Book Title: Aagam 40 Aavashyak Malaygiri Vrutti Mool Sootra 1 Part 01
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
Catalog link: https://jainqq.org/explore/007201/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०/१] श्री आवश्यक [मूलासूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: “आवश्यक" नियुक्ति: एवं वृत्ति: नियुक्ति: १ से १३४ [भद्रबाहुसूरि सूत्रिता नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: MOA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, ग्रन्थाङ्कः ५६. चार्यकृतविवरणयुतं, श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुखामिसूत्रितनियुक्तियुत श्रीआवश्यकसूत्रम्। दीप अनुक्रम - (पूर्वभागः). प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहक:-जीवनचन्द-साकरचन्दः जह्वेरी। इदं पुस्तकं मोहमय्या निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीच्या २६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वीरसम्बत् २४५४. विक्रमसंवत् १९८४. सन १९२८. प्रतयः १२५.] वेतनं रू. -. [Rs.4-0-0 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- निर्युक्तिः एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा श्री भद्रभाहुस्वामिजी की निर्युक्ति पर मलयगिरिसूरिजी रचिता वृत्ति की प्रत सबसे पहले "श्री आवश्यकसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | पूज्यपाद श्री हरिभद्रसूरिजीने भी आवश्यक सूत्र पर एक विशाल वृत्ति की रचना कि है, जो हमारी "आगम सुत्ताणि सटीकं" एवं "सवृत्तिक आगम सूत्राणि" मे मुद्रित हुइ है। * हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-निर्युक्ति-भाष्य-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, निर्युक्ति, भाष्य, सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम दिया है, उसके साथ इसी प्रत का सूत्रक्रम और 'दीप अनुक्रम' देने की हमारी पद्धत्ति है मगर यहां तो मुख्य तौर पे निर्युक्ति और भाष्य पर हि मलयगिरिजी रचिता वृत्ति है क्यों की ये वृत्ति सिर्फ़ १- अध्ययन तक ही प्राप्त हो रही है इसिलिए बायी तरफ़ सूत्रांक और दीप- अनुक्रमवाले विभाग कि कोइ उपयोगिता नहि रही | यहां मूल संपादक कि बनायी हुई एक अनुक्रमणिका भी पायी गई है, जो की तिनो [चारो] विभागो की एक साथ हि है, जिसमे नियुक्ति, भाष्य आदि के क्रम, (प्रत के) पृष्ठांक सहित लिख दिये है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते निर्युक्ति एवं भाष्य तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ...मुनि दीपरत्नसागर....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आवश्यकस्य मलयगिरीयाया वृत्ते गत्रयस्य विषयानुक्रमः । प्रत पत्रमा सूत्रांक दीप বিঃ विषयः प्रयोजनाणुपन्याससाफल्यम्-(वचनप्रामाण्यम्) ... १ ज्ञानपञ्चकक्रमसिद्धिः, एकेन्द्रिये श्रुतसिद्धिः, लक्षणाविमङ्गलबर्षा, नामादिलक्षणानि, द्रव्यमाले नयचर्चा,मङ्गलो- भेदैर्मतिभुतयोर्भेदः। ... ... ... २० पयोगे मालता, नामादीनां भिन्नता,नामायेकान्तनिरासः। २ अवमहादयो मतिभेदाः ( गा.२)। (संशयादीहाया भेदः) २२ द्रव्यार्विकपर्यायार्थिकविचारः। (महवादिसिद्धसेनमते) । १२ मलवादिसिद्धसेनमते ) । १२ अवमहादीनां स्वरूपम् । (गा. ३) व्यञ्जनावमहे ज्ञान, नन्दिनिक्षेपाः। ... .... ... ... १२ चक्षुर्मनसोरप्राप्यकारिता । ... .. . २३) मानपत्रकलरूपं ( गा.१) प्रत्यक्षपरोझविभागः, आत्मनो अवमहादीनां कालमानम् । (गा. ४)। ... ... जारावं, इन्द्रियाणां करणत्वेऽपि व्यवधायकवा, फेवळे शब्दादीनां प्राप्ताप्राप्तबद्धसृष्टवादि (गा.५)(शब्दस्वा शेषज्ञानामावसिकिः। ... ... ... १३ प्राप्यकारितानिरासः) ... ... शानपकपार्थक्यसिद्धिः। ........ ... १७ | शब्दस्याकाशगुणत्वमपास्तम् । ... . अनुक्रम E अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शितः, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीमाव० मलयगि० १ Jan Educand “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ निर्युक्तिः [--], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषय: ... ... ... ... इन्द्रियविषयाणामात्माङ्गुलमेयता, प्रकाश्यप्रकाशक विषय ... मानभेदः । मिश्रपराधातशब्दश्रवणम् (गा. ६) । शब्दपुद्गलानां ग्रहणनिसर्गी, (गा. ७) । त्रिविधेन शरीरेण महणं भाषा च, (गा. ८) । भाषाया ग्रहणमोक्षो, भेदाय (गा. ९) । भाषाया लोकव्याप्तिः, पूरणरीतिश्व (गा. १०-११ ) । ( जैनसमुद्घातरीत्या न व्याप्तिः ) । आभिनिबोधिकस्यैकार्थिकानि (गा. १२ ) ... सत्पदादीनि द्वाराणि (गा. १३-१४) । ( सम्यक्त्वे व्यवहारनिययौ ) ! (क्रियानिष्ठयोर्भेदाभेदौ ) । (बबगाहस्पर्शनयोर्भेदः ) । अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ... ... पत्राहुः ... २९ ३१ ३२ ३४ ३५ ३८ ३९ विषयः अष्टाविंशतिर्भेदाः । (द्रव्यक्षेत्रकालभावविचार। ) । सुषज्ञानकथनप्रतिज्ञा । (गा. १६) । ... ... ४६ यावदक्षरं प्रकृतिः, अशक्तिर्भणने । (गा.. १७-१८ ) ४५ अक्षराचा भेदाः, (गा. १९) ( अक्षरभेदाः) । अनक्षरघुतम् (गा. २०) अङ्गानङ्गमविष्टविचारः । शास्त्रलाभरीति: (गा. २१) । बुद्धिगुणाः (गा. २२ ) । श्रवणविधिः (गा.२३) । अनुयोगविधिः, (३गा. २४) । ४९ अवधेः प्रकृतयः, (गा. २५) । ( यावत्प्रकृतिभणनेऽशति: (गा. २६) । ~5~ ... पत्रातु *%* अवध्यादीनि द्वाराणि (गा. २७-२८ ) । अबर्नक्षेपाः, (गा. २९) । अवषेर्जघन्यं क्षेत्रम् (गा. ३०) । अनुक्र● २५ rary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम विषयः विषयः "पत्रा अवघेरुत्कृष्टं क्षेत्रम्, (या. ३२) । पोढाऽग्मिजीवावस्था- उत्कृष्टाद्यवधीनां गतिषु सत्ता, संस्थानं च (गा.५३-५५)। ६७ है| नम्, सूचिश्रेणिस्त्वादेशः । ... ... ... ५३ आनुगामिकेतराववधी, (अन्तगवादिभेदाः), (-गा. ५६)1 ६८ अवधेः क्षेत्रकालप्रतिबन्धः (गा. ३२-३५)। कालादि- क्षेत्रकाद्रव्यपर्यवेष्ववस्थानम् , (गा. ५७-५८) ... ७० वृद्धिनियमः ( गा. ३६ )। क्षेत्रस्य सूक्ष्मता, | क्षेत्रकालद्रव्यपर्यायाणां वृद्धिहानी, (गा. ५९) । ... ७१ ... ... ५४ स्पर्धकावधिः, (प्रतिपात्यप्रतिपातिनी) (गा. ६०-६१)। ७२ अवधेः प्रस्थापकनिष्ठापको ( गा. ३८) । द्रव्यक्षेत्रवर्गणाः बाबान्तरावभ्योः प्रतिपावोत्पाती, (गा. ६२-६३) (गा. ३९-४०)। ... ... ... । द्रन्यपर्यायप्रतिबन्धः (गा. ६४)। ... ... गुरुलवादीनि द्रव्याणि (गा. ४१) । अवधेईयझे- साकारादीनि (गा. ६५)। अवघेरबाद्याः (गा.