पुनः ॥ १०७॥ उपलक्ष्य क्षणाच्चौरं पापपूरं तु जङ्गमम् । उवाच वसुधाधीशः कोपताम्रमुखद्युतिः ॥ १०८ ॥
अरे दुष्ट ! दुराचार ! मलिम्लुच ! मलीमस ! । भवता मलिनीभावमश्नुता गमिता वयम् ॥ १०६ ॥ इत्युदीर्य नृपः कोपानगरारक्षकं प्रति । आदेशं दत्तवांस्तस्य शूलारोपणकर्मणि ॥ ११० ॥ सोऽपि भूपोपजीवित्वान्मारं मारमनेकधा । तं तथाकृतवान् वध्यभूमौ नीत्वा दुराशयः ॥ १११ ॥ शूलामारोपितः सोऽपि पच्यमानः स्वकर्मणा । तीव्रदुःखाग्निसंतप्तकायश्चिन्तितवानिति ॥ ११२ ॥ अहो ! कर्मविपाकोऽयमहो ! दुःखपरंपरा । अहो ! पापभरस्यासीत्फलमत्रैव मे पुनः ॥ ११३ ॥
★★★★
***************
तृतीय
प्रस्तावः
॥ ६६ ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव
॥ ७०॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
एकशोऽपि कृतं कर्म दुःखकोटि फलावहम् । भवे भवे भवेदेव बीजवज्जीवसन्ततः ॥ ११४ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य व्यथावेगेन भूयसा । तपनातपसंतापात्तषाऽतीवाभवत्तदा ॥ ११५ ॥ वजन्तं सविधेर्लोकं ययाचेऽसौ पयो भृशम् । परं न कोऽपि तत्तस्मै दत्तवान नृपतेर्भयात् ।। ११६॥ तत्रागाज्जिनदत्तोऽथ श्रेष्ठी शिष्टशिरोमणिः । कृपालुः सर्वजीवेषु दुःखितेष्वधिकं पुनः ॥ ११७ ॥ तं दृष्वा याचते नीरं पीडितोऽसौ पिपासया । विमृष्टवानिति स्वान्ते सोऽन्यार्थंकपरायणः ॥ ११८ ॥ जिनेन्द्रधर्मः सर्वेषु धर्मेषु प्रदरो मतः । धर्मेऽप्यङ्गिदया मुख्या दुःस्थितेषु विशेषतः ।। ११६ ॥ न भवेदुःखितं दृष्ट्वा यस्य चेतः कृपाप्लुतम् । न तस्याहतधर्मस्य लेशोऽपि हृदि संस्थितः ॥ १२० ॥ त एव मनुजा धन्या मान्याश्च मरुतामपि । ये परप्राणिवर्गस्य दुःखोद्धारधुरंधराः ।। १२१॥ यतः
शूराः सन्ति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः, सन्ति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षितौ भूरिशः। किं त्वाकर्ण्य निरीक्ष्य वाऽन्यमनुज दुःखादितं यन्मन
स्ताद्रप्यं प्रतिपद्यते जगति ते सत्पूरुषाः पञ्चषाः॥१॥ प्रीणयन् मधुरालापर्लपति स्म स तं पुनः । यावद्ददामि ते नीरमानीय निजवेश्मनः ॥ १२२ ॥ अनेक भवसन्तापसंभारक्षयकारकम् । नमस्कारमयं मन्त्रं तावत्पिब सुधोपमम् ॥ १२३ ॥
KKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥७॥
(XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
असौ पश्चनमस्कारः कष्टकोटिविघट्टकः । प्राणान्ते प्राप्यते पुण्यवद्भिः सर्वसुखप्रदः॥ १२४॥ सोऽप्याख्यद्दहि मे बन्धो । मन्त्रं तं दुःखवारकम् । परमेष्ठिनमस्कारं तस्मै श्रेष्ठी ददौ तदा ॥ १२५ ॥ सुधापानमिव प्राप्य चौरः पश्चनमस्कृतिम् । आससाद महानन्दं देवश्रीवर्णिकोपमम् ॥१२६ ॥ ततः श्रेष्ठी द्रतं लात्वा पयो यावत्समाययौ । तावद्विपद्य तद्धयानादापद्देवपदं त्वसौ ॥ १२७॥ जिनदत्तस्तथाऽवस्थं तं ज्ञात्वा व्यथितो हृदि । दध्यौ दीनदयादानोद्भवं पुण्यं न मेऽभवत ॥ १२८ ॥ पुण्यपात्रोपभोगाय दीनानां चार्तिशान्तये। पयोऽन्नप्रमुखं वस्तु धन्यस्यैवोपयुज्यते ॥ १२६ ।। अवलोक्य ततो देहं जिज्ञासुस्तस्य सद्गतिम् । लक्षणेातवानेष देवोऽयं समजायत ॥ १३० ॥ चौरस्वाजन्यसंबन्धजिज्ञासातत्परैनरैः। स्वरूपं श्रेष्ठिनो दृष्टा न्यवेद्यथ महीपतेः ॥ १३१॥ श्रुत्वा तद्भूपतिः कोपात्तामृताम्राननद्युतिः। पुरारक्षकमाहूय तत्क्षणादित्यभाषत ॥ १३२ ॥ मयूरवन्धमाबद्धथ श्रेष्ठी दुष्टतमाशयः । आनीय तां गृहे दत्वा मुद्रा भद्र ! मदक्षराम् ॥ १३३ ॥ सोऽपि गत्वा तदावासे निष्ठुरोक्तिवदावदः। आकार्य श्रेष्ठिराजं तदाययौ राजसंसदि ॥ १३४॥ आगच्छन् सोऽपि भूपौकः समं तेन समाधिमान् । शुभध्यानमिदं चक्रे द्विधाऽऽतङ्कान्तकप्रभम् ॥ १३५ ॥ चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता मुक्ताफलोज्ज्वलाः। अर्हन्तः शरणं सर्वे शिरस्था विश्वतायिनः ॥ १३६ ॥ अनन्तसुखसंप्राप्ता विद्रुमच्छायमूर्तयः । सिद्धा मे शरणं विश्वश्रीवशीकारकारणम् ॥ १३७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१॥
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव:
॥७२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX
पञ्चधाचारनिष्णाता आचार्या हेमदीप्तयः । अङ्गरक्षाकृतोऽनङ्गजितो मे शरणं सदा ॥१३॥ अङ्गानङ्गादिसिद्धान्ताध्यापनोद्द्यतचेतसः । नीलद्युत उपाध्याया मुष्णन्तु दुरितोदयम् ॥ १३६ ॥ महाव्रतधरा धीरास्त्यक्तसावद्यसंश्रयाः। सिद्धये साधवः सन्तु मेघच्छायाहृतो द्विधा ॥ १४० ।। इति ध्यानसुधास्वादसानन्दं श्रेष्ठिनं तदा। अभ्यधाद्वसुधाधीशः क्रोधावेगचलद्वपुः॥ १४१॥ रे दुष्ट ! दुरभिप्राय ! सदाचारनरब्रुव ! । साधं वार्ताप्रबन्धं त्वं कुरुषे परमोषिणा ॥१४२॥ यश्चौरेण सहालापं विधत्ते रहसि स्थितः। स सद्भिः स्तेन आम्नातो निग्राह्यस्तु महीभुजा ॥१४३ ॥ यदनेन हृतं द्रव्यं तन्नैव यदि यच्छसि । तवापि स्तेनवद्दण्डं करिष्यामि तदा ध्र वम् ॥ १४४ ॥ जिनदत्तोऽवददेव ! मया तेन समं कृता । धर्मवार्ता परं नैव संबन्धो मेऽस्ति कश्चन ॥१४॥ अमन्वानो महीपालस्तदुक्तं कोपतः कुधीः । तद्वधाय नरान् क रानादिशद्दनुजोपमान् ॥ १४६ ॥ उद्येमुस्ते तथा कतु याबद्भपतिशासनात । कृत्याकृत्यविचारो हि सेवकेषु न युज्यते ॥ १४७ ॥ तावद्धोरान्धकारौधैानसे व्योममण्डलम् । अजायन्त महारावा ब्रह्माण्डोद्भेदसोदराः॥१४८ ।। पतद्भिर्नेभसः पूरे रजसा व्याकुलीकृताः । राजामात्यमुखाः सर्वे पाद्या मूर्छिताशयाः ॥ १४६ ।। किमेतदिति निःशेषः शशङ्क नागरव्रजः । हस्त्यश्वप्रमुखा सेना चकम्पे च पदे पदे ।। १५ ।। भयभ्रान्तस्ततो भर्ता भुवः सचिवमब्रवीत् । किमतनगरे जातं कल्पान्तसमयोपमम् ॥ १५१ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥७२॥
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ७३ ॥
***********
देवो वा दानवो वाऽपि यक्षो वा राक्षसोऽथवा । विधत्ते कुपितः कोऽपि पुरोपप्लवमीदृशम् ।। १५२ ।। तत्तथा क्रियतां शीघ्र पुरे शान्तिर्यथा भवेत् । संपन्ने विषमे कार्ये स्युः समर्था हि मन्त्रिणः ॥ १५३ ॥ सचित्रोऽपि शुचीभूय भूयःकुसुममालिकाम् । करे कृत्वा समुत्थाय धूपमुत्क्षिप्य सर्वतः ॥ १५४ ॥ उवाच त्रिदशः कोऽपि यो धत्ते दुष्टतामिह । प्रत्यक्षीभूय तेनात्र वक्तव्यं निजवाञ्छ्या ॥ १५५ ॥ युग्मम् ॥ अत्रान्तरे सुरः कोऽपि दिव्याभरणभूषितः । प्रादुरासीत्परब्रह्मज्योतिः साक्षात्सृजन्निव ।। १५६ ।। ततस्ते प्राञ्जलीभूय भूपाद्याः संमुखं स्थिताः । ऊचिरे तेन तद्भक्तिदर्शनात् शान्तिमीयुषा ॥ १५७ ॥ अमुष्य मद्गुरोः पुण्यपुण्यनैपुण्यशालिनः । सदा निरपराधस्य सदाचारपरस्य च ॥ १५८ ॥ यूयमाशातनां दुष्टाः कुरुध्वं मयि जीवति । तत्फलं भवतां दातुं तेनायातोऽस्म्यहं दिवः || १५६ ॥ युग्मम् ॥ स्वगुरोः शक्तिमान् दृष्ट्वा पीडां मन्दायते हि यः । पराभवसहस्राणि लभतेऽसौ भवान्तरे ॥ १६० ॥ शूलायां यः समारोपि कुपितेन महीभुजा । समभूवं सुरः सोऽहं चौगे रूप्यखुराह्वयः ॥ १६१ ॥ पयो मे याचमानस्य मृतावस्थामुपेयुषः । श्रेष्ठिना तेन कारुण्यपूरपूरितचेतसा ॥ १६२ ॥ परमेष्ठिनमस्कारः सत्यंकारः शिवश्रियः । प्रादायि तत्प्रभावाच्च कल्पे त्वाद्ये सुरोऽभवम् ॥ १६३ ॥
यः करिष्यति सन्तापं ततोऽमुष्य महात्मनः । दिव्यानुभावतः शीघ्र भस्मसात्स भविष्यति ॥ १६४ ॥ इति ब्रुवाणं तं देवं भूदेवः सपरिच्छदः । त्वरितं सान्त्वयामास सम्यग्विनयवृत्तिभिः ॥ १६५ ॥
****
*****************
तृतीय प्रस्तावः
॥७३॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव
||७४॥
XXXXXXXXXXXXXKKKKKKKXXXXX
आहृय जिनदत्ताह श्रावक नरनायकः। सत्कृत्य क्षमयामास स्वकृतं दुष्कृतं ततः ॥ १६६ ॥ देवमायां तिरस्कृत्य पुरस्कृत्य तमास्तिकम् । सुरः स्फुरन्महश्रेण्या सृजन धर्मोन्नति पराम् ॥ १६७॥ आरोप्य हस्तिनः स्कन्धे श्वेतच्छत्रविराजितम् । वीज्यमानं चलच्चारुचामरैरप्सरोगणेः॥१६॥ नानातोद्यमहाध्वानगर्जदम्बरमण्डलम् । नृत्यदेवाङ्गनाक्षिप्तसर्वपौरनरवजम् ॥१६६ ॥ राजाामात्यपुरारक्षैः पुरोगैः परिवारितम् । अनीनयन्निजावासे जनकं मे जगद्धितम् ॥ १७० ॥ चतुर्भिः कलापकम् ।। रत्नवृष्टिं ततः कृत्वा मत्पितुर्भवनाङ्गणे । भक्त्या नाकी नमस्कृत्य जगाम निजमास्पदम् ॥ १७१ ॥ श्रुत्वा श्रेष्ठिवचश्चौरो रहस्थ इत्यचिन्तयत् । अहो ! कुलक्रमायाता चौयवृत्तिममाप्यभूत् ॥ १७२ ॥ देवलीलायितं श्रुत्वा श्रेष्ठिनश्चोपकारिताम् । विमृशं चक्रतुर्भपमन्त्रिणौ च तदा हृदि ॥ १७३॥ अहो! धर्मवतां पुंसां संनिधिः संपदा निधिः । प्राप्यते यदि पुण्योधैस्तदा किं किं न लभ्यते ? ॥१७४ ॥ सदानन्दसुखास्वादनिमग्नरमरैरपि । युक्तमाशास्यते नित्यं संयोगो गुणशालिनाम् ॥ १७५ ॥ नरकाध्वनि संचारी चौरोऽयं करकर्मभिः । श्रेष्ठिनोऽमुष्य संपर्काद्यतो लेभे सुरश्रियम् ॥ १७६ ।। यतः
जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नति दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रकाशयति दिक्ष तनोति कीर्ति सत्संगतिः कथय किं न करोति साम् ॥१॥ देवोऽप्येष विशेषेण कृतज्ञजनमण्डनम् । विसस्मार न यः श्रेष्ठिरचितोपकृतिस्थितिम् ।। १७७ ।। यतः
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
||७४॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
द्वितीय प्रस्ताव:
॥७५॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
प्रथमवयसि पीतं तोयमल्पं स्मरन्तः, शिरसि निहितभारा नालिकेरा नराणाम् ।
उदकममृतकल्पं दद्यराजीवितान्तं, न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥१॥ अथ प्रसेनजिद्राजा रजोऽतीतगुणोदयः । प्रत्यक्षं मे पितुर्वेश्मागतः स्तुतिमिति व्यधात् ।। १७८ ॥ धन्यानामग्रणी श्रेष्ठिस्त्वमेवासि महीतले । यस्य सत्त्वोपकाराय तवैवं रमते मतिः ।। १७६ ॥ यतः
ते तावत्कृतिनः परार्थघटकाः स्वार्थावरोधेन ये, ये च स्वार्थपरार्थसाधनपरास्तेऽमी नरा मध्यमाः । ते मी मानुषराक्षसाः परहितं यैः स्वार्थतो हन्यते,
ये तुघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के ? न जानोमहे ॥१॥ यद्वेदृशः स्वभावाः स्युः प्रायेणोन्नतचेतसः । दुःखं सौख्याय मन्यन्ते यदन्यानुहेच्छया ।। १८० ॥ यतः
लवयति भुवनमुदधेर्मध्यं प्रविशति च वहति जलभारम् ।
जीमूतः सत्त्वहिताः किं न हि कुर्वन्ति चान्यार्थे ? ॥१॥ त्वयैवाऽऽहतमुख्येन परमेतत पवित्रितम । त्वत्संगतिश्च जन्तनां भवेत्पण्यानभावतः ॥ ११ ॥ जिनेन्द्रशासनं सद्भिः संगः सद्गुरुसेवनम् । काले सुपात्रदानं च लभ्यन्ते पुण्यतः परम् ॥ १८२॥ आचचक्षे ततः श्रेष्ठी राजानं विनमच्छिराः। देव ! धर्मप्रभावेन किं किं श्रेयो न जायते ॥ १८३ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥७६ ॥
RRRRRRRXXXXXXXXXXXXXXXX)
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पष्पदामायते, संपद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रि देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे, धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नैः परं वर्षति ॥ १८४॥ अत्रान्तरे नरेशाय प्रीतिमान वनपालकः। व्यजिज्ञपन्नमस्कृत्य पाणिभ्यां रचिताञ्जलिः ॥ १८५॥ देव ! सर्वतुकोद्याने ध्यानेन ध्वंसितारयः। शुद्धाचारवता धुः साधुभिः परिवारिताः ॥ १८६॥ मुनीन्द्रा मुनिचन्द्राख्याः प्रख्याताः श्रुतधारिणाम् । सांप्रतं समवासार्दु हर्षिताखिलजन्तवः ॥१८७॥ युग्मम् ॥ तत् श्रुत्वा नृपतिःप्रापत् परमानन्दसंपदम् । दानं वाञ्छाधिकं तस्मै प्रददौ च निजोचितम् ॥ १८८॥ गत्वा बने ततो मन्त्रिवेष्ठिभ्यां सहितो नृपः । पञ्चाभिगमवान् भक्त्या ववन्दे विधिवद्गुरून् ॥ १८६ ॥ जैनेन्द्रपूजनं साधुवन्दनं तीर्थसेवनम् । शोधयत्यखिलं पापं भावतः क्रियते यदि ॥१०॥ गुरुणा मुनिचन्द्रेण वाचः पीयूषपेशलाः । भवतापोपशान्त्यर्थ तेनिरे तेषु मार्गदाः ॥ १६१ ॥ न्यग्रोधे दुर्लभं पुष्पं स्वातिजं दुर्लभं पयः । दुर्लभं मानुषं जन्म दुर्लभं जिनशासनम् ॥ १६२ ॥ कल्पद्रुस्पर्शपाषाणदक्षिणावर्त्तशङ्खवत् । तत्राऽपि दुर्लभं भव्यास्तत्त्वश्रद्धानमान्तरम् ।। १६३ ॥ तन्निसर्गोपदेशादिभेदैर्देशविधं जिनः। प्रोक्तं द्विविवधर्मस्य मूलं कूलं भवाम्बुधेः ॥ १६४ ॥ यतःनिस्सग्गुवएसरुई आणरुई सुत्तषीअरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई किरिआसंखेव धम्मरुई ॥१॥ जिनेन्द्रोदिततत्त्वानि यः श्रद्धत्ते स्वभावतः । स निसर्गरुचिः प्रोक्तस्तत्प्राप्तिरिति गीयते ॥ १६५ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥७६॥
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव
॥७७॥
अङ्गी गिरिसरिग्रावघोलनान्यायतः परम् । एकाब्धिकोटाकोठ्यन्तःस्थिति निर्माय कर्मणाम् ॥ १६६ ॥ यथाप्रवृत्तकरणात् प्राप्नोति ग्रन्थिसन्निधिम् । रागद्वेषपरीणामो दुर्भेद्यो ग्रन्थिरुच्यते ॥ १६७॥ संप्राप्तग्रन्थिदेशं तु रागद्वेषवशंगतः । उत्कृष्ट कर्मणां भूयः स्थितिं बध्नाति कश्चन ।। ११८॥ समुद्भुतमहावीर्यस्तं ग्रन्थि दुरतिक्रमम् । अतिक्रामेत्क्षणात् कश्चिदपूर्वकरणे कृते ॥ १६ ॥ कृतेऽन्तरकरणेऽथानिवृत्तिकरणे सति। मिथ्यात्वं विरलीकुर्याद्वेदनीयं यदग्रतः ॥ २०॥ आन्तमौहर्तिकं सम्यग्दर्शनं लभते हि यत् । निसर्गहेतुकमिदं सम्यग्श्रद्धानमीरितम् ॥ २०१॥ षड्भिः कुलकम् ॥ गुरूपदेशमासाद्य धर्ममार्गमनाविलम् । यः श्रद्धत्ते सुधीस्तस्योपदेशरुचिता स्मृता ।। २०२॥ रागद्वेषविमोहाना क्षयादाज्ञावलेन यः । मन्यते नवतत्त्वानि स आज्ञारुचिरुच्यते ॥ २०३॥ अङ्गानङ्गप्रविष्टं यो भणन् सूत्रं विगाहते । सम्यक्त्वं स सूत्ररुचिः सम्यग्दृष्टिरुदीरितः ॥ २०४॥ एकेन श्रद्दधानस्य पदेन प्रतिभासितः। प्रसरत्यनेकपदेष्वसौ बीजरुचिर्मतः ॥ २०५ ॥ अर्थतः सकलं येन श्रुतं दृष्टं महात्मना । सोऽभिगमाख्यरुचिः स्यात्सम्यग्दृष्टिर्जिनोदितः ॥ २०६॥ नयभेदप्रमाणेयः षडद्रव्याणां प्ररूपणम् । कतु सम्यग्विजानाति स विस्ताररुचिमतः ॥ २०७॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोविनयगुप्तिषु । क्रियास्तद्यमनं यस्य स क्रियारुचिरुच्यते ॥ २० ॥ स संक्षेपरुचिः ख्यातः कुदृष्टिष्वनभिग्रही । प्रमाणं जिनवाक्यं मे मन्वान इति यो हृदि ॥ २० ॥
॥७७॥
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
|| 26 ||
॥
1
श्रद्धत्ते द्विविधं धर्मं श्रुतचारित्रलक्षणम् । धर्माधर्मास्तिकायादीन् स धर्मरुचिभृञ्जनः ॥ २१० ॥ एकमप्येषु यो भेदं दधते दोषवर्जितम् । सम्यग्दृष्टिरसौ प्राणी लभते सिद्धिसंपदम् ॥ २११ ॥ उत्सृज्याखिलसौख्य सन्ततिभृतं राज्यं रजोराजिवत् यः सम्यक्त्व विभूषिताद्भुततमज्ञानक्रियासंगताम् । नानाभिग्रहशालिसंयमधुरं धत्तेऽत्र धौरेयवत्, त्रैलोक्यस्पृहणीय निवृ तिसुखं प्राप्नोत्यसौ तत्क्षणात् ॥ २१२ ॥ एवं तद्देशनां श्रुत्वा मन्त्रि श्रेष्ठपुरस्सराः । यानपात्रं भवाम्भोधौ प्रत्यपद्यन्त संयमम् ॥ २१३ ॥ अङ्गचक्रस्तथा केsपि देहिनो द्वादशवतीम् । शुद्धं सद्दर्शनं केचिद्भद्रभावं च केचन ॥ २१४ ॥ प्रसेनजिन्महिपालः कृपालुः सर्वदेहिषु । न्यस्य श्रीश्रेणिकं राज्ये विश्वप्रीणकसंपदम् ॥ २१५ ॥ श्राद्धधर्म समाराध्य यतिधर्मानुरागवान् । विरक्तः सर्वकामेभ्यो देवो वैमानिकोऽभवत् ॥ २१६ ॥ युग्मम् ॥ तस्मिन्नवसरे चक्रे चक्रभृत्सदृशप्रभः । श्रेणिकः श्रीजिनाधीशशासनस्य प्रभावनाम् ॥ २१७ ॥ एतत्प्रत्यक्षमालोक्य मयाऽप्यस्मिन् पुरे पुरा । पूर्वं सद्दर्शनं शुद्धं प्रपेदे गुरुसन्निधौ ॥ २१८ ॥ इति प्रयोक्तमाकर्ण्य प्रोस्ताः मुदिताः प्रियाः । अस्मभ्यं रोचते स्वामिन्! सत्यमेतत्तवोदितम् ॥ २१६ ॥ यतश्चिन्तामणिप्राया वाञ्छामात्र फलप्रदाः । शाश्वतश्री प्रदस्याहँुद्धर्मस्यांघ्रिरजोऽणवः ॥ २२० ॥ अथ कुन्दतावादीद्वयलीकं भवदीरितम् । न मन्येऽहं यथा वाक्यं दशहस्ता हरीतकी ॥। २२१ ॥ संकल्प्य मायिनो युक्त्या परव्यामोहहेतवे । कथयन्ति तथा सत्यं मन्यतेऽन्यो जनो यथा ॥ २२२ ॥
****
तृतीय प्रस्ताव:
।। ७८ ।।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
***
तृतीय प्रस्ताव:
॥ ७६।।
धर्मादेव भवेत्सौख्यमेषा भ्रान्तिर्भवादृशाम् । धर्मभाजोऽपि दृश्यन्ते दुःखिनो यत्पदे पदे ॥ २२३॥ सृजन्तोऽप्यनिशं पापं केचित् कुञ्जरगामिनः । साम्राज्यं कुर्वतेऽखण्डषट्खण्डक्षितिमण्डनम् ॥ २२४ ॥ उवाच सचिवं भूमान् श्रुत्वा कुन्दलतोदितम् । अहो ! दुरात्मता कीदृग् योषितोऽस्या हृदि स्थिता ॥ २२५ ॥ अनुभूतं मया सर्व दृष्टं पौरव्रजादिभिः। प्रियेण स्वयमेवोक्तं कथमेषा न मन्यते ॥ २२६ ॥ अभव्यो दूरभव्यो वा जिनरुक्तः स देहभाग् । धर्मतत्वं परेणोक्तं न श्रद्धत्तेऽपि यः कुधीः ॥ २२७ ॥ प्रभाते निग्रहं त्वस्याः करिष्ये सर्वसाक्षिकम् । धर्माधिक्षेपकृन्नान्यो यथा कश्चन जायते ॥ २२८ ।। स्माह मन्त्री महाराज ! भूयानेवंविधो जनः । पुरेऽस्ति कियतां कर्तुं निग्रहः शक्यते त्वया ॥ २२६ ॥ न तत्कुलं न तद्वेश्म नासौ वंशोऽस्ति भृतले । यस्मिन् मिथ्यात्वमूढात्मा जन्तुः कोऽपि न विद्यते ॥२३० ॥ संसारसागरे स्वामिन् ! मिथ्यात्वमकराकुले । सद्दशनमयं रत्नं लभते पुण्यवान् जनः ।। २३१ ।। दध्यौ चौरोऽपि तत श्रत्वा स्वरूपं मे पितुः पुनः । यथास्थितमियं योषिन्न कथं प्रतिपद्यते ॥ २३२ ।। जघन्यानां शिरोरत्नं नूनमेषा नितम्बिनी । नाङ्गीकरोति या सत्यं स्वयं प्राणप्रियोदितम् ।। २३३ ।। धर्मज्ञेन प्रियेणोक्तं कुलीना एव कुर्वते । जात्यरत्नततावेव तेजःपुनः प्रजायते ॥ २३४॥ पत्यौ भक्तिगृहाचारचारुता पूज्यपूजिता । विनयोऽतिथिसत्कारः शृङ्गारोऽयं मृगीदृशाम् ॥ २३५॥ ततः कुन्दलां प्राह श्रेष्ठी सर्वज्ञधर्मविद । विमुग्धे ! भवती सम्यग् तत्त्वं नैव विबुध्यते ॥ २३६ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXX
DOOPOrporppa
॥ ७९ ॥
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
||02||
*******
************
यथा तथा विचेष्टन्ते ते मूढमतयोऽङ्गिनः । स्वाङ्ग दीपायते येषां न जैनेन्द्रवचोऽनघम् ॥ २३७ ॥ इह लोकेऽपि कस्यासीत्परलोकेऽपि कस्यचित् । फलं पुण्यस्य पापस्य कस्यचिल्लोकयोर्द्वयोः ॥ २३८ ॥ पुण्यानुबन्धि भद्रे ! स्यात्पुण्यं पापानुबन्धि च । सम्यग्ज्ञानक्रिये आधे परमज्ञानकष्टजम् ॥ २३६ ॥ पुण्यानुबन्धिपुण्येन प्राप्य सौख्यमनुत्तरम् । पुनः पुण्यपरो भूत्वा ततः श्रेयोऽधिकं श्रयेत् ॥ २४० ॥ पापानुबन्धिपुण्येन किंचित्प्राग् सुखमाश्रितः । कुर्वन् पापशतान्यत्र भवेदुःखी भवे भवे ॥ २४१ ॥ पुण्यादेव सुखं जन्तोदु:खं पापोदयात्पुनः । तद्वयापगमे सिद्धिरिति वेदो मनस्विनि ! ॥ २४२ ॥ तमुक्त्वा नास्तिकीभावं धृत्वा चास्तिकतां प्रिये ! । सर्वज्ञधर्ममाहात्म्यं मन्यस्व जगदद्भुतम् ॥ २४३ ॥ धर्मानुशास्तिमित्येष ददौ तस्या हितावहाम् । न पुनर्मानसे किश्चित्तस्थौ मिथ्यात्वमोहिते ॥ २४४ ॥ भाषिष्ट पुनः श्रेष्ठी भवतीनां मया पुरः । सद्दर्शन स्थिरीभावे हेतुः प्रादुष्कृतोऽधुना ॥ २४५॥ अथ प्रथमतः कान्ता सम्यक्त्वस्थिरतावहम् । वदत्वग्रे समग्रं मे जयश्रीकारणं निजम् ॥ २४६ ॥ एवमादेशमासाद्य सामुदितानना । उदन्तं दन्तदीधित्या शुभ्रयन्त्यब्रवीद्भुवम् ॥२४७॥ तद्यथा— अस्ति पूः पूरितानन्दा भुवो भुवनविश्रुता । अवन्ती देशमध्यस्थोज्जयिनी जयिनी दिवः || २४८ || वैरं लक्ष्मी सरस्वत्योरनादिस्थितिसंभवम् । मुष्णन्ति शास्त्रनिष्णाताः श्रीमन्तो यत्र गेहिनः || २४६ ॥ सीतिरस्कृतारातिभूपतिः सुरसुन्दरः । विश्वानन्दिस्वरूपेण रूपेण सुरसुन्दरः || २५० ||
*******
| तृतीय प्रस्तावः
*****************
॥८०॥
#1
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी ॥८१॥
********
*************
सत्कलानां तु सर्वासां समग्रसुखसंपदाम् । यः पुण्यसागरः प्राप प्रियमेलकतीर्थताम् ॥ २५१ ॥ राज्ञी कनकमालाऽभूद्भूतलानन्ददायिनी । तस्य चम्पकमालेव शीलसौरभ्यभारिणी ॥ २५२ ॥ तत्रैवाभूद्भुवो भतुः प्रसादसदनं सुधीः । सम्यग्दृष्टिशिरोरत्नं वृषभः श्रेष्ठिनायकः ॥२५३॥ पात्रत्यागगुणप्रीतिप्रमुखैः पञ्चभिर्गुणैः । अलंकृतः कृतित्रातग्रामणीर्योऽभवद्भुवि ॥ २५४ ॥ यतः - पात्रे त्यागी गुणे रागो भोगी परिजनैः सह । शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा पुरुषः पञ्चलक्षणः ॥१॥ तस्यासीज्जिनदत्ताख्या सतीततिमतल्लिका । गेहिनी देहिनीव श्रीरनुकूला स्वभर्तरि ॥ २५५॥ यतः -
अनुकूला सदा तुष्टा दक्षा साध्वो विचक्षणा । एभिरेव गुणैर्युक्ता श्रीरेव स्त्रीर्न संशयः ॥ १ ॥ सत्पक्षया तया युक्तः श्रेष्ठी सौख्यसरोवरे । चिरं लीलायितं चक्रे विवेकी राजहंसवत् ॥ २५६ ॥ चारणश्रमणः कश्चिदन्यदा दुरितापहः । समाययौ गृहे तस्या जङ्गमः पुण्यसंगमः ॥ २५७ ॥ सच्चक्रानन्दिना नानातपःस्थितिविधायिना । तेन विस्मेरतां प्रापद्भास्वता पद्मिनीव सा ॥ २५८ ॥ ननाम मथितानङ्ग ं सा मुनिं विधिपूर्वकम् । बिभ्रती भक्तिरागेण चञ्चद्रोमाञ्चकञ्चुकम् ॥ २५६ ॥ आसीनोऽसौ तया दत्ते दत्ताशीमु निरासने । तत्रादिदेश सद्धर्म वाचा साम्यसुधामुचा ॥ २६०|| अस्मिन्नसारे संसारे मराविव सुरद्रुमः । धन्यैरासाद्यते सर्व विद्धर्मोऽभीष्टसिद्धये ॥२६१॥ स सर्वदेशचारित्रभेदाभ्यां द्विविधः स्मृतः । तद्द्वारं तत्त्वश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वमुच्यते ॥२६२॥
************************
तृतीय
प्रस्तावः
॥८१॥
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ८२ ॥
भेदा महर्षिभिर्भद्रे ! सम्प्तषष्टिरुदाहृताः । सम्यक्त्वव्रत शुद्धयर्थं ज्ञातव्या निपुणात्मना ॥ २६३ ॥ तथा हिश्रद्धानानि परमार्थ संस्तवादीनि साधुभिः । चत्वारि प्रोचिरे तस्य प्राणरूपाणि शासने ॥ २६४ ॥ जिनागमस्य शुश्रूषाऽनुरागो धर्मसाधने । वैयावृत्त्यं जिनार्चादौ तत्र लिङ्गत्रयं स्मृतम् ॥ २६५ ॥ यतः - परमत्थसंथवो खलु सुमुणियपरमत्थजइजणनिसेवा । वावन्नकुदिट्ठीण य वज्जणमिह चउर सद्दहणं ॥१॥ परमागमसुस्सा अणुराओ धम्मसाहणे परमो । जिणगुरुवेयावच्चे नियमो सम्मत्तलिंगाई || २|| दशधा विनयो भद्रेऽर्हसिद्धप्रतिमादिषु । सद्दृष्टिना विधातव्यः परं तच्छुद्धिमिच्छता ।। २६६ ॥ यतः - अरिहंत सिद्ध ई सुए अ धम्मे अ साधुवग्गे य । आयरिय उवज्झाए पवयणे दंसणे विणओ ॥ १ ॥ प्रोक्ता विशुद्धयस्तिस्रो मनोव कायलक्षणाः । सम्यग्दर्शन माणिक्यनिर्मलीकारकारणम् ।। २६७ ॥ यतः— "मणवाय कायाणं सुडी समत्तसोहिणी तत्थ । मणसुडी जिणजिणमयवज्रमासरं मुणइ लोअं ॥ १ ॥ तित्थंकरचरणाराहणेण जं मज्झ सिज्झइ न कज्जं । पत्थेमि तत्थ नन्नं देवविसेसंति वयसुद्धी ||२|| छिज्जतो भिज्जं तो पोलिज्जतोऽवि उज्झमाणोवि । जिणवज्जदेवयाणं न नमइ तस्सत्थि तणुसुडी ॥३॥ " शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टेः प्रशंसनम् । संसर्गश्च तदा तेन वर्जनीयानि यत्नतः ॥ २६८ ॥ येऽष्टौ प्रभावकाः ख्याता वादिनैमित्तिकादयः । तेषु भक्तिः सदा कार्या समक्त्वोद्योत हेतुषु ॥ २६६ ॥ यतः - पावणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी उ । विज़ासिडो अ कई अट्ठेव पभावगा भणिया ॥ १ ॥
तृतीय
प्रस्तावः
॥ ८२ ॥
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्तावः
॥८३॥
IXXXXXXXXXXXXXXXXKKK)
शमसंवेगनिर्वेददयास्तिक्यैस्तु लक्षणैः । लक्ष्यतेऽन्तर्गतं सम्यग्दर्शनं पञ्चभिर्वहिः ॥ २७० ॥ स्थैर्य प्रभावनारङ्गचातुर्य चाहते मते । मण्डनानि भवन्त्यस्य तीर्थयात्रा च शक्तितः ॥ २७१ ॥ अन्यतीथिंकदेवादिवन्दनादिक्रियोज्झनात् । षड़िवधा यतना कार्या सम्यग्दृष्टिविशोधिका ॥ २७२ ॥ यतःपरतित्थोणं तद्देवयाण तग्गहियचेइयाणं च । छविहववहारं न कुणइ सा छव्विहा जयणा ॥१॥ वंदण नमसणं वा दाणाणपयाण तेसि वज्जेइ । आलावं संलावं पुव्वमणालत्तगो न कुणइ ॥२॥ आकारा अपवादा ये षोढा राजगणादयः। स्वल्पसत्त्वस्य सम्यक्त्वं तत्प्रयोगान्न खण्ड्यते ॥ २७३ ॥ यतःआगारा अववाया छव्विह कोरंति भंगरक्खडा। रायगणबलसुरक्कमगुरुनिग्गहवित्तिकंतारा॥१॥ सद्धर्ममन्दिरद्वारेत्यादिषड्भावनारसैः। भाव्यमानं च सम्यक्त्वं भवेन्मोक्षसुखप्रदम् ॥ २७४ ॥ भाविज मूलभूयं दुवारभूयं पइनिहिभूयं । आहारभायणमिमं सम्मत्तं चरणधम्मस्स ॥२७५ ॥ जीवोऽयं शाश्वतः कर्ता भोक्ता च पुण्यपापयोः । कर्मक्षयेण निर्वाणं तन्मार्गोऽस्ति जिनोदितः ॥ २७६ ॥ एषु षट्स्थानकेष्वास्था सम्यग्श्रद्धानपूर्विका । सम्यक्त्वं शोधयत्येव तुषाग्निरिव काञ्चनम् ॥ २७७ ॥ यतःअत्थि जिओ तह निच्चा कत्ता भोत्ता य पुनपावाणं । अत्थि धुवं निव्वाणं तदुवाओ अस्थि छट्ठाणे॥१॥ नृभवः सफलस्तस्य कृतार्थ जीवितं तथा । येन सद्दर्शनं लेभे सप्तषष्टिपदान्वितम् ॥ २७८ ॥ चारित्राराधनो धर्मो भजते द्रव्यरूपताम् । सद्दर्शनं विना ज्ञानोपयोगेन यथा मुनिः॥ २७६ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKA
८३॥
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्तावः
॥
४॥
सुसरनराधीशसंपदः संश्रितापदः । तस्य स्युःप्राणिनो यस्य सम्यक्त्वे दृढता हृदि ॥ २८०॥ सम्यक्त्वगुणमाहात्म्यं न्यक्षेण भणितुं क्षमः । स एव केवलज्ञानं भद्र ! यस्यास्ति केवलम् ॥ २८१॥ श्रुत्वेति देशनां तस्य महर्षेः सन्निधौ तदा। जिनदत्ता त्रिधा शुद्धं सम्यक्त्वं प्रत्यपद्यत ॥ २८२॥ प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यं त्वयैतदर्शनं क्वचित् । निःशङ्कितादिभिः कार्यमाचारै निर्मलं तथा ॥ २८३॥ अनुशास्तिमिमां दत्वा व्याजहार महामुनिः । नव चिन्तामणिः पाणौ चिरं तिष्ठति कस्यचित् ॥ २८४ ॥ साऽपि सद्दर्शनं प्राप्य दरिद्रीव सुरद्र मम् । विभ्रती परमानन्दं पालयामास सादरम् ॥ २८५ ॥ वारं वारं विमृश्येषा कारं कारं प्रभावनाम । सम्यक्त्वं निर्मलीचक्रे सुलसेव महासती ॥२८६ ॥ अथानेकगुणाढ्याऽपि सा पुनः सूनुना विना । न रराज यथा रात्रिः सतारापीन्दुनोज्झिता ॥२८७॥ ततस्तनुजसंप्राप्तिचिन्तादुःखमहार्णवे । निमग्ना नितरामापन्न सा निद्रा निशि क्वचित् ॥२८॥
अन्यदाऽवसरं लब्ध्वा सा पतिं प्रणताऽवदत् । स्वामिन् ! गृहं गृहस्थानां सुपुत्रेणैव राजते ॥ २८६ ॥ यतः* नागो भाति मदेन कं जलरुहैः पूर्णेन्दुना शर्वरी, वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैनंद्यः सभा पण्डितैः । शीलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सवैमन्दिरं, सत्पुत्रेण कुलं नृपेण नगरं लोकत्रयं धार्मिकैः ॥१॥
मत्तः स्वकर्मदोषेण सन्तानफलमञ्जसा । भवतो नैव पश्यामि वन्ध्याया वीरुधो यथा ॥ २६॥ सन्तानार्थ मया पूर्वमुपाया भूरिशः कृताः। अभूवन विफलाः सर्वं कुपात्रे दानवत्परम् ॥ २६१॥
KEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥
४
॥
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ८५ ॥
****
***********
सम्यग्बोधिसुधास्वादसानन्दहृदयाऽधुना । विषयेभ्यो विरक्ताऽहं विज्ञातभवसंस्थितिः ॥ २६२ ॥ सांप्रतं सांप्रतं नाथ ! ममानुमतितस्तव । कस्याश्चिद्युक्तकन्यायाः कर्तुं पाणिग्रहोत्सवम् ॥ २६३ ॥ यस्याः पुत्रफलं कल्पवल्लया इवार्थितप्रदम् । प्राप्य पुण्यानि निश्चिन्तमनास्त्वं कुरुषेऽनिशम् ॥ २९४ ॥ श्रुत्वैवं वृषभोऽवादीद्दीव्यन्तततिद्युता । प्रेयसीं सरसीं कुर्वभिवोत्फुल्लसिताम्बुजाम् ॥ २६५ ॥ युज्यते यौवनारम्भे भद्र ! पाणिग्रहोत्सवः । जरद्द्भवस्य किं कण्ठे रत्नमाला विराजते ? || २६६ ॥ वदति स्म पुनः पत्नी गृहस्थस्यानिशं भवेत् । संसारभार खिन्नस्य विश्रामोऽपत्य संगमः ॥ २६७ ॥ यतः— संसारश्रान्तजन्तूनां तिस्रो विश्रामभूमयः । अपत्यं च कवित्वं च सतां संगतिरेव च ॥१॥ जगदे तेन साऽप्येवं विवेकविमलात्मना । त्वदुक्तं सर्वमप्येतज्जानेऽहं युक्तिसंगतम् ॥ २६८ ॥ वृद्धत्वे नैव शोभायै परमुद्वाहविक्रिया । योषिद्विडम्बनामूलं वध्यस्येवाङ्गभूषणम् ॥ २६६ ॥ वयोऽतीतमनुष्येषु विशेषात् शोभतेऽभितः । नानाधर्मोद्यमः सम्यक् कुकर्मोन्मूलनक्षमः ॥ ३०० ॥ विषयव्याकुलीभावो वृद्धत्वे हास्यकृन्नृणाम् । विरुद्धं सर्वशास्त्र षु विशेषाजिनशासने || ३०१ ॥ यतः - strङ्गविभूषणद्युतिरियं शोकेऽपि लोकस्थितिदरिद्र ऽपि गृहं वयः परिणतावप्यङ्गनासेवनम् ।
*************
तृतीय
प्रस्तावः
॥ ८५ ॥
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
८६॥
EXXRXXXXXXXXXXXXXXXX
येनान्योन्यविरुद्धमेतदखिलं जानन् जनः कार्यते,
सोऽयं सर्वजगजयी विजयते व्यामोहमल्लो महान् ॥१॥ जिनदत्ताऽवदद्देव ! रागावेगवशायदा । सेव्यन्ते विषयाः कामं तदा हास्यं भवेद्भुवि ॥३०२॥ सन्तानार्थ कृते पाणिग्रहे सन्तानसंभवे । शोभाधर्मकुलादीनां वृद्धिः सर्वत्र जायते ॥ ३०३ ॥ तस्मिन्नवसरे कश्चिन्निमित्तज्ञानपण्डितः । सिद्धपुत्रः समायासीत्तत्पुण्यप्रेरितो गृहे ॥ ३०४॥ प्रतिपत्तिं परां कृत्वा भोज्यैः षड्रससंस्कृतैः । अतूतुषद्विशेषात्तं श्रेष्ठिन्यौचित्यतत्परा ॥ ३०५॥ श्रेष्ठिनोऽस्य सुतो भावी श्रियः स्वामी महामते ! । प्रसीदाख्याहि मे प्राक्षीदेवं तं गृहमेधिनी ॥३०६॥ नवोढायां ध्रुवं भावी भद्रे ! भद्रगजोपमः । तनूजः श्रेष्ठिनो गेहे वभाणेति निमित्तवित् ॥ ३०७ ॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा सानन्दवदनाम्बुजा । पाणिग्रहमहं साङ्गयकारयत् श्रेष्ठिनं बलात् ।। ३०८॥ वाञ्छितार्थप्रदानेन तमानन्ध ततो गृही। विससजे जवादेव दान एव यतो रसः॥ ३०६ ॥ इतश्च तत्र निवसन् जिनदेवाभिधो वणिग । अभूदगुणवता मान्यः सदाचारपरायणः ॥ ३१॥ बन्धुश्रीगेंहिनी तस्य देहिनीव रतिः क्षितौ । कनकनीः सुता जज्ञे तयोश्च कनकधुतिः ॥ ३११॥ जिनदत्ता ययाचे तां गत्वा तद्भवनेऽन्यदा । तावूचतुः कथंकारं दीयतेऽसौ तवोपरि ॥ ३१२॥ दरिद्रेण समं योगः कौमार्य वा वर स्त्रियाः । सपत्नीभिः सहावासो न पुनः श्रेयसे भवेत् ॥ ३१३ ॥
॥८६॥
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
'सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव:
॥८७||
KRKKXXXXXXXXXXXXXX******
