Book Title: Samvayang Sutram
Author(s): Jambuvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्गसूत्रम् आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितवृत्तिविभूषितम् सम्पादक: संशोधकश्च पूज्यपादमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः विजय जीनश्रुतसद्धारपामाल परामालायां षइविंशतितमपद्यम् प्रकाशकः श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट, मुंबई-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवरणविभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्पराऽऽयातं श्री समवायाङ्गसूत्रम् आद्यसंशोधका आगमप्रभाकराः पूज्यपादमुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाराजाः सम्पादक: पुन: संशोधकच पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यरत्नपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः सहायकाः मुनिराजश्रीधर्मचन्द्रविजय-पुण्डरीकरत्नविजय-धर्मघोषविजय-महाविदेहविजया: पंन्यासपद्मविजयपुण्यस्मृतौ दीनश्रुतसमुद्धारपद्ममाल - वि.सं. २०६४ वीर सं.२५३४ पविशतितमपद्मम प्रकाशकः श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट, दु-५, बद्रिकेश्वर सोसायटी, नेताजी सुभाष रोड, मरीनड्राइव 'इ' रोड, मुंबई-२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दिव्यकृपा सिद्धान्तमहोदधि-कर्मसाहित्यनिष्णात-आचार्यदेवेशश्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वराः न्यायविशारद-वर्धमानतपोनिधि-आद्यशिबिरप्रणेतृ-आचार्यदेवेशश्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वराः समतासागर-पंन्यासप्रवर- श्री पद्मविजयगणिवराः आज्ञा-आशीः सिद्धान्तदिवाकर-गच्छाधिपति श्रीविजय जयघोषसूरीश्वराः * प्रेरकाः वैराग्यदेशनादक्ष - श्रीसीमंधरजिनोपासकाचार्यदेवेश श्रीविजयहेमचन्द्रसूरीश्वराः श्रुतसर्जनसुकृतप्रशस्तिः श्रीसुधर्मस्वामिगणधरगुम्फित-श्रीमदभयदेवसूरिविवरणविभूषितानां श्रीसमवायाङगसूत्राणं प्रकाशने प. पू. पंन्यास - मुक्तिवल्लभविजयगणि-मुनिश्रीमेघवल्लभविजयगणि-मुनिश्रीउदयवल्लभविजयगणि-मुनिश्रीहृदयवल्लभविजयगणिवराणां प्रेरणया द्रव्यसहायक: श्री - प्रेमवर्धक - जैन श्वे. मू. पू. सङ्घः, पालडी तस्मै शतशः साधुवादः श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट: मुद्रक श्री पार्श्व कोम्प्युटर्स, 58 पटेल सोसायटी, जवाहर चोक, मणिनगर, अमदावाद. फोन : 079-25460295 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं समवाए ? श्रीसुधर्मस्वामिगणधरनिरूपितमभयदेवसूरिविवृत्तमिदं तुर्यागं नैकगभीरभावावभासनभासुरभास्करायमानं भविष्यति भविकात्मनां भव्यणिबन्धनमिति सहर्षं पुनः प्रकाश्यते। चतुस्त्रिंशदतिशयज्ञापकं पारमर्षमिदमिति त्वद्यतनबालानामपि श्रीपद्मविजयकृतश्रीयुगादिदेवस्तोत्रतः प्रसिद्धम् । पुण्यावसरेऽस्मिन् पूर्वप्रकाशकाः श्रीसिद्धिभुवनमनोहरजैनट्रस्ट -श्रीजैन आत्मानन्दसभासभ्या एवं सम्पादकाः संशोधकाश्च बहुश्रुतमुनिवरा: श्रीजम्बूविजया अप्यनल्पधन्यवादार्हाः । सार्धत्रिशतप्राचीन श्रुतसमुद्धारप्रेरकाणां वैराग्यदेशनादक्षाणामाचार्यदेवश्रीमद्विजयहेमचन्द्रसूरीश्वराणां पुण्यप्रेरणया समतासागरपंन्यासप्रवरश्रीपद्मविजयगणिवराणां शुभस्मृतौ श्रीजिनशासन आराधना - ट्रस्टग्रथितायां श्रीप्राचीनश्रुतसमुद्धारपद्ममालायां षड्विंशतितमं पद्ममिदं सानन्दं समर्पयामः श्रीश्रमणसङ्घायेति शम् । एतद्ग्रन्थस्वामित्वं श्रीजैन श्वेताम्बरमूर्तिपूजकतपागच्छसङ्घस्यैव । एतद्ग्रन्थपठनपाठनाधिकारी कृतयोगोद्वहनगुर्वाज्ञाप्राप्तमुनिरेव । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतसमुद्धारक १. भानभाई नानजी गडा, मुंबई (प्रेरक : प.पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरि म.सा.) २. शेठ आनंदजी कल्याणजी, अमदावाद ३. श्री शांतिनगर श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, अमदावाद (प्रेरक : प.पू. तपसम्राट आचार्यदेव श्रीमद्विजय हिमांशुसूरि म.सा.) ४. श्री श्रीपालनगर जैन उपाश्रय ट्रस्ट, वालकेश्वर, मुंबई (प्रेरक : प.पू. ग. आ. रामचंद्रसूरि म.सा. नी दिव्यकृपा तथा पू. आचार्यदेव श्रीमद्विजय मित्रानंद सू. म.सा.) ५. श्री लावण्य सोसायटी श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, अमदावाद (प्रेरक : प.पू. पंन्यासजी श्री कुलचंद्रविजयजी गणिवर्य) ६. नयनबाला बाबुभाई सी. जरीवाला हा. चंद्रकुमार, मनीष, कल्पनेश (प्रेरक : प.पू. मुनिराजश्री कल्याणबोधि विजयजी म.सा.) ७. कशरबन रतनचद कोठारी हा. ललितभाई (प्रेरक : प.पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराज) ८. श्री श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छीय जैन पौषधशाला ट्रस्ट, दादर, मुंबई ९. श्री मुलुंड श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, मुलुंड, मुंबई (आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म.सा. की प्रेरणा से) १०. श्री सांताक्रुज श्वे. मूर्ति. तपागच्छ संघ, सांताक्रुज, मुंबई (प्रेरक : आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म.सा.) ११. श्री देवकरण मूलजीभाई जैन देरासर पेढी, मलाड (वेस्ट), मुंबई (प्रेरक : प.पू. मुनिराजश्री संयमबोधि वि. म.सा.) १२. संघवी अंबालाल रतनचंद जैन धार्मिक ट्रस्ट, खंभात (पू.सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी म. तथा पू.सा. श्री स्वयंप्रभाश्रीजी म. तथा पृ.सा.श्री दिव्ययशाश्रीजी म. की प्रेरणा से मूलीबेन को आराधना की अनुमोदनार्थे) १३. बाबु अमीचंद पन्नालाल आदीश्वर जैन टेम्पल चेरीटेबल ट्रस्ट, वालकेश्वर, मुंबई-४०००० ६. (प्रेरक. पू. मुनिराजश्री अक्षयबोधि विजयजी म.सा. तथा पू. मुनिराजश्री महाबोधि विजयी म.सा. तथा पू. मुनिराजश्री हिरण्यबोधि विजयजी म.सा.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. श्री श्रेयस्कर अंधेरी गुजराती जैन संघ, मुंबई (प्रेरक पू. मुनिश्री हेमदर्शन वि. म. तथा पू. मुनिश्री रम्यघोष वि. म. ) १९५. श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ, मंगल पारेखनो खांचो, शाहपुर, अमदावाद (प्रेरक : प.पू. आचार्यदेव श्री रूचकचंद्र सूरि म. ) १६. श्री पार्श्वनाथ श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ, संघाणी इस्टेट, घाटकोपर (वेस्ट), मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिराजश्री कल्याणबोधि विजयजी म.सा. ) १७. श्री नवजीवन सोसायटी जैन संघ, बोम्बे सेन्ट्रल, मुंबई : पू. मुनिराजश्री अक्षयबोधि वि. म. ) (प्रेरक १८. श्री कल्याणजी सोभागचंदजी जैन पेढी, पींडवाडा. (प्रेरक अनुमोदनार्थे) १२. श्री घाटकोपर जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ, घाटकोपर (वेस्ट), मुंबई ( प्रेरक : वैराग्यदेशनादक्ष पू. आ. श्री हेमचंद्रसूरि म.सा. ) सिद्धांतमहोदधि स्व. आ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. ना संयमनी २०. श्री आंबावाडी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, अमदावाद पू. मुनि श्री कल्याणबोधि वि. म. ) ( प्रेरक २१. श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, वासणा, अमदावाद २ ( प्रेरक : पू. आचार्य श्री नररत्नसूरि म. ना संयमजीवननी अनुमोदनार्थे पूज्य तपस्वीरत्न आचार्य श्री हिमांशुसूरीश्वरजी म.सा. ) २२. श्री प्रेमवर्धक आराधक समिति, धरणिधर देरासर, पालडी, अमदावाद ( प्रेरक : पू. गणिवर्य श्री अक्षयबोधि विजयजी म. ) २३. श्री महावीर जैन श्वे. मूर्तिपूजक संघ, पालडी, शेठ केशवलाल मूलचंद जैन उपाश्रय, अमदावाद. (प्रेरक : प.पू. आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि महाराज सा . ) २४. श्री माटुंगा जैन श्वे. मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ अन्ड चेरिटीज, माटुंगा, मुंबई २५. श्री जीवीत महावीरस्वामी जैन संघ, नांदिया ( राजस्थान ) ( प्रेरक : पू. गणिवर्य श्री अक्षयबोधि विजयजी म.सा. तथा मुनिश्री महाबोधि विजयजी म.सा. ) २६. श्री विशा ओसवाल तपगच्छ जैन संघ, खंभात ( प्रेरक वैराग्यदेशनादक्ष प.पू. आचार्यदेव श्री हेमचंद्रसूरि म.सा. ) २७. श्री विमल सोसायटी आराधक जैन संघ, बाणगंगा, वालकेश्वर, मुंबई : - ४०० ००७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. श्री पालिताणा चातुर्मास आराधना समिति (प्रेरक : परम पूज्य वैराग्यदेशनादक्ष आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब संवत २०५३ के पालिताणा में चातुर्मास प्रसंग पर ज्ञाननिधि में से) २९. श्री सीमंधर जिन आराधक ट्रस्ट, अमरल्ड एपार्टमेन्ट, अंधेरी (ईस्ट), मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री नेत्रानंद विजयजी म.सा.) ३०. श्री धर्मनाथ पोपटलाल हेमचंद जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, जैन नगर, अमदावाद (प्रेरक - मुनिश्री संयमबोधि वि. म.) ३१. श्री कृष्णनगर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, सैजपुर, अमदावाद (प्रेरक : प.पू. आचार्य विजय हेमचंद्रसुरीश्वरजी म.सा. ना कृष्णनगर मध्ये संवत २०५२ के चातुर्मास निमित्त प.पू. मुनिराजश्री कल्याणबोधि विजय म.सा.) ३२. श्री बाबुभाई सी. जरीवाला ट्रस्ट, निजामपुरा, वडोदरा ३३. श्री गोडी पार्श्वनाथजी टेम्पल ट्रस्ट, पुना (प्रेरक : पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. तथा पू. मुनिराजश्री महाबोधि विजयजी म.सा. ) ३४. श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट, भवानी पेठ, पुना. (प्रेरक : पू. मुनिराज श्री अनंतबोधि विजयजी म.सा.) ३५. श्री रांदेर रोड जैन संघ, सुरत (प्रेरक : पू.पं. अक्षयबोधि विजयजी म.सा.) ३६. श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ दादार जैन पौषधशाला ट्रस्ट, आराधना भुवन, दादर, मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री अपराजित विजयजी म.सा.) ३७. श्री जवाहर नगर जैन श्वे. मूर्तिपूजक संघ, गोरेगाव, मुंबई __ (प्रेरक : पू.आ. श्री राजेन्द्रसूरि म.सा.) ३८. श्री कन्याशाला जैन उपाश्रय, खंभात (प्रेरक : पू.प्र.श्री रंजनश्रीजी म.सा. पू.प्र. श्री इंद्रश्रीजी म.सा. के संयमजीवन के अनुमोदनार्थे ___प.पू.सा. श्री विनयप्रभाश्रीजी म.सा. तथा प.पू.सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी म.सा. तथा साध्वीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी म.सा.) ३९. श्री माटुंगा जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ अन्ड चेरीटीज, माटुंगा, मुंबई (प्रेरक : पू. पंन्यासप्रवर श्रीजयसुंदरविजयजी गणिवर्य) ४०. श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, ६० फुट रोड, घाटकोपर (ईस्ट) (प्रेरक : पू.पं.श्री वरबोधिविजयजी गणिवर्य) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. श्री आदिनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, नवसारी (प्रेरक : प.पू.आ. श्री गुणरत्नसूरि म. के शिष्य पू. पंन्यासजी श्री पुण्यरत्नविजयजी गणिवर्य तथा पू.पं. यशोरत्नविजयजी गणिवर्य) ४२. श्री कोईम्बतूर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, कोईम्बतूर ४३. श्री पंकज सोसायटी जैन संघ ट्रस्ट, पालडी, अमदावाद (प.पू. आ. श्री भुवनभानुसूरि म.सा. के गुरुमूर्ति प्रतिष्ठा प्रसंग हुए आचार्य-पन्यास-गणि पदागहण दिक्षा वगैरे निमित्ते ज्ञाननिधि में से हुए) ४४. श्री महावीरस्वामी जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक देरासर, पावापुरी, खेतवाडी, मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिश्री राजपालविजयजी म.सा. तथा पू.पं. श्री अक्षयबोधिविजयजी म.सा.) ४. श्री हीरसूरीश्वरजी जगद्गुरु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ ट्रस्ट, मलाड (पूर्व), मुंबई ४६. श्री पार्श्वनाथ श्वे. मूर्ति. पू. जैन संघ, संघाणी ईस्टेट, घाटकोपर (वेस्ट), मुंबई (प्रेरक : गणिवर्यश्री कल्याणबोधि वि. म.) । ४७. श्री धर्मनाथ पोपटलाल हेमचंद जैन श्वे. .मू.पू. संघ जैन नगर, अमदावाद (पू. मुनिश्री सत्यसुंदर वि. के प्रेरणा से चातुर्मास में ज्ञाननिधिमें से) ४८. रतनबेन वेलजी गाला परिवार, मुलुंड - मुंबई (प्रेरक : पू. मुनिश्री रत्नबोधि विजयजी) ४९. श्री मरीन ड्राईव जैन आराधक ट्रस्ट, मुंबई ५०. श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ जैन देरासर उपाश्रय ट्रस्ट, बाबुलनाथ, मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री सत्वभूषण विजयी) १. श्री गोवालीया टेंक जैन संघ, मुंबई (प्रेरक : गणिवर्यश्री कल्याणबोधि वि.) ५२. श्री विमलनाथ जैन देरासर आराधक संघ, बाणगंगा. मुंबई ५३. श्री वाडीलाल साराभाई देरासर ट्रस्ट प्रार्थना समाज, मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री राजपालविजयजी तथा पं. श्री अक्षयबोधि विजयजी गणिवर) ५४. श्री प्रीन्सेस स्ट्रीट, लुहार चाल जैन संघ (प्रेरक : गणिवर्य श्री कल्याणबोधि वि.) ५५. श्री धर्मशांति चेरीटेबल ट्रस्ट, कांदिवली (ईस्ट), मुंबई (प्रेरक : मुनिश्री राजपाल विजयजी तथा पं. श्री अक्षयबोधि विजयजी गणिवर) ५६. साध्वीजी श्री सुर्ययशाश्रीजी तथा सुशीलयशाश्रीजीना पार्ला (ईस्ट) कृष्णकुंज में हुए चातुर्मास की आवक में से ५७. श्री प्रेमवर्धक देवास श्वे. मूर्तिपूजक जैन संघ, देवास, अमदावाद (प्रेरक : पू.आ. श्री हेमचंद्रसूरिजी म.) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. श्री पार्श्वनाथ जैन संघ, समारोड, वडोदरा (प्रेरक : पंन्यासी श्री कल्याणबोधिविजयजी गणिवर्य) ५९. श्री मुनिसुव्रतस्वामी जैन देरासर ट्रस्ट, कोल्हापुर (प्रेरक : पू. मुनिराज श्री प्रेमसुंदर विजयी) ६०. श्री धर्मनाथ पो. हे. जैन नगर श्वे. मू.पू. संघ, अमदावाद (प्रेरक - पू. पुण्यरति विजयजी महाराजा) ६१. श्री दिपक ज्योति जैन संघ, कालाचोकी, परेल, मुंबई (प्रेरक - पू.पं. श्री भुवनसुंदर विजयजी गणिवर्य तथा पू.पं. श्री गुणसुंदर विजयजी गणिवर्य) ६२. श्री पद्ममणि जैन श्वेतांबर तीर्थ पेढी - पाबल, पुना (प्रेरक : पं. कल्याणबोधि विजयजी के वर्धमान तप सो ओलीनी अनुमोदनार्थे, पं. विश्वकल्याण विजयजी) ६३. ओमकार सूरीश्वरजी आराधना भुवन - सुरत (प्रेरक : आ. गुणरत्नसूरि म. ना शिष्य मुनिश्री जिनेशरत्नविजयजी म.) ६४. श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ, नायडु कोलोनी, घाटकोपर (ईस्ट), मुंबई ६५. श्री आदीश्वर श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ, गोरेगाव ६६. श्री आदीश्वर श्वेतांबर ट्रस्ट, सालेम (प्रेरक : पू. गच्छाधिपति आ. जयघोषसूरीश्वरजी म.सा.) ६७. श्री गोवालिया टेंक जैन संघ. मुंबई ६८. श्री विलेपारले श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ अन्ड चेरिटीझ. विलेपार्ले (पूर्व), मुंबई ६९. श्री नेन्सी कोलोनी जैन श्वे.मू.पू. संघ, बोरीवली मुंबई ७०. मातुश्री रतनबेन नरसी मोनजी सावला परिवार । (प.पू. श्री कल्याणबोधि वि. ना शिष्य मुनि भक्तिवर्धन वि. म. तथा सा. जयशीलाश्रीजी के संसारी सुपुत्र राजनजी के पुण्यस्मृति निमित्ते हः सुपुत्रो नवीनभाई, चुनीलाल, दिलीप. हितेश) ७१. श्री सीमंधर जिन आराधक ट्रस्ट, अमरल्ड एपार्टमेन्ट, अंधेरी (ई) (प्रेरक : प.पू. श्री कल्याणबोधी विजयजी गणिवर्य) ७२. श्री धर्मवर्धक श्वे. मूर्तिपूजक जैन संघ, कार्टर रोड नं.१, बोरीवली (प्रेरक : प.पू. वैराग्यदेशनादक्ष आचार्य भगवंत श्री विजय हेमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. तथा पंन्यासप्रवर श्री कल्याणबोधी विजयजी गणिवर्य) ७३. श्री उमरा जैन संघनी श्राविकाओ (ज्ञाननिधि में से) (प्रेरक : प.पू. मुनिराजश्री जिनेशरत्न विजयजी म.सा.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. श्री केशरीया आदिनाथ जैन संघ, झाडोली राज. (प्रेरक प. पू. मु. श्री मेरुचंद्र वि. म. तथा पं. श्री हिरण्यबोधि वि.ग.) ७५. श्री धर्मशांति चेरीटेबल ट्रस्ट, कांदीवली, मुंबई ( प्रेरक : प.पू. मुनिराजश्री हेमदर्शन वि.म.सा.) ७६. श्री जैन श्वे. मू. सुधाराखाता पेढी, महेसाणा ७७. श्री विक्रोली संभवनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, विक्रोली (ईस्ट), मुंबई के आराधक बहनों की तरफ से ( ज्ञाननिधि) ७८. श्री के.पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट, सुरत, मुंबई ( प्रेरक : प.पू. वैराग्यदेश के दक्ष आचार्य भगवंत श्री विजय हेमचंद्रसुरीश्वरजी म.सा. तथा पन्यासप्रवर श्री कल्याणबोधी विजयजी गणिवर्य) ७९. शेठ कनैयालाल भेरमलजी चेरिटेबल ट्रस्ट, चंदनबाला, वालकेश्वर, मुंबई ८०. शाह जेसींगलाल मोहनलाल आसेडावालोंके स्मरणार्थे ( हः प्रकाशचंद्र जे. शाह, आफ्रिकावाले) ( प्रेरक : पंन्यासप्रवर श्री कल्याणबोधी विजयजी गणिवर्य ) ८१. श्री नवाडीसा थे. मूर्तिपूजक जैन संघ, बनासकांठा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः । श्रीशान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपाद सद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः । आमुखम् । अनन्तोपकारिणां परमकृपालूनां जिनेश्वराणां परमकृपया परमोपकारिणां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां पूज्यपादमुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च परमकृपया साहाय्येन च सम्पन्न पू.आ.भ.श्रीअभयदेवसूरिविरचितया वृत्त्या विभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्रीसुधर्मस्वामि-परम्परयाऽऽयातं श्री समवायाङ्गसूत्रं प्राचीन-प्राचीनतर-प्राचीनतमविविधहस्तलिखितादर्शानुसारेण संशोधनं विधाय विविधैः परिशिष्टैश्च समलङ्कृत्य जिनागमरसिकानां पुरत उपन्यस्यन्तो वयमद्यामन्दमानन्दमनुभवामः । आ.प्र.पू.मुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाभागैः [प्रायः] चत्वारिंशतो वर्षेभ्यः प्राक समवायाङ्गसूत्रस्य समवायाङ्गवृत्तेश्च संशोधनं विहितमासीत् । आगमोदयसमित्या विक्रमसं.१९७४ तमे वर्षे प्रकाशिते वृत्तिसहिते समवायाङ्गसूत्रे, सूत्रस्य वृत्तेश्च प्राचीनान् हस्तलिखितानादर्शानवलम्ब्य पर शता: शुद्धपाठा: तैः स्वयमेव लिखिताः । तमिमम् आ.प्र.पू.मु.श्री पुण्यविजयजीम. संशोधितमादर्शमवलम्ब्य अन्यांश्च प्राचीनान् हस्तलिखितादर्शान् उपयुज्य, संशोध्य, विविधैः परिशिष्टैश्चालङ्कृत्य सम्पादितोऽयं ग्रन्थोऽस्माभिः । यदस्मिन् विषये किञ्चिद् वक्तव्यं तद् गूर्जरभाषायां निबद्धायां प्रस्तावनायां लिखितमस्माभिरतस्तत्रैव द्रष्टव्यं जिज्ञासुभिः । किञ्चान्यत्, श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसंवत् २०४१ तमे [ई.स.१९८५] वर्षे जैन-आगमग्रन्थमालायां ग्रन्थाङ्क ३ रूपेण प्रकाशितस्य मूलमात्रस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य समवायाङ्गसूत्रस्य च गूर्जरभाषानिबद्धायां प्रस्तावनायाम्, संस्कृतभाषानिबद्धे आमुखे, टिप्पणेषु, विविधेषु परिशिष्टेषु च यथायोगं विस्तरेण बहुतरं लिखितमस्माभिः । अतः सटीकस्य समवायाङ्गसूत्रस्य वैशयेन अध्येतृभिः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसं. २०४९ तमे [ई. स. १९८५ ] वर्षे प्रकाशितं स्थानाङ्गसूत्रं समवायाङ्गसूत्रं च अवश्यमेव उपयोज्यम् । एतदनुसारेणैव मूलरूपं समवायाङ्गसूत्रमस्मिन् सटीके समवायाङ्गसूत्रे मुद्रितम्, तथापि क्वचित् क्वचित् यथायोग्यं परिवर्तनमपि अत्र विहितमिति सुधीभिरवश्यं ध्येयम् । सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य प्रथम-1 म-द्वितीय-तृतीयविभागेषु प्रस्तावनायाम् आमुखादी परिशिष्टेषु च यल्लिखितमस्माभिः तदपि विशेषजिज्ञासुभिर्निरीक्षणीयम् । वृत्तिसहितस्य समवायाङ्गसूत्रस्य संशोधने येषां हस्तलिखितानामादर्शानामुपयोगोऽस्माभिर्विहितः तेषां किञ्चित् स्वरूपम् अस्य ग्रन्थस्य प्रथमपत्रेऽन्तिमपत्रे चाधस्तात् टिप्पने प्रदर्शितम् । अस्माभिः संशोधिता ग्रन्थाः शृङ्खलारूपेण प्रकाश्यन्ते । अतो ये ग्रन्थाः पूर्वं प्रकाशिताः तेषु याः अशुद्धयो दृष्टिपथमवतीर्णाः तासामपि परिमार्जनं संस्करणं च अस्माभिः ग्रन्थान्तरेषु विधीयतेविधास्यते च । अतः सटीकस्य स्थानाङ्गस्य प्रथम द्वितीय - तृतीयविभागानां शुद्धि-वृद्धिपत्रकमस्मिन् समवायाङ्गे नवमे परिशिष्टे द्रष्टव्यम् । तदनुसारेण स्थानाङ्गेऽपि शुद्धिर्वृद्धिश्च सुधीभिः स्वयमेव करणीया 1 यत्र पाठे किञ्चिद् विशेषतो वक्तव्यं तत्र * एतादृशं चिह्नं विहितम्, तत्र विशेषजिज्ञासुभिः तृतीये परिशिष्ट टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् । अम्माकं या सम्पादने संशोधने च शैली सा पूर्वतनेषु ग्रन्थेषु प्रस्तावनादौ निवेदिता व तत एवावधार्या । धन्यवाद:- अस्य ग्रन्थस्य संशोधने सम्पादने च यतो यतः किमपि साहायकं लब्धं तेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । विशेषतस्तु इमे स्मर्तव्या:- सटीकस्य समवायाङ्गसूत्रस्य प्राचीनान् हस्तलिखितानादर्शानवलम्ब्य आगमप्रभाकरपूज्यमुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाभागैः संशोधनं विहितमासीत् । तं मु. श्री पुण्यविजयजीम. संशोधितमादर्शं मुख्यतया अवलम्ब्य स् ग्रन्थस्य संशोधनं सम्पादनं चास्माभिर्विहितम् । किञ्च, श्रीमहावीरजैन विद्यालयेन प्रारब्धाया जैनागमग्रन्थमालायाः प्रकाशने बीजभूताः प्रेरकाश्च आ. प्र. मु. श्रीपुण्यविजयजीमहाभागा एव । तैरेव च संशोधन-सम्पादनक्षेत्रेऽहं योजितः । अतः कृतज्ञभावेन तेषां चरणयोर्वन्दनं विदधामि । अनेकेभ्यो वर्षेभ्यः प्राक् आगमोद्धारकैराचार्यश्रीसागरानन्दसूरिभिः महान् ग्रन्थराशि: महता महता परिश्रमेण जैनसंघस्य पुरस्ताद् मुद्रयित्वा उपन्यस्तः । समग्रोऽपि जैनसंघः तैरुपकृतः । अतस्तेषामपि चरणयोः वन्दनं विदधामि । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् परमोपकारिणी परमपूज्या विक्रमसंवत् २०५१ तमे वर्षे श्री सिद्धक्षेत्रे पालिताणानगरे पौषशुक्लदशम्यां दिवंगता शताधिकवर्षायुष्का मम माता साध्वीजीश्री मनोहरश्रीरिहलोकपरलोककल्याणकारिभिराशीर्वचनैर्निरन्तरं मम परमं साहायकं सर्वप्रकारैर्विधत्ते । लोलाडाग्रामे विक्रमसंवत् २०४० कार्तिकशुक्लद्वितीयादिने दिवंगतो ममान्तेवासी वयोवृद्धा देवतुल्यो मुनिदेवभद्रविजयः सदा मे मानसिकं बलं पुष्णाति । ___ममातिविनीतोऽन्तेवासी मुनिधर्मचन्द्रविजयः तच्छिष्य: मुनिपुण्डरीकरत्नविजयः मुनिधर्मघोषविजयः मुनिमहाविदेहविजयश्च अनेकविधेषु कार्येषु महद् महत् साहायकमनुष्ठितवन्तः । एवमेव मम मातुः साध्वीश्रीमनोहरश्रियः शिष्यायाः साध्वीश्रीसूर्यप्रभाश्रिय: शिष्यया साध्वीश्रीजिनेन्द्रप्रभाश्रिया एतद्ग्रन्थसंशोधनसम्बन्धिषु सर्वकार्येषु प्रभूतं प्रभूतं साहायकमनुष्ठितम् । श्रीमहावीरजैनविद्यालयस्य कार्यवाहकैः महता द्रव्यव्ययेन साध्यस्य एतन्मुद्रणादिकस्य व्यवस्था स्वीकृता । अतस्तेभ्योऽपि भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । एतेभ्य: सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादा वितीर्यन्ते । देव-गुरुप्रणिपातपूर्वकं प्रभुपूजनम् परमकृपालूनां परमेश्वराणां देवाधिदेवश्री शखेश्वरपार्श्वनाथप्रभूणां परमोपकारिणां पूज्यपादानां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च कृपया साहाय्याच्चैव संपन्न कार्यमिदमिति तेषां चरणेषु अनन्तश: प्रणिपातं विधाय अस्मिन् कुंभणग्रामे मूलनायकरूपेण विराजमानस्य श्रीशान्तिनाथस्य भगवतः करकमलेऽद्य भक्तिभरनिर्भरण हृदयेन भगवद्वचनात्मकमेव पुष्परूपमेतं ग्रन्थं निधाय अनन्तशः प्रणिपातपूर्वकं भगवन्तं श्री शान्तिनाथं महयाम्येतेन कुसुमेन । कुंभण [जिल्ला-भावनगर] [तालुका- महुवा बंदर] पीन-३६४२९० गुजरातराज्य [सौराष्ट्र] - इत्यावेदयति पूज्यपादाचार्यश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कार पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यपूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः विक्रम सं.२०६१, कार्तिकशुक्लपञ्चमी, ज्ञानपञ्चमी, भौमवासरः, ता.१६-११-२००४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राङ्काः १-१६० ? २ 3 i ११ とこ १.३ १४ را و वृत्तिसहितस्य समवायाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः विषय: पृष्ठाङ्काः १-३१० १-१३ १३-१८ दण्ड १५-१७ -गुप्ति-शल्य-गौरव- विराधना-नक्षत्र -स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः कपाय- ध्यान-विकथा-संज्ञा-बन्ध-योजन- नक्षत्र -स्थिति-श्वासा - ऽऽहार - सिद्धयः १७-१९ क्रिया - महाव्रत- कामगुणाऽऽम्रवसंवरद्वार- निर्जरास्थान-समित्यस्तिकाय नक्षत्र-स्थिति-श्वासा -ऽऽहार-सिद्धयः वृत्तिसहितं समवायाङ्गसूत्रम् भगवदाख्याता आत्मादय एकपदार्थाः दण्ड - राशि - बन्धन - नक्षत्र-स्थिति-श्वासोच्छ्वासा -ऽऽहार-सिद्धयः लेश्या - जीवनिकाय - तपः- समुद्घाता ऽर्थावग्रह-नक्षत्र -स्थिति श्वासाऽऽहार-सिद्धयः भयस्थान- समुद्घात भगवन्महावीरोच्चत्व-वर्षधर वर्ष नक्षत्र-स्थिति-श्वासाहार-सिद्धयः मदस्थान प्रवचनमातृ-चैत्यवृक्ष - जम्बू- कूटशाल्मली-जगती-केवलिसमुद्घात-प्रभुपार्श्वगणधर नक्षत्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ब्रह्मगुप्त - अगुप्ति- ब्रह्मचर्याध्ययन-प्रभुपार्श्वोच्चत्व-नक्षत्र - तारा-मत्स्य-विजयद्वारसभा-कर्मप्रकृति-स्थिति-श्वासा- ऽऽहार-सिद्धयः श्रमणधर्म-समाधिस्थान-मन्दरविष्कम्भ-अरिष्टनेम्यर्हदाद्युच्चत्व-ज्ञानवृद्धिकरनक्षत्रकल्पवृक्ष -स्थिति-श्वासा - ऽऽहार - सिद्धयः उपासकप्रतिमा-ज्योतिश्चक्रान्त-ज्योतिश्चार-गणधर - नक्षत्र -विमान- मन्दरोच्चत्वस्थिति-श्वासा -ऽऽहार-सिद्धयः भिक्षुप्रतिमा सम्भोग - कृतिकर्म-विजयाराजधानी - बलदेवायुः - दिनरात्रिमानईपत्प्राग्भारा-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार- सिद्धयः क्रियास्थान-विमानप्रस्तट- आयामविष्कम्भ-जातिकुलकोटी-पूर्ववस्तु-प्रयोगसूर्यमण्डल -स्थिति-श्वासा- ऽऽहार-सिद्धयः भूतग्राम-पूर्व- पूर्ववस्तु-श्रमणसंख्या- जीवस्थान - जीवा - रत्न- महानदी -स्थितिश्वासाऽऽहार- सिद्धयः ? परमाधार्मिक-नमिनाथोच्चत्व- ध्रुवराहु-नक्षत्र-दिनरात्रिमान- पूर्ववस्तु-प्रयोग-स्थिति श्वासाऽऽहार-सिद्धयः १९-२२ २२-२४ २४-२६ २६-२९ २९-३२ ३३-३५ ३७-४२ ४२-४९ ४९-५२ ५२-५६ ८६-६१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः ६२-६४ गाथाषोडशक-कषाय-श्रमणसंख्या-पूर्ववस्तु-आयामविष्कम्भ-लवणसमुद्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः असंयम-संयम-मानुषोत्तरा-ऽऽवासपर्वत-लवणसमुद्रचारणगति-उत्पातपर्वत-मरण-कर्मप्रकृति-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ब्रह्मचर्य-श्रमणसंख्या-श्रमणस्थान-पदाग्र-ब्राह्मीलिपिपूर्ववस्तु-दिनरात्रिमान-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धय: ६९-७२ ज्ञाताध्ययन-सूर्य-शुक्र-जम्बूद्वीपकला-तीर्थकर-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ७२-७४ असमाधिस्थान-मुनिसुव्रतार्हदुच्चत्व-घनोदधिबाहल्यसामानिकसाहस्री-कर्मबन्धस्थिति-पूर्ववस्तु-काल-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ७४-७७ शबल-कर्म-काल-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ७७-८० परीषह-दृष्टिवादसूत्र-पूद्गलपरिणाम-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः सत्रकदध्ययन-तीर्थकरज्ञानादि-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ८३-८४ देवाधिदेव-जीवा-इन्द्र-पौरुषीयच्छाया-नदीविस्तार-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ८...८७ भावना-मल्लिजिनाधुच्चत्व-निरयावासा-ऽध्ययन-कर्मप्रकृतिप्रपात-पूर्ववस्तु-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धय: ८५-९० दशाकल्पव्यवहारोद्देशनकाल-कर्म-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः अनगारगुण-नक्षत्र-विमानपृथिवी-कर्म-सूर्यचार-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ९५-९४ आचारप्रकल्प-मोहनीयकर्मा-ऽऽभिनिबोधिकज्ञान-विमानावास-नामकर्मस्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ९४-९७ पापश्रुतप्रसङ्ग-आषाढमासादिदिवस-चन्द्रदिनमान-नामकर्मस्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः २७-१०० माहनीयस्थान-मण्डिकपुत्रायु:-अहोरात्रमुहूर्तनाम-अरजिनोच्चत्वसहस्रारेन्द्र-सामानिकसंख्या-पार्श्ववीरजिनागारवासमान-निरयावासस्थिति-श्वासा-ऽऽहार- सिद्धयः १००-११३ सिद्धगुण-मन्दरपर्वतपरिक्षेप-सूर्यचार-अभिवर्धितादित्यमासदिवस-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ११३-११५ योगसंग्रह-देवेन्द्र-कुन्थुनाथकेवलि-नक्षत्र-नाट्य-स्थितिश्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः आशातना-भौम-महाविदेहवर्षविष्कम्भ-सूर्यचार-स्थितिश्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः बद्धातिशष-चक्रवर्तिविजय-दीर्घविजयार्ध-तीर्थकर-भवननिरयावासा: १२२-१२६ ३ ११७-१८ ३४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ३६ ३७ ३८ ३९ 3 49 とこ ¥3 ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ 69 ८२ 3 ७४ را را ७६ ر را 10.20135 ८९ ६० ६५ ६२ विषयानुक्रमः सत्यवचनातिशेष-कुन्थुजिनाद्युच्चत्व-जिनसक्थि- निरयावासाः उत्तराध्ययन-सभा- वीरजिनार्यासंख्या- पौरुषीच्छायाः कुन्थुजिनगणधर - जीवा - प्राकार-उद्देशनकाल-पौरुषीच्छायाः पार्श्वजिनार्यासंख्या- जीवा-मेरु-उद्देशनकाला: नमिजिनावधिज्ञानि कुलपर्वत-निरयावास-कर्मप्रकृतयः नेमिजिनार्या - मेरुचूलिका-शान्तिजिनोच्चत्व-भवनउद्दशनकाल- पौरुषीच्छाया-विमानानि नमिजिनार्यिका निरयावास - उद्देशनकाला: वीर जिनश्रामण्यपर्याया ऽऽवासपर्वत-कालोदचन्द्रसूर्य-स्थितिनामकर्म - लवण - उद्देशनकाल-कालाः कर्मविपाकाध्ययन- निरयावासा ऽऽवासपर्वत उद्देशनकालाः ऋषिभाषित-विमलजिनपुरुषयुगसिद्ध-भवन उद्देशनकालाः समयक्षेत्रादिसाम्य-धर्मजिनोच्चत्व- मन्दर-नक्षत्र - उद्देशनकाला: दृष्टिवादपद- ब्राहम्यक्षर भवनानि सूर्यचाराऽग्निभूतिगृहवासौ चक्रवर्तिपत्तन-धर्मजिनगणधर - सूर्यमण्डलानि भिक्षुप्रतिमा- कुरुमनुष्य स्थितयः मुनिसुव्रतजिनार्यिका अनन्तजिदुच्चत्व- वासुदेवोच्चत्वदीर्घवैताढ्य - विष्कम्भ-विमान-गुफा-कञ्चनपर्वताः आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धोद्देशनकाल- सभा-बलदेवायुः - कर्माणि मोहनीयनामा - ssवासपर्वत-कर्म-विमानानि जीवा - अनुत्तरौपपातिकवीरजिनशिष्य-स्थितयः उत्तमपुरुष-नेमिजिनछद्मस्थकाल- वीरजिनव्याकरण-अनन्तजिज्जिनगणधराः मल्लिजिनायुः - मन्दर-वीरजिनव्याकरण-निरयावास - विमानानि नक्षत्र - विमलजिनगणधराः अङ्गत्रयाध्ययना-ऽऽवासपर्वत-मल्लिजिनमनः पर्यायज्ञानि जीवाः निरयावास - कम-ssवासपर्वताः चान्द्रवर्षऋतुदिन- सम्भवजिनगृहवास-मल्लिजिनावधिज्ञानिनः सूर्यमण्डल-लवणसमुद्र-विमलजिनोच्चत्व-सामानिक-विमानानि ऋतुमास- मन्दर- चन्द्रसूर्यमण्डलानि युगपूर्णिमामावास्या-वासुपूज्यजिनगणधर शुक्ल कृष्णपक्षविमान विमानप्रस्तटाः १२६-१२९ १२९-१३० 3 १३० १.३५ १३१-१३२ १३२-१३३ १३३ १३३-१३६ ५३६ १३६-१३७ १३७-१३८ १३८-१३२ १३९-१४० १४० १४०-१४१ १४१-१४२ १४२ १४२-१४४ १४४-१४५ والا ؟ १४५-१४७ १४७ १४७-१४८ १४८-१४९ १४९ १४९-१५० १५०-१७१ १७१-१७३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः ७३-७४ ७५-७६ ऋषभजिनराज्यकाल-हरिवर्षादिमनुष्य-निषधादिसूर्योदया: १३-१८४ भिक्षुप्रतिमा-असुरकुमारावास-सामानिक-दधिमुख-विमान-हाराः १५४-५५८ सूर्यमण्डल-मौर्यपुत्रगृहवास-भौमाः मनुष्यक्षेत्रचन्द्रसूर्य-श्रेयासजिनगणधर-आभिनिबोधिकस्थितियः नक्षत्रमास-बाहा-मन्दर-नक्षत्रसीमाविष्कम्भाः ५५५ - १५९ धातकीखण्ड-पुष्करार्धविजय-तीर्थकरादि-विमलजिनश्रमणाः समयक्षेत्रवर्ष-वर्षधर-मन्दर-कर्माणि वीरजिनपर्युषणाकाल-पार्श्वजिनश्रामण्यकाल-वासुपूज्यजिनोच्चत्वकर्मस्थिति-सामानिकाः सूर्यावृत्ति-वीर्यपूर्वप्राभृत-अजितजिनसर्गरचक्रिगृहवास: १.६२-१६४ आवास-लवणसमुद्र-वीरजिनायु:-अचलभ्रात्रायु:- चन्द्र-सूर्यचक्रवर्तिपुर-कला-स्थितयः जीवा-बलदेवायु:-अग्निभूत्यायु:-सीतोदा-निरयावासा: सुविधिजिनकेवलि-शीतलजिनशान्तिजिनगृहवास-भवनपत्यावासाः ५.६८-५६१ भरत क्रकुमारवास-अङ्गवंशप्रव्रजितनृप-लौकान्तिकपरिवार-मुहर्तलवाग्राणि ५६१-५७० शक्राधिपत्य-अकम्पितगणधरायुः -सूर्यचारा: अन्तराणि ५.७२-५४ श्रेयांसजिनाधुच्चत्व-राज्यकाल-काण्डबाहल्य-सामानिक-सूर्योदया: भिक्षुप्रतिमा-कुन्थुजिनमन:पर्यायज्ञानि-व्याख्याप्रज्ञप्तिमहायुग्मानि १७४ - १.७५ सूर्यचार-वीरगर्भापहारा-ऽन्तराणि । ५७-५७६ वीरजिनग पहार-शीतलजिनगणधर-मण्डितपुत्रायु:-ऋषभजिनभरतक्रिगृहवासाः १७६-१७७ निरयावास-ऋषभजिन-श्रेयांसजिनाधायु:-सामानिक-मन्दारधुच्चत्वधनुः पृष्ठ-पङ्कबहलकाण्ड-व्याख्याप्रज्ञप्तिपद-नागकुमारावास-प्रकीर्णकयोनि-गुणकार-ऋषभजिनगणधर-श्रमण-विमानानि आचारागाद्देशनकाल-मन्दर-रुचक-नन्दनानि सुविधिजिनगणधर-सुपार्श्वजिनवादि-घनोदध्यन्तराणि अन्तर-कर्म-अन्तर-महाग्रह-दृष्टिवादसूत्र-अन्तर-सूर्यचाराः ऋषभजिन-वीरजिननिर्वाणगमन-हरिषेणराज्य-शान्तिजिनार्या शीतलजिनोच्चत्व-अजितजिनगणधर-स्वयम्भूविजय-अन्तराणि ५८६ परवैयावृत्यप्रतिमा-कालोदपरिक्षेप-कुन्थुजिनावधिज्ञानि-कर्माणि १८६-८८ प्रतिमा-गौतमस्वाम्यायु:-अन्तराणि १८८-५२० ८७-८८ ० ० ० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० १९०-१९१ १९१-१९२ १९२-१९३ १९३-१९५ १९५-१९६ १९६-१९७ १९७-१९८ १९८-२०० विषयानुक्रमः चन्द्रप्रभजिनगणधर-शान्तिजिनचतुर्दशपूर्वि-सूर्यमण्डलानि जीवा-अवधिज्ञानिनः सुपार्श्वजिनगणधर-महापाताल-लवणसमुद्र-कुन्थुजिनायु:-मौर्यपुत्रायूंषि चक्रवर्तिग्रामकोटी-भवन-दण्ड-आदिमुहूर्ताः ९७-९८ अन्तर-कर्म-हरिषेणगृहवासाः, अन्तर-धनु:पृष्ठ-सूर्यचारतारा: मन्दर-अन्तर-सूर्यमण्डल-अन्तराणि १०० भिक्षुप्रतिमा-नक्षत्रतारा-सुविधिजिनोच्चत्व-पार्श्वजिनायु:-सुधर्मगण धरायु:-दीर्घवैताढ्याधुच्चत्वादि ५.०५ - ५०३ चन्द्रप्रभजिनोच्चत्व-विमानानि, सुपार्श्वजिनोच्चत्व-पर्वत-पद्मप्रभजिनोच्चत्व-प्रासादोच्चत्वानि १.०४- १०५ सुमतिजिनोच्चत्व-नेमिजिनकुमारवास-विमानप्राकार-वीरजिनचतुर्दशपूर्वि सिद्धावगाहनाः, पार्श्वजिनचतुर्दशपूर्वि-अभिनन्दनजिनोच्चत्वानि ५.०६-१०८ सम्भवजिनोच्चत्व-पर्वतोच्चत्वादि-विमान-वीरजिनवादिनः, अजितजिन-सगरचक्रयुच्चत्वम्, पर्वताधुच्चत्वादिऋषभजिनभरतचक्रयुच्चत्व-पर्वताधुच्चत्वादि-विमानोच्चत्वानि विमानोच्चत्व-अन्तर-पार्श्वजिनवादि-अभिचन्द्रकुलकरोच्चत्व वासुपूज्यजिनसहप्रव्रजिताः १.१० विमान-वीरजिनकेवलि-वैकुर्विक-नेमिजिनकेवलपर्याय-अन्तराणि विमान-भौमेयविहार-वीरजिनानुत्तरौपपातिक-सूर्यचार-नेमिजिनवादिनः विमान-अन्तर-विमलवाहनकुलकरोच्चत्व-तारा-अन्तराणि ५.५३ - ११४ विमान-पर्वत-नेमिजिनायु:-पार्श्वजिनकेवलि-सिद्ध-द्रहाः, विमान-पार्श्वजिनवैकुर्विकाः १५५ - ११७ द्रह-अन्तर-द्रहा: १५८-११९ अन्तर-विमानावासा: १२० - १३१ अन्तर-वर्ष-जीवा-मन्दर-जम्बूद्वीप-लवण-पार्श्वजिनश्राविका धातकीखण्ड-लवण-भरतचक्रिराज्यकाल-अन्तर-विमानावासा: १३२ - १३५ अजितजिनावधिज्ञानि-वासुदेवायूंषि, भगवतो महावीरस्य तीर्थकरभवात् षष्ठो भवः, ऋषभ-वीरजिनयारन्तरम् द्वादशाीनामानि तथा आचाराङ्गसूत्रस्वरूपम् सूत्रकृताङ्गसूत्रस्वरूपम् १३८ स्थानाङ्गसूत्रस्वरूपम् । समवायाङ्गसूत्रस्वरूपम् २०० - २०१ २०१ २०१-२०२ २०२-२०३ २०३-२०४ २०४-२०५ २०५ - २०७ mmmm २०७-२०८ २०८-२१३ २१३-२१८ २१८-२१९ २१९-२२२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः २२२-२२५ २२५-२३० २३०-२३२ २३३-२३४ २३४-२३७ २३७-२४० २४०-२४६ २४६-२५३ २५३-२५६ २५६-२६१ ५४० व्याख्याप्रज्ञप्ति(भगवती)सूत्रस्वरूपम् ज्ञाताधर्मकथामसूत्रस्वरूपम् १४२ उपासकदशाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४३ अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४४ अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४५ प्रश्नव्याकरणसूत्रस्वरूपम् १४६ विपाकश्रुतस्वरूपम् १४७ दृष्टिवादवर्णनम् १४८ द्वादशाङ्गगणिपिटकस्वरूपम् १४९ जीवाजीवराशिस्वरूपम् असुरकुमाराद्यावासाः १५१ नारकादिजीवानां स्थितिः १५२ औदारिकशरीरादिवर्णनम् अवधि-वेदना-आहारवर्णनम् १५४ आयुर्बन्ध-उपपातोद्वर्तना-आकर्षस्वरूपम् १५५-१५६ संहनन-संस्थान-वेदा: १५७-१५९ कुलकर-तीर्थकर-बलदेव-वासुदेवादिवक्तव्यता परिशिष्टानि प्रथमं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः द्वितीयं परिशिष्टम् कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि तृतीयं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानामकारादिक्रमः २६७-२६१ २६९-२७५ २७५-२७९ २७९-२८३ २८३-२८५ २८५-३१० २८-३० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ।। नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितटीकाविभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्पराऽऽयातं श्री समवायाङ्गसूत्रम् । सूत्रम् १] [१] सुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एवमक्खातं[टीका] श्रीवर्द्धमानमानम्य समवायाङ्गवृत्तिका । विधीयतेऽन्यशास्त्राणां प्रायः समुपजीवनात् ।।१।। दु:सम्प्रदायादसदहनाद्वा भणिष्यते यद् वितथं मयेह । तद् धीधनैर्मामनुकम्पयद्भिः शोध्यं मतार्थक्षतिरस्तु मैवम् ।।२।। इह स्थानाख्यतृतीयाङ्गानुयोगानन्तरं क्रमप्राप्त एव समवायाभिधानचतुर्थाङ्गानुयोगो 10 भवतीति सोऽधुना समारभ्यते । तत्र च फलादिद्वारचिन्ता स्थानाङ्गानुयोगवदवसेया, नवरं समुदायार्थोऽयमस्य– समिति सम्यक् अवेत्याधिक्येन अयनम् अय: परिच्छेदो १. श्री महावीर जैन विद्यालयेन विक्रमसंवत् २०४१ (ईशवीयसन १९८५] वर्षे प्रकाशिते जैनागमग्रन्थमालायाः तृतीय ग्रन्थाङके प्राचीनान् हस्तलिखितादर्शानवलम्ब्य अस्माभिः संशोधितं सम्पादितं च यत् समवायाङ्गसूत्रं वर्तते प्रायः तदेवात्र मुद्रितम् । ये तु तत्र पाठभेदाः ते जिज्ञासुभिः तत्रैव विलोकनीयाः ।। २. अत्रेदमवधेयम्- अस्याः समवायागवृत्त: संशोधनं ज१.२, खं० इति प्राचीनास्तालपत्रापरिलिखितानादर्शानवलम्ब्य विहितम् । जे१ = जेसलमेरुदर्गस्थ खरतरगच्छीयाचार्यश्री जिनभद्रसूरिभिः विक्रमसंवत् १४०१ वर्षे संस्थापिते तालपत्रीयजैनग्रन्थभाण्डागारे विद्यमान आदर्श:, New Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts JESALMER COLLECTION अनुसारेण अस्य ८ अष्टम: क्रमाङ्कः, अत्र १-४५ पत्रेषु मूलमात्रं समवायाङ्गसूत्रं वर्तते, पञ्चदशं पत्रमत्र नास्ति, ४६-१३४ पत्रेषु समवायाङ्गवृत्तिर्वर्तते, “समवायाङ्गवृत्तिः सम्पूर्णा ।। संवत् १४८७ वर्षे पोस सुदि १० रवौ” इति अस्यान्ते उल्लेखः ।। जे२ = अयमपि जेसलमेरुदर्गस्थ एवादर्शः, अस्य ९ नवमः क्रमाङ्कः, अत्र १-६४ पत्रेषु मूलमात्रं समवायाङ्गसूत्रं वर्तत, चतुर्विंशतितमं पत्रमत्र नास्ति, ६५-२१५ पत्रेषु समवायाङ्गवृत्तिर्वर्तते, "संवत् १४०१ वर्षे माघ-शुक्ल एकादश्यां श्री समवायाङ्गसूत्रवृत्तिपुस्तकं सा. रउलासुश्रावकेण मूल्येन गृहीत्वा श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनपद्मसूरिपट्टालङ्कार श्रीजिनचन्द्रसूरिसुगुरोः प्रादायि । आचन्द्रार्क नन्दतात्' इति अस्यान्ते उल्लेखः । खं० = खम्भातनगरे श्री शान्तिनाथतालपत्रीयजैनग्रन्थभाण्डागारे विद्यमान आदर्श: Catalogue of Palm-leaf Manuscripts in the Santinatha Jain Bhandara, Cambay अनुसारेण अस्य क्रमाङ्कः ३७, अत्र १-९७ पत्रेषु मूलमात्र समवायाङ्गसूत्रं वर्तते, ३४, ३५. ६७ तमानि पत्राणि न सन्ति, ९८-३३० पत्रेषु समवायाङ्गवृत्तिवर्तते, १८३, २७३ त: २७८. ३१८. ३२० तः ३२२ पत्राणि न सन्ति. "संवत् १३४९ वर्षे माघ सुदि १३ अद्येह दयावट श्रे० होना श्रे० कमरसीह थे० सोमप्रभृतिसंघसमवायसमारब्धपुस्तकभाण्डागारे ले० सीहाकेन श्रीसमवायवृत्तिपुस्तक लिखितम् इत्येवमस्यान्ते उल्लेखः । अत्रोपयुक्ताना हे१,२ इति कागजपत्रोपरिलिखितानामादर्शानां तु स्वरूपमस्य ग्रन्थस्य प्रान्ते टिप्पण विलोकनीयम् ।। ३. स्था० टी० पृ०२।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जीवाजीवादिविविधपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः । समवयन्ति वा समवतरन्ति सम्मिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवाय इति । स च प्रवचनपुरुषस्याङ्गमिवाङ्गमिति समवायाङ्गम् । ___ तत्र किल श्री श्रमणमहावीरवर्द्धमानस्वामिसम्बन्धी पञ्चमो गणधर 5 आर्यसुधर्मस्वामी स्वशिष्यं जम्बूनामानम भि समवायाङ्गार्थमभिधित्सुः भगवति धर्माचार्ये बहुमानमाविर्भावयन् स्वकीयवचने च ‘समस्तवस्तुविस्तारस्वभावावभासिकेवलालोककलितमहावीरवचननिश्रिततयाऽविगानेन प्रमाणमिदम्' इति शिष्यस्य मतिमारोपयन्निदमादावेव सम्बन्धसूत्रमाह- सुयं मे इत्यादि । श्रुतम् आकर्णितं मे मया हे आयुष्मन् चिरजीवित ! जम्बूनामन् ! तेणं ति योऽसौ निर्मूलोन्मूलितराग10 -द्वेषादिविषमभावरिपुसैन्यतया भुवनभावावभासनसहसंवेदनपुरस्सराविसंवादिवचनतया च त्रिभुवनभवनप्राङ्गणप्रसपत्सुधाधवलयशोराशिस्तेन महावीरेण भगवता समग्रैश्वर्या दियुक्तेन एवमिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण आख्यातम् अभिहितम् ‘आत्मादिवस्तुतत्त्वम्' इति गम्यते । अथवा आउसंतेणं ति भगवता इत्यस्य विशेषणम्, आयुष्मता चिरजीवितवता भगवतेति । अथवा पाठान्तरेण मया' इत्यस्य विशेषणमिदम्, 15 आवसता मया गुरुकुले, आमृशता वा संस्पृशता मया विनयनिमित्तं करतलाभ्यां गुरोः क्रमकमलयुगलमिति । यद्वा आउसंतेणं ति आजुषमाणेन प्रीतिप्रवणमनसेति । यदाख्यातं तदधुनोच्यते- एगे आया इत्यादि । _[सू०१] [२] इह खलु समणेणं भगवता महावीरेणं आदिकरेणं तित्थकरेणं सयंसंबुद्धणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा 20 लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहितेणं लोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मणायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहतवरणाण १. मिह स' जे२ ।। २. शिष्यमतिं चारोप' ख० जे१ ।। ३. चिरजीविना भगवतेति अथवा मयेत्यस्य हे२ ।। ४. 'आवसंतेणं' इति पाठान्तरमत्राभिप्रेतम् ॥ ५. 'आमसंतेणं' इति पाठान्तरमत्राभिप्रेतम् ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सृ० १] सम्बन्धसूत्रम् । दंसणधरेणं विअदृच्छउमेणं जिणेणं जाणएणं तिन्नेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगतिणामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तंजहा- आयारे १, सूयगडे २, ठाणे ३, समवाए ४, विवाहपण्णत्ती ५, णायाधम्मकहाओ ६, उवासगदसातो ७, अंतगडदसातो 5 ८, अणुत्तरोववातियदसातो ९, पण्हावागरणाई १०, विवागसुते ११, दिट्ठिवाए १२ । तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिते तस्स णं अयमट्टे, तंजहा[टी०] कस्यांचिद् वाचनायामपरमपि सम्बन्धसूत्रमुपलभ्यते, यथा- इह खलु समणेणं भगवयेत्यादि, तामेव च वाचनां बृहत्तरत्वाद् व्याख्यास्यामः । इदं च 10 द्वितीयसूत्रं सङ्ग्रहरूपप्रथमसूत्रस्यैव प्रपञ्चरूपमवसेयम् । अस्य चैवं गमनिका- इह अस्मिल्लोके निर्ग्रन्थतीर्थे वा, खलुक्यालङ्कारे अवधारणे वा, तथा च इहैव, न शाक्यादिप्रवचनेषु, श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, तेन, इदं चान्तिमजिनस्य सहसन्मतिसम्पन्नं नामान्तरमेव, यदाहसहसंमुईयाए समणे [आचा० सू० ७४३] त्ति । भगवतेति पूर्ववत् । महांश्चासौ वीरश्चेति 15 महावीरः, तेन, इदं च महासात्त्विकतया प्राणप्रहाणप्रवणपरीषहोपसर्गनिपातेऽ१. च ज२ हे १ नास्ति ।। २. सहजसन्मति' ख० विना । सहजसम्मति हे१ ।। ३. सहसंमुइयाए हे१.२ । सहसमुयाए जेर । "समण भगवं महावीरे कासवगुत्ते ण, तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिजंति, तंजहा- अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे १. सहसमइयाए समणे २. अयले भयभेरवाण, परीसहावसग्गाणं खंतिखमे, पडिमाण पालए. धीमं, अरतिरतिसहे. दविए. वीग्यिसंपन्ने, देवहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीरे ३।" इति पर्यषणाकल्पसूत्रे सू० १०८ । "श्रमणो भगवान महावीर: काश्यप इतिनामक गोत्रं यस्य स तथा. तस्य भगवतः त्रीणि अभिधानानि एवमाख्यायन्ते, तद्यथामातापितृसत्कं मातापितदत्तं वर्धमान इति प्रथम नाम १, सहसमुदिता सहभाविनी तप:करणादिशक्तिः, तया श्रमण: इति द्वितीयं नाम २, भयभेरवयोर्विषये अचलो निप्रकम्पः, तत्र भयम् अकस्माद्भयं विद्यदादिजातम्, भैरवं तु सिंहादिकम्। तथा परिषहा: क्षुत्पिपासादया द्वाविंशतिः, उपसर्गाश्च दिव्यादयश्चत्वारः, सप्रभेदास्तु षोडश, तेषां क्षान्त्या क्षमया क्षमते, न त्वसमर्थतया. यः स क्षान्तिक्षमः । प्रतिमानां भद्रादीनाम् एकरात्रिक्यादीनां वा अभिग्रहविशेषाणां पालकः । धीमान ज्ञानत्रयाभिरामत्वात् । अरति-रती सहते, न तु तत्र हर्ष-विषादौ कुरुते इति भावः । द्रव्यं तत्तद्गुणानां भाजनम्, रागद्वषरहित इति वृद्धाः । वीर्यं पराक्रमः, तेन सम्पन्नः । यतो भगवानेवंविधस्ततो देवैः से इति तस्य भगवतो नाम कृतं श्रमणा भगवान महावीर इति तृतीयम् ३।" इति पर्युषणाकल्पसूत्रस्य टीकायां सुबोधिकायाम् ।। ४. वते त्ति जे१.२ खं० ।। ५. 'होपनिपातेऽप्यप्रकम्पत्वेन जे२, हे१.२ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्रे प्यप्रकम्पत्वेन पीयूषपानप्रभुभिराविर्भावितम्, आह च- अयले भयभेरवाणं खंतिक्खमे परीसहोवसग्गाणं पडिमाणं पारए देवेहिं कए महावीरे [पर्युषणा० ] त्ति। कथम्भूतेनेत्याहआदौ प्राथम्येन श्रुतधर्ममाचारादिग्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरः, तेन । तथा तरन्ति तेन संसारसागरमिति तीर्थं प्रवचनम्, तदव्यतिरेकादिह 5 सङ्घस्तीर्थम्, तस्य करणशीलत्वात् तीर्थकरः, तेन । तीर्थकरत्वं च तस्य नान्योपदेशबुद्धत्वपूर्वकमित्यत आह– स्वयम् आत्मनैव नान्योपदेशतः सम्यग् बुद्धो हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति स्वयंसम्बुद्धः, तेन । स्वयंसम्बुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्येवासंभाव्यं पुरुषोत्तमत्वादस्येत्यत आह– पुरुषाणां मध्ये तेन तेनातिशयेन रूपादिनोद्गतत्वाद् ऊर्ध्ववर्त्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः, तेन । अथ 10 पुरुषोत्तमत्वमेव सिंहाद्युपमानत्रयेणास्य समर्थयन्नाह- सिंह इव सिंहः, पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः, लोकेन हि सिंहे शौर्यमतिप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः, शौर्यं तु भगवतो बाल्ये प्रत्यनीक देवेन भाप्यमानस्याप्यभीतत्वात् कुलिशकठिनमुष्टिप्रहारप्रहतिप्रवर्द्धमानामरशरीरकुब्जताकरणाच्च इति, अतस्तेन । तथा वरं च तत् पुण्डरीक च वरपुण्डरीकं धवलं सहस्रपत्रम्, पुरुष एव वरपुण्डरीक 15 पुरुषवरपुण्डरीकम्, धवलता चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वेश्च शुभैरनुभावैः शुद्धत्वादिति, अतस्तेन । तथा वरश्चासौ गन्धहस्ती च वरगन्धहस्ती, पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनैव सर्वगजा भज्यन्ते तथा भगवतस्तद्देशविहरणेन ईति-परचक्र-दुर्भिक्ष- जनमरकादीनि दुरितानि नश्यन्तीति. अतस्तेन पुरुषवरगन्धहस्तिना । 20 न भगवान् पुरुषाणामेवोत्तमः, किन्तु सकलजीवलोकस्यापीत्यत आह– लोकस्य ___ तिर्यग-नर-नरकि-नाकिलक्षणजीवलोकस्य उत्तमः चतु स्त्रिंशद्बद्धातिशयाद्य साधारणगुणगणोपेततया सकलसुरा-ऽसुर-खचर-नरनिकरनमस्यतया च प्रधाना १. पीयूषपाना देवाः, तेषां प्रभव इन्द्रा इत्यर्थः ।। २. दृश्यतां पृ.३ टि० ३ ॥ ३. प्राणा जे१. खं० ।। ४. तथा नास्ति जे१ ख० ।। ५. चास्य प्राकृ' ख० ।। ६. 'धुपमात्रयेणास्य जे२ ॥ ७. 'प्रहतवर्ध' ज२ ।। ८. शुभत्वा जे२ ।। ९. च नास्ति जे२ खं० ।। १०. "जनडमरका जे१ ।। ११. दरितानि नश्यंतीति [सपाद- खंस०) शतयोजनमध्ये अतस्तेन ज? खं० । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० १] सम्बन्धसूत्रम् । लोकोत्तमः, तेन । लोकोत्तमत्वमेवास्य पुरस्कुर्वन्नाह- लोकस्य सञ्जिभव्यलोकस्य नाथ: प्रभुर्लोकनाथः, तेन । नाथत्वं चास्य योग-क्षेमकृन्नाथ: [ ] इति वचनाद् अप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य तस्यैव पालनेन चेति । लोकनाथत्वं च तात्त्विकं तद्धितत्वे सति सम्भवतीत्याह- लोकस्य एकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य हित: आत्यन्तिकतद्रक्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकूलवृत्तिर्लोकहितः, तेन । यदेतन्नाथत्वं हितत्वं वा 5 तद्भव्याना यथावस्थितसमस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनेन नान्यथेत्याह- लोकस्य विशिष्टतिर्यग्नरा-ऽमररूपस्याऽऽन्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थप्रकाशकारित्वात् प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपः, तेन । इदं च विशेषणं द्रष्ट्रलोकमाश्रित्योक्तम्, अथ दृश्य लोकमाश्रित्याह- लोकस्य लोक्यते इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्वभावस्याखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावावभासनसमर्थ- 10 केवलालोकपूर्वकप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन प्रद्योतं प्रकाशं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरः, तेन । ननु लोकनाथत्वादिविशेषणयोगी हरि-हर-हिरण्यगर्भादिरपि तत्तीर्थिकमतेन सम्भवतीति कोऽस्य विशेष इत्याशङ्कायां तद्विशेषाभिधानायाह- न भयं दयते प्राणापहरणरसिकोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनि ददातीत्यभयदयः, अभया वा 15 सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया घृणा यस्य सोऽभयदय:, हरि-हरादिस्तु नैवमिति, तेनाऽभयदयेन । न केवलमसावपकारकारिणामप्यनर्थपरिहारमात्रं करोति, अपि त्वर्थप्राप्ति करोतीति दर्शयन्नाह- चक्षुरिव चक्षुः श्रुतज्ञान शुभाशुभार्थविभागकारित्वात्, तद्दयते इति चक्षुर्दयः. तेन । यथा हि लोके चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छितस्थानमार्ग दर्शयन् महोपकारी भवतीत्येवमिहापीति दर्शयन्नाह - मार्गं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मकं परमपदपथं दयत 20 इति मार्गदय:, तेन । यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तान निरुपद्रवं स्थान प्रापयन् परमोपकारी भवति एवमिहापीति दर्शयन्नाह- शरणं त्राणं नानोपद्रवोपद्रुतानां तद्रक्षास्थानम्, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्, तद्दयत इति शरणदय:, १. "तथा लोकनाथेभ्य इति योगक्षेमकृदयमिति विद्वत्प्रवादः” इति ललितविस्तरायाम् ।। २. "त्यत आह खं० ।। ३. भवतीति जर हे१.२ ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचिंतटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तेन । यथा हि लोके चक्षु-र्मार्ग-शरणदानात् दु:स्थानां जीवितव्यं ददाति एवमिहापीति दर्शयन्नाह- जीवनं जीवो भावप्राणधारणममरणधर्मत्वमित्यर्थः, तं दयत इति जीवदय: जीवेषु वा दया यस्य स जीवदयोऽतस्तेन । इदं चानन्तरोक्तं विशेषणकदम्बकं भगवतो धर्ममयमूर्तित्वात् सम्पन्नमिति 5 धर्मात्मकतामस्य विशेषणपञ्चकेनाह-धर्मं श्रुत-चारित्रात्मकं दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधरणस्वभाव दयते ददातीति धर्मदयः, तेन । तद्दानं चास्य तद्देशनादेवेत्यत आह-धर्मम् उक्तलक्षणं देशयति कथयतीति धर्मदेशकः, तेन । धर्मदेशकत्वं चास्य धर्मस्वामित्वे सति. न पुनर्यथा नटस्येति दर्शयन्नाह- धर्मस्य क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकस्य नायक: स्वामी यथावत् पालनाद् धर्मनायकः, तेन । तथा धर्मस्य सारथिर्धर्मसारथिः, यथा 10 रथस्य सारथी रथं रथिकमश्वांश्च रक्षति एवं भगवांश्चारित्रधर्माङ्गानां संयमा-ऽऽत्म प्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारथिर्भवतीति तेन धर्मसारथिना । तथा त्रयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवान् एते चत्वारः अन्ताः पृथिव्याः पर्यन्तास्तेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती, वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती राजातिशयः, धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्त15 चक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भगवान् धर्मविषये शेषप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वात् तथोच्यत इति तेन धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्त्तिना । एतच्च धर्मदायकत्वादिविशेषणपञ्चकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्यत आहअप्रतिहते कट-कुड्य-पर्वतादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा, अत एव क्षायिकत्वाद्वा 20 वरे प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः, तेन । एवं विधसंवेदनसंपदुपेतोऽपि छद्मवान् मिथ्योपदेशित्वान्नोपकारीति निश्छद्मताप्रतिपादनायाऽस्याऽऽह, अथवा कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं सम्पन्नम्, अत्रोच्यते, आवरणाभावात्, एतदेवाह- व्यावृत्तं निवृत्तमपगतं छद्म शठत्वमावरणं वा यस्य स तथा, तेन व्यावृत्तछद्मना । माया-ऽऽवरणयोश्चाभावोऽस्य रागादिजयाज्जात 25 इत्यत आह- जयति निराकरोति राग-द्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः, तेन । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] सम्बन्धसूत्रम् । रागादिजयश्चास्य रागादिस्वरूप-तज्जयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह- जानाति छाद्मस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः, तेन ।। अनन्तरमस्य स्वार्थसम्पत्त्युपाय उक्तः, अधुना स्वार्थसम्पत्तिपूर्वकं परार्थसम्पादकत्वं विशेषणषट्केनाह- तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, तेन । तथा तारयति परानप्युपदेशवर्तिन इति तारकः, तेन । तथा बुद्धेन जीवादितत्त्वम्, तथा बोधकेन 5 जीवादितत्त्वमेव परेषाम् । तथा मुक्तेन बाह्याभ्यन्तरग्रन्थबन्धनात्, मोचकेन तत एव परेषाम् । तथा मुक्तत्वेऽपि सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना, न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषेणेव भाविजडत्वेन । तथा शिवं सर्वाबाधारहितत्वात्, अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहे त्वभावात्, अरुजम् अविद्यमानरोगं शरीर-मनसोरभावात्, 10 अनन्तमनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात्, अक्षयम् अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात्, अक्षतं वा परिपूर्णत्वात् पूर्णिमाचन्द्रमण्डलवत्, अव्याबाधमपीडाकारित्वात्, अपुनरावर्तकम् अविद्यमानपुनर्भवावतारं तद्बीजभूतकर्माभावात्, सिद्धिगतिरिति नामधेयं यस्य तत् सिद्धिगतिनामधेयम्, तिष्ठति यस्मिन् कर्मकृतविकारविरहितत्वेन सदाऽवस्थितो भवति तत् स्थानं क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि 15 तु लोकाग्रस्याधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि, तदेवंभूतं स्थानं सम्प्राप्तुकामेन यातुमनसा, न तु तत्प्राप्तेन, तत्प्राप्तस्याऽकरणत्वेन प्रज्ञापनाऽभावात्, प्राप्तुकामेनेति च यदुच्यते तदुपचाराद्, अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति, मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः । इति वचनादिति । तदेवमगणितगुणगणसम्पदुपेतेन भगवता इमे त्ति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षमासन्नं 20 च, द्वादशाङ्गानि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गम्, गणिन: आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं गणिपिटकम्, यथा हि वालञ्जुकवाणिजकस्य पिटकं सर्वस्वाधारभूतं भवति एवमाचार्यस्य द्वादशाङ्गं ज्ञानादिगुणरत्नसर्वस्वाधारकल्पं भवतीति भावः, प्रज्ञप्तं तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तितया प्रायः कृतार्थेनापि परोपकाराय प्रकाशितम् । तद्यथे१. इदं च व जेर खं० ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र त्युदाहरणोपदर्शने, आचार इत्यादि द्वादश पदानि वक्ष्यमाणनिर्वचनानीति कण्ठ्यानि। तत्थ णं ति तत्र द्वादशाङ्गे णमित्यलङ्कारे यत्तच्चतुर्थमङ्गं समवाय इत्याख्यातं तस्यायमर्थः आत्मादिः अभिधेयो ‘भवतीति गम्यते, तद्यथेति वाचनान्तरद्वितीय सम्बन्धसूत्रव्याख्येति । 5 [सू०१] [३] एके आता १, एके अणाया २। एगे दंडे ३, एगे अदंडे ४/ एगा किरिया ५, एगा अकिरिया ६। एगे लोए ७, एगे अलोए ८। एगे धम्मे ९, एगे अधम्मे १०। एगे पुण्णे ११, एगे पावे १२। एगे बंधे १३, एगे मोक्खे १४।। एगे आसवे १५, एगे संवरे १६। एगा वेयणा १७, एगा णिज्जरा १८। 10 [टी०] इह च विदुषा पदार्थसार्थमभिदधता सक्रम एवासावभिधातव्य इति न्यायः, तत्राचार्य एकत्वादिसङ्ख्याक्रमसम्बद्धानर्थान् वक्तुकाम आदावेकत्वविशिष्टानात्मनश्च सर्वपदार्थभोजकत्वेन प्रधानत्वादात्मादीन् सर्वस्य वस्तुनः सप्रतिपक्षत्वेन सप्रतिपक्षान् एगे आया इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैराह । स्थानाङ्गोक्तार्थानि चैतानि प्रायस्तथापि किञ्चिदच्यते- एक आत्मा, कथञ्चिदिति गम्यते, इदं च सर्वसूत्रेष्वनुगमनीयम् । तत्र 15 प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातप्रदेशोऽपि जीवो द्रव्यार्थतया एकः, अथवा प्रतिक्षण पूर्वस्वभावक्षया-ऽपरस्वरूपोत्पादयोगेनाऽनन्तभेदोऽपि कालत्रयानुगामिचैतन्यमात्रापेक्षया एक आत्मा, अथवा प्रतिसन्तानं चैतन्यभेदेनाऽनन्तत्वेऽप्यात्मनां सङ्ग्रहनयाश्रितसामान्यरूपापेक्षयैकत्वमात्मन इति । तथा न आत्मा अनात्मा घटादिपदार्थः, सोऽपि प्रदेशार्थतया सङ्ख्येया-ऽसङ्ख्येया-ऽनन्तप्रदेशोऽपि तथाविधैकपरिणामरूप20 द्रव्यार्थापेक्षया एक एव, एवं संतानापेक्षयाऽपि, तुल्यरूपापेक्षया तु अनुपयोगलक्षणैकस्वभावयुक्तत्वात् कथञ्चिद्भिन्नस्वरूपाणामपि धर्मास्तिकायादीनामनात्मनामेकत्वमवसेयमिति । तथा एको दण्डो दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षणो हिंसामात्रं वा, एकत्वं चास्य सामान्यनयादेशाद्, एवं सर्वत्रैकत्वमवसेयम् । तथैकोऽदण्डः प्रशस्तयोगत्रयमहिंसामात्र वा। १. एव नास्ति खं० जे१ ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्थानकम् । नथका क्रिया कायिक्यादिका आस्तिक्यमात्र वा। तथैका अक्रिया योगनिरोधलक्षणा नास्तिकत्वं वा । तथैको लोकः, त्रिविधोऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशोऽपि वा द्रव्यार्थतया । तथा एकोऽलोकः, अनन्तप्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया, अथवैते लोकालोकयोर्बहत्वव्यवच्छेदनपरे सूत्रे, अभ्युपगम्यन्ते च कैश्चिद् बहवो लोकाः, अतस्तद्विलक्षणा अलोका अपि तावन्त एवेति, एवं सर्वत्र गमनिका कार्या ।। ___ नवरं धर्मो धर्मास्तिकायः, अधर्म: अधर्मास्तिकायः, पुण्यं शुभं कर्म, पापम् अशुभं कर्म । बन्धो जीवस्य कर्मपुदलसंश्लेषः, स चैक: सामान्यत:, सर्वकर्मबन्धव्यवच्छेदावसरे वा पुनर्बन्धाभावाद्, अनेनोद्देशेन मोक्षा-ऽऽस्रव-संवरवेदना-निर्जराणामप्येकत्वमवसेयमिति । इह चानात्मग्रहणेन सर्वेषामनुपयोगवतामेकत्वं प्रज्ञाप्य पुनर्लोकादितया यदेकत्वप्ररूपणं तत् सामान्यविशेषापेक्षमवगन्तव्यमिति । 10 [सू० १] [४] जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । अपइट्ठाणे णरते एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते २। पालए जाणविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ३। सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ४। 15 [५] अडाणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते ५। चित्ताणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते ६। सातिणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते ७। [६] इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं णेरइयाणं एग पलितोवमं ठिती पण्णत्ता । इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिती 20 पण्णत्ता २! दोच्चाए णं पुढवीए णेरतियाणं जहण्णेणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ४। असुरकुमाराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं साहियं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता ५। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे असुरकुमारिंदवज्जियाणं भोमेज्जाणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ६ | 10 १० असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ७ असंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियसन्निमणुयाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ८| वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ९ । जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिती पण्णत्ता १० सोहम्मे कप्पे देवाणं जहणणेणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ११ । सोहम्मे कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता १२ । ईसाणे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सातिरेगं [ एगं] पलितोवमं ठिती पण्णत्ता १३ । ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगतियाणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता १४ । जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसुत्तरं लोगहियं विमानं 15 देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता १५। [७] ते णं देवा एगस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा सं वा णीससंति वा १६ । तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहार समुप्पज्जति १७। 20 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति १८ । [ टी०] एवं चात्मादीनां सकलशास्त्रप्रपञ्चयानामर्थानां प्रत्येकमेकत्वमभिधाय अधुनात्मानात्मपरिणामरूपाणामर्थानां तदेवाह, जंबू इत्यादि सूत्रसप्तकमाश्रयविशेषाणां १. “प्रपंच्यमानामर्थानां जेमूर । प्रपंच्यामानामर्थाना जेसं२ । “प्रवंध्यानामर्थानां खं० ॥। २. अधुनात्मपरि १ ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] एकस्थानकम् । तथा इमीसे णमित्यादि सूत्राष्टादशकमाश्रयिणां स्थित्यादिधर्माणां प्रतिपादनपरं सुबोधम् । नवरं जंबुद्दीवे दीवे इह सूत्रे आयामविक्खंभेणं ति क्वचित् पाठो दृश्यते, क्वचित्तु चक्कवालविक्खंभेणं ति, तत्र प्रथमः सम्भवति, अन्यत्रापि तथा श्रवणात्, सुगमश्च। द्वितीयस्त्वेवं व्याख्येयः- चक्रवालविष्कम्भेण वृत्तव्यासेन, इदं च प्रमाणयोजनमवसेयम्, यदाह 5 आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नग-पुढवि-विमाणाइं मिणसु पमाणंगुलेणं तु ।। [बृहत्सं० गा० ३४९] तथा पालकं यानविमानं सौधर्मेन्द्रसम्बन्ध्याभियोगिकपालकाभिधानदेवकृतं वैक्रियम्, यानं गमनम्, तदर्थं विमानम्, यायते वाऽनेने ति यानं तदेव विमानं यानविमानं पारियानिकमिति यदुच्यते । 10 अत्थीत्यादि, अस्ति विद्यते एकेषां केषांञ्चिन्नैरयिकाणामेकं पल्योपमं स्थितिरिति कृत्वा प्रज्ञप्ता प्रवेदिता मया अन्यैश्च जिनैः, सा च चतुर्थे प्रस्तटे मध्यमाऽवसेयेति, एवमेकं सागरोपमं त्रयोदशे प्रस्तटे उत्कृष्टा स्थितिरिति । असुरिंदवजियाणं ति चमर-बलिवर्जितानां भोमेजाणं ति भवनवासिनाम्, भूमौ पृथिव्यां रत्नप्रभाभिधानायां भवत्वात्तेषामिति, तेषां चैकं पल्योपमं मध्यमा स्थितिर्यत 15 उत्कृष्टा देशोने द्वे पल्योपमे सा, आह च दाहिण दिवट्ठ पलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं ।। [बृहत्सं० गा० ५] ति । __ असंखेजेत्यादि, असङ्ख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा, ते च ते सज्ञिनश्च समनस्काः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति असङ्ख्येयवर्षायुःसज्ञि१. "आत्मागलेन मिमीष्व वास्तु । तच्च त्रिविधम्, तद्यथा-खातमुच्छ्रितमुभयं च । तत्र खात कूप-तडाग-भूमिगृहादि. उच्छितं धवलगृहादि, उभयं भूमिगृहयुक्तधवलगृहादि । उत्सेधप्रमाणेनागुलेन मिमीष्व देहं सुरादीनां शरीरम् । प्रमाणाङ्गलेन पुनर्मिमीष्व नग-पृथिवी-विमानानि। तत्र नगाः पर्वता मेर्वादयः, पृथिव्यो घर्मादयः, विमानानि सौधर्मावतंसकार्दानि । विमानग्रहणं भवन-नरकावासाद्युपलक्षणम्, तेन तान्यपि प्रमाणाङ्गुलेन मिमीष्व" । इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम्॥ २. परि' खं० ।। ३. तदुच्यते जे२ हे२ ॥ ४. "दाहिणेत्यादि. दाक्षिणात्यानां नागकुमाराद्यधिपतीनां धरणप्रमुखानां नवानामिन्द्राणामुत्कृष्टमायुव्यर्धं पल्योपमं सार्धं पल्योपममित्यर्थः । उत्तरिल्लाणं ति औत्तराहानामुत्तरदिगभाविनां नागकुमारादीन्द्राणां भूतानन्दप्रभृतीनां नवानां देशोने किञ्चिदने द्वे पल्योपमे” इति बहत्संग्रहणीटीकायाम् ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तेषां केषाञ्चिद ये हैमवतैरण्यवतवर्षयोरुत्पन्नास्तेषामेकं पल्योपमं स्थितिः । एवं मनुष्यसूत्रमपि, नवरं गर्भे गर्भाशये व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिका न समूर्च्छनजा इत्यर्थः । वाणमन्तराणं देवाणं ति, देवानामेव न तु देवीनाम्, तासामर्द्धपल्योपमस्य 5 प्रतिपादितत्वात् । जोइसियाणं देवाणं ति चन्द्रविमानदेवानाम्, न सूर्यादिदेवानां नापि चन्द्रादिदेवीनाम्, पलियं च सयसहस्सं चंदाण वि आउयं जाण ।। [ बृहत्सं० गा० ७] इति वचनात्। सोहम्मे कप्पे देवाणं ति, इह देवशब्देन देवा देव्यश्च गृहीताः, सौधर्मे हि पल्योपमाद्धीनतरा स्थितिर्जघन्यतोऽपि नास्ति, इयं च प्रथमप्रस्तटेऽवसेया। सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं एगं सागरोवममिति, अत्र देवानामेव ग्रहण 10 न देवीनाम्, उत्कृष्टतोऽपि तत्र तासां पञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वात्, तथा एकं सागरोपममिति मध्यमस्थित्यपेक्षया, उत्कर्षतस्तत्र सागरोपमद्वयसद्भावात्, प्रस्तटापेक्षया त्वेषां सप्तमप्रस्तटे मध्यमाऽवसेया। ईसाणे कप्पे देवाणमित्यत्र देवग्रहणेन देवा देव्यश्च गृह्यन्ते, यतस्तत्र सातिरेकपल्योपमादन्या जघन्यतः स्थितिरेव नास्ति । ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणमित्यत्र देवानामेव ग्रहणं न देवीनाम्, तत्र तासामुत्कर्षतोऽपि 15 पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वादिति । तथा ये देवा: सागरं सागराभिधानमेवं सुसागरं सागरकान्तं भवं मनुं मानुषोत्तरं लोकहितमिह चकारो द्रष्टव्यः, समुच्चयस्य द्योतनीयत्वाद्, विमानं देवनिवासविशेषमासाद्येति शेषः, देवत्वेन न तु देवीत्वेन, तासां सागरोपमस्थितेरसम्भवात्, उत्पन्ना जातास्तेषां देवानामेकं सागरोपमं स्थितिरिति । एतानि च विमानानि सप्तमप्रस्तटेऽवसेयानि । 20 स्थित्यनुसारेण च देवानामुच्छ्वासादयो भवन्तीति तान् दर्शयन्नाह- ते णमित्यादि, येषां देवानामेकं सागरोपमं स्थितिस्ते देवाः, णमित्यलङ्कारे, अर्द्धमासस्य ‘अन्ते' इति शेष: आनन्ति प्राणन्ति, एतदेव क्रमेण व्याख्यानयन्नाह– उच्छ्वसन्ति निःश्वसन्ति, १. "चन्द्राणामपि सर्वेषां प्रत्येकमुत्कृष्टमायुर्विजानीयात् एकं पल्योपमं वर्षशतसहस्रम्” इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम्॥ २. "स्तेषां देवानामेव ग्रहणं न देवीनाम् । तत्र तासां सागरोपमं स्थितिरिति जे२ ।। ३. च नास्ति जे ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स० ० द्विस्थानकम् । -w वाशब्दा: विकल्पार्थाः, तथा तेषामेव वर्षसहस्रस्य अन्ते' इति शेषः, आहारार्थः आहारप्रयोजनमाहारपुद्गलानां ग्रहणमाभोगतो भवति, अनाभोगतस्तु प्रतिसमयमेव विग्रहादन्यत्र भवतीति । गाथेह जस्स जड़ सागरोवम ठिई तस्स तत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो ।। [बृहत्सं० गा० २१४] त्ति । सन्ति विद्यन्ते एगइया एके केचन भवसिद्धिय त्ति भवा भाविनी सिद्धिः मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिका: भव्याः । भवग्गहणेणं ति भवस्य मनुष्यजन्मनो ग्रहणम् उपादानं भवग्रहणं तेन सेत्स्यन्ति अष्टविधमहर्द्धिप्राप्त्या, भोत्स्यन्ते केवलज्ञानेन तत्त्वम्, मोक्ष्यन्ते कर्माशेः, परिनिर्वास्यन्ति कर्मकृतविकारविरहाच्छीतीभविष्यन्ति, किमुक्तं भवति ? सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्तीति ।।१।। 10 [सू० २] [१] दो दंडा पण्णत्ता, तंजहा- अट्ठादंडे चेव अणट्ठादंडे चेव । दवे रासी पण्णत्ता, तंजहा- जीवरासी चेव अजीवरासी चेव । दविहे बंधणे पण्णत्ते, तंजहा- रागबंधणे चेव दोसबंधणे चेव ३। [२] पुव्वाफग्गुणीणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते १। उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते २। पुव्वाभद्दवताणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते ३। उत्तराभद्दवताणक्खत्ते दुतारे 15 पण्णत्ते ४। _[३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं रतियाणं दो पलितोवमाई ठिती पण्णत्ता १। दोच्चाए पुढवीए णं अत्थेगतियाणं रतियाणं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता २। 20 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३। १. सागरावमा ठिई जे२ खमू० हे१ । सागराइं ठिई खंसं० । सागरोवमाई ठिई हे२ । “जस्स जइ सागराइं ठिई तम्स तत्तिएहिं पक्खहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सहिं आहारी ।।" बृहत्सं० गा० २१४ । "देवानां मध्ये यस्य दवस्य यावन्ति सागरीपमाणि स्थितिस्तस्य तावद्भिः पक्षरुच्छ्रासः, तावद्भिर्वर्षसहस्रैराहारः।" इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम् ।। २. "म्मेण आहारो जे ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __असुरिंदवज्जियाणं भोमेजाणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणातिं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ४॥ असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ५। असंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्साणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती 5 पण्णत्ता ६। सोहम्मे कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ७। ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ८। सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ९। ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साहियातिं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता १०। सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ११। माहिंदे कप्पे देवाणं जहण्णेणं साहियातिं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता १२। जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमातिं ठिती 15 पण्णत्ता १३। [४] ते णं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समप्पज्जति 10 ... अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति 20 बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३। टी०] सामान्यनयाश्रयणादेकतया वस्तून्यभिधायाधुना विशेषनयाश्रयणाद् द्वित्वेनाहदो दंडेत्यादि सुगममा द्विस्थानकसमाप्तेः, नवरमिह दण्ड-राशि-बन्धनार्थं सूत्राणां त्रयम्, नक्षत्रार्थं चतुष्टयम्, स्थित्यर्थं त्रयोदशकम्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमिति । तत्र अर्थेन स्वपरोपकारलक्षणेन प्रयोजनेन दण्डो हिंसा अर्थदण्डः, एतद्विपरीतोऽनर्थदण्ड इति । तथा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मृ० 3] त्रिस्थानकम् । रत्नप्रभायां द्विपल्योपमा स्थितिश्चतुर्थप्रस्तटे मध्यमा, द्वितीयायां द्वे सागरोपमे स्थितिः षष्ठप्रस्तटे मध्यमा । तथा असुरेन्द्रवर्जितभवनवासिनां द्वे देशोनपल्योपमे स्थितिरौदीच्यनागकुमारादीनाश्रित्यावसेया, यत आह- दो देसूणुत्तरिल्लाणं [बृहत्सं० ५] ति । तथा असङ्ख्येयवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च हरिवर्ष-रम्यकवर्षजन्मनां द्विपल्योपमा स्थितिरिति ।।२।। 5 [सू० ३] [१] तओ दंडा पण्णत्ता, तंजहा- मणदंडे वयदंडे कायदंडे १। तओ गुत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती २। तओ सल्ला पण्णत्ता, तंजहा- मायासल्ले णं, नियाणसल्ले णं, मिच्छादसणसल्ले णं ३। तओ गारवा पण्णत्ता, तंजहा- इड्डीगारवे रसगारवे सायागारवे ४। 10 तओ विराहणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- नाणविराहणा दंसणविराहणा चरित्तविराहणा ५। [२] मिगसिरणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते १। पुस्सणखत्ते तितारे पण्णत्ते २। जेट्ठाणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ३। अभीइणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ४। सवणणखत्ते तितारे पण्णत्ते ५। अस्सिणिणखत्ते तितारे पण्णत्ते ६। 15 भरणिणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ७। [३] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं रतियाणं तिण्णि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता १। दोच्चाए णं पुढवीए रतियाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता २। 20 तच्चाए णं पुढवीए णेरतियाणं जहण्णेणं तिण्णि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३॥ अपुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तिण्णि पलितोवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिण्णि पलितोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। 25 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे असंखेजवासाउयसण्णिगब्भवक्कंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिण्णि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ६। ___ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तिण्णि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ७। 5 सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तिण्णि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ८॥ __ जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकरपभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदरूवं चंदसिंगं चंदसिटुं चंदकूडं चंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमातिं 10 ठिती पण्णत्ता ९। [४] ते णं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति । संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव 15 सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३। [टी०] अथ त्रिस्थानकम्- तओ इत्यादि सर्वं सुगमम् । नवरमिह दण्ड-गुप्तिशल्य-गौरव-विराधनार्थं सूत्राणां पञ्चकम्, नक्षत्रार्थं सप्तकम्, स्थित्यर्थं नवकम्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमिति । तत्र दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डा: दुष्प्रयुक्तमनःप्रभृतयः । मन एव दण्डो मनोदण्डो मनसा वा दुष्प्रयुक्तेनात्मनो 20 दण्डो दण्डनं मनोदण्डः, एवमितरावपि । तथा गोपनानि गुप्तयः मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि शुभप्रवृत्तिकरणानि चेति । तथा तोमरादिशल्यानीव शल्यानि दःखदायकत्वात् मायादीनि, तत्र माया निकृतिः, सैव शल्यं मायाशल्यम्, णंकारो वाक्यालङ्कारे, एवमितरे अपि। नवरं निदानं देवादिद्धीनां दर्शन-श्रवणाभ्याम् 'इतो ब्रह्मचर्यादेरनुष्ठानात् ममैता भूयासुः' इत्यध्यवसायः, मिथ्यादर्शनम् १. चंदरूवं जे१ खं० विना नास्ति । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ४ चतुःस्थानकम् । अतत्त्वार्थश्रद्धानमिति । तथा गौरवाणि अभिमान-लोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावगुरुत्वानि, तानि च संसारचक्रवालपरिभ्रमणहेतु कर्म निदानानि । तत्र ऋद्धया नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया गौरवम् ऋद्धिगौरवम्, ऋद्धिप्राप्त्यभिमानतदप्राप्तिप्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवं रसेन गौरवं रसगौरवम्, सातेन गौरवं सातगौरवं चेति । तथा विराधना: खण्डनाः, तत्र ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना 5 ज्ञानप्रत्यनीकता-निह्नवादिरूपा, एवमितरे अपि, नवरं दर्शनं सम्यग्दर्शनं क्षायिकादि, चारित्रं सामायिकादीति । तथा असङ्ख्यातवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां देवकुरूत्तरकुरुजन्मनां त्रीणि पल्योपमानीति । तथा आभङ्करं प्रभङ्करं आभङ्करप्रभङ्करं चन्द्रं चन्द्रावतं चन्द्रप्रभं चन्द्रकान्तं चन्द्रवर्णं चन्द्रलेश्यं चन्द्रध्वजं चन्द्रशृङ्गं चन्द्रशिष्टं चन्द्रकूटं चन्द्रोत्तरावतंसकं विमानमिति ।।३।। 10 सू० ४] [१] चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तंजहा- कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए १! चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तंजहा- अहे झाणे, रुद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे २। __ चत्तारि विगहातो पण्णत्तातो, तंजहा- इत्थिकहा, भत्तकहा, रायकहा, 15 देसकहा ३। चत्तारि सण्णा पण्णत्ता, तंजहा- आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा ४ चउव्विहे बंधे पण्णत्ते, तंजहा- पगडिबंधे, ठितिबंधे, अणुभावबंधे, पदेसबंधे। 20 चउगाउए जोयणे पण्णत्ते ६। [२] अणुराहाणक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते १। पुव्वासाढणक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते २। उत्तरासाढनक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते३। [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चत्तारि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता १। 25 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं चत्तारि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलितोवमाइं ठिती 5 पण्णत्ता ४॥ सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा किटिं सुकिट्टि किट्ठियावत्तं किट्टिप्पभं किट्ठिजुत्तं किट्ठिवण्णं किट्ठिलेसं किट्ठिज्झयं किट्ठिसिंग किट्ठिसिटुं किट्ठिकूडं किट्ठत्तरवडेंसगं विमाणं 10 देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा चउण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं चउहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव 15 सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] चतु:स्थानकमपि सुगममेव, नवरं कषाय-ध्यान-विकथा-सञ्ज्ञा-बन्धयोजनार्थं सूत्राणां षट्कम्, नक्षत्रार्थं त्रयम्, स्थित्यर्थं षट्कम्, शेषं तथैव । अन्तर्मुहूर्त यावच्चित्तस्यैकाग्रता योगनिरोधश्च ध्यानम्, तत्राऽऽत्र्तं मनोज्ञा-ऽमनोज्ञवस्तुवियोगसंयोगादिनिबन्धनचित्तविक्लवलक्षणम्, रौद्रं हिंसा-ऽनृत-चौर्य-धनसंरक्षणाभि20 सन्धानलक्षणम्, धर्म्यमाज्ञादिपदार्थस्वरूपपर्यालोचनैकाग्रता, शुक्लं पूर्वगतश्रुतालम्बनन मनसोऽत्यन्तस्थिरता योगनिरोधश्चेति । तथा विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्त्र्यादिविषयाः कथा विकथाः । तथा सञ्जा: असातवेदनीय-मोहनीयकर्मोदयसम्पाद्या आहाराभिलाषादिरूपाश्चेतनाविशेषाः । तथा सकषायत्वाज्जीवस्य कर्मणो योग्यानां १. तथैव च । अन्त खं० ।। २. 'भिधान जे१ ११ ।। ३. "तावलम्ब' जे२ ।। ४. 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पदलानादत्त स बन्धः" इति तत्त्वार्थसूत्रे ८२।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चस्थानकम् । [मू० ५] पुद्गलानां बन्धनम् आदानं बन्धः, तत्र प्रकृतयः कर्मणोऽशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ, तासां बन्धः प्रकृतिबन्धः, तथा स्थिति: तासामवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नम्, तस्या बन्धो निवर्त्तनं स्थितिबन्धः, तथा अनुभावो विपाकस्तीवादिभेदो रसः, तस्य बन्धोऽनुभावबन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां बन्ध: सम्बन्धनं प्रदेशबन्ध इति । तथा कृष्टि-सुकृष्ट्यादीनि 5 द्वादश विमानानि पूर्वोक्तविमाननामानुसारवन्तीति ।।४।। सू० ५] [१] पंच किरियातो पण्णत्तातो, तंजहा- काइया अहिगरणिया पाओसिया पारितावणिया पाणातिवातकिरिया १।। पंच महव्वया पण्णत्ता, तंजहा- सव्वातो पाणातिवातातो वेरमणं, सव्वातो मुसावायातो वेरमणं, सव्वातो जाव परिग्गहाओ वेरमणं २। 10 पंच कामगुणा पण्णत्ता, तंजहा- सद्दा रूवा रसा गंधा फासा ३। पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा- मिच्छत्तं अविरति पमाए कसाए जोगा। पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा- सम्मत्तं विरती अप्पमादो अकसायया अजोगया ५। 15 पंच निजरट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- पाणातिवातातो वेरमणं, मसावायातो वेरमणं, अदिण्णादाणातो वेरमणं, मेहणातो वेरमणं, परिग्गहातो वेरमणं ६। पंच समितीतो पण्णत्ताओ, तंजहा- इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, आयाणभंडनिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेलसिंघाण-जल्लपारिट्ठावणिया समिती ७।। 20 पंच अत्थिकाया पण्णत्ता, तंजहा- धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए ८।। [२] रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते । पुणव्वसु नक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते । हत्थे नक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते ३॥ विसाहानक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते ४। धणिट्ठानक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते ५। 25 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [३] इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पंच पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता १ । तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पंच सागरोवमातिं ठती २० पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं पंच पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पंच पलितोवमातिं ठती पण्णत्ता ४| सणकुमार - माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पंच सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा वायं सुवायं वातावत्तं वातप्पभं वातकंतं वातवण्णं वातलेसं वातज्झयं वातसिंगं वातसिद्धं वातकूडं वाउत्तरवडेंसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंगं सूरसिहं सूरकूडं सूरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ता उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ६ | [४] ते णं देवा पंचहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंत वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं पंचहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जति २। संगतिया भवसिद्धिया जीवा [जे] पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३ | [टी०] पञ्चस्थानकमपि सुगमम्, नवरं क्रिया - महाव्रत-कामगुणाऽऽश्रव-संवरनिर्जरास्थान-समित्यस्तिकायार्थं सूत्राणामष्टकम्, नक्षत्रार्थं पञ्चकम् स्थित्यर्थं षट्कम्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमेवेति । क्रियाः व्यापारविशेषाः । तत्र कायेन निर्वृत्ता कायिकी, कायचेष्टेत्यर्थः । अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम्, तेन निर्वृत्ता आधिकरणिकी खड्गादिनिर्वर्त्तनादिलक्षणेति । प्रद्वेषो मत्सरः, तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी। १. तथा क्रिया: हेर ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चस्थानकम् । म परितापनं ताडनादिदु :खविशेषलक्षणम्, तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । प्राणातिपातक्रिया प्रतीतेति । तथा काम्यन्ते अभिलष्यन्ते इति कामा:, ते च ते गुणाश्च पुद्गलधर्माः शब्दादय इति कामगुणाः, कामस्य वा मदनस्योद्दीपका गुणाः कामगुणा: शब्दादय इति । तथा आश्रवद्वाराणि कर्मोपादानोपाया मिथ्यात्वादीनि। संवरस्य कमानुपादानस्य द्वाराणि उपाया: संवरद्वाराणि मिथ्यात्वाद्याश्रवद्वारविपरीतानि 5 सम्यक्त्वादीनि । तथा निर्जरा देशतः कर्मक्षपणा, तस्याः स्थानानि आश्रयाः कारणानीति यावत् निर्जरास्थानानि प्राणातिपातविरमणादीनि, एतान्येव च सर्वशब्दविशेषितानि महाव्रतानि भवन्ति, तानि च पूर्वसूत्रेऽभिहितानि, स्थूलशब्दविशेषितानि त्वणुव्रतानि भवन्ति, निर्जरास्थानत्वं पुनरेषां साधारणमिति तदिहैषामभिहितम् ।। तथा समितयः सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्र्यासमिति: गमने सम्यक् सत्त्वपरिहारत: 10 प्रवृत्तिः, भाषासमिति: निरवद्यवचनप्रवृत्तिः, एषणासमितिः द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने ग्रहणे भाण्डमात्राया उपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणे अवस्थापन समिति: सुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोच्चारस्य पुरीषस्य प्रश्रवणस्य मूत्रस्य खेलस्य निष्ठीवनस्य सिंघानस्य नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य च मलस्य परिष्ठापनायां परित्यागे समितिः स्थण्डिलादिदोषपरिहारतः प्रवृत्तिरिति पञ्चमी। 15 अस्तिकाया: प्रदेशराशयः, धर्मास्तिकायादयो गतिस्थित्यवगाहोपयोगस्पर्शादिलक्षणाः। स्थितिसूत्रेषु स्थितरुत्कृष्टादिविभाग एवमनुगन्तव्यः, यदुत सागरमग १ तिय २ सत्त ३ दस य ४ सत्तरस ५ तह य बावीसा ६ । तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसु वि कमेण पुढवीसु ।।१।। १. यल्लस्य ज१.२ खं० ।। २. सप्तस पृथिवीष्वियं यथासङ्ख्यमत्कष्टा स्थितिः । तद्यथा-रत्नप्रभायां पृथिव्यामकं सागरापममत्कष्टा स्थितिः । शर्कराप्रभाया त्रीणि सागरोपमाणि । वालुकाप्रभायां सप्त । पङ्कप्रभाया दश। धूमप्रभाया सप्तदश । तमः-प्रभाया द्वाविंशतिः । तमस्तम:प्रभाया त्रयस्त्रिंशदिति ।।२३३।। सम्प्रति सप्तस्वपि पृथिवीषु जघन्या स्थितिमाह-या प्रथमायां रत्नप्रभाभिधायां पृथिव्यां ज्येष्ठा उत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमलक्षणा सा द्वितीयस्यां पृथिव्या शर्कराप्रभायां कनिष्ठा जघन्या भणिता । एष तरतमयोगो जघन्यात्कष्टस्थितियोग: सर्वास्वपि पृथिवीषु भावनीयः । ....२३४॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ 5 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जा पढमाए जेट्ठा सा बीयाए कणिट्टिया भणिया । तरतमजोगो एसो दस वाससहस्स रयणाए ||२|| [ बृहत्सं० गा० २३३-२३४] तथा– दो १ साहि २ सत्त ३ साही ४ दस ५ चोइस ६ सत्तरेव अराइं । सोहम्मा जा सुक्को तदुवरि एक्केक्कमारोवे || [ बृहत्सं० गा० १२] > सत्त ५ दस य ६ चोहस य ७ । बृहत्सं० गा० १४] ति । पलियं १ अहियं २ दो सार ३ साहिया ४ सत्तरस ८ सहस्सारे तदुवरि एक्वेक्कमारोवे । [ तथा वातं सुवातमित्यादीनि द्वादश वाताभिलापेन विमाननामानि तावन्त्येव सूराभिलापेनेति ॥५॥ [सू० ६] [१] छल्लेसातो पण्णत्तातो, तंजहा- कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा 10 तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा १ । छज्जीवनिकाया पण्णत्ता, तंजहा - पुढवीकाए आउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सतिकाए तसकाए २ छव्विहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तंजहा- अणसणे ओमोदरिया वित्तीसंखेवो रसपरिच्चातो कायकिलेसे संलीणया ३| 15 छव्विहे अब्भंतरए तवोकम्मे पण्णत्ते, तंजहा - पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं सज्झाओ झाणं उस्सग्गो ४ | छ छाउमत्थिया समुग्धाया तंजहा- वेयणासमुग्घाते १. "सौधर्मात् सौधर्मकल्पात् यावत् शुक्रो महाशुक्राभिधः कल्पस्तावदनेन क्रमेण उत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपत्तव्या. तद्यथा-सौधर्मे कल्पे देवानामुत्कृष्टा स्थिति अतरे इति सम्बध्यते, तरीतुमशक्यं प्रभूतकालतरणीयत्वात् अतरं सागरोपमम्, सागरोपमे इत्यर्थः । ईशाने कल्पे ते एव द्वे सागरोपमे साधिके किञ्चित् समधिके उत्कृष्टा स्थितिः । सनत्कुमार कल्पे उत्कृष्टा स्थितिः सप्त सागरोपमाणि । माहेन्द्रकल्पे तान्येव सप्त सागरोपमाणि साधिकानि । ब्रह्मलोके कल्पे दश सागरोपमाणि । लान्तके कल्पे चतुर्दश । महाशुक्रे कल्पे सप्तदश । तदुवरि इक्किक्कमारोवे इति तस्य महाशुक्रस्य कल्पस्योपरि प्रतिकल्पं प्रतिग्रैवेयकं च पूर्वस्मात् पूर्वस्मादधिकमेकैकं सागरोपममुत्कृष्टायुश्चिन्तायामारोपयेत् । .... ||१२|| सौधर्मे कल्पे जघन्या स्थितिः पलियं ति एकं पल्योपमम् । ईशाने कल्पे अहियं ति तदेव पल्यापमं किञ्चित् समधिक जघन्या स्थितिः । सनत्कुमारे कल्पे द्वे सागरोपमे जघन्या स्थितिः । साहिय त्ति ते एव द्वे सागरोपमे किञ्चित्समधिक माहेन्द्रकल्प जघन्या स्थितिः । सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोके । दश लान्तके । चतुर्दश महाशुक्रे । समदश सहस्रार । ततस्तस्य सहस्रारकल्पस्योपरि प्रतिकल्पं प्रतिग्रैवेयकं विजयादिचतुष्टये चैकैकं सागरोपममधिकं जघन्यस्थितिचिन्तायामारोपयेत् । ||१४|| इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम् ।। २. य नास्ति जे२ खं० ॥ पण्णत्ता, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थानकम् । [सू० ६] कसायसमुग्घाते मारणंतियसमुग्घाते वेउव्वियसमुग्घाते तेयससमुग्घाते आहारसमुग्धा ५। छव्विहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते, तंजहा- सोतेंदियअत्थोग्गहे चक्खुइंदियअत्थोग्गह घाणिंदियअत्थोग्गहे जिब्भिंदियअत्थोग्गहे फासिंदियअत्थोग्गहे नोइंदियअत्थोग्गहे ६ | २३ [२] कत्तियानक्खत्ते छतारे पण्णत्ते १। असिलेसानक्खत्ते छतारे पण्णत्ते २। [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरतियाणं छ पलिओ माई ठिती पण्णत्ता १ । तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरतियाणं छ सागरोवमाई ठिती 5 10 पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं छ पलितोवमाई ठिती पण्णत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं छ पलितोवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। सणकुमार - माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं छ सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा सयंभुं सयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोसं किट्ठिघोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीरावत्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंगं वीरसिट्टं वीरकूडं वीरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६ । [४] ते णं देवा छण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा 20 नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] षट्स्थानकमथ, तच्च सुबोधम्, नवरमिह लेश्या - जीवनिकाय १. "कमेतच्च सुबोधम् जे२ ॥ 15 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बाह्याभ्यन्तरतपः-समुद्घाता - ऽवग्रहार्थानि सूत्राणि षट्, नक्षत्रार्थे द्वे, स्थित्यर्थानि षट्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमेवेति । तत्र लेश्यानां स्वरूपमिदम् 5 २४ कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मन: । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते । [ ] इति । तथा बाह्यं तपः बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तरं चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति । तथा छद्मस्थः अकेवली, तत्र भवा छाद्मस्थिकाः, सम् एकीभावेन उत् प्राबल्येन च घाता निर्जरणानि समुद्घाताः. वेदनादिपरिणतो हि जीवो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, 10 ते चेह वेदनादिभेदेन षडुक्ताः । तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्वेद्यकर्माश्रयः, कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रयः, वैकुर्विक- तैजसा -ऽऽहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः । तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातम्, मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत 15 आयुःकर्मपुद्गलघातम्, वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद् बहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च सङ्ख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति, एवं तैजसाऽऽहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति । तथा अर्थस्य सामान्यानिर्देश्यस्वरूपस्य शब्दादेः अवेति प्रथमं व्यञ्जनावग्रहानन्तरं ग्रहणं परिच्छेदनमर्थावग्रहः, स चैकसामयिको 20 नैश्चयिकः, व्यावहारिकस्त्वसङ्ख्येयसामयिकः, स च षोढा श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैर्नोइन्द्रियेण च मनसा जन्यमानत्वादिति । स्थितिसूत्रे स्वयम्भ्वादीनि विंशतिर्विमानानीति || ६ || - [सू० ७] [१] सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा - इहलोगभए पर लोगभए आदाणभए अकम्हाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए १ । १. मानानि खं० ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू०७ सप्तस्थानकम् । 10 सत्त समुग्घाता पण्णत्ता, तंजहा- वेयणासमुग्घाते कसायसमुग्घाते मारणंतियसमुग्घाते वेउव्वियसमुग्घाते तेयससमुग्घाते आहारसमुग्घाते केवलिसमुग्घाते २॥ समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीतो उटुंउच्चत्तेणं होत्था ३। सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तंजहा- चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे 5 नीलवंते रुप्पी सिहरी मंदरे ४। सत्त वासा पण्णत्ता, तंजहा- भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे रम्मए हेरण्णवते एरावते ५।। खीणमोहे णं भगवं मोहणिजवज्जातो सत्त कम्मपगतीओ वेदेति ६। [२] महानक्खत्ते सत्ततारे [पण्णत्ते १] कत्तियादीया सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता २। महादीया सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता ३। अणुराहाइया सत्त नक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता ४। धणिट्ठाइया सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता ५। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेंगतियाणं नेरइयाणं सत्त पलिओवमाइं 15 ठिती पण्णत्ता ११ तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २॥ चउत्थीए णं पुढवीए नेरइयाणं जहणणेणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिती 20 पण्णत्ता ५। सणंकुमारे कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। माहिंदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सातिरेगाइं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। १. सत्ततारे । पाठांतरण अभियाईया सत्त नक्खत्ता पं० तं० । कित्तियातीया सत्त जे१ खमू०। सत्ततारे। अभियाईया सत्त नक्खत्ता पव्वदारिया पं० तं० । पाठांतरेण कित्तियातीया खंसं० ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बंभलोए कप्पे देवाणं जहणणेणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ८। जे देवा समं समप्पभं महापभं पभासं भासरं विमलं कंचणकूडं सणंकुमारवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ९ । [३] ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंत वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं सत्तहिं वाससहस्सेहिं आहार समुपज्जति २ | 10 २६ संगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ सप्तस्थानकं विव्रियते तच्च कण्ठ्यम्, नवरमिह भय-समुद्घातमहावीर-वर्षधर-वर्ष-क्षीणमोहार्थानि सूत्राणि षट्, नक्षत्रार्थानि पञ्च, स्थित्यर्थानि नव, उच्छ्वासाद्यर्थानि त्रीण्येवेति । तत्रेहलोकभयं यत् सजातीयात्, परलोकभयं यद् विजातीयात्, आदानभयं यद् द्रव्यमाश्रित्य जायते, अकस्माद्भयं बाह्यनिमित्तनिरपेक्षं स्वविकल्पाज्जातम्, शेषाणि प्रतीतानि, नवरमश्लोकः अकीर्त्तिरिति । समुद्घाताः 15 प्राग्वत्, नवरं केवलिसमुद्घातो वेदनीय - नाम - गोत्राश्रय इति तथा रत्नि: वितताङ्गुलिर्हस्त इति, ऊर्ध्वोच्चत्वेन न तिर्यगुच्चत्वेनेति, होत्था बभूवेति । तथा अभिजिदादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि, पूर्वदिशि येषु गच्छतः शुभं भवति, एवमश्विन्यादीनि दक्षिणद्वारिकाणि, पुष्यादीन्यपरद्वारिकाणि, स्वात्यादीन्युत्तरद्वारिकाणीति सिद्धान्तमतम्, इह तु मतान्तरमाश्रित्य कृत्तिकादीनि सप्त सप्त पूर्वद्वारिकादीनि 20 भणितानि, चन्द्रप्रज्ञप्तौ तु बहुतराणि मतानि दर्शितानीहार्थ इति । स्थितिसूत्रे समादीन्यष्टौ विमाननामानीति ||७|| [सू० ८] अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुतमए लाभमए इस्सरियमए १ । अट्ठ पवयणमाताओ पण्णत्ताओ, तंजहा - इरियासमिई भासासमिई * एतादृशचिह्नाङ्गितेषु स्थलेषु विशेषजिज्ञासुभिः परिशिष्टे टिप्पणेषु द्रष्टव्यम् ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ८] अष्टस्थानकम् । एसणासमिई आयाणभंडनिक्खेवणासमिई उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती वतिगुत्ती कायगुत्ती २। वाणमंतराणं देवाणं चेतियरुक्खा अट्ठ जोयणाई उ8उच्चत्तेणं पण्णत्ता ३। जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई उ8उच्चत्तेणं पण्णत्ता ४। कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ५। 5 जंबुद्दीविया णं जगती अट्ठ जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ६। अट्ठसमइए केवलिसमुग्घाते पण्णत्ते, तंजहा- पढमे समए दंडं करेति, बीए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए मंथंतराई पूरेति, पंचमे समए मंथंतराइं पडिसाहरति, छठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति, ततो पच्छा सरीरत्थे 10 भवति । पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तंजहा सुभे य सुभघोसे य वसिट्टे बंभयारि य । सोमे सिरिधरे चेव, वीरभद्दे जसे इ य ॥१।। ८। ___15 [२] अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमई जोगं जोएंति, तंजहा- कत्तिया १, रोहिणी २, पुणव्वसू ३, महा ४, चित्ता ५, विसाहा ६, अणुराहा ७, जेट्ठा ८ । ९ [३] इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १॥ 20 चउत्थीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठ सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। बंभलोए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 25 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ___ जे देवा अच्चिं अच्चिमालिं वइरोयणं पभंकरं चंदाभं सुराभं सुपतिट्ठाभं अग्गिच्चाभं रिट्ठाभं अरुणाभं अरुणुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा अट्ठण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 5 ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं अट्ठहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । संगतिया भवसिद्धिया जाव अट्ठहिं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथाष्टस्थानकं व्याख्यायते, सुगमं चैतत्, नवरमिह मदस्थान-प्रवचनमातृ चैत्यवृक्ष-जम्बू-शाल्मली-जगती-केवलिसमुद्घात-गणधर-नक्षत्रार्थानि सूत्राणि नव, 10 स्थित्यर्थानि षट्, उच्छ्वासाद्यर्थानि त्रीणीति । तत्र मदस्य अभिमानस्य स्थानानि आश्रयाः मदस्थानानि जात्यादीनि । तान्येव मदप्रधानतया दर्शयन्नाह- जाईमए इत्यादि। जात्या मदो जातिमदः, एवमन्यान्यपि । अथवा मदस्य स्थानानि भेदाः मदस्थानानि, तान्येवाह- जाईमए इत्यादि, शेषं तथैव । तथा प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा सङ्घस्य मातर इव जनन्य इव प्रवचनमातरः ईर्यासमित्यादयः, द्वादशाङ्ग 15 हि ता आश्रित्य साक्षात् प्रसङ्गतो वा प्रवर्त्तते, भवति च यतो यत् प्रवर्त्तते तस्य तदाश्रित्य मातृकल्पतेति । सङ्घपक्षे तु यथा शिशुर्मातरममुञ्चन्नात्मलाभं लभते एवं सङ्घस्ता अमुञ्चन सङ्घत्वं लभते नान्यथेतीर्यासमित्यादीनां प्रवचनमातृतेति । तथा व्यन्तरदेवानां चैत्यवृक्षा: तन्नगरेषु सुधर्मादिसभानामग्रतो मणिपीठिकानामुपरि सर्वरत्नमया: छत्र-ध्वजादिभिरलङ्कृता भवन्ति, ते चैवं श्लोकाभ्यामवगन्तव्या: कलंबो उ पिसायाणं वडो जक्खाण चेइयं । तुलसी भूयाण भवे रक्खसाणं तु कंडओ ।।१।। असोगो किन्नराणं च किंपुरिसाण य चंपओ । नागरुक्खो भुयंगाणं गंधव्वाण य तुंबुरु ।।२।। [स्थानाङ्गसू० ६५४] त्ति । तथा जम्बु त्ति उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षः पृथिवीपरिणामः, सुदर्शनेति तन्नाम । एवं १. तुंबरु जे५ है । तेंदुओ इति स्थानाङ्गे पाठः ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु०१ अष्टस्थानकम् । कूटशाल्मली वृक्षविशेष एव, देवकुरुषु गरुडजातीयस्य वेणुदेवाभिधानस्य देवस्यावास इति । जगती जम्बूद्वीपनगरस्य प्राकारकल्पा पालीति । तथा पार्श्वस्याहत: त्रयोविंशतितमतीर्थकरस्य पुरिसादाणीयस्स त्ति पुरुषाणां मध्ये आदानीय: आदेयः पुरुषादानीयस्तस्य अष्टौ गणा. समानवाचना-क्रिया. साधुसमुदायाः, अष्टौ गणधरा: तन्नायका: सूरयः, इदं चैतत् प्रमाण स्थानाङ्गे पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके 5 अन्यथा. तत्र ह्युक्तम दस नवगं गणाण माणं जिणिंदाणं [आव० नि०२६८] ति । कोऽर्थः ? पार्श्वस्य दश गणा: गणधराश्च । तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना कारणेनाविवक्षाऽनुमातव्येति । सुभे इत्यादि श्लोकः । तथा अष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्धं प्रमई चन्द्रो मध्येन तेषां गच्छति' इत्येवंलक्षणं 10 योग सम्बन्धं योजयन्ति कुर्वन्ति, अत्रार्थेऽभिहितं लोकश्रियाम् पुणव्वसु रोहिणी चित्ता मह जेट्टणुराह कित्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोग [लोकश्री] त्ति । यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद् भवन्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्- एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिच्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्ति [लोकश्रीटीका] इति । तथा अति॒िरादीन्येकादश 15 विमाननामानि ||८|| - [सू० ९] [१] नव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्तातो, तंजहा- नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सेज्जासणाणि सेवित्ता भवति १, नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ २, नो इत्थीणं ठाणाई सेवित्ता भवति ३, नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएत्ता निज्झाएत्ता [भवति] ४, नो पणीयरसभोई [भवति] 20 १.. म०६५८ ।। २. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ट गणहरा हत्था, तजहा- सुभ य १ अजघोसे य२. वसिह ३ बभयारि य ४ । साम ५ सिरिहर ६ चव, वीरभद्रे ७ जसे वि य ८ ॥१६०॥' - इति पर्युषणाकल्पसूत्रे पार्श्वनाथरित्र ।। ३. "तित्तीस अट्टवीसा अट्टारस चेव तहय सत्तरस । इक्कारस दस नवगं गणाण माण जिणिदाणं ।।" इति सम्पूर्णा गाथा आवश्यकनियुक्तौ ।। ४. दृश्यतां स्था० टी० पृ०७६२ ।। .. दृश्यता म्था० स० ६६३, स्था० टी० प० ७६६ ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसृरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ५, नो पाण-भोयणस्स अइमायं आहारइत्ता [भवति] ६, नो इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलिआई सुमरइत्ता भवइ ७, नो सहाणुवाती नो रूवाणुवाती नो गंधाणुवाती नो रसाणुवाती नो फासाणुवाती नो सिलोगाणुवाती ८, नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवति ९ । १।। 5 नव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताणं सेज्जासणाणं सेवणया जाव सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवति । नव बंभचेरा पण्णत्ता, तंजहासत्थपरिण्णा लोगविजओ सीओसणिजं सम्मत्तं । आवंती धुतं विमोहायणं उवहाणसुतं महपरिण्णा ||२।। ३। 10 पासे णं अरहा [पुरिसादाणीए] नव रयणीओ उटुंउच्चत्तेणं होत्था ४। [२] अभीजिणक्खत्ते साइरेगे णव मुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएति १। __अभीजियाइया णं णव णक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तंजहाअभीजि, सवणो जाव भरणी २। इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो नव 15 जोयणसते उर्दू अबाहाते उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ३। जंबुद्दीवे णं दीवे णवजोयणिया मच्छा पविसिंसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा । विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए णव णव भोमा पण्णत्ता २। वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुधम्माओ णव जोयणाई उडुंउच्चत्तेणं 20 पण्णत्ताओ । दंसणावरणिजस्स णं कम्मस्स णव उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहाणिद्दा पयला णिहाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदसणावरणे ४। [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं नव 25 पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (म० ] नवस्थानकम् । चउत्थीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं नव पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं नव पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४| बंभलोए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं नव सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 5 जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं जाव पम्हत्तरवडेंसगं सुजं सुसुजं सुजावत्तं सुजप्पभं सुज्जकंतं जाव सुज्जुत्तरवडेंसगं रुतिल्लं रुतिल्लावत्तं रुतिल्लप्पभं जाव रुतिल्लत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं] नव सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति 10 वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं नवहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । __ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेस्संति ३|| [टी०] अथ नवस्थानकं सुबोधं च, नवरमिह ब्रह्मगुप्ति-तदगुप्ति-ब्रह्मचर्याध्ययन- 15 पार्थं सूत्राणां चतुष्टयम्, ज्योतिष्कार्थं त्रयम्, मत्स्य-भौम-सभा-दर्शनावरणार्थं चतुष्टयम्, स्थित्याद्यर्थानि तथैव । तत्र ब्रह्मचर्यगुप्तयो मैथुनविरतिपरिरक्षणोपायाः । नो स्त्री-पशु-पण्डकैः संसक्तानि सङ्कीर्णानि शय्यासनानि शयनीय-विष्टराणि वसत्यासनानि वा सेवयिता भवतीत्येका १, नो स्त्रीणां कथां कथयिता भवतीति द्वितीया २, नो स्त्रीगणान् स्त्रीसमुदायान् सेवयिता उपासयिता भवतीति तृतीया ३, 20 नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि नयन-नासावंशादीनि मनोहराणि आक्षेपकत्वात् मनोरमाणि रम्यतयाऽऽलोकयिता द्रष्टा, निाता तदेकाग्रचित्ततया द्रष्टैव भवतीति चतुर्थी ४, १. कथिता खं० ।। २. दृश्यतां स्था०सू० ६६३. स्था०टी० ए० ७६६ ।। ३. हे२ विना- द्रष्टा निध्याता नदेक जे. हे । द्रष्टा निध्यक्षति । तदेख०। द्रष्ट ध्यानिता तदेक जे२ । ४. निाता' इति स्थानाङ्ग [६६३ नम] सूत्रटीकायाम || Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे नो प्रणीतरसभोजी गलत्स्नेहरसबिन्दकस्य भोजनस्य भोजको भवतीति पञ्चमी ५. नो पानभोजनस्यातिमात्रम् अप्रमाणं यथा भवत्येवमाहारकः सदा भवतीति षष्ठी ६, नो पूर्वरत-पूर्वक्रीडितमनुस्मर्ता भवति, रतं मैथुनम, क्रीडितं स्त्रीभिः सह तदन्या क्रीडेति सप्तमी ७, नो शब्दानुपाती, नो रूपानुपाती, नो गन्धानुपाती, 5 नो रसानुपाती, नो स्पर्शानुपाती, नो श्लोकानुपाती, कामोद्दीपकान् शब्दादीनात्मनो वर्णवादं च नानुपतति नानुसरतीत्यर्थः इत्यष्टमी ८, नो सातसौख्यप्रतिबद्धश्चापि भवति, सातात् सातवेदनीयादुदयप्राप्ताद् यत् सौख्यं तत्तथा, अनेन च प्रशमसुखस्य व्युदास इति नवमी ९ । इदं च व्याख्यानं वाचनाद्वयानुसारेण कृतम्, प्रत्येकवाचनयोरेवंविधसूत्राभावादिति। 