६६)। ७४ * त्रादिप्रतिबन्धः, (गा. ४२-४३)। ... ... ६१ | सम्बद्धासम्बद्धाः (गा. ६७)। गत्याचतिदेशः। (गा.६८)। ७५ परमावर्द्रव्यादि (गा.४४-४५) ... ... ६३ | बामौषम्याद्याः (६९-७०)। ... ... ७८ ति येनरकयोरवधिः, (गा. ४६-४७) ... ... ६४ | वासुदेवचयईता बलम्, (गा. ७१-५)। (श्रीरा देवानामघस्तियंगलमवधिः, (गा. ४८-५१ ।) आयु- । | बायाः)। ... ... ... ... ७९ का मानेनावधिः, (गा. ५२)। ... ... .६५ | मनःपर्यायस्वरूपम् , (गा.७६)। ... अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पात्रा प्रत श्रीमाव. मलयगि सूत्रांक ८ दीप अनुक्रम H CAESREE विषयः विषयः अनुक्र० केवलज्ञानस्वरूपम्, (गा. ७७)। ... ... ८२ गणघरववंशवाचकवंशप्रवचनाना नमस्कारः, (गा. ८२)। प्रज्ञापनीयभाषणं द्रव्यमुक्ता च, (गा. ७८)। (सि नियुक्तिकयनप्रतिज्ञा, (गा. ८३) । नियुक्तिविषयाणि द्वाना १५ भेदाः)। ... ... - ८३ शाखाणि । (८४-८६)। ... ...१०० अतेनाधिकारः, प्रदीपदृष्टान्तोऽनुयोगे, ( पीठिका.), गुरुपरम्परागता सामायिकनियुक्तिः, (गा. ८७) । (गा. ७९)। आवश्यक निझेपाः (अगीवार्थासंकि (द्रव्यपरम्परायां दृष्टान्तः)। ... ... १०१ अस्य रनवणिजो ज्ञाती, एकार्थिकानि, अवनिक्षेपाः, पनपा सूत्राणि, स्कन्धनिलेपाः, अर्याधिकाराः, उपक नियुक्तत्वेऽप्यर्थानां विभाषणम् , (गा. ८८)। तपोनियमादीनां भेदप्रभेदाः, ब्राह्मण्यादीनां दृष्टान्ताः, गङ्गाप्र ___ मज्ञानवृक्षः कुसुमवृष्टिर्मन्थनं च (गा. ८९-९०)। १०४ बाइदर्शिकथा, पूर्वानुपूर्व्यायाः, प्रमाणागमलोकोत्तरा | सूत्रकृती हेतवः, (गा. ९१)। अर्थमाषका अईन्न । दिभेदाः, अध्ययनादीनां निक्षेपाः, मध्यमजलचर्चा | ८६ सूत्रकतो गणधराः, (गा. ९२)। बुतपरणसार: उपोषावमङ्गलम्, (गा. ८.) द्रव्यमावतीथे, मुखा- (गा. ९३)। ... ... ... ... १०६।। है बवाराविभेदाः।... ... ... ... ९. अचरणस्य न मोक्षः, पोतदृष्टान्तः, सापेक्षे ज्ञानक्रिये ।। श्रीवीरनमस्कारः, (गा. ८१)।। ... ... ९९ | (गा. ९४-१०३)। ... ... ... १०७ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: EKASAKACAACARLARKI Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CA दीप अनुक्रम विषयः पत्रा क्षये केवलं, उत्कृष्टकर्मस्थिती नैकमपि, कोटाकोट्यन्तायः। केवलस्याशेषविषयता, (गा. १२४ ) । जिनप्रवचनादीनि, | (गा. १०४-१०६)। ... ... ... १११ | (गा. १२५) एकाधिकानि, (गा. १२६-१२८)। १२८ ४ापल्यादयो दृष्टान्ताः, (गा. १०७)। (अस्पबहुषन्धचर्चा)। ११३ अनुयोगनिक्षेपाः, ७ (गा. १२९)। ... ... | अनन्तानुबन्ध्यादयः, (गा. १०८-१११) । अतिचारे कामादिदृष्टान्तैर्भाषकाद्याः, (गा. १३२)। ... १३८ मूलच्छेदे च हेतवः । (गा. ११२)... ... ११६ व्याख्यानविधी गवादिष्टान्ताः, (मा. १३३) ... १३९/ शिष्यगुणदोषाः, शैलघनाद्या दृष्टान्ताः, (गा. १३४-६)। १४१ चारित्रपञ्चकम् , (गा. ११३-१५)। (परिहारे २० उद्देशादीनि उपोद्घातद्वाराणि २६ । (गा. १३५-१३८)। १४६ द्वाराणि)। ... ... ... ... ११८ | उद्देशनिक्षेपाः ८ (गा. १३९)। निर्देशनिझेपाः (गा. उपशमणिः , (गा. ११६) । सूक्ष्मसम्परायः। (गा. १४०) । निर्देशे नयाः, (गा. १४१)। ... १४८ निर्गमनिक्षेपाः ६, (गा. १४२)। ... ... १५१ कषायसामर्थ्यम्, (गा. ११८-२०)। ... ... १२५ नयसारभवः, (गा, १४३-४४ । १-२ मू० भा०)। १५२।। पकश्रेणिः, (गा. १२१-२३)। (गाथात्रयस्थासमी- कुलकरवक्तव्यता, हस्तिनो नीवयन (गा. १४५-१६६)। चीनता)। ... .... ... ... १२६ । . ३ मू. भा०)। ... ... ... १५३ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: १२३ ay.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्री आव० मलयगि Jan Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ निर्युक्तिः [--], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषय: पत्राङ: १९२ श्री ऋषभभवाः, २० स्थानकानि, श्री ऋषभवक्तव्यता, अभिषेक, १५७ वंशस्थापना (गा. १८५-१८६) वृद्धिः विवाहः, नृपत्वं उमायाः, आहाराचा: (गा. १८७-२३० ) सम्बोधनादीनि २१, लोकान्तिकाः सांवत्सरिकदानं राजानः कुमाराय तपः कर्म ज्ञानक्षणि साधुसाध्वीमानं गणधरा. गणः पर्यायः सर्वायुः । (गा. २३१-२३५ ) । २०१ ऋषभदीक्षा नमिविनमी, विद्याधरनिकायाः १६, तापसाः पारणं श्रेयांसवृत्तं पारणकानां स्थानानि दातारः, आदित्यमण्डलं, धर्मचक्रं चक्रोत्पातः, मरुदेवीमोक्षः, मरीचिदीक्षा, पट्खण्डसाधनं, सुन्दरीदीक्षा, ९९भ्रातृदीक्षा, बाहुबलिदीक्षा, (गा. ३३६-३४९ । ३७ मा.) । २१५ परिव्राजकता, अवग्रहाः ५, माहनाः तीर्थकृष क्रिदशाई विषयः ऋषभनिर्वाणं, अष्टापदतीर्थे भरतकेवलं दुर्भाषणं श्रीवीरभवाः । (गा. ३५० -४५७ ) । ... २३३ स्वप्ना अपहारः निश्चलता अमिमहः जन्म नाम भीषणं लेखे-शाला विवाहः प्रियदर्शना दानं लोकान्तिकाः, दीक्षाम हः सिद्धनमस्कारपूर्व पापाकरणनियमः कुमारमामे गोपोपसर्गः कोलाके दिव्यानि ( लोहार्यः ), शूलपाणि: स्वप्नदशकं अच्छन्दकः चण्डकौशिकः प्रदेशिमहिमा कम्बलम्बल पुष्यः, गोशालः, नियविग्रहः, पाटकदाहः, उपहासः मुनिचन्द्रः, सोमाजयन्यौ मनुष्यमांसं पथिकानिः मुखत्रासः, मण्डपदाहः मेष: अनार्याटनं नन्दिषेणः, विजयाप्रगल्भे, वाहनं अयस्कारः यक्षः तामली लोकrवधिः पराङ्मुखस्थानं कटपूतना बग्गूर: विलस्तम्बः, वेश्यायनः शङ्खगणराजः आनन्दः त्वानि चक्रिणो वासुदेवाः, जिनान्तराणि, मरीचिमानः, अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ~9~ ... पत्र अनुक्र● brary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक विषयः पत्रा प्रतिमाः पेढालः सङ्गमका सुखसातप्रमः कौशाम्बी च. | एकादशधा कालः, चेतनाचेतनस्थितिः, अद्धाकालभेदाः, मरोत्पातः मेण्डिकः अमिग्रहः खातिदत्तः ऋजुवालुका यथायुष्ककालः, (गा. ६६४)। ... ... ३४० तपा महासेनवनं महिमा । (गा. ४५८-५४२ । उपक्रमकाले इच्छाकारायाः सामाचार्यः, इच्छाकारः, ४५-११४ भा.. ... ... ... २५२ (गा. ६८१)। मिथ्याकारः (६८७) तयाकारः, (गा. समवसरणादीनि द्वाराणि, करणनियमानियमो देवविधिः ६९०)। आवश्यकी (६९४) नैषेषिकी (६९६) देशनाकालः प्रतिविम्बानि पर्षदः सामायिका तिपत्तिः तीर्यप्रणामः परमरूपादि संशयच्छेदः वृत्तिदानं बलिः (१३५-१३६भा.), आपृच्छाधाः (गा. ६९७)। गणघरदेशना (गा. ५४३-५९०)।... ... ३०१ उपसम्पत् (गा.७०२)।... ... ... ३४१ गणधराणां नामानि, संशयाः, परिवारः, इन्द्रभूत्युक्तिः प्रमार्जननिषद्याअकृतिकर्मादीनि (गा. ७१७ । १३७ भा.) (१२१-१२६ भा.) ... ... ... ३११ (हा. १२३) । चारित्रोपसम्पत्, (गा. ७२३) । ३५१] |संशयाः सदपगमाः, (६४१ । १३२ भा.)