धर्मज्ञापि कुलीनाऽपि सपत्नीभावमाश्रिता । अन्यस्य द्रुह्यति प्रायः कायें स्वल्पेऽपि वर्णिनी ॥ ३१४ ॥ अलपजिनदत्ताऽपि तयोरेवं कृताञ्जसम । देवपूजादिकार्यष भोजनावसरे तथा ॥ ३१५॥ आगन्तव्यं मया पावें भतु न्यित्र कुत्रचित् । विरक्तयाऽपि यत्कार्य पत्यौ सद्धर्मगौरवम् ॥ ३१६ ॥ भुक्ता भोगा मया पूर्वमनुभूतं वपुःसुखम् । कृतानि गृहकार्याणि गतं च चतुरं वयः ॥ ३१७ ॥
तो ममोचितः कतु धर्म एव जिनोदितः । अत्राथें देवगुर्वादेराईवास्त्ववधिर्मम ॥ ३१८॥ एवं च प्रत्यये जाते दत्ता ताभ्यां स्वनन्दिनी । ऊढा च विधिना तेन श्रेष्ठिनोत्सवभासुरम् ॥ ३१६॥ पञ्चाङ्गसुखनिर्मग्ना हेमश्रीः श्रेष्ठिना समम् । गृहादिकार्यनिश्चिन्ताऽजीगमत्कतिचित्समाः ॥३२० ॥ मनोऽनुकूलं कुर्वाणा तस्याः सद्धर्मभाविता । जिनदत्ताऽभजत्सौख्यं भवतृष्णोज्झिताशया ॥ ३२१॥ यतःसर्वसङ्गपरित्यागान्नापरं परमं सुखम् । तृष्णाप्रपञ्चतो नान्यो घोरो नरक उच्यते ॥१॥ क्रमादापन्नसत्त्वाऽभूद्धमश्रीः पुण्ययोगतः। जिजीव च गृहं सर्वमुत्सवश्रेणिभिः समम् ॥ ३२२ ॥ यथैव ववृधे गर्भस्तस्याः शस्यानुभावभृत् । उज्जजृम्भे तथैवोच्चैरानन्दः श्रेष्ठिनो हृदि ॥ ३२३ ।। प्रत्यहं प्रददौ पात्रदान सर्वार्थसाधकम् । श्रेष्ठी दीनादिजीवानां भोजनं तु सुखावहम् ॥ ३२४ ॥ पितृष्वसुः पदोभक्तिननान्दुर्वहुमाननम् । बन्दिमोक्षादिपुण्यानि सङ्घवात्सल्यमन्वहम् ॥ ३२५ ॥ पूजा जिनेन्द्रविम्बानां प्रदीपाश्च तदालये । हेमश्रिया विधीयन्ते तदा सानन्दयाऽधिकम् ॥ ३२६ ॥ युग्मम् ।।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥
७॥
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय
प्रस्तावः
॥
८॥
*XXXXXXXXXXXXXXXXX
सैवं पुण्यप्रभावेन पुत्ररत्नमजीजनत् । उत्सवानां पुनः श्रेणीः श्रेष्ठी वेश्मन्यचीकरत् ॥ ३२७ ॥ पृथिव्यां पप्रथे नाम्ना सार्थकेनार्थिनां प्रियः । पुण्यसार इति प्रीतैबन्धुभिर्निर्मितेन सः ।। ३२८ ।। यथा धर्मवता धुर्यः श्रेष्ठयासीद्धर्मकर्मभिः । तथा पुत्रवतां तेन पुत्रेण त्रासितार्तिना ॥ ३२६ ॥ विषयेभ्यो विरक्तोऽभूदथ ज्ञातभवस्थितिः। वृषभश्चङ्गसंवेगो मुनिचर्या चिकीरिव ॥ ३३०॥ जिनदत्ताऽपि निश्छद्मबुद्धथा साधर्मिकोपमम् । मन्वती दयितं पुण्यसांनिध्यं विदधेऽनिशम् ॥ ३३१ ॥ असूययन्ती हेमश्रीः सपत्नीत्वेन तां प्रति । पितुर्वेश्मान्यदा प्राप्ता प्रोक्ता मात्रेति साञ्जसम् ॥ ३३२ ॥ भद्रे ! पत्युगृहे सौख्यं मनसस्तुष्टिदायकम् । सर्वाङ्गीणं सदाऽप्यस्ति नास्ति वा तव सुन्दरि ! ॥ ३३३ ॥ सायमम्भोजिनीवासौ परिम्लानमुखी क्षणम् । रुदित्वा जननीं प्राह मन्युयुक्ता स गद्गदम् ।। ३३४ ॥ सपत्न्या भुक्तभोगेऽस्मिन् दत्वा भर्तरि मां स्वयम् । समाधिसुखसंयोगं विदुषी किमु पृच्छसि ।। ३३५ ॥ आस्तां वैषयिक सौख्यं न नर्मवचनं मया। विधत्तेऽसौ तया धर्मछानाकृष्टमानसः ॥ ३३६ ॥ स गत्वा जिनचैत्येषु तया वल्लभया समम् । मिषतो देवपूजादेः स्वैरं क्रीडति तिष्ठति ।। ३३७ ॥ व्याजादावश्यकादीनामेकत्र विजने गृहे । नेत्रालोकसुखास्वादौ तिष्ठतस्तौ परस्परम् ॥ ३३८॥ सर्वाणि गृहकार्याणि दासीवद्रचयाम्यहम् । एकाकिनी क्षीणगात्रा रात्रौ निद्रां करोमि च ॥ ३३६ ॥ सपत्नीसंभवं दुःखं यदस्ति मम मानसे । तद्वाणीविषयीकतु यदि जानाति केवली ॥ ३४०॥
॥८८॥
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
सम्यक्त्वकौमुदी
XXXXXXX
प्रस्तावः
18 ||
XXXXXXXXXXXXXXXXX
श्रुत्वा पुत्र्योदितं वाक्यं बन्धुश्रीरित्यचिन्तयत् । अहो ! दुरात्मता कीहक तयोः सच्छद्मचेतसोः॥ ३४१॥ यो यस्यामनुरक्तात्मा स तत्रैव विलीयते । नोचितानुचिते वेत्ति कामान्धीकृत हृत्तथा ॥ ३४२ ॥ यतः
किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यस्त्रिदशपतिरहिल्यां तापसी यत्सिषेवे।
हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मराग्नावुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ॥१॥ रतिरूपा परित्यज्य मदीयां नन्दिनीमिमाम् । वलिभिः कलिताङ्गी तामीहते स कथं जडः १॥ ३४३॥ अथोवाच सुतां माता वत्से ! दुःखं वृतं त्यज । ज्ञाते व्याधौ प्रतीकारविधानं सुकरं भवेत् ॥ ३४४॥ प्रोन्मूल्य मनसः शल्यं कुल्यांघ्रिपमिव स्वयम् । येन केनाप्युपायेन करिष्येऽहं सुखं तव ॥ ३४५॥ एवमाश्वास्य बन्धुश्रीः स्वगृहे तामतिष्ठिपत् । स्वयं च जिनदत्तायां द्रोहोपायं व्यचिन्तयत् ॥ ३४६ ॥ अन्येचुराययौ तत्र विचित्राश्चर्यमन्दिरम् । सिद्धेश्वराभिधो योगी विश्वाकर्षणशक्तिभृत् ॥ ३४७॥ तमारराध बन्धुश्रीविविधैरन्नपानकैः । सुधास्वादै रिवानन्ददायिभिः स्वर्गिणामपि ॥ ३४८ ॥ कपाली सोऽन्यदा भक्त्या तामृचे तुष्टमानसः । भद्रे ! त्वं हृदयाभीष्टं मत्तो याचस्व किंचन ॥ ३४६॥ हर्षेण प्रोचुषी साऽपि प्रसन्नोऽसि यदि प्रभो!। जिनदत्तां तदा पुत्रीसपत्नी मारय द्र तम् ॥ ३५॥ मिष्टान्नपानलोभान्धः स पापं तत्प्रपन्नवान् । मिथ्यादृशां कुतो धर्माधर्ममार्गविचारणा ॥ ३५१ ॥ दर्शनं प्रतिपद्यापि जिनवाचामवेदिनः । कुकर्मसु रमन्तेऽमी लिङ्गिनो मोहिताशयाः॥ ३५२ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
K॥८६॥
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
112 11
*****
तत्कार्यसिद्धये व्रैषीद्विद्याधिष्ठातृदेवताम् । कपाली पिङ्गलाह्वानां संस्मर्य विधिवत्कुधीः ॥ ३५३ ॥ साऽपि तत्प्रेरिता तस्याः समपे समुपागता । अर्हत्पूजानुभावेन प्रशान्तीभूतमानसा ॥ ३५४ ॥
पश्चादागत्य योगीन्द्रमत्रवीद्धयाननिश्चलम् । न भानुमण्डलस्थस्य विबाधा तमसो भवेत् || ३५५ || युग्मम् ॥ भद्रेषा विशदाचारा सुशीला जिनभक्तिभाग् । सत्यवाग् दयिते भक्ता वन्दनीया सतामपि ॥ ३५६ ॥ ततोऽस्य विपदं कर्तुं न कोऽपीशः क्षितौ भवेत् । देवो वा दानवो वाऽपि किमन्यो मादृशो जनः ॥ ३५७ ॥ साधुना श्रीजिनेन्द्राणां पूजामापद्विनाशिनीम् । अष्टधा विदधानाऽस्ति भक्तितो जिनवेश्मनि ॥ ३५८ ॥ यतःयान्ति दुष्टदुरितानि दूरतः कुर्वते सपदि संपदः पदम् । उल्लसन्ति हृदयानि हर्षतः पूजया विहितया जगद्गुरोः ॥ १ ॥ शोषणे सप्तवार्द्धणां चूर्णने सर्वभृभृताम् । तवास्ति शक्तिरादिष्टं गुरुणेति पुरा मम ॥ ३५६ ॥ तत्प्रसीद महादेवि ! सेवकोपरि वत्सले ! । तद्विधेहि द्रुतं कार्यं गत्वा तत्र ममाधुना ॥ ३६० ॥ इत्युक्ता योगिना तेन गत्वाऽगात्पुनरप्यसौ । तं पाषण्डिब्रुवं प्रोक्तवती च विकटाशया ॥ ३६१ ॥ न तां द्रष्टुमपीशेऽहं सतीषु तिलकोपमाम् । तदन्यद्वद मे कार्य तेऽन्यथा मृतिरागता ॥ ३६२ ॥ अधियाराधितो धर्मो मन्त्रश्चेटकदेवता । कुगृहीतं यथा शस्त्रं साधकं हन्ति तत्क्षणात् ॥ ३६३ ॥ द्वयोर्मध्येच या दुष्टा तां मारय प्रसीद मे । इत्युक्ता योगिना गत्वा हेमश्रीमरिता तया ॥ ३६४ ॥
***********
तृतीय
प्रस्तावः
112 11
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
तृतीय प्रस्ताव:
कौमुदी
॥६
॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX
प्रभाते तां तथाभूतां दृष्ट्वा दुःखभरादिता । बन्धुश्रीरातो राज्ञो गत्वा विज्ञप्तिमातनोत् ॥ ३६५॥ राजन् ! न्यायवनाम्भोद ! कनकश्रीमंदङ्गजा । अमार्यसूयया नूनं सपत्न्या जिनदत्तया ॥ ३६६ ॥ एतदाकर्ण्य भूपालः प्रेषीत् प्रेष्यान् रुषारुणः । जिनदत्तामहासत्याः संसद्याकारणाकृते ॥ ३६७ ।। सम्यग्दृष्टिसुरैः कैश्चित्स्तम्भितास्तेऽर्द्धवर्त्मनि । चिकीर्षु भिः क्षमापीठे जिनधर्मप्रभावनाम् ॥ ३६८ ॥ यस्याहति गुरौ भक्तिः श्रद्धानं हृदयेऽद्भुतम् । आपद्यपि भवन्त्यस्य संपदो नास्ति संशयः ॥ ३६६ ॥ यतः
सिंहः फेरुनिभस्तथाऽग्निरुदकं भीष्मः फणी भूलता, पाथोधिः स्थलमङ्गणं वनमही चौरश्च दासोऽञ्जसा । तस्य स्याग्रहशाकिनीगदरिपुप्रायाः पराश्चापद
स्तन्नाम्नाऽपि च यान्ति यस्य हृदये सम्यक्त्वदीपोदयः ॥१॥ तं वृत्तान्तं तदा श्रुत्वा दम्पतीभ्यां जिनौकसि । प्राप्ताभ्यां देवपूजायै व्यचिन्तीति स्वचेतसि ॥ ३७०॥ किमेवं श्रूयते लोके स्वरूपं कनकश्रियः । अथवा प्राक्तनं कर्मान्यथा कर्तुं न शक्यते ॥ ३७१ ॥ संसारसागरे घोरे भ्रमतोऽस्य शरीरिणः । सर्वाङ्गिभिः सदाऽभूवन संबन्धा बहुशोऽखिलाः ॥ ३७२ ॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते यतो जीवाः स्वकर्मभिः । अतो धर्मार्जनं कार्य प्रयत्नेन विवेकिना ॥ ३७३॥ अवदजिनदत्ताऽथ प्रकटं श्रेष्ठिशेखरम् । ममासीदपवादोऽयं स्वामिन् ! केनापि कर्मणा ॥ ३७४ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
॥४
॥
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ६२ ॥
***************
उपसर्गस्ततो यावदेष नो न क्षयं व्रजेत् । कायोत्सर्गो मया कार्यस्तावत् श्रीअर्हतां पुरः || ३७५ ॥ इति संबोध्य भर्तारं कायोत्सर्गे महासती । शुभध्यानवती तस्थौ सुस्थिता जिनमन्दिरे ॥ ३७६ ॥ परमेष्ठिमहामन्त्रं स्वतन्त्रस्त्रासितैनसम् । एकाग्रहृदयः श्रेष्ठी जपति स्म जिनाग्रतः ॥ ३७७ ॥ तदनुध्यानमाहात्म्यात्सम्यग्दृष्टिसुरैस्तदा । उत्पाट्य नृपतेरग्रे मुक्तो योगी वभाण सः ॥ ३७८ ॥ बन्धुश्री प्रेरितेनैतद्राजन् ! सर्वं मया कृतम् । लोभान्धः कुरुते नैव किं किं पापमयं जनः १ ॥ ३७६ ॥ वृत्यर्थी क्षत्रियो मुक्तमार्गो लिङ्गी सुखार्थिनी । नारी वणिक् च लोभान्धः पापं कुर्वन्न चिन्तयेत् ॥ ३८० ॥ अपराधोज्झिता तेन जिनदत्ता महासती जिनधर्मविदो नैव हिंसां कस्यापि कुर्वते ॥ ३८१ ॥ क्षम्यतामपराधो मे मोहमृढतमात्मनः । ईदृशं पापकर्माहं नैव कुर्वे पुनः क्वचित् ॥ ३८२॥
भूपतिः स्माह भो लिङ्गिन् ! कुर्वाणो लिङ्गिकैतवात् । कुकर्म भोजनस्यार्थे मुधा श्वभ्र' प्रयास्यसि ॥ ३८३ ॥ गृहमेधित्रतं त्यक्त्वा पापाः पाषण्डमण्डिताः । कुर्वन्तो धर्मकर्माणि प्रायः स्युदुःखभाजनम् ॥ ३८४ ॥ निःशूकहृदयः कृत्वा पापकर्माण्यनेकशः । निवर्तते न यस्तेभ्यस्तस्य शुद्धिर्न विद्यते ॥ ३८५ ॥ भवत्कृतस्य पापस्य लोकद्वयविरोधिनः । निवृत्तावपि नो दृष्टा परं शुद्धिस्तपो विना ॥ ३८६ ॥ यतः - मित्रहः कृतघ्नस्य स्त्रीघ्नस्य पिशुनस्य च । शुद्धिर्नोक्ता बुधैः प्रायश्चित्ताचरणमन्तरा ॥ १ ॥ इत्युक्त्वा तं दुराचारं स्वदेशान्निरकाशयत् । बन्धुश्रीसंयुतं राजा रक्षार्थ न्यायधर्मयोः ॥ ३८७ ॥
**************************
तृतीय
प्रस्ताव:
॥ ६२ ॥
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्ताव:
॥
३॥
XXXXXXXXXX*****XXX
अत्युग्रपुण्यपापानां कारिणां प्राणिनां पुनः । जायते फलमत्रवावादीदिति महाजनः ॥ ३८८॥ यतःत्रिभिर्मासैखिभिः पक्षस्त्रिभिर्व स्त्रिमिर्दिनैः । अत्युग्रपुण्यपापानां फलमत्रैव जायते ॥ १ ॥ अत्रान्तरे सुरेश्चक्र पश्चाश्चयंप्रपश्चनम् । दम्पत्योरुपरि प्रीतः सम्यग्धमक्रियागुणः ॥ ३८६ ॥ भूमानपि तदाश्चर्य श्रुत्वा सस्पृहमानसः । उवाच धर्ममाहात्म्यं कीदृगस्तीति संसदम् ॥ ३९० ॥ तस्मिन्नवसरे तत्र प्रासादे परमेशितुः । समाधिगुप्तनामागादनगारः क्षमाक्षमः ॥ ३६१ ॥ आहूतः पौरलोकानां पुण्यैः पुण्यानुबन्धिभिः । चतुर्ज्ञानधरः सम्यग्दृष्टिदृष्टिसुधासरः ॥ ३६२ ॥ युग्मम् ॥ ध्यानं मुक्त्वा महानन्दौ दम्पत्यौ मुनिपुङ्गवम् । भक्त्या प्रदक्षिणीकृत्य नेमतुदु रितच्छिदम् ॥ ३६३ ॥ धर्मलाभाशिषं प्राप्य ततस्तौ रचिताञ्जली । हृदयं प्राञ्जलीकृत्योपाविष्टौ मुदिताननौ ॥ ३६४॥ कर्णावतंसमाधाय मुनेरागमनं नृपः । तत्रागत्य जनैयुक्तो क्वन्दे विधिना सुधीः ॥ ३६५ ॥ मुनिः संसारकान्तारभ्रान्तितापभरापहाम् । साक्षाद्राक्षारसमयीं विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ३६६ ॥ संसारापारकान्तारे भ्रमताऽभीष्टसिद्धिदः । लभ्यते भाग्ययोगेन जिनधर्मसुरद्रुमः ॥ ३६७ ॥ श्रीसर्वज्ञोदिते धर्मे दृढं यस्य मनो. भवेत् । सर्वदाऽपि सुपर्वाणः सान्निध्यं तस्य कुर्वते ॥ ३९॥ मूलं सद्दर्शनं तस्य धर्मकल्पमहीरुहः । सम्यक्श्रद्धानरूपं तज्जीवाजीवादिवस्तुषु ॥ ३६६ ॥ जीवाजीवौ तथा पुण्यपापे आश्रवसंवरौ । बन्धोऽथ निर्जरामोक्षी तत्त्वानि नव शासने ॥४०॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥
३॥
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ६४ ॥
**************
मुक्ताः संसारिणस्तत्र द्विधा जीवा उदाहृताः मुक्ताश्च पञ्चदशधा तीर्थसिद्धादिभेदतः ॥ ४०१ ॥ स्थावरत्रसभेदाभ्यां द्विधा संसारिणोऽङ्गिनः । पश्चधाद्या मही नीरं वह्निवायू वनस्पतिः ॥ ४०२ ॥ सूक्ष्माः स्थूलाश्च ते ख्याताः प्रत्येकं वसुधादयः । त्रैलोक्यव्यापिनः पूर्वे तदेशस्थितयः परे ॥ ४०३ ॥ प्रत्येकाः साधारणाश्च तरवोऽपि द्विधा पुनः । त्रसा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियत्वेन चतुर्विधा ॥ ४०४ ॥ तत्र पञ्चेन्द्रिया द्वेधा संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽपि च । शिक्षोपदेशचेष्टां ये जानन्ते तेऽत्र संज्ञिनः ॥ ४०५ ॥ संप्रवृत्तमनःप्राणास्तेभ्योऽन्ये स्युरसंज्ञिनः । ते सर्वेऽपि द्विधा ज्ञेयाः । पर्याप्ततरभेदतः ॥ ४०६ ॥ पर्याप्तयोस्तु पडिमा जीवपर्याप्ततावहाः । आहाराङ्गन्द्रियप्राणवाग्मनोभिरिहोदिताः ॥ ४०७ ॥ एकाक्षविकलाक्षाणां पञ्चाक्षाणां च देहिनाम् । चतस्रः पञ्च षट् च स्युः पर्याप्तयो यथाक्रमम् ॥ ४०८ ॥ जीवस्थानान्यमूनि श्रीजिनोक्तानि चतुर्दश । मिथ्यादृशामविज्ञातान्यवनीयानि यत्नतः ॥ ४०६ ॥ धर्माधर्मो नमःकाला अजीवाः स्युः सपुद्गलाः । समं जीवेन पञ्चापि द्रव्याण्येते प्ररूपिताः ॥ ४१० ॥ सर्वे तत्र विना कालं प्रदेशनिचयात्मकाः । अचिपा विना जीवमकर्तारश्च ते स्मृताः ॥ ४११ ॥
कालं विनाऽस्तिकायाः स्युरमूर्ता : पुद्गलान्विताः । सर्वेऽप्येते पुनः ख्याताः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकाः ॥ ४९२ ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णैः पुद्गलाः स्युचतुर्विधाः । ते स्कन्धाणुतया द्वेधा तेष्वबद्धाः किलाणवः ॥ ४१३ ॥ स्कन्धा बद्धाः पुनः सूक्ष्मबादराकारधारिणः । शद्वगन्धतमच्छायो द्योतभेदात्मका अपि ॥ ४१४ ॥
*****
***************
तृतीय
प्रस्तावः
॥ ६४ ॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥६५॥
*********
धर्मभाषाप्रयत्नोच्छ्वासहेतवः । सुखदुःखजीवितव्यमृत्यूपग्रहदायिनः ॥ ४१५ ॥ धर्माधर्मौ नभश्चैकद्रव्याणि स्युर्जिनागमे । लोकाकाशमभिव्याप्य धर्माधर्मौ व्यवस्थितौ ॥ ४१६ ॥ प्रवृत्तेषु स्वयं गन्तुं जीवाजीवेषु सर्वतः । सहकारी भवेद्धर्मो वारिवद्वारिचारिणाम् ॥ ४१७ ॥ पुद्गलानां च जीवानां प्रपन्नानां स्थितिं स्वयम् । अधर्मः सहकारी स्याद्यथा छायाऽध्वगामिनाम् ॥ ४१८ ॥ विश्वगं स्वप्रतिष्ठं स्यादाकाशमवकाशदम् । लोकालोकौ स्थितं व्याप्य तदनन्तप्रदेशकम् ॥ ४१६ ॥ लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु | भावानां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते ।। ४२० ॥ ज्योतिःशास्त्रे स्मृतं यस्य प्रमाणं समयादिभिः । स व्यावहारिकः ख्यातः कालः सर्वप्रवेदिभिः ॥ ४२१ ॥ सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं प्राणिनां प्रीतिपूर्वकम् । विपरीताणवः पापं नानादुःखोदयावहम् || ४२२ || मनोवाक्कायचेष्टाभिर्यत्कर्म स्यात्स आश्रवः । शुभः शुभस्य हेतुः स्यादशुभस्त्वशुभस्य सः ॥ ४२३ ॥ सर्वाश्रवनिरोधस्य हेतुः संवर उच्यते । कर्मणां भवहेतूनां जरणेन तु निर्जरा || ४२४ ॥ कषायादिवशः प्राणी कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । आदत्ते यत्स बन्धः स्याज्जन्तोरस्य चतुर्विधः ॥ ४२५ ॥ निरोधे बन्धहेतूनां घातिकर्मक्षयोद्भवे । केवले सति मोक्षः स्यात् शेषाणां कर्मणां क्षये ॥ ४२६ ॥ भुवनत्रयेsपि यत्सौख्यं देवादीनां निगद्यते । न तुल्यं सिद्धिसौख्यस्य तदनन्तांशतोऽपि हि ॥ ४२७ ॥ एतानि नवतत्त्वानि यः श्रद्धते शुभाशयः । तस्य सद्दर्शनं शुद्धं करस्थाश्च शिवश्रियः ॥ ४२८ ॥
************************
तृतीय
प्रस्तावः
॥६५॥
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्तावः
॥६६॥
जिनागमश्रुतेरेव समुल्लसति देहिनाम् । सम्यक्तत्त्वपरिज्ञानं पयःसेकादिवाङ्कुरः ॥ ४२६ ।। यतःक्षाराम्भस्त्यागतो यद्वन्मधुरोदकयोगतः। बीजं प्ररोहमाधत्ते तद्वत्तत्त्वश्रुतेर्नरः ॥१॥ क्षाराम्भस्तुल्य इह च भवयोगोऽखिलो मतः । मधुरोदकयोगेन समा तत्त्वश्रुतिः पुनः ॥ २॥ बोधाम्भःश्रोतसश्चैषा सिरा तुल्या सतां मता। अभावेऽस्याः श्रुतं व्यर्थमसिरावनिकूपवत् ॥३॥ ज्ञानचारित्रयोर्योगं सम्यग्दर्शनपूर्वकम् । न्यक्षेण मोक्षसौख्यस्य निदानं मुनयो जगुः ।। ४ ।। इति श्रुत्वा मुनेः पाश्वं जानवैराग्यरङ्गवान् । गृहभार सुते न्यस्य पुण्यसाराह्वये निजे ।। ४३०॥ फलं प्राप्य श्रियो दानै गमैर्बहुभिवृतः । सकलत्रः स कलत्रां तपस्यामृषभोऽग्रहीत् ॥ ४३१ ॥ युग्मम् ।। ज्ञाततत्त्वस्थितिः सम्यग् सम्यक्त्वारोपशालिनीम् । अङ्गीचकार भूनेता विधिना द्वादशवतीम् ॥ ४३२ ।। सम्यक्त्वाणुव्रतादीनि तथा पूजादिनिश्चयान् । अपरोऽपि पुरीलोकः प्रतिपेदे यथारुचि ॥ ४३३ ।। एतत्प्रत्यक्षतो वीक्ष्य मयाऽपि गुरुसन्निधौ । सम्यक्त्वं निश्चलं स्वामिन् ! जगृहे मुक्तिकारणम् ॥ ४३४ ॥ ऋषभश्रेष्ठिमुख्यानां प्राप्तचारित्रसम्पदाम् । शिक्षा द्राक्षोपमस्वादा स मुनीन्द्रस्तदा ददौ ॥ ४३५ ॥ संसारे सौख्यकारीणि यानि वस्तूनि देहिनाम् । दुःखरूपाणि दृश्यन्ते तानि सर्वाणि युक्तितः ॥ ४३६ ॥ यतः
भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भयं, दास्ये स्वामिभयं जये रिपुभयं वंशे कलङ्काद्भयम् ।
XXKAKKKKKKKKKKKKXXXXXXXXX
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
तृतीय प्रस्तावः
॥१७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
माने म्लानिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्यं,
सर्व नाम भयं भवेदिदमहो! चारित्रमेवाभयम् ॥ १॥ भवद्भिभूरिभाग्येन प्राप्ता पञ्चमहाव्रती । पालनीया प्रयत्नेन रक्षितादिनिदर्शनात् ॥ ४३७ ॥ एवं मित्रश्रिया प्रोक्ते सम्यक्त्वप्राप्तिकारणे । अहंद्दासः प्रियाश्चान्या जगदुर्मधुरस्वरम् ॥ ४३८ ॥ त्वयोक्तं सत्यमेवैतद्वयं मन्यामहे पुनः । अर्हद्धर्मस्य माहात्म्यं यतोऽस्ति जगदद्भुतम् ।। ४३६ ॥
ब्रजन्ति दुःखानि विनाशमाशु सुखानि वृद्धि कलयन्ति कामम् ।।
सृजन्ति साहाय्यममी सुरौधा धर्मानुभावेन सदाङ्गभाजाम् ॥ ४४०।। प्राह कुन्दलता पापलता मूर्तिमती भुवि । अत्रार्थे प्रत्ययो नैव जायते मानसे मम ॥ ४४१॥ यतो मित्रश्रिया प्रोचे सर्वमेतन्मनीषया । कल्पनातल्पमारोप्य छद्मधर्फकधूतया ॥ ४४२॥ नृपाद्याश्चिन्तयामासुरहो ! अस्या दुरात्मनः । अश्रद्धानमिदं कीदृक् प्रायः सत्येऽपि वस्तुनि ॥ ४४३ ॥ गुणमाणिक्यसंपूर्णे सजने सत्यभाषिणि । केवलं दोषमादत्ते प्रायेण प्राकृतो जनः ॥ ४४४ ॥ उक्तं च"दोषमेव समादत्ते न गुणं निगुणो जनः। जलौकाः स्तनसंपृक्तं रक्तं पिषति नामृतम् ॥१॥
मित्रश्रिया प्रोक्तमिदं चरित्रं सम्यक्त्वमाहात्म्यविकाशकारि । कर्णावतंसश्रियमानयन्तः सद्बोधिलाभं भविकाः! भजध्वम् ॥ ४४५॥
॥
७॥
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ६८ ॥
********
अवनिपरिवृढोऽपि श्रेणिकाख्यः समन्त्री जगदुदयनिदानं बोधिलाभानुभावम् । श्रवण पटुपुटेनास्वाद्य तत्रानवद्यं व्यधित विधुततापं हर्षपूराभिषेकम् ॥ ४४६ ॥
इति श्रीतपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजय चन्द्रसूरिशिष्यैः पण्डितजिन हर्षगणिभिः कृतायां सम्यक्त्वकौमुदीकथायां तृतीयः प्रस्तावः ॥ ग्रंथाग्रम् ५०३ ॥ ॥ अथ चतुर्थः प्रस्तावः ॥
सगौरवमथ श्रेष्ठी प्रावादीच्चन्दनश्रियम् । भद्र े ! सद्दर्शनावाप्तिहेतुं स्वं कथयाधुना ॥ १ ॥ आदेशं स्वामिनः प्राप्य साऽपि पुण्यवती सती। निजगाद कथामेवं सद्धर्मारामसारणिम् ॥ २ ॥ तथा हि भरतक्षेत्रे पवित्रे जिनसद्मभिः । देशोऽस्ति संपदा हेतुः कुरुः कल्पतरुर्यथा ॥ ३ ॥ हस्तिनागपुरं तस्मिन् पृथिव्यास्तिल कोपमम् । जिनेन्द्र जन्मभूमित्वात्प्रथितं तीर्थमुत्तमम् ॥ ४ ॥ सदाचारतया ख्याता निष्कलङ्ककलान्विता अमृतद्युतयो यत्र लोकाः पीयूषमूर्तयः ॥ ५ ॥ भूभोगोऽभूद्भुवो भर्ता नभोगोपमविक्रमः । तस्मिन् भोगभृतामाद्यः कृतविद्यजनाग्रणीः ॥ ६ ॥ द्विधा धर्मनिष्णातः क्षमाभारक्षमो द्विधा । अमित्रे मित्रवर्गे च कल्याणोन्नतिकृत् सदा ॥ ७ ॥ मान से यस्य भूभतुर्द्वयं तृणगणायते । रणे वैरिनृपश्रेणी दाने च कनकोत्करः ॥ ८ ॥
******
***************
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ ६८ ॥
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ६६ ॥
*******:
तस्य भोगावती देवी दीनासिंहरणक्षमा । सर्वसहा क्षमेवासीत्सती सन्ततिमण्डनम् ॥ ६ ॥ यस्याः पात्रदयादानात् श्रीजिनेन्द्रपदार्चनात् । व्यरंसीद्दाक्षिणः पाणिन कदापि दिवानिशम् ॥ १० ॥ कृपालुः सर्वजीवेषु स्पृहयालुः शुभार्जने । तत्राभूत् श्रावकः श्रीमान् गुणपालो गुणोज्ज्वलः ॥ ११ ॥ श्रीजिनार्चनया तीर्थयात्रया पात्रदानतः । न्यायोपात्तं निजं वित्तं यो निनाय कृतार्थताम् ॥ १२ ॥ गुणावली प्रिया तस्याभवत्सद्गुणशालिनी । शुद्धसद्दर्शनारोप विशुद्धीभूतमानसा ॥ १३ ॥ गुणपालो गुणावल्या कल्पवल्ल्येव संगतः । श्रीजैनशासनोद्याने लेभे कल्पतरूपमाम् ॥ १४ ॥ सोमदत्तोऽभवद्विप्रः सिप्रोज्ज्वलकलालयः । शुक्लवृत्ति सदाचारो दरिद्रो दीनतास्पदम् ॥ १५ ॥ सोमिला सुकुमालाङ्गी तस्यासीद्गृहमेधिनी । तयो की पवित्र श्रीः सोमा सोमानना तथा ।। १६ ।। दुर्वारज्वररोगेण मृताऽन्येद्युस्तु सोमिला । सोमदत्तस्ततो जज्ञे चिन्ताचान्तः पदे पदे ॥ छत्रभङ्गो यथा भूमौ मूलच्छेदो यथा तरौ । गृहभङ्गो गृहस्थस्य दुःसहो समये तथा ॥ साधूनां विश्वबन्धूनां सोऽन्यदा सविधेऽगमत् । संसारदुःखतप्तानां मुनयो हि सुधासरः बहुमानान्नमस्कृत्य तानसौ भद्रकाशयः । उपाविशत् पुरः शोकावेशेन विवशोऽधिकम् ॥
T
१७ ॥
१८ ॥
॥
raisal साधुभिर्भद्र ! कथं दुःखीव दृश्यसे । तेनापि जगदे तेषां निजं दुःखस्य कारणम् ॥ २१ ॥ विदधे गुरुणा तेन देशनेति कृपामयी । संसारमार्ग एवैष विषमः सर्वदेहिनाम् ॥ २२ ॥
१६ ॥
२० ॥
****
**************
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ ६६ ॥
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
चतुर्थ
प्रस्ताव
॥१०॥
XKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
इन्द्रोपेन्द्रादिभिस्तुल्योऽप्रतिकार्यतमः पुनः । ततो दुःखं न कर्तव्यं कर्तव्यं हितमात्मनः ॥ २३ ॥ युग्मम् ।। हितश्च प्राणिनां नूनं धर्म एव जिनोदितः । दुष्कर्माणि विलीयन्ते तमांसीव रवेर्यतः ॥ २४ ॥ यतः
दानशीलतपोभावभेदैरेष चतुर्विधः । चतुर्गतिभवानेकदुःखनि मनाशकः ॥१॥ उक्तञ्च- दानं सुपात्रे विशदं च शीलं तपो विचित्रं शुभभावना च ।
भवार्णवोत्तारणसत्तरण्डं धर्म चतुर्धा मुनयो वदन्ति ॥१॥ इति श्रत्वा गुरोः पा स विप्रः श्रावकोऽजनि । कृतार्थयन्निजं जन्म धर्मकार्यर्यथोचितैः॥ २५॥ दरिद्रोऽपि स पात्रेषु दत्ते दानमनारतम् । यतः शक्त्यहवारेण प्रदातव्यं विवेकिना ॥ २६ ॥ यतःदेयं स्तोकादपि स्तोकं न व्यपेक्षा महोदये । इच्छानुसारिणी शक्तिः कदा कस्य भविष्यति ॥१॥ धर्मेषु परमं धर्ममाद्यं ब्राह्मणलक्षणम् । ब्रह्मचर्य महाघोरं त्रिधा शुद्धं बभार सः । २७॥ यतःको देह कणयकोडिं अहवाकारेइ कोइ जिणभवणं। तस्स न तत्तियपुन्नं जत्तियबंभव्वए धरिए ॥१॥ ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पेन शिल्पिकः। अन्यथा नाममात्र स्यादिन्द्रगोपककीटवत् ॥२॥ एकरात्र्युषितस्यापि या गतिब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ! ॥३॥ गरीयांसि तपास्येष विविधानि व्यधात पुनः । अन्यधर्मविधौ विभ्रदानन्दं भावांस्तथा ॥ २८ ॥ त्रिकालं जिनबिम्बानामचना सृजति स्म सः। षडावश्यककर्माणि द्विदधानो दिने दिने ॥ २९ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
*॥१०॥
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व-* कौमुदी
चतुर्थ
प्रस्ताव:
॥१०॥
**********************
तस्या मानं जिना एव वक्तुं स्युः प्रभवो यदि । आवश्यकोपयुक्तस्य निर्जरा या हि दृश्यते ॥ ३० ॥ एवं धर्मपरस्यास्य सत्कीर्तिनगरेऽभवत् । निरन्वयोऽपि धर्मण गीयते त्रिदशैरपि ॥ ३१ ॥ अन्यदा तं सदाचारपरायणशिरोमणिम् । अभाणीद्गुणपालाख्यः श्रेष्ठी प्रष्ठो विवेकिनाम् ॥ ३२ ॥ श्रावकत्वं दयालुत्वं ब्रह्मचारित्वमुत्तमम् । नान्यत्र तादृशं दृष्टं यादृशं त्वयि दृश्यते ॥ ३३ ॥ साधर्मिकमहाभाग ! संवेगरससागर ! । तेन त्वं वन्दनीयोऽसि सर्वेषां गृहमेधिनाम ॥ ३४॥ निरारम्भतया स्थातुं युज्यतेऽतः परं तव । सावधवजंकः श्राद्धः साधुवन्महितः सताम् ॥ ३५।। मदीयवेश्मनि स्थित्वा कुर्वन धर्ममनारतम् । भोजनं प्रासुकान्नेन भवानत्र भवान् यदि ॥३६॥ विधत्ते विगतव्याधिस्तदानन्दो भवेन्मम । सुपात्रं त्वादृशं यस्मात्प्रौढपुण्यादवाप्यते ॥ ३७॥ युग्मम् ॥ यतःसत्पात्रं महती श्रद्धा काले देयं यथोचितम् । धर्मसाधनसामग्री नाल्पपुण्यैरवाप्यते ॥१॥ सम्यग्दृष्टौ सदा शान्ते दादशव्रतपालके । दत्तं स्वल्पमपि प्रायो भवेत्कोटिगुणं नृणाम् ॥ २॥ मिथ्यादृष्टिसहस्रेषु सम्यग्दृष्टिगुरुः स्मृतः। सम्यग्दृष्टिसहस्रेषु गुरुरेको ह्यणुव्रती ॥ ३ ॥ अणवतिसहस्रेषु वरमेको महाव्रती। महाव्रतिसहस्रेषु वरमेको जिनाधिपः ॥ ४ ॥ जिनाधिपसमं पात्रं न भूतं न भविष्यति । यदि योगो भवेत्तेन ध्रुवं सिद्धिपदं तदा ॥५॥ इत्यायुक्त्या च युक्त्या च प्रीणितःप्रतिपन्नवान् । भोजनं श्रेष्ठिनस्तस्य वेश्मनि ब्राह्मणाग्रणीः ॥३८॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०१॥
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१०२॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
गौरवाद्गुणपालेन भोज्यमानो निजालये । गुरुतां धर्मशास्त्रेषु स प्रापत् श्रावकबजे ॥ ३६॥ सतां संसर्गतः प्रायो गुरुनीचोऽपि जायते । रत्नश्रेणिगतः काचः प्रोच्चैः किं नो मणीयते ? ॥४०॥ श्राद्धधर्म त्रिधाशुद्धं तत्सान्निध्यादसौ द्विजः । अनेकधा समाराध्य विधायाराधनादिकम् ॥ ४१ ॥ प्रपद्यानशनं प्रान्ते शुभध्यानी समाधिमान् । अभ्यधाद्गुणपालाय श्रेष्ठिने गुणशालिने ॥ ४२॥ एषा मदङ्गजा सोमा दृढसम्यक्त्वधारिणे । भूदेवाय त्वया देया विद्येवाचारधारिणे ॥४३ ।। समृद्धायापि मिथ्यात्वमोहनीयाऽवृतात्मने । सर्वशास्त्रसुधाम्भोधेन पुनः पारदृश्वने ॥४४॥ अनूढेव वरं कन्या वरं कष्टोपजीविनी। पुंसा मिथ्यादृशा नैव परं संयोगशालिनी ॥ ४५ ॥ इत्युक्त्वा विरतः सर्वाश्रवेभ्यो धृतिमान् द्विजः । मृत्वा वैमानिको नाकी स्फुरत्तेजा अजायत ॥ ४६॥ सुतेव श्रेष्ठिना तेन सोमा सौम्यतमाशया । स्वगृहे पाल्यमानाऽभूत् क्रमाद्यौवनभारिणी ॥४७॥ श्रीसुब्रतामहासत्याः सेवया समजायत । सम्यग्सर्वज्ञधर्मज्ञा सम्यग्दृष्टिनिदर्शनम् ॥ ४८॥ तेन तस्या मनो धर्म रेमे नो विषये पुनः । विवेकी राजहंसः किं भजते पङ्किलं पयः ॥ ४९ ॥ अथात्रैव पुरे विप्रो रुद्रदत्ताभिधोऽजनि । अदत्तादाननिष्णातो घृतादिव्यसनोदधिः ॥ ५० ॥ न मन्यते गुरु देवं धर्म मित्रं च बान्धवम् । मिथ्यात्वमलिनस्वान्तो द्यूतक्रीडारतोऽनिशम् ॥ ५१ ॥ अन्यदा घुतशालायां क्रीडतस्तस्य दुर्धियः । ब्रजन्ती जिनपूजायै सोमा दृग्गोचरं गता। ५२ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥१०॥
१४४
RRN
तामालोक्य महालोकरूपालङ्कारधारिणीम् । पुण्यलावण्यपीयूषवाहिनीं विममर्श सः ॥ ५३॥ विधिनिर्माणसर्वस्वमहो ! एषा नितम्बिनी । सधर्मिणी भवेद्यस्य तस्य श्लाघ्या गृहस्थितिः ।। ५४ ॥ पप्रच्छासौ ततो द्यूतकारान् कैतवमन्दिरम् । कस्यैषा नन्दिनी कस्य दयितेति निगद्यताम् ॥ ५५ ॥ तैरुक्तं सोमदत्तस्य विप्रचूडामणेः सुता । वर्धिता गुणपालेन श्रेष्ठिना परमर्द्धिणा ॥ ५६ ॥ उक्तोऽथ जनकेनायं परलोकगमक्षणे । सम्यक्त्वशालिने देया द्विजायासौ ममाङ्गजा ॥ ५७ ॥ ततोऽस्याः श्रेष्ठिना तेन सम्यग्दृष्टिद्विजोत्तमः । विलोक्यते वरः कोऽपि रत्नत्रयपवित्रितः ।। ५८॥ ईदृग्गुणवराभावादनूढा प्रौढिमीयुषी । वर्तते गुणपालस्य सदनेऽखिलसंपदि ॥ ५६ ॥ रुद्रदत्तोऽवदद्दत्ततालं तान् प्रति सस्मितः । मयैषा परिणेतव्या कैतवेनापि वर्णिनी॥६॥ वभाषिरे परे द्यूतकाराः स्फारितलोचनाः। किमप्यस्याः स्वरूपं त्वं न जानासि ? दुराशय ! ॥ ६१ ॥ याज्ञिकैः श्रोत्रियैश्चासौ कुलाचारपवित्रितः । याचिता स्वतनूजानामुद्वाहार्थ सगौरवम् ॥ ६२ ॥ नवीनोद्गमसौरभ्या मनोऽभीष्टफलावहा । कामिनी कल्पवल्लीवनायते केन केन हि ॥ ६३ ॥ न दीयते परं कस्मै श्रेष्ठिना श्रावकं विना । न हि कामगवी केन कल्प्यतेऽत्र गवाशिने ॥ ६४ ॥ निर्धनोऽपि धनाढ्यानां धुर्येव क्रियते बुधैः । स एव देहिना येन धर्मधुर्धियतेऽधिकम् ॥६५॥ द्यूतशौण्डो भवांचौरः परदाराभिलाषुकः । सतीचूडामणेस्तस्याः कथं योग्यपदं भवेत् ॥ ६६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
KXXXXXXXXXXX
॥१०॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतथं
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्तावः
॥१०४॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX:X)
श्रुत्वैवं वचनं तेषां रुद्रदत्तोऽब्रवीत् पुनः । अत्रार्थे मे प्रतिज्ञाऽस्तु भवतां शृण्वतामियम् ॥ ६७ ॥ पाणौकृत्य कनीमेतां स्फुरत्कङ्कणपाणिना । इहैवागत्य तद्वेषो युष्माभिः सह लीलया ॥ ६८ ॥ द्यूतैर्नवनवाकूतैर्यदि दीव्याम्यहं न हि । भवद्भिर्गणनीयोऽहं तदा विप्रबुवाग्रणीः ॥ ६६ ।। युग्मम् ॥ उत्थाय द्यूतशालायास्ततो निर्गत्य वेश्मनः । मायावी धूर्तताशाली भ्रमन् ग्रामाननेकशः ॥ ७० ॥ अभ्यस्य श्रावकाचारं समीपे कस्यचिन्मुनेः । अधीत्य श्राद्धप्रज्ञप्तिसूत्रादि स्तोत्रसंयुतम् ॥ ७१ ॥ कुशलो गुरुसेवायां निपुणश्चाहतां स्तुतौ । ब्रह्मचारितया ख्याति तन्वन्नाहतसन्ततौ ॥ ७२ ॥ भाषाशरीरगुप्तात्मा तीर्थे तीर्थे जिनेश्वरान् । नमस्कुर्वन् प्रतिग्रामं क्रमात्तत्रागतोऽन्यदा ।। ७३ ।। चतुर्भिः कलापकम् ॥ तिष्ठस्तत्र जिनाधीशसमनि छद्मवानसौ । निर्मिते गुणपालेन दशधा धर्ममादधत् ।। ७४ ॥ श्रेष्ठिनो जिनपूजाये तत्रायातवतो भवेत् । तथाविधसदाचारदम्भभृन्नयनातिथिः ॥ ७५ ॥ युग्मम् ॥ विधायाष्टविधां पूजामहतां गर्हितोज्झिताम् । तमाचष्ट सतां श्रेष्ठः श्रेष्ठी वन्दनपूर्वकम् ॥ ७६ ॥ कुतोऽस्मिन्नागमो जज्ञे भवतः श्रावकोत्तम ! । ब्रह्मचारिव्रतं कस्माद्यौवनेऽप्यातं त्वया ।। ७७ ॥ वन्दित्वा विधिना तस्मै कल्पनाशिल्पिनिर्मितम् । आरेमे निजवृत्तान्तं स वक्तुं निकृतेः पदम् ॥ ७८ ॥ षट्कर्मा सोमशर्मासीद्वाराणस्यां महापुरि । गृहाचारपरो दत्तरगया गङ्गन्या स्त्रिया ॥ ७९ ॥ नाम्ना तु रुद्रदत्तोऽहं तयोः सूनुतया स्मृतः। यौवने मदमत्तात्मा विषयविह्वलोऽभवम् ॥८॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०४॥