10 तथा कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्यम्, तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि, तानि चाऽऽचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति ।। तथा अभिजिन्नक्षत्रं साधिकानव मुहूर्तांश्चन्द्रेण सार्द्ध योगं सम्बन्धं योजयति करोति, सातिरेकत्वं च तेषां चतुर्विंशत्या मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागैः षट्षष्ट्या च द्विषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागानामिति । तथा अभिजिदादीनि नव नक्षत्राणि चन्द्रस्योत्तरेण योगं 15 योजयन्ति, उत्तरस्यां दिशि स्थितानि दक्षिणाशास्थितचन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भावः। बहुसमरमणिज्जाओ इत्यादि, अत्यन्तसमो बहुसमोऽत एव रमणीयो रम्यस्तस्माद् भूमिभागात्, न पर्वतापेक्षया नापि श्वभ्रापेक्षयेति भावः, रुचकापेक्षयेति तात्पर्यम्, अबाहाए त्ति अन्तरे ‘कृत्वे ति शेषः, उवरिल्ले त्ति उपरितनं तारारूपं तारकजातीयं चारं भ्रमणं चरति करोति । नवजोयणिय त्ति नवयोजनायामा एव 2C प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चयोजनशतिका मत्स्याः सम्भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति । विजयस्य द्वारस्य जम्बूद्वीपसम्बन्धिनः पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य एगमेगाए त्ति एकैकस्मिन् बाहाए त्ति बाहौ पार्श्व भौमानि नगराणीत्येके, विशिष्टस्थानानीत्यन्ये । तथा पक्ष्मादीनि द्वादश सूर्यादीन्यपि द्वादशैव रुचिरादीन्येकादश च विमाननामानीति ।।९।। १. अव जे. हे ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशस्थानकम । [मू० १० [सू० १०] [१] दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तंजहा- खंती १, मुत्ती २, अजवे ३. मद्दवे ४, लाघवे ५, सच्चे ६, संजमे ७, तवे ८, चियाते ९, बंभचेरवासे १० । १। । दस चित्तसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुव्वा समुप्पजेजा सव्वं धम्मं जाणित्तए १, सुमिणदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे 5 समुप्पज्जेजा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए २, सण्णिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेजा पुव्वभवे सुमरित्तए ३, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा दिव्वं देविढेि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए ४, ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजेज्जा ओहिणा लोगं जाणित्तए ५, ओहिदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजेज्जा ओहिणा लोगं पासित्तए 10 ६, मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजेजा मणोगए भावे जाणित्तए ७, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेजा केवलं लोग जाणित्तए ८, केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा केवलं लोयं पासित्तए ९, केवलिमरणं वा मरेजा सव्वदुक्खप्पहाणाए १० । २ । मंदरे णं पव्वते मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते ३। 15 अरहा णं अरिट्ठनेमी दस धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था ४। कण्हे णं वासुदेवे दस धणूइं उर्दूउच्चत्तेणं होत्था ५। रामे णं बलदेवे दस धणूइं उडुंउच्चत्तेणं होत्था ६। [२] दस नक्खत्ता नाणविद्धिकरा पण्णत्ता, तंजहामिगसिर अद्दा पूसो, तिण्णि य पुव्वाई मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा, दस विद्धिकराइं नाणस्स ।।३।। १। अकम्मभूमियाणं मणुयाणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताते उवत्थिया, तंजहा १. दशाश्रुतस्कन्ध चतुर्थेऽध्ययन [चतुर्थ्यां दशायां] तस्य निर्युक्तौ चूर्णो च विस्तरेण दशानां चित्तसमाधिस्थानाना वर्णनमस्ति । विस्तरण जिज्ञाभिः तत्रैव द्रष्टव्यम् ।। २. "भूमयाणं जे२ ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे मत्तंगया य भिंगा, तुडियंगा दीव जोइ चित्तंगा । चित्तरसा मणियंगा, गेहागारा अनियणा य ।।४।। २। [३] इमीसे [णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं जहणणेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता १। 5 इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं दस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता । चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता ३। चउत्थीए पुढवीए नेरइयाणं] उक्कोसेणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ४। पंचमाए पुढवीए [नेरइयाणं] जहण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 10 असुरकुमाराणं देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ६। असुरिंदवज्जाणं भोमेज्जाणं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ७। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ८। बादरवणप्फतिकाइयाणं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ९। वाणमंतराणं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता १०। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं दस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ११॥ बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता १२। लंतए कप्पे देवाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता १३। 20 जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुस्सरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिजं मंगलावतिं बंभलोगवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता १४। [४] ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति 25 २। 15 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मू० १०] दशस्थानकम् । 36 अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहिं जाव करेस्संति ३ । [टी०] दशस्थानकं सुबोधमेव, तथापि किञ्चिल्लिख्यते । इह पञ्चविंशतिः सूत्राणि । तत्र लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिता भावतो गौरवत्यागः । त्यागः सर्वसङ्गानाम्, संविग्नमनोज्ञसाधुदानं वा । ब्रह्मचर्येण वसनम् अवस्थानं ब्रह्मचर्यवास इति । तथा चित्तस्य मनसः समाधिः समाधानं प्रशान्तता, तस्य स्थानानि आश्रया भेदा वा 5 चित्तसमाधिस्थानानि । तत्र धर्मा जीवादिद्रव्याणामुपयोगोत्पादादयः स्वभावाः, तेषां चिन्ता अनुप्रेक्षा, धर्मस्य वा श्रुत चारित्रात्मकस्य सर्वज्ञभाषितस्य 'हरि - हरादिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानोऽयम्' इत्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता, वाशब्दो वक्ष्यमाणसमाधिस्थानान्तरापेक्षया विकल्पार्थ:, से इति यः कल्याणभागी तस् साधोरसमुत्पन्नपूर्वा पूर्वस्मिन्ननादौ अतीते कालेऽनुपजाता, तदुत्पादे 10 ह्युपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तान्ते कल्याणस्यावश्यंभावात्, समुत्पद्येत जायेत, किंप्रयोजना चेयमत आह– सर्वं निरवशेषं धर्मं जीवादिद्रव्यस्वभावमुपयोगोत्पादादिकं श्रुतादिरूपं वा जाणित्तए ज्ञपरिज्ञया ज्ञातुं ज्ञात्वा च प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरणीयधर्म्यं परिहर्तुम्, इदमुक्तं भवति– धर्मचिन्ता धर्मज्ञानकारणभूता जायत इति, इयं चं समाधेरुक्तलक्षणस्य स्थानमुक्तलक्षणमेव भवतीति प्रथमम् । 15 तथा स्वप्नस्य निद्रावशविकल्पज्ञानस्य दर्शनं संवेदनं स्वप्नदर्शनं तद्वा कल्याणप्राप्तिसूचकमसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, यथा भगवतो महावीरस्याऽस्थिकग्रामे शूलपाणियक्षकृतोपसर्गावसाने, किंप्रयोजनं चेदम् ? इत्याह- अहातच्चं सुमिणं पासित् त्ति, यथा येन प्रकारेण तथ्य: सत्यो यथातथ्यः, सर्वथा निर्व्यभिचार इत्यर्थः, तम्, स्वप्नः स्वप्नफलमुपचारात्, तं द्रष्टुं ज्ञातुम्, अवश्यंभाविनो मुक्त्यादेः 20 शुभस्वप्नफलस्य दर्शनाय साधोः स्वप्नदर्शनमुपजायत इति भावः । क्वचित् सुजाणं ति पाठः, तत्रावितथमवश्यंभावि सुयानं सुगतिं द्रष्टुं ज्ञातुं सुज्ञानं वा भाविशुभार्थपरिच्छेदं संवेदितुमिति, कल्याणसूचकावितथस्वप्नदर्शनाच्च भवति चित्तसमाधिरिति चित्तसमाधिस्थानमिदं द्वितीयम् । १. च नास्ति खं० ॥ २. त्पद्यते खं० ॥। ३. आहा जर हे१.२ । आह खं० ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ___ तथा सञ्ज्ञानं सञ्ज्ञा, सा च यद्यपि हेतुवाद-दृष्टिवाद-दीर्घकालिकोपदेशभेदेन क्रमेण विकलेन्द्रिय-सम्यग्दृष्टि-समनस्कसम्बन्धित्वात् त्रिधा भवति तथापोह दीर्घकालिकोपदेशसञ्ज्ञा ग्राह्येति, सा यस्यास्ति स सञी समनस्कः, तस्य ज्ञानं सज्ञिज्ञानम्, तच्चेहाधिकृतसूत्रान्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणमेव, तद्वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्व 5 समुत्पद्येत, कस्मै प्रयोजनाय ? इत्याह- पुव्वभवे सुमरित्तए त्ति पूर्वभवान् स्मर्तुम्, स्मृतपूर्वभवस्य च संवेगात् समाधिरुत्पद्यते इति समाधिस्थानमेतत् तृतीयमिति । तथा देवदर्शनं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, देवा हि तस्य गुणित्वाद् दर्शनं ददति, किम्फलम् ? इत्याह- दिव्यां देवर्द्धिं प्रधानपरिवारादिरूपां दिव्यां देवद्युतिं विशिष्टां शरीरा-ऽऽभरणादिदीप्ति दिव्यं देवानुभावम् उत्तम 10 वैक्रियकरणादिप्रभावं द्रष्टम्, एतद्दर्शनायेत्यर्थः, देवदर्शनाच्चागमार्थेषु श्रद्धानदाढ्यं धर्मे बहुमानश्च भवति, ततश्चित्तसमाधिरिति भवति देवदर्शनं चित्तसमाधिस्थानमिति चतुर्थम्। ___ तथा अवधिज्ञानं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, किमर्थम् ? इत्याह अवधिना मर्यादया नियतद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपेण लोकं ज्ञातुम्, लोकज्ञानायेत्यर्थः. 15 भवति च विशिष्टज्ञानाच्चित्तसमाधिरिति पञ्चमं तदिति। एवमवधिदर्शनसूत्रमपीति षष्ठम् । ___ तथा मन:पर्यवज्ञानं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत. किमर्थम् ? अत आह–मणोगते भावे जाणित्तए अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रेषु सज्ञिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां मनोगतान् भावान् ज्ञातुम्, एतज्ज्ञानायेत्यर्थ इति सप्तमम् । 20 तथा केवलज्ञानं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत. केवलं परिपूर्णम्, लोक्यते दृश्यते केवलालोकेनेति लोको लोकालोकरूपं वस्तु, तं ज्ञातुम्, केवलज्ञानस्य च समाधिभेदत्वाच्चित्तसमाधिस्थानता, इह चामनस्कतया केवलिनश्चित्तं चैतन्यमवसेयमित्यष्टमम् । एवं केवलदर्शनसूत्रम्, नवरं द्रष्टुमिति विशेष इति नवमम्। तथा केवलिमरणं वा म्रियेत कुर्यात् इत्यर्थः, किमर्थम् ? अत आह१. सज्ञानं ख० ।। २. तस्यानुत्पन्न ह२ विना ॥ ३. च नास्ति खं० ज१ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशस्थानकम् । म० ११ सर्वदःखप्रहाणायेति. इदं तु केवलिमरणं सर्वोत्तमसमाधिस्थानमेवेति दशममिति । तथा अकर्मभूमिकानां भोगभूमिजन्मनां मनुष्याणां दशविधा रुक्ख त्ति कल्पवृक्षाः उवभोगत्ताए त्ति उपभोग्यत्वाय उवत्थिय त्ति उपस्थिता उपनता इत्यर्थः । तत्र मत्ताङ्गका: मद्यकारणभूताः । भिंग त्ति भाजनदायिनः । तड़ियंग त्ति तूर्याङ्गसम्पादकाः । दीव त्ति दीपशिखा: प्रदीपकार्यकारिणः । जोइ त्ति ज्योतिः अग्निः, तत्कार्यकारिण 5 इति । चित्तंग त्ति चित्राङ्गाः पुष्पदायिनः । चित्ररसा भोजनदायिनः। मण्यङ्गा: आभरणदायिनः । गेहाकारा: भवनत्वेनोपकारिणः । अणियण त्ति, अनग्नत्वं सवस्त्रत्वम. तद्धतुत्वादनना इति । घोषादीन्येकादश विमाननामानीति ॥१०॥ [सू० ११] [१] एक्कारस उवासगपडिमातो पण्णत्तातो, तंजहा- दंसणसावए १, कतव्वयकम्मे २, सामातियकडे ३, पोसहोववासणिरते ४, दिया बंभयारी, 10 रत्तिं परिमाणकडे ५, दिआ वि राओ वि बंभयारी, असिणाती, विअडभोती, मोलिकडे ६, सचित्तपरिण्णाते ७, आरंभपरिण्णाते ८, पेसपरिण्णाते ९, उद्दिभत्तपरिणाते १०, समणभूते यावि भवति समणाउसो ११ । । [२] लोगंताओ णं एक्कारसहिं एक्कारेहिं जोयणसतेहिं अबाहाए जोतिसंते पण्णत्ते । 15 जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स एक्कारसहिं एक्कवीसेहिं जोयणसतेहिं [अबाहाए] जोतिसे चारं चरति ३। समणस्स णं भगवतो महावीरस्स एक्कारस गणहरा होत्था, तंजहा- इंदभूती अग्गिभूती वायुभूती वियत्ते सुहम्मे मंडिते मोरियपुत्ते अकंपिते अयलभाया मेतजे पभासे ४॥ 20 मूलनक्खत्ते एक्कारसतारे पण्णत्ते ५। हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरं गेवेजविमाणसतं भवति त्ति मक्खायं ६। मंदरे णं पव्वते धरणितलाओ सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते ७। १ भमकानां जे० हे.।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [३] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। ___पंचमाए पुढवीए [अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। 5 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु [अत्थेगतियाणं देवाणं] एक्कारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४| लंतए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 10 जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पभं बंभकंतं बंभवण्णं बंभलेसं बंभज्झयं बंभसिंगं बंभसिटुं बंभकूडं बंभुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं ] एक्कारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा एकारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं एक्कारसण्हं वाससहस्साणं 15 आहारट्ठे समुप्पजति । ___ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथैकादशस्थानम्, तदपि गतार्थम्, नवरमिह प्रतिमाद्यर्थानि सूत्राणि सप्त, स्थित्याद्यर्थानि तु नवेति, तत्रोपासते सेवन्ते श्रमणान् ये ते उपासका: श्रावकाः. तेषां 20 प्रतिमा: प्रतिज्ञाः अभिग्रहा: उपासकप्रतिमाः । तत्र दर्शनं सम्यक्त्वम्, तत् प्रतिपन्नः श्रावको दर्शनश्रावकः, इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमा-प्रतिमावतोरभेदोपचारात् प्रतिमावतो निर्देशः कृतः, एवमुत्तरपदेष्वपि, अयमत्र भावार्थ:- सम्यग्दर्शनस्य शङ्कादिशल्यरहितस्याणुव्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमेति । तथा कृतम् अनुष्ठितं व्रतानाम् अणुव्रतादीनां कर्म तच्छ्रवण-ज्ञान-वाञ्छा-प्रतिपत्तिलक्षणं 25 येन प्रतिपन्नदर्शनेन स कृतव्रतकर्मा प्रतिपन्नाणुव्रतादिरिति भावः, इयं द्वितीया । तथा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशस्थानकम् । 30 [ म० ११] सामायिकं सावद्ययोगपरिवर्जन- निरवद्ययोगासेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो ये सामायिककृतः, आहिताग्न्यादिदर्शनात् क्तान्तस्योत्तरपदत्वम्, तदेवमप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं मासत्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति । तथा पोषं पुष्टिं कुशलधर्माणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत् पौषधम्, तेनोपवसनम् अवस्थानमहोरात्रं यावदिति पौषधोपवास इति, अथवा पौषधं पर्वदिनमष्टम्यादि 5 तत्रोपवासः अभक्तार्थः पौषधोपवास इति इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहार- शरीरसत्कारा-ऽब्रह्मचर्य-व्यापारपरिवर्जनेष्विति, तत्र पौषधोपवासे निरतः आसक्तः पौषधोपवासनिरतः स एवंविधश्रावकश्चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः, अयमत्र भावः पूर्वप्रतिमात्रयोपत: (पेतस्य) अष्टमी - चतुर्दश्यमावास्या पौर्णमासीष्वाहारपौषधादिचतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरो मासान् यावच्चतुर्थप्रतिमा भवतीति । तथा 10 पञ्चमप्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वे करात्रिक प्रतिमाकारी भवतीति एतदर्थं च सूत्रमधिकृतसूत्रपुस्तकेषु न दृश्यते, दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी, रत्तिं ति रात्रौ किम् ? अत आह— परिमाणं स्त्रीणां तद्भोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत इति, अयमत्र भावः - दर्शन-व्रतसामायिका-ऽष्टम्यादिपौषधोपेतस्य पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारिणः शेषदिनेषु दिवा 15 ब्रह्मचारिणो रात्रावब्रह्मपरिमाणकृतोऽस्नानस्याऽरात्रिभोजिनः अबद्धकच्छस्य पञ्च मासान् यावत् पञ्चमी प्रतिमा भवतीति, उक्तं च अद्रुमिचउद्दसीसुं पडिमं ठाएगराईयं । पश्चार्द्धम् । असिणाणवियडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी य । * रत्तिं परिमाणकडो पडिमावज्जेस दियहेसु ॥ [ पञ्चाशक० १०।१७-१८ ]त्ति ॥ तथा दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी, असिणाइ त्ति अस्नायी स्नानपरिवर्जकः, क्वचित् पठ्यते - अनिसाइ ति न निशायामत्तीत्यनिशादी, वियडभोइ त्ति विकटे प्रकटे १. ८९९ निष्ठा | २|२| ३६ | निष्ठान्तं बहुव्रीहौ पूर्वं स्यात् । ९०० वाऽऽहिताग्न्यादिषु |२| २|३७| आहिताग्निः । अग्न्याहितः । आकृतिगणोऽयम् ।" इति पाणिनीयव्याकरणस्य व्याख्यायां सिद्धान्तकौमुद्याम् ॥ २. मान चतुरो जर । जर अनुसारेण तु पूर्वप्रतिमात्रयांपेतः अष्टमी - चतुर्दश्यमावास्या पौर्णमासीष्वाहारपौषधादिचतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानाः । चतुरो मासान् यावत चतुर्थप्रतिमा भवतीति' इति पाठः संभवेदत्र ॥ ३. भवत्येतदर्थं खं० ॥ 20 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे भावना प्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः, दिवापि चाप्रकाशदेशे न भुङ्क्ते अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी, मोलिकडे त्ति अबद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः, षष्ठप्रतिमेति प्रकृतम्, अयमत्र भावः- प्रतिमापञ्चकोक्तानुष्ठानयुक्तस्य ब्रह्मचारिणः षण्मासान् यावत् षष्ठी प्रतिमा भवतीति । तथा सचित्त इति सचेतनाहारः परिज्ञांतः तत्स्वरूपादिपरिज्ञानात् 5 प्रत्याख्यातो येन स सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावकः सप्तमी प्रतिमेति प्रकृतम्, इयमत्र पूर्वोक्तप्रतिमाषट्कानुष्ठानयुक्तस्य प्रासुकाहारस्य सप्त मासान् यावत् सप्तमी प्रतिमा भवतीति । तथा आरम्भः पृथिव्याद्युपमर्द्दनलक्षणः परिज्ञातः तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भपरिज्ञातः श्राद्धोऽष्टमी प्रतिमेति, इह भावनासमस्तपूर्वोक्तानुष्ठानयुक्तस्यारम्भवर्जनमष्टौ मासान् यावदष्टमी प्रतिमेति । तथा प्रेष्याः 10 आरम्भेषु व्यापारणीयाः परिज्ञाताः तथैव प्रत्याख्याता येन स प्रेष्यपरिज्ञातः श्रावको नवमीति, भावार्थश्चेह पूर्वोक्तानुष्ठायिनः आरम्भं परैरप्यकारयतो नव मासान् यावन्नवमी प्रतिमेति । तथा उद्दिष्टं तमेव श्रावकमुद्दिश्य कृतं भक्तम् ओदनादि उद्दिष्टभक्तम्, तत् परिज्ञातं येनासावुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः प्रतिमेति प्रकृतम्, इहायं भावार्थःपूर्वोदितगुणयुक्तस्याधाकर्मिकभोजन परिहारवतः क्षुरमुण्डितशिरसः शिखावतो वा केनापि 15 किञ्चिद् गृहव्यतिकरे पृष्टस्य तज्ज्ञाने सति जानामीति अज्ञाने च सति न जानामीति ब्रुवाणस्य दश मासान् यावदेवंविधविहारस्य दशमी प्रतिमेति । तथा श्रमणो निर्ग्रन्थस्तद्वद्यस्तदनुष्ठानकरणात् स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः, चकारः समुच्चये, अपिः सम्भावने, भवति श्रावक इति प्रकृतम्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्बूस्वामिनमामन्त्रयतोक्तम् इत्येकादशीति । इह चेयं भावना20 पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य क्षुरमुण्डस्य कृतलोचस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य ईर्यासमित्यादिकं साधुधर्ममनुपालयतो भिक्षार्थं गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिमाप्रतिपन्नाय भिक्षां दत्तेति भाषमाणस्य कस्त्वमिति कस्मिंश्चित् पृच्छति प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणस्यैकादश मासान् यावदेकादशी प्रतिमा भवतीति । पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना - दंसणसावर प्रथमा, कयवयकम्मे द्वितीया, "जात: स्वरूपा ख० ॥ ४० १. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ [म० ११] एकादशस्थानकम् । कयसामाइए तृतीया, पोसहोववासनिरए चतुर्थी, राइभत्तपरिण्णाए पञ्चमी, सचित्तपरिण्णाए षष्ठी, दिया बंभयारी राओ परिमाणकडे सप्तमी, दिया विराओ वि बंभयारी असिणाणए यावि भवति वोसट्टकेस - रोम - नहे अष्टमी, आरंभपरिण्णाए पेसपरिण्णाए नवमी, उदिट्टभत्तवज्जए दशमी, समणभूए यावि भवइत्ति समणाउसो एकादशीति, क्वचित्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमी, 5 प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी, उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणभूतश्चैकादशीति । तथा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य एकादश एगविंसे त्ति एकविंशतियोजनाधिकानि योजनशतानि अबाहाए त्ति अबाधया व्यवधानेन 'कृत्वे 'ति शेषः, ज्योतिषं ज्योतिश्चक्रं चारं परिभ्रमणं चरति आचरति, तथा लोकान्तात् णमित्यलङ्कारे एकादश एक्कारे त्ति एकादशयोजनाधिकानि एकादश योजनशतानि अबाधया 10 व्यवहिततया ‘कृत्वे’ति शेषः, जोतिसंते त्ति ज्योतिश्चक्रपर्यन्तः प्रज्ञप्त इति इदं च वाचनान्तरं व्याख्यातम्, उक्तं च ६ एक्कारसंक्वीस सय एक्काराहिया य एक्कारा । मेरुअलोगाबाहं जोइसचक्कं चरड़ ठाइ || [बृहत्सं० १०५] इति । अधिकृतवाचनायां पुनरिदमनन्तरं व्याख्यातमालापकद्वयं व्यत्ययेनापि दृश्यते । 15 विमाणसयं भवति त्ति मक्खायं ति इह मकारस्यागमिकत्वादयमर्थः विमानशतं भवतीति कृत्वा आख्यातं प्ररूपितं भगवता अन्यैश्च केवलिभिरिति सुधर्मस्वामि वचनम् । तथा मंदरे णं पव्व णं धरणितलाओ सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते, अस्यायमर्थः– मेरुर्भूतलादारभ्य शिखरतलमुपरिभागं यावद्विष्कम्भापेक्षयाऽ - 20 १. "निरये जे४.२ खं० ॥ २ पेसपरिण्णाए खं० जे१ हे१ मध्ये नास्ति ।। ३ द्वीपे नास्ति हे२ विना ।। ४. विंशे ह२ विना ॥। ५. "कानि एकादश योजनशतानि जे२ खंसं० ॥। ६. एकादश योजनशतानि इति पाठ: कुत्रापि नास्ति, केवलं खंसं० मध्ये पश्चात् पूरितः । ७. “इह यथासङ्ख्येन पदानां योजना, सा चैवम्एकादश योजनशतान्यकविंशत्यधिकानि मेरोरबाधामपान्तरालरूपां कृत्वा मनुष्यलोकवर्ति चरं ज्योतिश्चक्रं चरति । तथैकादश योजनशतान्येकादशाधिकान्यलोकाकाशस्याबाधामपान्तरालरूपां कृत्वा एतावद्भिर्योजनशतैरलाकाकाशादव स्थित्वेत्यर्थः, स्थिरं ज्योतिश्चक्रं तिष्ठति ॥ १०५ ॥ इति जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितबृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्र गलादेरेकादशभागेन परिहीणो हानिमुपगत: उच्चत्वेन उपर्युपरि प्रज्ञप्त:, इयमत्र भावना- मन्दरो भूतले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, ततश्चोच्चत्वेनाङ्गुले गतेऽगुलस्यैकादशभागो विष्कम्भतो हीयते, एवमेकादशस्वगुलेष्वगुलं हीयत. एतेनैव न्यायनैकादशसु योजनेषु योजनम् एवं सहस्रेषु सहस्रं ततो नवनवत्यां योजनसहस्रेषु 5 नव सहस्राणि हीयन्ते, ततो भवति सहस्रं विष्कम्भः शिखरे इति, अथवा धरणीतलात् धरणीतलविष्कम्भात् सकाशांच्छिखरतलं शिखरविष्कम्भमाश्रित्य मेरुरेकादशभागेन परिहीणो भवति, कस्यैकादशभागेन ? इत्याह- उच्चत्तेणं ति उच्चत्वस्य, तथाहिमेरोरुच्चत्वं नवनवतिः सहस्राणि, तदेकादशभागो नव, तैीनो मूलविष्कम्भापेक्षया शिखरतले. शिखरस्य साहसिकत्वात्, दशसाहसिकत्वाच्च मूलविष्कम्भस्येति । 10 ब्रह्मादीनि द्वादश विमाननामानि ।।११।। [सू० १२] [१] बारस भिक्खुपडिमातो पण्णत्तातो, तंजहा- मासिया भिक्खुपडिमा, दोमासिया [भिक्खुपडिमा], तेमासिया [भिक्खुपडिमा], चाउम्मासिया [भिक्खुपडिमा], पंचमासिया [भिक्खुपडिमा], छम्मासिया [भिक्खुपडिमा], सत्तमासिया [भिक्खुपडिमा], पढमा सत्तरातिंदिया 15 भिक्खुपडिमा, दोच्चा सत्तरातिदिया भिक्खुपडिमा, तच्चा सत्तरातिदिया भिक्खुपडिमा, अहोरातिया भिक्खुपडिमा, एक्करातिया भिक्खुपडिमा ११ दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते, तंजहा १. सभागासभागविषय विस्तृता विचारणा निशीथस्य भाष्य चूर्णौ च गा० २०६९-२१५८ विद्यत । विस्तरार्थिभिस्तत्र द्रष्टव्यम् । अत्र किञ्चिदपन्यस्यते- "एस संभागा सप्पभेओ वण्णिआ । एस य पव्वं सव्वविगाण अङ्कभरह एक्कसभागो आसी । पच्छा जाया- इम संभोइया इम असभोइया ।.... ... सासा पृच्छति- कति परिसजग एक्का संभोगा आसीत् ? कम्मि वा परिसे असंभोगा पवट्टा, कण वा कारणण ? तता भणतिसंपतिरण्णुप्पत्ती... ... ।। [निशीथभा० २१५५] । वद्धमाणसामिस्स सीसा सोहम्मो । तस्स जंबुणामा । तस्स वि पभवो । तस्स सेज्जभवो । तस्स वि सीसा जसभहो । जसभहसीसा संभूतो । संभूयस्स थलभहो। थूलभदं जाव सव्वसि एक्कसंभोगो आसी । थूलभद्दस्स जुगप्पहाणा दो सीसा-अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थी य । अजमहागिरी जेट्टो, अज्जमहत्थी तस्स सट्टि(हो?)यरो । थूलभद्दसामिणा अजसुहत्थिस्स गणो दिन्नो । तहावि अजमहागिरी अज्जमहत्थी य प्रीतिवसेण एक्कआ विहरति । अण्णया ते दोवि विहरंता कोसंबाहारं गता. तत्थ यदभिक्खं... ... । तं अज्जमहागिरी जाणित्ता अजसहत्थिं भणाति- अज्जो कीस रायपिडं पांडवह ? Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० १२ द्वादशस्थानकम् । UI उवहि सुय भत्तपाणे अंजलीपग्गहे ति य । दायणे य निकाए य, अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे ।।५।। कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणे ति य । समोसरण सन्निसेज्जा य, कहाते य पबंधणे ।।६।। २। दवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते, तंजहादुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं, दपवेसं एगनिक्खमणं ।।७।। ३। विजया णं रायधाणी दुवालस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता ४। रामे णं बलदेवे दवालस वाससताई सव्वाउयं पालइत्ता देवत्ति गए ५। 10 मंदरस्स णं पव्वतस्स चूलिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ६। जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वेतिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ७। सव्वजहणिया राती दुवालसमुहुत्तिया पण्णत्ता ८। एवं दिवसो वि 15 णायव्वो ९। सव्वट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लातो थूभियग्गातो दुवालस जोयणाई उर्दू उप्पतित्ता ईसिंपब्भारा नामं पुढवी पण्णत्ता १०। ईसिंपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा- ईसि त्ति वा, ईसिपब्भार त्ति वा, तणू ति वा, तणुयतरि त्ति वा, सिद्धी ति 20 तआ अजसुहत्थिणा भणियं- जहा राया तहा पया, ण एस रायपिंडो। तल्लिया तेल्लं. घयगोलिया घयं, दोसिया वत्थाई. पूइया भक्खभोज्जे दंति, एवं साहणं सुविहारे। अज्जमहागिरी माति त्ति काउं अज्जसहत्थिस्स कसातितो। एस सिस्साणगगेण ण पडिसेहेति । ततो अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थिं भणाति- अज्जपभिति तुम मम असंभातिओ॥" इति निशीथचूर्णी गा० २१८०-२१५४ ।। १. दातण जे खं० । दातणा जे२ ।। २. ति जे२ ।। ३. सण्णिसे जे१ ख० ॥ ४. तिहि गुत्तं अटी।। गाथेयमावश्यकनिर्युक्तावपि [गा० १२१६] वर्तते । तत्र तिगुत्तं च इति पाठः ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र वा, सिद्धालए ति वा, मुत्ती ति वा, मुत्तालए ति वा, बंभे ति वा, बंभवडेंसगे त्ति वा, लोकपडिपूरणे त्ति वा, लोगग्गचूलिआ ति वा ११। [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतिआणं नेरड़आणं बारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। 5 पंचमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं बारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं बारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४ 10 लंतए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं बारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा महिंदं महिंदज्झयं कंबुं कंबुग्गीवं पुंखं सुपुंखं महापुंखं पुंडं सुपुंडं महापंडं नरिंदं नरिंदोकंतं नरिंदत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसिं णं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति 15 वा नीससंति वा । तेसि णं देवाणं बारसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । अत्थेगतिया भवसिद्धिआ जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३। [टी०] द्वादशस्थानमथ, तच्च सुगमम्, नवरं स्थितिसूत्रेभ्योऽवागेकादश सूत्राणाह, 20 तत्र भिक्षुणां विशिष्टसंहनन-श्रुतवतां प्रतिमा: अभिग्रहा भिक्षुप्रतिमाः, तत्र मासिक्यादयः सप्तमासिक्यन्ता: सप्त मासेन मासेनोत्तरोत्तरं वृद्धा एकादिभिर्भक्तपानदत्तिभिश्चेति, तथा सप्त रात्रिंदिवानि अहोरात्राणि यास ताः सप्तरात्रिंदिवास्ताश्च तिम्रो भवन्तीति, सप्तानामुपर्यष्टमी प्रथमा सप्तरात्रिंदिवा, एवं नवमी द्वितीया, दशमी तृतीया. आसां च तिसृणामप्यनुष्ठानकृतो विशेषः, तथाहि- अष्टम्यां चतुर्थभक्तं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १२] तपः ग्रामादेर्बहिरवस्थानमुत्तानादिकं च स्थानमिति नवम्यां तु उत्कुटुकाद्यासनेन विशेषः, दशम्यां वीरासनादिना, तथा अहोरात्रप्रमाणाऽहोरात्रिकी एकादशी, साच षष्ठभक्तेन भवतीति विशेष : एकरात्रिकी रात्रिप्रमाणा सा चाष्टमभक्तेन रात्रौ प्रलम्बभुजस्य संहतपादस्येषदवनतकायस्यानिमेषनयनस्येति । तथा सम् एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजनं सम्भोग:, स 5 चोपध्यादिलक्षणविषयभेदात् द्वादशधा, तत्र उवहीत्यादि रूपकद्वयम्, तत्रोपधिर्वस्त्रपात्रादिस्तं सम्भोगिकः सम्भोगिकेन सार्द्धमुद्मोत्पादनैषणादोषैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः, अशुद्धं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तो वारात्र्यं यावत् सम्भोगार्हश्चतुर्थवेलायां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानोऽपि विसम्भोगार्ह इति, विसम्भोगिकेन वा पार्श्वस्थादिना वा संयत्या वा सार्द्धमुपधिं शुद्धमशुद्धं वा निष्कारणं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तोऽपि वेलात्रयस्योपरि 10 न सम्भोग्यः, एवमुपधेः परिकर्म परिभोगं वा कुर्वन् सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, उक्तं च द्वादशस्थानकम् । ४५ एग व दो व तिण व आउट्टंतस्स होड़ पच्छित्तं आलोचयत इत्यर्थः । आउट्टंते वि तओ परेण तिरहं विसंभोगो || [निशीथभा० २०७५ ] ति । * तथा सुय त्ति सम्भोगिकः सम्भोगिकस्य विसम्भोगिकस्य वोपसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचना- प्रच्छनादिकं विधिना कुर्वन् शुद्धः, तस्यैवाविधिनोपसम्पन्नस्यानुपसम्पन्नस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा स्त्रिया वा वाचनादि कुर्वंस्तथैव वेलायोपरि विसम्भोग्यः । तथा भत्त- पाणे त्ति उपधिद्वारवदवसेयम्, नवरमिह भोजनं दानं च परिकर्म-परिभोगयोः स्थाने वाच्यमिति । 15 तथा अंजलीपग्गहे इ यत्ति, इंह इतिशब्दा उपदर्शनार्थाः चकारा: 20 समुच्चयार्थाः, तत्रोपलक्षणत्वादञ्जलिप्रग्रहस्य वन्दनादिकमपीह द्रष्टव्यम्, तथाहिसम्भोगिकानामन्यसम्भोगिकानां वा संविग्नानां वन्दनकं प्रणाममञ्जलिप्रग्रहं 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' इति भणनम्, आलोचना - सूत्रार्थनिमित्तं निषद्याकरणं च कुर्वन् शुद्धः, १. उत्कुटका जे१ ॥ २. 'भक्तपर्यन्तरात्रौ हे२ । ३. सामनसमा खंमू० । समभावेन समा खसं० ॥ पग्गहे इति इह खं० ॥ ५ तनिष जे१.२ ।। ※ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पार्श्वस्थादेरेतानि कुर्वंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति । तथा दायणा य त्ति दानम्, तत्र, सम्भोगिकः सम्भोगिकाय वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहासमर्थे सम्भोगिकऽन्यसम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्धः, निष्कारणं विसम्भोगिकस्य पार्श्वस्थादेर्वा संयत्या वा तं यच्छंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चति । 5 तथा निकाये य त्ति निकाचनं छन्दनं निमन्त्रणमित्यनर्थान्तरम्, तत्र शय्योपध्याहार: शिष्यगणप्रदानेन स्वाध्यायेन च सम्भोगिकः सम्भोगिकं निमन्त्रयन् शुद्धः, शेषं तथैव। तथा अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे त्ति अभ्युत्थानमासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगाऽसम्भागस्थानमित्यर्थः, तत्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादे : कुवंस्तथैवासम्भाग्य:. उपलक्षणत्वाच्चाभ्युत्थानस्य किङ्करतां च प्राघूर्णक-ग्लानाद्यवस्थायां किं विश्रामणादि 10 करोमि' इत्येवंप्रश्नलक्षणां तथाऽभ्यासकरणं पार्श्वस्थादिधर्माच्च्युतस्य पुनस्तत्रैव संस्थापनलक्षणम्. तथा अविभक्तिं च अपृथग्भावलक्षणां कुर्वन्नशुद्धोऽसम्भोग्यश्च. एतान्येव यथाऽऽगमं कुर्वन् शुद्धः सम्भोग्यश्चेति ।। तथा किड़कम्मस्स य करणे त्ति कृतिकर्म वन्दनकं तस्य करणं विधानम्, तद् विधिना कुर्वन् शुद्धः, इतरथा तथैवासम्भोग्यः, तत्र चायं विधि: - यः साधुतिन 15 स्तब्धदेह उत्थानादि कर्तुमशक्तः स सूत्रमेवास्खलितादिगुणोपेतमुच्चारयति, एवमावर्त्तशिरोनमनादि यच्छक्नोति तत् करोत्येवं चाशठप्रवृत्तिर्वन्दनकविधिरिति भावः ।। तथा वेयावच्चकरणे इ य त्ति वैयावृत्यम् आहारोपधिदानादिना प्रश्रवणादिमात्रकार्पणादिनाऽधिकरणोपशमनेन सहायदानेन वोपष्टम्भकरणं तस्मिंश्च विषये सम्भागासम्भोगौ भवत इति । 20 तथा समोसरणं ति जिनस्नपन-रथानुयान-पटयात्रादि यत्र बहवः साधवो मिलन्ति तत् समवसरणम्, इह च क्षेत्रमाश्रित्य साधूनां साधारणोऽवग्रहो भवति. वसतिमाश्रित्य साधारणोऽसाधारणो वेति. अनेन चान्येऽप्यवग्रहा उपलक्षिताः, ते चानेके. तद्यथावर्षावग्रह ऋतुबद्धावग्रहो वृद्धवासावग्रहश्चेति, एकै कश्चायं साधारणावग्रहः १ दायण जे२ ॥ २ नि:काये य त्ति नि:काचनं १ ॥ ३. संभोगिक: जसं२ ह२ मध्य एव वर्तत।। ४. पाश्वस्थत्वादिधर्माच्युतस्य ज२ । पार्श्वस्थादिधर्माच्युतस्य हे१.२ ॥ ५. संस्थानलक्षणम् ख० ज.२ है५ ॥ ६. सहायदानेन नास्ति ख० । ७. “वादिषु यत्र हे२ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशस्थानकम् । म० १२ प्रत्येकावग्रहश्चति द्विधा, तत्र यत् क्षेत्र वर्षाकल्पाद्यर्थं युगपद् व्यादिभिः साधुभिभिन्नगच्छस्थैरनुज्ञाप्यते स साधारणो यत्तु क्षेत्रमेके साधवोऽनुज्ञाप्याश्रिता: स प्रत्येकावग्रह इति. एवं चैतेष्ववग्रहेषु आकुट्ट्या अनाभाव्यं सचित्तं शिष्यमचित्तं वा वस्त्रादि गृह्णन्तोऽनाभागेन च गृहीतं तदनर्पयन्तः समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च प्रायश्चित्तिनो भवन्त्यसंभाग्याश्च, पार्श्वस्थादीना चावग्रह एव नास्ति तथापि यदि तत् क्षेत्र क्षुल्लकमन्यत्रैव 5 च संविग्ना निर्वहन्ति ततस्तत् क्षेत्रं परिहरन्त्येव, अथ पार्श्वस्थादिक्षेत्रं विस्तीर्ण सविनाश्चान्यत्र न निर्वहन्ति ततस्तत्रापि प्रविशन्ति सचित्तादि च गृह्णन्ति प्रायश्चित्तिनोऽपि न भवन्तीति. आह च ममणुन्नमणुन्ने वा अदिंत अणाभव्व गिण्हमाणे वा । संभाग वीसुकरणं पृथक्करणमित्यर्थः इयरे य अलंभि पेल्लिंति ।। [निशीथभा० २१२४] 10 इतरान् पार्श्वस्थादीनित्यर्थः । तथा सन्निसिज्जा य त्ति सन्निषद्या आसनविशेषः, सा च सम्भोगासम्भोगकारणं भवति, तथाहि- संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्त्तनां कगेति शुद्धः. अथामनोज्ञ-पार्श्वस्थादि-साध्वी-गृहस्थैः सह तदा प्रायश्चित्ती भवति, तथा अक्षनिषद्यां विनाऽनुयोगं कुर्वतः शृण्वतश्च प्रायश्चित्तम्, तथा निषद्यायामुपविष्ट: 15 सूत्रार्थों पृच्छति अतीचारान् वाऽऽलोचयति यदि तदा तथैवेति । तथा कहाए य पबंधणे त्ति कथा वादादिका पञ्चधा तस्याः प्रबन्धनं प्रबन्धन करण कथाप्रबन्धनम्, तत्र सम्भोगा-ऽसम्भोगौ भवतः, तत्र मतमभ्युपगम्य पञ्चावयवेन त्र्यवयवन वा वाक्यन यत्तत्समर्थन स छल-जातिविरहितो भूतार्थान्वेषणपरा वादः, स एव छल-जाति-निग्रहस्थानपरो जल्पः, यत्रैकस्य पक्षपरिग्रहोऽस्ति नापरस्य सा 20 दुषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा, तथा प्रकीर्णकथा चतुर्थी, सा चोत्सर्गकथा द्रव्यास्तिकनयकथा १. “ममणुण्णमणुण्ण वा, अदितऽणाभव्वगेण्हमाणे वा । संभोग वीसु करणं, इतरे य अलंभे पल्लंति ।।२१२४॥ सभातिता जा अणाभव्वं गण्हति गहियं वा ण देति सो संभोगा तो वीसं पृथक क्रियते । असंभाइओ वि अणाहव्वं गण्हति, गहियं वा ण देति. जेसि सो संभोइओ ते तं विसंभोगं करेंति । इयरे त्ति पासत्थाती तसि त्थि उगहा. अणगह वि पासत्थाइयाण जाति खड्ग खत्त अण्णआय विग्गा सथरता पति तत्थ सचित्ताचिणिप्फण्ण। अह पासत्थादियाण बित्थिण्णं खत्तं, ते य ण देति. अण्णता य असंथरता. ताह संविग्गा पलंति, सचित्ताइयं च गेण्हता मुद्धा ।। २५२४।।" - इति निशीथ चूर्णी ।। २. अलंभे रोलिंति जे२ ।। ३-४. संनि जे० ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आचार्यश्रीअभयदवसूरिविरचितीकासहित समवायाङ्गसत्र वा, तथा निश्चयकथा पञ्चमी, सा चापवादकथा पर्यायास्तिकनयकथा वेति, तत्राद्यास्तिस्रः कथा: श्रमणीवजैः सह करोति, श्रमणीभिस्तु सह कुर्वन् प्रायश्चित्ती. चतुर्थवेलायां चालो चयन्नपि विसम्भोगार्ह इति रूपकद्वयस्य संक्षेपार्थ :, विस्तरार्थस्तु निशीथपञ्चमोद्देशकभाष्यादवसेय इति । 5 तथा दुवालसायते किइकम्मे त्ति द्वादशावर्त कृतिकर्म वन्दनकं प्रज्ञप्तम् । द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुवदन् शेषांश्च तद्धर्मानभिधित्सुः रूपकमाह- दुओणएत्यादि । अवनतिरवनतम् उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवनते यस्मिंस्तद् व्यवनतम्. तत्रैकं यदा प्रथममेव इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए' त्ति अभिधायावग्रहानुज्ञापनायावनमति, द्वितीय पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनायैवावनमतीति । 10 यथाजातं श्रमणत्वभवनलक्षणं जन्माश्रित्य योनिनिष्क्रमणलक्षणं च. तत्र रजोहरणमुखस्त्रिका-चोलपट्टमात्रया श्रमणो जातो रचितकरपुटस्तु यान्या निर्गतः, एवभूत एव वन्दते. तदव्यतिरेकाच्च यथाजातं भण्यते कृतिकर्म वन्दनकम, बारसावयं ति द्वादशाऽऽवर्ताः सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषा: यतिजनप्रसिद्धा यस्मिंस्तद द्वादशावर्त्तम् । तथा चउसिरं ति चत्वारि शिरांसि यस्मिंस्तच्चतुःशिर:. प्रथमप्रविष्टस्य 15 क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना । तथा तिहि गत्तं ति तिसृभिर्गुप्तिभिर्गप्तम्, पाठान्तरेऽपि तिसभिः शद्धं गप्तिभिरेवेति । तथा १. सभागविषय निशीथभाष्य पञ्चम उद्देशक २०६९ त: २५५८ पर्यन्तास गाथास विस्तरेण वर्णनमस्ति !। २. सावते ख०।। ३. साययं जेर १५.२ ।। ४. न्तरे तुजेर हे१.२। दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य। चदस्सिरं तिसद्ध च किदियम्म पउंजदे ।।६०३।। दोणदं.- अवनतो पञ्चनमस्कारादावकावनतिभूमिसंस्पर्शम्तथा चर्विंशतिस्तवादा द्वितीयाऽवनति: शरीग्नमनम, द्व अवनती, जहाजादं- यथाजात जातरूपसदशं क्रोधमानमायासगादिहितम । बारसावत्तमव य द्वादशावता एवं च पञ्चनमस्काराच्चारणादो मनोवचनकायाना संयमनानि शुभयोगवत्तयत्रय आवत्तांस्तथा पञ्चनस्कारसमाप्तो मनावचनकायाना शुभवत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावर्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादी मनावचनकाया: शभवत्तयखीण्यपगण्यावर्त्तनानि तथा चावंशतिस्तवसमाप्तो शुभमनावचनकायवृत्तयत्रीण्यावर्त्तनान्येवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तया द्वादशावर्ता भवति. अथवा चतसृषु दिक्ष चत्वारः प्रणामा एकस्मिन भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवन्ति, चदस्सिरं चत्वारि शिगसि पञ्चनमस्कारस्यादावन्ते च करमुकुलाकितशिर:करणं तथा चतुर्विंशतिस्तवस्यादावन्ते च करमुकुलाङ्कितशिर:करणमव चत्वारि शिरांसि भवन्ति, त्रिशुद्ध मनोवचनकायशुद्ध क्रियाकर्म प्रयुक्त कराति । द्वे अवनती यस्मिंस्तत व्यवति क्रियाकर्म. द्वादशावर्ताः यस्मिंस्तत द्वादशावर्त्तम, मनोवचनकायशुद्धया चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत् चतुः शिर क्रियाकर्मव विशिष्ट यथाजातं क्रियाकर्म प्रयजीतेति ।।६०३।।" ... इति मूलाचारस्य वसुनन्दिटीकायाम् ।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० १३ त्रयोदशस्थानकम । दपवेसं ति द्वौ प्रवेशौ यस्मिंस्तद् द्विप्रवेशम्, तत्र प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति । एगनिक्खमणं ति एकनिष्क्रमणमवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां ह्यवग्रहान्न निर्गच्छति. पादपतित एव सूत्रं समापयतीति । ___ तथा विजया राजधानी असङ्ख्याततमे जम्बूद्वीपे आद्यजम्बूद्वीपविजयाभिधानपूर्वद्वाराधिपस्य विजयाभिधानस्य पल्योपमस्थितिकस्य देवस्य सम्बन्धिनीति । तथा 5 रामो नवमो बलदेव: देवत्तिं गए त्ति देवत्वं पञ्चमदेवलोकदेवत्वं गतः । तथा सर्वजघन्या रात्रिरुत्तरायणपर्यन्ताहोरात्रस्य रात्रिः, सा च द्वादशमौहूर्तिका चतुर्विंशतिर्घाटकाप्रमाणा, एवं दिवसो वि त्ति सर्वजघन्यो द्वादशमौहूर्तिक एवेत्यर्थः, स च दक्षिणायनपर्यन्तदिवस इति । ___ महेन्द्र-महेन्द्रध्वज-कम्बु-कम्बुग्रीवादीनि त्रयोदश विमानानीति ॥१२॥ 10 [सू० १३] [१] तेरस किरियट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- अट्ठादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकम्हादंडे, दिट्ठिविपरियासियादंडे, मुसावायवत्तिए, अदिन्नादाणवत्तिए, अज्झथिए, माणवत्तिए, मित्तदोसवत्तिए, मायावत्तिए, लोभवत्तिए, इरिआवहिए णामं तेरसमे १। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणपत्थडा पण्णत्ता २। सोहम्मवडेंसगे णं विमाणे णं अद्धतेरस जोयणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ३। एवं ईसाणवडेंसगे वि ४| जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं अद्धतेरस जातिकुलकोडीजोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता ५। पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता ६। 20 गब्भवकंतिअपंचेंदिअतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहासच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चामोसमणपओगे असच्चामोसमणपओगे सच्चवतिपओगे मोसवतिपओगे सच्चामोसवतिपओगे असच्चामोसवतिपओगे १ देवत्तिगय त्ति जे१.२ ।। २. इतः परं लोकप्रसिद्ध्या सातिरेक इति खमू० मध्येऽधिकः पाठः । जेर मध्ये त 'लोकप्रसिद्धा सातिरेका साऽन्या इति पत्रस्य अन्तराले =Margin मध्य] पूरितः पाठः ।। 15 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ओरालियसरीरकायपओगे ओरालियमीससरीरकायपओगे वेउव्वियसरीरकायपओगे वेउव्वियमीससरीरकायपओगे कम्मसरीरकायपओगे ७/ सूरमंडले जोयणेणं तेरसहिं एक्कसट्ठिभागेहिं जोयणस्स ऊणे पण्णत्ते ८ [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेरस 5 पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १॥ पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तेरस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तेरस पलिओवमाई ठिती 10 पण्णत्ता ४ लंतए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं तेरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा वजं सुवजं वज्जावत्तं वजप्पभं वजकंतं वजवण्णं वजलेसं वज्जज्झयं वज्जसिंगं वज्जसिटुं वज्जकूडं वज्जुत्तरवडेंसगं वइरं वइरावत्तं जाव वइरुत्तरवडेंसगं लोगं लोगावत्तं लोगप्पभं जाव लोगुत्तरवडेंसगं विमाणं 15 देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं तेरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । 20 अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तेरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ त्रयोदशस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, इह स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वागष्ट सूत्राणि, तत्र करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा, तस्या: स्थानानि भेदाः पर्यायाः क्रियास्थानानि । तत्राऽर्थाय शरीर-स्वजन-धर्मादिप्रयोजनाय दण्डः त्रस-स्थावरहिंसा 25 अर्थदण्डः क्रियास्थानमिति प्रक्रमः १, तद्विलक्षणोऽनर्थदण्डः २ । तथा हिंसामाश्रित्य Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० १३ त्रयोदशस्थानकम । 'हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यति वा अयं वैरिकादिम्'ि इत्येवं प्रणिधानेन दण्डो विनाशनं हिंसादण्डः ३ । तथाऽकस्माद् अनभिसंधिनाऽन्यवधार्थप्रवृत्त्या दण्डः अन्यस्य विनाशोऽकस्माद्दण्डः ४ । तथा दृष्टेः बुद्धेर्विपर्यासिका विपर्यासिता वा दृष्टिविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिता वा मतिभ्रम इत्यर्थः, तया दण्डः प्राणिवधो दृष्टिविपर्यासिकादण्डो दृष्टिविपर्यासितादण्डो वा, मित्रादेरमित्रादिबुद्ध्या हननमिति भाव: ५ । तथा मृषावादः 5 आत्मपराभयार्थमलीकवचनम्, तदेव प्रत्यय: कारणं यस्य दण्डस्य स मृषावादप्रत्ययः ६ । एवमदत्तादानप्रत्ययोऽपि ७ तथा अध्यात्मनि मनसि भव आध्यात्मिको बाह्यनिमित्तानपक्षः शाकाभिभव इति भावः ८ । तथा मानप्रत्ययो जात्यादिमदहेतुकः ९ । तथा मित्रद्वेषप्रत्यय: माता-पित्रादीनामल्पेऽप्यपराधे महादण्डनिर्वर्त्तनमिति भावः १० । मायाप्रत्ययो मायानिबन्धनः ११ । एवं लोभप्रत्ययोऽपि १२ । ऐर्यापथिकः 10 कवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्ध: उपशान्तमोहादीनां सातवेदनीयबन्धः १३।। __ तथा विमाणपत्थड त्ति विमानप्रस्तटा औत्तराधर्यव्यवस्थिताः । तथा सोहम्मवडेंसए त्ति सौधर्मस्य देवलोकस्यार्द्धचन्द्राकारस्य पूर्वापरायतस्य दक्षिणोत्तरविस्तीर्णस्य मध्यभागे त्रयोदशप्रस्तटे शक्रावासभूतं विमानं सौधर्मावतंसकं सौधर्मदेवलोकस्यावतंसक: शेखरक: स इव प्रधानत्वात् इत्येवं यथार्थनामकमिति, णंकारौ वाक्यालङ्कारे, अर्द्ध 15 त्रयोदशं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानि तानि च तानि योजनशतसहस्राणि चेति विग्रहः, सामा॑नि द्वादशेत्यर्थः । तथाऽर्द्धत्रयोदशानि जातौ जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्जातौ कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि उत्पत्तिस्थानप्रभवानि यानि शतसहस्राणि तानि तथोच्यन्त इति । तथा पाणाउस्स त्ति, यत्र प्राणिनामायुर्विधानं सभेदमभिधीयते तत् प्राणायुादशं पूर्वम्, तस्य त्रयोदश वस्तूनि अध्ययनवद्विभागविशेषाः । 20 तथा गर्भे गर्भाशये व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति विग्रहः । प्रयोजनं मनोवाक्कायानां व्यापारणं प्रयोगः, स त्रयोदशविधः, पञ्चदशानां प्रयोगाणां मध्ये आहारका-ऽऽहारकमिश्रलक्षणकायप्रयोगद्वयस्य तिरश्चामभावात, तौ हि संयमिनामेव स्तः, संयमश्च संयतमनुष्याणामेव १. भाव. नाम्ति जर ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसृरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र न तिरश्चामिति, तत्र सत्यासत्योभयानुभयस्वभावाश्चत्वारो मनःप्रयोगा: वाक्प्रयोगाश्चेति अष्टौ. पञ्च पुनरौदारिकादय: कायप्रयोगाः, एवं त्रयोदशेति । तथा सूरमण्डलस्य आदित्यविमानवृत्तस्य योजनं सूरमण्डलयोजनं तत् णमित्यलङ्कार त्रयोदशभिरेकषष्टिभागैर्येषां भागानामेकषष्ट्या योजनं भवति तैर्भागैर्यो जनस्य 5 सम्बन्धिभिरूनं न्यूनं प्रज्ञप्तम्, अष्टचत्वारिंशद् योजनभागा इत्यर्थः । वज्राभिलापेन द्वादश वइराभिलापेन लोकाभिलापेन चैकादश विमानानीति ।।१३।। [सू० १४] [१] चोद्दस भूयग्गामा पण्णत्ता, तंजहा- सुहुमा अपजत्तया, सुहमा पज्जत्तया, बादरा अपज्जत्तया, बादरा पजत्तया, बेइंदिया अपजत्तया, बइंदिया पज्जत्तया, तेइंदिया अपज्जत्तया, तेइंदिया पज्जत्तया, चउरिदिया 10 अपज्जत्तया, चउरिंदिया पज्जत्तया, पंचिंदिया असन्निअपज्जत्तया, पंचिंदिया असन्निपज्जत्तया, पंचिंदिया सन्निअपजत्तया, पंचिंदिया सन्निपजत्तया ११ चोद्दस पुव्वा पण्णत्ता, तंजहाउप्पायपुव्वमग्गेणियं च ततियं च वीरियं पुव्वं । अत्थीणत्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च ।।८।। सच्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्वं च । कम्मप्पवायपुव्वं पच्चक्खाणं भवे नवमं ।।९।। विजाअणुप्पवायं अवंझ पाणाउ बारसं पुव्वं । तत्तो किरियविसालं पुव्वं तह बिंदुसारं च ।।१०।। २। अग्गेणीयस्स णं पुव्वस्स चोद्दस वत्थू पण्णत्ता ३। 20 समणस्स णं भगवतो महावीरस्स चोद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपदा होत्था । कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चोद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- मिच्छदिट्ठी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरतसम्मदिट्ठी, विरताविरतसम्मदिट्ठी, पमत्तसंजते, अप्पमत्तसंजते, नियट्टि-अनियट्टिबायरे, सुहुमसंपराए उवसामए Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा १४ चतुर्दशस्थानकम् । वा खमए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अजोगी केवली ५। भरहेरवयाओ णं जीवाओ चोद्दस चोद्दस जोयणसहस्साइं चत्तारि य एक्कुत्तरे जोयणसते छच्च एकूणवीसइभागे जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ते ६। एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चोद्दस रयणा पण्णत्ता, तंजहाइत्थीरयणे, सेणावतिरयणे, गाहावतिरयणे, पुरोहितरयणे, वड्डइरयणे, 5 आसरयण, हत्थिरयणे, असिरयणे, दंडरयणे, चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, मणिरयण, कागणिरयणे ७ जंबुद्दीवे णं दीवे चोद्दस महानदीओ पुव्वावरेणं लवणं समुदं समप्पेंति, तंजहा- गंगा, सिंधू, रोहिया, रोहियंसा, हरी, हरिकंता, सीता, सीतोदा, णरकंता, णारिकंता, सुवण्णकूला, रुप्पकूला, रत्ता, रत्तवती ८1 10 [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चोहस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। __ पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चोद्दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं चोद्दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। 15 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चोद्दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। लंतए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं चोद्दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। महासुक्के कप्पे देवाणं जहण्णेणं चोद्दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा सिरिकंतं सिरिमहिअंसिरिसोमणसं लंतयं कावि, महिंदं महिंदोकंतं 20 महिंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चोद्दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। [३] ते णं देवा चोद्दसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणंमति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं चोद्दसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । 25 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे चोद्दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ चतुर्दशस्थानकं सुबोधं च, नवरमिहाष्टौ सूत्राण्याक् स्थितिसूत्रादिति. तत्र चतुर्दश भूतग्रामाः, भूतानि जीवाः, तेषां ग्रामा: समूहाः भूतग्रामाः, तत्र 5 सूक्ष्मा: सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तित्वात् पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः, किंभूता: ? अपर्याप्तका: तत्कर्मोदयादपरिपूर्णस्वकीयपर्याप्तय इत्येको ग्रामः, एवमेते एव पर्याप्तका: तथैव परिपूर्णस्वकीयपर्याप्तय इति द्वितीयः, एवं बादरा बादरनामोदयात् पृथिव्यादय एव. तेऽपि पर्याप्ततरभेदाद् द्विधा, एवं द्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरं पञ्चेन्द्रिया: सज्ञिनो मन:पर्याप्त्युपेताः, इतरे त्वसचिन इति । 10 तथा उप्पायपुव्वेत्यादि गाथात्रयम्, तत्र उप्पायपुव्वमग्गेणियं च त्ति यत्रोत्पादमाश्रित्य द्रव्य-पर्यायाणां प्ररूपणा कृता तदुत्पादपूर्वम्, यत्र तु तेषामेवाऽग्रं परिमाणमाश्रित्य तदग्रेणीयम्, तइयं च वीरियं पुव्वं ति यत्र जीवादीनां वीर्यं प्रोद्यते प्ररूप्यते तद्वीर्यप्रवादम्, अत्थीनत्थिपवायं ति यद्यथा लोके अस्ति नास्ति च तद्यत्र प्रोद्यते तदस्तिनास्तिप्रवादम्, तत्तो नाणप्पवायं च त्ति यत्र ज्ञान मत्यादिकं स्वरूप15 भेदादिभि: प्रोद्यते तज्ज्ञानप्रवादमिति, सच्चप्पवायपुव्वं ति यत्र सत्यः संयम: सत्यवचन वा सभेदं सप्रतिपक्षं प्रोद्यते तत् सत्यप्रवादपूर्वम्, तत्तो आयप्पवायपुव्वं च त्ति यत्रात्मा जीवोऽनेकनयैः प्रोद्यते तदात्मप्रवादमिति, कम्मप्पवायपुव्वं ति यत्र ज्ञानावरणादि कर्म प्रोद्यते तत् कर्मप्रवादमिति, पच्चक्खाणं भवे नवमं ति यत्र प्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यते तत् प्रत्याख्यानमिति । विजाअणुप्पवायं ति यत्रानेकविधा 20 विद्यातिशया वर्ण्यन्ते तद्विद्यानुप्रवादम्, अवंझपाणाउ बारसं पव्वं ति यत्र सम्यग्ज्ञानादयोऽवन्ध्या: सफला वर्ण्यन्ते तदवन्ध्यमेकादशम्. यत्र प्राणा जीवा आयुश्चानेकधा वर्ण्यन्ते तत् प्राणायुरिति द्वादशं पूर्वम्, तत्तो किरियविसालं ति यत्र क्रिया: कायिक्यादिका: विशाला विस्तीर्णाः सभेदत्वादभिधीयन्ते तत् क्रियाविशालम्, पुव्वं तह बिंदुसारं च त्ति लोकशब्दोऽत्र लुप्तो द्रष्टव्यः, ततश्च लोकस्य बिन्दरिवाक्षरस्य १. वर्ण्यते खु० जर हर ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० १४ चतुर्दशस्थानकम् । सारं सर्वोत्तमं यत्तल्लोकबिन्दुसारमिति । तथा चोद्दस वत्थूणि त्ति द्वितीयपूर्वस्य वस्तूनि विभागविशेषाः, तानि च चतुर्दश मूलवस्तूनि, चूलावस्तूनि तु द्वादशेति, तथा साहस्सिओ त्ति सहस्राण्येव साहसूयः । तथा कम्मविसोहीत्यादि, कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य ज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धिगवेषणामाश्रित्य चतुर्दश जीवस्थानानि जीवभेदा: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा- मिथ्या विपरीता 5 दृष्टिर्यस्यासौ मिथ्यादृष्टिः उदितमिथ्यात्वमोहनीयविशेषः, तथा सासायणसम्मदिट्ठि त्ति सह इषत्तत्त्वश्रद्धानरसाऽऽस्वादेन वर्त्तत इति सास्वादनः, घण्टालालान्यायेन प्रायः परित्यक्तसम्यक्त्व: तदत्तरकालं षडावलिकः, तथा चोक्तम् उवसमसंमत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालम्मि छावलियं ।। [विशेषाव० भा० ५३१] ति, सास्वादनश्चासौ 10 सम्यग्दृष्टिश्चेति विग्रहः, सम्मामिच्छदिट्ठि त्ति सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिरस्येति सम्यग्मिथ्यादृष्टिः उदितदर्शनमोहनीयविशेषः, तथाऽविरतसम्यग्दृष्टिर्देशविरतिरहितः, विरताविरतो देशविरतः श्रावक इत्यर्थः, प्रमत्तसंयत: किञ्चित्प्रमादवान् सर्वत्र विरतः, अप्रमत्तसंयत: सर्वप्रमादरहितः स एव, नियट्टि त्ति इह क्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणि वा प्रतिपन्ना जीवः क्षीणदर्शनसप्तक उपशान्तदर्शनसप्तको वा निवृत्तिबादर उच्यते, तत्र 15 निवृत्तिः तद् गुणस्थानकं समकालं प्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसायभेदः, तत्प्रधानो बादरो बादरसम्परायो निवृत्तिबादरः, अणियट्टिबायरे त्ति अनिवृत्तिबादर:, स च कषायाष्टकक्षपणारम्भान्नपुंसकवेदोपशमनारम्भाच्चारभ्य बादरलोभखण्डक्षपणोपशमने यावद् भवताति, सुहुमसंपराए त्ति सूक्ष्म: सज्वलनलोभासङ्ख्येयखण्डरूपः सम्पराय: कषाया यस्य स सूक्ष्मसंपरायः, लोभाणुवेदक इत्यर्थः, अयं च द्विविध इत्याह- 20 उपशमको वा उपशमश्रेणीप्रतिपन्नः क्षपको वा क्षपकश्रेणीप्रतिपन्न इति दशम जीवस्थानमिति, तथा उपशान्त: सर्वथानुदयावस्थो मोहो मोहनीयं कर्म यस्य स १. का: ज२ ॥ २. "इहान्तरकरण औपमिकसम्यक्त्वाद्धाया जघन्यत: समयशेषायाम, उत्कृष्टतस्तु षडालिकावशषाया वर्तमानम्य कस्यचिदनन्तानुबन्धिकषायादयनोपमिकसम्यक्त्वाच्च्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्नवताऽत्रान्तर जघन्यत: समयम, उत्कटतस्त षडालिका: सास्वादनसम्यक्त्वं पूर्वोक्तशब्दार्थं भवाति ।।५३५।।" - इति विशेषावश्यकभाष्यस्य मलधारिहमचन्द्रसूरिविरचिताया टीकायाम् ।। ३. सर्ववरित: हे२ ।। ४. नियट्टि त्ति नास्ति खं० ।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र उपशान्तमोहः, उपशमवीतराग इत्यर्थः, अयं चोपशमश्रेणिसमाप्तावन्तर्मुहूर्तं भवति, ततः प्रच्यवत एवेति, तथा क्षीणो निःसत्ताकीभूतो मोहो यस्य स तथा, क्षयवीतराग इत्यर्थः, अयमप्यन्तर्मुहूर्तमेवेति, तथा सयोगी केवली मन:प्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानीति, तथाऽयोगी केवली निरुद्धमनःप्रभृतियोगः शैलेशीगतो 5 ह्रस्वपञ्चाक्षरोद्रिणमात्रं कालं यावदिति चतुर्दशं जीवस्थानमिति ।। भरहेत्यादि, भारतैरवत्यौ जीवे, इह भरतमैरवतं चारोपितगुणकोदण्डाकारमतस्तयोर्जीवे भवतः, तत्र भरतस्य हिमवतोऽर्वागनन्तरा प्रदेशश्रेणी जीवा ऐरवतस्य च शिखरिण: परतोऽनन्तरप्रदेशश्रेणीति । चातुरंतचक्कवहिस्स त्ति चत्वारोऽन्ता विभागा यस्यां सा चतुरन्ता भूमिः, तत्र भवः 10 स्वामितयेति चातुरन्त:, स चासौ चक्रवर्ती चेति विग्रहः। रत्नानि स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तूनीति, यदाह- रत्नं निगद्यते तजातौ जातौ यदुत्कृष्टम् [ ] इति । ___गाहावइ त्ति गृहपतिः कोष्ठागारिकः, पुरोहिय त्ति पुरोहितः शान्तिकर्मादिकारी, वड्डइ त्ति वर्द्धकिः रथादिनिर्मापयिता, मणिः पृथिवीपरिणामः, काकणी सुवर्णमयी अधिकरणीसंस्थानेति, इह सप्ताद्यानि पञ्चेन्द्रियाणि शेषाण्येकेन्द्रियाणीति । 15 श्रीकान्तमित्यादीन्यष्टौ विमानानीति ।।१४।। [सू० १५] [१] पण्णरस परमाहम्मिया पण्णत्ता, तंजहाअंबे अंबरिसी चेव, सामे सबले त्ति यावरे । रुद्दोवरुद्द काले य, महाकाले त्ति यावरे ।।११।। असिपत्ते धणु कुम्भे वालुए वेयरणी ति य । खरस्सरे महाघोसे एते पण्णरसाहिया ।।१२।। १। णमी णं अरहा पण्णरस धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था २। धुवराहू णं बहुलपक्खस्स पाडिवयं पन्नरसतिभागं पन्नरसतिभागेणं चंदस्स लेसं आवरेत्ता णं चिट्ठति, तंजहा– पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं १. "क्षवीत' ख़मू०. क्षपकवी' खस० ॥ 20 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशस्थानकम् । 5 मृ० १. भागं । तं चेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति, तंजहा- पढमाए पढम भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं ३। [२] छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता पण्णत्ता, तंजहासतभिसय भरणि अद्दा, असिलेसा साइ तह य जेट्ठा य । एते छण्णक्खत्ता, पण्णरसमुहुत्तसंजुत्ता ।।१३।। ४। चेत्तासोएसु मासेसु पन्नरसमुहुत्तो दिवसो भवति, सइ पण्णरसमुहुत्ता राती भवति । अणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता ६। मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा- सच्चमणपओगे, एवं मोसमणपओगे, सच्चामोसमणपओगे, असच्चामोसमणपओगे, एवं 10 सच्चवतीपओगे, मोसवतीपओगे, सच्चामोसवतीपओगे, असच्चामोसवतीपओगे, ओरालियसरीरकायपओगे, ओरालियमीससरीरकायपओगे, वेउव्वियसरीरकायपओगे, वेउव्वियमीससरीरकायपओगे, आहारयसरीरकायपओगे, आहारयमीससरीरकायपओगे कम्मयसरीरकायपओगे ७।। _[३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए [अत्थेगतियाणं नेरइआणं] पण्णरस 15 पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १॥ पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पण्णरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं पण्णरस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। 20 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पण्णरस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ महासुक्के कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं पण्णरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा णंदं सुणंदं णंदावत्तं णंदप्पभं णंदकंतं णंदवण्णं णंदलेसं जाव णंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पण्णरस 25 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ا आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६ । [४] ते णं देवा पण्णरसहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं पण्णरसहिं वाससहस्सेहिं आहार समुप्पज्जति २ | 5 अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति ३| [टी०] अथ पञ्चदशस्थानके सुगमेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, इह स्थितेरर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्टपरिणामत्वात् परमाधार्मिकाः असुरविशेषाः, ये तिसृषु पृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्तीति, तत्र अंबेत्यादि श्लोकद्वयम्, एते च व्यापारभेदेन 10 पञ्चदश भवन्ति, तत्र अंबे त्ति यः परमाधार्मिकदेवो नारकान् हन्ति पातयति बध्नाति नीत्वा चाम्बरतले विमुञ्चति सोऽम्ब इत्यभिधीयते १, अंबरिसी चेव त्ति यस्तु नारकान् निहत्य कल्पनिकाभिः खण्डशः कल्पयित्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति सोऽम्बरिषीति २. सामेति यस्तु रज्जु - हस्तप्रहारादिना शातन - पातनादि करोति वर्णतश्च श्यामः स श्याम इति ३, सबले त्ति यावरे त्ति शबल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, 15 स चान्त्र-वसा-हृदय- कालेज्जकादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबल: कर्बुर इत्यर्थः ४. रुद्दोवरुद्देति यः शक्ति - कुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति ५, यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति ६, काले त्ति यः कण्ड्वादिषु पचति वर्णतः कालश्च स कालः ७, महाकाले त्ति यावरे त्ति महाकाल इति चापरः परमधार्मिक इति प्रक्रमः, स च श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल 20 इति ८, असिपत्ते त्ति असि: खड्गस्तदाकारपत्रवद्वनं विकुर्व्य यस्तत्समाश्रित्य नारका सिपत्रपातनेन तिलशश्छिनत्ति सोऽसिपत्र : ९. धणु त्ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिबाणै: कर्णादीनां छेदन - भेदनादि करोति स धनुरिति १०, कुंभे त्ति यः कुम्भादिषु तान् पचति स कुम्भ: ११, वालु त्ति यः कदम्बपुष्पाकारासु १. निहतान् क जे? हेर । निहितान् क' हे? । निहतान्व क जे२ ।। २. कर्त्तयित्वा जे२ । ३. "म्बऋषी' खं० जे१ । "म्बरीषी जे२ हे१ ।। ४. 'कालेयका' खंसं० ॥। ५. 'श्रितान्नारका खं० जे विना ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० १५ पञ्चदशस्थानकम् । वज्राकारासु वा वैक्रियवालुकासु तप्तासु चन(ण? )कानिव तान् पचति स वालुक इति १२. वेयरणी ति य त्ति वैतरणीति च परमाधार्मिकः, स च पूय-रुधिर-त्रपुताम्रादिभिरतितापात् कलकलायमानै तां विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति यथार्थां नदी विकुळ तत्तारणेन कदर्थयति नारकानिति १३. खरस्सरे त्ति यो वज्रकण्टकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य खरं स्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षति स 5 खरस्वर इति ५४. महाघोसे त्ति यो भीतान् पलायमानान् नारकान् पशूनिव वाटकषु महाघोष कर्वनिरुद्धि स महाघोष इति १५. एमए पन्नरसाहिय त्ति एवमित्यम्बादिक्रमणैते परमाधार्मिका: पञ्चदशाख्याता: कथिता जिनैरिति ।। धुवराहू णमित्यादि, द्विविधो राहुः भवति ध्रुवराहुः पर्वराहुश्च, तत्र य: पर्वणि पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रा-ऽऽदित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहः, यस्तु चन्द्रस्य 10 सदैव सन्निहित: सञ्चरति स ध्रुवराहः. आह चकिण्हं राहविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहिअं । चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ।। [बृहत्सं० ११६] त्ति । ततोऽसौ ध्रुवराहुः णमित्यलङ्कारे बहुलपक्षस्य प्रतीतस्य पाडिवयं ति प्रतिपदं प्रथमतिथिमादौ कृत्वेति वाक्यशेष: पञ्चदशभागं पञ्चदशभागेनेति वीप्सायां द्विवचनादि 15 यथा पदं पदेन गच्छतीत्यादिषु, प्रतिदिनं पञ्चदशभागं पञ्चदशभागमिति भावः, चन्द्रस्य प्रतीतस्य लेश्यामिति लेश्या दीप्तिस्तत्कारणत्वात् मण्डलं लेश्या तामावृत्य आच्छाद्य तिष्ठति, एतदेव दर्शयन्नाह– तद्यथेत्यादि, पढमाए त्ति प्रथमायां तिथ्यां प्रथमं भागं पञ्चदशाशलक्षण ‘चन्द्रलेश्याया आवृत्य तिष्ठतीति प्रक्रमः, अनेन क्रमेण यावत् १. वाटषु ज२ ॥ २. एए जस२ ।। ३. इह द्विविधा राहस्तद्यथा- पर्वराहर्नित्यराहश्च । तत्र पर्वराहः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरित करोति । अन्तरित च कृते लोक ग्रहमति प्रसिद्धिः । स च पर्वराहर्जघन्यत उत्कर्षता वा यावता कालेन चन्द्रसूर्याणामुपरागं करोति तदेतत् क्षेत्रसमास[३९५ तमगाथा | टीकायामभिहितमिति नेह भूयोऽभिधीयते। यस्तु नित्यराहस्तस्य विमानं कृष्णम्. तच्च तथाजगत्स्वाभाव्याच्चन्द्रण सह नित्य सर्वकालमविहितं तथा चतुरङ्गुलेन चतुर्भिरङ्गुलेरप्राप्त सच्चन्द्रस्य चन्द्रविमानस्याधस्ताच्चरति. तच्च कृष्णपक्षे प्रतिपद आरभ्य प्रतिदिवसमकैका कलामात्मीयन पञ्चदशन भागेनोपरितनभागादारभ्यावृणाति । शुक्लपक्ष तु प्रतिपद आरभ्य तनव क्रमण प्रतिदिवसमकैका कला प्रकटीकरोति. तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते. यावता पुन: स्वरूपणावस्थितमव चन्द्रमण्डलमिति ।।११६॥" - इति बहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसत्रे पन्नरसेसु त्ति पञ्चदशसु दिनेषु पञ्चदशं भागमावृत्य तिष्ठति, तं चेव त्ति तमेव पञ्चदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिषु चन्द्रलेश्याया उपदर्शयन् उपदर्शयन् पञ्चदशभागतः स्वयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयन् तिष्ठति ध्रुवराहुरिति, इह चाय भावार्थ:- षोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य षोडशो भागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान 5 राहुः प्रतितिथि एकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्ले तु विमुञ्चतीति, उक्तं चज्योतिष्करण्डके- सोलस भागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेत्ते भागे पुणो विपरिवहुई जोण्हं ।। [ज्योतिष्क० १११] ति. ननु चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात् कथं पञ्चदशे दिने चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च 10 लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् ? इति, अत्रोच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत् प्रायिकमिति राहोर्ग्रहस्य योजनप्रमाणमपि विमानं सम्भाव्यते. लघीयसोऽपि वा राहविमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन तस्यावरणान्न दोष इति । तथा षड् नक्षत्राणि पञ्चदश मुहर्त्तान् यावच्चन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि पञ्चदशमुहूर्त्तसंयोगानि, तद्यथा15 सयभिसया भरणीओ अहा अस्सेस साइ जेट्टा य । एए छन्नक्खत्ता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता ।। [जम्बू० ७।१६०], संयुक्तं संयोग इति । १. पंचदशं पंचदशभागमावृत्य ख० विना ।। २. “सालसभाग काऊण उड़बई हायतेऽत्थ पन्नरस । तत्तियमत्त भाग पुणा वि परिवड्डई जुण्हे ॥१०३।। कियत्संख्याकास्तास्तिथयः ?. इति तत्संख्यानिरूपणार्थमुपपत्तिमाह- इह यावता कालनैकश्चन्द्रमण्डलस्य षोडशो भागा द्वाष्टिभागसत्कचतभांगात्मकः परिहीयते वर्द्धत वा तावत्कालक्रमण शुक्लपक्षे परिवर्द्धयति तावत्य: तावत्प्रमाणाः शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे च तिथयो भवन्ति । तत्र पञ्चदश भागान कृष्णपक्ष हापर्यात पञ्चदशैव च भागान् शुक्लपक्ष परिवर्द्धयर्यात, ततः पञ्चदश कृष्णपक्षे तिथय: पञ्चदश शक्लपक्षे ।।१०३।।" - इति श्रीमलयगिरिसूरिविरचितायां ज्योतिष्करण्डकवृत्तौ । पुनरपि समवायाङ्गवृत्तौ पृ० १५२ मध्य उद्भूतयं गाथा। अत्रदमवधयम्- श्रीमहावीरजेन विद्यालयेन विक्रमसं० २०४५ [ईसवीये १९८९] वर्षे प्रकाशित ज्योतिष्करण्डक 'परिवडते जोण्हे' इति पाठो मुद्रितः, किन्तु तत्रैव परिवड्डई जुन्हा इति परिवड्डए जोण्हं इति च पाठद्वयमपि पाठान्तररूपेण पाटिप्पने उपन्यस्तम् ।। ३. जोण्हत्ति जेर हेर ।। ४. "दशैर्दिनः खसं० ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १७] तथा चेत्तासोएसु मासेसु त्ति स्थूलन्यायमाश्रित्य चैत्रेऽश्वयुजि च मासे पञ्चदशमुहूर्त्ता दिवसो भवति रात्रिश्च निश्चयतस्तु मेषसङ्क्रान्तिदिने तुलासङ्क्रान्तिदिने चैवं दृश्यमिति । 10 पओगे त्ति प्रयोजनं प्रयोगः परिस्पन्द आत्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेन कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः, तत्र 5 सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः, एवं शेषेष्वपि, नवरमौदारिकशरीरकायप्रयोग औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वेनोपचीयमानत्वात् कायस्तस्य प्रयोग इति विग्रहः, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः तथौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगः अयं चापर्याप्तकस्येति, इह चात्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रारब्धस्य प्रधानत्वादौदारिकः कार्मणेन मिश्रः, यदा तु मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्गबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकस्य प्रारम्भकत्वेन प्रधानत्वादौदारिको वैक्रियेण मिश्रो यावद्वैक्रियपर्याप्त्या न पर्याप्तिं गच्छति, एवमाहारकेणाप्यौदारिकस्य मिश्रताऽवसेयेति, तथा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्य, तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगस्तदपर्याप्तकस्य देवस्य नारकस्य वा कार्मणनैव लब्धिवैक्रियपरित्यागे वा औदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय 15 प्रवृत्तेर्वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि मिश्रतेत्येके. तथा आहारकशरीरकायप्रयोगस्तदभिनिर्वृत्तौ सत्यां तस्यैव प्रधानत्वात्, तथा आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः औदरिकेण सहाऽऽहारकपरित्यागेनेतरग्रहणायोद्यतस्य एतदुक्तं भवति - यदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्य: पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावाद्यावत् सर्वथैव न परित्यजत्याहारकं 20 तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति, आह- न तत्तेन सर्वथा मुक्तं पूर्वनिर्वर्त्तितं तिष्ठत्येव, तत् कथं गृह्णाति ?, सत्यम्, तथाप्यौदारिकशरीरोपादानार्थं प्रवृत्त इति गृह्णात्येव, तथा कार्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीय- चतुर्थपञ्चमसमयेषु भवतीति ||१५|| पञ्चदशस्थानकम। ६१ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्र [सू० १६] [१] सोलस य गाहासोलसगा पण्णत्ता, तंजहा- समए १, वेयालिए २, उवसग्गपरिण्णा ३, इत्थिपरिण्णा ४, निरयविभत्ती ५, महावीरथुई ६, कुसीलपरिभासिए ७, वीरिए ८, धम्मे ९, समाही १०, मग्गे ११, ___ समोसरणे १२, अहातहिए १३, गंथे १४, जमतीते १५, गाहा १६, १। 5 सोलस कसाया पण्णत्ता, तंजहा- अणंताणुबंधी कोहे, एवं माणे, माया, लोभे । अपच्चक्खाणकसाए कोहे, एवं माणे, माया, लोभे । पच्चक्खाणावरणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे । संजलणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे २। मंदरस्स णं पव्वतस्स सोलस नामधेज्जा पण्णत्ता, तंजहा मंदर १ मेरु २ मणोरम ३ सुदंसण ४ सयंपभे ५ य गिरिराया ६ । 10 रयणुच्चय ७ पियदंसण ८ मज्झे लोगस्स ९ नाभी १० य ।।१४।। अत्थे य ११ सूरियावत्ते १२ सूरियावरणे १३ ति य । उत्तरे य १४ दिसाई य १५ वडेंसे १६ इ य सोलसे ।।१५।। ३। [२] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपदा होत्था ४। 15 आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस वत्थू पण्णत्ता ५। चमर-बलीणं ओवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ६। लवणे णं समुद्दे सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते ७। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सोलस 20 पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। पंचमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सोलस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २॥ १. मदर ५ मरु २ मनोरम ३ सदसण ४ सयपभ य ८ गिरिराया ६। रयणाच्चय ७ सिलाच्चर ८ मझ लागस्स ९ नाभी य १० ॥ अच्छ य ११ सूरियावत्त १२ सूरियावरणे ति या १३ । उत्तम य ५४ दिसादी य १५ वडस १६ ति य सालस ।। इति जम्बूद्वीपप्रजप्तौ चतुर्थ वक्षस्कार सू० १०९ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (म० २६] षोडशस्थानकम् । ६३ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सोलस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सोलस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४| महासुक्कं कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं सोलस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५ । जे देवा आवत्तं वियावत्तं नंदियावत्तं महाणंदियावत्तं अंकुसं अंकुसपलंबं 5 भदं सुभदं महाभद्दं सव्वओभद्दं भद्दुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६ । [३] ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वानीसंति वा १। तेसि णं देवाणं सोलसहिं वाससहस्सेहिं आहार समुपज्जति २ संगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सोलसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंत करेस्संति ३| 10 [टी०] अथ षोडशस्थानकमुच्यते सुगमं चेदम्, नवरं गाथाषोडशकादीनि स्थितिसूत्रेभ्य आरात् सप्त सूत्राणि, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि तेषां च गाथाभिधानं षोडशमिति गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां तानि 15 गाथाषोडशकानि, तत्र समये त्ति नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समय एवोच्यते, वैतालीयच्छन्दोजातिबद्धं वैतालीयमेव, शेषाणां यथाभिधेयं नामानि, समोसरणे ति समवसरणं त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रवादिशतानां मतपिण्डनरूपम्, अहातहि ति यथा वस्तु तथा प्रतिपाद्यते यत्र तद्यथातथिकम् ग्रन्थाभिधायकं ग्रन्थः, जमइए त्ति यमकीयं यमकनिबद्धसूत्रम् गाहेति प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य 20 गानादाथा, गाधा वा तत्प्रतिष्ठाभूतत्वादिति । मेरुनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च, मज्झे लोगस्स नाभी यत्ति लोकमध्ये लोकनाभिश्चेत्यर्थः । उत्तरे यत्ति भरतादीनामुत्तरदिग्वर्त्तित्वाद्, यदाह - सव्वेसिं उत्तरो मेरु [ ] त्ति, दिसाई यत्ति दिशामादिर्दिगादिरित्यर्थः, वडेंसे इयत्त अवतंसः शेखरः स इवावतंस इति चेति । पुरिसादाणीयस्स त्ति पुरुषाणां मध्ये 25 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 6 आचार्यश्रीअभयदेवरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसत्रे आदयस्येत्यर्थः । तथा आत्मप्रवादपूर्वस्य सप्तमस्य । तथा चमर-बल्योर्दक्षिणोत्तरयोरसरकुमारराजयोः । ओवारियालेणे त्ति चमरचञ्चा-बलिचञ्चाभिधानराजधान्योर्मध्यभागे तद्भवनयोर्मध्योन्नताऽवतरत्पार्श्वपीठरूपे अवतारिकलयने षोडश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां वृत्तत्वात्तयोरिति । तथा लवणसमुद्रे मध्यमेषु 5 दशसु सहस्रेषु नगरप्राकार इव जलमूर्ध्वं गतम्, तस्य चोत्सेधवृद्धिः षोडश योजनसहस्राणि. अत उच्यते- लवण: समुद्रः षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधपरिवृद्ध्या प्रजप्त इति । आवर्तादीन्येकादश विमाननामानि ।।१६।। [सू० १७] [१] सत्तरसविहे असंजमे पण्णत्ते, तंजहा- पुढविकाइयअसंजमे, आउकाइयअसंजमे, तेउकाइयअसंजमे, वाउकाइयअसंजमे, 10 वणस्सइकाइयअसंजमे, बेइंदियअसंजमे, तेइंदियअसंजमे, चउरिंदियअसंजमे. पंचिंदियअसंजमे, अजीवकायअसंजमे, पेहाअसंजमे, उपेहाअसंजमे, अवहटअसंजमे, अपमज्जणाअसंजमे, मणअसंजमे, वतिअसंजमे, कायअसंजमे १॥ सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते, तंजहा- पुढवीकायसंजमे एवं जाव कायसंजमे २। माणुसुत्तरे णं पव्वते सत्तरस एक्कवीसे जोयणसते उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ३। सव्वेसि पि णं वेलंधर-अणवेलंधरणागराईणं आवासपव्वया सत्तरस एक्कवीसाई जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ४/ लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ते ५। इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो सातिरेगाई सत्तरस जोयणसहस्साइं उड़े उप्पतित्ता ततो पच्छा चारणाणं तिरियं गती 20 पवत्तती ६। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो तिगिछिकूडे उप्पातपव्वते सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ७। 15 १. आव' जे२ हे१.२ ।। २. आवश्यकसूत्रे चतर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'सत्तरसविह असंजम इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वती सप्तदशविधस्य असंयमस्य विम्तम्ण वर्णनमस्ति ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० १७ सप्तदशस्थानकम् । बलिस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो रुयगिंदे उप्पातपव्वते सत्तरस जोयणसयाई सातिरेगाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ८। सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते, तंजहा- आवीइमरणे, ओहिमरणे, आयंतियमरणे, वलातमरणे, वसहमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, बालमरणे, पंडितमरणे, बालपंडितमरणे, छउमत्थमरणे, केवलिमरणे, 5 वेहासमरणे, गद्धपट्ठमरणे, भत्तपच्चक्खाणमरणे, इंगिणिमरणे, पाओवगमणमरणे । ___ सुहमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति, तंजहा- आभिणिबोहियणाणावरणे, एवं सुतोहि-मण-केवल [णाणावरणे] । चक्खुदंसणावरणं, एवं अचक्खु-ओही-केवलदसणावरणं । 10 सायावेयणिजं, जसोकित्तिनाम, उच्चागोतं । दाणंतराइयं, एवं लाभ-भोगउवभोग-वीरियअंतराइयं १०।। [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। पंचमाए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती 15 पण्णत्ता । छठ्ठीए पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ५॥ महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७। जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महाणलिणं पोंडरीयं महापोंडरीयं सुक्कं महासुक्कं सीहं सीहोकंतं १. तुलना- उत्तराध्ययने पञ्चमेऽध्ययन नियुक्तिगाथा: २११-२२४। भगवतीसूत्रे त्रयोदशे शतके सप्तमे उद्देशक।। 20 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सीहवियं भावियं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ८॥ [३] ते णं देवा सत्तरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं सत्तरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे 5 समुप्पजति । ___ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ सप्तदशस्थानकम्, तच्च व्यक्तम्, नवरमिह स्थितिसूत्रेभ्योऽन्यानि दश। तथा अजीवकायासंयमो विकटसुवर्ण बहुमूल्यवस्त्र-पात्र-पुस्तकादिग्रहणम् . 10 प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा, स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षणमविधिप्रत्युपक्षण वा, उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यापारणं संयमयोगेष्वव्यापारणं वा, तथा अपहृत्यासंयम: अविधिनोच्चारादीनां परिष्ठापनतो यः, तथा अप्रमार्जनाऽसंयम: पात्रादेरप्रमार्जनयाऽविधिप्रमार्जनया वेति, मनोवाक्कायानामसंयमास्तेषाम कुशलानामुदीरणानीति । असंयमविपरीतः संयमः । वेलन्धरानुवेलन्धरावासपर्वतस्वरूपं 15 क्षेत्रसमासगाथाभिरवगन्तव्यम्, एताश्चैता: दस जोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलस सहस्स उच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा ।।। देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । अतिरेगं अतिरेगं परिवड्डइ हायए वावि ।। अभंतरियं वेलं धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीस सहस्सा दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ।। सट्ठि नागसहस्सा धरेंति अग्गोदगं समुद्दस्स । वेलंधर आवासा लवणे य चउद्दिसिं चउरो । पुव्वादिअणुक्कमसो गोथुभ १ दगभास २ संख ३ दगसीमा ४ । गोथुभ १ सिवए २ संखे ३ मणोसिले ४ नागरायाणो ।। २० १. य: स तथा खंसं० ।। २. "सहस्सा जेर खंसं० विना ।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १७] सप्तदशस्थानकम । ६७ अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिआ चउरो । कक्कोडे १ विज्जुप्पभे २ केलास ३ ऽरुणप्पभे ४ चेव || कक्कोडय कहमए केलासऽरुणप्पभेऽत्थ रायाणो । बयालीस सहस्से गंतुं उयहिम्मि सव्वे वि ॥ चत्तारि जोयणसए तीसे कोसं च उवगया भूमिं । * सत्तरस जोयणसए इगवीसे ऊसिया सव्वे ॥ [ बृहत्क्षेत्र० ४१५ - ४२२] ति । चारणाणं ति जङ्गाचारणानां विद्याचारणानां च तिरियं ति तिर्यग् रुचकादिद्वीपगमनायेति, तिगिञ्छिकूट उत्पातपर्वतो यत्रागत्य मनुष्यक्षेत्रागमनायोत्पतति, स चेतोऽसङ्ख्याततमेऽरुणोदसमुद्रे दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यतिक्रम्य भवति, रुचकेन्द्रोत्पातपर्वतस्त्वरुणोदसमुद्र एव उत्तरत एवमेव भवतीति । आवीइमरणे 10 त्ति आ समन्ताद्बीचय इव वीचयः आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिंस्तदावीचि, अथवा वीचिः विच्छेदस्तदभावादवीचि, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्, तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणं प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम् तथाऽवधिः मर्यादा, तेन मरणमवधिमरणम्, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्द्रव्यापेक्षया 15 पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वादिति, तथा आयंतियमरणे त्ति आत्यन्तिकमरणं यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति, एवं यन्मरणं तद् द्रव्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, वलायमरणेति संयमयोगेभ्यो वलतां भग्नव्रतपरिणतीनां व्रतिनां मरणं वलन्मरणम्, तथा वशेन इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता बाधिता वशार्त्ताः स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलशलभ - 20 वत्, तथाऽन्तः मध्ये मनसीत्यर्थः शल्यमिव शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तः शल्यो लज्जा-ऽभिमानादिभिरनालोचितातिचारस्तस्य मरणम् अन्तः शल्यमरणम्, तथा यस्मिन् भवे तिर्यग मनुष्यभवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत् तद्भवमरणम्, एतच्च तिर्यग्मनुष्याणामेव न देव-न -नारकाणाम्, १. हर मध्ये बृहत्क्षेत्रसमास चायं पाठः । उगया भूमीं जे२ । उगया भूमी हर ज२ विना || आवीमरण जर २ 5 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्रे तेषां तेष्वेवोत्पादाभावादिति, तथा बाला इव बाला: अविरतास्तेषां मरणं बालमरणम्. तथा पण्डिताः सर्वविरतास्तेषां मरणं पण्डितमरणम्, बालपण्डिता: देशविरतास्तेषां मरणं बालपण्डितमरणम्, तथा छद्मस्थमरणम् अकेवलिमरणम्, केवलिमरणं तु प्रतीतम, वेहासमरणं ति विहायसि व्योम्नि भवं वैहायसम्, विहायोभवत्वं च तस्य 5 वृक्षशाखाद्युद्वद्धत्वे सति भावात्, तथा गृधैः पक्षिविशेषैरुपलक्षणत्वाच्छकुनिकाशिवादिभिश्च स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिंस्तद् गृध्रस्पृष्टम्, अथवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वाद्दरादि च यत्र तद् गृध्रपृष्ठम्, इदं च करि-करभादिशरीरमध्यपातादिना गृध्रादिभिरात्मानं भक्षयतो महासत्त्वस्य भवतीति, तथा भक्तस्य भोजनस्य यावज्जीव प्रत्याख्यानं यस्मिंस्तत्तथा, इदं च त्रिविधाहारस्य चतुर्विधाहारस्य वा नियमरूपं 10 सप्रतिकर्म च भक्तपरिज्ञेति यद्रूढम्, तथा इङ्ग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्याम नशनक्रियायामितीङ्गिनी. तया मरणमिङ्गिनीमरणम्, तद्धि चतुर्विधाहारप्रत्याख्यातुनिष्प्रतिकर्मशरीरस्येङ्गितदेशाभ्यन्तरवर्त्तिन एवेति, तथा पादपस्येवोपगमनम् अवस्थान यस्मिन् तत् पादपोपगमनम्, तदेव मरणमिति विग्रहः, इदं च यथा पादपः क्वचित् कथञ्चिद् निपतितः सममसममिति चाऽविभावयन्निश्चलमेवाऽऽस्ते तथा यो वर्त्तते तस्य 15 भवतीति । __तथा सूक्ष्मसंपरायः उपशमकः क्षपको वा सूक्ष्मलोभकषार्याट्टिकावेदको भगवान् पूज्यत्वात् सूक्ष्मसंपरायभावे वर्तमानः तत्रैव गुणस्थानकेऽवस्थितः नातीतानागतसूक्ष्मसंपरायपरिणाम इत्यर्थः सप्तदश कर्मप्रकृतीर्निबध्नाति विंशत्युत्तर बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बध्नातीत्यर्थः, पूर्वतरगुणस्थानकेषु बन्ध प्रतीत्य तासा 20 व्यवच्छिन्नत्वात्, तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका शातप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, यदाह नाणं ५ तराय ५ दसगं देसण चत्तारि ४ उच्च १५ जसकित्ती १६ । एया सोलस पयडी सुहमकसायम्मि वोच्छिन्ना ।। [कर्मस्तव० २।२३] १. सात खंसः ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशस्थानकम । सूक्ष्मसम्परायात् परे न बध्नन्त्येता इत्यर्थः । सामानादीनि सप्तदश विमाननामानीति || १ || सू० १८] [१] अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तंजहा- ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ, नो वि अण्णं मणेणं सेवावेइ, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणड, ओरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवति, नो 5 वि अण्णं वायाए सेवावेइ, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणइ, ओरालिए कामभाग व सयं कायेणं सेवइ, णो वि अण्णं काएणं सेवावेड़, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणति, दिव्वे कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवति, तह चव णव आलावगा | __अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपदा 10 होत्था । समणणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्डय-वियत्ताणं अट्ठारस ठाणा पण्णत्ता, तंजहावयछक्क ६ कायछक्कं १२, अकप्पो १३ गिहिभायणं १४ । पलियंक १५ निसिजा य १६, सिणाणं १७ सोभवजणं १८ ।।१६।। ३। 15 आयारस्स णं भगवतो सचूलियागस्स अट्ठारस पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई ४। बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेखविहाणे पण्णत्ते, तंजहा- बंभी, जवणालिया, दासऊरिया, खरोट्ठिया, पुक्खरसाविया, पहाराइया, उच्चत्तरिया, अक्खरपुट्ठिया, भोगवयता, वेयणतिया, णिण्हइया, अंकलिवि, गणियलिवि, 20 गंधव्वलिवि, आदंसलिवी, माहेसरलिवि, दमिडलिवि, पोलिंदि[लिवि] ५। अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू पण्णत्ता ६। धूमप्पभा णं पुढवी अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता ७। १. दशवकालिकनियुक्तो षष्ठऽध्ययनेऽपि गाथय वर्तत २६८ तमी ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र ___ पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, सड़ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ता राती [भवइ] ८। - [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १॥ 5 छट्ठीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्तारा असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस पलिओवमाई ठिती 10 पण्णत्ता ४ सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पण्णता ५। आणए कप्पे देवाणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिठं सालं समाणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिणगुम्मं पुंडरीयं 15 पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं ] अट्ठारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७। [३] ते णं देवा अट्ठारसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं अट्ठारसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । 20 संतेगतिया [भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथाष्टादशस्थानकम्, इह चाष्टौ सूत्राणि स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सुगमानि च. नवरं बंभे त्ति ब्रह्मचर्यम्, तथौदारिककामभोगान् मनुष्य-तिर्यक्सम्बन्धिविषयान्, तथा दिव्यकामभोगान् देवसम्बन्धिन इत्यर्थः । तथा सखुड्डग-वियत्ताणं ति सह १ मई अटी० ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ [म्० १८] अष्टादशस्थानकम् | क्षुद्रकैर्व्यक्तैश्च ये ते सक्षुद्रक - व्यक्ता:, तेषाम्, तत्र क्षुद्रका वयसा श्रुतेन चाऽव्यक्ताः, वय ::- श्रुताभ्यां परिणताः, स्थानानि परिहारासेवाश्रयवस्तूनि । व्रतषट्कं रात्रिभोजनविरतिश्च, कायषट्कं पृथिवीकायादि. अकल्पः अकल्पनीयपिण्ड-शय्या-वस्त्र- पात्ररूपः पदार्थः, गृहिभाजनं स्थालादि, पर्यको मञ्चकादिः, निषद्या स्त्रिया सहाऽऽसनम्, स्नानं शरीरक्षालनम्, शोभावर्जनं प्रतीतम्। 5 तथा आचारस्य प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य चूडासमन्वितस्य तस्य हि पिण्डैषणाद्याः पञ्च चूलाः द्वितीयश्रुतस्कन्धात्मिकाः, स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपः, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानाम्, यदाह नवबभचरमइओ अट्टारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ [ आचाराङ्गनि० ११] ति । यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चूलिकासत्ताप्रतिपादनार्थम्, न तु पदप्रमाणाभिधानार्थम्, यतोऽवाचि नन्दीटीकाकृता- अट्ठारसपयसहस्साणि पुण पढमसुयखंधस्स नवबंभचेरमइयस्स पमाणं, विचित्तत्थाणि य सुत्ताणि गुरूवएसओ तेसिं अत्थो जाणिव्वा [ नन्दीटी० ]त्ति, पदसहस्राणीह यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम्, पदाग्रेणेति पदपरिमाणेनेति। तथा बंभि त्ति ब्राह्मी आदिदेवस्य भगवतो दुहिता, ब्राह्मी वा 15 संस्कृतादिभेदा वाणी, तामाश्रित्य तेनैव या दर्शिता अक्षरलेखनप्रक्रिया सा ब्राह्मीलिपिः अतस्तस्या ब्राह्मया लिपे:, णमित्यलङ्कारे, लेखो लेखनम्, तस्य विधानं भेदो लेखविधानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - बंभीत्यादि एतत्स्वरूपं च न दृष्टमिति न दर्शितम् । व्यक्तास्तु ये महाव्रतानि ४. कि पुनरस्याध्ययनतः पदतश्च परिमाणमित्यत आह- नवबभ.... वृ० - तत्राध्ययनतो नवब्रह्मचय्याभिधानाध्ययनात्मकोऽयं पदतोऽष्टादशपदसहस्रात्मकः वेद इति विदन्त्यस्माद्धयोपादेयपदार्थानिति वेदः क्षायोपशमिकभाववर्त्ययमाचार इति । सह पञ्चभिश्चाभिर्वर्तत इति सपञ्चचूडश्च भवति उक्तशेषानुवादिनी चूडा. तत्र प्रथमा पिंडसण सेज्जिरिया भासज्जाया य वत्थपाएसा उग्गहपडम त्ति सप्ताध्ययनात्मिका, द्वितीया सत्तसत्तिक्कया. तृतीया भावना चतुर्थी विमुक्तिः, पञ्चमी निशीथाध्ययनम्. बहुबहुयरओ पदग्गेणं ति तत्र चतुर्थोलिकात्मकद्वितीयश्रुतस्कन्धप्रक्षपाद बहुः निशीथाख्यपञ्चमचूलिकाप्रक्षपाद बहुतरोऽनन्तगमपर्यायात्मकतया बहुतमश्च पदाग्रेण पदपरिमाणेन भवतीति ||११|| " इति शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमेऽध्ययने प्रथमे उद्देशक || २. से किं तं आयारे... [सू० ८७ ] इति नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां टीकायामेतदस्ति । जिनदासगणमहत्तरविरचितायां नन्दीसूत्रस्य चूर्णावपि एतादृशं वर्णनमस्ति || 10 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तथा यल्लोके यथास्ति यथा वा नास्ति अथवा स्याद्वादाभिप्रायतस्तदेवास्ति नास्ति चेत्येवं प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवादम्, तच्च चतुर्थं पूर्वम् तस्य । तथा धूमप्रभा पञ्चमी, अष्टादशोत्तरं अष्टादशयोजनसहस्राधिकमित्यर्थः, बाहल्येन पिण्डेन | पोसासाढेत्यादेरेवं योजना आषाढे मासे सई ति सकृदेकदा कर्कसङ्क्रान्तावित्यर्थः 5 उत्कर्षेण उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, षट्त्रिंशद् घटिका इत्यर्थः तथा पौषे मासे सकृदिति मकरसङ्क्रान्तौ रात्रिरेवंविधेति । काल- न - सुकालादीनि विंशतिर्विमाननामानि ||१८|| 10 ७२ तंजहा [सू० १९] [१] एकूणवीसं णायज्झयणा पण्णत्ता, उक्खित्तणाए १ संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे य ४ से ५ । तुंबे य ६ रोहिणी ७ मल्ली ८, मागंदी ९ चंदिमा ति य १० ||१७|| दावद्दवे ११ उदगणाते १२ मंडुक्के १३ तेतली १४ इ य । नंदिफले १५ अवरकंका १६ आइण्णे १७ सुंसमा ति य ९८ ।। १८ ।। अवरे य पुंडरीए णाए एगूणवीसइमे १९ | १| जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उक्कोसेणं एगूणवीसं जोयणसताई उड्डमहो 15 तवंति २ सुक्के णं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताई समं चारं चरित्ता अवरेणं अत्थमणं उवागच्छति ३| जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ एगूणवीसं छेयणाओ पण्णत्ताओ ४ | एगूणवीसं तित्थयरा अगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ 20 अणगारियं पव्वइया ५। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणवीसं पलिओ माई ठिती पण्णत्ता १। छट्ठी पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतितमस्थानकम । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगूणवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४/ आणयकप्पे देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। 5 पाणए कप्पे देवाणं जहण्णेणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं इंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७/ ___ [३] ते णं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 10 ऊससंति वा नीससंति वा २। तेसि णं देवाणं एगूणवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथैकानविंशतितमस्थानम्, तत्रा स्थितिसूत्रेभ्यः पञ्च सूत्राणि सुगमानि च, 15 नवर ज्ञातानि दृष्टान्ताः, तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ज्ञाताध्ययनानि षष्ठाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धवर्तीनि, उक्खित्तेत्यादि सार्द्धं रूपकद्वयम्, इदं च षष्ठागाधिगमावसेयमिति। तथा जंबुद्दीवे णं इत्यादौ भावना- सूर्यो स्वस्थानादुपरि योजनशतं तपतोऽधश्चाष्टादश शतानि. तत्र च समभूतलेऽष्टौ भवन्ति, दश चापरविदेह-जगतीप्रत्यासन्नदेश, जम्बूद्रीपापरविदेहे हि निम्नीभवत् क्षेत्रमन्तिमविजयद्वयस्य देशे अधोलोकदेशमतिगतमिति, 20 द्वीपान्तरसूर्यास्तूचं शतमधोऽष्ट शतानि, क्षेत्रस्य समत्वादिति । तथा शुक्रसूत्रे नक्खत्ताई ति विभक्तिपरिणामान्नक्षत्रैः समं सह चारं चरण चरित्वा विधायेति । १. 'तमं स्थानं ख० ।। २. 'तत्र आ स्थितिसूत्रेभ्यः' इति पदच्छेदः ॥ ३. ज्ञाताध्ययनानि नास्ति जेर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र तथा कलाओ त्ति पंच सए छव्वीसे छच्च कला वित्थडं भरहवासंबृहत्क्षेत्र० २९] इत्यादिषु जम्बूद्वीपगणितेषु याः कला उच्यन्ते ता योजनस्यैकोनविंशतिभागच्छेदनाः, एकोनविंशतिभागरूपा इति भावः । अगारमज्झावसित्त त्ति अगारं गेहम अधि आधिक्येन चिरकालं राज्यपरिपालनत: आ मर्यादया नीत्या वसित्वा उषित्वा तत्र 5 वासं विधायेति. अध्योष्य प्रव्रजिताः, शेषास्तु पञ्च कुमारभाव एवेति, आह च वीरं अरिट्टनेमि पासं मल्लिं च वासुपुजं च । एए मोत्तूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ।। [आव० नि० २२१] त्ति ।।१९।। [सू० २०] [१] वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- दवदवचारि यावि __ भवति १, अपमजितचारि यावि भवति २, दप्पमजितचारि यावि भवति 10 ३, अतिरित्तसेज्जासणिए ४, रातिणियपरिभासी ५, थेरोवघातिए ६, भूओवघातिए ७, संजलणे ८, कोधणे ९, पिट्ठिमंसिए १०, अभिक्खणं अभिक्खणं ओधारइत्ता भवति ११, णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाएत्ता भवति १२, पोराणाणं अधिकरणाणं खामितविओसवियाणं पुणो उदीरेत्ता भवति १३, ससरक्खपाणिपाए १४, अकालसज्झायकारए यावि 15 भवति १५, कलहकरे १६, सद्दकरे १७, झंझकरे १८, सूरप्पमाणभाई १९, एसणाऽसमिते यावि भवति २० । १। मुणिसुव्वते णं अरहा वीसं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था २। सव्वे वि णं घणोदही वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता ३। पाणयस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वीसं सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ४। १. "पंच सए छव्वीस, छच्च कला वित्थड भरहवास । दस सय बावन्नहिया, बारस य कलाउ हिमवत ।।२९।। व्या०- संगमम् ।। तथा जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भो योजनलक्षप्रमाणः क्षुल्लाहमवद्विष्कम्भानयनाय द्विकन गण्यत. जात द्व लक्ष. तयोर्नवत्यधिकन शतन भागा हियत, लब्धानि दश योजनशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि कलाश्चैकानविंशतिभागरूपा द्वादश १०८२ क० १२ । एतावान् हिमवर्षधरपर्वतस्य विष्कम्भ: ।....... ॥२९॥ इति बृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिसूरिविचिताया वृत्तो ।। २. "कालराज्य ख० ।। ३. दशाश्रुतस्कन्धे प्रथमेऽध्ययन [प्रथमाया दशाया तस्य नियुक्तौ चूर्णां च विस्तरण विंशत: असमाधिस्थानानां वर्णनमस्ति । विस्तरार्थिभिस्तत्र द्रष्टव्यम् । आवश्यकसूत्रे चतुर्थेऽध्ययने 'वीसाए असमाहिद्वाणहि इति सूत्रस्य हारिभद्र्या वृत्तावपि द्रष्टव्यम् ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ०० विंशतितमस्थानकम । - 10 णपुंसयवेयणिजस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधओ बंधट्टिती पण्णत्ता ५॥ पच्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता ६।। उसप्पिणि-ओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ काले पण्णत्ते ७। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं वीसं 5 पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १॥ छट्ठीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं वीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं वीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं वीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। आरणे कप्पे देवाणं जहण्णेणं वीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा सातं विसातं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं रुतिलं तिगिच्छं दिसासोवत्थियं वद्धमाणयं पलंबं पुप्फ पुप्फावत्तं पुप्फपभं पुप्फकंतं पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुप्फज्झयं पुप्फसिंग पुप्फसिटुं पुप्फकूडं पुप्फुत्तरवडेंसगं 15 विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७ [३] ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं वीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । 20 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे वीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति [जाव सव्वदक्खाणमंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ विंशतितमस्थाने किञ्चिल्लिख्यते । तत्र स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र समाधानं समाधिः चेतसः स्वास्थ्यम्, मोक्षमार्गेऽवस्थानमित्यर्थः, न Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसुत्रे समाधिरसमाधिस्तस्याः स्थानानि आश्रया भेदा वा असमाधिस्थानानि । तत्र दवदवचारि त्ति यो हि द्रुतं द्रुतं चरति गच्छति सोऽनुकरणशब्दतो दवदवचारीत्युच्यते. चापीत्युत्तरासमाधिस्थानापेक्षया समुच्चयार्थः भवतीति प्रसिद्धम् स च द्रुतं द्रुतं संयमा-ऽऽत्मनिरपेक्षो व्रजन्नात्मानं प्रपतनादिभिरसमाधौ योजयति अन्यांश्च सत्त्वान् 5 घ्नन्नसमाधौ योजयति, सत्त्ववधजनितेन च कर्म्मणा परलोकेऽप्यात्मानमसमाधी योजयति, अतो द्रुतगन्तृत्वमसमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानम् एवमन्यत्रापि यथायोगमवसेयम् १, तथा अप्रमार्जितचारी २ दुष्प्रमार्जितचारी च ३ स्थाननिषीदन-त्वग्वर्तनादिष्वात्मादिविराधनां लभते, तथाऽतिरिक्ता अतिप्रमाणा शय्या वसतिरासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति सोऽतिरिक्तशय्यासनिकः, स च 10 अतिरिक्तायां शय्यायां घघशालादिरूपायामन्येऽपि कार्पटिकादय आवासयन्ति इति तैः सहाधिकरणसम्भवादात्म-परावसमाधौ योजयतीति एवमासनाधिक्येऽपि वाच्यमिति ४, तथा रात्निकपरिभाषी आचार्यादिपूज्यपुरुषपरिभवकारी, स चात्मानमन्यांश्चासमाधौ योजयत्येव ५. तथा स्थविरा आचार्यादिगुरवः. तानाचारदोषेण शीलदोषेण च ज्ञानादिभिर्वो पहन्तीत्येवंशीलः स एव चेति 15 स्थविरोपघातिकः ६ तथा भूतानि एकेन्द्रियास्ताननर्थत उपहन्तीति भूतोपघातिकः ७, तथा सञ्ज्वलतीति सज्वलनः प्रतिक्षणं रोषण: ८ तथा क्रोधनः सकृत क्रुद्धोऽत्यन्तक्रुद्धो भवति ९, तथा पृष्ठिमांसिकः पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादकारी १०, अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारयित्त त्ति अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारयिता शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्य 'एवमेवायम्' इत्येवं वक्ता, अथवाऽवहारयिता परगुणानामपहारकारी, यथा अदासादिकमपि परं भणति - दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि ११. तथाऽधिकरणानां कलहानां यन्त्रादीनां वोत्पादयिता १२. पोराणाणं ति पुरातनानां कलहानां क्षमित - व्यवशमितानां मर्षितत्वेनोपशान्तानां पुनरुदीरयिता भवति १३, तथा सरजस्कपाणि-पादो यः सचेतनादिरजोगुण्डितेन हस्तेन दीयमानां भिक्षां गृह्णाति, तथा योऽस्थण्डिलादेः स्थण्डिलादौ सङ्क्रामन्न पादौ प्रमार्ष्टि, अथवा १. भवतीति जेर ।। २. ( निःशङ्किनस्येव ? ) ॥ ३. 'मयनं जे || 20 ७६ • Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि० २१ एकविंशतितमस्थानकम् । यस्तथाविधे कारणे सचित्तादिपृथिव्यां कल्पादिनाऽनन्तरितायामासनादि करोति स सरजस्कपाणि-पाद इति १४, तथा अकालस्वाध्यायकारकः प्रतीत: १५. तथा कलहकरः कलहहेतुभूतकर्तव्यकारी १६. तथा शब्दकरः रात्रौ महता शब्देनोल्लापस्वाध्यायादिकारको गृहस्थभाषाभाषको वा १७, तथा झञ्झाकरो येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्कारी, येन च गणस्य मनोदु:खमुत्पद्यते तद्भाषी १८, 5 तथा सूरप्रमाणभोजी सूर्योदयादस्तमयं यावदशन-पानाद्यभ्यवहारी १९, एषणाअसमितश्चापि भवति, अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभि: कलहायते. तथाऽनेषणीयमपरिहरन् जीवोपरोधे वर्त्तते, एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदं विंशतितममिति २० । तथा घनोदधय: सप्तपृथिवीप्रतिष्ठानभूताः । सामानिकाः इन्द्रसमानर्द्धयः । साहस्यः सहस्राणि । बन्धतो 10 बन्धसमयादारभ्य बन्धस्थिति: स्थितिबन्ध इत्यर्थः । प्रत्याख्याननामक पूर्व नवमम् । सातादीनि चैकविंशतिर्विमानानीति ।।२०।। [सू० २१] [१] एक्कवीसं सबला पण्णत्ता, तंजहा- हत्थकम्मं करेमाणे सबले १, मेहणं पडिसेवमाणे सबले २, रातीभोयणं भुंजमाणे [सबले] ३, आहाकम्मं भंजमाणे सबले] ४, सागारियं पिंडं भंजमाणे सबले ५, उद्देसियं 15 १. दशाश्रतस्कन्धे द्वितीयऽध्ययने द्वितीयदशायां] तस्य नियुक्तौ चूर्णौ च विस्तरेण एकविंशते: शबलाना वर्णनमस्ति । विस्तरार्थिभिस्तत्रैव द्रष्टव्यम ।। अत्र तु दशाश्रुतस्कन्धसूत्रमव उपन्यस्यते- "थरहिं भगवंतहि एक्कवास सबला पन्नत्ता, तजहा- हत्थकम्म करमाण सबले ।।१| महण पडिसेवमाण सबले ॥२॥ गतीभायणं भुजमाणे सबले ॥४॥ गयपिंड भंजमाण सबले ।।५।। कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसट्टे आहट्ट दिजमाण भुजमाणे सबल ।।६।। अभिरवणं पडियाइक्खित्ताणं भुजमाणे सबले ॥७|| अंता छह मासाण गणातो गणं संकममाण सबल ।।८।। अंता पासम्म तया दगलवे करमाणे सबले ।।९।। अंतो मासस्स ततो माइट्टाणे करमाणे सबले ।।१०।। मागारियापड भंजमाण सबल ।।१५।। आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले ।।