। ... ३१२/ अध्यवसानाचा भायुष्कोपक्रमाः, मये सोमिलकथा, दण्डागणधराणां जन्मभूमिनक्षत्रगोत्रपर्यायायुर्हानमोक्षतपांसि, दयो निमित्ते, प्रशस्ताप्रशस्तदेशकालो,प्रमाणकालः, भावे (गा. ६५९)। . ... ... ... ३३७ भनाः । (गा. ७३५)। ... ... ... ३५५) अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: RECENESEARSA दीप अनुक्रम ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प अनुक्र० थीआव० मलयगि- प्रत सूत्रांक विषयः पुरुपनिझेपाः १०, कारणनिक्षेपाः ४, तद्न्यान्यद्रव्ये नि. आर्यरक्षितवृत्ते स्वर्णनन्दी पञ्चशैलः इङ्गिनी जीवस्स्वामी मिचनिमित्तिनौ, समवाय्यसमवायिनी कळदि, भावे- प्रभावती गान्धारः गुटिकाशतं युद्धं पर्युषणोपदासःक्षाउसंयमादि, प्रवृत्तितोऽशरीरत्वान्तं,प्रत्ययेऽवध्यादि लक्षणं मणं, रक्षितस्य विद्यार्थ पाटलीपुत्रे गमनं, दीक्षा, भद्रगुप्त१२ सहशसामान्यादि श्रद्धानादि बा, (गा. ७५३)1३६३ निर्यापणा वनखामिपाश्ऽध्ययनं फल्गुरक्षितदीधा मूलनयाः, स्मात्पदं,अवधारणविधिः, दिगम्बरीयमतसमीक्षा। ३६९ निगमलवणं, ( भिन्नसामान्यनियसः), सहव्यवहारर्जुस् रथावतः कुटुम्बदीक्षा वृद्धानुवर्तनं पुष्पमित्रत्रयं नयानुशब्दसममिरूदैवम्भूतलक्षणानि, प्रस्थकवसतिप्रदेश योगानां पार्थस्य, ( गा. १२४ मू. मा.) । मथुरायां रष्टान्ताः , प्रभेदवत्त्वं। ... ... ... ३७१ शक्रागमः, गोष्ठामाहिलवृत्तं, (गा. ७७७)। ... ३९१ वनखामिवृत्ते शालमहाशालौ कौण्डिन्यादयस्तापसाः पुण्ड | निवाधिकारः, १ (१२५-१२६ भा.)२ (१२७-१२८) रीककण्हरीको दीक्षा साध्व्युपाश्रयावस्थितिः, सत्सार ३(१२९-१३०) ४ (१३१-१३२) ५(१३३कल्पः, दृष्टिवादानुझा रुक्मिणीदीक्षा विद्याद्वयम् , उत्त १३४) ६ (१३५-१४०) (१४१-९४४)। ४०१ रापये सानिस्तार पुर्यामुत्सवः पुष्पावचयः रामः बोटिकनिरासः ( सविस्तर) (१४५-१४८ मा.)। आवकता, (गा. ७७२)। .... ... ... ३८३ दोषद्वयादि ७८८। ... ... ... ४१८ दीप अनुक्रम H अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आ.सु. १०२ Jan Educand “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ निर्युक्तिः [--], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः .... ४२८ ... विषयः अनुमते तपः संयमादि, सामायिकस्यात्मादि लक्षणं, ( गा. १४९ - १५५ ) । व्रतानां द्रव्येष्ववतारः, द्रव्यपर्यायापेक्षया सामायिकं . ४३१ सामायिकस्य भेदाः सम्यत्तत्वादीनां भेदाः ( १५० भा. ) गा. ७९५ । सन्निहितात्मादेः सामायिकम् (गा. ८०३ ) । सामायिक प्राप्तिहेतुक्षेत्र दिकालगत्यादीनि द्वाराणि अलङ्कारादिद्वारान्तानि दिनिक्षेपः, (गा. ८२९ ) । द्रव्यपर्यायव्यापिताविचारः, (गा. ८३०) । मनुजत्वादीनां दौर्लभ्ये चोल कादयो दृष्टान्ताः, (गा. ८४० ) । ४५१ आलस्याया धर्मविनद्देतवः, यानावरणादिरूपकम् (गा. ८४३) । ... ४३६ ... ४५१ ... इत्युपोद्घातनिर्युक्तिः । सूत्रस्य दोषा गुणाः सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिनयानां सममनुगमः, (गा. ८८६) । ... ४८२ उत्पत्यादिकान्तं नमस्कारे, समुत्थानत्राचनाबन्धितः स्वामी निक्षेपास्तेषु नयाः किमादिपद्या सत्पदादिअत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ... ** पत्राइ ... ४३३ ... ४३५ ४५५ ~ 12 ~ ... विषयः दृष्टानुभवादी सम्यतनं, ( आनन्दादिभाव कचरित्राणि ) (गा. ८४४ ) । ... ४५६ वल्कलचीरिवृत्तम् । ... ४५७ अनुकम्पाया हेतवः, तद्दृष्टान्ताच वैद्यादयः, अभ्युत्थाना दय:, (गा. ८४९ ) । कालमानं, प्रतिपद्यमानादयः, अन्तर, अविरहविरही आकर्षाः स्पर्शना भागः पर्यायाः, दमदन्ताद्या दृष्टान्ताः ... ४६९ (गा. ८७९) । ... ... ४६० *** 200 ... *** पत्राङ्कः ... rary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआव० मलयगि दीप अनुक्रम विषयः समा पात्रा नवपद्या व निरूपणं वस्तुनि आरोपणाचाः प्रकृन्यायाः, कर्मजाया लक्षणं तदृष्टान्तास, (गा. ९४६) ... ५२६ मार्गाद्या हेतवः, (गा. ९०३)। ... ...४८५ पारिणामिक्या लक्षणं उष्टान्ताच, (गा. ९५१)।... ५२०४ *देशकनिर्यामकमहागोपरवानि, (गा. ९२७)। ...४९४ तपःकर्मक्षयसिद्धौ सिवखरूपं समुद्घातः शैलेशी रागद्वपकवायेन्द्रियाणां भेदाः स्वरूपं दृष्टान्ताच, (गा.९२८)।४९७ | शाटीदृष्टान्तः पूर्वप्रयोगादयः लोकापप्रतिष्ठितावादि ईपरीषहस्वरूपं, उपसर्गाणां स्वरूपं दृष्टान्ताश्च । ...५०८ लाग्मारा अवगाहना संस्थानं देशप्रदेशस्पर्शना सिद्धानां - अनेकधाई निरुतयः, नमस्कारफलं च, (गा. ९२६) । ५१० लक्षणं सुखं च पर्यायाः, नमस्कारफलम् , (गा.९९२) । ५३४ कर्मशिल्पादिसिद्धाः, कर्मसिद्धः, (गा. ९२९)। शिल्प- आचार्यनिक्षेपादि, (ग. ९९९) ... ... ५४९ सिद्धः । (गा. ९३०)। विद्यासिद्धः, (गा. ९३१- | उपाध्यायनिक्षेपादि, (गा. १००७॥ मा. १५१) साधुनिझे-' २)। मने (३३) योगे. (३४) आगमार्ययोः, पादि, (गा.१०१७) उपसंहारः, संक्षेपविस्तारचर्चा, (मा. ३५) यात्रावा (३६) ... ... ५११ (पा. १०२०)। ... ... ... ५५० बुद्धिसिद्धस्वरूपं, बुद्धभेदाः, औत्पत्तिक्या रक्षणं दृष्टान्ताश्य, क्रमद्वारं प्रयोजनफले विख्यादयो दृष्टान्ताः, (गा.१०२५)। ५५३५ (गा. ९४४)। ... ... ... ५१६ | सम्बन्धः सामायिकसूत्रं च सव्याख्यान, निक्षेप्यपदानि, वे नायिक्या लक्षणं तद्दृष्टान्तान (गा. ९४५)। ... ५२३ (गा. १०२९)। ... अत्र मूल संपादकेन रचित निर्यक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: लावला E ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पनाह प्रत सूत्रांक % = % दीप अनुक्रम विषयः है नामादिकरणानि, (मा. १५२-१५४)। क्षेत्रकाळकर सावद्यार्थः, (गा. १०५१)। द्रव्यमावयोगाः (गा. पानि, भावेऽत्र मुतवद्धानिशीथास्यानि,(गा. १०३६)। नोश्रुतकरणम् , (गा. १०३१)। १०५३)। ... ... ... .. ... ५७८ ::.५५८ कताकृतादिद्वारसप्तकम्, (उदिष्टोपदेशादिषु)। आलोच- प्रत्याख्याने द्रव्याश्मेिदाः, (गा. १०५४)। यावच्छ माया नयाः, (गा. १०४० । १७५-१८३ भा.)। ५६५ | दार्थः, (गा. १०५५)। देशसर्वघातिपाते सामायिक, (गा. १०४१)। ... ५७२ जीवितनिक्षेपाः, (गा.१०५६ । १८९-१९० भा.)। ५८० भयनिक्षेपाः, अन्तं पोढा, (१८४-१८५ मा.)। ... ५७२ सामायिकसूत्रस्याः, सामायिकैकार्थाः निक्षेपा एपाम्, प्रत्याख्याने १४७ मताः (गा. १०५७) । त्रिकालपह(गा. १०४५) ... ... ५७४ णम्, (गा. १०५८)। ... ... ... है सामायिकस्य पर्यायाः, कर्टकर्मकरणविचारः, आत्मा का विविधादेरपुनरुकता, (गा. १०५९)। ... ... ol रकः, (गा. १०४९) ... ... ... ५७५ सर्वस्य निझेपाः, (गा. १०५०) देशसर्वादि, (गा. बन्यमावप्रतिक्रमणोदाहरणे, ( गा. १०६० ) । निन्दा * १८६-१८९ मा.)। .... ... ५७६ गईयो।, (१०६१-१०६२)। ... ...