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१०॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततो वसन् गृहे नित्यं वेत्रवत्याः पणस्त्रियः । गृहमूलधनं सर्व व्ययेऽकार्ष दुराशयः ॥८१॥ निर्धनत्वादहं त्यक्तस्तया पापैकरूपया । पित्रोवियोगतो दःखी प्राप्तः पापमयी दशाम् ॥२॥ एक एव भ्रमन् पृथ्वीं भिक्षाभोजी शुभोदयात् । जिनचन्द्रगुरोः पाव प्रापं कल्पतरोरिव ॥ ८३॥ युग्मम् ।। प्रणम्य बहुमानेन निविष्टोऽहं तदन्तिके । अश्रौषं हर्षपीयूषवर्षिणी धर्मदेशनाम् ॥ ८४ ॥
धर्मो माता पिता धर्मः सुहृद्धर्मः सतां गतिः । धर्मो दुःखतमोभानुर्धर्मः कल्याणसेवधिः ॥८५॥ प्रापणीयं यदा श्रेयो यदासन्नं परं पदम् । लभते भावतः प्राणी तदा धर्म जिनोदितम् ॥८६॥ धर्मेण मन्दरेणेव सुमनःप्रेरितात्मना । इन्वद्देहभृद्याति भवाब्धेरुद्धृतः शिवम् ॥ ७ ॥ प्रतिपत्तिभेवेदस्य सर्वतो देशतोऽपि च । तत्रानगारिणामाद्या द्वितीया तु सवेश्मनाम् ॥ ८८॥ स्थावरत्रसजन्तूनां त्रिविधत्रिविधात्मना । संकल्पारम्भभेदाभ्यां ये कुर्वन्ति न पीडनम् ॥ ८ ॥ क्रोधादिभिश्चतुर्भेदं वर्जयन्ति मृषोदितम् । अदत्तं नैव गृह्णन्ति द्रव्यादिकचतुर्विधम् ।।६०॥ पालयन्ति सदा शीलं गुप्तिभिर्नवभिश्च ये । त्यजन्ति त्यक्तधामानः सर्वथापि परिग्रहम् ॥ ११॥ दिनप्राप्तादिभिर्भ देयें मुश्चन्ति निशादनम् । द्रव्याघभित्रहोद्युक्ता विशुद्धाहारभोजिनः ॥ १२ ॥ ते हि संयमिनः प्रोक्ता मुक्तिमार्गप्रकाशकाः । तदेकदेशमाचारं श्रयन्तः श्रावकाः पुनः ॥ ३ ॥ ब्रह्मचारिपदारूढो विशुद्धाहारभोजकः । यो भवेत् प्रतिमाधारी स श्राद्धः साधुवन्मतः ॥१४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०॥
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्तावः
॥१०६॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXX
सृजन्ति देवा अपि यन्नमस्यां नरेश्वराः शासनमुद्वहन्ति ।
ग्रहाः प्रसन्ना वशिनश्च दुष्टास्तद्ब्रह्ममाहात्म्यमुदाहरन्ति ॥ १५ ॥ इति श्रुत्वा गुरोः पार्थे संवेगरसवाहिना । मया ब्रह्मव्रतं किश्चिद्गृहीतं विश्वपूजितम् ॥ १६ ॥ ततस्तीथंबनेकेषु नमस्कुर्वन जिनेश्वरान । इहागमं नमस्कतु श्रीशान्त्यादिजगद्गुरून् ॥१७॥ श्रेष्ठी सुधामिवाचाम्य तेन वाचं प्रपश्चिताम् । आश्चर्योद्गतरोमाश्चश्चेतस्येवं व्यचिन्तयत् ॥ १८ ॥ सत्तपांस्येकतः सर्वाण्येकतः शीलपालनम् । एकतः सर्वतीर्थानि पुण्डरीकादिरेकतः ॥ ६ ॥ ततो महान पुमानेष विशेषात्स्तुतिभाजनम् । ब्रह्मचारिव्रतं यस्य यौवनेऽप्यतिदुष्करम् ॥१०॥ कतु तदस्य वात्सल्यं शक्यते यदि भक्तितः । गृहाश्रमतरुर्मेऽसौ तदानीं स्यात्फलेग्रहिः ॥ १०१ ॥ साधर्मिकवात्सल्यं जीवदया निग्रहः कषायाणाम् । पुण्यानुबन्धि पुण्यं सारं जिनशासने विदितम् ॥ १०२ । तमुवाच ततः श्रेष्ठी कस्मिन्नुत्तारके स्थितिः । कृतास्ति भवता पुण्यवता ब्रह्मवतांवर ! ॥ १०३॥ वात्सल्यं कतुमिच्छामि भवतो ब्रह्मचारिणः । यतः पुण्यादवाप्येत मुक्तसङ्गस्त्वणुव्रती ॥ १०४॥ निर्मायानुग्रहं तस्माद्भवानागत्य मद्गृहम् । गृहचैत्यं नमस्कृत्य विदधात्वद्य पारणम् ॥१०५॥ सोऽप्यब्रवीदिहवास्मि कृतषष्ठतपाः स्थितः। पश्चग्रासमयों वृत्तिं कुर्वन् कुर्वेऽङ्गधारणम् ॥ १०६॥ भवादृशां गृहं राजगृहव द्विश्वमण्डनम् । सुपर्वसुन्दरीतुल्यललनाभिः समाकुलम् ॥ १०७॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०६॥
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १०७॥
*******
१०६ ॥
ततो यथा तथा गन्तुं मया तत्र न शक्यते । स्त्रीणामदर्शनं प्रायो गुणाय ब्रह्मचारिणाम् ॥ तथाऽपि भवता सार्धं वेश्मचैत्यनिनंसया । कदाचित्समयं प्राप्य समेष्यामि तपोऽहनि ॥ गुणपालस्ततो ज्ञात्वा पुरोगं निःस्पृहात्मनाम् । बह्वाग्रहात्समाकार्य समं तेनागमद्गृहम् ॥ ११० ॥ विधिनाऽसौ नमश्चक्रे तद्गेहे प्रतिमाः पुनः । रत्नमाणिक्यसौवर्णनिर्मिता आर्हती मुदा ॥ १११ ॥ अभोजयत् समं श्रेष्ठी स्वेन तं बहुगौरवात । आहतिर्भोजने सारं धर्मे जीवदया यथा ॥ ११२ ॥ भोजनानन्तरं श्रेष्ठी तं प्रपूज्य सुमादिभिः । निवेश्य धर्मशालायां निजायामित्यभाषत ॥ ११३ ॥ अद्य मे सफलं सर्वमजायत महाशय ! । यद्भवानतिथिः प्राप्तो धर्मपाथोनिधिर्मया ॥ ११४ ॥ सम्यग्दृष्टि' हातीतो द्वादशव्रतपालकः । यस्य पुण्योदयो भूयात्तस्य गेहेऽतिथिर्भवेत् ॥ ११५ ॥ स्थातव्यं परमत्रैव दिनानि कतिचित्त्वया । धर्मशालानिषण्णेन धर्मध्यानं च विभ्रता ॥ ११६ ॥ एकरात्रं वसेद्यत्र ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । स्थावरं तदपि ख्यातं तीर्थं तीर्थकरादिभिः ॥ तदाग्रहात्स्थितः सोऽपि धर्मं कुर्वन् गतस्पृहः । मायावी विस्मयं चक्रे गृहे सर्वेषु देहिषु ॥ बभाषे श्रावकं श्रेष्ठी रहस्येवं कदाचन । आजन्म ब्रह्मचारित्वं किं वा सावधिकं तव १ ॥ जजल्प स्वल्पवागेवं श्रेष्ठिनं ब्रह्मचार्यपि । अक्षाणि दुर्जयान्येव मुनीनामपि यौवने ॥ तुलनां कुर्वता तेन तपस्यायां मया विभो । प्रपन्नं ब्रह्मचारित्वं समर्यादं गुरोर्गिरा
॥
१०८ ॥
११७ ॥
११८ ॥
११६ ॥
१२० ॥
१२१ ॥
*********
****************
प्रस्तावः
॥१०७॥
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
1180211
********
*:************
व्रतं तन्महता कार्यं यत्प्राणेभ्योऽधिकं मतम् । खण्डव्रतस्य यज्जन्तोर्वोधिप्राप्तिः सुदुर्लभा ॥ १२२ ॥ यतःइष्टैर्वियोगो बहुधार्त्तियुक्तता कुयोनिता सन्ततरोगधारिता । पराभवोऽन्यैश्च कुरूपदेहता फलान्यमून्याहुरितव्रताङ्गिनाम् ॥ १ ॥ एष एव वरो योग्यः सुतायाः शोमशर्मणः । पुण्योदयान्मया प्राप्तः सवयाः सदृशस्थितिः || १२३ ।। इति ध्यायन्नसौ माह कार्यार्थी ब्रह्मचारिणम् । प्रसीद प्रार्थनां भद्र ! ममैकां सफलां कुरु ॥ १२४ ॥ एवा सोमाभिधा कन्या धन्या मान्या च सद्गुणैः । सम्यग्दृष्टि जनप्रष्ठा विशुद्धोभयपक्षभृत् ।। १२५ ।। सधर्मिणी विधातव्या नात्र कार्या विचारणा । अस्या एव त्वमाकृष्टः पुण्यैरेव समागमः ।। १२६ ।। नहीनोsपि नारीणां सदाचारी वरो वरम् । सन्मार्गतः परिभ्रष्टः श्रीमानपि विषायते ।। १२७ । क्षमया संयुतः साधुर्यथा स्वार्थविधौ पटुः । तथा गृहस्थधर्माय गृहिण्यापि गृहव्रती ॥ १२= ॥ भावी फलेग्रहिमेऽद्य महोद्यमतरुस्ततः । इति ध्यात्वाऽवदत् सोऽपि लज्जानम्रमुखीभवन् ॥ १२६ ॥ दुःखानां खानिरेणाक्षी नरकद्वारदीपिका । निदानं प्रथमं कर्मबन्धनेषु शरीरिणाम् ॥ १३० ॥ अरीणामित्र नारीणां तेन सङ्गो न रोचते । भवतोऽपि वचो नैव निराकतु तु शक्यते ॥ १३१ ॥ एवं ब्रुवाणं तं श्रेष्ठी बलादपि सुवासरे । पाणि स ग्राहयामास सोमायाः समहोत्सवम् ॥ १३२ ॥ सुवर्णकोटिसंयुक्ते सर्वोपस्करशालिनि । अतिष्ठिपत्ततः श्रेष्ठी तं पृथग्भवने तदा ॥ १३३ ॥
**************************
चतुर्थ
प्रस्तावः
1180511
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१०६॥
PERXXXXXXXXX***************
नवोढा नवरागाा नवानन्दवशंवदाम् । द्वितीयेऽथ दिने मुक्त्वा सोमा त सपरिच्छदाम् ॥ १३४॥ द्यतक्रीडापदं प्राप्य क्वणकङ्कणपाणिना । रन्तु प्रचक्रमे त्यक्तक्रियोऽसौ ब्राहाणवः ॥ १३५॥ घ्तकारास्तमालोक्य तादृग्वेषविभूषितम् । अभिज्ञाय च दुवृतं ते प्रोचुर्विस्मिताशयाः ॥१३६ ।। प्रतिज्ञा भवताऽपूरि कथं फूटप्रयोगतः । सोऽपि स्वरूपमाचख्यौ यथावद्विहितं निजम् ॥ १३७ ।। श्रुत्वा तद्विस्मयाविष्टा द्यूतकारा अवादिषुः । अहो ! दम्भसमारम्भरचना भवतोऽधिका ।। १३८ ॥ मौनदम्भात् कलादम्भात् शौचदम्भादपि ध्रुवम् । दुर्भद्यो विदुषामेष क्रियादम्भो विशेषतः ॥ १३६ ॥ त्वया धर्मप्रपञ्चेन विप्रताय महास्तिकम् । सोमा सोमाशया प्राप्ता प्रिया पुण्यवती यदि ॥ १४॥ अतः परं प्रयातव्यं सदाचारमहापथे। नीचोऽप्यच्यपदं.प्राणी प्राप्नोत्याचारसंग्रहात् ।। १४१ ॥ युग्मम् ।। अवमत्य दुराचारितयाऽसौ तद्गिरं कुधीः । उत्थाय द्यूतशालाया ययौ पण्याङ्गनागृहम् ।। १४२॥ वसुमित्राङ्गजा तत्र वेश्या विश्वविमोहिनी । द्विधा कामलता ख्याता कलानां केलिमन्दिरम् ॥ १४३॥ भृरिशो भूरिदानेन पुरा तेन वशीकृता । आसीनिस्सीमसौभाग्या मृर्ता रतिरिवावनौ ॥ १४४ ॥ युग्मम् ॥ आसक्तः कामभोगेषु तया सह दुराशयः । स पापो गमयामास दिनानि कतिचित् पुनः॥१४५ ॥ सतीमतल्लिका सोमा तस्य विज्ञाय चेष्टितम् । दिलक्षहृदया धर्मदक्षाऽप्येवं व्यचारयत् ॥ १४६॥ अहो । कर्मपरीणामो दलेडन्यो मरुतामपि । द्रव्यक्षेत्रादिसामग्र्या शुभाशुभफलावहः ।। १४७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१०॥
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥११॥
यद्यथा येन याग च निर्मितं कमें देहिना । तत्तथा तेन भोक्तव्यं तादृशं स्वनिधानवत ॥ १४८ ॥ उक्तं च
यद्भावि तद्भवति नित्यमयत्नतोऽपि, यत्नेन चापि महता न भवत्यभावि । ___ एवं स्वकर्मवशवर्तिनि जीवलोके, शोच्यं किमस्ति पुरुषस्य विचक्षणस्य ॥१॥ श्रेष्ठिनाऽपि तदाकर्ण्य सोमाऽवादि सगद्गदम् । वत्से ! दुःखं न कर्तव्यं दुर्लक्या कर्मणां स्थितिः ॥१४॥ कलेः कालस्य माहात्म्यात्पापप्राचुर्यशालिनः । धार्मिका अपि जायन्ते यज्जने छद्मभारिणः ॥ १५० ॥ यतः
अनृतपटुता चौर्ये चित्तं सतामपमानता, मतिरविनये शाठ्यं धर्म गुरुष्वपि वश्चना ।
ललितमधुरावाक्प्रत्यक्ष परोक्षविभाषिता, कलियुगमहाराज्यस्यैताः स्फुरन्ति विभूतयः॥१॥ धर्मछद्मपरत्वेन न ज्ञातो द्यूतकारकः । परीक्षितोऽप्ययं कूटहेमवद्वहुधा मया ॥ १५१ ॥ अतो धर्मस्त्वया कार्यः सर्वकार्यसुखप्रमः । प्रणीतः प्रीणितप्राणिश्रेणिभिः श्रीजिनोत्तमैः ।। १५२ ॥ सोमा शान्तमनाः स्माह नास्ति दुःखं मनागपि । तात ! संतापपीयूष ! त्वत्प्रसादेन मे हृदि ॥ १३॥ अधमः कामभोगेषु मछितो दुःखमानयेत् । विवेकी तु सृजेद्धर्म दुःखे जाते विशेषतः ॥ १५४ ॥ वियोगं प्राप्य मृढात्मा शोकं पुष्णात्यहर्निशम् । तथा करोति तत्त्वज्ञो वियोगो न यथा भवेत् ॥ १५५ ॥ ततस्तात ! मया कार्या धर्मकल्पद्रुसारणिः । सदा श्रीअहतां भक्तियतीनां च शिवावहा ॥ १५६ ।। इत्थं निशम्य तद्वाक्यं श्रेष्ठी हृष्टाशयो जगौ । कर्तव्यानि त्वया भद्रे ! धर्मकार्याण्यशङ्कितम् ॥ १५७ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११०॥
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥११॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अज्ञानाद्यन्मयाऽकारि तवायं दुःखसंगमः। क्षन्तव्यं तत्त्वया सम्यग् मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे ॥ १५८ ॥ अज्ञानादथ विस्मृत्या तादृक्पापपदं गतः । मिथ्यादुष्कृतमातन्वंस्त्रिशुद्धया शुद्धयति ध्रुवम् ॥ १५६ ।। इदं च जैनसिद्धान्तपुस्तकं पुण्यवृद्धये । वाचनीयं त्वया चेतःस्थैर्यार्थ सार्थकं सदा ॥ १६० ॥ इत्युदीर्य समग्रेषु पुण्यकार्येषु तां पुनः । नियोज्य बहुमानेन श्रेष्ठी जज्ञे समाधिमान् ॥ १६१ ॥ तस्मिन्नवसरे तत्राजग्मुस्तिग्मद्युतिद्युतः । विश्वाम्भोजप्रकाशाय श्रीसुधर्ममुनीश्वराः ॥ १६२ ।। वन्दितुं तान् गता सोमा सम्यग्दृष्टिजनैः सह । निर्मिता गुरुभिस्त्वेवमश्रौषीद्धमदेशनाम् ॥ १६३ ॥ विंशतिस्थानकैरेव विधिना निर्मितैरिह । लभते तीर्थकुल्लक्ष्मी जीवः पीवरपुण्यवान् ॥ १६४ ॥ कानि तानि प्रणीतानि स्थानकानि मुनीश्वर ।। इत्युक्ते सोमया तत्र गुरुरादिष्टवान् यथा ॥ १६५ ॥ अर्हत्सिद्धागमाचार्यवात्सल्यादीनि विंशतिः। भवन्ति स्थानकान्यहच्छासने शिवकारणम् ॥१६६ ॥ यतःअरिहंतसिद्धपवयणगुरुथेरबहस्सुए तवस्सीसु । वच्छल्लया य एसिं अभिक्खनाणोवओगे य ॥१॥ दसणविणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो । खणलवतवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥२॥ अपुव्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥ द्रव्यतो भावतश्चापि भक्तिः कार्याऽहतां दृढम् । प्रथमे स्थानके वत्से ! त्रिकालाचैनपूर्वकम् ॥ १६७ ॥ सुगन्धधूपदीपादिप्रकारैरष्टभिः सदा। पूजा कार्या जिनेन्द्राणां स्थानकेष्वखिलेष्वपि ॥ १६८॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX*
॥११
॥
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ ११२ ॥
(*:************
तथा जिनेन्द्र चैत्यानि द्रव्यभक्तिचिकीषु'णा । रत्नस्वर्णाश्मसत्काष्ठमयानि विधिपूर्वकम् ॥ १६६ ॥ युग्मम् ॥ सुवर्णरत्नकाष्ठाद्यैर्निर्मितो यैजिनालयः । तेषां पुण्यप्रधानानां को वेद फलमुत्तमम् ॥ १७० ॥ यतः - काष्ठादीनां जिनागारे यावन्तः परमाणवः । तावन्ति वर्षलक्षाणि तत्कर्ता स्वर्गभाग भवेत् ॥ १ ॥ एकाङ्गुष्ठादिसत्सप्तशताङ्गुष्ठावधि प्रभोः । प्रतिमा च विधातव्या मुक्तिश्रीवशकारिणी ॥ १७१ ॥ यतः - एकाङ्गुलमितं विम्बं निर्मापयति योऽर्हताम् । एकातपत्रं साम्राज्यं प्राप्य मुक्तिगृहं व्रजेत् ॥१॥ प्रतिष्ठाप्या जिनेन्द्राणां प्रतिमा निर्मिता नवाः । विधिना सूरिमन्त्रेण गुरुणा ब्रह्मचारिणा ॥ १७२ ॥ यतःप्रतिष्ठामतां यो हि कारयेत् सूरिमन्त्रतः । सोऽर्हत्प्रतिष्ठां लभते ध्रुवमागामिजन्मनि ॥ १ ॥ यावद्वर्षसहस्राणि पूजयन्ति जिनं जनाः । तावत्कालं बिम्बकर्ता लभते तत्फलांशकम् ॥ १७३ ॥ अलङ्कारास्तथा कार्या विम्बानामर्हतां पुनः । रत्नगाङ्गे यमाणिक्यरचिता गृहमेधिना ॥ १७४ ॥ एकस्यापि हि बिम्बस्यालङ्कारश्रीर्विनिर्मिता । त्रैलोक्यकमला भूषाकारित्वं कुरुते नृणाम् ॥ १७५ ॥ आर्हतः प्रतिमा नानाभेदैः सद्भक्तिभासुरम् | अर्चनीया गृहस्थेन सम्यक्त्वे शुद्धिमिच्छता ॥ १७६ ॥ विधिना जिनचैत्येषु कर्तव्यो मज्जनोत्सवः । अर्हतामभिषेकेण भवेद्राज्याधिराजता ।। १७७ ॥ यतःएकोऽपि नीरकलशो जगदीश्वरस्य स्नात्रोपयोगमुपयाति जनस्य यस्य । प्राप्नोति पापमलराशिमनन्तजन्मोद्भूतं विधूय परमोच्चपदं क्षण
॥ १ ॥
*****
****************
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ ११२ ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
चतुर्थ
प्रस्ताव:
॥११३॥
गीतनृत्यनमस्कारस्तोत्रपाठादिसत्क्रिया । विधातव्याऽर्हतां भावभक्तिहेतोविशेषतः ।। १७८ ॥ द्रव्यभक्तेर्भावभक्तिरनन्तगुणतोऽधिका । तत्वविद्भिः समाख्याता निर्वाणावधि सौख्यदा ।। १७६ ।। सम्यगाराधनादस्य स श्रीमान् मगधाधिपः। श्रेणिकस्तीर्थकृद्भावी पद्मनाभाभिधानवान् ॥ १८०॥ ये पश्चदशधा सिद्धाः सिद्धानन्तचतुष्टयाः।एकत्रिंशद्गुणोपेता लोकाग्रस्थितिशालिनः॥१८१॥ तेषां भक्तिद्वितीये स्यात्तद्धथानप्रतिमार्चनैः । तस्त्वरूपसमावेशात्तन्नमस्कारजापतः ॥ १८२ ॥ तदाकृतिविधानेन तत्तीर्थावनिवन्दनात । सिद्धाचलोज्जयन्तादियात्रिकाचेनतस्तथा ॥ १८३ ॥ भक्तिः स्तोकाऽपि सिद्धेषु गुणगर्भा कृता सती । तीर्थनाथपदं दत्ते नात्र कार्या विचारणा ॥ १८४॥ भक्तिःप्रवचने कार्या तृतीयेऽथ पदे तथा । चतुर्विधोऽपि श्रीसङ्घो ज्ञेयं प्रवचनं बुधैः ।। १८५॥ श्रीसङ्घ वन्दनं कार्य विनयो वासनादिभिः । फलताम्बूलवासोभिः सत्कारश्च विशेषतः ॥ १८६ ॥ यतःफलताम्बूलवासोभिभॊजनैश्चन्दनैः सुमैः । श्रीसङ्घः पूजितो येन तेन प्राप्तं जनुष्फलम् ॥ १॥ जिनेन्द्रानापरो देवो सुसाधो परो गुरुः। न सङ्घादपरं पुण्यं क्षेत्रमस्ति जगत्त्रये ।। १८७।। श्रीसङ्घभक्तिमाहात्म्यं वक्तुं कैश्चिन्न शक्यते। अहंदादिपदप्राप्तिर्यस्या मुख्यफलं स्मृतम् ।। १८८ ॥ चतुर्थे स्थानके सम्यग् गुरोभक्तिर्विधीयते । स एव तु गुरुः ख्यातो यः पश्चाचारपालकः ॥ १८६ ।। एकतो निखिलाधर्मा गुरुभक्तिस्तथैकतः । एकतस्तपसां श्रेणिरेकतः शीलपालनम् ॥ १० ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११३॥
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी ॥११४॥
****************
कुर्वाणोऽपि क्रियाकाण्डं प्रकाण्डं गुणवत्स्वपि । न सिद्धिमश्नुते प्राणी गुर्वाज्ञाराधनाद्यते ॥ १६९ ॥ तदुक्तवचनेष्वास्था तर्दधौ वृद्धवन्दनम् । विनयप्रतिपत्तिश्च वपुर्विश्रामणादिभिः ॥ १६२ ॥ तद वस्तु दानादि तनमस्कारधारणा । तद्गुणग्रहणे प्रीतिर्भक्तिरेवं गुरौ स्मृता ॥ १९३ ॥ गुरुभक्तिप्रभावेण तीर्थकृत्संपदो मताः । विश्वानन्दविधायिन्यो निर्वाणैकनिबन्धनम् ॥ १६४ ॥ वयःपर्यायसिद्धान्तैस्त्रिधा वृद्धाः प्रकीर्तिताः सीदतो धर्मकार्येषु स्थिरीकारकृतोऽथवा ॥ १६५ ॥ ते तु ज्ञान क्रियोद्युक्तास्तत्त्वतो यतयो मताः । जननीजनकादिर्वा श्रावको वा क्रियाऽधिकः ॥ १६६ ॥ शुश्रूषा भक्तपानादिदानसन्मान गौरवैः । तद्भक्तिः पञ्चमे कार्या तीर्थकृत्कर्मकारणम् ॥ १६७ ॥ वीणा भूरिशास्त्रषु विशेषाद्ये जिनागमे । शुद्धाचारभृतः ख्याताः कोष्ठबीजादिबुद्धिभिः ॥ १६८ ॥ ज्ञानदानोद्यतस्वान्तास्ते भवन्ति बहुश्रुताः । षष्ठे तद्भक्तिराधेया विशुद्धाशयपूर्वकम् ॥ १६६ ॥ षष्ठाष्टमादिरूपे ये विकृष्टे द्वादशात्मनि । क्षमावन्तो महासत्त्वाः सर्वदा तपसि स्थिताः ॥ २०० ॥ तेषां तपस्विनां भक्तिभक्तपानौषधादिभिः । विश्रामणादिना कार्या सप्तमे स्थानके पुनः ॥ २०१ ॥ अष्टमे सततं ज्ञानोपयोगो भूरिनिर्जरः । विधातव्यः श्रुताभ्यासकरणेन शरीरिणा ॥ २०२ ॥ सम्यक्त्वं नवमे शुद्धं पालनीयं विशेषतः । संवेगादिगुणैर्युक्तं शङ्काकाङ्क्षादिवर्जितम् ।। २०३ ॥ ॐकार इव वर्णेषु ध्येयेष्वात्मेत्र चिन्मयः । गुणेषु विनयो मुख्यः स कार्यों दशमेऽनिशम् ॥ २०४ ॥
*********
**************
चतुर्थ प्रस्ताव:
॥११४॥
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥११॥
KXXXXXXXXXXXXXXXX**
सर्वकर्मक्षयार्थ श्रीजिनैरावश्यकं स्मृतम् । सामायिकादि तत्वोढा कार्यमेकादशे शुभम् ॥ २०५॥ नृषु चक्री सुरेष्विन्द्रः पूज्येषु श्रीजिनेश्वरः । यथा मुख्यस्तथा ब्रह्मव्रतं सर्वव्रतेष्वपि ॥ २०६॥ द्वादशे निरतीचारं तद्धाय विशदं बुधैः । जिनेन्द्रपदवी येन प्राप्यते विश्ववन्दिता ॥ २०७॥ क्षणे क्षणे शुभं ध्यानं विधातव्यं लवे लवे । आरोप्य समतायां स्वं मानसं तु त्रयोदशे ॥ २०८ ।। चतुर्दशे तपोवृद्धिविधेया तु विवेकिना । तपो हि निबिडं कर्म भित्त्वा दत्ते जिनश्रियम् ॥२०६ ।। देयं पञ्चदशे पात्रदानं सद्भक्तिपूर्वकम् । वैयावृत्त्यं विधातव्यं षोडशे तु जिनादिषु ॥ २१० ॥ समाधिकरणं सप्तदशे सङ्घजनेऽखिले। सर्वात्मना भवेन्मुख्यं निदानं तीर्थकृत्स्थितेः ॥ २११ ॥ अपूर्वज्ञानग्रहणं भवत्यष्टादशे पुनः । एकोनविंशके स्थाने श्रुतभक्तिः शुभोदया ॥ २१२ ॥ विशे तु जिनतीर्थस्य कार्या प्रौढप्रभावना । स्नात्रोत्सवैः सङ्घपूजा नानाश्रावकगौरवैः ।। २१३ ॥ ध्रुवं जिनेश्वरैरेतान्याराध्यन्तेऽखिलैरपि । तीर्थकृत्पदकारीणि तपोभिर्विविधैः पुरा ।। २१४ ॥ यतःआद्यन्ततीर्थनाथाभ्यामेते विंशतिराश्रवाः । एको द्वौ वा त्रयः सर्वे चान्यैः स्पृष्टा जिनेश्वरैः ॥१॥ इत्याकर्ण्य गुरोः पावें सोमा सौम्याशया सती । प्रपेदे विंशतिस्थानतपः प्रौढोत्सवैस्तदा ॥ २१५ ॥ श्रीसुधर्मगणाधीशान विश्वविश्वकवान्धवान् । विधिना सा नमस्कृत्य स्वगृहेऽथ समागता ॥ २१६ ।। सम्यग वितन्वती तानि ततः सा प्रथमे पदे । प्रासादं कारयामास हेमकुम्भयुतं पुरे ॥ २१७ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११॥
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ
सम्यक्त्व-IKI कौमुदी
प्रस्तावः
॥११६॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
प्रतिमाः श्रीजिनेन्द्राणां हेमरसमयीस्तथा । अचीकरत् शचीस्वामिपदप्राप्तिनिबन्धनम् ॥ २१८ ॥ यतः
अङ्गुष्ठमानमपि यः प्रकरोति बिम्बं वीरावसानऋषभादिजिनेश्वराणाम् ।
स्वर्गे प्रधानविपुलर्षिसुखानि भुक्त्वा पश्चादनुत्तरगतिं समुपैति धीरः॥१॥ प्रतिष्ठासमये तासां भवत्प्रौढोत्सवव्रजे । वसुमित्रायुता कामलताऽगान्नृत्यहेतवे ॥ २१ ॥ समं पण्याङ्गनालौकैनिर्विवेकजनाग्रणीः । रुद्रदत्तोऽपि तत्रायात्तदुत्सवदिदृक्षया ॥ २२० ॥ दृष्ट्वा सोमा सलावण्यां दृष्टिपीयूषवर्षिणीम् । विवेकविकसनश्रीकां राजहंसीमिवोज्ज्वलाम् ॥ २२१ ॥ मानाधिकानि दानानि तन्वतीं पात्रसन्ततौ । वसुमित्रा तदा दध्यावधमाधमनायका ॥ २२२ ॥ युग्मम् ॥ अहो ! रूपमहो! कान्तिरहो! अस्या उदारता । अहो ! लवणिमाकोऽपि विश्वसौन्दर्य जित्वरः ॥ २२३॥ मत्पुच्या आयतौ क्षेमंकरी नैषा तदङ्गना। सुधायां विद्यमानायां कः क्षाराम्भः पिपासति ॥ २२४ ॥ कुतोऽपि कारणात्यक्ता रत्नमाला महाप्रभाम् । तन्माहात्म्यं पुनः श्रुत्वा मूढोऽप्यादातुमिच्छति ॥ २२५ ॥ येन केन प्रयोगेणोन्मूलनीया ततो मया । विषवल्लीव निःशेषमेषा योषिन्मचर्चिका ।। २२६ ॥ इत्यादिकुविकल्पौघान् विमृश्याथ पणाङ्गना। सोमाया मायया प्रीति चिकीः सेवापराऽजनि ॥ २२७॥ विधिना ताः प्रतिष्ठाप्य प्रतिमाः समहोत्सवम् । निर्मायं च विनिर्माय ध्वजारोपादिसत्क्रियाः॥ २२८ ॥ सोमया सङ्घवात्सल्यं विश्ववत्सलचेतसा । अकारि बहुमानेन सत्कृत्येष्ववधिं दधत् ॥ २२६ ॥
(XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११६॥
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥११७॥
जिनेन्द्रभक्त्या श्रीसङ्घवात्सल्येन गरीयसा । लेमे तीर्थकृतः कर्म सोमयाऽपि हि तत्क्षणे ॥ २३० ॥ अन्येद्युरुद्रदत्ताद्या दयया सपणाङ्गनाः । आहूता भुक्तये गेहे महोदारतया तया ॥ २३१ ॥ यतः -
safed दयां कुर्वन्ति साधवः । न हि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चण्डालवेश्मनि ॥ १ ॥ तामसंस्कृतलावण्यां कृत्वा नेत्रातिथिं तदा । रुद्रदत्तो व्यधात् किंचित्पश्चात्तापं चलन्मनाः ॥ २३२ ॥ कूटप्रयोगतः सोमां वञ्चयित्वा तु कुट्टिनी । अक्षिपत् पन्नगं पुष्पभाजनान्तः कथञ्चन ॥ २३३ ॥ सर्पोऽपि पुष्पमाला भूतस्याः पुण्यानुभावतः । विपदः संपदीभावं भजन्ते हि कृतात्मनाम् ॥ २३४ ॥ भोजनानन्तरं तेषां पुष्पाद्यर्चाचिकीर्षया । अग्रहीत् पाणिना सोमा तां दैवात् पुष्पमालिकाम् || २३५ ।। नर्मल वितन्वाना सा मालां लीलया सती । निचिक्षेप तदा कामलतायाः कण्ठकन्दले ॥ २३६ ॥ तया तत्रस्थया सर्परूपमासाद्य भीषणम् । दष्टा कामलता दुष्टा मूर्छिता न्यपतद्भुवि ॥ २३७ ॥ कुट्टिनी तां तथा दृष्ट्वा मायया कुट्टितोदरा । कृत्वा नागं घटे चक्रे पूत्कृतं नृपतेः पुरः ॥ २३८ ॥ ततो ज्ञातस्वरूपेण भूपेन कुपितात्मना । ऊचे सोमा समाहूय समक्षं निजपर्षदः ॥ २३६ ॥ कुकर्मैवंविधं भद्रे ! कस्माद्विरचितं त्वया । रतया सर्वकार्येषु विषयेषु विरक्तया ॥ २४० ॥
सोमा स्माह महाराज ! प्राणान्तेऽप्यङ्गिपीडनम् । नाहं सर्वज्ञधर्मज्ञा विदधे दुर्गतिप्रदम् || २४१ ।। यो धर्मं वेत्ति मौनीन्द्रं सम्यग्विश्वैकवल्लभम् । सूक्ष्मबादरसत्त्वानां हिंसां नैत्र करोत्यसौ ॥ २४२ ॥
****************
प्रस्तावः
॥११७॥
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
************
॥११॥
**************
मया कुसुममालेव कण्ठेऽस्थापि कुतूहलात । ना जाने कारणं तत्र यदियं पतिता भुवि ॥ २४३ ॥ घटमुद्घाट्य तन्माता दर्शयामास पन्नगम् । तदानीं मेदिनीशस्य रुदन्ती करुणस्वरम् ।। २४४ ॥ नपोऽपि पन्नगं वीक्ष्य कालरूपमिवोल्वणम् । बभाषे रोषताम्रास्यो मा वादीरन्यथा वचः॥२४५ ॥ सोमाऽवोचन्महादेव ! घटेऽस्मिन् पुष्पमालिका । मया विलोक्यते सारसौरभ्यभरभारिणी ॥ २४६ ।। यदि सत्यमिदं भद्रे! गृहीत्वा हस्तपङ्कजे । तदाऽसौ दश्यतां मह्यमिति स्माह क्षमापतिः॥ २४७॥ ततः सोमा कराम्भोजे भोगीन्द्रमतिभीषणम् । यावद्दधौ विधूताघसङ्घा धर्मानुभावतः ॥ २४८ ॥ तावत्पश्यन्ति भूपाद्याः पुष्पमाला मनोरमाम् । विस्मिताश्च पुनर्देध्युनूनं किमिदमद्भुतम् १ ॥ २४६ ॥ वसुमित्राऽवदद्देव ! सोमा सत्यं तदा मया । मन्यते यदि जायेत निर्विषा मे तनूद्भवा ।। २५० ॥ श्रीजिनेन्द्राभिधाजापाद्रजःपापापहारकात् । सज्जीचकार वेगात्तां सा क्षितीश्वरशासनात् ॥ २५१ ।। दत्वाऽभयं महीभा पृष्टाऽथ पणवर्णिनी । भद्रे ! कथय सत्यं तद्यदेतद्वतते घटे ।। २५२ ॥ वसुमित्रा ततो भूपमवादीन्मुदितानना । दुरभिप्रायया स्वामिन् ! मयाऽयं विषभृन्महान् ॥ २५३ ।। सोमाया मृत्यवेक्षपि सुतामोहवशात्मना । आत्मपुंसा समानीय रहः कुसुमभाजने ॥ २५४ ॥ युग्मम् ।। परं सोमानुभावेन नागोऽयं पुष्पदामताम् । लेभे सर्वत्र शुद्धानां विषमं हि समं भवेत् ॥ २५५ ॥ पुण्यप्रभावमालोक्य लोकैलों केश्वरादिभिः । वन्दित्वा पूजिता सोमा स्तुतिवाचालिताननैः॥ २५६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX:
॥११८॥
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥११६॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
सम्यग्दृष्टिसुरश्रेणी तद्गुणप्रीणिता तदा । कल्पमसुमैवृष्टिं सोमोपरि विनिर्ममे ॥ २५७ ॥ बभूव गुणपालोऽपि श्लाघाया आस्पदं पुरे। प्रसादं नृपतेः प्रापद्वचोऽतीतं च तत्क्षणे ॥ २५८ ।। इहैवालोक्य माहात्म्यं जैनधर्मसमुद्भवम् । भद्रभावोऽभवद्रद्रदत्तोऽपि द्विजपुङ्गवः ॥ २५ ॥ श्रेष्ठिनोऽसौ पदाम्भोजं प्रणम्य विनयादथ । प्रपद्य श्रावकीभावं क्षमयामास तां तदा ॥२६॥ स्वप्रियेण समं सोमा श्रेष्ठिना च पुरस्कृता । निजावासे समायासीद्भवत्प्रतिपदोत्सवम् ॥ २६१ ॥ सोमया सह भुञ्जानः कामभोगाननारतम् । अविन्दत महानन्दं योगीव क्षमया द्विजः ॥ २६२ ।। सोमापि गृहधर्मज्ञा सुखदुःखसमस्थितिः । ददती पात्रदानानि षोढाऽऽवश्यकतत्परा ॥ २६३ ।। कारं कारं सदाचारा श्रीजिनेन्द्रमतोन्नतिम् । सम्यग्दृष्टिषु दृष्टान्तं लेभे तत्र पुरेऽखिले ॥ २६४ ॥ युग्मम् ।। अथ तस्या गृहे कश्चित् साधुः श्रुतधराग्रणीः । अनेकलब्धिसंपन्नः प्रभावैर्विश्रुतो भुवि ।। २६५ ॥ अहं प्रथमिकाव्यग्रैनम्यमानः पुरीजनैः । आविर्वभूव भिक्षार्थ मध्याह्न महसांनिधिः ॥ २६६ ॥ युग्मम् ।। सोमया परया भक्त्या स साधुः प्रतिलाभितः । विशुद्धरत्नपानाद्यैः सद्भूताग्रहपूर्वकम् ॥ २६७॥ गृहस्थभाजनस्थानि भोज्यादीनि तु तत्क्षणे । नीतानि स्तोकतां तेन दिव्यया मायया परम् ।। २६८ ॥ तस्मिन्नेव क्षणे प्राप्तो निग्रन्थो नवदीक्षितः। तपस्वी विकृतं रूपं दधत्क्रोधाग्निना ज्वलन् ॥ २६६ ॥ चातुर्यवर्जितो मूढजनानां ही(हे)लनास्पदम् । कलाकलापनिमुक्तो दिनेन्दुरिव निष्प्रभः ॥ २७० ।।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतथ
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्तावः
॥१२०॥
तस्यापि तादृशी भक्तिं तन्वती कृत्रिमेतराम् । विशुद्धं नवकोटीभिराहारं सा ददौ मुदा ॥ २७१॥ ज्ञात्वा तस्या मनोभावं तादृशं स मुनिस्तदा । साधुरूपं परित्यज्य देवोऽभूद्भासुरद्युतिः ।। २७२ ।। आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यं परब्रह्मेव दुर्गमम् । किमिदं दृश्यते रूपं सैवं दध्यौ तदा सती ॥ २७३ ॥ नत्वा तां त्रिदशः स्माह प्राञ्जलिर्जनिताद्भुताम् । सोमे ! सोमानने ! धन्या त्वमेवासि जगत्त्रये ।। २७४ ।। यस्यास्ते त्रिदशाधीशः सम्यक्त्वव्रतवर्णनाम् । आद्यकल्पाधिपोऽकार्षीद् हर्षतः सुरपर्षदि ॥ २७५ ॥ अत्रागत्यासहिष्णुस्तां सुरोऽहं रत्नशेखरः । साधुरूपद्वयं कृत्वा परीक्षां कृतवांस्ततः ॥ २७६ ॥ सुरेन्द्रः सत्यता नीतो भवत्या सम्प्रतं परम् । निर्विशेष मुनिद्वन्द्वे दधत्या मानसं निजम् ।। २७७ ॥ सप्रभावे गुरौ देवे विधत्ते भक्तिमादृतः। सर्वः कोऽपि जनो नैव सामान्ये गुणवत्यपि ॥ २७॥ त्वया विशेषो न परं दर्शितो मुनिषु ध्रुवम् । सम्यग्दृष्टिषु तेन त्वं साम्प्रतं तिलकायसे ॥ २७६ ।। संघे तित्थयरंमि य सूरीसु रिसीसु गुणमहग्घेसु । जेसि चिय बहुमाणो तेसि चिय दंसणं सुद्धम् ॥ २८० ॥ इत्युक्त्वा शातकुम्भस्य वृष्टिं कृत्वा गृहाङ्गणे सद्भक्त्या तां नमस्कृत्य नाकी नाकं जवाद्ययौ ॥ २८१ ॥ सम्यग्दृष्टिजनैः सोमा श्लाघ्यमाना पदे पदे। श्रियं कृतार्थयामास सप्तक्षेत्रेषु वापतः ॥ २८२॥ अन्यदा कानने तत्र जन्तुजीवातुदर्शनः । आययौ यतिसंयुक्तो जिनचन्द्रमुनीश्वरः ॥ २८३ ॥ तमानन्तुं महीपालः स्वान्तःपुरपरीवृतः । सश्रद्धा गुणपालाद्याः श्रावकाश्च समैयरुः ॥ २८४ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१२०॥
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व-४ कौमुदी
चतुर्थ
प्रस्ताव:
॥१२॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
मुनीन्द्रागमनं श्रुत्वा मयूरीव घनध्वनिम् । सोत्कण्ठहदया सोमा वन्दितुं सप्रियाऽगमत् ॥ २८५॥ तेषामनुग्रहं कृत्वा गुरुणा करुणाधिना । अदेशि धर्मः यूषस्वादसोदरया गिरा ॥२८६ ।। यतःश्रेयःसन्ततिमन्दिरं सुरनराधीशस्थितेलंग्नकः, सर्वापत्प्रकटप्रवासपटहः सिद्धिश्रियः कार्मणम् ।। धर्मः प्राणिदयासु सत्यवचनास्तेयादिरूपो महाभाग्यादेव शरीरिभिर्जिनपतिप्रोक्तः समासाद्यते॥१॥ तस्य धर्मस्य सम्यक्त्वं द्वारमाहमनीषिणः । देवतागुरुधर्मेषु शुद्धषु स्थिरतामयम् ॥ २८७॥ सम्प्राप्ताः सम्पदः सर्वाः संसारेऽत्र शरीरिणा । शुद्धं सद्दर्शनं प्रायो नैव लेभे कदाचन ॥ २८८॥ एकशोऽपि यदि प्राप्तं पीयूषास्वादसोदरम् । सम्यक्त्वं विदुषा कार्यस्तदा भव्यत्वनिश्चयः ।। २८६ ।। प्रभूतनिजेराहेतुः स्यादनुष्ठानमाहेतम । सम्यग्दर्शनसंशुद्धं कृतं स्तोकमपि ध्रुवम् ॥ २६० ॥ यतःजं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तन्नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेण ॥१॥ सम्यक्त्वे सति चारित्रं पवित्रं यदि लभ्यते । एकद्वयादिषु मुक्तिः स्याद्भवेषु भविनां तदा ॥ २६१ ॥ इत्यादिदेशनां श्रुत्वा प्रबुद्धः पृथिवीपतिः। प्रवव्राज गुरोः पावें गुणपालादिभियु तः॥ २१२ ॥ भोगावतीमुखा दीक्षा स्वीचक्रुर्मुदिताशयाः । योषितः सोमया साधं भवभोगेषु निःस्पृहाः ॥ २६३ ॥ रुद्रदत्तादयः सर्वे प्रपद्य द्वादशवतीम् । सम्यक्त्वतत्त्वनिष्णाता अभूवनाहेता दृढम् ॥ २६४ ॥ एतदृग्विषयीकृत्य मयाऽपि गुरुसन्निधौ । शुद्धसम्यक्त्वमाणिक्यमङ्गीचक्र सुखेप्सुना ॥ २६५ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१२॥