१२।। आउट्टियाए मुसावाए वदमाण सबल ।।५३|| आउट्टियाए अदिन्नादाण गण्हमाणे सबले ॥१४।। आउट्टियाए अणंतरहियाए पढवीए द्वाण वा सज्ज वा निसाहिय वा चतमाण सबले ।।१८।। एवं सणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पढवीए ।।१६।। एवं आउट्टियाए मुलभायण वा फलभायणं वा बीयभायणं वा हरियभोयणं वा भंजमाणे सबले ।।१८।। अंतो संवच्छरस्स दस उदगलव करमाण सबल ।।१९।। अता संवच्छरस्स दस माइट्टाणाई करमाण सबले ।।२०।। आउट्टियाए सीतादगवग्घारिएण हत्थण वा मत्तण वा दविए भायणण वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम वा डिग्गाहत्ता भुजमाण सबले। एत खल थरहिं भगवंतहि एक्कवासं सबला पन्नत्ता ।।२१।। आवश्यकसूत्रेऽपि चतुर्थेऽध्ययने 'एक्कवीसाए सबलहि इति सूत्रम्य हारिभत्र्यां वत्ती विस्तरण वर्णनमस्ति ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसत्र कीतमाहट जाव अभिक्खणं अभिक्खणं सीतोदयवियडवग्घारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता भुंजमाणे सबले १। . णियट्टिबादरस्स णं खवितसत्तयस्स मोहणिजस्स एक्कवीसं कम्मंसा संतकम्मं पण्णत्ता, तंजहा- अपच्चक्खाणकसाए कोहे, एवं माणे माया 5 लोभे । पच्चक्खाणकसाए कोहे, एवं माणे माया लोभे । संजलणे कोधे, एवं माणे माया लोभे । इत्थिवेदे, पुमवेदे, णपुंसयवेदे, हासे, अरति, रति, भय, सोके, दुगुंछा २। ___ एक्कमेक्काए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठीतो समातो एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तातो, तंजहा- दूसमा, दूसमदूसमा य ३। 10 एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-बितियातो समातो एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तातो, तंजहा- दुसमदुसमा, दुसमा य ४।। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। छट्टीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिती 15 पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एक्कवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । सोहम्मीसाणेसु कप्पेस अत्थेगतियाणं देवाणं एक्कवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४॥ 20 आरणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। अच्चुते कप्पे देवाणं जहण्णेणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामगंडं मलं किटिं चावोण्णतं आरणवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। १. संतकम्मा पण्णत्ता खहर । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० २१] एकविंशतितमस्थानकम् । [३] ते णं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंत वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं एक्कवीसाए वाससहस्से हिं आहार समुप्पज्जति २ ७९ संतेगतिया भवसिद्धिया [ जीवा जे एक्कवीसाए भवग्गहण्णेहिं सिज्झिस्संति] जाव [सव्वदुक्खाणमंतं] करेस्संति ३||२१|| 5 15 [टी०] अथैकविंशतितमस्थानकम्, तत्र चत्वारि सूत्राणि स्थितिसूत्रैर्विना सुगमानि च. नवरं शबलं कर्बुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात् साधवोऽपि ते एव, तत्र हस्तकर्म वेदविकारविशेषं कुर्वन्नुपलक्षणत्वात् कारयन् वा शबलो भवतीत्येकः १. एवं मैथुनं प्रतिसेवमानोऽतिक्रमादिभिस्त्रिभिः प्रकारैः २, तथा रात्रिभोजनं दिवागृहीतं दिवाभुक्तमित्यादिभिश्चतुर्भिर्भङ्गकैरतिक्रमादिभिश्च भुञ्जान: 10 ३, तथा आधाकर्म ४. सागारिकः स्थानदाता तत्पिण्डम् ५, औद्देशिकं क्रीतमाहृत्य दीयमानं भुञ्जानः, उपलक्षणत्वात् पामिच्चाऽऽच्छेद्याऽनिसृष्टग्रहणमपीह द्रष्टव्यमिति ६. यावत्करणोपात्तपदान्येवमर्थतोऽवगन्तव्यानि, [ अभीक्ष्णम् ?] अभीक्ष्णं प्रत्याख्यायाऽशनादि भुञ्जानः ७, अन्तः षण्णां मासानामेकतो गणाद् गणमन्यं सङ्क्रामन् ८, अन्तर्मासस्य त्रीनुदकलेपान् कुर्वन्, उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलावगाहनमिति ९, अन्तर्मासस्य त्रीणि मायास्थानानि, स्थानमिति भेदः १०, राजपिण्डं भुञ्जानः ११, आकुट्ट्या प्राणातिपातं कुर्वन्, उपेत्य पृथिव्यादिकं हिंसन्नित्यर्थः १२, आकुट्ट्या मृषावादं वदन् १३, अदत्तादानं गृह्णन् १४ आकुट्यैवानन्तर्हितायां पृथिव्यां स्थानं वा नैषेधिकीं वा चेतयन्, कायोत्सर्गं स्वाध्यायभूमिं वा कुर्वन्नित्यर्थः १५, एवमाकुट्ट्या सस्निग्धसरजस्कायां पृथिव्यां चित्तवत्यां शिलायां लेष्टौ च, कोलावासे दारुणि, कोला 20 घुणाः तेषामावासः १६, अन्यस्मिंश्च तथाप्रकारे सप्राणे सबीजादौ स्थानादि कुर्वन् १७, आकुट्ट्या मूलकन्दादि भुञ्जानः १८, अन्तः संवत्सरस्य दशोदकलेपान् कुर्वन् १९, तथाऽन्तः संवत्सरस्य दश मायास्थानानि च २० तथा अभीक्ष्णं पौनः पुण्येन शीतोदकलक्षणं यद्विकटं जलं तेन व्याघारितो व्याप्तो यः पाणिः हस्तः स तथा, तेनाशनादि प्रगृह्य भुञ्जानः शबलः इत्येकविंशतितमः २१ । तथा निवृत्तिबादरस्य 25 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्रे अपूर्वकरणस्याष्टमगुणस्थानकवर्त्तिन इत्यर्थः, णं वाक्यालङ्कारे, क्षीणं सप्तकम् अनन्तानुबन्धिचतुष्टय-दर्शनत्रयलक्षणं यस्य स तथा, तस्य मोहनीयस्य कर्मणः एकविंशति: कर्मांशा अप्रत्याख्यानादिकषायद्वादशक-नोकषायनवकरूपा उत्तरप्रकृतयः सत्कर्म सत्तावस्थं कर्म प्रज्ञप्तमिति । तथा श्रीवत्सं श्रीदामकाण्डं माल्यं कृष्टिं 5 चापोन्नतम् आरणावतंसकं चेति षड विमानानि ।।२१।। [सू० २२] बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तंजहा- दिगिछापरीसहे १, पिवासापरीसहे २, सीतपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४, दंसमसगफासपरीसहे ५, अचेलपरीसहे ६, अरतिपरीसहे ७, इत्थिपरीसहे ८, चरियापरीसहे ९, णिसीहियापरीसहे १०, सेज्जापरीसहे ११, अक्कोसपरीसहे १२, वधपरीसहे 10 १३, जायणपरीसहे १४, अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणपरीसहे १७, जल्लपरीसहे १८, सक्कारपुरकारपरीसहे १९, अण्णाणपरीसहे २०, दंसणपरीसहे २१, पण्णापरीसहे २२ । १॥ दिट्ठिवायस्स णं बावीसं सुत्ताई छिन्नच्छेयणयियाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए २, बावीस सुत्ताई अच्छिन्नच्छेयणयियाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए ३, बावीसं 15 सुत्ताई तिकणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडीए ४, बावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए ५। बावीसतिविधे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा- कालयवण्णपरिणामे, नीलवण्णपरिणामे, लोहियवण्णपरिणामे, हालिद्दवण्णपरिणामे, सुक्किलवण्णपरिणामे । सुब्भिगंधपरिणामे, एवं दुब्भिगंधे वि । तित्तरसपरिणामे, 20 एवं पंच वि रसा । कक्खडफासपरिणामे, मउयफासपरिणामे, गुरुफासपरिणामे, लहुफासपरिणामे, सीतफासपरिणामे, उसिणफासपरिणामे, णिद्धफासपरिणामे, लुक्खफासपरिणामे, गरुयलयपरिणामे, अगरुयलयपरिणामे ६। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १।। १. विस्तरार्थिभिः उत्तराध्ययनसूत्रस्य द्वितीय परिषहाध्ययने द्रष्टव्यम् ।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० २२ द्वाविंशतितमस्थानकम् । ___८१ छट्ठीए पुढवीए णेरड्याणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । अहेसत्तमाए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिती 5 पण्णत्ता ४ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । अच्चुते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। हेट्टिमहेट्ठिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७। 10 जे देवा महितं विस्सुतं विमलं पभासं वणमालं अच्चुतवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं ] बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ८॥ [३] ते णं देवा बावीसं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं बावीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे 15 समुप्पजति २। ___ संगतिया भवसिद्धिया जीवा जे बावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदक्खाणं अंतं करेस्संति ३।। [टी०] द्वाविंशतितमं तु स्थानं प्रसिद्धार्थमेव, नवरं सूत्राणि षट् स्थितेराक, तत्र मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषह्यन्ते इति परीषहाः । दिगिंछ त्ति बुभुक्षा, सैव परीषहो 20 दिगिञ्छापरीषह इति, सहनं चास्य साधुमर्यादानुल्लङ्घनेन, एवमन्यत्रापि १, तथा पिपासा तृट् २, शीतोष्णे प्रतीते ३-४, तथा दंशाश्च मशकाश्च दंश-मशका:, उभयेऽप्येते चतुरिन्द्रिया:, महत्त्वामहत्त्वकृतश्चैषां विशेषः, अथवा दंशो दशनं भक्षणमित्यर्थः, तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः, एते च यूका-मत्कुण-मत्कोटक १. तुलना- "मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिपाढव्या: परीषहाः" - तत्त्वार्थ० ९।८ ।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे मक्षिकादीनामुपलक्षणमिति ५, तथा चेलानां वस्त्राणां बहुधननवीनावदातसुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभावः अचेलम् अचेलत्वमित्यर्थः ६. अरति : मानसो विकारः ७. स्त्री प्रतीता ८, चर्या ग्रामादिष्वनियतविहारिता ९. नैषेधिकी सोपद्रवेतरा च स्वाध्यायभूमिः १०, शय्या मनोज्ञाऽमनोज्ञा वसतिः संस्तारको वा ११, आक्रोशो दुर्वचनम् १२, 5 वधो यष्ट्यादिताडनम् १३, याच्या भिक्षणं तथाविधे प्रयोजने मार्गणं वा १४. अलाभ-रोगौ प्रतीतौ १५ - १६, तृणस्पर्शः संस्तारकाभावे तृणेषु शयानस्य १७, जल्लः शरीरवस्त्रादिमलः १८, सत्कारपुरस्कारौ वस्त्रादिपूजना-ऽभ्युत्थानादिसंपादने, सत्कारेण वा पुरस्करणं सन्माननं सत्कारपुरस्कार: १९, ज्ञानं सामान्येन मत्यादि. क्वचिदज्ञानमिति श्रूयते २० दर्शनं सम्यग्दर्शनम्, सहनं चास्य क्रियादिवादिनां 10 विचित्रमतश्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया धारणम् २१. प्रज्ञा स्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदो मतिज्ञानविशेषभूत इति २२ । 2 ८२ दृष्टिवादो द्वादशमङ्गम्, स च पञ्चधा परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वगत ३ प्रथमानुयोग ४ चूलिका ५ भेदात्, तत्र दृष्टिवादस्य द्वितीये प्रस्थाने द्वाविंशतिः सूत्राणि, तंत्र सर्वद्रव्य-पर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि, छिन्नच्छेयणइयाई ति इह यो नयः सूत्रं छिन्नं 15 छेदेनेच्छति स छिन्नच्छेदनयः, यथा धम्मो मंगलमुक्कडं [दशवै० १।१] इत्यादिश्लोकः सूत्रार्थतः छेदेन स्थितो न द्वितीयादिश्लोकानपेक्षते, इत्येवं यानि सूत्राणि छिन्नच्छेदनयवन्ति तानि छिन्नच्छेदनयिकानि तानि च स्वसमया जिनमताश्रिता या सूत्राणां परिपाटिः पद्धतिस्तस्यां स्वसमयसूत्रपरिपाट्यां भवन्ति तया वा भवन्तीति, तथा अच्छिन्नच्छेयणयियाइं ति इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नच्छेदनयो 20 यथा धम्मो मंगलमुक्कङ्कं [ दशवै० १।१ ] इत्यादिश्लोकोऽर्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाण इत्येवं यान्यच्छिन्नच्छेदनयवन्ति तान्यच्छिन्नच्छेदनयिकानि तानि चाऽऽजीविकसूत्रपरिपाट्यां गोशालकमतप्रतिबद्धसूत्रपद्धत्यां तया वा भवन्ति. भवन्तीति भावना, तथा - अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योन्यमपेक्षमाणानि १. यल्लं ज२ ।। २. सत्कारे वा खं० ॥। ३. तत्र सर्वत्र सर्व जे२ । ४. धम्मा मंगलमुक्किनं. अहिंसा संजमो तव । देवा वितं नमसंति, जस्स धम्मं सया मणो || १ | १ || व्या० धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः ॥” इति दशवैकालिकसूत्रे हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तो ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मु० २३ त्रयोविंशतिस्थानकम् । तिकणयियाई ति नयत्रिकाभिप्रायाच्चिन्त्यन्ते यानि तानि नयत्रिकवन्तीति त्रिकनयिकानीत्युच्यन्ते, त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्याम्, इह त्रैराशिका गोशालकमतानुसारिणोऽभिधीयन्ते, यस्मात्ते सर्वं त्र्यात्मकमिच्छन्ति, तद्यथा-जीवोऽजीवो जीवाजीवश्चेति, तथा लाकोऽलोको लोकालोकश्चेत्यादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति. तद्यथा-द्रव्यास्तिक: पर्यायास्तिक: उभयास्तिकश्चेति, एतदेव 5 नयत्रयमाश्रित्य त्रिकनयिकानीत्युक्तमिति, तथा चउक्कनयियाई ति नयचत्ष्काभिप्रायतश्चिन्त्यन्ते यानि तानि चतुष्कनयिकानि, नयचतुष्कं चैवम्, नैगमनयो द्विविध: सामान्यग्राही विशेषग्राही च, तत्र यः सामान्यग्राही स सङ्ग्रहेऽन्तर्भूतो विशेषग्राही तु व्यवहार, तदेवं सङ्ग्रह-व्यवहार-र्जुसूत्रा: शब्दादित्रयं चैक एवेति चत्वारो नया इति, स्वसमयेत्यादि तथैवेति । 10 __ तथा पुद्गलानाम् अण्वादीनां परिणामो धर्मः पुद्गलपरिणामः, स च वर्णपञ्चकगन्धद्वय-रसपञ्चक-स्पर्शाष्टकभेदाद्विंशतिधा, तथा गुरुलघु अगुरुलघु इति भेदद्वयक्षेपान द्वाविंशतिः, तत्र गुरुलघु द्रव्यं यत्तिर्यग्गामि वाय्वादि, अगुरुलघु यत् स्थिरं सिद्धिक्षेत्रं घण्टाकारव्यवस्थितज्योतिष्कविमानादीनि । तथा महितादीनि षड़ विमानानि ।।२२।। [सू० २३] [१] तेवीसं सूयगडज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा- समए १, वेतालिए 15 २, उवसग्गपरिण्णा ३, थीपरिण्णा ४, नरयविभत्ती ५, महावीरथुई ६, कुसीलपरिभासिते ७, वीरिए ८, धम्मे ९, समाही १०, मग्गे ११, समोसरणे १२, आहत्तहिए १३, गंथे १४, जमतीते १५, गाथा १६, पुंडरीए १७, किरियट्ठाणे १८, आहारपरिण्णा १९, पच्चक्खाणकिरिया २०, अणगारसुतं २१, अद्दइज्ज २२, णालंदतिज २३ । १ 20 [२] जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहुत्तंसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे २। १. (दाति ।। ।। २. "तए णं समण भगवं महावीरे अणगार जाए... । तस्स ण भगवंतस्स.. वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्षण पाईणगामिणीए छायाए पारिसीए अभिनिवट्टाए पमाणपत्ताए... कवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने'' इति पर्यषणाकल्पसूत्र महावीररित्रे । "अन्न भणति- बावीसाए पुव्वण्हे, मल्लि-वीराण अवरण्हे" इति आवश्यकचूर्णी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ___ जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुत्वभवे एक्कारसंगिणो होत्था, तंजहा– अजित संभव अभिणंदण जाव पासो वद्धमाणो य । उसभे णं अरहा कोसलिए चोद्दसपुव्वी होत्था ३। जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुव्वभवे 5 मंडलियरायाणो होत्था, तंजहा- अजित संभव जाव वद्धमाणो य । उसभे णं अरहा कोसलिए चक्कवट्टी होत्था ४/ ___ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता । अहेसत्तमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोवमाई ठिती 10 पण्णत्ता श असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तेवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तेवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जाणं देवाणं जहण्णेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिती 15 पण्णत्ता ५। जे देवा हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेजयविमाणेस देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा तेवीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं तेवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे 20 समुप्पजति । संतेगतिया भवसिद्धिया [जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३|| [टी०] त्रयोविंशतिस्थानकं सुगममेव, नवरं चत्वारि सूत्राणि अर्वाक स्थितिसूत्रेभ्यः, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे षोडशाऽध्ययनानि, द्वितीये सप्त, तेषां 25 चान्वर्थस्तदधिगमाधिगम्य इति ||२३|| Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिस्थानकम् । [सू० २४] चउवीसं देवाहिदेवा पण्णत्ता, तंजहा- उसभ अजित जाव वद्धमाणे । चलहिमवंत-सिहरीणं वासहरपव्वयाणं जीवाओ चउवीसं चउवीसं जोयणसहस्साई णव बत्तीसे जोयणसते एगं च अट्ठत्तीसभागं जोयणस्स किंचिविसेसाहिताओ आयामेणं पण्णत्ताओ २। चउवीसं देवट्ठाणा सइंदया पण्णत्ता । सेसा अहमिंदा अणिंदा अपरोहिता। उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलियं पोरिसीयं छायं णिव्वत्तइत्ता णं णियति ४। गंगा-सिंधूओ णं महाणदीओ पवहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्तातो ५। 10 रत्त-रत्तवतीओ णं महाणदीओ पवहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्तातो ६॥ [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगतियाणं णेरइयाणं चउवीसं पलिआवमाई ठिती पण्णत्ता १॥ अहसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चउवीसं सागरोवमाई ठिती 15 पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं चउवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णता ३! सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चउवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। हेट्ठिमउवरिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। जे देवा हेट्ठिममज्झिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा चउवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 25 20 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ऊससंति वा णीससंति वा १। तेसि णं देवाणं चउवीसाए वाससहस्साणं आहार समुप्पज्जति २ | संगतिया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति [जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति] ३| [टी०] चतुर्विंशतिस्थानके षट् सूत्राणि स्थितेः प्राक्, सुगमानि च । नवरं देवानाम् इन्द्रादीनामधिका देवाः पूज्यत्वाद् देवाधिदेवा इति । तथा जीवाओ ि जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य वर्षाणां वर्षधराणां च ऋज्वी सीमा जीवोच्यते. आरोपितज्यधनुर्जीवाकल्पत्वात्, तयोश्च लघुहिमवच्छिखरिसत्कयोः प्रमाणम् २४९३२ अष्टत्रिंशद्भागश्च योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकः, अत्र गाथा चवीस सहस्साइं नव य सए जोयणाण बत्तीसे । चुल्लहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च ॥ [ बृहत्क्षेत्र० ५२] ति कलार्द्धमिति एकोनविंशतिभागस्यार्द्धम्, तच्चाष्टत्रिंशद्भाग एव भवतीति । चतुर्विंशतिर्देवस्थानानि देवभेदाः, दश भवनपतीनाम्, अष्टौ व्यन्तराणाम्, पञ्च ज्योतिष्काणाम्, एकं कल्पोपपन्नवैमानिकानाम्, एवं चतुर्विंशतिः सेन्द्राणि 15 चमरादीन्द्राधिष्ठितानि, शेषाणि ग्रैवेयका - ऽनुत्तरसुरलक्षणानि ' अहम् अहम्' इत्येवमिन्द्रा येषु तान्यहमिन्द्राणि, प्रत्यात्मेन्द्रकाणीत्यर्थः, अत एव अनिन्द्राणि अविद्यमाननायकानि अपुरोहितानि अविद्यमानशान्तिकर्मकारीणि. उपलक्षणपरत्वादस्याविद्यमानसेवकजनानीति । 5 10 ८६ च १. व्या०- "योजनानां चतुर्विंशतिसहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशानि द्वात्रिंशदधिकानि एक कलार्धमित्येतावत्परिमाणायामेन पूर्वापरतया देर्येण क्षुल्लहिमवता जोवा । तथाहि जम्बूद्वापविष्कम्भ कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाणोऽवगाहन क्षुल्लहिमवतः संबन्धिना त्रिंशत्सहस्रपरिमाणेन ३०००० डपणा होनः क्रियते, तता जात शर्पामिदम् अष्टादश लक्षाः सप्ततिसहस्राणि १८७०००० । एतद्यथोक्तपरिमाणेन ३०००० अवगाहन गुण्यते. जातः पञ्चकः पट्कः एककः अष्टी शून्यानि ५६१०००००००० । एष राशिभूयश्चतुभिर्गुण्यते. जातो द्रिकः द्विकः चतुष्कः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि २२४४०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः चतुष्कः समक: त्रिकः समक: शून्य अष्टकः ४७३७०८ । शेषस्तु राशिरुद्धरति सप्तक: त्रिकः शून्यं सप्तक: त्रिकः षट्कः ७३०७३६ । छेदराशि: नवकः चतुष्कः सप्तकः चतुष्कः एककः षट्कः ९४७४१६ । ततः कलार्धानयनार्थमुद्धरितां राशिद्रिकेन गुण्यत छेदराशिना च भज्यते, ततो लब्धमेकं कलार्धं । वर्गमूललब्धस्य तु कलाराशर्योजनानयनार्थमेकानविंशत्या भागा हियते, लब्धानि योजनानां चतुर्विंशतिसहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशदधिकानि २४९३२ एकं च कलार्धम् १ ||१२|| इति बृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मु. २५ पञ्चविंशतिस्थानकम । तथोत्तरायणगत: सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्रविष्टः सूर्यः कर्कसङ्क्रान्तिदिन इत्यर्थः, चतुर्विंशत्यगुलिकां पौरुष्यां प्रहरे भवा छाया पौरुषीया तां छायां हस्तप्रमाणशकोरिति गम्यते, निर्वर्त्य कृत्वा णं वाक्यालङ्कारे निवर्तते सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयमण्डलमागच्छति, आह च- आसाढे मासे दपया [उत्तरा० २६।१३, ओघनि० २८३] इत्यादि । प्रवह इति यतः स्थानान्नदी प्रवहति वोढुं प्रवर्त्तते, 5 स च पद्मदात्तोरणेन निर्गम इह सम्भाव्यते, न पुनर्यो ऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वा विवक्षितः, तत्र हि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यामिह च पञ्चविंशतिक्रोशप्रमाणा गङ्गादिनद्यो विस्तारतोऽभिहिता इति ||२४|| [सू० २५] [१] पुरिमपच्छिमताणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणुवीसं भावणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- इरियासमिति, मणगुत्ती, वइगुत्ती, 10 आलोयभायणभोयणं, आदाणभंडनिक्खेवणासमिति ५, अणुवीतिभासणया, कोहविवेगे, लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे १०, उग्गहअणुण्णवणता, उग्गहसीमजाणणता, सयमेव उग्गहं अणुगेण्हणता, साहम्मियउग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणता, साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय परिभुंजणता १५, इत्थी-पसुपंडगसंसत्तसयणासणवज्जणता, इत्थीकहविवजणया, इत्थीए इंदियाणमा- 15 लोयणवजणता, पुव्वरत-पुव्वकीलियाणं अणणुसरणता, पणीताहारविवजणता २०, सोइंदियरागोवरती, एवं पंच वि इंदिया २५। १॥ मल्ली णं अरहा पणुवीसं धणूति उहुंउच्चत्तेणं होत्था २। सव्वे वि णं दीहवेयडपव्वया पणुवीसं पणुवीसं जोयणाणि उटुंउच्चत्तेणं, पणुवीसं पणुवीसं गाउयाणि उव्वेधेणं पण्णत्ता ३। 20 दोच्चाए णं पुढवीए पणुवीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ४। आयारस्स णं भगवतो सचूलियायस्स पणुवीसं अज्झीणा पण्णत्ता ५। १. अषाढ मासे दोपया पोसे मासे चउप्पया । चित्तासोएसु मासु तिपया हवड़ पोरिसी ॥२८३।। व्या०- आषाढ़ मास पौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी भवति. पदं च द्वादशाङ्गलं ग्राह्यम्, पौष मासे पौणमास्यां चतुष्पदा पौरुषो भवति, तथा चैत्राश्वयजपौर्णमास्यां त्रिपदा पौरुषी भवति ।।२८३||" इति आघनि : द्रोणाचार्यविरचिताया वत्ता ।। २. प्रवहयंति ज२ ।। ३. दृश्यता पृ०८८ ५० ५५ ।। ४. उग्गह अणु' जे१.२ खं० । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पणुवी मिच्छादिट्ठिविगलिंदिए णं अपज्जत्तए संकिलिट्ठपरिणामे णामस्स कम्मस्स उत्तरपगडीओ णिबंधति, तंजा- तिरियगतिणामं, वियलिंदियजातिणामं, ओरालियसरीरणामं, तेयगसरीरणामं, कम्मगसरीरणामं, हुडसंठाणणामं, ओरालियसरीरंगोवंगणामं, सेवट्टसंघयणणामं, वण्णनामं, 5 गंधणामं, रसणामं, फासणामं, तिरियाणुपुव्विणामं, अगरुलहुनामं, उवघातणामं, तसणामं, बादरणामं, अपज्जत्तयणामं, पत्तेयसरीरणामं, अथिरणामं, असुभणामं, दुभगणामं, अणादेज्जणामं, अजसोकित्तीणामं, निम्माणणामं २५ | ६| गंगा - सिंधूओ णं महाणदीओ पणुवीसं गाउयाणि पुहत्तेणं दुहतो 10 घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठितेणं पवातेणं पवडंति ७। रत्ता-रत्तवतीओ णं महाणदीओ पणुवीसं गाउयाणि पुहत्तेणं जाव पवातेणं पवडंति ८ ८८ लोगबिंदुसारस्स णं पुव्वस्स पणुवीसं वत्थू पण्णत्ता ९। [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पणुवीसं 15 पलिओ माई ठिती पण्णत्ता १ । असत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पणुवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं पणुवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। 20 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पणुवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४| मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जाणं देवाणं जहणणेणं पणुवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा हेट्ठिमउवरिमवेज्जगविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं 25 [उक्कोसेणं ] पणुवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म्०२७] पञ्चविंशतिस्थानकम् । [३] ते णं देवा पणुवीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं पणुवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुपज्जति २ 48 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे पणुवीसाए [भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव अंत करेस्संति ३ | 5 [टी०] पञ्चविंशतिस्थानकमपि सुबोधम्, नवरमिह स्थितेरर्वा नव सूत्राणि, तत्र पंचजामस्स त्तिपञ्चानां यामानां महाव्रतानां समाहारः पञ्चयामम्, तस्य भावणाओ त्ति प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्ते इति भावनाः, ताश्च प्रतिमहाव्रतं पञ्च पञ्चति, तत्रेर्यासमित्याद्याः पञ्च प्रथमस्य महाव्रतस्य तत्रालोकभाजनभोजनम् आलोकनपूर्वं भाजने पात्रे भोजनं भक्तादेरभ्यवहरणम्, अनालोक्य भोजने हि प्राणिहिंसा 10 सम्भवतीति, तथा अनुविचिन्त्यभाषणतादिका द्वितीयस्य तत्र विवेकः परित्यागः, तथा अवग्रहानुज्ञापनादिकास्तृतीयस्य तत्रावग्रहानुज्ञापना १ तत्र चानुज्ञाते सीमापरिज्ञानम् २, ज्ञातायां च सीमायां स्वयमेव उग्गहमिति अवग्रहस्यानुग्रहणता पश्चात्स्वीकरणमवस्थानमित्यर्थः ३. साधर्मिकाणां गीतार्थसमुदायविहारिणां संविग्नानामवग्रहो मासादिकालमानेन पञ्चक्रोशादिक्षेत्ररूपः साधर्मिकावग्रहः तं 15 तानेवानुज्ञाप्य तस्यैव परिभोजनता अवस्थानम्, साधर्मिकाणां क्षेत्रे वसतौ वा तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यमिति भावः ४, साधारणं सामान्यं यद्भक्तादि तदनुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनतेति ५, तथा स्त्र्यादिसंसक्तशयनादिवर्जनादिकाश्चतुर्थस्य प्रणीताहारः अतिस्नेहवानिति, तथा श्रोत्रेन्द्रियरागोपरत्यादिकाः पञ्चमस्य, अयमभिप्रायः- यो यत्र सजति तस्य तत् परिग्रहेऽवतरति, ततश्च शब्दादौ रागं कुर्वता ते परिगृहीता भवन्तीति 20 परिग्रहविरतिर्विराधिता भवति, अन्यथा त्वाराधितेति, वाचनान्तरे त्वेता आवश्यकानुसारेण दृश्यन्ते । तथा मिच्छादिट्ठीत्यादि, मिथ्यादृष्टिरेव तिर्यग्गत्यादिकाः कर्म्मप्रकृतीबंध्नाति न सम्यग्दृष्टिः, तासां मिथ्यात्वप्रत्ययत्वादिति मिथ्यादृष्टिग्रहणम्, विकलेन्द्रियो द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामन्यतमः, णमित्यलङ्कारे, पर्याप्तोऽन्या अपि 25 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र बध्नातीत्यपर्याप्तग्रहणम्, अपर्याप्तक एव ह्येता अप्रशस्तपरिवर्त्तमानतद्वयेतररूपा बध्नाति, सोऽप्येताः सक्लिष्टपरिणामो बध्नातीति सक्लिष्टपरिणाम इत्युक्तम्. अयमपि द्वीन्द्रियाद्यपर्याप्तकप्रायोग्यं बध्नाति, तत्र विगलिंदियजाइनामं ति कदाचित द्वीन्द्रियजात्या सह पञ्चविंशतिः कदाचिद् त्रीन्द्रियजात्या एवमितरथाऽपीति । गंगेत्यादि. 5 पञ्चविंशतिर्गव्यूतानि पृथुत्वेन यः प्रपातस्तेनेति शेषः, दुहयो त्ति द्वयार्दिशो: पूर्वतो गङ्गा अपरत: सिन्धुरित्यर्थः, पद्मह्रदाद्विनिर्गते पञ्च पञ्च योजनशतानि पर्वतोपरि गत्वा दक्षिणाभिमुखे प्रवृत्ते, घडमुहपवत्तिएणं ति घटमुखादिव पञ्चविंशतिक्रोशपृथुलजिह्वाकात मकरमुखप्रणालात् प्रवृत्तेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो हारस्तत्संस्थितेन प्रपातेन प्रपतज्जलसंतानेन योजनशतोच्छितस्य हिमवतोऽधोवर्त्तिनो: स्वकीययो: प्रपातकण्डयो: 10 प्रपततः, एवं रक्ता-रक्तवत्यौ, नवरं शिखरिवर्षधरोपरिप्रतिष्ठितपुण्डरीकह्रदात प्रपतत इति । तथा लोकबिन्दुसारं चतुर्दशपूर्वमिति ।।२५|| [सू० २६] [१] छव्वीसं दस-कप्प-ववहाराणं उद्देसणकाला पण्णत्ता, तंजहा- दस दसाणं, छ कप्पस्स, दस ववहारस्स १। _ अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स छव्वीसं कम्मंसा संतकम्मा 15 पण्णत्ता, तंजहा- मिच्छत्तमोहणिजं, सोलस कसाया, इत्थीवेदे, पुरिसवेदे, नपंसकवेदे, हासं, अरति, रति, भयं, सोगो, दगंछा । __[२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं छव्वीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। ___ अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं छव्वीसं सागरोवमाई ठिती 20 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं छव्वीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं छव्वीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४॥ १. जिहिकात् जर हे५.२ ।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडविंशति- सप्तविशतिस्थानके । मज्झिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणणेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिती [ ० २६-२७] ९१ पण्णत्ता ५। जे देवा मज्झिमट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६ । [३] ते णं देवा छव्वीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति 5 वा नीससंति वा १। [तेसि णं देवाणं छव्वीसाए वाससहस्सेहिं आहार समुपज्जत २ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे छव्वीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव अंत करेस्संति ३| [टी०] षड़विंशतिस्थानकं व्यक्तमेव, नवरम् उद्देशनकाला यत्र श्रुतस्कन्धेऽध्ययने 10 च यावन्त्यध्ययनान्युद्देशका वा तत्र तावन्त एव उद्देशनकाला उद्देशावसराः श्रुतोपचाररूपा इति । तथा अभव्यानां त्रिपुञ्जीकरणाभावेन सम्यक्त्वमिश्ररूपं प्रकृतिद्वयं सत्तायां न भवतीति षडविंशतिः सत्कर्मांशा भवन्तीति ||२६|| [सू० २७] [१] सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तंजहा- पाणातिवातवेरमणे, एवं पंच वि । सोतिंदियनिग्गहे जाव फासिंदियनिग्गहे । कोधविवेगे जाव 15 लोभविवेगे । भावसच्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे । खमा, विरागता, मणसमाहरणता, वतिसमाहरणता, कायसमाहरणता, णाणसंपण्णया, दंसणसंपण्णया, चरित्तसंपण्णया, वेयणअधियासणता, मारणंतियअहियासणया १। जंबुद्दीवे दीवे अभिवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वहति २ एगमेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसं रातिंदियाई रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते ३ | 20 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसताइं बाहल्लेणं पण्णत्ता ४| वेयगसम्मत्तबंधोवरयस्स णं मोहणिज्जस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतकम्मंसा पण्णत्ता ५। सावणसुद्धसत्तमीए णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिव्वत्तइत्ता 25 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे णं दिवसखेत्तं निवड्ढेमाणे रयणिखेत्तं अभिणिवड्डेमाणे चारं चरति ६ । [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १ । असत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिती 5 पण्णत्ता २ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सत्तावीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओ माई ठिती पण्णत्ता ४| मज्झिमउवरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणणेणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिती 10 १२ पण्णत्ता ५। जे देवा मज्झिममज्झिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा 15 ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं सत्तावीसाए वाससहस्सेहिं आहार समुप्पज्जति २ | संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंत करेस्संति ३ । [टी०] सप्तविंशतिस्थानकमपि व्यक्तमेव केवलं षट् सूत्राणि स्थितेरर्वाकु, तत्र 20 अनगाराणां साधूनां गुणाः चरित्रविशेषा अनगारगुणाः, तत्र महाव्रतानि पञ्च, इन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च क्रोधादिविवेकाश्चत्वारः, सत्यानि त्रीणि १७, तत्र भावसत्यं शुद्धान्तरात्मता, करणसत्यं यत् प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते, योगसत्यं योगानां मनःप्रभृतीनामवितथत्वम् १७ । क्षमा अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपस्य द्वेषसञ्ज्ञितस्याप्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः क्रोध25 मानविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोर्निरोधः प्रागभिहित इति न पुनरुक्तताऽपीति १८ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मु० २७ सप्तविंशतिस्थानकम् । विरागता अभिष्वङ्गमात्रस्याभावः, अथवा मायालोभयोरनुदयः. मायालाभविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयार्निरोधः प्रागभिहित इतीहापि न पुनरुक्ततेति ५९ । मनोवाक्कायानां समाहरणता, पाठान्तरतः समन्वाहरणता अकुशलाना निराधास्त्रय: २२ । ज्ञानादिसम्पन्नतास्तिस्रः २५ । वेदनातिसहनता शीताद्यतिसहनम् २६ । मारणान्तिकातिसहनता कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहनमिति २७। 5 ___ तथा जम्बूद्वीपे न धातकीखण्डादौ अभिजिद्वजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैर्व्यवहारः प्रवर्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति । तथा मासो नक्षत्र-चन्द्राऽभिवर्द्धित-ऋत्वा-ऽऽदित्यमासभेदात् पञ्चविधोऽन्यत्रोक्तः, तत्र नक्षत्रमास: चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभागकाललक्षणः सप्तविंशतिः रात्रिंदिवानि अहोरात्राणि रात्रिंदिवानेणेति अहोरात्रपरिमाणापेक्षयेदं परिमाणं न तु सर्वथा, तस्याधिकतरत्वाद्, आधिक्यं 10 चाहोरात्रसप्तषष्टिभागानामेकविंशत्येति । विमाणपुढवि त्ति विमानानां पृथिवी भूमिका । तथा वदकसम्यक्त्वबन्धः, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वहतुभूतशुद्धदलिकपुञ्जरूपा दर्शनमाहनीयप्रकृतिस्तस्य, उवरओ त्ति प्राकृतत्वादुद्वलको वियोजको यो जन्तुस्तस्य मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिविधस्य मध्ये सप्तविंशतिरुत्तरप्रकृतयः सत्कर्माशा: सत्तायामित्यर्थः, एकस्योदलितत्वादिति । तथा श्रावणमासस्य शुद्धसप्तम्यां सूर्यः सप्तविंशत्यगुलिकां हस्तप्रमाणशङकोरिति गम्यते पौरुषीं छायां प्रहरच्छायां निर्वर्त्य दिवसक्षेत्रं रविकरप्रकाशमाकाशं निवर्द्धयन् प्रकाशहान्या हानि नयन् रजनीक्षेत्रम् अन्धकाराक्रान्तमाकाशमभिनिवर्द्धयन् प्रकाशहान्या वृद्धि नयन् चारं चरति व्योममण्डले भ्रमणं करोति, अयमत्र भावार्थ:इह किल स्थूलन्यायमाश्रित्य आषाढ्यां चतुर्विंशत्यगुलप्रमाणा पौरुषीच्छाया भवति, 20 दिनसप्तके च सातिरेके छायाऽगुलं वर्द्धते. ततश्च श्रावणशुद्धसप्तम्यामगुलत्रयं वर्द्धते, सातिरकैकविंशतितमदिनत्वात्तस्याः, तदेवमाषाढ्याः सत्कैरङ्गुलैः सह सप्तविंशतिरङ्गुलानि भवन्ति, निश्चयतस्तु कर्कसङ्क्रान्तेरारभ्य यत् सातिरेकैकविंशतितमं दिनं तत्रोक्तरूपा पौरुषीच्छाया भवति ।।२७।। 15 १ घधिम जर हे ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06 आचार्यश्रीअभयदेवरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र [सू० २८] अट्ठावीसतिविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, तंजहा- मासिया आरोवणा, सपंचरायमासिया आरोवणा, सदसरातमासिया आरोवणा, सपण्णरसरातमासिया आरोवणा, सवीसतिरायमासिया आरोवणा, सपंचवीसरातमासियां आरोवणा, एवं चेव दोमासिया आरोवणा, 5 सपंचरातदोमासिया आरोवणा, एवं तेमासिया आरोवणा, चउमासिया आरोवणा, उग्घातिया आरोवणा, अणुग्घातिया आरोवणा, कसिणा आरोवणा, अकसिणा आरोवणा । इत्ताव ताव आयारपकप्पे, इत्ताव ताव आयरियव्वे १। भवसिद्धियाणं जीवाणं अत्थेगतियाणं मोहणिजस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मं पण्णत्ता, तंजहा- सम्मत्तवेयणिजं, मिच्छत्तवेयणिज्ज 10 सम्ममिच्छत्तवेयणिज, सोलस कसाया, णव णोकसाया । __ आभिणिबोहियणाणे अट्ठावीसतिविहे पण्णत्ते, तंजहा- सोतिदियत्थोग्गहे, चक्खिंदियत्थोग्गहे, घाणिंदियत्थोग्गहे, जिब्भिंदियत्थोग्गहे, फासिंदियत्थोग्गहे, णोइंदियत्थोग्गहे, सोतिंदियवंजणोग्गहे, घाणिंदियवंजणोग्गहे, जिब्भिंदियवंजणोग्गहे, फासिंदियवंजणोग्गहे, सोतिंदियईहा जाव 15 फासिंदियईहा, णोइंदियईहा, सोतिंदियावाते जाव णोइंदियअवाते, सोइंदियधारणा जाव णोइंदियधारणा ३। ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । जीवे णं देवगतिं निबंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसं उत्तरपगडीओ णिबंधति, तंजहा- देवगतिनामं, पंचेंदियजातिनामं, वेउब्वियसरीरनामं, 20 ते ययसरीरनाम, कम्मयसरीरनाम, समचउरंससंठाणणाम, वेउव्वियसरीरंगोवंगणामं, वण्णणामं, गंधणामं, रसणामं, फासणाम, १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययन अट्टावीसविह आयारकप्प इति सूत्रस्य हरिभद्ररिविर्गचताया वृत्ता त्ववम् - "अष्टाविंशतिविध आचार एवाऽऽचारप्रकल्पः, क्रिया पूर्ववत्, अष्टाविंशतिभदान दर्शयति- "सत्यपाराणा १ लोगा विजओ य २ सीओसणिज्ज ३ संमत्तं ४ । आवति ५ धुवविमोहा ६-७ उवहाणसय ८ महापरिणा ९ य ।।१॥ पिंडेससिर्जािरया भासज्जाया १०-१३ य वत्थपाएसा १४-१५ । उग्गहाडमा ५६ सत्तक्कतय २३ भावविमत्तीआ २४-२५ ।।२।। उग्घायमणग्याय आरुवणा तिविहमो णिसीह तु २६-२७-२८ । इय अठ्ठावीसविहा आयाम्पकप्पणामोऽयं ।।३।।" Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० २८ अष्टाविंशतिस्थानकम् । देवाणुपुव्वीणामं, अगुरुयलहुअनामं, उवघायनामं, पराघायनामं, ऊसासनामं, पसत्थविहायगइणाम, तसनामं, बायरणामं, पज्जत्तनामं, पत्तेयसरीरनामं, थिराथिराणं दोण्हं अण्णयरं एगनामं णिबंधति, सुभासुभाणं दोण्हमण्णयरं एगनामं निबंधड़, सुभगणामं, सुस्सरणामं, आएज-अणाएजनामाणं दोण्हमण्णयरं एगनामं निबंधइ, जसकित्तिनामं, निम्माणनामं । एवं चेव नेरइए 5 वि, णाणत्तं अपसत्थविहायगइणाम, हुंडसंठाणनामं, अथिरणामं, दुब्भगणाम, असुभनामं, दस्सरनामं, अणादेज्जणामं, अजसोकित्तीणामं, निम्माणनामं ५। [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिती 10 पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। 15 उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेजएस विमाणेस देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा । ऊससंति वा नीससंति वा १। [तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं 20 आहारट्टे समुप्पज्जति । संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अष्टाविंशतिस्थानकमपि व्यक्तम्, नवरमिह पञ्च स्थितेः प्राक् सूत्राणि, तत्र आचार: प्रथमागं तस्य प्रकल्प: अध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधान आचारस्य 25 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्र वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमित्याचारप्रकल्पः, तत्र क्वचिद् ज्ञानाद्याचारविषये अपराधमापन्नस्य किञ्चित् प्रायश्चित्तं दत्तम्. पुनरन्यमपराधविशेषमापन्नस्ततस्तत्रैव प्राक्तने प्रायश्चित्ते मासवहनयोग्यं मासिकं प्रायश्चित्तमारोपितमित्येवं मासिक्यारोपणा भवति, तथा पञ्चरात्रिकशुद्धियोग्यं 5 मासिक शुद्धियोग्यं चापराधद्वयमापन्नस्ततः पूर्वदत्तप्रायश्चित्ते सपञ्चरात्रमासिकप्रायश्चित्तारोपणात् सपञ्चरात्रमासिक्यारोपणा भवति, एवं मासिक्यारोपणाः षट् ६. एवं द्विमासिक्यः ६, त्रिमासिक्य : ६, चतुर्मासिक्योऽपोति ६ चतुर्विंशतिरारोपणाः, तथा सार्द्धदिनद्र्यस्य पक्षस्य चोद्घातनेन लघूनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा औद्घातिक्यारोपणा, यदाह ९६ 10 अद्वेण छिन्नसे पुवद्वेणं तु संजुयं काउं । देज्जा य लहुयाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ।। [ ] त्ति । यथा मासार्द्धं १५ पञ्चविंशतिकार्द्धं च सार्द्धद्वादश, सर्वमीलने सार्द्धसप्तविंशतिरिति लघुमासः, तथा मासद्वयार्द्धं मासो मासिकस्यार्द्ध पक्ष उभयमीलने सार्द्धा मास इति लघुद्वैमासिकम् २५, तथा तेषामेव सार्द्धदिनद्वयाद्यनुद्घातनेन गुरूणामारोपणा 15 अनौघातिक्यारोपणा २६ तथा यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्नारोपणा २७, तथा बहूनपराधानापन्नस्य षण्मासान्तं तप इति कृत्वा षण्मासाधिकं तपःकर्म तेष्वेवान्तर्भाव्य शेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्स्नारोपणेत्यष्टाविंशतिः २८. एतच्च सम्यग् निशीथविंशतितमोद्देशकावगम्यम् । अत्रैव निगमनमाहएतावांस्तावदाचारप्रकल्प:, इह स्थानके आरोपणामाश्रित्य विवक्षितोऽन्यथा 20 तद्व्यतिरेकेणापि तस्योद्घातिकानुद्घातिकरूपस्य भावात्, अथवैतावाने वायं तावदाचारप्रकल्पः. शेषस्यात्रैवान्तर्भावात्, तथा एतावत्तावदाचरितव्यमित्यपि तथैव । देवगतिसूत्रे स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभयोरादेयानादेययोश्च परस्परं विरोधित्वेनैकदा बन्धाभावादन्यतरद्बघ्नातीत्युक्तम्, तत्र चैकशब्दग्रहणं भाषामात्र एवावसेयमिति, १. "रात्रिकमासिक तप इति कृत्वा इति पाठ: पतितः ॥ ४. कृत्वा नास्ति खं० ॥ २ ।। २ स्थानाङ्गटीकायामुद्धृतमेतत् पू० २७६ ५५८ ।। ३. जर मध्य षण्मासान्तं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मू० २१ एकोनत्रिंशत्स्थानकम् । नारकसूत्रे विंशतिस्ता एव प्रकृतयोऽष्टानां तु स्थाने अष्टावन्या बध्नाति, एतदेवाहएवं चेवेत्यादि, नानात्वं विशेषः ।।२८।। [सू० २९] [१] एगूणतीसतिविहे पावसुतपसंगे पण्णत्ते, तंजहा- भोमे, उप्पाए, सुमिणे, अंतलिक्खे, अंगे, सरे, वंजणे, लक्खणे । भोमे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा- सुत्तं, वित्ती, वत्तिए । एवं एक्वेक्कं तिविहं । विकहाणुयोगे, 5 विजाणुजोगे, मंताणुजोगे, जोगाणुजोगे, अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे १॥ आसाढे णं मासे एगूणतीसं रातिदियाई रातिंदियाइं पण्णत्ते २। भद्दवते णं मासे [एगूणतीसं रातिंदियाई रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ३। कत्तिए णं [मासे एगूणतीसं रातिदियाई रातिदियग्गेणं पण्णत्ते] ४। पोसे णं मासे [एगूणतीसं रातिंदियाई रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ५। 10 फग्गुणे णं [मासे एगणतीसं रातिदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ६। वइसाहे णं मासे [एगूणतीसं रातिंदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ७/ चंददिणे णं एकूणतीसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते ८। जीवे णं पसत्थज्झवसाणजुत्ते भविए सम्मट्ठिी तित्थकरनामसहिताओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीओ निबंधित्ता वेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए 15 उववजति ९॥ [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। 20 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३॥ १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'एगणतीसाए पावसुयपसंगहि इति सूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावपि किञ्चिद्भदन पापथ्रतप्रसङ्गानां वर्णन वर्तते ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसुत्रे सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४| उवरिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणणेणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिती ९८ पण्णत्ता ५। जे देवा उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६ । [३] ते णं देवा एगूणतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं एगूणतीसाए वाससहस्सेहिं आहार समुप्पज्जति २ | संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति [ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति] ३। [टी०] एकोनत्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तमेव, नवरं नवेह सूत्राणि स्थितेः प्राक् तत्र पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि तेषां प्रसङ्गः तथाऽऽसेवनारूपः पापश्रुतप्रसङ्गः. स च पापश्रुतानामेकोनत्रिंशधित्वात् तद्विध उक्तः, पापश्रुतविषयतया पापश्रुतान्येव 15 वोच्यन्ते, अत एवाह - भोमेत्यादि, तत्र भौमं भूमिविकारफलाभिधानप्रधानं निमित्तशास्त्रम्, तथा उत्पातं सहजरुधिरवृष्ट्यादिलक्षणोत्पातफलनिरूपकं निमित्तशास्त्रम्, एवं स्वप्नं स्वप्नफलाविर्भावकम्, अन्तरिक्षम् आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलनिवेदकम्, अङ्गं शरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादिविकारफलोद्भावकम्, स्वरं जीवाजीवाश्रितस्वरस्वरूपफलाभिधायकम्, व्यञ्जनं मषादिव्यञ्जनफलोपदर्शकम्. 20 लक्षणं लाञ्छनाद्यनेकविधलक्षणव्युत्पादकमित्यष्टौ । एतान्येव सूत्र - वृत्तिवार्त्तिकभेदाच्चतुर्विंशतिः २४, तत्राङ्गवर्जितानामन्येषां सूत्रं सहस्रप्रमाणम्. वृत्तिर्लक्षप्रमाणा, वार्त्तिकं वृत्तिव्याख्यानरूपं कोटीप्रमाणम्, अङ्गस्य तु सूत्रं लक्षम्, वृत्तिः कोटी, वार्त्तिकमपरिमितमिति, तथा विकथानुयोगः अर्थकामोपायप्रतिपादनपराणि कामन्दक - वात्स्यायनादीनि भारतादीनि वा शास्त्राणि २५, 25 तथा विद्यानुयोगो रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाभिधायीनि शास्त्राणि २६. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्स्थानकम् । मन्त्रानुयोगश्चेटकादिमन्त्रसाधनोपायशास्त्राणि २७, योगानुयोगो वशीकरणादियोगाभिधायिकानि हरमेखलादिशास्त्राणि २८. अन्यतीर्थिकेभ्यः कपिलादिभ्यः सकाशाद्यः प्रवृत्तः स्वकीयाचारवस्तुतत्त्वानामनुयोगो विचारः तत्पुरस्करणार्थं शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्थः सोऽन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग इति २९ । तथाऽऽषाढादय एकान्तरिता षण्मासा एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि रात्रिंदिवपरिमाणेन भवन्ति स्थूलन्यायेन, कृष्णपक्षे प्रत्येकं 5 रात्रिंदिवस्यैकस्य क्षयात्. आह च फग्गुण - वडसा आसाढबहुलपक्खे भदृवए कत्तिए य पोसे य । य बोधव्वा ओमरत्ताओ || [ उत्तरा० २६/१५ ] ति । इयमत्र भावना- चन्द्रमासो हि एकोनत्रिंशद् दिनानि दिनस्य च द्विषष्टिभागानां द्वात्रिंशत् ऋतुमासश्च त्रिंशदेव दिनानि भवतीति चन्द्रमासापेक्षया 10 ऋतुमासोऽहोरात्रद्विषष्टिभागानां त्रिंशता समधिको भवति, ततश्च प्रत्यहोरात्रं चन्द्रदिन में कैकेन द्विषष्टिभागेन हीयते इत्यवसीयते, एवं द्विषष्ट्या चन्द्रदिवसानामेकषष्टिरहोरात्राणां भवतीत्येवं सातिरेके मासद्वये एकमवमरात्रं भवतीति, विशेषस्त्विह चन्द्रप्रज्ञप्तेरवसेय इति । तथा चंददिणे णं ति चन्द्रदिनं प्रतिपदादिका तिथिः, तच्चैकोनत्रिंशद् मुहूर्त्ता: 15 सातिरेका मुहूर्त्तपरिमाणेनेति कथम् ? यतः किल चन्द्रमास एकोनत्रिंशद् दिनानि द्वात्रिंशच्च दिनद्विषष्टिभागा भवन्ति, ततश्चन्द्रदिनं चन्द्रमासस्य त्रिंशता गुणनेन मुहूर्त्तराशीकृतस्य त्रिंशता भागहारे एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता द्वात्रिंशच्च मुहूर्त्तस्य द्विषष्टिभागा लभ्यन्त इति । [ ० २१ १. "णार्थ: हर ॥। २. रात्रिदिवसपरि खं० । रात्रिंदिवप्रमाणेन हे२ । ३. रात्रिंदिवसस्यै खं० ॥ ४. "आसाढेत्ति आषाढे बहुलपक्षे भाद्रपदादिषु च बहुलपक्षे ओम त्ति अवमा न्यूना एकेनेति शेषः, रत्त त्ति पदैकदेशऽपि पदप्रयोगदर्शनादहोरात्राः एवं चैकदिनापहारे दिनचतुर्दशकेनैव कृष्णपक्ष एतेष्विति भावः || २६|१५|| इति उत्तराध्ययनसूत्रस्य शान्तिसूरिविरचितायां पाईयटीकायाम् । तथा ओघनियुक्तौ गा० २८५ ।। ५. बोद्धव्वा जि२ । ६ प्रतिषु पाठा:- " रत्ताओ ह१.२ । रणाओ जे१ । "राओ त्ति जेर। रवाओ त्ति खं० ।। ७. भवतीति ह१.२ ॥ ८. चन्द्रप्रजप्ते द्वादशे प्राभृते विशेषजिज्ञासुभिर्विलोकनीयम् ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ तथा जीव: प्रशस्ताध्यवसानादिविशेषणो वैमानिकेषूत्पत्तुकामा नामकर्मण एकोनत्रिंशदुत्तरप्रकृतीर्बध्नाति, ताश्चेमा:- देवगति: १ पञ्चेन्द्रियजाति: २ वैक्रियद्रयं ४ तैजसकार्मणशरीरे ६ समचतुरस्रं संस्थानं ७ वर्णादिचतुष्कं ११ देवानुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३ उपघातं १४ पराघातम् १५ उच्छ्वासं १६ प्रशस्तविहायोगतिः १७ वसं १८ बादरं 5 १९ पर्याप्त २० प्रत्येकं २१ स्थिरास्थिरयोरन्यतरत् २२ शुभाशुभयारन्यतरत् २३ सुभग २४ सुस्वरम २५ आदेयानादेययोरन्यतरत् २६ यशःकीर्त्ययश:कीोरकतरं २७ निर्माण २८ तीर्थकरं चेति २९ । [सू० ३०] [१] तीसं मोहणिज्जठाणा पण्णत्ता, तंजहा जे यावि तसे पाणे वारिमझे विगाहिया ।। 10 उदएणक्कम्म मारेति महामोहं पकुव्वति ।।१९।। १। सीसावेढेण जे केई आवेढेति अभिक्खणं । तिव्वे असुभसमायारे महामोहं पकुव्वति ।।२०।। २। पाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणं । अंतो नदंतं मारेइ महामोहं पकुव्वइ ।।२१।। ३। जायतेयं समारब्भ बहुं ओलंभिया जणं । अंतोधूमेण मारेइ महामोहं पकुव्वइ ।।२२।। ४। सीसम्मि जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा । विभज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वति ।।२३।। ५। पुणो पुणो पणिहीए हणित्ता उवहसे जणं । 20 फलेणं अदुव दंडेणं महामोहं पकुव्वइ ।।२४।। ६। गूढायारी निगृहेज्जा मायं मायाए छायए । असच्चवाई णिहाई महामोहं पकुव्वइ ।।२५।। ७। १. यश:कीर्ति: २७ हे २ विना ।। २. दशाश्रुतस्कन्धे नवम्यां दशायां सर्वा अप्यता गाथा वर्तन्त ।। ३. प्रथमाऽ आदितो गाथाङ्कस्य सूचक: । द्वितीयस्तु मोहनीयस्थानक्रमाङ्कः।। ४. तिव्वासुभ' जे५ ।। ५. इत आरभ्य अटी०० अ५ मध्ये प्रायः सर्वत्र "व्वई इति पाठ ।। 18 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग 300 त्रिंशत्स्थानकम । 0 धंसेड जो अभूएणं अकम्मं अत्तकम्मणा । अदुवा तुममकासि त्ति महामोहं पकुव्वइ ॥२६।। ८। जाणमाणो परिसओ सच्चामोसाणि भासति । अज्झीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वति ।।२७।। ९। अणायगस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं ।।२८।। उवगसंतं पि झंपिता पडिलोमाहिं वग्गूहिं । भोगभोगे वियारेति महामोहं पकुव्वति ।।२९।। १०। अकुमारभूए जे केड़ कुमारभूए त्ति हं वए । इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वति ।।३०।। ११॥ अबंभयारी जे केइ बंभयारि त्ति हं वए । गद्दभे व्व गवं मज्झे विस्सरं नदई नदं ।।३१।। अप्पणो अहिए बाले मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वइ ।।३२।। १२। जं निस्सिए उव्वहती जससा अहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि महामोहं पकुव्वइ ।।३३।। १३। इस्सरेण अदुवा गामेणं अणिस्सरे इस्सरीकए । तस्स संपग्गहीयस्स सिरी अतुलमागया ||३४|| ईसादोसेण आइडे कलुसाविलचेयसे । जे अंतरायं चेएइ महामोहं पकुव्वति ॥३५।। १४। सप्पी जहा अंडउडं भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावई पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ ॥३६।। १५। जे नायगं व रट्टस्स नेयारं निगमस्स वा ।। सेटिं बहरवं हंता महामोहं पकुव्वति ।।३७।। १६। १. भामर्ड अटो का Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बहुजणस्स णेयारं दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वति ।।३८।। १७/ उवट्टियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सियं । वोकम्म धम्मओ भंसे महामोहं पकुव्वति ।।३९।। १८। तहेवाणतणाणीणं जिणाणं वरदंसिणं । तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुव्वति ॥४०॥ १९॥ नेयाउयस्स मग्गस्स दुटे अवयरई बहु । तं तिप्पयंतो भावेति महामोहं पकुव्वति ॥४१॥ २०॥ आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिंसती बाले महामोहं पकुव्वति ॥४२॥ २१॥ आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पड़ । अप्पडिपूयए थद्धे महामोहं पकुव्वति ॥४३।। २२। अबहुस्सुए य जे केइ सुएण पविकंथई । सज्झायवायं वयति महामोहं पकुव्वति ।।४४।। २३। ___ अतवस्सिए य जे केड़ तवेण पविकंथइ । सव्वलोयपरे तेणे महामोहं पकुव्वति ।।४५।। २४| साहारणट्ठा जे केइ गिलाणम्मि उवट्ठिए । पभू ण कुणई किच्चं मझं पि से न कुव्वति ।।४६।। सढे नियडिपण्णाणे कलुसाउलचेयसे । __अप्पणो य अबोहीए महामोहं पकुव्वति ।।४७।। २५। जे कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो पुणो । सव्वतित्थाण भेयाय महामोहं पकुव्वति ॥४८॥ २६। जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो । साहाहेउं सहीहेडं महामोहं पकुव्वति ।।४९।। २७/ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि० 30 त्रिंशत्स्थानकम् । १०३ जे य माणुस्सए भोए अदवा पारलोइए । तेऽतिप्पयंतो आसयति महामाहं पकुव्वति ।।५०।। २८॥ इडी जुती जसो वण्णो देवाणं बलवीरियं । तेसिं अवण्णिम बाले महामोहं पकुव्वति ||५१।। २९। अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वति ॥५२॥ ३०।१। थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे २। एगमेगे णं अहोरत्ते तीसं मुहुत्ता मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ते । एतेसि णं तीसाए मुहत्ताणं तीसं नामधेज्जा पण्णत्ता, तंजहा- रोहे, सेते, 10 मित्ते, वाऊ, सुपीए ५, अभियंदे, माहिंदे, बलवं, बंभे, सच्चे १०, आणंदे, विजए, वीससेणे, पायावच्चे, उवसमे १५, ईसाणे, तट्टे, भावियप्पा, वेसमणे, वरुण २०, सतरिसभे, गंधव्वे, अग्गिवेसायणे, आतवं, आवत्तं २५, तट्ठवं, भूमहं, रिसभे, सव्वट्ठसिद्धे, रक्खसे ३० । ३। अरे णं अरहा तीसं धणूइं उर्दूउच्चत्तेणं होत्था ४/ सहस्सारस्स णं देविंदस्स देवरणो तीसं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्ताओ५। पासे णं अरहा तीसं वासाई अगारमज्झावसित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते ॥ समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगार जाव पव्वतिते ७। रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता ८। 20 [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तीसं । पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। 25 15 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचार्यश्रीअभयदेवरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्रे [सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ?] ४। उवरिमाउवरिम गेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। 5 जे देवा उवरिममज्झिमगेवेजएसु विमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १, जाव तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे [समुप्पजति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव 10 सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३।। [टी०] त्रिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं स्थितेरागष्टौ सूत्राणि, तत्र मोहनीयं सामान्येनाष्टप्रकारं कर्म विशेषतश्चतुर्थी प्रकृतिः, तस्य स्थानानि निमित्तानि मोहनीयस्थानानि, तथा जे आवि तसे इत्यादिश्लोकः, यश्चापि त्रसान् प्राणान् स्त्र्यादीन वारिमध्ये विगाह्य प्रविश्योदकेन शस्त्रभूतेन मारयति, कथम् ?, आक्रम्य पादादिना. 15 स इति गम्यते, मार्य माणस्य महामोहोत्पादकत्वात् सक्लिष्ट चित्तत्वाच्च भवशतदुःखवेदनीयमात्मनो महामोहं प्रकरोति जनयति, तदेवंभूतं त्रसमारणेनेक मोहनीयस्थानमेवं सर्वत्रेति । सीसा श्लोकः, शीर्षावेष्टेन आर्द्रचर्मादिमयेन यः कश्चिद्वेष्टयति स्त्र्यादिवसानिति गम्यते अभीक्ष्णं भृशं तीव्रोऽशुभसमाचारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात् स मार्यमाणस्य 20 महामोहोत्पादकत्वेन आत्मनो महामोहं प्रकुरुत इति २। यावत्करणात् केषुचित् सूत्रपुस्तकेषु शेषमोहनीयस्थानाभिधानपरा: श्लोकाः सूचिताः. केषुचित् दृश्यन्त एवेति ते व्याख्यायन्तेपाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणं । अंतो नदंतं मारेइ महामोहं पकुव्वइ ।।३।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्स्थानकम् | [ मू० ३०] १०५ पाणिना हस्तेन संपिधाय स्थगयित्वा किं तत् ? श्रोतो रन्ध्रं मुखमित्यर्थः, तथा आवृत्य अवरुध्य प्राणिनं ततः अन्तर्नदन्तं गलमध्ये रवं कुर्वन्तं घुरघुरायमाणमित्यर्थः, मारयति यः स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति तृतीयम् ३ । जायतेयं समारब्भ बहुं ओरुंभिया जणं । अंतोधूमेण मारेति महामोहं कुव्व ||४| जाततेजसं वैश्वानरं समारभ्य प्रज्वाल्य बहुं प्रभूतम् अवरुध्य महामण्डप - वाडादिषु प्रक्षिप्य जनं लोकम् अन्तः मध्ये मण्डपादेः धूमेन वह्निलिङ्गेन, अथवा अन्तर्धूमो यस्य सोऽन्तर्धूमस्तेन जाततेजसा विभक्तिपरिणामात् मारयति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुर्थम् ४ । सीसम्म जे पहाड़ उत्तमंगम्मि चेयसा । 5 10 विभज्ज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वति ||५|| शीर्षे शिरसि यः प्रहन्ति खड्ग - मुद्गरादिना प्रहरति प्राणिन 'मिति गम्यते, किंभूते स्वभावतः ? शिरसि उत्तमाङ्गे सर्वावयवानां प्रधानावयवे तद्विघातेऽवश्यं मरणात् चेतसा सक्लिष्टेन मनसा, न यथाकथञ्चिदित्यर्थः तथा विभाज्य मस्तकं प्रकृष्टप्रहारदानेन स्फाटयति विदारयति ग्रीवादिकं कायमपीति गम्यते स इत्यस्य 15 गम्यमानत्वात् स महामोहं प्रकरोतीति पञ्चमम् ५ । १. वाहादिषु खं० ॥ २. यस्यासावन्त खं० ज२ ।। ३ स नास्ति जे२ विना ।। ४. गलाक जे१.२. ह४ ॥ ५ तथा नास्ति जे२ । जे१ मध्येऽत्र पाठः पतितः ।। ६. योगभावितेन जेर हे१.२ ।। पुणो पुणो पणिहीए हणित्ता उवहसे जणं । फलेणं अदुव दंडेणं महामोहं पकुव्वइ ।।६।। पौनः पुण्येन प्रणिधिना मायया यथा वाणिजकादिवेषं विधाय गलकर्त्तकाः पथि गच्छता सह गत्वा विजने मारयन्ति, तथा हत्वा विनाश्य य इति गम्यते उपहसेत् 20 आनन्दातिरेकात् जनं मुग्धलोकं हन्यमानम्. केन हत्वा ? फलेन योगविभावितेन मातुलिङ्गादिना, अदुव तथा दण्डेन प्रसिद्धेन स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति षष्ठम् ६ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 गूढायारी निगूहेज्जा मायं मायाए छायए । असच्चवाई णिण्हाई महामोहं पकुव्वइ ||७|| गूढाचारी प्रच्छन्नाचारवान् निगूहयते गोपयेत्, स्वकीयं प्रच्छन्नं दुष्टमाचारम्, तथा मायां परकीयां मायया स्वकीयया छादयेत् जयेत् यथा शकुनिमारकाश्छदैरात्मानमावृत्य 5 शकुनीन् गृह्णन्तः स्वकीयमायया शकुनिमायां छादयन्ति तथा असत्यवादी निह्नवी अपलापकः स्वकीयाया मूलगुणोत्तरगुणप्रतिसेवायाः सूत्रार्थयोर्वा महामोहं प्रकरोतीति 15 १०६ 20 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सप्तमम् । धंसेड़ जो अभूएणं अम्मं अत्तकम्मुणा । अदुवा ममकासित महामोहं पकुव्व ॥८॥ ध्वंसयति छायया भ्रंशयति यः पुरुषोऽभूतेन असद्भूतेन कम् ? अकर्मकम् अविद्यमानदुश्चेष्टितम् आत्मकर्मणा आत्मकृतऋषिघातादिना दुष्टव्यापारण अदुवा अथवा यदन्येन कृतं तदाश्रित्य परस्य समक्षमेव त्वमकार्षीरतन्महापापमिति वदति वदिक्रियायाः गम्यमानत्वात् स इत्यस्यापि गम्यमानत्वात् स महामोहं प्रकरोतीत्यष्टमम् ८ । जाणमाणो परिसओ सच्चामोसाणि भासति । अक्खीणझंझे पुरिसे महामोहं कुव्वति ||९|| जानान: यथा अनृतमेतत्, परिषदः सभाया बहुजनमध्ये इत्यर्थः, सत्यामृषाणि किञ्चित्सत्यानि बह्वसत्यानि वस्तूनि वाक्यानि वा भाषते अक्षीणझञ्झः अनुपरतकलहः यः स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति नवमम् ९ । अणायगस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं || उवगसंतं पि झंपिता पडिलोमाहिं वग्गूहिं । भोगभोगे वियारेति महामोहं पकुव्वति ||१०|| अनायकः अविद्यमाननायको राजा, तस्य, नयवान् नीतिमानमात्यः, स तस्यैव १. स नास्ति खं० हे ।। २ प्रतिषु पाठ:- सत्यामुषाणि किंचित्स" हे२ । सत्यमृषा किंचित्स हर विना ॥ ३ बहन्यसत्यानि जे२ । बहसत्यानि नास्ति खं० ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 (म० ३० त्रिंशत्म्थानकम्। राज्ञो दारान् कलत्रं द्वारं वा अर्थागमस्योपायं ध्वंसयित्वा भोगभोगान् विदारयतीति सम्बन्धः. किं कृत्वा ? विपुलं प्रचुरमत्यर्थमित्यर्थः, विक्षोभ्य सामन्तादिपरिकरभेदेन संक्षोभ्य नायकम, तस्य क्षोभं जनयित्वेत्यर्थः, कृत्वा विधाय णमित्यलकारे प्रतिबाह्यम् अनधिकारिणं दारेभ्योऽर्थागमद्वारेभ्यो वा, दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः । तथा उपकसन्तमपि समीपमागच्छन्तमपि, सर्वस्वापहारे 5 कृते प्राभतेनानुलोमैः करुणैश्च वचनैरनुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः, झम्पयित्वा नष्टवचनावकाशं कृत्वा प्रतिलोमाभिः तस्य प्रतिकूलाभिर्वाग्भिः वचनैरतादृशस्तादृशस्त्वमित्यादिभिरित्यर्थः, भोगभोगान् विशिष्टान् शब्दादीन विदारयति हरति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति दशमम् १० । अकुमारभूए जे केइ कुमारभूए तऽहं वए । इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वति ॥११॥ अकुमारभूत: अकुमारब्रह्मचारी सन् यः कश्चित् कुमारभूतोऽहं कुमारब्रह्मचारी अमिति वदति, अथ च स्त्रीषु गृद्धो वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त इत्यर्थः, अथवा वसति आस्ते स महामोहं प्रकरोतीत्येकादशम् ११ । अबंभयारी जे केड बंभयारि तऽहं वए । गहभे व्व गवं मज्झे विस्सरं नदई नदं ।। अप्पणो अहिए बाले मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वइ ।।१२।। अब्रह्मचारी मैथुनादनिवृत्तो यः कश्चित् तत्काल एवाऽऽसेव्याब्रह्मचर्यं ब्रह्मचारी साम्प्रतमहमित्यतिधूर्त्ततया परप्रवञ्चनाय वदति, तथा य एवमशोभावहं सतामनादेयं 20 भणन् गर्दभ इव गवां मध्ये विस्वरं न वृषभवन्मनोज्ञं नदति मुञ्चति नदं नादं शब्दमित्यर्थः, तथा य एवं भणन्नात्मनोऽहितो न हितकारी बालो मूढो मायामृषां 15 १. विशिष्टशब्दादीन जेर ११.२ ।। २. परप्रपंचनाय हेर विना ।। ३. मायामषा ख० जे१ ११ । मायां मषां जर। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्रे बह शाठ्यानृतं प्रभूतं भषते, श्वेव निन्दित भाषते, कया ? स्त्रीविषयगृङ्ख्या हेतुभूतया, स इत्थंभूतो महामोहं प्रकरोतीति द्वादशम् १२ । जं निस्सिए उव्वहती जससा अहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि महामोहं पकुव्वइ ।।१३।। 5 यं राजानं राजामात्यादिकं वा निश्रित आश्रित उद्वहते जीविकालाभनात्मानं धारयति. कथम् ? यशसा तस्य राजादेः सत्कोऽयमिति प्रसिद्ध्या अभिगमनेन वा सेवया आश्रितराजादेस्तस्य निर्वाहकारणस्य राजादेर्लुभ्यति वित्त द्रव्ये यः स महामोहं प्रकरोतीति त्रयोदशम् १३। इस्सरेण अदुवा गामेणं अणिस्सरे इस्सरीकए । 10 तस्स संपग्गहीयस्स सिरी अतुलमागया ।। ईसादोसेण आइडे कलुसाविलचेयसे । जे अंतरायं चेएइ महामोहं पकुव्वति ।।१४।। ईश्वरेण प्रभुणा अदुवा अथवा ग्रामेण जनसमूहेन अनीश्वर ईश्वरीकृत: तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य सम्प्रगृहीतस्य पुरस्कृतस्य प्रभ्वादिना श्री: लक्ष्मीरतुला 15 असाधारणा आगता प्राप्ता, अतुलं वा यथा भवतीत्येवं श्री: समागता आगतश्रीकश्च प्रभ्वायुपकारकविषये ईर्ष्यादोषेणाविष्टो युक्तः कलुषेण द्वेषलोभादिलक्षणपापेनाऽऽविलं गडुलमाकुलं वा चेतो यस्य स तथा योऽन्तरायं व्यवच्छेद जीवित-श्री-भोगानां चेतयते करोति प्रभ्वादेरसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुर्दशम १४। सप्पी जहा अंडउडं भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावई पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ ।।१५।। सप्पी नागी यथा अंडउडं अण्डककूटं स्वकीयमण्डकसमूहमित्यर्थः, अण्डस्य वा पुटं सम्बद्धदलद्वयरूपं हिनस्ति, एवं भर्तारं पोषयितारं यो विहिनस्ति सेनापति राजानं प्रशास्तारम् अमात्यं धर्मपाठकं वा स महामोहं प्रकरोतीति, तन्मरणे बहजनदःस्थता भवतीति पञ्चदशम् १५ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म त्रिंशत्स्थानकम् । १०० जे नायगं व रट्ठस्स नेयारं निगमस्स वा । सेटिं बहुरवं हंता महामोहं पकुव्वति ।।१६।। यो नायकं वा प्रभु राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरादिकमिति भावः, तथा नेतारं प्रवर्तयितारं प्रयोजनेषु निगमस्य वाणिजकसमूहस्य, कम् ? श्रेष्ठिनं श्रीदेवताकितपट्टबद्धम्, किंभूतम् ? बहुरवं भूरिशब्दं प्रचुरयशसमित्यर्थः हत्वा महामोहं प्रकुरुत इति षोडशम् 5 15 बहुजणस्स णेयारं दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वति ॥१७|| बहजनस्य पञ्चषादीनां लोकानां नेतारं नायकं द्वीप इव द्वीप: संसारसागरगतानामाश्वासस्थानम्, अथवा दीप इव दीपोऽज्ञानान्धकारावृत- 10 द्धिदृष्टिप्रसराणां शरीरिणां हेयोपादेयवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वात्, तम्, अत एव त्राणम् आपद्रक्षणं प्राणिनामेतादृशं यादृशा गणधरादयो भवन्ति, नरं प्रावचनिकादिपुरुष हत्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तदशम् १७ । उवट्ठियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सियं । वोकम्म धम्मओ भंसे महामोहं पकुव्वति ॥१८॥ उपस्थितं प्रव्रज्यायाम्, प्रविब्रजिषुमित्यर्थः, प्रतिविरतं सावद्ययोगेभ्यो निवृत्तम्, प्रव्रजितमेवेत्यर्थः, संयतं साधुम्, सुतपस्विनं तपांसि कृतवन्तं शोभनं वा तप: श्रितम् आश्रितम्, क्वचित् जे भिक्खु जगजीवणं ति पाठः, तत्र जगन्ति जङ्गमानि अहिंसकत्वेन जीवयतीति जगजीवनस्तं विविधैः प्रकारैरुपक्रम्याक्रम्य व्युपक्रम्य, बलादित्यर्थः, धर्मात् श्रुत-चारित्रलक्षणाद् भ्रंशयति यः स महामोहं प्रकरोतीति 20 अष्टादशम् १८ । तहेवाणतणाणीणं जिणाणं वरदंसिणं । तेसिं अवण्णिम बाले महामोहं पकुव्वति ॥१९।। यथैव प्राक्तनं मोहनीयस्थानं तथैवेदमपि, अनन्तज्ञानिनां ज्ञानस्यानन्तविषयत्वेन १. व्युपाक्रम्य ज२ । व्युपक्रम्य नास्ति जे५ हे५.२ ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अक्षयत्वेन वा जिनानाम् अर्हतां वरदर्शिनां क्षायिकदर्शनित्वात् तेषां ये ज्ञानाद्यनेकातिशयसम्पदुपेतत्वेन भुवनत्रये प्रसिद्धाः अवर्णः अवर्णवादो वक्तव्यत्वेन यस्यास्ति सोऽवर्णवान् यथा - नास्ति कश्चित् सर्वज्ञः ज्ञेयस्यानन्तत्वात्. उक्तं च ११० अज्ज वि धावड नाणं अज्ज वि य अनंतओ अलोगां वि । अजविन कोइ विहं पावति सव्वन्नुयं जीवो || अह पावति तो संतो होड़ अलोओ न चेयमिति । [ ] त्ति । अदूषणं चैतद्, उत्पत्तिसमय एव केवलज्ञानं युगपल्लोकालोको प्रकाशयदुपजायते. यथाऽपवरकान्तर्वर्त्तिदीपकलिका अपवरकमध्यमित्यभ्युपगमादिति. बालः अज्ञो महामोहं प्रकरोतीति एकोनविंशतितमम् १९ । नेयाउयस्स मग्गस्स दुट्ठे अवयरई बहु । तं तिप्पयंतो भावेति महामोहं पकुव्वति ||२०|| नैयायिकस्य न्यायमनतिक्रान्तस्य मार्गस्य सम्यग्दर्शनादेः मोक्षपथस्य दुष्टो द्विष्टो वा अपकरोति अपकारं करोतीति, बहु अत्यर्थम् पाठान्तरेण अपहरति बहुजन विपरिणमयतीति भावः तं मार्ग तिप्पयंतो त्ति निन्दन् भावयति निन्दया द्वेषेण वा 15 वासयति आत्मानं परं च यः स महामोहं प्रकरोतीति विंशतितमम् २० । आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिंसती बाले महामोहं पकुव्वति ||२१|| आचार्योपाध्यायैर्यैः श्रुतं स्वाध्यायं विनयं च चरित्रं ग्राहित: शिक्षितः तानेव खिंसति निन्दति 'अल्पश्रुता एते' इत्यादि ज्ञानतः, 'अन्यतीर्थिकसंसर्गकारिणः' इत्यादि 20 दर्शनतः, ‘मन्दधर्माणः पार्श्वस्थादिस्थानवर्त्तिनः' इत्यादि चरित्रतः यः स एवंभूतो बालो महामोहं प्रकरोतीत्येकविंशतितमम् २१ । आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पड़ । अप्पडिपूयए थद्धे महामोहं पकुव्वति ||२२|| १. अलोगो त्ति । जेर हे१.२ ।। २ णामयतीति खं० ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ३० त्रिंशत्स्थानकम् । १११ आचार्यादीन् श्रुतदान-ग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तर्पितवतः उपकृतवतः सम्यक् न प्रतितप्र्पयति विनयाहारोपध्यादिभिर्न प्रत्युपकरोति. तथा अप्रतिपूजको न पूजाकारी, तथा स्तब्धो मानवान् स महामोहं प्रकरोतीति द्वाविंशतितमम् २२ । अबहुस्सुए य जे केइ सुएण पविकंथई । सज्झायवायं वयति महामोहं पकुव्वति ।।२३।। अबहुश्रुतश्च यः कश्चित् श्रुतेन प्रविकत्थते आत्मानं श्लाघते श्रुतवानहमनुयोगधरोऽहमित्येवम्, अथवा कस्मिंश्चित ‘स त्वमनुयोगाचार्यो वाचको वा इति पृच्छति प्रतिभणति- आमम्, स्वाध्यायवादं वदति विशुद्धपाठकोऽहमित्यादिकं यः स महामाहं श्रुतालाभहेतुं प्रकरोतीति त्रयोविंशतितमम् २३ । अतवस्सिए य जे केइ तवेण पविकंथइ । सव्वलोयपर तेणे महामोहं पकुव्वति ।।२४।। सुगमम. नवरं सर्वलोकात् सर्वजनात सकाशात् परः प्रकृष्टः स्तेन: चौरो भावचारत्वात महामोहम् अतपस्विताहेतुं प्रकरोतीति चतुर्विंशतितमम् २४ । माहारणट्ठा जे केइ गिलाणम्मि उवट्ठिए । पभू ण कुव्वई किच्चं मज्झं पि से न कुव्वति ।। सढे नियडिपण्णाणे कलुसाउलचेयसे । अप्पणो य अबोहीए महामोहं पकुव्वति ।।२५।। साधारणार्थमुपकारार्थं यः कश्चिदाचार्यादिग्र्लाने रोगवति उपस्थिते प्रत्यासन्नीभूते प्रभुः समर्थ उपदेशनौषधादिदानेन च स्वतोऽन्यतश्चोपकारे न करोति कृत्यमुपेक्षते 20 इत्यर्थः, केनाभिप्रायेणेत्याह- ममाप्येष न करोति किंचनापि कृत्यं समर्थोऽपि सन्निति दुषण. असमर्थो वाऽयं बालत्वादिना, किं कृतेनास्य ? पुनरुपकर्तुमशक्तत्वादिति लाभनति. शठः कैतवयुक्तः शक्तिलोपनात्, निकृति: माया तद्विषये प्रज्ञानं यस्य स तथा. ग्लान. प्रतिचरणीयो मा भवत्विति ग्लानवेषमहं करोमीति विकल्पवानित्यर्थः, अत एव कलुषाकुलचेताः आत्मनश्चाबोधिको भवान्तराप्राप्तव्यजिनधर्मको 25 15 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आचार्यश्रीअभयदवसूरिविरचितीकासहित समवायाङ्गसूत्र ग्लानाप्रतिजागरणनाऽऽज्ञाविराधनात्, चशब्दात् परेषां चाऽबोधिक: विद्यमाना बोधिरस्मादिति व्युत्पादनात, ये हि तदीय ग्लानाप्रतिचरणमुपलभ्य जिनधर्मपराङ्मुखा भवन्ति तेषामबोधिस्तत्कृतेति स एवम्भूतो महामोहं प्रकरोतीति पञ्चविंशतितमम् । जो कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो पुणो । 5 सव्वतित्थाण भेयाय महामोहं पकुव्वाते ||२६।। । ___ यः कथा वाक्यप्रबन्धः, शास्त्रमित्यर्थः. तद्पाण्यधिकरणानि कथाधिकरणानि कौटिल्यशास्त्रादीनि प्राण्युपमर्दनप्रवर्तकत्वेन तेषामात्मनो दर्गतावधिकारित्वकरणात. कथया वा क्षेत्राणि कृषत, गा नस्तयत इत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि, अथवा कथा राजकथादिका अधिकरणानि च यन्त्राीनि 10 कलहा वा कथाधिकरणानि तानि सम्प्रयुङ्क्ते पुनः पुनः. एवं सर्वताथानां भेदाय संसारसागरतरणकारणत्वात् तीर्थानि ज्ञानादीनि तेषां सर्वथा नाशाय प्रवर्त्तमानः स महामाहं प्रकरोतीति षड़विशतितमम् २६ । जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो । साहाहेउं सहीहेउं महामाहं पकुवति ।।२७।। 15 कण्ठ्यम्. नवरम् अधार्मिका योगा निमित्त-वशीकरणादिप्रयोगा:, किमर्थम ? श्लाघाहेतोः, सखिहेतोः मित्रनिमित्तमित्यर्थः. इति सप्तविंशतितमम २७ । जे य माणुस्सए भोए अदुवा पारलोडए । तेऽतिप्पयंतो आसयति महामोहं पकुव्वति ।।२८।। यश मानुष्यकान् भोगान् अथवा पारलौकिकान् ते त्ति विभक्तिपरिणामात्तस्तप 20 वा अतृप्यन् तृप्तिमगच्छन् आस्वदते अभिलषति आश्रयति वा स महामोहं प्रकराताति अष्टविशतितमम् २८।। इड्डी जुती जसो वण्णो देवाणं बलवीरियं । तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुव्वति ।।२९।। ऋद्धिः विमानादिसम्पत, द्युति: शरीराभरणदीप्तिः, यश: कीर्ति.. वर्णशुक्लादिः 25 शरीरसम्बन्धी. देवानां वैमानिकादीनां बलं शारीरं वीर्यं जीवप्रभवम्, अस्तीत्यध्याहार:. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ३१ एकत्रिंशत्स्थानकम् । ११३ तेषामिह अपगम्यमानत्वात् तेषामपि देवानामने कातिशायिगुणवतामवर्णवान् अश्लाघाकारी, अथवा अवर्णवान्, केनोल्लापन ? देवानामृद्धिर्देवानां द्युतिरित्यादि काक्वा व्याख्येयम्, न किञ्चिद देवानामृद्ध्यादिकमस्तीत्यवर्णवादवाक्यभावार्थः, य एवम्भूतः स महामोह प्रकरोति एकोनत्रिंशत्तमम् २९ । अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्ख य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वति ॥३०॥ अपश्यन्नपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिस्वरूपेण, अज्ञानी, जिनस्येव पूजामर्थयते यः स जिनपूजार्थी. गोशालकवत, स महामोहं प्रकरोतीति त्रिंशत्तमम् ३० । रौद्रादया मुहर्ता आदित्योदयादारभ्य क्रमेण भवन्ति, एतेषां च मध्ये मध्यमा: षट् कदाचिद् दिनेऽन्तर्भवन्ति कदाचिद्रात्राविति ।।३०।।। 10 [स० ३१] [१] एक्कतीसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तंजहा- खीणे आभिणिबोहियणाणावरणे, सुयणाणावरणे, ओहिणाणावरणे, मणपजवणाणावरणे, खीणे केवलणाणावरणे । खीणे चक्खुदंसणावरणे, एवं अचक्खुदंसणावरणे, ओहिदसणावरणे, केवलदंसणावरणे, निद्दा, णिहाणिहा, पयला, पयलापयला, खीणे थिणगिद्धी । खीणे सातावेयणिज्जे, 15 खीणे असायावेयणिज्जे । खीणे सणमोहे, खीणे चरित्तमोहणिजे । खीणे नेग्ड्याउए, तिरियाउए, माणुसाउए, देवाउए । खीणे उच्चागोए, खीणे निच्चागोए, एवं सुभणामे, असुभणामे । खीणे दाणंतराए, एवं लाभ-भोगउवभोग-वीरियंतराए ३१ । मंदरे णं पव्वते धरणितले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते 20 किंचिदेसृणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । जया सूरिए सव्वबाहिरयं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरति तया णं इहगयस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहि य एक्कतीसेहिं जोयणसतेहिं तीसाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छति। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अभिवड्डिए णं मासे एक्कतीसं सातिरेगाणि रातिंदियाणि रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते । आइच्चे णं मासे एक्कतीसं रातिंदियाणि किंचिविसेसूणाणि रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते । 5 [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरड़याणं एक्कतीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २१ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एक्कतीसं पलिओवमाइं ठिती 10 पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एक्कतीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिताणं देवाणं जहणणेणं एक्कतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। 15 जे देवा उवरिमउवरिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा एक्कतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं एक्कतीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। 20 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। ___ [टी०] एकत्रिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं सिद्धानामादौ सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणा: सिद्धादिगुणाः, ते चाभिनिबोधिकावरणादिक्षयस्वरूपा इति । मन्दरो मेरुः, स च धरणीतले दशसहस्रविष्कम्भ इति कृत्वा यथोक्तपरिधिप्रमाणो 25 भवतीति । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० ३२ एकत्रिंशत्स्थानकम् । ११५ जया णं सूरिए इत्यादि, किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति. मण्डलं च ज्योतिष्कमार्गोऽभिधीयते, तत्र जम्बूद्वीपस्यान्तः अशीत्यधिके योजनशते पञ्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि भवन्ति. तथा लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाौकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र च सर्वबाह्य समुद्रान्तर्गतमण्डलानां पर्यन्तिमम्. तस्य चायामविष्कम्भौ लक्षं षट् शतानि च योजनानां 5 षष्ट्यधिकानि, परिधिस्तु वृत्तक्षेत्रगणितन्यायेन त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, एतावच्च क्षेत्रमादित्योऽहोरात्रद्वयेन गच्छति, तत्र च षष्टिमहर्ता भवतीति षष्ट्या भागापहारे यल्लब्धं तन्मुहूर्तगम्यक्षेत्रप्रमाणं भवति, तच्च पञ्च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चोत्तराणि शतानि पञ्चदश च योजनषष्टिभागा: ५३०५ , एतच्च दिवसार्द्धन गुण्यते, यदा च सर्वबाह्ये मण्डले सूर्यश्चरति तदा 10 दिनप्रमाणं द्वादश मुहूर्ताः, तदर्थं च षट्, अतः षड्भिर्मुहूर्तेर्गुणितं मुहूर्तगतिप्रमाण चक्षुःस्पर्शप्रमाणं भवति, तत्र एकत्रिंशत् सहस्राणि अष्टौ च शतान्येकत्रिंशदधिकानि त्रिंशच्च योजनषष्टिभागाः ३१८३१ ३ । अभिवर्द्धितमास: अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य चतुश्चत्वारिंशदहोरात्रद्विषष्टिभागा- 15 धिकत्र्यशीत्यधिकशतत्रयरूपस्य ३८३ , द्वादशो भागः, अभिवर्द्धितसंवत्सरश्चासौ यत्राधिकमासको भवति त्रयोदशचन्द्रमासात्मकत्वाच्चन्द्रमासश्च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च दिनद्विषष्टिभागानां भवतीति। साइरेगाई ति अहोरात्रस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामेकविंशत्युत्तरशतेनाधिकानीति । आदित्यमासा येन कालेनादित्यो राशिं भुङ्क्ते, किंचिविसेसूणाई ति अहोरात्रार्द्धन 20 न्यूनानीति ।।३१।। [सू० ३२] [१] बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तंजहा १. विष्कम्भो ख० ११.२ ।। २. यत्राधिमासको २ । यत्राधिकमासो हे१ ॥ ३. आवश्यकसूत्रे चतुर्थेऽध्ययने 'बत्तीसाए जागसंगहहि इति सूत्रस्य हारिभव्या वृत्तौ विस्तरेण द्वात्रिंशतो योगसंग्रहानां वर्णनं वर्तते. विशेषजिज्ञासुभिस्तत्र Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे आलोयणा १ निरवलावे २, आवतीसु दढधम्मया ३ । अणिस्सितोवहाणे य ४, सिक्खा ५ निप्पडिकम्मया ६ ।।५३।! अण्णातता ७ अलोभे य ८, तितिक्खा ९ अज्जवे १० सुई ११ । सम्मद्दिट्ठी १२ समाही य १३, आयारे १४ विणओवए १५ ।।५४।। 5 धितीमती य १६ संवेगे १७, पणिही १८ सुविहि १९ संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१, सव्वकामविरत्तया २२ ।।५५|| पच्चक्खाणे २३-२४ विओसग्गे २५, अप्पमादे २६ लवालवे २७ । झाणसंवरजोगे य २८, उदए मारणंतिए २९ ॥५६|| संगाणं च परिणा य ३०, पायच्छित्तकरणे ति य ३१ । 10 आराहणा य मरणंते ३२, बत्तीसं. जोगसंगहा ।।५७।। बत्तीसं देविंदा पण्णत्ता, तंजहा- चमरे, बलि, धरणे, भूयाणंदे जाव घोसे, महाघोसे, चंदे, सूरे, सक्के, ईसाणे, सणंकुमारे जाव पाणते, अच्चुते । कुंथुस्स णं अरहओ बत्तीसं जिणा बत्तीसं जिणसया होत्था । सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । 15 रेवतिणक्खत्ते बत्तीसतितारे पण्णत्ते । बत्तीसतिविहे णट्टे पण्णत्ते । [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ११ अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरड्याणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती 20 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४॥ जे देवा विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ (म० ३२ द्वात्रिंशत्स्थानकम् । सिगं देवा अत्थेगतियाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। [3] ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊसत वा नासति वा । [तेसि णं देवाणं बत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे ममुपजत २ संतगतिया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] द्वात्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तम्, नवरं युज्यन्ते इति योगा : मनोवाक्कायव्यापाराः ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षितास्तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचना-निरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहणानि सङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथाच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति, तदुपदर्शकं श्लोकपञ्चकम् आलोयणेत्यादि, 10 अस्य गमनिका - तत्र आलोयण त्ति मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहाय शिष्येणाचार्यायाऽऽलोचना दातव्या १. निरवलावे त्ति आचार्योऽपि मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव दत्तायामाऽऽलोचनायां निरपलापः स्यात् नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः २, आवईसु दढधम्मय त्ति प्रशस्तयोगमङ्ग्रहाय साधुनाऽऽपत्सु द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या. सुतरां तासु दृढधर्मणा भाव्यमित्यर्थः ३. अणिस्सिओवहाणे यत्ति 15 शुभयोगसङ्ग्रहायैवाऽनिश्रितं च तदन्यनिरपेक्षमुपधानं च तपोऽनिश्रितोपधानं परसाहाय्यानपेक्षं तपो विधेयमित्यर्थः ४, सिक्ख त्ति योगसङ्ग्रहाय शिक्षाऽऽ सेवितव्या, साच सूत्रार्थग्रहणरूपा प्रत्युपेक्षाद्यासेवनात्मिका चेति द्विधा ५, निकम्म तथैव निष्प्रतिकर्मता शरीरस्य विधेया ६, अण्णाययत्ति तपसोऽज्ञातता कार्या, यशः- पूजाद्यर्थित्वेनाऽप्रकाशयद्भिस्तपः कार्यमित्यर्थः ७, अलोभे य त्ति अलोभता 20 विधेया ८. तितिक्ख त्ति तितिक्षा परीषहादिजयः ९. अज्जवे त्ति आर्जवम् ऋजुभावः १०. सुइ नि शुचिः सत्यं संयम इत्यर्थः ११. सम्महिट्टि त्ति सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनशुद्धिः १२. समाही यत्ति समाधिश्च चेतः स्वास्थ्यम् १३, आयारे विणओवए ति द्वारद्र्य तत्राचारोपगतः स्यात्, न मायां कुर्यादित्यर्थः १४. विनयोपगतो भवेत् न मानं कुर्यादित्यर्थः १५, धिईमई यत्ति धृतिप्रधाना मतिर्धृतिमतिः अदैन्यम् 25 5 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसूत्र १६, संवेगे त्ति संवेग: संसारभयं मोक्षाभिलाषो वा १७, पणिहि त्ति प्रणिधि: माया, सा न कार्यत्यर्थः १८. सुविहि त्ति सुविधिः सदनुष्ठानम् १९, संवरः आश्रवनिरोधः २०, अत्तदोसोवसंहारे त्ति स्वकीयदोषस्य निरोधः २१. सव्वकामविरत्तय त्ति समस्तविषयवैमुख्यम् २२. पच्चक्खाणे त्ति प्रत्याख्यानं मूलगुणविषयम् २३ 5 उत्तरगुणविषयं च २४, विओसग्गे त्ति व्युत्सर्गो द्रव्य-भावभेदभिन्नः २५. अप्पमाये त्ति प्रमादवर्जनम् २६. लवालवे त्ति कालोपलक्षणम्, तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य्यनुष्ठान कार्यम् २७, झाणसंवरजोगे यत्ति ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोग: २८, उदए मारणंतिए त्ति मारणान्तिकेऽपि वेदनोदये न क्षोभ: कार्य: २९, संगाणं च परिण त्ति सङ्गानां ज्ञपरिज्ञा-प्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदभिन्ना परिज्ञा कार्या ३०. पायच्छित्तकरणे 10 इ य त्ति प्रायश्चित्तकरणं च कार्यम् ३१, आराधना च मरणान्ते मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्र इत्येते द्वात्रिंशद्योगसङ्ग्रहा इति ३२ । ___ इन्द्रसूत्रे यावत्करणात् ‘वेणुदेवे वेणुदाली हरिक्कते हरिस्सहे अग्गिसीहे अग्गिमाणवे पुण्णे वसिटे जलकंते जलप्पहे अमियगई अमियवाहणे वेलंबे पहंजणे' इति दृश्यम्, पुनः यावत्करणात् ‘माहिंदे बंभे लंतए सुक्के सहस्सारे' त्ति द्रष्टव्यम्. 15 इह च षोडशानां व्यन्तरेन्द्राणां षोडशानामेव चाणपण्यिकादीन्द्राणामल्पर्द्धिकत्वनाविवक्षितत्वादसङ्ख्यातानामपि च चन्द्र-सूर्याणां जातिग्रहणेन द्वयोरेव विवक्षितत्वाद् द्वात्रिंशदिन्द्रा उक्ता इति । कुन्थुनाथस्य द्वात्रिंशदधिकानि द्वात्रिंशत् केवलिशतान्यभूवन्। द्वात्रिंशद्विधं नाट्यमभिनयविषयवस्तुभेदाद्यथा राजप्रश्नकृताभिधाद्वितीयोपाग इति सम्भाव्यते, द्वात्रिंशत्पात्रप्रतिबद्धमिति केचित् ।।३२॥ 20 [सू० ३३] [१] तेत्तीसं आसायणातो पण्णत्तातो, तंजहा- सेहे रातिणियस्स आसन्नं गंता भवति, [आसायणा सेहस्स] १, सेहे राइणियस्स पुरतो गंता भवति, [आसायणा सेहस्स] २, सेहे राइणियस्स [स ?]पक्खं गंता भवति, आसायणा सेहस्स ३, सेहे रातिणियस्स आसन्नं ठिच्चा भवति, आसायणा १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थेऽध्ययने तेत्तीसाए आसायणाहि इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तावपि बिस्तगण वर्णनमस्ति। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ३३ त्रयस्त्रिंशत्स्थानकम् । ११९ 10 सेहस्स ४, जाव रातिणियस्स आलवमाणस्स तत्थगते चिय पडिसुणेति, [आसायणा सेहस्स] ३३, इति खलु एतातो तेत्तीसं आसायणातो । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्के बारे तेत्तीसं तेत्तीसं भोमा पण्णत्ता । महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं जोयणसहस्साइं सातिरेगाई विक्खंभेणं पण्णत्ताई। 5 जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरति तया णं इहंगतस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहिं चक्खफासं हव्वमागच्छति । [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महाकाल-रोरुय-महारोरुएसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २। अप्पतिट्टाणे नरए नेरइयाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता 31 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। 15 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ५। विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितेसु विमाणेसु, तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । जे देवा सव्वट्ठसिद्धं महाविमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं 20 अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। [३] ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसाए भवगहणेहिं सिज्झिस्संति 25 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित समवायाङ्गसत्र [जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ त्रयस्त्रिंशत्स्थानकम, तत्र आय: सम्यगदर्शनाद्यवाप्तिलक्षण:. तस्य शातना: खण्डना: निरुक्तादाशातनाः, तत्र शैक्ष: अल्पपर्यायो रात्निकस्य बहपयांयस्य आसन्नम् आसत्त्या यथा रजोऽञ्चलादि तस्य लगति तथा गन्ता भवतीत्येवमाशातना 5 शैक्षस्येत्येवं सर्वत्र १. पुरओ त्ति अग्रतो गन्ता भवति २. सपक्खे ति समानपक्षं समपार्श्व यथा भवति, समश्रेण्या गच्छतीत्यर्थ: ३. ठिच्च त्ति स्थाता आसिता भवति, यावत्करणाद् दशाश्रुतस्कन्धानुसारेणान्या इह द्रष्टव्याः, ताश्चैवमर्थतः - आसन्नं पुरः पार्श्वत: स्थानेन तिम्रो ३ निषदनेन च तिस्रः ३. तथा विचारभूमौ गतयो: पूर्वतरमाचमत: शैक्षस्याशातना १०. एवं पूर्वं गमनागमनमालोचयत: ११. तथा रात्री को जागतॊति 10 पृष्ट रात्निकेन तद्वचनमप्रतिशृण्वतः १२, रात्निकस्य पूर्वमालपनायं कंचन अवमस्य पूर्वतरमालपत: १३, अशनादि लब्धमपरस्य पूर्वमालोचयत: १४. एवमन्यस्यापदर्शयतः १५. एवं निमन्त्रयत: १६, रात्निकमनापृच्छ्यान्यस्मै भक्तादि ददतः १७. स्वय प्रधानतर भुञ्जानस्य १८, क्वचित् प्रयोजने व्याहरतो रात्निकस्य वचोऽप्रतिशण्वतः ५२. गनिक प्रति तत्समक्ष वा बृहता शब्देन बहुधा भाषमाणस्य २०. व्याहतेन मस्तकन वन्द 15 इति वक्तव्य किं भणसीति ब्रुवाणस्य २१. प्रेरयति रात्निके कस्त्वं प्रेरणायामिति वदतः २२, आर्य ! ग्लानं किं न प्रतिचरसीत्याद्युक्ते त्वं किं न तं प्रतिचरीत्यादि भणत. २३, धर्म कथयति गुरावन्यमनस्कतां भजतोऽननुमोदयत इत्यर्थः २४. कथयति गरी न स्मरसीति वदत: २५, धर्मकथामाच्छिन्दतः २६. भिक्षावेला वर्त्तते इत्यादिवचनतः पर्षदं भिन्दानस्य २७. गुरुपर्षदोऽनुत्थितायास्तथैव व्यवस्थिताया धर्मं कथयत: २८. 20 गो: संस्तारकं पादेन घट्टयत: २९, गुरोः संस्तारके निर्षीदत: ३०. उच्चासने निषादत: १ स्यैव सर्वत्र जे२ ।। २. द्रष्टव्या इह जे२ ॥ ३. आसन्नपुरः ज१.२. ११.२ ।। ४. च नास्ति - १५ ।। , प्रवचनसारोद्धारेऽपि द्वितीय वन्दनकद्वार १२९-१४९ गाथास यावंशदाशातनाम्वरूप विम्तरण वर्णितमस्ति। तत्र द्वादशी आशातना अप्रतिश्रवणम्. एकानविंशतितम्याशातनापि अप्रतिश्रवणम. अत, प्रवचनसारोद्धारटीकायां स्पष्टीकरणमित्य विहितम्- “इदानीमकोनविंशतितमीमाह- एवं अप्पडिसणण तिसर शब्द क्वंतोऽप्रतिश्रवणे आशातना, नन्वियं अप्पडिसणणे ति [१२ द्वार पूर्वव्याख्यातव किमयं पुनर्भण्वत । इत्यत्राह- नवरमिणं दिवसविसयं ति इदमप्रतिश्रवण दिवसे सामान्यनोक्तम. पाश्चात्त्य त् विलसदन्धकागया त्रा न कोऽपि जाग्रत सुप्त वा मां जास्यतीत्यप्रतिश्रवणमिति द्वयारनयार्भेद: १९ ।।१४।।" Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० ३३ त्रयस्त्रिंशस्थानकम् । १२१ ३१. समासनेऽप्येवं ३२. त्रयस्त्रिंशत्तमा(मी?) सूत्रोक्तैव, रात्निकस्यालपतस्तत्रगत एव आसनादिस्थित एव प्रतिशृणोति, आगत्य हि प्रत्युत्तर देयमिति शैक्षस्याशातनेति तेत्तीसं तेत्तीसं भोम त्ति भौमानि नगराकाराणि, विशिष्टस्थानानीत्यन्ये । तथा जया णं सूरिए इत्यादि. इह सूर्यस्य मण्डलयोरन्तरं द्वे द्वे 5 याजनेऽष्टचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा:, एतद्विगुणं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा:, एतावता हीनं विष्कम्भतः सर्वबाह्यमण्डलाद् द्वितीयं मण्डलं भवति, ततश्च वत्तक्षत्रपरिधिगणितन्यायेन परिधितः सप्तदशभिर्योजनैरष्टत्रिंशता चैकषष्टिभागैन्यून द्वितीयमण्डलं सर्वबाह्यमण्डलाद्भवति, एवं तृतीयमण्डले एतद्विगुणेन हीनं भवति. तथाहि- तद्विष्कम्भत एकादशभिर्योजनैनवभिश्चैकषष्टिभागैः पर्यन्तिमाद्धीनं भवति, 10 परिधितस्तु पञ्चत्रिंशता योजनैः पञ्चदशभिश्चैकषष्टिभागैयूनं भवति, तच्च त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्युत्तरे षट्चत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा इति, तथा अन्तिममण्डलान्मण्डले मण्डले द्वाभ्यां मुहर्त्तस्यैकषष्टिभागाभ्यां दिनवृद्धिर्भवति, तथा च तृतीय मण्डले यदा सूर्यश्चरति तदा द्वादश मुहूर्त्ताश्चत्वारश्चैकषष्टिभागा मुहूर्तस्य दिनप्रमाण भवति, तदः चैकषष्टिभागीकृतेनाष्टषष्ट्यधिकशतत्रयलक्षणेन, स्थूलगणितस्य 15 विवक्षितत्वात परित्यक्ताशे ३१८२७९ तृतीयमण्डलपरिधी गुणिते सति एकषष्ट्या च पष्टिगुणितया भागे हृते यल्लभ्यते तत्तृतीयमण्डले चक्षुःस्पर्शप्रमाणं भवति, तच्च द्वात्रिंशत् सहस्राण्यकोत्तराणि ३२००१ अंशानामेकषष्ट्या भागलब्धाश्चैकानपञ्चाशत् षष्टिभागा योजनस्य - त्रयोविंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनषष्टिभागस्य , . एतत्तृतीयमण्डले चक्षुःस्पर्शस्य प्रमाण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यामुपलभ्यते, इह तु यदुक्तं त्रयस्त्रिंशत् किञ्चिन्यूना, 20 तत्र सातिरकस्य योजनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षितेति सम्भाव्यते, चतुर्दशे मण्डले १. "जया णं भंते सांगा बाहिरतच्चं मडलं उवसंकमित्ता चार चरड तया णं एगमंगेण महत्तेणं केवइय खत्तं गच्छड ! गायमा ! पंच पंच जायणसहस्साई तिण्णि य चउरुत्तर जायणसए इग्णालीसं च टिभाए जायणस्स प्रगमगण महत्तण गच्छड तया ण इहगयस्म मणूसस्स एगाहिएहि बतीसाए जायणसहस्सहि एगणपन्नाए य द्विभाएहि जायणम्म सहिभाग च एगट्टिहा छत्ता तेवीसाए चुणियाभाएहि सूरिए चक्खप्फास हव्वमागच्छइ ।" इति जम्बद्वीपप्रजमा सप्तम वक्षस्कार ।। २. सातिरेकयोजनस्यापि जे२ ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आचार्यश्रीअभयदेवसरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसत्र पुरिदं यथोक्तमेव प्रमाणं भवति. प्रतिमण्डलं योजनचतुरशीत्याः साधिकायाः प्रथममण्डलमाने प्रक्षेपणादिति ।।३३।। सू० ३४] चोत्तीसं बुद्धातिसेसा पण्णत्ता, तंजहा- अवट्टिते केस-मंसुरोम-णहे १, निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी २, गोखीरपंडुरे मंससाणिते ३, 5 पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे ४, पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा ५, आगासगयं चक्कं ६, आगासगं छत्तं ७, आगासियाओ सेयवरचामरातो ८, आगासफालियामयं सपायपीढं सीहासणं ९, आगासगतो कुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामो इंदज्झओ पुरतो गच्छति १०, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिटुंति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि य णं 10 तक्खणादेव संछन्नपत्त-पुप्फ-पल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडातो असोगवरपायवो अभिसंजायति ११, ईसि पिट्ठओ मउडट्ठाणम्मि तेयमंडलं अभिसंजायति, अंधकारे वि य णं दस दिसातो पभासेति १२, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे १३, अहोसिरा कंटया भवंति १४, उड़ अविवरीया सुहफासा भवंति १५, सीतलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सव्वओ समंता 15 संपमजिजइ त्ति १६, जुत्तफुसिएण य मेहेण निहयरयरेणुयं कजति १७, जलथलयभासुरपभूतेणं विंटट्ठाइणा दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमेत्ते पुप्फोवयारे कज्जति १८, अमणुण्णाणं सह-फरिस-रस-रूव-गंधाणं अवकरिसो भवति १९, मणुण्णाणं सह-फरिस-रस-रूव-गंधाणं पाउब्भावो भवति २०. पच्चाहरतो वि य णं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१, भगवं च णं 20 अद्धमागधाए भासाए धम्ममातिक्खति २२, सा वि य णं अद्धमागधा भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दप्पय-चउप्पय-मिय-पसुपक्खि-सिरीसिवाणं अप्पप्पणो हितसिवसुहदा भासत्ताए परिणमति २३, पुव्वबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किंनर-किंपुरिस गरुल-गंधव्व-महोरगा अरहतो पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामेंति 25 २४, अण्णतित्थियपावयणी वि य णं आगया वंदंति २५, आगया समाणा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ३४ चतुत्रिंशत्म्थानकम् । १२३ अरहओ पायमूले निप्पडिवयणा भवंति २६, जतो जतो वि य णं अरहंता भगवंतो विहरंति ततो ततो वि य णं जोयणपणुवीसाएणं ईती न भवति २७, मारी न भवति २८, सचक्कं न भवति २९, परचक्कं न भवति ३०, अतिवट्ठी न भवति ३१, अणावुट्ठी न भवति ३२, दभिक्खं न भवति ३३, पुव्वुप्पण्णा वि य णं उप्पातिया वाही खिप्पामेव उवसमंति ३४ । 5 जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्कवििवजया पण्णत्ता, तंजहा- बत्तीसं महाविदेहे, भरहे, एरवए । जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दीहवेयड्डा पण्णत्ता । जंबुद्दीवे णं टीव उक्कोसपदे चोत्तीसं तित्थकरा समुप्पजंति । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससतसहस्सा पण्णत्ता। 10 पढम-पंचम-छट्ठी-सत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] अथ चतुस्त्रिंशत्स्थानके किमपि लिख्यते- बुद्धाइसेस त्ति बुद्धानां तीर्थकतामतिशेषाः अतिशया बुद्धातिशेषा:, अवस्थितम् अवृद्धिस्वभावं केशाश्च शिरोजा श्मश्रूणि च कूर्चरोमाणि रोमाणि च शेषशरीरलोमानि नखाश्च प्रतीता इति 15 द्वन्द्वैकत्वमित्येक: १. निरामया नीरोगा निरुपलेपा निर्मला गात्रयष्टिः तनुलतेति द्वितीयः २. गोक्षीरपाण्डुरं मांसशोणितमिति तृतीयः ३, तथा पद्मं च कमलं गन्धद्रव्यविशेषो वा यत् पद्मकमिति रूढम् उत्पलं च नीलोत्पलमुत्पलकुष्ठं वा गन्धद्रव्यविशेषस्तयोर्यो गन्धः स यत्रास्ति तत्तथोच्छ्वासनिःश्वासमिति चतुर्थः ४. प्रच्छन्नमाहारनिरिम् अभ्यवहरण-मूत्रपुरीषोत्सर्गो, प्रच्छन्नत्वमेव स्फुटतरमाह- अदृश्यं 23 मांसचक्षुषा न पुनरवध्यादिलोचनेन पुंसा इति पञ्चमः ५. एतच्च द्वितीयादिकमतिशयचतुष्कं जन्मप्रत्ययम् । तथा आगासगयं ति आकाशगतं व्योमवर्ति आकाशकं वा प्रकाशकमित्यर्थः, चक्रं धर्मचक्रमिति षष्ठः ६. एवमाकाशगं छत्रं १ चक्षुषां ज२ है ।। २. आगासयं ति जे१.२ ।। ३. आगासगं वाकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः जेर ५. आकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः ज५ ।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसत्रे छत्रत्रयमित्यर्थ इति सप्तमः ७. आकाशके प्रकाश श्वेतवरचामरे प्रकीर्णक इत्यष्टमः ८. आगासफालियामयं ति आकाशमिव यदत्यन्तमच्छे स्फटिकं तन्मयं सिंहासनं सह पादपीठेन सपादपीठमिति नवमः ९. आयासगओ त्ति आकाशगतोऽत्यर्थं तृङ्ग इत्यर्थः, कडभि त्ति लघुपताका: संभाव्यन्ते, तत्सहस्रः 5 परिमण्डितश्चासावभिरामश्च अभिरमणीय इति विग्रहः, इंदज्झओ त्ति शेषध्वजापेक्षयाऽतिमहत्वादिन्द्रश्चासौ ध्वजश्च इन्द्रध्वज इति विग्रहः, इन्द्रत्वसूचका ध्वज इति वा. पुरओ त्ति जिनस्याग्रतो गच्छतीति दशमः १०. चिटुंति वा निसीयंति व त्ति तिष्ठन्ति गतिनिवृत्त्या निषीदन्ति उपविशन्ति. तक्खणादेव त्ति तत्क्षणमेव अकालहीनमित्यर्थः, पत्रैः संछन्न: पत्रसंछन्न इति वक्तव्ये प्राकृतत्वात संछन्नपत्र इत्युक्तं 10 स चासौ पुष्पपल्लवसमाकुलश्चेति विग्रहः, पल्लवा: अकुराः, सच्छत्र: सध्वजः सघण्ट: सपताकोऽशोकवरपादप इत्येकादशः ११. ईसि त्ति ईषद् अल्प पिट्ठओ त्ति पृष्ठतः पश्चाद्भागे मउडट्ठाणम्मि त्ति मस्तकप्रदेशे तेजोमण्डलं प्रभापटलमिति द्वादशः १२, बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति त्रयोदशः १३. अहोसिर त्ति अधोमुखाः कण्टका भवन्तीति चतुर्दश: १४, ऋतवोऽविपरीता:, कथमित्याह- सुखस्पा 15 भवन्तीति पञ्चदश: १५. योजनं यावत् क्षेत्रशुद्धिः संवतंकवातेनति षोडश: १६, जुत्तफुसिएणं ति उचितबिन्दुपातेन निहयरय-रेणुयं ति वातोत्खातमाकाशवर्ति रजो भूवर्ता तु रेणुरिति गन्धादकवर्षाभिधानः सप्तदशः १७, जलस्थलजं यद् भास्वरं प्रभूतं च कुसुमं तेन वृन्तस्थायिना उर्ध्वमुखेन दशार्द्धवर्णेन पञ्चवर्णेन, जानुनोरुत्सेधस्य उच्चत्वस्य यत् प्रमाणं तदेव प्रमाण यस्य स जानूत्सेधप्रमाणमात्र: पुष्पोपचार: 20 पुष्पप्रकर इत्यष्टादश: १८, तथा कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघेतगंधुद्ध याभिरामे भवइ त्ति कालागरुश्च गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरकुन्दरुक्कं च चीडाभिधानं गन्धद्रव्यं तुरुक्कं च शिल्हकाभिधानं गन्धद्रव्यमिति द्वन्द्वस्तत एतल्लक्षणो यो धूपस्तस्य मघमघायमानो बहलसौरभ्यो यो गन्ध उद्भूत उद्भुतस्तेनाभिरामम् अभिरमणीय १. आयासआ त्ति जे? हे..२ । असओ त्ति ज२ ।। २. कालागुरु ज” हे१.२ ।। ३. कालागुरु जे५ हे५.० ।। ४. तरुष्क जे२ ।। ५. हे१ विना- उद्वत्त ख० जे । उधत ह२ ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्स्थानकम् । १२५ यत्तनथा स्थानं निषदनस्थानमिति प्रक्रम इत्येकानविंशतितमः १९, तथा उभयो पासिं च णं अरहंताणं भगवंताणं दुवे जक्खा कडयतुडियथंभियभुया चामरुक्खेवं करेंति त्ति कटकानि प्रकोष्ठाभरणविशेषाः त्रुटितानि बाह्वाभरणविशेषाः तैरतिबहुत्वेन स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ ययोस्तौ तथा यक्षौ देवाविति विंशतितमः २०. बृहद्वाचनायामनन्तरीक्तमतिशयद्वयं नाधीयते, अतस्तस्यां पूर्वेऽष्टादशैव, अमनोज्ञानां 5 शब्दादीनामपकर्षः अभाव इत्येकानविंशतितमः १९, मनोज्ञानां प्रादुर्भाव इति विंशतितमः २०. पच्चाहरओ त्ति प्रत्याहरतो व्याकुर्वतो भगवतः हिययगमणीओ त्ति हृदयङ्गम: जोयणनीहारि त्ति योजनातिकामी स्वर इत्येकविंशः २१, अद्धमागहाए त्ति प्राकनादाना षण्णा भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा रसोर्लशो मागध्याम् । । इत्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितस्वकीयसमग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते, तया 10 धर्ममाख्याति. तस्या एवातिकोमलत्वादिति द्वाविंश: २२, भासिज्जमाणीति भगवताऽभिधायमाना आरियमणारियाणं ति आर्यानार्यदेशोत्पन्नानां द्विपदा मनुष्याश्चतुष्पदा गवादयः मृगा आटव्याः पशवो ग्राम्याः पक्षिण: प्रतीताः सरीसृपा उर: पारमप्पा भुजपारसप्पश्चेिति, तेषां किम् ? आत्मन आत्मन: आत्मीयया आत्माययत्यर्थः, भाषातया भाषाभावेन परिणमतीति सम्बन्धः, किम्भूताऽसौ 15 भाषा ? इत्याह- हितम् अभ्युदयं शिवं मोक्षं सुखं श्रवणकालोद्भवमानन्दं ददातीति हितशिवसुखदति त्रयोविंश: २३, पुव्वबद्धवेरे त्ति पूर्वं भवान्तरेऽनादिकाले वा जातिप्रत्यय बद्धं निकाचितं वैरम् अमित्रभावो यैस्ते तथा, तेऽपि च. आसतामन्ये, देवा वैमानिका असुरा नागाश्च भवनपतिविशेषाः सुवर्णाः शाभनवोपेतत्वाज्ज्यातिष्का यक्ष-राक्षस-किन्नर-किंपुरुषा: व्यन्तरभेदाः गरुडा 20 गरुडलाञ्छनत्वात् सुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषा एव, एतषां द्वन्द्वः, पसंतचित्तमाणसा, प्रशान्तानि शमं गतानि चित्राणि राग-द्वषाद्यनेकविधविकारयुक्ततया विविधानि मानसानि अन्त:करणानि येषां ते १. "अत एत सौ पास मागध्याम ।।४।२८७। रसोलंशी ।।४।२८८॥ इति हेमचन्द्रसरिविचिते प्राकतव्याकरणे।। २. दय: १५ विना ।। ३. मोक्षः सुखं खु० ११.२ । माक्षसुखं ज५ ।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आचार्यश्रीअभयदेवसरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्र प्रशान्तचित्रमानसा धर्म निशामयन्ति इति चतुर्विंशः २४. बृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते, यदुत- अन्यतीर्थिकप्रावनिका अपि च णं वन्दन्ते भगवन्तमिति गम्यते इति पञ्चविंशः २५. आगताः सन्तोऽर्हत: पादमूले निष्प्रतिवचना भवन्ति इति षड्विंश: २६, जओ जओ वि य णं ति यत्र यत्रापि 5 च देशे, तओ तओ त्ति तत्र तत्रापि च पञ्चविंशतौ योजनेषु. इति: धान्याद्युपद्रवकारी प्रचुरमूषिकादिप्राणिगण इति सप्तविंश: २७, मारि: जनमरक इत्यष्टाविंश: २८. स्वचक्रं स्वकीयराजसैन्यम्. तदपद्रवकारि न भवतीति एकोनत्रिंश: २९, एवं परचक्रं परराजसैन्यमिति त्रिंश: ३०, अतिवृष्टिः अधिकवर्ष इत्येकत्रिंशः ३१. अनावृष्टिः वर्षणाभाव इति द्वात्रिंश: ३२, दुर्भिक्षं दुष्काल इति त्रयस्त्रिंशः ३३. उप्पाइया वाहि 10 त्ति उत्पाता: अनिष्टसूचका रुधिरवृष्ट्यादयस्तद्धेतुका येऽनास्ते औत्पातिकास्तथा व्याधयो ज्वराद्यास्तदपशम: अभाव इति चतुस्त्रिंशत्तमः ३४ । अत्र च पच्चाहरआ इत आरभ्य येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृताः, शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति, एते च यदन्यथापि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमवगन्तव्यमिति । ___ चक्कवट्टिविजय त्ति चक्रवर्तिविजेतव्यानि क्षेत्रखण्डानि । उक्कोसपए चोत्तीसं 15 तित्थगरा समुप्पजति त्ति समुत्पद्यन्ते सम्भवन्तीत्यर्थः, न त्वेकसमये जायन्ते. चतुर्णामवैकदा जन्मसम्भवात्, तथाहि - मेरौ पूर्वापरशिलातलयो द्वे एव सिंहासने भवतोऽतो द्वावेव द्वाववाभिषिच्यते अतो द्वयोर्द्वयोरेव जन्मति, दक्षिणोत्तरयोस्तु क्षेत्रयोस्तदानी दिवससद्भावात् न भरतैरवतयोर्जिनोत्पत्तिरर्द्धरात्र एव जिनोत्परिति । पढमेत्यादि प्रथमायां पृथिव्यां त्रिंशन्नरकावासानां लक्षाणि, पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठ्यां पञ्चानं 20 लक्षं सप्तम्यां पञ्च नरका:. एवं सर्वमीलने चतुस्त्रिंशल्लक्षाणि भवन्तीति ।।३४।। [सृ० ३५] पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता । कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई उडुंउच्चत्तेणं होत्था । दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूइं उर्दूउच्चत्तेणं होत्था । नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उडेउच्चत्तेणं होत्था । १. इति नास्ति जे खल Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ३५] पञ्चत्रिंशत्स्थानकम् । १२७ सोहम्मे कप्पे सभाए सोहम्माए माणवए चेतियक्खंभे हेट्ठा उवरिं च अद्धतरस अद्धतेरस जोयणाणि वजेत्ता मज्झे पणतीसाए जोयणेसु वतिरामएसु गोलवट्टसमुग्गतेसु जिणसकहातो पण्णत्तातो । बितिय-चउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] पञ्चत्रिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं सत्यवचनातिशया आगमे न दृष्टाः, एते 5 तु ग्रन्थान्तरदृष्टाः सम्भाविता:, वचनं हि गुणवद्वक्तव्यम्, तद्यथा - संस्कारवत् १, उदात्तम् २, उपचारोपेतम् ३, गम्भीरशब्दम् ४, अनुनादि ५, दक्षिणम् ६, उपनीतरागम् ७. महार्थम् ८, अव्याहतपौर्वापर्यम् ९, शिष्टम् १०, असन्दिग्धम् ११, अपहृतान्योत्तरम् १२, हृदयग्राहि १३, देशकालाव्यतीतम् १४, तत्त्वानुरूपम् १५, अप्रकीर्णप्रसृतम् १६, अन्योन्यप्रगृहीतम् १७, अभिजातम् १८, अतिस्निग्धमधुरम् १९, अपरमर्मविद्धम् २०, 10 अर्थधर्माभ्यासानपेतम् २१, उदारम् २२, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तम् २३, उपगतश्लाघम् २४. अनपनीतम् २५, उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलम् २६, अद्रुतम् २७, अनतिविलम्बितम् २८. विभ्रम-विक्षेप-किलिकिञ्चितादिवियुक्तम् २९, अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रम् ३०, आहितविशेषम् ३१, साकारम् ३२, सत्त्वपरिग्रहम् ३३, अपरिखेदितम् ३४, अव्युच्छेदम् ३५ चेति । तत्र संस्कारवत्त्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वम् १, उदात्तत्वम् उच्चैर्वृत्तिता 15 २. उपचारोपेतत्वम् अग्राम्यता ३, गम्भीरशब्दत्वं मेघस्येव ४, अनुनादित्वं प्रतिरवोपेतता ५. दक्षिणत्वं सरलत्वम् ६, उपनीतरागत्वं मालवेशिकादिग्रामरागयुक्तता ७ एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अन्ये त्वर्थाश्रया:, तत्र महार्थत्वं बृहदभिधेयता ८, अव्याहतपौर्वापर्यत्वं पूर्वापरवाक्याविरोध: ९, शिष्टत्वम् अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा १०, असन्दिग्धत्वम् असंशयकारिता ११, अपहृतान्योत्तरत्वं 20 परदूषणाविषयता १२, हृदयग्राहित्वं श्रोतृमनोहरता १३, देशकालाव्यतीतत्व प्रस्तावोचितता १४, तत्त्वानुरूपत्वं विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता १५, अप्रकीर्णप्रसृतत्वं १. अप्रकीर्ण प्रमृतम् जे२ । अप्रकीर्णं प्रसृतम् जे१ हे२ ।। २. च ३५ वचनं महानुभावैर्वक्तव्यमिति ।छ। नथा दत्तः सप्तमवासुदेव: हे२ ।। ३. 'शब्दं जे२ ॥ ४. मालवकेशिकादि' जैसं०१। मालवकैशिक्यादि है ।। ५. पेक्षया जे२ हे? ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सुसम्बन्धस्य सतः प्रसरणम्, अथवाऽसम्बद्धाधिकारित्वा-ऽतिविस्तरयोरभाव: १६. अन्योन्यप्रगृहीतत्वं परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता १७, अभिजातत्वं वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता १८, अतिस्निग्ध-मधुरत्वं घृत-गुडादिवत् सुखकारित्वम् १९. अपरमर्मवेधित्वं परमर्मानुद्घट्टनस्वरूपत्वम् २०, अर्थ-धर्माभ्यासानपेतत्वम् 5 अर्थ-धर्मप्रतिबद्धत्वम् २१, उदारत्वम् अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुणविशेषा वा २२, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति प्रतीतमेव २३, उपगतश्लाघत्वम् उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाघता २४, अनपनीतत्वं कारक-काल-वचन-लिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता २५, उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वं स्वविषये श्रोतृणां जनितमविच्छिन्नं कौतुकं येन तत्तथा तन्द्रावस्तत्त्वम् २६, अद्रुतत्वम् अनतिविलम्बितत्वं च प्रतीतम् २७-२८. विभ्रम10 विक्षेप-किलिकिञ्चितादिवियुक्तत्वम्, विभ्रमो वक्तृमनसो भ्रान्तता, विक्षेप: तस्यैवाभिधेयार्थं प्रत्यनासक्तता, किलिकिञ्चितं रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपदसकृत्करणमादिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्तत्तथा, तद्भावस्तत्त्वम् २९. अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वम्, इह जातयो वर्णनीयवस्तुस्वरूपवर्णनानि ३०. आहितविशेषत्वं वचनान्तरापेक्षया ढौकितविशेषता ३१, साकारत्वं विच्छिन्नवर्ण-पद15 वाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वम् ३२, सत्त्वपरिगृहीतत्वं साहसोपेतता ३३. अपरिखेदितत्वम अनायाससम्भव: ३४, अव्युच्छेदित्वं विवक्षितार्थसम्यकसिद्धिं यावदव्यवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति ३५ । तथा दत्तः सप्तमवासुदेवः, नन्दनः सप्तमबलदेवः, एतयोश्चावश्यकाभिप्रायेण षडविंशतिर्धनुषामुच्चत्वं भवति, सुबोधं च तत्, यतोऽरनाथ-मल्लिस्वामिनोरन्तरे 20 तावभिहितौ, यतोऽवाचि- अर-मल्लिअंतरे दोण्णि केसवा पुरिसपुंडरीय-दत्त [आव० नि० ४२०] त्ति, अरनाथ-मल्लिनाथयोश्च क्रमेण त्रिंशत् पञ्चविंशतिश्च धनुषामुच्चत्वम्, १. विलम्बित्वं हे, विना ।। २. “वियुक्तं वि' जे१ ॥ ३. वस्तुरूप' खं० ।। ४. वण्णण वासुदवा सव्वं नीला बला य मुक्किलया । एएसि देहमाण वुच्छामि अहाणपुवीए ॥४०२।। पढमो धणूणऽसीई सत्तरी सट्टा य पन्न पणयाला । अउणतीसं च धणू छव्वीस सोलसा दसेव ॥४०३।। - इति आवश्यकहारिभद्रयां वृत्तो ।। ... "अरश्च मलिश्व अरमल्ला तयारन्तरम् अपान्तराल तस्मिन्, द्वौ केशवौ भविष्यतः, को द्वौ इत्याह- पुरुषपण्डरीकदत्तो ।।" - इति आवश्यकस्य हारिभद्रयां वृत्तौ ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स० ३६] षट्त्रिंशत्स्थानकम् । १२९ एतदन्तरालवर्त्तिनोश्च वासुदेवयोः षष्ठ-सप्तमयोरेकोनत्रिंशत् षड्विंशतिश्च धनुषां युज्यत इति, इहोक्ता तु पञ्चत्रिंशत् स्यात् यदि दत्त-नन्दनौ कुन्थुनाथतीर्थकाले भवतो न चैतदेवं जिनान्तरेष्वधीयत इति दुरवबोधमिदमिति ।। सौधर्मे कल्पे सौधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्च पञ्च सभा भवन्ति । सुधर्मसभा १. उपपातसभा २, अभिषेकसभा ३, अलङ्कारसभा ४. व्यवसायसभा 5 ५ च । तत्र सुधर्मसभामध्यभागे मणिपीठिकोपरि षष्टियोजनमानो माणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तत्र वइरामएसु त्ति वज्रमयेषु तथा गोलवद्वत्ता वर्तुला ये समुद्रका भाजनविशेषास्तेषु जिणसकहाओ त्ति जिनसक्थीनि तीर्थकराणां मनुजलोकनिर्वत्ता(?ता)नां सक्थीनि अस्थीनि प्रज्ञप्तानीति । बीय-चउत्थीत्यादि द्वितीयपृथिव्यां पञ्चविंशतिर्नरकलक्षाणि चतुर्थ्यां तु दशेति पञ्चत्रिंशत्तानीति ।।३५।। 10 [सू० ३६] छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा- विणयसुयं १, परीसहा २, चाउरंगिज्जं ३, असंखयं ४, अकाममरणिज्ज ५, पुरिसविज्जा ६, उरब्भिज्ज ७, काविलिजं ८, नमिपव्वजा ९, दुमपत्तयं १०, बहुसुतपुजा ११, हरितेसिजं १२, चित्तसंभूयं १३, उसुकारिजं १४, सभिक्खुगं १५, समाहिट्ठाणाई १६, पावसमणिजं १७, संजइज्जं १८, मियचारिता १९, अणाहपव्वजा २०, 15 समुद्दपालिज २१, रहनेमिजं २२, गोतमकेसिज २३, समितीओ २४, जण्णतिजं २५, सामायारी २६, खलुंकिजं २७, मोक्खमग्गगती २८, अप्पमातो २९, तवोमग्गो ३०, चरणविही ३१, पमायट्ठाणाई ३२, कम्मपगडि ३३, लेसज्झयणं ३४, अणगारमग्गे ३५, जीवाजीवविभत्ती य ३६ । ___ चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुधम्मा छत्तीसं जोयणाई 20 उटुंउच्चत्तेणं होत्था । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स छत्तीसं अजाणं साहस्सीतो होत्था । चेत्तासोएसु णं मासेसु सति छत्तीसंगुलियं सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तति। [टी०] षट्त्रिंशत्स्थानकं स्पष्टमेव, नवरं चैत्राश्वयुजोर्मासयोः सकृद् एकदा पूर्णिमायामिति व्यवहारो निश्चयतस्तु मेषसङ्क्रान्तिदिने तुलासङ्क्रान्तिदिने चेत्यर्थः । 25 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सप्तत्रिंशत्स्थानकम् । षट्त्रिंशदङ्गुलिकां पदत्रयमानाम्, आह च– "चेत्तासोएसु मासेसु, तिपया होड़ पोरुसी [ उत्तरा० २६ । १३ ] ति ||३६|| [सू० ३७] कुंथुस्स णं अरहओ सत्तत्तीसं गणा सत्तत्तीसं गणहरा होत्था । हेमवय- हेरण्णवतियातो णं जीवातो सत्तत्तीसं सत्तत्तीसं जोयणसहस्साइं 5 छच्च चोवत्तरे जोयणसते सोलस य एकूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणातो आयामेणं पण्णत्तातो । 10 सव्वासु णं विजय-वेजयंत- जयंत- अपराजितासु रायधाणीसु पागारा सत्तत्तीसं सत्तत्तीसं जोयणाई उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ता । खुड्डियाए णं विमाणप्पविभत्तीए पढमे वग्गे सत्तत्तीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्तत्तीसंगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वत्तइत्ता चारं च | [टी०] सप्तत्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तम्, नवरं कुन्थुनाथस्येह सप्तत्रिंशद् गणधरा उक्ताः, आवश्यके तु पञ्चत्रिंशत् श्रूयन्त इति हैमवतादिजीवयोरुक्तप्रमाणसंवादगाथा मतान्तरम् । तथा 15 सत्तत्तीस सहस्सा छ च्च सया जोयणाण चउसयरा । * | हेमवयवासजीवा किंचूणा सोलस कला य ॥ [ बृहत्क्षेत्र० ५४ ] कला एकोनविंशतिभागो योजनस्येति । तथा विजयादीनि पूर्वादीनि जम्बूद्वीपद्वाराणि तन्नायकास्तन्नामानो देवास्तेषां राजधान्यस्तन्नामिका एव पूर्वादिदिक्षु इतोऽसङ्ख्येयतमे जम्बूद्वीप इति । क्षुद्रिकायां विमानप्रविभक्तौ कालिकश्रुतविशेषे, तत्र किल बहवो 20 वर्गा अध्ययनसमुदायात्मका भवन्ति । तत्र प्रथमे वर्गे प्रत्यध्ययनमुद्देशस्य ये कालास्त उद्देशनकाला इति । यदि अश्वयुजः पौर्णमास्यां षट्त्रिंशदङ्गुलिका पौरुषीच्छाया भवति तदा कार्तिकस्य कृष्णसप्तम्यामगुलस्य वृद्धिं गतत्वात् सप्तत्रिंशदङ्गुलिका भवतीति ||३७|| १. दृश्यतां पृ० ८७ टि०१ । २. दृश्यता ५० १४२ टि०१ ।। ३ यदि चैत्रस्य पौर्ण हे२ ।। ४. तदा वैशाखस्य कृष्ण हरे ।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ [सू० ३८-३९ ] अष्टत्रिंशत्स्थानकम् । [सू० ३८] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अट्ठत्तीसं अज्जिआसाहस्सीतो उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था | हेमवतेरण्णवतियाणं जीवाणं धणूवट्ठा अट्ठत्तीसं अट्ठत्तीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसते दस एगूणवीसतिभागे जोयणस्स किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं पण्णत्ता । अत्थस्स णं पव्वयरण्णो बितिए कंडे अट्ठत्तीसं जोयणसहस्साइं उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ते । खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे अट्ठत्तीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । [टी०] अष्टत्रिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं धणुपट्टं ति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य 10 हैमवत-हैरण्यवताभ्यां द्वितीय-षष्ठवर्षाभ्यामवच्छिन्नस्यारोपितज्यधनुः पृष्ठाकारे परिधिखण्डे धनुःपृष्ठे इव धनुः पृष्ठे उच्येते, तत्पर्यन्तभूते ऋजुप्रदेशपङ्क्ती तु जीवे इव जीवे इति । एतत्सूत्रसंवादिगाथार्द्धं चत्ताला सत्त सया अडतीस सहस्स दस कला य धणु [बृहत्क्षेत्र० ५५ ] त्ति। तथा अत्थस्स त्ति अस्तो मेरुर्यतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति व्यपदिश्यते तस्य पर्वतराजस्य गिरिप्रधानस्य द्वितीयं काण्डं 15 विभागोऽष्टत्रिंशद्योजनसहस्राण्युच्चत्वेन भवतीति, मतान्तरेण तु त्रिषष्टिः सहस्राणि, * यदाह मेरुस्स तिन्नि कंडा पुढवोवलवइरसक्करा पढमं । रयए य जायरूवे अंके फलिहे य बीयं तु ॥ एक्कागारं तइयं तं पुण जंबूणयामयं होड़ | जोयणसहस्स पढमं बाहल्लेणं च बीयं तु ॥ तेव सहस्साइं तइयं छत्तीस जोयणसहस्सा | * मेरुस्सुवरिं चूला उव्विद्धा जोयणदुवीसं ॥ [ बृहत्क्षेत्र० ३१२-१४] ति ॥३८॥ [सू० ३९] नमिस्स णं अरहतो एगूणचत्तालीसं आहोहियसया होत्था । १. बिडयं तु खं० | बितियं च हे२ ॥ 5 20 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकोनचत्वारिंशत्स्थानकम् । समयखेत्ते णं एकूणचत्तालीसं कुलपव्वया पण्णत्ता, तंजहा- तीसं वासहरा, पंच मंदरा, चत्तारि उसुकारा । दोच्च-चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एकूणचत्तालीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । 5 नाणावरणिजस्स मोहणिजस्स गोत्तस्स आउस्स वि एतासि णं चउण्हं कम्मपगडीणं एकूणचत्तालीसं उत्तरपगडीतो पण्णत्ताओ । [टी०] एकोनचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरम् आहोहिय त्ति नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानिनस्तेषां शतानीति । कुलपव्वय त्ति क्षेत्रमर्यादाकारित्वेन कुलकल्पा: पर्वताः कुलपर्वताः, कुलानि हि लोकानां मर्यादानिबन्धनानि भवन्तीतीह 10 तैरुपमा कृता, तत्र वर्षधरास्त्रिंशद् जम्बूद्वीपे धातकीखण्ड-पुष्करार्द्धपूर्वापराषु च प्रत्येकं हिमवदादीनां षण्णा षण्णा भावात्, मन्दरा: पञ्च, इषुकारा धातकीखण्डपुष्करार्द्धयोः पूर्वेतरविभागकारिणश्चत्वारः, एवमेते एकोनचत्वारिंशदिति । दोच्चेत्यादि द्वितीयायां पञ्चविंशतिश्चतुर्थ्यां दश पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठ्यां पञ्चोनं लक्षं सप्तम्यां पञ्चेति यथोक्तसंख्या नरकाणामिति । नाणावरणिज्जेत्यादि, ज्ञानावरणीयस्य पञ्च 15 मोहनीयस्याष्टाविंशति: गोत्रस्य द्वे आयुषश्चतस्रः इत्येवमेकोनचत्वारिंशदिति ।।३९।। [सू० ४०] अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स चत्तालीसं अजियासाहस्सीतो होत्था। मंदरचूलिया णं चत्तालीसं जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । संती अरहा चत्तालीसं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । भूयाणंदस्स णं [णागिंदस्स ?] नागरण्णो चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा 20 पण्णत्ता । खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए ततिए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । फग्गुणपुण्णिमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वदृइत्ता १. पंचोनलक्षं खं० ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ [सू० ४०-४२] चत्वारिंशदेकचत्वारिंशद्-द्विचत्वारिंशत्स्थानकानि । णं चारं चरति । एवं कत्तियाए वि पुण्णिमाए । ___ महासुक्के कप्पे चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । [टी०] चत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तम्, नवरं वइसाहपुण्णिमासिणीए त्ति यत् केषुचित् पुस्तकषु दृश्यते सोऽपपाठः, फग्गुणपुण्णिमासिणीए त्ति अत्राध्येयम्, कथम् ?, उच्यते. पोसे मासे चउप्पया [उत्तरा० २६।१३] इति वचनात् पौषपौर्णमास्यामष्ट- 5 चत्वारिंशदगुलिका सा भवति, ततो माघे चत्वारि फाल्गुने च चत्वारि अङ्गुलानि पतितानीत्येवं फाल्गुनपौर्णमास्यां चत्वारिंशदगुलिका पौरुषीच्छाया भवति, कार्त्तिक्यामप्येवमव, यतः चेत्तासोएसु मासेसु तिपया होइ पोरुसी [उत्तरा० २६।१३] इत्युक्तम्, ततः पदत्रयस्य षट्त्रिंशदङ्गुलप्रमाणस्य कार्तिकमासातिक्रमे चतुरगुलवृद्धौ चत्वारिंशदङ्गुलिका सा भवतीति ।।४०।। 10 [सू० ४१] नमिस्स णं अरहतो एक्कचत्तालीसं अजियासाहस्सीओ होत्था। चउसु पुढवीसु एक्कचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता. तंजहारयणप्पभाए पंकप्पभाए तमाए तमतमाए । महल्लियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एक्कचत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णना। 15 [टी०] एकचत्वारिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं चउसु इत्यादि क्रमेण सूत्रोक्तासु चतसृषु प्रथम-चतुर्थ-षष्ठ-सप्तमीषु पृथिवीषु त्रिंशतो दशानां च नरकलक्षाणां पञ्चोनस्य चैकस्य [लक्षस्य] पञ्चानां च नरकाणां भावाद्यथोक्तसंख्यास्ते भवन्तीति ।।४१।। [सू० ४२] समणे भगवं महावीरे बायालीसं वासाइं साहियाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । 20 जंबुढीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं बातालीसं जोयणसहस्साई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसि पि दोभासे संखे दयसीमे य । कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा जोतिंसु वा जोइंति वा जोतिस्संति ? श्यतां १०८७ टी० ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे वा । बायालीसं सूरिया पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा । संमुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता । नामे णं कम्मे बायालीसविहे पण्णत्ते, तंजहा- गतिणामे जातिणामे सरीरणामे सरीरंगोवंगणामे सरीरबंधणणामे सरीरसंघायणणामे संघयणणामे 5 संठाणणामे वण्णणामे गंधणामे रसनामे फासणामे अगरुलहुयणामे उवघायणामे पराघातणामे आणुपुव्वीणामे उस्सासणामे आतवणामे उज्जोयणामे विहगगतिणामे तसणामे थावरणामे सुहुमणामे बादरणामे पजत्तणामे अपजत्तणामे साधारणसरीरणामे पत्तेयसरीरणामे थिरणामे अथिरणामे सुभणामे असुभणामे सुभगणामे दुब्भगणामे सुसरणामे दुस्सरणामे आदेज्जणामे 10 अणादेजणामे जसोकित्तिणामे अजसोकित्तिणामे निम्माणणामे तित्थकरणामे । लवणे णं समुद्दे बायालीसं नागसाहस्सीओ अभिंतरियं वेलं धारेति । महालियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे बायालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । एगमेगाए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठीतो समातो बायालीसं वाससहस्साई 15 कालेणं पण्णत्तातो । __एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-बितियातो समातो बायालीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तातो । ___ [टी०] द्विचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं बायालीसं ति छद्मस्थपर्याय द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासश्चेति, केवलिपर्यायस्तु देशोनानि त्रिंशद्वर्षाणीति पर्युषणाकल्पे 20 द्विचत्वारिंशदेव वर्षाणि महावीरपर्यायोऽभिहितः, इह तु साधिक उक्तः, तत्र पर्यषणाकल्पे यदल्पमधिकं तन्न विवक्षितमिति सम्भाव्यत इति, जाव त्ति करणात 'बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे' त्ति दृश्यम् । जंबुद्दीवस्सेत्यादि. १. "तेणं कालेण तेणं समएणं समणे भगवं महावीर तीसं वासाई अगारवासमज्ञ वसित्ता. साइरगाई दवालस वासाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता. देसूणाई तीस वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता बायालीसं वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, बावरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता: ... ....... सिद्ध बद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वडे सव्वदक्खप्पहीण ॥१४७।।" इति पर्युषणाकल्पे ।। २. हे२ विना- 'निव्वुडे त्ति सव्वदुक्खप्पहीण त्ति दृश्यं ज१.२ हे१ । 'निव्वुडे ति दृश्यं ख०।। ३. जंबूटीव' जे१ ख० ।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० ४२ द्विचत्वारिंशत्स्थानकम् । पुरिथिमिल्लचरिमंताओ त्ति जगतीबाह्यपरिधेरपसृत्य गोस्तुभस्याऽऽवासपर्वतस्य वेलंधरनागराजसम्बन्धिनः पाश्चात्त्यश्चरमान्तः चरमविभागो यावताऽन्तरेण भवति एस णं ति एतदन्तरं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि प्रज्ञप्तम्, अन्तरशब्देन विशेषोऽप्यभिधीयते इत्यत आह- आबाहाए त्ति व्यवधानापेक्षया यदन्तरं तदित्यर्थः। कालायणे त्ति धातकीखण्डपरिवेष्टके कालोदाभिधाने समुद्रे । 5 ___ गइनामेत्यादि. गतिनाम यदुदयान्नारकादित्वेन जीवो व्यपदिश्यते, जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिर्भवति, शरीरनाम यदुदयादौदारिकादिशरीरं करोति, यदुदयादङ्गानां शिर :प्रभृतीनाम् उपाङ्गानां च अगुल्यादीनां विभागो भवति तच्छरीराङ्गोपाङ्गनाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां पूर्वबद्धानां बध्यमानानां च सम्बन्धकारण शरीरबन्धननाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां गृहीतानां यदुदयाच्छरीररचना भवति 10 तच्छरीरसङ्घातनाम, तथाऽस्थ्नां यतस्तथाविधशक्तिनिमित्तभूतो रचनाविशेषो भवति तत् संहनननाम, संस्थानं समचतुरस्रादिलक्षणं यतो भवति तत् संस्थाननाम, तथा यदुदयावर्णादिविशेषवन्ति शरीराणि भवन्ति तद् वर्णादिनाम, तथा यदुदयादगुरुलघु स्वं स्वं शरीरं जीवानां भवति तदगुरुलघुनाम, तथा यतोऽङ्गावयवः प्रतिजिह्विकादिरात्मोपघातको जायते तदुपघातनाम, तथा यतोऽङ्गावयव एव विषात्मको 15 दंष्ट्रा-त्वगादिः परेषामुपघातको भवति तत् पराघातनाम, तथा यदुदयादन्तरालगतौ जीवा याति तदानुपूर्वीनाम, तथा यदुदयादच्छ्वासनिःश्वासनिष्पत्तिर्भवति तदुच्छ्वासनाम, तथा यदुदयाज्जीवस्तापवच्छरीरो भवति तदातपनाम, यथाऽऽदित्यबिम्बपृथिवीकायिकानाम्, तथा यतोऽनुष्णोद्द्योतवच्छरीरो भवति तदुद्द्योतनाम, तथा यतः शुभेतरगमनयुक्तो भवति तद्विहायोगतिनाम, जसनामादीन्यष्टौ 20 प्रतीतार्थानि, तथा यत: स्थिराणां दन्ताद्यवयवानां निष्पत्तिर्भवति तत् स्थिरनाम, यतश्च भू-जिह्वादीनामस्थिराणां निष्पत्तिर्भवति तदस्थिरनाम, एवं शिर:प्रभृतीनां शुभानां तच्छुभनाम, पादादीनामशुभानामशुभनाम इति, शेषाणि प्रतीतानि, नवरं यददयाज्जातौ १. परिथिमि हे२ विना || २. पाश्चात्यचर' ख० ह२ ॥ ३. स्वं शरीरं जे२ ॥ ४. 'दयान्तराल' हे१.२ विना ।। . तथा शिर:प्र ह ।। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आचार्यश्रीअभयदेवसुरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिचत्वारिंशत्स्थानकम् । जातौ जीवदेहेषु स्त्र्यादिलिङ्गाकारनियमो भवति तत् सूत्रधारसमानं निर्माणनामेति. पञ्चम-छट्ठीओ समाओ त्ति दुःषमा एकान्तदुःषमा चेत्यर्थः, पढम-बीयाउ त्ति एकान्तदुःषमा दुःषमा चेति ।।४२।। [सू० ४३] तेतालीसं कम्मविवागज्झयणा पण्णत्ता । 5 पढम-चउत्थ-पंचमासु तीसु पुढवीसु तेतालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं पि दोभासे संखे दयसीमे । 10 महालियाए णं विमाणपविभत्तीए ततिए वग्गे तेतालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । [टी०] त्रिचत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, कम्मविवागज्झयण त्ति कर्मण: पुण्य-पापात्मकस्य विपाकः फलं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि कर्मविपाकाध्ययनानि. एतानि च एकादशाङ्ग-द्वितीयाङ्गयोः सभाव्यन्त इति । जंबुद्दीवस्स णमित्यादि. 15 जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्यान्ताद् गोस्तुभपर्वतो द्विचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि तद्विष्कम्भश्च सहस्रं तदधिकाया द्वाविंशतेरल्पत्वेनाविवक्षणादेवं च त्रिचत्वारिंशत् सहस्राणि भवन्तीति. एवं चउद्दिसिं पि त्ति उक्तदिगन्तर्भावेन चतस्रो दिश उक्ताः, अन्यथा एवं तिदिसिं पि त्ति वाच्यं स्यात्, तत्र चैवमभिलाप: ‘जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स दाहिणिल्लाओ चरिमताओ दओभासस्स णं आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं तेयालीस 20 जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते', एवमन्यत् सूत्रद्वयम्, नवरं पश्चिमाया शख आवासपर्वत उत्तरस्यामुदकसीम इति ।।४३।। [सू० ४४] चोत्तालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुताभासिया पण्णत्ता । १. "स्या तु दक' ह२ ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिशत्-पञ्चचत्वारिंशत्स्थानके । [सू० ४४-४५] १३७ विमलस्स णं अरहतो चोत्तालीसं पुरिसजुगाइं अणुपट्ठिसिद्धाइं जाव प्पहीणाई । धरणस्स णं नागिंदस्स नागरण्णो चोत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोत्तालीसं उद्देसणकाला 5 पण्णत्ता । [टी०] चतुश्चत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, चतुश्चत्वारिंशत् इसिभासिय त्ति ऋषिभाषिताध्ययनानि कालिकश्रुतविशेषभूतानि दियलोयचयाभासिय त्ति देवलोकाच्च्युतैः ऋषीभूतैराभाषितानि देवलोकच्युताभाषितानि, क्वचित्पाठः देवलोयचुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासियज्झयणा पण्णत्ता । 10 ___ पुरिसजुगाई ति पुरुषा: शिष्य-प्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता युगानीव कालविशेषा इव क्रमसाधर्म्यात् पुरुषयुगानि, अणुपट्टि त्ति आनुपूर्व्या अणुबन्धं ति पाठान्तरे तृतीयादर्शनादनबन्धेन सातत्येन सिद्धानि जाव त्ति करणाद् बुद्धाइ मुत्ताइ अतकडाइ सव्वदक्खप्पहीणाई' ति दृश्यम् । महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चतुर्थे वर्गे चतुश्चत्वारिंशदुद्देशनकाला: प्रज्ञप्ता: ।।४४।। [सू० ४५] समयखेत्ते णं पणतालीसं जोयणसतसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । सीमंतए णं नरए पणतालीसं जोयणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। एवं उडुविमाणे पण्णत्ते । ईसिपब्भारा णं पुढवी पण्णत्ता एवं चेव । धम्मे णं अरहा पणतालीसं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । 20 मंदरस्स णं पव्वतस्स चउद्दिसिं पि पणतालीसं पणतालीसं जोयणसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । सव्वे वि णं दिवट्ठखेत्तिया नक्खत्ता पणतालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा 15 १. जावं ति खस० विना ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चचत्वारिंशत्-षट्चत्वारिंशत्स्थानके । तिन्नेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एते छन्नक्खत्ता, पणतालमुहत्तसंजोगा ।।५८।। महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणतालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । 5 [टी०] पञ्चचत्वारिंशत्स्थानके त्विदं लिख्यते, समयखेत्ते त्ति कालोपलक्षितं क्षेत्रम्. मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः । सीमंतए णं ति प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे मध्यभागवर्ती वृत्तो नरकेन्द्रः सीमन्तक इति । उडुविमाणे त्ति सौधर्मेशानयोः प्रथमप्रस्तटवर्ति चतसृणां विमानावलिकानां मध्यभागवर्ति वृत्तं विमानेन्द्रकमुडुविमानमिति । ईसिपब्भार त्ति सिद्धिपृथिवी । मंदरस्स णं पव्वयस्सेत्यादि सूत्रे लवणसमुद्राभ्यन्तरपरिध्यपेक्षयान्तर 10 द्रष्टव्यमिति । सव्वे वि णमित्यादि, चन्द्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तभोग्यं नक्षत्रक्षेत्रं समक्षेत्रमुच्यते. तदेव सार्द्धं व्यर्द्धम्, द्वितीयमर्द्धमस्येति द्व्यर्द्धमित्येवं व्युत्पादनात्, तथाविधं क्षेत्रं येषामस्ति तानि व्यर्द्धक्षेत्रिकाणि नक्षत्राणि अत एव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्द्ध योगं, सम्बन्धं योजितवन्ति । तिन्नेव गाहा, त्रीण्युत्तराणि उत्तरफाल्गुन्य उत्तराषाढा उत्तरभद्रपदाः ।।४५।। 15 [सू० ४६] दिट्ठिवायस्स णं छायालीसं माउयापया पण्णत्ता । बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा पण्णत्ता । पभंजणस्स णं वातकुमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससतसहस्सा पण्णत्ता। [टी०] अथ षट्चत्वारिंशत्स्थानके किञ्चिल्लिख्यते, दिट्ठिवायस्स त्ति द्वादशाङ्गस्य माउयापय त्ति सकलवाङ्मयस्य अकारादिमातृकाः पदानीव दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन 20 मातृकापदानि उत्पाद-विगम-ध्रौव्यलक्षणानि, तानि च सिद्धश्रेणि-मनुष्यश्रेण्यादिना विषयभेदेन कथमपि भिद्यमानानि षट्चत्वारिंशद् भवन्तीति सम्भाव्यते । तथा बंभीए णं लिवीए त्ति लेख्यविधौ षट्चत्वारिंशन्मातृकाक्षराणि, तानि चाऽकारादीनि हकारान्तानि १. इसी जे२ ।। २. "क्षेत्रकाणि खं० ।। ३. मातृकापदानीव ख० जे२ विना ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४७] सप्तचत्वारिंशत्स्थानकम् । १३९ सक्षकाराणि ऋ ॠ ल ल लं(ळ) इत्येतदक्षरपञ्चकवर्जितानि सम्भाव्यन्ते । तथा पभंजणस्स त्ति औदीच्यस्येति ।।४६|| [सू० ४७] जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरति तया णं इहगतस्स मणूसस्स सत्तचत्तालीसं जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसतेहिं एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं 5 हव्वमागच्छति । थेरे णं अग्गिभूती सत्तचत्तालीसं वासाई अगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वइते । टी०] अथ सप्तचत्वारिंशत्स्थानके किमप्युच्यते, जया णमित्यादि, इह लक्षप्रमाणस्य जम्बूद्वीपस्याभयतोऽशीत्युत्तरे योजनशते ३६० अपनीते सर्वाभ्यन्तरस्य सूर्यमण्डलस्य 10 विष्कम्भो भवति ९९६४०, तत्परिधिस्त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि एकोननवत्यधिकानि ३१५०८९, एतच्च सूर्यो मुहूर्तानां षष्ट्या गच्छतीति षष्ट्याऽस्य भागहारे मुहूर्तगतिर्लभ्यते, सा च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशदुत्तरे योजनशते एकोनत्रिंशच्च षष्टिभागा योजनस्य ५२५१ २९ , यदा चाभ्यन्तरमण्डले सूर्यश्चरति तदाऽष्टादश मुहूर्ता दिवसप्रमाणम्, तदर्द्धन नवभिर्मुहूर्तेः मुहूर्तगतिर्गुण्यते, ततश्च यथोक्तं 15 चक्षुःस्पर्शप्रमाणमागच्छतीति । अग्गिभूइ त्ति वीरनाथस्य द्वितीयो गणधरस्तस्य चेह सप्तचत्वारिंशद्वर्षाण्यगारवास उक्तः, आवश्यके तु षट्चत्वारिंशत्, तत्र १. सर्वेषु हलिखितादर्शेषु लं इति पाठो दृश्यते, किन्तु ळ इति शुद्धः पाठः संभाव्यते ।। २. पंचवर्तितानि जर ।। ३. 'अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म, य र ल व श ष स है, क्ष इति षट्चत्वारिंशद मातृकाक्षराणि अत्र संभाव्यन्ते।। ४. "अगारपर्यायद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह- पण्णा छायालीसा बायाला होड़ पण्ण पण्णा य । तेवण्ण पंचसट्ठी अडयालीसा य छायाला ॥६५०|| व्या० पञ्चाशत् षट्चत्वारिंशत् द्विचत्वारिंशत् भवति पञ्चाशत् पञ्चाशच्च त्रिपञ्चाशत् पञ्चषष्ठिः अष्टचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् इति गाथार्थः ।। छत्तीसा सोलसगं अगारवासो भवे गणहराणं। छउमत्थयपरियागं अहक्कम कित्तइस्सामि ॥६५१।। व्या०- षट्त्रिंशत् षोडशकम् अगारवासो गृहवासा यथासङ्ख्यम एतावान् गणधराणाम् ।... छद्मस्थपर्याय यथाक्रमं यथायोग कीर्तयिष्यामि इति गाथार्थः ।। नीसा बारस दसगं बारस बायाल चोहसदुगं च । णवगं बारस दस अट्ठगं च छउमत्थपरियाओ ।।६५२।। गाथेयं निगदसिद्धा।। केवलिपर्यायपरिज्ञानोपायप्रतिपादनायाह- छउमत्थपरीयागं अगारवासं च वोगसित्ता णं । सव्वाउगम्स सेसं जिणपरियागं वियाणाहि ॥६५३।। व्या० छद्मस्थपर्यायम् अगारवासं च व्यवकलय्य सर्वायुष्कस्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टचत्वारिंशदेकोनपञ्चाशत्स्थानक । सप्तचत्वारिंशत्तमवर्षस्यासम्पूर्णत्वादविवक्षा. इह त्वपूर्णस्यापि पूर्णत्व?]विवक्षेति सम्भावनया न विरोध इति ।।४७।। [सू० ४८] एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता । 5 धम्मस्स णं अरहतो अडयालीसं गणा अडयालीसं गणहरा होत्था । सूरमंडले णं अडयालीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं पण्णत्ते । टी०] अष्टचत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किमपि लिख्यते, पट्टण त्ति, विविधदेशपण्यान्यागत्य यत्र पतन्ति तत् पत्तनं नगरविशेषः । पत्तनं रत्नभूमिरित्याहरेके। धम्मस्स त्ति पञ्चदशतीर्थकरस्य, इहाऽष्टचत्वारिंशद् गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु 10 त्रिचत्वारिंशत् पठ्यन्ते तदिदं मतान्तरमिति । सूरमंडले त्ति सूर्यविमानं येषां भागानामेकषष्ट्या योजन भवति तेषामष्टचत्वारिंशत्, त्रयोदशभिस्तैयूनं योजनमित्यर्थः ||४८।। [सू० ४९] सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एकूणपण्णाए रातिदिएहिं छण्णउएणं भिक्खासतेणं अहासुत्तं आराहिया भवइ । 15 देवकुरु-उत्तरकुरासु णं मणुया एकूणपण्णाए रातिदिएहि संपत्तजोव्वणा भवति । तेइंदियाणं उक्कोसेणं एकूणपण्णं रातिंदिया ठिती पण्णत्ता । शर्ष जिनपर्याय विजानीहाति गाथार्थः ।। स चायं जिनपर्याय:- बारस सोलस अट्ठारसेव अट्रारसेव अट्रेव । सोलस सोल तहेकवीस चोह सोले य सोले य ॥६५४|| निगसिद्धा । सर्वायुष्कप्रतिपादनायाह- बाणउड चउहतरि सत्तरि तत्तो भवे असीई य । एगं च सयं तत्तो तेसीई पंचणउई य ॥६५५|| अट्टत्तरी च वासा तत्तो बावत्तरी च वासाई । बावट्ठी चत्ता खल सव्वगणहराउयं एयं ॥६५६।। गाथाद्यं निगसिद्धमेव ।। इति आवश्यकसूत्रनिर्युक्तेः हरिभद्रसूरिविरचिताया वृत्तौ ॥ १. "नके किमपि हे१ ॥ २. पट्टणं ति जे२ ॥ ३. "चुलसीइ ५. पंचनउई २. बिउत्तरं ३. सालसुत्तर ४. सय च ५ । सत्तहि ६. पणनउई ७. तणउई ८. असाई अ ९ ॥२६६।। इक्कासीई १०. छावत्तरी अ ११. छाडि १२, सत्तवण्णा य १३ । पण्णा १४. तेयालीसा १५. छत्तीसा १६ चव. पणतीसा १७ ।।२६७।। तित्तीस १८. अट्टवीसा १९. अट्ठारस २० चेव, तहय सत्तरस २१ । इक्कारस २२. दस २३, नवग २४. गणाण माण जिणिदाणं १७ ।।२६८|| इति आवश्यकनियुक्तौ ।। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकानपञ्चाशत्-पञ्चाशत्स्थानक । [मू० ५०] १४१ टी०] अथैकोनपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, सत्तसत्तमिया णं सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका, सप्त च सप्तमदिनानि भवन्ति सप्तसु सप्तकेषु, अतः सा सप्तदिनसप्तकमयत्वादेकोनपञ्चाशता दिनैर्भवतीति । पडिम त्ति अभिग्रहः । छन्नउएणं भिक्खासएणं ति प्रथमे दिनसप्तके प्रतिदिनमेकोत्तरया भिक्षावृद्ध्या अष्टाविंशतिर्भिक्षा भवन्ति, एवं च सप्तस्वपि षण्णवतं भिक्षाशतं भवति, अथवा प्रतिसप्तकमेकोत्तरया 5 वृद्ध्या यथोक्तं भिक्षामानं भवति, तथाहि- प्रथमे सप्तके प्रतिदिनमेकैकभिक्षाग्रहणात् सप्त भिक्षा भवन्ति, द्वितीये द्वयोर्द्वयोर्ग्रहणाच्चतुर्दश, एवं सप्तमे सप्तानां ग्रहणादेकोनपञ्चाशदित्येवं सर्वसङ्कलने यथोक्तं मानं भवतीति, अहासुत्तं ति यथासूत्रं यथागमं सम्यक् कायेन स्पृष्टा भवति' इति शेषो द्रष्टव्यः । संपत्तजोव्वणा भवंति त्ति न मातापितृपरिपालनामपेक्षन्त इत्यर्थः । ठिइ त्ति आयुष्कम् ।।४९।। 10 [सू० ५०] मुणिसुव्वयस्स णं अरहतो पंचासं अजियासाहस्सीतो होत्था। अणंतती णं अरहा पण्णासं धणूई उड्डूंउच्चत्तेणं होत्था । पुरिसोत्तमे णं वासुदेवे पण्णासं धणूइं उर्दूउच्चत्तेणं होत्था । सव्वे वि णं दीहवेयड्डा मूले पण्णासं पण्णासं जोयणाणि विक्खंभेणं पण्णत्ता। लंतए कप्पे पण्णासं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । सव्वातो णं तिमिसगुहा-खंडगप्पवातगुहातो पण्णासं पण्णासं जोयणाई आयामेणं पण्णत्तातो । सव्व वि णं कंचणगपव्वया सिहरतले पण्णासं पण्णासं जोयणाई विक्खंभणं पण्णत्ता । 20 [टी०] अथ पञ्चाशत्स्थानकम्, तत्र पुरिसोत्तिम त्ति चतुर्थवासुदेवोऽनन्तजिनकालभावी । तथा कंचणग त्ति उत्तरकुरुषु नीलवदादीनां पञ्चानामानुपूर्वीव्यवस्थितानां महाह्रदानां पूर्वापरपार्श्वयोः प्रत्येकं दश दश काञ्चनपर्वता भवन्ति, ते च सर्वे शतम्, एवं देवकुरुषु निषधादीनां महाह्रदानां पार्श्वतः शतं भवति, १. सम्यग न्यायन ह२ विना । दृश्यतामेकाशीतिस्थानकटीकायाम् ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकपञ्चाशद-द्विपञ्चाशत्स्थानके । सर्व एव च ते जम्बूद्वीपे द्विशतमाना भवन्ति, ते योजनशतोच्छ्रिताः शतमूलविष्कम्भास्तन्नामकदेवनिवासभूतभवनालङ्कृतशिखरतलाः ।।५०।। सू० ५१] नवण्हं बंभचेराणं एकावण्णं उद्देसणकाला पण्णत्ता । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावण्णखंभसतसन्निविट्ठा 5 पण्णत्ता । एवं चेव बलिस्स वि । सुप्पभे णं बलदेवे एकावण्णं वाससतसहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । दंसणावरण-नामाणं दोण्हं कम्माणं एकावण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो। टी०] अथैकपञ्चाशत्स्थानकम्, तत्र बंभचेराणं ति आचारप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनाना 10 शस्त्रपरिज्ञादीनाम्, तत्र प्रथमे सप्तोद्देशका इति सप्तैवोद्देशनकालाः, एवं द्वितीयादिषु क्रमेण षट्, चत्वारः, चत्वारः, एवं षट्, पञ्च, अष्टौ, चत्वारः, सप्त चेत्येवमेकपञ्चाशदिति । सुप्पहे त्ति चतुर्थो बलदेवः अनन्तजिज्जिननायककालभावी. तस्येहैकपञ्चाशद्वर्षलक्षाण्यायुरुक्तम्, आवश्यके तु पञ्चपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तर मिति । एकावण्णं उत्तरपगडीओ त्ति दर्शनावरणस्य नव नाम्नो द्विचत्वारिंशदित्येक15 पञ्चाशदिति ।।५।। ___ [सू० ५२] मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स बावण्णं नामधेजा पण्णत्ता, तंजहाकोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए १०, माणे मदे दप्पे थंभे अत्तुक्कासे गव्वे परपरिवाए उक्कासे अवकासे उण्णते उण्णामे २१, माया उवही नियडी वलए गहणे णूमे कक्के कुरुते दंभ कूडे 20 झिम्मे किब्बिसिए आवरणया गृहणया वंचणया पलिकुंचणया सातिजोगे ३८, लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा कामासा भोगासा जीवितासा मरणासा नंदी रागे ५२ । १. पंचासीई १ पन्नत्तरी अ २ पन्नट्टि ३ पंचवन्ना य ४ । सत्तरस सयसहस्सा पंचमए आउअ होइ ५ ॥४०६।। पंचासीइ सहस्सा ६ पण्णट्टी ७ तहय चेव पण्णरस ८ । बारस सयाई आउं ९ बलदवाणं जहासंखं ।।४०७।।" इति आवश्यकनियुक्तौ ।। २. अत्तुकासे खं० । अटी० मध्ये अत्तुकासे जे१ ।। ३. उक्कोसे जे२ खं० । अटी० मध्येऽपि जे१ ।। ४. अवक्कासे खं० जे१ । अटी० मध्येऽपि जे२ ।। ५. उण्णत्ते जे१ खं० । अटा० मध्ये उन्नाय खं०।। ६. भिज्जा अभिजा जे२ । भिज्झा अभिज्झा अटी० मध्ये खं० जे१.२ ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ० ८२] द्विपञ्चाशत्स्थानकम् । गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पुरत्थिमिल्लातो चरिमंतातो वलयामुहस्स महापायालस्स पच्चत्थिमिले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साइं अब हा अंतरे पण्णत्ते | १४३ ओभासस्स णं [आवासपव्वतस्स दाहिणिल्लातो चरिमंतातो] केउगस्स [ महापायास्स उत्तरिल्ले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाते 5 अंतरे पण्णत्ते |] संखस्स [णं आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो] जुयकस्स [महापायालस्स पुरत्थिमिले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते |] दगसीमस्स [णं आवासपव्वतस्स उत्तरिल्लातो चरिमंतातो ] ईसरस्स 10 [महापायालस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साइं अबाहा अंतरे पण्णत्ते |] नाणावरणिज्जस्स नामस्स अंतरातियस्स एतेसि णं तिण्हं कम्मपगडीणं बावण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । सोहम्म-सणंकुमार-माहिंदेसु तिसु कप्पेसु बावण्णं विमाणवाससतसहस्सा 15 पण्णत्ता । [ टी०] अथ द्विपञ्चाशत्स्थानकम्, तत्र मोहणिज्जस्स कम्मस्स त्ति इह मोहनीयकर्मणोऽवयवेषु चतुर्षु क्रोधादिकषायेषु मोहनीय [त्व ? ]मुपचर्यावयवे समुदायपचारन्यायेन मोहनीयस्येत्युक्तम्, तत्रापि कषायसमुदायापेक्षया द्विपञ्चाशन्नामधेयानि न पुनरेकैकस्य कषायमात्रस्यैवेति, तत्र क्रोध इत्यादीनि दश 20 नामानि क्रोधकषायस्य, चंडिक्के त्ति चाण्डिक्यम् । तथा मान इत्यादीन्येकादश मानकषायस्य, अत्तुक्वासे त्ति आत्मोत्कर्षः, उक्कासे त्ति उत्कर्षः, अवकासे अपकर्षः, उन्नए त्ति उन्नतः, पाठान्तरेण उन्नमः, उन्नामे त्ति उन्नामः । तथा मायादीनि सप्तदश मायाकषायस्य, त्वम् कक्के त्ति कल्कम्, कुरुए त्ति कुरुकम्, १-२ दृश्यतां पू० १४२०४५ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिपञ्चाशत्स्थानकम् । झिमे त्ति जैहम्यम् । तथा लोभादीनि चतुर्दश लोभकषायस्य, भिज्झा अभिज्झ त्ति अभिध्यानमभिध्येत्यस्य तीतं पिधानमित्यादाविव वैकल्पिके अकारलोपे भिध्याऽभिध्या चेति शब्दभेदान्नामद्रयमिति । __ गोथुभेत्यादि, गोस्तुभस्य प्राच्यां लवणसमुद्रमध्यवर्त्तिनो वेलन्धरनागराज5 निवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याच्चरमान्तादपसृत्य वडवामुखस्य महापातालस्य महापातालकलशस्य पाश्चात्त्यश्चरमान्तो येन व्यवधानेन भवतीति गम्यते, एस णं ति एतदन्तरमबाधया व्यवधानलक्षणमित्यर्थः, द्विपञ्चाशद्योजनसहस्राणि भवन्तीत्यक्षरघटना, भावार्थस्त्वयम्- इह लवणसमुद्र पञ्चनवति याजनसहस्राण्यवगाह्य पूर्वादिषु दिक्षु चत्वार: क्रमेण वडवामुख-केतुक-जूयकेश्वराभिधाना महापातालकलशा 10 भवन्ति, तथा जम्बूद्वीपपर्यन्ताद् द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्य सहस्रविष्कम्भाश्चत्वार एव वेलन्धरनागराजपर्वता गोस्तुभादयो भवन्ति, ततश्च पञ्चनवत्यास्त्रिचत्वारिंशत्यपकर्षितायां द्विपञ्चाशत् सहस्राण्यन्तरं भवति । तथा सौधर्मे द्वात्रिंशद्विमानानां लक्षाणि, सनत्कुमारे द्वादश, माहेन्द्रे चाष्टाविति सर्वाणि द्विपञ्चाशत् ।।५२।। [सू० ५३] देवकुरु-उत्तरकुरियातो णं जीवातो तेवण्णं तेवण्णं जोयण15 सहस्साइं साइरेगाई आयामेणं पण्णत्तातो । महाहिमवंत-रुप्पीणं वासहरपव्वयाणं जीवातो तेवण्णं तेवण्णं जोयणसहस्साई नव य एक्कतीसे जोयणसते छच्च एकूणवीसतिभाए जोयणस्स आयामेणं पण्णत्तातो । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तेवण्णं अणगारा संवच्छरपरियाया पंचसु 20 अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाविमाणेसु देवत्ताते उववन्ना । संमुच्छिमउरगपरिसप्पाणं उक्कोसेणं तेवण्णं वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। [टी०] त्रिपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते । महाहिमवंतेत्यादिसूत्रे संवादगाथातेवन्नसहस्साई नव य सए जोयणाण इगतीसे । जीवा महाहिमवओ अद्धकला छक्कलाओ || [बृहत्क्षेत्र० ५६] त्ति । 25 संवच्छरपरियाग त्ति संवत्सरमेकं यावत् पर्याय: प्रव्रज्यालक्षणो येषां ते Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ५४-५५ चतुःपञ्चाशत्स्थानकम् । १४५ संवत्सरपर्यायाः. महइमहालएसु महाविमाणेसु त्ति महान्ति च तानि विस्तीर्णानि च अतिमहालया इव अतिमहालयाश्च अत्यन्तमुत्सवाश्रयभूतानि महातिमहालयास्तेषु, महान्ति च तानि प्रशस्तानि विमानानि चेति विग्रहः, एते चाप्रतीता:, अनुत्तरोपपातिकाङ्गे तु येऽधीयन्ते ते त्रयस्त्रिंशत् बहुवर्षपर्यायाश्चेति ।।५३॥ __ [सू० ५४] भरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए एगमेगाए 5 ओसप्पिणीए चउप्पण्णं चउप्पण्णं उत्तमपुरिसा उप्पजिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा, तंजहा- चउवीसं तित्थकरा, बारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा । अरहा णं अरिठ्ठनेमी चउप्पण्णं रातिंदियाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी । 10 समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसेजाते चउप्पण्णं वागरणाई वागरित्था । अणंतइस्स णं अरहतो [चउप्पण्णं गणा] चउप्पण्णं गणहरा होत्था । [टी०] चतुष्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते । पाउणित्त त्ति प्राप्य । एगणिसेज्जाए त्ति एकनासनपरिग्रहेण, वागरणाई ति व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते इति व्याकरणानि प्रश्ने 15 सति निर्वचनतयोच्यमानाः पदार्थाः, वागरित्थ त्ति व्याकृतवान्, तानि चाप्रतीतानि । अनन्तनाथस्यह चतुष्पञ्चाशद् गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु पञ्चाशदुक्तास्तदिदं मतान्तरमिति ।।५४।। [सू० ५५] मल्ली णं अरहा पणपन्नं वाससहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । मंदरस्स णं पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो विजयबारस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं पणपण्णं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं १. विस्तीर्णानि महालया इव अतिमहालयाच जे२ ॥ २. "मुत्सधाश्रय' खं० ॥ ३. अनुत्तरोपपातिकाङ्गे त्रया वा विद्यन्त । तत्र प्रथम वर्ग दश अध्ययनानि, द्वितीय त्रयोदश, तृतीये दश, इत्येवं त्रयस्त्रिंशदध्ययनानि। तषु च त्रयस्त्रिंशतो बहवर्षपर्यायाणामनुत्तरोपपातिकानामनगाराणं वर्णनं दृश्यते ।। ४. येऽभिधीयते खं०।। ५. दृश्यतां 20 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चपञ्चाशत्स्थानकम । चउहिसि पि वेजयंतं जयंतं अपराजियं ति । समणे भगवं महावीरे अंतिमरातियंसि पणपण्णं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपण्णं अज्झयणाणि पावफलविवागाणि वागरेत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । 5 पढम-बितियासु दोसु पुढवीसु पणपण्णं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता। दंसणावरणिज-णामा-ऽऽउयाणं तिण्हं कम्मपगडीणं पणपण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । टी०] पञ्चपञ्चाशत्स्थानके किञ्चिद् लिख्यते । मंदरस्सेत्यादि, इह मेरो: पश्चिमान्तात पूर्वस्य जम्बूद्वीपद्वारस्य पश्चिमान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि योजनाना भवतीत्युक्तम. तत्र 10 किल मेरोर्विष्कम्भमध्यभागात् पञ्चाशत् सहस्राणि द्वीपान्तो भवति, लक्षप्रमाणत्वाद द्वीपस्य, मेरुविष्कम्भस्य च दशसाहसिकत्वाद् द्वीपार्धे पञ्चसहस्रक्षेपेण पञ्चपञ्चाशदव भवतीति, इह च यद्यपि विजयद्वारस्य पश्चिमान्त इत्युक्तं तथापि जगत्याः पूर्वान्त इति किल सम्भाव्यते, मेरुमध्यात् पञ्चाशतो योजनसहस्राणां जगत्या बाह्यान्ते पूर्यमाणत्वात्, जम्बूद्वीपजगतीविष्कम्भेण च सह जम्बूद्वीपलक्षं पूरणीयम्, लवणसमुद्रजगतीविष्कम्भेण 15 च सह लवणसमुद्रलक्षद्वयमन्यथा द्वीपसमुद्रमानाजगतीमानस्य पृथग् गणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिक्ता स्यात्, सा हि पञ्चचत्वारिंशल्लक्षप्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयत, ततश्चैवमतिरिक्ता स्यादिति, अथवेह किञ्चिद्नापि पञ्चपञ्चाशत् पूर्णतया विवक्षितेति । अंतिमराइयंसि त्ति सर्वायु:कालपर्यवसानरात्रौ रात्रेर्वाऽन्तिमे भागे पापायां मध्यमायां नगर्यां हस्तिपालस्य राज्ञः करणसभायां कार्तिकमासामावास्यायां स्वातिना नक्षत्रेण 20 चन्द्रमसा युक्तेन नागे करणे प्रत्यूषसि पर्यकासननिषण्णः पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि कल्लाणफलविवागाइं ति कल्याणस्य पुण्यस्य कर्मणः फलं कार्यं विपाच्यते व्यक्तीक्रियते यैस्तानि कल्याणफलविपाकानि, एवं पापफलविपाकानि, व्याकृत्य प्रतिपाद्य सिद्धो बुद्धः, यावत्करणात् ‘मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुड़े सव्वदक्खप्पहीणे' १. "नके त्विदं लि जे१ ख० हे१.२ ।। २. मंदरस्येत्यादि जे१ खं० ११.२ ।। ३. भवंतीति ज? खं० ह।। ४. च नास्ति जेर ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ५६-५७] षट्पञ्चाशत्-सप्तपञ्चाशत्स्थानके। १४७ त्ति दृश्यम् । पढमेत्यादि, प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिरिति पञ्चपञ्चाशत। दंसणेत्यादि, दर्शनावरणीयस्य नव प्रकृतयो नाम्नो द्विचत्वारिंशत् आयुषश्चतस्र इत्येवं पञ्चपञ्चाशदिति ।।५५|| [सू० ५६] जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पण्णं नक्खत्ता चंदेण सद्धिं जोगं जोएंसु 5 वा जोएंति वा जोइस्संति वा । विमलस्स णं अरहतो छप्पण्णं गणा छप्पण्णं गणहरा होत्था । [टी०] अथ षट्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते । जंबुद्दीवेत्यादि, तत्र चन्द्रद्वयस्य प्रत्येकमष्टाविंशतेर्भावात् षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि भवन्ति । विमलस्येह षट्पञ्चाशद् गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु सप्तपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति ।।५६।। 10 [सू० ५७] तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियवजाणं सत्तावण्णं अज्झीणा पण्णत्ता, तंजहा- आयारे सूतगडे ठाणे । ___ गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो वलयामुहस्स महापातालस्स बहह्मज्झदेसभाए एस णं सत्तावण्णं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं दओभासस्स केउकस्स य, संखस्स जुयकस्स य, 15 दयसीमस्स ईसरस्स य । मल्लिस्स णं अरहतो सत्तावण्णं मणपजवनाणिसता होत्था । महाहिमवंत-रुप्पीणं वासधरपव्वयाणं जीवाणं धणुपट्टा सत्तावण्णं सत्तावण्णं जोयणसहस्साई दोण्णि य तेणउते जोयणसते दस य एकूणवीसतिभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ता । 20 [टी०] अथ सप्तपञ्चाशत्स्थानके किमपि लिख्यते । गणिपिडगाणं ति गणिन: आचार्यस्य पिटकानीव पिटकानि सर्वस्वभाजनानीति गणिपिटकानि, तेषाम्, आचारस्य श्रुतस्कन्धद्वयरूपस्य प्रथमाङ्गस्य चूलिका सर्वान्तिममध्ययन १ म्यता प० ५४० टि. ३ ।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टपञ्चाशत्स्थानकम् । विमुक्त्यभिधानमाचारचूलिका, तद्वर्जानाम्, तत्राऽऽचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे नवाध्ययनानि, द्वितीये षोडश, निशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात. षोडशानां मध्ये एकस्याचारचूलिकेति परिहृतत्वात् शेषाणि पञ्चदश, सूत्रकृते द्वितीयाङ्गे प्रथमश्रुतस्कन्धे षोडश, द्वितीये सप्त, स्थानाङ्गे दशेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति । 5 गोथभेत्यादौ भावार्थोऽयम्- द्विचत्वारिंशत् सहस्राणि वेदिका-गोस्तुभपर्वतयोरन्तरम्. सहस्रं गोस्तुभस्य विष्कम्भः, द्विपञ्चाशद् गोस्तुभ-वडवामुखयोरन्तरम्. दशसहस्रमानत्वाद्वडवामुखविष्कम्भस्य तदर्द्धं पञ्चेति ततो द्विपञ्चाशतः पञ्चानां च मीलने सप्तपञ्चाशदिति। जीवाणं धणुपट्ठ त्ति । मण्डलखण्डाकार क्षेत्रम्. इह सूत्रे संवादगाथार्द्धम्- सत्तावन्न सहस्सा धणुं पि तेणउय दसय दस य कल [बृहत्क्षेत्र० ५७] त्ति 10 ।।५७|| [सू० ५८] पढम-दोच्च-पंचमासु तीसु पुढवीसु अट्ठावण्णं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ___ नाणावरणिज्जस्स वेयणिय[स्स] आउय[स्स] नाम[स्स] अंतराइयस्स य एतेसि णं पंचण्हं कम्मपगडीणं अट्ठावण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । 15 गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं अट्ठावण्णं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं पि नेतव्वं । [टी०] अष्टपञ्चाशत्स्थानकेऽपि किमपि लिख्यते । पढमेत्यादि तत्र प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिः पञ्चम्यां त्रीणीति सर्वाण्यष्टपञ्चाशदिति । 20 नाणेत्यादि, तत्र ज्ञानावरणस्य पञ्च वेदनीयस्य द्वे आयुषश्चतम्रो नाम्नो द्विचत्वारिंशत् अन्तरायस्य पञ्चेति सर्वा अष्टपञ्चाशदत्तरप्रकृतयः । गोथुभस्सेत्यादि, अस्य च भावार्थ: पूर्वोक्तानुसारेणावसेयः । एवं चउद्दिसिं पि नेयव्वं ति अनेन सूत्रत्रयमतिदिष्टम् . तच्चैवम्- 'दओभासस्स णं आवासपव्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ केउगस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभागे एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतर Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५९-६० एकोनषष्टि-षष्टिस्थानके । १४९ पन्नत्ते. एवं संखस्स आवासपव्वयस्स पुरत्थि मिल्लाओ चरिमंताओ जूयगस्स महापातालस्स, एवं दगसीमस्स आवासपव्वयस्स दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ ईसरस्स महापायालस्स' त्ति ।।५८।। [सू० ५९] चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उदू एगूणसहिँ रातिदियाणि रातिदियग्गेणं पण्णत्ते । संभवे णं अरहा एकूणसटुिं पुव्वसतसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे जाव पव्वतिते । मल्लिस्स णं अरहतो एगूणसटुिं ओहिण्णाणिसता होत्था । [टी०] अथैकोनषष्टिस्थानके लिख्यते । संदस्व निचादि, संवत्सरो ह्यनेकविधः स्थानाङ्गादिषूक्तः, तत्र यश्चन्द्रगतिमङ्गीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव, तत्र ! च द्वादश मासा: षट् च ऋतवो भवन्ति, तत्र चैकैकत्रतोरेकोनषष्टी रात्रिंदिवानां रात्रिंदिवाग्रेण भवति, कथम् ?, एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि द्वात्रिशच्च द्विष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाण: कृष्णप्रतिपदारब्धः पौर्णमासीपरिनिष्ठितः चन्द्रमासो भवति, द्वाभ्या च ताभ्यामतुर्भवति, तर एकोनषष्टि. अहोरात्राण्यसौ भवति, यच्चेह द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तन्न विवाक्षतम् । सम्भवम्कोनषष्टिः पूर्वलक्षाणि गृहस्थपर्याय इहोक्तः, आवश्यके तु चतुःपूर्वागाधिका सोक्तति ।।५९।। [सू० ६०] एगमेगे णं मंडले सूरिए सट्ठीए सट्ठीए मुहुत्तेहिं संघाएइ । लवणस्स णं समुद्दस्स सहिँ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति । विमले णं अरहा सर्व्हि धणूइं उडुंउच्चत्तेणं होत्था । बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स सर्व्हि सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो । बंभस्स णं देविंदस्स देवरणो सहिँ सामाणियसाहस्सीतो पणत्तातो । सोहम्मीसाणेसु दासु कप्पेसु सढि विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । टी०] अथ षष्टिस्थानकम्, तत्र एगमेगेत्यादि, चतुरशीत्यधिकशताख्यानां १. जयस्स २ ।। २. “पण्णरस संयसहस्सा कुमारवासो अ संभवजिणस्स । चोआलीस रज चउरंग चेव बोद्धव्वं ।। ७९॥” इति आवश्यकनियुक्तो । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गस्त्र एकषष्टिस्थानकम् । सूर्यमण्डलानामेकैकं मण्डलं तथाविधमार्गभूमिं सूर्यः षष्ट्या षष्ट्या मुहत्तैः द्वाभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामित्यर्थः सङ्घातयति निष्पादयति, अयमत्र भावार्थ:- एकस्मिन्नहनि यत्र स्थाने उदितः सूर्यस्तत्र स्थाने पुनाभ्यामहोरात्राभ्यामुदेतीति । अग्गोदयं ति षोडशसहस्रोच्छिताया वेलाया यदुपरि गव्यूतद्वयमानं वृद्धिहानिस्वभावं तदग्रोदकम् । 5 बलिरस त्ति औदीच्यस्य असुरकुमारनिकायराजस्य । बंभस्स त्ति ब्रह्मलोकाभिधान आलोकेन्द्रस्य । सट्ठि त्ति सौधर्मे द्वात्रिंशदीशाने चाष्टाविंशतिर्विमानलक्षाणीति कृत्वा पाटिस्तानि भवन्तीति ।।६०।। [सू० ६१] पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिदुमासेणं मिजमाणस्स एगसटुिं उदुमासा पण्णत्ता । 10 मंदरस्स णं पव्वतस्स पढमे कंडे एगसटुिं जोयणसहस्साई उडेउच्चत्तेणं पण्णत्ते । चंदमंडले णं एगसट्ठिविभागभतिए समंसे पण्णत्ते । एवं सूरस्स वि । [टी०] अथ एकषष्टिस्थानकम्, तत्र पञ्चेत्यादि, पञ्चभिः संवत्स निर्वृत्तमिति पञ्चसांवत्सरिकम्, तस्य, णमित्यलङ्कारे, युगस्य कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन 15 न चन्द्रादिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः ऋतुमासा: प्रज्ञप्ता:, इह चायं भावार्थ: युगं हि पञ्च संवत्सरा निष्पादयन्ति, तद्यथा- चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्द्धितः चन्द्रोऽभिवर्धितश्चेति, तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच्च द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाणेन २९ ३० कृष्णप्रतिपदारब्धेन पौर्णमासीनिष्ठितेन चन्द्रमासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदम्- त्रीणि शतान्यह्नां चतुष्पञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिभागा दिवसस्य 20 ३५४६२ , तथा एकत्रिंशद् दिवसा एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येत्येवंप्रमाणोऽभिवर्द्धितमासो भवति, ३१ ४, एतेन च मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो भवति, स च 'प्रमाणेन त्रीणि शतान्यह्नां त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३८३ ६२ । तदेवं त्रयाणां १. प्रमाणत: जे? हे१.२ । प्रमाणत जे२ ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ (म० ६२ द्विषष्टिस्थानकम् । चन्द्रसंवत्सराणां द्वयोश्चाभिवर्द्धितसंवत्सरयोरेकीकरणे जातानि दिनानाम् अष्टादश शतानि त्रिंशदत्तराणि १८३०, ऋतुमासश्च त्रिंशताऽहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता भागहारे लब्धा एकषष्टिः ऋतुमासा इति । मंदरस्सेत्यादि, इह मेरुर्नवनवतियोजनसहस्रप्रमाणो द्विधा विभक्तः, तत्र प्रथमो भाग एकषष्टिः सहस्राण्युक्तः, द्वितीयस्तु अष्टत्रिंशत्स्थानकेऽष्टत्रिंशदिति, क्षेत्रसमासे तु 5 कन्देन सह लक्षप्रमाणस्त्रिधा विभक्तः, तत्र प्रथमं काण्डं सहस्रं द्वितीयं त्रिषष्टिस्तृतीय षट्त्रिंशदिति । चंदमंडले इत्यादि चन्द्रमण्डलं चन्द्रविमानं णमित्यलकृतौ एगसट्ठि त्ति योजनस्यैकषष्टितमैर्भागैर्विभाजितं विभागैर्व्यवस्थापितं समांशं समविभागं प्रज्ञप्तम्, न विषमांशम्, योजनस्यैकषष्टिभागानां षट्पञ्चाशद्भागप्रमाणत्वात् तस्यावशिष्टस्य च भागभागस्याविद्यमानत्वादिति । एवं सूरस्स वि त्ति एवं सूर्यस्यापि मण्डलं 10 वाच्यम्, अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागमानं हि तत्, न चापरमंशान्तरं तस्याप्यस्तीति समांशतेति ।।६।। [सू० ६२] पंचसंवच्छरिए णं जुगे बावडिं पुण्णिमातो बावहिँ अमावासातो [पण्णत्तातो] । वासुपुजस्स णं अरहतो बावढि गणा बावढि गणहरा होत्था । 15 सुक्कपक्खस्स णं चंदे बावडिं बावहिँ भागे दिवसे दिवसे परिवहति, ते चेव बहुलपक्खे दिवसे दिवसे परिहायति । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए बावटिं बावदि विमाणा पण्णत्ता । सव्वे वेमाणियाणं बावढेि विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं पण्णत्ता । 20 ___ [टी०] अथ द्विषष्टिस्थानकम्, पंचेत्यादि, तत्र युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, तेषु षत्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति, द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ भवतः, तत्र चाभिवर्द्धितसंवत्सरस्त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैर्भवतीति तयोः षड्विंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्ति इत्येवममावास्या अपीति । वासुपूज्यस्येह द्विषष्टिर्गणा गणधराश्चोक्ता १. अत्र दृश्यता पृ० १३१ पं० १८ ।। २. तस्य च भागभागस्या' ख० जे१ ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे आवश्यके तु षट्षष्टिरुक्तेति मतान्तरमिदमपीति । सुक्कपक्खस्सेत्यादि, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धी चन्द्रो द्विषष्टिं भागान् प्रतिदिनं वर्द्धते, एवं कृष्णपक्षे चन्द्रः परिहीयते, अयं चार्थः सूर्यप्रज्ञप्त्यामप्युक्तः, तथाहिकिण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ।। बावटुिं बावठिं दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स । जं परिवहइ चंदो खवेइ तं चेव कालेणं ।। पन्नरसइभागेण य चंदं पण्णरसमेव तं वरइ । पण्णरसहभागेण य पुणो वि तं चेव वक्कमइ ।। 10 एवं वड्डइ चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हा वा एयणुभावेण चंदस्स ॥ [सूर्यप्र० १९] तथा तत्रैवोक्तम् - सोलस भागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं । तेत्तियमेत्ते भागे पुणो वि परिवहुई जोण्हं ।। [ज्योतिष्क० १११] ति । 15 तदेवं भणितद्वयानुसारेणानुमीयते यथा चन्द्रमण्डलस्य एकत्रिंशदुत्तर नवशतभागविकल्पितस्य एकोऽशोऽवस्थित एवास्ते, शेषाः प्रतिदिवसं द्विषष्टिं द्विषष्टिं कृत्वा वर्द्धन्ते, ततः पञ्चदशे चन्द्रदिने सर्वे समुदिता भवन्ति, पुनस्तथैव हीयन्ते पञ्चदशे दिने एकावशेषा भवन्तीति वचनद्वयसामर्थ्यलभ्यं व्याख्यानमेतत् । जीवाभिगमे तु 'बावडिं बावहिँ' गाहा तथा ‘पन्नरसतिभागेणं' गाहा एते गाथे इत्थं व्याख्याते – 20 बावहिँ बावहिँ इत्यत्र द्विषष्टिर्द्विषष्टि गानां दिवसे दिवसे च प्रत्यहमित्यर्थः, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धिनि, यत् परिवर्द्धते चन्द्रश्चतुर: साधिकान् द्विषष्टिभागान्, क्षपयति तदेव कालेन, एतदेवाह- पन्नरस इत्यादिना, चन्द्रविमानं द्विषष्टिभागान क्रियते ततः १. दृश्यतामत्र पृ०१४० टि०३ ।। २. द्विषष्टिभागान् जे१ख०११ ।। ३. इमाश्चतस्रो गाथाः सूर्यप्रज्ञप्तौ एकोनविंशतितमे प्राभत सन्ति । तत्र च 'कालो वा जोण्हो वा' इति पाठः । प्रागपि उद्धृतयं गाथा ज्योतिष्करण्डकात्, दृश्यता पृ० ६० ५० ६ टि० २ ।। किन्तु तथा तत्रैवोक्तम्' इति पाठेन अत्र सूर्यप्रज्ञप्तः प्रकृतत्वात् सूर्यप्रजप्तावेव उक्तम्' इत्यर्थः सूच्यते, किन्तु सूर्यप्रज्ञप्तौ चन्द्रप्रज्ञप्तौ वा नेय गाथा कुत्रापि समुपलभ्यते ।। ४. दृश्यतां पृ०६० टि०२।। ५. व्याख्यायेते हे२ ।। ६. द्विषष्टिर्द्विषष्टिभागानां जे१ । द्विषष्टि गानां खं० । द्विषष्टिभागानां हे१.२। (द्विषष्टि दिष्टि भागानां ?) || Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ६३ द्विषष्टिस्थानकम् । १५३ पञ्चदशभिभांगोऽपह्रियते ततश्चत्वारो भागा: समधिका द्विषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, अत उच्यते- पञ्चदशभागेन चोक्तलक्षणेन चन्द्रमधिकृत्य पञ्चदशैव दिवसांस्तद्राहविमानं चरति, एवमपक्रामतीत्यपि भावनीयमिति, अत्रास्माभिर्यथादृष्टे लिखिते उपनीते बहुश्रुतैर्निर्णय: कार्य इति । सोहम्मीत्यादि, तत्र सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति, सनत्कुमार- 5 माहेन्द्रयोदश, ब्रह्मलोके षट्, लान्तके पञ्च, शुक्रे चत्वारः, एवं सहस्रारे, आनत-प्राणतयोश्चत्वारः, एवमारणा-ऽच्युतयोः, ग्रैवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः त्रयः, अनुत्तरेष्वेक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति । एतेषां च मध्यभागे प्रत्येकमुडुविमानादिकाः सर्वार्थसिद्धविमानान्ता वृत्तविमानरूपा द्विषष्टिरेव विमानेन्द्रका भवन्ति, तत्पार्श्वतश्च पूर्वादिषु दिक्षु त्र्यम्र-चतुरस्र-वृत्तविमानक्रमेण विमानानामावलिका भवन्ति, तदेवं 10 सौधर्मेशानयो: कल्पयो: प्रथमे प्रस्तटे सर्वाधस्तन इत्यर्थ: पढमावलियाए त्ति प्रथमा उत्तरात्तरावलिकापेक्षया आद्याश्चतस्र आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकस्तत्र, अथवा प्रथमात् मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य याऽऽवलिका विमानानुपूर्वी तया, अथवोत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा आद्यावलिका तस्याम्, पढमावलिय त्ति पाठान्तरे तु उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया या एकै कस्यां दिशि 15 प्रथमावलिका सा द्विषष्टिर्द्विषष्टिर्विमानानि प्रमाणेन प्रज्ञप्तेति, एगमेगाए त्ति उडुविमानाभिधानदेवेन्द्रकापेक्षया एकैकस्यां पूर्वादिकायां दिशि द्विषष्टिर्द्विषष्टिविमानानि प्रज्ञप्तानि, द्वितीयादिषु पुनः प्रस्तटेषु एकैकहान्या विमानानि भवन्ति यावद् द्विषष्टितमेऽनुत्तरसुरप्रस्तटे सर्वार्थसिद्धदेवेन्द्रकस्य पार्श्वत एकैकमेव भवतीति, तथा सव्वे त्ति सर्वे वैमानिकानां देवविशेषाणां सम्बन्धिनो द्विषष्टिविमानप्रस्तटा 20 विमानप्रतरा: प्रस्तटाग्रेण प्रस्तटपरिमाणेन प्रज्ञप्ता इति ।।६२॥ [सू० ६३] उसभे णं अरहा कोसलिए तेवढेि पुव्वसतसहस्साई महारायवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वइते । १. यावदावलिका जे१ । यावआवलिका खं०॥ २. द्विषष्टिवि' हे२ विना ।। ३. एगमेगाए इत्ति जे१.२ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिषष्टि-चतुःषष्टिस्थानके । हरिवास-रम्मयवासेसु मणूसा तेवठ्ठीए रातिदिएहिं संपत्तजोव्वणा भवंति। निसढे णं पव्वते तेवहिँ सूरोदया पण्णत्ता । एवं नीलवंते वि ।। [टी०] अथ त्रिषष्टिस्थानकम्, तत्र संपत्तजोव्वण त्ति मातापितपरिपालनानपेक्षा इत्यर्थः । निसहे णमित्यादि, किल सूर्यमण्डलानां चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां 5 मध्यात् जम्बूद्वीपस्य पर्यन्तिमे अशीत्युत्तरे योजनशते पञ्चषष्टिर्भवति, तत्र च निषधवर्षधरपर्वतस्योपरि नीलवद्वर्षधरस्य चोपरि त्रिषष्टिः सूर्योदया: सूर्योदयस्थानानि सूर्यमण्डलानीत्यर्थः, तदन्ये तु द्वे जगत्या उपरि, शेषाणि तु लवणे त्रिषु त्रिंशदधिकेषु योजनशतेषु भवन्तीति भावार्थः ।।६३।। [सू० ६४] अट्ठट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए रातिदिएहिं दोहि य 10 अट्ठासीतेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव भवति । चउसद्धिं असुरकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । चमरस्स णं रण्णो चउसद्धिं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो । सव्वे वि णं दधिमुहपव्वया पल्लासंठाणसंठिता सव्वत्थ समा विक्खंभुस्सेहेणं चउसद्धिं चउसद्धिं जोयणसहस्साई पण्णत्ता । 15 सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य तीसु कप्पेसु चउसटैि विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ___ सव्वस्स वि य णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउसट्ठीलठ्ठीए महग्घे मुत्तामणिमए हारे पण्णत्ते । [टी०] अथ चतुःषष्टिस्थानकम्, अद्वेत्यादि, अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां साऽष्टाष्टमिका, यस्यां हि अष्टौ दिनाष्टकानि भवन्ति तस्यामष्टावष्टमानि भवन्त्येवेति, भिक्षुप्रतिमा अभिग्रहविशेषः, अष्टावष्टकानि यतोऽसौ भवत्यतश्चतुःषष्ट्या रात्रिंदिवैः सां पालिता भवति, तथा प्रथमेऽष्टके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा, एवं द्वितीये द्वे द्वे, यावदष्टमे अष्टावष्टाविति सङ्कलनया द्वे शते भिक्षाणामष्टाशीत्यधिके भवतः, अत उक्तम् 20 १. दिनानि साऽष्टाष्टमिका यस्यां हि ख० । दिनानि यस्यां हि जे१.२ ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६५] पञ्चषष्टिस्थानकम् । १५५ द्वाभ्यां चेत्यादि, यावत्करणात् ‘अहाकप्पं अहामगं फासिया पालिया सोभिया तीरिया कित्तिया सम्म आणाए आराहिया यावि भवती' ति दृश्यम् । सव्वे वि णमित्यादि इतोऽष्टमे नन्दीश्वराख्ये द्वीपे पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारोऽञ्जनकपर्वता भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु चतस्रः पुष्करिण्यो भवन्ति, तासां च मध्यभागेषु प्रत्येकं दधिमुखपर्वता भवन्ति, ते च षोडश पल्यकसंस्थानसंस्थिताः, यतः सर्वत्र समा 5 विष्कम्भेण, मूलादिषु दशसहस्रविष्कम्भत्वात्तेषाम्, क्वचित्तु विक्खंभुस्सेहेणं ति पाठस्तत्र तृतीयैकवचनलोपदर्शनाद्विष्कम्भेणेति व्याख्येयम्, तथा उत्सेधेनोच्चत्वेन चतुःषष्टिश्चतुःषष्टिरिति । सोहम्मेत्यादि, सौधर्मे द्वात्रिंशदीशानेऽष्टाविंशतिः ब्रह्मलोके च चत्वारि विमानलक्षाणि भवन्तीति सर्वाणि चतुःषष्टिरिति । चउसट्ठिलट्ठीए त्ति चतुःषष्टिर्यष्टीनां सरीणां यस्मिन्नसौ चतुःषष्टियष्टिकः, मुत्तामणिमये त्ति मुक्ताश्च 10 मुक्ताफलानि मणयश्च चन्द्रकान्तादिरत्नविशेषाः, मुक्तारूपा वा मणयो रत्नानि मुक्तामणयः, तद्विकारो मुक्तामणिमय: ।।६४|| [सू० ६५] जंबुद्दीवे णं दीवे पणसर्व्हि सूरमंडला पण्णत्ता । थेरे णं मोरियपुत्ते पणसद्धिं वासाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वतिते । 15 सोहम्मवडेंसयस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणसहिँ पणसहिँ भोमा पण्णत्ता । [टी०] अथ पञ्चषष्टिस्थानकम्, तत्र मोरियपुत्ते णं ति मौर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गणधरस्तस्य पञ्चषष्टिर्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, आवश्यकेऽप्येवमेवोक्तः, नवरमेतस्यैव यो बृहत्तरो भ्राता मण्डिकपुत्राभिधानः षष्ठगणधरः तद्दीक्षादिन 20 एव प्रव्रजितस्तस्याऽऽवश्यके त्रिपञ्चाशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय उक्तो न च बोधविषयमुपगच्छति यतो बृहत्तरस्य पञ्चषष्टियुज्यते लघुतरस्य त्रिपञ्चाशदिति । सोहम्मेत्यादि, सौधर्मावतंसकं विमानं सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभागवर्ति शक्रनिवासभूतम, एगमेगाए बाहाए त्ति एकैकस्यां दिशि प्राकाराभ्यर्णवर्तीनि १. दृश्यता पृ० ५३९ टि० ४ ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे षट्षष्टिस्थानकम् । भौमानि नगराकाराणि विशिष्टस्थानानीत्येके ||६५|| [सू० ६६] दाहिणड्ढमणुस्सखेत्ता णं छावट्ठि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, छावट्ठि सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा तवइस्संति वा । उत्तरड्ढमणुस्सखेत्ता णं छावट्ठि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति 5 वा । छावट्ठि सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा तवइस्संति वा । सेज्जंसस्स णं अरहतो छावट्ठि गणा छावट्ठि गणहरा होत्था | आभिणिबोहियनाणस्स णं उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । [टी०] अथ षट्षष्टिस्थानकम्, तत्र दाहिणेत्यादि, मनुष्यक्षेत्रस्यार्द्धमर्द्धमनुष्यक्षेत्रं दक्षिणं च तत्तच्चेति दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रम्, तत्र भवा दाक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्राः, 10 णमित्यलङ्कारे, षट्षष्टिश्चन्द्राः प्रभासितवन्त: प्रभासनीयम्, अथवा लिङ्गव्यत्ययाद् दक्षिणानि यानि मनुष्यक्षेत्राणामर्द्धानि तानि तथा, तानि प्रकाशितवन्तः, पाठान्तर दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रे प्रभासनीयं प्रभासितवन्तः, ते च एवम् - द्वौ जम्बूद्वीपे चन्द्रौ चत्वारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीखण्डे द्विचत्वारिंशत् कालोदसमुद्रे द्विसप्ततिश्च पुष्करार्धे, सर्वे चैते द्वात्रिंशदधिकं शतम्, एतदर्द्धं च षट्षष्टिर्दक्षिणपङ्क्तौ स्थिताः 15 षट्षष्टिश्चोत्तरपङ्क्तौ, यदा चोत्तरपङ्क्तिः पूर्वस्यां गच्छति तदा दक्षिणा पश्चिमायामिति, एवं सूर्यसूत्रमप्यवसेयमिति । छावट्ठि गण त्ति आवश्यके तु षट्सप्ततिरभिहितेतीदं च मतान्तरमिति । छावट्ठी सागरोवमाई ठिइ त्तिं यच्चातिरिक्तं तदिह न विवक्षितम्, यत एवमिदमन्यत्रोच्यते • २ दो वारे विजयाइ यस्स तिन्नऽच्चुए अहव ताई । १. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ । २. इह कश्चित् साधुर्मत्यादिज्ञानान्वितो देशोनां पूर्वकाटों यावत् प्रव्रज्या परिपाल्य विजय - वैजयन्त- जयन्ता ऽपराजितविमानानामन्यतरविमाने उत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणदेवायुरनुभूय पुनरप्रतिपतितमत्यादिज्ञान एव मनुजेषूत्पन्नो देशोनां पूर्वकोटीं प्रव्रज्यां विधाय तदैव विजयादिपूत्कृष्टमायुः संप्राप्य पुनरप्रतिपतितमत्यादिज्ञान एव मनुष्यो भूत्वा पूर्वकोटीं जीवित्वा सिद्ध्यतीति । एवं विजयादिषु वारद्वयं गतस्य: अथवाऽच्युतदेवलोके द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु देवेषु त्रीन् वारान् गतस्य तानि षट्षष्टिसागरोपमानि अधिकानि भवन्ति । अधिकं चेह नरभवसंबन्धि देशोनं पूर्वकोटित्रयं चतुष्टयं वा द्रष्टव्यम् । नानाजीवानां तु सर्वाद्धं सर्वकालं मतिज्ञानस्य स्थितिः । इति विशेषावश्यकभाष्यस्य मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म० ६७ सप्तषष्टिस्थानकम् । १५७ अरगं नरभवियं नाणाजीवाण सव्वद्ध ।। [विशेषाव० ४३६] ति ।।६६।। [सू० ६७] पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिज्जमाणस्स सत्तसढिं नक्खत्तमासा पण्णत्ता ।। हेमवतेरण्णवतियातो णं बाहातो सत्तसद्धिं सत्तसद्धिं जोयणसताइं पणपण्णाई तिण्णि य भागा जोयणस्स आयामेणं पण्णत्तातो । मंदरस्स णं पव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो गोयमदीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं सत्तसढि जोयणसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते। सव्वेसि पि णं नक्खत्ताणं सीमाविक्खंभे णं सत्तसटुिंभागभइते समंसे पण्णत्ते । 10 [टी०] अथ सप्तषष्टिस्थानके किञ्चिद्विवियते । तत्र पंचसंवेत्यादि, नक्षत्रमासो येन कालेन चन्द्रो नक्षत्रमण्डलं भुङ्क्ते, स च सप्तविंशतिरहोरात्राणि एकविंशतिश्चाहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः २७ , युगप्रमाणं चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानीति प्राक् दर्शितम् १८३०, तदेवं नक्षत्रमासस्योक्तप्रमाणराशिना दिनसप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापितेन त्रिंशदत्तराष्टादशशतप्रमाणेन युगदिनप्रमाणराशि: सप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापित एकं लक्षं 15 द्वाविंशतिः सहस्राणि षट शतानि दश चेत्येवंरूपो विभज्यमानः सप्तषष्टिनक्षत्रमासप्रमाणो भवतीति । बाहाओ त्ति लघुहिमवज्जीवाया: पूर्वापरभागतो ये प्रवर्द्धमानक्षेत्रप्रदेशपङ्क्ती हैमवतवर्षजीवां यावत्ते हैमवतबाहू उच्यते एवमैरण्यवतबाहू अपि भावनीयौ, इह प्रमाणसंवाद:- बाहा सत्तट्टिसए पणपन्ने तिण्णि य कलाओ (बृहत्क्षेत्र० ५५] त्ति, कला एकोनविंशतिभागः, एतच्च बाहुप्रमाणं हैमवतधनु:पृष्ठात् चत्ताला सत्त सया अडतीससहस्स 20 दस कला य धणु [बृहत्क्षेत्र० ५५] त्ति एवंलक्षणात् ३८७४०१० हिमवद्धनुःपृष्ठे धणुपट्ट कलचउक्कं पणुवीससहस्स दुसय तीसहिय [बृहत्क्षेत्र० ५३] त्ति एवंलक्षणे २५२३० ई. अपनीते यच्छेषं तदर्भीकृतं सद्भवतीति, आयामेन दैर्येणेति । मंदरस्सेत्यादि, मेरो: पूर्वान्ताज्जम्बूद्वीपोऽपरस्यां दिशि जगतीबाह्यान्तपर्यवसानः १. दृश्यतां परिशिष्ट पृ०.८ पं० २७ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चपञ्चाशद्योजनसहस्राणि तावदस्ति, ततः परं द्वादशयो जनसहस्राण्यतिक्रम्य लवणसमुद्रमध्ये गौतमद्वीपाभिधानो द्वीपोऽस्ति तमधिकृत्य सूत्रार्थः संभवति, पञ्चपञ्चाशतो द्वादशानां च सप्तषष्टित्वभावात्, यद्यपि सूत्रपुस्तकेषु गौतमशब्दो न दृश्यते तथाप्यसौ दृश्यः, जीवाभिगमादिषु लवणसमुद्रे गौतम-चन्द्र-रविद्वीपान् विना 5 द्वीपान्तरस्याश्रूयमाणत्वादिति । सव्वेसि पि णमित्यादि, सर्वेषामपि णमित्यलकारे नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः पूर्वापरतश्चन्द्रस्य नक्षत्रभुक्तिक्षेत्रविस्तार: नक्षत्रेणाहोरात्रभोग्यक्षेत्रस्य सप्तषष्ट्या भागैर्भाजितो विभक्तः समांश: समच्छेदः प्रज्ञप्तः, भागान्तरेण तु भज्यमानस्य नक्षत्रसीमाविष्कम्भस्य विषमच्छेदता भवति, भागान्तरण न भक्तुं शक्यते इत्यर्थः, तथाहि- नक्षत्रेणाहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य 10 सप्तषष्टिभागीकृतस्यैकविंशतिर्भागा अभिजिन्नक्षत्रस्य क्षेत्रतः सीमाविष्कम्भो भवति. एतावति क्षेत्रे चन्द्रेण सह तस्य योगो व्यपदिश्यत इत्यर्थः, तथा तस्यामेवैकविंशतौ त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्य त्रिंशता गुणितायां ६३० सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तत् कालसीमा भवति, चन्द्रेण सह तस्य योगकाल इत्यर्थः, सा च नव मुहूर्ताः सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा: ९ । आह च15 अभिइस्स चंदजोगो सत्तटिं खंडिए अहोरत्ते । भागा उ एक्कवीसं क्षेत्रतः होतऽहिगा नव मुहत्ता य ।। [ज्योतिष्क० १६२] त्ति कालतः । तथा शतभिषग्-भरण्याा -ऽऽश्लेषा-स्वाति-ज्येष्ठानां त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागास्तद्भागार्द्धं च क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यामेव सार्द्धत्रयस्त्रिंशति त्रिंशता गुणितायां १००५ सप्तषष्ट्या हतभागायां यल्लब्धं तदेषां कालसीमा, तच्च पञ्चदश १. "अभिजित: अभिजिन्नक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योग: सप्तषष्टिखण्डितः सप्तषष्टिप्रविभागीकृतो योऽहोरात्रस्तस्य सत्का ये एकविंशतिर्भागास्तावन्तं कालं भवति, ते चैकविंशतिः सप्तष्टिभागाः परिभाव्यमाना नव मुहर्ताः अधिका: सप्तविंशतिसप्तषष्टिभागाधिका भवन्ति । तथाहि- सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्का ये एकविंशतिर्भागास्ते मुहर्तगतभागकरणार्थं त्रिशता गुण्यन्ते जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०. तषा सप्तषष्ट्या भाग हृत लब्धा नव मुहर्ताः, एकस्य च मुहर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति ।।१६२।।" इति ज्योतिष्करण्डस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। २. होति हिगा ख० जे५ ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ (सू० ६८ सप्तषष्टि-अष्टषष्टिस्थानके । मुहूर्ताः, आह च सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ।। [जम्बू० प्र० ७।१६०] इति । तथोत्तरात्रय-पुनर्वसु-रोहिणी-विशाखानां सप्तषष्टिभागानां शतं तद्भागार्द्धं च क्षेत्रविष्कम्भ: सीमा भवति, तथा तस्मिन्नेव त्रिंशद्गुणिते ३०१५ तथैव हृतभागे यल्लब्धं 5 तदेषां कालसीमा भवति, सा च पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्ता इति, आह च तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा ।। [जम्बू० प्र० ७।१६० ] इति । शेषाणां पञ्चदशानां नक्षत्राणां सप्तषष्टिरेव सप्तषष्टिभागानां क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यां च तथैव गुणितायां २०१० हृतभागायां च यल्लब्धं तत् कालसीमा, तच्च त्रिंशन्मुहर्ताः, आह 10 च अवसेसा नक्खत्ता पन्नरस वि होति तीसइमुहुत्ता । चंदस्स तेहिं जोगो समासओ एस वक्खामि ।। [ज्योतिष्क० १६५] एवं चैकस्य षण्णां षण्णां पञ्चदशानां चेत्येवमष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि सप्तषष्टिभागानामेतदेव द्विगुणं षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां भवति, तच्च सहस्रत्रयं 15 षट् शतानि षष्ट्यधिकानि ३६६० ॥६७।। _[सू० ६८] धायइसंडे णं दीवे अट्ठसद्धिं चक्कवट्टिविजया अट्ठसढिं रायधाणीतो पण्णत्ताओ । उक्कोसपदे अट्ठसर्व्हि अरहंता समुप्पजिंसु वा समुप्पजंति वा समुप्पज्जिस्संति वा । एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा । पुक्खरवरदीवड्ढे णं अट्ठसहिँ विजया एवं व जाव वासुदेवा । 20 विमलस्स णं अरहतो अट्ठसट्टि समणसाहस्सीतो उक्कोसिया समणसंपदा होत्था । १. दृश्यता परिशिष्टे पृ० ८२ पं०१५ ।। २. टीका- अवशेषाणि श्रवण-धनिष्ठाप्रभृतीनि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर्येण सह गतानि यान्ति त्रयोदश समान् परिपूर्णानहोरात्रान् द्वादश च मुहर्लान् यावत् । तथाहि- अमूनि परिपूर्णान सप्तषष्टिभागान चन्द्रेण समं व्रजन्ति, ततः सूर्येण सह एतानि पञ्चभागानप्यहोरात्रस्य सप्तषष्टिसंख्यान् गच्छन्ति, सप्तषष्टेश्च पञ्चभिर्भाग हृते लब्धास्रयोदशाहोरात्राः, शेषौ च द्वौ भागौ तिष्ठतः, तौ त्रिंशता गुण्येते जाता षष्टिः, तस्याः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धा द्वादश मुहूर्ता इति ॥१६५॥” इति ज्योतिष्करण्डकस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकोनसप्ततिस्थानकम् । टी०] अथाष्टषष्टिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, धायइसंडे इत्यादि, इह यदुक्तम् एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव त्ति तत्र यद्यपि चक्रवर्तिनां वासुदेवानां वा नैकदा अष्टषष्टिः सम्भवति यतो जघन्यतोऽप्ये कै कस्मिन् महाविदेहे चतुर्णां चतुर्णा तीर्थकरादीनामवश्यं भावः स्थानाङ्गादिष्वभिहितः, न चैकत्र क्षेत्रे चक्रवर्ती 5 वासुदेवश्चैकदा भवतोऽतः षष्टिरेवोत्कर्षतश्चक्रवर्त्तिनां वासुदेवानां चाष्टषष्ट्यां विजयेषु भवति तथापीह सूत्रे एकसमयेनेत्यविशेषणात् कालभेदभाविनां चक्रवर्त्यादीनां विजयभेदेनाष्टषष्टिरविरुद्धा, अभिलप्यन्ते च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां भारत-काच्छाद्यभिलापेन चक्रवर्त्तिन इति ।।६८|| [सू० ६९] समयखेत्ते णं मंदरवजा एकूणसत्तरिं वासा वासधरपव्वता 10 पण्णत्ता, तंजहा- पणतीसं वासा, तीसं वासहरा, चत्तारि उसुयारा । मंदरस्स पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोतमद्दीवस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं एकूणसत्तरि जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । मोहणिजवजाणं सत्तण्हं कम्मपगडीणं एकूणसत्तरं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो। 15 [टी०] अथैकोनसप्ततिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, समयेत्यादि, मन्दरवर्जा मेरुवर्जाः, . वर्षाणि च भरतादिक्षेत्राणि वर्षधरपर्वताश्च हिमवदादयस्तत्सीमाकारिण: वर्ष वर्षधरपर्वता: समुदिता एकोनसप्ततिः प्रज्ञप्ताः, कथम् ?, पञ्चसु मेरुषु प्रतिबद्धानि सप्त सप्त भरत-हैमवतादीनि पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि तथा प्रतिमेरु षट् षट् हिमवदादयो वर्षधरास्त्रिंशत्तथा चत्वार एवेषुकारा इति सर्वसंख्यैकोनसप्ततिरिति । मंदरस्सेत्यादि, 20 लवणसमुद्रं पश्चिमायां दिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य द्वादशसहस्रमान: सुस्थिताभिधानस्य लवणसमुद्राधिपतेर्भवनेनालङ्कृतो गौतमद्वीपो नाम द्वीपोऽस्ति, तस्य च पश्चिमान्तो मेरो: पश्चिमान्तादेकोनसप्ततिः सहस्राणि भवन्ति, पञ्चचत्वारिंशतो १. 'संडेत्यादि हे२ विना ।। २. चतुर्णा तीर्थकरा' हे२ विना ।। ३. "जंबूदीवे दावे महाविदह वासे जहन्नपते चत्तारि अरहता चत्तारि चक्कवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उप्पजिस वा उप्पज्जति वा उप्पज्जिस्सति वा।।" इति स्थानाङ्गसूत्रे ४/२९९ ।। ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ तृतीये चतुर्थे च वक्षस्कारे द्रष्टव्यम् ।। ५. सहस्राणि भवति इति जसं२ मध्ये पत्रस्याधस्तानिर्दिष्टः पूरितः पाठः ॥ ६. भवंतीति जे१ ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७० सप्ततिस्थानकम् । १६१ जम्बूद्वीपसम्बन्धिनां द्वादशानामन्तरसम्बन्धिनां द्वादशानामेव द्वीपविष्कम्भसम्बन्धिनां च मीलनादिति । मोहनीयवर्जानां कर्मणामेकोनसप्ततिरुत्तरप्रकृतयो भवन्तीति कथम् ? ज्ञानावरणस्य पञ्च, दर्शनावरणस्य नव वेदनीयस्य द्वे, आयुषश्चतस्रः, नाम्नो द्विचत्वारिंशद्, गोत्रस्य द्वे, अन्तरायस्य पञ्चेति ।।६९|| [सू० ७०] समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसतिराते मासे वीतिकंते 5 सत्तरीए रातिदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसविते ।। पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तरिं वासाइं बहुपडिपुण्णाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । वासुपुज्जे णं अरहा सत्तरं धणूई उडुंउच्चत्तेणं होत्था । __ मोहणिजस्स णं कम्मस्स सत्तरं सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया 10 कम्मट्ठिती कम्मणिसेगे पण्णत्ते । माहिंदस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सत्तरि सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो। [टी०] अथ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, समणेत्यादि, वर्षाणां चतुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरात्रे विंशतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः, सप्तत्यां च रात्रिंदिवेषु शेषेषु, भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः, 15 वर्षास्वावासो वर्षावास: वर्षावस्थानं पज्जोसवेइ त्ति परिवसति सर्वथा करोति, पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविधवसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति । पुरिसादाणीए त्ति पुरुषाणामादानीय: उपादेयः पुरुषादानीयः । अबाहूणिया कम्मट्टिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते त्ति, इह किलात्मा अविशिष्टमेव कर्मपुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं 20 ज्ञानावरणीयादिकर्मणां स्वं स्वमबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिविभागतया अनाभोगिकेन वीर्येणोदयसहितं तद्दलिकं निषिञ्चति, उदययोग्यं रचयतीत्यर्थः, अतो द्विविधा स्थिति:- कर्मत्वापादनमात्ररूपा अनुभवरूपा च, यतः स्थितिः अवस्थानं तेन भावेनाप्रच्यवनम्, तत्र कर्मत्वापादनरूपां तामधिकृत्य सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः, १. भवंति जे२ ।। २. समेत्यादि जे२ || ३. सर्वथा वासं करोति हे२ ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सप्तवर्षसहस्रोनेति, तत्र अबाह त्ति किमुक्तं भवति ? बन्धावलिकाया आरभ्य यावत् सप्तवर्षसहस्राणि तावत् तत् कर्म न बाधते. नोदयं यातीत्यर्थः, ततोऽनन्तरसमये कर्मदलिकं पूर्वनिषिक्तम् उदये प्रवेशयति, निषेको नाम ज्ञानावरणादिकर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचना, तच्च प्रथमसमये बहकं निषिञ्चति 5 द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टस्थिति कर्मदलिक तावद्विशेषहीनं निषिञ्चति, तथा चोक्तम् मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसन्ति सव्वासिं ।। [कर्मप्र० ८३] ति । बाध लोडने [पा०धा० ५], बाधत इति बाधा कर्मण उदय इत्यर्थः, न बाधा अबाधा, 10 अन्तरं कर्मोदयस्येत्यर्थः, तया ऊनिका अबाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मनिषेको भवतीत्यवमेके प्राहुः, अन्ये पुनराहुः- अबाधाकालेन वर्षसहस्रसप्तकलक्षणेनोना कर्मस्थिति: सप्तसहस्राधिकसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणा, कर्मनिषेको भवति. स च कियान्? उच्यते- सत्तरं सागरोवमकोडाकोडीओ त्ति ।।७०।। [सू० ७१] चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइंदिएहिं 15 वीतिक्वंतेहिं सव्वबाहिरातो मंडलातो सरिए आउटिं करेति । वीरियपुव्वस्स णं पुव्वस्स एक्कसत्तरं पाहुडा पण्णत्ता । अजिते णं अरहा एक्कसत्तरं पुव्वसतसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते । एवं सगरे वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एक्कसत्तरं पुव्व जाव पव्वतिते । 20 [टी०] अथैकसप्ततिस्थानके लिख्यते किञ्चित्, चउत्थस्सेत्यादि, इह भावार्थोऽयम्- युगे हि पञ्च संवत्सरा भवन्ति, तत्राद्यौ चन्द्रसंवत्सरौ तृतीयोऽभिवर्द्धितसंवत्सरश्चतुर्थश्चन्द्रसंवत्सर एव, तत्र च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च द्विषष्टिभागैर्दिनस्य चन्द्रमासो भवति, अयं च द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरो भवति, त्रयोदशगुणश्चायमेवाभिवर्द्धितो भवति, ततश्चन्द्र-चन्द्रा-ऽभिवर्द्धितलक्षणे संवत्सरत्रये 25 दिनानां सहस्रं द्विनवतिः षट् च द्विषष्टिभागा भवन्ति १०९२ ६, तथा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ [सू० ७१] एकसप्ततिस्थानकम् । आदित्यसंवत्सरे दिनानां शतत्रयं षट्षष्टिश्च भवन्ति, तत्त्रितये च सहस्रमष्टनवत्यधिकं भवति, इह च किल चन्द्रयुगमादित्ययुगं चाषाढ्यामेकं पूर्यतेऽपरं च श्रावणकृष्णप्रतिपदि आरभ्यते, एवं चादित्ययुगसंवत्सरत्रयापेक्षया चन्द्रयुगसंवत्सरत्रयं पञ्चभिर्दिनैः षट्पञ्चाशता च दिनद्विषष्टिभागैरूनं भवतीति कृत्वा आदित्ययुगसंवत्सरत्रयं श्रावणकृष्णपक्षस्य चन्द्रदिषट्के साधिके पूर्यते चन्द्रयुगसंवत्सरत्रयं त्वाषाढ्याम्, ततश्च 5 श्रावणकृष्णपक्षसप्तमदिनादारभ्य दक्षिणायनेनादित्यश्चरन् चन्द्रयुगचतुर्थसंवत्सरस्य चतुर्थमासान्तभूतायामष्टादशोत्तरशततमदिनभूतायां कार्तिक्यां द्वादशोत्तरशततमे स्वकीयमण्डले चरति, ततश्चान्यान्येकसप्ततिर्मण्डलानि तावत्स्वेव दिनेषु मार्गशीर्षादीनां चतुर्णां हेमन्तमासानां सम्बन्धिषु चरति, ततो द्विसप्ततितमे दिने माघमासे बहुलपक्षत्रयोदशीलक्षणे सूर्य आवृत्तिं करोति, दक्षिणायनान्निवृत्त्योत्तरायणेन चरतीत्यर्थः, 10 उक्तं च ज्योतिष्करण्डके, पञ्चसु युगसंवत्सरेषूत्तरायणतिथयः क्रमेणैवं यदुतबहुलस्स सत्तमीए १ सूरो सुद्धस्स तो चउत्थीए २ । बहुलस्स य पाडिवर ३ बहुलस्स य तेरसीदिवसे ४ ।। सुद्धस्स य दसमीए ५ पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । १. क्रमेणैव जे१.२ हे२ ।। २. “पढमा बहुलपडिवए बिड़या बहुलस्स तेरसीदिवसे । सुद्धस्स य दसमीए बहुलस्सय सत्तमीए उ || २४७ || सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सव्वाओ सावणे मासे || २४८ || टीका - इह सूर्यस्य दशाऽऽवृत्तयो भवन्ति एतच्चानन्तरमेव भावितम् । तत्र पञ्चावृत्तयः श्रावणे मासं पञ्च माघमासे । तत्र याः श्रावणे मासे भवन्ति तासां मध्ये प्रथमा बहुलपक्षे प्रतिपदि १. द्वितीया बहुलस्य बहुलपक्षस्य सम्बन्धिनि त्रयोदशीरूपे दिवसे २, तृतीया शुद्धस्य शुक्लपक्षस्य दशम्याम् ३, चतुर्थी बहुलपक्षस्य सप्तम्याम् ४ शुद्धस्य शुक्लपक्षस्य चतुर्थ्यां प्रवर्त्तते पञ्चमी आवृति: ५ । एताः सर्वा अप्यावृत्तयः श्रावणे मासे वेदितव्याः || २४७-२४८।। साम्प्रतमता आवृत्तयो येन नक्षत्रेण युता भवन्ति तन्नक्षत्रनिरूपणार्थमाह- पढमा होड़ अभिइणा संठाणाहि य तहा विसाहाहिं । रेवतिए उ चउत्थी पुव्वाहिं फग्गुणीहि तहा ॥ २४९ ॥ टीका - श्रावणमासभाविनीनामन्तरोदितस्वरूपाणां पञ्चानामावृत्तीनां मध्ये प्रथमाऽऽवृत्तिरभिजिता नक्षत्रेण युता भवति, द्वितीया संठाणाहिं ति मृगशिरसा तृतीया विशाखाभिः, चतुर्थी रेवत्या, पञ्चमी पूर्वाफाल्गुनीभिः || २४९ || अधुना माघमासे भाविन्य आवृत्तयो यासु तिथिषु भवन्ति ता अभिदधाति बहुलस्स सत्तमीए पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए । बहुलस्स य पाडिवए बहुलस्स य तेरसीदिवसे ||२५|| सुद्धस्स य दसमीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सव्वाओ माघमासम्म ।। २५१ ।। टीका- माघमासे प्रथमाऽऽवृत्तिः बहुलस्य कृष्णपक्षस्य सप्तम्यां भवति १, द्वितीया शुद्धस्य शुक्लपक्षस्य चतुर्थ्याम् २. तृतीया बहुलपक्षस्य प्रतिपदि ३, चतुर्थी बहुलपक्षस्य त्रयोदशीदिवसे ४ पञ्चमी शुक्लपक्षस्य दशम्यां प्रवर्त्तते ५ । एताः सर्वा अप्यावृत्तयो माघमासे भवन्ति ॥ २५० - २५१ ।। " इति ज्योतिष्करण्डकस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एआ आउट्टीओ सव्वाओ माघमासम्मि ।। [ज्योतिष्क० २५०-२५१] त्ति । दक्षिणायनदिनानि चैवम्पढमा बहुलपडिवए १ बीया बहुलस्स तेरसीदिवसे २ । सुद्धस्स य दसमीए ३ बहुलस्स य सत्तमीए ४ उ ।। 5 सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी। एया आउट्टीओ सव्वाओ सावणे मासे || [ज्योतिष्क० २४७-२४८] त्ति । वीरियपुव्वस्स त्ति तृतीयपूर्वस्य, पाहुड त्ति प्राभृतमधिकारविशेषः । अजिएत्यादि, तस्य हि अष्टादश पूर्वलक्षाणि कुमारत्वं त्रिपञ्चाशच्चैकपूर्वाङ्गाधिका राज्यमित्येकसप्ततिः, इह च पूर्वाङ्गमधिकमल्पत्वान्न विवक्षितमिति । सगरो द्वितीयश्चक्रवर्ती 10 अजितस्वामिकालीनः ॥७१।। [सू० ७२] बावत्तरिं सुवण्णकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । लवणस्स समुद्दस्स बावत्तरिं नागसाहस्सीतो बाहिरियं वेलं धारेंति । समणे भगवं महावीरे बावत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । 15 थेरे णं अयलभाया बावत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । ___ अब्भंतरपुक्खरद्धे णं बावत्तरिं चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, बावत्तरिं सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा तवइस्संति वा । एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स बावत्तरिं पुरवरसाहस्सीतो 20 पण्णत्तातो। बावत्तरं कलातो पण्णत्तातो, तंजहा- लेहं १, गणितं २, रूवं ३, नर्से ४, गीयं ५, वाइतं ६, सरगयं ७, पुक्खरगयं ८, समतालं ९, जूयं १०, जाणवयं ११, पोरेकव्वं १२, अट्ठावयं १३, दयमट्टियं १४, अण्णविधिं १५, पाणविधिं १६, लेणविहिं १७, सयणविहिं १८, अजं १९, पहेलियं २०, 25 मागधियं २१, गाधं २२, सिलोगं २३, गंधजुत्तिं २४, मधुसित्थं २५, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विसप्ततिस्थानकम् । १६५ आभरणविहिं २६, तरुणीपडिकम्मं २७, इत्थीलक्खणं २८, पुरिसलक्खणं २९, हयलक्खणं ३०, गयलक्खणं ३१, गोणलक्खणं ३२, कुक्कुडलक्खणं ३३, मेंढयलक्खणं ३४, चक्कलक्खणं ३५, छत्तलक्खणं ३६, दंडलक्खणं ३७, असिलक्खणं ३८, मणिलक्खणं ३९, काकणिलक्खणं ४०, चम्मलक्खणं ४१, चंदचरियं ४२, सूरचरितं ४३, राहुचरितं ४४, गहचरितं 5 ४५, सोभाकरं ४६, दोभाकरं ४७, विजागतं ४८, मंतगयं ४९, रहस्सगयं ५०, सभावं ५१, चारं ५२, पडिचारं ५३, वूहं ५४, पडिवूहं ५५, खंधावारमाणं ५६, नगरमाणं ५७, वत्थुमाणं ५८, खंधावारनिवेसं ५९, नगरनिवेसं ६०, वत्थुनिवेसं ६१, ईसत्थं ६२, छरुपगयं ६३, आससिक्खं ६४, हत्थिसिक्खं ६५, धणुव्वेयं ६६, हिरण्णवायं, सुवण्णवायं, मणिपागं, धाउपागं ६७, 10 बाहुजुद्धं, दंडजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, अट्ठिजुद्धं, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धातिजुद्धं ६८, सुत्तखेडं, नालियाखेडु, वडखेडं, धम्मखेड्डे ६९, पत्तच्छेजं, कडगच्छेज्जं, पत्तगच्छेज्जं ७०, सज्जीवं, निजीवं ७१, सउणरुतमिति ७२ ।। __ संमुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं बावत्तरिं वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता । 15 [टी०] अथ द्विसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, सुवर्णकुमाराणां द्विसप्ततिर्लक्षाणि, कथम् ?, दक्षिणनिकाये अष्टत्रिंशदुत्तरनिकाये तु चतुस्त्रिंशदिति । नागसाहस्सीओ त्ति नागकुमारदेवसहस्राणि वेलां षोडशसहस्रप्रमाणामुत्सेधतो विष्कम्भतश्च दशसहस्रमानां लवणजलधिशिखां बाह्यां धातकीखण्डद्वीपाभिमुखीम्। महावीरो द्विसप्ततिं वर्षाण्यायुः पालयित्वा सिद्धः, कथम् ?, त्रिंशद् गृहस्थभावे, द्वादश सार्द्धानि पक्षश्च छद्मस्थभावे, 20 देशोनानि त्रिंशत् केवलित्वे इति द्विसप्ततिः । अयलभाय त्ति महावीरस्य नवमो गणधरः, तस्यायुर्द्विसप्ततिवर्षाणि, कथम् ? षट्चत्वारिंशद् गृहस्थत्वे, द्वादश छद्मस्थतायाम्, चतुर्दश केवलित्वे इति । पुष्करा॰ द्विसप्ततिश्चन्द्राः, तत्रैकस्यां पङ्क्तौ षत्रिंशदन्यस्यां च तावन्त एवेत्येवमिति । बावत्तरि कलाओ त्ति कलनानि कला:, १द्रसप्तनिवर्षा जे विना ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे 10 विज्ञानानीत्यर्थः, ताश्च कलनीयभेदाद् द्विसप्ततिर्भवन्ति, तत्र लेखनं लेखोऽक्षरविन्यासः, तद्विषया कला विज्ञानं लेख एवोच्यते एवं सर्वत्र, स च लेखो द्विधा- लिपिविषयभेदात्, तत्र लिपिरष्टादशस्थानकोक्ता, अथवा लाटादिदेश भेदतस्तथाविधविचित्रोपाधिभेदतो वाऽनेकविधेति, तथाहि- पत्र-वल्क-काष्ठ-दन्त5 लोह-ताम्र-रजतादयो अक्षराणामाधारास्तथा लेखनोत्कीर्णन-स्यूत-व्यूत-च्छिन्न-भिन्न दग्ध-सङ्क्रान्तितोऽक्षराणि भवन्तीति, विषयापेक्षयाप्यनेकधा- स्वामि-भृत्य-पितपुत्र-गुरु-शिष्य-भार्या -पति-शत्रु-मित्रादीनां लेखविषयाणामने कत्वात्तथाविधप्रयोजनभेदाच्च, अक्षरदोषाश्चैते अतिकाय॑मतिस्थौल्यम्, वैषम्यं पङ्क्तिवक्रता । अतुल्यानां च सादृश्यमविभागोऽवयवेषु च ।। [ ] इति १. तथा गणितं सङ्ख्यानं सङ्कलिताद्यनेकभेद पाटीप्रसिद्धम् २, रूपं लेप्य-शिलासुवर्ण-मणि-वस्त्र-चित्रादिषु रूपनिर्माणम् ३, नाट्यं कला भरतमार्गच्छलिकं लास्यविधानमित्यादिभेदादष्टधा, नाट्यग्रहणात् नृत्तकलापि गृहीता, सा च अभिनयिका अङ्गहारिका व्यायामिका चेति त्रिभेदा, स्वरूपं चात्र भरतशास्त्रादवसेयम् ४, तथा 15 गीतं कला, सा च निबन्धमार्ग-छलिकमार्ग-भिन्नमार्गभेदात् त्रिधा, तत्र सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा, मूर्च्छना एकविंशतिः । ताना एकोनपञ्चाशत् समाप्तं स्वरमण्डलम् || [ ] इयं च विशाखिलशास्त्रावसेयेति ५, वाइयं ति वाद्यकला, सा च तत-विततशुषिर-घनवाद्यानां चतुष्पञ्चत्र्येकप्रकारतया त्रयोदशधा ६ इत्यादिकः कलाविभागो 20 लौकिकशास्त्रेभ्योऽवसेयः, इह च द्विसप्ततिरिति कलासंख्योक्ता, बहुतराणि च सूत्रे तन्नामान्युपलभ्यन्ते, तत्र च कासांचित् काचिदन्तर्भावोऽवगन्तव्य इति ।।७२।। [सू० ७३] हरिवस्स-रम्मयवस्सियातो णं जीवातो तेवत्तरं तेवत्तरिं जोयणसहस्साई नव य एक्कुत्तरे जोयणसते सत्तरस य एकूणवीसतिभागे १. भरतविरचिते नाट्यशास्त्रं चतुर्थोऽध्यायोद्रष्टव्यः ।। २. “भिन्नमाण्णमार्ग' जे२ ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ [मू० ७४ त्रिसप्तति-चतुःसप्ततिस्थानके । जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं पण्णत्तातो । ___ विजये णं बलदेवे तेवत्तरिं वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । [टी०] अथ त्रिसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, हरिवासेत्यादि. अत्र संवादगाथाएगुत्तरा नव सया तेवत्तरिमेव जोयणसहस्सा । जीवा सत्तरस कला अद्धकला चेव हरिवासे ।। ७३९०१ १२ बृहत्क्षेत्र० ५८] त्ति । तथा विजयो द्वितीयबलदेवः, तस्येह त्रिसप्ततिवर्षलक्षाण्यायुरुक्तम्, आवश्यके तु पञ्चसप्ततिरितीदमपि मतान्तरमेव ।।७३।। [सू० ७४] थेरे णं अग्गिभूती चोवत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । 10 निसभातो णं वासहरपव्वतातो तिगिंच्छिद्दहातो णं दहातो सीतोता महानदी चोवत्तरि जोयणसताई साहियाइं उत्तराहत्ती पवहित्ता वतिरामतियाए जिब्भियाए चउजोयणायामाए पण्णासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुंडे महता घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठाणसंठितेणं पवातेणं महया सद्देणं पवडति। एवं सीता वि दक्खिणाहुत्ती भाणियव्वा । 15 चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोवत्तरिं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] अथ चतुःसप्ततिस्थानके लिख्यते किञ्चित्, तत्राग्निभूतिरिति महावीरस्य द्वितीया गणनायकः, तस्ये ह चतु:सप्ततिवर्षाण्यायुः, अत्र चाय विभाग:षट्चत्वारिंशद्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, द्वादश छद्मस्थपर्यायः, षोडश केवलिपर्याय इति । णिसहाओ णमित्यादि. अस्य भावार्थ:- किल निषधवर्षधरस्य विष्कम्भो योजनानां 20 षोडश सहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशत् कलाद्वयं चेति, तस्य च मध्यभागे तिगिंछिमहाह्रदः सहस्रद्वयविष्कम्भश्चतु:सहस्रायामः, तदेवं पर्वतविष्कम्भार्द्धस्य ह्रदविष्कम्भार्द्धन न्यूनतायां शीतोदामहानद्याः पर्वतस्योपरि चतुःसप्ततिशतान्येकविंशत्यधिकानि कला चैकेत्येवं प्रवाहो भवति। वइरामइयाए जिब्भियाए त्ति वज्रमय्या १ दृश्यता प० १४२ टि० ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८. आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चसप्ततिस्थानकम । जिह्विकया प्रणालस्थमकरमुखजिह्वया चतुर्योजनदीर्घया पञ्चाशद्योजनविष्कम्भया वहरतले कुंडे त्ति निषधपर्वतस्याधोवर्त्तिनि वज्रभूमिके अशीत्यधिकचतुर्योजनशतायामविष्कम्भे दशयोजनावगाहे शीतोदादेवीभवनाध्यासितमस्तकेन तद्द्वीपेनालकृतमध्यभागे शीतोदाप्रपातहदे महय त्ति महाप्रमाणेन, यत् पुनः दुहओ त्ति क्वचित् दृश्यते तदपपाठ 5 इति मन्यते, घडमुहपवत्तिएणं ति घटमुखेनेव कलशवदनेनेव प्रवर्तित: प्रेरितो घटमुखप्रवर्तितस्तेन मुक्तावलीनां मुक्ताफलसरीणां सम्बन्धी हारस्तस्य यत् संस्थानं तेन संस्थितो यस्तेन, प्रपात: पर्वतात् प्रपतज्जलसमूहस्तेन, महाशब्देन महाध्वनिना प्रपतति, एवं शीतापि, नवरं नीलवद्वर्षधराद् दक्षिणाभिमुखी प्रपततीति । चउत्थवज्जेत्यादि, तत्र प्रथमाया त्रिंशत्, द्वितीयायां पञ्चविंशतिः, तृतीयायां पञ्चदश, 10 पञ्चम्यां त्रीणि लक्षाणि, षष्ठ्यां पञ्चोनं लक्षम्, सप्तम्यां पञ्चेत्येतानि मीलितानि चतुःसप्ततिर्भवन्तीति ।।७४।। [सू० ७५] सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहतो पण्णत्तरं जिणा पण्णत्तरि जिणसता होत्था । सीतले णं अरहा पण्णत्तरं पुव्वसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता 15 जाव पव्वतिते । संती णं अरहा पण्णत्तरिं वाससहस्साई अगारवासमज्झावसित्ता जाव पव्वतिते । [टी०] अथ पञ्चसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, सुविधेः नवमतीर्थकरस्य नामान्तरत: पुष्पदन्तस्येति, तथा शीतलस्य पञ्चसप्ततिः पूर्वसहस्राणि गृहवासे, कथम् ? पञ्चविंशतिः 20 कुमारत्वे, पञ्चाशच्च राज्य इति, तथा शान्तिः पञ्चसप्ततिवर्षसहस्राणि गृहवासमध्युष्य प्रव्रजितः, कथम् ? पञ्चविंशतिः कुमारत्वे, पञ्चविंशतिः माण्डलिकत्वे, पञ्चविंशतिश्चक्रवर्त्तित्वे इति ।।७५।। [सू० ७६] छावत्तरिं विजुकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । एवं१. सप्ततिवर्ष जे? हे१ ।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स० ७६-७७ षटसप्तति-सप्तसप्ततिस्थानके । १६९ दीव-दिसा-उदहीणं विजुकुमारिंद-थणियमग्गीणं । छण्हं पि जुगलयाणं छावत्तरि मो सतसहस्सा ॥५९।। [टी०] अथ षट्सप्ततिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, तत्र विद्युत्कुमाराणां भवनावासलक्षाणि दक्षिणायां चत्वारिंशदुत्तरस्यां तु षट्त्रिंशदिति षट्सप्ततिरिति । एवमिति इदमेव भवनमानं शेषाणां द्वीपकुमारादिभवनपतिनिकायानाम्, इहार्थे गाथा- दीवेत्यादि 5 युगलानामिति दक्षिणोत्तरनिकायभेदेन युगलम्, निकाये निकाये भवतीति ॥७६।। [सू० ७७] भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तत्तरिं पुव्वसतसहस्साई कुमारवासमज्झावसित्ता महरायाभिसेयं पत्ते । अंगवंसातो णं सत्तत्तरिं रायाणो मुंडे जाव पव्वइया । गहतोय-तुसियाणं देवाणं सत्तत्तरं देवसहस्सा परिवारो पण्णत्ता। 10 एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तत्तरिं लवे लवग्गेणं पण्णत्ते । । टी०] अथ सप्तसप्ततिस्थानके विवियते किञ्चित्, तत्र भरतचक्रवर्ती ऋषभस्वामिनः षट्सु पूर्वलक्षेष्वतीतेषु जातस्त्र्यशीतितमे च तत्रातीते भगवति च प्रव्रजिते राजा संवृत्तः, ततश्च त्र्यशीत्याः षट्सु निष्कर्षितेषु सप्तसप्ततिस्तस्य कुमारवासो भवतीति । अङ्गवंश: 15 अगराजसन्तानस्तस्य सम्बन्धिनः सप्तसप्तती राजानः प्रव्रजिताः । गद्दतोयेत्यादि, ब्रह्मलोकस्याधोवर्तिनीष्वष्टासु कृष्णराजिष्वष्टौ सारस्वतादयो लोकान्तिकाभिधाना देवनिकाया भवन्ति, तत्र गर्दतोयाना तुषितानां च देवानामुभयपरिवारसंख्यामीलनेन सप्तसप्ततिर्देवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति । तथैकैको मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिं लवान् लवाग्रेण लवपरिमाणेन प्रज्ञप्तः, कथम् ? उच्यते हट्ठस्स अणवगल्लस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो । __एगे ऊसासनीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चई ॥ 20 १. "गद्दताय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पण्णत्ता” इति स्थानाङ्गसूत्रे सू० ५७६ ।। २. "सप्ततिलवान जेर हे१.२ ॥ ३. वच्चड जे२ हे१ ।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टसप्ततिस्थानकम् । सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहत्ते वियाहिए ॥ [भगवती० ६।७।४] त्ति ।।७७।। [सू० ७८] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणे महाराया अट्ठसत्तरीए सुवण्णकुमार-दीवकुमारावाससतसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं 5 महारायत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरति । थेरे णं अकंपिते अट्ठत्तरं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए पढमातो मंडलातो एगूणचत्तालीसइमे मंडले अट्ठत्तरिं एगसट्ठिभाए दिवसखेत्तस्स निवुढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं 10 चारं चरति, एवं दक्खिणायणनियट्टे वि । [टी०] अथाष्टसप्ततिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, सक्कस्सेत्यादि, वेसमणे महाराय त्ति सोम-यम-वरुण-वैश्रमणाभिधानानां लोकपालानां चतुर्थ उत्तरदिक्पालः, स हि वैश्रमणदेवनिकायिकानां सुपर्णकुमारदेव-देवीनां द्वीपकुमारदेव-देवीनां व्यन्तर-व्यन्तरीणां चाधिपत्यं करोति, तदाधिपत्याच्च तन्निवासानामप्याधिपत्यमसौ करोतीत्युच्यते 15 अष्टसप्तत्याः सुपर्णकुमार-द्वीपकुमारावासशतसहस्राणामिति, तत्र सुपर्णकुमाराणां दक्षिणायामष्टत्रिंशद् भवनलक्षाणि द्वीपकुमाराणां च चत्वारिंशदित्येवमष्टसप्ततिरिति, द्वीपकुमाराधिपत्यमेतस्य भगवत्यां न दृश्यते, इह तूक्तमिति मतान्तरमिदम्, आहेवच्चं १. 'रिए जे१ खं० ।। २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ द्वितीये वक्षस्कारे, अनुयोगद्वारसूत्रे ३६७ तमे सूत्रेऽपि च इदं गाथाद्वयमस्ति । "हट्ठस्स गाहा । हृष्टस्य तुष्टस्य अनवकल्यस्य जरसा अपीडितस्य निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक साम्प्रतं वाऽनभिभूतस्य जन्तोः मनुष्यादेरेक उच्छ्वासयुक्तो निःश्वासः उच्छ्वासनिःश्वासः, एष प्राण उच्यते, शोकजरादिभिरस्वस्थस्य जन्तोरुच्छ्वासनिःश्वासः त्वरितादिस्वरूपतया स्वभावस्थो न भवत्यतो हृष्टादिविशेषणोपादानम्।। सत्त पाणूणीत्यादि श्लोकः, सप्त प्राणा यथोक्तस्वरूपाः स एकः स्तोकः, सप्त स्तोकाः स एको लव:, लवानां सप्तसप्तत्या यो निष्पद्यते एष मुहूर्तो व्याख्यातः ॥” इति अनुयोगद्वारसूत्रे मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। ३. दिक्कुमार' इति सर्वेषु हस्तलिखितादर्शेषु पाठः । एतदनुसारेण 'द्वीपकुमारदेव-देवीनां दिक्कुमारदेव-देवीनां इति सम्पूर्णः पाठोऽत्र टीकायां भवेदिति संभाव्यते । दृश्यतामधस्तनमत्रत्यं टिप्पणम् ।। ४. भगवतीसूत्रस्य तृतीये शतके सप्तमे उद्देशके ईदृशं सूत्रमुपलभ्यते- “सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो इमे देवा आणा-उववायवयण-निद्देसे चिट्ठति, तंजहा- वेसमणकाइया ति वा वेसमणदेवयकाइया ति वा सुवण्णकुमारा सुव्वणकुमारीओ दीवकुमारा दीवकुमारीओ दिसाकुमारा दिसाकुमारीओ वाणमंतरा वाणमंतरीओ जे याऽवन्ने तहप्पगारा सव्वे ते Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ७८] अष्टसप्ततिस्थानकम् । १७१ ति आधिपत्यम् अधिपतिकर्म, पोरेवच्चं ति पुरोवर्त्तित्वम् अग्रगामित्वमित्यर्थः, भट्टित्तं ति भर्तृत्वं पोषकत्वम्, सामित्तं ति स्वामित्वं स्वामिभावम्, महारायत्तं ति महाराजत्वं लोकपालत्वमित्यर्थः, आणाईसरसेणावच्चं ति आज्ञाप्रधानसेनानायकत्वं कारेमाणे त्ति अनुनायकैः सेवकानां कारयन् पालेमाणे त्ति आत्मनापि पालयन् विहरति आस्ते । __ अकम्पित: स्थविरो महावीरस्याष्टमो गणधरस्तस्य चाष्टसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः, कथम् ?, गृहस्थपर्याये अष्टचत्वारिंशत्, छद्मस्थपर्याये नव, केवलिपर्याये चैकविंशतिरिति । उत्तरायणनियट्टे णं ति उत्तरायणाद् उत्तरदिग्गमनान्निवृत्तः उत्तरायणनिवृत्तः, प्रारब्धदक्षिणायन इत्यर्थः, सूरिए त्ति आदित्यः पढमाओ मंडलाओ त्ति दक्षिणां दिशं गच्छतो रवेर्यत् प्रथमं तस्मात्, न तु सर्वाभ्यन्तरसूर्यमार्गात्, 10 एकूणचत्तालीसइमे त्ति एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले दक्षिणायनप्रथममण्डलापेक्षया, सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तु चत्वारिंशे, अट्ठत्तरिं ति अष्टसप्ततिम् एगसट्ठिभाए त्ति मुहूर्त्तस्यैकषष्टिभागान् दिवसखेत्तस्स त्ति दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दिवसस्यैवेत्यर्थः, निव्वुड्ढेत्त त्ति निर्वर्ध्य हापयित्वेत्यर्थः, तथा रयणिखेत्तस्स त्ति रजन्या एव अभिनिव्वुड्डेत्त त्ति अभिनिर्वर्थ्य वर्धयित्वेत्यर्थः, चारं चरइ त्ति भ्राम्यतीत्यर्थः, भावार्थोऽस्यैवं 15 चन्द्रप्रज्ञप्तिवाक्यैरुपदर्श्यते- जम्बूद्वीपे द्वीपे यदैतौ सूर्यौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतस्तदा नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् च पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यन्योन्यमन्तरं कृत्वा चरतः, एतच्च जम्बूद्वीपेऽशीत्युत्तरं योजनशतं तब्भत्तिया जाव चिट्ठति ।" अस्मिन् सूत्रे द्वीपकुमाराधिपत्यं वैश्रमणस्य स्पष्टं दृश्यते, अत: अभयदेवसूरिभि: 'न दृश्यते' इति यद् लिखितं तत् तेषां समक्षं विद्यमानेषु भगवतीसूत्रादर्शेषु अदर्शनादेव तैलिखितं भवेदिति संभाव्यते॥ १. 'सप्तति: खं० जे१ हे१ । °सप्ततिरिति हे२ ।। २. निवुवेत्त खं० हे१,२ ॥ ३. निवर्थ्य खंजे१ हे१,२। '२७, ८८, ९८' सूत्रेष्वपि ईदृशो विचारो वर्तते, किन्तु २७ तमसूत्रटीकायां 'निवर्धयन्, अभिनिवर्धयन्' इति शब्दप्रयोगो दृश्यते, अतो 'नि-निर्' उपसर्गौ एकार्थाविति मत्वा उभयोरपि पाठयोः संगतिः कर्तुं शक्यते । यदि तु अत्र 'निवर्य' अग्रे च ‘अभिनिवर्य' इति पाठः स्वीक्रियते तदा खं० जे१ पाठः समीचीनः एव ॥ ४. निवुवेत्त हे१,२ ॥ ५. अभिनिवर्ध्य खं० जे१, हे१,२ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे प्रविश्याभ्यन्तरं मण्डलं भवति, एतस्मिंश्च द्विगुणे जंबूद्वीपप्रमाणादपकर्षिते यथोक्तमन्तरं भवतीति, तथा तत्र तयोश्चरतोरुत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति जघन्यिका च द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, ततोऽभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रम्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य यदा चारं चरतस्तदा नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् च 5 पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्यान्तरं कृत्वा चार चरतः, तदा चाष्टादशमुहर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहर्त्तस्यैकषष्टिभागाभ्यामूनः, द्वादशमुहूर्ता च रात्रिर्भवति द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिकेति, एवं दक्षिणायनस्य द्वितीयादिषु मण्डलेष्वहोरात्रेषु चान्योन्यान्तरप्रमाणस्य पञ्चभिः पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य वृद्धिर्वाच्या, द्वाभ्यां द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनहानी 10 रात्रिवृद्धिश्चेति, एवं च एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले सूर्ययोरन्तरं नवनवतिः सहस्राण्यष्ट शतानि सप्तपञ्चाशच्च योजनानां त्रयोविंशतिश्चैकषष्टिभागाः, दिनप्रमाणं चाष्टादशानां मुहूर्तानां मध्यादेकषष्टिभागानामष्टसप्तत्यां पातितायां षोडश मुहूर्त्ताश्चतुश्चत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, रात्रेस्त्वष्टसप्तत्यां क्षिप्तायां त्रयोदश मुहूर्ताः सप्तदशैकषष्टिभागाश्चेति, एवं दक्खिणायणनिय? त्ति यथोत्तरायणनिवृत्त 15 एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले अष्टसप्ततिमेकषष्टिभागान् हापयति वर्द्धयति च, एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि सूर्यस्तान् हापयति वर्द्धयति च, केवलं दक्षिणायने दिनभागान् हापयति रात्रिभागांश्च वर्द्धयति, इह तु दिनभागान् वर्द्धयति रात्रिभागांश्च हापयतीति ।।