५८४ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: = ल land ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनुक्र० प्रत सूत्रांक पत्रा विषयः श्रीआवा विषयः मलयगि ज्ञानक्रियानयवक्तव्यता, (गा. १०६५-१०६७)।... ५८६ / लोकनयायाः, उद्योताने झेपाः ४, (गा. १०७४ )। ... ५९४ | | धर्मनिक्षेगः, ४ (गा. १०७५-६)। तीर्थनिराः ४, इति सामायिकाध्यनम् त्रिस्थव्यर्थाद्याः पर्यायाः (गा. १०८१)। ... ५९५ कर नेक्षेपाः ६, द्रव्य कराः १८ प्रशस्त भावकरः, (गा. १०८२-७) ... ... ... ... ५९६ अध्ययनसम्बन्धः, चतुर्विंशत्यादेनिक्षेपाः, (गा. १०६८)। अर्हत्कीर्तनचतुर्विंशतिकेच लिपदानि (गा, १०८९-९१) । चतुर्विशतेः, (गा. १९२ मा.) स्तवस्त्र, (गा. चालनासमाधी ।... १९३) । भावस्तवमहत्ता, (गा. १९४-१९५)। ऋषभादगाथात्रयार्थः, (गा. १०९२-९९ ) ... ५९९ कृपदृष्टान्तो द्वये, (गा. १९६ भा.)। ... ५८८ 'लोगस्स' सूत्रव्याख्या। ... ... ... ५९१ लोकनिक्षेपाः ८ (गा. १०६९) जीवाजीवनित्यत्त्वादि, इति चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनम् । कालभवभावपर्यवलोकाः, (गा. १९७-२०५ )। ५९२ ! दीप अनुक्रम H अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~150 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: -, भाष्यं -, विभा गाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक S4%ACKC श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचितं श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसूत्रितनियुक्तियुतश्रीमदावश्यकसूत्रविवरणं दीप अनुक्रम 144 E पान्तु यः पार्श्वनाथस्य, पादपद्मनखांशवः । अशेषविनसङ्घाततमोभेदैकहेतवः ॥१॥ जयति जगदेकदीपः, प्रकटितनिःशेषभावसद्भावः।कुमतपतङ्गविनाशी श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् ॥२॥ नत्वा गुरुपदकमलं प्रभावतस्तस्य मन्दशक्तिरपि । आवश्यकनियुक्तिं विवृणोमि यथाऽऽगमं स्पष्टम् ॥ ३॥ यद्यपि च विवृतयोऽस्याः सन्ति विचित्रास्तथापि विषमास्ताः। सम्पति जनो हि जडधी यानितिविवृतिसंरम्भः तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमादौ प्रयोजनादिकमुपन्यसनीयं, अन्यथा न युक्तोऽयमावश्यकप्रारम्भप्रयासः निष्प्रयोजन-1 त्वात् कण्टकशाखामईनवत् , निरभिधेयत्वात् काकदन्तपरीक्षावत् , असम्बद्धत्वाइश दाडिमानि षडपूरा इत्यादिवाकरवत् | मा.सू. maintinrary.org ... टीकाकारेण कृत आद्य मङ्गलं ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: -, भाष्यं -, विभा गाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पोटाते प्रत सूत्रांक - LA दीप अनुक्रम स्वेच्छाविरचितशाखबढेत्याशङ्कातः प्रेक्षावन्तोन प्रवरन् , तथा मङ्गलमप्यादौ वक्तव्यं, अन्यथा कणां श्रोतृणां चाविनेनेष्ट- अनन्तरपफलसिद्धचयोगात्, उक्कं च-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं चैव शाखादौ, चाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥१॥ रम्परतत्र प्रयोजनं द्विधा-परं अपरं च, पुनरेकै द्विधा-कर्तृगतं श्रोतृगतं च, तत्र द्रव्यास्तिकनयमतपर्यालोचनायामागमस्य। योजन १ नित्यत्वात् कर्तुरभाव एव, तथा चोकम्-"एषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीन्न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति दोभुवा नित्या शाश्वती" इत्यादि, पर्यायास्तिकनयमतपर्यालोचनायां चानित्यत्वादवश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्त्वपर्यालोच. नायां तु सूत्रार्थोभयरूपत्वात् सूत्रापेक्षया त्वनित्यत्वात् कथञ्चित्कर्तृसिद्धिः, तत्र च सूत्रकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्त्वानुग्रहः, परम्परं त्वपवर्गमाप्तिः, उक्त च-"सर्वज्ञोक्तोपदेशेन,यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति दुःखतप्ताना,स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम्॥१॥" तदर्थप्रतिपादकस्य भगवतोऽहंतः किं प्रयोजनमिति चेत् , उच्यते, न किश्चित् , कृतकृत्यत्वात् , प्रयोजनमन्तरेणाधप्रतिपादिनप्रयासो न समीचीन इति चेत्, न, तस्य तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयप्रभवत्वात् , वक्ष्यति च-"तं च कहं वेइजइ ?, अगिलाए धम्मदेसणाए उ' (तच्च कथं वेद्यते?, अग्लान्या धर्मदेशनयैव) इति । श्रोदणामनन्तरं प्रयोजनमावश्यकश्रुतस्कन्धार्थपरिज्ञानं, परम्परं निःश्रेयसावाप्तिः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षा, सम्यगवबोधपुरस्सरं सावधानवद्ययोगनिवृत्तिप्रवृत्तिभ्यां सवितुः खरकिरणैर्जलार्द्रशाटिकायाः सलिलकणानामिव कर्मपरमाणूनामवयवशोऽपगमसम्मत्वात् , ज्ञान क्रियात्मकं चावश्यकं, उभयस्वभावत्वात् , तयोश्च ज्ञानक्रिययोरवाप्तिर्विवक्षिताऽऽवश्यकश्रुतस्कन्धः श्रवणतो जायते, नान्यथा, तत्कारणत्वात् तदवाः , अत एव भगवंतो भद्रबाहुखामिनः परमकरुणापरीतचेतस ऐदं E andro wwwjainitiorary.org ... टीका-रचनाया: प्रयोजन ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [-], भाष्यं -, वि०भागाथा -1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम युगीनसाधूनामुपकाराय आवश्यकस्य व्याख्यानरूपामिमां नियुक्तिं कृतवन्तः, अभ्यथा सम्यक्परिज्ञानाभावत: शिष्याणां मोक्षपथप्रवृस्युच्छेदमसक्तेः, कारणादेव कार्यसिद्धिभावात्, आह च भाष्यकृत्-"नाणकिरियाहि मोक्खो 8 तममयमावस्सयं जओ तेणं । तबक्खाणारंभो कारणओ कजसिद्धिति ॥शा" [ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षो यतस्तन्मयभावश्यकं । ततः तब्याख्यारम्भः, कारणतः कार्यसिद्धिरिति ॥