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १२२ ॥
**************************
एवं प्रियानिगदितं द्विजराजकन्यासम्यक्त्वसत्फलमयं विशदं चरित्रम् । श्रुत्वा समं युवतिभिर्जिनदत्तसूनुर्हर्षप्रकर्षमवदद् हृदि रोचमानम् ॥ २६६ ॥ कपोलकल्पितं सर्वमेतत्कुन्दलता पुनः । बभाषेऽनादिमिथ्यात्वपुराणासवमोहिता ॥ २६७ ॥ अश्रद्धानमिदं कीदृग् वर्ततेऽस्या अहो ! हृदि । मिथ्यादृष्टिपुरोगाया इति दध्युन पादयः ॥ २६८ ॥ यतःसन्तमसन्तं दोषं वदन्ति ये धर्मकारिणः पुंसः । प्रत्यक्षं लोकानां ख्याता मिथ्यादृशस्तेऽत्र ॥ १ ॥ सद्दर्शनप्राप्तिनिरूपिणीं कथां निशम्य सम्यग् किल चन्दनश्रियः । समग्रकल्याण सुपर्वपादपे सम्यक्त्वतश्वे दृढयन्तु मानसम् ॥ २६६ ॥ ॥ इति सम्यक्त्वकौमुद्यां तृतीया कथा ॥ ॥ श्रथ चतुर्थ भावना ॥
सोऽथ विष्णुश्रियं स्माह भद्रेऽर्हन्मतकोविदे ! | आत्मानः शुद्धसम्यक्त्वप्राप्तिहेतुं कथां वद ॥ १ ॥ साऽपि स्वदेशं समासाद्य समुन्मनाः । अभ्यधान्निजवृत्तान्तं बोधिबीजनिबन्धनम् ॥ २ ॥ तद्यथा भरतक्षेत्रे पवित्रे तीर्थराजिभिः । वच्छः श्रीवत्सवद्भूमेर्देशोऽस्ति स्वस्तिमञ्जनः ॥ ३ ॥ गावो नद्यः स्त्रियो भृभृद्भवनाङ्गणभूमयः । तस्मिन् शश्वद्विराजन्ते स्तुत्याः पुण्यपयोधराः ॥ ४ ॥
******
*******
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ १२२ ॥
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१२३॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
कौशाम्बी नगरी तत्र सचित्रगृहशालिनी। पूर्णिमेव सदोद्योता योषिवृन्दमुखेन्दुभिः ॥५॥ क्षमाधरा धराधीशाः सकलत्रास्तपोधनाः । सदाचाराणि गेहानि दृश्यन्ते यत्र कौतुकम् ॥ ६॥ देवपूजादयादानविद्यासद्गुरुभक्तिषु । पंसामन्वयशुद्धानां व्यसनं वर्ततेऽनघम् ॥ ७॥ युग्मम् ।। तत्र क्षत्रव्रतख्या भूदजितंजयः। जयन्तजनकोजस्वी जयश्रीकेलिमन्दिरम् ॥८॥ प्रतापः प्रतिभूर्यस्य तुलातोलनकर्मणि । लोके तुल्यतया नित्यं सन्न्यायव्यवहारयोः ॥ ६ ॥ न कदाऽप्यभवद्यस्य सद्धर्मस्थितिवर्जितम् । हृदयं पाणिपद्म च समितिप्रयतात्मनः ॥ १० ॥ हेमोपमप्रभा तस्य प्रियाऽऽसीत् सुप्रभाभिधा । सत्यः सत्यतया भान्ति यस्याः शीलानुभावतः ॥ ११ ॥ दाक्षिण्यश्रीनिवासेऽस्याः सद्विवेकसितच्छदः। तत्तद्गुणगणाकीर्ण रमते हृदयाम्बुजे ॥ १२ ॥ सचिवः सोमशर्माऽभूद्भूभृतस्तस्य सूत्रभूः । ब्रह्मज्ञोऽपि सतां ख्यातो ब्रह्मवित्तापहारकः ॥ १३ ॥ स पुना रमते नित्यं कुपात्रत्यागकर्मणि ? शूकरस्य भवेत प्रीत्यै प्रायः पङ्किलपल्वलम् ॥ १४ ॥ अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशाः सपरिग्रहाः। ये भवन्ति सदा तेषु वित्तं वपति धीसखः ॥१५॥ कुशास्त्रप्रेरितो मृढो न वेदेति कदाचन । उप्तः किमपरे क्षेत्रे बीजराशिः प्ररोहति ॥ १६ ॥ समाधिसमतावन्तः शाश्वतानन्ददायिनः । तत्रेयुरन्यदा श्रीमत्केशिदेवमुनीश्वराः॥ १७॥ एकमासी द्विमासीं वा मासत्रयमुपोषिताः । चतुर्मासी तथा केऽपि ख्याताः सत्त्ववता धुरि ॥१८॥
*॥१२३॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १२४॥
KARKI
२० ॥
चतुर्दशसु पूर्वेषु तथा नवदशादिषु । अधोतिनो महाभागास्तच्छिष्याः सन्ति भूरिशः ॥ १६ ॥ युग्मम् ॥ मूर्तोऽथ श्रेयसां राशिर्मासक्षपणपारणे । साधुः समाधिगुप्ताख्यो राजर्षिर्देशपूर्व वित् ॥ दृष्टिपूतं न्यसन् पादमुर्व्या गुप्ततमेन्द्रियः । भिक्षार्थमाययौ सोमशर्ममन्त्रीश्वरालयम् ॥ २१ ॥ युग्मम् ॥ लघुकर्मतया मन्त्री तत्रायातं मुनीश्वरम् । पात्रेषु परमं पात्रं वीक्ष्योत्थायाब्रवीदिति ॥ २२ ॥ अहो ! अन मग हे वृष्टिद्याभवद्ध्रुवम् । अन्नार्थ यदसौ प्राप्तः पुण्यपात्रं तपोधनः ॥ २३॥ लभ्यते भाग्ययोगेन सत्यशीलदयान्वितम् । पात्रं सङ्गविनिमुक्तं स्वर्गसिद्धिसुखप्रदम् ॥ २४ ॥ प्रमार्ण्य कुन्तलैरड्रिजःपुञ्जं ततो मुनेः । प्रणम्य प्राज्ञ्जलीभूय मन्त्री विज्ञपयत्यदः ॥ २५ ॥ परमान्नं त्रिधा शुद्धं मदर्थं निर्मितं गृहे । मुनेऽद्यानुग्रहं कृत्वा गृहीत्वा कुरु पारणम् ॥ २६ ॥ दृट्वेषणीयमाहारं वासनां मन्त्रिणः पराम् । पात्रं प्रसारयामास साधुस्तत्पुण्यनोदितः ॥ २७ ॥ सचिवोऽपि ददौ तस्मै तत्सिताघृतवा सितम् । धन्योऽहं कृतपुण्योऽहं ब्रुवन् रोमाञ्चभृत्तनुः ॥ २८ ॥ सुपात्रदान सन्तुष्टैः सम्यग्दृष्टिसुरैस्तदा । पञ्चाश्चर्याणि वर्याणि चक्रिरे सचिवोपरि ॥ २६ ॥ मन्त्री चित्रं तदालोक्य चिन्तयामास चेतसि । अहो ! स्वल्पस्य दानस्य फलं तु जगतोऽद्भुतम् ॥ ३० ॥ यानि दानानि कथ्यन्ते वैष्णवे धर्मवर्त्मनि । मया दत्तानि सर्वाणि तानि विप्रेष्यनेकशः ॥ ३१ ॥ नानुभावो मयाऽदर्शि तेषु दानेषु कुत्रचित् । इदानीं मुनिदानस्य लेभेऽत्रैव फलं महत् ।। ३२ ।।
*************************
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ १२४ ॥
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुथ
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥१२॥
पात्रापात्रविभागं तद्देयादेयविचारणम् । पृच्छाम्यहं मुनेरस्य पाखें दानफलं तथा ॥३३॥ दानस्वरूपमाख्याहि भगवन् ! निखिलं मम । विज्ञप्तः सचिवेनैवं ततः साधुरुदाहरत् ॥ ३४ ॥ ज्ञानाभयसुपात्रातभेदैर्दानं चतुर्विधम् । निदानं सर्वसौख्यानां पुण्यसाधनमादिमम् ॥ ३५ ॥ श्रीसर्वज्ञागमस्तत्र यदनुग्रहबुद्धितः । दीयते भव्यजन्तूनां ज्ञानदानं मतं हि तत् ॥ ३६॥ यथा सर्वेन्द्रियेष्वेकं प्रधानं चक्षुरिन्द्रियम् । तथा दानेष्वशेषेषु ज्ञानदानं परं स्मृतम् ॥ ३७॥ लिखित्वा लेखयित्वा च मुनिभ्यो दीयते श्रुतम् । तदेकाक्षरदानेन वर्षलक्षसुरस्थितिः ॥ ३८ ॥ भवान्तरे श्रुतज्ञानी केवलज्ञानवांस्तथा । एतद्दानानुभावेन जनः स्याद्विश्वपूजितः ॥ ३९ ॥ धनैर्विनिमयं कुर्वन् शास्त्रमारम्भकारणम् । दत्ते परस्मै यो मूढो नासौ प्रेत्यफलं भजेत् ॥ ४० ॥ विधत्ते यो यथाशक्ति स्थूलसूक्ष्माङ्गिरक्षणम् । द्वितीयं तद्दयादानं ख्यातं धमकजीवितम् ॥४१॥ स्वपरागमशास्त्रेषु नैतद्दानफलोपमा । सार्द्ध सर्वान्यसद्धमैः क्वचिदृष्टा महर्षिभिः ॥ ४२ ॥ यतःमेरुगिरिकणयदाणं धन्नाणं देइ कोडिरासीओ। इक्कं वहेउ जीवं न छुट्टए तेण पावेण ॥१॥
परसमयेऽपिएकतः क्रतवः सर्वे समग्रवरदक्षिणाः । एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥१॥ सर्वे वेदा न तत्कुयुः सर्वे यज्ञाश्च भारत !। सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात्माणिनां दया ॥२॥
॥१२॥
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
चतुर्थ प्रस्तावः
॥१२६॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
भुज्यमानमपि प्रायः फलं नैव दयोद्भवम् । क्षीयते भवकोट्याऽपि कदाऽप्यक्षीणकोशवत् ॥४३॥ यन्मजतां भवाम्भोधौ यानपात्रति देहिनाम् । तत्पात्रं विदुषां ख्यातं सत्क्रियाज्ञानमण्डितम् ॥ ४४ ॥ यतः
ज्ञानं क्रियाच इयमस्ति यत्र तत्कीर्तितं केवलिभिः सुपात्रम् ।
श्रद्धाप्रकर्षप्रसरेण दानं तस्मै प्रदत्तं खलु मोक्षदायि ॥१॥ चतुर्विधोऽपि श्रीसङ्घः पात्रं सामान्यतः स्मृतम् । तत्तद्गुणानुसारेण सत्पुण्यैकफलावहम् ॥ ४५ ॥ यतःउत्तमपत्तं साहू मज्झिमपत्तं च सावया भणिया। अविरयसम्मद्दिट्ठी जहन्नपत्तं मुणे यव्वं ॥१॥
रुचिरकनकधाराः प्राङ्गणे तस्य पेतुः, प्रवरमणिनिधानं तद्गृहान्तःप्रविष्टम् ।
त्रिदशतरुलतानामुद्गमस्तस्य गेहे, भवनमिह सहर्ष यस्य पस्पर्श सङ्घः ॥ ४६॥ पवित्रान् ज्ञानचारित्रतपोभिभु वनाद्भुतैः । पात्रं मुनीश्वरान् प्राहुस्तत्त्वज्ञास्तु विशेषतः ॥ ४७ ॥ विशुद्धं दीयते भक्त्या यदाहाराम्बरादिकम् । तृतीयं पात्रदानं तद्धोपष्टम्भदायकम् ॥ ४॥ सम्यक्त्वं ब्रह्मचर्य वा गुणो मार्गानुगोऽथवा । अन्योऽपि दृश्यते यत्र पात्रतां तदपि श्रयेत् ॥ ४६॥ दानं मोक्षार्थिना देयं कल्पनीयस्य वस्तुनः । श्रद्धादरादियुक्तेन मुनये ब्रह्मशालिने ॥ ५० ॥ अणुव्रतभृतां भक्त्या वात्सल्यं यद्विधीयते । स्वसम्पत्त्यनुसारेण तदपि श्रेयसां पदम् ॥ ५१ ॥ रोद्रातध्यानवान्नित्यं सत्यशीलदयोज्झितः। आसक्तः पुत्रदारेषु बह्वारम्भपरिग्रहः॥५२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१२६॥
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१२७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXX:)
मिथ्यात्वकलुषस्वान्तो धर्मभाजा च निन्दकः । पुंसां तत्त्वविंदा जातु नैव पात्रतया मतः ॥ ५३ ॥ अमुष्मिन् पुण्यबुद्धया यत् कुशास्त्रपथमोहितः । दीयते हेमधेन्वादि तदनथेफलावहम ॥५४॥ यतःउप्तं यदूषरे क्षेत्रे षीजं भवति निष्फलम् । तथाऽपात्रेषु यद्दत्तं तद्दानं न फलेग्रहि ॥१॥ एकवापीजलं यददिक्षौ सुस्वादुतां भजेत् । निम्बे च कटुतां तद्वत्पात्रापात्रेषु योजितम् ॥ २ ॥ पात्रदानेऽपि मन्त्रीन्द्र ! फलं भावः प्रयच्छति । विशुद्धभावनिमुक्तं दानं स्वल्पफलं भवेत । ५५ ॥ कृपया दीयते यत्तु देहिनां दुःखशान्तये । दयादानतया ख्यातं चतुर्थं तज्जिनोत्तमैः ॥ ५६ ॥ यतः
दीनादिकेभ्योऽपि दया प्रधानं दानं तु भोगादिकरं प्रदेयम् ।।
दीक्षाक्षणे तीर्थकृतोऽपि पात्रापात्रादिचर्चा ददतो न चक्रुः ॥१॥ पृच्छति स्म पुनमन्त्री स्वामिन्नद्य यथा मया । सद्दानातिशयो लेभे तथा केनाप्यसौ पुरा ॥ ५७ ।। साधुः स्माह महाभाग ! नैकर्मत्स्योदरादिभिः । पात्रदानफलं लेभे दत्ताश्चर्यं भवान्तरे ॥ ५८ ॥ चन्दनामूलदेवाद्या अत्रैवापुर्महोदयम् । श्रेयांसाद्यास्तु राजानो लोकद्वयसुखश्रियम् ॥ ५६ ॥ तथाऽपि शृणु दृष्टान्तमासन्नसमयोद्भवम् । सुपात्रदानमाहात्म्यदर्शकं विस्मयावहम् ।। ६०॥ तद्यथादक्षिणस्यां दिशि ख्याते पुरे विजयनामनि । नृपः सोमप्रभो जज्ञे सोमप्रभा च तत्प्रिया ॥६१ ॥ वेदमढमना भूमान मिथ्यात्वध्वान्तमोहितः । मन्यते पात्रता नित्यं ब्राह्मणेष्वेव खेलिनीम् ॥ ६२॥
| ॥१२७॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
चतुर्थ
प्रस्ताव:
॥१२८॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अन्तःसभं भणत्येष द्विजाः प्रीणन्ति पूर्वजान् । द्विजैश्च धार्यते लोको द्विजांस्तत्पूजयेद्बुधः ॥ ६३ ॥ यतःगोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः। अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते जगत् ॥१॥ परं न वेद मिथ्यात्वविमूढात्मा महीपतिः। ते विप्राः कीदृशाचाराः किं स्वरूपाच विश्रताः॥६४॥ जितेन्द्रियाः कृशारम्भा भजन्तो गहमेधिनाम् । पात्रन्ति ब्राह्मणा लोके सत्यशीलदयान्विताः ॥ ६५ ॥ यतः
ये तपस्यन्ति विद्वांसः सत्यशौचजितेन्द्रियाः। तानहं ब्राह्मणान् मन्ये शेषान् शूद्रान् युधिष्ठिर ! ॥१॥ क्षमा दया दमो ध्यानं सत्यं शीलं धृतिघृणा। विद्या विज्ञानमास्तिक्यमेतद्ब्राह्मणलक्षणम् ॥२॥ शूद्रोऽपि शोलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् ।। ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रापत्यसमो भवेत् ॥ ३॥ ये शान्तदान्ताः श्रतिपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधे निवत्ताः।
परिग्रहे संकुचिता गृहस्थास्ते ब्राह्मणास्तारयितु समर्थाः ॥ ४॥ भूभुजा कतु मारेभे यज्ञः पुण्यप्रसूतये । अन्येयुः स्वर्गकामेन स्वर्णकोटिव्ययार्थिना ॥ ६६ ॥ तदाहृताः समाजग्मुर्नानाजनपदोद्भवाः । वेदविद्याविदो विप्राः स्मार्ताः पौराणिकास्तथा ।। ६७॥
KEKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१२८॥
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १२६ ॥
*************
वेदोक्त विधिमुद्घोष्य तत्र ते भूभृदाज्ञया । मखकर्माणि कुर्वन्ति मखभुक्पदलब्धये ॥ ६८॥ यज्ञशालासमीपेऽथ विश्वभूतेर्द्विजन्मनः । जैनधर्मवतो भोगोपभोगव्रतधारिणः ॥ ६९ ॥ अस्ति निःस्पृहचित्तस्य शुक्लवृत्त्येकजीविनः । पुण्यागार मिवागारं पूजितातिथिदैवतम् ॥ ७० ॥ युग्मम् || सत्यासीद्दयिता तस्य सतीसन्ततिभूषणम् | जिनधर्मधुराधुर्या सन्तुष्टहृदयाम्बुजा ॥ ७१ ॥ दवा नैवेद्यमहद्भयः कृत्वा चातिथिपूजनम् । कुरुतः शेषभोगेन तौ निजप्राणधारणम् ॥ ७२ ॥ शुक्लत्त्याऽन्यदाप्तानां गोधूमानां द्विजन्मना । निर्मिता बहवोऽपूपाः सत्या सन्ति त्रिधा कृताः ॥ ७३ ॥ तपस्वी संयतः कश्चित्तद्दिने पिहिताश्रवः । आययौ पुण्ययोगेन विहृत्यर्थं तयोर्गृ हे ॥ ७४ ॥ विधिना समयोक्तेन तं प्रणम्य मुनिं द्विजः । विज्ञप्तिं प्राञ्जलिस्तेने हृष्टः प्राप्तनृपत्ववत् ॥ ७५ ॥ अद्य मे सफलं जन्म कृतार्था च गृहस्थता । यत्त्वं पात्रं मयाऽऽसादि मुक्तिमार्गप्रकाशकम् ॥ ७६ ॥ तत्प्रसीद गृहाणैकं पिण्डं तत्त्रयमध्यतः । मुनिराख्यत् किमर्थं ते पिण्डत्रितयनिर्मितः । ७७ ॥ देवतातिथिभक्त्यर्थं पिण्डद्वयमिदं पृथक् । तृतीयो देहयात्रार्थमावयोरिति सोऽवदत् ॥ ७८ ॥ साधुर्विज्ञाय संशुद्धं तृतीयं पिण्डमग्रहीत् । तेनापि बिभ्रता दत्तं प्रदातुर्गुणसप्तकम् ॥ ७६ ॥ यतः—
श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलोभता क्षमा शक्तिः । यत्रैते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥ १ ॥ दत्वा तस्मिन् मुनौ दानं विश्वभूतिः कृतार्थताम् । मन्वानोऽथ दधौ पात्रदानभूषणपञ्चकम् ॥ ८० ॥ यतः -
***
****
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ १२६ ॥
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१३०॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
आनन्दाणि रोमाञ्चो बहुमानं प्रियं वचः । किं चानुमोदनापात्रदानभूषणपश्चकम् ॥ १॥ ततो गन्धोदकं तस्य ववर्ष स्तत्क्षणे सुराः । शीर्षे कल्पद्रुपुष्पाणि रत्नानि च गृहाङ्गणे ॥ ८१ ॥ तदासनमखाचार्यास्तदाश्चर्येण विस्मिताः। प्रोचुरेवं महीजानि तत्रायातं प्रमोदतः ॥८॥ माहात्म्यं यज्ञमन्त्राणां महीन्द्र ! विष्टपाद्भुतम् । प्रत्यक्षं यदियं जाता रत्नवृष्टिः पदे पदे ।। ८३॥ नृपतिः सत्यमेवेदमवादीन्मुदितो द्विजान् । मिथ्यात्वमोहितः प्राणी किंवा वेत्ति यथास्थितिम् १ ॥ ८४॥ लोभक्षोभवशाद्विप्रा यावद्रत्नानि गृह्णते । श्रयन्ति वृश्चिकीभावं तावत्तानि भयङ्करम् ।। ८५ ॥ तैर्दष्टा ब्राह्मणाः केचित करेषु चरणेषु च । रङ्कवत्कुर्वते सर्वे पूत्कागन करुणस्वरम् ॥ ८६ ॥ विविधौषधयस्तेषां विषवेगातचेतसाम् । वेदोक्तमन्त्रयन्त्राश्च तत्रासंबायका न हि ॥ ८७॥ वाणी दैव्यायिनी तस्मिन्नन्तरिक्षात् क्षणेऽभवत् । नेदं यज्ञफलं वेदमन्त्राणां महिमाऽपि न ॥ ८८॥ किं तु सत्पात्रदानस्य विश्वभूतिद्विजन्मना । विधिना निर्मितस्यासीदत्रैव फलमद्भुतम् ॥ ८ ॥ एतानि दिव्यरत्नानि यत्नादुद्वाह्य मुद्धभिः। मध्ये गेहं विमुञ्चध्वमाहतस्यास्य वेगतः ॥१०॥ प्रणम्याथ पदौ भक्त्या पात्रापात्रविचारणाम् । पृच्छध्वं निभृतीभूय यदि वः कुशलस्पृहा ॥ ११ ॥ श्रुत्वा देवं वचो यावत्ते तथा कतु मुद्यताः । वृश्चिका रत्नतां भेजस्तावत्क्षीणा च तद्वयथा ॥ १२ ॥ अथाकार्य विचारमं विश्वभूति पतिभुवः । पृच्छति स्म नमस्कृत्य दानभेदफलादिकम् ।। ६३ ॥
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१३१॥
*******
*********
आस्वाद्य नृपतेर्वाचं मधुपाकानुकारिणीम् । विश्वभूतिरुवाचैवं शुचिः सर्वज्ञधर्मवित् ॥ ६४ ॥ पात्रापात्र विचारोऽयमगाधो वाधिवद्विभो ।। तथाऽपि शृणु संक्षेपात्तत्त्वमार्गानुसारतः ॥ ६५ ॥ पात्रं चारित्रिणः प्रोक्ता मुक्तारम्भपरिग्रहाः । तपः शीलदयावन्तः प्रकृष्टं परमर्षिभिः ॥ ६६ ॥ सत्यशौच दयानिष्ठा द्वादशव्रतधारिणः । पात्रं सम्यक्त्वसंयुक्ता मध्यमं गृहिणः स्मृताः ॥ ६७ ॥ चतुर्थ गुणस्थानस्थितास्तच स्पृहालवः । श्रयन्ति तेऽपि पात्रत्वं जघन्यत्वेन देहिनः ॥ ६८ ॥ आर्ता दीनाश्च हीनाङ्गा दुःखिता ये क्षुधादिभिः । तेऽपि सत्कृपया दानयोग्याः स्युः सर्वदा सताम् ॥ ६६ ॥ एषु शक्त्यनुसारेण ददद्दानं गृहव्रती । तपःशीलविमुक्तोऽपि संसारार्णवमुत्तरेत् ॥ १०० ॥ यतःनो शीलं परिशीलयन्ति गृहिणस्तप्त तपो न क्षमा आर्तध्याननिराकृतोज्ज्वलधियां येषां न सद्भावना |
इत्येवं निपुणेन हन्त ! मनसा सम्यग् मया निश्चितं नोत्तारो भवकूपतोऽस्ति गृहिणां दानावलम्बात्परः ॥ १ ॥
तानि पुण्याय कल्पन्ते वस्तूनि नरपुङ्गव । यानि दत्तानि जायन्ते धर्मोपष्टम्भहेतवे ॥ १०१ दत्तेन येन जन्तूनां क्लेशश्चेतसि जायते । आरम्भो वर्धते पश्चात्तद्दत्तं नैव शस्यते ॥ १०२ ॥ निःशेषेष्वपि दानेषु विशेषात्सार्वभौमति । अन्नदानं महीनाथ ! तत्कालानन्ददानतः ॥ १०३ ॥
******
***************
चतुर्थ
प्रस्ताव:
॥१३१॥
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
RI
चतुर्थ
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥१३२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
रको वा चक्रवर्ती वा बुभुक्षाक्षामकुक्षिमान् । समानामश्नुते कष्टां दशा दीनमुखाम्बुजः ॥ १०४ ॥ अन्नदाने समानेऽपि फलं पात्रानुसारतः । शुक्तौ मुक्ता भवेद्वारि पन्नगेषु विषायते ।। १०५॥ साधुपूज्झितसङ्गेषु दीयते यत्स्वभक्तितः। आमुक्तेः सम्पदं दत्ते देहिनां तन्निधानवत् ॥ १०६ ।। सम्यग्दृशां गहस्थानां द्वादशवतशालिनाम् । दत्तं विवेकतो वस्तु स्वर्गादिश्रियमर्पयेत् ।। १०७॥ निर्विवेकानि दानानि यानि सन्ति परागमे । प्रायः पापाय जायन्ते तान्यारम्भप्रवर्धनात् ॥ १०८॥ दातव्यं गहिणा दानं पुण्यपुण्यप्रसूतये । अथवा दुःखशान्त्यर्थमिति तत्वविद गिरः ॥ १०६ ॥ यतःमूषकानां वधं कृत्वा मार्जारस्तृप्यते यथा । तथा कामान्धिते दत्ते दाता स्वर्ग न गच्छति ॥१॥ सोमप्रभः प्रभुः पृथव्याः श्रुत्वैवं द्विजपुङ्गवात् । पाणिभ्यां कुड्मलं भाले रचयन्नित्यभाषत ।। ११० ।। हेमक्रतुभवं पुण्यपण्यमादाय दीयताम् । मुनिदानफलं मह्य विधायानुग्रहं त्वया ॥ १११।। भूदेववचनं पीत्वा भृदेवः पुनरब्रवीत् । स्वर्गापवर्गसौख्यानि लभ्यन्ते येन जन्तुना ॥ ११२ ॥ कावरत्नमिवासारमादाय मखजं फलम् । तदप्यते कथं पात्रदानं चिन्तामणिप्रभम् ।। ११३ ॥ युग्मम् ॥ क्व मुनेनिजं पुण्यं क्व च क्रतुभवं फलम् । केह कल्पद्रुमो राजन् ! क च नीचः कलिद्रुमः ।। ११४ ॥ तथा निजानि पापानि पुण्यानि पृथिवीपते ! । न हि कस्यापि दीयन्ते जैनधर्मविदाङ्गिना ॥ ११५ ॥ अन्येषां पापदाने तु पापवृद्धिः परं भवेत् । पुण्यदाने पुनस्तेनोज्झितः स्यात् परिणामतः ।। ११६ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१३॥
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
चतर्थ
प्रस्ताव
॥१३३॥
kkR******XXXXXXXXXXXXXXXXX
स्वकृतं लभते प्रायः प्राणी कमें शुभाशुभम् । तथापि स्वान्तसन्तुष्टथै जन्तोः पुण्यार्पणस्थितिः॥ ११७॥ यत्रानुमोदना जन्तोधर्मकायें भवेत् पुरा । तदिह क्रियते प्रेत्यगतस्यापि न चेतरत ॥११८॥ देवाथ नगरोद्याने धर्मसारमुनीश्वराः। निग्रन्था गुरवः सन्ति महर्षिश्रेणिसंयुताः॥११॥ तत्र गत्वा गुरोः पावें पृच्छ्यते भवता विभो!। सम्यग्दानस्वरूपं चेत्तदा लामो भवेन्महान् ॥ १२० ॥ श्रद्धासमन्वितो भूमान् गत्वा तत्र जनैवृतः। अकार्षीद्विनयानत्वा दानदेयविचारणाम् ॥ १२१॥ तथैव गुरुणाऽऽदिष्टं तनिशम्य नराधिपः । सम्यक्त्वं प्रतिपद्याभूत शुद्धश्राद्धव्रतोद्वहः ॥ १२२॥ गुरुभिः पुनराख्यायि तस्य पुण्यात्मनस्तदा । विचारचतुरो भूया राजंस्त्वं जिनशासने ॥ १२३ ॥ जीवाजीवादितत्त्वानां विचारं यः सजेबुधः। तस्य सद्दर्शनं शुद्ध क्रमात्स्यादधिकाधिकम् ॥ १२४ ॥ उक्तं च
त्रैकाल्यं द्रव्यषटकं नवपदसहितं जीवषटकायलेश्याः पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिर्ज्ञानचारित्रभेदाः । इत्येवं मोक्षमार्ग त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमहद्भिरीशैः
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान यः स वै शुद्धदृष्टिः॥१॥ तथेति प्रतिपद्यासौ गुरोर्वाक्यं नृणां गुरुः । गुरुबुद्धिं ददौ विश्वभूतौ वर्णगुरौ तदा ॥ १२५ ॥ ततो गुरुपदौ नत्वा विश्वभूतियुतो नृपः । गृहमागत्य सानन्दो धर्मोत्सवमचीकरत् ॥ १२६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
|॥१३३॥
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
चतुर्थ
प्रस्ताव:
॥१३४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX
विचारयन्नसौ नित्यमाईतैः पण्डितैः समम् । सोमप्रभः क्रमाज्जज्ञे जैनधर्मविदग्रणीः ॥ १२७ ॥ सम्यग्दृशो बभूवांसो याज्ञिका बहवस्तदा । उदिते तिमिरारातो किं तमः क्वापि तिष्ठति ॥ १२८ ।। सुपात्रदानमाहात्म्याद्विश्वभूतिद्विजः पुनः । धनी धर्मवतां मान्यस्तस्मिन्नेव भवेऽभवत् ॥ १२६ ।। निर्माय मन्दिर जैनं सौवर्णप्रतिमायुतम् । तत्रैव नगरे विश्वभूतिभूतेः फलं ललौ ॥ १३ ॥ श्राद्धधर्म समाराध्य सोऽभूद्वैमानिकः सुरः । क्रमेण संयमं प्राप्य सिद्धिसौधं श्रयिष्यति ॥ १३१ ॥ सचिवः सोमशर्माऽपि श्रुत्वा तद्दानजं फलम् । मिथ्यात्विवर्गसंसर्ग मुक्त्वाऽऽसीदास्तिकोत्तमः ॥ १३२ ॥ अश्रौषीत् सोऽन्यदाऽनर्थदण्डव्रतविचारणाम् । व्रतान्यादातुकामः श्रीगुरुणेति प्रकाशिताम् ॥ १३३ ॥ जिनधर्मधुरीणस्य प्राणिप्राणापहारिणाम् । शस्त्राग्निविषयन्त्राणां धारणं नैव कल्पते ॥ १३४॥ धार्यमाणे यतः पुंसां पापाधिकरणबजे । अन्तरङ्गबलोल्लासान्मनोऽनर्थाय धावति ॥ १३५ ।। अतो लोहमयं शस्त्रं न धाय वपुषि स्वके । प्रत्याचख्ये च तेनापि त्रिधा तद्धारणं तदा ॥ १३६ ॥ गुरुणापि पुनःप्रोचे मन्त्रिन् ! व्रतमिदं त्वया । पालनीयं प्रयत्नेन लोकद्वयसुखावहम् ।। १३७ ॥ मण्डित हेममाणिक्यः कौक्षेयं दारवं ततः । रणे राजकुले गच्छन्नसौ दधे दयोदधिः॥१३८ ॥ एवं व्रतजुषस्तस्य सत्पुण्यानि वितन्वतः । अनेहा जग्मिवान् भूयान साम्राज्यसुखसङ्गतः ॥ १३६ ।। न कष्टं विषमेऽप्यासीनापमानो महीपतेः। दौमनस्यं न च क्वापि कटरे व्रतवैभवम (॥ १४०॥ यतः
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१३४॥
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१३॥
जिनेन्द्रधर्मेऽङ्गिदयां विधातुमेकोऽपि सम्यग् नियमः कृतो यैः।
तस्यानुभावाद्विपदो व्रजन्ति स्युः सम्पदस्तस्य पदे पदे च ॥१॥ खलः कश्चिच्छलग्राही पापात्मा मन्त्रिचेष्टितम् । न्यवेदयन्नरेन्द्राय काष्ठासिधरणात्मकम् ॥ १४१॥ निधाय हृदि वृत्तान्तं भूपतिस्तमरुन्तुदम् । प्रस्तौति स्मान्यदा शस्त्रवाता वीरततेः पुरः॥ १४२ ॥ श्रूयते सर्ववस्तूनामन्तरं शास्त्रतो महत । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां रत्नादीनां सभासदः ॥ १४३ ॥ उक्तं चवाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम् । नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम् ॥१॥ प्रत्येकं तद्विलोक्यन्ते मया कौक्षयका अमी। भवतां वीरमुख्याण जयश्रीकेलिसद्मनाम् ॥ १४४ ॥ इत्युदीर्य क्षमाधीशो दर्शयामास संसदः । खड्गरत्नं निजं व्योमरत्नज्योतिर्विडम्बकम् ॥ १४५॥ अन्येषामप्यसिलता यावदालोकते नृपः । सचिवोऽचिन्तयत्तावद् होणः क्षीणमुखच्छविः ॥ १४६ ॥ दर्शनीयः कथङ्कारमसिर्दारुमयो मया । वीरावतंसपूतायां सभायां भूभृतोऽधुना || १४७ ॥ कस्यापि दुर्जनस्याद्य प्रपश्चोऽयं विजम्भितः । राजा कौक्षेयकालोककौतुकी यदजायत ॥ १४८ ॥ बालाबलामहीपाला वारितेषु विशेषतः। कृत्येषु तु प्रवतन्ते देवानांप्रियचेष्टिताः॥१४६ ॥ यदि देवादितत्त्वेषु नानातिशयशालिषु । निश्चयः प्रस्फुरत्यन्तःस्वान्तं सर्वोत्तमो मम ॥ १५॥ धातुमत्तां तदाधत्तां तत्क्षणे तदसावसिः। मावज्ञा जायतां धर्म श्रीसर्वज्ञोदिते मनाग् ॥ १५१ ॥ युग्मम् ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१३॥
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१३६॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
एवं चिन्तयतस्तस्य कोशादाकर्ण्य भूपतिः । मण्डलाग्रं हठाद्यावदवैक्षिष्ट समत्सरः॥ १५२ ॥ तावदिव्यानुभावेन भानुवद्भासुरद्युतिः । दिद्युते चन्द्रहासस्य सम्पदं स विडम्बयन् ॥ १५३ ॥ विस्मयाम्बुधिनिमग्नो दृष्टा तं तादृशप्रभम् । राजा कर्णजपं कोपादजल्पत् श्यामलाननम् ॥ १५४॥ असिधेनुरियं पापिन् ! देवधेनुरिवाद्भुता । स्पन्दमानपयाः कूटं कथमेवमचीकथः॥१५५ ॥ राजानं स्माह सोत्साहस्तदानीं शेमुषीसखः । दोषो नास्त्यस्य राजेन्द्र ! वदतस्तव सूनतम् ॥१५६ ॥ असावसिलता दारुमय्येवास्ति यतः परम् । शिश्राय लोहतां सम्यग् जिनधर्मानुभावतः ॥ १५७ ॥ यतः
पीयूषन्ति विषोर्मयो विषधरा हारन्ति वारांनिधिधत्तेगोष्पदसम्पदं प्रतिपदं शीतीभवन्त्यग्नयः। भूपालाः कलयन्ति सोदरपदं मित्रन्ति वा शत्रवः
सर्वज्ञोदितधर्मकर्मनियमस्थैर्येण देहस्पृशाम् ॥१॥ स्वामिन् ! संयमिनां पार्वे लोहास्त्रनियमो मया । अग्राहि दुरभिप्रायानुत्पादाय निजे हृदि ॥ १५८ ॥ यद्येन गृह्यते यादृग् व्रतं सद्गुरुसन्निधौ । तत्तादृग्रक्षतस्तस्य भवेत्सौख्यमखण्डितम् ॥ १५६ ॥ राजन्ननर्थदण्डस्तु लक्ष्मणस्येव देहिनः । जायते जन्तुहिंसादिः शस्त्रे पाणौ गते सति ॥१६० ॥ ततो दयालुना शस्त्रं नैव धार्य स्वदेहगम् । पालको धर्म एवास्ति प्राचीनभवसञ्चितः ॥ १६१॥
॥१३६॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१३७॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
एवं निगदतस्तस्य पुष्पवृष्टिरभूद्दिवः । मौलौ मौलिश्रियं दिव्यां कुर्वती सुरनिर्मिता ॥ १६२ ॥ एवं धर्मस्य माहात्म्यं तदालोक्य क्षमापतिः । सभासदां पुरः प्रीतः प्रावादीद जितञ्जयः ॥ १६३ ॥ यथा चिन्तामणिः श्रेष्ठो विश्रुतो मणिमण्डले । तथा धर्मेषु सर्वेषु धर्मः सर्वज्ञदेशितः ॥ १६४॥ ईदृग् लीलायितं यस्य पारे वाग्वर्तिवैभवम् । तस्मादुर्गतिरक्षायै नान्यो धर्मोऽस्ति मे मतिः ॥ १६५ ॥ सम्यग्दृष्टिसुरश्रेणिरश्लाघिष्ट नभःस्थिता । मन्त्रिनिश्चयमाहात्म्यं नृपादेः संशयच्छिदे ॥ १६६ ॥ प्रायो धर्मार्थिनः सर्वे सन्त्यमी देहिनः परम् । सम्पग्धमस्वरूपं च न बुध्यन्ते गुरु विना ॥ १६७ ॥ रोहद्वयामोहभूच्छाये संसारावटकोटरे । पतता जीवजातानां गुरुरेव प्रदीपति ।। १६८॥ अत्रान्तरे समायासीद्भव्यकैरवचन्द्रमाः । जिनचन्द्रगुरुः श्रीमान तन्वन्नमृतसम्पदम् ॥ १६६ ।। श्रुत्वा तदागमं भूमान् सचिवादिपुरस्कृतः । जिज्ञासुराहतं धर्म जगाम गुरुसन्निधौ ॥ १७० ।। आननाम गुरोः पादौ मन्त्र्युक्तविधिना नपः । न विस्मरन्ति सदशा यथार्ह विनयस्थितेः ॥ १७१ ॥ ततोऽभ्यधाद्धराधीशो मुनीन्द्रं रचिताञ्जलिः । स्वर्गापवर्गदं धर्मतत्त्वमाख्याहि मे विभो ! ॥ १७२ ।। गुरुः स्माह निराकारः साकारश्च जिनोदितः । धर्मः शर्मश्रियां कोशः सम्यग्दर्शनपूर्वकः ॥ १७३ ॥ आद्यः साधुषु विश्रान्तः शाश्वातानन्ददायकः । द्वितीयः स्वगसौख्यादिदाता तु गृहमेधिषु ॥ १७४ ॥ इत्याकये गुरोर्वाणीं विरक्तः पृथिवीपतिः । न्यस्य राज्यं सुते ज्येष्ठे श्रेष्ठे शत्रुञ्जयाह्वये ॥१७५ ॥
RXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१३७॥
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१३८॥
*****
मन्त्र्यादिभिः समं सान्तःपुरः संवेगपूरितः । अष्टाहिकोत्सवं कृत्वा शिश्रिये संयम श्रियम् ॥ १७६ ॥ भोभद्र ! भद्रकोटीभिदुर्लभं शिवसाधकम् । चारित्ररत्नमासाद्य कथञ्चिद्भाग्ययोगतः ॥ १७७ ॥ प्रमादो नोचितः कतु क्रियाकाण्डेषु कर्हिचित् । प्रमाद्यन् पूर्ववित्साधुनिंगोदेष्वपि गच्छति ॥ १७८ ॥ युग्मम् ॥ अनन्तशोऽपि सम्प्राप्तं द्रव्यचारित्रमङ्गिना । भावलिङ्ग' विना नासीत्स्वार्थप्राप्तिर्भुवा परम् ॥ १७६ ॥ शिक्षयैवं गुरोः साधुधर्ममाराध्य निस्तुषम् । आसाद्य केवलज्ञानं मुक्तिमीयुर्नृ पादयः ॥ १८० ॥ केचित् सुश्रावकाचारं सत्सम्यक्त्वमशिश्रियन् । अपरे भद्रकीभावं भेजुस्तद्गुणरञ्जिताः ॥ १८१ ॥ माहात्म्यं तत्रैव गुरुसन्निधौ । मयाऽप्यङ्गीकृतं नेतः ! सम्यक्त्वं शिवशर्मदम् ॥ १८२ ॥ आदिदेश मुनिस्वामी कृपारसमहार्णवः । मामुद्दिश्य ततः सम्यग्दर्शन स्थिरताकृते ॥ १८३॥ तुस्तपः श्रुतादीनां बीजं ज्ञानचरित्रयोः । सम्यक्त्वं प्राप्यते पुण्याद्भव्यैरेव शरीरिभिः ॥ १८४ ॥ यतः - हि चरणज्ञानवियुक्तमपि दर्शनम् । न पुनर्ज्ञानचारित्रे मिथ्यात्वविषदूषिते ॥ १ ॥ ज्ञानचारित्रहीनोऽपि श्रूयते श्रेणिकः किल । सम्यग्दर्शनमाहात्म्याचीर्थकृत्वं प्रपत्स्यते ॥ १८५ ॥ अधृतचरणबोधाः प्राणिनो यत्प्रभावादसमसुखनिधानं मोक्षमासादयन्ति । भव जलनिधिपतं कर्मकान्तारदावं श्रयंत तदिह सम्यग्दर्शनं रत्नमेकम् ॥ १८६ ॥ इति शिक्षासुधां पीत्वा गुरुवक्त्रेन्दुनिर्गताम् । अप्यहं स्वमनः सौधे दधौ सत्तत्त्वदर्शकम् ॥ १८७॥
*************************
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥१३८॥
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१३६।।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
श्रीसम्यक्त्वमहादीपं मिथ्यात्वतिमिरापहम । औचित्यादिगुणोपेतं प्राणप्रियसुनिश्चलम् ॥ १८८॥ युग्मम् ॥
निशम्य धर्मस्य जिनोदितस्य विष्णश्रियोक्तं परमानुभावम् । विधूतमिथ्यात्वतमाः समं स श्रेष्ठी प्रियाभिमुदितो जगादं ॥ १८६ ॥ प्राणप्रिये ! सत्यमिदं समग्रं त्वयोंदितं श्रीजिनधर्मतत्त्वम् ।
चिन्तामणौ पाणिगते जनानां न स्यादभीष्टं किमपि प्रकृष्टम् ? ॥ १६ ॥ असत्यमेतन्निःशेषमाचष्टे स्म प्रियाष्टमी । विश्वासं धूर्तवाक्येषु कः करोति यथा तथा ॥ १६१॥ मुधा प्रकल्प्य शास्त्राणि पुराणादीन्यनेकशः । पिण्डदानादिपुण्यानि निर्मितानि कुबुद्धिभिः ॥ १२ ॥ राजादयस्तदाकर्ण्य विमृशन्ति स्म विस्मिताः । अभव्या दूरभव्या वा नूनमेषा नितम्बिनी ॥ १६३॥ नाकिनां सम्पदो भूपश्रियश्च सुलभा इह । जिनेन्द्रधर्मतत्त्वस्य श्रद्धानं दुर्लभं परम् ॥ १६४ ॥ यथा ज्वरातदेहानां रुचिरन्नेषु नो भवेत् । तथा मोहविमूढानां सम्यग्धर्मरुचिः पुनः ॥ १६५॥ यथा रोगभरे क्षीणे रुचिर्भोज्येषु जायते । तथा भावमले क्षीणे तत्वार्थेषु रुचिः स्मृतः ।। १६६ ॥ . .. कर्णोत्पलीकृत्य महानुभावं कथानकं धीसखपुङ्गवस्य । .. सम्यक्त्वतत्त्वप्रवरे जिनेन्द्रधर्म कुरुध्वं सुदृढं मनः स्वम् ॥ १७ ॥
॥ इति चतुर्थी भावना ॥
PEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१३॥
२.