७८।। [सू० ७९] वलयामुहस्स णं पातालस्स हेडिल्लातो चरिमंतातो इमीसे णं 20 रयणप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं एकूणासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं केउस्स वि जुययस्स वि ईसरस्स वि । छट्ठीए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं एकूणासीतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बारस्स य बारस्स य एस णं एगूणासीई 25 जोयणसहस्साइं साइरेगाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७९] एकोनाशीतितमस्थानकम् । १७३ [टी०] अथैकोनाशीतितमस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र वलयामुहस्स त्ति वडवामुखाभिधानस्य पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य पायालस्स त्ति महापातालकलशस्याधस्तनचरमान्ताद् रत्नप्रभापृथिवीचरमान्त एकोनाशीत्यां सहस्रेषु भवति, कथम् ? रत्नप्रभा हि अशीतिसहस्राधिकं योजनानां लक्षं बाहल्यतो भवति, तस्याश्चैकं समुद्रावगाहसहस्रं परिहृत्याधोलक्षप्रमाणावगाहो वलयामुखपातालकलशो भवति, 5 ततस्तच्चरमान्तात् पृथिवीचरमान्तो यथोक्तान्तर एव भवति, एवमन्येऽपि त्रयो वाच्या इति । छठ्ठीए इत्यादि, अस्य भावार्थ:- षष्ठपृथिवी हि बाहल्यतो योजनानां लक्षं षोडश च सहस्राणि भवति, घनोदधयस्तु यद्यपि सप्तापि प्रत्येकं विंशतिः सहस्राणि स्युस्तथाप्येतस्य ग्रन्थस्य मतेन षष्ठोऽसावेकविंशतिः संभाव्यते, तदेवं 10 षष्ठपृथिवीबाहल्यार्द्धमष्टपञ्चाशत् घनोदधिप्रमाणं चैकविंशतिरित्येवमेकोनाशीतिर्भवति, ग्रन्थान्तरमतेन तु सर्वघनोदधीनां विंशतियोजनसहस्रबाहल्यत्वात् पञ्चमीमाश्रित्येदं सूत्रमवसेयम्, यतस्तद्बाहल्यमष्टादशोत्तरं लक्षमुक्तम्, यत आहपढमाऽसीइ सहस्सा १ बत्तीसा २ अट्ठवीस ३ वीसा य ४ । अट्ठार ५ सोल ६ अट्ठ य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुज्जा ॥ [बृहत्सं० २४१] इति । 15 अथवा षष्ठ्याः सहस्राधिकोऽपि मध्यभागो मध्यभागो विवक्षितः, एवमर्थसूचकत्वाद्बहुशब्दस्येति । तथा जम्बूद्वीपस्य जगत्याश्चत्वारि द्वाराणि विजयवेजयन्त-जयन्ता-ऽपराजिताभिधानानि चतुश्चतुर्योजनविष्कम्भाणि गव्यूतपृथुलद्वार१. भवंति जे२ खं० ।। २. वतीति खं० ॥ ३. "अत्र' प्राकृतत्वात् प्रथमाशब्दात् परत्र विभक्तेर्लोपः, प्रथमाया धर्माभिधायां पृथिव्यामुच्चैस्त्वपरिमाणं परिभावयन्नशीतिसहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् । किमुक्तं भवति ? प्रथमाया रत्नप्रभाया: पृथीव्या अशीतियोजनसहस्राधिको योजनलक्षो बाहल्यमिति । एवं द्वितीयादिष्वपि पृथिवीषु बाहल्यपरिभावने द्वात्रिंशदादीनि योजनसहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् । अत्राप्ययं भावार्थः- द्वितीयस्यां पृथिव्यां विंशतियोजनसहस्राधिकः । पञ्चम्यामष्टादशयोजनसहस्राधिक: ! षष्ठ्यां षोडशयोजनसहस्राधिकः । सप्तम्यामष्टयोजनसहस्राधिक इति । योजनं चेह प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नं द्रष्टव्यम् । रत्नप्रभायां च पृथिव्यामशीतियोजनसहस्राधिको लक्ष: एवम्- षोडशसहस्रप्रमाणं प्रथम खरकाण्डम्, द्वितीयं पङ्कबहुलं काण्डं चतुरशीतियोजनसहस्रमानम्, तृतीयमशीतियोजनसहस्रप्रमाणं जलबहुलं काण्डमिति । शेषास्तु पृथिव्यः सर्वा अपि पृथिवीस्वरूपाः, केवलं शर्कराप्रभा शर्कराबहुला वालुकाप्रभा वालुकाबहुलेत्येवं नामानुसारतो विशेषस्वरूपं परिभावनीयम् ॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अशीतितमस्थानकम् । शाखानि क्रमेण पूर्वादिषु दिक्षु भवन्ति, तेषां च द्वारस्य च द्वारस्य चान्योन्यमित्यर्थः, एस णं ति एतदेकोनाशीतिर्यो जनसहस्राणि सातिरेकाणीत्येवंलक्षणमबाधया व्यवधानेन व्यवधानरूपमित्यर्थोऽन्तरं प्रज्ञप्तम्, कथम् ?, जम्बूद्वीपपरिधेः [यो०] ३१६२२७, गा०३, धनुषां १२८, अङ्गुल १३ सार्ध इत्येवंलक्षणस्यापकर्षित द्वार5 द्वारशाखाविष्कम्भस्य चतुर्विभक्तस्यैवंफलत्वादिति ।।७९।। [सू० ८०] सेजसे णं अरहा असीतिं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । तिविठू णं वासुदेवे असीतिं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । अयले णं बलदेवे असीतिं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । तिविठू णं वासुदेवे असीतिं वाससतसहस्साई महाराया होत्था । 10 आउबहुले णं कंडे असीति जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरणो असीतिं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो। जंबुद्दीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसतं ओगाहेत्ता सूरिए उत्तरकट्ठोवगते पढमं उदयं करेती । [टी०] अथाशीतितमस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, श्रेयांस: एकादशो जिनः । त्रिपृष्ठः 15 श्रेयांसजिनकालभावी प्रथमवासुदेवः, अचल: प्रथमबलदेवः, तथा त्रिपृष्ठवासुदेवस्य चतुरशीतिवर्षलक्षाणि सर्वायुरिति, चत्वारि लक्षाणि कुमारत्वे शेषं तु महाराज्ये इति। आउबहु इत्यादि, किल रत्नप्रभाया अशीत्युत्तरयोजनलक्षबाहल्यायास्त्रीणि काण्डानि भवन्ति, तत्र प्रथमं रत्नकाण्डं षोडशविधरत्नमयं षोडशसहस्रबाहल्यं द्वितीयं पङ्ककाण्डं चतुरशीतिसहस्रमानं तृतीयमब्बहुलकाण्डमशीतिर्योजनसहस्राणीति जंबुद्दीवे णमित्यादि, 20 ओगाहित्त त्ति प्रविश्य उत्तरकट्ठोवगय त्ति उत्तरां काष्ठां दिशमुपगतः उत्तरकाष्ठोपगत: प्रथममुदयं करोति, सर्वाभ्यन्तरमण्डले उदेतीत्यर्थः ।।८०॥ [सू० ८१] नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एक्कासीतिए रातिदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहिता [यावि भवति । कुंथुस्स णं अरहतो एक्कासीतिं मणपजवणाणिसया होत्था । १. परिधिः जे२ हे२ ।। २. द्वारशाखा' जे१ खं० ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ८१-८२ एकाशीति-व्यशीतिस्थानके । १७५ वियाहपण्णत्तीए एक्कासीतिं महाजुम्मसया पण्णत्ता । टी०] अथैकाशीतिस्थानके किञ्चिदुच्यते, नवनवमिकेति नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका, भवन्ति च नवसु नवकेषु नव नवमदिनानि, तस्यां च भिक्षुप्रतिमायामेकाशीतिरात्रिंदिवानि भवन्त्येव, नवानां नवकानामेकाशीतिरूपत्वात्, तथा प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा, एवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव नवेति 5 सर्वासां पिण्डने चत्वारि पञ्चोत्तराणि भिक्षाशतानि भवन्तीत्यत उक्तं चउहि येत्यादि, इह च भिक्षाशब्देन दत्तिरभिप्रेता, अहासुत्तं ति यथासूत्रं सूत्रानतिक्रमेण जाव त्ति करणाद् यथाकल्पं यथामार्गं यथातत्त्वं सम्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्त्तिता आज्ञयाऽऽराधिता' इति द्रष्टव्यम् । वियाहपन्नत्तीए त्ति व्याख्याप्रज्ञप्त्यामेकाशीतिर्महायुग्मशतानि प्रज्ञप्तानि, इह शतशब्देनाध्ययनान्युच्यन्ते, 10 तानि कृतयुग्मादिलक्षणराशिविशेषविचाररूपाणि अवान्तराध्ययनस्वभावानि तदवगमावगम्यानीति ॥८१॥ [सू० ८२] जंबुद्दीवे दीवे बासीतं मंडलसतं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरति, तंजहा- निक्खममाणे य पविसमाणे य । समणे भगवं महावीरे बासीतीए रातिदिएहिं वीतिकंतेहिं गब्भातो गब्भं 15 साहरिते । महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्वयस्स अवरिल्लाओ चरिमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं बासीइं जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं रुप्पिस्स वि । [टी०] अथ द्व्यशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, तत्र जम्बूद्वीपे द्व्यशीतं 20 द्व्यशीत्यधिकं मण्डलशतं सूर्यस्य मार्गशतं तद् भवति' इति वाक्यशेषः, किंभूतम् ? १. भगवतीसूत्रे ३५ तमे शतके द्वादश एकेन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३६ तमे शतके द्वादश द्वीन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३७ तमे शतके द्वादश त्रीन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३८ तमे शतके द्वादश चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३९ तमे शतके द्वादश असंज्ञिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतानि, ४० तमे शतके एकविंशतिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतानि सर्वसंख्यया १२+१२+१२+१२+१२+२१-८१ महायुग्मशतानि । एतेषु यद् वर्णितं तत् तत्रैव द्रष्टव्यं जिज्ञासुभिः ।। २. अपांतरा' Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे यत् सूर्यो द्विकृत्वो द्वौ वारौ सङ्क्रम्य प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा- निष्क्रामंश्च जम्बूद्वीपात् प्रविशंश्च जम्बूद्वीप एवेति, अयमत्र भावार्थः- किल चतुरशीत्यधिक सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तर-सर्वबाह्ये सकृदेव सङ्क्रामति शेषाणि तु द्वौ वाराविति, इह च द्व्यशीतिविवक्षयैवेदं व्यशीतिस्थानकेऽधीतमिति भावनीयम्, यद्यपि 5 च जम्बूद्वीपे पञ्चषष्टिरेव मण्डलानां भवति तथापि जम्बूद्वीपकसूर्यचारविषयत्वाच्छेषाण्यपि जम्बूद्वीपेन विशेषितानीति । समणे इत्यादि आषाढशुक्लषष्ठ्या आरभ्य व्यशीत्यां रात्रिंदिवेष्वतिक्रान्तेषु त्र्यशीतितमे वर्तमाने, अश्वयुजः कृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः, गर्भात् गर्भाशयाद् देवानन्दाब्राह्मणीकुक्षित इत्यर्थः गर्भं त्रिशिलाभिधानक्षत्रियाकुक्षिं संहृतो नीतो 10 देवेन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेष्यभिधानदेवेनेति, इदं च सूत्रं द्व्यशीतिं रात्रिंदिवान्यधिकृत्य व्यशीतिस्थानकेऽधीयते, त्र्यशीतितमं रात्रिंदिवमाश्रित्य तु त्र्यशीतिस्थानके इति । महाहिमवंतस्सेत्यादि महाहिमवतो द्वितीयवर्षधरपर्वतस्य योजनशतद्वयोच्छ्रितस्य अवरिल्लाओ त्ति उपरिमाच्चरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्याधस्तनश्चरमान्तो व्यशीतियो(ो? )जनशतानि, कथम् ? रत्नप्रभापृथिव्यां हि त्रीणि काण्डानि खरकाण्ड 15 पङ्ककाण्डमब्बहुलकाण्डं चेति, तत्र प्रथमं काण्डं षोडशविधम्, तद्यथा रत्नकाण्डम् १, वज्रकाण्डम् २, एवं वैडूर्य ३ लोहिताक्ष ४ मसारगल्ल ५ हंसगर्भ ६ पुलक ७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरस ९ अञ्जन १० अञ्जनपुलक ११ रजत १२ जातरूप १३ अक १४ स्फटिक १५ रिष्टकाण्डं चेति. १६, एतानि च प्रत्येकं सहस्रप्रमाणानि, ततश्च सौगन्धिककाण्डस्याष्टमत्वादशीतिः शतानि द्वे च शते महाहिमवदुच्छ्रय 20 इत्येवं द्व्यशीतिः शतानि इति, एवं रुक्मिणोऽपि पञ्चमवर्षधरस्य वाच्यम्, महाहिमवत्समानोच्छ्रायत्वात्तस्येति ।।८२।। [सू० ८३] समणे भगवं महावीरे बासीतीए रातिदिएहिं वीतिकंतेहिं तेयासीइमे रातिदिए वट्टमाणे गब्भाओ गब्भं साहरिते । १. द्वितीयाद्विवचनमेतत् ॥ २. हरिनिग खं० । हरिणेगमे हे२ ॥ ३. 'चरिमा हे१.२ विना ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८३-८४] त्र्यशीतितमस्थानकम् । सीतलस्स णं अरहतो तेसीति गणा तेसीति गणधरा होत्था । थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीति वासानं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । १७७ उसभे णं अरहा कोसलिए तेसीतिं पुव्वसतसहस्साइं अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वते । भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीतिं पुव्वसतसहस्साइं अगारवासमज्झावसित्ता जिणे जाते केवली सव्वण्णू सव्वभावरिसी । [टी०] अथ त्र्यशीतितमस्थानके किमपि लिख्यते, इह शीतलजिनस्य त्र्यशीतिर्गणास्त्र्यशीतिर्गणधरा उक्ताः, आवश्यके त्वेकाशीतिरिति मतान्तरमिदमिति । तथा स्थविरो मण्डिकपुत्रो महावीरस्य षष्ठो गणधरः तस्य च त्र्यशीतिर्वर्षाणि 10 सर्वायुः, कथम् ?, त्रिपञ्चाशद् गृहस्थपर्याये, चतुर्दश छद्मस्थपर्याये, षोडश केवलित्वे इत्येवं त्र्यशीतिरिति । तथा कोसलिए त्ति कोशलदेशे भवः कौशलिकः । तेसीइं ति विंशतिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे, त्रिषष्टिः राज्ये इत्येवं त्र्यशीतिः । तथा भरतश्चक्रवर्ती सप्तसप्ततिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे, षट् चक्रवर्त्तित्वे, इत्येवं त्र्यशीतिमगारवासमध्युष्य जिनो जातः राज्यावस्थस्यैव रागादिक्षयात् केवली संपूर्णा - ऽसहाय- 15 विशुद्धज्ञानादित्रययोगात्, सर्वज्ञो विशेषबोधात्, सर्वभावदर्शी सामान्यबोधात्, ततः पूर्वलक्षं प्रव्रज्याग्रहणपूर्वकं केवलित्वेन विहृत्य सिद्ध इति ||८३ || [सू० ८४] चउरासीतिं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । उसभे णं अरहा कोसलिए चउरासीइं पुव्वसतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव [प्पहीणे ] | एवं भरहे बाहुबलि बंभि सुंदरि । सेज्जंसे णं अरहा चउरासीइं वाससतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । 5 १. "स्य त्र्यशीतिर्गणधरा उक्ता खं० हे१ ।। २ दृश्यता पृ० १४० टि० ३ ।। ३ न्तरमिति खं० जे१ हे२ ।। ४. कोशलादेशे जे२ हे१ ॥ ५ षट् च चक्र जे२ ॥ 20 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तिविठू णं वासुदेवे चउरासीई वाससयसहस्साइं परमाउयं पालयित्ता अप्पतिट्ठाणे नरए नेरइयत्ताते उववन्ने । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो चउरासीति सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो। सव्वे वि णं बाहिरया मंदरा चउरासीतिं चउरासीतिं जोयणसहस्साई 5 उड्डूंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । ___ सव्वे वि णं अंजणगपव्वया चउरासीतिं चउरासीतिं जोयणसहस्साई उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । हरिवस्स-रम्मयवासियाणं जीवाणं धणुपट्ठा चउरासीतिं चउरासीतिं जोयणसहस्साइं सोलस जोयणाइं चत्तारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं 10 पण्णत्ता । पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरिल्लातो चरिमंतातो हेट्ठिले चरिमंते एस णं चउरासीतिं जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए चउरासीतिं पदसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। चउरासीतिं नागकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । 15 चउरासीतिं पइण्णगसहस्सा पण्णत्ता । चउरासीतिं जोणिप्पमुहसतसहस्सा पण्णत्ता । पुव्वाइयाणं सीसपहेलियपजवसाणाणं सट्ठाणट्ठाणंतराणं चउरासीतीए गुणकारे पण्णत्ते । उसभस्स णं अरहतो कोसलियस्स चउरासीतिं गणा चउरासीतिं गणधरा 20 होत्था । उसभस्स णं अरहतो कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खातो चउरासीति समणसाहस्सीओ होत्था । चउरासीतिं विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउतिं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खाया । 25 [टी०] चतुरशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, चतुरशीतिर्नरकलक्षाण्यमुना विभागेन Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८४] चतुरशीतिस्थानकम् । १७९ तीसा य १ पण्णवीसा २ पण्णरस ३ दसेव ४ तिण्णि य ५ हवंति । पंचूणसयसहस्सं ६ पंचेव ७ अणुत्तरा निरया ॥ [बृहत्सं० २५५] इति । श्रेयांस: एकादशस्तीर्थकर: एकविंशतिवर्षलक्षाणि कुमारत्वे तावन्त्येव प्रव्रज्यायां द्विचत्वारिंशद्राज्ये इत्येवं चतुरशीतिमायुः पालयित्वा सिद्धः । तथा तिविट्ठ त्ति प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति । अप्रतिष्ठानो नरकः सप्तमपृथिव्यां पञ्चानां 5 मध्यम इति । तथा सामाणिय त्ति समानर्द्धयः । तथा बाहिरय त्ति जम्बूद्वीपकमेरुव्यतिरिक्ताश्चत्वारो मन्दराश्चतुरशीतिः सहस्राणि प्रज्ञप्ता: अंजणगपव्वय त्ति जम्बूद्वीपादष्टमे नन्दीश्वराभिधाने द्वीपे चक्रवालविष्कम्भमध्यभागे पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारोऽञ्जनरत्नमया अञ्जनकपर्वताः । हरिवासेत्यादि, चत्तारि य भागा जोयणस्स त्ति एकोनविंशतिभागाः, इहार्थे गाथार्द्धम् 10 धणुपट्ट कलचउक्त चुलसीइ सहस्स सोलहिय ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५९] त्ति [८४०१६:९ ] तथा पङ्कबहुलं काण्डं द्वितीयं तस्य च बाहल्यं चतुरशीतिः सहस्राणीति यथोक्तसूत्रार्थ इति । तथा व्याख्याप्रज्ञप्त्यां भगवत्यां चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाग्रेण पदपरिमाणेन, इह च यत्रार्थो पलब्धिस्तत् पदम्, मतान्तरेण तु अष्टादशपदसहस्रपरिमाणत्वादाचारस्य एतद्विगुणद्विगुणत्वाच्च शेषाङ्गानां 15 व्याख्याप्रज्ञप्तिट्टै लक्षे अष्टाशीतिश्च सहस्राणि पदानां भवतीति । तथा चतुरशीतिर्नागकुमारावासलक्षाणि चतुश्चत्वारिंशतो दक्षिणायां चत्वारिंशतश्चोत्तरायां भावादिति । चतुरशीतिर्योनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि, ता एव प्रमुखानि द्वाराणि * १. "प्रथमायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशच्छतसहस्राणि नरकावासानां ३०००००० । द्वितीयस्यां पञ्चविंशतिः शतसहस्राणि २५००००० । तृतीयस्या पञ्चदश १५००००० । चतुर्थ्यां दश १०००००० । पञ्चम्यां त्रीणि ३०००००। षष्ठ्यां पञ्चोनं शतसहस्र ९९९९५ । सप्तम्यां पञ्चैव ५ अनुत्तराः सर्वाधोवर्तिनो नरकावासाः । ते चैवम्- पूर्वस्यां दिशि कालनामा नरकावासोऽपरस्यां दिशि महाकालो दक्षिणस्यां रोरुक उत्तरस्यां महारोरुको मध्येऽप्रतिष्ठानः ॥२५५।।" इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। २. बाहरिय जे२ ।। ३. अंजनपर्वता: जे१ खं० ।। ४. “तिर्भागा: खं० ॥ ५. चउक्क चुलसीइं जे२ । चउक्कं चुलसीई खं० जे१ ॥ ६. एतद्विगुणत्वाच्च शेषा' जे? खं० ।। ७. समवायाङ्गे भगवतीसूत्रवर्णनेऽपि चतुरासीति पयसहस्साई पयग्गेणं' इत्येवाभिहितम्, किन्तु नन्दीसूत्रे भगवतीसूत्रवर्णने 'दो लक्खा अट्टासीतिं पयसहस्साई पयग्गेणं' इत्यभिहितम् ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 20 आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे योनिप्रमुखानि तेषां शतसहस्राणि लक्षाणि योनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, कथम् ? विगलिंदिए दो दो चउरो चउरो य नारय- सुरेसु । २ * " तिरिएसु होंति चउरो चोस लक्खा य मणुसु ॥ [ बृहत्सं० ३५१ - ३५२] ति । इह च जीवोत्पत्तिस्थानानामसंख्येयत्वेऽपि समानवर्ण - गन्ध-रस - स्पर्शानां तेषामेकत्वविवक्षणान्न यथोक्तयोनिसंख्याव्यभिचारो मन्तव्य इति । पुव्वाइयाणमित्यादि, पूर्वमादिर्येषां तानि पूर्वादिकानि तेषाम्, शीर्षप्रहेलिका पर्यवसाने येषां तानि 10 शीर्ष प्रहेलिकापर्यवसानानि तेषाम्, स्वस्थानात् पूर्वपूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्योत्पत्तिस्थानात् संख्याविशेषलक्षणात् गुणनीयादित्यर्थः स्थानान्तराणि अनन्तरस्थानान्यव्यवहितसंख्याविशेषा गुणकारनिष्पन्ना येषु तानि स्वस्थानस्थानान्तराणि क्रमव्यवस्थितसंख्यास्थानविशेषा इत्यर्थः, अथवा स्वस्थानानि पूर्वस्थानानि स्थानान्तराणि च अनन्तरस्थानानि स्वस्थान - स्थानान्तराणि, अथवा 15 स्वस्थानात् प्रथमस्थानात् पूर्वाङ्गलक्षणात् स्थानान्तराणि विलक्षणस्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि तेषाम्, चतुरशीत्या लक्षैरिति शेषः, अभ्यासराशिः गुणकार: प्रज्ञप्तः, तथाहि - किल चतुरशीत्या लक्षैः पूर्वाङ्गं भवतीति स्वस्थानम्, तदेव चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं पूर्वमुच्यते तच्च स्थानान्तरमिति, एवं पूर्वं स्वस्थानं तदेव चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमनन्तरस्थानं त्रुटिताङ्गाभिधानं भवति, इह सङ्ग्रहगाथेपुव्वतुडियाडडाववहूहुय तह उप्पले य पउमे य । नलिणत्थनिउर अउए नउए पउए य नायव्वे ॥ [ ] चूलियसीसपहेलिय चोद्दस नामा उ अंगसंजुत्ता । अट्ठावीस ठाणा चउणउयं होइ ठाणसयं ॥ [ ] ति । " अभिलापश्चैषाम् - पूर्वाङ्गं पूर्वं त्रुटिताङ्गं त्रुटितमित्यादिरिति । चउरासीतिमित्यादि, इह विभागोऽयम् - १. चउदस जे१ खं० ॥ २. चउदस जे१ ।। ३ अत्र संग्रह जे१ खं० ॥ ४. हुहुय जे२ हे ॥ 25 १८० पुढवि - दग-अगणि-मारुय एक्क्के सत्त जोणिलक्खाओ । व पत्ते अणं दस चोद्दस जोणिलक्खाओ || Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ८५] पञ्चाशीतिस्थानकम् । 10 बत्तीस ३२ अट्ठवीसा २८ बारस १२ अट्ठ ८ चउरो ४ सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥ पंचास ५० चत्त ४ छच्चेव सहस्सा लंत ६ सुक्क सहस्सारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिण्णारणच्चुयओ ।। एक्कारसुत्तरं हेट्टिमेसु १११ सत्तुत्तरं च मज्झिमए १०७ । सयमेगं उवरिमए १०० पंचेव अणुत्तरविमाणा । [बृहत्सं० ११७-११९] इति । भवंतीति मक्खाय त्ति एतानि विमानान्येवं भवन्ति इति हेतोराख्यातानि भगवता सर्वज्ञत्वात् सत्यवादित्वाच्चेति ।।८४।। [सू० ८५] आयारस्स णं भगवतो सचूलियागस्स पंचासीति उद्देसणकाला पण्णत्ता । धायइसंडस्स णं मंदरा पंचासीतिं जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ता । रुयए णं मंडलियपव्वए पंचासीतिं जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते । नंदणवणस्स णं हेट्ठिल्लातो चरिमंतातो सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं पंचासीतिं जोयणसयाइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अथ पञ्चाशीतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्राऽऽचारस्य प्रथमाङ्गस्य 15 नवाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपस्य सचूलियागस्स त्ति द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे पञ्च चूलिका: तासु च पञ्चमी निशीथाख्येह न गृह्यते भिन्नप्रस्थानरूपत्वात्तस्यास्तदन्याश्चतस्रः, तासु च प्रथम-द्वितीये सप्तसप्ताध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थ्यावेकैकाध्ययनात्मिके तदेवं सह चूलिकाभिर्वर्त्तत इति सचूलिकाकस्तस्य पञ्चाशीतिरुद्देशनकाला भवन्तीति, उद्देशकानामेतावत्संख्यत्वात्, तथाहि- प्रथमश्रुतस्कन्धे 20 नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सप्त षट् चत्वारश्चत्वारः षट् पञ्च अष्ट चत्वारः सप्त चेति, द्वितीयश्रुतस्कन्धे तु प्रथमचूलायां सप्तस्वध्ययनेषु क्रमेण एकादश त्रयस्त्रयः चतुर्षु द्वौ. द्वौ द्वितीयायां सप्तै कसराणि अध्ययनान्येवं तृतीयैकाध्ययनात्मिका एवं चतुर्थ्यपीति सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति । १. सहसा खं० । सहस जे१.२ ॥ २. सहसारे ॥२॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे षडशीतिस्थानकम् । तथा धातकीखण्डमन्दरी सहस्रमवगाढी चतुरशीतिः सहस्राण्युच्छ्रिताविति पञ्चाशीतिर्योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण भवतः, पुष्करार्द्धमन्दरावप्येवम्, नवरं सूत्रे नाभिहितौ विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति । तथा रुचको रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एव माण्डलिकपर्वतो मण्डलेन व्यवस्थितत्वात्, 5 स च सहस्रमवगाढश्चतुरशीतिरुच्छ्रित इति पञ्चाशीतिः सहस्राणि सर्वाग्रेणेति । तथा नन्दनवनस्य मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितायां प्रथममेखलायां व्यवस्थितस्याऽधस्त्याच्चरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्य रत्नप्रभापृथिव्याः खरकाण्डाभिधानप्रथमकाण्डस्यावान्तरकाण्डभूतस्याष्टमस्य सौगन्धिकाभिधानरत्नमयस्य ९८२ सौगन्धिककाण्डस्याधस्त्यश्चरमान्तः पञ्चाशीतिर्योजनशतान्यन्तरमाश्रित्य भवति, 10 कथम् ? पञ्च शतानि मेरो: सम्बन्धीनि प्रत्येकं च सहस्रप्रमाणत्वादवान्तरकाण्डानामष्टमकाण्डमशीतिः शतानीति ॥८५॥ [सू० ८६] सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ छलसीतिं गणा छलसीतिं गणहरा होत्था । सुपासस्स णं अरहतो छलसीतिं वाइसया होत्था । दोच्चाए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागाओ दोच्चस्स घणोदहिस्स हेल् चरिमंते एस णं छलसीतिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अथ षडशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, तत्र सुविधेः नवमजिनस्येह षडशीतिर्गणा गणधराश्चोक्ता आवश्यके तु अष्टाशीतिरिति मतान्तरमिदम् । तथा द्वितीया पृथिवी शर्कराप्रभा, सा च बाहल्यतो द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षमाना तदर्द्धे 20 षट्षष्टिः सहस्राणि घनोदधिश्च तदधोवर्त्ती द्वितीयपृथिवीसम्बन्धित्वात् द्वितीयो विंशतिः सहस्राणि बाहल्यत इति षडशीतिर्यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ८६ ॥ 15 [सू० ८७ ] मंदरस्स णं पव्वतस्स पुरत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिले चरिमंते एस णं सत्तासीतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । मंदरस्स [णं पव्वतस्स ] दक्खिणिल्लातो चरिमंतातो १. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८७] सप्ताशीतिस्थानकम् । १८३ दओभासस्स आवासपव्वतस्स उत्तरिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं मंदरस्स [णं पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो संखस्स आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एवं चेव । एवं मंदरस्स [णं पव्वतस्स] उत्तरिल्लातो चरिमंतातो दगसीमस्स आवासपव्वतस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीतिं जोयणसहस्साइं 5 अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। छण्हं कम्मपगडीणं आतिमउवरिल्लवजाणं सत्तासीतिं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । ___ महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लातो चरिमंतातो सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीति जोयणसयाइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं 10 रुप्पीकूडस्स वि । [टी०] अथ सप्ताशीतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, मंदरेत्यादि, मेरो: पौरस्त्यान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चचत्वारिंशत् सहस्राणि द्विचत्वारिंशच्च सहस्राणि लवणजलधिमवगाह्य गोस्तुभो वेलन्धरनागराजावासपर्वतः प्राच्यां दिशि भवति, एवं सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवमन्येषां त्रयाणामन्तरमवसेयमिति । 15 तथा षण्णां कर्मप्रकृतीनामादिमोपरिमवर्जानां ज्ञानावरणान्तरायरहितानां दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ऽऽयुष्कनाम-गोत्रसंज्ञितानामित्यर्थः सप्ताशीतिरुत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ता:, कथम् ?, दर्शनावरणादीनां षण्णां क्रमेण नव द्वे अष्टाविंशतिः चतस्रो द्विचत्वारिंशद् द्वे चेत्येतासां मीलने सूत्रोक्तसंख्या स्यादिति । ___ महाहिमवंतेत्यादि, महाहिमवति द्वितीयवर्षधरपर्वते अष्टौ सिद्धायतनकूट- 20 महाहिमवत्कूटादीनि कूटानि भवन्ति, तानि च पञ्चशतोच्छ्रितानि, तत्र महाहिमवत्कूटस्य पञ्च शतानि द्वे शते महाहिमवद्वर्षधरोच्छ्रयस्य अशीतिश्च शतानि प्रत्ये कं सहस्रमानानामष्टानां सौगन्धिककाण्डावसानानां रत्नप्रभाखरकाण्डावान्तरकाण्डानामित्येवं मीलिते सप्ताशीतिरन्तरं भवतीति । एवं रुप्पिकूडस्स वि त्ति रुक्मिणि पञ्चमवर्षधरे यद् द्वितीयं रुक्मिकूटाभिधानं कूटं तस्याप्यन्तरं महाहिमवत्कूटस्येव वाच्यम्, 25 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टाशीतिस्थानकम् । समानप्रमाणत्वाद् द्वयोरपीति ॥८७।। [सू० ८८] एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीतिं अट्ठासीतिं महग्गहा परिवारो पण्णत्तो । दिट्ठिवायस्स णं अट्ठासीतिं सुत्ताइं पण्णत्ताइं, तंजहा- उज्जुसुयं, 5 परिणतापरिणतं, एवं अट्ठासीति सुत्ताणि भाणियव्वाणि जहा णंदीए । मंदरस्स णं पव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं अट्ठासीतिं जोयणसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते। एवं चउसु वि दिसासु णातव्वं । __ बाहिराओ उत्तरातो णं कट्ठातो सूरिए पढमं छम्मासं अयमीणे चोयालीसइमे 10 मंडलगते अट्ठासीति एकसट्ठिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स णिवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिणिवुड्ढेत्ता सूरिए चारं चरतीति । दक्खिणकट्ठातो णं सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमीणे चोयालीसतिमे मंडलगते अट्ठासीतिं एगसट्ठिभागे मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स णिवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिणिवुड्ढेत्ता णं सूरिए चार चरति । 15 [टी०] अष्टाशीतिस्थानके किञ्चिद् विव्रियते, एकै कस्याऽसंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः, चन्द्रमाश्च सूर्यश्च चन्द्रम:सूर्यम्, तस्य, चन्द्र-सूर्ययुगलस्य इत्यर्थः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः, एते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्यत्र श्रूयते तथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेत एव परिवारतयाऽवसेया इति । दिट्ठिवाएत्यादि, दृष्टिवादस्य द्वादशाङ्गस्य परिकर्म-सूत्र-पूर्वगत-प्रथमानुयोग-चूलिकाभेदेन पञ्चप्रकारस्य सुत्ताइं 20 ति द्वितीयप्रकारभूतानि अष्टाशीतिर्भवन्ति, जहा नंदीए त्ति अतिदेशतः सूत्राणि दर्शितानि, तानि चाग्रे व्याख्यास्यामः । __मंदरस्सेत्यादि, मेरो: पूर्वान्तात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रमानत्वात् जम्बूद्वीपान्ताच्च द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्रेषु गोस्तुभस्य व्यवस्थितत्वात् तस्य च १. सूर्यश्चन्द्रम: जे२ ॥ २. र्भवति जे१,२ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० ८९ अष्टाशीति-एकोननवतिस्थानके । १८५ सहस्रविष्कम्भत्वाद् यथोक्तः सूत्रार्थो भवतीति, अनेनैव क्रमेण दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितान् दकावभास-शङ्ख-दकसीमाख्यान् वेलन्धरनागराजनिवासपर्वतानाश्रित्य वाच्यमत एवाह– एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वमिति । बाहिराओ णमित्यादि, बाह्याया: सर्वाभ्यन्तरमण्डलरूपाया उत्तरस्या: काष्ठायाः, क्वचित्तु बाहिराओ त्ति न दृश्यते, सूर्यः प्रथमं षण्मासं दक्षिणायनलक्षणं 5 दक्षिणायनादित्वात् संवत्सरस्य, अयमीणे त्ति आयान् आगच्छन् चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगतोऽष्टाशीतिमेकषष्टिभागान, दिवसखेत्तस्स त्ति दिवसस्यैव निवुड्ढेत्त त्ति निवर्ध्य हापयित्वा रयणिखेत्तस्स त्ति रजन्यास्तु अभिवयं सूरिए चारं चरइ त्ति भ्राम्यतीति, इह च भावनैवम्- प्रतिमण्डलं दिनस्य मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहानेर्दक्षिणायनापेक्षया चतुश्चत्वारिंशत्तमे अष्टाशीतिर्भागा हीयन्ते, रात्रेस्तु त एव वर्द्धन्त 10 इति, द्विः सूर्यग्रहणं चेह दिनरात्र्याश्रितवाक्यद्वयभेदकल्पनया न पुनरुक्तमवसेयमिति, इदं च सूत्रमष्टसप्ततिस्थानकसूत्रवद् भावनीयमिति । दक्खिणाओ इत्यादिसूत्रं पूर्वसूत्रवदवगन्तव्यम्, नवरमिह दिनवृद्धिः रात्रिहानिश्च भावनीयेति ।।८८।। [सू० ८९] उसभे णं अरहा कोसलिए इमीसे ओसप्पिणीए ततियाए समाए पच्छिमे भागे एकूणणउइए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगते वीतिकंते जाव 15 सव्वदुक्खप्पहीणे । समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउत्थीए समाए पच्छिमे भागे एगूणनउतीए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी एगूणनउई वाससयाइं महाराया होत्था। संतिस्स णं अरहतो एगणनउई अज्जासाहस्सीतो उक्कोसिया अज्जासंपदा 20 होत्था । [टी०] अथैकोननवतिस्थानके किञ्चिद्विचार्यते, तइयाए समाए त्ति सुषमादुष्षमाभिधानाया एकोननवत्यामर्द्धमासेषु त्रिषु वर्षेषु अर्द्धनवसु च मासेषु ‘सत्सु' इति गम्यते, जाव त्ति करणात् 'अंतगडे सिद्धे बुद्धे मुत्ते' त्ति दृश्यम् । हरिषेणचक्रवर्ती दशमस्तस्य च दश वर्षसहस्राणि सर्वायुस्तत्र च शतोनानि नव 25 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे नवतिस्थानकम् । सहस्राणि राज्यं शेषाण्येकादश [शतानि] कुमारत्व-माण्डलिकत्वा-ऽनगारत्वेषु अवसेयानि । इह शान्तिजिनस्यैकोननवतिरार्यिकासहस्राण्युक्तानि, आवश्यके त्वेकषष्टिः सहस्राणि शतानि च षडभिधीयन्त इति मतान्तरमेतदिति ॥८९।। [सू० ९०] सीयले णं अरहा णउइं धणूइं उटुंउच्चत्तेणं होत्था । 5 अजियस्स णं अरहओ णउई गणा नउई गणहरा होत्था । एवं संतिस्स वि । सयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउतिं वासाइं विजए होत्था । सव्वेसि णं वटवेयडपव्वयाणं उवरिल्लातो सिहरतलातो सोगंधियकंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं नउतिं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । 10 [टी०] अथ नवतिस्थानके किञ्चिद् व्याख्यायते, तत्राऽजितनाथस्य शान्तिनाथस्य चेह नवतिर्गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु पञ्चनवतिरजितस्य षट्त्रिंशत्तु शान्तेरुक्ताः, तदिदमपि मतान्तरमिति । तथा स्वयम्भूः तृतीयवासुदेवः, तस्य नवतिर्वर्षाणि विजयः पृथिवीसाधनव्यापारः । सव्वेसि णमित्यादि, सर्वेषां विंशतेरपि वर्तुलवैताढ्यानां शब्दापातिप्रभृतीनां योजनसहस्रोच्छ्रितत्वात् सौगन्धिक15 काण्डचरमान्तस्य चाष्टसु सहस्रेषु व्यवस्थितत्वात् नवसु सहस्रेषु नवतेः शतानां भावात् सूत्रोक्तमन्तरमनवद्यमिति ॥१०॥ सू० ९१] एक्काणउई परवेयावच्चकम्मपडिमातो पण्णत्तातो । कालोयणे णं समुद्दे एक्काणउतिं जोयणसयसहस्साइं साहियाइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । 20 कुंथुस्स णं अरहतो एक्काणउतिं आहोहियसता होत्था । १. “अज्जासंगहमाणं उसभाईणं अओ वुच्छ ॥२५९॥ तिण्णेव य लक्खाई १ तिण्णि य तीसा य २ तिण्णि छत्तीसा ३। तीसा य छच्च ४ पंच य तीसा ५ चउरो अ वीसा अ ६ ॥२६०॥ चत्तारि य तीसाई ७ तिणि य असिआई ८ तिण्हमेत्तो अ । वीसुत्तरं ९ छलहियं १० तिसहस्सहिअंच लक्खं च ११ ॥२६१।। लक्खं १२ अट्ट सयाणि य १३ बावट्टि सहस्स १४ चउसयसमग्गा १५ । एगट्ठी छच्च सया १६ सट्टिसहस्सा सया छच्च १७ ॥२६२।। सट्टि १८ पणपण्ण १९ पण्णे २० गचत्त २१ चत्ता २२ तहट्टतीसं च २३ । छत्तीसं च सहस्सा २४ अजाणं संगहो एसो ।।२६३।।" - इति आवश्यकनियुक्तौ ।। २. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९१] एकनवतिस्थानकम् । आउय-गोयवज्जाणं छण्हं कम्मपगडीणं एक्काणउतिं उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ । [टी०] अथैकनवतिस्थानके किञ्चिद्वितन्यते, तत्र परेषाम् आत्मव्यतिरिक्तानां वैयावृत्यकर्म्माणि भक्तपानादिभिरुपष्टम्भक्रियास्तद्विषयाः प्रतिमाः अभिग्रहविशेषाः परवैयावृत्यकर्म्मप्रतिमाः, एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि क्वचिदपि नोपलब्धानि, 5 केवलं विनय-वैयावृत्यभेदा एते सन्ति, तथाहि - दर्शनगुणाधिकेषु सत्कारादिर्दशधा विनयः, आह च सक्कार १ अब्भुट्ठाणे २ सम्माणा ३ ऽऽसणअभिग्गहो ४ तह य । आसणअणुप्पयाणं ५ किइकम्मं ६ अंजलिगहो य ७ ॥ १८७ इंतस्सगच्छणया ८ ठियस्स तह पज्जुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुव्वयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ ॥ [ ]त्ति । तत्र सत्कारो वन्दन-स्तवनादिः १, अभ्युत्थानम् आसनत्यागः २, सन्मानो वस्त्रादिपूजनम् ३, आसनाभिग्रहः तिष्ठत एवासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणमिति ४, आसनानुप्रदानम् आसनस्य स्थानात् स्थानान्तरसञ्चारणम् ५, कृतिकर्म्मादीनि प्रकटानि । तथा तीर्थकरादीनां पञ्चदशानां पदानामनाशातनादिपदचतुष्टयगुणितत्वे 15 षष्टिविधोऽनाशातनाविनयो भवति, तथाहि तित्थयर १ धम्म २ आयरिय ३ वायगे ४ थेर ५ कुल ६ गणे ७ संघे ८ । सम्भोय ९ किरियाए १० मइनाणाईण १५ य तहेव ।। [ ] अत्र भावना- तीर्थकराणामनाशातना, तीर्थकरप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अनाशातना, एवं सर्वत्र । कायव्वा पुण भत्ती बहुमाणो तह य वण्णवाओ य । अरहंतमाझ्याणं केवलनाणावसाणाणं ॥ [ ] ति । तथौपचारिकविनयः सप्तधा, यदाह 10 १. एता वक्ष्यमाणाश्च सर्वा अपि विनयसम्बद्धा गाथा दशवैकालिकस्य प्रथमेऽध्ययने हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावन्यत्र च समुद्धृताः सन्ति । विशेषतो जिज्ञासुभिः परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ॥ 20 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अब्भासच्छण १ छंदाणुवत्तणं २ कयपडिकीई तहय ३ । कारियनिमित्तकरणं ४ दुक्खत्तगवेसणा तहय ५ ।। तह देसकालजाणण ६ सव्वत्थेसु तहय अणुमई भणिया ७ । उवयारिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥ [ ] ति, 5 अभ्यासासनम् उपचरणीयस्यान्तिकेऽवस्थानम्, छन्दानुवर्त्तनम् अभिप्रायानुवृत्तिः, कृतप्रतिकृति म प्रसन्ना आचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति ‘न नाम निर्जरा' इति मन्यमानस्याहारादिदानम्, कारितनिमित्तकरणं सम्यक् शास्त्रमध्यापितस्य विशेषण विनये वर्त्तनं तदर्थानुष्ठानं च, शेषाणि प्रसिद्धानि, तथा वैयावृत्यं दशधा, यदाह आयरिय उवज्झाए थेर-तवस्सी-गिलाण-सेहाणं । 10 साहम्मिय-कुल-गण-संघसंगयं तमिह कायव्वं ॥ [ ] ति. तत्र प्रव्राजना १ दिगु २ देश ३ समुद्देश ४ वाचना ५ चार्यभेदादाचार्यस्य च पञ्चविधत्वात्तदेवं चतुर्दशधेत्येकनवतिर्विनयभेदाः, एते एव अभिग्रहविषयीकृताः प्रतिमा उच्यन्त इति । तथा कालोयणे त्ति कालोदसमुद्रः, स चैकनवतिर्लक्षाणि साधिकानि परिक्षेपेण, 15 आधिक्यं च सप्तत्या सहस्रैः षभिः शतैः पञ्चोत्तरैः सप्तदशभिर्धनु:शतैः पञ्चदशोत्तरैः सप्ताशीत्या चाङ्गुलैः साधिकैरिति । आहोहिय त्ति नियतक्षेत्रविषयावधयः । आयुर्गोत्रवर्जानां षण्णामिति ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीय-नामाऽन्तरायाणां क्रमेण पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-द्विचत्वारिंशत-पञ्चभेदानामिति ।।९।। [सू० ९२] बाणउइं पडिमातो पण्णत्ताओ ।। 20 थेरे णं इंदभूती बाणउतिं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे [जाव प्पहीणे । मंदरस्स णं पव्वतस्स बहुमज्झदेसभागातो गोथुभस्स आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं बाणउतिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं चउण्ह वि आवासपव्वयाणं । १. शास्त्रपदमपितस्य खं० ।। २. भेदाचार्य' जे२ खमू० ।। ३. सत्कारादि १०. अनाशातनादि ६०, औपचारिक ७. वैयावृत्य १४ = ९१ ॥ ४. कालायणे जे१.२ हे१.२ ।। ५. अहो' जे२ ।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९२] द्विनवतिस्थानकम् । १८९ [टी०] अथ द्विनवतिस्थानके किमप्यभिधीयते, द्विनवतिः प्रतिमा: अभिग्रहविशेषाः, ताश्च दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्त्यनुसारेण दर्श्यन्ते, तत्र किल पञ्च प्रतिमा उक्ताः, तद्यथासमाधिप्रतिमा १, उपधानप्रतिमा २, विवेकप्रतिमा ३, प्रतिसंलीनताप्रतिमा ४, एकविहारप्रतिमा चेति ५ । तत्र समाधिप्रतिमा द्विविधा- श्रुतसमाधिप्रतिमा चारित्रसमाधिप्रतिमा च, दर्शनं ज्ञानान्तर्गतमिति न भिन्ना दर्शनप्रतिमा विवक्षिता, तत्र 5 श्रुतसमाधिप्रतिमा द्विषष्टिभेदा, कथम् ?, आचारे प्रथमे श्रुतस्कन्धे पञ्च, द्वितीये सप्तत्रिंशत्, स्थानाङ्गे षोडश, व्यवहारे चतस्र इत्येता द्विषष्टिः, एताश्च चरित्रस्वभावा अपि विशिष्टश्रुतवतां भवन्तीति श्रुतप्रधानतया श्रुतसमाधिप्रतिमात्वेनोपदिष्टा इति सम्भावयामः । पञ्च सामायिकच्छेदोपस्थापनीयाद्याश्चारित्रसमाधिप्रतिमाः । उपधानप्रतिमा द्विविधा- भिक्षु-श्रावकभेदात्, तत्र भिक्षुप्रतिमा मासाई सत्तंता [पञ्चाशक० १८।३] 10 इत्यादिनाऽभिहितस्वरूपा द्वादश, उपासकप्रतिमास्तु दंसणवय [पञ्चाशक० १०।३] इत्यादिनाऽभिहितस्वरूपा एकादशेति सर्वास्त्रयोविंशतिः । विवेकप्रतिमा त्वेका क्रोधादेराभ्यन्तरस्य गण-शरीरोपधि-भक्त-पानादेर्बाह्यस्य च विवेचनीयस्यानेकत्वेऽप्येकत्वविवक्षणादिति । प्रतिसंलीनताप्रतिमाऽ-प्येकैव इन्द्रियस्वरूपस्य पञ्चविधस्य नोइन्द्रियस्वभावस्य च योग-कषाय-विविक्तशयना-ऽऽसनभेदतस्त्रिविधस्य 15 प्रतिसंलीनताविषयस्य भेदेनाविवक्षणादिति, पञ्चम्येकविहारप्रतिमैकैव, न चेह सा भेदेन विवक्षिता, भिक्षुप्रतिमास्वन्तर्भावितत्वादित्येवं द्विषष्टिः पञ्च त्रयोविंशतिरेका एका च द्विनवतिस्ता भवन्तीति । ___ स्थविर इन्द्रभूतिर्महावीरस्य प्रथमगणनायकः, स च गृहस्थपर्यायं पञ्चाशतं वर्षाणि त्रिंशतं छद्मस्थपर्यायं द्वादश च केवलित्वं पालयित्वा सिद्ध इति सर्वाणि द्विनवतिरिति। 20 मंदरस्सेत्यादेर्भावार्थ:- मेरुमध्यभागात् जम्बूद्वीपः पञ्चाशत् सहस्राणि ततो १. "मासाई सत्तता पढमा बिति सत्त राइदिणा । अहराई एगराई भिक्खुपडिमाण बारसगं ।।१।।'' इति सम्पूर्णा गाथा । आवश्यकसूत्रे प्रतिक्रमणाध्ययने 'बारसहिं भिक्खुपडिमाहिं' इति सूत्रस्य व्याख्यानरूपे मूलभाष्येऽपि गाथेयं वर्तते, व्याख्याता च तत्र हरिभद्रसूरिभिः ।। २. 'दसण वय सामाइय पोसहपडिमा अबंभ सच्चित्ते । आरंभ पेस उद्दिवज्जए समणभूए य ।।' इति सम्पूर्णा गाथा । गाथेयम् आवश्यकसूत्रे प्रतिक्रमणाध्ययने ‘इगारसहिं उवासगपडिमाहि' इति सूत्रस्य मूलभाष्येऽपि वर्तते ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिनवति-चतुर्नवतिस्थानके । द्विचत्वारिंशत् सहस्राण्यतिक्रम्य गोस्तुभपर्वत इति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवं शेषाणामपि ॥९२॥ [सू० ९३] चंदप्पभस्स णं अरहतो तेणउतिं गणा तेणउतिं गणहरा होत्था। संतिस्स णं अरहतो तेणउई चोद्दसपुव्विसया होत्था । 5 तेणउतिमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे वा नियट्टमाणे वा समं अहोरत्तं विसमं करेति । [टी०] अथ त्रिनवतिस्थानके किमपि वितन्यते, तेणउइंमंडलेत्यादि, तत्र अतिवर्त्तमानो वा सर्वबाह्यात् सर्वाभ्यन्तरं प्रति गच्छन् निवर्तमानो वा सर्वाभ्यन्तरात् सर्वबाह्यं प्रति गच्छन् व्यत्ययो वा व्याख्येयः, सममहोरात्रं विषमं करोतीत्यस्यार्थ:10 अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रं तयोः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश मुहूर्त्ता उभयोरपि भवन्ति, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहूर्तमहर्भवति रात्रिश्च द्वादशमुहूर्ता, सर्वबाह्ये तु व्यत्ययः, तथा त्र्यशीत्यधिके मण्डलशते द्वौ द्वावेकषष्टिभागौ वर्द्धते हीयेते च, यदा च दिनवृद्धिस्तदा रात्रिहानिः रात्रिवृद्धौ च दिनहानिरिति, तत्र द्विनवतितमे मण्डले प्रतिमण्डलं मुहर्तेकषष्टिभागद्वयवृद्ध्या त्रयो मुहर्ता एकेनैकषष्टिभागेनाधिका वर्द्धन्ते 15 हीयन्ते वा, तेषु च द्वादशमुहूर्तेषु मध्ये क्षिप्तेषु अष्टादशभ्योऽपसारितेषु वा पञ्चदश मुहूर्ता उभयत्रैकेनैकषष्टिभागेनाधिका हीना वा भवन्ति, अतो द्विनवतितममण्डलस्यार्द्ध समाहोरात्रता तस्यैव चान्ते विषमाहोरात्रता भवति, द्विनवतितमं मण्डलं चादित आरभ्य त्रिनवतितममिति यथोक्तः सूत्रार्थ इति ॥९३।। [सू० ९४] निसह-नेलवंतियाओ णं जीवातो चउणउई चउणउई 20 जोयणसहस्साई एकं छप्पण्णं जोयणसतं दोण्णि य एकूणवीसतिभागे जोयणस्स आयामेणं पण्णत्तातो] । अजितस्स णं अरहतो चउणउतिं ओहिनाणिसया होत्था । [टी०] अथ चतुर्नवतिस्थानके किञ्चिद्विवेच्यते, निसहेत्यादि, इह पादोना १. पंचदश मुहूर्ता जे१ खं० ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ [सू० ९५] पञ्चनवतिस्थानकम् । संवादगाथा- चउणउइसहस्साइं छप्पण्णहियं सयं कला दो य । जीवा निसहस्सेसा [बृहत्क्षेत्र० ६०] इति ।।९४।। [सू० ९५] सुपासस्स णं अरहतो पंचाणउतिं गणा पंचाणउतिं गणहरा होत्था । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चरिमंताओ चउद्दिसिं लवणसमुदं पंचाणउतिं 5 पंचाणउतिं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चत्तारि महापायाला पण्णत्ता, तंजहावलयामुहे केउए जुयते ईसरे । लवणसमुदस्स उभओपासिं पि पंचाणउतिं पंचाणउतिं पदेसा उव्वेधुस्सेधपरिहाणीए पण्णत्ता । कुंथू णं अरहा पंचाणउतिं वाससहस्साई परमाउयं पालयित्ता सिद्धे बुद्धे 10 जाव प्पहीणे । थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउतिं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । [टी०] अथ पञ्चनवतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, लवणसमुद्रस्योभयपार्श्वतोऽपि पञ्चनवतिः पञ्चनवतिः प्रदेशा उद्वेधोत्सेधपरिहाण्यां विषये प्रज्ञप्ताः, अयमत्र 15 भावार्थ:- लवणसमुद्रमध्ये दशसाहम्रिकक्षेत्रस्य समधरणीतलापेक्षया सहस्रमुद्वेधः, उण्डत्वमित्यर्थः, तदनन्तरं पञ्चनवतिं प्रदेशानतिक्रम्योद्वेधस्य प्रदेश: परिहीयते, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा उद्वेधस्य प्रदेशो हीयते, एवं पञ्चनवतिपञ्चनवतिप्रदेशातिक्रमे प्रदेशमात्रस्य प्रदेशमात्रस्योद्वेधस्य हान्या पञ्चनवत्यां योजनसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु समुद्रतटप्रदेशे उद्वेधतः सहस्रस्यापि परिहाणिर्भवति, समभूतलत्वं भवतीत्यर्थः, तथा 20 समुद्रमध्यभागापेक्षया तत्तटस्य साहसिक उत्सेधो भवति, उत्सेधश्चोच्चत्वम्, तत्र समधरणीतलरूपात् तत्तटात् पञ्चनवतिं प्रदेशानतिक्रम्य एकप्रदेशिका उत्सेधस्य परिहागिर्भवति, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा प्रादेशिक्येवोत्सेधहानिर्भवति, एवं पञ्चनवतिपञ्चनवतिप्रदेशातिक्रमेण प्रादेशिक्या प्रादेशिक्या उत्सेधहान्या पञ्चनवत्यां योजनसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु समुद्रमध्यभागे सहस्रमपि उत्सेधस्य परिहीयते, एवं 25 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे षण्णवतिस्थानकम् । साहसिकोत्सेधपरिहाणौ, साहसिकोद्वेधता भवति लवणस्येति, अथवा उद्वेधार्थं योत्सेधपरिहाणिस्तस्यां पञ्चनवतिः प्रदेशा: प्रज्ञप्ताः, तेष्वतिलघितेषु उत्सेधतः प्रदेशपरिहाण्यामुद्वेधः प्रादेशिको भवतीति । तथा कुन्थुनाथस्य सप्तदशतीर्थकरस्य कुमारत्व-माण्डलिकत्व-चक्रवर्त्तित्वा5 ऽनगारत्वेषु प्रत्येकं त्रयोविंशतेर्वर्षसहस्राणामर्द्धाष्टमवर्षशतानां च भावात् सर्वायुः पञ्चनवतिवर्षसहस्राणि भवतीति । तथा मौर्यपुत्रो महावीरस्य सप्तमगणधरस्तस्य पञ्चनवतिवर्षाणि सर्वायुः, कथम् ?, गृहस्थत्व-छद्मस्थत्व-केवलित्वेषु क्रमेण पञ्चषष्टिचतुर्दश-षोडशानां वर्षाणां भावादिति ।।९५।। [सू० ९६] एगमेगस्स णं रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स छण्णउतिं छण्णउतिं 10 गामकोडीओ होत्था । वायुकुमाराणं छण्णउइं भवणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । वावहारिए णं दंडे छण्णउतिं अंगुलाणि अंगुलपमाणेणं, एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसले वि । अब्भंतराओ आइमुहत्ते छण्णउतिं अंगुलच्छाये पण्णत्ते । 15 [टी०] अथ षण्णवतिस्थानके किमपि व्याख्यायते, वायुकुमाराणां षण्णवतिर्भवनलक्षाणि दक्षिणस्यां पञ्चाशत उत्तरस्यां च षट्चत्वारिंशतो भावादिति । वावहारिए त्ति व्यावहारिको येन गव्यूतादिप्रमाणं चिन्त्यते, अव्यावहारिकस्तु लघुः दी? वा भवत्युक्तप्रमाणात्, दण्डो हि चतुःकर उक्तः, करश्च चतुर्विंशत्यगुलः, एवं चतुर्विंशतौ चतुर्गुणितायां षण्णवतिः स्यादेवेति । अब्भंतराओ इत्यादि, अभ्यन्तराद् 20 अभ्यन्तरं मण्डलमाश्रित्येत्यर्थः, आदिमुहूर्त्तः षण्णवत्यङ्गुलच्छायः प्रज्ञप्तः, अयमत्र भावार्थ:- सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यत्र दिने सूर्यश्चरति तस्य दिनस्य प्रथमो मुहूर्तो द्वादशाङ्गुलमानं शकुमाश्रित्य षण्णवत्यगुलच्छायो भवति, तथाहितद्दिनमष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणं भवतीति मुहूर्तोऽष्टादशभागो दिनस्य भवति, ततश्च छायागणितप्रक्रियया छेदेनाष्टादशलक्षणेन द्वादशाङ्गुलः शकुर्गुण्यत इति, ततो द्वे शते १..हे१ विना- णास्यां पंचाशत उत्तरास्यां च जे१.२ खं० । णायां पंचाशत उत्तरायां च हे२ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९७-९८] सप्तनवति- अष्टनवतिस्थानके । षोडशोत्तरे भवतः २१६, तयोरर्द्धाकृतयोरष्टोत्तरं शतं भवति १०८, ततश्च शङ्कप्रमाणे १२ऽपनीते षण्णवतिरङ्गुलानि लभ्यन्ते इति ॥ ९६ ।। १९३ [सू० ९७] मंदरस्स णं पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिले चरिमंते एस णं सत्ताणउतिं जोयणसहस्साइं अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं पि । अट्ठण्हं कम्मपगडीणं सत्ताणउतिं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउतिं वाससयाई अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो जाव पव्वतिते । [टी०] अथ सप्तनवतिस्थानके किञ्चिद् विचार्यते, मंदरेत्यादेर्भावार्थोऽयम् - मेरोः पश्चिमान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशता गोस्तुभ इति 10 यथोक्तमेवान्तरमिति । हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तनवतिं वर्षशतानि गृहमध्युषितस्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्यां पालितवान् दशवर्षसहस्रत्वात्तदायुष्कस्येति ॥ ९७॥ [सू० ९८] नंदणवणस्स णं उवरिल्लातो चरिमंतातो पंडयवणस्स हेट्ठिले चरिमंते एस णं अट्ठाणउतिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । 5 मंदरस्स णं पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिततो गोथुभस्म 15 आवासपव्वतस्स पुरत्थिमिले चरिमंते एस णं अट्ठाणउतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउदिसिं पि । दाहिणभरहड्डस्स णं धणुपट्टे अट्ठाणउतिं जोयणसयाइं किंचूणाई आयामेणं पण्णत्ते । उत्तरातो णं कट्ठातो सूरिए पढमं छम्मासं अयमीणे एकूणपन्नासतिमे 20 मंडलगते अट्ठाणउतिं एक्सट्ठिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुत्ता णं सूरिए चारं चरति । दक्खिणातो णं कट्ठातो सरिए दोच्चं छम्मासं अयमीणे एक्कूणपन्नासति मंडलगते अाणउति एकसट्टिभाए मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस अभिनिवुत्ता णं सूरिए चारं चरति । 25 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे रेवतिपढमजेट्ठपज्जवसाणाणं एक्कूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउतिं तारातो तारग्गेणं पण्णत्तातो । [टी०] अथाष्टनवतिस्थानके किञ्चिदभिधीयते, नंदणवणेत्यादेर्भावार्थोऽयम्नन्दनवन मेरो: पञ्चयोजनशतोच्छितप्रथममेखलाभावि पञ्चयोजनशतोच्छितं 5 तद्गतपञ्चयोजनशतोच्छ्रितकूटाष्टकस्य तद्ग्रहणेन ग्रहणात्, तथा पण्डकवनं च मेरुशिखरव्यवस्थितम्, अतो नवनवत्या मेरोरुच्चस्त्वस्य आद्ये सहस्रे अपकृष्टे यथोक्तमन्तरं भवतीति । गोस्तुभसूत्रभावार्थः पूर्ववत्, नवरं गोस्तुभविष्कम्भसहस्रे क्षिप्ते यथोक्तमन्तरं भवतीति । वेयड्ढस्स णमित्यादिर्यः केषुचित् पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, सम्यक्पाठश्चायम्- दाहिणभरहड्डस्स णं धणुपट्टे अट्ठाणउइं जोयणसयाइं किंचूणाई 10 आयामेणं पण्णत्ते इति, यतोऽन्यत्रोक्तम् नव चेव सहस्साई छावट्ठाइं सयाई सत्त भवे । सविसेस कला चेगा दाहिणभरहद्धधणुपट्टे ॥ [बृहत्क्षेत्र० ४३] [९६०७ २. ] ति । वैताढ्यधनुःपृष्ठं त्वेवमुक्तमन्यत्र दस चेव सहस्साई सत्तेव सया हवंति तेयाला । 15 धणुपट्ट वेयढे कला य पण्णारस हवंति ।। [बृहत्क्षेत्र० ४५] [१०७४३ २] उत्तरः यो गमित्यादि, भावार्थः पूर्वोक्तानुसारेणावसेयः, नवरमिह एक्वेतालीसइमे इति केषुचित् पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, एगूणपंचासइमे त्ति एकोनपञ्चाशतो द्विगुणत्वे आष्टनवतिर्भवति, द्वयगुणनं च प्रतिमण्डलं मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयवृद्धेर्दिनस्य रात्रेवेति । रेवईत्यादि, रेवतिः प्रथमा येषां तानि रेवतिप्रथमानि तथा ज्येष्ठा पर्यवसाने 2c येषां तानि ज्येष्ठापर्यवसानानि, तानि च लानि चेति कर्मधारयः, तेषामेकोनविंशतेर्नक्षत्राणामष्टनवतिस्तारास्तारापरिभागेन प्रज्ञप्ताः, तथाहिरेवतीनक्षत्रं द्वात्रिंशत्तारम् ३२, अश्विनी त्रितारम् ३५, भरणी त्रितारम् ३८, कृत्तिका षट्तारम् ४४, रोहिणी पञ्चतारम् ४९, मृगशिरत्रितारम् ५२, आद्रा(H?) एकतारम् ५३, पुनर्वसू पञ्चतारम् ५८, पुष्यस्त्रितारम् ६१, अश्लेषा षट्तारम् ६७, मघा सप्ततारम् 25 ७४, पूर्वफाल्गुनी द्वितारम् ७६, उत्तरफाल्गुनी द्वितारम् ७८, हस्तः पञ्चतारम् ८३, १. पण्णरस हे२ ।। २. उत्तराफा' जे२ .. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९९] नवनवतिस्थानकम् । १ चित्रा एकतारम् ८४, स्वातिरेकतारम् ८५, विशाखा पञ्चतारम् ९०, अनुराधा चतुस्तारम् ९४, ज्येष्ठा त्रितारमित्येवम् ९७, सर्वतारामीलने यथोक्तताराग्रमेकोनं ग्रन्थान्तराभिप्रायेण भवति, अधिकृतग्रन्थाभिप्रायेण त्वेषामेकतरस्य एकताराधिकत्वं सम्भाव्यते ततो यथोक्ता तत्संख्या भवतीति ॥९८|| १९५ [सू० ९९] मंदरे णं पव्वते णवणउतिं जोयणसहस्साइं उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ते। 5 नंदणवणस्स णं पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं णवणउतिं जोयणसताइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं दक्खिणिल्लातो उत्तरे । पढमे सूरियमंडले णवणउतिं जोयणसहस्साइं सातिरेगाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । दोच्चे सूरियमंडले णवणउतिं जोयणसहस्साइं साहियाइं 10 आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । ततिए सूरियमंडले नवनउतिं जोयणसहस्साइं साहियाइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेट्ठिल्लातो चरिमंतातो वाणमंतरभोमेज्जविहाराणं उवरिमंते एस णं नवनउतिं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । 15 [टी०] अथ नवनवतिस्थानके किमपि लिख्यते, नंदणवणेत्यादि, अस्य भावार्थ:मेरुविष्कम्भो मूले दश सहस्राणि, नन्दनवनस्थाने तु नवनवतिर्यो जनशतानि चतुःपञ्चाशच्च योजनानि षट् च योजनैकादशभागा बाह्यो गिरिविष्कम्भो नन्दनवनाभ्यन्तरस्तु मेरुविष्कम्भ एकोननवतिः शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षट् चैकादशभागास्तथा पञ्च शतानि नन्दनवनविष्कम्भः, तदेवमभ्यन्तरगिरिविष्कम्भो 20 द्विगुणनन्दनवनविष्कम्भश्च मीलितो यथोक्तमन्तरं प्रायो भवतीति । पढमसूरियमंडले त्ति, इह जम्बूद्वीपप्रमाणस्याशीत्युत्तरशते द्विगुणिते अपकृष्टे यो राशि: स प्रथममण्डलस्याऽऽयामविष्कम्भः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि १. राधाश्चतु १, २ विना । "अणुराहा पंचतारे पन्नत्ते" इति विक्रमसंवत् १९७५ तमे वर्षे आगमोदयसमिति प्रकाशितायां मलयगिरिविरचितटीकासहितायां सूर्यप्रज्ञप्तौ दशमे प्राभृते नवमे प्राभृतप्राभृते ।। २. अत्र नव जे१,२ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे शतस्थानकम् । चत्वारिंशदधिकानि, द्वितीयं तु नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि पञ्चचत्वारिंशच्च योजनानि योजनस्य च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, कथम् ?, मण्डलस्य मण्डलस्य चान्तरं द्वे द्वे योजने, सूर्यविमानविष्कम्भश्चाष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एतद् द्विगुणितं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशदे कषष्टिभागाश्चेति जातमेतच्च पूर्वमण्डलविष्कम्भे क्षिप्त 5 जातमुक्तप्रमाणमिति, तृतीयमण्डलविष्कम्भोऽप्येवमवसेयः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि एकपञ्चाशत् योजनानि नवैकषष्टिभागाश्चेति । इमीसे णमित्यादेर्भावार्थोऽयम्- अञ्जनकाण्डं दशमं काण्डम्, तत्र च रत्नप्रभोपरिमान्ताच्छतं शतानां भवति, प्रथमकाण्डप्रथमशते च व्यन्तरनगराणि न सन्तीति तस्मिन्नपसारिते नवनवतिः शतान्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ॥९९।। 10 [सू० १००] दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछठेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहिया यावि भवति । सयभिसयानक्खत्ते सएकतारे पण्णत्ते । सुविधी पुप्फदंते णं अरहा एगं धणुसतं उडुंउच्चत्तेणं होत्था । 'पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एकं वाससयं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे 15 जाव प्पहीणे । एवं थेरे वि अज्जसुहम्मे । सव्वे वि णं दीहवेयड्पव्वया एगमेगं गाउयसतं उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं चुल्लहिमवंत-सिहरिवासहरपव्वया एगमेगं जोयणसतं उटुंउच्चत्तेणं, एगमेगं गाउयसतं उव्वेधेणं पण्णत्ता ।। सव्वे वि णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उटुंउच्चत्तेणं, एगमेगं 20 गाउयसतं उव्वेधेणं, एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं पण्णत्ता । [टी०] अथ शतस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र दश दशमदिनानि यस्यां सा दशदशमिका, या हि दिनानां दश दशकानि भवति, तत्र भवन्ति दश दशमदिनानि शतं च दिनानामत उच्यते एकेन रात्रिंदिवशतेनेति, यस्यां च प्रथमे दशके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा द्वितीये द्वे द्वे एवं यावद् दशमे दश दशेत्येवं सर्वभिक्षासङ्कलने सूत्रोक्तसंख्या भवत्येव इति। १. स्याचांतरं जे१ । 'स्यावांतरं खं० जे२ ।। २. भवंति जे२ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ [सू० १०१-१०४ ] १५०-२००-२५०-३०० स्थानकानि । पार्श्वनाथस्त्रिंशद्वर्षाणि कुमारत्वं सप्ततिं चानगारत्वमित्येवं शतमायुः पालयित्वा सिद्धः । एवं थेरे वि अज्जसुहम्मे त्ति आर्यसुधर्मा महावीरस्य पञ्चमो गणधर : सोऽपि वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा सिद्ध:, तथा च तस्यागारवासः पञ्चाशद्वर्षाणि छद्मस्थपर्यायो द्विचत्वारिंशत् केवलिपर्यायोऽष्टौ, भवति चैतद्राशित्रयमीलने वर्षशतमिति । वैताढ्यादिषूच्चत्वचतुर्थांश: उद्वेध:, काञ्चनका उत्तरकुरु - देवकुरुषु क्रमव्यवस्थितानां 5 पञ्चानां महाह्रदानामुभयतो दश दश व्यवस्थिताः, ते च जम्बूद्वीपे शतद्वयसंख्याः समवसेया इति ॥ १००॥ [सू० १०९१] चंदप्पभे णं अरहा दिवडुं धणुसतं उउच्चत्तेणं होत्था । आरणे कप्पे दिवङ्कं विमाणावाससतं पण्णत्तं । एवं अच्चुए वि । [सू० १०२] सुपासे णं अरहा दो धणुसयाई उउच्चत्तेणं होत्था । सव्वे विणं महाहिमवंत - रुप्पीवासहरपव्वया दो दो जोयणसताई उउच्चत्तेणं, दो दो गाउयसताइं उव्वेधेणं पण्णत्ता । जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपव्वतसया पण्णत्ता । 10 [सू० १०३] पउमप्पभे णं अरहा अड्डाइजाइं धणुसताई उड्डउच्चत्तेणं होत्था । असुरकुमाराणं देवाणं पासायवडेंसगा अड्डाइज्जाई जोयणसयाई उड्डउच्चत्तेणं 15 पण्णत्ता । [टी०] अथैकोत्तरस्थानवृद्ध्या सूत्ररचनां परित्यज्य पञ्चाशच्छतादिवृद्धया तां कुर्वन्नाह- चंदप्पहेत्यादि, सुगमं च सर्वमा द्वादशाङ्गगणिपिटकसूत्रात् ॥ १५०॥२००|| नवरं पासायवडेंसय त्ति अवतंसकाः शेखरकाः कर्णपूराणि वा अवतंसका इव अवतंसकाः प्रधाना इत्यर्थः, प्रासादाश्च ते अवतंसकाश्च प्रासादानां वा मध्ये अवतंसकाः 20 प्रासादावतंसकाः ।। २५०।। [सू० १०४ ] सुमती णं अरहा तिण्णि धणुसयाई उड्डउच्चत्तेणं होत्था । अरिट्ठनेमी णं अरहा तिण्णि वाससयाइं कुमारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ३५०-४००-४५० स्थानकानि । वेमाणियाणं देवाणं विमाणपागारा तिण्णि तिण्णि जोयणसताइं उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सयाणि चोद्दसपुव्वीणं होत्था। पंचधणुसतियस्स णं अंतिमसारीरियस्स सिद्धिगतस्स सातिरेगाणि तिण्णि 5 धणुसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा पण्णत्ता । [सू० १०५] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अद्भुट्ठाई सयाई चोद्दसपुव्वीणं होत्था । अभिनंदणे णं अरहा अद्भुट्ठाई धणुसयाई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । [टी०] तथा पंचधणुस्सतियस्स णमित्यादि, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्य 10 अंतिमसारीरियस्स त्ति चरमशरीरस्य सिद्धिगतस्य सातिरेकाणि त्रीणि शतानि धनुषां जीवप्रदेशावगाहना प्रज्ञप्ता, यतोऽसौ शैलेशीकरणसमये शरीररन्ध्रपूरणेन देहविभागं विमुच्य घनप्रदेशो भूत्वा देहत्रिभागद्वयावगाहनः सिद्धिमुपगच्छति, सातिरेकत्वं चैवम् तिण्णि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो । 15 एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिय ॥ [आव० नि० ९७१] त्ति ।।३००।।३५०।। [सू० १०६] संभवे णं अरहा चत्तारि धणुसताई उड्ढुंउच्चत्तेणं होत्था । सव्वे वि णं णिसभ-नीलवंता वासहरपव्वया चत्तारि चत्तारि जोयणसताई उड्डूंउच्चत्तेणं, चत्तारि चत्तारि गाउयसताई उव्वेधेणं पण्णत्ता । सव्वे वि य णं वक्खारपव्वया णिसभ-नीलवंतवासहरपव्वयं तेणं चत्तारि 20 चत्तारि जोयणसताई उ8उच्चत्तेणं, चत्तारि चत्तारि गाउयसताइं उव्वेधेणं पण्णत्ता। आणय-पाणएसु णं दोसु कप्पेसु चत्तारि विमाणसया पण्णत्ता । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स चत्तारि सता वादीणं सदेवमणुयासुरम्मि लोगम्मि वाए अपराजिताणं उक्कोसिया वादिसंपया होत्था । [सू० १०७] अजिते णं अरहा अद्धपंचमाइं धणुसताइं उटुंउच्चत्तेणं होत्था। 25 सगरे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी अद्धपंचमाइं धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० स्थानकम् । [सू० १०८] १९९ [सू० १०८] → सव्वे वि णं वक्खारपव्वया सीया-सीओयाओ महानईओ मंदरं वा पव्वयं तेणं पंच जोयणसयाई उडुंउच्चत्तेणं, पंच गाउयसयाइं उव्वेहेणं पण्णत्ता + । ___ सव्वे वि णं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ता । 5 उसभे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंच धणुसताइं उर्दउच्चत्तेणं होत्था । सोमणस-गंधमादण-विजुप्पभ-मालवंता णं वक्खारपव्वया णं मंदरपव्वयं तेणं पंच पंच जोयणसयाई उडुंउच्चत्तेणं, पंच पंच गाउयसताई उव्वेधेणं पण्णत्ता । 10 ___ सव्वे वि णं वक्खारपव्वयकूडा हरि-हरीसहकूडवजा पंच पंच जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं णंदणकूडा बलकूडवजा पंच पंच जोयणसताइं उटुंउच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा पंच पंच जोयणसयाइं उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता। 15 [टी०] सव्वे वि णं वक्खारपव्वएत्यादि, वक्षस्कारपर्वता एकमेरुप्रतिबद्धा विंशतिस्ते च वर्षधरासत्तौ चतु:शतोच्चाः, शीतादिनदीप्रत्यासत्तौ मेरुप्रत्यासत्तौ च पञ्चशतोच्चा इति । तथा सव्वे वि णं वक्खारेत्यादि, तत्र वर्षधरकूटानि शतद्वयमशीत्यधिकम्, कथम् ?, लहुहिमव हिमव निसढे एक्कारस अट्ठ नव य कूडाइं । नीलाइसु तिसु नवगं अट्ठेक्कारस जहासंखं ॥ [ ] एतेषां च पञ्चगुणत्वात्, वक्षस्कारकूटानि त्वशीत्यधिकचतुःशतीसंख्यानि, कथम् ?, विजुपहमालवंते नव नव सेसेसु सत्त सत्तेव । सोलस वक्खारेसुं चउरो चउरो य कूडाइं ॥ [ ] 20 १. → एतदन्तर्गतः पाठो जे२ मध्ये एव वर्तते ।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ६०० स्थानकम् । एतेषां पञ्चगुणत्वात्, पञ्चगुणत्वं च जम्बूद्वीपादिमेरूपलक्षितक्षेत्राणां पञ्चत्वात्, सर्वाण्येतानि पञ्चशतोच्छ्रितानि, एवं मानुषोत्तरादिष्वपि, वैताढ्यकूटानि तु सक्रोशषड्योजनोच्छ्रयाणि, वर्षकूटानि तु ऋषभकूटादीन्यष्टयोजनोच्छ्रितानीति, हरिकूटहरिसहकूटवर्जनं त्विह तयोः सहस्रोच्छ्रयत्वाद्, आह च5 विजुप्पभहरिकूडो हरिस्सहो मालवंतवक्खारे । नंदणवणबलकूडो उव्विद्धा जोयणसहस्सं ॥ [बृहत्क्षेत्र० १५६] ति ।।५००।। [सू० १०९] सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु विमाणा छ जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । चुल्लहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरिमंतातो चुल्लहिमवंतस्स 10 वासहरपव्वतस्स समे धरणितले एस णं छ जोयणसताई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं सिहरिकूडस्स वि । पासस्स णं अरहतो छ सता वादीणं सदेवमणुयासुरे लोए [वाए] अपराजियाणं उक्कोसा वातिसंपदा होत्था । अभिचंदे णं कुलगरे छ धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । 15 वासुपुजे णं अरहा छहिं पुरिससतेहिं मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वतिते । [टी०] चुल्लहिमवंतकूडस्सेत्यादि, इह भावार्थ:- हिमवान् योजनशतोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति । अभिचंदे णं कुलकरे त्ति अभिचन्द्रः कुलकरोऽस्यामवसर्पिण्यां सप्तानां कुलकराणां चतुर्थः, तस्योच्छ्रयः षड् धनु:शतानि १. “व्या०- विद्युत्प्रभनामके देवकुरूणां पश्चिमदिग्भागे मेरोर्दक्षिणापरकोणस्थे निषधलग्ने गजदन्ते पर्वते हरिकूट यन्नाम निषधप्रत्यासन्नं नवमं कूटम्, तथोत्तरकुरूणां पूर्वदिशि मेरोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि वर्तमाने नीलवद्वर्षधरपर्वतलग्ने माल्यवति वक्षस्कारपर्वते नीलवतः प्रत्यासन्नं यन्नवमं हरिस्सहकूटं नाम कूटम्, यच्च मेरोः प्रथममेखलायां नन्दनवने उत्तरपूर्वस्यां दिशि वक्ष्यमाणस्वरूपं बलकूटं नाम कूटम्, एतानि त्रीण्यपि कूटानि कनकमयानि प्रत्येकं योजनसहस्रमुद्विद्धानि उच्चानि १०००।” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ २. वक्खारो जे२ हेमू२ ।। ३. "कुलकरनामप्रतिपादनायाह- पढमित्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो अ पसेणइए मरुदेवे चेव नाभी य ॥१५५।। प्रथमोऽत्र विमलवाहनश्चक्षुष्मान् यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः ततश्च प्रसेनजित मरुदेवश्चैव Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७००-८०० स्थानके । २०१ सू० ११०-१११] पञ्चाशदधिकानि ।।६००।। [सू० ११०] बंभ-लंतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसताइं उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसता होत्था । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त वेउव्वियसया होत्था । अरिट्ठनेमी णं अरहा सत्त वाससताई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । महाहिमवंतकू डस्स णं उवरिल्लातो चरिमंतातो महाहिमवंतस्स वासधरपव्वयस्स समे धरणितले एस णं सत्त जोयणसताई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं रुप्पिकूडस्स वि । 10 [टी०] श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त जिनशतानि केवलिशतानीत्यर्थः । तथा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त वैक्रियशतानि वैक्रियलब्धिमत्साधुशतानीत्यर्थः । अरिद्वेत्यादि, देसूणाई ति चतुःपञ्चाशता दिनानामूनानि, तत्प्रमाणत्वात् छद्मस्थकालस्येति । महाहिमवंतेत्यादौ भावार्थोऽयम्महाहिमवान् योजनशतद्वयोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति 15 ।।७००॥ [सू० १११] महासुक्क-सहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ट जोयणसताई उर्दूउच्चत्तेणं पण्णत्ता । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसतेसु वाणमंतरभोमेजविहारा पण्णत्ता । 20 समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववातियाणं देवाणं गतिकल्लाणाणं ठितिकल्लाणाणं आगमेसिभद्दाणं उक्कोसिया नाभिश्चेति ।।१५५।। णव धणुसया य पढमो अट्ठय सतद्धसत्तमाई च । छच्चेव अद्धछट्ठा पंचसया पण्णवीसं तु ॥१५६॥ नव धनु:शतानि प्रथमः अष्टौ च सप्त अर्धसप्तमानि षड़ च अर्धषष्ठानि पञ्च शतानि पञ्चविंशतिः. अन्ये पठन्ति- पञ्चशतानि विंशत्यधिकानि, यथासंख्यं विमलवाहनादीनामिदं प्रमाणं द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥१५६।।" इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्रयां वृत्तौ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ९०० स्थानकम् । अणुत्तरोववातियसंपदा होत्था । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो अट्ठहिं जोयणसएहिं सूरिए चारं चरति । अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठ सताई वादीणं सदेवमणुयासुरम्मि लोगम्मि 5 वाते अपराजियाणं उक्कोसिया वादिसंपदा होत्था । __[टी०] इमीसे णमित्यादि, प्रथमं काण्डं खरकाण्डस्य षोडशविभागस्य प्रथमविभागरूपं रत्नकाण्डम्, तत्र योजनसहस्रप्रमाणे अध उपरि च योजनशतद्वयं विमुच्यान्येष्वष्टसु योजनशतेषु वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्च तेषां सम्बन्धिनः भूमिविकारत्वाद् भौमेयकास्ते च ते विहरन्ति क्रीडन्ति तेष्विति विहाराश्च नगराणि 10 वानव्यन्तरभौमेयकविहारा इति । अट्ठ सय त्ति अष्ट शतानि, केषामित्याह अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं ति देवेषूत्पत्स्यमानत्वात् देवा द्रव्यदेवा इत्यर्थः, तेषाम्, गति: देवगतिलक्षणा कल्याणं येषां ते गतिकल्याणाः, तेषाम्, एवं स्थिति: त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणा कल्याणं येषां ते तथा, तेषाम्, तथा ततश्च्युतानामागमिष्यद् आगामि भद्रं कल्याणं निर्वाणगमनलक्षणं येषां ते आगमिष्यद्भद्राः, तेषाम्, किमित्याह15 उक्कोसिएत्यादि ॥८००॥ - [सू० ११२] आणय-पाणय-आरण-ऽच्चुतेसु कप्पेसु विमाणा णव जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । ___ निसभकूडस्स णं उवरिल्लातो सिहरतलातो णिसभस्स वासहरपव्वतस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसताई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं 20 नीलवंतकूडस्स वि । विमलवाहणे णं कुलगरे णव धणुसताई उहुंउच्चत्तेणं होत्था । इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो णवहिं जोयणसतेहिं सव्वुपरिमे तारारूवे चारं चरति । निसभस्स णं वासधरपव्वयस्स उवरिल्लातो सिहरतलातो इमीसे रतणप्पभाए Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ [ सू० ११२-११४] १०००-११०० स्थानके । पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं णव जोयणसताई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं नीलवंतस्स वि । [टी०] निसहकूडस्स णमित्यादि, इहायं भाव:- निषधकूटं पञ्चशतोच्छ्रितं निषधश्चतुःशतोच्छ्रित इति यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥९००॥ [सू० ११३] सव्वे वि णं गेवेजविमाणा दस दस जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं 5 पण्णत्ता । सव्वे वि णं जमगपव्वया दस दस जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता, दस दस गाउयसताई उव्वेधेणं, मूले दस दस जोयणसताई आयामविक्खंभेणं। एवं चित्त-विचित्तकूडा वि भाणियव्वा । सव्वे वि णं वटवेयडपव्वया दस दस जोयणसताई उद्धंउच्चत्तेणं, दस दस 10 गाउयसताई उव्वेधेणं, मूले दस दस जोयणसताइं विक्खंभेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया, दस दस जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं हरि-हरिस्सहकूडा वक्खारकूडवजा दस दस जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं, मूले दस दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । एवं बलकूडा वि नंदणकूडवज्जा । 15 अरहा वि अरिट्ठनेमी दस वाससयाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । पासस्स णं अरहतो दस सयाइं जिणाणं होत्था । पासस्स णं अरहतो दस अंतेवासिसयाइं कालगताई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई । 20 पउमद्दह-पुंडरीयद्दहा दस दस जोयणसयाई आयामेणं पण्णत्ता । [सू० ११४] अणुत्तरोववातियाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसताई उड्उच्चत्तेणं पण्णत्ता । पासस्स णं अरहतो एक्कारस सताई वेउव्वियाणं होत्था । [टी०] सव्वे वि णं जमगेत्यादि, उत्तरकुरुषु नीलवद्वर्षधरस्य दक्षिणतः शीताया 25 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटोकासहिते समवायाङ्गसूत्रे २००० स्थानकम् । महानद्या उभयोः कूलयोझै यमकाभिधानौ पर्वतौ स्तः, ते च पञ्चस्वप्युत्तरकुरुषु द्वयोर्द्वयोर्भावाद् दश । एवं चित्त-विचित्तकूडा वि त्ति पञ्चसु देवकुरुषु यमकवत् तत्सद्भावात् पञ्च चित्रकूटा: पञ्च च विचित्रकूटा इति । सव्वे वि णमित्यादि, सर्वेऽपि वृत्ता वैताढ्या विंशतिः शब्दापात्यादयः। सव्वे 5 वि णं हरीत्यादि, हरिकूटं विद्युत्प्रभाभिधाने गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वते हरिसहकूटं तु मालवद्वक्षस्कारे, एतानि च पञ्चस्वपि मन्दरेषु भावात् पञ्च पञ्च भवन्ति सहस्रोच्छ्रितानि च, वक्खारकूडवज त्ति शेषवक्षस्कारकूटेष्वेवमुच्चत्वं नास्ति, एतेष्वेवास्तीत्यर्थः । एवं बलकूडा वि त्ति पञ्चसु मन्दरेषु पञ्च नन्दनवनानि तेषु प्रत्येकमैशान्यां दिशि बलकूटाभिधानं कूटमस्ति, ततः पञ्च, तानि सहस्रोच्छ्रितानि च, नंदनकूडवज त्ति 10 शेषाणि नन्दनवनेषु प्रत्येकं पूर्वादिदिग्विदिग्व्यवस्थितानि चत्वारिंशत्संख्यानि नन्दनकूटानि वर्जयित्वा, तानि साहस्रिकाणि न भवन्तीत्यर्थः । अरहेत्यादि. कुमारत्वे त्रीणि वर्षशतान्यनगारत्वे सप्तेत्येवं दश शतानि । परमद्दहपुंडरीयदृह त्ति पद्मह्रदः श्रीदेवीनिवासो हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्ती पुण्डरीकह्रदो लक्ष्मीदेवीनिवासः शिखरिवर्षधरोपरिवर्तीति ।।१०००।११००।। 15 [सू० ११५] महापउम-महापुंडरीयदृहा णं दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता । [सू० ११६] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए वतिरकंडस्स उवरिल्लाओ चरिमंताओ लोहितक्खस्स कंडस्स हेढिल्ले चरिमंते एस णं तिण्णि जोयणसहस्साई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । 20 [सू० ११७] तिगिंच्छि-केसरिद्दहा णं दहा चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता ।। टी०] तथा महापद्म-महापुण्डरीकह्रदौ महाहिमवद्रुक्मिवर्षधरयोरुपरिवर्त्तिनौ ह्री-बुद्धिदेव्योर्निवासभूताविति ।।२०००।। इमीसे णं रयणेत्यादि, अयमिह भावार्थ:- रत्नप्रभापृथिव्याः प्रथमस्य १. च नास्ति खं० जे१ ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सृ० ११८-१३१] ३००० आदिस्थानकानि । २०५ षोडशविभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य वज्रकाण्डं नाम द्वितीयं काण्डम्, वैडूर्यकाण्डं तृतीयम्, लोहिताक्षकाण्डं चतुर्थम्, तानि च प्रत्येकं साहसिकाणीति त्रयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति ।।३०००।। तिगिंच्छि-केसरिह्रदौ निषध-नीलवद्वर्षधरोपरिस्थितौ धृति-कीर्तिदेवीनिवासाविति ||४०००। 5 [सू० ११८] धरणितले मंदरस्स णं पव्वतस्स बहुमज्झदेसभागाओ रुयगणाभीतो चउद्दिसिं पंच पंच जोयणसहस्साई अबाहाए मंदरे पव्वते पण्णत्ते । [सू० ११९] सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । [टी०] धरणितले इत्यादि, धरणितले धरण्यां समे भूभाग इत्यर्थः, 10 रुयगनाभीओ त्ति अठ्ठपाएसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारम्मि । एस प्पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥ [आचा० नि० ४२] ति । रुचक एव नाभिः चक्रस्य तुम्बमिवेति रुचकनाभिः, ततश्चतसृष्वपि दिक्षु पञ्च पञ्च सहस्राणि मेरुस्तस्य दशसहस्रविष्कम्भत्वादिति ॥५०००।६०००॥ 15 [सू० १२०] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लातो चरिमंतातो पुलगस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । [सू० १२१] हरिवस्स-रम्मया णं वासा अट्ठ जोयणसहस्साइं सातिरेगाई वित्थरेणं पण्णत्ता । 20 [सू० १२२] दाहिणड्डभरहस्स णं जीवा पाईणपडिणायया दुहतो समुदं पुट्ठा णव जोयणसहस्साइं आयामेणं पण्णत्ता ।। १. "तिर्यग्लोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेर्व्वन्तौ सर्व्वक्षुल्लकप्रतरौ तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशात्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च प्रभव उत्पत्तिस्थानमिति ।" इति शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमेऽध्ययने प्रथमे उद्देशके ।। २. पञ्च नास्ति ख० जे१ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सू० १२३] मंदरे णं पव्वते धरणितले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण । 15 २०६ [सू० १२४] जंबूदीवे णं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० १२५] लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० १२६ ] पासस्स णं अरहतो तिण्णि सयसाहस्सीतो सत्तावीसं च सहस्साइं उक्कोसिया सावियासंपदा होत्था । [सू० १२७] धायइसंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसतसहस्साइं चक्कवाल10 विक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० १२८] लवणस्स णं समुद्दस्स पुरत्थिमिल्लातो चरिमंतातो पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं पंच जोयणसयसहस्साइं अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । [सू० १२९] भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छ पुव्वसतसहस्साईं रायमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारयं पव्वति । [सू० १३०] जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरत्थिमिल्लातो वेइयंतातो धायइसंडचक्वालस्स पच्चत्थिमिले चरिमंते [ एस णं] सत्त जोयणसतसहस्साइं अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । [सू० १३१] माहिंदे णं कप्पे अट्ठ विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] इमीसे णमित्यादि, रत्नकाण्डं प्रथमं पुलककाण्डं सप्तममिति सप्त 20 सहस्राणि ॥ ७०००॥ हरिवस्सेत्यादि, इहार्थे गाथार्द्धम् - हरिवासे इगवीसा चुलसीइ सया कलाय एक्का य [बृहत्क्षेत्र० ३१] त्ति ||८०००|| १. “हरिवासे इगवीसा, चुलसीइ सया कला य एक्का य । सोलस सहस्स अट्ठ सय, बायाला दो कला निस ||३१|| व्या०- सुगमम् । तथा निषधपर्वतस्य विष्कम्भानयनाय जम्बूद्वीपविष्कम्भो लक्षप्रमाणो द्वात्रिंशता गुण्यते, जाता द्वात्रिंशल्लक्षाः, तासां नवत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि योजनानां षोडश सहस्राण्यष्टौ शतानि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३२-१३५] २००० आदिस्थानकानि । दाहिणेत्यादि, दक्षिणो भागो भरतस्येति दक्षिणार्द्धभरतं तस्य जीवेव जीवा ऋज्वी सीमा प्राचीनं पूर्वतः प्रतीचीनं पश्चिमतः आयता दीर्घा प्राचीनप्रतीचीनायता दुहओ त्ति उभयतः पूर्वापरपार्श्वयोरित्यर्थः, समुद्रं लवणसमुद्रं स्पृष्टा छुप्तवती, नव सहस्राण्यायामत इहोक्ता, स्थानान्तरे तु तद्विशेषोऽयम् - नव सहस्राणि सप्त शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि द्वादश च कला इति ॥ ९०००||१००००।। 5 २०७ १०००००||२०००००||३०००००||४०००००|| लवणेत्यादि, तत्र जम्बूद्वीपस्य लक्षं चत्वारि च लवणस्येति पञ्च || ५०००००|| जंबूदीवस्सेत्यादि, तत्र लक्षं जम्बूद्वीपस्य द्वे लवणस्य चत्वारि धातकीखण्डस्येति सप्त लक्षाण्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ॥ ७०००००|| [सू० १३२] अजियस्स णं अरहतो सातिरेगाइं नव ओहिणाणिसहस्साइं 10 होत्था । [सू० १३३] पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए णरएस नेरइयत्ताते उववन्ने । [सू० १३४] समणे भगवं महावीरे तित्थकरभवग्गहणातो छट्ठे पोलिभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे 15 सव्व विमाणे देवत्ताते उववन्ने । [सू० १३५] उसभसिरिस्स भगवतो चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एग सागरोवमकोडाकोडी अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अजितस्यार्हतः सातिरेकाणि नवावधिज्ञानिसहस्राणि, अतिरेकञ्च चत्वारि शतानि, इदं च सहस्र स्थानकमपि सल्लक्षस्थानकाधिकारे यदधीतं तत् 20 सहस्रशब्दसाधर्म्याद्विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेर्लेखकदोषाद्वेति ॥९०००|| "" द्विचत्वारिंशदधिकानि अपरे चैकोनविंशतिभागरूपे द्वे कले १६८४२ क० २ । एतावन्निषधपर्वतस्य विष्कम्भपरिमाणम् ॥' इति बृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिविरचितायां टीकायाम् || १. “जोयणसहस्सनवगं, सत्तेव सया हवंति अडयाला । बारस य कला सकला, दाहिणभरहद्धजीवाओ ||३९|| " इति बृहत्क्षेत्रसमासे प्रथमेऽधिकारे ।। २. जंबुद्दी जे१ खं० ॥। ३. स्थानाङ्गे तु “ पुरिससीहे णं वासुदेवे दरू बाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता छट्टाते तमाए पुढवीए नेरतितत्ताए उववन्ने" (सू० ७३५) इति पाठः ।। 6. चत्वारि खं० ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे द्वादशाङ्गनामानि । पुरुषसिंहः पञ्चमवासुदेवः ||१००००००|| समणेत्यादि, किल भगवान् पोट्टिलाभिधानो राजपुत्रो बभूव, तत्र च वर्षकोटिं प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीय:, ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राग्रनगर्यां जज्ञे इति तृतीयः, तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा 5 दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थः, ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इनि पञ्चमः, ततस्त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशिलाभिधानभार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद् भवग्रहणं षष्ठं 10 श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातम्, यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्टुच्यते तीर्थकरभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रह ||१०००००००|| उसभेत्यादि, उसभसिरिस्स त्ति प्राकृतत्वेन श्रीऋषभ इति वाच्ये व्यत्ययेन निर्देशः कृतः, एका सागरोपमकोटीकोटीति द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैः 15 किञ्चित्साधिकैरूनाऽप्यल्पत्वाद्विशेषस्याविशेषितोक्तेति ||१००००००००००००००|| [सू० १३६-१] दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तंजहा - आयारे सूतगडे ठाणे समवाए वियाहपण्णत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसातो अंतगडदसातो अणुत्तरोववातियदसातो पण्हावागरणाई विवागसुते दिट्ठवाए । [सू० १३६-२] से किं तं यारे ? आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं 20 आयारगोयरविणयवेणइयगाणगमणचंकमणपमाणजोगजुं जणभासासमितिगुत्तीसेज्जोवहिभत्तपाणउग्गमउप्पायणएसणाविसोहिसुद्धासुद्धग्गहणवयणियमतवोवधाणसुप्पसत्थमाहिज्जति । से समासतो पंचविहे पण्णत्ते, तंजहाणाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे । आयारस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जातो पडिवत्तीतो, संखेज्जा वेढा, १. च नास्ति जे२ ॥। २. मासलक्षक्षपणेन खं० ॥। ३. त्रिशला जे१.२, हे१.२ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३६] आचाराङ्गवर्णनम् । २०९ संखेजा सिलोगा, संखेजातो निजुत्तीतो । से णं अंगट्ठयाए पढमे अंगे, दो सुतक्खंधा, पणुवीसं अज्झयणा, पंचासीती उद्देसणकाला, पंचासीई समुद्देसणकाला, अट्ठारस पदसहस्साइं पदग्गेणं पण्णत्ते । संखेजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइता जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविज्जति परूविज्जति 5 दंसिजति निदंसिर्जति उवदंसिजति । से एवंआता, एवंणाता, एवंविण्णाता। एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति पण्णविज्जति परूविज्जति दंसिजति निदंसिजति उवदंसिजति । सेत्तं आयारे । [टी०] इह य एते अनन्तरं संख्याक्रमसम्बन्धमात्रेण सम्बद्धा विविधा वस्तुविशेषा उक्तास्त एव विशिष्टतरसम्बन्धसम्बद्धा द्वादशागे प्ररूप्यन्त इति द्वादशाङ्गस्यैव 10 स्वरूपमभिधित्सुराह- दुवालसंगे इत्यादि, अथवोत्तरोत्तरसंख्याक्रमसंबद्धार्थप्ररूपणमनन्तरमकारि, साम्प्रतं संख्यामात्रसंबद्धपदार्थप्ररूपणायोपक्रम्यते- दुवालसंगे इत्यादि, तत्र श्रुतपरमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादशाऽङ्गानि आचारादीनि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गम्, गुणानां गणोऽस्यास्तीति गणी आचार्यः, तस्य पिटकमिव पिटकं सर्वस्वभाजनं गणिपिटकम्, अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनः, तथा चोक्तम्- 15 आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ [आंचा० नि० १०] परिच्छेदस्थानमित्यर्थः, ततश्च परिच्छेदसमूहो गणिपिटकम्, अत्र चैवं पदघटना - यदेतद् गणिपिटकं तत् द्वादशाङ्गं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- आचारः सूत्रकृत इत्यादि। से किं तमित्यादि. अथ किं तदाचारवस्तु ? यद्वा अथ कोऽयमाचार: ? 20 १. “यस्मादाचाराध्ययनात् क्षान्त्यादिकश्चरण-करणात्मको वा श्रमणधर्मः परिज्ञातो भवति तस्मात् सर्वेषां गणित्वकारणानामाचारधरत्वं प्रथमम् आद्यं प्रधानं वा गणिस्थानमिति' इति शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमेऽध्ययने प्रथमे उद्देशके ।। २. आचारादीनां दृष्टिवादपर्यन्तानां द्वादशानामङ्गानां स्वरूपं नन्दीसूत्रस्य हारिभद्रीवृत्त्यनुसारेण प्रायः सर्वं वर्णितमत्र, अतो विशेषजिज्ञासुभिः नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिभिर्विरचिता वृत्तिरवलोकनीया । यद्यपि नन्दीसूत्रस्य जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णावपि एतादृशं किञ्चिद् वर्णनमुपलभ्यते, तथापि इयम् अभयदेवसूरिभिर्विरचिता वृत्तिः बहुषु स्थानेषु प्रायोऽक्षरशः नन्दीहारिभद्रीवृत्तिमनुसरति इति ध्येयम् ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे आचरणमाचारः आचर्यत इति वा आचारः साध्वाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थः, एतत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते । आयारेणं ति अनेनाचारेण करणभूतेन श्रमणानामाचाराद्याख्यायत इति योगः, अथवा आचारेऽधिकरणभूते णमिति वाक्यालङ्कारे श्रमणानां तपःश्रीसमालिङ्गितानां निर्ग्रन्थानां 5 सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानाम्, आह- श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवन्तीति विशेषणं किमर्थमिति ?, उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थम्, उक्तं च- निग्गंथ-सक्क-तावसगेरुय-आजीव पंचहा समण [पिण्डनि० ४४५] त्ति, तत्राऽऽचारो ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नः, गोचरो भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः, विनयो ज्ञानादिविनयः, वैनयिकं तत्फलं कर्मक्षयादि, स्थानं कायोत्सर्गोपवेशन-शयनभेदात् त्रिरूपम्, गमनं विहारभूम्यादिषु गतिः, 10 चङ्क्रमणम् उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपोहाद्यर्थमितस्ततः सञ्चरणम्, प्रमाणं भक्त पाना-ऽभ्यवहारोपध्यादेर्मानम्, योगयोजनं स्वाध्याय-प्रत्युपेक्षणादिव्यापारेषु परेषां नियोजनम्, भाषा संयतभाषा सत्या-ऽसत्यामृषारूपा, समितयः ईर्यासमित्याद्याः पञ्च, गुप्तयो मनोगुप्त्यादयस्तिस्रः, तथा शय्या च वसतिरुपधिश्च वस्त्रादिको भक्तं च अशनादि पानं च उष्णोदकादीति द्वन्द्वः, तथा उद्गमोत्पादनैषणालक्षणानां दोषाणां 15 विशुद्धिः अभाव उद्गमोत्पादनैषणाविशुद्धिः, ततः शय्यादीनामुद्गमादिविशुद्ध्या शुद्धानां तथाविधकारणेऽशुद्धानां च ग्रहणं शय्यादिग्रहणम्, तथा व्रतानि मूलगुणा नियमा: उत्तरगुणास्तपउपधानं द्वादशविधं तपः, तत आचारश्च गोचरश्चेत्यादि यावद् गुप्तयश्च शय्यादिग्रहणं च व्रतानि च नियमाश्च तपउपधानं चेति समाहारद्वन्द्वस्ततस्तच्च तत् सुप्रशस्तं चेति कर्मधारयः, एतत् सर्वमाख्यायते अभिधीयते । एतेषु चाऽऽचारादिपदेषु यत्र क्वचिदन्यतरोपादाने अन्यतरस्य गतार्थस्याभिधानं तत् सर्वं तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवेत्यवसेयमिति । १. “निग्गंथ-सक्क-तावस-गेरुय-आजीव पंचहा समणा । तेसि परिवेसणाए लोभेण वणिज को आप्पं ? ॥४४५।। व्या०- निर्ग्रन्था: साधवः, शाक्या: मायासूनवीयाः, तापसाः वनवासिनः पाखण्डिनः, गैरुका: गेरुकरञ्जितवासस: परिव्राजकाः, आजीवका: गोशालकशिष्या इति पञ्चधा पञ्चप्रकाराः श्रमणा भवन्ति, एतेषां च यथायोग गृहिगृहेषु समागतानां परिवेषणे भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽप्याहारलम्पटः साधुः लोभेन आहारादिलुब्धतया वनति शाक्यादिभक्तमात्मानं दर्शयति, तद्भक्तगृहिणः पुरत इति सामर्थ्यगम्यम् ।।४४५॥"- इति पिण्डनिर्युक्तौ मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३६] आचाराङ्गवर्णनम् । २११ से समास[ओ] इत्यादि, स: आचारो यमधिकृत्य ग्रन्थस्याचार इति संज्ञा प्रवर्त्तते समासत: संक्षेपतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ज्ञानाचार इत्यादि, तत्र ज्ञानाचारः श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययन-विनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा, दर्शनाचारः सम्यक्त्ववतां व्यवहारो निःशङ्कितादिरूपोऽष्टधा, चारित्राचारः चारित्रिणां समित्यादिपालनात्मको व्यवहारः, तपआचारो द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितिः, 5 वीर्याचारो ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्याऽगोपनमिति । आचारस्स त्ति आचारग्रन्थस्य, णमित्यलङ्कारे, परित्ता संख्येया आद्यन्तोपलब्धेर्नानन्ता भवतीत्यर्थः, का ? वाचना सूत्रार्थप्रदानलक्षणा, अवसर्पिण्युत्सर्पिणीकालं वा प्रतीत्य परीतेति । संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि, अध्ययनानामेव संख्येयत्वात् प्रज्ञापकवचनगोचरत्वाच्च । संखेजाओ पडिवत्तीओ त्ति द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमा 10 मतान्तराणीत्यर्थः, प्रतिमाद्यभिग्रहविशेषा वा। संखेजा वेढ त्ति वेष्टका: छन्दोविशेषाः, एकार्थप्रतिबद्धवचनसङ्कलिकेत्यन्ये । संखेजा सिलोग त्ति श्लोकाः अनुष्टप्छन्दांसि। संख्याता: निर्युक्तयः, निर्युक्तानां सूत्रेऽभिधेयतया व्यवस्थापितानामर्थानां युक्तिः घटना विशिष्टा योजना निर्युक्तयुक्तिः, एतस्मिंश्च वाच्ये युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिरित्युच्यते, एताश्च निक्षेपनियुक्त्याद्याः संख्येया इति । से णमित्यादि, स आचारो णमित्यलङ्कारे 15 अङ्गार्थतया अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्गं स्थापनामधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमङ्गं प्रथमम्, पूर्वगतस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वादिति द्वौ श्रुतस्कन्धौ अध्ययनसमुदायलक्षणौ । पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तद्यथासत्थपरिण्णा १ लोगविजओ २ सीओसणिज ३ संमत्तं ४ । आवंति ५ धुय ६ विमोहो ७ महापरिण्णो ८ वहाणसुयं ९ ॥ [आव० सं० ] ति 20 प्रथमश्रुतस्कन्धः । १. भवंती जे२ ॥ २. वा नास्ति जे१ ॥ ३. प्रतिषु पाठः- परीत्तेति जे२ हे१,२ । परीते त्ति खं० जे१।। ४. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने ‘अट्ठावीसविहे आयारकप्पे' इति सूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ इद गाथाद्वयं दृश्यते, तत्र च पूर्वापरसम्बन्धानुसारेण आवश्यकसंग्रहणिकारविरचितमिदं गाथाद्वयं प्रतीयते। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पिंडेसण १ सेजि २ रिया ३ भासजाया य ४ वत्थ ५ पाएसा ६ । उग्गहपडिमा ७ सत्त सत्तिक्कया १४ भावण १५ विमुत्ती १६ ॥ [आव० सं०] इति द्वितीयश्रुतस्कन्धः । एवमेतानि निशीथवर्जानि पञ्चविंशतिरध्ययनानि । तथा पञ्चाशीतिरुद्देशनकाला:, 5 कथम् ?, उच्यते, अङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य चैतेषां चतुर्णामप्येक एवोद्देशनकालः, एवं च शस्त्रपरिज्ञादिषु पञ्चविंशतावध्ययनेषु क्रमेण सप्त १ षट् २ चतु ३ श्चतुः ४ षट् ५ पञ्च ६ अष्ट ७ सप्त ८ चतु ९ रेकादश १० त्रि ११ त्रि १२ द्वि १३ द्वि १४ द्वि १५ द्वि १६ संख्या उद्देशनकालाः षोडशस्वध्ययनेषु, शेषेषु नवसु नवैवेति, इह सङ्ग्रहगाथा10 सत्त य छ च्चउ चउरो छ पंच अटेव सत्त चउरो य । एक्कारा ति ति दो दो दो दो सत्तेक्क एक्को य ॥ [ ] त्ति । एवं समुद्देशनकाला अपि भणितव्याः । अष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण प्रज्ञप्तः, इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम् । ननु यदि द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनान्यष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण भवन्ति, ततो यद् भणितं नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपदसहस्सिओ 15 वेउ [आचा० नि० ११] त्ति तत् कथं न विरुध्यते ? उच्यते, यत् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितम्, यत् पुनरष्टादश पदसहस्राणि तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणम्, विचित्रार्थबद्धानि च सूत्राणि, गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति । संख्येयानि अक्षराणि, वेष्टकादीनां संख्येयत्वात् । अनन्ता गमा:, इह गमा: अर्थगमा गृह्यन्ते, अर्थपरिच्छेदा इत्यर्थः, ते चानन्ताः, एकस्मादेव 20 सूत्रात्तत्तद्धर्मविशिष्टानन्तधात्मकवस्तुप्रतिपत्तेः, अन्ये तु व्याचक्षते - अभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते चानन्ताः । अनन्ता: पर्याया: स्वपरभेदभिन्ना अक्षरार्थपर्याया इत्यर्थः । परित्तास्त्रसा आख्यायन्त इति योगः, वसन्तीति त्रसा: द्वीन्द्रियादयस्ते च परीत्ता नानन्ताः, एवंरूपत्वादेव तेषाम् । अनन्ता: स्थावरा वनस्पतिकायसहिताः । १. दृश्यतामत्र पृ०७१ पं०९ ।। २. परीत्ता जे२ ।। ३. परीता खं० जे१ ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३७] आचाराङ्गवर्णनम् । किंभूता एते ? सासया कडा निबद्धा निकाइय त्ति शाश्वता: द्रव्यार्थतया अविच्छेदेन प्रवृत्तेः, कृता: पर्यायार्थतया प्रतिसमयमन्यथात्वावाप्तेः, निबद्धाः सूत्र एव ग्रथिताः, निकाचिता नियुक्ति-सङ्ग्रहणि-हेतूदाहरणादिभिः प्रतिष्ठिता जिनैः प्रज्ञप्ता भावा: पदार्था अन्येऽप्यजीवादयः आघविजंति त्ति प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्त इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन, प्ररूप्यन्ते 5 नामादिस्वरूपकथनेन, यथा पजायाणभिधेय [विशेषाव० २५] मित्यादि, दर्श्यन्ते उपमामात्रतः यथा गौर्गवयस्तथा [मी० श्लो० वा० ] इत्यादि, निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तापन्यासेन, उपदर्श्यन्ते उपनय-निगमनाभ्यां सकलनयाभिप्रायतो वेति । साम्प्रतमाचाराङ्गग्रहणफलप्रतिपादनायाह- से एवमित्यादि, स इत्याचाराङ्गग्राहको गृह्यते, एवं आय त्ति अस्मिन् भावतः सम्यगधीते सत्येवमात्मा भवति, 10 तदुक्तक्रियापरिणामाव्यतिरेकात् स एव भवतीत्यर्थः, इदं च सूत्र पुस्तकेषु न दृष्ट नन्द्यां तु दृश्यते इतीह व्याख्यातमिति, एवं क्रियासारमेव ज्ञानमिति ख्यापनार्थं क्रियापरिणाममभिधायाधुना ज्ञानमधिकृत्य आह- एवंनाय त्ति इदमधीत्य एवंज्ञाता भवति यथैवेहोक्तमिति, एवंविन्नाय त्ति विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता विज्ञाता एवंविज्ञाता भवति, तन्त्रान्तरीयज्ञातृभ्यः प्रधानतर इत्यर्थः । एवमित्यादि निगमनवाक्यम्, एवम् 15 अनेन प्रकारेणाऽऽचारगोचरविनयाद्यभिधानरूपेण चरण-करणप्ररूपणता आख्यायत इति. चरणं व्रत-श्रमणधर्म-संयमाद्यनेकविधम्, करणं पिण्ड विशुद्धिसमित्याद्यनेकविधम्, तयोः प्ररूपणता प्ररूपणैव आख्यायते इत्यादि पूर्ववदिति, सेत्तं आयारे त्ति तदिदमाचारवस्तु अथवा सोऽयमाचारो यः पूर्वं पृष्ट इति ॥१॥ _ [सू० १३७] से किं तं सूयगडे ? सूयगडेणं ससमया सूइज्जति, परसमया 20 सूइज्जति, ससमय-परसमया सूइज्जति, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जति, १. “कीदृगु गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकैर्यदि । ब्रवीत्यारण्यको वाक्यं यथा गौर्गवयस्तथा ॥१॥” इति मीमांसा श्लोकवार्तिके उपमानपरिच्छेदे न्यायरत्नाकरस्य टीका “प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम्” (न्या० सू० १.१.६) इति अक्षपादेनोक्तम्, कीदृशो गवयः इत्येवं नागरिकेण पृष्टो वन्यः प्रसिद्धेन गवा साधादप्रसिद्ध गवयं येन वाक्येन बोधयति यथा- गौरिव गवयः इति, तद्वाक्यम् उपमानमिति । २. सेतं हे१ विना ।। ३. पूर्वपृष्ट खं० हे । पूर्वदृष्ट हे५ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जीवा - ऽजीवा सूइज्जंति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सूइज्जति, लोगालोगे सूइज्जति । सूयगडे णं जीवा -ऽजीव- पुण्ण-पावा -ऽऽसव-संवर- णिज्जरबंध - मोक्खावसाणा पयत्था सूइजंति । समणाणं अचिरकालपव्वइयाणं कुसमयमोहमोहमतिमोहिताणं संदेहजायसहजबुद्धिपरिणामसंसइयाणं * पावकरमइलमतिगुणविसोहणत्थं आसीतस्स किरियावादिसतस्स चउरासीतीए अकिरियावादीणं सत्तट्ठीए अण्णाणियवादीणं बत्तीसाए वेणइयवादीणं तिन्हं तेसङ्काणं अण्णदिट्ठियसयाणं वहं वूहं किच्चा ससमए ठाविति । णाणादिट्टंतवयणणिस्सारं सुड्डु दरिसयंता विविहवित्थाराणुगमपरमसब्भावगुणविसिट्ठा मोक्खपहोदारगा उदारा, अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु दीवभूता, 10 सोवाणा चेव सिद्धिसुगतिघरुत्तमस्स, णिक्खोभनिप्पकंपा सुत्तत्था । सूयगडस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जातो पडिवत्तीतो, संखेजा वेढा, [संखेज्जा] सिलोगा, [संखेज्जाओ] निज्जुतीतो । से णं अंगट्ठताए दोच्चे अंगे, दो सुतक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेत्तीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पदसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ते । संखेज्जा अक्खरा, 15 तं चेव जाव परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइता जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति जाव उवदंसिज्जंति । से [ एवं आता, ? ] एवंणाते[णाता?] एवंविण्णाते [ता?] जाव चरणकरणपरूवणया आघविज्जति [पण्णविज्जति रूविज्जति निदंसिजति उवदंसिज्जति ] । सेत्तं सूयगडे । [टी०] से किं तं सूयगडे ? सूच सूचायाम् [ ], सूचनात् सूत्रम्, सूत्रेण कृतं 20 सूत्रकृतमिति रूढ्योच्यते । सूयगडेणं ति सूत्रकृतेन सूत्रकृते वा स्वसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यम्, तथा सूत्रकृतेन जीवा - ऽजीव- पुण्य-पापा - ऽऽश्रव-संवर- निर्जरा- मोक्षावसानाः पदार्थाः सूच्यन्ते । तथा समणाणमित्यादि, अत्र च श्रमणानां बन्ध २१४ १. अत्र १४७ [७] तमे च सूत्रे एवं णाते एवं विण्णाते इत्येव पाठो हस्तलिखितादर्शेषु दृश्यते किन्तु १३६ तमे सूत्रे एवंआता एवंणाता एवंविण्णाता इति पाठो वर्तते, नन्दीसूत्रेऽपि आचारादिवर्णनपरेषु सर्वेषु सूत्रेषु तथैव पाठः । अतस्तदनुसारेण अत्र १४७ [७] तमे च सूत्रे ' एवंआता, एवंणाता, एवंविण्णाता' इति पाठ: शुद्ध इति संभाव्यते ॥ २ मिति इहोच्यते जे१ खं० ॥। ३. सूत्रकृते जीवा खं० ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३७ सूत्रकृताङ्गवर्णनम् । २१५ मतिगुणविशोधनार्थं स्वसमयः स्थाप्यत इति वाक्यार्थः, तत्र श्रमणानां किंभूतानाम् ? अचिरकालप्रव्रजितानाम्, चिरप्रव्रजिता हि निर्मलमतयो भवन्ति, अहर्निशं शास्त्रपरिचयाद् बहुश्रुतसंपर्काच्चेति, पुनः किंभूतानाम् ? कुसमयमोह[मोह]मइपोहियाणं ति, कुत्सितः समय: सिद्धान्तो येषां ते कुसमया: कुतीर्थिकाः, तेषां मोहः पदार्थेष्वयथावद् बोध: कुसमयमोहः, तस्माद्यो मोहः श्रोतृमनोमूढता, तेन मतिर्मोहिता 5 मूढता नीता येषां ते कुसमयमोहमोहमतिमोहिताः । अथवा कुसमया: कुसिद्धान्ताः, तेषाम् ओघ: संघो मकारस्तु प्राकृतत्वात्, तस्माद्यो मोहः मूढता, तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसमयौघमोहमतिमोहिताः । अथवा कुसमयानां कुतीर्थिकानां मौधो मोघो वा शुभफलापेक्षया निष्फलो यो मोहस्तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसमयमोधमोहमतिमोहिता: कुसमयमोघमोहमतिमोहिता वा, तेषाम्, तथा 10 संदेहा: वस्तुतत्त्वं प्रति संशयाः कुसमयमोहमोहमतिमोहितानामिति विशेषणसान्निध्यात् कुसमयेभ्यः सकाशात् जाता येषां ते सन्देहजाता:, तथा सहजात् स्वभावसम्पन्नात् न कुसमयश्रवणसम्पन्नाद् बुद्धिपरिणामात् मतिस्वभावात् संशयो जातो येषां ते सहजबुद्धिपरिणामसंशयिता:, सन्देहजाताश्च सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताश्च ये ते तथा, तेषाम, श्रमणानामिति प्रक्रमः, किमत आह- पापकरो विपर्यय-संशयात्मकत्वेन 15 कुत्सितप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादशुभकर्महेतुरत एव च मलिनः स्वरूपाच्छादनादनिर्मलो यो मतिगुणो बुद्धिपर्यायस्तस्य विशोधनाय निर्मलत्वाधानाय पापकरमलिनमतिगुणविशोधनार्थम् । आसीयस्स किरियावाइसयस्स त्ति अशीत्यधिकस्य क्रियावादिशतस्य व्यूह कृत्वा स्वसमय: स्थाप्यत इति योगः, एवं शेषेष्वपि पदेषु क्रिया योजनीयेति । तत्र 20 न कर्तारं विना क्रिया संभवतीति तामात्मसमवायिनीं वदन्ति ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिनः, ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसंख्या विज्ञेयाः - जीवा-ऽजीवा-ऽऽश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-पुण्या-ऽपुण्यमोक्षाख्यान्नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याध: स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, १. चिरकालप्रव्र' हे१,२ ।। २. का विना जे१,२ हे२ ॥ ३. क्रिया भवतीति जे२ हे१ ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तयोरधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरा-ऽऽत्म-नियति-स्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनरित्थं विकल्पा: कर्त्तव्याः - अस्ति जीवः स्वतो नित्य: कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायम् - विद्यते खल्वात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिकस्य, तृतीयः आत्मवादिनः, चतुर्थो 5 नियतिवादिनः, पञ्चमः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यपरित्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्च लभ्यन्ते, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, इति एकत्र विंशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टास्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति । चउरासीए अकिरियवाईणं ति, एतेषां च स्वरूपं यथा नन्द्यादिषु तथा वाच्यम्, 10 नवरमेतद्व्याख्याने पुण्यापुण्यवर्जाः सप्त पदार्थाः स्थाप्यन्ते, तदध: स्वतः परतश्चेति पदद्वयम्, तदधः कालादीनां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, ततश्च नास्ति जीव: स्वत: कालत इत्येको विकल्पः, एवमेते चतुरशीतिर्भवन्ति । सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं ति, एतेऽपि तथैव, नवरं जीवादीन्नव पदार्थानुत्पत्तिदशमान् व्यवस्थाप्याधः सप्त सदादय: स्थाप्याः, तद्यथा- सत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं 15 सदवाच्यत्वमसदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वमिति, तत्र को जानाति जीवस्य सत्त्वमित्येको विकल्पः, एवमसत्त्वमित्यादि, तत एते सप्त नवकास्त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्त्वाद्या एव चत्वारो वाच्याः, इत्येवं सप्तषष्टिरिति । तथा बत्तीसाए वेणइयवाईणं ति, एते चैवम्- सुर-नृपति-ज्ञाति-यति-स्थविरा १. “चउरासीईते अकिरियावादीणं चतुरशीतेरक्रियावादिनाम्, क्रिया पूर्ववत्, न हि कस्यचिदनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति, तद्भावे चावस्थितेरभावादित्येवंवादिनोऽक्रियावादिनः । तथा चाऽऽहुरेके- 'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थितानां कुतः क्रिया ?। भूर्तियेषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते ।।१।।' [ ] इत्यादि । एते चाऽऽत्मादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः एतेषां हि पुण्या-ऽपुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव, जीवस्याधः स्व-परविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्त्वादात्मनो नित्याऽनित्यभेदौ न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, पश्चाद् विकल्पाभिलाप:- नास्ति जीव: स्वतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानैः, सर्वे च षड् विकल्पाः ।" इति नन्दीसूत्रे सूत्रकृताङ्गस्वरूपवर्णने हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ २. र्भवति खं० ॥ ३. 'सत्त्वादि जे२ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ [सू० १३७ सूत्रकृताङ्गवर्णनम् । ऽधम-मातृ-पितॄणां प्रत्येकं काय-वाङ्-मनो-दानैश्चतुर्द्धा विनयः कार्य इत्यभ्युपगमवन्तो द्वात्रिंशदिति । ___ एवं चैतेषां चतुर्णा वादिप्रकाराणां मीलने त्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि अन्यदृष्टिशतानि भवन्त्यत उच्यते- तिण्हमित्यादि, वूहं किच्च त्ति प्रतिक्षेपं कृत्वा स्वसमयो जैनसिद्धान्तः स्थाप्यते । यत एवं सूत्रकृतेन विधीयते अतस्तत्सूत्रार्थयोः स्वरूपमाह- 5 नाणेत्यादि, नाना अनेकधा बहभिः प्रकारैरित्यर्थः, दिटुंतवयणनिस्सारं ति स्याद्वादिना पूर्वपक्षीकृतानां प्रवादिनां स्वपक्षस्थापनाय यानि दृष्टान्तवचनान्युपलक्षणत्वाद्धेतुवचनानि च तदपेक्षया निस्सारं सारताशून्यं परेषां मतमिति गम्यते, सुष्ठ पुनरप्रतिक्षेपणीयत्वेन दर्शयन्तौ प्रकटयन्तौ तथा विविधश्चासौ सत्पदप्ररूपणाद्यनेकानुयोगद्वाराश्रितत्वेन विस्तारानुगमश्च अनुगमनीयाने कजीवादितत्त्वानां विस्तरप्रतिपादनं विविध- 10 विस्तारानुगमः, तथा परमसद्भावः अत्यन्तसत्यता वस्तूनामैदम्पर्यमित्यर्थः, तावेव गुणौ ताभ्यां विशिष्टौ विविधविस्तारानुगमपरमसद्भावगुणविशिष्टौ, मोक्खपहोयारग त्ति मोक्षपथावतारको, सम्यग्दर्शनादिषु प्राणिनां प्रवर्तकावित्यर्थः, उदार त्ति उदारौ सकलसूत्रार्थदोषरहितत्वेन निखिलतद्गुणसहितत्वेन च, तथाऽज्ञानमेव तमः अन्धकारमात्यन्तिकान्धकारमथवा प्रकृष्टमज्ञानमज्ञानतम 15 तदेवान्धकारमज्ञानतमोऽन्धकारमज्ञानतमान्धकारं वा, तेन ये दुर्गा दुरधिगमास्ते तथा, तेषु, तत्त्वमार्गेष्विति गम्यते, दीवभूय त्ति प्रकाशकारित्वाद् दीपोपमौ, सोवाणा चेव त्ति सोपानानीव उन्नताऽऽरोहणमार्गविशेष इव सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्य सिद्धिलक्षणा सुगतिः सिद्धिसुगतिरथवा सिद्धिश्च सुगतिश्च सुदेवत्व-सुमानुषत्वलक्षणा सिद्धि-सुगती, तल्लक्षणं यद् गृहाणामुत्तमं गृहोत्तमं वरप्रासादस्तस्य 20 सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्यारोहण इति गम्यते, निक्खोहनिप्पकंप त्ति निक्षोभौ वादिना क्षोभयितुं चलयितुमशक्यत्वात् निष्प्रकम्पौ स्वरूपतोऽपीषद्व्यभिचारलक्षणकम्पाभावात्, कावित्याह – सूत्रार्थो सूत्रं चार्थश्च नियुक्ति-भाष्य-सङ्ग्रहणि-वृत्ति-चूर्णि-पञ्जिकादिरूप १. इव सिद्धिसुगतिरथवा सिद्धिश्च सुगतिश्च खं० जे१ । इव सिद्धिसुगइगृहोत्तमस्य सिद्धिलक्षणा सुगति सिद्धिच सुगतिश्च जे२ ॥ २. गम्यं निक्खो जे२ ।। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे इति सूत्रार्थों, शेष कण्ठ्यं यावत् सेत्तं सूयगडे त्ति, नवरं त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकाला: चउ ४ तिय ३ चउरो ४ दो २ दो २ एक्कारस चेव हुंति एक्कसरा । सत्तेव महज्झयणा एगसरा बीयसुयखंधे ॥ [ ] इत्यतो गाथातोऽवसेया इति । सू० १३८] से किं तं ठाणे ? ठाणेणं ससमया ठाविजंति, परसमया 5 ठाविजंति, ससमय-परसमया [ठाविजंति], जीवा ठाविजंति, अजीवा [ठाविजंति], जीवाजीवा [ठाविजंति], लोगो अलोगो लोगालोगो वा ठाविज्जति । ठाणेणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव पयत्थाणं । सेला सलिला य समुद्द सूर भवण विमाण आगरा णदीतो । णिधयो पुरिसज्जाया सरा य गोत्ता य जोतिसंचाला ॥६०।। 10 एक्कविधवत्तव्वयं दविह जाव दसविहवत्तव्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाइं च णं परूवणया आघविजति जाव ठाणस्स णं परित्ता वायणा जाव संखेजा सिलोगा, संखेजातो संगहणीतो । से तं(णं) अंगठ्ठताए ततिए अंगे, एगे सुतक्खंधे, दस अज्झयणा, एक्कवीसं उद्देसणकाला, एक्कवीसं समुद्देसणकाला, बावत्तरिं पयसहस्साइं पदग्गेणं पण्णत्ते । संखेजा अक्खरा 15 जाव चरणकरणपरूवणया आघविजति । सेत्तं ठाणे । [टी०] से किं तं ठाणे इत्यादि, अथ किं तत् स्थानम् ?, तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्, तथा चाह- ठाणेणमित्यादि, स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते यथावस्थितस्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम्, शेषं प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं ठाणेणमित्यस्य पुनरुच्चारणं सामान्येन पूर्वोक्तस्यैव स्थापनीयविशेषप्रतिपादनाय 20 वाक्यान्तरमिदमिति ज्ञापनार्थम्, तत्र दव्वगुणखेत्तकालपज्जव त्ति प्रथमाबहुवचनलोपाद् द्रव्य-गुण-क्षेत्र-काल-पर्यवा: पदार्थानां जीवादीनां स्थानेन स्थाप्यन्ते इति प्रक्रमः, तत्र द्रव्यं द्रव्यार्थता यथा जीवास्तिकायोऽनन्तानि द्रव्याणि, गुणः स्वभावो यथोपयोगस्वभावो जीवः, क्षेत्रं यथा असंख्येयप्रदेशावगाहनोऽसौ, कालो यथा अनाद्यपर्यवसितः, पर्यवा: कालकृता अवस्था यथा नारकत्वादयो बालत्वादयो वेति। १. ठाणेणं त्यस्य जे२ हे१,२ ।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३१ स्थानाङ्गवर्णनम् । २१९ सेला इत्यादि गाथाविशेषः, तत्र शैला: हिमवदादिपर्वताः स्थाप्यन्ते स्थानेनेति योगः सर्वत्र, सलिलाश्च गङ्गाद्या महानद्यः, समुद्रा: लवणादयः, सूरा: आदित्याः, भवनानि असुरादीनाम्, विमानानि चन्द्रादीनाम्, आकरा: सुवर्णाद्युत्पत्तिभूमयः, नद्यः सामान्या मही-कोसीप्रभृतयः, निधय: चक्रवर्तिसम्बन्धिनो नैसर्पादयो नव, पुरिसजाय त्ति पुरुषप्रकारा उन्नतप्रणतादिभेदाः, पाठान्तरेण पुस्सजोय त्ति उपलक्षणत्वात् 5 पुष्यादिनक्षत्राणां चन्द्रेण सह पश्चिमाग्रिमोभयप्रमादिका योगाः, स्वराश्च षड्जादयः सप्त, गोत्राणि च काश्यपादीनि एकोनपञ्चाशत्, जोइसंचाल त्ति ज्योतिषः तारकरूपस्य सञ्चलनानि तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा [स्थानाङ्ग० सू० १४१] इत्यादिना सूत्रेण स्थाप्यन्ते स्थानेनेति प्रक्रमः । तथा एकविधं च तद् वक्तव्यकं च तदभिधेयमित्येकविधवक्तव्यकं प्रथमे अध्ययने 10 स्थाप्यत इति योगः, एवं द्विविधवक्तव्यकं द्वितीयेऽध्ययने, एवं तृतीयादिषु यावद् दशविधवक्तव्यकं दशमेऽध्ययने । तथा जीवानां पुद्गलानां च प्ररूपणताऽऽख्यायत इति योगः, तथा लोगट्ठाई च णं ति लोकस्थायिनां च धर्माधर्मास्तिकायादीनां प्ररूपणता प्रज्ञापना, शेषमाचारसूत्रव्याख्यानवदवसेयम्, नवरमेकविंशतिरुद्देशनकाला:, कथम् ? द्वितीय- 15 तृतीय-चतुर्थेष्वध्ययनेषु चत्वारश्चत्वार उद्देशका: पञ्चमे त्रय इत्येते पञ्चदश, शेषास्तु षट् षण्णामध्ययनानां षडु देशनकालत्वादिति। बावत्तरिं पदसहस्साई ति अष्टादशपदसहस्रमानादाचाराद् द्विगुणत्वात् सूत्रकृतस्य ततोऽपि द्विगुणत्वात् स्थानस्येति ।।३।। [सू० १३९] से किं तं समवाए ? समवाए णं ससमया सूइजंति, परसमया 20 सूइजति, ससमय-परसमया सूइजंति, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइजंति, जीवाजीवा सूइजंति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सूइज्जति, लोगालोगे सूइज्जति। समवाए णं एकादियाणं एगत्थाणं एगुत्तरिय परिवड्डी य दवालसंगस्स य १. नारकादयो जे२ ।। २. सूत्रकृतस्य ततोऽपि द्विगुणत्वात् जे१ मध्ये नास्ति । खं० मध्ये तु अधस्तात् पूरितः । सूत्रकृतस्तत् द्विगुणत्वात् जे२ ।। ३. समाये अटी० ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जति । ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुतणाणस्स जगजीवहितस्स भगवतो समासेणं समायारे आहिज्जति । तथ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वण्णिता वित्थरेणं, अवरे वि य बहुविहा विसेसा नरग- तिरिय- मणुय - सुरगणाणं आहारुस्सास-लेस-आवाससंख5 आययप्पमाण - उववाय-चवण-ओगाहणोहि- वेयण - विहाण - उवओग-जोगइंदिय-कसाय, विविहा य जीवजोणी, विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विधिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं, कुलगर - तित्थगर - गणधराणं समत्तभरहाहिवा चक्कीण चेव चक्कहर - हलहराण य, वासाण य निग्गमा य, समाए एते अण्णे य एवमादि एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिज्जंति । समवायस्स णं परित्ता वायणा 10 जाव से णं अंगट्ठताए चउत्थे अंगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले, एगे चोयाले पदसतसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ते। संखेज्जाणि अक्खराणि जाव सेत्तं समवाए । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कोऽसौ समवायः ?, सूत्रे तु प्राकृतत्वेन वकारलोपात् समाये इत्युक्तम्, समवायनं समवायः सम्यक् परिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुश्च 15 ग्रन्थोऽपि समवायः, तथा चाह-- समवायेन समवाये वा स्वसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यम् । तथा समवायेन समवाये वा, एगाइयाणं ति एकद्वित्रिचतुरादीनां शतान्तानां कोटीकोट्यन्तानां वा, एगत्थाणं ति एके च ते अर्थाश्चेत्येकार्थास्तेषाम्, अयमर्थः- एकेषां केषाञ्चित्, न सर्वेषाम्, निखिलानां वक्तुमशक्यत्वात्, अर्थानां जीवादीनाम्, एगुत्तरियत्ति एक उत्तरो यस्यां सा एकोत्तरा सैव एकोत्तरिका, इह 20 च प्राकृतत्वात् ह्रस्वत्वम्, परिवुड्डी यत्ति परिवृद्धिश्चेति समनुगीयते समवायेनेति योगः, तत्र च परिवर्द्धनं संख्यायाः समवसेयम्, चशब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोत्तरिका अनेकोत्तरिका च, तत्र शतं यावदेकोत्तरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति । तथा द्वादशाङ्गस्य च गणिपिटकस्य पल्लवग्गं ति पर्यवपरिमाणम् अभिधेयादितद्धर्मसंख्यानं यथा परित्ता तसा इत्यादि पर्यवशब्दस्य च पल्लव त्ति निर्देश: प्राकृतत्वात् पर्यङ्कः पल्लंक २२० Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सू० १३ समवायाङ्गवर्णनम् । २२१ इत्यादिवदिति, अथवा पल्लवा इव पल्लवा: अवयवास्तत्परिमाणं समणुगाइजइ त्ति समनुगीयते प्रतिपाद्यते । पूर्वोक्तमेवार्थं प्रपञ्चयन्नाह- ठाणगेत्यादि, ठाणगसयस्स त्ति स्थानकशतस्यैकादीनां शतान्तानां संख्यास्थानानाम्, तद्विशेषितात्मादिपदार्थानामित्यर्थः, तथा द्वादशविधो विस्तरो यस्याचारादिभेदेन तत् द्वादशविधविस्तरम्, तस्य, श्रुतज्ञानस्य 5 जिनप्रवचनस्य, किंभूतस्य ? जगज्जीवहितस्य, भगवतः श्रुतातिशययुक्तस्य समासेन संक्षेपेण समाचारः प्रतिस्थानं प्रत्यङ्गं च विविधाभिधेयाभिधायकत्वलक्षणो व्यवहार: आहिजइ त्ति आख्यायते । अथ समाचाराभिधानानन्तरं तत्र यदुक्तं तदभिधातुमाहतत्थ येत्यादि, तत्थ य त्ति तत्रैव समवाये इति योगः, नानाविधः प्रकारो येषां ते नानाविधप्रकाराः, तथाहि- एकेन्द्रियादिभेदेन पञ्चप्रकारा जीवाः, पुनरेकैकः प्रकार: 10 पर्याप्ता-ऽपर्याप्तादिभेदेन नानाविधः, जीवाजीवा य त्ति जीवा अजीवाश्च वर्णिता विस्तरेण महता वचनसन्दर्भेण, अपरेऽपि च बहविधा विशेषा जीवाजीवधर्मा वर्णिता इति योगः, तानेव लेशत आह- नरएत्यादि, नरय त्ति निवासनिवासिनामभेदोपचारान्नारकाः, ततश्च नारकतिर्यग्मनुजसुरगणानां सम्बन्धिन आहारादयः, तत्र आहारः ओजआहारादिराभोगिकानाभोगिकस्वरूपोऽनेकधा, 15 उच्छ्वासोऽनुसमयादिः कालभेदेनानेकधा, लेश्या कृष्णादिका षोढा, आवाससंख्या यथा नरकावासानां चतुरशीतिर्लक्षाणीत्यादिका, आयतप्रमाणमावासानामेव संख्यातासंख्यातयोजनायामता, उपलक्षणत्वादस्य विष्कम्भ-बाहल्य-परिधिमानान्यप्यत्र द्रष्टव्यानि, उपपात एकसमयेनैतावतामेतावता वा कालव्यवधानेनोत्पत्तिः, च्यवनमेकसमयेनैतावतामियता वा कालव्यवधानेन मरणम्, अवगाहना 20 शरीरप्रमाणमगुलासंख्येयभागादि, अवधि: अगुलासंख्येयभागक्षेत्रविषयादिः, वेदना शुभाशुभस्वभावा, विधानानि भेदा यथा सप्तविधा नारका इत्यादि, उपयोग: आभिनिबोधिकादिर्कीदशविधः, योग: पञ्चदशविधः, इन्द्रियाणि पञ्च, १. 'इजंति समनुगीयंते प्रतिपाद्यते ख० । 'इजंति समनुगीयते प्रतिपाद्यते जे१ । 'इजत्ति समनुगीयते प्रतिपाद्यते जे२ ।। २. नानाविधः नानाविध: जे२ ॥ ३. नरेत्यादि खंसं० विना ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे द्रव्यादिभेदाद् विंशतिर्वा, श्रोत्रादिच्छिद्राद्यपेक्षयाऽष्टौ वा, कषायाः क्रोधादयः आहारश्चोच्छ्वासश्चेत्यादिद्व(ई)न्द्वस्ततः कषायशब्दात् प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा विविधा च जीवयोनिः सचित्तादिकं जीवानामुत्पत्तिस्थानम्, तथा विष्कम्भोत्सेध-परिरयप्रमाणं विधिविशेषाश्च मन्दरादीनां महीधराणामिति, तत्र 5 विष्कम्भो विस्तार उत्सेधः उच्चत्वं परिरय: परिधिः, विधिविशेषा इति विधयो भेदा यथा मन्दरा जम्बूद्वीपीय-धातकीखण्डीय-पौष्करार्द्धिकभेदात् त्रिधा तद्विशेषस्तु जम्बूद्वीपको लक्षोच्च: शेषास्तु पञ्चाशीतिसहस्रोच्छ्रिता इति, एवमन्येष्वपि भावनीयम्, तथा कुलकर-तीर्थकर-गणधराणां तथा समस्तभरताधिपानां चक्रिणां चैव तथा चक्रधर-हलधराणां च विधिविशेषाः इति योगः, तथा वर्षाणां च भरतादिक्षेत्राणां 10 निर्गमा: पूर्वेभ्य: उत्तरेषामाधिक्यानि, समाए त्ति समवाये चतुर्थे अगे वर्णिता इति प्रक्रमः, अथैतन्निगमयन्नाह- एते चोक्ताः पदार्था अन्ये च घन-तनुवातादयः पदार्थाः, एवमादयः एवंप्रकाराः अत्र समवाये विस्तरेणार्थाः समाश्रीयन्ते, अविपरीतस्वरूपगुणभूषिता बुद्धयाऽङ्गीक्रियन्त इत्यर्थः, अथवा समस्यन्ते कुप्ररूपणाभ्यः सम्यक् प्ररूपणायां क्षिप्यन्ते, शेषं निगदसिद्धमा निगमनादिति ।।५।। 15 सू० १४०] से किं तं वियाहे ? वियाहेणं ससमया विआहिजंति, परसमया विआहिजंति, ससमय-परसमया विआहिजंति, जीवा विआहिजंति, अजीवा विआहिजंति, जीवाजीवा विआहिजंति, लोए विआहिजति, अलोए वियाहिजति । वियाहेणं नाणाविहसुर-नरिंद-रायरिसि-विविहसंसइय पुच्छियाणं जिणेण वित्थरेण भासियाणं दव्वगुणखेत्तकालपजवपदेस20 परिणामजहत्थिभावअणुगमनिक्खेवणयप्पमाण-सुनिउणोवक्कमविविहप्पकारपागडपयंसियाणं लोगालोगप्पगासियाणं संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणं सुरवतिसंपूजियाणं भवियजणपयहियया-भिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणसुदिट्ठदीवभूयईहामतिबुद्धिवद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाण दसणाओ सुयत्थबहुविहप्पगारा सीसहितत्थाय गुणहत्था । वियाहस्स णं 25 परित्ता वायणा जाव अंगठ्ठताए पंचमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, एगे साइरेगे Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४०] व्याख्याप्रज्ञप्ति [ =भगवतीसूत्र]वर्णनम् । २२३ अज्झयणसते, दस उद्देसगसहस्साइं, दस समुद्देसगसहस्साइं, छत्तीसं वागरणसहस्साइं, चउरासीति पयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ते । संखेजाई अक्खराई, अणंता गमा जाव सासया कडा णिबद्धा [णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेत्तं वियाहे । [टी०] से किं तं वियाहे इत्यादि, अथ केयं व्याख्या ?, व्याख्यायन्ते अर्था यस्यां सा व्याख्या, वियाहे इति च पुल्लिँङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात्, वियाहेणं ति व्याख्यया व्याख्यायां वा ससमया इत्यादीनि नव पदानि सूत्रकृतवर्णके व्याख्यातत्वादिह कण्ठ्यानि । वियाहेणमित्यादि, नानाविधैः सुरैः नरेन्द्रैः राजऋषिभिश्च विविहसंसइय त्ति विविधसंशयितैः विविधसंशयवद्भिः पृष्टानि यानि तानि तथा, तेषां 10 नानाविधसुरनरेन्द्रराजऋषिविविधसंशयितपृष्टानां व्याकरणानां षट्त्रिंशतः सहस्राणां दर्शनात् श्रुतार्था व्याख्यायन्त इति पूर्वापरेण वाक्यसंबन्धः, पुनः किंभूतानां व्याकरणानाम् ? जिनेनेति भगवता महावीरेण वित्थरेण भासियाणं विस्तरेण भणितानामित्यर्थः, पुनः किंभूतानाम् ? दव्वेत्यादि, द्रव्य-गुण-क्षेत्र-काल-पर्यवप्रदेश-परिणामानां यथास्तिभावोऽनुगम-निक्षेप-नय-प्रमाण-सुनिपुणोप- 15 क्रमैर्विविधप्रकारैः प्रकटः प्रदर्शितो यैर्व्याकरणैस्तानि तथा, तेषाम्, तत्र द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि, गुणा ज्ञान-वर्णादयः, क्षेत्रम् आकाशम्, काल: समयादिः, पर्यवाः स्व-परभेदभिन्ना धर्माः, अथवा कालकृता अवस्था नव-पुराणादयः पर्यवाः, प्रदेशा निरंशावयवाः, परिणामा: अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनानि, यथा येन प्रकारेणाऽस्तिभावः अस्तित्वं सत्ता यथाऽस्तिभावः, अनुगम: 20 संहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः उद्देश-निर्देश-निर्गमादिद्वारकलापात्मको वा, निक्षेपो नामस्थापना-द्रव्य-भावैर्वस्तुनो न्यासः, नयप्रमाणम्, नया नैगमादयः सप्त द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकभेदात् ज्ञाननय-क्रियानयभेदान्निश्चय-व्यवहारभेदाद्वा द्वौ, ते एव तावेव वा प्रमाणं वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणम्, तथा सुनिपुणः सुसूक्ष्मः सुनिगुणो वा सुष्ठ निश्चितगुण उपक्रम: आनुपूर्व्यादिः, विविधप्रकारता चैषां भेदभणनत एवोपदर्शितेति, 25 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पुनः किंभूतानां व्याकरणानाम् ?, लोकालोको प्रकाशितौ येषु तानि तथा, तेषाम्, तथा संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणं ति संसारसमुद्रस्य रुंदस्य विस्तीर्णस्य उत्तरणे तारणे समर्थानामित्यर्थः, अत एव सुरपतिसंपूजितानां प्रच्छक-निर्णायकपूजनात् सूक्तत्वेन श्लाघितत्वाद्वा, तथा भवियजणपयहिययाभिणंदियाणं ति भव्यजनानां 5 भव्यप्राणिनां प्रजा लोको भव्यजनप्रजा भव्यजनपदो वा, तस्यास्तस्य वा हृदयैः चित्तैरभिनन्दितानां अनुमोदितानामिति विग्रहः, तथा तमोरजसी अज्ञान-पातके विध्वंसयति नाशयति यत्तत्तमोरजोविध्वंसं तच्च तद् ज्ञानं च तमोरजोविध्वंसज्ञानम्, तेन सुष्ठ दृष्टानि निर्णीतानि यानि तानि तथा, अत एव तानि च तानि दीपभूतानि चेति, अत एव तानि च तानि ईहामतिबुद्धिवर्द्धनानि चे ति, तेषा 10 तमोरजोविध्वंसज्ञानसुदृष्टदीपभूतेहामतिबुद्धिवर्द्धनानाम्, तत्र ईहा वितर्क , मति: अवायो निश्चय इत्यर्थः. बुद्धिः औत्पत्तिक्यादिश्चतुर्विधेति, अथवा तमोरजोविध्वंसनानामिति पृथगेव पदम्, पाठान्तरेण सुदृष्टदीपभूतानामिति च, तथा छत्तीससहस्समणूणयाणं ति अन्यूनकानि षट्त्रिंशत् सहस्राणि येषां तानि तथा, इह मकारोऽन्यथा पदनिपातश्च प्राकृतत्वादनवद्य इति, वागरणाणं ति व्याक्रियन्ते 15 प्रश्नानन्तरमुत्तरतयाऽभिधीयन्ते निर्णायकेन यानि तानि व्याकरणानि, तेषां दर्शनात् प्रकाशनादुपनिबन्धनादित्यर्थः, अथवा तेषां दर्शना उपदर्शका इत्यर्थः, क इत्याहसुयत्थबहुविहप्पयार त्ति श्रुतविषया अर्थाः श्रुतार्था अभिलाप्यार्थविशेषा इत्यर्थः, श्रुता वा आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये अर्थास्ते श्रुतार्थाः, अथवा श्रुतमिति सूत्रम् अर्था निर्युक्त्यादय इति श्रुतार्थाः, ते च ते बहुविधप्रकाराश्चेति विग्रहः, 20 श्रुतार्थानां वा बहुविधा: प्रकारा इति विग्रहः, किमर्थं ते व्याख्यायन्त इत्याह शिष्यहितार्थाय शिष्याणां हितम् अनर्थप्रतिघाता-ऽर्थप्राप्तिरूपं तदेवाऽर्थः प्रार्थ्यमानत्वात्तस्य, तस्मै इति, किंभूतास्ते अत आह- गुणहस्ताः, गुण एवार्थप्राप्त्यादिलक्षणो हस्त इव हस्त: प्रधानावयवो येषां ते तथा । वियाहस्सेत्यादि तु निगमनान्तं सूत्रसिद्धम्, नवरं शतमिहाध्ययनस्य संज्ञा । 25 चतुरशीति: पदसहस्राणि पदाग्रेणेति समवायापेक्षया द्विगुणताया इहानाश्रयणात्, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४१] ज्ञाताधर्मकथावर्णनम् । अन्यथा तद्विगुणत्वे द्वे लक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति ॥ ५ ॥ [सू० १४१] से किं तं णायाधम्मकहाओ ? णायाधम्मकहासु णं णायाणं गराई, उज्जाणाई, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाइं, धम्मायरिया, धम्मकहातो, इहलोइया पारलोइया इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वजातो, सुतपरिग्गहा, तवोवहाणाई, परियागा, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, अंतकिरियातो य आघविज्जंति जाव नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरणजिणसामिसासणवरे संजमपतिण्णापालणधिइमतिववसायदुब्बलाणं २२५ 5 तवनियमतवोवहाणरणदुद्धरभरभग्गाणिसहाणिसट्ठाणं घोरपरीसहपराजियासहप[पा]रद्धरुद्धसिद्धालयमग्गनिग्गयाणं विसयसुहतुच्छआसावसदोस - 10 मुच्छियाणं विराहियचरित्तणाणदंसणजतिगुणविविहप्पगारणिस्सारसुन्नयाणं संसारअपारदुक्खदुग्गतिभवविविहपरंपरापवंचा, धीराण य जियपरीसहकसायसेण्णधितिधणियसंजमउच्छाहनिच्छियाणं आराहियणाणदंसणचरित्तजोगणिस्सल्लसुद्धसिद्धालयमग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसोक्खाइं अणोवमाई भोत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि ततो य 15 कालक्कमचुयाणं जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया, चलियाण य सदेवमाणुसधीरकरणकारणाणि बोधणअणुसासणाणि गुणदोसदरिसणाणि, दिते पच्चये य सोऊण लोगमुणिणो जह य ट्ठिय सासणम्मि जरमरणणासणकरे, आराहितसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता उवेंति जह सासतं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं एते अण्णे य एवमादित्थ वित्थरेण य । 20 णायाधम्मकहासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जातो संगहणीतो । से णं अंगट्ठताए छट्ठे अंगे, दो सुतक्खंधा, एकूणवी (ती ? ) सं अज्झयणा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - चरिता य कडता य । दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयसताई, १. एकूणतीसं खं० अटी० विना ॥ , Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयसताई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयउवक्खाइयसताइं, एवामेव सपुव्वावरेणं अद्भुट्ठातो अक्खाइयकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ । एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसतसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ते । 5 संखेजा अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आघविजति । सेत्तं णायाधम्मकहातो । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कास्ता ज्ञाताधर्मकथा: ? ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा:, दीर्घत्वं संज्ञात्वाद्, अथवा प्रथमश्रुतस्कन्धो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः, ततश्च ज्ञातानि च धर्मकथाश्च 10 ज्ञाताधर्मकथाः, तत्र प्रथमव्युत्पत्त्यर्थं सूत्रकारो दर्शयन्नाह– नायाधम्मकहासु णमित्यादि, ज्ञातानाम् उदाहरणभूतानां मेघकुमारादीनां नगरादीन्याख्यायन्ते, नगरादीनि द्वाविंशति: पदानि कण्ठ्यानि च, नवरमुद्यानं पत्र-पुष्प-फल-च्छायोपगवृक्षोपशोभितं विविधवेषोन्नतमानश्च बहुजनो यत्र भोजनार्थं यातीति, चैत्यं व्यन्तरायतनम्, वनखण्डोऽनेकजातीयैरुत्तमैर्वृक्षरुपशोभित इति । आघविजंति, इह यावत्करणादन्यानि 15 पञ्च पदानि दृश्यानि यावदयं सूत्रावयवो यथा नायाधम्मेत्यादि, तत्र ज्ञाताधर्मकथासु णमित्यलकारे, प्रव्रजितानाम्, क्व ? विनयकरणजिनस्वामिशासनवरे कर्मविनयकरे जिननाथसम्बन्धिनि शेषप्रवचनापेक्षया प्रधाने प्रवचने इत्यर्थः, पाठान्तरेण समणाणं विणयकरणजिणसासणम्मि पवरे, किंभूतानाम् ? संयमप्रतिज्ञा संयमाभ्युपगमः सैव दुरधिगमत्वात् कातरनरक्षोभकत्वाद् गम्भीरत्वाच्च पातालमिव पातालम्, तत्र, 20 धृतिमतिव्यवसाया दुर्लभा येषां ते तथा, पाठान्तरेण संयमप्रतिज्ञापालने ये धृतिमतिव्यवसायास्तेषु दुर्बला ये ते तथा, तेषाम्, तत्र धृतिः चित्तस्वास्थ्यम्, मति: बुद्धिः, व्यवसाय: अनुष्ठानोत्साह इति, तथा तपसि नियम: अवश्यं करणं तपोनियमो नियन्त्रित(तं) तपः, स च तपउपधानं चानियन्त्रितं तप एव श्रुतोपचारतपो वा तपोनियमतपउपधाने ते एव रणश्च कातरनरक्षोभकत्वात् सङ्ग्रामो दुद्धरभर त्ति १. गम्यत्वात् हे२ विना ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४१] ज्ञाताधर्मकथावर्णनम् । २२७ श्रमकारणत्वाद् दुर्द्धरभरश्च दुर्वहलोहादिभारस्ताभ्यां भग्ना इति भग्नका: पराङ्मुखीभूताः, तथा निसहा-निसट्ठाणं ति निःसहा नितरामशक्तास्त एव निःसहका निसृष्टाश्च निसृष्टाङ्गा मुक्ताङ्गा ये ते तपोनियमतपउपधानरणदुर्धरभरभग्नकनिःसहकनिसृष्टाः, पाठान्तरेण नि:सहकनिविष्टाः, तेषाम्, इह च प्राकृतत्वेन ककारलोप-सन्धिकरणाभ्यां भग्ना इत्यादौ दीर्घत्वमवसेयम्, तथा घोरपरीषहैः पराजिताश्चासहाश्च असमर्थाः 5 सन्तः प्रारब्धाश्च परीषहैरेव वशीकर्तुं रुद्धाश्च मोक्षमार्गगमने ये ते घोरपरीषहपराजितासहप्रारब्धरुद्धाः, अत एव सिद्धालयमार्गात् ज्ञानादेर्निर्गताः प्रतिपतिता ये ते तथा, ते च ते ते चेति, तेषाम्, घोरपरीषहपराजितासहप्रारब्धरुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानाम्, पाठान्तरेण घोरपरीषहपराजितानाम्, तथा सह युगपदेव परीषहैर्विशिष्टगुणश्रेणिमारोहन्तः प्ररुद्धरुद्धाः अतिरुद्धा: 10 सिद्धालयमार्गनिर्गताश्च ये ते तथा, तेषां सहप्ररुद्धरुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानाम्, तथा विषयसुखे तुच्छे स्वरूपतः आशावशदोषेण मनोरथपारतन्त्र्यवैगुण्येन मूर्च्छिता अध्युपपन्ना ये ते तथा, तेषां विषयसुखतुच्छाशावशदोषमूर्च्छितानाम्, पाठान्तरेण विषयसुखे या महेच्छा कस्यांचिदवस्थायां या चावस्थान्तरे तुच्छाशा तयोर्वशः पारतन्त्र्यं तल्लक्षणेन दोषेण मूर्च्छिता ये ते तथा, तेषां 15 विषयसुखमहेच्छातुच्छाशावशदोषमूर्च्छितानाम्, तथा विराधितानि चरित्रज्ञानदर्शनानि यैस्ते तथा, तथा यतिगुणेषु विविधप्रकारेषु मूलगुणोत्तरगुणरूपेषु निःसारा: सारवर्जिताः पलञ्जिप्रायगुणधान्या इत्यर्थः, तथा तैरेव यतिगुणैः शून्यकाः सर्वथा अभावाद्ये ते तथेति पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषां विराधितचारित्रज्ञानदर्शनयतिगुणविविधप्रकारनिःसारशून्यकानाम्, किमत आह- 20 संसारे संसृतौ अपारदुःखा अनन्तक्लेशा ये दुर्गतिषु नारक-तिर्यक्-कुमानुषकुदेवत्वरूपासु भवा भवग्रहणानि तेषां या विविधाः परम्परा: पारम्पर्याणि तासां ये प्रपञ्चास्ते संसारापारदुःखदुर्गतिभवविविधपरम्पराप्रपञ्चा:, आख्यायन्ते इति पूर्वेण योगः, तथा धीराणां च महासत्त्वानाम्, किंभूतानाम् ? - जितं परीषहकषायसैन्यं यैस्ते तथा, धृते: मनःस्वास्थ्यस्य धनिका: स्वामिनो धृतिधनिकाः, 25 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तथा संयमे उत्साहो वीर्यं निश्चित: अवश्यंभावी येषां ते संयमोत्साहनिश्चिताः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, अतस्तेषां जितपरीषहकषायसैन्यधृतिधनिकसंयमोत्साहनिश्चितानाम्, तथा आराधिता ज्ञानदर्शनचारित्रयोगा यैस्ते तथा, निःशल्यो मिथ्यादर्शनादिरहितः शुद्धश्च अतीचारवियुक्तो य: सिद्धालयस्य सिद्धेर्मार्गस्तस्या5 ऽभिमुखा ये ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अतस्तेषामाराधितज्ञानदर्शन चारित्रयोगनिःशल्यशुद्धसिद्धालयमार्गाभिमुखानाम्, किमत आह- सुरभवने देवतयोत्पादे यानि विमानसौख्यानि तानि सुरभवनविमानसौख्यानि अनुपमानि ज्ञाताधर्मकथास्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः, इह च भवनशब्देन भवनपतिभवनानि न व्याख्यातान्यविराधितसंयमप्रव्रजितप्रस्तावात्, ते हि भवनपतिषु नोत्पद्यन्त इति, 10 तथा भुक्त्वा चिरं च भोगभोगान् मनोज्ञशब्दादीन् तांस्तथाविधान् दिव्यान् स्वर्गभवान् महार्हान्, महतः आत्यन्तिकान् अर्हान् प्रशस्ततया पूज्यानिति भावः, ततश्च देवलोकात् कालक्रमच्युतानां यथा च पुनर्लब्धसिद्धिमार्गाणां मनुजगताववाप्तज्ञानादीनामन्तक्रिया मोक्षो भवति तथाऽऽख्यायत इति प्रक्रमः, तथा चलितानां च कथञ्चित् कर्मवशतः परीषहादावधीरतया संयमप्रतिज्ञाया भ्रष्टानां सह 15 देवैर्मानुषाः सदेवमानुषास्तेषां सम्बन्धीनि धीरकरणे धीरत्वोत्पादने यानि कारणानि ज्ञातानि तानि सदेवमानुषधीरकरणकारणानि आख्यायन्त इति प्रक्रमः, इयमत्र भावना - यथा आर्याषाढो देवेन धीरीकृतो यथा वा मेघकुमारो भगवता, शैलकाचार्यो वा पन्थकसाधुना धीरीकृतः एवं धीरकरणकारणानि तत्राख्यायन्ते, किंभूतानि तानीत्याह- बोधनानुशासनानि, बोधनानि मार्गभ्रष्टस्य मार्गसंस्थापनानि अनुशासनानि 20 दुस्थस्य सुस्थतासम्पादनानि, अथवा बोधनम् आमन्त्रणं तत्पूर्वकान्यनुशासनानि बोधनानुशासनानि, तथा गुणदोषदर्शनानि संयमाराधनायां गुणा इतरत्र दोषा भवन्तीत्येवंदर्शनानि वाक्यान्याख्यायन्त इति योगः, तथा दृष्टान्तान् ज्ञातानि प्रत्ययांश्च बोधिकारणभूतानि वाक्यानि श्रुत्वा लोकमुनयः शुकपरिव्राजकादयो यथा च येन च प्रकारेण स्थिताः शासने जरा-मरणनाशनकरे जिनानां सम्बन्धिनीति भावः, १. धीरीकरण' जे२ हे२, खंसं० ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ [सू० १४४] ज्ञाताधर्मकथावर्णनम् । ६ तथाऽऽख्यायन्त इति योग:, तथा आराहितसंजम त्ति एत एव लौकिकमुनयः संयमवलिताश्च जिनप्रवचनं प्रपन्नाः पुनः परिपालितसंयमाश्च सुरलोकं गत्वा चैते सुरलोकप्रतिनिवृत्ता उपयन्ति यथा शाश्वतं सदाभाविनं शिवम् अबाधकं सर्वदुःखमोक्षं निर्वाणमित्यर्थः, एते चोत्तलक्षणाः अन्ये च एवमादित्थ एवमादय आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वादेवंप्रकारा अर्था: पदार्थाः, वित्थरेण यत्ति 5 विस्तरेण चशब्दात् क्वचित् केचित् संक्षेपेण आख्यायन्त इति क्रियायोगः । नायाधम्मकहासु णमित्यादि कण्ठ्यमा निगमनात्, नवरं एकूणतीसमज्झयण त्ति प्रथमे श्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिर्द्वितीये च दशेति । तथा दस धम्मकहाणं इत्यादौ भावनेयम्- इकोनविंशतिर्ज्ञाताध्ययनानि दाष्टन्तिकार्थज्ञापनलक्षणज्ञातप्रतिपादकत्वात्तानि प्रथमश्रुतस्कन्धे, द्वितीये 10 त्वहिंसादिलक्षणधर्म्मस्य कथा धर्मकथा आख्यानकानीत्युक्तं भवति, तासां च दश वर्गाः, वर्ग इति समूहः, ततश्चार्थाधिकारसमूहात्मकान्यध्ययनान्येव दश वर्गा द्रष्टव्याः, तंत्र ज्ञातेष्वादिमानि दश ज्ञातानि ज्ञातान्येव, न तेष्वाख्यायिकादिसम्भवः, शेषाणि नव ज्ञातानि तेषु पुनरेकैकस्मिन् पञ्च पञ्च चत्वारिंशदधिकानि आख्यायिकाशतानि, तत्राप्येकैकस्यामाख्यायिकायां पञ्च पञ्चोपाख्यायिकाशतानि, तत्राप्येकैकस्यामुपाख्यायिकायां पञ्च पञ्चाख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि, एवमेतानि संपिण्डितानि किं सञ्जातम् ? वग्गा इगवीसं कोडिसयं लक्खा पण्णासमेव बोद्धव्वा । ( ९ x ५४० x ५०० x ५०० =) १२१५०००००० एवं ठिए समाणे अहिगयसुत्तस्स पत्थावो ॥ [ नन्दी० हारि० ] तद्यथा— दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच 20 १. "ख्यायत जे४ ॥ २. एकूणवीस खं० । अत्रेदमवधेयम् - समवायानसूत्रस्य मूलादर्शेषु एकूणवीस इति पाठ उपलभ्यते, खं०अटी० हस्तलिखितादर्शेऽपि एकूणवीस इति पाठ उपलभ्यते, अन्येषु तु अटी० हस्तलिखितादर्शेषु एकूणतीस" इति पाठ उपलभ्यते । नन्दीसूत्रेऽपि एकूणवीसं इति पाठो दृश्यते, नन्दीवृत्तिकृद्भिरपि तथैव व्याख्यातम् । तथापि अटी० मध्ये 'प्रथमे श्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिर्द्वितीये च दश' इति व्याख्यादर्शनात् एकूणतीस इति पाठस्यापि संगतिः कर्तुं शक्यत एवात्र इति ध्येयम् । ३. नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावीदृशमेव वर्णनमुपलभ्यते, जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णौ तु अन्यथा वर्णनं दृश्यते । विस्तरार्थिभिः परिशिष्टे टिप्पने द्रष्टव्यम् ।। 15 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंचउवक्खाइयासयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइउवक्खाइयासयाई ति, एवमेतानि सम्पिण्डितानि किं संजातम् ? पणुवीसं कोडिसयं (१२५०००००००) एत्थ य समलक्खणाइया जम्हा । नवनाययसंबद्धा अक्खाइयमाइया तेणं ।। ते सोहिजंति फुडं इमाउ रासीउ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवजियाणं पमाणमेत्थं विणिद्दिढें ।। [नन्दी० हारि०] शोधिते चैतस्मिन् सति अर्द्धचतुर्था एव कथानककोट्यो भवन्तीति, अत एवाहएवामेव सपुव्वावरेणं ति भणितप्रकारेण गुणन-शोधने कृते सतीत्युक्तं भवति, 10 अद्भुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ त्ति आख्यायिकाः कथानकानि एता एवमेतत्संख्या भवन्तीति कृत्वा आख्याता भगवता महावीरेणेति । तथा संख्यातानि पदसयसहस्साणीति किल पञ्च लक्षाणि षट्सप्ततिश्च सहस्राणि पदाग्रेण, अथवा सूत्रालापकपदाग्रेण संख्यातान्येव पदशतसहस्राणि भवन्तीत्येवं सर्वत्र भावयितव्यमिति ॥६॥ 15 [सू० १४२] से किं तं उवासगदसातो ? उवासगदसासु णं उवासयाणं णगराइं, उज्जाणाई, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइया पारलोइया इड्डिविसेसा, उवासयाणं च सीलव्वयवेरमणगुणपच्चक्खाणपोसहोववासपडिवज्जणतातो, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, पडिमातो, उवसग्गा, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाई, 20 पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, अंतकिरियातो य आघविजंति । उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा, परिसा, वित्थरधम्मसवणाणि, बोहिलाभ, अभिगमणं, सम्मत्तविसुद्धता, थिरत्तं, मूलगुणुत्तरगुणातियारा, ठितिविसेसा य, बहुविसेसा पडिमाऽभिग्गहगहणपालणा, उवसग्गाहियासणा, णिरुवसग्गा य, तवा य चित्ता, सीलव्वयगुण१. तो हे१ विना ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ सू० १४२ उपासकदशावर्णनम् । वरमणपच्चक्खाणपोसहोववासा, अपच्छिममारणंतियायसंलेहणाझोसणाहिं अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाए य छेयइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तमेसु जह अणुभवंति सुरवरविमाणवरपोंडरीएसु सोक्खाई अणोवमाई कमेण भोत्तूण उत्तमाइं, तओ आउक्खएणं चुया समाणा जह जिणमम्मि बोहिं, लभ्रूण य संजमुत्तमं तमरयोघविप्पमुक्का उवेंति जह 5 अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं, एते अन्ने य एवमादी [अत्था वित्थरेण य] । उवासयदसासु णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा जाव संखेज्जातो संगहणीतो । से णं अंगठ्ठयाए सत्तमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, दस अज्झयणा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ते । संखेज्जाइं अक्खराइं जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति। 10 सेत्तं उवासगदसातो । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कास्ता उपासकदशा: ?, उपासका: श्रावकास्तद्गतक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा: दशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः, तथा चाह- उपासकदसासु णं उपासकाना नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डा राजानः अम्बा-पितरौ समवसरणानि धर्माचार्या धर्मकथा ऐहलौकिक- 15 पारलौकिका ऋद्धिविशेषा उपासकानां च शीलव्रतविरमणगुणप्रत्याख्यानपौषधोपवासप्रतिपदनताः, तत्र शीलव्रतानि अणुव्रतानि, विरमणानि रागादिविरतयः, गुणा गुणव्रतानि, प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि, पोषधः अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनमाहार-शरीरसत्कारादित्यागः पोषधोपवासः, ततो द्वन्द्वे सत्येतेषां प्रतिपदनता: प्रतिपत्तय इति विग्रहः, श्रुतपरिग्रहास्तपउपधानानि 20 च प्रतीतानि, पडिमाओ त्ति एकादश उपासकप्रतिमाः कायोत्सर्गा वा, उपसर्गा देवादिकृतोपद्रवाः, संलेखना भक्त-पानप्रत्याख्यानानि, पादपोपगमनानि देवलोकगमनानि सुकुलप्रत्यायाति: पुनर्बोधिलाभोऽन्तक्रिया चाख्यायन्ते पूर्वोक्तमेव, इतो विशेषत आह- उवासगेत्यादि, तत्र ऋद्धिविशेषा १. 'णाहिं ज्झोसणाहिं खं० जे१ ।। २. पोष हे१ ॥ ३. प्रतिपादनता: खं० । प्रतिपदनं जे२ ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अनेककोटीसंख्यद्रव्यादिसम्पद्विशेषाः, तथा परिषदः परिवारविशेषा यथा माता-पितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिषत् दासी-दास-मित्रादिका बाह्यपरिषदिति, विस्तरधर्मश्रवणानि महावीरसन्निधौ, ततो बोधिलाभोऽभिगम: सम्यक्त्वस्य विशुद्धता, स्थिरत्वं सम्यक्त्वशुद्धरेव, मूलगुणोत्तरगुणा अणुव्रतादयः, अतिचारास्तेषामेव बन्ध-वधादितः 5 खण्डनानि, स्थितिविशेषाश्च उपासकपर्यायस्य कालमानभेदाः, बहुविशेषाः प्रतिमा: प्रभूतभेदा: सम्यग्दर्शनादिप्रतिमाः, अभिग्रहग्रहणानि, तेषामेव च पालनानि, उपसर्गाधिसहनानि, निरुपसर्गं च उपसर्गाभावश्चेत्यर्थः, तपांसि च चित्राणि, शीलव्रतादयोऽनन्तरोक्तरूपाः, अपश्चिमाः पश्चात्कालभाविन्यः, अकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थः, मरणरूपे अन्ते भवा मारणान्तिक्यः, आत्मन: शरीरस्य 10 जीवस्य च संलेखना: तपसा रागादिजयेन च कृशीकरणानि आत्मसंलेखनाः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तासाम्, झोसण त्ति जोषणा: सेवना: करणानीत्यर्थः, ताभिरपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखनाजोषणाभिरात्मानं यथा च भावयित्वा, बहूनि भक्तानि अनशनतया च निर्भोजनतया छेदयित्वा व्यवच्छेद्य उपपन्ना मृत्वेति गम्यते, केषु ? कल्पवरेषु यानि विमानानि उत्तमानि तेषु, यथानुभवन्ति 15 सुरवरविमानानि वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि यानि तेषु, कानि? सौख्यान्यनुपमानानि क्रमेण भुक्त्वोत्तमानि, तत: आयुःक्षयेण च्युताः सन्तो यथा जिनमते बोधिं लब्ध्वा इति शेषः, लब्ध्वा च संयमोत्तम प्रधानं संयम तमोरजओघविप्रमुक्ता अज्ञानकर्मप्रवाहविमुक्ता उपयन्ति यथा अक्षयम् अपुनरावृत्तिकं सर्वदुःखमोक्षं कर्मक्षयमित्यर्थः, तथोपासकदशास्वाख्यायत इति प्रक्रमः, एते चान्ये 20 चेत्यादि प्राग्वत् । नवरं संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पदग्गेणं ति किलैकादश लक्षाणि द्विपञ्चाशच्च सहस्राणि पदानामिति ।।७।। [सू० १४३] से किं तं अंतगडदसातो ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराई, उज्जाणाई, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई धम्मायरिया, धम्मकहातो, इहलोइया पारलोइया इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, १. तपांसि च रित्राणि जे१ खं० । तपांसि च विचित्राणि हे२ ।। २. रपश्चिमामारणा खं० जे१.२।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४३ अन्तकृतदशावर्णनम् । २३३ पव्वज्जातो, सुतपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमातो बहुविहातो, खमा, अजवं, मद्दवं च, सोयं च सच्चसहियं, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, आकिंचणिया, तवो, चियातो, किरियातो, समितिगुत्तीओ चेव, तह अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई, पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउव्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो, 5 परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणीहिं, पातोवगतो य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता, एते अन्ने य एवमादी अत्था परू[विजंति जाव से णं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्त वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसतसहस्साइं पयग्गेणं। 10 संखेजा अक्खरा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति । सेत्तं अंतगडदसातो । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कास्ता अन्तकृतदशा: ? तत्रान्तो विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्तकृताः, ते च तीर्थकरादयः, तेषां दशाः प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृतदशाः, तथा चाह- अंतगडदसासु 15 णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं नगरादीनि चतुर्दश पदानि षष्ठाङ्गवर्णकाभिहितान्येव, तथा पडिमाओ त्ति द्वादश भिक्षुप्रतिमा मासिक्यादयो बहुविधाः, तथा क्षमा आर्जवं मार्दवं च शौचं च सत्यसहितम्, तत्र शौचं परद्रव्यापहारमालिन्याभावलक्षणम्, सप्तदशविधश्च संयम उत्तमं च ब्रह्म मैथुनविरतिरूपम्, आकिंचणिय त्ति आकिञ्चन्यम्, तपः, त्याग इति आगमोक्तं दानम्, समितयो गुप्तयश्चैव, तथा अप्रमादयोगः, 20 स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयोर्द्वयोरपि लक्षणानि स्वरूपाणि, तत्र स्वाध्यायस्य लक्षणं सज्झाएण पसत्थं झाण [उपदेशमाला० गा० ३३८] मित्यादि, ध्यानलक्षणं यथा- अंतोमुहुत्तमेत्तं १. क्षमा मार्दवं आर्जवं च खं० ।। २. “सज्झाएण पसत्थं झाणं जाणइ स सव्वपरमत्थं । सज्झाए वट्टतो खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥३३८॥” इति संपूर्णा गाथा ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे १ चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि [ ध्यानश० ३] इत्यादि, आख्यायन्त इति सर्वत्र योग:, तथा प्राप्तानां च संयमोत्तमं सर्वविरतिं जितपरीषहाणां चतुर्विधकर्म्मक्षये घातिक्षये सति यथा केवलस्य ज्ञानादेर्लाभः पर्यायः प्रव्रज्यालक्षणो यावांश्च यावद्वर्षादिप्रमाण यथा येन तपोविशेषाश्रयणादिना प्रकारेण पालितो मुनिभिः पादपोपगतश्च 5 पादपोपगमाभिधानमनशनं प्रतिपन्नो यो मुनिर्यत्र शत्रुञ्जयपर्वतादौ यावन्ति च भक्तानि भोजनानि छेदयित्वा, अनशनिनां हि प्रतिदिनं भक्तद्वयच्छेदो भवति, अन्तकृतो मुनिवरो जात इति शेषः, तमोरजओघविप्रमुक्तः, एवं च सर्वेऽपि क्षेत्रकालादिविशेषिता मुनयो मोक्षसुखमनुत्तरं च प्राप्ता आख्यायन्त इति क्रियायोगः । एते अन्ये चेत्यादि प्राग्वत् । नवरं दस अज्झयण त्ति प्रथमवर्गापेक्षयैव घटते, 10 नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात्, यच्चेह पठ्यते सत्त वग्ग त्ति तत् प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया, यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्ट वर्गाः, नन्द्यामपि तथा पठितत्वात्, तद्वृत्तिश्चेयम्– अट्ठ वग्ग त्ति अत्र वर्गः समूहः, स चान्तकृतानामध्ययनानां वा, सर्वाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, अतो भणितम् ‘अट्ठ उद्देसणकाला' इत्यादि [ नन्दी० हारि० ], इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः । तथा संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेणेति, 15 तानि च किल त्रयोविंशतिर्लक्षाणि चत्वारि च सहस्राणीति ॥८॥ [सू० १४४] से किं तं अणुत्तरोववातियदसातो ? अणुत्तरोववातियदसासु णं अणुत्तरोववातियाणं णगराई, उज्जाणाई, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहातो, इहलोइया पारलोइया १. “अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ।।३।। व्या०इह मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिलवप्रमाण: कालविशेषो भण्यते । अन्तर्मध्यकरणे, ततश्चान्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालमिति गम्यते, मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थ:, ततश्च भिन्नमुहूर्तमेव कालम् किम् ? चित्तावस्थानमिति चित्तस्य मनसः अवस्थानं चित्तावस्थानम्, अवस्थिति: अवस्थानम्, निष्प्रकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः क्व ? एकवस्तुनि, एकम् अद्वितीयं वसन्त्यस्मिन् गुणपर्याया इति वस्तु चेतनादि, एकं च तद्वस्तु एकवस्तु, तस्मिन् २ छद्मस्थानां ध्यानमिति, तत्र छादयतीति छद्म पिधानं तच्च ज्ञानादीनां गुणानामावारकत्वाज्ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म छद्मनि स्थिताश्छद्मस्था अकेवलिन इत्यर्थः, तेषां छद्मस्थानाम्, ध्यानं प्राग्वत् || ३ ||" इति ध्यानशतके हारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ २. " से किं तं अंतगडदसाओ..." [सू० ९२] इति नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावेतदस्ति । नन्दीसूत्रस्य जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णावपि स्तोकं वर्णनमुपलभ्यते ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४४) अनुत्तरोपपातिकदशावर्णनम् । २३५ इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वजाओ, सुतपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमातो, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाइं, पाओवगमणाई, अणुत्तरोववत्ति, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, अंतकिरिया तो] य आघविजंति । अणुत्तरोववातियदसासु णं तित्थकरसमोसरणाई परममंगल्लजगहिताणि, जिणातिसेसा य बहविसेसा, जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं 5 थिरजसाणं परिसहसेण्णरिवुबलपमद्दणाणं तवदित्तचरित्तणाणसम्मत्तसारविविहप्पगारवित्थरपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ उत्तमवरतवविसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं, जह य जगहियं भगवओ, जारिसा य रिद्धिविसेसा देवासुरमाणुसाण । परिसाणं पाउब्भावा य जिणसमीवं, जह य उवासंति जिणवरं, जह य परिकहें(हे)ति धम्मं 10 लोगगुरू अमर-नरा-ऽसुरगणाणं, सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मा विसयविरत्ता नरा जहा अब्भुवेंति धम्मं ओरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदंसणचरित्तजोगा जिणवयणमणुगयमहियभासिता जिणवराण हिययेणमणुणेत्ता जे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता लभ्रूण य समाहिमुत्तमं झाणजोगजुत्ता उववन्ना 15 मुणिवरुत्तमा जह अणुत्तरेसु, पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं तत्तो य चुया कमेण काहिंति संजया जह य अंतकिरियं, एते अन्ने य एवमादित्थ जाव परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, [जाव] संखेजातो संगहणीतो। से णं अंगट्ठयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं 20 पण्णत्ते । संखेजाणि अक्खराणि जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति। सेत्तं अणुत्तरोववातियदसातो । [टी०] से किं तमित्यादि, नास्मादुत्तरो विद्यते इत्यनुत्तर उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः, अनुत्तरः प्रधानः संसारे अन्यस्य तथाविधस्याभावादुपपातो येषां ते तथा, त १. वित्थार अटी० ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एवाऽनुत्तरोपपातिकाः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशाः, तथा चाह- अणुत्तरोववाइयदसासु णमित्यादि, तत्रानुत्तरोपपातिकानामिति साधूनाम्, नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि ज्ञाताधर्मकथावर्णकोक्तानि तथा। एतेषामेव च प्रपञ्च रचयन्नाह- अनुत्तरोपपातिकदशासु तीर्थकरसमवसरणानि, 5 किम्भूतानि ? परममङ्गल्यत्वेन जगद्धितानि परममङ्गल्यजगद्धितानि, जिनातिशेषाश्च बहुविशेषा देहं विमलसुयंध[ ]मित्यादयश्चतुस्त्रिंशदधिकतरा वा, तथा जिनशिष्याणां चैव गणधरादीनाम्, किम्भूतानामत आह- श्रमणगणप्रवरगन्धहस्तिनां श्रमणोत्तमानामित्यर्थः, तथा स्थिरयशसाम्, तथा परीषहसैन्यमेव परीषहवृन्दमेव रिपुबलं परचक्रं तत्प्रमईनानाम्, तथा दववद् दावाग्निरिव दीप्तानि उज्ज्वलानि, 10 पाठान्तरेण तपोदीप्तानि, यानि चरित्र-ज्ञान-सम्यक्त्वानि तैः सारा: अफल्गवो विविधप्रकारविस्तारा अनेकविधप्रपञ्चा: प्रशस्ताश्च ये क्षमादयो गुणास्तैः संयुतानाम्, क्वचित्तु गुणध्वजानामिति पाठः, तथा अनगाराश्च ते महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयस्तेषामनगारगुणानां वर्णकः श्लाघा आख्यायत इति योगः, पुनः किम्भूतानां जिनशिष्याणाम् ? उत्तमाश्च ते जात्यादिभिर्वरतपसश्च ते विशिष्टज्ञानयोगयुक्ताश्चेत्यत15 स्तेषामुत्तमवरतपोविशिष्टज्ञानयोगयुक्तानाम्, किञ्चापरम् ? यथा च जगद्धितं भगवत इत्यत्र जिनस्य शासनमिति गम्यते, यादृशाश्च ऋद्धिविशेषा देवासुरमानुषाणां रत्नोज्ज्वललक्षयोजनमानविमानरचनं सामानिकाद्यने कदेवदेवीको टिसमवायनं मणिखण्डमण्डितदण्ड पटु प्रचलत्पताकि काशतोपशोभितमहाध्वजपुर : प्रवर्त्तनं विविधातोद्यनादगगनाभोगपूरणं चैवमादिलक्षणाः प्रतिकल्पितगन्धसिन्धुरस्कन्धारोहणं 20 चतुरङ्गसैन्यपरिवारणं छत्र-चामर-महाध्वजादिमहाराजचिह्नप्रकाशनं च एवमादयश्च सम्पद्विशेषाः समवसरणगमनप्रवृत्तानां वैमानिक-ज्योतिष्काणां भवनपति-व्यन्तराणां राजादिमनुजानां च, अथवा अनुत्तरोपपातिकसाधूनाम् ऋद्धिविशेषा देवादिसम्बन्धिनस्तादृशा आख्यायन्त इति क्रिया, तथा पर्षदां संजयवेमाणित्थी संजयि पुव्वेण पविसिउं वीर[ ]मित्यादिनोक्तस्वरूपाणां प्रादुर्भावाश्च आगमनानि, क्व ? १. तानि यथा एतेषा" जे२ हे१.२ ।। २. पवसिउं खं० जे१.२ ।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४५] अनुत्तरोपपातिकदशावर्णनम् । २३७ जिणसमीवं ति जिनसमीपे, यथा च येन च प्रकारेण पञ्चविधाभिगमादिना उपासते सेवन्ते राजादयो जिनवरं तथाऽऽख्यायत इति योगः, यथा च परिकथयति धर्म लोकगरुरिति जिनवरोऽमर-नरा-ऽसुरगणानाम्, श्रुत्वा च तस्येति जिनवरस्य भाषितम्, अवशेषाणि क्षीणप्रायाणि कर्माणि येषां ते तथा, ते च ते विषयविरक्ताश्चेति अवशेषकर्मविषयविरक्ताः, के ? नराः, किम् ? यथा अभ्युपयन्ति धर्ममुदारम्, 5 किंस्वरूपमत आह– संयमं तपश्चापि, किम्भूतमित्याह- बहुविधप्रकारम्, तथा यथा बहूनि वर्षाणि अणुचरित्त त्ति अनुचर्य आसेव्य संयमं तपश्चेति वर्त्तते, तत आराधितज्ञान-दर्शन-चारित्रयोगाः, तथा जिणवयणमणुगयमहियभासिय त्ति जिनवचनम् आचारादि अनुगतं सम्बद्धं नार्दवितर्दमित्यर्थः महितं पूजितमधिकं वा भाषितं यैरध्यापनादिना ते तथा, पाठान्तरे जिनवचनमनुगत्या आनुकूल्येन सुष्ठ 10 भाषितं यैस्ते जिनवचनानुगतिसुभाषिताः, तथा जिणवराण हियएणमणुणेत्त त्ति, इह षष्ठी द्वितीयार्थे, तेन जिनवरान् हृदयेन मनसा अनुनीय प्राप्य ध्यात्वेति यावत्, ये च यत्र यावन्ति च भक्तानि छेदयित्वा लब्ध्वा च समाधिमुत्तमं ध्यानयोगयुक्ता: उपपन्ना मुनिवरोत्तमा यथा अनुत्तरेषु तथा आख्यायत इति प्रक्रमः, तथा प्राप्नुवन्ति यथाऽनुत्तरं तत्थ त्ति अनुत्तरविमानेषु विषयसुखं तथाऽऽख्यायते इति योगः, तत्तो 15 य त्ति अनुत्तरविमानेभ्यश्च्युता: क्रमेण करिष्यन्ति संयता यथा चान्तक्रियां ते तथाऽऽख्यायन्ते अनुत्तरोपपातिकदशास्विति प्रकृतम् । ___ एते चान्ये चेत्यादि पूर्ववत्, नवरं दस अज्झयणा तिन्नि वग्ग त्ति, इहाध्ययनसमूहो वर्गः, वर्गे वर्गे दशाध्ययनानि, वर्गश्च युगपदेवोद्दिश्यते इत्यतस्त्रय एवोद्देशनकाला भवन्तीति । एवमेव च नन्दावभिधीयन्ते, इह तु दृश्यन्ते दशेत्यत्राभिप्रायो न ज्ञायत 20 इति । तथा संख्यातानि पदसयसहस्साइं पदग्गेणं ति किल षट्चत्वारिंशल्लक्षाण्यष्टौ च सहस्राणि ।।९।। - [सू० १४५] से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अट्ठत्तरं १. 'यंत जे१ खं० ॥ २. “हाणादिकोउकम्म, भूतीकम्मं सविज्जगा भूती । विजारहिते लहुगो चउवीसा तिण्णि पसिणसया ॥४२८९।। व्या० शिंदुभादियाण मसाणचच्चरादिसु ण्हवणं कज्जति, रक्खाणिमित्तं भूती, Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पसिणसतं, अट्ठत्तरं अपसिणसतं, अट्ठत्तरं पसिणापसिणसतं, विजातिसया, नागसुपण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविजंति । पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमयपण्णवयपत्तेयबुद्धविविधत्थभासाभासियाणं अतिसयगुणउवसमणाण-प्पगारआयरियभासियाणं वित्थरेणं थिरमहेसीहिं विविध5 वित्थार(त्थ?)भासियाणं च जगहिताणं अद्दागंगुट्ठबाहुअसिमणिखाम आइच्चमातियाणं विविहमहापसिणविजामणपसिणविज्जादइवयपयोगपाहण्णगुणप्पगासियाणं सब्भूयबिगुणप्पभावनरगणमतिविम्हयकरीणं अतिसयमतीतकालसमये दमतित्थकरुत्तमस्स थितिकरणकारणाणं दुरभिगमदुरव गाहस्स सव्वसव्वण्णुसम्मतस्साऽबुधजणविबोहकरस्स पच्चक्खयप्पच्चय10 करीणं पण्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविनंति । पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेजा जाव संखेजातो संगहणीतो । से णं अंगठ्ठताए दसमे अंगे, एगे सुत्तक्खंधे, पणतालीसं अज्झयणा पणतालीसं उद्देसणकाला, पणतालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ते, संखेजा अक्खरा, अणंता गमा जाव 15 चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेत्तं पण्हावागरणाणि । [टी०] से किं तमित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, तन्निर्वचनं व्याकरणम्, प्रश्नानां च व्याकरणानां च योगात् प्रश्नव्याकरणानि, तेषु अट्ठत्तरं पसिणसयं इत्यादि, तत्रागुष्ठ-बाहुप्रश्नादिका मन्त्रविद्याः प्रश्नाः, याः पुनर्विधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः अप्रश्नाः, तथाऽङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्य या 20 विद्याः शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्नाप्रश्नाः । विजाइसय त्ति तथा अन्ये विद्यातिशया: स्तम्भ-स्तोभ-वशीकरण-विद्वेषीकरणोच्चाटनादयः नागसुपर्णैश्च सह विज्जाभिमतीए भूतीए चउलहुं । इयराए मासलहुं । पसिणा एते पण्हवाकरणेसु पुव्वं आसी ।।४२८९।। पसिणापसिणं सुविणे विज्जासिद्धं तु साहति परस्स । अहवा आइंखिणिया घंटियसिटुं परिकहेति ॥४२९०॥ व्या० सुविणयविज्जाकहियं कधिंतस्स पासिणापसिणं भवति । अहवा विजाभिमंतिया घंटिया कण्णमूले चालिजति, तत्थ देवता कधिति, कहेंतस्स पसिणापसिणं भवति, स एव इंखिणी भण्णति ।।४२९०॥” इति निशीथभाष्यचूर्णी। १. वित्थारेण वीरमहे जे२ ।। २. नन्दीसूत्रे पाठोऽयं वर्तते ।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ सू० १४५ प्रश्नव्याकरणवर्णनम् । भवनपतिविशेषैरुपलक्षणत्वाद् यक्षादिभिश्च सह ‘साधकस्य' इति गम्यते, दिव्या: तात्त्विका: संवादा: शुभाशुभगता: संलापा: आख्यायन्ते । एतदेव प्रायः प्रपञ्चयन्नाहपण्हावागरणदसेत्यादि, स्वसमय-परसमयप्रज्ञापका ये प्रत्येकबुद्धास्तैः करकण्ड्वादिसदृशैर्विविधार्था यका भाषा गम्भीरेत्यर्थः तया भाषिता: गदिताः स्वसमयपरसमयप्रज्ञापकप्रत्येकबुद्धविविधार्थभाषाभाषिताः, तासाम्, किम् ? - 5 आदर्शाङ्गुष्ठादीनां सम्बन्धिनीनां प्रश्नानां विविधगुणमहार्थाः प्रश्नव्याकरणदशास्वाख्यायन्त इति योगः, पुनः किम्भूतानां प्रश्नानाम् ? अइसयगुणउवसमनाणप्पगारआयरियभासियाणं ति अतिशयाश्च आमर्षोषध्यादयो गुणाश्च ज्ञानादय उपशमश्च स्वपरभेदः, एते नानाप्रकारा येषां ते तथा, ते च ते आचार्याश्च तैर्भाषिता यास्तास्तथा, तासाम्, कथं भाषितानामित्याह- वित्थरेणं ति विस्तरेण महता वचनसन्दर्भेण, तथा 10 स्थिरमहर्षिभिः. पाठान्तरे वीरमहर्षिभिः विविहवित्थरभासियाणं च त्ति विविधविस्तरेण भाषितानाम्, चकारस्तृतीयप्रणायकभेदसमुच्चयार्थः, पुनः कथंभूतानां प्रश्नानाम् ? जगहियाणं ति जगद्धितानां पुरुषार्थोपयोगित्वात्, किंसम्बन्धिनीनामित्याहअदाग त्ति आदर्शश्चाङ्गुष्ठश्च बाहू च असिश्च मणिश्च क्षौमं च वस्त्रम् आदित्यश्चेति द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां कुड्य-शख-घटादीनां ते तथा, तेषां 15 सम्बन्धिनीनाम्, प्रश्नविद्याभिरादर्शकादीनामावेशनात्, किंभूतानां प्रश्नानामत आह- विविधमहाप्रश्नविद्याश्च वाचैव प्रश्ने सत्युत्तरदायिन्य: मनःप्रश्नविद्याश्च मन:प्रनितार्थोत्तरदायिन्यः, तासां दैवतानि तदधिष्ठातृदेवताः, तेषां प्रयोगप्राधान्येन तव्यापारप्रधानतया गुणं विविधार्थसंवादनलक्षणं प्रकाशयन्ति लोके व्यञ्जयन्ति यास्ता विविधमहाप्रश्नविद्या-मनःप्रश्नविद्या-दैवतप्रयोगप्राधान्यगुणप्रकाशिकाः, 20 तासाम्, पुनः किंभूतानां प्रश्नानाम् ? सद्भूतेन तात्त्विकेन द्विगुणेन उपलक्षणत्वाल्लौकिकप्रश्नविद्याप्रभावापेक्षया बहुगुणेन, पाठान्तरे विविधगुणेन, प्रभावेन माहात्म्येन नरगणमते: मनुजसमुदयबुद्धेर्विस्मयकर्यः चमत्कारहेतवो याः प्रश्नास्ताः १. पहावागरणमित्यादि ख० जे१.२ ।। २. वित्थारेणं हे१ विना ।। ३. वित्थार' हे२ विना ।। ४. प्रत्युत्तर जे२ ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सद्भूतद्विगुणप्रभावनरगणमतिविस्मयकर्यः, तासाम्, पुनः किंभूतानां तासाम् ? अतिसयमतीतकालसमये त्ति अतिशयेन योऽतीतः कालसमय: स तथा, तत्र, अतिव्यवहिते काले इत्यर्थः, दमः शमस्तत्प्रधानः तीर्थकराणां दर्शनान्तरशास्तृणामुत्तमो यः स तथा भगवान् जिनः, तस्य दमतीर्थकरोत्तमस्य स्थितिकरणं स्थापनम् आसीद् 5 अतीतकाले सातिशयज्ञानादिगुणयुक्तः सकलप्रणायकशिर:शेखरकल्प: पुरुषविशेष: एवंविधप्रश्नानामन्यथानुपपत्तेः' इत्येवंरूपम्, तस्य कारणानि हेतवो या तास्तथा, तासाम्, पुनस्ता एव विशिनष्टि दुरभिगमं दुरवबोधं गम्भीरसूक्ष्मार्थत्वेन दुर बगाहं च दुःखाध्येयं सूत्रबहुत्वाद्यत्तस्य, सर्वेषां सर्वज्ञानां सम्मतम् इष्ट सर्वसर्वज्ञसम्मतम्, अथवा सर्वं च तत् सर्वज्ञसम्मतं चेति सर्वसर्वज्ञसम्मतं प्रवचनतन्वमित्यर्थः, तस्य, 10 अबुधजनविबोधनकरस्य एकान्तहितस्येति भावः, पचखयपच्चयकरीणं ति प्रत्यक्षकेण ज्ञानेन साक्षादित्यर्थो य: प्रत्यय: ‘सर्वातियनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिचारि चेदं जिनप्रवचनम' इत्येवंरूपा प्रतिपत्तिः, अथवा प्रत्यक्षेणेवानेनार्थाः प्रतीयन्त इति प्रत्यक्षमिवेदमित्येवं प्रतीतिः प्रत्यक्षताप्रत्ययस्तत्करणशीला: प्रत्यक्षकप्रत्ययकर्यः प्रत्यक्षताप्रत्ययको वा, तासां प्रत्यक्षकप्रत्ययकरीणां 15 प्रत्यक्षताप्रत्ययकरीणां वा, कासामित्याह- प्रश्नानां प्रश्नविद्यानाम् उपलक्षणत्वादन्यासा च यासामष्टोत्तरशतान्यादौ प्रतिपादितानि, विविधगुणा बहविधप्रभावास्ते च ते महार्थाश्च महान्तोऽभिधेयाः पदार्थाः शुभाशुभसूचनादयो विविधगुणमहार्थाः, किंभूता: ? जिनवरप्रणीता:, किमित्याह आघविजंति त्ति आख्यायन्ते, शेषं पूर्ववत्, नवरं यद्यपीहाध्ययनानां दशत्वाद् दशैवोद्देशनकाला भवन्ति तथापि वाचनान्तरापेक्षया 20 पञ्चचत्वारिंशदिति सम्भाव्यते इति पणयालीसमित्याद्यविरुद्धमिति । संखेजाणि पयसयसहस्साणि पदग्गेणं ति तानि च किल द्विनवतिर्लक्षाणि षोडश च सहस्राणीति ।।१०।। _[सू० १४६] से किं तं विवागसुते ? विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं १. काल: समय: खं० ॥ २. समसमस्तत्प्र जे२ ।। ३. प्रत्यक्षेणैवा जे२ ।। ४. प्रत्यक्षकप्रत्यय जे२॥ ५. नवतिल हे२ विना ।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ सू० १४६ विपाकश्रुतवर्णनम् । फलविवागे आघविजति । से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- दुहविवागे चेव सुहविवागे चेव, तत्थ णं दह दुहविवागाणि, दह सुहविवागाणि । से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं [दुहविवागाणं] णगराई, चेतियाई, उज्जाणाइं, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाइं, धम्मायरिया, धम्मकहातो, नरग(नगर)गमणाइं, संसारपवंचदुहपरंपराओ य 5 आघविजंति, सेत्तं दुहविवागाणि । से किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं णगराइं जाव धम्मकहातो, इहलोइयपारलोइया इट्टिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वजाओ, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, पडिमातो, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाइं, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, 10 अंतकिरियातो य आघविजंति । दहविवागेसु णं पाणातिवाय-अलियवयण-चोरिक्ककरण-परदारमेहुणससंगताए महतिव्वकसाय-इंदिय-प्पमाय-पावप्पओय-असुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरयगतितिरिक्खजोणिबहुविहवसण-सयपरंपरापबद्धाणं मणुयत्ते वि आगताणं जह 15 पावकम्मसेसेण पावगा होति फलविवागा वह-वसणविणास-णासकण्णोटुंगुट्ठ-कर-चरण-नहच्छेयण-जिब्भच्छे यण-अंजण-कडग्गिदाहणगयचलणमलण-फालण-उल्लंबण-सूल-लता-लउड-लट्ठिभंजण-तउ-सीसगतत्ततेल्लकलकलअभिसिंचण-कुंभिपाग-कंपण-थिरबंधण-वेह-वज्झकत्तणपतिभयकरकरपलीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि, 20 बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए, अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्खो, तवेण धितिधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वा वि होज्जा । एत्तो य सुभविवागेसु सील-संजम-णियम-गुण-तवोवहाणेसु साहसु १. जेमू - हे२ -अटी० मध्येऽत्र नगरगमणाई' इति पाठः, अन्येषु तु हस्तलिखितादर्शेषु 'नरगगमणाई' इति पाठः, नन्दीसत्रेऽपि अस्मिन्नेव वर्णने निरयगमणाई इत्येव पाठः ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सुविहिएसु अणुकंपासयप्पयोगतेकालमतिविसुद्धभत्तपाणाइं पययमणसा हितसुहनीसेसतिव्वपरिणामनिच्छियमती पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाइं जह य निव्वत्तेति उ बोहिलाभं जह य परित्तीकरेंति णर-णिरय-तिरिय सुरगतिगमणविपुलपरियट्ट-अरति-भय-विसाय-सोक-मिच्छत्तसेलसंकडं 5 अण्णाणतमंधकारचिक्खल्लसुदुत्तारं जर-मरण-जोणिसंखुभितचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंडं अणातियं अणवयग्गं संसारसागरमिणं, जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु, जह य अणुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि, ततो य कालंतरे चुयाणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-वपुवण्ण-रूव-जाति-कुल-जम्म-आरोग्ग-बुद्धि-मेहाविसेसा मित्तजण-सयणधणधण्णविभवसमिद्धिसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागुत्तमेसु, अणुवरयपरंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिया बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवता जिणवरेण संवेगकारणत्था, अन्ने वि य एवमादिया, बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविज्जति । विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा जाव संखेजातो संगहणीतो। 15 से णं अंगठ्ठताए एक्कारसमे अंगे, वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ते, संखेजाणि अक्खराणि, जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेतं विवागसुए। [टी०] से किं तमित्यादि, विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्मपरिणामस्तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम् । विवागसुए णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं फलविवागे त्ति फलरूपो 20 विपाकः, तथा नगरगमणाई ति भगवतो गौतमस्य भिक्षाद्यर्थं नगरप्रवेशनानीति । एतदेव पूर्वोक्तं प्रपञ्चयन्नाह- दुहविवागेसु णमित्यादि, तत्र प्राणातिपाताऽलीकवचन-चौर्यकरण-परदारमैथुनैः सह ससंगयाए त्ति या ससङ्गता सपरिग्रहता तया संचितानां कर्मणामिति योगः, महातीव्रकषायेन्द्रियप्रमादपापप्रयोगाशुभाध्यवसानसञ्चितानां कर्मणा पापकानां पापानुभागा अशुभरसा ये १. °था इत्यत आरभ्य षट् पत्राणि खं० मध्ये न सन्ति ।। २. सह संगयाए जे२ हे२ । खं० मध्येऽत्र पाठः पतितः ।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४६ विपाकश्रुतवर्णनम् । २४३ फलविपाका विपाकोदयास्ते तथा, ते आख्यायन्त इति योगः, केषामित्याह- निरयगतौ तिर्यग्योनौ च ये बहुविधव्यसनशतपरम्पराभिः प्रबद्धाः ते तथा, तेषाम्, जीवानामिति गम्यते. तथा मणुयत्ति त्ति मनुजत्वेऽप्यागतानां यथा पापकर्मशेषेण पापका भवन्ति फलविपाका अशुभा विपाकोदया इत्यर्थः, तथा आख्यायते इति प्रकृतम्, तथाहि- व्यधो यष्ट्यादिताडनं वृषणविनाशो वर्द्धितककरणं तथा नासायाश्च कर्णयोश्च 5 ओष्ठस्य चागुष्ठाना च करयोश्च चरणयोश्च नखानां च यच्छेदनं तत्तथा, जिह्वाछेदनम्, अंजण त्ति अञ्जनं तप्तायःशलाकया नेत्रयोः, म्रक्षणं वा देहस्य क्षार-तैलादिना, कडग्गिदाहणं ति कटानां विदलवंशादिमयानामग्नि: कटाग्निस्तेन दाहनं कटाग्निदाहनम्, कटेन परिवेष्टितस्य बोधनमित्यर्थः, तथा गजचलनमलनं फालनं विदारणम् उल्लम्बनं वृक्षशाखादावुद्बन्धनम्, तथा शूलेन लतया लकुटेन यष्ट्या च भञ्जनं गात्राणाम्, 10 तथा त्रपुणा धातुविशेषेण, सीसकेन च तेनैव, तप्तेन तैलेन च कल-कल त्ति सशब्देनाभिषेचनम्, तथा कुम्भ्यां भाजनविशेषे पाकः कुम्भीपाकः, कम्पनं शीतलजलाच्छोटनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजननम्, तथा स्थिरबन्धनं निबिडनियन्त्रणम्, वेधः कुन्तादिना शस्त्रेण भेदनम्, वर्द्धकर्त्तनं त्वगुत्त्रोटनम्, प्रतिभयकरं भयजननं तच्च तत् करप्रदीपनं च वसनावेष्टितस्य तैलाभिषिक्तस्य 15 करयोरग्निप्रबोधनमिति कर्मधारयः, ततश्च व्यधश्च वृषणविनाशश्चेत्यादि यावत् प्रतिभयकरकरप्रदीपनं चेति द्वन्द्वः, ततस्तानि आदिर्येषां दुःखानां तानि, तथा तानि च तानि दारुणानि चेति कर्मधारयः, कानीमानीत्याह- दुःखानि, किंभूतानि ? अनुपमानि दु:खविपाकेप्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथेदमाख्यायते बहविविधपरम्पराभिः द:खानामिति गम्यते, अनुबद्धाः सन्ततमालिगिता 20 बहुविविधपरम्परानुबद्धा जीवा इति गम्यते, न मुच्यन्ते न त्यज्यन्ते, कया ? पापकर्मवल्लया दु:खफलसम्पादिकया, किमित्याह- यतोऽवेदयित्वा अननुभूय कर्मफलमिति गम्यते, हर्यस्मादर्थे, नास्ति न भवति मोक्षो वियोगः कर्मणः सकाशात्, जीवानामिति गम्यते, किं सर्वथा नेत्याह- तपसा अनशनादिना, किम्भूतेन ? धृतिः १. विधौ जे२ । वधो जे५ । “व्यध ताडने" - पा०धा० ११८१ ।। २. अग्निप्रबोधनमित्यर्थः ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे चित्तसमाधानं तद्रूपा धणियं ति अत्यर्थं बद्धा निष्पीडिता कच्छा बन्धविशेषो यत्र तत्तथा तेन, धृतिबलयुक्तेनेत्यर्थः, शोधनम् अपनयनं तस्य कर्मविशेषस्य वावि त्ति सम्भावनायां होज्जा सम्पद्येत, नान्यो मोक्षोपायोऽस्तीति भावः । एत्तो येत्यादि, इतश्चानन्तरं सुखविपाकेषु द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनेष्वित्यर्थः, 5 यदाख्यायते तदभिधीयत इति शेष:, शीलं ब्रह्मचर्यं समाधिर्वा, संयमः प्राणातिपातविरतिः, नियमा अभिग्रहविशेषाः, गुणा: शेषमूलगुणा: उत्तरगुणाश्च, तपोऽनशनादि, एतेषामुपधानं विधानं येषां ते तथा, अतस्तेषु शील-संयम-नियमगुण-तपउपधानेषु, केष्वित्याह- साधुषु यतिषु, किम्भूतेषु ? सुष्ठ विहितम् अनुष्ठित येषां ते सुविहितास्तेषु भक्तादि दत्त्वा यथा बोधिलाभादि निर्वर्त्तयन्ति तथेहाख्यायत 10 इति सम्बन्धः, इह च सम्प्रदानेऽपि सप्तमी न दष्टा, विषयस्य विवक्षणात्, अनुकम्पा अनुक्रोशस्तत्प्रधान आशय: चित्तं तस्य प्रयोगो व्यावृत्ति(पृति)रनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन, तथा तेकालमति त्ति त्रिषु कालेषु या मति: बुद्धिर्यदुत दास्यामीति परितोषो दीयमाने परितोषो दत्ते च परितोष इति सा त्रिकालमतिस्तया च यानि विशुद्धानि तानि तथा, तानि च तानि भक्तपानानि चेति अनुकम्पाशयप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्धभक्त15 पानानि प्रदायेति क्रियायोगः, केन प्रदायेत्याह- प्रयतमनसा आदरपूतचेतसा, हितोऽनर्थपरिहाररूपत्वात् सुखः तद्धेतुत्वात् शुभो वा नीसेस त्ति निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् तीव्रः प्रकृष्टः परिणाम: अध्यवसानं यस्यां सा तथा, सा निश्चिता असंशया मति: बुद्धिर्येषां ते हितसुखनिःश्रेयसतीव्रपरिणामनिश्चितमतयः, किम् ? पयच्छिऊणं ति प्रदाय, किंभूतानि भक्त-पानानि ? प्रयोगेषु शुद्धानि 20 दायकदानव्यापारापेक्षया सकलाशंसादिदोषरहितानि ग्राहकग्रहणव्यापारापेक्षया चोद्गमादिदोषवर्जितानि, ततः किम् ? यथा च येन च प्रकारेण पारम्पर्येण मोक्षसाधकत्वलक्षणेन निर्वर्त्तयन्ति, भव्यजीवा इति गम्यते, तुशब्दो भाषामात्रार्थः, बोधिलाभम्, यथा च परित्तीकुर्वन्ति ह्रस्वतां नयन्ति संसारसागरमिति योग:, किंभूतम् ? नर-निरय-तिर्यक्-सुरगतिषु यज्जीवानां गमनं परिभ्रमणं स एव विपुलो 25 विस्तीर्णः परिवर्तो मत्स्यादीनां परिवर्तनमनेकधा सञ्चरणं यत्र स तथा, तथा अरति Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ [सू० १४६ ] विपाकश्रुतवर्णनम् । भय-विषाद-शोक-मिथ्यात्वान्येव शैलाः पर्वतास्तैः सङ्कटः सङ्कीर्णो यः स तथा, ततः कर्म्मधारयोऽतस्तम्, इह च विषादो दैन्यमात्रम्, शोकस्त्वाक्रन्दनादिचिह्न इति, तथा अज्ञानमेव तमोऽन्धकारं महान्धकारं यत्र स तथा, अतस्तम्, चिक्खल्लसुदुत्तारं ति चिक्खल्लं कर्दमः संसारपक्षे तु चिक्खल्लं विषय-धन- स्वजनादिप्रतिबन्धः, तेन सुदुस्तरो दुःखोत्तार्यो यः स तथा, तम्, तथा जरामरणयोनय एव संक्षुभितं 5 महामत्स्य-मकराद्यनेकजलजन्तुजातिसम्मर्देन प्रविलोडितं चक्रवालं जलपारिमाण्डल्यं यत्र स तथा, तम्, तथा षोडश कषाया एव श्वापदानि मकरर-ग्राहादीनि प्रकाण्डचण्डानि अत्यर्थद्राणि यत्र स तथा, तम्, अनादिकमनवदग्रमनन्तं संसारसागरमिमं प्रत्यक्षमित्यर्थः, तथा यथा च सागरोपमादिना प्रकारेण निबध्नन्त्यायुः सुरगणेषु साधुदानप्रत्ययमिति भावः, यथा चानुभवन्ति सुरगणविमानसौख्यानि अनुपमानि 10 ततश्च कालान्तरे च्युतानाम् इहेव त्ति तिर्यग्लोके नरलोकमागतानामायु-र्वपुर्वर्ण-रूप-जाति-कुल- जन्मा -ऽऽरोग्य - बुद्धि-मेधाविशेषा आख्यायन्त इति योगः, तत्रायुषो विशेष इतरजीवायुषः सकाशात् शुभत्वं दीर्घत्वं च, एवं वपुः शरीरं तस्य स्थिरसंहननता, वर्णस्योदारगौरत्वम्, रूपस्यातिसुन्दरता जातेरुत्तमत्वम्, कुलस्याप्येवम्, जन्मनो विशिष्टक्षेत्रकालनिराबाधत्वम्, आरोग्यस्य प्रकर्षः, बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका 15 तस्याः प्रकृष्टता, मेधा अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिः, तस्या विशेष : प्रकृष्टतैवेति, तथा मित्रजनः सुहृल्लोकः, स्वजन: पितृपितृव्यादिः, धनधान्यरूपो यो विभवो लक्ष्मीः स धनधान्यविभवः, तथा समृद्धेः पुरा - ऽन्तःपुर- कोश- कोष्ठागार-बल-वाहनरूपायाः सम्पदो यानि साराणि प्रधानवस्तूनि तेषां यः समुदयः समूहः स तथा इत्येतेषां द्वन्द्वस्तत एषां ये विशेषाः प्रकर्षास्ते तथा, तथा बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां 20 विशेषा इतीहापि सम्बन्धनीयम्, शुभविपाक उत्तमो येषां ते शुभविपाकोत्तमा:, तेषु, जीवेष्विति गम्यम्, इह चेयं षष्ठ्यर्थे सप्तमी, तेन शुभविपाकाध्ययनवाच्यानां साधूनामायुष्कादिविशेषाः शुभविपाकाध्ययनेष्वाख्यायन्ते इति प्रकृतम् । अथ प्रत्येकं श्रुतस्कन्धयोरभिधेये पुण्य-पापविपाकरूपे प्रतिपाद्य, तयोरेव यौगपद्येन १. चिखल जे१.२ ॥ २. पुरकोश जे२ विना || Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ते आह- अणुवरयेत्यादि, अनुपरता अविच्छिन्ना ये परम्परानुबद्धाः पारम्पर्यप्रतिबद्धाः, के ? विपाका इति योग:, केषाम् ? अशुभानां शुभानां चैव कर्मणां प्रथमद्वितीयश्रुतस्कन्धयोः क्रमेणैव भाषिताः उक्ता बहुविधा विपाका विपाकश्रुते एकादशेऽगे भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः संवेगहेतवो भावाः, अन्येऽपि 5 चैवमादिका आख्यायन्त इति पूर्वोक्तक्रियया वचनपरिणामाद्वोत्तरक्रियया योग:, एवं बहुविधा विस्तरेणार्थप्ररूपणता आख्यायत इति, शेषं कण्ठ्यम्, नवरं संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेणेति, तत्र किल एका पदकोटी चतुरशीतिश्च लक्षाणि द्वात्रिंशच्च सहस्राणीति ।।११।। २४६ [सू० १४७] [१] से किं तं दिट्ठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणया 10 आघविज्जति । से समासतो पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- परिकम्मं सुत्ताई पुव्वगयं अणुओगो चूलिया । [२] से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहासिद्धसेणियापरिकम्मे मणुस्ससेणियापरिकम्मे पुट्ठसेणियापरिकम्मे ओगाहणसेणियापरिकम्मे उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे विप्पजहणसेणियापरिकम्मे 15 चुताचुतसेणियापरिकम्मे । से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? सिद्धसेणियापरिकम्मे चोसविहे पण्णत्ते, तंजहा- माउयापदाणि १, एगट्ठितातिं २, पाढो ३, अट्टपयाणि ४, ( अट्ठपयाणि ३, पाढो ४) आगासपदाणि ५, केउभूयं ६, रासिबद्धं ७, एगगुणं ८, दुगुणं ९, तिगुणं १०, केउभूतपडिग्गहो ११, संसार डिग्गहो १२, नंदावत्तं १३, सिद्धावत्तं १४, सेत्तं सिद्धसेणियापरिकम्मे । 20 से किं तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे ? मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोहसविहे पण्णत्ते, तंजहा— ताइं चेव माउयापयाई जाव नंदावत्तं मणुस्सावत्तं, सेत्तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे । अवसेसाइं परिकम्माई पाढाइयाई एक्कारसविहाणि पन्नत्ताई । इच्चेताइं सत्त परिकम्माई, छ ससमइयाणि, सत्त आजीवियाणि । छ चउक्कणइयाणि, सत्त तेरासियाणि । एवामेव सपुव्वावरेणं सत्त परिकम्माई १. पारंपर्यप्रतिबद्धाः हे२ विना नास्ति ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ दृष्टिवादस्वरूपम् । तेसीति भवंतीति मक्खायातिं । सेत्तं परिकम्माइं । टी०] से किं तं दिट्ठिवाए त्ति, दृष्टयो दर्शनानि, वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः दृष्टीनां वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टयः एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः, तथा चाह- दिट्ठिवाएणमित्यादि, दृष्टिपातेन दृष्टिपाते वा सर्वभावप्ररूपणाऽऽख्यायते। से समासओ पंचविहेत्यादि, सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि यथादृष्टं किञ्चित् 5 लिख्यते, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि गणितपरिकर्मवत्, तच्च परिकर्मश्रुतं सिद्धश्रेणिकादिपरिकर्ममूलभेदतः सप्तविधम्, उत्तरभेदतस्तु त्र्यशीतिविधं मातृकापदादि, एतच्च सर्वं समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नम्, एतेषां च परिकर्मणां षट् आदिमानि परिकर्माणि स्वसामयिकान्येव, गोशालक प्रवर्त्तिताजीविकपाषण्डिसिद्धान्तमतेन पुनः च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म- 10 सहितानि सप्त प्रज्ञाप्यन्ते, इदानीं परिकर्मसु नयचिन्ता, तत्र नैगमो द्विविधः - साङ्ग्रहिकोऽसाङ्ग्रहिकश्च, तत्र साङ्ग्रहिकः सङ्ग्रहं प्रविष्टोऽसाङ्ग्रहिकश्च व्यवहारम्, तस्मात् सङ्ग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्दादयश्चैक एवेत्येवं चत्वारो नयाः, एतैश्चतुर्भिर्नयैः षट् स्वसामयिकानि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते, अतो भणितं छ चउक्कनइयाइं भवन्ति, त एव चाजीविकास्त्रैराशिका भणिताः, कस्माद् ?, उच्यते, यस्मात्ते सर्वं त्र्यात्मकम् 15 इच्छन्ति, यथा 'जीवोऽजीवो जीवाजीवः, लोकोऽलोको लोकालोकः, सत् असत् सदसत्' इत्येवमादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति, तद्यथा- द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक: उभयार्थिकः, अतो भणितं सत्त तेरासिय त्ति सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकपाषण्डस्थास्त्रिविधया नयचिन्तया चिन्तयन्तीत्यर्थः । सेत्तं परिकम्म त्ति निगमनम्। [सू० १४७] [३] से किं तं सुत्ताइं ? सुत्ताइं अट्ठासीतिं भवंतीति 20 मक्खायातिं, तंजहा- उज्जगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विपच्चवियं अणंतरपरंपरं सामाणं संजूहं भिन्नं आहव्वायं सोवत्थितं घंटं गंदावत्तं बहुलं १. दृष्टिपादेन जे५.२ !! २. पाखंडि जे२ ॥ ३. त्रुटितस्य खं० आदर्शस्य नि' इत्यतः प्रारम्भः ।। ४. संग्राहि खं० । संग्रहि जे२ । जे१ मध्येऽत्र पत्रं त्रुटितम् ।। ५. संग्राहि ख० । संग्रहि जे२ ।। ६. संग्रहप्रवि' जे२ ।। ७. संग्राहि खं० हे१ ।। ८. 'पाषण्डि हे१,२ विना ।। ९. 'कम्मे हे२ ।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पुट्ठापुटुं वियावत्तं एवंभूतं दुयावत्तं वत्तमाणुप्पयं समभिरूढं सव्वतोभदं पणसं दुपडिग्गहं २२ । इच्चे ताई बावीसं सुत्ताई छिण्णच्छे यणइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेताई बावीसं सुत्ताई अच्छिन्नच्छेयनइयाणि आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चे ताई बावीसं सुत्ताई तिकणड्याणि 5 तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चे ताई बावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए । एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीती सुत्ताई भवंतीति मक्खायाई । सेत्तं सुत्ताई ।। [टी०] से किं तं सुत्ताइमित्यादि, तत्र सर्वद्रव्य-पर्याय-नयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि अमून्यपि च सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नानि तथापि दृष्टानुसारतः किञ्चिल्लिख्यते, एतानि किल 10 ऋजुकादीनि द्वाविंशतिः सूत्राणि, तान्येव विभागतोऽष्टाशीतिर्भवन्ति, कथम् ?, उच्यते, इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताई छिन्नच्छेयनइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए त्ति इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति स छिन्नच्छेदनयो यथा धम्मो मंगलमुक्कट्ठ [दशवै० १।१] इत्यादिश्लोकः सूत्रार्थतः प्रत्येकच्छेदेन स्थितो न द्वितीयादिश्लोकमपेक्षते, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, एतान्येव द्वाविंशतिः स्वसमयसूत्रपरिपाट्या सूत्राणि स्थितानि, तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः 15 सूत्राणि अच्छिन्नच्छेदनयिकान्याजीविकसूत्रपरिपाट्येति, अयमर्थः- इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नच्छेदनयो यथा धम्मो मंगलमुक्कट्ठ [दशवै० १।१] इत्यादिश्लोक एवार्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणो द्वितीयादयश्च प्रथममिति अन्योन्यसापेक्षा इत्यर्थः, एतानि द्वाविंशतिराजीविकगोशालकप्रवर्त्तितपाषण्डसूत्रपरिपाट्या अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योन्यमपेक्षमाणानि भवन्ति । इच्चेइयाइं इत्यादि 20 सूत्रम्, तत्र तिकनइयाई ति नयत्रिकाभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इत्यर्थः, त्रैराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते इति। तथा इच्चे इयाई इत्यादि सूत्रम्, तत्र चउक्कनइयाई ति नयचतुष्काभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इति भावना । एवमेवेत्यादिसूत्रम्, एवं चतस्रो द्वाविंशतयोऽष्टाशीतिः सूत्राणि भवन्ति । सेत्तं सुत्ताई ति निगमनवाक्यम् । १. अष्टाशीत्यपि च खमू० जे१ । अष्टाशीतिरेतान्यपि च खंसं० ।। २. दृश्यतां पृ०८२ पं०२० ।। ३. “मपेक्ष्यमाणो जे२।। ४. न्यमवेक्ष्यमाणानि जे१,२,हे१ । न्यसावेक्ष्यमाणानि खं०॥ ५. भवंतीति खं० जे५।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४७ दृष्टिवादस्वरूपम् । २४९ [सू० १४७] [४] से किं तं पुव्वगए ? पुव्वगए चोद्दसविहे पण्णत्ते, तंजहाउप्पायपुव्वं अग्गेणियं वीरियं अत्थिणत्थिप्पवायं णाणप्पवायं सच्चप्पवायं आतप्पवायं कम्मप्पवायं पच्चक्खाणं अणुप्पवायं अवंझं पाणाउं किरियाविसालं लोगबिंदसारं १४ । उप्पायपुव्वस्स णं दस वत्थू, चत्तारि चूलियावत्थू पण्णत्ता। अग्गेणियस्स णं पुव्वस्स चोद्दस वत्थू, बारस चूलियावत्थू पण्णत्ता। 5 वीरियपुव्वस्स अट्ठ वत्थू, अट्ठ चूलियावत्थू पण्णत्ता । अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू, दस चूलियावत्थू पण्णत्ता । णाणप्पवायस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पण्णत्ता । सच्चप्पवायस्स णं पुव्वस्स दो वत्थू पण्णत्ता। आतप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस वत्थू पण्णत्ता । कम्मप्पवायस्स णं पुव्वस्स तीसं वत्थू पण्णत्ता । पच्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता । 10 अणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पण्णरस वत्थू पण्णत्ता । अवंझस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पण्णत्ता । पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता। किरियाविसालस्स णं पुव्वस्स तीसं वत्थू पण्णत्ता । लोगबिंदुसारस्स णं पुव्वस्स पणुवीसं वत्थू पण्णत्ता । दस चोद्दस अट्ठट्ठारसेव बारस दुवे य वत्थूणि । 15 सोलस तीसा वीसा पण्णरस अणुप्पवायम्मि ॥६१॥ बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चोद्दसमे पण्णवीसाओ ॥६२।। चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि । आतिल्लाण चउण्हं सेसाणं चूलिया णत्थि ॥६३॥ सेत्तं पुव्वगतं । [टी०] से किं तं पुव्वगयेत्यादि, अथ किं तत् पूर्वगतम् ?, उच्यते, यस्मात्तीर्थकर: तीर्थप्रवर्त्तनाकाले गणधराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थं भाषते तस्मात् पूर्वाणीति भणितानि, गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च, मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थः पूर्वमर्हता भाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्वं रचितं 25 15 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसत्रे पश्चादाचारादि । नन्वेवं यदाचारनियुक्त्यामभिहितं सव्वेसिं आयारो पढमो [आचा० नि० ८] इत्यादि तत् कथम् ?, उच्यते, तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचना प्रतीत्य भणितं पूर्वं पूर्वाणि कृतानि' इति । ___ तच्च पूर्वगतं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- उप्पायेत्यादि, तत्रोत्पादपूर्वं प्रथमम्, 5 तत्र च सर्वद्रव्याणां पर्यवाणां चोत्पादभावमङ्गीकृत्य प्रज्ञापना कृता, तस्य च पदपरिमाणमेका कोटी । अग्गेणीयं द्वितीयम्, तत्रापि सर्वेषां द्रव्याणां पर्यवाणां जीवविशेषाणां चाऽग्रं परिमाणं वर्ण्यत इत्यग्रेणीतम्, तस्य पदपरिमाणं षण्णवतिः पदशतसहस्राणि । वीरियं ति वीर्यप्रवादं तृतीयम्, तत्राप्यजीवानां जीवानां च सकर्मेतराणां वीर्यं प्रोच्यत इति वीर्यप्रवादम् । तस्यापि सप्ततिः पदशतसहस्राणि परिमाणम् । 10 अस्तिनास्तिप्रवादं चतुर्थम्, यद्यल्लोके यथास्ति यथा वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदेवास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदतीति अस्तिनास्तिप्रवादं भणितम्, तदपि पदपरिमाणतः षष्टिः पदशतसहस्राणि। ज्ञानप्रवादं पञ्चमम्, तस्मिन् मतिज्ञानादिपञ्चकस्य भेदप्ररूपणा यस्मात् कृता तस्मात् ज्ञानप्रवादम्, तस्मिन् पदपरिमाणमेका कोटी एकपदोनेति । सत्यप्रवादं षष्ठम् । सत्यं संयमः सत्यवचनं वा, 15 तद्यत्र सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्ण्यते तत् सत्यप्रवादम्, तस्य पदपरिमाणम् एका पदकोटी षट् च पदानीति। आत्मप्रवादं सप्तमम्, आय त्ति आत्मा सोऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वर्ण्यते तदात्मप्रवादम्, तस्य पदपरिमाणं षड्विंशतिः पदकोट्यः। कर्मप्रवादमष्टमम्, ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशादिभिर्भेदैरन्यैश्चोत्तरोत्तरभेदैर्यत्र वर्ण्यते तत् कर्मप्रवादम्, तत्परिमाणमेका पदकोटी अशीतिश्च सहस्राणीति । प्रत्याख्यानं 20 नवमम्, तत्र सर्वप्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यत इति प्रत्याख्यानप्रवादम्, तत्परिमाण चतुरशीतिः पदशतसहस्राणीति । विद्यानुप्रवादं दशमम्, तत्रानेके विद्यातिशया वर्णिताः, तत्परिमाणमेका पदकोटी दश च पदशतसहस्राणीति । अवन्ध्यमेकादशम्, वन्ध्यं नाम निष्फलम्, न वन्ध्यमवन्ध्यं सफलमित्यर्थः, तत्र हि सर्वे ज्ञान-तपः-संयमयोगाः शुभफलेन १. “सव्वेसि आयारो, तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए । सेसाई अंगाई, एक्कारस आणुपुव्वीए ॥८॥" - इति आचाराङ्गनिर्युक्तौ ।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ [सू० १४७ दृष्टिवादस्वरूपम् । सफला वर्ण्यन्ते, अप्रशस्ताश्च प्रमादादिकाः सर्वे अशुभफला वर्ण्यन्ते, अतोऽवन्ध्यम्, तस्य च परिमाणं षविंशतिः पदकोट्यः । प्राणायुादशम्, तत्राप्यायुःप्राणविधानं सर्वं सभेदमन्ये च प्राणा वर्णिताः, तत्परिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच्च पदशतसहस्राणीति। क्रियाविशालं त्रयोदशम्, तत्र कायिक्यादयः क्रिया विशाल त्ति सभेदा: संयमक्रियाः छन्दः क्रियाविधानानि च वर्ण्यन्त इति क्रियाविशालम्, तत्पदपरिमाणं 5 नव पदकोट्यः । लोकबिन्दसारं च चतुर्दशम्, तच्चास्मिन् लोके श्रुतलोके वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकबिन्दुसारं भणितम्, तत्प्रमाणमर्द्धत्रयोदश पदकोट्य इति । ___ उप्पायपुव्वस्सेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं वस्तु नियतार्थाधिकारप्रतिबद्धो ग्रन्थविशेषोऽध्ययनवदिति, तथा चूडा इव चूडा, इह दृष्टिवादे परिकर्म-सूत्र-पूर्वगता- 10 ऽनुयोगोक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयश्चूडा इति । सेत्तं पुव्वगते त्ति निगमनम् । [सू० १४७] [५] से किं तं अणुओगे ? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते, तंजहामूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य । से किं तं मूलपढमाणुओगे ? मूलपढमाणुओगे एत्थ णं अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवा, देवलोगगमणाणि, आउं, चयणाणि, जम्मणाणि य, अभिसेया, रायवरसिरीओ, सीयाओ, 15 पव्वजाओ, तवा य, भत्ता, केवलणाणुप्पाता, तित्थपवत्तणाणि य, संघयणं, संठाणं, उच्चत्तं, आउं, वण्णविभागो, सीसा, गणा, गणहरा य, अज्जा, पवत्तिणीओ, संघस्स चउव्विहस्स जं वा वि परिमाणं, जिणा, मणपज्जव ओहिणाणि-समत्तसुयणाणिणो य वादी अणुत्तरगती य जत्तिया, जत्तिया सिद्धा, पातोवगतो य जो जहिं जत्तियाई भत्ताइं छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरुत्तमो, 20 तमरतोघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एते अन्ने य एवमादी भावा पढमाणुओगे कहिया आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति [दंसिजंति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति]। सेत्तं मूलपढमाणुओगे । से किं तं गंडियाणुओगे? गंडियाणुओगे अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा- कुलकरगंडियाओ १. सेतं जे२ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तित्थकरगंडियाओ गणधरगंडियाओ चक्कवट्टिगंडियाओ दसारगंडियाओ बलदेवगंडियाओ वासुदेवगंडियाओ हरिवंसगंडियाओ भद्दबाहगंडियाओ तवो कम्मगंडियाओ चित्तं तरगंडियाओ ओसप्पिणिगंडियाओ उस्सप्पिणिगंडियाओ अमर-नर-तिरिय-निरयगतिगमणविविह5 परियट्टणाणुयोगे, एवमातियातो गंडियातो आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति [दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति] । सेत्तं गंडियाणुओगे । [६] से किं तं चूलियाओ ? जण्णं आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलियाओ, सेसाइं पुव्वाइं अचूलियाई । सेत्तं चूलियाओ । [७] दिट्ठिवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजातो 10 निजुत्तीओ । से णं अंगठ्ठताए बारसमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, चोद्दस पुव्वाई, संखेजा वत्थू, संखेजा चूलवत्थू, संखेजा पाहुडा, संखेजा पाहुडपाहुडा, संखेजातो पाहुडियातो, संखेजातो पाहुडपाहुडियातो, संखेजाणि पयसयसहस्साणि पदग्गेणं, संखेजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासता कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता 15 भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिज्जति निदंसिजंति उवदंसिजति । एवंणाते, एवं विण्णाते, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जति। सेत्तं दिट्ठिवाते । सेत्तं दुवालसंगे गणिपिडगे । [टी०] से किं तमित्यादि, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोग: सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्ध इत्यर्थः, स च द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- मूलप्रथमानुयोगश्च 20 गण्डिकानुयोगश्च । से किं तमित्यादि, इह धर्मप्रणयनाद् मूलं तावत्तीर्थकराः, तेषां प्रथमसम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः, तथा चाह- से किं तं मूलपढमाणुओगे इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् सेतं मूलपढमाणुओगे । से किं तमित्यादि इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते तासामनुयोग: अर्थकथनविधिः गण्डिकानुयोगः, तथा चाह- गंडियाणुओगे १. दृश्यतां पृ० २१४ टि० १ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४८ दृष्टिवादस्वरूपम् । २५३ अणेगेत्यादि. तत्र कुलकरगण्डिकासु कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वजन्माद्यभिधीयत इति. एवं शेषास्वपि अभिधानवशतो भावनीयम्, यावत् चित्रान्तरगण्डिका:, नवरं दशार्हाः समुद्रविजयादयो दश वसुदेवान्ताः । तथा चित्रा अनेकार्था अन्तरे ऋषभा-ऽजिततीर्थकरान्तरे गण्डिका एकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता, ततश्च चित्राश्च ता अन्तरगण्डिकाश्च चित्रान्तरगण्डिकाः, एतदुक्तं भवति- ऋषभा-ऽजिततीर्थकरान्तरे 5 तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगमना-ऽनुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाचित्रान्तरगण्डिका इति, ताश्च चोद्दस लक्खा सिद्धा निवईणेक्को य होइ सव्वट्टे । एवेक्केकट्ठाणे पुरिसजुगा हुंतऽसंखेजा ।। [ ] इत्यादिना ग्रन्थेन नन्दिटीकायामभिहितास्तत एवावधार्याः, इह सूत्रगमनिकामात्रस्य 10 विवक्षितत्वादिति, शेष सूत्रसिद्धमा निगमनात्, नवरं संखेज्जा वत्थु त्ति पञ्चविंशत्युत्तरे द्वे शते, संखेजा चूलवत्थु त्ति चतुस्त्रिंशत् ॥१२॥ [सू० १४८] इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियटिंसु, इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पन्ने काले परित्ता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरतं संसारकंतारं 15 अणुपरियटुंति, इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागते काले अणंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिस्संति । इच्चेतं दवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा आणाए आराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं वितिवतिंसु, एवं पडुपण्णे वि, अणागते वि । दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयाति ण आसी, ण कयाति णत्थि, ण 20 कयाति ण भविस्सइ, भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवट्टिते णिच्चे । से जहाणामए पंच अत्थिकाया ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थी, ण कयाइ ण भविस्संति, भुविं च भवंति १. नन्दीसूत्रस्य चूर्णी हारिभत्र्यां च वृत्तौ चोद्दस... ... आदय एकविंशतिगाथा उद्धृता वर्तन्ते । ताश्च तत्रैव जिज्ञासुभिद्रष्टव्याः ।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे य भविस्संति य, धुवा णितिया जाव णिच्चा, एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाति ण आसि, ण कयाति णत्थी, ण कयाति ण भविस्सति, भुविं च भवति [य] भविस्सइ य, जाव अवट्टिते णिच्चे । ____एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणंता 5 हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता अकारणा, अणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया, अणंता सिद्धा, अणंता असिद्धा, आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजंति निदंसिज्जति उवदंसिजंति ।। टी०] साम्प्रतं द्वादशाङ्गे विराधनानिष्पन्नं त्रैकालिकं फलमुपदर्शयन्नाह10 इच्चेयमित्यादि, इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकमतीतकाले अनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारम् अणुपरियटिंसु त्ति अनुपरिवृत्तवन्तः, इदं हि द्वादशाङ्ग सूत्रार्थो भयभेदेन त्रिविधम्, ततश्च आज्ञया सूत्राज्ञया अभिनिवेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया, अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्तं संसारकान्तारं नारक-तिर्यङ्-नरा-ऽमरविविधवृक्षजालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, 15 अनुपरावृत्तवन्तो जमालिवत्, अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलक्षणया गोष्ठामाहिलवत्, उभयाज्ञया पुनः पञ्चविधाचारपरिज्ञानकरणोद्यतगुर्वादेशादेरन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिङ्गधार्यनेकश्रमणवत्, सूत्रार्थोभयैर्विराध्येत्यर्थः, अथवा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावापेक्षमागमोक्तानुष्ठानमेवाज्ञा, तया, तदकरणे नेत्यर्थः । इच्चेयमित्यादि गतार्थमेव, नवरं परीत्ता जीवा इति संख्येया जीवाः, वर्तमान20 विशिष्टविराधकमनुष्यजीवानां संख्येयत्वात्, अणुपरियटुंति त्ति अनुपरावर्त्तन्ते, भ्रमन्तीत्यर्थः । इच्चेयमित्यादि, इदमपि भावितार्थमेव, नवरम् अणुपरियट्टिस्संति त्ति अनुपरावर्त्तिष्यन्ते, पर्यटिष्यन्तीत्यर्थः । इच्चेयमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं विइवइंसु त्ति व्यतिव्रजितवन्तः, चतुर्गतिकसंसारोल्लङ्घनेन मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः, एवं प्रत्युत्पन्नेऽपि, नवरम् अयं विशेष:१. विई जे२ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ [सू० १४८ दृष्टिवादस्वरूपम् । वीवयंति त्ति व्यतिव्रजन्ति, व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः, अनागतेऽप्येवम्, नवरं वीवइस्संति त्ति व्यतिव्रजिष्यन्ति, व्यतिक्रमिष्यन्तीत्यर्थः । यदिदमनिष्टेतरभेदभिन्नं फलं प्रतिपादितमेतत् सदावस्थायित्वे सति द्वादशाङ्गस्योपजायत इत्याह- दुवालसंगेत्यादि, द्वादशाङ्ग णमित्यलकारे गणिपिटकं न कदाचिन्नासीदनादित्वात्, न कदाचिन्न भवति सदैव भावात, न 5 कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात्, किं तर्हि ? भुविं चेत्यादि, अभूच्च भवति च भविष्यति च, ततश्चेदं त्रिकालभावित्वादचलत्वाच्च ध्रुवं मेर्वादिवत्, ध्रुवत्वादेव नियतं पञ्चास्तिकायेषु लोकवचनवत्, नियतत्वादेव शाश्वतं समयावलिकादिषु कालवचनवत्, शाश्वतत्वादेव वाचनादिप्रदानेऽप्यक्षयं गङ्गासिन्धुप्रवाहेऽपि पद्मह्रदवत्, अक्षयत्वादेवाऽव्ययं मानुषोत्तराबहिः समुद्रवत्, अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थितं 10 जम्बूद्वीपादिवत्, अवस्थितत्वादेव नित्यमाकाशवदिति, साम्प्रतं दृष्टान्तमत्रार्थे आहसे जहा नामए इत्यादि, तद्यथा नाम पञ्चास्तिकाया धर्मास्तिकायादय: न कदाचिन्नासन्नित्यादि प्राग्वत्, एवामेवेत्यादि दार्टान्तिकयोजना निगदसिद्धैवेति । __ एत्थ णमित्यादि, अत्र द्वादशाङ्गे गणिपिटके अनन्ता भावा आख्यायन्त इति योगः, तत्र भवन्तीति भावा जीवादयः पदार्थाः, एते च जीव-पुद्गलानन्तत्वादनन्ता 15 इति, तथा अनन्ता अभावाः, सर्वभावानामेव पररूपेणासत्त्वात्त एवानन्ता अभावा इति, स्व-परसत्ताभावा-ऽभावोभयाधीनत्वाद्वस्तुतत्त्वस्य, तथाहि- जीवो जीवात्मना भावोऽजीवात्मना चाभावोऽन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गादिति । अन्ये तु धर्मापेक्षया अनन्ता भावा: अनन्ता अभावा: प्रतिवस्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां प्रतिबद्धा इति व्याचक्षते । तथाऽनन्ता हेतवः, तत्र हिनोति गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः, 20 ते चानन्ताः, वस्तुनोऽनन्तधात्मकत्वात्, तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकत्वाच्च हेतोः, सूत्रस्य चानन्तगमपर्यायात्मकत्वादिति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षतोऽनन्ता अहेतवः तथा अनन्तानि कारणानि मृत्पिण्ड-तन्त्वादीनि घट-पटादिनिर्वर्तकानि, तथा अनन्तान्यकारणानि सर्वकारणानामेव कार्यान्तराकारणत्वात्, न हि मृत्पिण्ड: पटं १. "त्यादिः खं० जे१,२ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे निर्वर्त्तयतीति । तथा अनन्ता जीवा: प्राणिनः, एवमजीवा: व्यणुकादयः, भवसिद्धिका भव्याः इतरे तु अभव्याः । सिद्धा निष्ठितार्थाः, इतरे संसारिणः, आघविजंतीत्यादि पूर्ववदिति । [सू० १४९] [१] दुवे रासी पण्णत्ता, तंजहा- जीवरासी य अजीवरासी 5 य । अजीवरासी दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- रूविअजीवरासी य अरूविअजीवरासी य । से किं तं अरूविअजीवरासी ? अरूविअजीवरासी दसविहा पण्णत्ता, तंजहा- धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए, जाव से किं तं अणुत्तरोववातिया? अणुत्तरोववातिया पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- विजय वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सव्वट्ठसिद्धया, सेत्तं अणुत्तरोववातिया, सेत्तं 10 पंचेंदियसंसारसमावण्णजीवरासी । दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तंजहा- पज्जत्ता य अपजत्ता य, एवं दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणिय त्ति । [टी०] द्वादशाङ्गस्य स्वरूपमनन्तरमभिहितमथ तदभिधेयस्य राशिद्वयान्तर्भावतः स्वरूपमभिधित्सुराह- दुवे रासीत्यादि । इह च प्रज्ञापनाया: प्रथमपदं प्रज्ञापनाख्यं 15 सर्वं तदक्षरमध्येतव्यम्, किमवसानमित्याह- जाव से किं तमित्यादि, केवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्य चायं विशेषः, इह दुवे रासी पण्णत्ता इत्यभिलापः, तत्र तु दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता - जीवपण्णवणा अजीवपण्णवणा य [प्रज्ञापना० ३] त्ति, अतिदिष्टम्य च सूत्रतः सर्वस्य प्रज्ञापनापदस्य लेखितुमशक्यत्वादर्थतस्तल्लेश उपदर्श्यतेतत्राऽजीवराशिर्द्विविधो रूप्यरूपिभेदात्, तत्रारूप्यजीवराशिर्दशधा- धर्मास्तिकाय20 स्तदेशस्तत्प्रदेशाश्चेत्येवमधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायावपि वाच्यावेवं नव दशमोऽद्धासमय इति । रूप्यजीवराशिश्चतु - स्कन्धा देशाः प्रदेशा: परमाणवश्चेति, ते च वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-संस्थानभेदतः पञ्चविधाः संयोगतोऽनेकविधा इति । जीवराशिर्द्विविध:- संसारसमापन्नोऽसंसारसमापन्नश्च, तत्रासंसारसमापन्ना जीवा द्विविधा:अनन्तर-परम्परसिद्धभेदात्, तत्रानन्तरसिद्धा: पञ्चदशप्रकारा:, परम्परसिद्धास्त्वनन्तप्रकारा १. प्रज्ञापना० १४७ ।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४१ जीवाजीवराशिवर्णनम् । २५७ इति, संसारसमापन्नास्तु पञ्चधैकेन्द्रियादिभेदेन, तत्रैकेन्द्रियाः पञ्चविधाः पृथिव्यादिभेदेन, पुनः प्रत्येकं द्विविधाः सूक्ष्म-बादरभेदेन, पुनः पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदेन द्विधा, एवं द्वित्रि-चतुरिन्द्रिया अपि, पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्द्धा नारकादिभेदात्, तत्र नारकाः सप्तविधाः रत्नप्रभादिपृथिवीभेदात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रिधा जल-स्थल-खचरभेदात्, तत्र जलचराः पञ्चविधा मत्स्य-कच्छप-ग्राह-मकर-सुसुमारभेदात् । पुनर्मत्स्या अनेकधा 5 श्लक्ष्णमत्स्यादिभेदात् । कच्छपा द्वेधा अस्थिकच्छप-मांसकच्छपभेदात्, ग्राहा: पञ्चधा दिलि-वेष्टक-मद्गु-पुलक-सीमाकारभेदात्, मकरा द्विधा शुण्डामकरा मष्टमकराश्च, संसुमारास्त्वेकविधाः, स्थलचरा द्विधा चतुष्पद-परिसर्पभेदात्, तत्र चतुष्पदाश्चतुर्द्धा एकखुर-द्विखुर-गण्डीपद-सनखपदभेदात्, क्रमेण चैते अश्व-गो-हस्ति-सिंहादयः, परिसर्पा द्विधा उर:परिसर्प-भुजपरिसर्पभेदात्, उर:परिसर्पाश्चतुर्द्धा अहि-अजगरा- 10 ऽऽशालिक-महोरगभेदात्, तत्राऽहयो द्विधा दर्वीकरा मुकुलिनश्चेति, खचराश्चतुर्द्धा चर्मपक्षिणो लोमपक्षिणः समुद्गपक्षिणो विततपक्षिणश्च, तत्राद्यौ द्वौ वल्गुलीहंसादिभेदावितरौ द्वीपान्तरेष्वेव स्तः, सर्वे च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च द्विधासम्मूर्च्छिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च, तत्र संमूर्छिमाः नपुंसका एव, इतरे तु त्रिलिङ्गा इति, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यास्त्रिधा - कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजा अन्तरद्वीपजाश्चेति, 15 कर्मभूमिजा द्विविधा:- आर्या म्लेच्छाश्च, आर्या द्वेधा - ऋद्धिप्राप्ता इतरे च, तत्र प्रथमा अर्हदादयः, द्वितीया नवविधाः क्षेत्र-जाति-कुल-कर्म-शिल्प-भाषा-ज्ञान-दर्शनचारित्रभेदात् । देवाश्चतुर्विधाः भवनवास्यादिभेदात्, भवनपतयो दशधा असुर-नागादयः, व्यन्तरा अष्टधा पिशाचादयः, ज्योतिष्काः पञ्चधा चन्द्रादयः, वैमानिका द्वेधा कल्पोपगा: 20 कल्पातीताश्च, कल्पोपगा द्वादशधा सौधर्मादिभेदात्, कल्पातीता द्वेधा- ग्रैवेयका अनुत्तरोपपातिकाश्च, ग्रैवेयका नवधा, अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चधेति, एतत् समस्तं सूचयतोक्त जाव से किं तं अणुत्तरेत्यादि । पूर्वोक्तमेव जीवराशिं दण्डकक्रमेण द्विधा दर्शयन्नाह- दुविहेत्यादि सुगमम् । नवरं दंडओ त्ति । १. द्विधा जर हे१ ।। २. द्वैधा जे२ ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे नेरइया १ असुराई १० पुढवाई ५ बिंदियादओ ४ मणुया १ । वंतर १ जोइस १ वेमाणिया य १ अह दंडओ एवं ॥ [ ] । [सू० १४९] [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं ओगाहेत्ता केवइया णिरया पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए 5 आसीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाया । ते णं णरया अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, जाव असुभा निरया असुभातो णरएसु वेयणातो । 10 [टी०] अथानन्तरप्रज्ञापितानां नारकादीनां पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदानां स्थाननिरूपणायाह इमीसे णमित्यादि अवगाहनासूत्रादर्वाक् सर्वं कण्ठ्यम्, नवरं ते णं निरया इत्यादि, अत्र च जीवाभिगमचूर्ण्यनुसारेण लिख्यते - किल द्विविधा नरका भवन्ति आवलिकाप्रविष्टाः आवलिकाबाह्याश्च, तत्रावलिकाप्रविष्टा अष्टासु दिक्षु भवन्ति, ते च वृत्त-त्र्यम्र-चतुरस्रक्रमेण प्रत्यवगन्तव्याः, एतेषां च मध्ये इन्द्रकाः सीमन्तकादयो 15 भवन्ति, आवलिकाबाह्यास्तु पुष्पावकीर्णा दिविदिशामन्तरालेषु भवन्ति, नानासंस्थानसंस्थिता इति निरयसंस्थानव्यवस्था, तत्र च बाहुल्यमङ्गीकृत्येदमभिधीयते - अंतो वट्टेत्यादि, उक्तं च सूत्रकृवृत्तिकृता- नरकाः सीमन्तकादिका बाहुल्यमङ्गीकृत्याऽन्त: मध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्रा अधश्च क्षुरुप्रसंस्थानसंस्थिताः, एतच्च संस्थान पुष्पावकीर्णकानाश्रित्योक्तं तेषामेव प्रचुरत्वात्, आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्त-त्र्यम्र-चतुरस्रसंस्थाना 20 भवन्ती[सूत्रकृताङ्गवृ० ति, तत्रान्तर्वृत्ता मध्ये शुषिरमाश्रित्य, बहिश्चतुरस्रा कुड्यपरिधिमाश्रित्य, यावत्करणादिदं दृश्यं यदुत– अधः क्षुरुप्रसंस्थानसंस्थिता: - १. “इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पन्नत्ता, तंजहाआवलियपविठ्ठा य आवलियबाहिरा य । तत्थ णं जे ते आवलियपविट्टा ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- वट्टा तंसा चउरंसा । तत्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते नानासंठाणसंठिता पन्नत्ता।" इति जीवाभिगमसूत्रे तृतीयायां प्रतिपत्तौ द्वितीये उद्देशके । अस्य सूत्रस्य चूर्णिरत्राभिप्रेता प्रतीयते । सम्प्रति जीवाभिगमचूर्णिर्मोपलभ्यते ॥ २. अत्र प्रज्ञापनासूत्रस्य द्वितीये स्थानपदे १७४ तमं सूत्र द्रष्टव्यम् ।। ३. दृश्यतां सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीये श्रुतस्कन्धे द्वितीयस्य अध्ययनस्य शीलाचार्यविरचितायां वृत्तौ ।। ४. क्षरप्र' हे२ ।। ५. क्षुरप्र' जे१ हे२ ।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ (सू० १४१] नरकावासवर्णनम् । भूतलमाश्रित्य क्षुरुप्राकारास्तद्भूतलस्य संचारिसत्त्वपादच्छेदकत्वात्, अन्ये त्वाहुः - तेषामधस्तनोंऽशः क्षुरुप्र इवाग्रेऽग्रे प्रतलो विस्तीर्णश्चेति क्षुरप्रसंस्थानता । तथा निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसप्पहा मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा इति, तत्र नित्यं सर्वदा अन्धकारम् अन्धत्वकारकं बहलबलाहकपटलाऽऽच्छादित- 5 गगनमण्डलाऽमावास्याऽर्द्धरात्राऽन्धकारवत्तम: तमिस्रं येषु ते नित्यान्धकारतमसः, अथवा नित्येनान्धकारेण सार्वकालिकेनेत्यर्थः तमसः तमिस्रा नित्यान्धकारतमसः, जात्यन्धमेघाऽन्धकाराऽमावास्यानिशीथतुल्या इत्यर्थः, कथमित्यत आह– व्यपगता अविद्यमाना ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणां ज्योतिषां ज्योतिष्कलक्षणविमानविशेषाणां ज्योतिषो वा दीपाद्यग्नेः प्रभा प्रकाशो येषु ते तथा, पह त्ति पथशब्दो वाऽयं व्याख्येयः, 10 तथा मेदो-वसा-पूय-रुधिर-मांसानि शरीरावयवास्तेषां यच्चिक्खल्लं कर्दमस्तेन लिप्तम् उपदिग्धमनुलेपनेन सकृल्लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं भूमिका येषां ते मेदोवसा-पूय-रुधिर-मांसचिक्खल्ललिप्तानुलेपनतलाः, यद्यपि च तत्र मेदःप्रभृतीन्यौदारिकपञ्चेन्द्रियशरीरावयवरूपाणि न सन्ति वैक्रियशरीरत्वान्नारकाणां तथापि तदाकारास्तदवयवास्तत्तयोच्यन्त इति, अशुचयो विश्राः आमगन्धयः पूतिगन्धय 15 इत्यर्थः, अत एव परमदुरभिगन्धाः काऊअगणिवण्णाभ त्ति कृष्णाग्निर्लोहादीनां ध्मायमानानां तद्वर्णवदाभा येषां ते कृष्णाग्निवर्णाभाः, तथा कर्कशः स्पर्शो येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव दुःखेन कृच्छ्रेणाधिसोढुं शक्यते वेदना येषु ते दुरधिसहाः, अत एवाऽशुभा नरका अत एव च अशुभा नरकेषु वेदना इति ।। [सू० १४९] [३] एवं सत्त वि भाणियव्वाओ जं जासु जुज्जति- 20 आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अट्ठत्तरमेव बाहल्लं ॥६४।। तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव सयसहस्साई । तिण्णेगं पंचूणं पंचेव अणुत्तरा नरगा ॥६५॥ १. क्षुरप्र जे१ हे२ ।। २. असुइ जे२ ।। ३. तत्तया तत्त्वेन उच्यन्त इत्यर्थः ।। ४. सह्या जे२ हे२ ।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 २६० आचार्यश्रीअभयदेवपूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे चउसट्ठी असुराणं चउरासीतिं च होति नागाणं । बावत्तरिं सुवण्णाण वाउकुमाराण छण्णउतिं ॥६६।। दीव-दिसा-उदधीणं विजुकुमारिंद-थणिय-मग्गीणं । छण्हं पि जुवलगाणं छावत्तरि मो सतसहस्सा ॥६७।। बत्तीसऽट्ठावीसा बारस अट्ठ चउरो सतसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥६८।। आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुते तिन्नि । सत्त विमाणसताई चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥६९।। एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥७०।। दोच्चाए णं पुढवीए तच्चाए णं पुढवीए चउत्थी[ए णं पुढवीए] पंचमी [ए णं पुढवीए] छट्ठी[ए णं पुढवीए] सत्तमी[ए णं पुढवीए] गाहाहिं भाणियव्वा। सत्तमाए णं पुढवीए पुच्छा, गोतमा ! सत्तमाए पुढवीए अट्ठत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरिं अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता 15 हेट्ठा वि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई वजेत्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पण्णत्ता, तंजहा- काले, महाकाले, रोरुते, महारोरुते, अपतिट्ठाणे णामं पंचमए । ते णं निरया वट्टे य तंसा य, अधे खुरप्पसंठाणसंठिता जाव असुभा नरगा असुभाओ नरएसु वेयणातो ।। 20 [टी०] एवं सत्त वि भाणियव्व त्ति प्रथमाममुञ्चता सप्त इत्युक्तम्- जं जासु जुज्जइ त्ति यच्च यस्यां पृथिव्यां बाहल्यस्य नरकाणां च परिमाणं युज्यते स्थानान्तरोक्तानुसारेण तच्च तस्यां वाच्यम्, तच्चेदम्- आसीतं गाहा, तीसा य गाहा, अशीतिसहस्राधिकं योजनलक्षं रत्नप्रभायां बाहल्यमेवं शेषासु भावनीयम्, तथा त्रिंशल्लक्षाणि प्रथमायां नरकावासानामित्येवं शेषास्वपि नेयमिति, आवासपरिमाणं चासुरादीनामपि दशानां १. प्रज्ञापनासूत्रे द्वितीये स्थानपदे क्वचिदक्षरश: क्वचित्तु अर्थानुसारि सर्वमिदमभिहितं विस्तरेण ।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ [सू० १५० ] नरकावासा-ऽसुरकुमारावासादिवर्णनम् । सौधर्म्मादीनां च कल्पेतराणां सूत्रैर्वक्ष्यतीति, तन्निवासपरिमाणसङ्ग्रहः- चउसट्ठी इत्यादि गाथाः पञ्च । एवं चेह सूत्राभिलापो दृश्य:- सक्करप्पभाए णं पुढवीए केवइयं ओगाहित्ता केवइया निरया पण्णत्ता ?, गोयमा ! सक्करप्पभाए णं पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं पणुवीसं निरयावाससयसहस्सा 5 भवन्तीति मक्खाया, ते णं निरयेत्यादि, एवं गाथानुसारेणान्येऽपि पञ्चालापका वाच्या इति एतदेवाह - दोच्चाए इत्यादि वेयणाओ इत्येतदन्तं सुगमम्, नवरं गाहाहिं ति गाथाभिः करणभूताभिर्गाथानुसारेणेत्यर्थः, भणितव्या वाच्या नरकावासा इति प्रक्रमः । तथा वट्टे यतंसा य त्ति मध्यमो वृत्तः शेषास्त्र्याइति ॥ [सू० १५०] [१] केवतिया णं भंते ! असुरकुमारावासा पण्णत्ता ? 