१॥] (भा.) ततः श्रोतृणामपि परम्परया मुक्तिभावाद् भवति तेषां परं प्रयोजन निःश्रेयसावाप्तिरिति प्रयोजनवान् आवश्यकपारम्भप्रयासः, अभिधेयं सामायिकादि, तेषामेवास्मिन् ग्रन्धे सविस्तरमभिधास्यमानत्वात् , सम्बन्धस्तु द्विधा-उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणच, तत्रायः ती नुसारिणः प्रति, तद्यथा-वचन ते रूपापन्नमावश्यकमुपायः उपेयं सामायिकादिपरिज्ञानं, मुक्तिपदं वा,तस्याप्यतः पारम्पर्येण भावात् , तथाहि-अस्मात् सम्यक्सा-11 मायिकाद्यर्थपरिज्ञानं भवति, सति च तस्मिन् सम्यग्दर्शनादिवैमल्यं क्रियाप्रयत्नश्च, ताभ्यां प्रकर्षमाधाभ्यां मुक्तिपदप्राप्तिरिति, गुरुपर्वक्रमलक्षणस्तु सम्बन्धः उपोद्घातनियुक्ती 'उद्देसे निइसे य निग्गमे' इत्यादिना अन्धेन स्वयमेव नियुक्तिकृता प्रा-1 चन वक्ष्यते । अत्र कश्चिदाह-ननु अधिगतशास्त्रार्थानां स्वयमेव प्रयोजनादिपरिज्ञानं भविष्यतीति निरर्थक एप शास्त्रादौर प्रयोजनाद्युपन्यास इति, न, अनधिगतशास्त्रार्थानां प्रवृत्तिहेतुतया सफलत्वात् , अथ प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिश्चयपूर्विका भवति, न च प्रयोजनादावुक्तेऽपि अनधिगतशास्त्रार्थानां तन्निश्चयोपपत्तिः, बचनस्य बाह्यार्थ प्रति प्रामाण्याभावात् । न च संशयतः प्रवृत्तिरुपपन्ना, प्रेक्षावत्ताक्षतिप्रसङ्गात्, ततः कथं सार्थकता अधिकृतप्रयोजनाडुपन्यासस्य !, तदेतदपरिभाषितभापितं, वचनस्य बाह्याथै प्रति प्रामाण्यभावात् , अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदमसके, विजृम्भितं चात्र I tan Education inarnational For Farmony wwimwaintiorary.org ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥ २॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [-], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रपञ्चतो धर्मसङ्ग्रहणिटीकादाविति ततः परिभावनीयं, अथ यदि वचनस्य वाह्यार्थ प्रति प्रामाण्यं तर्हि अत एव सम्यगभिधेयादिपरिज्ञानभावान्निरधिंका शास्त्रे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः, फलाभावात् प्रवृत्ती हि फलमभिधेयादिपरिज्ञानं तच्चाधि कृतप्रयोजनाद्युपन्यासत एव सिद्धमिति, तदेतद्बालिशविजृम्भितं, अधिकृतेन हि प्रयोजनाद्युपन्यासेन प्रयोजनादीनामधिगतिर्भवति सामान्येन, नाशेषविशेषपरिज्ञानपुरस्सरा, अधिकृतप्रयोजनाद्युपन्यासस्य सामान्येन प्रवृत्तत्वात्, 'सामान्यनिष्ठं हि वचः सामान्यं प्रतिपादयति, विशेषनिष्ठं विशेषम् अतो वचनप्रामाण्यादधिकृतप्रयोजनाद्युपन्यासवाक्यतः * सामान्येन प्रयोजनादिकेऽधिगते कथं नु नाम अस्माकं सविशेषं सामायिकादिपरिज्ञानं स्यादिति विशेषपरिज्ञानाय भवति प्रेक्षावतां शास्त्रे प्रवृत्तिः, अन्यच्च यदि वचनस्याप्रामाण्यमभ्युपगम्यते तथापि न काचिद्विवक्षितार्थक्षतिः, संशयतोऽपि प्रवृत्तिभावात्, तथाहि -अनेनाधिकृतप्रयोजनाद्युपन्यासेन तद्विषयसंशय उपजन्यते, संशयश्च द्विधा -अर्थसंशयोऽनर्धसंश यश्च तत्रार्थसंशयो यथा यदि वृष्ट्यादिसामग्री ततः सम्भवति शस्य निष्पत्तिः, अनर्थसंशयो यथा - (यदि) विषमिदं यो भक्षयति स म्रियते, तत्रानर्धसंशयात् न कस्यचित्सचेतसः प्रवृत्तिः, अनर्थतः संशयस्यापि विभ्यस्वात्, अर्थसंश. यस्तु प्रेक्षावतोऽपि प्रवृत्त्यङ्ग, अनर्थकशङ्काया अभावात् फलस्य च केषाञ्चिदर्शनात्, न चायमधिकृतप्रयोजनाद्युपन्यासजनितः संशयोऽनर्थसंशय इति भवति प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरिति न किञ्चिदनुपपन्नम् ॥ सम्प्रति मङ्गलमुच्यते, यतः श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति, उक्तं च- "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वापि यान्ति विनायकाः ॥ १ ॥” | अयमपि च आवश्यकानुयोगो निर्मुक्तिरूपः परमपदप्राधिवीजभूतत्वात् श्रेयोभूतः ततो मा भूत्तत्र विघ्न इति तदारम्भे विघ्न Jan Education Interna For Pitate & Personal Use Only ~19~ प्रयोजन वाक्यस्य सफलता ।॥ २ ॥ www.jainslibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: -, भाष्यं -1, विभा गाथा [१३,१४], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक GANGACRICKASKR दीप अनुक्रम विनायकोपशान्तये मङ्गलमुपन्यस्यते, तच्च शास्त्रस्यादौ मध्येऽवसाने च भवति,न युक्तो मङ्गलत्रयोपन्यासः, आदिमङ्गलेनवा-1 भीष्टार्थस्य सिद्धत्वादिति चेत्, तदसम्यक्, आदिमङ्गलमात्रादभीष्टार्थसिख्ययोगात्, तथाहि-आदिमङ्गलं विवक्षितशाहै स्त्रस्याविनेन पार गच्छेयुरित्येवमर्थ, मध्यमङ्गलमवगृहीतशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थ, अन्तमङ्गलं शिष्यप्रशिष्यपरम्परया शास्त्रस्याव्यवच्छेदार्थम् , उक्त च-"तं मंगलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्वत्थाऽविग्धपारगमणाय निदिई ॥१॥ (भा. १३) तस्सेव य जत्थं मज्झिमय अंतिमंपि तस्सेव । अबोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्त ॥३॥ (भा. १४) अत्र 'सिस्सपसिस्साइवंसस्से"ति प्राकृतत्वात्तृतीयाथें षष्टी, ततोऽयमर्थः-तस्यैव शास्त्रार्थस्य शिष्यप्रशिष्यादिवंशेनान्यवृच्छित्तिर्भूयादित्येवमर्थमन्तमङ्गलमिति, तत्रादिमंगलम् 'आभिणिवोयिनाणं सुयनाणं 'त्यादि, ज्ञानपञ्चकस्य परमङ्गलत्वात्, मध्यमङ्गलं 'बंदण चिइ किइकम्म'मित्यादि, बन्द-18 नस्य विनयरूपत्वात्तस्य चाभ्यन्तरतपोभेदत्वात् तपोभेदस्य च मङ्गलत्वात्, पर्यन्तमङ्गलं 'पञ्चक्खाणमित्यादि, प्रत्याख्यानस्याद्यतपोभेदत्वेन मङ्गलत्वात् । स्यादेतद्-इदं मङ्गलवयं शास्त्राद्भिन्नमभिन्नं वा, किचातः, उभय-TH तथाऽपि दोषः, तथाहि-यदि भिन्नं ततः शास्त्रस्यामङ्गलवप्रसङ्गो, मङ्गलाद्भिन्नत्वात्, तदन्यवस्त्वन्तरवत् । यच स्वरूपेणामङ्गलं तदन्यमङ्गलोपन्यासेनापि मङ्गलीक मशक्यं, स्वभावस्य च्यावयितुमशक्यत्वात्, न खलु काचः स्वरूपेणावैडूर्यमणिः सन् केनापि वैडूर्यमणीक्रियते, ततो निरर्थको मङ्गलोपन्यासो, मालत्वकार्याकरणात्, अथ मङ्गलीक मशक्यस्यापि मङ्गलमुपादीयते तथा लोकप्रवृत्तेः तीनवस्थाप्रसङ्गा, तथाहि-यथा प्रागमङ्गलस्य सतः शास्त्र an For Photo & Porsand van on ... मङ्गलत्रयस्य आवश्यकता वर्णयते वि०भा० = विशेषावश्यक भाष्य, (वि०भा० में सर्वत्र विशेषावश्यक भाष्य की गाथा के संदर्भ दिये है) ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥५३॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [-], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मंगलत्रय कता स्य मङ्गलमुच्यते एवं मङ्गलान्तरमपि वक्तव्यम्, आद्यमङ्गलाभिधानेऽपि तस्य तथैवामङ्गलत्वात् एवं मङ्गलान्तराभिधानेऽप्यम्यन्मङ्गलान्तरमभिधातव्यं, न्यायस्य समानत्वाद्, तत्राप्यन्यदित्यनवस्था, अथाभिन्नमिति पक्षः तर्हि शास्त्रमेव मङ्गल स्यावश्यमित्यन्यमङ्ग उोपादानमनर्थकं, अमङ्गले हि मङ्गलमुपादीयते यस्तु स्वत एव मङ्गलं तत्र किं मङ्गलविधानेन ?, नहि शुक्लं शुक्कीक्रियते, नापि स्निग्धं स्नेह्यते, अथ मङ्गलभूतस्याप्यन्यन्मङ्गलमुपादीयते तर्हि तेनापि मङ्गलीभूतस्यान्यन्मङ्गलमुपादातव्यं, मङ्गलरूपत्वाविशेषात्, तत्राप्यन्यदित्यनवस्था, अथ मा भूत् प्रस्तुतार्थक्षितिरित्यनवस्था नेष्यते तर्हि शास्त्रस्यामङ्गलत्वप्रसङ्गः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह यथा शास्त्रं स्वतो मङ्गलमपि अन्यमङ्गलनिरपेक्षममङ्गलं, अन्यथा अन्यमङ्गलोपादाननैरर्थक्यप्रसक्तेः, यदि हि अन्यमङ्गलनिरपेक्षमपि तन्मङ्गलं भवेत् तर्हि नान्यमङ्गलमपेक्षेत, स्वतः समर्थस्यान्यव्यपेक्षाया अयोगात्, अन्यमङ्गलव्यपेक्षा चेत् नूनममङ्गलता, तस्य स्वरूपत एवं मङ्गलस्याप्यन्य मङ्गलशून्यस्यामङ्गलतेति, अनवस्थाऽनिष्टौ मङ्गलममङ्गलं, तद्योगाच्छास्त्रमप्यमङ्गलमित्यमङ्गलता शास्त्रस्येति, अत्रोच्यते, इहाद्यः पक्षस्तावनाभ्युपगम्यते, ततोऽनभ्युपगमतिरस्कृतत्वादेव न नः क्षितिमावहति, यदिवा सोऽप्यभ्युपगम्यते, न च प्रागुकदोपावकाशः, यतो द्विविधानि जगति वस्तूनि - भाव्यानि अभाव्यानि च तत्र काचादीन्यभाव्यानीति न तानि वैडूर्यरूपतया कर्त्तुं शक्यन्ते, शास्त्राणि तु भाव्यानि ततः स्वरूपेणामङ्गलान्यपि तानि मङ्गलरूपतया परिणम्यन्ते, मङ्गलस्य स्वपरतद्रूपताऽऽपादने । समर्थत्वात्, लवणप्रदीपादिवत् यथा हि प्रदीपः स्वपरप्रकाशनसमर्थत्वात् स्वं परं च प्रकाशयति, यथा वा लवणं स्वपरलवणिमस्वभावापादने समर्थतया स्वं परं च लवणयति, एवं मङ्गलमपि स्वपर For Pete & Personal Use Only ~21~ ॥ २ ॥ wjanslibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [-], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मङ्गलकरणसमर्थत्वात् स्वं परं च मङ्गलयतीति न कश्चिद्दोषः, द्वितीयपक्षेऽपि न मङ्गलोपादाननैरर्थक्यं शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहाय शास्त्रस्यैव मङ्गलत्वानुवादात्, तथाहि कथं नु नाम विनेयो मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं | गृह्णीयादिति मङ्गलोपन्यासेन मङ्गलमिदं शास्त्रमिति प्रबोध्यते, न चैवमनवस्था, प्रथममङ्गलोपन्यासे च शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहस्य कृतत्वात् अन्यमङ्गलाकाङ्क्षाया निवृत्तेः न च शास्त्रस्यामङ्गलत्वप्रसक्तिः, अन्यमङ्गलनिरपेक्षस्य तस्य स्वतो मङ्गलत्वात् मङ्गलं ह्यन्यदुपादीयते न शाखस्य मङ्गलत्वकरणाय, तस्य स्वत एव मङ्गलत्वात्, किन्तु १, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहाय, ततः कथमन्यमङ्गलोपादानेऽनवस्थानिष्टौ शास्त्रस्यामङ्गलत्वमिति, ननु यदि शास्त्रं स्वतो | मङ्गलं तर्हि यद्यपि मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं न गृह्णाति विनेयस्तथापि तत्स्वकार्यप्रसाधनसमर्थमेव, तस्य तथारवभावत्वादिति कथमन्यमङ्गलोपादानं न निरर्थक मिति १, तदेतदसम्यक्, अभिप्रायापरिज्ञानात् इह विचित्रा भावानां शक्तयः, किश्चित्तथास्वरूपेण गृह्यमाणं स्वकार्यप्रसाधनसमर्थं यथा सुवर्ण, सुवर्णं हि सुवर्णरूपतया परिगृह्यमाणं स्वफलप्रदान समर्थ न लोष्ठादिरूपतयेति, किञ्चित्तथास्वरूपेणागृह्यमाणमपि यथा किञ्चिदनिष्टमन्तः समुत्थ व्याध्यादि कं, तद्धि तथास्वरूपेणाविदितमपि स्वफलं दुःखमुत्पादयति, मङ्गलमपि मङ्गलबुज्या परिगृह्यमाणं मङ्गलफलसाधनायालं नान्यथा साधुवत्, तथाहि साधुः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामपरिणतो भावितात्मा क्षान्तिनिधानं 'समणं संजयं दंत' मिति वचनात् मङ्गलभूतोऽपि मङ्गलबुद्ध्यैव परिगृह्यमाणः सन् प्रशस्तचेतोवृत्तेर्भव्यस्य मङ्गलकार्यप्रसाधको भवति, | यदि तु तथा न गृह्यते तर्हि तस्य कालुप्योपहतचेतसः सत्वस्य न भवतीति, एवं शाखमपि स्वतो मङ्गलमपि सत् For Pivate & Personal Use Only ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं -], विभा गाथा [२१], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: . एपोद्धाते प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम मङ्गलवुढ्या परिगृहीतं मङ्गलफलसाधक, नान्यथा, उकं च-"इह मङ्गलमपि मंगलवुद्धीए मंगलं जहा साहू' (भा. २१) मंगलबुद्धी इति, ननु यदि मङ्गलमपि मङ्गलवुया परिगृह्यमाणं मङ्गलं नेतरथा तर्हि भवन्मतेन मनःप्रमाणं, यद् यथा मनः मंगलं सङ्कल्पयते तत्तथोपजायते नेतरदिति, एवं तर्हि अमङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या परिगृहीतं मङ्गलकार्यकृत् प्राप्नोति, न्यायस्य समानत्वात् , न चैतद् दृष्टमिष्टं वेति, यत्किश्चिदेतद् , वस्तुतचापरिज्ञानात्, मङ्गलं हि स्वरूपेण मङ्गलं ततस्तन्मङ्ग-18 लबुद्ध्या परिगृह्यमाणं मङ्गलफलसाधनायालं, स्वतो मङ्गलस्य स्वबुद्धिसहितस्य परिपूर्णसामग्रीकतया स्वकार्याभिनिर्वर्तनसमर्थत्वात् , काञ्चनवत् , काञ्चनं हि स्वतः काञ्चनं सत् काञ्चनबुद्ध्या परिगृह्यमाणं भवति काश्चनफलकृत् , नान्य-10 थेति, प्रतीतमेतत्, यत्त्वमङ्गलं तत्स्वरूपतो मङ्गलं न भवति, ततः कथं मङ्गलवुद्ध्याऽपि तत्परिगृह्यमाणं मङ्गलकार्यकृत् , नहि लेष्ट्रादि काश्चनबुद्ध्या परिगृहीतं काञ्चनफलमुपजनयतीति । ननु यदि शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहाय || मङ्गलोपन्यासस्तत आदिमङ्गलमेवास्तु, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहस्य तेनैव कृतत्वात् , कि मङ्गलत्रयोपन्यासेन !, न, विहिहातोत्तरत्वात् , आदिमङ्गलेन ह्यादौ मङ्गलमतिपरिग्रहः क्रियते, न मध्यमङ्गलमतिपरिग्रहो नाप्यवसानमङ्गलमतिपरिग्रहः, ततस्तत्रापि विवक्षितफलसाधनाय शिष्याणां मङ्गलमतिपरिग्रहो भूयादिति मङ्गलवयोपन्यासः, यद्येवं मङ्गलवयापाअन्तरालद्वयममङ्गलमापद्यते, तत्र मालमतिपरिग्रहाभावात् , नैष दोषः, सम्पूर्णस्यैव शास्त्रस्य त्रिधाविभक्तत्वेनापान्तराल-15 यासम्भवात् मोदकवत्, यथा हि मोदके त्रिधाविभक्के नापान्तरालद्वयसम्भवस्तथाऽधिकृत शास्त्रेऽपि, तत आदिखण्डमादिमङ्गलेन मङ्गलवुया परिगृहीतं मध्यं मध्यमङ्गलेनावसानमवसानमङ्गलेन, स्वतो मङ्गलं च तदिति स्वस्वफलसाधनाय| 44* an Education in For Farm ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jain Education h “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रभवति, अथ शास्त्रस्य कथं स्वतो मङ्गलता १, उच्यते, निर्जरार्थत्वात्, तथा चात्र प्रयोगः - अधिकृतं शास्त्रं सकलमपि मङ्गलं निर्जरार्थत्वात् तपोवत्, अथ कथमस्य निर्जरार्थतेति चेत्, उच्यते, ज्ञानरूपत्वात्, ज्ञानस्य च कर्मनिर्जरणहेतुत्वात् उक्तं च- "जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तन्नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥ १ ॥” [ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तत् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्रासमात्रेण ॥ १ ॥ ] तस्मात् स्थितमेतत् - शास्त्रस्यादौ मध्येऽवसाने च मङ्गलमुपादेयमिति । अथ मङ्गलमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, 'अग वगु मगु' इत्यादि दण्डकधातुः, 'उदितः' इति नम्, मनवते अधिगम्यते प्राप्यते इतियावत् हितमनेनेति मङ्गलं “मृदिकन्दि कुण्डिपटिपाटिमङ्गिश किमंडिके व्यमिचञ्चिदेवृशलिकलिकमपलिगुध्यञ्चिचपिवहिदि हिकुहितृसृपिशितुसि कुस्य निद्रमेरल' इत्यलप्रत्ययः, अथवा मयते- प्राप्यते स्वर्गोऽपवर्गो वाऽनेनेति मङ्गः'पुन्नाम्नी'ति करणे घप्रत्ययः, मङ्गो नाम धर्म्मः, तथाऽत्र पूर्ववैयाकरणप्रसिद्धेः तं लाति -आदत्ते इति मङ्गलं, 'आतोऽनुपसर्गा, दह्वायामः' इति उप्रत्ययः, मङ्गो नाम धर्मः धम्र्मोपादानहेतुरिति भावः, उक्तं च- 'मंगिज्जरऽधिगम्मइ जेण हियं तेण मंगलं होइ। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते ॥ १॥” (भा० ) अपरे पुनरेवं व्युत्पत्तिमाचक्षते मडु भूपायां, मण्ड्यते-शास्त्र| मलङ्कियतेऽनेनेति मङ्गलं पूर्ववदलप्रत्ययः, अथवा 'मन् ज्ञाने' मन्यते - ज्ञायते निश्चीयते विनाभावोऽनेनेति मङ्गलं, यदिवा 'मदै हर्षे' माद्यन्ति-विघ्नाभावेन हृप्यन्ति शिष्या अनेन 'मह पूजायां वा मह्यते पूज्यते शाखमनेनेति मङ्गलं, सर्वत्र “विरलोरलक| पिंजलयुगल भगल कुन्तलोत्पल कोमलपिङ्गलकाइलादय" इत्यलप्रत्ययो निपातनाच्च विवक्षितरूपनिष्पत्तिः, नैरुक्काः पुनरेवं ... अत्र 'मङ्गल' शब्दस्य अर्थ दर्शयते For Pityte & Personal Use Only ~24~ jainslibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-1 पोद्धा ॥ ५ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [-], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मां गालयति - अपनयति संसारादिति मङ्गलं, यदिवा मलं - पापं गालयति स्फेटयतीति मङ्गलं मा भूत् गलो - विघ्नोऽस्मा दिति वा मङ्गलं, सर्वत्र पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः । तच्च नामादिभेदाच्चतुर्द्धा तद्यथा - नाममङ्गलं स्थापनामङ्गलं द्रव्यमङ्गलं भावमङ्गलं च तत्र यस्य कस्यचिज्जीवस्य अजीवस्य वा मङ्गलशब्दार्थरहितस्य मङ्गलमिति नाम क्रियते तन्नाममङ्गले, यत एवं तलक्षणम् - " यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १॥" अस्यायमर्थः - 'यद्वस्तुनो' जीवाजीवादेर्नाम, यथा गोपालदारकस्येन्द्र इति, 'स्थितमन्यार्थ' इति तस्माद्- | गोपालदार कादन्यश्चासावर्थश्च अन्यार्थः तस्मिन् स्थितं परमार्थतस्त्रिदशाधिपे अवस्थानात्, 'तदर्थनिरपेक्ष' मिति तस्यइन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः - परमैश्वर्यादिरूपस्तस्य निरपेक्षं तदर्थनिरपेक्षं, तथाहि इन्द्र इति किमुक्तं भवति ? - 'इदु परमैश्वर्ये' | इन्दनादिन्द्रः परमैश्वर्ययुक्त इत्यर्थः एवंभूतेन चार्थेन युक्तमिदं नाम परमार्थतखिदशाधिपे एव वर्त्तते, तस्य तास्विक परमैश्वर्ययुक्तत्वात्, गोपालके तु तदर्थशून्यमिति, तथा 'पर्यायानभिधेय' मिति, इह नाम नामवतोरभेदोपचारात् इन्द्र इति गोपालदारकवस्त्वेव गृह्यते तत्पर्यायैः शक्रपुरन्दरपाकशासनशतमखप्रभृतिभिरनभिधेयं पर्यायानभिधेयं, न हि गोपालदार कव| स्त्विन्द्रशब्दवाच्यमपि तात्त्विकेन्द्रवत् शक्रपुरन्दरादिशब्दैरभिधेयमिति, प्रतीतमेतत् एवंभूतं नाम, प्रकारान्तरेण नान्नः स्वरूपमाह - 'यादृच्छिकं च तथेति यदृच्छया निर्वृत्तं यादृच्छिकं, किमुकं भवति १-न केवलमनन्तरोक्तलक्षणं नाम, किन्तु अन्यत्रावर्त्तमानमपि यद् एवमेव यदृच्छया गोपालदारकादेर्नाम क्रियते यथा डित्थो डवित्थ इति तदपि नाम, इदं | चोभयरूपमपि प्रायेण यात्रद्रव्यभावि, मेरुद्वीपसमुद्रादिकं हि नाम प्रभूतं यावद्रव्यभावि दृश्यते किञ्चित्त्वन्यथाऽपि, Jan Education in ... मङ्गल शब्दस्य नाम आदि निक्षेपाः दर्शयन्ते For Pivate & Personal Use Only 25~ नामनिक्षेप ॥५॥ www.janlibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [-], भाष्यं -, विभा गाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम देवदत्तादिनामवाच्यानां विद्यमानानामपि अपरापरनामपरावर्त्तस्य लोके दर्शनात्, यद्दपि च सिद्धान्तेऽभिहित 'नाम | आवकहिय'ति तत प्रतिनियतां जनपदादिसंज्ञामधिकृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि, नाम च तन्मङ्गलं च नाममङ्गलं, यदा तु वस्तु वाच्यं विवक्ष्यते तदैवं व्युत्पत्तिः-नाम्ना मङ्गलं नाममङ्गल, यद्वा नामनामवतोरभेदोपचारात् नाम च तत माल च नाममङ्गलं, तच्च नामरूपं मङ्गलं त्रिधा, तद्यथा-जीवविषयमजीवविषयमुभयविषयं च, तत्र जीवविषयं । ४॥ यथा सिन्धुविषये अग्नेमङ्गलमिति नाम, अजीवविषयं यथा लाटदेशे दवरकवलनकस्य मङ्गालमिति नाम, उभयविषय यथा वंदनमालाया मङ्गलमिति नाम, अत्र हि दवरकादीन्यचेतनानि पत्रादीनि तु सचेतनानीति जीवाजीवरूपता वन्दनमालायाः। तथा सद्भावमाश्रित्य लेप्यकमोदिष्वसद्भाव चाश्रित्याक्षवरादादिषु या स्वस्तिकादीनां स्थापना सा स्थापनामङ्गल, स्थापना चासौ मङ्गलं च तत् स्थापनामङ्गलमिति व्युत्पत्तेः, स्थापनालक्षणं चेदं-'यत्नु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रयेण यञ्च तत्कगणि । लेप्यादि कर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥१॥" अस्थायमर्थः-तत्स्थापनेत्यभिधीयते, यत्किमित्याह- 'यत्नु' यत्पुनः, तुशब्दो नामलक्षणात् स्थापनालक्षणस्य भेदमाह, 'तुस्सा देऽवधारणे' इति वचनात्, 'तदर्थवियुक'मिति स चासावर्थश्च तदर्थ:-सद्भूतेन्द्रलक्षणः तेन वियुक्त-शून्यं तदर्थवियुकं, अथ च तदभिप्रायेणे'ति तस्य-सतेन्द्रस्याभिप्रायो-बुद्धिरध्यवसायस्तदभिप्रायस्तेन तदुद्धचेत्यर्थः, कृतमित्यादि गम्यते, कथंभूतमित्याह-यच 'तत्करणि' तस्यैव-सतेन्द्रस्यैव करणि:-आकृतिराकारो यस तत् तस्करणि-सत्रसेन्द्रसमानाकारं लेप्यादिकर्मेति भावार्थः पदासदाकृतिशून्य वावनिक्षेपादि तत्स्थापना, तचापका-हत्वरं, पम्दाचावद्रव्यमापि च, उर्फ । an Educa t ion wwwimpaintiorary.org ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -, नियुक्ति: -1, भाष्यं -1, विभा गाथा [२५,२९], मूलं /-/गाथा-] (४०) स्थापनाइव्यलक्षणं प्रत सूत्रांक उपोद्धाते चानुयोगदारे-"नाम आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिआवा"भाष्यकारोऽप्याह-"ज पुण तयत्वसुन्न तय- भिप्पारण तारिसागारं । कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं व साठवणा॥॥"(भा. २५)। सम्प्रति द्रव्यमङ्गलभिधातव्यं, तत्र ॥६॥ INIद्रव्यमिति-द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं, 'कृद्धहुल'मिति वचनात् कर्तरि यः, द्रव्यं च तन्मङ्गलं च द्रव्यम गलं, तल्लक्षणमिदम्-"भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैःसचेतनाचेतनं कथितम् ॥