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
चतुर्थ
कौमुदी
प्रस्ताव
॥१४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
स्माह नागश्रियं सोऽथ सम्यक्त्वोत्पत्तिसूचिनीम् । स्वानुभूतां प्रिये ! पुण्या कथां कथय सांप्रतम् ॥१॥ कर्णाञ्जलीभिराचम्य कान्तवाचं सुधामुचम् । उदन्तं मुदितस्वान्ता साऽपि तेषां न्यवेदयत् ॥ २॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे वाराणस्यां महापुरि । सोमवंशोऽभवद्राजा जितारिर्जितशात्रवः ॥ ३ ॥ विद्विषां विदुषां यस्य समित्सु सहसादरम् । लक्षदः प्रस्फुरत्पर्वाकरः शर इवाकरोत् ॥ ४ ॥ राज्ञी कनकचित्राऽऽसीत्तस्यासीमगुणस्थितिः । तयोश्च तनया जाग्रद्विनया शीलसुन्दरी ॥५॥ जातवाद्भरिपुत्राणामुपरि स्फाररूपतः । राज्ञो राज्याश्च सा जज्ञे जीवितादपि वल्लभा ॥६॥ परं तु यौवनारम्भे पूर्वकर्मविपाकतः । दाहज्वरशिरोवेगादिकरोगौघपीडिता ॥७॥ सा मुण्डितशिरस्कत्वादःखिता दीनतास्पदम् । मुण्डितेत्यभिधा प्रापदहो! कर्मविचित्रता ॥८॥ युग्मम् ।। मन्त्रतन्त्रौषधश्रेण्या वैद्यवृन्दैरहर्निशम् । चिकित्सिताऽपि नो लेभे सा समाधि कथश्चन ॥ ६ ॥ एकदाऽगाद्गृहे तस्य वृषभश्रीमहासती। विज्ञातसर्व विद्धर्मा संवेगरसदीर्घिका ॥१०॥ मुण्डिता तां नमस्कृत्य कल्याणद्रुमसारिणीम् । निविष्टा पुरतो भूमौ कृताञ्जलिव्यजिज्ञपत् ॥ ११ ॥ स्वामिन्यामयदावाग्निज्वाला मां बाधतेऽधिकम् । तत्प्रसीद ममाऽऽख्याहि भेषजं येन शाम्यति ॥ १२ ॥ स्वामिनि ! त्वं जगज्जन्तुकृपापीयूषदीर्घिका । स्वभावादेव निष्णाता भुवनोपकृतौ यतः ॥ १३ ॥ नानारोगमहावेगविह्वलीभृतमानसा । तेन त्वां प्रार्थये किश्चिदौषधं विश्वजीविनि ! ॥ १४ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४॥
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतथा
प्रस्तावः
सम्यक्त्वकौमुदी ॥१४॥
RRRRRRRXXXXXXXXXXXXXXXX
साऽवोचत प्राग्भवोपात्तकर्मणां परिपाकतः। सुखं दुःखं भवारण्ये लभते जन्तुसन्ततिः ॥१५॥ धर्मः सर्वविदामिष्टः कष्टानां परमौषधम् । बुभुक्षाया यथा भुक्तिः पिपासाया यथा पयः ॥ १६ ॥ स धर्मो द्विविधः प्रोक्तः साधुश्रावकभेदतः । सद्देवगुरुधर्मादितत्त्वश्रद्धानपूर्वकः ॥ १७ ॥ अजिताक्षन निमोतुं साधुधमंस्तु दुष्करः। मेरुशृङ्ग किमारोदु प्रोटिं पगुः समाश्रयेत ॥ १८ ॥ सुकरः श्राद्धधर्मोऽस्ति देशसावद्यवर्जनात् । तं भजस्वाधुना वत्से ! द्वादशवतभूषितम् ॥ १६ ॥ तं श्रिता निरतीचारं धर्म सम्यक्त्ववासितम् । अहंतामष्टधा पूजां कुरु कर्माष्टकापहम् ॥२०॥ त्रिसन्ध्यं सिद्धचक्रस्य सृज पूजा जिनाग्रतः । स्थिता सत्पुष्पनैवेद्यप्रमुखैः पुण्यवस्तुभिः ॥ २१ ॥ जप पश्चनमस्कारानष्टसहस्रमादरात् । ॐ मायाख्यमहाबीजजापपूर्व पदे पदे ॥ २२ ॥ ददस्वान्नं सदा पात्रे दीनदुःस्थेषु चाङ्गिषु । साधर्मिकेषु वात्सल्यं कुरुष्व सुखसिद्धिदम् ॥ २३ ॥ एक जैनेश्वरं विम्ब रत्नाभरणभूषितम् । हेमभारमयं दिव्यं तथा निर्माहि शर्मदम् ।। २४ ॥ कृतवत्याः कृतान्येवं भवत्या आमयाहयः । षड्भिर्मासैर्गमिष्यन्ति वपुर्वल्मीकतोऽखिलाः ॥ २५ ॥ सर्वज्ञभक्तिभृद्धर्म कथितं वृषभश्रिया । कुर्वती सा क्रमाज्जज्ञे रोगमुक्ता महाप्रभा ॥ २६ ॥ तदनुष्ठानमाहात्म्याद्राजकन्या दिने दिने । सौभाग्यं परमं भेजे विश्वस्त्रैणविजित्वरम् ॥ २७॥ ब्रह्मस्वरूपवद्दष्टा तद्रूपं विश्वतोऽद्भुतम् । निश्चिक्युधममुर्वीशमुख्या मन्त्रौषधाधिकम् ॥ २८ ।।
॥१४॥
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१४२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अन्येयुः संयतासङ्घ नन्तुं सा नृपसर्गता । तत्कृतोपकृति सम्यग् संस्मरन्ती कृतज्ञहृत् ॥ २६ ॥ वन्दित्वा श्रमणाः सर्वा विधिना मार्गदेशिकाः । विस्मेरवदनाम्भोजा सोवाच वृषभश्रियम् ॥ ३०॥ गतरोगा सुरूपा च बभूव भगवत्यहम् । त्वत्प्रसादेन पीयूषमज्जनेनेव तत्क्षणात् ॥ ३१॥ करिष्ये निरतीचारमतो धर्म यथोचितम् । यस्य लीलायितं वक्तुं देवैरपि न शक्यते ॥ ३२॥ समीहे गौरवं कर्तु परं वः पुण्यकाम्यया । विशुद्धैरनपानाद्यैर्देशकालगृहोचितैः॥ ३३ ॥ जिनपूजां मुनिभक्ति वात्सल्यं सर्वसङ्घलोकस्य । ये कुर्वन्ति गृहस्थास्तेषां सफलं भवति जन्म ॥ ३४॥ वृषभश्रीरुवाचैवं तां भद्रे ! किमिदं महत् । जिनोक्तव्रततो यत्स्याद्रूपनीरोगतादिकम् ॥ ३५ ॥ अमुष्मादपि दुष्प्रापामपि स्वर्गशिवश्रियम् । जनो यल्लभते नूनं शुद्धभावतरङ्गितः ॥ ३६ ॥ यतः
सम्यक्त्वपूर्वाणि जिनोदितानि व्रतानि यः पालयति प्रयत्नात् ।
आसाद्य कैवल्यरमां सृजेत स सिद्धिवध्वाः सततं विलासम् ॥१॥ साऽथ तां सपरीवारां गृहमानीय भक्तितः । शुद्धानपानवस्त्राद्यैः संयतां प्रत्यलाभयत् ॥ ३७॥ ततो धर्मानुभावेन रूपसौन्दर्यसम्पदः । अभूवन विश्रुतास्तस्याः सर्वभूपालवेश्मसु ॥ ३८॥ विशुद्धोभयपक्षाढ्याः सुरूपाः भूपसूनवः । पित्रा विलोकितास्तस्या उद्वाहार्थमनेकशः॥ ३६॥ तादृक्सौभाग्यसम्पत्या वरः कोऽपि वरः परम् । आस्तां समधिकस्तस्या न तुल्यः प्रतिभासते ॥ ४०॥
* ॥१४२॥
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व. कौमुदी
प्रस्ताव:
॥१४३॥
अत्रान्तरे सुरेन्द्राभो भगदत्तो नृपोत्कटः । तुरुष्कविषये चक्रकोटनामपुरेश्वरः॥४१॥ अयाचिष्ट महादुष्टो विश्वोत्कृष्टवपुष्टमाम् । जितारिं सन्धिपालेन तां सुतां शीलसुन्दरीम् ॥ ४२ ॥ दुतोऽप्यागत्य भूपाय प्रणम्येति न्यवेदयत् । सुतां विश्रुतलावण्यपुण्यपीयूषवाहिनीम् ॥ ४३ ॥ श्रियं विष्णुरिवाम्भोधिं भवन्तं भगदत्तराट् । याचते बहुमानेन समर्थोऽपि हि साञ्जसः ॥ ४४ ॥ विनीतवृत्तिं निर्माय तस्मै सा दीयतां सुता । स्वाजन्यं युवयोरस्तु यावज्जीवं सुखप्रदम् ॥ ४५॥ यस्य कस्यापि दातव्या तनया गुणवत्यपि । परमीदृग्गुणोपेतो वरः पुण्येन लभ्यते ॥ ४६॥ कुलं शीलं वपुर्विद्या वयो वित्तं सनाथता । वरे ग्राह्या गुणा ये तु तेऽत्र सन्ति नृपेऽखिलाः॥४७॥ दूतायाथ निजाकृतं वदति स्म महीपतिः । यद्यप्यस्ति गुणश्रेणी वराहां भवतः पतौ ।। ४८॥ तथाऽपि कुलधर्माभ्यां हीनत्वान्न पुनः सुताम् । शुनो माणिक्यमालावन्न दास्ये तव भूभुजः॥४६॥ सर्वैरपि गुणैयुक्तस्ताभ्यां यदि बहिष्कृतः । तदा निगुण एवासौ चकास्ति विदुषां हृदि ॥ ५० ॥ यतःतोयेनेव सरः श्रियेव विभुता सेनेव सुस्वामिना, जीवेनेव कलेवरं जलधरश्रेणीव वृष्टिश्रिया। प्रासादस्त्रिदशार्चयेव सरसत्वेनेव काव्यं प्रिया, प्रेम्णेव प्रतिभाषते न रहितोधर्मेण जन्तुः क्वचित् ॥१॥ मुक्ततेजो यथा रत्नं पुष्पं वा गन्धवर्जितम् । गतधर्मस्तथा प्राणी नायात्यत्र महर्घताम् ॥२॥ अतो वाच्यस्त्वया स्वेशः कन्यारत्नं यदीहसे । विगाह्यो भवता पूर्व मदीयरणसागरः ।। ५१ ॥
ELEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४३॥
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१४४॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
भगदत्तो दूतवाचा कुपितोऽथ कृतान्तवत् । कृत्वा सझामसामग्री पुरे तत्रागमज्जवात् ॥ ५२ ॥ चतुरङ्गवलाकीर्णो जितारिरपि संमुखः । युद्धकण्डूलदोर्दण्डो मार्तण्ड इव निययौ ॥ ५३ ॥
दिक्चक्राक्रमणकलम्पटतमं कल्पान्तकालानलज्वालामं भगदत्तभूपतिबलं क्षोणीतलाकम्पकृत् । प्रेक्ष्योवाच सुदर्शनाभिधमहामात्यो जितारिप्रभु न्यायोपायविदग्रणीनिजगणश्रेयःश्रियं चिन्तयन् ॥ ५४॥ स्वामिन् । निजाङ्गजां दत्वा भगदत्ताय भूभुजे । सन्धिविधीयते येन दुर्जयः प्रतिभात्ययम् ॥ ५५ ॥ राजनीतेरिमे प्राणा यदलाबलनिर्णयः। सन्धिविग्रहवेलायाः परिज्ञानं च निस्तुषम् ॥ ५६ ॥ सामं नैव मन्यन्ते सर्वानर्थनिकेतनम् । नीतिशास्त्रविदः साधं भूभुजाऽतिबलीयसा ॥ ५७ ॥ यतःअनुचितकारम्भः स्वजनविरोधो बलीयसा स्पर्धा । प्रमदाजनविश्वासो मृत्युद्वाराणि चत्वारि ॥१॥ जितारिजितकाशित्वं मन्वानो भुजदर्पभृत । उवाच सचिवं किश्चित्क्रोधौद्धत्यगलन्मतिः ।। ५८ ॥ क्षत्रियाणामिदं मन्त्रिन् ! नित्यं स्वकुललाञ्छनम् । दुराचाराय यत्पुत्री दत्वा राज्यं हि भुज्यते ॥ ५६ ॥ रणोत्सवे समायाते जयश्रीलम्पटा भटाः । जीवितं धृत्कृतप्रख्यं मन्यन्ते क्षत्रियोत्तमाः।। ६० ॥ स्वर्गस्त्रीशरणं मन्त्रि ! मरणं रणसागरे। जयश्रीकारणं वीरवराणां जीवितं तथा ॥ ६१ ॥ यतःजिते च लभ्यते लक्ष्मीमृते चापि सुराङ्गना । क्षणविध्वंसिनीकाया का चिन्ता मरणे रणे ॥१॥ क्षत्रियाः समितेर्नष्टाः क्रिया भ्रष्टा दिजातयः । लिङ्गिनः शीलमुक्ताश्च त्रयोऽमी पापपांशवः ॥२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४४॥
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
।। १४५ ।।
******
इत्युक्त्वा मन्त्रिणं राजा युत्सामग्रीमकारयत् । विपरीते विधौ प्राणी मन्यते किं हितं वचः १ ॥ ६२ ॥ ततस्तयोर्महीजान्योरन्योन्यं सैन्ययोर्द्वयोः । सङ्ग्रामः समभूद्भूना विश्वविश्वभयङ्करः ॥ ६३ ॥ दवानिनेव सैन्येन भगदत्तन रेशितुः । प्रसर्पता बलं भग्नं द्राग् जितारेः पलायत ॥ ६४ ॥ दृष्ट्वा नष्टं बलं सर्व दिवानन्तत्रवृन्दवत् । ननाश काकवत्कम्पमानो वाराणसीनृपः ।। ६५ ।। सारी भगदत्तेन गतनाव कामिनी । कदर्थ्यमाना चक्रन्द सर्वतः करुणस्वरम् ॥ ६६ ॥ नरेन्द्रसुन्दरीवर्गश्चुक्षुभे भयविह्वलः । रत्नमाणिक्यवस्तूनि जगृहुस्तस्करास्तथा ॥ ६७ ॥ मुण्डितथ परिज्ञाय स्वपितुश्चेष्टितं तदा । दुःखसंभारसंतप्ता निर्विन्ना जीवितादपि ॥ ६८ ॥ नमस्कृत्य जिनेन्द्राणां प्रतिमा भूरिभावतः । स्मृत्वा च स्वगुरोः पादौ दृढमम्यक्त्ववासिता ॥ ६६ ॥ प्रत्याख्यानं च साकारं निर्मायामायमानसा । पपात वेश्मनो वाप्यां संस्मरन्ती नमस्कृतिम् ||७० | | त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सम्यग्धर्मानुभावेन तदा तस्या जलोपरि । हैमं सिंहासनं प्रादुरासीत्तत्राद्भुतावहम् ॥ ७१ ॥ निविष्टा तत्र पूर्लोकैः सा सीतेव महासती । ववन्दे नयनानन्ददायिनी देवतान्विता ॥ ७२ ॥ आयसैः कीलिता कीलैः सुरैस्तस्करपूरुषाः । वक्त्रारविन्देरुद्वेमुभ्र मद्गात्राश्च शोणितम् ॥ ७३ ॥ भगदत्तस्तथा प्रेक्ष्य वेपमानत्र पुस्तदा । पत्तिवत्पादयोस्तस्या भालस्पृष्टधरोऽपतत् ॥ ७४ ॥ पुत्रीमाहात्म्यमुद्धुष्टं त्रिदशैर्मुदिताशयैः । श्रुत्वा जितारिभूजानिराययौ तत्र विस्मितः ॥ ७५ ॥
*****
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ १४५ ॥
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
KX**
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१४६॥
KXXXXXXXXXXXXXXX
निजापराधमाधूय गौरवात् प्रणिपत्य च । तं ज्येष्ठबन्धुवर्भूभृद्भगदत्तोऽप्यमन्यत ॥ ७६ ॥ ताभ्यां प्रीत्युत्सवस्तत्र चक्रे शक्रोत्सवोपमः। जहषुर्नागराः सर्वे विड्वरोपशमादिना ॥ ७७ ॥ तस्मिन्नवसरे तत्र पवित्रितमहीतलः । गुरुः सागरनामाऽगाद् श्रुतपीयूषसागरः॥ ७८॥ वनपालान्महीपालौ विदित्वाऽथ तदागमम् । मुदितावीयतुभक्त्या वन्दितुं सपरिच्छदौ ।। ७६ ॥ दत्तधर्माशिषा तेन तयोनत्वोपविष्टयोः । तत्त्वातत्त्वप्रकाशाय वितेने धर्मदेशना ॥८॥ श्रीधर्मोदययकथा निजगदे ज्ञानक्रियाभ्यां द्विधा ज्ञानाद्यैत्रिविधश्चतुर्विधतया भेदैवतैः पञ्चधा। षोढावश्यकपालनेन नयतः सप्ताष्टधा मातृभिस्तत्वैः स्यानवधा ततो दशविधः क्षान्त्यादिभिः सद्गुणैः ॥८१ ॥ सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां यो यतते स्वेष्टसिद्धये । फलं तस्या विना भावात्सर्वमेवोपपद्यते ॥२॥ साध्यम) परिज्ञाय यदि सम्यग् प्रवर्तते । ततस्तं साधयत्येव तथा सर्वत्र दर्शनात् ॥८३॥ असाध्यारम्भिणस्तेन सम्यग्ज्ञानं न जातुचित् । साध्यानारम्भिणश्चेति द्वयमन्योन्यसंश्रयम् ॥ ८४ ॥ अत एवागमज्ञस्य या क्रिया सा क्रियोच्यते । आगमज्ञोऽप्यसौ तस्यां यः शक्त्या यत्प्रवर्तते ॥५॥ चिन्तामणिस्वरूपज्ञो दौर्गत्योपहतो नहि । तत्प्राप्त्युपायवैचित्र्ये सत्यन्यत्र प्रवर्तते ॥८६॥ न चासौ तत्स्वरूपज्ञो योऽन्यत्रापि प्रवतेते । मालतीगन्धगुणविन्न दमें रमते बलिः ॥ ८७॥ शाश्वतस्थानसम्प्राप्तिर्मु ख्यं ज्ञानक्रियाफलम् । आनुषङ्गिफलान्याहुमत्यस्वर्गसुखानि तु ॥ ८८ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४६॥
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी ॥ १४७॥
************
इत्याकर्ण्य वचस्तस्मात् संवेगरसपूरिताः । जितारिभगदत्ताद्या नृपा मन्त्र्यादिसंयुताः ॥ ८६ ॥ चारित्रपोतमारुह्य तेरुः संसारसागरम् । सम्यक्त्वैकप्रतिष्ठानं शीलाङ्गगुणरत्नभृत् ॥ ६० ॥ युग्मम् ॥ जनन्या वर्धितोत्साहा संयमं शीलसुन्दरी । विरक्ता कामभोगेभ्यस्त्रतादाय शिवं गता ॥ ६१ ॥ जितशत्रु नरेन्द्रेण जितारिनृपसूनुना । स्वतातसंयमप्राप्तौ चक्रे विश्वाद्भुतोत्सवः ॥ ६२ ॥ प्रासादप्रतिमादीक्षातपोनन्दिध्वजादिषु । धन्यस्यैव धनं न्यायाजितं याति कृतार्थताम् ॥ ६३॥ व्रतमाहात्म्यमालोक्य मुण्डिताया नृपोद्भुवः । मयाऽपि विधिना स्वामिन् ! सम्यक्त्वं स्वीकृतं तदा ॥ ६४ ॥ क्रियाहीनोऽप्ययं प्राणी सम्यक्त्व विशदाशयः । सिद्धिसीमन्तिनीं पाणौकृत्य लीलायतेऽनिशम् ।। ६५ ॥ नागश्रियोक्तां हृदये निधाय श्रीजैनधर्मोन्नतिराजधानीम् ।
कथामिमां श्रेष्ठिवरो बभाषे समं प्रियाभिः खलु सत्यमेतत् ॥ ६६ ॥ प्रिया कुन्दलतोवाच सर्वमेव स्वकल्पितम् । धूर्ताख्यानकवदेव ! श्रदधे न मनागपि ॥ ६७ ॥ नृपादयस्तदा दध्युरहो ! एषा नितम्बिनी । पयोदेवि सद्वाक्यैरभेद्या मुद्द्रशैलवत् ॥ ६८ ॥ तस्यैव भवति स्वान्तं सार्द्धं श्रुत्वाऽन्यसंस्तुतिम् । यः शुक्लपाक्षिकः प्राणी भवेदत्र वरायति ॥ ६६ ॥ एवं जिनेन्द्रोदितसद्व्रतानि नरेन्द्रपुत्री दृढस्थितीनि ।
दधाति यो निश्चयबोधिलाभः प्राप्नोत्यसौ सिद्धिसुपर्वसौख्यम् ॥ १०० ॥
******
**************:*
चतुर्थ
प्रस्तावः
॥ १४७॥
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव:
॥१४८॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX
श्रुत्वा कथानकमिदं नरनाथपुच्याः श्रोत्रैकपेयमवनीपतिपुङ्गवोऽपि ।
हर्षप्रकर्षमकरोत् सचिवेन सार्धं जानन जिनाधिपमतं भुवनातिशायि ॥ १०१॥ इति सम्यक्त्वकौमुद्यां श्रीतपागच्छनायकश्रीसोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यैः पण्डितजिनहर्षगणिभिः कृतायां चतुर्थः प्रस्तावः ॥ ग्रन्थानम् ६७५ ॥
॥ अथ पञ्चमः प्रस्तावः॥ अथ भक्त्या विनिर्माय प्रतिमानां जगद्गुरोः । कपूरागुरुकस्तूरीधूपपूजा विशेषतः ॥ १ ॥ श्रेष्ठी पद्मलतां प्रोचे त्वं कथा कथय प्रिये ! श्रुत्वा सम्यक्त्वसौभाग्यं यथाऽहं प्रीतिमावहे ॥ २ ॥ युग्मम् ।। निदेशं स्वामिनो लब्ध्वा सुधामाधुर्यजित्वरम् । हेतु सद्दर्शनोत्पत्तौ पुनः पद्मलताऽलपत् ॥ ३ ॥ अङ्गोऽनङ्गोपमानेकलोककेलिनिकेतनम् । विषयः सुखसंपन्नो वर्ततेऽवनिमण्डनम् ॥ ४॥ चम्पा कम्पावहा नाकसम्पदः स्वकसम्पदा । आसीत् सीदजनाधाररूपा तत्र महापुरी ॥ ५ ॥ तस्याः सौभाग्यसम्भारं कोऽपि वक्तुं क्षमो भवेत । जज्ञे यस्याः पतिः पूर्व वासुपूज्यो जगद्गुरुः ॥ ६ ॥ भोगावती कथं तस्याः श्रयेत्साम्यं मनागपि । सुभद्राशीलकपूरवासिता याऽधुनाऽप्यहो । ॥ ७॥ नरवाहनतुल्यश्रीस्तत्रासीन्नरवाहनः । गरुन्मद्वाहनोजस्वी भूपतिभू रिवाहनः ॥ ८॥
1॥१४८॥
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१४॥
गुणगुणवतामाद्यः पुण्यैः पुण्यवतामपि । बलैबलवतां चैव स राजा विश्रुतो भुवि ॥ ९ ॥ राज्ञी पद्मावती तस्य पद्माभा पद्मासौरभा । सौभाग्यसम्पदः सद्म छद्ममुक्तमना अभूत् ॥ १० ॥ तत्रास्तिकगुणग्रामाभिरामो जिनभक्तिमान् । नाम्ना ऋषभदासोऽभूत् श्रेष्ठी सदृष्टिभूषणम् ॥ ११ ॥ सप्तक्षेत्रावनौ वर्षन्नुन्नतो वित्तवारिभिः। प्रीणन् दीनान् यथौचित्यं योऽभूल्लोके घनोदयः॥ १२ ॥ प्रिया प्रियतमा तस्य जज्ञे पद्मावती सती । कुर्वती पुण्यकार्याणि विरराम न या क्वचित् ॥ १३॥ जाग्रद्विवेकविनया पद्मश्रीस्तनया तयोः । पुण्यलावण्यपीयूषदीधिकेवाभवद्भुवि ॥ १४ ॥ तस्या जगन्त्रयस्त्रैणसौन्दय कविजित्वरम् । रूपं निरूप्य नो जज्ञे कस्को विस्मतमानसः ॥ १५ ॥ अथ दारिद्रयदुर्योनिदुःखदावाम्बुदोपमम् । बोधिबीजप्ररोहेककारणं भवतारणम् ॥ १६ ॥ ऋषभश्रेष्ठिनाऽकारि पुरे श्रीजिनमन्दिरम् । मानप्रमाणवर्णाढ्यप्रतिमाभिरलङ्कृतम् ॥ १७ ॥ युग्मम् ॥ पद्मश्रीदेवपूजाय प्रत्यहं तत्र गच्छति । दिव्याभरणभूषाभिः सखीभिः परिवारिता ॥१८॥ बुद्धसङ्घधुरीणोऽथ बुद्धदासः स्फुरद्यशाः। महेभ्यः समभृत्तत्र बुद्धदासी च तत्प्रिया ॥ १६ ॥ बुद्धसङ्घस्तयोः पुत्रः पात्रं सुत्रामसम्पदः । नवीनयौवनारम्भसम्भारमदमन्थरः ॥ २० ॥ सुहृदा कामदेवेन कामदेवोऽङ्गमानिव । अन्वितस्तत्र स प्रापदन्यदा जिनमन्दिरे ॥ २१ ॥ दृष्ट्वा पद्मश्रियं तत्र पद्मसुन्दरलोचनाम् । जिनेन्द्रपूजानिष्णातां कुमारोऽसौ विमृष्टवान् ॥ २२ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४६॥
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १५० ॥
******
अहो ! रूपमहो ! कान्तिनेत्रश्रान्तिहरी नृणाम् । अहो ! सर्वाङ्गसौभाग्यं यूनामुन्मादभेषजम् ॥ पश्यन् कुण्डलिनीं दिव्यरूपां ताममृतश्रवाम् । निर्निमेषदृगम्भोजो जज्ञे योगीव स क्षणम् ॥ एवं पश्यन्नसौ कामव्याधवाणैरताडयत । तथा यथायिनिक्षेपं नासीत् कतु मपि क्षमः ॥ २५ ॥ ततः कथञ्चिन्मित्रेण सम्बोध्य श्रेष्ठिनोऽङ्गजः । मन्मथाशुगविद्धोऽपि बलान्निन्ये निजालये ॥ २६ ॥ कामज्वरज्वलत्कायः पतितस्तल्पपल्वले । मनाग् न हि धृतिं लेभे मीनवत् स जलोज्झितः ॥ २७ ॥ स्वरूपं तस्य निर्णीय जननी कामदेवतः । तत्रागत्यावदत्पुत्रं सम्भ्रमभ्रान्तमानसा ॥ २८ ॥ व्याधिधां दधात्यङ्ग कश्चिद्वत्स ! तवाधुना । उत्तिष्ठ शर्करापानं कुरु भोजनमाचर ॥ २६ ॥ चतुर्जातकसन्मित्रं धेहि वा क्वथितं पयः । अथवा याऽस्ति ते चिन्ता तां जल्पत्वं ममाग्रतः ॥ ३० ॥ मुक्त्वा लज्जाभरं मारविकारविह्वलाशयः । कुमारो मातरं स्माह मुश्च निश्वासपद्धतिम् ॥ ३१ ॥ ऋषभश्रेष्ठिकन्यायाः कराश्लेषाभिषेकतः । मातः ! शान्ति व्रजेदाशु मद्वपुस्तापसन्ततिः ॥ ३२ ॥ तत्स्वरूपं परिज्ञाय जनन्युत्सुकमानसा । पत्ये निवेदयामास बुद्धदासाय वेगतः ॥ ३३ ॥ तत्रागत्य जवात् सोऽपि चिन्ताचन्तिमना मनाग् । तापोपशान्तये पुत्रमपीप्यद्वचनामृतम् ॥ ३४ ॥ वत्स ! स्वच्छाशयो मुग्धधोरणीषु स्थितो धुरि । अशक्ये कुरुषे यस्माद्वस्तुनि त्वं कदाग्रहम् ॥ ३५ ॥ जनङ्गमानिव स्पृष्ट्वा बुद्धधर्मधुरन्धरान् । अस्मान्मांसाशिनो नित्यं यः स्नानमभिवाञ्छति ॥ ३६ ॥
२३ ॥
२४ ॥
**************************
पञ्चमः
प्रस्तावः
।। १५० ।।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
पश्चम
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१५॥
XXXXXXXXXXXXXXXXX
तत्कथं कथय प्राज्ञ! कन्यां धन्यतमामसौ । श्वपाकाय यथा कामधेनु तुभ्यं प्रदास्यति ॥३७॥ साध्ये वस्तुनि कर्तव्यः प्रयत्नः पण्डितात्मभिः । बलाधिकोऽपि किं पगुः सुमेरुमधिरोहति ॥ ३८॥ समानधर्मशीलानां समानर्द्धिविलासिनाम् । कुले संस्थाप्यते कन्या सुपात्रे दानवबुधैः॥ ३९ ॥ यतःययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रतम् । ययोरेव गुणैः साम्यं तयोर्योगः प्रशस्यते ॥१॥ बहूक्तेन सृतं तात! नाहं जीवामि तां विना । निजाङ्गजे वदत्येवं बुद्धदासो व्यचिन्तयत् ॥४०॥ अहो ! कामस्य माहात्म्यममेयं त्रिदशैरपि। विज्ञोऽप्यविज्ञवद्वाद चेष्टते नष्टचेतनः॥४१॥ आनाकेश्वरमार विष्टपत्रितयं क्षणात् । निपतत्यङ्गनाजाल-मारधीवरमण्डिते ॥ ४२ ॥ तदयं बोध्यते सामवचनैरेव सांप्रतम् । मरिष्यत्यन्यथा पित्तज्वरीव कटुकौषधैः॥४३॥ ध्यात्वेत्यभिदधौ श्रेष्ठी कृत्वा वत्स ! स्थिरं मनः । सानन्दः सर्वकार्याणि विधेहि त्वं यथोचितम् ॥ ४४ ॥ एतत्कार्यविधौ यत्नात् करिष्येऽहमुपक्रमम् । अत्युत्सुकतया कृत्यं न स्याद्यद्भभुजामपि ॥ ४५ ॥ श्रुत्वा सोऽपि पितुर्वाक्यं हृष्टोऽजनि तदाशया। आशाबन्धो हि यल्लोके हृदयालम्बनं परम् ॥ ४६ ॥ ततस्तत्कायसिद्धयर्थ विचार्य निभृतं निजैः । सपुत्रः सकुटुम्बश्च बुद्धदासः सदम्भहृत् ॥ ४७ ॥ साधूनां सविधं प्राप्य नत्वा धर्ममनुत्तरम् । पप्रच्छ गुरुणाऽऽख्यायि तत्स्वरूपं च वास्तवम् ॥४८॥ तद्यथाधर्मो जीवदयारूपः सत्यशौचप्रतिष्ठितः । स्तेयवृत्तिविनिमुक्तो ब्रह्मचर्यविभूषितः ॥ ४६॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
EXXXXXXX
॥१५॥
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१५२॥
*************
परिग्रहनिवृत्याढ्यो निशाभोजनवर्जितः । मधुमद्यामिषत्यागपूर्वको विनयोज्ज्वलः ५० ॥ अनन्तकायिकाभक्ष्यबहुबीजादनोज्झितः । अमर्मवचनः क्षान्तिप्रधानो हृद्विशुद्धिमान् ॥ ५१ ॥ यथार्हपात्रदानादिगुणश्रेणिविराजितः । मोक्षसौख्यावधिप्रौढफलमालासुरद्रुमः ॥ ५२ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ आधारस्तस्य सम्यक्त्वं गुणानां विनयो यथा । देवादितत्त्वत्रितयीश्रद्धानस्थितिबन्धुरम् ॥ ५३ ॥ मनोवाक्काययोगेन मिथ्यात्वं यो हि वर्जयेत् । शुद्धं तस्यैव सम्यक्त्वं वदन्ति परमर्षयः ॥ ५४ ॥ यज्जिनेन्द्रवचोऽतीतं यदज्ञानविजृम्भितम् । लोकप्रवाहरूपं यन्मिथ्यात्वं तदनेकशः ॥ ५५ ॥ मिथ्यात्वं लौकिकं लोकोत्तरं द्विविधमुच्यते । देवगुर्वाश्रितत्वेन प्रत्येकमपि तद्विधा ॥ ५६ ॥ यतः - लोइलो उत्तरियं देवगयं गुरुगयं च उभयंपि । पत्तेयं नायव्वं जहक्कमं सुत्तओ एवं ॥ १ ॥ विष्णुब्रह्मरादीनां देवानामर्चनादिकम् । गुरुबुद्ध्या नमस्कारः कापालिकद्विजादिषु ॥ ५७ ॥ लम्बोदरादिदेवानां लाभार्थं पूजनं गृहे । उद्वाहे स्थापनं चेन्दुरोहिणीगीत निर्मितिः ॥ ५८ ॥ षष्ठीमात्रर्चनं चन्द्रं प्रति तन्तुप्रसारणम् । उपयाचितानि सर्वाणि तोतुलाग्रहपूजनम् ॥ ५६ ॥ चैत्राश्विनादिमासेषु गोत्र देव्यादिपूजनम् । माघषष्ठयां रवेर्यात्रा स्नानदानाद्युपप्लवैः ॥ ६० ॥
पितॄणां पिण्डदानानि होलिकायाः प्रदक्षिणा । तिलतैलादिदानं च शनिशान्त्यै समज्जनम् ॥ ६१ ॥ संक्रान्तौ स्नानदानाद्यं बुधदुर्वाष्टमीव्रतम् । रेवन्तपथदेवार्चा शिवरात्रौ च जागरः ॥ ६२ ॥
R
*****************:
पश्चम प्रस्तावः
॥ १५२ ॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
।। १५३ ।।
***********
******
क्षेत्रे सीतानं भाद्रपदे तु द्वादशीकृतिः । सप्तम्यां वैद्यनाथस्य पूजना कणमार्गणम् ॥ ६३ ॥ फाल्गुने नागपूजा च सोमादित्यतपस्तथा । कार्तिकी नवरात्राच देवजन्माष्टमीमहः ॥ ६४ ॥ हेमरूप्याद्यलङ्कारदेवतानां च सत्कृतिः । स्वर्नदीगोमतीवार्धिमाघस्नानादिका क्रिया ॥ ६५ ॥ सर्पिः कम्बलदानं च माघमासे द्विजादिषु । मिथ्यादृग्देवतापूजा शरावभरणं सुते ॥ ६६ ॥ कज्जलीदेवतार्चादि श्राद्धं पितृषु तर्पणम् । तिलदर्भप्रदानं च मृतकार्थे जलाञ्जलिः ।। ६७ ।। गोपृष्टे हस्तकादानं रविचन्दनषष्ठिका | विशेषस्नानदानाद्यमुत्तरायनवासरे ॥ ६८ ॥ तृतीया त्वाश्विने मासेहरिस्वापाद्यहस्तपः । एकादशीव्रताघानं गौरीभक्त द्रुमार्चना ॥ ६६ ॥ यात्रा च लौकिके तीर्थे कृत्यं पाण्मासिकादिकम् । पुण्यार्थं च प्रपादानं कन्यापाणिग्रहादि च ॥ ७० ॥ भोजनं तु कुमारीण मृतकार्थं पयोघटाः । पञ्चम्यादौ तिथौ नित्यं गोरसस्याविलोडनम् ॥ ७१ ॥ चैत्रे तु चचरीदानं शण्डवृक्षोद्वहोत्सवः । मण्डकादिप्रदानं च तृतीयायां तु माधवे ॥ ७२ ॥ ज्येष्ठशुक्लत्रयोदश्यां शक्तुकादिप्रदायिका ! अमावास्याममावास्यां जामातुर्भोजनं तथा ॥ ७३ ॥ वायसादेर्बलेर्दानमनन्तव्रतपालनम् । पुण्यार्थं कूपखननं क्षेत्रादौ गोचरोज्झितिः ॥ ७४ ॥ स्नानं धन्यत्रयोदश्यां तथा रूपचतुर्दशी । भाद्रे कृष्णचतुर्दश्यां पवित्रीकरणं पुनः ॥ ७५ ॥ पिष्पलाम्रादिवृक्षाणां रोपणं वारिसिञ्चनम् । विप्रगेहे पयोदानं धर्मार्थं वह्निदीपनम् ॥ ७६ ॥
S
*****
*****
पश्चम
प्रस्तावः
. ॥ १५३ ॥
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १५४॥
******
*****
गोव्रतं गोधनाच च विष्णुकान्ता मुखस्थितिः । धर्मार्थं तूलिकादानं पापकुम्भादिकाः क्रियाः ॥ ७७ ॥ गोभूमिवर्णदानानि भूदेवेभ्यः शिवाप्तये । महामायाचना पुत्राद्यर्थं क्षेत्रप्रपूजना ॥ ७८ ॥ गुरुदेवगतं प्रोक्तमिति मिथ्यात्वमागमे । लौकिकं भूरिसंसारदुः खराशि निबन्धनम् ॥ ७६ ॥ लोकोत्तरं देवगतं प्राहुर्मिथ्यात्वमीदृशम् । कुतीर्थिकगृहीतेषु जिनबिम्बेषु पूजनम् ॥ ८० ॥ आशातनाविधानं च जैनचैत्यगृहादिषु । निषेधस्त्वनिषिद्धानां निषिद्धेषु तथादरः ॥ ८१ ॥ युग्मम् ॥ मिथ्यात्वं भवबीजाभं गुरुश्रितमिदं पुनः । शीलभ्रष्टादिसाधूनां वन्दनापूजनादृतिः ॥ ८२ ॥ यतःजे लोउत्तमलिंगा लिंगियदेहावि पुप्फतंबोलं । आहाकम्मं सव्वं जलं फलं चेव सच्चितं ॥ १ ॥ भुजंति थीपसंगं ववहारं गंथसंग्रहं भूसं । एगागित्तव्भमणं सच्छंदं चेट्ठियं वयणं ॥ २ ॥ चेयमढाइवासं वसहीसु निञ्चमेव संठाणं । गेयं नियचरणाणं चावणमिह कणयकुसुमेहिं ॥ ३ ॥ तिविहं तिविणेयं मिच्छत्तं जेहिं वज्जियं दूरा । निच्छयओ ते सड्डा अन्ने पुण नामओ चेव ॥ ४॥ एतन्मिथ्यात्वनिर्मुक्तं सम्यक्त्वं भजते हि यः । आसन्न सिद्धिकत्वेन प्रसिद्धोऽसौ मनीषिणाम् ॥ ८३ ॥ श्रुत्वेति देशनां तत्र बुद्धदासः कुटुम्बयुक् । विधूय सर्वमिथ्यात्वं मद्यमांसादि वर्जयन् ॥ ८४ ॥ सम्यक्त्वपूर्विका दम्भात्प्रपद्य द्वादशवतीम् । शिश्राय श्रावकीभावमहो ! मायाविजृम्भितम् ॥ ८५ ॥ ततः शुश्रूषते साधूनर्चति श्रीजिनेश्वरम् । न्यायार्जिता मुनीन्द्रोक्तक्षेत्रेषु वपति श्रियः ॥ ८६ ॥
1
*****
****
पश्चम
प्रस्तावः
॥ १५४ ॥
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
।। १५५।।
*******
****
निरीक्ष्य ऋषभस्तस्य मुक्तमिथ्यात्खवर्त्मनः । जिनेन्द्र मार्गगामित्वं प्रशंसामकरोदिति ॥ ८७ ॥ धन्यानामग्रणीरेष बुद्धदासः श्रियः पतिः । कुलक्रमागतं येनोन्मूल्य मिथ्यात्वमुत्कटम् ॥ ८८ ॥ कुशासनमयान् पाशान् विश्वव्यामोहकारिणः । समुच्छिद्य जिनेन्द्राणां शासनं प्रत्यपद्यत ॥ ८६ ॥ युग्मम् ॥ सर्वः कोऽपि सुखाद्याति पूर्वजक्षुण्णवर्त्मनि । तद्विवेक्येव निर्धू य सम्यग्धर्मरतो भवेत् ॥ ६० ॥ उक्तं चप्रतिपच्चन्द्रं सुरभी नकुलो नकुलीं पयश्च कलहंसः । चित्रकवल्लीं पक्षी सम्यग्धर्मं सुधीर्वेत्ति ॥ १ ॥ तदस्य सकुटुम्बस्य शुद्धधर्मजुषोऽधुना । वात्सल्यमुचितं कर्त्तुं वेश्मन्याकार्य गौरवात् ॥ ६१ ॥ श्रियः सफलता वेश्मपावित्र्यं शासनोन्नतिः । तीर्थंकृत्कर्मणः प्राप्तिर्वात्सल्यस्य गुणा अमी ॥ ६२ ॥ ततः स बुद्धदासेन श्रीनिवासेन सौहृदम् । धीमान् प्रविदधे नव्यसद्धर्मस्थिरताकृते ॥ ६३ ॥ परस्परं यथौचित्याद्ददतोः प्रतिगृह्णतोः । पृच्छतोगुं ह्यमाख्यातोस्तयोः प्रीतिरवर्धत ॥ ६४ ॥ अध्यक्षं बुद्धदासस्य ऋषभश्रेष्ठिनाऽन्यदा । व्यधायि धर्मस्थैर्यार्थ सद्भूतगुणकीर्तनम् ॥ ६५ ॥ यूयं विश्वत्रयश्लाध्याः कुलं वोऽद्याभवत् शुचि । धर्मकल्पद्रुरारोपि भवता यन्निजालये ॥ ६६॥ लभ्यन्ते संपदः सर्वाः स्वर्गैश्वर्येण संश्रिताः । न परं प्राप्यते प्रायो धर्मः सर्वज्ञदर्शितः ॥ ६७ ॥ यतः -
अपि लभ्यते सुराज्यं लभ्यन्ते पुरवराणि रम्याणि । न लभ्यते विशुद्धः सर्वज्ञोतो महाधर्मः ॥ १ ॥ सम्यग्भावेन कर्तव्यो भवद्भिस्तदयं सदा । येन सिद्धिवधूसौख्यसङ्गमः सुलभो भवेत् ॥ ६८ ॥ यतः -
***
पश्चम प्रस्तावः
॥ १५५ ॥
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
।। १५६ ।।
क्रियाशून्यश्च यो भावो भावशून्याश्च याः क्रियाः । अनयोरन्तरं दृष्टं भानुखद्योतयोरिव ॥ १ ॥ मानुषत्वादिकं प्राप्य यः पुण्याय प्रमाद्यति । मन्दायते सुदुर्बुद्धिः सुधापान उपस्थिते ॥ ६६ ॥ चिन्तारत्नमिवासाद्य धर्मं सम्यक्त्व पूर्वकम् । प्रमादो नैव कर्तव्यस्तदाराधनकर्मणि ॥ १०० ॥ छद्मसद्माऽप्यथावादीद्बुद्धदासः प्रमोदभृत् । जजागार मदीयोऽद्य भाग्यसम्भारसागरः ॥ १०१ ॥ जिनेन्द्रशासनं लेभे भवकोट्यापि दुर्लभम् । यन्मया मोहमूढेन दुर्गतेनेव सन्निधिः ॥ १०२ ॥ प्राचीनगण्य सत्पुण्यविपाकोऽयं ममोदितः । यन्मैत्री भवता सार्धं प्राप्ता पुण्यवता सता ॥ १०३ ॥ rai पुनः स्थितु किश्चित्साजन्यमानयोः ' । शश्वद्गौरव सिद्धयर्थं समीहेऽहं हितावहम् ॥ १०४ ॥ तावेवं मुदितौ कृत्वा गुणश्लाघां परस्परम् । वन्दित्वा श्रावकत्वेन जग्मतुः स्वगृहाङ्गणम् ।। साधर्मिकेषु वात्सल्यमन्येद्युर्विदधन मुदा । ऋषभो बुद्धदासाख्यं श्रेष्ठिमुख्यं नास्तिकम् ॥ निमन्त्र्य भोजनाद्यर्थं प्रतिपत्तिपुरस्सरम् । उचितं भोजनस्थानं यावता तं न्यवीविशत् ॥ १०७ ॥ तावन्निजमहोत्साहभरादाहतगौरवम् । कुर्वन्तमृषभं बुद्धदासोऽभाषिष्ट दुष्टधीः ॥ १०८ ॥ भोजनं रोचते मह्यं तदैव युष्मदालये । स्वदङ्गजां तनूजो मे पाणौ कुर्याद्यदोत्सवैः ॥ १०६ ॥ निर्धर्मा निर्निमित्तं यः परान्नं प्रेतवत्पुमान् । धूर्तोऽश्नाति गृहे तस्य स दासत्वमवाप्नुयात् ॥ ११० ॥
१. सौजन्यं - साजान्यम् ।
१०५ ।।
१०६ ॥
******
पश्चम
प्रस्ताव:
॥१५६॥
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१५७॥
*******
**********
श्रुत्वेति ऋषभः साधुर्दध्यौ शुद्धान्त्रयद्वयः । बुद्धदासो मयाऽऽहूतो भुक्त्यर्थ गृहमागतः ॥ १११ ॥ धनी मान्योऽभिमानी च वदान्यो ज्ञातिवत्सलः । नवीनप्रतिपन्नार्हद्धर्ममार्गस्त्वयं तथा ॥ ११२ ॥ तदसौ जिनधर्मस्य मोक्ता मा स्यात्कदाचन । एतत्कार्यनिषेधं मे कुर्वतः सांप्रतं सतः ॥ ११३ ॥ साधर्मिकस्य सततं नवीनप्राप्तधर्मणः । स्थिरता क्रियते येन तच्चातुर्य प्रशस्यते ॥ ११४ ॥ समानधर्मशीलस्य गृहमाप्तस्य कर्हिचित् । निजसर्वस्वदानेन सुकृती भक्तिमावहेत् ॥ ११५ ॥ कन्येयं क्वापि दातव्या वयःप्राप्ता विशेषतः । सदाचारगृहप्राप्तिः परं तस्याः सुदुर्लभा ।। ११६ ॥ कुलशीलवयोविद्याधर्माढ्यो धनवान्नयी । वरो यत्प्राप्यते नार्या तदुग्रतपसां फलम् ॥ ११७ ॥ तदयं जायतां योगः स्वर्णमाणिक्ययोरिव । अनयोः सद्गुणैः साम्यं विभ्रतोर्जगतोऽद्भुतैः ॥ ११८ ॥ इत्यालोच्य कलत्रेण पवित्रेण सह क्षणम् । त्वत्पुत्राय मया पुत्री दातव्या ऋषभोऽभणत् ॥ ११६ ॥ सानन्दहृदया यूयं कुरुध्वं भोजनं पुनः । सर्वेषु गृहकृत्येषु यदेतत्प्रथमं फलम् ॥ १२० ॥ बुद्धास्तच भोजनं मुदिताननः । अकार्षीत् सोऽपि तद्भक्ति धर्ममाहात्म्यदर्शिनीम् ॥
१२१ ॥
निर्ममे श्रेष्ठमुख्याभ्यामन्योन्यं रक्तयोस्तयोः । क्रमेण विस्मयानन्ददायी पाणिग्रहोत्सवः ॥ १२२ ॥ ऋषभः सवधूकाय वराय प्रीतिहेतवे । ददौ यौतकदानानि निखिलानि गृहस्थितेः ॥ १२३ ॥ निवृत्तेऽथ क्षणश्रेणिहारिण्युद्वाहकर्मणि । श्रेष्ठी पद्मश्रियः शिक्षां ददावेवं विचारवान् ॥ १२४ ॥
********
**************
पश्चमः प्रस्तावः
॥ १५७॥
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्ताव:
॥१५८॥
भद्रे ! पतिगह नव्यसंप्राप्ताऽस्थिरधर्मकम् । मिथ्यात्विजनसंसर्ग किश्चित्कलुषतास्पदम् ॥ १२५ ॥ परं त्वया दृढीकार्य मनो धमें जिनोदिते । न प्रमादः स्वयं कार्यः षोढावश्यककर्मसु ॥ १२६ ॥ युग्मम् ।। यौवनं पतिसम्मानं प्रमत्तजनसङ्गतिः । प्राप्तिश्च सम्पदा जन्तुं मदयन्त्यविवेकिनम् ॥ १२७ ।। लजौचित्यविनीतत्वदाक्षिण्यप्रियभाषिताः। पतिगेहगतां योषां भूषयन्ति गुणा अमी ॥ १२८ ॥ यतःलज्जा दया दमो धैर्य पुरुषालापवर्जनम् । एकाकित्वपरित्यागो नारीणां शीलरक्षणे ॥१॥
निर्व्याजा दयितादौ भक्ता श्वश्रषु वत्सला स्वजने ।
स्निग्धा च धन्धुवर्गे विकसितवदना कुलवधूटी ॥२॥ प्राणेभ्योऽप्यधिक शीलं पालनीयं ततोऽनिशम् । विषमेऽपि जिनेन्द्रोक्तो धर्मो मोच्यस्त्वया न तु ॥ १२ ॥ एवं शिक्षा पितुःप्राप्य पद्मश्रीमुदितानना । मातृपितृपदाम्भोजे नत्वा पत्या सहाव्रजत् । १३०॥ पद्मश्रियं पुरस्कृत्य ततः श्रियमिवाङ्गिनीम् । बुद्धसङ्घो निजं धाम जगाम परमोत्सवम् ॥ १३१ ॥ कल्पवल्लीमिवालोक्य त्रिलोकानन्ददायिनीम् । वधू मुमुदिरे सर्वे स्वजनाः श्वशुरादयः॥ १३२ ॥ जिनेन्द्रधर्ममाराध्य कियतो दिवसांस्ततः । वधूवर्गस्य दाक्षिण्यात छद्मना निजसद्मनि ॥ १३३ ॥ मिथ्यात्वोदयतो बौद्धधर्म धर्मज्ञन्यत्कृतम् । अस्थापयबुद्धसङ्घः कुटिलः स्वकुटुम्बके ॥ १३४ ॥ युग्मम् ॥ बौद्धाचारपरान् दृष्टा गृहे लोकान् विवेकिनी । पद्मश्रीः पूज्यपादेषु पतित्वेति व्यजिज्ञपत् ॥ १३५ ॥