10 गोतमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चउसट्ठि असुरकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पोक्खरकण्णियासंठाणसंठिता, उक्किण्णंतरविपुलगंभीरखात - 15 फलिहा अट्टालयचरियदारगोउरकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतमुसलमुसंढिसतग्घिपरिवारिता अउज्झा अडयालकोट्ठयरइया अडयालकतवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्झंतधूवमघमघेंतगंधुद्धराभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूता अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पभा 20 समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । एवं जस्स जं कमती तं तस्स जं जं गाहाहिं भणियं, तह चेव वण्णओ । [२] केवतिया णं भंते ! पुढविकाइयावासा पण्णत्ता ? गोतमा ! असंखेजा पुढविकाइयावासा पण्णत्ता । एवं जाव मणूस ति । [३] केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावासा पण्णत्ता ? गोतमा ! इमीसे 25 णं रतणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एग जोयणसतं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसतं वजेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसतेसु एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेजणगरावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वडा अंतो चउरंसा, एवं जहा भवणवासीणं तहेव णेयव्वा, णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासादीया 5 [दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा] । ___ [४] केवतिया णं भंते ! जोतिसियावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तनउयाई जोयणसयाइं उर्दु उप्पतित्ता एत्थ णं दसुत्तरजोयणसतबाहल्ले तिरियं जोतिसविसए जोतिसियाणं देवाणं असंखेजा जोतिसियविमाणावासा पण्णत्ता । ते णं 10 जोतिसियविमाणावासा अब्भुग्गयमूसियपहसिया विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउद्भुतविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयण पंजरुम्मिलित व्व मणिकणगथूभियागा विगसितसतवत्तपुंडरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ता अंतो बहिं च सहा तवणिजवालुगापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । 15 [५] केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा णं वीतिवइत्ता बहुणि जोयणाणि बहणि जोयणसताणि [बहूणि] जोयणसहस्साणि [बहूणि] जोयणसयसहस्साणि [बहुगीतो] जोयणकोडीतो [बहुगीतो] जोयणकोडाकोडीतो असंखेजाओ 20 जोयणकोडाकोडीतो उड़े दूरं वीइवइत्ता एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार-आणय-पाणयआरण-ऽच्चुएसु गेवेजगणुत्तरेसु य चउरासीति विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउतिं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खाया। ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिवण्णाभा अरया नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा १. गेवेजमणु' जे२ । गेवेजगमणु' जे१ ।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५० असुरकुमारावासादिवर्णनम् । २६३ सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा । [६] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावासा पण्णत्ता ? गोयमा! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । एवं ईसाणाइसु २८ । १२ । ८। ४ । एयाई सयसहस्साई, ५० । ४० । ६ । एयाइं सहस्साइं, आणए पाणए 5 चत्तारि, आरणच्चुए तिण्णि, एयाणि सयाणि, एवं गाहाहिं भाणियव्वं । [टी0j अथासुराद्यावासविषयमभिलापं दर्शयति- केव इत्यादि सुगमम्, नवरं तानि भवनानि बहिर्वृत्तानि वृत्तप्राकारावृतनगरवत्, अन्तः समचतुरस्राणि तदवकाशदेशस्य चतुरस्र त्वात्, अधः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, पुष्करकर्णिका पद्ममध्यभागः, सा चोन्नतसमचित्रबिन्दुकिनी भवतीति, तथा उत्कीर्णान्तर- 10 विपुलगम्भीरखात-परिखानि, उत्कीर्णं भुवमुत्कीर्य पालीरूपं कृतमन्तरम् अन्तरालं ययोस्ते उत्कीर्णान्तरे ते विपुलगम्भीरे खात-परिखे येषां तानि तथा, तत्र खातमध उपरि च समम्,परिखा तूपरि विशाला अधः सङ्कुचिता, तयोरन्तरे तेषु पाली अस्तीति भावः, तथा अट्टालका: प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः, चरिका नगर-प्राकारयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः, पाठान्तरेण चतुरय त्ति चतुरका: सभाविशेषा: ग्रामप्रसिद्धाः, दारगोउर 15 त्ति गोपुरद्वाराणि प्रतोल्यो नगरस्येव, कपाटानि प्रतीतानि, तोरणान्यपि तथैव, प्रतिद्वाराणि अवान्तरद्वाराणि, तत एतेषां द्वन्द्वः, एतानि देशलक्षणेषु भागेषु येषां तानि तथा, इह देशो भागश्चानेकार्थः, ततोऽन्योन्यमनयोर्विशेष्यविशेषणभावो दृश्य इति, तथा यन्त्राणि पाषाणक्षेपणयन्त्राणि, मुशलानि प्रतीतानि, मुसुण्ढयः प्रहरणविशेषाः, शतघ्न्यः शतानामुपघातकारिण्यो महाकायाः काष्ठ-शैलस्तम्भयष्टयः, ताभिः परियारिय 20 त्ति परिवारितानि, परिकरितानीत्यर्थः, तथा अयोधानि योधयितुं सङ्ग्रामयितुं दुर्गत्वान्न शक्यन्ते परबलैर्यानि तान्ययोधानि, अविद्यमाना वा योधाः परबलसुभटा यानि प्रति तान्ययोधानि । तथा अडयालकोट्ठगरइय त्ति अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नविचित्रच्छन्दगोपुररचितानि, अन्ये भणन्ति अडयालशब्दः किल प्रशंसावाचकः । तथा १. “म्भीरखातपरिखे खं० जे१ । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अडयालकयवणमाल त्ति अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नाः प्रशंसाऱ्या वा कृता वनमाला वनस्पतिपल्लवस्रजो येषु तानि तथा । तथा लाइयं ति यद् भूमेश्छगणादिनोपलेपनम् उल्लोइयं ति कुड्यमालानां सेटिकादिभिः सम्मृष्टीकरणम्, ततस्ताभ्यामिव महितानि पूजितानि लाउल्लोइयमहितानि । तथा गोशीर्षं चन्दनविशेष: सरसं च रसोपेतं 5 यद् रक्तचन्दनं चन्दनविशेषः, ताभ्यां दर्दराभ्यां घनाभ्यां दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला हस्तकाः कुड्यादिषु येषु, अथवा गोशीर्षसरसरक्तचन्दनस्य सत्का दर्दरेण चपेटाभिघातेन दर्दरेषु वा सोपानवीथीषु दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलानि । तथा कालागुरुः कृष्णा गुरुर्गन्धद्रव्यविशेष: प्रवरः प्रधानः कुन्दुरुक्कः चीडा तुरुष्कः सिल्हकं गन्धद्रव्यमेव 10 एतानि च तानि डझंत त्ति दह्यमानानि चेति विग्रहः, तेषां यो धूमो मघमघेत त्ति अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो बहलगन्ध इत्यर्थः तेनोद्धराणि उत्कटानि यानि तानि तथा, तानि च तान्यभिरामाणि च रमणीयानीति समासः । तथा सुगन्धयः सुरभयो ये वरगन्धा: प्रधानवासास्तेषां गन्धः आमोदो येष्वस्ति तानि सुगन्धिवरगन्ध गन्धिकानि । तथा गन्धवर्त्तिः गन्धद्रव्याणां गन्धयुक्तिशास्त्रोपदेशेन निर्वर्त्तिता 15 गुटिका, तद्भूतानि तत्कल्पानीति गन्धवर्तिभूतानि प्रवरगन्धगुणानीत्यर्थः । तथा अच्छानि आकाशस्फटिकवत्, सण्ह त्ति श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धनिष्पन्नत्वात्, श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, लण्ह त्ति मसृणानीत्यर्थः, घुण्टितपटवत्, घट्ट त्ति घृष्टानीव घृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, मट्ठ त्ति मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव, शोधितानि वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव नीरय त्ति नीरजांसि 20 रजोरहितत्वात्, निम्मल त्ति निर्मलानि कठिनमलाभावात्, वितिमिर त्ति वितिमिराणि निरन्धकारत्वात्, विसुद्ध त्ति विशुद्धानि निष्कलङ्कत्वात्, न चन्द्रवत् सकलङ्कानीत्यर्थः । तथा सप्पह त्ति सप्रभाणि, सप्रभावाणि अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति शोभन्ते प्रकाशन्ते वेति स्वप्रभाणि, यतः समिरीय त्ति समरीचीनि सकिरणानि अत एव १. च तानि यानि तानि तथा, तेषां यो हे२ । च यानि तानि तथा, यो हे१ ।। २. उत्कुटानि खं० जे२ ।। ३. नि:पंकत्वात् हे१.२ । नि:पंचकत्वात् जे२ ।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५० ] असुरकुमारावासादिवर्णनम् । ? सउज्जोय त्ति सहोद्द्योतेन वस्त्वन्तरप्रकाशनेन वर्त्तन्ते इति सोद्योतानि, पासाईय त्ति प्रासादीयानि मनःप्रसत्तिकराणि, दरिसणिज्ज त्ति दर्शनीयानि तानि हि पश्यश्चक्षुषा न श्रमं गच्छतीति भाव:, अभिरूव त्ति अभिरूपाणि कमनीयानि, पडिरूवत्ति प्रतिरूपाणि द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीयानि, नैकस्य कस्यचिदेवेत्यर्थः । एवमित्यादि, यथा असुरकुमारावाससूत्रे तत्परिमाणमभिहितमेवमिति, तथा यद् 5 भवनादिपरिमाणं यस्य नागकुमारादिनिकायस्य क्रमते घटते तत्तस्य वाच्यमिति किंविधं तत् परिमाणमत आह- जं जं गाहाहिं भणियं यद्यद् गाथाभिः चउसट्ठी असुराणमित्यादिकाभिरभिहितम्, किं परिमाणमेव तथा वाच्यम् ? नेत्याह- तह चेव वण्णओ त्ति यथा असुरकुमारे भवनानां वर्णक उक्तस्तथा सर्वेषामसौ वाच्य इति, तथाहि— केवइया णं भंते ! नागकुमारावासा पण्णत्ता ?, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए 10 पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसयसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए [ पुढवीए] चुलसीई नागकुमारावाससयसहस्सा [पण्णत्ता ], ते णं भवणा इत्यादीति ← । २६५ केवइया णं भंते । पुढवीत्यादि गतार्थम्, नवरं मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानाम् असंख्यातानामभावात् संख्याता एवावासाः, सम्मूर्च्छिमानां त्वसंख्येयत्वेन 15 प्रतिशरीरमावासभावादसंख्येया इति भावनीयमिति । केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा इत्यादि। अब्भुग्गयमूसियपहसिय त्ति अभ्युद्गता सञ्जाता उत्सृता प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा दीप्तिस्तया सिता: शुक्ला इत्यभ्युद्गतोत्सृतप्रभासिताः, तथा विविधा अनेकप्रकारा मणयः चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि कर्केतनादीनि तेषां भक्तयो विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रा: 20 चित्रवन्तः आश्चर्यवन्तो वेति विविधमणिरत्नभक्तिचित्राः, तथा वातोद्भूता वायुकम्पिता विजयः अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीत्यभिधाना याः पताका अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना या वैजयन्त्यस्ताश्च तद्वर्जिताः पताकाश्च छत्रातिच्छत्राणि च उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलिता युक्ता १. पासाइय जे२ हे१,२ ॥ त्ति । द्वीपकुमारादीनां तु षण्णां प्रत्येकं षट्सप्ततिर्वाच्येति ॥ → 2 एतच्चिह्नान्तर्गतपाठस्थाने हे२ मध्ये ईदृशः पाठः - भवतीति मक्खाय Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिता इति । तुङ्गा उच्चस्त्वगुणयुक्ताः, अत एव गयणतलमणुलिहंतसिहर त्ति गगनतलम् अम्बरमनुलिखद् अभिलङ्घयच्छिखरं येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः । तथा जालान्तरेषु जालकमध्यभागेषु रत्नानि येषां ते जालान्तररत्नाः, इह प्रथमा5 बहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, जालकानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतान्येव तदन्तरेषु च शोभार्थं रत्नानि सम्भवन्त्येवेति । तथा पञ्जरोन्मीलिता इव पञ्जरबहिष्कृता इव, यथा किल किञ्चिद्वस्तु पञ्जराद् वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद्वहिः कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वाच्छोभते एवं तेऽपीति भावः । तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका शिखरं येषां ते मणिकनकस्तूपिकाकाः । तथा विकसितानि यानि शतपत्रपुण्डरीकाणि द्वारादौ • 10 प्रतिकृतित्वेन तिलकाश्च भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाश्च ये अर्द्धचन्द्रा द्वाराग्रादिषु तैश्चित्रा ये ते विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राः । तथा अन्तर्बहिश्च सूक्ष्णा मसृणा इत्यर्थः । तथा तपनीयं सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकाया: सिकताया: प्रस्तटः प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः, पाठान्तरे तु सण्हशब्दस्य वालुकाविशेषणत्वात् श्लक्ष्णतपनीयवालुकाप्रस्तटा इति व्याख्येयम् । तथा सुखस्पर्शा: शुभस्पर्शा वा, 15 तथा सश्रीकं सशोभं रूपम् आकारो येषाम् अथवा सश्रीकाणि शोभावन्ति रूपाणि नरयुग्मादीनि रूपकाणि येषु ते सश्रीकरूपाः, प्रासादीया दर्शनीया: अभिरूपा: प्रतिरूपा इति पूर्ववत्। केवइएत्यादि, रत्नप्रभाया: पृथिव्या बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ त्ति बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य ऊर्ध्वम् उपरि, तथा चन्द्रम:-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र20 तारारूपाणि, णमित्यलङ्कारे, किम् ? वीइवइत्त त्ति व्यतिव्रज्य व्यतिक्रम्येत्यर्थः, तारारूपाणि चेह तारका एवेति, तथा बहनीत्यादि, किमित्याह- ऊर्ध्वम् उपरि दरमत्यर्थं व्यतिव्रज्य चतुरशीतिर्विमानलक्षाणि भवन्तीति सम्बन्धः, इति मक्खाय त्ति इति एवंप्रकारा अथवा यतो भवन्ति तत आख्याताः सर्ववेदिनेति, ते णं ति तानि विमानानि, णमिति वाक्यालकारे, अच्चिमालिप्पभ त्ति अर्चिमाली १. जालमध्य जे२ ।। २. प्रसा' जे२ हे२ ॥ ३. केव इत्यादि जे२ ।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ [सू० १५१ ] असुरकुमारावासादिवर्णनम् । आदित्यस्तद्वत् प्रभान्ति शोभन्ते यानि तान्यर्चिमालिप्रभाणि, तथा भासानां प्रकाशानां राशिः भासराशि: आदित्यस्तस्य वर्णस्तद्वदाभा छाया वर्णो येषां केषांचित्तानि भासराशिवर्णाभानि, तथा अरय त्ति अरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात्, नीरयत्ति नीरजांसि आगन्तुकरजोविरहात्, निम्मल त्ति निर्मलानि कक्खटमलाभावात्, वितिमिराणि आहार्यान्धकाररहितत्वात्, विशुद्धानि स्वाभाविकतमोविरहात् 5 सकलदोषविगमाद्वा, सर्वरत्नमयानि न दार्वादिदलमयानीत्यर्थः, अच्छान्याकाशस्फटिकवत्, लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धमयत्वात्, घृष्टानीव घृष्टान खरशानया पाषाणप्रतिमेव, मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेवेति, निष्पङ्कानि कलङ्कविकलत्वात् कर्दमविशेषरहितत्वाच्च, निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेत्यर्थः छाया दीप्तिर्येषां तानि निष्ककटच्छायानि, 10 प्रभाणि प्रभाववन्ति, समरीचीनि सकिरणानीत्यर्थः, सोद्योतानि वस्त्वन्तरप्रकाशनकराणीत्यर्थः, पासाईएत्यादि प्राग्वत् । सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णत्ता ?, गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । एवमीशानादिष्वपि द्रष्टव्यम्, एतदेवाह - एवं ईसाणाइति, एवं गाहाहिं भाणियव्वं ति बत्तीस अट्ठावीसा इत्यादिकाभिः 15 पूर्वोक्तगाथाभिः, तदनुसारेणेत्यर्थः, प्रतिकल्पं भिन्नपरिमाणा विमानावासा भणितव्यास्तद्वर्णकश्च वाच्यो यथा- ते णं विमाणेत्यादि यावत् पडिरूवा, नवरमभिलापभेदोऽयं यथा- ईसाणे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णत्ता ?, गोयमा ! अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं विमाणा जाव पडिरूवा । एवं सर्वं पूर्वोक्तगाथानुसारेण प्रज्ञापनाद्वितीयपदानुसारेण च वाच्यमिति ॥ १ [सू० १५१] नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । अपज्जत्तगाणं भंते ! नेरइयाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । १. यथा नास्ति जे२ ।। २. प्रज्ञापनासूत्रे चतुर्थे स्थितिपदे विस्तरेणेदं सर्वं विद्यते ॥ 20 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पज्जत्तगाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई | इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए एवं जाव विजय - वेजयंत- जयंत - अपराजियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं 5 बत्तीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाणि । सव्व अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । २६८ 10 [टी०] अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थानान्युक्तानि, अथ तेषामेव स्थितिमुपदर्शयितुमाह- नेरइयाणं भंते इत्यादि सुगमम्, नवरं स्थितिः नारकादिपर्यायेण जीवानामवस्थानकालः, अपज्जत्तयाणं ति, नारकाः किल लब्धितः पर्याप्तका एव भवन्ति, करणतस्तूपपातकाले अन्तर्मुहूर्तं यावदपर्याप्तका भवन्ति ततः पर्याप्तकाः, ततस्तेषामपर्याप्तकत्वेन स्थितिर्जघन्यतोऽप्युत्कर्षतोऽपि चान्तर्मुहूर्तमेव, पर्याप्तकानां पुनरौधिक्येव जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मुहूर्तोना भवतीति, अयं चेह पर्याप्तकाऽपर्याप्तकविभागः 15 नारदेवा तिरिमणुयगब्भया जे असंखवासाऊ । एते उ अपज्जत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा || [] सेसा य तिरियमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य । ओवि भइव्वा पज्जत्तियरे य जिणवयणं ॥ [ ] ति । उक्ता सामान्यतो नारकस्थितिः, विशेषतस्तामभिधातुमिदमाह - इमीसे णमित्यादि, स्थितिप्रकरणं च सर्वं प्रज्ञापनाप्रसिद्धमित्यतिदिशन्नाह - एवमिति यथा प्रज्ञापनायां 20 सामान्य - पर्याप्तका -ऽपर्याप्तकलक्षणेन गमत्रयेण नारकाणां नारकविशेषाणां तिर्यगादिकानां च स्थितिरुक्ता एवमिहापि वाच्या, कियद्दूरं यावदित्याह - जाव विजयेत्यादि, अनुत्तरसुराणामौघिका-ऽपर्याप्तक-पर्याप्तकलक्षणं गमत्रयं यावदित्यर्थः, इह १. अत्रैव समवायाङ्गसूत्रे एकत्रिंशत्स्थानके “विजय वेजयंत- जयंत अपराजिताणं देवाणं जहणणेणं एकतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता" [सू० ३१] इति अभिहितम्, अत्र तु जघन्येन द्वात्रिंशत् सागरोपमाणि उक्तानि । कथमेकत्रैव सूत्रे परस्परं विसंवादः ? || अनुयोगद्वारसूत्रे [सू०३९१[९]], प्रज्ञापनासूत्रे चतुर्थे पदे ४३६ [३] तमे सूत्रे उत्तराध्ययनसूत्रे षट्त्रिंशत्तमेऽध्ययने [ गा०२४३] च एकत्रिंशद् एव जघन्येन स्थितिरुक्ता ।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सृ० १५२) नारकादिस्थितिवर्णनम्-औदारिकादिशरीरवर्णनम् । २६९ चैवमतिदिष्टसूत्राण्यर्थतो वाच्यानि- रत्नप्रभानारकाणां भदन्त ! कियती स्थितिः ?, गौतम! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, उत्कर्षतः सागरोपमम् १, अपर्याप्तकरत्नप्रभापृथिवीनारकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! उभयथाऽपि अन्तर्मुहूर्तम् २, एवं पर्याप्तकानां सामान्योक्तैवान्तर्मुहूर्तांना वाच्या ३, एवं शेषपृथिवीनारकाणां प्रत्येक दशानामसुरादीनां पृथिवीकायिकादीनां तिरश्चां गर्भजेतरभेदानां 5 मनुष्याणा व्यन्तराणामष्टविधानां ज्योतिष्काणां पञ्चप्रकाराणां सौधर्मादीनां वैमानिकानां च गमत्रय वाच्यम्, इह च विजयादिषु जघन्यतो द्वात्रिंशत् सागरोपमाण्युक्तानि, गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनायां त्वेकत्रिंशदुक्तेति मतान्तरमिदम्, पर्याप्तकाऽपर्याप्तकगमद्वयमिह समूह्यम्, एवं सर्वार्थसिद्धिस्थितिरपि त्रिभिर्गमैर्वाच्येति ।। [सू० १५२] कति णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता ? गोतमा ! पंच सरीरा 10 पण्णत्ता, तंजहा- ओरालिए जाव कम्मए । ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- एगिंदियओरालियसरीरे जाव गब्भवक्कं तियमणुस्सपंचिंदिय ओरालियसरीरे य । ओरालियसरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं 15 जोयणसहस्सं । एवं जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियपमाणं तहा निरवसेसं, १. "हर्त्तम् २. पर्याप्तकानां तु सामान्यो हे२ ।। २. तत्त्वार्थटीकाकर्तुः सिद्धसेनाचार्यस्य गन्धहस्तिनाम्ना प्रसिद्धिरस्ति । किन्तु तत्त्वार्थस्य सिद्धसेनाचार्यविरचिताया टीकायामीदृशः पाठो वर्तते- “विजयादिषु चतुर्षु जघन्येन एकविंशत् उत्कर्षेण द्वात्रिंशत्, सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि अजघन्योत्कृष्टा स्थितिः । भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धऽपि जघन्यापि द्वात्रिंशत् सागरोपमाण्यधीता, तन्न विद्मः केनाप्यभिप्रायेण' [तत्त्वार्थटीका ४।३२] । अत इदमभयदेवरिवचनं तत्त्वार्थव्याख्याकर्तुः सिद्धसेनाचार्यस्य गन्धहस्तित्वप्रसिद्धिबाधकम्, ततश्चिन्त्यमिदम् । रत: परत: पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा [तत्त्वार्थसू० ४।४२] माहेन्द्रात् परतः, पूर्वा परा अनन्तरा जघन्या स्थितिर्भवति. तद्यथा - माहेन्द्र परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या स्थितिर्भवति, ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या । एवमा सर्वार्थसिद्धादिति' इति तत्त्वार्थभाष्ये पाठः ४।४२।। __ दिगम्बरपरम्परायां तु उपरिमोवेयकेषु प्रथमे एकान्नत्रिंशत्, द्वितीये त्रिंशत्, तृतीये एकत्रिंशत्, अनुदिशविमानेषु द्वात्रिंशत्, विजयादिषु त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थितिः, सर्वार्थसिद्धे त्रयस्त्रिंशदेवेति' इति तत्त्वार्थराजवार्तिके ४॥३२॥ ३. प्रज्ञापनासूत्रस्य एकविंशतितमे अवगाहनासंस्थानपदे एतद विस्तरेण वर्णितमस्ति । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एवं जाव मणुस्से उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। कतिविहे णं भंते ! वेउव्वियसरीरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- एगिदियवेउव्वियसरीरे य पंचिंदियवेउव्वियसरीरे य । एवं जाव सणंकुमारे आढत्तं जाव अणुत्तरा भवधारणिज्जा जा तेसिं रयणी रयणी 5 परिहायति । ___ आहारयसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगाकारे पण्णत्ते। जइ एगाकारे पण्णत्ते किं मणुस्सआहारयसरीरे अमणुस्सआहारयसरीरे ? गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरे, णो अमणूसाहारगसरीरे । एवं जति मणूस० किं गब्भवक्कंतिय० संमुच्छिम० ? गोयमा ! गव्भवतंतिय०, नो समुच्छिम० । 10 जइ गब्भवक्वंतिय० किं कम्मभूमग० अकम्मभूमग० ? गोयमा ! कम्मभूमग०, नो अकम्मभूमग०। जइ कम्मभूमग० किं संखेज्जवासाउय० असंखेजवासाउय०? गोयमा ! संखेजवासाउय०, नो असंखेजवासाउय० । जइ संखेजवासाउय० किं पज्जत्तय० अपजत्तयः ? गोयमा ! पजत्तय०, नो अपजत्तय० । जड़ पजत्तय० किं सम्मद्दिट्ठी० मिच्छदिट्ठी० सम्मामिच्छदिट्ठी० ? गोयमा ! 15 सम्मदिट्ठि०, नो मिच्छदिट्ठि० नो सम्मामिच्छदिट्ठि० । जइ सम्मदिट्ठि० किं संजत० असंजत० संजतासंजत० ? गोयमा ! संजत०, नो असंजत० नो संजतासंजत०। जइ संजत० किं पमत्तसंजत० अपमत्तसंजत० ? गोयमा ! पमत्तसंजत०, नो अपमत्तसंजत०। जइ पमत्तसंजत० किं इडिपत्त० अणिडिपत्त०? गोयमा! इडिपत्त०, नो अणिडिपत्तः । वयणा वि भणियव्वा । आहारयसरीरे 20 समचउरंससंठाणसंठिते । आहार[यसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा !] जहन्नेणं देसूणा रयणि, उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी । तेयासरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- एगिदियतेयसरीरे य बेइंदियतेयसरीरे य तेइंदियते यसरीरे य चउरिंदियतेयसरीरे य पंचिंदियतेयसरीरे य एवं जाव गेवेजयस्स णं भंते ! 25 देवस्स मारणंतियसमुग्घातेणं समोहतस्स समाणस्स [तेयासरीरस्स] केमहालिया Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५२] औदारिकादिशरीरवर्णनम् । सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहन्नेणं अहे जाव विज्जाहरसेढीओ, उक्कोसेणं अहे जाव अहोलोइया गामा, उट्टं जाव सयाई विमाणाई, तिरियं जाव मणुस्सखेत्तं, एवं जाव अणुत्तरोववाइया वि । एवं कम्मयसरीरं पि भाणियव्वं । [टी] अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थितिरुक्ता, इदानीं तच्छरीराणामवगाहना- 5 प्रतिपादनायाह – कइ णं भंते इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरमेकेन्द्रियौदारिकशरीरमित्यादौ यावत्करणाद् द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीराणि पृथिव्याद्येकेन्द्रिय जलचरादिपञ्चेन्द्रियभेदेन प्रागुपदर्शितजीवराशिक्रमेण वाच्यानि कियद्दूरमित्याहगब्भवक्कंतियेत्यादि । ओरालियसरीरस्सेत्यादि, तत्रोदारं प्रधानं तीर्थकरादिशरीराणि प्रतीत्य अथवोरालं विशालं समधिकयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् वनस्पत्यादि प्रतीत्य अथवा 10 उरलं स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च भेण्डवदिति, अथवा मांसास्थिस्नायुबद्धं यच्छरीरं तत् समयपरिभाषया ओरालमिति, तच्च तच्छरीरं चेति प्राकृतत्वादौ (दो) रॉलियशरीरम्, तस्य, अवगाहन्ते यस्यां साऽवगाहना आधारभूतं क्षेत्रम्, शरीराणामवगाहना शरीरावगाहना, अथवौदारिकशरीरस्य जीवस्य औदारिकशरीररूपावगाहना शरीरावगाहना सा भदन्त ! केमहालिया किम्महती प्रज्ञप्ता ?, तत्र 15 जघन्येनाङ्गुलासंख्येयभागं यावत् पृथिव्याद्यपेक्षया, उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रमिति बादरवनस्पत्यपेक्षयेति । एवं जाव मणुस्से त्ति, इह एवं यावत्करणादवगाहनासंस्थानाभिधानप्रज्ञापनैकविंशतितमपदाभिहितग्रन्थोऽर्थतोऽयमनुसरणीयः, तथाहि - एकेन्द्रियौदारिकस्य पृच्छा निर्वचनं च तदेव, तथा पृथिव्यादीनां चतुर्णां बादर - सूक्ष्मपर्याप्ता - ऽपर्याप्तानां जघन्यत 20 उत्कृष्टतश्चाङ्गुलासंख्येयभागः, वनस्पतीनां बादरपर्याप्तानामुत्कर्षतः साधिकं योजनसहस्रम्, शेषाणां त्वङ्गुलासंख्येयभाग एव, द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानां ६ २७१ १. गाहना आह खं० ॥। २. वोरालं विस्तरालं समधि हे२ । ३. ओरालं खं० ॥ ४. भिंडवदिति खं० । भेंडवदित्यादि हे२ ।। ५ °लियं शरीरं खं० ॥। ६. औदारिकशरीरावगाहना खं० ॥ खं० अनुसारेण ओरालियसरीरोगाहणा इति मूलपाठः संभाव्यते ॥ ७ मणुस्सेत्यादि इह खं० ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे क्रमेण द्वादश योजनानि त्रीणि गव्यूतानि चत्वारि चेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां जलचराणां पर्याप्तानां गर्भजानां संमूर्च्छनजानां चोत्कर्षतो योजनसहस्रम् एवं स्थलचराणां चतुष्पदानां संमूर्च्छनजानां पर्याप्तानां गव्यूतपृथक्त्वम्, गर्भव्युत्क्रान्तिकानां तेषां षड् गव्यूतानि, उरः परिसर्पाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां योजनसहस्रम् एषामेव सम्मूर्च्छनजानां 5 योजनपृथक्त्वम्, भुजपरिसर्पाणां गर्भजानां गव्यूतपृथक्त्वम्, सम्मूर्च्छनजानां धनुःपृथक्त्वम्, खचराणां गर्भजानां सम्मूर्छनजानां च धनुः पृथक्त्वमेव, तथा मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां गव्यूतत्रयम् सम्मूर्च्छनजानामङ्गुलासंख्येयभागः, एष एव सर्वत्र जघन्यपदे अपर्याप्तपदे चेति । २७२ तथा कइविहे णमित्यादि स्पष्टम्, नवरं विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां 10 भवं वैक्रियम्, विविधं विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति वा, तत्रैकेन्द्रियवैक्रियशरीरं वायुकायस्य पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं नारकादीनाम् । एवं जावेत्यादेरतिदेशादिदं द्रष्टव्यम्, यदुत जइ एगिंदियवेउव्वियसरीरए किं वाउकाइयएगिंदियवेउव्वियसरीरए अवाउकाइयएगिंदियवेडव्वियसरीरए ?, गोयमा ! वाउकाइयएगिंदियसरीरए नो अवाउकाइय [प्रज्ञापना सू० १५१५] इत्यादिनाऽभिलापेनायमर्थो दृश्यः, यदि वायोः किं 15 सूक्ष्मस्य बादरस्य वा ?, बादरस्यैव, यदि बादरस्य किं पर्याप्तकस्या-ऽपर्याप्तकस्य वा ?, पर्याप्तकस्यैव, यदि पञ्चेन्द्रियस्य किं नारकस्य पञ्चेन्द्रियतिरश्चो मनुजस्य देवस्य वा ?, गौतम ! सर्वेषाम्, तत्र नारकस्य सप्तविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, यदि तिरश्चः किं सम्मूर्च्छिमस्य इतरस्य वा ?, इतरस्य, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एवं पर्याप्तकस्य, तस्य च जलचरादिभेदेन त्रिविधस्यापि । तथा मनुष्यस्य गर्भजस्यैव, तस्यापि 20 कर्मभूमिजस्यैव, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एव पर्याप्तकस्यैव च । तथा देवस्य भवनवास्यादेः, तत्रासुरादेर्दशविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, एवं व्यन्तरस्याष्टविधस्य ज्योतिष्कस्य पञ्चविधस्य, तथा यदि वैमानिकस्य किं कल्पोपपन्नस्य कल्पातीतस्य ? उभयस्यापि पर्याप्तस्यापर्याप्तस्य चेति । तथा वैक्रियं भदन्त ! किंसंस्थितम् ?, उच्यते, नानासंस्थितम्, तत्र वायोः ९. तस्यापिजल हे ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५२ औदारिकादिशरीरवर्णनम् । २७३ पताकासंस्थितम्, नारकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थितम्, पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्-मनुष्याणां नानासंस्थितम्, देवानां भवधारणीयं समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितमुत्तरवैक्रिय नानासंस्थितम्, केवलं कल्पातीतानां भवधारणीयमेव । तथा वैक्रियशरीरावगाहना भदन्त ! किंमहती ?, गौतम ! जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागमुत्कर्षतः सातिरेकं योजनलक्षम्, वायोरुभयथा अङ्गुलासंख्येयभागम्, एवं 5 नारकस्य जघन्येन, भवधारणीया तु उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, एषा च सप्तम्याम्, षष्ठ्यादिषु त्वियमेव अर्द्धार्द्धहीने ति, उत्तरवैक्रिया तु जघन्यतः सर्वेषामप्यमुलसंख्येयभागमुत्कर्षतस्तु नारकस्य भवधारणीयद्विगुणेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां योजनशतपृथक्त्वमुत्कर्षतः, मनुष्याणां तूत्कर्षतः सातिरेकं योजनानां लक्षम्, देवानां तु लक्षमेवोत्तरवैक्रियम्, भवधारणीया तु भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-सौधर्मेशानानां 10 सप्त हस्ताः, सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः षट्, ब्रह्म-लान्तकयोः पञ्च, महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वार आनतादिषु त्रयो ग्रैवेयकेषु द्वावनुत्तरेष्वेक इति, अनन्तरोक्तं सूत्रत एवाह- एवं जाव सणंकुमारेत्यादि, एवमिति दुविहे पण्णत्ते एगिदिएत्यादिना पूर्वदर्शितक्रमेण प्रज्ञापनोक्तं वैक्रियावगाहनामानसूत्रं वाच्यम्, कियद्रमित्याह- यावत् सनत्कुमारे आरब्धं भवधारणीयवैक्रियशरीरपरिहाणमिति गम्यं ततोऽपि यावदनुत्तराणि 15 अनुत्तरसुरसम्बन्धीनि भवधारणीयानि शरीराणि यानि भवन्ति तेषां रत्नी रत्नि: परिहीयत इति, एतदर्थं सूत्रं तावदिति, पुस्तकान्तरे त्विदं वाक्यमन्यथापि दृश्यते, तत्राप्यक्षरघटनैतदनुसारेण कार्येति । आहारएत्यादि सुगमम्, नवरम् एवमिति यथा पूर्वम् आलापकः परिपूर्ण उच्चारित एवमुत्तरत्रापि, तथाहि- जइ मणुस्स त्ति - जइ मणुस्साहारगसरीरे किं 20 गब्भवक्वंतियमणुस्साहारगसरीरे संमुच्छिममणुस्साहारगसरीरे ?, गोयमा ! गब्भवक्कं तियमणुस्साहारगसरीरे नो संमुच्छिममणुस्साहारगसरीरे, जइ गब्भवक्कंतिय० इत्यादि सर्वमूह्यं यावत् जइ पमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणुस्साहारगसरीरे किं इढिपत्तपमत्त१. तिर्यग्मनु जे२ ॥ २. सूत्र एवाह जे१ खं० ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे संजयसम्मदिट्ठिपजत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणुस्साहारगसरीरे अणिढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साहारगसरीरे ?, गोयमा ! द्वितीयस्य निषेधः प्रथमस्य चानुज्ञा वाच्या, एतदेवाह- वयणा वि भाणियव्व त्ति सूचितवचनान्यप्युक्तन्यायेन 5 सर्वाणि भणनीयानि, विभागेन पूर्णान्युच्चारणीयानीत्यर्थः, आहार त्ति ‘आहारगसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा !' इत्येतत् सूचितम्, जहण्णेणं देसूणा रयणीति, कथम् ? उच्यते, तथाविधप्रयत्नविशेषतस्तथाऽऽरम्भकद्रव्यविशेषतश्च प्रारम्भकालेऽप्युक्तप्रमाणभावात्, न हीहौदारिकादेरिवा गुलासंख्येयभागमात्रता प्रारम्भकाले इति भावः । 10 तेयासरीरे णं भंते इत्यादि, एवं यावत्करणात् प्रज्ञापनासत्कैकविंशतितमपदोक्ता तैजसशरीरवक्तव्यता इह वाच्या, सा चेयमर्थतः- एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- पुढवि जाव वणप्फइकाइयएगिदियतेयगसरीरे [प्रज्ञापना सू० १५३६-१५३७], एवं जीवराशिप्ररूपणाऽनुसारेण सूत्रं भावनीयम्, यावत् सव्वट्ठसिद्धगअणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेंदियतेयगसरीरे णं भंते ! 15 किंसंठिए ?, नाणासंठिए [प्रज्ञापना सू० १५४४[३]], यस्य पृथिव्यादिजीवस्य यदौदारिकादिशरीरसंस्थानं तदेव तैजसस्य कार्मणस्य च । तथा जीवस्य मारणान्तिकसमुद्घातगतस्य कियती तैजसी शरीरावगाहना ?. शरीरमात्रा विष्कम्भ-बाहल्याभ्यामायमतस्तु जघन्येनाङ्गुलस्यासंख्येयभाग उत्कर्षत ऊर्ध्वमधश्च लोकान्ताल्लोकान्तं यावदेकेन्द्रियस्य, ततस्तत्रोत्पत्तिमङ्गीकृत्येति भावः, 20 एवं सर्वेषामेवैकेन्द्रियाणाम्, द्वीन्द्रियादीनां तु आयामत उत्कर्षेण तिर्यग्लोकाल्लोकान्तं यावत् प्रायस्तिर्यग्लोके द्वीन्द्रियादितिरश्चां भावात्, नारकस्य जघन्यतो योजनसहस्रम्, कथम् ?, नरकात् पातालकलशस्य सहस्रमानं कुड्यं भित्त्वा तत्र मत्स्यतयोत्पद्यमानस्य, उत्कर्षेण तु अधः सप्तमी यावत् सप्तमपृथिवीनारकं समुद्रादिमत्स्येषूत्पद्यमानं प्रतीत्य, तिर्यक् स्वयम्भूरमणं यावत् ऊर्ध्वं पण्डकवनपुष्करिणीं यावत्, यतस्तयो रक उत्पद्यते, १. "म्मद्दिट्ठि खं० जे१ हे२ ।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५३] अवधि-वेदनादिवर्णनम् । २७५ न परतः, मनुष्यस्य लोकान्तं यावत्, भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-सौधर्मेशानदेवानां जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागः स्वस्थान एव पृथिव्यादितयोत्पादात्, उत्कर्षतस्तु अधस्तृतीयपृथिवीं यावत् तिर्यक् स्वयम्भूरमणबहिर्वेदिकान्तम् ऊर्ध्वमीषत्प्राग्भारां यावत्, यत एते शुभपर्याप्तबादरेष्वेव पृथिव्यादिषूत्पद्यन्ते अतो न परतोऽपीति, सनत्कुमारादिसहस्रारान्तदेवानां तु जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागः, कथम् ?, पण्डकवनादि- 5 पुष्करिणीमजनार्थमवतारे मृतस्य तत्रैव मत्स्यतयोत्पद्यमानत्वात्, पूर्वसम्बन्धिनी वा मनुष्योपभुक्तस्त्रियं परिष्वज्य मृतस्य तद्गर्भे समुत्पादादिति, उत्कर्षतस्तु अधो यावन्महापातालकलशानां द्वितीयस्त्रिभागः, तत्र हि जलसद्भावान्मत्स्येषूत्पद्यमानत्वात्, तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्रं यावत्, ऊर्ध्वमच्युतं यावत्, तत्र हि सङ्गतिकदेवनिश्रया गतस्य मृत्वेहोत्पद्यमानत्वादिति, आनतादीनामच्युतान्तानां तु जघन्यतोऽगुला- 10 संख्येयभागः, कथम् ?, इहागतस्य मरणकालविपर्यस्तमतेर्मनुष्योपभुक्तस्त्रियमभिष्वज्य मृतस्य तत्रैवोत्पत्तेरिति, उत्कर्षतस्त्वधो यावदधोलोकग्रामान्, तिर्यग् मनुष्यक्षेत्रे, ऊर्ध्वमच्युतविमानानि यावत् मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते एत इति भावना तथैव कार्या, ग्रैवेयकानुत्तरोपपातिकदेवानां जघन्यतो विद्याधरश्रेणी यावत्, उत्कर्षतोऽधो यावदधोलोकग्रामान्, तिर्यग् मनुष्यक्षेत्रम्, ऊर्ध्वं तद्विमानान्येवेति, एवं कार्मणस्याप्यवगाहना 15 दृश्या समानत्वादेतयोरिति । उक्तार्थमेव सूर्तीशमाह- गेवेजगस्स णमित्यादि । [सू० १५३] भेदे विसय संठाणे अभंतर बाहिरे य देसोधी । ओहिस्स वड्डि हाणी पडिवाती चेव अपडिवाती ॥७१॥ कतिविहे णं भंते ! ओही पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते- भवपच्चइए य खओवसमिए य । एवं सव्वं ओहिपदं भाणियव्वं । सीता य दव्व सारीर सात तह वेयणा भवे दुक्खा । अब्भुवगमुवक्कमिया णिताई चेव अणिदातिं ॥७२॥ नेरइया णं भंते ! किं सीतवेदणं वेयंति, उसिणवेयणं वेयंति, सीतोसिणवेयणं वेयंति ? गोयमा ! नेरइया० एवं चेव वेयणापदं भाणियव्वं । १. प्रजापनासूत्रस्य त्रयस्त्रिंशत्तमम् अवधिपदम् ॥ २. प्रज्ञापनासूत्रस्य पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनापदम् ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __कति णं भंते ! लेसातो पण्णत्तातो ? गोयमा ! छल्लेसातो पण्णत्तातो, तंजहा- किण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा । एवं लेसापदं भाणियव्वं । अणंतरा य आहारे आहाराभोयणा विय । पोग्गला नेव जाणंति अज्झवसाणा य सम्मत्ते ।।७३।। नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निव्वत्तणया ततो परियातियणता ततो परिणामणता ततो परियारणया ततो पच्छा विकुव्वणया ? हंता गोयमा! एवं आहारपदं भाणियव्वं ।। [टी०] अनन्तरं शरीरिणामवगाहनाधर्म्म उक्तोऽधुना त्ववधिधर्मप्रतिपादनायाह- भेदे 10 इत्यादि द्वारगाथा, तत्र भेदोऽवधेर्वक्तव्यः, यथा द्विविधोऽवधिः - भवप्रत्ययः क्षायोपशमिकश्च, तत्र भवप्रत्ययो देवनारकाणां क्षायोपशमिको मनुष्यतिरश्चामिति, तथा विषयो गोचरोऽवधेर्वाच्यः, स च चतुर्द्धा - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जघन्येन तेजो-भाषयोरग्रहणप्रायोग्यानि द्रव्याणि जानाति, उत्कर्षतस्तु सर्वमेकाणुकाद्यनन्ताणुकान्तं रूपिद्रव्यजातं जानाति, क्षेत्रं जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागं 15 जानाति उत्कर्षतोऽसंख्येयान्यलोके लोकमात्राणि खण्डानि जानाति, कालं जघन्यत आवलिकाया असंख्येयभागमतीतमनागतं च जानाति, उत्कर्षतः संख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्जानाति, भावान् जघन्यतः प्रतिद्रव्यं चतुरो वर्णादीन् उत्कर्षतः प्रतिद्रव्यमसंख्येयान् सर्वद्रव्यापेक्षया त्वनन्तानिति । तथा संस्थानमवधेर्वाच्यम्, यथा नारकाणां तप्राकारोऽवधिः, पल्याकारो भवनपतीनाम्, पटहाकारो व्यन्तराणाम्, 20 झल्लाकृतियॊतिष्काणाम्, मृदङ्गाकार: कल्पोपपन्नानाम्, पुष्पावलीरचितशिखर चगेर्याकारो ग्रैवेयकाणाम्, कन्याचोलकसंस्थानोऽनुत्तरसुराणां लोकनाड्याकृतिरित्यर्थः, तिर्यङ्-मनुष्याणां तु नानासंस्थान इति । तथा अन्भंतर त्ति के अवधिप्रकाशितक्षेत्रस्याभ्यन्तरे वर्तन्ते इति वाच्यम्, तत्र नेरइयदेवतित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुंति १. प्रज्ञापनासूत्रस्य सप्तदशं लेश्यापदम् ॥ २. अत्र प्रज्ञापनासूत्रस्य अष्टाविंशतितमम् आहारपदं न ग्राह्यम्. किन्तु आहारपदशब्देन चतुस्त्रिंशत्तमं परिचारणापदं ग्राह्यमिति टीकायां निर्दिष्टमभयदेवसूरिपादैः ॥ ३. च नास्ति खं० जे१ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ [सू० १५३] अवधि-वेदनादिवर्णनम् । आव० नि०६६] इत्यादि । तथा बाहिरे त्ति केऽवधिक्षेत्रस्य बाह्या भवन्तीति वाच्यम्, तत्र शेषा जीवा बाह्यावधयोऽभ्यन्तरावधयश्च भवन्ति । तथा देसोहि त्ति अवधिप्रकाश्यवस्तुनो देशप्रकाशी अवधिर्देशावधि: स केषां भवतीति वाच्यम्, तविपरीतस्तु सर्वावधिः, तत्र मनुष्याणाम् उभयमन्येषां देशावधिरेव, यतः सर्वावधिः केवलज्ञानलाभप्रत्यासत्तावेवोत्पद्यत इति । तथाऽवधेर्वृद्धिर्हानिश्च वाच्या, यो येषां 5 भवति, तत्र तिर्यङ्-मनुष्याणां वर्द्धमानो हीयमानश्च भवति, शेषाणामवस्थित एव, तत्र वर्द्धमानो योऽङ्गुलासंख्येयभागादि दृष्ट्वा बहु बहुतरं पश्यति, विपरीतस्तु हीयमान इति। तथा प्रतिपाती चाप्रतिपाती चावधिर्वाच्यः, तत्रोत्कर्षतो लोकमात्र: प्रतिपाती, ततः परमप्रतिपाती, तत्र भवप्रत्ययस्तं भवं यावन्न प्रतिपतति, क्षायोपशमिकस्तूभयथेति। एतदेव दर्शयति- कइविहेत्यादि, अत्रावसरे प्रज्ञापनायास्त्रय- 10 स्त्रिंशत्तमं पदमन्यूनमध्येयमिति । __ अनन्तरमुपयोगविशेषः क्षायोपशमिको जीवपर्यायः उक्तोऽधुना स एवौदयिको वेदनालक्षणोऽभिधीयते- सीया इत्यादि द्वारगाथा, तत्र सीया य त्ति चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, तेन त्रिविधा वेदना - शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तत्र शीतामुष्णा च वेदयन्ति नारकाः, शेषास्त्रिविधामपि । दव्व त्ति उपलक्षणत्वाच्चतुर्विधा 15 वेदना द्रव्यादिभेदेन, तत्र पुद्गलद्रव्यसम्बन्धात् द्रव्यवेदना, नारकाद्युपपातक्षेत्रसम्बन्धात् क्षेत्रवेदना, नारकाद्यायु:कालसम्बन्धात् कालवेदना, वेदनीयकम्र्मोदयाद् भाववेदना, तत्र नारकादयो वैमानिकान्ताश्चतुर्विधामपि वेदनां वेदयन्तीति । तथा सारीर त्ति त्रिधावेदना शारीरी मानसी शारीरमानसी च, तत्र संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वे त्रिविधामपि, इतरे तु शारीरीमेवेति। तथा साय त्ति त्रिधा वेदना - साता असाता सातासाता चेति, तत्र 20 सर्वे जीवाः त्रिविधामपि वेदयन्तीति । तह वेयणा भवे दुक्ख त्ति, त्रिविधा वेदनासुखा दुःखा सुखदुःखा चेति, तत्र सर्वेऽपि त्रिविधामपि वेदयन्ति, नवरं सातासातयोः सुखदुःखयोश्चायं विशेष:- सातासाते क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवलक्षणे, सुखदुःखे तु परेण उदीर्यमाणवेदनीयकर्मानुभवलक्षणे । तथा अब्भुवगमुवक्कमिय त्ति, द्विधा वेदना- आभ्युपगमिकी औपक्रमिकी चेति, तत्राद्या यामभ्युपगमतो वेदयन्ति 25 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जीवा यथा साधवः शिरोलोच-ब्रह्मचर्यादिकाम, द्वितीया तु स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन वोदयमुपनीतस्य वेदनीयस्यानुभवः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्-मनुष्या द्विविधामपि शेषास्त्वौपक्रमिकीमेव वेदयन्तीति । तथा णीयाए चेव अणियाए त्ति, द्विविधा वेदना, तत्र निदया आभोगतः अनिदया त्वनाभोगतः, तत्र संज्ञिन उभयतोऽसंज्ञिनस्त्वनिदयेति, 5 एतद्द्वारविवरणाय नेरइया णमित्यादि, इहावसरे प्रज्ञापनाया: पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनाख्य पदमध्येयमिति । अनन्तरं वेदना प्ररूपिता, सा च लेश्यावत एव भवतीति लेश्याप्ररूपणायाह- कइ णं भंते इत्यादि, इह स्थाने प्रज्ञापनाया: सप्तदशं षडुद्देशक लेश्याभिधानं पदमध्येतव्यम्, तच्चास्माभिरतिबहत्वादर्थतोऽपि न लिखितमिति तत एवावधारणीयमिति । 10 अनन्तरं लेश्या उक्ताः, सलेश्या एव चाहारयन्तीत्याहारप्ररूपणाय अणंतरा येत्यादिद्वारश्लोकमाह । तत्र अणंतरा य आहारे त्ति अनन्तराश्च अव्यवधानाश्चाहारविषये अनन्तराहारा जीवा वाच्या इत्यर्थः, तथाऽऽहारस्याऽऽभोगना, अपिचेति वचनादनाभोगना च वाच्या । तथा पुद्गलान जानन्त्येव, एवकारान्न पश्यन्तीति चतुर्भङ्गी सूचिता । तथा अध्यवसानानि सम्यक्त्वं च वाच्यमिति । 15 तत्राद्यद्वारार्थमाह- नेरइएत्यादि, अणंतराहार त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः । ततो निव्वत्तणया इति ततः शरीरनिर्वृत्तिः । ततो परियादियणय त्ति ततः पर्यापानमङ्गप्रत्यङ्गः समन्तात् पानमित्यर्थः । ततो परिणामणय त्ति आपीतस्योपात्तस्य परिणतिरिन्द्रियादिविभागेन । ततो परियारणय त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः । ततो पच्छा विउव्वणय त्ति ततः पश्चाद्विक्रिया नानारूपा 20 इत्यर्थः । हंत त्ति हन्त गौतम !, एवमेतदिति भावः, एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां वक्तव्यम्, नवरं देवानां पूर्वं विकुर्वणा पश्चात् परिचारणा शेषाणां तु पूर्वं परिचारणा पश्चाद्विकुर्वणा, एकेन्द्रियादीनामप्येवमेव प्रश्नः, निर्वचने तु यत्र वैक्रियसम्भवो नास्ति तत्र विकुर्वणा निषेधनीयेति । एवमाहारपयं भाणियव्वं ति यथाऽऽद्यद्वारस्य प्रश्न उक्तस्तथा तदुत्तरं शेषद्वाराणि 25 च भणद्भिः प्रज्ञापनायाश्चतुस्त्रिंशत्तमं परिचारणापदाख्यं पदमिह भणितव्यमिति, इदं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ सू० १५४ आयुर्बन्धादिवर्णनम् । चात्राहारविचारप्रधानतया आहारपदमुक्तमिति, तत् पुनरेवमर्थतस्तत्र आहाराभोगणाइ यत्ति एतस्य विवरणम् - नारकाणां किमाभोगनिर्वर्तित आहारोऽनाभोगनिर्वर्त्तितो वा ?, उभयथापीति निर्वचनम्, एवं सर्वेषाम्, नवरमेकेन्द्रियाणामनाभोगनिर्वर्तित एवेति । तथा पोग्गला नेव जाणंति त्ति, अस्यार्थ:- नारका यान् पुद्गलान् आहारयन्ति तानवधिनापि न जानन्ति अविषयत्वात्तदवधेस्तेषाम्, न पश्यन्ति चक्षुषाऽपि लोमाहारत्वात् तेषाम्, 5 एवमसुरादयस्त्रीन्द्रियान्ताः, केवलम् एकेन्द्रिया अनाभोगाहारत्वाद् द्वित्रीन्दियाश्च मत्यज्ञानित्वान्न जानन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावाच्च न पश्यन्तीति, चतुरिन्द्रियास्तु चक्षुःसद्भावेऽपि मत्यज्ञानित्वात् प्रक्षेपाहारं न जानन्ति, चक्षुषा तु पश्यन्ति, तथा त एव लोमाहारमाश्रित्य न जानन्ति न पश्यन्तीति व्यपदिश्यते, चक्षुषोऽविषयत्वात्तस्य, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च केचिज्जानन्ति पश्यन्ति चावधिज्ञानादियुक्ताः लोमाहारं प्रक्षेपाहारं 10 च, तथाऽन्ये जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारम्, जानन्त्यवधिना न पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति पश्यन्ति, तत्र न जानन्ति प्रक्षेपाहारं मत्यज्ञानित्वात् पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारं निरतिशयत्वादिति, व्यन्तर-ज्योतिष्का नारकवत्, वैमानिकास्तु ये सम्यग्दृष्टयस्ते जानन्ति विशिष्टावधित्वात् पश्यन्ति च चक्षुषोऽपि विशिष्टत्वात्, मिथ्यादृष्टयस्तु न जानन्ति न पश्यन्ति, प्रत्यक्ष- 15 परोक्षज्ञानयोस्तेषामस्पष्टत्वादिति । तथा अज्झवसाणा य त्ति दारम्, नारकादीनां प्रशस्ताप्रशस्तान्यसंख्येयान्यध्यवसानानीति । तथा संमत्ते त्ति दारम्, तत्र नारकाः किं सम्यक्त्वाभिगमिनो मिथ्यात्वाभिगमिनः सम्यक्त्वमिथ्यात्वाभिगमिनश्चेति? त्रिविधा अपि, एवं सर्वेऽपि, नवरमेकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिया मिथ्यात्वाभिगमिन एवेति । सू० १५४] [१] कतिविहे णं भंते ! आउगबंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! 20 छव्विहे आउगबंधे पण्णत्ते, तंजहा- जातिनामनिधत्ताउए, एवं गतिनाम० ठितिनाम० पदेसनाम० अणुभाग० ओगाहणानाम० । ___ [२] नेरइयाणं भंते ! कतिविहे आउगबंधे पन्नत्ते ?, गोयमा ! छव्विहे पन्नत्ते, तंजहा- जातिनाम० जाव ओगाहणानाम० । एवं जाव वेमाणिय त्ति। १. "आहाराभोयणाइ य इति आहाराभोगना, आदिशब्दादाहारानाभोगना च वक्तव्या ।” इति प्रज्ञापनासूत्रस्य चतुस्त्रिंशत्तमे पदे मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। २. एव च लोमा' खं० ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे - [३] निरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ते, एवं तिरियगति मणुस्स[गति] देव[गति] । सिद्धिगती णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिज्झणयाए पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे। 5 एवं सिद्धिवजा उव्वदृणा । [४] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं ? एवं उववायदंडओ भाणियव्वो उव्वट्टणादंडओ य । __ [टी०] अनन्तरमाहारप्ररूपणा कृता, आहारश्चायुर्बन्धवतामेव भवतीत्यायुर्बन्धप्ररूपणायाह- कइविहेत्यादि, तत्रायुषो बन्ध: निषेक आयुर्बन्धः, निषेकश्च प्रतिसमय 10 बहहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थं रचना, निधत्तमपीह निषेक उच्यते, अत एवाह जाइनामनिधत्ताउए, जातिनाम्ना सह निधत्तं निषिक्तमनुभवनार्थं बह्वल्पाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापितमायुर्जातिनामनिधत्तायुः, अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्मणाऽऽयुविशेष्यते ?, उच्यते- आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थम्, यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्माद् 15 व्याख्याप्रज्ञप्त्यामुक्तम्- नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जइ, अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ ?, गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ, नो अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ [भगवती० ४/९/१७३], एतदुक्तं भवति - नारकायुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एव नारक इत्युच्यते, तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति । ___ तथा गतिनामनिधत्ताउए त्ति, गति रकगत्यादिः, तल्लक्षणं नामकर्म तेन सह 20 निधत्तं निषिक्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः । तथा ठिइनामनिधत्ताउए त्ति, स्थितिर्यत् स्थातव्यं तेन भावनायुर्दलिकस्य सैव नाम परिणामो धर्म इत्यर्थः स्थितिनाम, गति-जात्यादिकर्मणां वा प्रकृत्यादिभेदेन चतुर्विधानां यः स्थितिरूपो भेदस्तत् स्थितिनाम, तेन सह निधत्तमायुः स्थितिनामनिधत्तायुरिति। तथा पएसनामनिधत्ताउए त्ति, प्रदेशानां प्रमितपरिमाणानामायुःकर्मदलिकानां नाम १. अत्र प्रज्ञापनासूत्रे षष्ठं व्युत्क्रान्तिपदं द्रष्टव्यम् ।। २. विशिष्यिते जे२ हे१, हेसं२ ।। ३. नाम: जे२ खं० हे२ ।। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५४] आयुर्बन्धादिवर्णनम् । २८१ परिणामो य: तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनाम, जाति-गत्यवगाहनाकर्मणां वा यत् प्रदेशरूपं नामकर्म तत् प्रदेशनाम, तेन सह निधत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुरिति। तथा अणुभागनामनिधत्ताउए त्ति, अनुभाग: आयुष्कर्मद्रव्याणां तीव्रादिभेदो रस: स एव तस्य वा नाम: परिणामोऽनुभागनाम:, अथवा गत्यादीनां नामकर्मणामनुभागबन्धरूपो भेदोऽनुभागनाम, तेन सह निधत्तमायुरनुभागनामनिधत्तायुरिति । 5 __तथा ओगाहणानामनिधत्ताउए त्ति, अवगाहते जीवो यस्यां साऽवगाहना शरीरमौदारिकादि पञ्चविधम्, तत्कारणं कर्माप्यवगाहना, तद्रूपं नामकर्माऽवगाहनानाम, तेन सह निधत्तमायुरवगाहनानामनिधत्तायुरिति । नेरइयाणमित्यादि स्पष्टम् । अनन्तरमायुर्बन्ध उक्तोऽधुना बद्धायुषां नारकादिगतिषूपपातो भवतीति तद्विरहकालप्ररूपणायाह- निरयगई णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं यद्यपि रत्नप्रभादिषु 10 चतुर्विंशतिर्मुहूर्त्तादिविरहकालः, यथोक्तम् चउवीसई मुहुत्ता सत्त अहोरत्त तह य पण्णरसा । मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालो उ ॥ [बृहत्सं० २८१] त्ति । तथापि सामान्यगत्यपेक्षया द्वादश मुहूर्ता उक्ताः, तथा एवंकरणाद् यत्तिर्यङ्मनुष्यगत्योः सामान्येन द्वादश मुहर्ता उक्ताः तद् गर्भव्युत्क्रान्तिकापेक्षया, देवगतौ तु 15 सामान्यत एव। सिद्धिवज्जा उव्वदृण त्ति नारकादिगतिषु द्वादशमुहूर्तो विरहकाल १. 'साई खं० जे१ । “चउवीसयं मुहुत्ता, सत्त अहोरत्त तह य पन्नरस । मासो अ दो अ चउरो छम्मासा विरहकालो उ ।।२८१।। उक्कोसो रयणाइसु, सव्वासु जहन्नओ भवे समओ। एमेव य उव्वट्टण, संखा पुण सुरवरूतुल्ला ||२८२।। व्या०- इह नरकेषु नारकाः सततमेव प्राय उत्पद्यन्ते । केवल कदाचिदन्तरं भवति । तच्चान्तर जघन्यतः सर्वासु समस्तासु पृथिवीषु प्रत्येकं भवत्येकः समय: । उत्कर्षतो रत्नप्रभायां पृथिव्यां चतुर्विंशतिमूहुर्ता अन्तरम् । शर्कराप्रभायां सप्ताहोरात्राः । वालुकाप्रभायां पञ्चदश । पङ्कप्रभायां मासः । धूमप्रभायां द्वौ मासौ । तमःप्रभायां चत्वारो मासाः । तमस्तमःप्रभायां षण्मासाः । एमेव य उव्वदृण त्ति यथोपपातविरहकाल उक्त एवमेवोद्वर्तनाविरहकालोऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्च वाच्यः । ततः समस्तासु पृथिवीषु प्रत्येकमुद्वर्तनाविरहकालो जघन्यत एक: समयः । उत्कर्षतो रत्नप्रभायां चतुर्विंशतिमुहर्ताः । शर्कराप्रभायां सप्ताहोरात्राः । वालुकाप्रभायां पक्षः । पङ्कप्रभायां मासः । धूमप्रभायां द्वौ मासौ । तमःप्रभायां चत्वारो मासाः । तमस्तम:प्रभायां षण्मासाः । “संखा पुण सुरवरूतुल्ल त्ति' उपपात उद्वर्तनायां च सङ्ख्या पुनरेकस्मिन् समये सुरवरतुल्या सुराणामिव द्रष्टव्या । तद्यथा- एकस्मिन् समये नारका उत्पद्यन्ते जघन्यपद एको द्वौ वा, उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा, एवमेव चोद्वर्तन्तेऽपीति ।।२८१८२॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे उद्वर्तनायामिति, सिद्धानां तूद्वर्त्तनैव नास्ति, अपुनरावृत्तित्वात्तेषामिति । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइकालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ?, एवं उववायदंडओ भाणियव्वो त्ति, स चायम्- गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ताई [प्रज्ञापना० ६।५६९], अनेनाभिलापेन शेषा वाच्याः , 5 तथाहि- सक्करप्पभाए णं उक्कोसेणं सत्त राइंदियाणि, वालुयप्पभाए अद्धमासं, पंकप्पभाए मासं, धूमप्पभाए दो मासा, तमप्पभाए चउरो मासा, अहेसत्तमाए छ मास त्ति । असुरकुमारा चउवीस, मुहुत्ता एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया अविरहिया उववाएणं एवं सेसा वि। बेइंदिया अंतोमुहत्तं, एवं तेइंदियचउरिंदियसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया वि, गम्भवकंतिया तिरिया मणुया य बारस मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्सा चउवीसई मुहुत्ता विरहिया उववाएणं, वंतर10 जोइसिया चउवीसं मुहुत्ताइं, एवं सोहम्मीसाणे वि, सणंकुमारे णव दिणाई वीसा य मुहत्ता, माहिंदे बारस दिणाई दस मुहुत्ता, बंभलोए अद्धतेवीसं राइंदियाई, लंतए पणयालीसं, महासुक्के असीई, सहस्सारे दिणसयं, आणए संखेज्जा मासा, एवं पाणए वि, आरणे संखेजा वासा. एवं अच्चुए वि, गेवेजपत्थडेसु तिसु तिसु कमेणं संखेज्जाइं वाससयाई वाससहम्साई वाससयसहस्साइं, विजयाइसु असंखेनं कालं, सव्वट्ठसिद्धे पलिओवमस्सासंखेजइभागं ति, 15 एवं उव्वटणादंडओ वि त्ति । [सू० १५४] [५] नेरइया णं भंते ! जातिनामनिधत्ताउगं कतिहिं आगरिसेहिं पगरेंति? गोयमा ! सिय १, सिय २।३।४।५।६।७, सिय अट्ठहिं, नो चेव णं नवहिं। एवं सेसाण वि आउगाणि जाव वेमाणिय ति । टी०] उपपात उद्वर्त्तना चायुर्बन्धे एव भवतीत्यायुर्बन्धे विधिविशेषप्ररूपणायाह20 नेरइएत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् आकर्पो नाम कर्मपुद्गलोपादानम्, यथा गौ: पानीयं पिबन्ती भयेन पुन: पुन: आबंहति, एवं जीवोऽपि तीव्रणायुर्बन्धाध्यवसानेन सकदेव जातिनामनिधत्तायुः प्रकरोति, मन्देन द्वाभ्यामाकर्षाभ्यां मन्दतरेण त्रिभिर्मन्दतमेन चतुर्भिः पञ्चभिः षभिः सप्तभिरष्टाभिर्वा न पुनर्नवभिः, एवं शेषाण्यपि, आउगाणि त्ति गतिनामनिधत्तायुरादीनि वाच्यानि यावद् वैमानिका इति, अयं चैकाद्याकर्षनियमो 25 जात्यादिनामकर्मणामायुर्बन्धकाल एव बध्यमानानां न शेषकालम्, आयुर्बन्धपरि १. अत्र प्रज्ञापनासूत्रस्य षष्ठं व्युत्क्रान्तिपदं द्रष्टव्यम् । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५५ ] संहननादिवर्णनम् । समाप्तेरुत्तरकालमपि बन्धोऽस्त्येव, एषां ध्रुवबन्धिनीनां च ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां प्रतिसमयमेव बन्धनिर्वृत्तिर्भवति, एतास्तु परावृत्य परावृत्य बध्यन्त इति । [सू० १५५] [१] कइविहे णं भंते ! संघयणे पण्णत्ते ? गोयमा ! छवि संघयणे पण्णत्ते, तंजहा- वइरोसभनारायसंघयणे रिसभनारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे खीलियासंघयणे छेवट्ठ (सेवट्ट ? ) संघयणे । 5 २८३ [टी०] अनन्तरं जीवानामायुर्बन्धप्रकार उक्तोऽधुना तेषामेव संहनन - संस्थानवेदप्रकारानाह- कइविहे णमित्यादि दण्डकत्रयं कण्ठ्यम्, नवरं संहननमस्थिबन्धविशेषः, मर्कटस्थानीयमुभयोः पार्श्वयोरस्थि नाराचम्, ऋषभस्तु पट्टः, वज्रं कीलिका, वज्रं च ऋषभश्च नाराचं च यत्रास्ति तद्वज्रर्षभनाराचसंहननम्, मर्कट-पट्ट- -कीलिकारचनायुक्तः प्रथमोऽस्थिबन्धः, मर्कट-कीलिकाभ्यां द्वितीयः, मर्कटयुक्तस्तृतीयः, मर्कटकैकदेशबन्धन- 10 द्वितीयपार्श्वकीलिकासम्बन्धश्चतुर्थः, अगुलिद्वयस्य संयुक्तस्य मध्ये कीलिकैव दत्ता यत्र तत् कीलिकासंहननं पञ्चमम्, यत्रास्थीनि चर्मणा निकाचितानि केवलं तत् सेवार्त्तम्, स्नेहपानादीनां नित्यपरिशीलना सेवा, तया ऋतं प्राप्तं सेवार्त्तमिति षष्ठम् । [सू० १५५] [२] नेरइया णं भंते ! किंसंघयणी [ पण्णत्ता ] ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी, णेव छिरा, णवि ण्हारू, जे पोग्गला 15 अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणावा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमति । असुरकुमारा णं [ भंते!] किंसंघयणी पण्णत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्टी, णेव छिरा जाव जे पोग्गला इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा मणाभिरामा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति । एवं जाव थणियकुमार 20 त्ति । पुढवि[काइया णं भंते !] किंसंघयणी पन्नत्ता ? [ गोयमा !] सेवट्टसंघयणी पण्णत्ता, एवं जाव संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिय त्ति । गब्भवक्कंतिया १. परावृत्य बध्यंत जे २ हे२ ।। २. प्रकारामाह जे१ । 'प्रकारमाह खं० ॥। ३. नाराच खं० ॥। ४. मर्कटकपट्ट जे२ ।। ५. मर्कटक - कीलि जे२ हे२ ।। ६. अत्र 'अस्थिद्वयस्य' इति पाठः शुद्धो भाति ।। ७. णेव अटी० ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे छव्विहसंघयणी । संमुच्छिममणुस्सा णं सेवदृसंघयणी । गब्भवक्कंतियमणूसा छव्विहे संघयणे पण्णत्ता । जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया । [टी०] छण्हं संघयणाणं असंघयणि त्ति उक्तरूपाणां षण्णां संहननाना5 मन्यतमस्याप्यभावेनाऽसंहनिनः अस्थिसञ्चयरहिताः, अत एवाह- नेवठ्ठी नैवास्थीनि तच्छरीरके, नेव छिर त्ति नैव शिरा धमन्यः, णेव पहारू नैव स्नायूनीति कृत्वा संहननाभावः, तत्सहितानां हि प्रचुरमपि दु:खं न बाधाविधायि स्यात्, नारकास्त्वत्यन्तशीतादिबाधिता इति, न चास्थिसञ्चयाभावे शरीरं नोपपद्यते, स्कन्धवत्तदुपपत्तेः, अत एवाह- जे पोग्गलेत्यादि, ये पुद्गला अनिष्टा: अवल्लभा: 10 सदैवैषां सामान्येन, तथा अकान्ता अकमनीयाः सदैव तद्भावेन, तथा अप्रिया द्वेष्या: सर्वेषामेव, तथाऽशुभाः प्रकृत्यसुन्दरतया, तथा अमनोज्ञा अमनोरमाः कथयापि, तथा अमनआपा न मनः प्रियाश्चिन्तयापि, ते एवंभूता: पुद्गलास्तेषां नारकाणाम् असंघयणत्ताए त्ति अस्थिसञ्चयविशेषरहितशरीरतया परिणमन्ति । [सू० १५५] [३] कतिविहे णं भंते ! संठाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहे संठाणे 15 पण्णत्ते, तंजहा- समचउरंसे, णग्गोहपरिमंडले, साति, खुज्जे, वामणे, हुंडे । __णेरड्या णं भंते ! किंसंठाणी पण्णत्ता ?] गोयमा ! हंडसंठाणी पण्णत्ता। असुरकु मारा [णं भंते !] किं [सं ठाणी पण्णत्ता ?] गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता जाव थणिय त्ति । पुढवि[काइया] मसूरयसंठाणा पण्णत्ता । आऊकाइया] थिबुयसंठाणा 20 पण्णत्ता । तेऊ[काइया] सूइकलावसंठाणा पण्णत्ता । वाऊ[काइया पडातियासंठाणा पण्णत्ता । वणप्फति[काइया] णाणासंठाणसंठिता पण्णत्ता। बेतिया तेंतिया चउरिंदिया सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया हुंडसंठाणा पण्णत्ता । गब्भववंतिया छव्विहसंठाणा [पण्णत्ता] । संमुच्छिममणूसा हुंडसंठाणसंठिता पण्णत्ता । गब्भवक्कंतियाणं [मणूसाणं] 25 छव्विहा संठाणा [पण्णत्ता] । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ (सू० १५६-१५७ संस्थान-वेदवर्णन-कुलकरादिनामानि । जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया । [टी०] कइविहे संठाणेत्यादि, तत्र मानोन्मानप्रमाणानि अन्यूनान्यनतिरिक्तानि अङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत् समचतुरस्रसंस्थानम्, तथा नाभित उपरि सर्वावयवाश्चतुरस्रलक्षणाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन्न भवति तन्न्यग्रोधसंस्थानम्, तथा नाभितोऽधः सर्वावयवाश्चतुरस्रलक्षणाविसंवादिनो यस्योपरि च यत्तदनुरूपं न भवति 5 तत् सादिसंस्थानम्, तथा ग्रीवा हस्तपादाश्च समचतुरस्रलक्षणयुक्ता यत्र संक्षिप्तविकृतं च मध्यकोष्ठं तत् कुब्जसंस्थानम्, तथा यल्लक्षणयुक्तं कोष्ठं चतुरस्रलक्षणापेतं ग्रीवाद्यवयवहस्तपादं च तद्वामनम्, तथा यत्र हस्तपादाद्यवयवा: बहप्रायाः प्रमाणविसंवादिनश्च तद् हुण्डमित्युच्यते। [सू० १५६] कतिविहे णं भंते ! वेए पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे वेए 10 पण्णत्ते, तंजहा- इत्थिवेदे पुरिसवेदे णपुंसगवेदे । रतियाणं भंते ! किं इन्थिवेए पुरिसवेए णपुंसगवेए पण्णत्ते ? गोयमा ! णो इत्थि[वेदे], णो पुंवेदे, णपुंसगवेदे [पण्णत्ते । असुरकुमा[राणं भंते !] किं [इत्थिवेए पुरिसवेए णपुसंगवेए पण्णते ? गोयमा ! इत्थि वेए, पुमं वेए, णो णपुंसगविए जाव थणिय त्ति । पुढवि[काइया] आउ[काइया तेउ[काइया] वाउ[काइया] 15 वण[प्फतिकाइया बेइंदिया] ते इंदिया] चउ[रिंदिया संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्ख जोणिया संमुच्छिममणूसा पुरागवेया । गभवक्वंतियमणूसा पंचेंदियतिरिया तिवेया । जहा असुरकुमारा सहा वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया । [टी०] कइविहे वेद(दे) इत्यादि, तत्र स्त्रीवेदः पुंस्कामिता, पुरुषवेद: 20 स्त्रीकामिता, नपुंसकवेदः स्त्रीपुंस्कामितेति । [सू० १५७] ते णं काले णं ते णं समए णं कप्पस्स समोसरणं णेतव्वं जाव गणहरा सावच्चा णिरवच्चा वोच्छिन्ना । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीते सत्त कुलकरा होत्था, तंजहा 25 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे मित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपभे । विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥७४।। जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए दस कुलकरा होत्था, तंजहा5 सतजले सताऊ य, अजितसेणे अणंतसेणे य । कक्कसेणे भीमसेणे, महासेणे य सत्तमे ॥७५।। दढरहे दसरहे सतरहे । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाते सत्त कुलगरा होत्था, तंजहा10 पढमेत्थ विमलवाहण० [चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ॥७६।।] गाहा एतेसि णं सत्तण्हं कुलगराणं सत्त भारियातो होत्था, तंजहाचंदजस चंद०[कंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई ॥७७।।] गाहा । 15 जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थकराण पितरो होत्था, तंजहा णाभी जियसत्तू या० [जियारी संवरे इ य । मेहे धरे पइटे य महसेणे य खत्तिए ।।७८॥ सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपुज्जे य खत्तिए । 20 कयवम्मा सीहसेणे य भाणू विस्ससेणे इ य ॥७९।। सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुद्दविजये य । राया य आससेणे सिद्धत्थे च्चिय खत्तिए ॥८०॥] गाहा । १. स्थानाङ्गेऽपि सू० ५५६ ॥ २. स्थानाङ्गसूत्रे [सू०७६७] ‘अणंतसेणे त अजितसेणे त' इति पाठः ।। ३. अत्र [ ] कोष्ठकान्तर्गत: पाठ आवश्यकनियुक्ति-स्थानाङ्ग-समवायाङ्गटीकानुसारेण अम्माभिः पूरित इति सर्वत्र ज्ञेयम् ।। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ [सू० १५७ कुलकरादिनामानि । उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं एते पितरो जिणवराणं ।।८१॥ जंबुद्दीवे एवं मातरोमरुदेवा० [विजय सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहई लक्खण रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥८२।। सुजसा सुव्वय अइरा सिरि देवी य पभावई । पउमावती य वप्पा सिव वम्मा तिसिला इ य ॥८३॥] गाहातो । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थकरा होत्था, तंजहा- उसभ १ अजित २ जाव वद्धमाणो २४ य । एतेसिं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पुव्वभविया णामधेजा होत्था, 10 तंजहा पढमेत्थ वतिरणाभे विमले तह विमलवाहणे चेव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य ॥८४।। सुंदरबाहू तह दीहबाहु जुगबाहु लट्ठबाहू य । दिण्णे य इंददिण्णे सुंदर माहिंदरे चेव ॥८५।। सीहरहे मेहरहे रुप्पी य सुदंसणे य बोधव्वे । तत्तो य णंदणे खलु सीहगिरी चेव वीसतिमे ॥८६॥ अहीणसत्तु संखे सुदंसणे णंदणे य बोधव्वे । ओसप्पिणीए एते तित्थकराणं तु पुव्वभवा ॥८७।। एतेसि णं चउवीसाए तित्थयराणं चउवीसं सीयाओ होत्था, तंजहा- 20 सीया सुदंसणा सुप्पभा य सिद्धत्थ सुप्पसिद्धा य । विजया य वेजयंती जयंती अपराजिया ।।८८। अरुणप्पभ सूरप्पभ सुंकप्पभ अग्गिसप्पभा चेव । विमला य पंचवण्णा सागरदत्ता तह णागदत्ता य ॥८९।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अभयकर णिव्वुतिकरी मणोरमा तह मणोहरा चेव । देवकुरु उत्तरकुरा विसाल चंदप्पभा सीया ॥ ९० ॥ तातो सीयातो सव्वेसिं चेव जिणवरिंदाणं । सव्वजगवच्छलाणं सव्वोतुकसुभाए छायाए ॥ ९१ ॥ पुव्विं उक्खित्ता माणुसेहिं सा हट्टरोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सीयं असुरिंद- सुरिंद - नागिंदा ।।९२।। चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउव्वियाभरणधारी । सुर-असुरवंदियाणं वहंति सीयं जिणिंदाणं ॥ ९३ ॥ पुरतो वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्म । पच्चत्थिमेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे ||१४|| उभो य विणीताए बारवतीए अरिट्ठवरणेमी । अवसेसा तित्थकरा णिक्खंता जम्मभूमीसु ॥ ९५ ॥ २८८ सव्वे वि एगदूसेण [णिग्गया जिणवरा चव्वीसं । ण य णाम अण्णलिंगे ण य गिहिलिंगे कुलिंगे य ।। ९६ ।। ] गाहा । एक्को भगवं वीरो पासो मल्ली [य तिहिं तिहिं सएहिं । भगवं पि वासुपुजो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो ।। ९७ ।। ] गाहा । उग्गाणं भोगाणं रातिण्णा [णं च खत्तियाणं च । चउहिं सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा || १८ || ] गाहा । सुमतित्थ णिच्चभत्तेण [णिग्गओ वासुपुज्जो जिणो उत्थेणं । पासो मल्ली विय अट्टमेण सेसा उ छट्ठेणं ।। ९९ ।। ] गाहा । एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पढमभिक्खादेया होत्था, तंजा सेज्जंस बंभदत्ते सुरिंददत्ते य इंददत् य । तत्तो य धम्मसी सुमित्ते तह धम्ममित्ते य ॥ १०० ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५७] शिबिका-तीर्थकरसहदीक्षित-भिक्षा-चैत्यवृक्षादिवर्णनम् । २८९ पुस्से पुणव्वसू पुण णंदे सुणंदे जए य विजए य । पउमे य सोमदेवे महिंददत्ते य सोमदत्ते य ॥१०१॥ अपरातिय वीससेणे वीसतिमे होति उसभसेणे य । दिण्णे वरदत्ते धन्ने बहुले य आणुपुव्वीए ॥१०२।। एते विसुद्धलेसा जिणवरभत्तीय पंजलिउडाओ । तं कालं तं समयं पडिलाभेती जिणवरिंदे ॥१०३।। संवच्छरेण भिक्खा० [लद्धा उसभेण लोगणाहेण । सेसेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥१०४॥] गाहा । उसभस्स पढमभिक्खा० [खोयरसो आसि लोगणाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसि ॥१०५।।] गाहा । सव्वेसि पि जिणाणं जहियं लद्धातो पढमभिक्खातो । तहियं वसुधारातो सरीरमेत्तीओ वुट्ठातो ॥१०६।। एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं चेतियरुक्खा होत्था, तंजहाणग्गोह सत्तिवण्णे साले पियते पियंगु छत्तोहे । सिरिसे य णागरुक्खे माली य पिलुंक्खुरुक्खे य ॥१०७॥ तेंदुग पाडलि जंबू आसोत्थे खलु तहेव दधिवण्णे । णंदीरुक्खे तिलए अंबगरुक्खे असोगे य ॥१०८।। चंपय बउले य तहा वेडसरुक्खे तहा य धायईरुक्खे । साले य वद्धमाणस्स चेतियरुक्खा जिणवराणं ॥१०९।। बत्तीसतिं धणूइं चेतियरुक्खो उ वद्धमाणस्स । णिच्चोउगो असोगो ओच्छन्नो सालरुक्खणं ॥११०।। 10 15 १. तुलना- “सव्वेहिं पि जिणेहिं, जहिअं लद्धाओ पढमभिक्खाओ । तहिअं वसुहाराओ, वुट्टाओ पुप्फवुट्टीओ ॥३३१|| अद्धतेरसकोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धतेरस लक्खा, जहण्णिआ होइ वसुहारा ॥३३२।।" इति आवश्यकनिर्युक्तौ ।। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे 10 तिण्णेव गाउयाइं चेतियरुक्खो जिणस्स उसभस्स । सेसाणं पुण रुक्खा सरीरतो बारसगुणा उ ॥१११।। सच्छत्ता सपडागा सवेड्या तोरणेहिं उववेया । सुरअसुरगरुलमहियाण चेतियरुक्खा जिणवराणं ॥११२।। एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पढमसीसा होत्था, तंजहापढमेत्थ उसभसेणे बितिए पुण होइ सीहसेणे उ । चारू य वज्जणाभे चमरे तह सुव्वय विदब्भे ॥११३।। दिण्णे वाराहे पुण आणंदे गोत्थुभे सुहम्मे य । मंदर जसे अरिट्टे चक्काउह सयंभु कुंभे य ॥११४।। भिसए य इंद कुंभे वरदत्ते दिण्ण इंदभूती य । उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं ॥११५।। एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पढमसिस्सिणीओ होत्था, तंजहा15 बंभी फग्गू सम्मा अतिराणी कासवी रती सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिधरा ॥११६।। पउमा सिवा सुयी अंजू भावितप्पा य रक्खिया । बंधू पुप्फवती चेव अजा वणिला य आहिया ।।११७।। जक्खिणी पुप्फचूला य चंदणजा य आहिता । 20 उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं ॥११८॥ [टी०] एते च पूर्वो दिता अर्थाः समवसरणस्थितेन भगवता देशिता इति समवसरणवक्तव्यतामाह- ते णमित्यादि, इह णकारौ वाक्यालङ्कारार्थी, अतस्ते इति Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५७] शिबिका-तीर्थकरसहदीक्षित- भिक्षा चैत्यवृक्षादिवर्णनम् । २९१ प्राकृतत्वात् तस्मिन् काले सामान्येन दुःषमसुषमालक्षणे, तस्मिन् समये विशिष्टे यत्र भगवानेव विहरति स्मेति । कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं ति इहावसरे कल्पभाष्यक्रमेण समवसरणवक्तव्यताऽध्येया, सा चाऽऽवश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्यते, वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितम्, कियद्दूरमित्याह - जाव गणेत्यादि, तत्र गणधरः पञ्चमः सुधर्माख्यः सापत्य:, शेषा निरपत्याः अविद्यमानशिष्यसन्ततय इत्यर्थः, वोच्छिन्न त्ति सिद्धा इति, तथाहि परिनिव्वुया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ । इंदभूई हम्मे य रायगिहे निव्वुए वीरे || [ आव० नि० ६५८] ति । अयं च समवसरणनायकः कुलकरवंशोत्पन्नो महापुरुषश्चेति कुलकराणां वरपुरुषाणां जंबुद्दीवेत्यादि सुगमम्, नवरं च वक्तव्यतामाह पढमेत्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ।। [आव० नि० १५५] त्ति । तथा— चंदजस चंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई || [आव० नि० १५९] ति । १. बृहत्कल्पभाष्ये 'समोसरणे केवइया ।। १९७६ ।। ' इति गाथात आरभ्य संखाईए वि भवे .... ॥१२९७|| ' इति गाथापर्यन्तं समवसरणवक्तव्यता वर्तते, किन्तु जाव गणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिन्ना इति अत्र जावशब्देन सूचितः कोऽपि पाठो बृहत्कल्पभाष्ये नास्ति । आवश्यकनिर्युक्तौ तु समोसरणे केवइया... ||५४३।। इत्यत आरभ्य जं कारण णिक्खमणं वोच्छं एएसि आणुपुव्वीए । तित्थं च सुहम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेसा ।। ५९५ ।। इति पर्यन्ता बृहत्कल्पभाष्येण अक्षरशः समानप्राया बयो गाथाः सन्ति, तत्र च निरवच्चा गणहरा सेसा इति पाठ उपलभ्यते ॥ २. 'ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्य नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था । सव्वे वि णं एते समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चउदसपुव्विणो समत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । थेरे इंदभूई थेरे अज्जसुहम्मे य सिद्धिगए महावीरे पच्छा दोणि वि थेरा परिनिव्वुया, जे इमे अज्जत्ताए समा निथा विहरति एए णं सव्वे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वुच्छिन्ना ।" इति पर्युषणाकल्पसूत्रे स्थविरावल्याम् ॥। ३. स्थानाङ्गसू० ५५६ । “प्रथमोऽत्र विमलवाहनश्चक्षुष्मान् यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः ततश्च प्रसेनजित् मरुदेवश्चैव नाभिश्चेति भावार्थ: सुगम एवेति गाथार्थः || १५५ || चन्द्रयशाः चन्द्रकान्ता सुरूपा प्रतिरूपा चक्षुः कान्ता च श्रीकान्ता मरुदेवी कुलकरपत्नीनां नामानीति गाथार्थः || १५९ || ” इति आवश्यकसूत्रे हारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ 5 10 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे 10 तथा- नाभी जियसत्तू या जियारी संवरे इ य । मेहे धरे पइढे य, महसेणे य खत्तिए । सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपुज्जे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे य भाणू विस्ससेणे इ य ।। सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुद्दविजये य । राया य आससेणे सिद्धत्थे च्चिय खत्तिए ॥ [आव० नि० ३८७-३८९] त्ति। तथा- मरुदेवि विजय सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहई लक्खण रामा नंदा विण्हू जया सामा । सुजसा सुव्वय अइरा, सिरि देवी य पभावती । पउमावती य वप्पा सिव वम्मा तिसिला इ य ॥ [आव० नि० ३८५-३८६] त्ति। तथा सव्वोउगसुभाए छायाए त्ति सर्वर्तुकया सर्वेषु शरदादिषु ऋतुषु सुखदया छायया प्रभया आतपाभावलक्षणया वा युक्ता इति शेषः ।।९१।। तथा सा हट्ठरोमकूवेहिं ति सा शिबिका यस्यां जिनोऽध्यारूढः हृष्टरोमकूपैः उद्धृषितरोमभिरित्यर्थः ।।९२॥ तथा चलचवलकुंडलधर त्ति चलाश्च ते चपलकुण्डलधराश्चेति वाक्यम्, तथा स्वच्छन्देन 15 स्वरुच्या विकुर्वितानि यान्याभरणानि मुकुटादीनि तानि धारयन्ति ये ते तथा असुरेन्द्रादय इति योगः ॥९३|| गरुल त्ति गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा इत्यर्थः ।।९४।। तथा- सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउवीसं । न य णाम अन्नलिंगे न य गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥ [आव० नि० २२७] त्ति । एगदसेण त्ति एकेन वस्त्रेणेन्द्रसमर्पितेन नोपधिभूतेन युक्ता निष्क्रान्ता इत्यर्थः, 20 न चाऽन्यलिङ्गे स्थविरकल्पिकादिलिङ्गे, तीर्थकरलिङ्ग एवेत्यर्थः, कुलिङ्गे शाक्यादिलिङ्गे । तथा एक्को भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सएहिं । १. कयधम्मा जे१,२ ॥ २. सर्वेऽपि एकदृष्येण एकवस्त्रेण निर्गताः जिनवराश्चतुर्विंशतिः, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, सर्वे यावन्तः खल्वतीता जिनवरा अपि एकदृष्येण निर्गताः । सर्वे तीर्थकृतः तीर्थकरलिङ्ग एव निष्क्रान्ताः, न च नाम अन्यलिङ्गे न गृहस्थलिङ्गे कुलिङ्गे वा, अन्यलिङ्गाद्यर्थ उक्त एवेति गाथार्थः ॥२२७॥" आव० हारि० ॥ ३. एको भगवान् वीरः चरमतीर्थकरः प्रव्रजितः, तथा पार्थो मल्लिश्च त्रिभिस्त्रिभिः शतैः सह, तथा भगवांश्च वासुपूज्य: षड्भिः पुरुषशतैः सह निष्क्रान्त: प्रव्रजितः । तथा उग्राणां भोगानां राजन्याना Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ [सू० १५७] तीर्थकरमातृ-भिक्षा-चैत्यवृक्षादिनिरूपणम् । भयवं पि वासुपुज्जो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो । उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं च खत्तियाणं च । चउहिं सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ [आव० नि० २२४-२२५] तथा- सुमइऽत्थ निच्चभत्तेण निग्गओ वासुपुज्जो जिणो चउत्थेणं । पासो मल्ली विय अट्टमेण सेसा उ छट्टेणं ॥ [आव० नि० २२८] ति, सुमतिरत्र नित्यभक्तेन, अनुपोषितो निष्क्रान्त इत्यर्थः । तथा- संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ । [आव० नि० ३१९] त्ति, तथा- उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसि ॥ [आव० नि० ३२०] 10 सरीरमेत्तीओ त्ति पुरुषमात्राः ॥१०६।। चेइयरुक्ख त्ति बद्धपीठा वृक्षा येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति । बत्तीसं धणुयाई गाहा, निच्चोउगो त्ति नित्यं सर्वदा ऋतुरेव पुष्पादिकालो यस्य स नित्यर्तुकः असोगो त्ति अशोकाभिधानो यः समवसरणभूमिमध्ये भवति, ओच्छन्नो सालरुक्खेणं ति अवच्छन्नः शालवृक्षणेत्यत एव वचनादशोकस्योपरि शालवृक्षोऽपि 15 कथञ्चिदस्तीत्यवसीयत इति ॥११०।। तिण्णेव गाउयाई गाहा ऋषभस्वामिनो द्वादशगुण इत्यर्थः ।।१११।। सवेइय त्ति वेदिकायुक्ताः, एते चाशोकाः समवसरणसम्बन्धिनः सम्भाव्यन्त इति ।।११२।। च क्षत्रियाणां च चतुर्भिः सहस्रः सह ऋषभः, किम् ? निष्क्रान्त इति वर्त्तते, शेषास्तु अजितादयः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ता इति, उग्रादीनां च स्वरूपमधः प्रतिपादितमेवेति गाथार्थः ॥२२४-२५॥" आव० हारि० ॥ १. “सुमति: तीर्थकरः, थेति निपातः, नित्यभक्तेन अनवरतभक्तेन निर्गतो निष्क्रान्तः, तथा वासुपूज्यो जिनश्चतुर्थेन, निर्गत इति वर्त्तते, तथा पार्थो मल्ल्यपि चाष्टमेन, शेषास्तु ऋषभादयः षष्ठेनेति गाथार्थः ।।२२८॥" आव० हारि० ।। २. संवत्सरेण भिक्षा लब्धाः ऋषभेण लोकनाथेन प्रथमतीर्थकृता, शेषैः अजितादिभिः भरतक्षेत्रतीर्थकद्भिः द्वितीयदिवसे लब्धाः प्रथमभिक्षा इति गाथार्थः ॥३१९।। ऋषभस्य त इक्षरसः प्रथमपारणके आसील्लोकनाथस्य, शेषाणाम् अजितादीनां परमं च तदन्नं च परमान्नं पायसलक्षणम्, किंविशिष्टमित्याह- अमृतरसवद रसोपमा यस्य तद् अमृतरसरसोपममासीदिति गाथार्थः ॥३२०॥” इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्रयां वृत्तौ ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 5 महाहरी य विजए य पउमे राया तहेव य । 20 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सू० १५८] [१] जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टीपित होत्था, तंजहा 25 २९४ उसभे सुमित्तविजए समुहविजए य विस्ससेणे य । सूरिते सुदंसणे पउमुत्तर कत्तवीरिए चेव ॥ ११९ ॥ बंभे बारस वुत्ते पिउनामा चक्कवट्टीणं ॥ १२० ।। जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिमायरो होत्था, तंजहा सुमंगला जसवती भद्दा सहदेवा अतिरा सिरि देवी । जाला तारा मेरा वप्पा चुलणी य अपच्छिमा ॥ १२१ ॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टी होत्था तंजहा भरहे सगरे मघवं० [सणंकुमारो य रायसद्दूलो । संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ।। १२२ ।। नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसद्दूलो । जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य ।। १२३ ।।] गाधातो । एतेसि णं बारसहं चक्कवट्टीणं बारस इत्थिरयणा होत्था, तंजहापढमा होइ सुभद्दा, भद्दा सुणंदा जया य विजयाय । कण्हसिरी सूरसिरी, पउमसिरी वसुंधरा देवी । लच्छिमती कुरुमती, इत्थीरतणाण नामाई ॥ १२४॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए नव बलदेव - वासुदेवपितरो होत्था, तंजहा पयावती य बंभे [रुद्दे सोमे सिवे ति त । महसीह अग्गिसीहे, दसरहे नवमे त वसुदेवे ।। १२५ ।।] गाहा । जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए णव वासुदेवमातरो Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ 10 [सू० १५८ चक्रवर्तिपितृ-मातृ-चक्रवर्तिनामानि वासुदेव-बलदेववर्णनम् । होत्था, तंजहामियावती उमा चेव, पुढवी सीया य अम्मया । लच्छिमती सेसमती, केकई देवई इ य ॥१२६।। जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए णव बलदेवमायरो होत्था, तंजहा भद्दा सुभद्दा य सुप्पभा सुदंसणा विजया य वेजयंती । जयंती अपरातिया णवमिया य रोहिणी बलदेवाणं मातरो ॥१२७।। [टी०] तथा-भरहो सगरो मघवं सणंकुमारो य रायसदूलो । संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ।। नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसद्लो । जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य ॥ [आव० नि० ३७४-३७५] तथा- पयावती य बंभो सोमो रुद्दो सिवो महसिवो य । ___ अग्गिसिहा य दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो । [आव० नि० ४११] त्ति। [सू० १५८] [२] जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए नव दसारमंडला होत्था, तंजहा- उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी 15 तेयंसी वच्चंसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूवा सुहसील-सुहाभिगम-सव्वजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अणिहता अपरातिया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमधणा साणुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मितमंजुपलावहसित-गंभीर-मधुरपडिपुण्णसच्चवयणा अब्भुवगयवच्छला सरण्णा लक्खणवंजणगुणोववेता माणुम्माणपमाण- 20 पडिपुण्णसुजातसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागारकंतपियदसणा अमसणा पयंडदंडप्पयारगंभीरदरिसणिजा तालद्धयोव्विद्धगरुलकेऊ महाधणुविकड्ढया महासत्तसागरा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकित्तिपुरिसा विपुलकुलसमुब्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजितरहा १. इतः परं त्रीणि पत्राणि ख० मध्ये न सन्ति ।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे हल-मुसल-कणगपाणी संख-चक्क-गय-सत्ति-णंदगधरा पवरुज्जलसुकंतविमलगोत्थुभतिरीडधारी कुंडलउज्जोवियाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकंठलइतवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरचितपलंबसोभंतकंतविकसंतचित्तवरमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थ5 सुंदरविरतियंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलासियगती सारतनवथणियमधुरगंभीरकोंचनिग्घोसदुंदुभिसरा कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवती नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलग-पीतगवसणा दुवे दुवे राम-केसवा भायरो होत्था, तंजहा10 तिविट्ठ य जाव कण्हे ॥१२८॥ अयले वि० जाव रामे यावि अपच्छिमे ॥१२९॥ एतेसि णं णवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुव्वभविया नव नामधेजा होत्था, तंजहा विस्सभूती पव्वयए धणदत्त समुद्ददत्त सेवाले । पियमित्त ललियमित्ते पुणव्वसू गंगदत्ते य ॥१३०।। एताई नामाइं पुव्वभवे आसि वासुदेवाणं । एत्तो बलदेवाणं जहक्कम कित्तइस्सामि ॥१३१॥ विस्सनंदी सुबंधू य सागरदत्ते असोग ललिए य । वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य ॥१३२॥ 20 एतेसिं णं णवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुव्वभविया नव धम्मायरिया होत्था, तंजहा १.. “तिविद्रू अ दुविठू सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे । तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ।।४०।। अयले विजए भद्दे सुप्पभे अ सुदंसणे । आणंदे णंदणे पउमे रामे आवि अपच्छिमे ॥४१।।” इति संपूर्ण गाथाद्वयम् आवश्यकमूलभाष्ये वर्तते ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ 10 [सू० १५८] वासुदेव-बलदेवादिनामानि । २९७ संभूत सुभद्द सुदंसणे य सेयंस कण्ह गंगदत्ते य । सागर समुद्दनामे दुमसेणे य णवमए ॥१३३।। एते धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुव्वभवे आसिण्हं जत्थ निदाणाई कासी य ॥१३४।। एतेसिं णं णवण्हं वासुदेवाणं पुव्वभवे णव णिदाणभूमीतो होत्था, तंजहा- 5 महरा जाव हत्थिणपुरं च ॥१३५।। एतेसि णं णवण्हं वासुदेवाणं नव णिदाणकारणा होत्था, तंजहागावी जुए जाव मातुका ति य ॥१३६।। एतेसि णं णवण्हं वासुदेवाणं णव पडिसत्तू होत्था, तंजहाअस्सग्गीवे जाव जरासंधे ॥१३७।। एते खलु पडिसत्तू जाव सचक्केहिं ॥१३८॥ एक्को य सत्तमाए पंच य छट्ठीए पंचमा एक्को । एक्को य चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीए ॥१३९।। अणिदाणकडा रामा० [सव्वे वि य केसवा नियाणकडा । उटुंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥१४०॥] गाहा । अटुंतकडा रामा, एगो पुण बंभलोयकप्पम्मि । एक्का से गब्भवसही, सिज्झिस्सति आगमिस्सेणं ॥१४१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे एरवते वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तंजहा चंदाणणं सुचंदं च अग्गिसेणं च नंदिसेणं च । इसिदिण्णं वयहारिं वंदिमो सामचंदं च ॥१४२॥ वंदामि जुत्तिसेणं अजितसेणं तहेव सिवसेणं । बुद्धं च देवसम्म सययं निक्खित्तसत्थं च ॥१४३।। अस्संजलं जिणवसभं वंदे य अणंतई अमियणाणिं । उवसंतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च ॥१४४।। 15 20 25 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अतिपासं च सुपासं देवीसरवंदियं च मरुदेवं । निव्वाणगयं च धरं खीणदुहं सामकोट्टं च ॥१४५।। जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरयमग्गिउत्तं च । वोकसियपेजदोसं च वारिसेणं गतं सिद्धिं ॥१४६।। 5 जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे आगमेसाते उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा भविस्संति, तंजहा मित्तवाहणे सुभूमे य सुप्पभे य सयंपभे । दत्ते सहमे सुबंधू य आगमेसाणं होक्खति ॥१४७।। जंबुद्दीवे णं दीवे [भरहे वासे] आगमेसाते उस्सप्पिणीते दस कुलकरा 10 भविस्संति, तंजहा- विमलवाहणे सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दढधणू दसधणू सयधणू पडिसुई सम्मुई ति । जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे आगपेसाए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थकरा भविस्संति, तंजहा महापउमे १ सुरादेवे २ सुपासे य ३ सयंपभे ४ । 15 सव्वाणुभूती ५ अरहा देवउत्ते य होक्खती ६ ॥१४८।। उदए ७ पेढालपुत्ते य ८ पोट्टिले ९ सतए ति य १० । मुणिसुव्वते य अरहा ११ सव्वभावविदू जिणे १२ ॥१४९।। अममे १३ णिक्कसाए य १४, निप्पुलाए य १५ निम्ममे १६ । चित्तउत्ते १७ समाही य १८ आगमिस्सेण होक्खई ।।१५०।। 20 संवरे १९ अणियट्टी य २०, विवाए २१ विमले ति य २२ । देवोववाए अरहा २३ अणंतविजए ति य २४ ।।१५१।। एते वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली । आगमिस्साण होखंति धम्मतित्थस्स देसगा ॥१५२।। एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं पुव्वभविया चउवीसं नामधेजा 25 भविस्संति, तंजहा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ 5 [ सू० १५८] कुलकर-तीर्थकर-चक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेवादिनामानि । सेणिय सुपास उदए, पोटिल अणगारे तह दढाऊ य । कत्तिय संखे य तहा, णंद सुणंदे सतए य बोधव्वा ॥१५३।। देवई चेव सच्चति तह वासुदेवे बलदेवे । रोहिणि सुलसा चेव य तत्तो खलु रेवती चेव ॥१५४।। तत्तो हवति मिगाली बोधव्वे खलु तहा भयाली य । दीवायणे य कण्हे तत्तो खलु नारए चेव ॥१५५।। अंमडे दारुमडे या सातीबुद्धे य होति बोधव्वे । उस्सप्पिणि आगमेसाए तित्थकराणं तु पुव्वभवा ॥१५६॥ एतेसि णं चउवीसं तित्थकराणं चउवीसं पितरो भविस्संति, चउवीसं मातरो भविस्संति, चउवीसं पढमसीसा भविस्संति, चउवीसं पढमसिस्सिणीतो 10 भविस्संति, चउवीसं पढमभिक्खादा भविस्संति, चउवीसं चेतियरुक्खा भविस्संति । ___ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे आगमेसाए उसप्पिणीए बारस चक्कवट्टी भविस्संति, तंजहाभरहे य दीहदंते गूढदंते य सुद्धदंते य । 15 सिरिउत्ते सिरिभूती सिरिसोमे य सत्तमे ॥१५७॥ पउमे य महापउमे विमलवाहणे विपुलवाहणे चेव । रिटे बारसमे वुत्ते आगमेसा भरहाहिवा ॥१५८।।। एतेसि णं बारसण्हं चक्कवट्टीणं बारस पितरो भविस्संति, बारस मातरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति । 20 जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए णव बलदेव-वासु- । देवपितरो भविस्संति, णव वासुदेवमातरो भविस्संति, णव बलदेवमातरो भविस्संति णव दसारमंडला भविस्संति, तंजहा- उत्तिमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी एवं सो चेव वण्णतो भाणियव्वो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे राम-केसवा भातरो भविस्संति, तंजहा 25 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे णंदे य १ णंदमित्ते २ दीहबाहू ३ तहा महाबाहू ४ । अइबले ५ महब्बले ६ बलभद्दे य सत्तमे ७ ॥१५९।। दुविठू य ८ तिविठू य ९ आगमेसाणं वण्हिणो । जयंते विजए भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे ॥ 5 आणंदे णंदणे पउमे संकरिसणे य अपच्छिमे ॥१६०॥ एतेसि णं नवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुव्वभविया णव नामधेज्जा भविस्संति, णव धम्मायरिया भविस्संति, णव नियाणभूमीओ भविस्संति, णव नियाणकारणा भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, तंजहा तिलए य लोहजंघे वइरजंघे य केसरी य पहराए । 10 अपराजिये य भीमे महाभीमसेणे य सुग्गीवे य अपच्छिमे ॥१६१।। एते खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे य चक्कजोही हम्मिहिंति सचक्केहिं ॥१६२॥ जंबुद्दीवे णं दीवे एरवते वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थकरा भविस्संति, तंजहा15 सुमंगले अत्थसिद्धे य, व्वाणे य महाजसे । धम्मज्झए य अरहा, आगमेसाण होक्खति ॥१६३।। सिरिचंदे पुप्फकेऊ य, महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा, आगमेसाण होक्खती ॥१६४॥ १. तेरापंथिभिः जैन विश्वभारती-लाडनूतः ईसवीये १९८४ वर्षे प्रकाशिते, स्थानकवासिभिश्च ईसवीये २००० वर्षे ब्यावरत: प्रकाशिते समवायाङ्गसूत्रेऽत्र ईदृश: पाठः- “सुमंगले य सिद्धत्थे णिव्वाणे य महाजसे । धम्मज्झए य अरहा आगमिस्साण होक्खई । सिरिचंदे पुप्फकेऊ महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा आगमिस्साण होक्खई । सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली । सच्चसेणे य अरहा आगमिस्साण होक्खई ।। सूरसेणे य अरहा महासेणे य केवली । सव्वाणंदे य अरहा देवउत्ते य होक्खई ।। सुपासे सुव्वए अरहा अरहे य सुकोसले। हा अणंतविजए आगमिस्साण होक्खई ।। विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबले । देवाणंदे य अरहा आगमिस्साण होक्खई ।। एए वुत्ता चउव्वीसं एरवयम्मि केवली । आगमिस्साण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा ॥" २. इत आरभ्य देवउत्ते य होखती' इतिपर्यन्तः पाठः खं० मध्ये द्विर्भूतः ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ सू० १५८] तीर्थकरादिनामानि वासुदेव-बलदेववर्णनादि । सिद्धत्थे पुण्णघोसे य, महाघोसे य केवली । सच्चसेणे य अरहा, अणंतविजए इ य ॥१६५।। सूरसेणे महासेणे, देवसेणे य केवली । सव्वाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खती ॥१६६।। सुपासे सुव्वते अरहा, महासुक्के य सुकोसले । देवाणंदे अरहा अणंतविजए इ य ॥१६७।। विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबलो । देवोववाए अरहा आगमेस्साण होक्खती ॥१६८॥ एए वुत्ता चउव्वीसं, एरवतवासम्मि केवली । आगमेसाण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा ॥१६९॥ बारस चक्कवट्टिपितरो मातरो चक्कवट्टिइत्थीरयणा भविस्संति, नव बलदेववासुदेवपितरो मातरो णव दसारमंडला भविस्संति, तंजहा- उत्तिमपुरिसा जाव रामकेसवा भायरो भविस्संति, नामा, पडिसत्तू, पुव्वभवणामधेजाणि, धम्मायरिया, णिदाणभूमीओ, णिदाणकारणा, आयाए, एरवते आगमेसा भाणियव्वा, एवं दोसु वि आगमेसा भाणियव्वा । 15 [टी०] जंबूदीवेत्यादि । दसारमंडल त्ति । दशाराणां वासुदेवानां मण्डलानि बलदेव-वासुदेवद्वय-द्वयलक्षणाः समुदाया दशारमण्डलानि, अत एव दो दो रामकेसव त्ति वक्ष्यति, दशारमण्डलाव्यतिरिक्तत्वाच्च बलदेव-वासुदेवानां दशारमण्डलानीति 10 १. खं० मध्ये यादृशः पाठ उपलभ्यते सोऽत्र उपन्यस्तः । अणंतविजए इ य इत्ययं पाठः खं० मध्ये १६७ तमे श्लोके पुनरपि दृश्यते । किन्तु एतत्स्थाने आगमेस्साण होक्खती इति पाठोऽत्र यदि भवेत् तदा सर्वं समञ्जसं भवेत्. २४ संख्यापूर्तिरपि च कथञ्चिद् भवेत् । अत्र च समवायाङ्गसूत्रस्य हस्तलिखितादर्शेषु अन्येषु च प्रवचनसारोद्धार-तित्थोगालीप्रकीर्णकादिग्रन्थेषु भूयान् पाठविसंवादो दृश्यते । विस्तरेण एतज्जिज्ञासुभिः श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसं० २०४१ वर्षे [इसवीये १९८५ वर्षे] प्रकाशितेऽस्मत्संपादिते समवायाङ्गसूत्रे तत्रत्यपरिशिष्टे च द्रष्टव्यम् ।। २. जे१,२ मध्येऽत्र ईदृशः पाठः- देवाणंदे अरहा णं विजये विमल उत्तरे ॥१६७॥ अरहा अरहा य महायसे । देवोववाए अरहा आगमेस्साण होक्खती ॥१६८॥ ३. दृश्यतां पृ०२९९ पं०२५ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पूर्वमुद्दिश्यापि दशारमण्डलव्यक्तिभूतानां तेषां विशेषणार्थमाह- तद्यथेत्यादि, तद्यथेति बलदेव-वासुदेवस्वरूपोपन्यासारम्भार्थः, केचित्तु दशारमंडणा इति पठन्ति, तत्र दशाराणां वासुदेवकुलीनप्रजानां मण्डना: शोभाकारिणो दशारमण्डना:, उत्तमपुरुषा इति तीर्थकरादीनां चतुष्पञ्चाशत उत्तमपुरुषाणां मध्यवर्त्तित्वात्, मध्यमपुरुषा: तीर्थकर5 चक्रिणां प्रतिवासुदेवानां च बलाद्यपेक्षया मध्यवर्त्तित्वात्, प्रधानपुरुषास्तात्कालिकपुरुषाणां शौर्यादिभिः प्रधानत्वात्, ओजस्विनो मानसबलोपेतत्वात्, तेजस्विनो दीप्तशरीरत्वात्, वर्चस्विनः शारीरबलोपेतत्वात्, यशस्विन: पराक्रमं प्राप्य प्रसिद्धिप्राप्तत्वात्, छायंसि त्ति प्राकृतत्वात् छायावन्तः शोभमानशरीराः, अत एव कान्ता: कान्तियोगात्, सौम्या अरौद्राकारत्वात्, सुभगा जनवल्लभत्वात्, प्रियदर्शना: 10 चक्षुष्यरूपत्वात्, सुरूपा: समचतुरस्रसंस्थानत्वात्, शुभं सुखं वा सुखकरत्वाच्छीलं स्वभावो येषां ते शुभशीला: सुखशीला वा, सुखेनाभिगम्यन्ते सेव्यन्ते ये शुभशीलत्वादेव ते सुखाभिगम्याः, सर्वजननयनानां कान्ता अभिलाष्या ये ते तथा, तत: पदत्रयस्य कर्मधारयः, ओघबला: प्रवाहबलाः अव्यवच्छिन्नबलत्वात्, अतिबला: शेषपुरुषबलानामतिक्रमात्, महाबला: प्रशस्तबलाः, अनिहता निरुप15 क्रमायुष्कत्वादुरोयुद्धे वा भूम्यामपातित्वात्, अपराजितास्तैरेव शत्रूणां पराजितत्वात्, एतदेवाह- शत्रुमर्दनास्तच्छरीर-तत्सैन्यकदर्थनाद्, रिपुसहस्रमानमथनास्तद्राञ्छितकार्यविघटनात्, सानुक्रोशाः प्रणतेष्वद्रोहकत्वात्, अमत्सरा: परगुणलवस्यापि ग्राहकत्वात्, अचपला मनोवाक्कायस्थैर्यात्, अचण्डा निष्कारणप्रबलकोपरहितत्वात्, मिते परिमिते मञ्जुनी कोमले प्रलापश्च आलापो हसितं च येषां ते मितम प्रलाप20 हसिताः, गम्भीरम् अदर्शितरोष-तोष-शोकादिविकारं मेघनादवद्वा, मधुरं श्रवणसुखकरं प्रतिपूर्णम् अर्थप्रतीतिजनकं सत्यम् अवितथं वचनं वाक्यं येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अभ्युपगतवत्सलाः तत्समर्थनशीलत्वात्, शरण्यास्त्राणकरणे साधुत्वात्, लक्षणानि मानादीनि वज्र-स्वस्तिक-चक्रादीनि वा व्यञ्जनानि तिलक१. 'वादीनां हे२ ।। २. युद्धे बाहुभ्यामपाति अपरा जे२ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ [सू० १५८] वासुदेव-बलदेववर्णनम् । मषादीनि तेषां गुणा महर्द्धिप्राप्त्यादयस्तैरुपअपइताः शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेता युक्ता लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेता:, मानमुदकद्रोणपरिमाणशरीरता, कथम् ?, उदकपूर्णायां द्रोण्यां निविष्टे पुरुषे यज्जलं ततो निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं स्यात् तदा स पुरुषो मानप्राप्त इत्यभिधीयते, उन्मानम् अर्द्धभारपरिमाणता, कथम् ?, तुलारोपितस्य पुरुषस्य यद्यर्द्धभारस्तौल्यं भवति तदाऽसावुन्मानप्राप्त उच्यते, प्रमाणमष्टोत्तरशत- 5 मगुलानामुच्छ्रयः, मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णम् अन्यूनं सुजातमा गर्भाधानात् पालनविधिना सर्वाङ्गसुन्दरं निखिलावयवप्रधानम् अङ्गं शरीरं येषां ते तथा, शशिवत् सौम्याकारमरौद्रमबीभत्सं वा कान्तं दीपं प्रियं जनप्रेमोत्पादकं दर्शनं रूपं येषां ते तथा, अमसण त्ति अमसृणा: प्रयोजनेष्वनलसा: अमर्षणा वा अपराधिष्वकृतक्षमाः, प्रकाण्ड उत्कटो दण्डप्रकार आज्ञाविशेषो नीतिभेदविशेषो वा 10 येषां ते तथा, अथवा प्रचण्डो दुःसाध्यसाधकत्वाद् दण्डप्रचारः सैन्यविचरणं येषां ते तथा, गम्भीरा अलक्ष्यमाणान्तर्वृत्तित्वेन दृश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनीयाः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, प्रचण्डदण्डप्रचारेण वा ये गम्भीरा दृश्यन्ते, तथा तालस्तलो वा वृक्षविशेषो ध्वजो येषां ते तालध्वजा: बलदेवाः, उद्विद्धः उच्छ्रितो गरुडलक्षितः केतुः ध्वजो येषां ते उद्विद्धगरुडकेतवो वासुदेवाः, तालध्वजाश्च उद्विद्धगरुडकेतवश्च 15 तालध्वजोद्विद्धगरुडकेतवः, महाधनुर्विकर्षका: महाप्राणत्वात्, महासत्त्वलक्षणजलस्य सागरा इव सागरा आश्रयत्वान्महासत्त्वसागराः, दुर्द्धरा रणाङ्गणे तेषां प्रहरतां केनापि धन्विना धारयितुमशक्यत्वात्, धनुर्धरा: कोदण्डप्रहरणाः, धीरेष्वेव ते पुरुषाः पुरुषकारवन्तो न कातरेष्विति धीरपुरुषाः, युद्धजनिता या कीर्तिस्तत्प्रधानाः पुरुषा युद्धकीर्तिपुरुषाः, विपुलकुलसमुद्भवा इति प्रतीतम्, महारत्नं वज्रं तस्य 20 महाप्राणतया विघटका अगुष्ठ-तर्जनीभ्यां चूर्णका महारत्नविघटकाः, वज्रं हि १. “७१. अचोऽन्त्यादि टि ।१।१।६४। अचां मध्ये योऽन्त्यः स आदिर्यस्य तट्टिसंज्ञं स्यात् ।। शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ।। तच्च टे: ।। शकन्धुः । कर्कन्धुः। कुलटा । (ग) सीमन्तः केशवेशे ॥ सीमान्तोऽन्यः । मनीषा। हलीषा । लाङ्गलीषा । पतञ्जलि: । सारङ्गः पशु-पक्षिणोः । सारङ्गोऽन्यः ।। आकृतिगणोऽयम् ।। मार्तण्डः ।।" इति पा० सिद्धान्तकौमुद्याम् ।। २. दीप्तं जे२ हे२ ।। ३. वा नास्ति जे१.२ हे१ ।। ४. इत: खं० प्रतेः प्रारम्भः॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अधिकरण्यां धृत्वा अयोघनेनाऽऽस्फोट्यते न च भिद्यते तावेव च भित्तीति दुर्भेदं तदिति, अथवा महती या आरचना सागर - शकटव्यूहादिना प्रकारेण सिसङ्ग्रामयिषोर्महासैन्यस्य तां रणरङ्गरसिकतया महाबलतया च विघटयन्ति वियोजयन्ति ये ते महारचनाविघटकाः, पाठान्तरेण तु महारणविघटकाः, 5 अर्द्धभरतस्वामिनः, सौम्या नीरुजा राजकुलवंशतिलका: अजिता: अजितरथाः, हलमुशल-कणकपाणयः, तत्र हल - मुशले प्रतीते, ते प्रहरणतया पाणौ हस्ते येषां ते बलदेवाः, येषां तु कणका बाणा: पाणौ ते शार्ङ्गधन्वानो वासुदेवाः, शंखश्च पञ्चजन्याभिधानः चक्रं च सुदर्शननामकं गदा च कौमोदकीसंज्ञा लकुटविशेषः शक्तिश्च त्रिशूलविशेषो नन्दकश्च नन्दकाभिधानः खड्गः, तान् धारयन्तीति शंख-चक्र-गदा10 शक्ति-नन्दकधराः वासुदेवाः, प्रवरो वरप्रभावयोगादुज्ज्वलः शुक्लत्वात् स्वच्छतया वा, सुकान्तः कान्तियोगात्, पाठान्तरे सुकृतः सुपरिकर्म्मितत्वात्, विमलो मलवर्जितत्वात्, गोत्थुभ त्ति कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषस्तं तिरीडं ति किरीटं च मुकुटं धारयन्ति ये ते तथा, कुण्डलोद्योतिताननाः, पुण्डरीकवन्नयने येषां ते तथा, एकावली आभरणविशेषः सा कण्ठे ग्रीवायां लगिता विलम्बिता सती वक्षसि 15 उरसि वर्त्तते येषां ते एकावलीकण्ठलगितवक्षसः, श्रीवृक्षाभिधानं सुष्ठु लाञ्छनं महापुरुषत्वसूचकं वक्षसि येषां ते श्रीवृक्षलाञ्छनाः, वरयशसः सर्वत्र विख्यातत्वात्, सर्वर्तुकानि सर्वऋतुसंभवानि सुरभीणि सुगन्धीनि यानि कुसुमानि तैः सुरचिता कृता या प्रलम्बा आप्रपदीना सोभंत त्ति शोभमाना कान्ता कमनीया विकसन्ती फुल्लन्ती चित्रा पञ्चवर्णा वरा प्रधाना माला स्रक् रचिता निहिता रतिदा वा सुखकारिका 20 वक्षसि येषां ते सर्वर्तुकसुरभिकुसुमसुरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसच्चित्रवरमालारचितवक्षसः, तथा अष्टशतसंख्यानि विभक्तानि विविक्तरूपाणि यानि लक्षणानि चक्रादीनि तैः प्रशस्तानि मङ्गल्यानि सुन्दराणि च मनोहराणि विरचितानि विहितानि अंगमंग त्ति अङ्गोपाङ्गानि शिरोऽङ्गुल्यादीनि येषां ते अष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविरचिताङ्गोपाङ्गाः, तथा मत्तगजवरेन्द्रस्य यो १. तावेव अधिकरण्ययोघनावेव इत्यर्थः ॥ ३०४ 9 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृ० १५८] वासुदेव-बलदेववर्णनम् । ३०५ ललितो मनोहरो विक्रमः संचरणं तद्वद्विलासिता संजातविलासा गति: गमनं येषां ते मत्तगजवरेन्द्रललितविक्रमविलासितगतयः, तथा शरदि भवः शारदः स चासौ नवं स्तनितं रसितं यस्मिन्नि?षे स नवस्तनित: स चेति समासः, स चासौ मधुरो गम्भीरश्च यः क्रौञ्चनिर्घोषः पक्षिविशेषनिनादस्तद्वद् दुन्दुभिस्वरवच्च स्वरो नादो येषां ते शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरक्रौञ्चनिर्घोषदुन्दुभिस्वराः, इह च शरत्काले हि 5 क्रौञ्चा माद्यन्ति मधुरध्वनयश्च भवन्तीति शारदग्रहणम्, तथा पौन:पुण्येन शब्दप्रवृत्तौ तद्भङ्गादमनोज्ञता तस्य स्यादिति नवस्तनितग्रहणं स्वरूपोपदर्शनार्थं तु मधुरगम्भीरग्रहणमिति, तथा कटीसूत्रकम् आभरणविशेषस्तत्प्रधानानि नीलानि बलदेवानां पीतानि वासुदेवानां कौशेयकानि वस्त्रविशेषभूतानि वासांसि वसनानि येषां ते कटीसूत्रकनीलपीतकौशेयवाससः, प्रवरदीप्ततेजसो वरप्रभावतया वरदीप्तितया 10 च, नरसिंहा विक्रमयोगात्, नरपतयः तन्नायकत्वात्, नरेन्द्रा: परमैश्वर्ययोगात्, नरवृषभा उत्क्षिप्तकार्यभरनिर्वाहकत्वात्, मरुवृषभकल्पा: देवराजोपमाः, अभ्यधिकं शेषराजेभ्यः राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः, नीलकपीतकवसना इति पुनर्भणनं निगमनार्थम्, कथं ते नवेत्याह- दुवे दुवे इत्यादि, एवं च नव वासुदेवा नव बलदेवा इति, तिविट्ठ य यावत्करणात् दुविठू य सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे। 15 तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ।। [आव० भा० ४०] त्ति, अयले विजये भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आनंदे णंदणे पउमे रामे आवि अपच्छिमे ।। [आव० भा० ४१] त्ति । कित्तीपुरिसाणं ति कीर्तिप्रधानपुरुषाणामिति ।।१३४।। महुरा य कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च रायगिहं । कायंदी कोसंबी मिहिलपुरी हत्थिणपुरं च ॥ [आव० प्र० ] तथा- गावी जुए संगामे तह इत्थी पराइओ रंगे । भजाणुराग गोट्ठी परइड्डी माउया इ य ॥ [आव० प्र० ] त्ति । 20 १. च मधुर' खं० ॥ २. आवश्यकनिर्युक्तौ प्रक्षिप्तेयं गाथा ।। ३. य जुए खं० हे१ ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे 5 तथा- अस्सग्गीवे तारए मेरए महुकेढवे निसुंभे य । बलि पहराए तह रावणे य नवमे जरासंधे ॥ [आव० भा० ४२] त्ति । एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे वि चक्कजोही सव्वे वि हया सचक्केहिं ।। [आव० भा० ४३] ति । अणियाणकडा रामा सव्वे वि य केसवा नियाणकडा । उड्ढंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ।। [आव० नि० ४१५] ति । आगमिस्सेणं ति आगमिष्यता कालेन आगमेस्साणं ति पाठान्तरे आगमिष्यतां भविष्यतां मध्ये सेत्स्यतीति ॥१४१।। जम्बूद्वीपैरवते अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकरा अभूवन्, तांश्च 10 स्तुतिद्वारेणाह- चंदाणणं गाहा । चन्द्राननं १ सुचन्द्रं च २ अग्निसेनं च ३ नन्दिषेणं च ४ । क्वचिदात्मसेनोऽयं दृश्यते । ऋषिदिन्नं च ५ व्रतधारिणं च ६ वन्दामहे श्यामचन्द्रं च ७ ॥१४२॥ ___वंदामि गाहा, वन्दे युक्तिसेनं क्वचिदयं दीर्घबाहुर्दीघसेनो वोच्यते ८, अजितसेनं क्वचिदयं शतायुरुच्यते ९, तथैव शिवसेनं क्वचिदयं सत्यसेनोऽभिधीयते सत्यकिश्चेति 15 १०, बुद्धं चावगततत्त्वं च देवशर्माणं देवसेनापरनामकं ११, सततं सदा वन्दे इति प्रकृतम्, निक्षिप्तशस्त्रं च नामान्तरतः श्रेयांसम् १२ ।।१४३।। असंजलं गाहा, असंज्वलं जिनवृषभं पाठान्तरेण अस्वयंज्वलं १३, वन्दे अनन्तजितममितज्ञानिनं सर्वज्ञमित्यर्थः, नामान्तरेणायं सिंहसेन इति १४, उपशान्तं १. रामणे जे१,२ हे१,२ ।। २. संध त्ति जे१ खमू० । 'संधु त्ति खंसं० ॥ ३ “एते खलु प्रतिशत्रवः, एते एव. खलुशब्दस्य अवधारणार्थत्वात्, नान्ये, कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम्, सर्वे चक्रयोधिनः, सर्वे च हता: स्वचक्रैरिति, यतस्तान्येव तच्चक्राणि वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि तैः पुण्योदयात् वासुदेवं प्रणम्य तानेव व्यापादयन्ति इति गाथार्थः ॥४३।। अनिदानकृतो रामाः, सर्वे अपि च केशवा निदानकृतः, ऊर्ध्वगामिनो रामाः, केशवाः सर्वे अधोगामिनः । भावार्थः सुगमः, नवरं प्राकतशैल्या पूर्वापरनिपातः अनिदानकता रामा: इति, अन्यथा अकृतनिदाना रामा इति द्रष्टव्यम्, केशवास्तु कृतनिदाना इति गाथार्थः ॥४१५।।'' इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ ।। ४. सचक्केण । अणि जे२ ॥ ५. 'गामि त्ति जे१ ।। ६. सेत्स्यंतीति खं० ।। ७. नंदिसेणं जे२ हे२ ।। ८. 'सेनो दृश्यते जे२ ।। ९. च नास्ति जे१,२ हे१,२ ॥ १०. अनन्तजिनम जे२ हे१ । अनन्तकं तं जिनम हे२ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५९] तीर्थकरनामादि । ३०७ च उपशान्तसंज्ञं धूतरजसं १५ वन्दे खलु गुप्तिसेनं च १६ ।।१४४।। ___ अइपासं गाहा, अतिपाद्यं च १७ सुपार्श्व १८ देवेश्वरवन्दितं च मरुदेवं १९ निर्वाणगतं च धरं धरसंज्ञं २० क्षीणदुःखं श्यामकोष्ठं च २१ ॥१४५॥ ___ जिय गाहा, जितरागमग्निसेनं महासेनापरनामकं २२ वन्दे क्षीणरजसमग्निपुत्रं च २३ व्यवकृष्टप्रेमद्वेषं च वारिषेणं २४ गतं सिद्धिमिति, स्थानान्तरे 5 किञ्चिदन्यथाप्यानुपूर्वी नाम्नामुपलभ्यते ।।१४६।।। __ महापद्मादयो विजयान्ताश्चतुर्विंशतिः ।।१४८।। एवमिदं सर्वं सुगम ग्रन्थसमाप्ति यावत्, नवरम् आयाए त्ति बलदेवादेरायातं देवलोकादेच्युतस्य मनुष्येषूत्पादः सिद्धिश्च यथा रामस्येति, एवं दोसु वि त्ति भरतैरावतयोरागमिष्यन्तो वासुदेवादयो भणितव्याः। सू० १५९] इच्चेतं एवमाहिज्जति, तंजहा- कुलगरवंसे ति य एवं तित्थगरवंसे 10 ति य चक्कवहिवंसे ति य दसारवंसे ति य गणधरवंसे ति य इसिवंसे ति य जतिवंसे ति य मुणिवंसे ति य सुते ति वा सुतंगे ति वा सुतसमासे ति वा सुतखंधे ति वा समाए ति वा संखेति वा । समत्तमंगमक्खायं, अज्झयणं ति त्ति बेमि ॥ ॥ समवाओ चउत्थमंगं सम्मत्तं ॥ ग्रं० १६६७॥ 