॥१५८॥
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१५६॥
**********:
सुरासुरगणाराध्यं मार्ग सर्वज्ञदर्शितम् । चिन्तारत्नमिवासाद्य दुष्प्रापं भवकोटिभिः ॥ १३६ ॥ विधूय गम्यते कस्मादमार्गे कुगुरूदिते । असद्दर्शनरागान्धैर्भवद्भिर्निपुणात्मभिः ॥ १३७ ॥
स माणिक्यं परित्यज्य काचमादातुमीहते । उन्मूल्य स्वस्तरु वप्तुं भूरुहं त्ववकेशिनम् ॥ १३८ ॥ हित्वा जिनेश्वरं धर्मं सत्यशीलदयामयम् । आदत्ते सौगतं मार्ग यो विवेकिजनोज्झितम् ॥ १३६ ॥ युग्मम् || आर्या विचार्य तत्सर्वं लोकोभयसुखावहे । धृतिं कुर्वन्तु सद्धमें मान से राजहंसवत् ॥ १४० ॥ धर्मानुशासनं तेषां दत्तं पद्मश्रियाऽभवत् । शमनीयौषधं यद्वद्दोषायाभिनवे ज्वरे ॥ १४१ ॥ प्रियाद्याः स्वजना लक्ष्मीर्भोगाश्च भववर्त्मनि । जीवेनानन्तशः प्राप्ता जैनधर्मो न तु क्वचित् ॥ १४२ ॥
एवं विमृश्य सा जैनधर्म एव दृढाऽभवत् । तद्भावं न भजत्येवं स्थितः काचेषु यन्मणिः || १४३ ॥ युग्मम् || आकर्ण्य ऋषभः श्रेष्ठी तद्गृहाचारमन्यदा । तत्रागत्य पुनर्दृष्ट्वा विचारमिति निर्ममे ॥ १४४ ॥ अहो ! मायाविनाऽनेन धर्मंछद्मवितन्वता । वञ्चितः सकुटुम्बोऽहं मुषितो हन्त ! कर्मणा || १४५ ॥ कायैकनिष्ठः पापात्मा मायां सर्वत्र शीलयेत् । न पुनर्नरकक्रोडे पतन्तं स्वं विलोकयेत् ॥ १४६ ॥ यतः— मायामविश्वासविलासमन्दिरं दुराशयो यः कुरुते धनाशया ।
सोऽनर्थसार्थं न पतन्तमीक्षते यथा बिडालो लकुटं पयः पिबन् ॥ १ ॥ अन्यत्रापि कृतो नूनं प्रपञ्चः पापहेतवे । धर्मेण वञ्चनान्येषां नरकायैव केवलम् ॥ १४७ ॥
******
***************:)
पञ्चमः प्रस्तावः
॥ १५६ ॥
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव
॥१६॥
आहूय बहुमानेन बुद्धदासं सपुत्रकम् । तत्कुटुम्बं पुरस्कृत्य शिक्षामेवं प्रदत्तवान् ॥ १४८ ॥ पृथ्व्यां पुण्यवता श्रेष्ठा गरिष्ठा न्यायशालिनाम् । विश्वविख्यातिभाजश्च धर्ममार्गधुरन्धराः ॥१४६ ॥ अहंदुक्तं समासाद्य धर्म शमैकसेवधिम् । भवन्तो यदि मोक्ष्यन्ति तदाऽन्येषां तु का गतिः ॥ १५ ॥ नीचा अपि न मुञ्चन्ति गृहीतं गुरुसाक्षिकम् । किं पुनस्तत्त्वनिष्णाताः सद्वतं सत्त्वशालिनः ॥ १५१॥ यतःप्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यं गुरुसाक्षिकृतं व्रतम् । व्रतभङ्गोऽतिदुःखाय प्राणा जन्मनि जन्मनि ॥१॥ प्रागङ्गीकृत्य सद्धम कुसङ्गन त्यजन्ति ये । लभन्ते ते महादुःखं भ्रमन्तो भवसागरे ॥ १५२ ॥ आदिष्टां श्रेष्ठिना धर्मशिक्षामेवं कुशिष्यवत् । विधृय बुद्धदासोऽगानिजं स्थानं दुरायतिः ॥ १५३॥ कृष्णपाक्षिकतां तस्य विचार्य श्रावकाग्रणीः । तनूजा कोमलैर्वाक्यः सन्तोष्य सदनं ययौ ॥ १५४ ॥ तन्वत्या आहेतं धर्म नित्यं पद्यश्रियस्ततः। मिथ्यादृशो वितेनुस्ते हठादप्यन्तरायकम् ॥ १५५ ॥ ते निन्दन्त्यवहीलन्ति हसन्ति च परस्परम् । तथाऽपि दृढधमत्वात्पनश्रीन प्रमाद्यति ॥ १५६ ॥ पद्मसङ्घोऽन्यदाऽऽगत्य गुरुः सौगतसूरिराट् । बहुशिष्यान्वितः पद्मश्रियः शिक्षा ददौ यथा ॥१५७ ॥ चिन्तामणियथा भद्रे ! मणिषु प्रथमः स्मृतः । तथा धर्मेषु सर्वेषु धर्मः सौगतसङ्गतः ॥ १५८ ॥ चमत्कारशतस्थानं लोकद्वयसुखावहः । धर्मो भगवताऽऽख्यायि सुगतेन हितैषिणा ॥ १५६ ।। तथा च
मृद्धी शय्या प्रातरुत्थाय पेया मध्ये भक्तं पान चापराहे ।
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६॥
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव:
॥१६॥
द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे मुक्तिश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टा ॥१॥ तदयं मुच्यतां धर्मो मुधा देहैकशोषकः । आश्रीयतां पुनर्मार्गस्तथागतगुरूदितः ॥ १६० ॥ पद्मश्रिया ततःप्रोचे स्वचेतसि विचार्यताम् । धर्मयोरन्तरं सम्यग जिनेन्द्रसुगतोक्तयोः ॥ १६१॥ दुग्धधातुपयोरत्नभूपपाषाणवेश्मनाम् । यथान्तरं समानेऽपि नाम्नि धर्मस्य तत्तथा ॥ १६२॥ क्षमा सत्यं तपः शौचं दया शीलं दमस्तथा । न्यक्षेण प्रेक्ष्यते यत्र स धर्मोऽन्वर्थतां भजेत् ॥ १६३॥ नाममात्रेण सर्वत्र धर्मोऽस्ति परशासने । वस्तुतो दृश्यते मार्गे श्रीजिनेन्द्रोदिते पुनः ।। १६४ ॥ प्रपन्नो जिनधर्मोऽयं मुनीनां सन्निधौ मया । सम्यग्दर्शनसंशुद्धः कथङ्कारं विमुच्यते ॥ १६५॥ निःसौभाग्यो भवेत्प्राणी धनधान्यविवर्जितः । निन्द्यमृतिः सदा दुःखी मुक्तधर्मोऽन्यजन्मनि ॥ १६६ ॥ श्रीजिनेन्द्रोदितो धर्मः पालनीयो मया ततः । स एव युज्यते कतु भवतामपि साम्प्रतम् ॥ १६७ ॥ इत्युक्तोऽसौ तया पद्मसङ्घो म्लानमुखाम्बुजः । वन्दितो बुद्धदासाद्यैर्मायावी स्वमठं ययौ ॥ १६८ ॥ यात्रा आसूत्र्य तीर्थेषु सम्मेतशिखरादिषु । सम्पदः पात्रसात्कृत्य यथायोगं निजार्जिताः ॥ १६६ ॥ शतशो जिनबिम्बानि सद्रत्नकनकाश्मनाम् । निर्माय विधिना तानि प्रतिष्ठाप्य च सोत्सवम् ॥ १७॥ स्वप्रान्तं समयं ज्ञात्वा ऋषमः श्रेष्ठिपुङ्गवः। विवेकी वेश्मनो भारमारोप्य तनुजन्मसु ॥ १७१॥ दयादानदमध्यानदेवगुर्वर्चनादिकैः। तदहः पुण्यकार्यों धैगृहीत्वा जन्मनः फलम् ॥ १७२ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६॥
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव:
॥१६२॥
पापस्थानानि सन्त्यज्य त्रिविधत्रिविधात्मना । क्षमित्वा सर्वजीवेषु मुक्ताशेषपरिग्रहः ॥ १७३॥ आराध्य निरतीचारं श्राद्धधर्म यथोदितम् । आनन्द इव सानन्दश्चतुःशरणमाश्रितः ॥ १७४ ॥ समाधिना वपुस्त्यागं कृत्वाऽऽहारपराङ्मुखः । वैमानिकः सुरो जज्ञे परधिंधु तिमन्दिरम् ॥ १७५ ॥ पडिभः कुलकम् ॥ तद्वियोगेन दुःखार्ता पद्मश्रीः श्राविका ततः। विशेषात्कुरुते पुण्यं सर्वातिहरणक्षमम् ॥ १७६ ॥ अन्येयुः समयं प्राप्य दृष्टि रागान्धमानसः । पद्मश्रियं समाहूय बुद्धदासोऽभ्यधादिति ।। १७७ ॥ भद्रे ! तब पिता जातो मृत्वोद्याने मृगार्भकः । जिनधर्मविमृढात्मा गुरवो मेऽवदन्निति ॥ १७८ ॥ साऽपि दध्यौ तदाकर्ण्य कर्णक्रकचसन्निभम् । येन पुण्यवताऽकारि धर्मः सर्वात्मनाऽनिशम् ॥ १७६ ॥ स कथं मत्पिता यायादशुभामीदृशीं गतिम् । प्राप्तचिन्तामणिः प्राणी किं दौगत्येन पीडयते ॥ १८० ॥ तदसौ भाषते मिथ्या मिथ्यादृष्टिगुरुब्रुवः। अज्ञातजिनतत्त्वोऽङ्गी किं न जल्पति पापवान् ॥ १८१॥ श्वशुरं सा ततः प्रोचे पूज्यो युष्मद्गुरूत्तमः। नैव सम्यग्विजानाति यदित्थं कथयत्यसौ ॥१२॥ अथ ज्ञानेन जानाति यदि गत्यादि देहिनाम् । तदा मयाऽपि कर्तव्यं व्रतं ताथागतोदितम् ॥ १८३ ॥ परं तं सपरीवारं भोजयित्वा गृहे निजे । अङ्गीकृत्योत्सवाद्धर्मस्तदुक्तः पालयिष्यते ॥ १८४॥ विधाय सर्वसामग्री भोजनार्थ वधूगृहे । बौद्धानाकारयामास श्रेष्ठी हृष्टमनास्ततः ॥ १८५॥ समग्रपरिवारेण पद्मसङ्घगुरुः पुनः। आगमद्भोजनाद्यर्थं यदेतद्विश्ववल्लभम् ॥ १८६॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६२॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १६३॥
*******
**************
ततः पद्मश्रिया दत्वा बहुमानं यथाक्रमम् | भोजयन्त्या स्फुरद्युक्त्या स्वादुभिर्विविधै रतैः ॥ १८७ ॥ तत्कवामपदत्राणमाजिनं मरिचादिभिः । संस्कृत्य भोजितः पेयारूपीकृत्य च तद्गुरुः ॥ १८८ ॥ युग्मम् ॥ अथ ते भोजनं कृत्वा यथेष्टं बहुगौरवात् । उत्थिताः पूजिता भक्त्या श्रेष्ठिना चन्दनादिभिः ॥ १८६ ॥ व्यग्रास्मि बहुभिः कायैरद्याहं सौगतेश्वर ! । प्रातर्धर्मं ग्रहीष्यामि भवदुक्तं महोत्सवैः ॥ १६० ॥ गन्तुकामास्तयाऽऽगत्य कृतव्याकुलया ततः । सम्प्रति व्रजतेत्युक्ताः प्रस्थितास्ते मठं प्रति ॥ १६१ ॥ अदृष्ट्रा ते पदत्राणं गुरोरेव परस्परम् । दृष्टं केनेति जल्पन्तश्चक्रुः कलकलं तदा ॥ १६२ ॥ मिमिलुः स्वजनास्तत्र वेगात्तद्दर्शनोत्सुकाः । पद्मसङ्घ' पुनः पद्मश्रीरुवाच कृताञ्जलिः ॥ १६३ ॥ ज्ञानेन येन भगवन् ! गदिता मत्पितुर्गतिः । तेनैवेदं विजानातु पादत्राणं स्वयं गुरुः ॥ १६४ ॥ एतत् श्रुत्वा गुरुः प्रोचे क्रोधाध्माततमाशयः । धर्मधूर्ते दुराचारे न चेदृग् ज्ञानमस्ति मे ।। १६५ ॥ ततः समक्षं सर्वेषामृषभश्रेष्ठिनन्दिनी । अवादीत्स्वोदरे न्यस्तं पादत्राणं स्वकीयकम् ॥ १६६ ॥ अजानानः कथं वेत्सि मत्पितुर्गतिमीदृशीम् । कथं हि चषकाविज्ञो नन्दीं कर्तुं समीहसे ॥ १६७ ॥ युग्मम् || यदि न प्रत्ययस्ते स्यात्तदा वम मदन्नकम् । तेनापि च तदा चक्रे क्र रक्रोधान्धचेतसा ॥ १६८ ॥ सूक्ष्माणि चर्मखण्डानि दृष्ट्वा तत्र जनोऽखिलः । अहो ! ज्ञानं गुरोरस्य हास्यस्मेरमुखोऽवदत् ॥ ततस्तं लञ्जितस्वान्तं शान्तयित्वा कथञ्चन । स्वस्थाने प्रेषयामास बुद्धदासः सशिष्यकम् ॥ २०० ॥
१६६ ॥
*****
**************
पश्चमः
प्रस्तावः
॥ १६३॥
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व -
॥१६४॥
******
*******
पद्मसङ्घोऽन्यदाऽऽहूय श्रेष्ठिनं कोपपूरितः । जजन्य त्वद्वधूनूनं शाकिनी भाति मां प्रति ॥ २०१ ॥ निष्काशय गृहादेनां ततः पापपरायणाम् । अन्यथा ते कुलध्वंसो भविष्यत्यचिरादपि ॥ २०२ ॥ सोsपि श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं श्रद्धामुग्धो विमूढधीः । तद्दोषश्रावणं कृत्वा तां गृहान्निरकाशयत् ॥ २०३ ॥ वार्यमाणोऽपि तद्दोषात् वदद्भिर्जनकादिभिः । बुद्धसङ्घोऽपि मोहेन निर्जगाम तया सह ॥ २०४ ॥ पद्मश्रीस्तमुवाचैवं नाथ ! वेश्मनि मत्पितुः । गम्यते साम्प्रतं सर्वं समृद्धिभरपूरिते ॥ २०५ ।। अवोचत् सोऽपि सोत्साहं युक्तं नोक्तमिदं प्रिये ! । मानिनां शोभते नैव निवासः श्वशुरालये ॥ २०६ ॥ महिमा हीयते पुंसां वसतां वल्लभालये । लक्ष्मीवतामपि प्रायः किं पुनर्विगतश्रियाम् ॥ २०७ ॥ यतः - वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालये पत्रफलानि भोजनम् । तृणेषु शय्या वरजीर्णवल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवितम् ॥ १ ॥
इति प्राणप्रियां युक्त्या सम्बोध्याधिकभाग्यवान् । लक्ष्मीमिव पुरस्कृत्य तां वव्राज पुराद्वहिः ॥ २०८ ॥ किञ्चिच्चिन्तातुरस्वान्तौ पश्यन्तौ ककुभां मुखम् । पुरोपान्ततरुच्छायामनु तौ तस्थतुः क्षणम् ॥ २०६ ॥ जिनेन्द्राः शरणं स्वामिन्नावयोर्गलितार्तयः । मुक्तिसीमन्तिनीसक्ता मुक्ता रक्तोत्पलद्युतः ॥ २१० ॥ साधवः शरणं सर्वे सर्वज्ञमतभानवः । सर्वविद्भाषितो धर्मः शर्मैकप्रतिभूस्तथा ।। २११ ॥ युग्मम् ॥ पद्मश्रीनिंगदत्येवं यावत्पत्युः पुरः स्थिता । तावत्तत्र पवित्राङ्गः सार्थवाहो धनावहः ॥ २१२ ॥
1
*************************
पश्चमः
प्रस्तावः
॥१६४॥
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्ताव:
॥१६॥
RRXXX*********XXXXXXXXX
आगतो दयितां तस्य दृष्टा तां विष्टपाद्भुताम् । मनोभूशासनाविष्टः सरागः समभूत्क्षणात् ॥ २१३ ॥ युग्मम् ॥ तत्स्वरूपं परिज्ञाय कुतश्विदध्वगाग्रणीः । गृहीतुकामः कामान्धस्तां सौभाग्यसुधाप्रपाम् ॥ २१४॥ विधाय कृत्रिमामेतत्प्रतिपत्तिं प्रपञ्चधान् । सकलत्रं समानिन्ये बुद्धसङ्घ निजे पदे ॥ २१५ ॥ सायं स भोजयामास विषान्नं तं धनावहः । अकृत्यान्यपि कुर्वन्ति कामान्धाः प्राणिनो यतः ॥ २१६ ॥ मृर्जामतुच्छामासाद्य तत्क्षणाद्विषवेगतः। पपात भूम्यां स श्रेष्ठी मूलच्छिन्न इव द्रुमः ॥ २१७ ॥ अवस्था तादृशीं वीक्ष्य सा पत्युमृत्युतिकाम् । अस्तोकशोकसंतप्ता रुरोद करुणध्वनि ॥ २१८ ॥ रुदन्ती मृदुभिर्वाक्यैः स वदंस्तां न्यवारयत् । कमणो हि पराधीनं भद्रे! सर्व जगत्रये ।। २१६ ॥ शोकं मा कुरु कल्याणि! संसारस्थितिरीदृशी । अकाण्डे खण्यडत्येव प्रत्यर्थीव विधिः सुखम् ॥ २२० ॥ समग्रं पूरयिष्यामि सुखं तेऽतः परं परम् । अहं कल्पद्रवन्नित्यं वशवर्ती धनावहः ॥ २२१ ॥ ईदृशं चेष्टितं ज्ञात्वा सार्थवाहस्य सा सती । स्वशीलरत्नरक्षार्थ विशेषाद्विदधे शुचम् ॥ २२२ ॥ सोऽपि तां सान्त्वयामास वचोभिः स्नेहशीतलैः । दासोऽहं सेवको वाऽस्मि वदन्नेवं मु साऽपि न्यक्कृत्य तद्वाक्यं सम्यग्धर्मदृढाशया । रजनी गमयामास दुष्पदामिव दुःखदाम् ॥ २२४ ॥ उदयाचलचूलायामारुरोह रविजेवात् । पद्मश्रीशीलसौभाग्यदर्शनोत्सुकमानसः ॥ २२५ ॥ तत्स्वरूपं ततः श्रुत्वा बुद्धदासो जनोक्तिभिः। तत्रागतः सुतं दृष्टा तादृशं तं विषण्णवान् ॥ २२६ ।।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
नाम
.॥
१३॥
| ॥१६॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्ताव:
॥१६६॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
सशोकः कोपवान् प्रोचे तत्त्वातत्त्वबहिष्कृतः । हे शाकिनि ! त्वया सुनूारितोऽस्ति पलेच्छया ॥ २२७॥ एतं जीवय पापिष्ठे। पुत्रं पुण्यवतां वरम् । नो चेदहं हनिष्यामि त्वामपि क्षमापपूरुषैः ॥ २२८ ।। एतत्कोलाहलं श्रुत्वा सर्वोऽपि नगरीजनः । समाययौ पदे तत्र तस्या धिक्कारकारकः ॥ २२६ ।। स्वरूपं तादृशं ज्ञात्वा पद्मश्रीरित्यचिन्तयत् । दुष्कर्माण्युदयं प्रापुः प्राक्तनानि ममाधुना ॥ २३०॥ परं यस्माद्भवेज्जन्तोर्मालिन्यं जिनशासने । दुर्लभं बोधिरत्नं स्यात्तस्यागामिनि जन्मनि ॥ २३१ ॥ तदहं जीवयाम्याशु पतिं धर्मानुभावतः । मन्त्रादिभ्योऽतिशेते यत् सम्यग्धर्मस्य वैभवम् ॥ २३२ ॥ समक्षं न्यक्षलोकानामाचख्यौ सा क्षमावती । यद्यस्ति मे जगत्पूज्ये सम्यक्त्वे सुदृढं मनः ॥ २३३॥ जैनेन्द्रशासनं सत्यं सर्वतीर्थातिशायकम् । तदा तस्यानुभावेन शीघ्र' जीवतु मे पतिः॥ २३४ ॥ युग्मम् ।। पस्पर्श पाणिपद्मन साऽथ यावन्निजं पतिम् । तावज्जयजयारावैः सममुत्थितवानसौ ॥ २३५।। पश्चाचर्य सुरैश्चक्रे पुष्पवृष्टयादिकं पुनः । तस्याः सम्यक्त्वसौन्दर्यसुरभीभूतमानसः ।। २३३ ॥ तदाश्चर्यरसाकृष्टस्तत्रागत्य नराधिपः । पद्मश्रियः पदाम्भोजं ननाम नरवाहनः ॥ २३७ ॥ आर्षभाः सूनवः साधं जहषुः स्वजनादिभिः । परामुन्नतिमायातं श्रीजिनेश्वरशासनम् ॥ २३ ॥
सम्यग्दृशस्त्रिदशभूपमहेभ्यमन्त्रिविद्याधरा विविधलब्धिभृतो मुनीन्द्राः। सौभाग्यशीलगुरुभक्तिजुषः स्त्रियश्च श्रीजैनशासनमिहोन्नतिमानयन्ति ॥ २३६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६६॥
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव:
॥१६७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX:*
स्तुवन्तो धर्ममाहात्म्यं बुद्धदासादयः पुनः। सवधक सुतं वेश्मन्यानिन्युः समहोत्सवम् ॥ २४०।। तस्मिन्नवसरे तत्र यशोधरमहामुनेः । उत्पेदे केवलज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् ।। २४१॥ सम्यग्दृष्टिसुरश्रेणिरासन्नानन्दमेदुरा । तं मुनीन्द्रं नमस्कृत्य तदुत्सवमचीकरत् ।। २४२ ॥ वन्दितुं तं समाजग्मुभूपतिनरवाहनः बुद्धदासादयः पौरजनाः पद्मश्रियाऽन्विताः ।। २४३ ।। निविष्टोऽथाम्बुजे हेमे केवलज्ञानवान् मुनिः । दिदेश तेषां सद्धर्ममार्ग विश्वहितावहः ॥ २४४ ॥ दुष्प्राप्यं प्राप्य मानुष्यं रत्नद्वीपमिवाज्बुधौ । धर्मचिन्तामणिमा॑यः सुविशुद्धः सुखार्थिना ॥ २४५॥ प्रमादात्तं तिरस्कृत्य यः पुमर्थेषु धावति । आत्मानं शोचते पश्चान्स प्राप्तो दुःखसन्ततिम् ॥ २४६ ॥ स्वं स्वं धर्म प्रशंसन्ति प्रायो दर्शनिनोऽखिलाः । परं परीक्षया शुद्धो ग्राह्योऽसौ तु विवेकिना ॥ २४७ ॥ उक्तं च
__ यथा चतुर्भिः कनक परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः ।
.. तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रतेन शीलेन तपोदयागुणैः ॥१॥ असौ दशविधो धर्मो मिथ्यादृष्टेरगोचरः । वस्तुतः शासने जैने नाम्नाऽन्यत्र मते पुनः॥ २४८ ॥ सर्वेषां वाचि तत्त्वार्थः कस्यचिद् हृदयेऽपि च । क्रिययाऽपि स्फुरत्येव सदा जिनमतस्पृशाम् ॥ २४६॥ वेदस्मृतिपुराणादिनिविष्टमतयो द्विजाः। न गन्धमपि जानन्ति धर्ममार्गस्य तत्त्वतः ॥ २५० ।। मद्यमांसाशिनो भक्ष्याभक्ष्यादिष्वविवेकिनः । ताथागतादयो नैव विविदुधर्मसारताम् ।। २५१ ।।
॥१६७॥
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१६८॥
*******
**********
वेश्मपुत्रकलत्रादिपरिग्रहरतात्मनाम् । धर्मलेशोऽपि नैवास्ति गुरुत्वं भजतामपि ॥ २५२ ॥ अजमेधादियज्ञेषु पण्डिता वेदपाठिनः । निघ्नन्तो याज्ञिका जन्तून् सदा धर्मपराङ्मुखाः ।। २५३ ॥ रागद्वेषविमुक्तानां सम्यक्त्वावभासिनाम् । अहंतां शासने भव्या धर्मस्वाख्यातता ततः ॥ २५४ ॥ I एतद्धर्मैकचित्तस्य साहाय्यं देवता अपि । इहापि तन्यते प्रीतस्वान्ताः पद्मश्रियो यथा ।। २५५ ।। धन्यैषा ऋषभश्रेष्ठिनन्दिनी विश्वनन्दिनी । दुःखेऽपि न परित्यक्तो धर्म चिन्तामणिर्यथा ॥ २५६ ॥ यतःकिं चित्रं यदि वेदशास्त्रनिपुणो विप्रो भवेत्पण्डितः
किं चित्रं यदि नीतिमार्गनिरतो राजा भवेद्धार्मिकः । तचित्रं यदि रूपयौवनवती साध्वी भवेत्कामिनी
तच्चित्रं यदि दुःखितोऽपि पुरुषः पापं न कुर्यात्कचित् ॥ १ ॥
ततोsवसरमासाद्य पद्मश्रीरवदद्गुरुम् । मत्पिता पुण्यवान् मृत्वा कां गतिं गतवान् विभो ! ॥ २५७ ॥ समभूद्गुरुर्भद्रे ! सहस्रारे सुधाशनः । भवान्तरे शिवङ्गामी केलीत्यभणत्तदा ।। २५८ ॥ याशी येन सद्वीजरा शिरुर्व्या निधीयते । निश्चितं तादृशी तेन फलश्रेणिरवाप्यते ॥ २५६ ॥ एवं शुभरतः प्राणी शुभामेव गतिं भजेत् । विपरीतमतिनूनं दुर्गतिं लभते पराम् ।। २६० ॥ मद्यमांसाशिनो हिंसामृषाद्याश्रवतत्पराः । मिथ्योपदेशनिष्णाता दुर्गतिं यान्ति देहिनः ॥ २६१ ॥
*****
*************:*
पञ्चमः प्रस्तावः
॥ १६८ ॥
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्ताव:
॥१६॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXX*******
शमशीलदयावन्तो जिताक्षा निष्परिग्रहाः । सम्यग्ज्ञानक्रियोयुक्ताः लभन्ते त्रिदशालयम् ॥ २६२ ॥ उन्मार्गदेशिनो मायारम्भार्तध्यानतत्पराः । अप्रत्याख्यानिनो मूढाः स्युस्तियेग्गतयोऽगिनः॥२६३॥ सन्मादेवाजेवोपेता अल्पारम्भपरिग्रहाः । देवपूजादयादानयुता यान्ति नृणां गतिम् ॥ २६४ ॥ निष्कषायाः शुक्ललेश्याः सर्वसङ्गपराङ्मुखाः। शुक्लध्यानजुषो जीवा लभन्ते मोक्षमक्षयम् ॥ २६५॥ ततः संवेगवान् राजा तनयं नयविक्रमम् । समहं स्वपदे न्यस्य संयमं समशिश्रियत् ॥२६६ ॥ राज्ञी पद्मावती श्रेष्ठिपत्नी पद्मावती तथा । पद्मश्रीप्रमुखा नायः प्रत्यपद्यन्त संयमम् ॥ २६७ ॥ बुद्धदासादयो जजुः श्रावकाः सुदृढाशयाः। जीवाजीवादितत्वज्ञा जिनधर्मप्रभावकाः॥२६८॥ पद्मसङ्घादयः प्रापुः सौगता विगतोदयाः । लोकेऽपभ्राजनां को हि मृषावाग न लघूभवेत् ॥ २६६ एतदध्यक्षतो वीक्ष्य मयाऽपि गुरुसन्निधौ । पञ्चातिचारसंशुद्धं सम्यक्त्वं नाथ ! संश्रितम् ॥ २७० ॥ इति पद्मलतावाक्यं श्रुत्वा सम्यक्त्ववासितम् । प्रिये ! सत्यमिदं सर्वमहद्दासाभिधोऽभ्यधात् ॥ २७१॥ गदन्ति स्म प्रियास्तस्य सप्तापि मुदिताशयाः । स्वामिन् ! श्रद्दध्महे सर्वमिदं सत्यतया वयम् ॥ २७२ ॥ श्रीमज्जिनेन्द्रधर्मस्य यतः चिन्तामणेरिव । अचिन्त्यो महिमा लोके मनोभीष्टैकसेवधेः ॥ २७३ ।। मिथ्यात्वतिमिरग्रस्तस्वान्ता कुन्दलताऽवदत् । कपोलकल्पनापूर्व जगी पद्मलता पुनः ॥ २७४ ॥ दध्युस्तदा धराधीशप्रमुखा हृदये निजे । अहो। मिथ्यात्वमूढत्वमस्त्यस्याः कीदृशं स्त्रियः॥ २७५ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६॥
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्तावः
॥१७॥
धर्म स एव गदितं जिननायकेन प्राणी शृणोति मनुते कुरुते च नित्यम् । प्रापत् क्षयं दुरितराशिरनन्तरूपो यस्योदयस्तु भविता भुवनातिशायी ॥ २७६ ।। सम्यक्त्वनैमल्यमहानुभावसंपद्विलासस्थितिराजमानम् । . पद्मश्रियो वृत्तमिदं निशम्य सद्दर्शनकस्थिरता श्रयध्वम् ।। २७७ ॥
॥ इति सम्यक्त्वकौमुद्यां षष्ठी कथा॥ अथामाषिष्ट स श्रेष्ठी प्रियां स्वर्णलतामिति। सम्यग्दर्शनदृष्टान्त भद्रे ! त्वमपि मे वद ॥ २७८ ॥ पत्युरादेशमासाद्य साऽप्युवाच सुधामुचा । वाचा सम्यक्त्ववृत्तान्तं स्वानुभृतचरं तदा ॥ २७६ ॥ अस्त्यवन्ती महादेशालङ्कृतिः कृतिमण्डिता। विशालसंपदा पात्रं विशाला विश्रुता पुरी ॥ २८०॥ सुरेन्द्रसुन्दरस्तत्र नृपोऽभूत्सुरसुन्दरः। शत्रवः पञ्चतां प्रापुर्येम द्वैधीकृता अहो ! ॥ २८१ ॥ जज्ञे यशस्विनी तस्य धर्मकार्यमनस्विनी। राज्ञी मदनवेगाख्या सुरङ्गानङ्गदीपिका ॥२८२॥ राज्यमारधुराधारः सचिवो बुद्धिसागरः । सागरः सर्वबुद्धीनामुज्जागरगुणोऽजनि ॥ २८३ ॥ तस्यां समुद्रतां विभ्रत्पाणिना संपदाऽपि च । श्रेष्ठी समुद्रनामाऽमृदुन्निद्रः पुण्यकर्मणि ॥ २८४ ॥ गृहिणी गृहरीतिज्ञा धर्मज्ञा च विशेषतः। समुद्रश्रीरभूत्तस्य शीललीलातिशायिनी ॥ २८५ ।। तयोरद्भुतसौभाग्या जिनदत्ता सुताजनि । उमयाह्नः पुनः सूनुरनूनमहसां निधिः॥ २८६ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१७॥
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
1120211
(*******
*****
कौशाम्बीनगरस्थेन जिनदेवेन सा सुता । धर्मज्ञेन कुलीनेन श्रेष्ठिना परिणायिता ॥ २८७ ॥ उमयो यौवने जज्ञे कुमङ्गाद्व्यसनप्रियः । असत्सङ्गो भवेत्पुंसां प्रायोऽनर्थप्रसूतये ॥ २८८ ॥ यतःआस्तां सचेतसः सङ्गात्सदसत्स्यात्तरोरपि । अशोकः शोकनाशाय कलये तु कलिद्रुमः ॥ १ ॥ युक्त्या निवार्यमाणोऽपि दुष्कृत्याज्जनकादिभिः । असौ निवर्तते नैत्र दुस्त्यजं व्यसनं यतः ॥ २८६ ॥ अयं विशेषतः पापप्रेरितः क्रूरकर्मणा । विननोति पुरे चौरव्यापारं द्यूततत्परः ॥ २६० ॥ परनारीपरद्रव्यपरमांसाशनोत्सुकः । प्राणी कृत्यमकृत्यं वा नैव जानाति कर्हिचित् ॥ २६१ ॥ यमदण्डः पुरारतो निरीक्ष्य श्रेष्ठिनोऽङ्गजम्। परमोषिकला केलीं कुर्वाणं नगरेऽखिले ॥ २६२ ॥ श्रेष्ठिनः प्रतिपन्नेन धृत्वा धृत्वा पदे पदे । हितोपदेशपीयूषं पाययित्वा व्यमुश्चयत् ॥ २६३ ॥ युग्मम् ॥ तथाऽप्यतिष्ठतस्तस्य दस्युव्यापृतितोऽन्यदा । ददौ शिक्षां तलारक्षः प्रश्रयेण रहः स्थितः ॥ २६४ ॥ पितरौ तव विख्यातावुत्तमत्वेन सर्वतः । न्यायाध्वनि धुरीणौ च धर्मभाजां निदर्शनम् ॥ २६५ ॥ जगदानन्दसौभाग्या भो भद्र ! भगिनी तव । सर्वज्ञशासनाम्भोजप्रकाशनरविप्रभा ॥ २६६ ॥ तयोरपि भवान् जातो भ्रातरुच्चैस्तमान्वयः । क्र रकर्मपरचौरः पापपूरोऽभवत्कथम् ॥ २६७ ॥ बधबन्धादयो दोषाचौर्यद्रुमभवं फलम् । इहैव परलोके स्याद्दुर्गतिस्तु दरिद्रता ॥ २६८ ॥ तस्माच्चर्यं परित्यज्य न्यायधर्मो हितौ भज । जनकस्येव यत्तेऽपि प्रतिष्ठा स्याद्गरीयसी ॥ २६६ ॥
*************************
पश्चमः प्रस्तावः
॥ १७१ ॥
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव:
॥१७२॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
निवारितोऽपि तेनासौ हितानुशास्तिपूर्वकम् । न तिष्ठति यदा धृत्वा तदा राज्ञः समपितः ॥ ३० ॥ नृपोऽपि तस्य वृत्तान्तं ज्ञात्वाऽवोचद्विचारवान् । हहो! चौर ! दुराचार ! कस्यासि त्वं तनूद्भवः ॥ ३०१॥ सोऽवादीद्दव ! पुत्रोऽस्मि समुद्रवेष्ठिसंभवः । ततः समुद्रमाहूय भूपतिः प्रोचिवानिति ॥ ३०२ ॥ श्रष्ठिन् ! सूनुस्तवैवायं यदि वा धर्मपुत्रकः । विनयावनतः श्रेष्ठी पुनराचष्ट भूभुजम् ॥ ३०२॥ स्वामिन् ! ममाङ्गजोऽप्येष कुसङ्गात्स्तेनतां गतः । तथा कुरु प्रसद्य त्वं यथाऽयं मार्गमाश्रयेत् ॥ ३०४॥ ततो दध्यौ धराधीशः कृतज्ञ कृतिवत्सलः । मान्यः श्रेष्ठी ममाप्येष सदाचारतया सदा ।। ३०५॥ अवध्योऽयं सुतस्तस्य कुकर्मनिरतोऽपि हि । अदण्डितः पुनश्चौर्य करिष्यत्येष मत्पुरे ॥ ३०६ ॥ यतःराजदण्डभयात्पापं नाचरत्यधमो जनः । परलोकभयान्मध्यः स्वभावादेव चोत्तमः॥१॥ इति यात्वा धराधीशो धरायां धर्मरक्षकः। तदा सर्वस्वमादाय तं देशान्निरकाशयत् ॥ ३०७॥ स्थानभ्रष्टोऽसहायोऽसौ धनहीनस्ततो भ्रमन् । देशाद्देशान्तरं प्राप्तः कौशाम्ब्यां भगिनीगृहम् ॥ ३०८॥ सा दृष्टा भ्रातरं मार्गभ्रान्तिश्रान्तं गतद्यतिम् । सानन्दा स्वागतं चक्र भोजनाच्छादनादिभिः ॥ ३०॥ साप्राक्षीज्जनकादीनां कुशलाकुशलं ततः । कथं तवेदृशी जाता दशा वत्सेत्युवाच च ॥ ३१०॥ कल्पयित्वोत्तरं किञ्चित्स्वागमं प्रति सोऽवदत । प्रायः सत्यं न जन्पन्ति चौरा द्यतपराः स्त्रियः॥३११ ॥ परं परम्पराजाता भ्रातृवार्ता तया पुरा । तादृशी विदितैवास्ति यद्वार्ता विश्वगामिनी ॥ ३१२॥ यतः
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१७२॥
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१७३॥
********
*********
वार्ता च कौतुकवती विशदा च विद्या लोकोत्तरः परिमलश्च कुरङ्गनाभेः ।
तैलस्य बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवारमेतत्त्रयं प्रसरतीह किमन्त्र चित्रम् ॥ १ ॥ अपमानास्पदं नीतो मयाऽप्येष पुरेऽधुना । कदाचिन्न्याय मार्गस्थो भवेदुःखभरार्दितः ॥ ३१३॥ इति ध्यात्वा तया गेहादपमानेन भूयसा । भ्राता निष्कासितः सर्वो धत्ते हि गुणगौरवम् ॥ ३१४ ॥ सोऽपि लक्ष्मीसहायाभ्यां मुक्तो वैदेशिकाग्रणीः । निर्गतो भगिनीगेहाद्विममर्शेति दुःखितः ॥ ३१५ ॥ जनन्या जनकेनोवनाथेनापि तिरस्कृतः । ध्यात्वेति भगिनी मेऽत्र पुरेऽस्ति समुपागमम् ॥ ३१६ ॥ तयाऽपि निर्धनत्वेन वेश्मनोऽहं बहिष्कृतः । मन्दभाग्यस्य सर्वत्र पुंसः स्यादापदां ततिः ॥ ३१७ ॥ यतःवाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके वाञ्छन् देशमनातपं विधिवशा द्विल्वस्य मूलं गतः । तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः
प्रायो यत्र प्रयाति दैवहतको गच्छन्ति तत्रापदः ॥ १ ॥
श्रीमताऽपि न गन्तव्यं किं पुनर्विगतश्रिया । निर्निमित्तं परावासे लघुत्वैकनिबन्धनम् ॥ ३१८ ॥ यतः - उडुगणपरिवारो नायकोऽप्यौषधीनाममृतमयशरीरः कान्तियुक्तोऽपि चन्द्रः । भवति विकलमूर्तिर्मण्डलं प्राप्य भानोः परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति ? ॥ १ ॥
**************************
पञ्चमः प्रस्तावः
॥ १७३ ॥
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
पश्चमः
सम्यक्त्व
कौमुदी
प्रस्ताव:
॥१७४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
निराधारतया दुःखी विंगमात्पापकर्मणः । ततः संवेगमापनः श्रीजिनागारमाप सः ॥ ३१६ ॥ नत्वा भक्त्या जगन्नाथप्रतिमा रत्ननिर्मिताम । पश्यंश्चैत्यातिशायित्वं स प्रापत्सुखमान्तरम् ॥ ३२०॥ ददर्श दर्शितानन्दं श्रुतसारं मुनीश्वरम् । अनश्वरतपोज्ञानं स तस्मिन् विश्ववत्सलम् ॥ ३२१ ॥ नमस्कृत्य क्रियावन्तं तं गुरु गुरुभक्तितः। यथोचितमहीदेशे विनयी स उपाविशत् ॥ ३२२॥ आदिदेश गुरुधर्म तस्य धर्मविदग्रणीः । निष्कारणोपकारित्वं भजन्ते साधवो यतः ॥ ३२३ ॥ धर्मः शर्मद्रुमारामो धर्मः कल्याणसेवधिः। धर्मः प्रत्यूहविध्वंसी धर्मस्त्रैलोक्यबान्धवः ॥ ३२४ ॥ यथा दिनं विना भानु शर्वरी शशिनं विना । तथा न शोभते प्राणी विना धर्मेण कुत्रचित् ।। ३२५ ॥
आरोग्यमैश्चर्यमखण्डसौख्यं सौभाग्यमत्यद्भुतरूपरम्यम् ।।
श्रियः समग्रा जगदयंता च धर्मानुभावेन भवन्ति पुंसाम् ॥ ३२६ ॥ स सर्वदेशभेदाभ्यां जगदे द्विविधो जिनः । साधुश्रावकयोर्योग्यः सम्यग्दर्शनपूर्वकः ॥ ३२७ ॥ सर्वजीवदयोपेता विजिताक्षा निराश्रयाः । परिग्रहविनिमुक्ता मुक्तिदाः स्युर्महर्षयः ॥ ३२८ ॥ यतःसम्मइंसणजुत्ता तवनियमरया विसुद्धदढभावा। देहेवि निरवयक्खा समणा पावैति सिद्धिगई॥१॥ सदृष्टयः सदाचारा द्वादशवततायिनः । भवन्ति गृहिणस्तत्र सप्तक्षेत्रधनव्ययाः ॥ ३२६ ॥ मद्यं मांसं नवनीतं नानाजीववधावहम् । बहुबीजानन्तकायान् मधूदुम्बरपञ्चकम् ॥ ३३०॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१७४॥
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पञ्चमः प्रस्ताव:
॥१७॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXX
रजनीभोजनं घोरश्वभ्रपातुकपातकम् । द्विदलेन समं तक्रमभक्ष्यान्यखिलान्यपि ॥ ३३१॥ दधि घस्रद्वयातीतं सर्वान्नं विकृतिं गतम् । निःशेषमज्ञातफलं वर्जयेदार्हताग्रणीः ॥ ३३२ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ त्रिः श्रीसर्वज्ञपूजायां द्विरावश्यककर्मसु । यतमानो गृही सम्यग् याति वैमानिकालये ॥ ३३३ ॥ ततो जन्म जनानन्दि लब्ध्वा भूपकुलादिषु । रत्नत्रयं समाराध्य स सिद्धिसुखमश्नुते ॥ ३३४ ॥ यतःजेवि य गिहधम्मरया पूयादाणाइसीलसंपन्ना । संकाइदोसरहिआ होहिंति सुरा महिड्डीया ॥१॥ श्रुत्वैवं श्रेष्ठिनः सूनुः प्रसूनोज्ज्वलमानसः । चारित्रमोहनीयस्य क्षयोपशमयोगतः ॥ ३३५ ॥ सुश्राद्धधर्म जग्राह सम्यग्दर्शनपूर्वकम् । द्वादशवततंयुक्तं नैकाभिग्रहदुष्करम् ॥ ३३६ ॥ गुरुः कारुण्यवानेवं तस्मै शिक्षां तदा ददौ । भद्र ! भद्रशतश्रेणिप्रतिभूर्भाग्ययोगतः ॥ ३३७ ॥ भयो भावमले क्षीणे पथ्ये रुचिरिवामये । अलम्भि भवता धर्मः कल्दद्ररिव साम्प्रतम् ॥ ३३८ ॥ युग्मम् ॥ अयं नवनवैः पुण्यकार्यैराय ! जिनोदितैः । त्वया वृद्धिं परां नेयः सर्वाभीष्टफलप्रदः ॥ ३३६ ॥ तथेति प्रतिपद्यासौ वन्दित्वा स मुनीन् गुरून् । धर्मेण तन्मयीभावं बिभ्रत् शुभ्रमुखद्युतिः॥ ३४० ॥ पुनः प्रादर्भवत्स्नेहः स्वसुर्मन्दिरमासदत् । धर्मवन्धुतया तस्य वात्सल्यं विदधे तया ॥ ३४१ ॥ युग्मम् ।। तद्धर्मप्राप्तिमाकये समुद्रश्रेष्ठिनन्दिनी । हृष्टाऽकरोन्महश्रेणि पुरलोकाभिनन्दिनीम् ।। ३४२ ॥ पल्योपक्रमतस्तस्य व्यवहारं वितन्वतः । पुण्यानुभावतस्तस्य लाभः प्रववृधेऽधिकम् ।। ३४३ ।।
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXE
॥१७॥
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व-IX कौमुदी
पश्चमः प्रस्तावः
॥१७६॥
KKEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ततः सर्वापदो नेशुः प्रापुर्वद्धिं च संपदः । सर्वत्र नगरे तत्र तस्याय॑त्वमजायत ॥ ३४४ ॥ यतःपातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः । प्रायेण हि सुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः ॥ १॥ अन्येचुरुमयो दध्यौ धर्म माञ्जिष्ठरागवत् । भजन्नुत्तुङ्गसंवेगरङ्गोऽन्तर्मनसं मुदा ॥ ३४५ ॥
मानुष्यमार्यविषयः सुकुलप्रसूतिः श्रद्धालुता गुरुवचःश्रवणं विवेकः ।
मोहान्धिते जगति सम्प्रति सिद्धिसौधसोपानपद्धतिरियं सुकृतोपलभ्या॥३४६ ॥ एतावन्तं मया कालं निर्विवेकमनस्तया । दुरन्तैर्व्यसनैरेव स्वात्मा नित्यं कदर्थितः ॥ ३४७ ॥ तरीत्वा व्यसनाम्भोधि प्रौढपुण्योदयात्पुनः। श्रावकत्वं मया प्राप्तं दुष्प्रापं भवकोटिभिः॥ ३४८॥ अतो भावास्तिकत्वेन मया भाव्यं मतेऽहंतः। भावशून्या क्रिया यस्मादवकेशितरूपमा ॥३४६॥ भावास्तिकलक्षणम्
श्रद्धालुतां श्राति जिनेन्द्रशासने क्षेत्रेषु वित्तानि वपत्यनारतम् ।
करोति पुण्यानि सुसाधुसेवनादतोऽपि तं श्रावकमाहुरुत्तमम् ॥ ३५॥ सम्मत्तधरो विहिणा कयवयकंमो गुरूण पयमूले । इह मुणिवरेहि समए सुसावओ देसिओ भावे ।। ३५१ ॥ एवं सद्भावनां कृत्वा भद्रकात्मा समुद्रसूः । जिनेन्द्रशासनौन्नत्यं कतु कामो विनिममे ॥ ३५२ ।। साधर्मिकेषु वात्सल्यं सुसाधुषु तथानाम् । पूजास्नात्रोत्सवश्रेणिं श्रीजिनेन्द्रगृहादिषु ॥ ३५३ ॥ युग्मम् ॥ अन्यदाऽसौ समादाय क्रयाणकपरम्पराम् । सत्कृत्य भगिनी भक्त्या कृत्वा चाहेषु सक्रियाम् ॥ ३५४ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१७६॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्ताव:
॥१७७॥
मिलनोत्कण्ठयाकण्ठमाक्रान्तो जनकादिषु । वव्राज सह सार्थेन जनैः कतिपयैर्वृतः ॥ ३५५ ॥ पड्विधावश्यकाचारं मार्गेऽपि प्रतिपालयन् । दीनानाथादिलोकानामुपकुर्वन् स्वशक्तितः ॥ ३५६ ॥ सर्वेषु भावतीर्थेषु जङ्गमस्थावरेष्वपि । पूजासत्कारसन्मानदानादिविधिना सृजन् ।। ३५७ ॥ तमस्विन्यां व्रजन्मार्गाद्मष्टो निजजनैयुतः। स पपात महाटव्यां मुक्तधर्म इवापदि ॥ ३५८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ अटवीं विकटाकारां स भ्राम्यनिखिला निशाम् । माग न प्राप कुत्रापि प्राणीव गुरुवर्जितः ॥ ३५९ ॥ अथ सूर्योदये जाते क्षधार्ताः सार्थपूरुषाः । मूर्छिता न्यपतत्क्षोण्यामज्ञातफलभक्षणात् ॥ ३६० ॥ अज्ञातफलपुष्पाणामत एवोपयुज्यते । न भोगो ज्ञाततत्त्वानां भवद्वयसुखार्थिनाम् ॥ ३६१॥ अज्ञातफलभोगस्य निषेधादमयः पुनः। अमन्यत गुरोर्जीवन निष्कृत्रिमदयालुताम् ॥ ३६२ ॥ स पुनस्तद्वियोगेन दुःखितः स्वपुरीपथम् । अजानन भयमूढात्मा तस्यां गच्छन्नितस्ततः ॥ ३६३ ॥ अद्राक्षीललनामेका पुण्यलावण्यवाहिनीम् । स्वसम्मुखं समायान्तों प्रत्यक्षामिव देवताम् । ३६४ ।। युग्मम् ॥ तां समीपसमायातामाचख्यौ श्रेष्ठिनन्दनः विशालागामुकं मार्ग भद्र! मे दर्शयाधुना ॥ ३६५ ॥ विभ्रती साचिकान भावानब्रवीत्सा स्मितानना । नाहं मार्ग विजानामि भवतोक्तं महाशय ! ।। ३६६ ॥ परं पल्लीपतेः पुत्री नाम्ना मदनसुन्दरी । कामरूपोपमं दृष्टा भवन्तं वनचारिणम् ॥ ३६७ ॥ सखीवर्ग परित्यज्य कामुकी समुपागमम् । तेन भोगान् मया साकं भुक्ष्व साक्षात्सुखप्रदान ॥३६८ ॥ युग्मम् ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
M॥१७॥
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
पश्चमः प्रस्ताव:
॥१७८॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
स्वस्वादूनि फलान्येतान्यास्वाद्य निवृ तो भव । एतदास्वादनादङ्गी यतः स्यानवयौवनः ॥ ३६६ ॥ अतीव जरती पूर्वमहमासं गतद्युतिः । फलादनेन सञ्जाता साम्प्रतं प्राप्तयौवना ॥ ३७० ॥ न शक्नोमि क्षणं स्थातुं विषयव्याकुलीकृता । त्वदङ्गसङ्गपीयूषयूषपानं विनाऽधुना ॥ ३७१ ॥ मन्मनोऽभीष्टसम्पत्त्या तवाभीष्टं भविष्यति । हेमरत्नाकरादीनां सम्प्राप्त्या करुणापर ।।। ३७२ ॥ आपद्यपि न दीनश्रीरवादीदुमयस्तदा । भद्रे ऽज्ञातफलास्वादनिषेधोऽस्ति मया कृतः॥३७३ ।। त्रिविधं त्रिविधेनाहं न समीहे परस्त्रियम् । शचीसञ्चारिसौभाग्यां किं पुनर्भवती ध्रुवम् ? ॥ ३७४ ॥ तमोद्वाराणि चत्वारि कथयन्ति मनीषिणः । अनन्तकायसंधाननिशाभुक्त्यन्ययोषितः ॥ ३७५ ॥ प्राणान्तेऽपि न कर्तव्या प्रतिपन्नव्रतक्षतिः । व्रतत्यागेन जन्तूनां पतनं नरकावटे ॥ ३७६ ॥ व्रतादप्यधिकं प्रायो धनं नीचो हि मन्यते। प्राणेभ्योऽपि गरीयस्त्वं व्रते दत्ते जनो महान् ।। ३७७ ।। इत्युक्तं तेन सा श्रुत्वा क्रोधाध्माता वनेचरी । विकृत्य भीषणं रूवं कर्तुं क्षोभमढौकत ।। ३७८ ॥ यथा यथा करोत्येषा क्षोभं कामातुराऽधिकम् । तथा तथाऽभवत्तस्य सद्धर्म मानसं दृढम् ।। ३७६ ।। अथ तं दृढधर्माणं सा विज्ञाय प्रशान्तहृत् । प्रत्यक्षीभूय दिव्याङ्गी गुणस्तुतिमिति व्यधात् ॥ ३८०॥ धन्यस्त्वमेव लोकेऽस्मिन् श्लाघ्यस्त्वं महतामपि । यस्येदृशं दृढं धर्म विपद्यपि मनोजनि ॥ ३८१॥ अटव्याः स्वामिनी देवी नाम्नाहं मृगवाहना । तव सत्त्वपरीक्षार्थमेतत्सर्व मया कृतम् ॥ ३८२ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
||१७८॥
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
पश्चम: प्रस्ताव:
॥१७॥
परं सत्त्ववतां धुयस्त्वमसि श्रावकोत्तमः । वरं वृणीष्व कल्याणिन् ! प्रसन्नाऽस्मि तवाधुना ।। ३८३॥ स प्राह यदि मे तुष्टा भवती वनदेवता । त्वत्प्रसादेन जीवन्तु ममामी सहचारिणः ॥ ३८४ ॥ इत्युक्ताऽनेन सा देवी जीवयित्वाऽखिलान् नरान् । धर्मस्वरूपमाख्याय तेषामग्रे यथास्थितम् ॥ ३८५॥ पुरीमुज्जयिनी नीत्वा श्रावकं सपरिच्छदम् । गाङ्गेयवृष्टिं निर्मायं निर्माय च गृहाङ्गणे ॥ ३८६ ॥ पश्चाश्वयं प्रपञ्च्यासौ जिनधर्मोन्नतिप्रदम् । नत्वा च तत्पदाम्भोजमाससाद निजं पदम् ॥ ३८७ ॥ युग्मम् ।। ते सार्थपुरुषाः प्राप्तचेतना हृष्टमानसाः । उमयं श्रावकारण्यं वर्णयन्ति पदे पदे ॥ ३८८ ॥ उमय ! स्फारकारुण्य ! पुण्यपुण्यगुणोदधे! । तव प्रसादपीयूषात्सद्योऽमी जीविता वयम् ॥ ३८६ ।। किश्चिन्न तेऽस्ति दुःसाध्यं दुष्प्रापं च न किश्चन। येनेदृश्यः श्रियः प्राप्ता देवीसान्निध्यतस्त्वया ॥ ३६० ॥ यतःअङ्गणवेदी वसुधा कुल्या जलधिः स्थली च पातालम् । वल्मीकस्तु सुमेरुद्दढतरधर्मस्य पुरुषस्य ॥१॥ वभाषे श्रेष्ठिनः सूनुस्तानेवं गर्ववर्जितः । भो भद्राः ! धर्ममाहात्म्यं मनसोऽपि न गोचरे ॥ ३६१॥ यतः
धर्मात् शर्म परत्र चेह च नृणां धर्मोऽन्धकारे रविः सर्वापत्प्रशमक्षमः सुमनसां धर्माभिधानो निधिः । धर्मो बन्धुरयान्धवः पृथुपथे धर्मः सुहृन्निश्चलः संसारोरुमरुस्थले सुरतरु स्त्येव धर्मात्परः ॥१॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१७६॥
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१८०॥
******
*********
श्रीकं तनयं दृष्ट्वा सदाचारधुरन्धरम् । तादृग्मित्रगणोद्वर्ण्य मानसद्गुणसङ्गतम् ॥ ३६२ ॥ क्षणान्निजगृहायातं जननीजनकादयः । जहर्षुः स्वजनाः सर्वे कुर्वन्तः सर्वतो महम् || ३६३ ॥ तदीयाद्भुतमाकर्ण्य विस्मितो नृपतिः पुनः । तत्रागत्य न्यधात् श्रेष्ठिपदे तं मानदानतः ॥ ३६४ ॥ अथ स्वस्वपदे न्यस्य क्रमेण निजनन्दनान् । नृपामात्यसमुद्राख्यश्रेष्ठिनः श्रेष्ठवासनाः || ३६५ ॥ अष्टाहिकोत्सवं कृत्वा दत्वा दानानि चार्थिषु । मुनिचन्द्रगुरोः पार्श्वे जगृहु: संयमश्रियम् ॥ ३६६ ॥ उमयोऽथ पुरे श्रेष्ठिपदं कुर्वन्नगर्वहत् । सुखीचकार निःशेषं लोकं सत्पक्षपोषकः ॥ ३६७॥ कैलाशगिरिसङ्काशं चैत्यं श्री ऋषभप्रभोः । स्फाटिकं तत्र निर्माय स लेभे सम्पदः फलम् ॥ ३६८ ॥ नानाजिनेन्द्रबिम्बानां प्रतिष्ठाः समहोत्सवम् । प्रतिवर्ष विनिर्माय स जन्मफलमग्रहीत् ॥ ३६६ ॥ धन्योऽहं सफलं जन्म ममेति मुदमुद्वहन् । आनर्च जगतः पूज्यं श्रीसङ्घ स चतुविधम् || ४०० ।। यो जिनेन्द्रमते दीक्षामादत्ते भवभीलु (रु) कः । कुर्वेऽहं तत्कुटुम्बस्य चिन्तामित्युदघोषयत् ॥ ४०१ ॥ युग्मम् ॥ क्रमेण संयमं प्राप्य तस्मात् श्रीगुरुपुङ्गवात् । उमयः परमानन्दपदसाम्राज्यमाप्तवान् ॥ ४०२ ॥ मयाऽपि तत्र सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानलक्षणम् । प्रापि पुण्यानुभावेन सर्वव्रतविभूषणम् ॥ ४०३॥ इति कनकलतोक्तं श्रेष्टनोश्चरित्रं जिनपतिमतदाढ्र्योद्भूतमाहात्म्ययुक्तम् । अवितथतममेतन्मेनिरे कुन्दवल्लीं चितिपतिसचिवाईद्दासमुख्या विहाय ॥ ४०४ ॥ यतः -
*****
*******
पञ्चमः प्रस्तावः
॥१८०॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
षष्ठः
प्रस्तावः
॥१८॥
XXXXXXXXXXXXXXXXX*
न सतोऽन्यगुणान् हिंस्यान्नासतः स्वस्य वर्णयेत् । तथाकुर्वन् प्रजायेत नीचैर्गोत्रोचितः पुमान् ॥१॥
मोहान्धकारक्षयदीपिकाभां कथामिमा यो हृदये सहर्षः।
संस्थापयेत्तस्य जिनेन्द्रधर्मतत्त्वप्रकाशः स्फुरति स्फुटश्रीः ॥ ४०५॥ इति सम्यक्त्वकौमुद्यां श्रीतपागच्छनायकश्रीसोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यैः पण्डितजिनहर्षगणिभिः कृतायां पञ्चमः प्रस्तावः ॥ ग्रन्थानम् ४५७ अक्षर २०॥
॥ अथ षष्ठः प्रस्तावः॥ अथ विद्युल्लतां स्माह श्रेष्ठी सर्वज्ञधर्मभृत् । शुद्धसम्यक्त्वसम्प्राप्तिहेतु वद मनस्विनि ! ॥१॥ ततः स्वदयितादेशं सुधादेश्यं निशम्य सा । उवाच रचितोल्लासं दृष्टान्तं बोधिलाभदम् ॥ २॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे पवित्रे पुण्यसमभिः । कौशाम्बीनगरी नाम धाम सर्वाद्भुतश्रियाम् ॥ ३ ॥ रणकण्डूलदोर्दण्डः षट्खण्ड क्षितिमण्डनः । सुदण्डोऽभूभुवो भर्ता तत्र पात्रं जयश्रियः॥ ४ ॥ दृढधर्मस्थितत्वेन समितिप्रयतत्वतः । सभां विभूषयामास यो द्विधाऽपि क्षमाभृताम् ॥ ५॥ ... तस्याभूद्विजया भत हृदि हारानुकारिणी । सद्वृत्तनायकोपेता प्रिया पुण्यगुणान्विता ॥६॥ सुमतिः सुमतिस्तस्य सचिवः शुचिकर्मभूः । बभूव तत्प्रिया नाम्ना गुणश्रीरथतोऽपि च ॥७॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXK:
॥१८॥
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
षष्ठः प्रस्ताव:
॥१८॥
शूरदेवोऽभवच्छु ष्ठी तत्रैव परमार्हतः । सर्वाङ्गीणगुणा तस्य प्रिया गुणवतो तथा ॥ ८॥ पात्रदानजिनेन्द्रार्चादीनोद्धारादिकर्मभिः । दम्पती तौ निजं जन्म कृतार्थीचक्रतुः सदा ॥ ६ ॥ शरदेवोऽन्यदा देशान्तराद्वाणिज्यकर्मणा । आनीय हयरत्नानि भूपतेः प्राभृतं व्यधात् ॥१०॥ धनकोटीप्रदानेन सत्कृत्य बहुमानतः । तस्मै नृपोऽपि हृष्टोऽदान नगरश्रेष्ठिसम्पदम् ॥ ११ ॥ प्रसादो देवभूपाना रत्नसागरवाजिनाम् । वाणिज्यं रससिद्धिश्च दौगत्यं घ्नन्ति तत्क्षणात् ॥ १२॥ स प्राप्य राजसन्मानं राजसंमानमार्हतः। न भेजे परकार्येषु चित्रं क्वापि नदीष्णहृत् ॥ १३ ॥ भोजनावसरे तस्य मुनीन्द्रो गुणशेखरः। एकदा मन्दिरं प्रापत् पारणाय तपोनिधिः॥१४॥ प्रणिपत्यागमोक्तेन विधिना विहितादरः। पायसं परया भक्त्या स तस्मै प्रददौ स्वयम् ॥१५॥ तस्यावासे सुरैश्चक्रे तदा तद्दाननन्दितः । पञ्चाश्चर्यमहो ! साधुदानकल्पद्रुवैभवम् ॥ १६ ॥ सर्वोत्तमरसोपेतान् पात्रदानानुभावतः । बबन्धे शूरदेवेन तीर्थकृत्कर्म तद्भवे ।। १७ ॥ न्यायेन धर्मभेदेषु दानमेव धुरि स्थितम् । लभ्यन्ते तत्प्रसादेन यतः सर्वा अपि श्रियः॥१८॥ मन्ये धर्मप्रभेदेषु दानधर्मो महीपतिः। यदमुधुरि कुर्वन्ति सर्वेऽमी धर्मवादिनः ॥ १६ ॥ पुरे तत्रैव वास्तव्यः श्रेष्ठिसागरदत्तभूः । श्रेष्ठी समुद्रदत्ताख्यः प्रख्यातो गुणवज्जने ॥ २० ॥ निर्धनानां शिरोरत्नं सयत्नोऽपि धनार्जने । दृष्ट्वा तदानमाहात्म्यं चिन्तामेवं दधौ हृदि ॥ २१॥
BXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१८२॥
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१८३॥
****
**********
धन्योऽयं शूरदेवाख्यो गृही ग्राह्यगुणः सताम् । चित्तवित्तसुपात्राणां योगो यस्येदृशोऽजनि ॥ २२ ॥ यतःकेसि च होइ चित्तं वित्तमन्ने सिमुभयमन्नेसिं । चित्तं वित्तं पत्तं तिन्निचि पुन्नस्स धन्नस्स ॥ १ ॥ पूर्वोपार्जितपुण्यानां विपाकोऽयं सतां मतः । श्रद्धापूर्वं सुपात्रेषु यद्दानं शुद्धवस्तुनः ॥ २३ ॥
शुभोदयो भावी निर्धनस्यापि मे कदा | पात्रदानोद्भवं येन फलमेवंविधं लभे ॥ २४ ॥
परं धनं विना तु दानधर्मो न शक्यते । वित्तायत्ता यतः प्रोक्ता गृहिणां सकला स्थितिः ॥ २५ ॥ यतः— मानं धनेनैव न सत्कुलेन कीर्तिर्धनेनैव न विक्रमेण ।
कान्तिर्धनेनैव न यौवनेन धर्मो धनेनैव न जीवितेन ॥ १ ॥ स्वपक्षेण विना वादं विलासान् यौवनं विना ।
दानलीलां विना लक्ष्मीं कुर्वन् यात्युपहास्यताम् ॥ २ ॥
ततो देशान्तरे गत्वा निर्माय च धनार्जनम् । करिष्ये पात्रदानेन कृतार्थं सधनं जनुः ॥ २६ ॥ aasil नायकीकृत्य साथैवाहं घनावहम् । धनार्थ भगलाहानं ययौ जनपदं कृती ॥ २७ ॥ सव्रजन् सार्थवाहेन समं प्राप्य क्रमादथ । अभिरामगुणग्रामं नाम्ना ग्रामं पलासकम् ॥ २८ ॥
त एव गृहिणः श्लाध्यास्तेषां जन्म फलेग्रहि । भक्त्या विधीयते पात्रदानं यै शुद्धवस्तुभिः || २ || तस्य सत्पात्रदानस्य कस्तवं वास्तवं विभुः । कतु स्याद्येन संसारी लोकद्वयसुखीभवेत् ॥ ३० ॥
*****
******************
षष्ठः प्रस्तावः
1185311
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ १८४॥
*********:
इति चिन्तयतस्तस्य रात्रौ निद्रामुपेयुषः । ग्रामाधिष्ठायिनी देवी स्वप्ने तत्रावदन्मुदा ॥ ३१ ॥ अत्रैव तिष्ठ वत्स ! त्वं धनधर्मौ यदीहसे । मनोरथः क्रमात्सिद्धिं तव यास्यत्यसंशयम् ॥ ३२ ॥ महाभाग ! स्वमेवासि वर्ण्यप्राणिगणाग्रणीः । दृढानुबन्धा यस्यैवं तव सत्कार्यवासना ॥ ३३ ॥ मन्वानः सत्यमेवेदं प्रबुद्धोऽसौ महामतिः । विज्ञप्य सार्थवाहं तं तत्रावस्थितिमातनोत् ॥ ३४ ॥ समुद्रोऽथ पथभ्रान्तस्तिष्ठंस्तत्र विदेशजः । धर्ममेव तदाकार्षीत्सहर्षः सर्वसौख्यदम् || ३५ ॥ ताशोकाह्वयो वाजिव्यवसायी वणिग्वरः । वसत्यवसथः कीतेर्धनेन धनदोऽपरः || ३६ || जगदानन्ददायित्वात् ज्ञात्वा सर्वासु दत्तिषु । मुख्यमेष ददौ नित्यमन्नदानमवारितम् ॥ ३७ ॥ वीतशोका प्रिया तस्याभवत्सौभाग्यभाजनम् । पद्माक्षी पद्मया तुल्या पद्मश्रीश्च तयोः सुता ॥ ३८ ॥ चतुर्दशशतान्यासन्नश्वानां तस्य वेश्मनि । अश्वानामयुतं दिव्यं तथा वाणिज्यहेतवे ॥ ३६ ॥ समुद्रं सार्थनामानं सुशीलजनमण्डनम् । विलोक्य पार्श्वमायातं सोऽवादीदन्यदा मुदा ॥ ४० ॥
भद्र ! भद्राकृतिः कस्त्वं कुतोऽत्रागतवानसि । केन प्रयोजनेनेति स्वरूपं ब्रूहि मेऽखिलम् ॥ ४१ ॥ विनयाद्वामनीभावं भजता तेन तत्पुरः । यथावत्कथिते स्वस्य स्वरूपे सोऽपि तं जगौ ॥ ४२ ॥ मद्वेश्मनि त्वया स्थेयं यथा कर्म कुर्वता । वस्त्रभोज्यादिसामग्री विधातव्या मया पुनः ॥ ४३ ॥ मनोऽभीष्टं यद्वन्द्वं निर्द्वन्द्वं महसान्वितम् । गृहीतव्यं त्वया विद्वन् ! स्वस्थानं प्रति गच्छता ॥ ४४ ॥
*****
*************:*
षष्ठः
प्रस्ताव:
॥ १८४॥
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१८५॥
************
४५ ॥
४६ ॥
अत्रार्थे साक्षिणः कृत्वा ग्रामणीप्रमुखांस्ततः । तस्थौ समुद्रस्तद्गेहे प्रोभिद्रः सर्वकर्मसु ॥ हयानामकरोद्रक्षां स्वयं चारिं ददौ तथा । ससर्ज श्रेष्ठः श्रेष्ठं मक्षिकादिनिवारणम् ॥ ततान विनयं नित्यमशोकश्रेष्ठिनः पुनः । औचित्याद्गृहलोकानां चकारोपकृतिं तथा ॥ ४७ ॥ युग्मम् ॥ श्रेष्ठिप्रमुख लोकानां धर्मं सर्वज्ञदर्शितम् । असौ युक्त्यनुसारेण ज्ञापयामास तत्त्वतः ॥ ४८ ॥ परं स यौवनोन्मादावेगेन व्याप्तमानसः । पद्मश्रियं सुतां तस्य वशीकर्तुं मना अभूत् ॥ ४६ ॥ वनादानीय सुस्वादुफलानि विविधानि तु । परीक्षितु मनोभावं विश्राणयति नित्यशः ॥ ५० ॥ प्रीणिता फलदानेन मोहिता च वपुः श्रिया । पद्मश्रीरपि तत्रासीदसीम स्नेहधारिणी ॥ ५१ ॥ रहस्तथाऽपि सुस्वादुमोदकादिप्रदानतः । गौरवं क्रियते तस्य स्वार्थ एव यतः प्रियः ॥ ५२ ॥ एवं परस्परं प्रीतिवृद्धि प्राप तयोस्तथा । शेकतुस्तौ यथा स्थातुं नान्योन्यं दर्शनं विना ॥ ५३ ॥ अथ वर्षद्वयप्रान्ते स्वदेशं प्रति गच्छति । सार्थवाहे समायाते पुनस्तत्र धनावहे || ५४ ॥ गन्तुकामः समुद्रोऽपि समं तेन निजे पुरे । उवाच विजने पद्मश्रियं सस्नेहमानसः ॥ ५५ ॥ युग्मम् ॥ स्वार्थेन समीहेऽहं भद्रे ! गन्तुं गृहं प्रति । खां परं परमप्रीतिपात्रं मोक्तुं न हि क्षमः ॥ ५६ ॥ विदेशेऽपि सुखेनास्थामत्र सान्निध्यतस्तव । उपकतु मनीशोऽहमधमर्णोऽस्मि दुःखितः ॥ पितुर | देशमासाद्य त्वां परिणीय सांप्रतम् । अहं सहागमिष्यामि सा स्माहेत्यनुरागिणी ॥
५७ ॥
५८ ॥
******
*****************
षष्ठः
प्रस्तावः
॥१८५॥
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
**
सम्यक्त्वकौमुदी
ताव:
॥१८६॥
*:XXXXXXXXXXXX*********
परं पाणिग्रहोपायं सावधानतया शृणु। दुःसाधं साध्यते कार्य यदुपायं विना नहि ॥ ५४॥ कृशाङ्गावपि यो स्निग्धमृदुरोमविराजिनौ । वाजिनौ हयवृन्दे स्तो रक्तश्वेतमहाद्युती॥६०॥ श्वेतवर्णो नभोगामी रक्तवर्णोऽम्बुगामुकः । उभौ तौ तिष्ठतो यस्य तस्य गेहेऽखिलाः श्रियः॥ ६१ ॥ पितुः पावें त्वया ग्राह्य तदेतद्घोटकद्वयम् । तुभ्यं दत्त यतो यत्नं विना मां तद्विमोहितः ॥ ६२ ।। श्रेष्ठिसूरतदाकर्ण्य दध्यौ विस्मितमानसः । ध्रुवं स्वप्नानुभावोऽयं यदस्याः प्रीतिरीदृशी ॥ ६३॥ पुण्यरुल्लसितं मेऽद्य प्राग्भवोपार्जितैस्तथा। यदेतयोः परिज्ञानं जज्ञे गन्धर्वरत्नयोः ॥ ६४ ॥ आनन्द्य मृदुभिर्वाक्यैस्ततस्ता प्रश्रयस्र वम् । तत्स्वरूपं हृदि न्यस्य स प्रोचे श्रेष्ठिनं प्रति ॥६५॥ स्वदेशप्रापकः सार्थः प्राप्तोत्रास्ति बहिः स्थितः । समं तेन निजे स्थाने गन्तुमिच्छाम्यहं प्रभो ! ॥६६॥ इयन्त्यहानि सौख्येन मयाऽस्थायि भवद्गृहे । सांप्रतं मां प्रतीक्षन्ते स्वकीयाः सार्थपूरुषाः ॥ ६७ ॥ तदश्वद्वयदानेन प्रसादं कुरुताधुना । सोऽवोचद्वाजिराजीषु गृह्यतां तद्यथारुचि ॥ ६८॥ इत्युक्तोऽसौ पुराध्यक्षसाक्षिकं तद्धयद्वयम् । ययाचे चतुरत्वेन विनयोक्तीः प्रपश्चयन् ॥६॥ अशोकः कथयामास मायावी मधुरो मुखे । दुर्विधोऽसि समुद्र ! त्वं सारासारानभिज्ञहृत् ॥ ७० ॥ अतीवर्वेलावेतौ मन्दौ मन्दगती हयौ । प्रधानाश्वघटा मुक्त्वा यत्त्वं गृहासि मूढवत् ॥ ७१॥ पुष्टाङ्ग तुष्टिकृदृष्टेविशिष्टं वाजियुग्मकम् । इमौ विमुच्य गृह्णीहि (हाण) यतोऽथस्ते भवेन्महान् ॥ ७२ ॥
KEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
१८६॥
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव
॥१८७॥
******XkkkXXXXXXXXX*
ततः समुद्रदत्तोऽवक तं स्वदेशनवृतः। एतावेव ग्रहीष्यामि नान्यैरश्वैः प्रयोजनम् ॥ ७३ ।। यद्रोचते ग्रहीतव्यं तदेवाश्वद्वयं त्वया । एवं समक्षं लोकानां दत्तमस्ति वचः पुरा ॥ ७४ ॥ कदाचित्कम्पते मेरोः शृङ्गकल्पान्तवायुभिः । प्रपन्नं महतां नैव वितथं जायते क्वचित् ।। ७५॥ अशोक ! त्वं सतां श्रेष्ठः श्रीदवत् श्रीमदग्रणीः । प्रमाणं कुरु वाक्यं स्वमित्यूचुर्घामपूरुषाः ॥ ७६ ॥ युग्मम् ॥ ततोऽशोको गृहं गत्वा गृहिणीमित्यभाषत । अश्वभेदः कुतोऽनेन ज्ञातः सम्यग् दुरात्मना ।। ७७ ।। वीतशोकाऽवदत्पद्मश्रियस्ता निखिला स्थितिम् । अश्वाधीशस्ततो दध्यौ विद्धस्तद्वार्तयाऽधिकम् ॥ ७८।। पितरं मातरं पुत्रं भ्रातरं श्वशुर तथा । योषितो वश्चयन्त्येव स्वकार्येकचिकीर्षया ॥ ७६ ॥ वामा वामाशयाः पामा इवानिशमसंशयम् । पितुर्गेहें यथा देहं शोषयन्ति सुखेप्सया ॥८॥ दत्ताशेषसमीहस्य पितृगेहस्य पुत्रिका। नित्योद्वेगपदं जज्ञे प्रायशः पश्यतोहरः ॥ ८१॥ अनेनापि सदाचारतत्परेण सुता मम । असौ कथं वशीचक्रेऽथवा कामो हि दुर्जयः ॥ २ ॥ सुरूपां कामिनी दृष्टा यौवनोन्मादमन्थराम् । योगिनोऽपि विमुह्यन्ते किमुत प्राकृतो जनः॥३॥ विचारं विदधे श्रेष्ठी स्वश्रेष्ठिन्या समं ततः । गृहिणो गृहिणीनेत्राः प्रायः प्रौढे प्रयोजने ॥ ८४ ॥ ततो जायानुमत्याशु श्रेष्ठी मतिमतांवरः । स्वनन्दिनीं ददौ तस्मै वाजिरत्नद्वयीयुताम् ॥८५॥ पद्मश्रियं समुद्रोऽथ परिणीय श्रियं यथा । तदश्वद्वयमासाद्य मुमुदे वासुदेववत् ॥८६॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX)
॥१८७॥
*****
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
KXXXX
सम्यक्त्व
कौमुदी
प्रस्ताव
॥१८॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX*
कियन्त्यहानि तत्रासौ स्थित्वा सार्थयुतो व्रजन् । स्वदेशं प्रति सस्त्रीकः प्रापद्वारिनिधेस्तटम् ॥ ८७ ॥ अशोकप्रेरितस्तत्र नाविको वक्ति तं प्रति । यद्यतौ वाजिनौ मह्य भवान् मूल्यं प्रयच्छति ॥ ८८ ॥ तदेवोत्तारयिष्यामि भवन्तं दयितायुतम् । यानपात्रे समारोप्य चारित्रे भव्यलोकवत् ॥ ८६ ॥ अहं सुधीवरः साधुरिव सत्त्वभयङ्करम् । दुर्विगाहं जवादेव संसारमिव सागरम् ॥ ६॥ भवादिवाम्बुधेर्नास्ति समुत्तारोऽन्यथा तव । चारित्रं यानपात्रं वा किं विहाय तरन्त्यमुम् ॥११॥ श्रेष्ठिसूरब्रवीत्क्र द्धो नाविकं परुषाक्षरम् । निष्कानां तु शतं मुक्त्वा नान्यत्तव तनोम्यहम् ॥ १२॥ विवादे धीवरैः साधं जायमाने गरीयसि । अवादीद्विदुषीरूपा पद्मश्रीः प्राणवल्लभम् ॥ १३ ॥ वृथा किमर्थमारब्धो विरोधः कारुभिः सह । महान्तः कलहायन्ते न हि नीचैः सह क्वचित ॥१४॥ आरुह्य वाजिनं स्वामिन् । नभोगामिनमम्बुधिम् । उत्तीय गम्यते वेगादायपुत्र ! पितुः पुरे ॥१५॥ मत्पित्प्रेरित रेतैर्वाजिरत्नजिघृक्षया । कैवतैः क्रियते नूनं विवादो वारिधेस्तटे ॥ १६ ॥ एवं त्वयि गते स्वामिन् ! विरोधो भङ्गमेष्यति । समेष्यति निजं सारं पश्चात्सार्थजनैः सह ॥१७॥ प्रियायाः प्रियवाक्येन प्रेरितोऽसौ तथाऽकरोत् । उपाये न हि सम्प्राप्त विद्वान् मन्दायते क्वचित् ॥१८॥ ततस्तमश्वमारुह्य सप्रियः श्रेष्ठिनन्दनः। करे धृत्वा द्वितीयं तं सारवस्तुसमन्वित ॥ ६ ॥ सुखेन तत्क्षणादापत्तेषु पश्यत्सु मन्दिरम् । यतो जागर्ति सर्वत्र प्राणिनां सुकृतोदयः ॥ १० ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१८॥
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥१८९॥
*************
नाविकव्रजमानन्द्य मूल्यैर्न्यायोचितैस्ततः । क्रमात्समुद्रमुत्तीर्य सार्थः सर्वः समाययौ ॥ १०१ ॥ समुद्रः प्रियया युक्तः क्षमयेव यतिस्ततः । तस्मादुत्तीर्य गन्धर्वादिव महोनतात् ॥ १०२ ॥ गुरुक्रमपयोजन्म श्रियां जन्मगृहं मुदा । ववन्दे यत्सदाचारं न त्यजन्ति कुलोद्भवाः ।। १०३ ।। पुत्रस्य सकलत्रस्य द्विधा तत्रागमे तदा । अत्यद्भुतोत्सव श्रेणी विदधे जनकादिभिः ॥ १०४ ॥ तदश्वद्वयमाहात्म्यात्तस्य गेहे दिने दिने । वृद्धि प्रापुः श्रियः सर्वा अचिन्त्यं वस्तुवैभवम् ॥ १०५ ॥ पद्मश्रीप्रीणितस्वान्तस्त्रिवर्गार्जिनतत्परः । समुद्रो धनवान् जज्ञे पूज्यश्च नगरेऽखिले ॥ १०६ ॥ अन्ः प्राभृती समुद्रो गगनाध्वगम् । सुदण्डभूपतेरवमुच्चैःश्रवः सहोदरम् ॥ १०७॥ ततचमत्कृतः पृथ्वीपतिस्तं प्रीणिताशयः । अनङ्गसेनयाऽनङ्गमहीपालैकसेनया ॥ १०८ ॥ अतुच्छोत्सवसम्मृहैः प्ररोहैरिव सम्पदाम् । उद्वाह्याहार्यसन्मानदानैः सानन्दमानसम् ॥ १०६॥ भूयो ग्रामपुरादीनां प्रत्यष्ठात्प्रभुतापदे । रुष्टस्तुष्टश्च भूभर्ता विधत्ते यन्महापदम् ॥ ११० ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ साम्राज्यं पुण्ययोगेन प्राप्तः सागरदत्तभूः । जिनेन्द्रशासनं धर्मकृत्यैर्नित्यमदीपयत् ॥ १११ ॥ भोजनावसरेऽन्येद्युस्तस्य वेश्मशुभोदयात् । पारणार्थी समायासीत्साधुः श्रीगुणशेखरः ॥ ११२ ॥ स्फुर्जल्लब्धिशतस्वामी चामीकरवरद्युतिः । ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रयपवित्रितः ॥ ११३ ॥ युग्मम् ॥ तेन तात्कालिकानन्दनिःस्यन्दोन्मग्नचेतसा । नवप्रकारसंशुद्धैरन्नपानादिभिः स्वयम् ॥ ११४ ॥
****************************
षष्ठः
प्रस्ताव :
॥१८६॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्तावः
॥१६॥
RRRRRRRXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
विधिना शास्त्रपूतेन प्रत्यलाभि स संयमी । सत्पात्रेऽवसरे प्राप्ते किं विवेकी प्रमाद्यति ॥११५ ॥ युग्मम् ॥ तदानमहिमा तत्र विदधे त्रिदशवजैः। समग्रजनतानन्दी वसुगन्धाम्बुवर्षिभिः॥ ११६॥ माहात्म्येन समं श्रेष्ठी हर्षोत्कर्षमवाप सः । अर्जयामास साम्राज्यं तथा षटखण्डभूभुजः॥ ११७ ॥ यतः
विधिना पुण्डरीकाद्रौ यात्रा पात्राश्रिताः श्रियः।
क्रियाः सज्ज्ञानसम्यक्त्वाः प्राप्यन्ते पुण्ययोगतः ॥१॥ योगीव परमात्मानं नियोगीव परं पदम् । अविन्दत हयं प्राप्य तदानन्दभरं नृपः ॥ ११८॥ ततो हयानुभावेन भूभृतो राज्यसंपदि । सप्तस्वपि तदा वृद्धिरङ्गषु समभूदहो ! ॥ ११६ ।। अन्यदा जययात्राय व्रजता तेन भूभुजा । स वाजी बालमित्राय वृषभश्रेष्ठिनेऽर्पितः॥१२०॥ रक्षणीयस्त्वया यत्नाद्राज्यसर्वस्वजीवितम् । स्वात्मेवायं नभोगामी वेश्मनीति न्यगादि च ।। १२१॥ रङ्गात्तुरङ्गमं श्रेष्ठी नृपादेशवशंवदः। आनीय पालयामास जिनधर्ममिवालये ॥ १२२ ॥ मनसोऽन्तर्दधौ चिन्तामेवं वृषभसेनकः । प्राप्तः पुण्योदयादेष व्योमगामी यो मया ॥१२३ ॥ तत्पुण्यं क्रियते किश्चिदस्य साहाय्यतोऽधुना । समयं प्राप्य यो धर्म कुरुतेऽसौ विवेकवान् ॥ १२४ ॥ यतः
यावत्स्वच्छमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।
॥१६॥
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
पष्टः
सम्यक्त्तकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१६
॥
आत्मश्रेयसि तावदेव कृतिना कार्य प्रयत्नो
महान संदीप्ते भवने हि कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः॥१॥ आरुह्य वाजिनं श्रेष्ठी ततोऽभीष्टगतिस्पृशम् । शाश्वतीः प्रतिमा जम्बूद्वीपस्था वन्दतेऽनिशम् ।। १२५ ॥ गिरावष्टापदे गत्वा कदाचिज्जिनपुङ्गवान् । सर्वतीर्थोत्तमे तीर्थे श्रीशत्रुञ्जयपर्वते ॥ १२६ । श्रीसमेतोज्जयन्ताद्रिसिद्ध कूटवनादिषु । नमस्कृत्य नमस्कृत्य स जन्मफलमासदत् ॥ १२७ ॥ युग्मम् ॥ यतः
पूजामाचरतां जगत्त्रयपतेः संघार्चनं कुर्वतां तीर्थानामभिवन्दनं विदधतां जैनं वचः शृण्वताम् । सद्दानं ददतां तपश्च चरतां सत्त्वानुकम्पाभृतां
येषां यान्ति दिनानि जन्म सफलं तेषां सुपुण्यात्मनाम् ॥१॥ पल्लीपतिपुरोगामी जितशत्रुर्न रेश्वरः । श्रुत्वा तदश्वमाहात्म्यं लोभेनान्धोऽभ्यधादिति ॥१२८॥ वाजिरत्नमिदं मह्य दुष्प्रापं बोधिरत्नवत् । यो दत्तेऽत्र समानीय कश्चित्सुभटकुञ्जरः ॥ १२६ ।। महेन महता पुत्री परिणाय्य धनप्रभाम् । राज्यश्रीसंविभागेन सत्करिष्ये जवेन तम् ।। १३०॥ आकर्ण्य भूभुजो वाचं कुण्डलः कुटिलाशयः । आननीयो मया चाजीत्यवदत्सुभटस्तदा ॥ १३१ ॥ . नृपादेशाद्वजन्मार्गे मुनिचन्द्रगुरोम खात् । धर्मतत्त्वं स विज्ञाय छद्मना श्रावकोऽजनि ॥ १३२ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११॥
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१२॥
KKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
ब्रह्मचारिपदं विभ्रन् स्वहस्तन्यस्तपुस्तकः । स पठन् धर्मशास्त्राणि कौशाम्न्यां क्रमतोऽगमत् ॥ १३३ ॥ श्रीजिनेन्द्रगृहप्राप्तं दृष्टा तं वृषभोऽन्यदा । धर्मध्यानकनिष्णातं बभाषे कृतवन्दनः॥ १३४॥ कुतो भवानिहायासीद्ब्रह्मचारिंगणाग्रिम ! किं तपः क्रियते ? शास्त्र किमिदानी तु पठ्यते ? ॥ १३५ ॥ को गुरुभवतो धर्म ? निवासः कुत्र वा कृतः । यौवनेऽपि कथं ब्रह्मचारिता भवता श्रिता १ ॥ १३६ ॥ दम्भसंरम्भतः सर्वा कल्पयित्वा निजां स्थितिम् । स तस्मै कथयामास धमधृत्तव्रजाधिपः ॥ १३७॥ श्रेष्ठी तद्वाचमादाय विस्मितः स्मयमुक्तहृत् । उवाच ब्रह्मचारिंस्त्वं मान्योऽसि महतामपि ॥ १३८॥ वात्सल्यं कतुमिच्छामि तदहं भवतोऽधुना । सम्यक्त्वव्रतयुग् ब्रह्मचारी श्राद्धो हि दुर्लभः ॥ १३६ ॥ कृत्वा प्रसादमायातु वेश्मन्यत्र भवांस्ततः । भोजनावसरे पात्रं प्राप्यते हि शुभोदयात् ॥ १४०॥ यतःकाले सुपत्तदाणं सम्मत्तविसुडबोहिलाभं च । अंते समाहिमरणं अभव्वजीवा न पावंति ॥१॥ इत्युक्त्वा बहुमानेन तमानीय निजालये । स भक्त्या भोजयामास सद्भोज्यैरमृतोपमैः॥ १४१ ॥ भुञ्जानं सर्वभोज्येषु तं निरीहतयाऽधिकम् । दृष्ट्वा सविस्मयः श्रेष्ठी स्वशालायामतिष्ठिपत् ॥ १४२॥ श्रेष्ठिनं प्रीणयंस्तत्र तिष्ठनिःस्पृहवृत्तितः । छद्मना धर्मनिष्ठात्मा तमश्वं पश्यति स्म सः॥ १४३ ॥ वञ्चयित्वाऽन्यदा निद्रामुद्रितं श्राद्धपुङ्गवम् । तमारुह्य निशीथिन्यां स जगाम नभोऽध्वना ॥ १४४ ।। हयोऽपि पूर्वतोऽभ्यासाल्लीलया नभसि व्रजन् । आहतः कशया तेन मर्मदेशे दुरात्मना ॥ १४५ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥११२॥
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
*
सम्यक्त्वकौमुदी
6MM
प्रस्तावः
॥१३॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXX*:
पातयित्वा दुराचारमारिणं तं भुवस्तले । वेगादष्टापदे गत्वा तस्थौ चैत्यपुरः स्थिरः ॥ १४६ ॥ युग्मम् ॥ विद्यायां व्यवहारे च धर्मकर्मणि चाङ्गिनः । अभ्यासो यादृशो यस्य तादृशी तस्य भावना ॥ १४७ ।। यतःप्रतिजन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः । तेनैवाभ्यासयोगेन तदेवारभते पुनः॥१॥ विमुच्यावसरे श्रेष्ठी प्रमेला महिलामिव । हरन्तीं धर्मसर्वस्वं सन्द्रियविमोहिनीम् ।। १४८ ॥ पडिवधावश्यकं कतु धर्मशालामुपागतः । अदृष्टा तीर्थवत्तत्र स्थापितं ब्रह्मचारिणम् ।। १४६ ॥ शङ्काशङ्कुसमाकीर्णो यावदालोकते हयम् । मन्दुरामुज्झितां तेन तदालोक्य व्यचिन्तयत् ॥१५०॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ धर्मेधूर्ततया तेन हयमादाय गच्छता । धार्मिकाणामविश्वासं प्रापितोऽयं जनोऽखिलः ॥ १५१ ॥ अन्योपदेशजं पापं कथञ्चित्क्षीयतेऽङ्गिनः । गुरूपदेशसंपूतैस्तपोजापक्रियादिभिः ॥ १५२ ॥ वज्रलेपोपमं पापं पुण्यकैतवतः कृतम् । भवेद्भवसहस्रेषु नानादुःखप्रसूतये ॥ १५३ ॥ कृतोऽहं सकुटुम्बोऽपि राज्ञो निग्राह्यतास्पदम् । धर्मलाघवकारित्वादात्मा दुःखे च पातितः ॥ १५४ ॥ भव्यमेवाथवा भावि सम्यग्धर्मानुभावतः । उदयं भास्वति प्राप्ते न लोके स्यात्तमःस्थितिः ॥१५५ ॥ ततः प्राभातिकावश्यक्रियां कृत्वा समाधिना। प्रकारैरष्टभिगेंहचैत्यबिम्बान्यपूजयत् ॥ १५६॥ यतः
श्रेयःसमृद्धिं सकलार्थसिद्धि साम्राज्यलीलां विपदा विनाशम् । विशुद्धभावेन विधीयमाना जिनेन्द्रपूजा रचयत्यवश्यम् ॥१॥
*XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
| ॥१३॥
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्तावः
॥१६४॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
निर्माय विधिवद्रव्यपूजामेष विशेषतः । तस्थौ तत्पुरतः पश्चपरमेष्ठिस्मृतौ दृढः ॥ १५७॥ तत्क्षणं जययात्रातः समायाताय भूभुजे । द्विजिह्वः कश्चिदाचख्यौ हयापहरणादिकम् ॥ १५८ ॥ क्रोधाध्माततया भूभृत् पुरारक्षकमादिशत् । मयूरवन्धमावध्य वृषभं दुष्टमानय ॥१५६ ॥ भूपादेशं समासाद्य दुर्दान्तजनसंयुतः। सोऽपि श्रेष्टिगृहे प्रापदाभत्तत्कुलं पुनः॥ १६ ॥ श्रेष्ठिनः कतु कामोऽभूद्यावद्वन्धादिविक्रियाम् । तावत्कीलितवत्तस्थावसौ दिव्यानुभावतः ॥१६१ ॥ अत्रान्तरे स्फुरत्तेजाः कश्चिद्विद्याधरेश्वरः । आगत्य वाजिना युक्तः श्रेष्ठिनं समतूतुषत् ॥ १६२ ॥ धर्मध्यानलयोद्भूतपरमानन्दपूरितः । न परं बुबुधे श्रेष्ठी सुखदुःखे तु तत्क्षणे ॥ १६३ ॥ अश्वेन संयुतं विद्याधरं दृष्ट्वा गृहागतम् । ध्यानमुद्रालयं त्यक्त्वा कृत्वा तच्चैत्यवन्दनाम् ॥ १६४ ॥ बहिरागत्य वन्दित्वा विधिना च नभश्चरम् । निवेश्य विष्टरे हैमे वार्ता पप्रच्छ वाजिनः ।। १६५ ॥ ततो विद्याधरोऽवादीत्तमदीनमुखद्युतिम् । शृणु धर्मवता धुर्य ! वृत्तान्तं वाजिनोऽखिलम् ॥ १६६ ।। अद्य विद्याधरश्रेणिसङघेन समुपेयुषा । अष्टापदे मया तीर्थे नमस्कतु जिनेश्वरान ॥१६७॥ अयं हयो जिनाधीशान वन्दमान इव स्थिरम् । जिनेन्द्रमन्दिरद्वारे दृष्टो योगीन्द्रवस्थितः॥ १६८ ॥ युग्मम् ॥ चारणश्रमणस्तत्र मया पृष्टश्च तत्क्षणे । कोऽयमश्वः कथं स्वामिन्नत्रायातो नगोपरि ॥ १६६ ।। आदिदेश ऋषिस्त्वेवं चतुर्ज्ञानदिवाकरः । दर्शयन् दन्तदीधित्या शुक्लध्यानस्य वर्णिकाम् ॥ १७ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१४॥
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
षष्ठः प्रस्तावः
॥१६॥
:XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अस्त्यास्तिकशिरोरत्नं कौशाम्ब्यां नाम पत्तने । धनवान् वृषभः श्रेष्ठी बालमित्रं महीभुजः॥ १७१ ॥ विशुद्धिकोटिमारूढं यस्य सद्दर्शनं गुणैः । तत्त्वधर्मगतिर्ज्ञानविचारप्रमुखैः सदा ॥ १७२ ॥ यतः
तत्त्वानि ९ व्रत १२ धर्म १० संयम १७ गति ४ ज्ञानानि ५ सद्भावनाः १२ प्रत्याख्यान १० परोषहें २२ द्रिय ५ मद ८ ध्यानानि ४ रत्नत्रयम् ३ । लेश्या ६ वश्यक ६ काय ६ योग ३ समिति ५ प्राणाः १० प्रमाद ५ स्तपः १२
संज्ञा ४ कर्म ८ कषाय ४ गुप्त्य ३ तिशया ३४ ज्ञेयाः सुधीभिः सदा ॥१॥ तस्य रक्षाकृते सावजनीनस्थितिशालिनः । अपितोऽयं नभोगामी वाजी राज्ञा निधानवत् ।। १७३ ॥ अस्य सान्निध्यतस्तेन कृत्वा कृत्वा वनेकशः। जिनेन्द्रवन्दनं तीर्थेष्वनेकेषु विवेकिना ।। १७४॥ सम्यक्त्वं विशदीचक्रे फलं लेभे च जन्मनः । कर्मोच्चैर्गोत्रमासेदे शिवश्रीः ससृजे वशा ॥ १७५ ॥ युग्मम् ।। पल्लीपतिनरेन्द्रस्य जनेन वृजिनात्मना । धर्मधूर्ततयाऽऽगत्य हृतोऽयं तस्य वेश्मतः ॥ १७६ ॥ एतत्स्वरूपमज्ञात्वा तं ममकप्रहारिणम् । पातयित्वा द्रुतं क्षोण्यामागत्यात्र स्थितो हयः॥ १७७ ॥ पूर्वाभ्यासवशादागात्पशुरप्यत्र पर्वते । अत एव सदभ्यासो विधेयः प्राणिनाऽनिशम् ॥ १७८ ॥ एतनिमित्तमुर्वीशः श्रेष्ठिनस्तस्य साम्प्रतम् । पीडां निर्मापयन्नस्ति तलारक्षादिपूरुपैः॥१७६ ॥ तस्य सान्निध्यमाधातुं युक्तं वो दृश्यतेऽधुना । साधर्मिकेषु वात्सल्यं सर्वधर्मोपरि स्मृतम् ॥ १८०॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६॥
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
षष्ठः प्रस्ताव
॥१६६॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