15 [टी०] इत्यमेवमनेकधाऽर्थानुपदाधिकृतग्रन्थस्य यथार्थान्यभिधानानि दर्शयितुमाहइत्येतदधिकृतशास्त्रमेवमनेनाभिधानप्रकारेणाऽऽख्यायते अभिधीयते, तद्यथाकुलकरवंशस्य तत्प्रवाहस्य प्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इति च, इतिरुपदर्शने, चशब्दः समुच्चये, एवं तित्थगरवंसे इ य त्ति यथा देशेन कुलकरवंशप्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इत्येतदाख्यायते एवं देशतस्तीर्थकरवंशप्रतिपादकत्वात् तीर्थकरवंश इति 20 च आख्यायते एतदिति, एवं चक्रवर्तिवंश इति च दशारवंश इति च गणधरवंश इति च, गणधरव्यतिरिक्ता: शेषा जिनशिष्या ऋषयस्तद्वंशप्रतिपादकत्वादृषिवंश इति च, तत्प्रतिपादनं चात्र पर्युषणाकल्पस्य समस्तस्य ऋषिवंशपर्यवसानस्य समवसरणप्रक्रमेण भणितत्वादत एव यतिवंशो मुनिवंशश्चैतदुच्यते, यति-मुनिशब्दयोः १. सिद्धिश्च यथा रामस्येति नास्ति जे२ हे१ । जे१ मध्ये पत्रं त्रुटितम् ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ऋषिपर्यायत्वात्, तथा श्रुतमिति वैतदाख्यायते, परोक्षतया त्रैकालिकार्थावबोधनसहत्वादस्य, तथा श्रुताङ्गमिति वा श्रुतस्य प्रवचनस्य पुरुषरूपस्याङ्गम् अवयव इति कृत्वा, तथा श्रुतसमास इति [वा] समस्तसूत्रार्थानामिह संक्षेपेणाभिधानात्, श्रुतस्कन्ध इति वा श्रुतांशसमुदायरूपत्वादस्य, समाए इ व त्ति समवाय इति वा, 5 समस्तानां जीवादिपदार्थानामभिधेयतयेह समवायनात् मीलनादित्यर्थः, तथा एकादि संख्याप्रधानतया पदार्थप्रतिपादनपरत्वादस्य संख्येति वाऽऽख्यायते, तथा समस्तं परिपूर्णं तदेतदङ्गमाख्यातं भगवता, नेह श्रुतस्कन्धद्वयादिखण्डनेनाचारादाविवागतेति भावः, तथा अज्झयणं ति त्ति समस्तमेतदध्ययनमित्याख्यातं नेहोद्देशकादिखण्डनाऽस्ति शस्त्रपरिज्ञादिष्विवेति भावः, इतिशब्दः समाप्तौ । बेमि त्ति किल सुधर्मस्वामी 10 जम्बूस्वामिनं प्रत्याह स्म, ब्रवीमि प्रतिपादयामि एतत् श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनः समीपे यदवधारितमित्यनेन गुरुपारम्पर्यमर्थस्य प्रतिपादितं भवति, एवं च शिष्यस्य ग्रन्थे गौरवबुद्धिरुपजनिता भवति, आत्मनश्च गुरुषु बहुमानो दर्शित औद्धत्यं च परिहृतम्, अयमेवार्थः शिष्यस्य सम्पादितो भवति मुमुक्षूणां चायं मार्ग इत्यावेदितमिति समवायाख्य चतुर्थमङ्गं वृत्तितः समाप्तम् ।। नमः श्रीवीराय प्रवरवरपार्थाय च नमो नमः श्रीवाग्देव्यै वरकविसभाया अपि नमः । नमः श्रीसङ्घाय स्फुटगुणगुरुभ्योऽपि च नमो नमः सर्वस्मै च प्रकृतविधिसाहायककृते ।।१।। यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैश्चलुकाकृतिं निदधत: कालादिदोषात्तथा, दर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः ? ।।२।। 20 १. व्याख्यायत खं० । जे१ मध्ये पत्रं खण्डितम् ।। २. सदेत' जे२ हे१,२ ॥ ३. “सहायाद्वा' - सि० ७।०६२। “योपान्त्याद् गुरूपोत्तमादसुप्रख्यादकञ्' - सि० ७/११७२। ।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ [सू० १५१] टीकाकृद्विरचिता प्रशस्तिः । स्वं कष्टेऽतिनिधाय कष्टमधिकं मा मेऽन्यदा जायताम्, व्याख्यानेऽस्य तथा विवेक्तुमनसामल्पश्रुतानाममुम् । इत्यालोचयता तथापि किमपि प्रोक्तं मया तत्र च, दर्व्याख्यानविशोधनं विदधतु प्राज्ञाः परार्थोद्यताः ।।३।। इह वचसि विरोधो नास्ति सर्वज्ञवाक्त्वात्, वचन तदवभासो यः स मान्द्यान्नृबुद्धेः। 5 वरगुरुविरहाद्वाऽतीतकाले मुनीशैर्गणधरवचनानां सस्तसङ्घातनाद्वा ॥४॥ व्याख्यानं यद्यपीदं प्रवरकविवच:पारतन्त्र्येण दृब्धम् सम्भाव्योऽस्मिंस्तथापि क्वचिदपि मनसो मोहतोऽर्थादिभेदः । किन्तु श्रीसङ्घबुद्धेरनुसरणविधेर्भावशुद्धेश्च दोषो मा मेऽभूदल्पकोऽपि प्रशमपरमना अस्तु देवी श्रुतस्य ।।५।। 10 निःसम्बद्धविहारहारिचरितान् श्रीवर्द्धमानाभिधान् सूरीन ध्यातवतोऽतितीव्रतपसो ग्रन्थप्रणीतिप्रभोः । श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य जयिनो दप्पीयसां वाग्ग्मिनाम, तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि ।।६।। शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । श्रीमतः समवायाख्यतुर्याङ्गस्य समासतः ॥७।। एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिलपाटकनगरे रचिता समवायटीकेयम् ।।८।। प्रत्यक्षरं निरूप्यास्या: ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । त्रीणि श्लोकसहस्राणि, पादन्यूना च षट्शती ॥९॥ 15 १. श्रस्त खं० हे१,२ ।। २. स्ताच्च देवी जे२ हे१ ।। ३. विहारिहारि' खं० । जे१ मध्ये पत्रं खण्डितम्॥ ४. विवृत्तिः जे१,२ । ख० मध्ये पत्रं खण्डितम् ।। ५. स्राणि पादन्यूनानि जे१ खंमू० । स्राणि पादन्यूना च खसं० ।। ६ पादोनाष्टशती तथा । ग्रंथाग्रं ३७७५ । शुभं भवतु श्री मणसंघस्य हे२ ।। हे२ = अणहिलपुरपत्तने [ = पाटणनगरे] श्रीहेमचन्द्राचार्यज्ञानमन्दिरे ९९९७ ग्रन्थक्रमाङ्के विद्यमानः कागजपत्रोपरिलिखित आदर्शः । पत्रसंख्या १-६९ । अयमादर्शः षोडशे वैक्रमे शतके लिखितः प्रतिभाति ।। ७ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥ श्री कल्याणमस्तु Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे लेखकप्रशस्त्यादि । श्रीरस्तु ग्रंथाग्रं ३५७५ १ ।। हे१ = पूर्वं वाडीपार्श्वनाथभण्डारसत्कः सम्प्रति तु उपरि निर्दिष्टे श्रीहेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमन्दिरे ६८९७ ग्रन्थक्रमाङ्के विद्यमान: कागजपत्रोपरि लिखित आदर्श: । पत्रसंख्या १-८४ । अयमपि षोडशे वैक्रमे शतके लिखितः प्रतिभाति ॥ ३१० खं० मध्ये इतः परं महती प्रशस्तिर्वर्तते, तद्यथा- " नमः श्रीवर्धमानाय वर्धमानाय वेदसा । वेदसार पर ब्रह्म ब्रह्मबद्धस्थितिश्च यः ||१|| स्वबीजमुप्तं कृतिभिः कृषीवलैः क्षेत्रे सुसिक्तं शुभभाववारिणा । क्रियेत यस्मिन् सफलं शिवश्रिया पुरं तदत्रास्ति दयावटाभिधम् ||२ || ख्यातस्तत्रास्ति वस्तुप्रगुणगणः प्राणिरक्षैकदक्षः । सज्ज्ञाने लब्धलक्ष्यो जिनवचनरुचिश्चंचदुच्चैश्चरित्रः । पात्रं पात्रैकचूडामणिजिनसुगुरूपासनावासनायाः । संघः सुश्रावकाणां सुकृतमतिरमी सन्ति तत्रापि मुख्याः ||३|| होनाकः सज्जनज्येष्ठः श्रेष्ठी कुमरसिंहकः । सोमाकः श्रावकः श्रेष्ठः शिष्टधीररिसिंहकः ||४|| कडुयाकञ्च सुश्रेष्ठी सांगाक इति सत्तमः । खीम्वाकः सुहडाकश्च धर्मकर्मैककर्मठः ||५|| एतन्मुखः श्रावकसंघ एषोऽन्यदा वदान्यो जिनशासनज्ञः । सदा सदाचारविचारचारुक्रियासमाचारशुचिव्रतानाम् ||६|| श्रीमज्जगच्चन्द्रमुनीन्द्रशिष्यश्री पूज्य देवेन्द्रमुनीश्वराणाम् । तदाद्यशिष्यत्वभृतां च विद्यानन्दाख्यविख्यातमुनिप्रभूणाम् ||७|| तथा गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां श्रीधर्मघोषाभिधसूरिराजाम् । सदेशनामेवमपापभावां शुश्राव भावावनतोत्तमांगः ||८|| विषयसुखपिपासोर्गेहिनः क्वास्ति शीलं करणवशगतस्य स्यात् तपो वाऽपि कीदृक् । अनवरतमदभ्रारम्भिणो भावना: कस्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः || ९ || किंच - धर्मः स्फूर्जति दानमेव गृहिणां ज्ञानाभयोपग्रहैस्त्रेधा तद्वरमाद्यमत्र यदितो निःशेषदानोदयः । ज्ञानं चाद्य न पुस्तकैर्विरहितं दातुं च लातुं च वा शक्यं पुस्तकलेखनेन कृतिभिः कार्यस्तदर्थोऽर्थवान् ||१०|| श्रुत्वेति संघसमवायविधीयमानज्ञानार्चनोद्भवधनेन मिथः प्रवृद्धिम । नीतेन पुस्तकमिदं श्रुतक्रोशवृद्ध्यै बद्धादरश्चिरमलेखयदेष हृष्टः || ११|| यावज्जिनमतभानुः प्रकाशिताशेषवस्तुविचार: । जगति जयतीह पुस्तकमिदं बुधैर्वाच्यतां तावत् ॥१२॥ संवत् १३४९ वर्षे माघ शुदि १३ अद्येह दयावटे श्रे० होना श्रे० कुमरसीह श्रे० सोमप्रभृतिसंघसमवायसमारब्धपुस्तकभांडागारे ले० सीहाकेन श्रीसमवायवृत्तिपुस्तकं लिखितम् ॥ छ।" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० प्रथमं परिशिष्टम् । श्री समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः । गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः अइबले ५ महब्बले ६ ३०० अप्पणो य अबोहीए १०२ इसिदिण्णं वयहारि २९७ अंतोधूमेण मारेइ १०० अबभयारी जे केइ १०१ | इस्सरेण अदुवा गामेण १०१ अंतो नदंत मारेइ १०० अबहुस्सुए य जे केइ १०२ ईसादोसेण आइढे १०१ अंबे अंबरिसी चेव ५६ अब्भुवगमुवक्कमिया २७५ उक्खित्तणाए १ संघाडे २ ७२ अंमडे दारुमडे या २९९ अभयकर णिव्वुतिकरी २८८ उग्गाणं भोगाणं २८८ अकुमारभूए जे केइ अममे णिक्कसाए २९८ उड्ढुंगामी रामा केसव २९७ अक्खीणझझे पुरिसे अयले वि जाव २९६ उत्तरे य २४ दिसाई य २५ ६२ अटुंतकडा रामा २९७ अरुणप्पभ सूरप्पभ २८७ उदएणक्कम्म मारेति १०० अट्टारस सोलसगं २५९ अवसेसा तित्थकरा २८८ उदए ७ पेढालपुत्ते य ८ २९८ अणंतरा य आहारे २७६ असच्चवाई णिण्हाई १०० उदितोदितकुलवंसा २८७ अणागयस्स नयवं १०१ असिपत्ते धणु कुम्भे ५६ उदितोदितकुलवंसा २९० अणिदाणकडा रामा २९७ अस्संजलं जिणवसभं २९७ | उदितोदितकुलवंसा २९० अणिस्सितोवहाणे य ४ ११६ अस्सग्गीवे जाव २९७ उप्पायपुव्वमग्गेणियं अण्णाणी जिणपूयट्ठी १०३ आगमिस्साण होक्खंति २९८ उवगसंतं पि झंपिता १०१ अण्णातता ५ अलोभे य १०३ |आगमेसाण होक्खंति ३०१ उवट्ठियं पडिविरयं अतवस्सिए य जे केइ १०२ आणंदे णंदणे पउमे ३०० उवसंतं च धुयरयं अतिपासं च सुपासं २९८ आणय-पाणयकप्पे २६० उवहि सुय भत्तपाणे ४३ अत्तदोसोवसंहारे २१ ११६ आतिल्लाण चउण्हं २४९ उसभस्स पढमभिक्खा २८९ अत्थीणत्थिपवायं ५२ आयरियउवज्झाएहिं ___ १०२ उसभे सुमित्तविजये अत्थे य ११ सूरियावत्ते ६२ आयरियउवज्झायाणं १०२ उसभो य विणीताए २८८ अद्दीणसत्तु संखे २८७ आराहणा य मरणंते ११६ उस्सप्पिणि आगमेसाए २९९ अदुवा तुममकासि त्ति १०१ आलोयणा १ निरवलावे २११६ एए वुत्ता चउव्वीसं ३०१ अपराजिये य भीमे आवंती धुतं विमोहायणं ३० एक्का से गब्भवसही २९७ अपरातिय वीससेणे २८९ | आसीयं बत्तीसं २५९ एक्कारसुत्तरं हेट्टिमेसु २६० अपस्समाणो पस्सामि १०३ इड्डी जुती जसो वण्णो १०३ | एक्को भगवं वीरो पासो २८८ अप्पडिपूयए थद्धे १०२ इत्थीविसयगेहीए १०१ एक्को य चउत्थीए २९७ अप्पणो अहिए बाले १०१ इत्थीहिं गिद्धे वसए १०१ एक्को य सत्तमाए २९४ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः । ܟܘ ܀ गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः एताई नामाई २९६ चलचवलकुंडलधरा २८८ | तं तिप्पयंतो भावति १०२ एतातो सीयातो सव्वेसिं २८८ चारू य वजणाभे २९० तत्तो किरियविसालं एते खलु पडिसत्तू २९७ चित्तउत्ते १७ समाही य २९८ तत्तो पसेणईए एते खलु पडिसत्तू ३०० चित्तरसा मणियंगा ३४ तत्तो य णंदणे खलु एते छण्णक्खत्ता ५७ छण्हं पि जुगलयाणं १६९ तत्तो य धम्मसीहे एते छन्नक्खत्ता ५३८ छह पि जुवलयाण २६० तत्तो य धम्मसाह एते धम्मायरिया २९७ जं निस्सिए उव्वहती १०१ तत्तो हवति मिगाली एते विसुद्धलेसा २८९ जक्खिणी पुप्फचूला य २९० तस्स लुब्भइ वित्तम्मि एते वुत्ता चउव्वीस २९८ जयती अपरातिया णवमिया २९५ तस्स संपग्गहीयस्स एत्तो बलदेवाणं २९६ जयंते विजए भद्दे ३०० तहियं वसुधारातो २८९ एयारिस नरं हता १०२ जयनामो य नरवई २९४ तहेवाणतणाणीणं ओसप्पिणीए एते २८७ जाणमाणो परिसओ १०१ तित्थप्पवत्तयाणं एते ओहिस्स वड्डी हाणी २७१ जायतेयं समारब्भ १०० तित्थप्पवत्तयाणं पढमा २९० कक्कसणे भीमसेणे २८६ जाला तारा मेरा २९४ तित्थप्पवत्तयाणं पढमा २९० कण्हसिरी सूरसिरी २९४ | जियरागमग्गिसेणं वंदे २९८ तिण्णेग पंचूर्ण कत्तिय संखे य तहा २९९ जे अंतराय चेएइ १०१ तिण्णेव गाउयाई कम्मप्पवायपुव्वं ८२ जे कहाहिगरणाई १०२ तिन्नेव उत्तराई कयवम्मा सीहसणे य २८६ जे नायगं व रहस्स १०१ तिला य लोहजंघे कितिकम्मम्स य करणे ४३ जे य आहम्मिए जोए १०२ तिविट्ट य जाव खरस्सरे महाघोसे ६ जे य माणुस्सए भोए १०३ तिव्वे सुभ समायरे १०० गद्दभे व्व गवं मझे १०१ जे यावि तसे पाणे १०० तीसा पुण तेरसमे गावी जुए जाव २९७ / झाणसंवर जोगे य ११६ तीसा य पण्णवीसा २७१ गूढायारी निगृहेज्जा १०० णंदिरुक्खे तिलए २८९ तुबे अ६ रोहिणी 5 मल्ली ७० चंदजस चंद [कंता २८६ पांदे य १ णंदमित्ते २ ३०० तेंदुग पाडलि जंबू चेदाणणं सुचंद २९७ ण य णाम अण्णलिंगे २८८ ते चेव खिसती बाले १०२ चपय बउले य तहा २८९ णग्गोह सत्तिवणे साले २८९ तेऽतिप्पयतो आसयति ५०३ चउसट्ठी असुराणं २६० णाभी जियसत्तू या २८६ तेसिं अवण्णिम बाले १०२ चउसिर तिगुत्तं ४३ णिच्चोउगो असोगो २८९ तेसिं अवण्णिमं बाले १०३ चउहि सहस्सेहि २८८ णिधयो पुरिसज्जाया २१८ दत्ते सुहुम सुबंधू य २९८ चत्तारि दवालस अट्ट २४९ तं कालं तं समय २८९ दस चोइस अदृट्टारसेव २४९ N०००० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । ० ० ० ४३ MWG 0 गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः दायणे य निकाए य ४३ पढमेत्थ उसभसेणे २९० भरहे सगरे मघवं २९४ दावद्दवे ११ उदगणाते १२ ७२ पढमेत्थ वतिरणाभे २८७ भिसए य इंद कुंभे दिण्णे य इंददिण्णे २८७ पढमेत्थ विमलवाहण २८६ | भेदे विसय संठाणे २७१ दिण्णे वरदत्ते धन्ने २८९ पण्णा चत्तालीसा छच्च २६० | भोगभोगे वियारेति १०१ दिण्णे वाराहे पुण २९० पभू ण कुणई किच्चं १०२ मंदर जसे अरिट्टे २९० दीव-दिसा-उदधीणं २६० पयावती य बंभे २९४ मंदर १ मेरु २ मणोरम ३ ६२ दीव-दिसा-उदहीणं १६९ पलियंक १५ निसिज्जा य ६९ मत्तंगया य भिंगा ३४ दीवायणे य कण्हे २९९ पाणिणा संपहित्ताणं १०० मरुदेवा विजयसेणा २८७ दओणय जहाजायं पासो मल्ली वि य अट्ठमण २८८ महसीह अग्गिसीहे २९४ दुविट्ट य ८ तिविट्ट य ९ ३०० पियमित्त ललियमित्ते २९६ महापउमे १ सुरादेवे २ २९८ देवई चेव सच्चति २९९ पुणो पुणो पणिहीए १०० महाहरी य विजए य २९४ देवकुरु उत्तरकुरा २८८ पुरतो वहंति देवा २८८ महुरा जाव हत्थिणपुरं २९७ देवाणंदे अरहा ३०१ पुव्वभवे आसिण्हं २९७ मिगसिर अद्दा पूसो देवोववाए अरहा २३ पव्विं उक्खित्ता २८८ मित्तदामे सुदामे य २८६ देवोववाए अरहा ३०१ पुस्से पुणव्वसू पूण वंदे २८९ मित्तवाहणे सुभूमे य २९८ धंसेइ जो अभूयेणं १०१ पुहई लक्खण रामा २८७ मियावती उमा चेव २९५ धम्मज्झए य अरहा ३०० पोग्गला नेव जाणंति २७६ मुणिसुव्वते य अरहा ११ २९८ धितीमती य १६ संवेगे ११६ फलेणं अदव दंडेणं १०० मेहे धरे पइटे य २८६ नंदिफले १५ अवरकंका ७२ बंधू पुप्फवती चेव २९० रयणुच्चय ७ पियदसण ८ ६२ नवमो य महापउमो २९४ बंभी फग्गू सम्मा २९० राया य आससेणे २८६ नेयाउयस्स मग्गस्स १०२ बंभे बारसमे वुत्ते २९४ | रिट्ठे बारसमे वुत्ते २९९ निव्वाणगयं च धरं २९७ बत्तीसतिं धणूई रुद्दोवरुद्द काले य ५६ पउमा सिवा सुयी २९० बत्तीसऽट्ठावीसा बारस २६० रोहिणि सुलसा चेव य २९९ पउमावती य वप्पा २८७ बहुजणस्स णेयारं १०२ लच्छिमती कुरुमती २९४ पउमे य महापउमे २९९ बारस एक्कारसमे २४९ लच्छिमती सेसमती २९५ पउमे य सोमदेवे २८९ बावत्तरि सुवण्णाण २६० वंदामि जुत्तिसेणं पच्चक्खाणे विओसग्गो ११६ बुद्धं च देवसम्म | वयछक्कं ६ कायछक्कं १२ ६९ पच्चत्थिमेण असुरा २८८ भगवं पि वासुपुज्जो २८८ वाराह धम्मसेणे २९६ पच्छा वहति सीयं २८८ भद्दा सुभद्दा य सुप्पभा २९५ विउलं विक्खोभइत्ताणं १०१ पढमा होइ सुभद्दा २९४ | भरहे य दीहदंते २९९ विज्जा अणुप्पवायं जा अणुप्पवाय ५२ २९७ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः । ० ० ० ० .. गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः विजया य वेजयंती २८७ सम्मदिट्ठी १२ समाही य ११६ सुग्गीवे दढरहे विभज्ज मत्थय फाले १०० सयमग उवरिमए २६० सुजसा सुव्वय अइरा २८७ विमलघोसे सुघोसे य २८६ सव्वजगवच्छलाणं २८८ सुपासे सुव्वते अरहा ३०१ विमला य पंचवण्णा २८७ | सव्वतित्थाण भेयाय १०२ सुभे य सुभघोसे य विमले उत्तरे अरहा ३०१ सव्वलोयपरे तेणे १०२ सुमंगला जसवती २९४ विस्सनंदी सुबंधू य २९६ सव्वाणंदे य अरहा ३०१ सुमंगले अत्थ सिद्ध य ३०० विस्सभूती पव्वयए २९६ सव्वाणुभूती ५ अरहा २९८ सुमणा वारुणि सुलसा २९० वाकम्म धम्मओ भसे सव्वे य चक्कजाही ३०० सुमतित्थ णिच्चभत्तेण २८८ वाकसियपेज्जदास य २९८ सव्वे वि एगदसण २८८ सुयसागर य अरहा संगाण च परिणा य ११६ सव्वेसि पि जिणाण २८९ सुर-असुरवंदियाणं २८८ संती कुंथू य अरो २९४ | सागर समुद्दनामे २९७ | सुरअसुरगमलमहियाण संभूत सुभद्द सुदंसणे २९७ साले य वद्धमाणस्स सूरसण महासण संवच्छरेण भिक्खा २८९ साहारणट्टा जे केइ संवरे १९ अणियट्टी य २९८ साहाहेउं सहीहेउं १०२ सूर सुदंसणे कुंभे २८६ सच्चप्पवायपुव्वं ५२ सिद्धत्थे पुण्णघोसे य ३०१ सेज्जंस बंभदत्ते २८८ सच्चसेणे य अरहा ३०१ सिरिउत्ते सिरिभूती २९९ सेट्टि बहरवं हता सच्छत्ता सपडागा २९० सिरिकंता मरुदेवी २८६ सेणावई पसत्थार सज्झायवाय वयति १०२ सिरिचंदे पुप्फकेऊ य ३०० सेणिय सुपास उदए सढे नियडीपण्णाणे १०२ सिरिसे य णागरुक्खे । २८९ सेला सलिला य समुद्द २१८ सतज्जले सताऊ य २८६ सीता य दव्व सारीर २७५ सेसाणं परमण्ण सत्तभिसय भरणि अद्दा ५७ सीया सुदंसणा सुप्पभा २८७ | सेसाणं पुण रुक्खा सत्त विमाणसताई २६० सीसम्मि जे पहणइ १०० सेसेहिं बीयदिवसे सन्थपरिण्णा लोगविजओ ३० सीसावेढेण जे केई १०० सोमे सिरिधरे चेव सप्पी जहा अंडउड १०१ सीहरहे मेहरहे २८७ सोलस तीसा वीस समोसरण सन्निसेज्जा य ४३ सुंदरबाह तह दीहबाहु २८७ | हत्थो चित्ता य तहा २९४ ५.०१. २९९ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम्- कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । [पृ०२६ पं०१७] सम्प्रति चन्द्रप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिश्च प्राय एकरूपैव संजाता उपलभ्यते, अतः एतद्विषये सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रं तट्टीका चात्र उपन्यस्येते अस्माभिः “ता कहं ते जोतिसस्स दारा आहिताति वदेज्जा । तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तिओ 5 पन्नत्ताओ- तत्थेगे एवमाहंसु–ता कत्तियादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता । एगे पुण एवमाहंसु - ता महादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता । एगे पुण एवमाहंसु-ता धणिठ्ठादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता। एगे पुण एवमाहंसु-ता अस्सिणीयादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता । एगे पुण एवमाहंसु-ता भरणीयादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता... वयं पुण एवं वदामो-ता अभिईयादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता तंजहा-अभिई सवणो 10 धणिट्टा सतभिसया पुव्वापोट्टवया उत्तरापोट्टवया रेवती। अस्सिणीयादिया णं सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिया पन्नत्ता तंजहा-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणव्वसू । पुस्सादिया णं सत्त नक्खत्ता पच्छिमदारिया पन्नत्ता तंजहा-पुस्सो अस्सेसा महा पुव्वाफगुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता । सातियादिया णं सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिया पन्नत्ता तंजहा-साती विसाहा अनुराहा जेट्टा मूले पुव्वासाढा उत्तरासाढा।” इति चन्द्रप्रज्ञप्तौ सूर्यप्रज्ञप्तौ च। 15 अस्य व्याख्या- “ता कहं ते जोइसदारा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथम् ? - केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः ज्योतिषो - नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि आख्यातानीति वदेत् ? एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति- तत्थेत्यादि, तत्र - तेषां पञ्चानां परतीर्थिकसङ्घातानां मध्ये एके एवमाहुः - कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्राय: शुभमुपजायते तानि पूर्वद्वारकाणि, एवं दक्षिणद्वारकादीन्यपि 20 वक्ष्यमाणानि भावनीयानि, अत्रैवोपसंहारमाह- एगे एवमाहंसु एके पुनरेवमाहुः - अनुराधादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, अत्राप्युपसंहार:- एगे एवमाहंसु एवं शेषाण्यप्युपसंहारवाक्यानि योजनियानि, एके पुनरेवमाहुः-धनिष्ठादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, एके पुनरेवमाहुः- अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि एके पुनरेवमाहुः भरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, सम्प्रत्येतेषामेव पञ्चानामपि मतानां भावनिकामाह- तत्थ जे ते एवमाहंसु इत्यादि सुगमम्, भगवान् 25 स्वमतमाह- वयं पुण इत्यादि पाठसिद्धम् ॥” इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमे प्राभृतप्राभृते। [पृ०३९ पं०१८] “अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपमाह- सम्ममणुव्वयगुणवयसिक्खावयवं थिरो य नाणी य । अट्ठमि-चउद्दसीसुं पडिमं ठाएगराईयं १०।१७।। सम्मं० गाहा । सम्यगिति सम्यक्त्वम्, अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षापदानि प्रतीतानि । तानि यस्य सन्ति स तद्वान् । पूर्वोक्तप्रतिमा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । चतुष्कयुक्त इत्यर्थः । सोऽपि स्थिरोऽविचलसत्त्वः । इतरो हि तद्विराधको भवति । यतः सा रात्रौ चतुष्पथादौ च विधीयते, तत्र चोपसर्गाः संभवन्तीति । ज्ञानी च ज्ञाता प्रतिमाकल्पपादेः । अज्ञानो हि सर्वत्राप्ययोग्यः किं पुनरस्यामिति । चशब्दौ समुच्चयार्थो । अष्टमीचतुर्दश्योः प्रतीतयोः। उपलक्षणत्वादस्य पौषधदिवसेष्विति दृश्यम्, प्रतिमां कायोत्सर्ग ठाइ त्ति अधितिष्ठति करोतीत्यर्थः । किंप्रमाणमित्याह-एका रात्रिः परिमाणस्या इत्येकरात्रिकी सर्वरात्रिकी तां यस्तस्य प्रतिमाप्रतिमा 5 भवतीति शेषः । इति गाथार्थः ॥१७|| ___शेषदिनेषु यादृशोऽसौ भवति तदर्शयितुमाह- असिणाणवियडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी य। रत्तिं परिमाणकडो पडिमावजे सु दियहेसु १०।१८।। असिणा० गाहा । अस्नानोऽविद्यमानस्नानः । विकटे प्रकटे दिवसे, न रात्राविति यावत्, भोक्तुं शीलमस्येति विकटभोजी चतुर्विधाहाररात्रि-भोजनवर्जकः, ततः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः । तथा मौलिकृतोऽबद्धकच्छ: । 10 तथा दिवसे ब्रह्म चरतीत्येवंशीलो दिवसब्रह्मचारी । च: समुच्चये । तथा रत्तिमिति विभक्तिपरिणामाद् रात्रौ रजन्यां परिमाणकृतः मैथुनासेवनं प्रति कृतयोषिद्भोगपरिमाणः । कदेत्याह- प्रतिमावर्जेषु अपर्वस्वित्यर्थः, दिवसेषु दिनेषु । उक्तव्याख्यानसंवादिनी चेयं गाथा यदुत- असिणाणवियडभोई पकासभोइ त्ति होइ जं भणियं । दिवसओ न रत्ति भुंजे मउलिकडो कच्छ नवि रोधे । [ ] कच्छां नारोपयतीत्यर्थः । इति गाथार्थः ।।१८॥” इति पञ्चाशकस्य अभयदेवसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ [पृ०४३ पं०१, पृ०४५ पं०१३] “ओहद्दारस्स इमे बारस पडिदारा- उवहि सुत भत्त पाणे अंजलीपग्गहेति य । दावणा य निकाए य । अब्भुट्टाणे ति यावरे ॥२०७१।। कितिकम्मस्स य करणे वेयावच्चे करणेति य । समोसरण सणिसेज्जा, कधाए य पबंधणे ॥२०७२।। उवहि त्ति दारस्स इमे छ पडिदारा- उग्गम उप्पादण एसणा य परिकम्मणा य परिहरणा । संजोयविहिविभत्ता छटाणा होंति उवधिम्मि ॥ २०७३॥ तत्थ उग्गम त्ति दारं, अस्य व्याख्या- 20 समणुण्णेण मणुण्णो सहितो सुद्धोवधिग्गहे सुद्धो । अह अविसुद्धं गेण्हति जेणऽविसुद्धं तमावजे ॥२०७४।। संभोतितो संभोइएण समं उवहिं सोलसेहि आहाकम्मतिएहिं उग्गमदोसेहिं सुद्धं उप्पाएति तो सुद्धो । अह असुद्धं उप्पाएति जेण उग्गमदोसेण असुद्धं गेण्हति तत्थ जावतिओ कम्मबंधो जं च पायच्छित्तं तं आवजति ॥२०७४।। एगं व दो व तिण्णि व आउटुंतस्स होति पच्छित्तं । आउटुंते वि ततो परेण तिण्हं विसंभोगो ॥२०७५।। संभोइओ असुद्धं गेण्हंतो चोइओ 25 भणाति-'संता पडिचोयणा, मिच्छामि दुक्कडं, ण पुणो एवं करिस्सामो' । एवं आउट्टे जमावण्णो तं पच्छित्तं दाउं संभोगो । एवं बितियवाराए वि । एवं ततियवाराए वि । ततियवाराओ परेणं चउत्थवाराए तमेव अतियारं सेविऊण आउटुंतस्स वि विसंभोगो ॥२०७५।।" - इति निशीथभाष्यचूर्णी पञ्चमे उद्देशके ।। 15 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । [ पृ०४३ पं०८] "कहि णं भंते । विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता ?. गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी प० बारस जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयणसए 5 किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते.... ॥ [सू० १३५ ] || व्या०- कहि णं भंते! विजयस्सेत्यादि, क भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ? भगवानाह गौतम ! विजयस्य द्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यग् असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य अतिक्रम्य अत्रान्तरे योऽन्यः जम्बूद्वीपः अधिकृतद्वीपतुल्याभिधानः, अनेन जम्बूद्वीपानामप्यसङ्ख्येयत्वं सूचयति, तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य योग्या विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता मया 10 शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, सा च द्वादश योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण आयामविष्कम्भाभ्याम्, सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नव शतानि अष्टाचत्वारिंशानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इदं च परिक्षेपपरिमाणं विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होई' [ ] इति करणवशात् स्वयमानेतव्यम् ॥” इति जीवाभिगमसूत्रे तृतीयायां प्रतिपत्तौ प्रथमे उद्देश मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ ७ 15 [पृ०६० पं०१५, पृ०१५९, पं०२] “सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्टा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ||७ / १६० ।। टी० शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वाति: ज्येष्ठा चः समुच्चये एतानि षट् नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तान् यावत् चन्द्रेण सह संयोगः सम्बन्धो येषां तानि तथा, तद्यथा- एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्द्धान् त्रयस्त्रिंशद्भागान् यावच्चन्द्रेण सह योगो भवति ततो 20 मुहूर्त्तगतसप्तषष्टिभागकरणार्थं त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नव शतानि नवतानि नवत्यधिकानि ९९० यदपि चार्द्धं तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागास्ते पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्तं जातः पूर्वराशिः सहस्रं पञ्चोत्तरम् १००५, अस्य सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्त्ता इति । तथा - "तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ||७ / १६० ।। टी० तिस्र उत्तराः उत्तरफल्गुनी उत्तराषाढा उत्तरभद्रपदा 25 इत्येवंरूपा: पुनर्वसू रोहिणी विशाखा, चः समुच्चये, एतानि एवकारस्य भिन्नक्रमत्वादेतान्येवेति योज्यम्, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् षड् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि तथा तद्यथा - अत्रापि षण्णां नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कानां भागानां शतमेकमेकस्य च भागस्यार्द्धं चन्द्रेण सह योगस्तत्रैषां भागानां मुहूर्त्तगतभागकरणार्थं शतं प्रथमतस्त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि ३०१५, एतेषां सप्तषष्ट्या Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ता इति ।” इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेः सप्तमे वक्षस्कारे १६० तम सूत्रस्य शान्तिचन्द्रीयायां वृत्तौ ।। [पृ०६६ पं०१६] “सम्प्रति लवणसमुद्रशिखावक्तव्यतामाह- दसजोयणसहस्सा, लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलस सहस्स उच्चा, सहस्समेगं च ओगाढा ॥१७॥ व्या० अभ्यन्तरतो बाह्यतश्च पञ्चनवतिपञ्चनवतियोजनसहस्राणि परित्यज्य मध्यभागे लवणसमुद्रस्य शिखा वर्तते, सा 5 च चक्रवालतो रथचक्राकारेण रुन्दा विस्तीर्णा दश योजनसहस्राणि, तथा भूतले समजलपट्टादूर्ध्वमुच्चा षोडश योजनसहस्राणि, सहस्रमेकं योजनानामवगाढा भूमौ प्रविष्टा ॥१७।। देसूणमद्धजोयण, लवणसिहोवरि दगं दुवे काला । अइरेगं अइरेगं, परिवड्ढइ हायए वावि ॥१८।। व्या० अनन्तरोक्ताया लवणसमुद्रशिखाया उपरि देशोनमर्धयोजनं किञ्चिन्न्यूने द्वे गव्यूते द्वौ कालौ अहोरात्रमध्ये द्वौ वारौ उदकमतिरेकमतिरेकं परिवर्धते हीयते च, पातालकलशगतवायुक्षोभे वर्धते तदुपशान्तौ 10 च हीयते इत्यर्थः ।।१८।। सम्प्रति वेलन्धरवक्तव्यतामाह- अन्भिंतरियं वेलं, धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीस सहस्सा, दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ॥१९॥ सट्ठि नागसहस्सा, धरंति अग्गोदयं समुदस्स । वेलंधरआवासा, लवणे चाउद्दिसिं चउरो ।।२०।। व्या० लवणसमुद्रस्याभ्यन्तरिका जम्बूद्वीपाभिमुखां वेलां शिखोपरिजलं शिखां च अर्वाक् प्रविशन्तीं धरन्ति वारयन्ति नागानां नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्तर्वर्तिनां द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि, बाह्यां 15 धातकीखण्डद्वीपाभिमुखां वेलां धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्रविशन्तीं वारयन्ति नागानां द्वासप्ततिसहस्राणि, तथा षष्टिनागसहस्राणि अग्रोदकं देशोनयोजनार्धजलादुपरि वर्धमानं जलं समुद्रस्य लवणसमुद्रस्य वारयन्ति । एवं सर्वसङ्ख्यया वेलन्धरदेवानामेकं लक्षं चतुःसप्ततिसहस्राणि भवन्ति । उक्तं च"लवणस्स णं भंते समुद्दस्स केवइया नागसहस्सा अभिंतरियं वेलं धरंति ? केवइया नागसहस्सा बाहिरियं वेलं धरंति ? केवइया नागसहस्सा अग्गोदगं धरंति ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स 20 बायालीसं नागसहस्सा अभिंतरियं वेलं धरंति, बावत्तरि नागसहस्सा बाहिरियं वेलं धरंति, सद्विं नागसहस्सा अग्गोदगं धरंति । एवमेव सपुव्वावरेण लवणे समुद्दे एगसयसाहस्सिया चउहत्तरि च नागसहस्सा भवंतीति मक्खायं” [ ] । एतेषां च वेलन्धरदेवानामावासा आश्रयभूताः पर्वता लवणसमुद्रे पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु द्विचत्वारिंशद्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे प्रत्येक मे कै कभावेन चत्वारः चतु : सङ्ख्या वेदितव्याः ॥१९-२०॥ सम्प्रति 25 तेषामावासपर्वतानामावासपर्वताधिपतीनां च नागराजानां नामान्याह- पुव्वाई अणुकमसो, गोत्थुभ दगभास संख दगसीमा । गोत्थुभ सिवए संखे, मणोसिले नागरायाणो ॥२१।। व्या० तथा पूर्वाद्यनुक्र मेणैवैतेषामावासपर्वतानामधिपतीनां नामान्यमूनि, तद्यथागोस्तूपस्यावासपर्वतस्याधिपतिर्गोस्तूपनामा देवः, दकभासस्य शिवः, शङ्खस्य शङ्खः, दकसीम्नो मनःशिलः । एते चत्वारोऽपि प्रत्येकं चतुर्णामिन्द्रसामानिकसहस्राणाम्, चतसृणामग्रमहिषीणां 30 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । सपरिवाराणाम. तिसृणां पर्षदाम्, सप्तानामनीकानाम् सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणाम्, स्वस्य स्वस्यावासपर्वतस्य, स्वस्याः स्वस्या राजधान्या अधिपतयः । तत्र गोस्तूपदेवस्य राजधानी गोस्तूपा, सा च गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य पूर्वतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतो वेदितव्या । शिवदेवस्य शिवा राजधानी, सा च दकभासस्यावासपर्वतस्य दक्षिणतोऽपरस्मिन् 5 लवणसमुद्र । शङ्खदेवस्य शङ्खा नाम राजधानी सा च शङ्खस्यावासपर्वतस्यापरतोऽपरस्मिन् लवणसमद्रे । मनःशिलस्य देवस्य मनःशिला राजधानी, सा च दकसीम्न आवासपर्वतस्योत्तरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्र ||२१|| तदेवमुक्ता महतां वेलन्धराणां नागराजानामावासपर्वता नामानि च सम्प्रति क्षुल्लवेलन्धरदेवानामावासपर्वतान् नामानि चाह- अणुवेलंधरवासा, लवणे विदिसासु संठिया चउरो । कक्कोडग विज्जुप्पभ, कइलास रुणप्पभे चेव ||२२|| कक्कोडग कद्दमए, केलास 10 रुणप्पभे य रायाणो । बायालीस सहस्से, गंतुं उदहिम्मि सव्वेऽवि ||२३|| व्या० महतां बेलन्धराणामादेशप्रतीच्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धरा अनुवेलन्धरास्तेषामावासा आवासपर्वता लवणे लवणसमुद्रे विदिक्षु उत्तरपूर्वादिकासु चतसृषु विदिक्षु द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्यान्तरे संश्रिताः स्थिताः चत्वारः चतुः सङ्ख्या वेदितव्याः, तद्यथा- उत्तरपूर्वस्यां दिशि कर्कोटकः १. दक्षिणपूर्वस्यां विद्युत्प्रभः २, दक्षिणापरस्यां कैलाश: ३, अपरोत्तरस्यामरुणप्रभः ४ । एतेषामधिपतयो 15 नागराजा यथाक्रमं कर्कोटकः कर्दमकः कैलाशः अरुणप्रभश्च । एते च चत्वारोऽपि गोस्तूपदव इव महर्द्धिका वेदितव्याः नवरं कर्कोटकस्य नागराजस्य राजधानी कर्कोटिका, सा च कर्कोटकस्यावासपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानतिक्रम्यापरस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतोऽवगन्तव्या । कर्दमस्य च नागराजस्य कर्दमिका राजधानी, साच विद्युत्प्रभस्य स्वावासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । कैलाशदेवस्य नागराजस्य कैलाशा 20 नाम राजधानी, सा च स्वावासपर्वतस्य कैलाशस्य दक्षिणापरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । अरुणप्रभस्य नागराजम्यारुणप्रभा नाम राजधानी, सा च स्वावासपर्वतस्यारुणप्रभस्यापरोत्तरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्र । एते च सर्वेऽपि गोस्तूपादयोऽरुणप्रभपर्यवसाना अष्टावप्यावासपर्वता जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्प्रत्येकं द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्युदधौ लवणसमुद्रेऽवगाह्यात्रान्तरे वेदितव्याः । एतच्च प्रागेव भावितम् ।।२२-२३।। सम्प्रत्येतेषामवगाहादिप्रमाणमाह- चत्तारि जोयणसए, तीसं कोसं च उवगया भूमिं । 25 सत्तरस जोयणसए, इगवीसे ऊसिया सव्वे ||२४|| व्या० सर्वेऽष्टावपि गोस्तूपादयः पर्वताः प्रत्येकं चत्वारि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि ४३० एकं च क्रोशं १ भूमिमुपगता भूमौ प्रविष्टाः, सप्तदश योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि १७२१ उच्छ्रिता उच्चाः । एते च सर्वेऽपि प्रत्येकमेकैकया वेदिकया एकैकेन च वनखण्डेन समन्ततः परिक्षिप्ताः ||२४|| " इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०६८ पं० २२] " नाणंतरायदसगं दंसण चत्तारि उच्च जसकित्ती । एया सोलस पयडी, 30 सुहुमकसायम्मि वोच्छिन्ना ||२३|| व्या०- 'नाणंतरायदसगं' इति ज्ञानावरणं पञ्चविधमन्तराय Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० द्वितीयं परिशिष्टम् । पञ्चविधम्, ‘दंसण चत्तारि' इति, दर्शनावरणानि चत्वारि चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणाख्यानि, उच्चैर्गोत्रम्, यशःकीर्तिः, इत्येताः षोडश प्रकृतयः सूक्ष्मकषाये बन्धं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः । एतद्बन्धस्य साम्परायिकत्वादुत्तरेषु च सम्परायस्य कषायोदयलक्षणस्याभावात् ॥२३॥” इति सटोके प्राचीने कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे ।। [पृ०८७ पं० ७] “गंगा णं महाणई पवहे छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं 5 उव्वेहेणं तयणंतरं च णं.... [जम्बू० ४।७४] । व्या०- अथास्या एव प्रवहमुखयोः पृथुत्वोद्वेधौ दर्शयति- गंगा णमित्यादि, गङ्गा महानदी प्रवहे, यतः स्थानात् नदी वोढुं प्रवर्त्तते स प्रवहः, पद्मद्रहात्तोरणानिर्गम इत्यर्थः, तत्र षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण, तथा क्रोशार्द्धमुद्वेधेन, महानदीनां सर्वत्रोद्वेधस्य स्वव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात्, अस्तीति शेषः, तदनन्तरमिति पद्मदहतोरणीयव्यासादनन्तरम्, एतेन यावत् क्षेत्रं स व्यासोऽनुवृत्तस्तावत्क्षेत्रादनन्तरं 10 गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरमित्यर्थः, एतेन च योऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गम: प्रपातकुण्डनिर्गमो वाऽभिहितः स नेति, श्रीअभयदेवसूरिपादैः समवायाङ्गवृत्तौ श्रीमलयगिरिपादैश्च बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तौ पद्मद्रहतोरणनिर्गमपरत्वेनैव व्याख्यानात्, एवमुद्वेधेऽपि ज्ञेयम् ।” इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ चतुर्थे वक्षस्कारे ७४ तमसूत्रस्य शान्तिचन्द्रविरचितायां वृत्तौ ॥ पृ०८९ पं०२२] “पञ्चविंशतिभिर्भावनाभिः, क्रिया पूर्ववत्, प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षण- 15 महाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्त इति भावनाः, ताश्चेमाः- इरियासमिए सया जए, उवेह भुंजेज्ज व पाणभोयणं । आयाणनिक्खेवदुगुंछ संजए, समाहिए संजमए मणोवई ॥१॥ अहस्ससच्चे अणुवीइ भासए, जे कोहलोहभयमेव वज्जए । स दीहरायं समुपेहिया सिया, मुणी हु मोसं परिवज्जए सया ।।२।। सयमेव उ उग्गहजायणे, घडे मतिमं निसम्म सइ भिक्खु उग्गहं । अणुण्णविय भुजिज्ज पाणभोयणं, जाइत्ता साहमियाण उग्गहं ।।३।। आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थिं न निज्झाइ न संथवेज्जा । बुद्धो 20 मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥४॥ जे सद्दरूवरसगंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गिहीपदोसं न करेज पंडिए, स होइ दंते विरए अकिंचणे ॥५।। गाथा: पञ्च, आसां व्याख्या-ईरणम् ईर्या, गमनमित्यर्थः, तस्यां समितः-सम्यगित ईर्यासमितः, ईर्यासमितता प्रथमभावना. यतोऽसमितः प्राणिनो हिंसेदतः सदा यतः-सर्वकालमुपयुक्तः सन् ‘उवेह भुजेज व पाणभोयणं' 'उवेह'त्ति अवलोक्य भुञ्जीत पानभोजनम्, अनवलोक्य भुञ्जानः प्राणिनो हिंसेत्, अवलोक्य भोक्तव्यं 25 द्वितीयभावना, एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या, आदाननिक्षेपौ-पात्रादेर्ग्रहणमोक्षौ आगमप्रसिद्धौ जुगुप्सति-करोत्यादाननिक्षेपजुगुप्सकः, अजुगुप्सन् प्राणिनो हिंस्यात् तृतीयभावना, संयतः-साधु: समाहितः सन् संयमे ‘मणोवइत्ति अदुष्टं मनः प्रवर्तयेत्, दुष्टं प्रवर्तयन् प्राणिनो हिंसेत् चतुर्थी भावना, एवं वाचमपि, पञ्चमी भावना, गताः प्रथमव्रतभावनाः । द्वितीयव्रतभावना: प्रोच्यन्ते-'अहस्ससच्चे'त्ति अहास्यात् सत्यः, हास्यपरित्यागादित्यर्थः, हास्यादनृतमपि ब्रूयात्, अतो हास्यपरित्यागः प्रथमभावना, 30 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । अनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य भाषेत, अन्यथाऽनृतमपि ब्रूयात्, द्वितीयभावना, य: क्रोधं लोभं भयमेव वा त्यजेत्, स इत्थम्भूतो दीर्घरात्रं-मोक्षं समुपेक्ष्य-सामीप्येन (द्रष्टा) दृष्ट्वा 'सिया' स्यात् मुनिरेव मृषां परिवर्जेत सदा, क्रोधादिभ्योऽनृतभाषणादिति भावनात्रयम्, गता द्वितीयव्रतभावनाः । तृतीयव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते- 'स्वयमेव' आत्मनेव प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वाऽधिकृत्य अवग्रहयाच्चायां प्रवर्तते अनुविचिन्त्य, 5 अन्यथाऽदत्तं गृह्णीयात्, प्रथमभावना, घडे मइमं निसम्मत्ति तत्रैव तृणाद्यनुज्ञापनायां चेष्टेत मतिमान निशम्य आकर्ण्य प्रतिग्रहदातृवचनम्, अन्यथा तददत्तं गृह्णीयात्, परिभोग इति द्वितीया भावना, 'सइ भिक्खु उग्गह'ति सदा भिक्षुरवग्रहं स्पष्टमर्यादयाऽनुज्ञाप्य भजेत, अन्यथाऽदत्तं संगृह्णीयात्, तृतीया भावना, अनुज्ञाप्य गरुमन्य वा भञ्जीत पानभाजनम. अन्यथाऽदत्तं गलीयात. चती भावना. याचित्वा साधर्मिकाणामवग्रहं स्थानादि कार्यम्, अन्यथा तृतीयव्रतविराधने ति पञ्चमी भावना, 10 उक्तास्तृतीयव्रतभावनाः। साम्प्रतं चतुर्थव्रतभावना: प्रोच्यन्ते– ‘आहारगुत्तेत्ति आहारगुप्तः स्यात्. नातिमात्रं स्निग्धं वा भुञ्जीत, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात्, प्रथमा भावना, अविभूषितात्मा स्याद्विभूषां न कुर्याद्, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधक: स्यात्. द्वितीया भावना, स्त्रियं न निरीक्षेत तव्यतिरेकादिन्द्रियाणि नाऽऽलोकयेद्, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात्, तृतीया भावना, न संथवेज्ज'त्ति न स्त्र्यादिसंसक्ता वसति सेवेत, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात्, चतुर्थी भावना, बुद्धः अवगततत्त्व: 15 मुनि: साधुः क्षुद्रकथां न कुर्यात् स्त्रीकथां स्त्रीणां वेति, अन्यथा ब्रह्मविराधक: स्यात्, पञ्चमी भावना. 'धम्म(धम्माणु)पेही संधए बंभचेर'ति निगदसिद्धम्, उक्ताश्चतुर्थव्रतभावनाः । पञ्चमव्रतभावनाः प्रोच्यन्तेय: शब्दरूपरसगन्धानागतान्, प्राकृतशैल्याऽलाक्षणिकोऽनुस्वारः, स्पर्शाश्च संप्राप्य मनोज्ञ-पापकान् इष्टानिष्टानित्यर्थः, गृद्धिम् अभिष्वङ्गलक्षणाम्, प्रद्वेषः प्रकटस्तं न कुर्यात् पण्डितः, स भवति दान्तो विरताऽकिञ्चन इति, अन्यथाऽभिष्वङ्गादेः पञ्चममहाव्रतविराधना स्यात्, पञ्चापि भावनाः, उक्ताः 20 पञ्चमहाव्रतभावनाः, अथवाऽसम्मोहार्थं यथाक्रमं प्रकटार्थाभिरेव भाष्यगाथाभिः प्रोच्यन्ते– “पणवीस भावणाओ पंचण्ह महव्वयाणमेयाओ । भणियाओ जिणगणहरपुजेहि नवर सुत्तम्मि ।।१।। इरियासमिइ पढमा आलोइयभत्तपाणभोई य । आयाणभंडनिक्खेवणा य समिई भवे तइया ।।२।। मणसमिई वयसमिई पाणइवायम्मि होति पंचेव । हासपरिहारअणुवीइभासणा कोहलोहभयपरिण्णा ।।३।। एस मुसावायस्स अदिन्नदाणस्स होतिमा पंच । पहुसंदिट्ट पहू वा पढमोग्गह जाएँ अणुवीई ।।४।। उग्गहणसील बिइया 25 तत्थोग्गण्हेज उग्गहं जहियं । तणडगलमल्लगाई अणुण्णवेज्जा तहिं तहियं ।।५।। तच्चम्मि उग्गहं तू अणुण्णवे सारि उग्गहे जा उ । तावइय मेर काउं न कप्पई बाहिरा तस्स ।।६।। भावण चउत्थ साहम्मियाण सामण्णमण्णपाणं तु । संघाडगमाईणं भुजेज्ज अणुण्णवियए उ ।।७।। पंचमियं गंतूण साहम्मियउग्गहं अणुण्णविया । ठाणाई चेएजा पंचेव अदिण्णदाणस्स ।।८।। बंभवयभावणाओ णो अइमायापणीयमाहारे । दोच्च अविभूसणा ऊ विभूसवत्ती न उ हवेज्जा ।।९।। तच्चा भावण इत्थीण 30 इंदिया मणहरा ण णिज्झाए । सयणासणा विवित्ता इत्थिपसुविवज्जिया सेज्जा ।।१०।। एस चउत्था Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । ण कहे इत्थीण कहं तु पंचमा एसा । सद्दा रूवा गंधा रस फासा पंचमी एए ।।११।। रागद्दोसविवजण अपरिग्गहभावणाउ पंचेव । सव्वा पणवीसेया एयासु न वट्टियं जं तु ।।१२।।” इति आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थेऽध्ययने हारिभद्रयां वृत्तौ ॥ [पृ०१२० पं०७] “सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ, कतराओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ? 5 इमा खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ, तंजधा- सेहे रातिणियस्स पुरतो गंता भवति, आसादणा सेहस्स ॥१॥ सेहे रायणियस्स सपक्खं गंता भवति, आसायणा सेहस्स ।।२।। सेहे रायणियस्स आसन्नं गंता भवति, आसयणा सेहस्स ।।३।। एवं एएणं अभिलावेणं सेहे रातिणियस्स पुरओ चिट्टित्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥४॥ सेहे राईणियस्स सपक्खं चिट्टित्ता भवति, आसायणा सेहस्स ।।५।। सेहे रायणियस्स आसन्नं चिट्टित्ता भवति, आसादणा सेहस्स 10 ।।६।। सेहे रायणियस्स पुरतो निसीइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।७।। सेहे रायणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।८। सेहे रायणियस्स आसन्नं निसीइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।९।। सेहे रायणियेण सद्धिं बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खंते समाणे पुत्वामेव सेहतराए आयामेइ पच्छा रायणिए, आसादणा सेहस्स ॥१०॥ सेहे रायणिएण सद्धिं बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खंते समाणे तत्थ पुव्वामेव सेहतराए आलोएति पच्छा रायणिए, 15 आसायणा सेहस्स ॥११॥ केइ रायणियस्स पुव्वं संलवत्तए सिया ते पुव्वामेव सेहतरए आलवेति पच्छा रातिणिए, आसायणा सेहस्स ॥१२॥ सेहे रातिणियस्स रातो वा विआले वा वाहरमाणस्स अज्जो केइ सुत्ते ? के जागरे ? तत्थ सेहे जागरमाणे रातिणियस्स अपडिसुणेत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।१३।। सेहे असणं वा ४ पडिग्गहित्ता पुत्वामेव सेहतरागस्स आलोएइ पच्छा रायणियस्स, आसादणा सेहस्स ।।१४।। सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता पुव्वामेव 20 सेहतरागस्स पडिदंसेति पच्छा रायणियस्स, आसादणा सेहस्स ॥१५।। सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं पुवामेव सेहतरागं उवणिमंतेति पच्छा रायणियस्स, आसादणा सेहस्स ।।१६।। सेहे रायणिएण सद्धिं असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं रायणियस्स अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलयइ, आसादणा सेहस्स ।।१७। सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहित्ता राइणिएण सद्धि आहारेमाणे तत्थ सेहे खद्धं खद्धं डाअं डाअं रसितं रसियं ऊसढं ऊसढं मणुण्णं मणुण्णं मणामं 25 मणामं निद्धं निद्धं लुक्खं लुक्खं आहारेत्ता भवइ, आसादणा सेहस्स ।।१८। सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स अपडिसुणित्ता भवइ, आसादणा सेहस्स ।।१९।। सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स तत्थगते चेव पडिसुणेत्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥२०॥ सेहे रायणियस्स किं ति वइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।२१।। सेहे रायणियं तुमं ति वत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।२२।। सेहे रायणियम्स खद्धं खद्धं वत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।२३।। सेहे रायणियं तज्जाएण तज्जाएण पडिभणित्ता 30 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । •० भवइ. आसादणा सेहस्स ।।२४।। सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स इति एवं ति वत्ता न भवति, आसायणा संहस्स ।।२५।। सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स नो सुमरसीति वत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ।।२६।। सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स णो सुमणसे भवति, आसादणा सेहस्स ।।२७।। सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता भवति, आसायणा सेहस्स ।।२८।। सेहे रायणियस्स 5 कहं कहेमाणस्स कहं आच्छिंदित्ता भवति, आसायणा सेहस्स ।।२९।। सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणम्स तीए परिसाए अणुट्टिताए अभिन्नाए अवुच्छिन्नाए अव्वोगडाए दोच्चंपि तमेव कह कथिता भवति. आसादणा सेहस्स ।।३०।। सेहे रायणियस्स सेज्जासंथारगं पाएणं संघट्टित्ता हत्थेणं अणणुण्णवत्ता गच्छति, आसादणा सेहस्स ।।३१।। सेहे रायणियस्स सेज्जासंथारए चिट्टित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ. आसायणा सेहस्स ।।३२।। सेहे रायणियस्स उच्चासणे वा 10 समाससि वा चिट्टित्ता वा निसीयित्ता वा तुट्टित्ता वा भवति, आसादणा सेहस्स ।।३३।। एताओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ नि बेमि ॥” इति दशाश्रुतस्कन्धे तृतीयेऽध्ययने [तृतीयस्यां दशायाम्] । विशेषतो जिज्ञासुभिः दशाश्रुतस्कन्धचूर्णिर्विलोकनीया ।। पृ०१३० पं०१५] “साम्प्रतं हैमवतवर्षस्य जीवामाह- सत्तत्तीस सहस्सा, छच्च सया जोयणाण चउसयरा । हेमवयवासजीवा, किंचूणा सोलस कला य ॥५४॥ व्या० 15 सप्तत्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुःसप्ततानि चतुःसप्तत्यधिकानि योजनानां कलाश्च षोडश किञ्चिदना, एतावती हैमवतवर्षस्य जीवा । तथाहि- हैमवतवर्षस्यावगाह इष्वपरपर्यायः सप्ततिसहस्रप्रमाण: ७०००० । तेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, जाता अष्टादश लक्षास्त्रिंशत्सहस्राणि १८३०००० । एष राशियथोक्तेनावगाहेन ७०००० गुण्यते. गुणिते च सति जात एकक: द्रिक: अष्टक: एकक: अष्टौ शून्यानि १२८१०००००००० । एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, 20 जातः पञ्चक: एकक: द्विक: चतुष्क: अष्टौ शून्यानि ५१२४०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः सप्तक: एककः पञ्चक: अष्टक: द्विकः एककः ७१५८२१ । शेषं तूद्धति द्विक: नवक: पञ्चक: नवकः पञ्चकः नवक: २९५९५९ । छेदराशि: एककः चतुष्क: त्रिक: एककः षट्क: चतुष्कः द्विक: १४३१६४२ । वर्गमूललब्धस्य तु कलाराशर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते. लब्धानि योजनानां सप्तत्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि कलाश्च पञ्चदश ३७६७४ 25 क० ५... उद्धरितराश्यपेक्षया किञ्चिदुनैका कला लभ्यते इति परिभाव्य 'किंचूणा सोलस कला य' इत्युन्तम १.४॥" - इति बृहत्क्षेत्र० पलय० ।। पृ०१३१ पं०१३, १५७] “अधुनाऽस्यैव हैमवतवर्षस्य धनु:पृष्ठं बाहां चाह- चत्तारि य सत्त सया, अडतीससहस्स दस कला य धणु । बाहा सत्तट्ठिसया, पणपन्ना तिन्नि य कलाओ ।।५५।। व्या० अष्टात्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि योजनानां दश च 30 कला इत्येतावत्प्रमाणं हैमवतवर्षस्य धनुःपृष्ठम् । तथाहि- हैमवतवर्षस्येषुपरिमाणं सप्ततिसहस्राणि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ द्वितीयं परिशिष्टम् । ७००००। अस्य वर्गे जातः चतुष्कः नवकः शून्यान्यष्टौ ४९०००००००० । एष राशिभूयः षड्भिर्गुण्यते, जातः द्विक: नवकः चतुष्कः अष्टौ च शून्यानि २९४०००००००० । एतत् प्रागुक्ते हैमवतवर्षजीवावर्गे पञ्चकः एककः द्विकः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि ५१२४०००००००० इत्येवंपरिमाणे प्रक्षिप्यते, जातः पञ्चकः चतुष्क एकक: अष्टक: अष्टौ शून्यानि ५४१८०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः सप्तकः त्रिकः षट्कः शून्यं सप्तकः शून्यम् ७३६०७० । शेषमुद्धरितं नवक: 5 पञ्चकः पञ्चकः एककः शून्यं शून्यम् ९५५१०० । छेदराशिरेककः चतुष्कः सप्तकः द्विकः एककः चतुष्कः शून्यम् १४७२१४०। वर्गमूललब्धः कलाराशिरेकोनविंशत्या योजनकरणाय भज्यते, लब्धानि योजनानामष्टात्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि योजनानां कलाः दश ३८७४० क० १० ॥ तथा सप्तषष्टिशतानि पञ्चपञ्चाशानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि योजनानां कलास्तिस्रः ६७५८ क० ३ हैमवतवर्षस्य बाहा । तथाहि- महतो धनुःपृष्ठात् हैमवतवर्षसत्कात् अष्टात्रिंशत्सहस्राणि 10 सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि योजनानां कला दश ३८७४० क० १० इत्येवंपरिमाणात् डहरकं धनु:पृष्ठं क्षलहिमवतः संबन्धि पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके कलाश्चतस्रः २५२३० क० ४ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, शोधिते च सति तस्मिन जातं शेषमिदम- एककः त्रिकः पञ्चक: एकक: शन्यं १३५१० कलाश्च षट ६ । अस्यार्धे लब्धानि योजनानां सप्तषष्टिशतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि तिस्रः कला: ६७५५ क० ३ ।।५५।। 15 - [पं०१८] “सम्प्रति मेरो: काण्डादिवक्तव्यतामाह- मेरुस्स तिन्नि कंडा, पुढवोवलवइरसक्करा पढमे । रयए य जायरूवे, अंके फलिहे य बीयम्मि ॥३१२।। एगागारं तइयं, तं पुण जंबूणयामयं होइ । जोयणसहस्स पढम, बाहल्लेणं च बीयं तु ॥३१३॥ तेवट्ठि सहस्साइं, तइयं छत्तीस जोणसहस्सा । व्या० मेरो: पर्वतस्य त्रीणि काण्डानि, काण्डं नाम विशिष्टपरिमाणानुगतो विच्छेदः, तत्र प्रथमे काण्डे पृथिव्युपलवज्रशर्कराः, किमुक्तं भवति ? प्रथमं काण्डं क्वचित्पृथिवीबहुलम्, 20 क्वचिदुपलबहुलम्, क्वचिद्वज्रबहुलम्, क्वचिच्छर्कराबहुलम् । तथा द्वितीयकाण्डे रजतम्, जातरूपम्, अङ्करत्नानि, स्फटिकरत्नानि च, अत्रापीयं भावना- द्वितीयं काण्डं क्वचिद्रजतबहुलम्, क्वचिज्जातरूपबहुलम्, क्वचिदङ्करत्नबहुलम्, क्वचित्स्फटिकरत्नबहुलम् । तृतीयं पुनरेकाकारम्, तच्च सर्वात्मना जाम्बूनदमयम् । उक्तं च- “मंदरस्स णं भंते पव्वयस्स कइ कंडा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिन्नि कंडा पन्नत्ता. तंजहा- हेदिले कंडे मज्झिले कंडे उवरिमे कंडे | मंदरस्स ण भते पव्वयस्स 25 हिट्टिल्ले कंडे कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउविहे पन्नत्ते, तंजहा- पुढवी उवले वइरे सक्करा । मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स मज्झिल्ले कंडे कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउविहे पन्नत्ते, तंजहाअंके फलिहे रयए जायरूवे । मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स उवरिमे कंडे कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! एगागारे पन्नत्ते, तंजहा- सव्वजंबूणयामए'' [ ] । तत्र प्रथम काण्डं बाहल्येन योजनसहस्रं योजनसहस्रपरिमाणम्, तच्च भूमाववगाढम्, द्वितीयं तु त्रिषष्टिसहस्राणि, तच्च समतलभूभागादारभ्य 30 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । प्रतिपत्तव्यम, तृतीयं षट्त्रिंशद्योजनसहस्राणि । एवं काण्डत्रयपरिमितो मेरुर्योजनलक्षप्रमाणः ।। मेरुस्स उवरि चूला, उव्विद्धा जोयणदुवीसं ॥३१४। एवं सव्वग्गेणं, समूसिओ मेरु लक्खमरित्तं । व्या० मेरोलक्षप्रमाणस्योपरि योजनसहस्रप्रमाणायामविष्कम्भस्योपरितनस्य तलस्य बहमध्यभागे द्वे विंशती (४०) योजनानामुद्विद्धा चूला, एवं सर्वात्मना परिमाणतश्चिन्त्यमानो 5 मेरुयोजनलक्षमतिरिक्तं भवति चत्वारिंशदधिकयोजनलक्षप्रमाणो भवतीत्यर्थः ।।" - इति बृहत्क्षेत्र० मलय० ।। पृ०१४४ पं०२३] “साम्प्रतं महाहिमवतो जीवामाह- तेवन्न सहस्साई, नव य सया जोयणाण इगतीसा । जीवा महाहिमवए, अद्ध कला छक्कलाओ य ।।५६।। व्या० महाहिमवति पर्वते जीवा त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि एकत्रिंशदधिकानि योजनानां षट् कलाः 10 परिपूर्णा: अर्धकला च । तथाहि- महाहिमवतोऽवगाहो लक्षं पञ्चाशत्सहस्राणि १५०००० । अनेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, ततो जातं शेषं सार्धाः सप्तदश लक्षा: १.७५०००७। एतावदवगाहेनोक्तरूपेण १५०००० गुण्यते, जातो द्विकः षट्कः द्विक: पञ्चक: अष्टो शून्यानि २६२५०००००००० । एष राशि: पुनश्चतुर्भिर्गुण्यते. जातः एककः शून्यं पञ्चकः शून्यानि दश १००००००००००००, एष महाहिमवतो जीवावर्गः, अस्य वर्गमूलमानीयते, लब्धः 15 एकक: शून्य द्विक: चतुष्कः षट्कः नवकः पञ्चकः १०२४६९५ । शेषमुरितमेककः पञ्चक: षट्क: नवक: सप्तकः पञ्चक: १५६९७५ । छेदराशि: द्विक: शून्यं चतुष्कः नवक: त्रिकः नवकः शून्यं २०४९३९० । वर्गमूललब्धस्य तु राशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि एकत्रिंशदधिकानि कलाः षट् ५३९३१ क० ६ । उरितस्तु कलाराशिरर्धकलानयनाय द्रिकेन गुण्यते, ततश्छेदराशिना भज्यते इति लब्धमेकं कलामिति 20 ।।५६ ॥” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०१४८ पं०९] साम्प्रतमस्यैव महाहिमवतो धनु:पृष्ठं बाहां चाह– सत्तावन्न सहस्सा, धणुपटुं तेणउय दुसय दस य कला । बाहा बाणुउइ सया, छसत्तरा नव कलद्धं च ।।५७।। व्या० महाहिमवतो धनु:पृष्ठं सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके योजनानां कला दश । तथाहि- महाहिमवत इषुः सार्धलक्षप्रमाणः १५००००, तस्य वर्गो द्विकः द्विक: पञ्चकः शून्यान्यष्टौ 25 २२८०००००००० । एष राशिः षभिर्गुण्यते, जात एकक: त्रिक: पञ्चकः शून्यानि नव १३५०००००००००, एतत् प्रागभिहिते महाहिमवतो जीवावर्गे एककः शून्यं पञ्चक: शून्यानि दश १०५०००००००००० इत्येवंपरिमाणे प्रक्षिप्यते, जात एककः एकक: अष्टकः पञ्चकः शून्यानि नव ११८५०००००००००. अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः शून्यम् अष्टकः अष्टकः पञ्चकः सप्तकः सप्तक: १०८८५७७ । शेषमिदम् एकक: एककः पञ्चकः शून्यं सप्तक: एकक: ११५०७१ । 30 छेदराशिर्दिक: एककः सप्तकः सप्तकः एककः पञ्चक: चतुष्क: २१७७१५४ । वर्गमूललब्धस्य कलाराशर्योजनानयनार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ द्वितीयं परिशिष्टम् । त्रिनवत्यधिके कला दश ५७२९३ क० १० ।। तथा द्विनवतिशतानि षट्सप्ततानि षट्सप्तत्यधिकानि योजनानां नव कला एकं च कलार्धमित्येतावत्प्रमाणा पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं महाहिमवतो बाहा । तथाहि- महतो धनुःपृष्ठान्महाहिमवतः सत्कात् सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके कला दश ५७२९३ क० १० इत्येवंपरिमाणात् लघु धनुः पृष्ठं हैमवतवर्षसंबन्धि योजनानामष्टात्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि कला दश ३८७४० क० १० एवंसङ्ख्यमपनीयते, 5 अपनीते च सति तस्मिन् जातं शेषमिदम् एकक: अष्टकः पञ्चकः पञ्चक: त्रिक: १८५५३, अस्यार्धे लब्धानि योजनानां द्विनवतिशतानि षट्सप्तत्यधिकानि नव कला एवं कलार्धं ९२७६ क० ९ अर्धम् १ ॥५७॥” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । __ [पृ०१५२ पं०३] “केणमित्यादि, केन कारणेन शुक्लपक्षे चन्द्रो वर्द्धते ? केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपक्षे परिहाणिर्भवति, केन वा अनुभावेन प्रभावेण चन्द्रस्य एकः पक्षः कृष्णो भवति 10 एको ज्योत्स्नः - शुक्ल इति ? एवमुक्ते भगवानाह- किण्हमित्यादि, इह द्विविधो राहुस्तद्यथापर्वराहुः नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात् समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं च अन्तरितं करोति, अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णम्, तच्च तथाजगत्स्वाभाव्यात् चन्द्रेण सह नित्यं सर्वकालमविरहितं तथा चतुरङ्गुलेन चतुभिर्रगुलैरप्राप्तं सत् चन्द्रविमानस्याधस्ताच्चरति, तच्चैवं चरत् शुक्लपक्षे 15 शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह- बावट्ठिमित्यादि, इह द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनावपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हृते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वाषष्टिशब्देनोच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, एतच्च व्याख्यानं जीवाभिगमचूर्खादिदर्शनतः कृतम्, न पुनः स्वमनीषिकया, तथा चास्या एव गाथाया व्याख्याने जीवाभिगमचूर्णि:- “चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते, तत्र चत्वारो 20 भागा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, शेषौ द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते'' इत्यादि, एवं च सति यत् समवायाङ्गसूत्रम् - ‘सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे चंदो बावट्टि भागे परिवड्डइ'त्ति तदप्येवमेव व्याख्येयम्, सम्प्रदायवशाद्धि सूत्रं व्याख्येयम्, न स्वमनीषिकया, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यत् यस्मात् कारणात् चन्द्रो द्वाषष्टिं द्वाषष्टिं भागान्- द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत्परिवर्धते, कालेन कृष्णपक्षेन पुनर्दिवसे दिवसे 25 तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् क्षपयति परिहापयति । एतदेव व्याचष्टे- पन्नरस इत्यादि, कृष्णपक्षे प्रतिदिवसं राहुविमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति आच्छादयति, शुक्लपक्षे तु पुनस्तमेव प्रतिदिवसं पञ्चदशभागम् आत्मीयेन पञ्चदशभागेन व्यतिक्रामति मुञ्चति, किमुक्तं भवति ?-कृष्णपक्षे प्रतिपदं आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण 30 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलवृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपत: पनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव । तथा चाह- एवं वडइ इत्यादि, एवं राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणकरणतो वर्धते वर्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं राहविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणावरणकरणत: प्रतिहानिः प्रतिहानिप्रतिभासो भवति चन्द्रस्य विषये, एतेनैवानुभावेन कारणेन एकः पक्ष: काल: 5 कृष्णो भवति. यत्र चन्द्रस्य परिहाणिः प्रतिभासते, एकस्तु ज्योत्स्न: शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः ।" इति सूर्यप्रज्ञप्ते: एकोनविंशतितमे प्राभृते १०० तमसूत्रस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ । [पृ०१५२ पं०१८] “इह द्विविधो राहुस्तद्यथा-पर्वराहुर्नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात् समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति, अन्तरिते 10 च कृते लोक ग्रहणमिति प्रसिद्धिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णं तथाजगत्स्वाभाव्याच्चन्द्रेण सह नित्यं' सर्वकालमविरहितं तथा 'चउरंगुलेन' चतुरङ्गुलैरप्राप्तं सत् चन्द्रस्य चन्द्रविमानस्याधस्ताच्चरति, तच्चैवं चरत् शुक्लपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्ष च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह- इह द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनौ सदाऽनावार्यस्वभावत्वाद् अपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हृते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते 15 द्वाषष्टिशब्दनोच्यन्ते. अवयवे समुदायोपचारात्, एतच्च व्याख्यानमेतस्यैव चूर्णिमुपजीव्य कृतं न स्वमनीषिकया, तथा च तद्ग्रन्थ:- ‘चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भागोऽपह्रियते, तत्र चत्वारो भागा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते शेषौ द्वौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यत' इति, एवं च सति यत्समवायाङ्गसूत्रम्- “सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे बावट्टि बावटि भागे परिवड्डइ” इति, तदप्येवमेव व्याख्येयम्, संप्रदायवशाद्धि सूत्रं व्याख्येयम्, न 20 स्वमनीषिकया. अन्यथा महदाशातमाप्रसक्तेः, संप्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यद् यस्मात् कारणाच्चन्द्रो द्वाषष्टिद्वाषष्टिभागान् द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत् परिवर्द्रते, कालेन कृष्णपक्षण पुनर्दिवसे २ तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् ‘प्रक्षपयति' परिहापयति, एतदेव व्याचष्टे- कृष्णपक्षे प्रतिदिवस राहुविमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन तं ‘चन्द्र' चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति' आच्छादयति, शुक्लपक्षे पुनस्तमेव प्रतिदिवसं 25 पञ्चदशभागमात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन ‘व्यतिक्रामति' मुञ्चति, किमुक्तं भवति ? कृष्णपक्षे प्रतिपद आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितन-भागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव, तथा चाह- एवं राहविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणकरणतो 'वर्द्धते' वर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः' इति 30 जीवाभिगमसूत्रस्य तृतीयायां प्रतिपत्तौ द्वितीये उद्देशके मलयगिरिविरचितायां वृत्तौ ।। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । पृ०१५७ पं०२२] “अधुनाऽस्यैव क्षुल्लहिमवतो धनुःपृष्ठं बाहां चाह- धणुपट्ट कलचउक्कं, पणुवीससहस्स दुसय तीसऽहिया । बाहा सोलद्धकला, तेवन्न सया य पनहिया ॥५३॥ व्या० पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके योजनानां कलाश्चतस्रः २५२३० क० ४ इत्येतावत्परिमाणं क्षुल्लहिमवतो धनुःपृष्ठम् । तथाहि- क्षुल्लहिमवतः इषुपरिमाणं त्रिंशत्सहस्राणि कलानाम् ३००००, अस्य वर्गो विधीयते, जातो नवक: अष्टौ शून्यानि ९०००००००० । एष राशिभूयः षड्भिर्गुण्यते, 5 जातः पञ्चकः चतुष्क: अष्टौ शून्यानि ५४०००००००० । एतत् क्षुल्लहिमवतो जीवावर्गे प्रागुक्तस्वरूपे द्विकः द्विकः चतुष्कः चतुष्क: अष्टौ शून्यानि २२४४०००००००० इत्येवंपरिमाणे प्रक्षिप्यते । ततो जातो राशिरयम्- द्विकः द्विकः नवकः अष्टकः अष्टौ शून्यानि २२९८०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः चतुष्कः सप्तक: नवकः त्रिकः सप्तकः चतुष्कः ४७९३७४ । शेषं तूद्धरितं पञ्चकः षट्कः अष्टक: एककः द्विक: चतुष्कः ५६८१२४ । छेदराशिः नवकः पञ्चक: अष्टक: 10 सप्तकः चतुष्कः अष्टकः ९५८७४८ । वर्गमूललब्धस्तु कलाराशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके चतस्रः कला: २५२३० क० ४ । तथा त्रिपञ्चाशच्छतानि पञ्चाशदधिकानि योजनानां षोडशार्धकलाः सार्धपञ्चदशकला: ५३५० क० १५३ इत्येतावत्प्रमाणा पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं बाहा । तथाहि- महतो धनुःपृष्ठात क्षुल्लहिमवतः संबन्धिनः पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके योजनानां कलाश्चतस्रः २५२३० 15 क० ४ इत्येवंपरिमाणात् लघु धनुःपृष्ठमुत्तरभरतार्धसंबन्धि चतुर्दश सहस्राणि पञ्च शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि योजनानां कलाश्चैकादश १४५२८ क० ११ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, शोधिते च सति जातं शेषमिदं दश सहस्राणि सप्त शतानि एककोत्तराणि योजनानां कलाश्च द्वादश १०७०१ क० १२ । एतेषामधे लब्धानि त्रिपञ्चाशच्छतानि पञ्चाशदधिकानि योजनानां कलाः पञ्चदश एक कलार्धम् ५३५० क० १५ अर्धम् १ ॥५३॥" -इति बृहत्क्षेत्र० मलय० ॥ 20 पृ०१६२ पं०७] “मोत्तूण सगमबाहं पढमाइ ठिईइ बहुतरं दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसं ति सव्वेसिं ॥८३॥ व्या०- तदेवं कृता स्थितिस्थानप्ररूपणा । सम्प्रति निषेकप्ररूपणावसरः। तत्र च द्वे अनुयोगद्वारे -अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा च । तत्रान्तरोपनिधाप्ररूपणार्थमाह- मोत्तूण त्ति सर्वस्मिन्नपि कर्मणि बध्यमाने आत्मीयमात्मीयमबाधाकालं मुक्त्वा परित्यज्य ऊर्ध्वं दलिकनिक्षेपं करोति । तत्र प्रथमायां स्थितौ समयलक्षणायां प्रभूततरं 25 द्रव्यं कर्मदलिकं निषिञ्चति । एत्तो विसेसहीणं ति इतः प्रथमस्थितेरूचं द्वितीयादिषु समयसमयप्रमाणासु विशेषहीनं विशेषहीनं कर्मदलिकं निषिञ्चति । तथाहि- प्रथमस्थितेः सकाशात् द्वितीयस्थिती विशेषहीनम्, ततोऽपितृतीयस्थितौ विशेषहीनम्, ततोऽपि चतुर्थस्थितौ विशेषहीनम्, एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत्तत्तत्समय बध्यमानकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिश्चरमसमय इत्यर्थः ।।८३।।” इति मलयगिरिसूरिविरचितायां कर्मप्रकृतिवृत्तौ ।। 30 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । १९ पृ०१६७ पं०५] “अधुना हरिवर्षस्य जीवामाह- एगुत्तरा नव सया, तेवत्तरिमेव जोयणसहस्सा। जीवा सत्तरस कला, अद्धकला चेव हरिवासे ॥५८।। व्या० हरिवर्षे हरिवर्षाभिधस्य क्षेत्रस्य जीवा त्रिसप्ततिसहस्राणि नव शतानि एकोत्तराणि योजनानां कला: सप्तदश अर्धकला च । तथाहि- हरिवर्षस्यावगाहस्त्रीणि लक्षाणि दश सहस्राणि ३१००००, अनेन 5 जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाणो हीनः क्रियते, जाता: शेषाः पञ्चदश लक्षा नवतिसहस्राणि १५९००००, एतदुक्तप्रमाणेनावगाहेन ३१०००० गुण्यते, जातः चतुष्क: नवक: द्विक: नवकः अष्टौ शून्यानि ४९२९०००००००० । एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, जात एककः नवकः सप्तक: एककः षट्कः शून्यानि चाष्टौ १९७१६०००००००० । एष हरिवर्षस्य जीवावर्गः, अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः चतुष्कः शून्यं चतुष्कः एकक: त्रिकः षट्कः १४०४१३६ । शेष 10 तिष्ठति द्विक: शून्यं नवक: त्रिकः पञ्चकः शून्यं चतुष्क: २०९३५०४ । छेदराशिः द्विकः अष्टक: शून्यम अष्टक: द्विकः सप्तकः द्विक: २८०८२७२ । ततो योजनकरणार्थं वर्गमूललब्धमेकोनविंशत्या भज्यते. लब्धानि योजनानां त्रिसप्ततिसहस्राणि नव शतानि एकोत्तराणि कला: सप्तदश ७३९०१ क० १७ । उद्धरितस्तु कलाराशिरर्धकलानयनाय द्विकेन गुण्यते, गुणयित्वा च यथोक्तप्रमाणेन छेदराशिना भज्यते लब्धमेकं कलार्धम्, शेषस्त्वर्धकलाराशिरेवंरूपस्तिष्ठति एककः त्रिक: सप्तक: 15 अष्टक: सप्तक: त्रिकः षट्कः १३७८७३६ ॥५८॥” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । ___ [पृ०१७९ पं०११] “साम्प्रतमस्यैव हरिवर्षस्य बाहां धनुःपृष्ठं चाह- बाहा तेर सहस्सा, एगट्ठा तिसय सय छक्कलऽद्धकला । धणुपट्ट कलं चउक्कं, चुलसीड सहस्स सोलहिया ||५|| व्या० हरिवर्षस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं बाहापरिमाणं त्रयोदश सहस्राणि त्रीणि शतानि एकषष्टानि एकषष्ट्यधिकानि योजनानां षट् कला: एकं च कलार्धम् । तथाहि- महतो धनु:पृष्ठात् 20 हरिवर्षसत्कात् चतुरशीतिर्योजनानां सहस्राणि षोडशाधिकानि कलाश्चतस्रः ८४०१६ क० ४ इत्येवपरिमाणात डहरकं धन : पष्ठ महाहिमवतः संबन्धि सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके कला दश ५७२९३ क० १० इत्येवंपरिमाण शोध्यते. शोधिते च सति जातं शेषमिदम- षडविंशति: सहस्राणि सप्त शतानि द्वाविंशत्यधिकानि योजनानां त्रयोदश कला: २६७२२ क० १३, एतेषामधे लब्धानि योजनानां त्रयोदश सहस्राणि त्रीणि शतानि एकषष्ट्यधिकानि षट् च कलाः सार्धाः १३३६१ 25 कला: ६ अर्धम् । तथा चतुरशीतिर्योजनानां सहस्राणि षोडशाधिकानि चतस्रः कला: ८४०१६ क० ४ इत्येतावत्परिमाणं हरिवर्षस्य धनुःपृष्ठम् । तथाहि- हरिवर्षस्येषुपरिमाणं तिम्रो लक्षा दश सहस्राणि ३१००००, अस्य वर्गो विधीयते, जातो नवकः षट्क: एककः शून्यान्यष्टौ ९६१०००००००० भूय एष राशिः षड्भिर्गुण्यते, आगतः पञ्चकः सप्तकः षट्कः षट्कः अष्टौ शून्यानि ५७६६००००००००। एतत् हरिवर्षक्षेत्रस्य सत्के एकक: नवकः सप्तक: एककः षट्क: शून्यान्यष्टौ 30 १९७१६०००००००० इत्येवंरूपे जीवावर्गे प्रक्षिप्यते, ततो जातो राशिरेवंप्रमाण:- द्विकः पञ्चकः Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० द्वितीयं परिशिष्टम् । चतुष्कः अष्टकः द्विकः शून्यान्यष्टौ २५४८२०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः पञ्चकः नवकः षट्कः त्रिक: शून्यम् अष्टौ(ष्टकः) १५९६३०८ । शेषमुद्धरति सप्तकः षट्कः नवकः एककः त्रिकः षट्कः ७६९१३६ । छेदराशिः त्रिकः एककः नवकः द्विकः षट्कः एककः षट्कः ३१९२६१६ । वर्गमूललब्धस्तु कलाराशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां चतुरशीतिसहस्राणि षोडशाधिकानि चतस्रः कला: ८४०१६ क० ४ ।।५९।।" - इति बृहत्क्षेत्र० 5 मलय० । [पृ०१८० पं०३] “पुढविदगअगणिमारुय, इक्किक्के सत्त जोणिलक्खाओ । वणपत्तेय अणंते, दस चउदस जोणिलक्खाओ ॥३५१।। विगलिंदिएसु दो दो, चउरो चउरो अ नारयसुरेसु । तिरिएसु हुँति चउरो, चउदस लक्खाओ मणुएसु ॥३५२॥ व्या० पृथिव्युदकाग्निमरुतां संबन्धिन्येकैकस्मिन् समूहे सप्त योनिलक्षा भवन्ति, तद्यथा- सप्त पृथिवीनिकाये, सप्तोदकनिकाये, 10 सप्ताग्निनिकाये, सप्त वायुनिकाये । वनस्पतिनिकायो द्विविधः, तद्यथा- प्रत्येकोऽनन्तकायश्च । तत्र प्रत्येकवनस्पतिनिकाये दश योनिलक्षाः, अनन्तवनस्पतिनिकाये चतुर्दश । विकलेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियरूपेषु प्रत्येकं द्वे द्वे योनिलक्षे, तद्यथा- द्वे योनिलक्षे द्वीन्द्रियेषु, द्वे त्रीन्द्रियेषु, द्वे चतुरिन्द्रियेषु । तथा, चतम्रो योनिलक्षा नारकाणाम्, चतम्रो देवानाम्, तथा तिर्यक्षु पञ्चेन्द्रियेषु चतम्रो योनिलक्षाः, चतुर्दश योनिलक्षा मनुष्येषु । सर्वसङ्ख्यया चतुरशीतिर्योनिलक्षा भवन्ति । 15 उक्तं च– 'नभस्वतः सप्त जलस्य चाग्नेः, क्षितेस्तथा ताश्च निगोदयोट्टे । स्मृताश्चतस्रः किल नारकाणां तथा तिरश्चां त्रिदिवौकसां च ॥१॥ त्रिरीरिते द्वे विकलेन्द्रियाणां चतुर्दश स्युर्मनुजन्मनां च । वनस्पतीनां दश योनिलक्षा, अशीतिरेवं चतुरुत्तरा स्यात् ॥२॥' [ ] इति ॥३५१-३५२॥' - इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ [पृ०१८१ पं०१] “उक्ता ज्योतिष्कविमानवक्तव्यता, सम्प्रति वैमानिकदेवविमानवक्तव्यतामाह- 20 बत्तीसट्ठावीसा बारस अट्ठ य चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥११७।। व्या० ब्रह्मलोकात् ब्रह्मलोकचरमपर्यन्तादारतोऽर्वाक् । किमुक्तं भवति ? ब्रह्मलोकमभिव्याप्य एषा विमानसङ्ख्या भवति, तद्यथा-सौधर्मे कल्पे द्वात्रिंशद्विमानानां शतसहस्राणि ३२००००० । ईशानदेवलोकेऽष्टाविंशतिः २८००००० । सनत्कुमारकल्पे द्वादश १२००००० । माहेन्द्रकल्पेऽष्टौ ८००००० । ब्रह्मलोके कल्पे चत्वारि ४००००० ॥११७॥ तथा- पन्नास चत्त 25 छच्चेव सहस्सा लंतसुक्कसहस्सारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिन्नारणच्चुयए ॥११८।। व्या० अत्रापि पूर्वार्धे कल्पक्रमेण सङ्ख्यापदयोजना । लान्तके कल्पे पञ्चाशद्विमानानां सहस्राणि ५०००० । महाशुक्रे कल्पे चत्वारिंशत्सहस्राणि ४०००० । सहस्रारे कल्पे षट् सहस्राणि ६००० । तथा आनतप्राणतयोर्द्वयोः कल्पयोः समुदितयोश्चत्वारि विमानशतानि ४०० । आरणाच्युतयोर्द्वयोः कल्पयोः समुदितयोस्त्रीणि विमानशतानि ३०० ।।११८।। तथा– इक्कारसुत्तरं हिटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए। 30 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । सयमगं उवरिमए पंचव अणुत्तरविमाणा ॥११९।। व्या० अधस्तनेषु त्रिषु ग्रैवेयकेषु समुदितेषु विमानानामेकादशोत्तरशतम् १११ । मध्यमे ग्रैवेयकत्रिके समुदिते सप्तोत्तरं विमानानां शतम् १०७ । उपरितने ग्रैवेयकत्रिके समुदिते शतमेकं विमानानाम् १०० । सर्वपर्यन्तवर्तिनि तु चरमे प्रस्तटे पञ्चैवानुत्तरविमानानि, न विद्यते उत्तर प्रधानं परं वा येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, तानि च तानि विमानानि 5 च अनुत्तरविमानानि ।।११९।।" इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् । [पृ०१८९ पं०२] "भिक्खूपडिमाण दारा ४ । अधिकारो उवधाणेण । जतो आह-भिक्खूणं उवधाण० गाथा ४७ ।। भिक्खूणं उवहाणे पगयं तत्थ व हवन्ति निक्खेवा । तिनि य पुव्वहिट्ठा पगयं पुण भिक्खुपडिमाए ॥१॥ पगयं अधिगारो. णामनिप्फण्णे भिक्खू पडिमा य दुपयं णाम, भिक्खू वण्णेयव्वो पडिमा य । तत्थ भिक्खु त्ति तस्सिं भिक्खुम्मि पडिमासु य 10 णिक्खवा णामादी ४. दोस वि तिन्नि णामढ़वणादव्वभिक्ख य पव्वहिवा. स भिक्खए अधिगारो भावभिक्खूए अधिगारो । भावभिक्खुणो तस्स वि पडिमासु, तासि णामादि तिन्नि पुव्ववण्णिता, उवासगडिमासु। पगतं अधिगारो भावपडिमाए, सा च भावडिमा पंचविधा, तंजधा-समाधि० गाथा ८८॥ समाहिओवहाणे य विवेकपडिमाइ य । पदिसंलीणा य तहा एगविहारे य पंचमीया 15 ।।२।। समाधिपडिमा, उवधाणपडिमा, विवेगपडिमा, पडिसंलीणपडिमा, एगविधारपडिमा । समाधिपडिमा द्विविधा- सुतसमाधिपडिमा चरित्तसमाधिपडिमा य, दर्शनं तदन्तर्गतमेव । सुतसमाधिडिमा। छावट्टि कहिं ? उच्यते-आयारे० गाथा ४९ ॥ आयारे बायाला पडिमा सोलस य वन्निया ठाणे । चत्तारि अ ववहारे मोए दो दो चंदपडिमाओ ।।३।। आयारे बातालीसं, कह ? आयारग्गेहिं सत्तत्तीसं, बंभचेरेहिं पंच, एवं 20 बातालीसं आयारे, ठाणे सोलस विभासितव्वा, ववहारे चत्तारि, दो मोयपडिमातो खुड्डिगा महल्लिगा य मोयपडिमा, दो चंदपडिमा - जवमज्झा वइरमज्झा य । एवं एता सुयसमाधिपडिमा छावट्ठि। एवं च सुयसमाधिपडिमा छावट्ठिया य पन्नत्ता । समाईयमाईया चारित्तसमाहिपडिमाओ ॥४॥ ५०। इमा पंच चारित्तसमाहिपडिमातो तंजधा-सामाइयचरित्तसमाधिपडिमा जाव अधक्खातचरित्तसमाधिपडिमा । उवहाणपडिमा दुविधा-भिक्खूणं० गाथा० ५१ ।। 25 भिक्खूणं उवहाणे उवासगाणं च वनिया सुत्ते । गणकोवाइविवेगो सन्भिंतरबाहिरो दुविहो ।।५।। भिक्खूणं उवहाणे बारसपडिमा सुत्ते वन्निजति । उवासगाणं एक्कारस सुत्ते वण्णिता। विवेगपडिमा एक्का सा पुण कोहादि, आदिग्रहणात् सरीर-उवधि-संसारविवेगा । सा समासतो दुविधा-अभिंतरगा बाहिरा य । अभिंतरिया कोधादीणं । आदिग्रहणात् माणमायालोभकम्मसंसाराण य। बाहिरिया गणसरीरभत्तपाणस्स य अणेसणिज्जस्स । पडिसलीणपडिमा चउत्था । सा एक्का 30 चेव। सा पुण समासेण दुविधा-इंदियपडिसंलीणपडिमा य नोइंदियपडिसंलीणपडिमा य । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । इंदियसंलीणपडिमा पंचविधा-सोतिंदियमादीया० गाथा ५२॥ सोइंदियमादीआ पदिसलीणया चउत्थिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य एगविहारिस्स पंचमिया ॥६॥ सोतिंदियविसयपयारणिसेहो वा सोतिंदियपजुत्तेसु वा अत्थेसु रागद्दोसणिग्गहो । एवं पंचण्ह वि । णोइंदियपडिसलीणता तिविधाजोगपडिसलीणता कसायपडिसंलीणता विवित्तसयणासणसेवणता जधा पन्नत्तीए । अहवा अभिंतरिया बाहिरगा य । एगविहारिस्स एगा चेव, सा य कस्स कप्पति ? आयरियस्स अट्टगुणोववेतस्स, 5 अट्ट गुणा आयारसंपदादी समग्गो उववेतो, किं सव्वस्सेव ? नेत्युच्यते-जो सो अतिसेसं गुणेति विजादि पव्वेसु । उक्तं च- ‘अंतो उवस्सगस्स एगरातं वा दुरातं वा तिरातं वा वसभस्स वा गीतत्थस्स विज्जादिनिमित्तं' [ ] । एवं छण्णउतिं सव्वग्गेण भावपडिमा ।"- इति दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी सप्तम्यां दशायाम् । [पृ०१८९ पं०१०] “मासाई सत्तंता पढमा बिइतइयसत्तराइदिणा । अहराई एगराई 10 भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥१८॥३॥ मासा० गाहा । मासादयो मासप्रभृतयः । सप्तान्ताः सप्तमासावसानाः । एकैकमासवृद्ध्या सप्त प्रतिमा भवन्ति । तत्र मासः परिमाणमस्या मासिकी प्रथमा, एवं द्विमासिकी द्वितीया, त्रिमासिकी तृतीया यावत्सप्तमासिकी सप्तमी । पढमा-बिड़तइय सत्तराइदिण त्ति सप्तानामुपरि प्रथमा द्वितीया तृतीया च सप्त रात्रि-दिनानि रात्रिंदिवानि यस्यां सा तथा प्रतिमा भवति । तदभिलापश्चैवम्- प्रथमा सप्तरात्रिंदिवेत्यादि । एताश्चादितः क्रमेणाष्टमी 15 नवमी दशमी चेति । अहराइ त्ति । अहोरात्रं परिमाणमस्या अहोरात्रिकी एकादशी । एका रात्रिर्यस्यां सा एकरात्रिरेकरात्रिकीत्यर्थः, द्वादशीति । एवं भिक्षुप्रतिमानामुक्तार्थानां द्वादश परिमाणमस्येति द्वादशकं वृन्दं भवतीति गाथासमासार्थः । [पं०११] दंसणवयसामाइयपोसहपडिमाअबंभसच्चित्ते । आरंभपेसउद्दिट्ठवजए समणभूए य ॥१०॥३॥ दंसण० गाहा । दर्शनं च सम्यग्दर्शनम् । व्रतानि चानुव्रतादीनि । सामायिकं 20 च सावद्येतरयोगवर्जनासेवास्वभावम् । पौषधं च पर्वदिनानुष्ठेयमुपवासादि । प्रतिमा च कायोत्सर्गः। अब्रह्म चाब्रह्मचर्यम् । सचित्तं च सचेतनद्रव्यमिति । समाहारद्वन्द्वः । ततस्तस्मिन् विषये । प्रतिमेति प्रकरणगम्यम् । इह च दर्शनादिषु पञ्चसु विधिद्वारेण प्रतिमा, अब्रह्मसचित्तयोस्तु वर्जनद्वारेणेति । तथा आरम्भश्च स्वयं कृष्यादिकरणम्, प्रेषश्च प्रेषणं परेषां कृष्यादिषु प्रवर्तनम्, उद्दिष्टं चाधिकृतं श्रावकमुद्दिश्य सचेतनं सदचेतनीकृतं पक्वं वा, यो वर्जयति परिहरतेऽसावारम्भ-प्रेषोद्दिष्टवर्जक: 25 प्रतिमेति प्रकृतमेव । इह च प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदादेवमुपन्यासः । तथा श्रमण: साधुः स इव यः सः श्रमणभूतः । भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् । इहापि प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदेनोपन्यासः । चशब्दः समुच्चयार्थः । एतासां च दर्शनप्रतिमा व्रतप्रतिमेत्येवमादिरभिलापो द्रष्टव्यः । इति द्वारगाथासमासार्थः ॥१०॥३॥” इति पञ्चाशकस्य श्रीअभयदेवसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ [पृ०१९१ पं०१] “सम्प्रति निषधस्य जीवामाह- चउणउइ सहस्साइं, छप्पन्नहियं सयं 30 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । कलाउदो य । जीवा निसहस्सेसा, धणुपट्टं से इमं होइ || ६०|| व्या० निषधस्य निषधवर्षधरस्य जीवा एषा यदुत चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि शतमेकं षट्पञ्चाशदधिक द्वे च कले । तथाहिनिषधस्यावगाहः षड् लक्षाः त्रिंशत्सहस्राणि ६३००००, अनेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, जातं शेषं द्वादश लक्षा: सप्ततिसहस्राणि १२७००००, 5 एतद्यथोक्तेनावगाहेन गुण्यते, जातः अष्टकः शून्य शून्यम् एककः अष्टौ शून्यानि ८००१०००००००० | एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातः त्रिकः द्विकः शून्यं शून्यं चतुष्कः शून्यान्यष्टौ ३२००४००००००००| एष निषधस्य जीवावर्गः, अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः सप्तकः अष्टकः अष्टकः नवकः षट्कः षट्कः १७८८९६६ | शेषमिदं षट्कः पञ्चकः शून्यमष्टकः चतुष्कः चतुष्कः ६५०८४४ । छेदराशिः त्रिकः पञ्चकः सप्तकः सप्तकः नवकः त्रिकः द्विकः ३५७७९३२ । वर्गमूललब्धस्य तु 10 राशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो हियते, लब्धानि योजनानां चतुर्नवतिसहस्राणि शतमेकं षट्पञ्चाशदधिकं द्वे च कले ९४९५६ क० २ । धनुः पृष्ठं धनुः पृष्ठपरिमाणं से' तस्य निषधपर्वतस्येदं वक्ष्यमाणं भवति ||६०||" इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०९९४ पं०११] “नव चेव सहस्साई, छावट्ठाई सयाई सत्तेव । सविसेस कला चेगा, दाहिणभरहद्बधणुप ||४३|| व्या० दक्षिणभरतार्धधनुः पृष्ठं धनुः पृष्ठपरिमाणं नव सहस्राणि 15 सप्त शतानि षट्षष्टानि षट्षष्ट्यधिकानि, कला चैकोनविंशतिभागरूपा एका सविशेषा ९७६६ क० १ किञ्चिद्विशेषाधिका, तथाहि - धनुः पृष्ठस्य करणमिदम् - इषुवर्गं षड्गुणं जीवावर्गे प्रक्षिप्य यत्तस्य वर्गमूलं तद्धनुः पृष्ठमिति । तत्र दक्षिणभरतार्धस्येषुः कलारूप: पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चविंशत्यधिकानि ४५२५. अस्य वर्गो द्विकः शून्यं चतुष्कः सप्तकः पञ्चकः षट्कः द्विकः पञ्चकः २०४७५६२५। एष षइभिर्गुण्यते, जात एककः द्विकः द्विकः अष्टकः पञ्चक: त्रिकः सप्तकः पञ्चकः 20 शून्यम् १२२८५३७५० एष राशिर्दक्षिणभरतार्धस्य सत्के जीवावर्गे त्रिकश्चतुष्कस्त्रिकः शून्यमष्टकः शून्यं नवकः सप्तकः पञ्चकः शून्य शून्यम् ३४३०८०९७५०० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, ततो जातो राशिः त्रिकः चतुष्कः चतुष्कः त्रिकः शून्यं नवकः पञ्चकः एककः द्विकः पञ्चकः शून्यम् ३४४३०९५१२५० । अस्य वर्गमूले लब्धम् एककः अष्टकः चत्वारः पञ्चकाः १८५५५५ । शेषस्तुपरितनो राशिर्द्विकः नवक: त्रिकः द्विकः द्विकः पञ्चकः २९३२२५, छेदराशि: त्रिकः सप्तकः 25 त्रय एककाः शून्यम् ३७१११० । वर्गमूललब्धस्य तु राशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो हियते, लब्धानि योजनानां नव सहस्राणि सप्त शतानि षट्षष्ट्यधिकानि कला चैका ९७६६ क० १ ||४३|| २३ [पं० १४] साम्प्रतमस्यैव वैताढ्यपर्वतस्य धनुः पृष्ठमाह - दस चेव सहस्साई, सत्तेव सया हवंति तेयाला । धणुपट्टं वेयड्डे, कला य पन्नरस हवंति || ४५ || व्या० दश सहस्राणि सप्त 30 शतानि त्रिचत्वारिंशानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि योजनानां कलाश्च पञ्चदश भवन्ति १०७४३ क० Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । १५ वैताढ्यस्य धनुःपृष्ठम् । तथाहि- वैताढ्यस्येषुः कलानां चतुःपञ्चाशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ५४७५, अस्य वर्गो विधीयते जातो द्विकः नवकः नवकः सप्तकः पञ्चकः षट्कः द्विकः पञ्चकः २९९७५६२५ । भूय एष राशिः षड्भिर्गुण्यते, जात एककः सप्तकः नवकः अष्टकः पञ्चकः त्रिक: सप्तकः पञ्चकः शून्यम् १७९८५३७५० । एष राशिर्वैताढ्यसत्के जीवावर्गे चतुष्कः एककः चतुष्कः नवकः शून्यं शून्यं नवकः सप्तकः पञ्चकः शून्यं शून्यम् ४१४९००९७५०० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, 5 ततो जातमिदम्- चतुष्कः एककः षट्कः षट्कः नवकः नवकः पञ्चकः एककः द्विकः पञ्चकः शून्यम् ४१६६९९५१२५० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धं द्वे लक्षे चत्वारि सहस्राणि शतमेकं द्वात्रिंशदधिकं कलानाम् २०४१३२ । शेषस्तूपरितनो राशिस्तिष्ठति सप्तसप्ततिसहस्राणि अष्टौ शतानि षड्विंशत्यधिकानि ७७८२६, छेदराशिश्चतम्रो लक्षा अष्टौ सहस्राणि द्वे शते चतुःषष्ट्यधिके ४०८२६४। वर्गमूललब्धस्तु राशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां दश 10 सहस्राणि सप्त शतानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि कलाः पञ्चदश १०७४३ क० १५ ॥४५॥” इति बृहत्क्षेत्रसमासे मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ _[पृ०२०८ पं०१९] दिगम्बरपरम्परायां तत्त्वार्थराजवार्तिके यादृशमाचाराङ्गादिस्वरूपं वर्णित तदत्रोपन्यस्यते- “अङ्गप्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदं बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तगणधरानुस्मृतग्रन्थरचनम् ।१२। भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवन्निर्गतवाग्गङ्गाऽर्थविमलसलिलप्रक्षालितान्तःकरणैः बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तैर्गण- 15 धरैरनुस्मृतग्रन्थरचनम् आचारादिद्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते । तद्यथा-आचारः, सूत्रकृतम्, स्थानम्, समवायः, व्याख्याप्रज्ञप्तिः, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययनम्, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणम्, विपाकसूत्रम्, दृष्टिवाद इति । आचारे चर्याविधानं शुद्ध्यष्टकपञ्चसमितित्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते ।। सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना कल्प्याकल्प्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधर्मक्रियाः प्ररूप्यन्ते । 20 स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते । समवाये सर्वपदार्थानां समवायश्चिन्त्यते । स चतुर्विधः-द्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पैः। तत्र धर्माऽधर्मास्तिकायलोकाकाशैकजीवानां तुल्याऽसंख्येयप्रदेशत्वात् एकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनाद् द्रव्यसमवायः । जम्बूद्वीपसर्वार्थसिद्ध्यप्रतिष्ठाननरकनन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात् क्षेत्रसमवायः। उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योस्तुल्यदशसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणात् 25 कालसमवायनात् कालसमवायः । क्षायिकसम्यक्त्वकेवलज्ञानकेवलदर्शनयथाख्यातचारित्राणां यो भावः तदनुभवस्य तुल्यानन्तप्रमाणत्वात् भावसमवायनाद् भावसमवायः । व्याख्याप्रज्ञप्तौ षष्टिव्याकरणसहस्राणि 'किमस्ति जीवः, नास्ति' इत्येवमादीनि निरूप्यन्ते । ज्ञातृधर्मकथायाम् आख्यानोपाख्यानानां बहुप्रकाराणां कथनम् । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । २५ उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् । संसारस्यान्तः कृतो यैस्ते अन्तकृतः । नमिमतङ्गगसोमिलरामपुत्रसुदर्शनयमलीकवलीककिष्कम्बलपालाम्बष्ठपुत्रा इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतः दश अस्यां वर्ण्यन्ते इति 5 अन्तकृदशा । अथवा, अन्तकृतां दशा अन्तकृद्दशा, तस्याम् अर्हदाचार्यविधिः सिध्यतां च। उपपादो जन्म प्रयोजन येषां त इमे औपपादिकाः, विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पञ्चानुत्तराणि. अनुत्तरेष्वौपपादिका अनुत्तरौपपादिका: ऋषिदास-धान्य-सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दनशालिभद्र-अभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयाविंशतस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुपसर्गानिर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्ना 10 इत्येवमनुत्तरोपपादिकाः दशास्या वर्ण्यन्त इत्यनुत्तरौपपादिकदशा । अथवा, अनुत्तरौपपादिकानां दशा अनुत्तरोपपादिकदशा, तस्यामायुर्वेक्रियिकानुबन्धविशेषः । आक्षेपविक्षेपैर्हेतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः । विपाकसूत्रे सुकृतदुःकृतानां विपाकश्चिन्त्यते । ____ द्वादशमग दृष्टिवाद इति । कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपिक-रोमश-हारीतमुण्डा-ऽश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम्, मरीचिकुमार-कपिलोलूक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवालि-माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीना चतुरशीतिः, साकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुनिनारायण - कठ - माध्यन्दिन - मौद-पैप्पलाद - बादरायणाम्बष्ठि - कृ दो विकायन- वसु - जैमिन्यादीनामज्ञानिकुदृष्टीनां सप्तषष्टिः, वशिष्ठ-पाराशर-जनुकर्णि-वाल्मीकि-रोमहर्षिणि-सत्यदत्त20 व्यासेलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् । एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते । स पञ्चविधः-परिकर्म सूत्रं प्रथमानुयोग: पूर्वगतं चूलिका चेति ।" इति तत्त्वार्थराजवार्तिके १२०॥ [पृ०२१३ पं० ६] "पज्जायाऽणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छिअं च नामं जावदव्वं च पाएण ।।२५।। यत् कस्मिंश्चिद् भृतकदारकादौ इन्द्राद्यभिधानं क्रियते, तद् 25 नाम भण्यत । कथंभूतं तत् ?, इत्याह- पर्यायाणां शक्र-परन्दर-पाकशासन-शतमर समानार्थवाचकानां ध्वनीनामनभिधेयमवाच्यम्, नामवतः पिण्डस्य संबन्धी धर्मोऽयं नाम्न्युपचरितः, स हि नामवान भृतकदारकादिपिण्ड: किलैकेन संकेतितमात्रेणेन्द्रादिशब्देनैवाऽभिधीयते, न तु शेषैः शक्र-पुरन्दर-पाकशासनादिशब्दैः, अतो नामयुक्तपिण्डगतधर्मो नाम्न्युपरितः पर्यायानभिधेयमिति । पुनरपि कथंभूतं तन्नाम ?. इत्याह- ठिअमण्णत्थे त्ति विवक्षिताद् भृतकदारकादिपिण्डादन्य30 श्वासावर्थश्चाऽन्यार्थो देवाधिपादिः, सद्भावतस्तत्र यत् स्थितम्, भृतकदारकादौ तु संकेतमात्रतयैव नातीना Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । वर्तते, अथवा सद्भावतः स्थितमन्वर्थे अनुगतः संबद्धः परमैश्वर्यादिकोऽर्थो यत्र सोऽन्वर्थः शचीपत्यादिः, सद्भावतस्तत्र स्थितम्, भृतकदारकादौ तर्हि कथं वर्तते ?, इत्याह-तदर्थनिरपेक्ष तस्येन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः परमैश्वर्यादिस्तस्य निरपेक्षं संकेतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतकदारकादौ वर्तते, इति पर्यायानभिधेयम्, स्थितमन्यार्थे, अन्वर्थे वा, तदर्थनिरपेक्षं यत् क्वचिद् भृतकदारकादौ इन्द्राद्यभिधानं क्रियते तद् नाम, इतीह तात्पर्यार्थः । प्रकारान्तरेणाऽपि नाम्नः स्वरूपमाह- यादृच्छिकं 5 चेति, इदमुक्तं भवति– न केवलमनन्तरोक्तम्, किन्त्वन्यत्राऽवर्तमानमपि यदेवमेव यदृच्छया केनचिद् गोपालदारकादेरभिधानं क्रियते, तदपि नाम, यथा डित्थो डवित्थ इत्यादि । इदं चोभयरूपमपि कथंभूतम् ?, इत्याह- यावद्र्व्यं च प्रायेणेति -यावदेतद्वाच्यं द्रव्यमवतिष्ठते तावदिदं नामाऽप्यवतिष्ठत इति भावः । किं सर्वमपि ?, न, इत्याह- प्रायेणेति, मेरु-द्वीप-समुद्रादिकं नाम प्रभूतं यावद्र्व्यभावि दृश्यते, किञ्चित् त्वन्यथाऽपि समीक्ष्यते, देवदत्तादिनामवाच्यानां द्रव्याणां 10 विद्यमानानामप्यपरापरनामपरावर्तस्य लोके दर्शनात् । सिद्धान्तेऽपि यदुक्तम्-“नामं आवकहिअं' [ ]ति तत् प्रतिनियतजनपदादिसंज्ञामेवाऽङ्गीकृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि । तदेवं प्रकारद्वयेन नाम्नः स्वरूपमत्रोक्तम्, एतच्च तृतीयप्रकारस्योपलक्षणम्, पुस्तक-पत्र-चित्रादिलिखितस्य वस्त्वभिधानभूतेन्द्रादिवर्णावलीमात्रस्याऽप्यन्यत्र नामत्वेनोक्तत्वादिति । एतच्च सामान्येन नाम्नो लक्षणमुक्तम्, प्रस्तुते त्वेवं योज्यते-यत्र मङ्गलार्थशून्ये वस्तुनि मङ्गलमिति नाम क्रियते, तद् वस्तु नाम्ना नाममात्रेण 15 मङ्गलमिति कृत्वा नाममङ्गलमित्युच्यते । पुस्तकादिलिखितं च यद् मङ्गलमिति वर्णावलीमात्रम्, तदपि नाम च तद् मङ्गलं चेति कृत्वा नाममङ्गलमित्यभिधीयते ॥ इति गाथार्थः ॥२५॥” इति विशेषावश्यकभाष्ये मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ । [पृ०२२९ पं०१३] इह यादृशं ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य वर्णनं दृश्यते तादृशमेव प्रायोऽक्षरश: नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ दृश्यते । किन्तु जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णी 20 अन्यथा दृश्यते, यथा- “तत्थ णातेसु आदिमा दस णाता चेव, ण तेसु अक्खादियादिसंभवो। सेसा णव णाता, तेसु एक्कक्के णाते चत्तालीसं चत्तालीसं अक्खाइयाओ भवंति, तत्थ वि एक्केक्काए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासताई भवंति, तेसु वि एक्केक्काए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइओवक्खाइयसताई भवंति, एवं एते णव कोडीओ । एताओ धम्मकहासु सोहेतव्व त्ति कातुं एकोणवीसाए णाताणं दसण्ह य धम्मकहाणं विसेसो कजति-दस णाता दस णव य 25 धम्मकहातो दसहिं परोप्परं सुद्धा । एवं विसेसे कते सेसा णव णाता, ते णव चत्तालीसाए गुणिता जाता तिण्णि सता सट्टा अक्खाइयाणं, एते अक्खाइयपंचसतेहिंतो सोधिता, तत्थ सेसं चत्तालं सतं, तं उवक्खाइयपंचसतेहिं गुणितं जाता उवक्खाइताणं सत्तरं सहस्सा, ते पंचहिं अक्खाइतोवक्खाइयसतेहिं गुणिता एवं जाता अद्भुट्ठातो अक्खाइयकोडीतो ।” इति नन्दीचूर्णी । अभयदेवसूरिभिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य स्वरूपं यादृशं वर्णितं तादृशमेव वर्णनं विधाय 30 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । हरिभद्र सूरिभिः तत्प्रान्त एवं गुरवो व्याचक्षते, अन्ये पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनर्वयमतिगम्भीरत्वान्नावगच्छामः, परमार्थं त्वत्र विशिष्टश्रुतविदो विदन्तीत्यलं प्रसङ्गेन' इति नन्दीटीकायामभिहितम् । चूर्णिकारवचनं मनसि निधायैव तैरेतल्लिखितं भवेदिति प्रतीयते ।। (पृ०२७६ पं०२३] “णेरइय-देव-तित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हंति ।.... ॥६६।। 5 व्या० नारका: प्राग्निरूपितशब्दार्थाः, देवा अपि, तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः, नारकाश्च देवाश्च तीर्थकराश्चेति विग्रहः, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः सम्बन्ध इति दर्शयिष्यामः. एते नारकादयः अवधेः अवधिज्ञानस्य न बाह्या अबाह्या भवन्ति, इदमत्र हृदयम्अवध्युपलब्धस्य क्षेत्रस्यान्तर्वर्तन्ते, सर्वतोऽवभासकत्वात्, प्रदीपवत्, ततश्चार्थादबाह्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः ।.... अथवा अन्यथा व्याख्यायते- नारक-देव-तीर्थकरा 10 अवधेरबाह्या भवन्तीती. किमुक्तं भवति ? नियतावधय एव भवन्ति, नियमेनैषामवधिर्भवतीत्यर्थः ।।" इति आवश्यकसूत्रे हारिभद्र्यां वृत्तौ । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्कः in oon 0 तृतीयं परिशिष्टम् । श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः। उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतपाठः अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाण |आसाढवहुलपक्खे... [उत्तरा० २६ ।१५] १९ मेगवत्थुम्मि [ध्यानश० ३] ___ २३३ | आसाढे मासे दुपया [उत्तरा० २६।१३, अज्ज वि धावइ नाणं... [ ] ११० | ओघिन० २८३] अज्ज वि न कोइ विउहं.. [ ] ११० इंतस्सणुगच्छणया ८ ठियस्स... [ ] १८७ अट्ठ वग्ग त्ति अत्र.. [नन्दी हारि०] २३४ | इगवीसं कोडिसयं लक्खा... [नन्दी. हारि०] २२९ अट्ठपएसा रूयगो.. [आचा० नि० ४२] २०५ | ईसाणे णं भंते [ ] २६७ अट्ठमिचउद्दसीसुं... [पञ्चाशक० १०।१७] ३९ उग्गाणं भोगाणं ... [आव० नि० २२५] २१३ अट्ठारसपयसहस्साणि पुण... [नन्दी टी०] ७१ | उवसमसंमत्ताओ... [विशेषाव. भा० ५३१] ५५ अणियाणकडा रामा... [आव० नि० ४१५] ३०६ | उसभस्स पढमभिक्खा... [आव० नि० ३२०] २१३ अणुवेलंधरवासा लवणे... [वृहत्क्षेत्र. ४२०] ६७ एए खलु पडिसत्तू.. [आव० भा० ४३] ३०६ अतिकार्यमतिस्थौल्यम्,.. [ ] १६६ | एक्कागारं तइयं तं पुण... [बृहत्क्षेत्र. ३१३] १३१ अरेण छिन्नसेसं... [ ] ९६ | एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु.. [वृहत्क्षेत्र. ११९] १८१ अभंतरियं वेलं धरंति... [वृहत्क्षेत्र० ४१७] ६६ एक्कारसेक्कवीसा सय... [वृहत्सं० १०५] ४१ अब्भासच्छण १ छंदाणुवत्तणं.... [ ] १८८ एक्को भगवं वीरो.. [आव० नि० २२४] २१२ अभिइस्स चंदजागो... [ज्योतिप्क० १६२] १५८ एगं व दो व तिण्णि... [निशीथभा० २०७५] ४५ अयले भयभेरवाणं... [पर्युषणा० ] ४ | एगुत्तरा नव सया... [वृहत्क्षेत्र० ५८] १६७ अयले विजये भद्दे... [आव० भा० ४१] ३०५ एगिदियतेयगसरीरे... अर-मल्लिअंतरे.. [आव. नि० ४२०] १२८ प्रज्ञापना० सू० १५३६-१५३७] २७४ अवसेसा नक्खत्ता.. [ज्योतिप्क. १६५] १५९ एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि... [लोकश्री टीका]२९ असिणाणवियडभोर्ड मउलियडो... एवं वट्ठइ चंदो... [सूर्यप्र० १९] १५२ [पञ्चाशक० १०।१८] ३९ | कक्कोडय कद्दमए... [वृहत्क्षेत्र० ४२१] ६७ असोगो किण्णराणं... [स्थानागसू. ६५४] २८ कलंवो उ पिसायाणं... [स्थानाङ्गसू० ६५४] २८ अस्सग्गीवे तारए मेरए [आव० भा० ४२] ३०६ | कायव्वा पुण भत्ती... [ ] १८७ अह पावित तो संतो... [ ] | किण्हं राहुविमाणं निच्चं... [वृहत्सं० ११६] ५९ आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ... | किण्हं राहुविमाणं निच्चं... [सूर्यप्र० ११] १५२ __ [वृहत्सं० गा० ३४९] __ ११ | कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्.. [ ] २४ आयरिय उवज्झाए थेर-... [ ] १८८ गावी जुए संगामे.. [आव० प्रक्षेप० ] ३०५ आयारम्मि अहीए जं.. [आचा० नि० १०] २०९ | गोयमा ! जहण्णेणं... [प्रज्ञापना० ६५६९] २८२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । २३६ १८८ उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः चंदजस चंदकंता.. [आव. नि० १५९] २९१ | देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि.... चट ४ तिय ३ चउरा ४... [ ] २१८ [वृहत्क्षेत्र. ४१६] ६६ चणउइसहस्साई... [वृहत्क्षेत्र० ६०] १९१ देहं विमलसुयंधं [ ] चवीस सहस्साई नव य... [वृहत्क्षेत्र० ५२] ८६ | दो १ साहि २ सत्त... [वृहत्सं० गा० १२] २२ चउवीसई मुहुत्ता [वृहत्सं० २८१] २८१ | दो देसूणुत्तरिल्लाणं... [वृहत्सं० ५] १५ चत्ताला सत्त सया... [वृहत्क्षेत्र० ५५] १३१,१५७ | दो वारे विजयाइसु... [विशेपाव० ४३६] १५६ चत्तारि जायणसए... [बृहत्क्षेत्र. ४२२] ६७ |धणुपट्ठ कलचउक्कं... [वृहत्क्षेत्र० ५३] १५७ चूलियसीसपहेलिय चोद्दस... [ ] १८० धणुपट्ठ कलचउक्कं... [बृहत्क्षेत्र० ५९] १७९ चत्तासाएसु मासेसु.. [उत्तरा० २६।१३]१३३,१३० |धम्मो मंगलमुक्कट्ठ [दशवै० १।१] ८२,२४८ चोद्दस लक्खा सिद्धा.. [ ] नरकाः सीमन्तकादिका... [सूत्रकृतागव.] २५८ २५३ जइ एगिदियवरब्बियसरीरए किं... |नव चेव सहस्साइं... [वृहत्क्षेत्र. ४३] १९४ [ प्रज्ञापना सू० १५१५] २७२ | नववभचेरमइओ अट्ठारसपद.. जम्प जइ मागरोवम ठिई... [वृहत्सं० २१४] १३ [आचा० नि० ११] २१२ जा पढमाए जेट्ठा...[वृहत्सं० गा० २३४] २२ नववंभचेरमइओ... [आचारा० नि० ११] ७१ तह दमकालजाणण ... [ नवमो य महापउमो.. [आव० नि० ३७५] २९५ ] तिण्णि सया तत्तीसा... [आव० नि० ९७१] १९८ नाणं ५ तराय ५ दसगं... [कर्मस्तव० २।२३] ६८ नाभी जियसत्तू या.. [आव० नि० ३८७] २९२ तित्थयर १ धम्म २ आयरिय... [ ] १८७ तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू.. [जम्बू० प्र०] १५९ नारयदेवा तिरिमणुयगब्भया... [ ] २६८ निग्गंथ-सक्क-तावस-... [पिण्डनि० ४४५] २१० तिविठ्ठ य दुविठू य ... [आव० भा० ४०] ३०५ निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद.. [ ] २५९ तिहिं ठाणहिं तारारूवे.. नरइए णं भते ! नेरइएसु.. स्थानाङ्ग सू० १४१] | [भगवती० ४/९/१७३] २८० तीसा य १ पण्णवीसा.. [वृहत्सं० २५५] १७९ | नेरइयदेवतित्थंकरा य... [आव० नि० ६६] २७६ त सोहिज्जति फुडं.. [नन्दी. हारि०] २३० | नेरइया १ असुराई १० पुढवाई... [ ] २५८ तंवट्टि सहस्माई... [वृहत्क्षेत्र० ३१४] १३१ |पंच सए छब्बीसे छच्च.. [वृहत्क्षेत्र० २९] ७४ तंवन्नसहरमाई नव य... [वृहत्क्षेत्र० ५६] १४४ पंचास ५० चत्त ४... [वृहत्सं० ११८] १८१ दंसणवय [पञ्चाशक १०।३] १८९ | |पज्जायाणभिधेय [विशेषाव० २५] २१३ दस चेव सहस्माई... [वृहत्क्षेत्र. ४५] १९४ | पढमा बहलपडिवए १ वीया... दस जोयणसहस्सा... [बृहत्क्षेत्र० ४१५] ६६| [ज्योतिप्क० २४७] १६४ दस नवगं गणाण माणं... [आव. नि० २६८] २९ | |पढमाऽसीइ सहस्सा १.. [वृहत्सं० २४१] १७३ दाहिण दिवड्ड पलियं... [वृहत्सं० ५] ११ पढमेत्थ विमलवाहण.. [आव० नि० १५५] २९१ दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता... [प्रज्ञापना० ३] २५६ पणुवीसं कोडिसयं... [नन्दी० हारि० ] २३० Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादक्रमेण सूचिः । पृष्ठाङ्कः उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पयावती य वंभो... [आव. नि. ४११] २९५ संवच्छरेण भिक्खा... [आव० नि० ३१९] २९३ परिनिब्बुया गणहरा.. [आव० नि० ६५८] २९१ | सक्कार १ अब्भुट्ठाणे २... [ ] १८७ पलियं १ अहियं २... [वृहत्सं० गा० १४] २२ सज्झाएण पसत्थं झाणं..... पिंडेसण १ सेज्जि २ रिया... [आव० सं०] २१२ | [उपदेशमाला. गा० ३३८] २३३ पुढवि-दग-अगणि-... [वृहत्सं० ३५१] १८० सद्धिं नागसहस्सा... [वृहत्क्षेत्र. ४१८] ६६ पुणव्वसु रोहिणी.. [लोकश्री] | २९ | सत्त पाणूणि से थोवे,... [भगवती. ६।७।४]१७० पन्नरसइभोगेण य.... [सूर्यप्र० १९] १५२ सत्त य छ च्चउ चउरो.. [ ] २१२ पुव्वतुडियाडडाववहहुय तह... [ ] १८० | सत्तत्तीस सहस्सा छ.. [वृहत्क्षेत्र० ५४] १३० पव्वादिअणुक्कमसो गोथभ... बृहत्क्षेत्र ४१९]६६ सत्तावन्न सहस्सा धणं... [वृहत्क्षेत्र. ५७] १४८ पोसे मासे चउप्पया [उत्तरा० २६।१३] १३३ सत्थपरिण्णा १ लोग... [आव० सं०] बत्तीस ३२ अट्ठवीसा... [वृहत्सं० ११७] १८१ | सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा,... [ ] १६६ वहुलस्स सत्तमीए... [ज्योतिप्क० २५०] १६३ समणुन्नमणुन्ने वा... [निशीथभा० २१२४] ४७ वाधृलोडने [पा० धा० ५] १६२ सयभिसया भरणीओ अदा. वावढिं वावर्द्वि दिवसे... [सूर्यप्र० १९] १५२ [जम्बू० प्र०७।१६०] १५९,६० वाहा सत्तट्ठिसए.. [वृहत्क्षेत्र० ५५] १५७ | सव्वट्ठिसद्धगअणुत्तरोववाइय..... भरहो सगरो मघवं.. [आव० नि० ३७४] २९५ प्रज्ञा० सू. १५४४] २७४ मरुदेवि विजय सेणा.. [आव० नि० ३८५] २९२ सव्वे वि एगदूसेण.. [आव० नि० २२७] २१२ महुरा य कणगवत्थू.... [आव० प्रक्षेप०] ३०५ | सव्वेसिं आयारो पढमो [आचा० नि०८] २५० मासाई सत्तंता [पञ्चाशक. १८।३] १८९ सव्वेसिं उत्तरो मेरु [ ] मेरुस्स तिन्नि कंडा.. [वृहत्क्षेत्र० ३१२] १३१ सहसंमुईयाए समणे [आचा० सू०७४३] ३ मोक्षे भवे च सर्वत्र,...[ ] ७ |सागरमेगं १ तिय २... [वृहत्सं० गा. २३३] २१ मोत्तूण सगमवाहं पढमाए... [कर्मप्र० ८३] १६२ सुग्गीवे दढरहे विण्हू.. [आव० नि० ३८८] २९२ यथा गौर्गवयस्तथा [मी० श्लो. वा० ] २१३ | सुजसा सुव्वय.. [आव० नि० ३८६] २९२ योग-क्षेमकृन्नाथः [] | सुद्धस्स चउत्थीए... [ज्योतिप्क० २४८] १६४ रत्नं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कृप्टम् [ ] ५६ | सुद्धस्स य दसमीए... [ज्योतिप्क. २५१] १६३ रसोर्लशो मागध्याम् [ ] १२५ | सुमइऽत्थ निच्चभत्तेण... [आव नि० २२८]२९३ लहुहिमव हिमव निसढे... [ ] १९९ | सूच सूचायाम् [ ] २१४ विगलिंदिएसु दो दो.. [वृहत्सं० ३५२] १८० सूरे सुदंसणे कुंभे... [आव० नि० ३८९] २९२ विज्जुपहमालवंते नव नव... [ ] १९९ | सेसा य तिरियमणुया... [ ] २६८ विज्जुप्पभहरिकूडो.. [वृहत्क्षेत्र. १५६] २०० |सोलस भागे काऊण..ज्योतिप्क०१११] ६०.१५२ वीरं अरिट्ठनेमि... [आव० नि० २२१] ७४ हट्ठस्स अणवगल्लस्स,..[भगवती०६।७।४] १६९ संजयवेमाणित्थी संजयि.. [ ] २३६ | हरिवासे इगवीसा.. [वृहत्क्षेत्र. ३१] २०६ iw w Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रशस्तिः (शार्दूलविक्रीडितम्) पादाङ्गुष्ठसुचालितामरगिरि-हस्तास्तदवस्मयः, जिह्वाखण्डितशक्रसंशयचया, वानप्टहालाहलः । मागीणमहापसर्गदकृपा नत्राम्वुदत्ताञ्जलिः, दाढादारितदिव्ययुत्समवतात-श्रीवर्धमाना जिनः ।।१।। (उपजाति) श्रीगौतमम्वामि-सुधर्मदव-जम्बूप्रभु श्रीप्रभवप्रमुख्याः । मुरीशपूजापदसूरिदवा, भवन्तु तं श्रीगुरवः प्रसन्नाः ।।२।। (वसन्ततिलका) एतन्महपिशुचिपट्टपरम्पराजान-आनन्दसृरिकमलाभिधसूरिपादान । संविग्नसन्ततिसदीशपदान प्रणम्य, श्रीवीरदानचरणांश्च गुरुन स्तविप्य । ।३ ।। श्रीदानमरिवरशिप्यमतल्लिका स, श्री प्रेमसुरिभगवान क्षमया क्षमाभः । सिद्धान्तवारिवरवारिनिधिः पुनातु, चारित्रचन्दनसुगन्धिशरीरशाली ।।४।। (शार्दूलविक्रीडितम्) प्रत्यत्रिशपिगन्ततिमरित-म्रप्टा क्षमाभृद्महान, गीतार्थप्रवरा वरश्रुतयुतः सर्वांगमानां गृहम् । तक तकविशुद्धबुद्धिविभवः साऽभूत् स्वकीयऽप्यहा, गच्छ संयमशुद्धितत्परमतिः प्रज्ञावतामग्रणीः ।।५।। तत्कालीनकरग्रहग्रहविधा-वब्द ह्यभूद् वैक्रम, तिथ्याराधनकारणन करुणा भदस्तपागच्छजः । कारुण्यकरमन तन गुरुणा सत्पट्टकादात्मना, ववंशन निवारितः खकरखा-प्ठ पिण्डवाडापुर ।।६ ।। (वसन्ततिलका) तत्पट्टभृद भुवनभान्वभिधश्च सूरिः, श्रीवर्धमानसुतपानिधिकीर्तिधाम । न्याय विशारद इतीह जगत्प्रसिद्धा, जातोऽतिवाक्पतिमति-मंतिमच्छरण्यः ।।७।। तम्याद्यशिप्यलघुवन्धुरथाब्जवन्धु-तेजास्तपःश्रुतसमर्पणतेजसा सः । पंन्यासपद्मविजया गणिराट श्रियेऽस्त. क्षान्त्यकसायकविदीर्णमहोपसर्गः ।।८।। सर्वाधिक श्रमणसार्थपतिर्मतीश: पाता चतु:शतमितर्पिगणस्य शस्यः । गच्छाधिनाथपदभृज्जयघापसूरिः सिद्धान्तसूर्य यशसा-जयतीह चाच्चैः ।।९।। सद्बुद्धिनीरधिविबाधनबद्धकक्षः, वैराग्यदशनविधा परिपूर्णदक्षः । मीमन्धरप्रभुकृपापरपात्रमस्तु श्रीहमचन्द्रभगवान सततं प्रसन्नः ।।१०।। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारुण्यकम्रालयानां महनीयमुख्यानां महामालिनां लोकोपकारचतुराणां वैराग्यदेशनादक्षाचार्यदव श्रीमद्विजयहमचन्द्रसूरीश्वराणां सदुपदर्शन श्रीजिनशासन-आगधनाट्य्टविहित श्रुतसमुद्धारकार्यान्वयं प्रकाशितमिदं ग्रन्थरत्नं श्रुतभक्तितः ।। वि.सं. २०६४ पंन्यासपद्मविजयपुण्यस्मृतो चीनश्रुतसमुद्धारपद्ममा द्वारपद्ममालायां पदविंशतितमपद्मम् समतासागरपंन्यासपद्मविजयपुण्यस्मृतौ प्राचीनश्रुतसमुद्धारपद्ममाला ०१ श्रीदशवैकालिकसूत्रम् ०२ श्रीप्रश्नव्याकरणाङ्गम् ०३ श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रम् (पूर्वार्धः) ०४ श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रम् (उत्तरार्ध:) ०५ पिण्डनियुक्तिः ०६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् ०७ उपासकदशाङ्गसूत्रम् ०८ श्रीप्रज्ञापनासूत्रम् (पूर्वार्ध) ०९ श्रीप्रज्ञापनासूत्रम् (उत्तरार्धः) १० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् (प्रथमभाग:) ११ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् (द्वितीयभागः) १२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् (तृतीयभागः) १३ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (प्रथमभागः) (भावविजयटीका) १४ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (द्वितीयभागः) (भाविजयटीका) १५ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (तृतीयभागः) (भाविजयटीका) । १६ श्रीऔपपातिकसूत्रम् १७ श्रीराजप्रश्नीयसूत्रम् १८ आवश्यनियुक्तिः (प्रथमभाग:) १९ आवश्यकनियुक्तिः (द्वितीयभागः) २० आवश्यकनियुक्तिः (तृतीयभागः) २१ आवश्यकनियुक्तिः (चतुर्थभागः) २२ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (प्रथमभागः) (शांतिसूरीश्वरटीका) २३ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (द्वीतीयभागः) (शान्तिसूरीश्वरटीका) २४ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रम् (तृतीयभागः) (शान्तिसूरीश्वरटीका) २५ श्रीनन्दीसूत्रम् (मूलम्) २६ श्रीसमवायांगसूत्रम् २७ श्रीअन्तकृद्दशा-अनुत्तरोपपातिकदशा विपाकश्रुतानि Page #362 -------------------------------------------------------------------------- _