साधर्मिकेषु सान्निध्यं सत्यां शक्तौ न यःसृजेत । सारं सर्वज्ञधर्मस्य न ज्ञातं तेन वस्तुतः॥१८१॥ यतःतं अत्थं तं च सामत्थं तं विन्नाणं सुउत्तमं । साहमियाण कज्जमि जं वच्चंति सुसावया ॥१॥ पीत्वा मौनीश्वरीर्वाचस्त्वत्प्रशंसासुधामुचः। हयमादाय वेगेन वेश्मन्यत्र समागमम् ॥ १८२॥ विद्याधरोदितं श्रुत्वा पुरारक्षादयो जनाः । प्रशान्तमनसः सन्तः प्रणेमुः श्रेष्ठिनः पदौ ॥ १८३॥ तेऽथ गत्वा नरेन्द्राय तत्स्वरूपं न्यरूपयन् । तत्रागमन्नृणामीशो विस्मयाविष्टमानसः॥ १८४॥ वृषभोऽपि महीन्द्राय स्ववेश्मसमुपेयुषे । प्रतिपत्तिं मनःशुद्धथा विदधे विनयाद्भुतम् ॥ १८५॥ विद्याधरं नमस्कृत्य कृतज्ञः क्षितिभृत्ततः । श्रेष्ठिना ढौकिते प्रौढे निविष्टः कनकासने ॥ १८६ ॥ तमानतं मुदाऽऽलिङ्गय कृत्वाऽर्धासनशालिनम् । स्वादुभिः सुहितीचक्र स्नेहलैर्वचनामृतैः ॥ १८७ ॥ युग्मम् ॥ अशेष वाजिवृत्तान्तं ततो विद्याधराधिपः । धराधिपतयेऽवोचचारणश्रमणोदितम् ॥१८॥ चक्रतुस्तौ यथौचित्यं ततो वैनयिकी क्रियाम् । औचितीमतिवर्तन्ते न कदापि महाशयाः॥ १८ ॥ श्रेष्ठिना वस्तुभिः साधं भूरिभूरिपुरस्सरैः। स वाजी प्राभृतीचक्र सुदण्डाय महीभुजे ॥ १०॥ क्षमित्वा तत्क्षणं क्षोणिनाथोऽथ श्रेष्टिपुङ्गवम् । सत्कृत्य कृत्यविज्ज्येष्ठबन्धुवत्स्निग्धमानसः ॥ १६१॥ आससाद स्वकं धाम संयुतस्तेन वाजिना । जिनेन्द्रधर्ममाहात्म्यं जानन विश्वैकजित्वरम् ॥ ११२॥ युग्मम् ॥ सर्वार्थसाधकं तस्मै रत्नं दत्वाऽथ भक्तितः । विद्याधरः स्फुरत्तेजा जगामाष्टापदे गिरौ ॥ १६३ ॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६॥
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥१६७॥
ततः सर्वात्मना श्रेष्ठी पुण्यकृत्येषु यत्नवान् । अद्योतयज्जिनाधीशशासनं भानुमानिव ॥ १६४ ॥ जिनदत्तगुरुतत्र चारित्र श्रीपवित्रितः । अन्येद्युः समवासार्षीत् श्रेयोवल्लीसुधाम्बुदः ॥ १६५ ॥ भूपतिस्तत्र प्रणन्तुं तत्पदाम्बुजम् । वृषभश्रेष्ठिमुख्येन पुरीलोकेन संयुतः ॥ १६६ ॥ ववर्ष देशनानीरपूरैः शस्यभरावहैः । सिश्चन् पुण्यद्रुमारामं भव्यक्षेत्रेष्वसौ ततः ॥ १६७॥ यत्कल्याणकरोऽवतारसमयः स्वप्नानि जन्मोत्सवो यद्रत्नादिकवृष्टिरिन्द्ररचिता यद्रूपराज्यश्रियः । यद्दानं व्रतसंपदुज्ज्वलतरा यत्केवलश्रीर्जिने यद्रम्यातिशयस्तदेतदखिलं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ १६८ ॥ मूलं रुचिर्दानमुखाश्चतस्रः शाखा प्रशाखा नियमत्रतानि । पुष्पाणि संपत्प्रकराः फलं तु सिद्धिर्भवेद्धर्मसुरद्रुमस्य ॥ १६६ ॥ सद्दर्शनमयं मूलं हृदि यस्योल्लसेद्दृढम् । तस्यैव धर्मकल्पद्रुः परं न्यक्षात्फलप्रदः ॥ २०० ॥
सम्यक्त्वेन समं सर्वविरतिं यः श्रयेत्सुधीः । तरीत्वाऽसौ भवाम्भोधिं शीघ्र सिद्धिपदं व्रजेत् ॥ २०९ ॥ यतः - उत्कृष्टादेशविरतेः स्थानात्सर्वजघन्यकम् । स्थानं तु सर्वविरतेरनन्तगुणतोऽधिकम् ॥ १ ॥ आजन्माराधितादेशसंयमाद्यत्फलं भवेत् । अन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण तत्पुनः सर्वसंयमात् ॥ २०२ ॥ यतः - एगदिवसंपि जीवो पव्वज्जमुवागओ अनन्नमणो । जइ नवि पावइ मुक्खं अवस्सवेमाणिओ होइ ॥ १ ॥
**********
****************
षष्ठः प्रस्तावः
॥१६७॥
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः
सम्यक्त्व-* कौमुदी
प्रस्तावः
॥१८॥
इत्यादिदेशनां श्रुत्वा सुदण्डो मण्डलेश्वरः । समुद्रवृषभश्रेष्ठिशूरदेवादिभियुतः ॥ २०३॥ श्रीजिनेश्वरचैत्येषु निर्मायाष्टाहिकोत्सवम् । साधर्मिकेषु वात्सल्यं दीनादौ च धनव्ययम् ॥ २०४॥ आदत्ते स्म भवाम्भोधिं समुत्तारतरीमिव । तस्यैव सद्गुरोः पावें गुणाढ्या संयमश्रियम् ॥२०५॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ राश्या विजयया मन्त्रिभार्यया च गुणश्रिया । पद्मश्रीप्रमुखाभिश्च तत्रैव जगृहे व्रतम् ॥ २०६॥ सम्यक्त्वेन युतां केचिर्दोजुश्च द्वादशवतीम् । केऽपि भद्रमनोभावा बभूवुः प्राणिनस्तथा ।। २०७॥ एतजिनेन्द्रधर्मस्य माहात्म्यं सर्वतोऽद्भुतम् । दृष्टा मयाऽपि सम्यक्त्वं प्रपेदे तत्र सुस्थिरम् ॥ २०८॥ गुरुणाऽपि तदादेशि शिक्षेयं मे हितैषिणा । सम्यक्त्व स्थिरताहेतोस्तत्त्वालोककरी यथा ॥ २० ॥ सम्यक्त्वमेवातिदुरापमोक्षलक्ष्मीसमावर्जनहेतुभूतम् । सम्यक्त्वमेवातिदुरन्तदुःखसंसारनि शनदक्षमेकम् ।। २१० ॥
यत्सम्यक्त्वे विशुद्धे व्रजति न नरकं नैव तिया जीवः सन्मानुष्यामरत्वे श्रयति च सुखदे मोक्षसौख्यानुकूले । लब्ध्वा त्यक्तेऽपि चास्मिन् यदि भवति बहुः पुद्गलावर्तकाला
दन्तः संसारवासो न तु पुनरधिकः सर्वथोत्कृष्टतोऽपि ॥ २११ ॥ यद्वन्मूलं तरूणां निधिरिव सुमहानक्षयो वित्तराशेः प्रासादस्येव पीठं मुखमिव वपुषो द्वारवन्मन्दिरस्य । धेयस्याधारवन्धः क्षितिरिव जगतो भाजनं भोजनादेरेवं धर्मस्य पूज्यः प्रथमकमखिलस्येह सम्यक्त्वमुक्तम् ॥२१२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX:0
॥१४॥
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥१६॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
संवेगनिर्वेदशमाभिराममास्तिक्यकारुण्यवरेण्यमेतत् । सद्दर्शनं ये सुधियः श्रयन्ति ते भव्यजीवा जगति प्रसिद्धाः॥२१३ ॥ संवेगसंज्ञा शिवसंपदिच्छा निवेदनामा तु भवाद्विरागः। कृतापराधेऽपि शमः समत्वं दया तु जीवेषु सदाऽनुकम्पाः ॥ २१४ ॥ जीवादितत्वं मनुतेऽखिलं यो जिनोक्तमेवावितथं न चान्यत । स एव चास्तिक्ययुतो मतोत्र शुभेकचेताः परिणामशुद्धः॥ ३१५॥ भद्रे ! त्वयेदं बहुपापकर्मक्षयादवाप्तं खलु बोधिरत्नम् ।
निश्शङ्किताद्यष्टगुणैर्गरिष्ठं यत्नेन धार्य सकलेष्टदायि ॥ २१६ ॥ तथेति प्रतिपद्याहं शिक्षामेतां गुरूदिताम् । प्रणम्य वेश्मनि प्रापं सम्यक्त्वासक्तमानसा ॥ २१७॥
विद्युल्लताप्रोक्तमिदं जिनेन्द्रधर्मस्वरूपं भुवनातिशायि ।
श्रुत्वाऽभ्यधुः सत्यमिदं त्वदुक्तं सम्यक्त्वसारं व्यवहारिमुख्याः ॥ २१८ ॥ एवं सम्यक्त्वसम्भूतं सद्भुतं ललिताद्भुतम् । श्रुत्वा कुन्दलताऽवादीद्दम्भसंरम्भमारिणी ॥ २१ ॥ असत्यं सर्वमप्येतन्नूनं विद्युल्लतोदितम् । किं वारिमथने दृष्टं सर्पिः केनापि कुत्रचित् ? ॥ २२०॥ अहो। कीदृग महाकरो योषितोऽस्या दुराशयः । निग्राह्या तदियं प्रातरिति राजाऽप्यचिन्तयत् ॥ २२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥१६॥
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
सप्तमः प्रस्ताव:
॥२०॥
नृपमन्त्रिमुखाः सर्वे यथास्थानं ततो ययुः । श्रेष्ठयप्या समाप्याथ निद्रासुखमशिश्रियत् ॥ २२२ ॥
इति वृषभचरित्रं पुण्यपीयूषसत्रं श्रवणविषयमेतद्भव्यलोका विधाय ।
सकलभुवनलक्ष्मीभूषणे बोधिरत्ने रमयत निजचेतः पूरिताऽनेकहर्षे ॥ २२३ ॥ इति श्रीसम्यक्त्वकौमुद्यां श्रीतपागच्छनायकश्रीसोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यः पण्डितजिनहर्षगणिभिः कृतायां षष्ठः प्रस्तावः ॥ ६॥ ग्रन्थानम् २४८ ।। अक्षर २६ ॥
॥ अथ सप्तमः प्रस्तावः॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
अथारुणोदये जाते प्रबुद्धो मगधाधिपः। परमेष्ठिपदध्यानं दध्यौ व्याधृतकल्मषः॥१॥ विधाय विधिना देहविशुद्धिं द्विविधामसौ। विदधे श्रीजिनेन्द्राणां पूजां सर्वाघघातिनीम् ॥ २॥ यतःप्रातर्देवार्चनं पात्रदानं दीनानुकम्पनम् । पित्रोभक्तिः कृपालुत्वं प्राज्यपुण्याय पञ्चकम् ॥१॥ आवश्यकानि देवार्चा परमेष्ठिपदस्मृतिः । प्रातःकृत्यानि गीतानि श्रेयोऽयं देहिनां बुधैः॥२॥ सचिवेन समं श्रीमान् श्रेणिकः प्रीणितप्रजः । शक्रावतारचैत्यस्था मूर्तीनत्वा जिनेशितुः ॥३॥ आत्मेव सुकृती देहे श्रेष्ठिगेहे समागमत् । मितसारपरीवारः प्रस्फुरत्पृथुलक्षणे ॥ ४ ॥ युग्मम् ॥ विधाय विधिना सर्वा धाःप्राभातिकीः क्रियाः। अहंदासोऽपि भूपालं कल्पसालमिवाङ्गिनम् ॥ ५ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२०॥
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥२०१॥
**********
स्वगृहाङ्गणमायातं विलोक्य सचिवान्वितम् । प्रतिपत्तिं तथा चक्र े यथा वक्तुं न शक्यते ॥ ६ ॥ युग्मम् ॥ यतःप्रसन्ना दृग् मनः शुद्धं ललिता वाग् नतं शिरः । सहजार्थिष्वियं पूजा विनाऽपि विभवं सताम् ॥ १ ॥ चैत्ये सहस्रकूटाख्ये स्वपित्रैव विनिर्मिते । चन्द्राश्मप्रतिमा जैनीर्नमस्कार्य स कार्यवित् ॥ ७ ॥ तुङ्ग सिंहासने मे निवेश्य च नरेश्वरम् । पुरोऽथ प्राञ्जलीभूय विज्ञप्तिं व्यतनोदिति ॥ ८ ॥ देवाद्य सेवकण्यां लेभे मौलिपदं मया । यत्स्वयं गृहमागत्य त्वया दृग्गोचरीकृतः ॥ ६ ॥
लभ्यन्ते सम्पदः सर्वाः पर्वावलिविभूषिताः । न प्राप्यन्ते परं नेतुः प्रसादमधुरा दृशः ॥ १० ॥ यतः - देव ! सेवकजनः स गण्यते पुण्यवत्सु गुणवत्सु चाग्रणीः । यः प्रसन्नवदनाम्बुजन्मना स्वामिना मधुरमीक्ष्यते दृशा ॥ १ ॥ सप्रसादवदनस्य भूपतेर्यत्र यत्र विलसन्ति दृष्टयः ।
तत्र तत्र शुचिता कुलीनता दक्षता सुभगता च वल्गति ॥ २ ॥ सुधावृष्टिरभूदद्य देव ! सेवकवेश्मनि । यदेतत्सांप्रतं पुण्यं पुनीते ते पदाम्बुजम् ॥ ११ ॥ यतः -
I
अमृतं शिशिरे वह्निरमृतं क्षीरभोजनम् । अमृतं राजसन्मानममृतं प्रियदर्शनम् ॥ १ ॥ तत्प्रसीद प्रभो ! ब्रूहि निजागमप्रयोजनम् । न हि स्वामिन्! जगत्पूज्यो भवान्निर्हेतुतां श्रयेत् ॥ १२ ॥
***************
सप्तमः
प्रस्तावः
॥२०१॥
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
सप्तमः प्रस्तावः
॥२०२॥
इति श्रष्ठिवचः श्रुत्वा भूपतिः प्रीतमानसः । सुधारसमुचा वाचा तं सिसिश्च शुचिस्थितम् ॥ १३ ॥
श्लाघ्यस्त्वमेव महतां महनीयमूर्तिः स्फूर्तिस्तवैव जगतोऽपि हि माननीया।
यस्येशी निजकुटुम्बसमन्वितस्य भक्तिजिनेन्द्र विषये विषयविमुक्ता ॥ १४॥ तथा रजनिवृत्तान्तं कथाकथनसंयुतम् । स तस्मै कथयामास पार्थिवः पृथुपुण्यभृत् ॥१५॥ सर्वा अपि कथाः श्रेष्ठिन्नुदिता भवदादिभिः । श्रुता मया रहःस्थेन सचिवेन समं पुनः ॥१६॥ यया ते कान्तया नैतत् श्रद्दधे तु यथास्थितम् । तां दर्शय दुराचारां कारागारोचितां परम् ॥ १७॥ वचो धर्ममयं प्रोक्तं भर्चा वा श्वशुरेण वा । या योषा नैव श्रद्धत्ते साऽकृत्येव बुधः स्मृता ॥ १८॥ यतःदुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्याश्चान्त(श्चोत्तरदायिनः । ससपेच गृहे वासो मृत्यवे नात्र संशयः॥१॥ अत्रान्तरे समागत्य तत्र कुन्दलता प्रिया । अवादीदिति भूपालं लज्जानम्रवपुलता ॥ १६ ॥ साहं राजन ! महादृष्टा श्रेष्ठिनोऽस्याष्टमी प्रिया । क्षीणाष्टकर्मणां वत्म नानुमन्ये मनागपि ॥ २० ॥ एते कुलक्रमायातं धर्म श्रद्दधते हृदि । मातृमोदकवत्तत्त्वातत्त्वबोधपराङ्मुखाः॥२१॥ पूर्व मिथ्यादृशो वंशे जाता तद्भावभाविता । नाहं यथा तथा मन्ये धर्म सम्यक्त्ववासितम् ॥ २२॥ दृष्टा बाह्यचमत्कार धर्म वाहीकबुद्धिमान् । यथा तथाऽपि रमते तत्स्वरूपानभिज्ञहत् ॥ २३ ॥ विवेकी त्वान्तरं किञ्चित्सम्यग विज्ञाय लक्षणम् । क्षोदक्षम मनः कृत्वा पन्थानं प्रतिपद्यते ॥ २४॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२०२॥
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
सप्तमः प्रस्ताव
॥२०॥
XXXXXXX
XXXXXX*************
धर्मस्य लक्षणं राजन्नान्तरं श्रूयते त्वदः । वैराग्यं विषयेऽप्युच्चैर्व्यवसायः क्रियासु च ॥ २५ ॥ यतः
जत्थ य विसयविरागो कसायचाओ गुणेसु अणुराओ।
किरियासु अप्पमाओ सो धम्मो सिवसुहोवाओ॥१॥ दृष्टा धर्मस्य माहात्म्यं यः फलेन विशेषितम । न प्रशान्तमनाः सम्यग स तु कृत्रिमधर्मवित ॥२६॥ प्रशान्तं मानसं यस्य सर्वाङ्गिषु कृपाऽद्भुता । राजन् ! धर्मस्य सर्वस्वं तेन ज्ञातं यथास्थितम् ॥ २७ ॥ यतः
धर्मे मतिर्भवति किंबहुना श्रुतेन जोवे दया भवति किं बहुभिः प्रदानः।
शान्तं मनो भवति किं बहुभिस्तपोभिर्लोभक्षयो भवति किं क्रतुभिः सहस्रैः॥१॥ तापच्छेदादिभिः शुद्धं यथा हेम निगृह्यते । तथा परीक्ष्य सद्युक्त्या धर्मतत्वं बुधः श्रयेत् ॥ २८ ॥ यतःतापच्छेदकः शुद्धं सुवर्णमिव यद्भवेत् । युक्तिसिद्धान्तसिद्धत्वात्तत्तत्त्वमभिधीयते ॥१॥ मनसा प्रतिपन्नोऽस्ति मार्गो जेनेश्वरो मया । एतत्सम्यक्त्वमाहात्म्यरम्य दृष्टान्तसंश्रुतेः ।। २६ ॥ परमेतन्मनोभावपरीक्षायै मया कृतम् । एतदुक्तकथापीठे खण्डशः खण्डनं विभो! ॥ ३०॥ कुतीर्थिकगणाक्षेपकुतर्कप्रलयानिलैः । कम्पते न मनाग यस्य सम्यक्त्वस्थिरतांघ्रिपः ॥ ३१ ॥ स एव महतां मान्यो भवानिव भवेद्विभो ! । कुरुते च जिनाधीशपदवीमदवीयसीम् ॥३२॥ श्यामिका वा विशुद्धिर्वा यथा वह्नौ परीक्ष्यते । हेम्नस्तथाङ्गिनो वोधिरत्नस्यापि महापदि ॥३३॥
| ॥२०॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
1120811
***********
विषयेभ्यो विरक्तं मे मानसं मानवेश्वर ! सांप्रतं संयमारामं सेवितुं तु समीहते ॥ ३४ ॥ दुर्लभं जन्मकोट्याऽपि ज्ञात्वा जैनेश्वरं वचः । सर्वदुःखहरं यस्तु भुङ्क्ते वैषयिकं सुखम् || ३५ ॥ प्रहाय हा ! सुधापाकं गर्ताशूकरवद्ध्रुवम् । तत्त्वातच्चविमूढात्मा रमतेऽसौ मलवजे || ३६ || विज्ञानस्य फलं राजन्नेतदेव सतां मतम् । दन्दश्यंते न यद् ज्ञाततत्त्वो विषयपन्नगैः ॥ ३७ ॥ ज्ञानवानपि पृथ्वीश ! विषयैर्वाध्यते यदि । क्लिष्टत्वं कर्मणां ज्ञेयं तस्यातीव तदा बुधैः ॥ ३८ ॥ ततो भूपाल ! चारित्रयानपात्रमवाप्य द्राग् । पारं प्राप्तुं भवाम्भोधेरीहेऽहं जिनधर्मवित् ॥ ३६ ॥ अत्रान्तरे समायासीदसीममहिमार्णवः । पञ्चमो गणभृत्तत्र श्रीसुधर्मा मुनीश्वरः ॥ ४० ॥ तदागमनवृत्तान्तसुधासारेण निवृतः । समं श्रेष्ठयादिभिर्लेभे प्रमोदं नृपतिः परम् ॥ ४१ ॥
ततः श्रेष्ठिसखः श्रीमान् श्रेणिकः श्रीगणाधिपान् । नमस्कतु जवादागान्न कार्ये हि बुधोऽलसः ॥ ४२ ॥ प्रपञ्चितप्रणामाय पञ्चाङ्गनतिपूर्वकम् । सश्रेष्ठिने नरेन्द्राय ददुस्ते धर्मदेशनाम् || ४३ ॥ तद्यथासदर्शनज्ञान चरित्ररूपो मार्गों जिनेन्द्रैर्जगदे विमुक्तेः ।
मिथ्यात्वमोहोपशमक्षयाभ्यामाद्यं भवेत्तत्र च पञ्चभेदम् ॥ ४४ ॥
तत्रोपशमिकं राजन् ! क्षायोपशमिकं परम् । क्षायिकं मिश्रमाम्नातं जिनैः सास्वादनं तथा ॥ ४५ ॥ मतिश्रुतावधिज्ञानमनःपर्याय केवलम् । ज्ञानं पञ्चविधं ख्यातं सम्यग्मार्गप्रकाशकम् ॥ ४६ ॥
**********************:***
सप्तमः
प्रस्तावः
॥२०४॥
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥२०५॥
**********
चारित्रं पञ्चधा प्रोक्तं सर्वसावद्यवर्जनम् । आद्यं सामायिकं तत्र छेदोपस्थापनं तथा ॥ ४७ ॥ परिहारविशुद्धयाख्यं सूक्ष्मादिसंपरायकम् । यथाख्यातं त्वशेषस्य कर्मणः क्षयसंभवम् ॥ ४८ ॥ जिनोक्तमिति चारित्रं सर्वदुःखचयावहम् । चिन्तारत्नमिवानर्घ्यं भाग्ययोगादवाप्यते ॥ ४६ ॥ यतःकश्चिन्नृजन्मप्रासादे धर्मस्थपतिनिर्मिते । सद्गुणं विशदं दीक्षाध्वजं धन्योऽधिरोपयेत् ॥ १ ॥ यो जवेन भवाम्भोधि तितरीषति दुस्तरम् । तपस्यातरणी तेनाश्रयणीया गुणाश्चिता ॥ ५० ॥ सम्यक्त्वेन युतोऽप्यङ्गी विना चारित्रसम्पदम् । नाप्नोति केवलज्ञानं मुक्तिश्रीहस्तकोपमम् ॥ ५१ ॥ इत्यादिदेशनां पीत्वा गणभृन्मुखपङ्कजात् । स्माह कुन्दलता नत्वा श्रीगुरु गुरुभक्तिभृत् ॥ ५२ ॥ मृगीव विषयग्राममृगतृष्णा विमोहिता । भ्रामं भ्रामं भवारण्ये श्रान्ताऽस्मि भगवन्नहम् ॥ ५३ ॥ भवत्प्रसादतः प्राप्य व्रतपाथेयमद्भुतम् । समीहे लङ्घितु स्वामिन्नधुना भवकाननम् ॥ ५४ ॥ व्याजहार गणाधीशस्तां संवेगतरङ्गिताम् । भद्रे ! भद्रशतैः प्राप्यः संगतोऽयं मनोरथः ॥ ५५ ॥ यतः - चक्रवर्त्यपि साम्राज्यं त्यक्त्वा पादरजो यथा । सेवितुं संयमारामं यतते यतिसंयुतम् ॥ १ ॥ वाञ्छन्तोऽपि सुपर्वाणश्चारित्रं हि जिनोदितम् । लभन्ते न कदाप्यन्धा इव रत्नमहानिधिम् ॥ २॥ नैवोचितो वत्से ! प्रतिबन्धस्तदाप्तये । न हि पीयूषपानाय विवेकी मन्दति कचित् ॥ ५६ ॥ सप्तक्षेत्रयां ततः सर्वा कृतार्थीकृत्य सम्पदम् । निर्माय जिनगेहेषु विधिनाऽष्टाहिकोत्सवम् ॥ ५७ ॥
****
******
सप्तमः प्रस्तावः
॥२०५॥
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व कौमुदी
सप्तमः प्रस्ताव:
॥२०६॥
प्राणप्रियं प्रियायुक्तं तथा श्रीमगधाधिपम् । क्षमित्वा बहुमानेन मुक्ताशेषपरिग्रहा ।। ५८॥ आददौ संयमं कुन्दलता वैराग्यपूरिता । चक्रे च श्रेष्ठिनाऽप्युच्चैः सानन्देन महोत्सवः ॥ ५६ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ साऽपि चारित्रमासाद्य चिन्तारत्नमिवानलम् । प्रमोदं परमं लेभे निःस्ववद्विश्वपूजितम् ॥६॥ अहँदासो गणाधीशं तदानन्दवशंवदः । कृताञ्जलिः कृतिप्रष्ठं नत्वा पञ्चाङ्गचिवान् ॥ ६१ ॥ सांप्रतं यतिनां धर्म कर्तुं नाहं विभो ! विभुः। कि भारं गजराजाहं वोढुमीष्टे हि गौगलि: १॥ ६२॥ उत्कृष्टश्रावकाचारं कतु मीहाऽस्ति मेऽधुना । तेन प्रसादमाधाय तमाख्याहि क्षमापते ! ॥ ६३॥ श्रुत्वेति श्रेष्ठिनो वाचं वाचंयमपतिर्जगौ । आकर्णय सकर्ण ! त्वं भावभावकलक्षणम् ॥ ६४ ॥ सुरासुरगणाक्षोभ्यसम्यक्त्वव्रतभूषिताम् । पालयन् निरतिचारां विधिना द्वादशवतीम् ॥ ६५ ॥ विशुद्धव्यवहारेण श्रियः प्राप्ताः कृतार्थयन् । क्षेत्रेषु श्रीजिनोक्तेषु व्ययेनार्हद्गृहादिषु ॥ ६६ ॥ त्रिः सृजन् श्रीजिनेन्द्रार्चा द्विरावश्यकतत्परः । सत्पात्रदानयोगेन निरवद्यानभुक्तिमान् ॥ ६७ ।। उपधानतपःपूतं पठन् सिद्धान्तमन्वहम् । तीर्थयात्रापवित्रात्मा साधुसेवारसोदधिः ॥ ६८॥ अतीव विषयासक्तिवर्जी धर्मोनतिप्रदः। सचित्ताहारमुक भीरुः संवासानुमतेरपि ॥६॥ एकादशापि प्रतिमा आराधयति यः सुधीः । साधुकल्पः किलाम्नातः स श्राद्धस्तत्त्ववेदिभिः ॥ ७० ॥
॥ षड्भिः कुलकम् ॥
॥२०६॥
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
Xxx
सम्यक्त्वकौमुदी
सप्तमः प्रस्ताव:
XXXXX
॥२०७॥
XXXXXXXXXXXX
प्रतिमानां विधिस्त्वेवं प्रोक्तः प्राच्यमहर्षिभिः। देवानामपि वन्द्यः स्याद्यासामाराधनाद्गृही ।। ७१॥ धर्म प्रतिपद्य गृही विवेकवान भवसमुत्थःखेभ्यः। निविण्णः संवेगात प्रतिपित्सुः श्रमणधर्ममसौ ॥७२॥ तं सम्यग् विज्ञायालोचयतीदं क्षमोक्षमो वाहम् । कतु मिमं यदि शक्तोऽत्यम्युपगच्छति सुमनस्कत्वम् ॥ ७३ ॥ असहस्तु ततः कुरुते दर्शनप्रतिमादिका जिनाभिहिताः । एकादश सुप्रतिमा विधिना सिद्धान्तदृष्टेन ॥ ७४ ॥
दृष्टि १ व्रत २ सामायिक ३ पौषधरूपा ४ स्तथा परा प्रतिमा ५।
प्रतिमा ब्रह्मासेवन ६ सच्चित्तविवर्जने ७ चान्ये ॥ ७५॥ एताः सप्त चतस्रो भवन्ति शेषाः क्रमेण तास्त्वित्थम् । आरम्भ ८ प्रष्यो ह द्दिष्टवर्जने १० श्रमणभूतत्वे ११॥६॥ संक्षेपेणोद्दिष्टाः प्रतिमा एकादशापि गृहधर्मे । सांप्रतमेकैकस्याः स्वरूपदिग्दर्शनं क्रियते ॥ ७७ ॥ ज्ञाते हि तत्स्वरूपे तदनु च परिशीलिते विधानेन । यतिधर्मशक्तियुक्तोन चेति सम्यग् विजानाति ।। ७८॥ जिनवरपूजाऽभिरतो यतिशुश्रूषापरो दृढो धर्म। दर्शनसंत्रां प्रतिमा प्रथमां प्रतिपद्यते विधिना ॥ ७९ ॥ अस्यां प्रतिपन्नायां न भवत्यनाभोगवानयं धर्म । न विपर्ययवानियतं शुभानुबन्धी निरतिचारः॥८॥ तद्वानेवाणुव्रतपञ्चकसम्यक्समाश्रयणरूपाम् । प्रतिपद्यते द्वितीयां प्रतिमामतिचारनिमुक्ताम् ॥ १॥ इत्युक्तवतरूपाप्रतिमाप्रतिपत्त्यपास्तदुष्कमों। प्रतिपद्यते तृतीया प्रतिमा परमप्रशममहिताम् ॥ २॥ सामायिकमिह पूर्व यदनियतविधानकालमाख्यातम् । तदुभयलन्ध्यं शुद्धं मासत्रयमत्र कर्तव्यम् ॥३॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२०७॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥२०८॥
********
*************:
पौषधमिह पर्वदिने यदहोरात्रं चतुर्विधं प्रोक्तम् । मासचतुष्टयमस्का मुक्त विधानेन तत्कार्यम् ॥ ८४ ॥ पूर्वप्रतिमाविधयुक् पूर्वषु सर्वरात्रिकीं प्रतिमाम् । कुरुते ब्रह्मासेवी दिवसे निशि नियतकृतबारः ॥ ८५ ॥ अस्नातो दिनभोजी मौलिकृतो ज्ञानवांश्च पञ्चभ्याम् । ध्यायति धर्मध्यानं सुनिश्चलः पञ्चमासान् यः ॥ ८६ ॥ पूर्वोदितगुणयुक्तो ब्रह्मासेवी निशास्वपि विमोहः । षण्मासानास्तेऽसौ षष्ठयां त्यक्ताङ्गसंस्कारः ॥ ८७ ॥ सप्तम्यां प्रतिमायां सचेतनाहारवर्जनं कुरुते । मासान् सप्त प्रयतो यावद्विधिसेवनाभिरतः ॥ ८८ ॥ स्वयमारम्भत्यागी पूर्वारब्धान् परैस्तु कारयति । सावद्यान् व्यापारानष्टम्यामष्टमासमसौ ॥ ८ ॥ प्रेष्यैरप्यारम्भं सावद्यं नो विधापयत्येषः । धनवान् संतुष्टो वा पुत्रादिषु निहितगुरुभारः ॥ ६० ॥ स्तोकममत्वपरिणतबुद्धिः संवेगभावितमनस्कः | लोकस्थितिनिरपेक्षो नवमासान् यावदेतस्याम् ॥ ६१ ॥
त्यजति समस्तारम्भं भुक्तेनोद्दिष्टकृतकमाहारम् । क्षुरमुण्डः सशिखो वा प्रागुक्त गुण स्थितो विधिवत् ॥ ६२ ॥ निक्षिप्तार्थं पृष्टः स्वजनैराख्याति यद्यसौ वेत्ति । अवदन्नजात इति वक्ति मासदशकं दशम्यां च । ६३ ॥ अपनीतमृर्धकेशरेण लोचेन वा रजोहरणम् । सपतद्ग्रहं च विभ्रद्विहरति यतिवत्स्पृशद्धर्मम् ॥ ६४ ॥ अनपगतममत्वोऽसौ स्वजनस्थानं प्रयाति तान् द्रष्टुम् । तत्राहारं यावदोषवियुक्तं समादत्ते ॥ ६५ ॥ एवमेकादशानास्ते मासानुत्कृष्टतः स्थितोऽमुष्याम् । एकाहो रात्रिकमथ कालं सर्वास्वपि जघन्यम् || ६६ ॥ सम्यग्दर्शन शीलवतानि विज्ञातधर्ममाहात्म्यः । नापगतोऽपि मुञ्चति गृहाश्रमी कामदेव इव ॥ ६७ ॥
*****
*****************
सप्तमः प्रस्तावः
॥२०८॥
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥ २०६ ॥
***************
गुरोः पार्श्वे मुदितो जिनदत्तभूः । समहं चङ्गसंवेगात्प्रतिमाः प्रतिपन्नवान् ॥ ६८ ॥ ततो गणभृतं त्वा श्रेणिकः श्रेष्ठिना समम् । समाययौ निजावासं व्यहाषु गुरवोऽपि च ॥ ६६ ॥ श्रेष्ठथ स्वगृहं प्राप्य गृहिधर्मधुरन्धरः । चैत्यं कनककूटाभं कनकाद्रिमिवापरम् ॥ १०० ॥ हेममाणिक्यवैडूर्यवर्यविम्बत्र जान्वितम् । सौवर्णकलशश्रेणीवेल्लध्वजविराजितम् ॥ १०१ ॥ विधिना कारयामास विपुलोर्वीधरोपरि । सम्यग्दृष्टिप्रजादृष्टि सर्वदोत्सव संपदे ॥ १०२ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ अर्हते सुते ज्येष्ठे प्रष्ठे धर्मनयाध्वनि । गृहभारं ततो न्यस्य नृपमन्त्रिपुरस्कृते ॥ १०३ ॥ विधिनैकादशाप्येष प्रतिमा नृपशासनात् । सम्यगाराधयामास मेरुवन्निश्चलाशयः ॥ १०४ ॥ युग्मम् ॥ विधाय पात्रसान्नैकाः कोटी हेम्नां यथोचितम् । दीनानाथजनश्रेणीः कृत्वा च मुदिताशयाः ॥ १०५ ॥ श्रेष्ठी गणभृतः पार्श्वे पञ्चमस्य समन्वितः । प्रियाभिर्दलितातङ्कां जगृहे संयमश्रियम् ॥ १०६ ॥ युग्मम् || पालयन्निरतीचारामसौ पञ्चमहाव्रतीम् । अध्यैष्टैकादशाङ्गानि सूत्रार्थोभयतत्त्ववित् ॥ १०७॥ अप्रमत्तगुणस्थानं श्रयन्नैकान्तनिःस्पृहः । काम्यसाम्यसुधाम्भोधिक्रीडच्चेतः सितच्छदः ॥ १०८ ॥ प्रधानेतरते जानन् निश्चयव्यवहारयोः । अपवादोत्सर्गविधिं सर्वत्र परिशीलयन् ॥ १०६ ॥ गुप्तित्रयपवित्रात्मा निष्णातः समितिस्थितौ । अभ्युद्यतमतिर्नित्यं तपसि द्वादशात्मनि ॥ ११० ॥ आराध्य संयमं शुद्धमईद्दासो महामुनिः । मासिकानशनेन श्रीसंमेतशिखरोपरि ॥ १११ ॥
****
********
8
सप्तमः प्रस्तावः
॥ २०६॥
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥२१०॥
****
समाधिना शुभध्यानी त्रिज्ञानी निर्ममाग्रणीः । सर्वार्थसिद्धे देवोऽभूद्विमाने सततोदितः ॥ ११२ ॥ चारित्ररत्नमाहात्म्यात् श्रेष्ठिनो दयिता अपि । वैमानिकसुरीभावं प्रापुस्तापोज्झिताशयाः ॥ ११३ ॥ अर्हद्द सुरश्च्युत्वा ततः स्वदयितान्वितः । श्लाघ्यां राज्यश्रियं प्राप्य श्रविष्यति शिवश्रियम् ॥ ११४ ॥ सम्यक्त्वव्रतमाहात्म्यसुवर्णनिकषोपलः । अर्हद्दासगृहस्थस्य सकलत्रस्य भूपते ! ॥ ११५ ॥ सद्दर्शनस्थिरीकारहेतवे भवतोऽखिलः । दृष्टान्तोऽयं मयाऽऽख्यायि विख्यातः क्षितिमण्डले ।। ११६ ॥
प्रतिपतिः सम्यक्त्वकौमुदीम् । संमदी कौमुदीशाभं कृत्वा हन्मोहमुक्तितः ॥ ११७ ॥ सदर्शन महारत्नं गुरुरत्नाकरात्ततः । आदत्ते स्ववशीकारकारणं निवृतिश्रियः ॥ ११८ ॥ युग्मम् ॥ सूर्यसुहस्त्येवं तस्मै सद्दृष्टये तदा । सम्यषतत्त्वविशुद्धयर्थं विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ११६ ॥ भवा जन्तोरनन्ताः स्युनृ भवः श्लाध्यते परम् । सुखत्रियो यदर्ज्यन्तेऽमुना स्वर्गापवर्गयोः ॥ १२० ॥ एष एव पुमर्थानां हेतुत्वेन महात्मतः । तैर्विना तेन किं कार्यं गणनापूरणात्मना १ ॥ १२१ ॥
सवर्ण्यः पुरुषो यस्मिन् पुमर्थाः स्युरबाधया । शाखी स एव सेव्यो यः पत्रपुष्पफलादियुग् ॥ १२२ ॥ धर्मार्थकाममोक्षास्ते चत्वारः प्रथिताः सताम् । किंत्वर्थकाममोक्षाणां निदानं धर्म एव हि ॥ १२३ ॥ तस्मात्सर्वपुमर्थानां धर्मो बीजमिति ध्रुवम् । मन्वानैरमलज्ञानैर्जनैः सेव्योऽयमादरात् ॥ १२४ ॥ यतःपुमर्थसंसाधनमन्तरेण, पशोरिवायुर्विफलं नराणाम् ।
*****
**************
सप्तम : प्रस्ताव:
॥२१० ॥
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्व
कौमुदी
॥२११ ।।
**************************
तत्रापि धर्मं प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद्भवतोऽर्थकामौ ॥ १ ॥ अमु वृद्ध शुद्धबुद्धिभिंगृहमेधिभिः । विज्ञाय पालनीयानि व्रतानि द्वादशापि हि ॥ १२५ ॥ यथा गुणानामौचित्यं तपसां च क्षमा यथा । तथा व्रतानां सर्वेषां सदृष्टिर्जीवितं परम् ॥ १२६ ॥ मित्रातारादिभिर्भ दरष्टधा दृष्टयः स्मृताः । यथावस्थितवस्तूनां सम्यग् बोधिनिबन्धनम् ॥ १२७ ॥ यतः - मित्रा १ तारा २ बला ३ दीप्रा ४ स्थिरा ५ कान्ता ६ प्रभा ७ परा ८ । नामानि तत्त्वदृष्टीनां लक्षणं च निबोधतः ॥ १ ॥
यथा प्रवृत्तकरणत्रान्ते स्वल्पमलस्थितौ । आसन्नग्रन्थिभेदस्य प्राणिनः प्रथमा भवेत् ॥ १२८ ॥ यतः -
अपूर्वकरणाया सम्यक्त स्वरुचिप्रदा । अल्पव्याधेरिवान्नस्य रुचिचत्तत्त्ववस्तुषु ॥ १ ॥ अल्पाधि लोके द्विकारैर्न बाध्यते । चेष्टते चेष्टसिद्धयर्थं वृत्यैवायं तथा हि ते ॥ १२६ ॥ मनाक् सद्दर्शने स्पष्टे धर्मकार्योद्यमात्मनि । ताराख्या जायते दृष्टिस्तत्त्वजिज्ञासया श्रिता ॥ १३० ॥ यतः— तारायां तु मनाक् स्पष्टं नियमश्च तथाविधः । अनुद्वेगो हितारम्भे जिज्ञासा तत्त्वगोचरा ॥ १ ॥ परा सतत्त्वशुश्रूषा दृढं सद्दर्शनं यदा । अक्षेपश्च क्रियायोगे बला दृष्टिस्तदा भवेत् ॥ २ ॥ नास्माकं शेमुषी शुद्धा न भूयात् शास्त्रसङ्ग्रहः । मन्यतेऽस्यां स्थितो जीवः प्रमाणं जिनगीः परम् ॥ १३१ ॥ सुस्थिराणीन्द्रियाण्यस्यां चेष्टाः सर्वाः शमात्मिकाः । अनुत्सेकोऽखिले कार्ये गुणवत्सु महादरः ।। १३२ ॥
****
सप्तमः
प्रस्तावः
| ॥२११ ॥
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः
सम्यक्त्वकौमुदी
प्रस्ताव:
॥२१२॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
शश्वद्धर्मोद्यमो यस्य सूक्ष्मबोधविवर्जितः । परा च तत्त्वशुश्रुषा तस्य दीपा भवेदसौ ॥ १३३ ॥ प्राणेभ्योऽपि गुरुधमः सत्यामस्यामसंशयम् । प्राणांस्त्यजति धर्मार्थ न धर्म प्राणसंकटे ॥ १३४ ॥ सम्यग्ज्ञानक्रियासारं रत्नज्योतिरिवामलम् । तत्त्वश्रद्धानमाम्नातं स्थिरायां निष्कषायकम् ॥ १३५ ।। सदनुष्ठानकृत्येषु स्वयं शक्त्या प्रवर्तते । असद्ग्राहविनिमुक्तो जन्तुरस्यां प्रकीर्तितः ॥ १३६ ॥ तारोद्योतोपमा तत्त्वश्रद्धा बह्वथदीपिनी । सम्यक्त्वाणुरसास्वादवती कान्ता दृगुच्यते ।। १३७ ॥ भास्वत्प्रकाशसंकाशा रुचिस्तत्त्वेषु निश्चला । निरस्तकुमतध्वान्ता प्रभादृष्टिरिहोदिता ॥ १३८॥ स्मृतेन्दूदयसंकाशा सम्यक्तत्त्वरुचिः परा । दृष्टिः सर्वात्मना शान्तकषायविषयोदया ॥ १३६ ॥ यतःतन्नियोगान्महात्माह कृतकृत्यो यथा भवेत् । यथाऽयं धर्मसंन्यासविनियोगान्महामुनिः॥१॥ द्वितीयापूर्वकरणे मुख्योऽयमुपजायते । केवलश्रीस्ततश्चास्य निःसपत्ना सदोदया ॥१४॥ सत्कृत्यानि करोत्येवं तद्विशुद्धिकृते कृती। यन्निमित्तस्य नेमल्याकार्य नेमल्यमाश्रयेत ॥ १४१ ॥
रम्याणि चैत्यानि जिनेश्वराणां बिम्बानि सद्वर्णमनोहराणि । पूजाप्रतिष्ठोत्सवतीर्थयात्रासुश्राद्धवात्सल्यगुणानुरागः ॥ १४२॥ सुसाधुभक्तिः कुमताद्विरक्तिः प्रभावना श्रीजिनशासने च । सदृष्टिनैर्मल्यकराण्यमूनि तीर्थङ्कराणामपि संपदे स्युः ॥ १४३ ॥
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२१२॥
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
सप्तमः प्रस्ताव:
॥२१३॥
EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
प्रभावादस्य जायन्ते देवाः सेवाभृतो नृणाम् । स्निह्यन्ते जगतः पूज्याः संपदस्तु सदोदयाः॥ १४४॥ निशम्यैवं विभुः पृथ्व्यात्रिखण्डपरमेश्वरः । उद्वहन प्राज्यसाम्राज्यं स्वाराज्यमिव वासवः ॥ १४५ ॥ दत्तप्रसादैः प्रासादैः षट्खण्डार्धमहीमिमाम् । अखण्डां मण्डयामास जिनेन्द्रप्रतिमाद्भुतैः ॥ १४६ ॥ अहंदासकथामिमा निरुपमा धर्मानुभावश्रिया श्रुत्वा श्राद्धजना घनातिमथनीं नानोपदेशामृतैः। सम्यक्त्वे विविधव्रतालिसफलीकारेकसारात्मनि स्वान्तं स्वं रचयन्तु निश्चलतमं हर्षप्रकर्षप्रदे ॥ १४७ ।।
॥ इति श्रीसम्यक्त्वकौमुद्यां श्रीतपागच्छनायकश्रीसोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरिश्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यः पण्डितजिनहर्षगणिभिः कृतायां सप्तमः प्रस्तावः ।। ७ ।। ग्रन्थाग्रम् ।। १७६ ॥
॥ अथ प्रशस्तिः ॥ तपोगच्छेऽभवद्भूम्ना महिम्ना विश्वविश्रुतः । जगचन्द्रगुरुः श्रीमान् सम्यग्ज्ञानक्रियानिधिः ॥ १॥ . श्रीदेवेन्द्रगुरुस्तस्य पट्टेऽभूत्प्रकटप्रभः । यद्देशनासमाजेऽभूद्वस्तुपालः सभापतिः ॥ २ ॥ तच्छिष्याः क्षितिविख्याता विद्यानन्दमुनीश्वराः । अजायन्त जगत्पूज्या ज्यायोज्ञानक्रियागुणैः ॥ ३ ॥ तत्पट्टोदयभास्वानासीनिस्सीमतेजस राशिः। श्रीधर्मघोषगणभृत सच्चक्रानन्दिगोविभवः ॥ ४ ॥ ततश्चश्रीसोमप्रभ इत्यासीत्सूरिः सीमा महात्मनाम् । व्यधाद्विगौतमं वीरशासनं यो युगोत्तमः । ५॥ ततः शतक्रतुस्तुत्यः श्रीसोमतिलकाहयः। सूरिभू रियशा जज्ञे विशेषु प्रथितो धुरि ॥ ६ ॥
KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
॥२१३॥
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
सप्तमः प्रस्ताव:
॥२१४॥
XXXXXXXXX
XXXXXXXXXXXXXXXXX
श्रीदेवसुन्दरगुरुगरिमाम्बुराशिवित्रासितारिरभवद्भुवनातिशायी । तत्पट्टपङ्कजरविः पविपाणितेजा भूजानिवन्दितपदः शिवमार्ग दर्शी ॥ ७ ॥ सूरियु गोत्तमसमोऽजनि तस्य पट्टे श्रीसोमसुन्दरगुरुगुरुभाग्यशाली।
यं श्रीसुधर्मगुरुणा गणभृत्पुरोगं सर्वाङ्गचङ्गिमगुणैस्तुलयन्ति सन्तः ॥॥ तच्छिष्यः प्रथमः समर्थमहिमा त्रैविद्यगोष्ठीगुरुः, सूरिः श्रीमुनिसुन्दरः सुरगुरुः ख्यातः क्षितौ प्रज्ञया । अस्ति प्रास्ततमोभरस्तदपरः सूरिस्तु भूरिप्रभाशाली श्रीजयचन्द्र इत्यभिधया सर्वत्र लब्धोदयः ।। ३ ।। जिनहर्षगणिः शिष्यः श्रीजयचन्द्रसद्गुरोः। विदधे श्लोकबन्धेन सम्यक्त्वकौमुदीमिमाम् ॥ १० ॥
मुनिवसुसागरसितकर १४८७ मितवर्षे निजपरोपकाराय ।
कृत्वा मयि प्रसादं शोध्याऽसौ सूरिभिः प्रवरः॥ ११ । युग्मम् ॥ द्विसहस्रथष्टपञ्चाशदधिकाष्टशतानि च । अस्यां सम्यक्त्वकौमुद्यां श्लोकानां सर्वसंख्यया ॥ १२॥
॥ ग्रन्थाग्रम् २८५८ ॥ श्रीरस्तु ।। Kkkkkkkkkkkkxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
॥ समाप्तोऽयं सम्यक्त्वकौमुदीनामा ग्रन्थः ॥ XKKKKKKKKKKKKKKKKKKKKKkkkkkkkkkk
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
XXXXX
॥२१४॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वकौमुदी
॥ शुद्धिपत्रकम् ॥
शुद्धिपत्रक
पृष्ठं
पंक्तिः
॥२१॥
अशुद्धं स्नाक्षुस्ते वेश्यमनि
४६
XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
पृष्ठं पंक्तिः अशुद्ध ९८ द्यति १५ ४ था
विधेयः • कारिणम् ०ध्याम० मवेद् वैर० चाचत्यो एव० ०रुमत्ता मृतिका बलभारोग्यं सत्कम०
0020664020
०द्युतिः तथा विधेयः ०कारिणीम् ०ध्यात्म भवेद् वैरि० चाचख्यौ एत० ०रुत्तमा ०मृत्तिका बलमारोग्यं सत्कर्म ।
१४५ १४७
299 mr..
शुद्धम् श्राक्षुस्ते वेश्मनि स्नेह झटित्यु ०मश्नुते सप्त शुक्शवृत्ति प्रतिमा ०स्तत्रादाय पद्मसौरभा ३०३ रूपं चतुर्विधम्
झटिस्त्यु ०मश्रुते सम्प्त शुक्लबत्ति प्रतिमा ०स्त्रतादाय पचासौरभा ३०२ रूवं चतुविधम्
१७२ १७८
॥२१५॥
१८०
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________ 米米米米米米米米米米张张来来来来来来来来来来来张瑞 张家张张张张张张张张张张张张张张张张张张※※※※※