१॥" अस्यायमर्थः-भूतस्य-अतीतस्य भाविनो वा-एष्यतः भावस्य-पर्यायस्य कारणं-निमित्तं यदस्मिन् लोके तत् तत्त्वज्ञैःसर्वज्ञैः तीर्थकृद्भिरितियावत् द्रव्यं कथितं, द्रवति-च्छति तांस्तान् पर्यायान् अग्रेतनान् प्राचीनांश्च मुञ्चतीति द्रव्यमिति व्युत्पत्त्यर्थानुगमात्, तच्च द्विधा-सचेतनमचेतनं च, तत्र सचेतनं अनुपयुक्तपुरुषाख्यं, अचेतनं ज्ञशरीरादीति, उकं द्रव्यलक्षणम् , अधुना प्रकृतमुपयुज्यते, द्रव्यमङ्गलं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आ-समन्तात् गम्यते वस्तुतत्त्वमनेनेत्यागमः-श्रुतज्ञानं आगममधिकृत्यागमतः, 'स्थानियपः कर्माधारें' इति कर्मणि पञ्चमी, यथा प्रासादमारुह्य प्रेक्षते इत्यर्थे प्रासादात् प्रेक्षते इत्यत्र, आगमापेक्षयेति भावार्थः, आगमस्याभावः आगमस्य एकदेशो वा आगमेन सह मिश्रणं वा नोआगमा, नोशब्दस्य त्रिष्वप्यर्थेषु वर्तमानत्वात् , नोआगममधिकृत्य नोआममतः, तत्र आगमतो मङ्गलशब्दार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, स हि मङ्गलशब्दार्थवासितान्तःकरणतया तज्ज्ञानलब्धिसहितो नोपयुक्त इति 'अनुपयोगो द्रव्य'मिति वचनात् द्रव्यम्, आह च भाष्यकृत्-"आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता । तन्नाणलद्धिसहिओऽवि नोवउचोति तो दवं ॥१॥"(भा. २९) नवागमो मङ्गलशब्दार्थपरिज्ञानमागमः श्रुतज्ञानमिति पूर्वमभि दीप अनुक्रम ROKAR ॥६॥ JanEducation inNKA ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], विभागाथा [३१,३४,], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम H घानाशनं भाव इति कथमस्य द्रव्यता, उक्कं च-"जइ नापमागमो तो कह दवं दवमागमो कह "IN (भा..पू.) इति, नैष दोषः, ज्ञानं झुपयोगात्मकं भावो, न लब्धिरूपं, 'उपयोगो भाव' इति वचनात् , अनुपयुक्तश्चात्मा तलुग्धिसहितत्वात् ज्ञानकारणम्, अतो भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणमिति द्रव्यलक्षणसम्भवात् द्रव्यमिति, इदं पागमतो द्रव्यमङ्गलं पूर्वसूरिभिर्नयैर्विचारितं, नयाश्च सप्त, तद्यथा-नैगमः सङ्ग्रहः व्यवहारः ऋजुसूत्रं शब्दः सममिरूढः [एवंमतच, अमीषां शब्दार्थ भावार्थ च स्वस्थाने वक्ष्यामः, तत्र नैगमनयः सामान्य विशेषांश्चाभ्युपगच्छति, विशेषाव पृथ-16 भिलस्वरूपा इति तन्मतेन एकोऽनुपयुक्तः एक द्रव्यमङ्गलमनेकेऽनुपयुक्ता अनेकानि द्रव्यमङ्गलानि, आह च भाष्यकृत्|"एगो मङ्गलमेगं णेगा गाई गमनयस्स" (भा. ३१ पू.) । सङ्ग्रहनयस्तु सामान्यमेवैकं निरवयवमकियमभ्युपैति । मान्यत, सहि विशेषवादिनः प्रत्याह-विशेषः सामान्यावत्यरैक्षीद्वा न वा, आद्यपक्षे न विशेषः, सामान्या व्यति-18 ★ारिकत्वात् खपुष्पवत्, सदिति हि तद्वक्तुं शक्यते यत्सदिति प्रत्ययमुत्पादयति, सदिति प्रत्ययं चोत्पादयति सामान्यमेव तस्य तथास्वभावत्वात् न विशेष इति विशेषस्य खरविषाणकल्पता, अथ द्वितीयः पक्षस्तहि सोऽपि सामान्यमेव तद व्यतिरिक्तत्वात तत्स्वरूपवत्, उक्कं -"सामनाओं विसेसो अपणोऽणण्णो व होज जइ अण्णो । सो नस्थि खपुपर्फपिच नऽपणो सामण्णमेव सयं ॥१॥"(भा. ३४) तत इत्थं केवलसामान्यवादिनस्तस्य मतेन सर्वस्मिन्नपि जगत्येकमेव द्रव्यमङ्गलं, सर्वेपां। म्यमालसामान्यादब्यतिरिक्तत्वात्, सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वात् , आह च भाष्यकृत्-"संगहनयरस एकं सर्व दापय मङ्गलं बोए (भा० ३१ ३०) इति, व्यवहारस्तु विशेषवादी, तथा च स सहहनयं प्रत्याह-विशेषा एव तात्त्विका-18 JainEducmonirm Fornivon-spronwar ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [-], भाष्यं -], विभा गाथा [३५,३९,४०], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सपोद्धाते स्तेषामेव दोहवाहादिक्रियासूपयुज्यमानत्वात्, न सामान्य तद्विपर्ययात्, न च तत् सदिति प्रत्येतुं शकुमः अनुपल-150 दभात् , नहि गवादीनिव विशेषान् शृङ्गमाहिकया तेभ्यो व्यतिरिक्तं गोत्वादिसामान्य पश्यामो, न चापश्यन्त आत्मानं | नयवि॥७॥ विप्रलभेमहि, ततः कथं तदभ्युपगच्छामः !, उपलंभव्यवहाराभावात्, उक्तं च-'न विसेसत्थंतरभूयं अस्थि सामन्नमाह चारः ववहारो । उवलंभववहाराभावाओ खरविसाणं व ॥१॥ (भा० ३५) एवं चास्यापि मतेन नैगमनयस्येव एकोऽनुपयुक्त एक द्रव्यमङ्गलं, भूयांसोऽनुपयुक्ता भूयांसि द्रव्यमङ्गलानि, ननु नैगमोऽपि विशेषानिच्छति व्यवहारोऽपि ततः कोऽनयोः प्रतिविशेषः १, उत्तमेतत् नैगमः सामान्यमिच्छति विशेषांश्च व्यवहारस्तु विशेषानेवेति, सिद्धसेनीयाः पुनः पडेव नयानभ्युपगतवन्तः, नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावविवक्षणात्, तथाहि-यदा नैगमः सामान्यप्रतिपत्तिपरस्तदा । है स सङ्ग्रहेऽन्तर्भवति सामान्याभ्युपगमपरत्वात् विशेषाम्युपगमनिष्ठस्तु व्यवहारे, आह च सिद्धसेनीयमतमुपसजिघृक्षु - प्यकृत्-"जो सामन्नग्गाही स नेगमो संगहं गओ अहवा । इयरो ववहारमिओ जो तेण समाणनिद्देसो ॥१॥" (भा० ३९) ततः सिद्धसेनीयाभिप्रायेण पहिरेव नयैरागमतो द्रव्यमङ्गलविचारः कर्तव्यः न सप्तभिरिति, ऋजुसूत्र-13 स्त्वभिधत्ते-यदतीतं यच्चानागतं यच्च सदपि परकीयं तदवस्तु, अतीतस्य विनष्टत्वात् अनागतस्य त्वलब्धात्मलाभत्वात् | परकीयस्य चार्थक्रियाकारित्वाभावात्, देवदत्तधनं हि यज्ञदत्तस्य परमार्थतोऽसत् तस्कार्याकरणादिति, प्रतिप्राणि प्रसि- ७ Frमेतत्, किन्तु यत् सत् स्वकीय तदेवैक वस्तु, ततोऽस्य मतेनैकमेव द्रव्यमबल न भूयांसीति, उक्तं च-"उजुसुयस्स ते सयं संपयं च ज मंगलं तय पकं । नातीतमणुप्पन्नं मंगलमिटुं परकं वा॥१॥(भा०४०)ये तु शब्दसमभिरूदैव ROCCA.COCOCCA an Fun wwwjainitiorary.org ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [ ], निर्युक्तिः [-], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ४२ ], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | भूता नयाः ते अत्यन्तविशुद्धत्वादागमतो द्रव्यमङ्गलमित्येव नानुमन्यन्ते, तथा च ते आहुः - आगमतो हि द्रव्यमङ्गल| मिदमुच्यते मङ्गलशब्दार्थज्ञाता तंत्र चानुपयुक्त इति, तदेतत्परस्परव्याहतं यदि मङ्गलशब्दार्थज्ञाता तर्हि कथमनुपयुक्तः १, | अनुपयुक्तश्चेत् कथं मङ्गलशब्दार्थज्ञाता, ज्ञानस्योपयोगात्मकत्वात् तदभावे तस्याप्यभावात्, न खलु जीवश्चेतनारहित इति ( शक्यं प्रतिपत्तुं सचेतसेति, उक्तं च- "जाणं नाणुवउत्तोऽणुवउत्तो वा न जाणई जम्हा । जाणतोऽणुवउत्तोत्ति विंति सद्दादओऽवत्युं ॥१॥" ( भा० ४२ ) इत्थं चागमतो द्रव्यमङ्गलस्य नयैर्विचारः सूत्रेऽपि साक्षात् संवादी, तथा चानुयोगद्वारेष्वागमतो द्रव्यावश्यकमधिकृत्य सूत्र--" नेगमस्त णं एगो अणुवत्तो आगमती एवं दवावस्सयं दुन्नि अणुवउत्ता दोन्नि दवावस्तथाई । तिन्नि अणुवडत्ता आगमओ तिष्णि दवावत्सयाई, एवं जावइया अणुवत्ता आगमतो ताबड्याई नेगमस्स दवावस्वयाई, एवमेव वबहारस्सथि, संगहस्त्र णं एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा अणुवत्ता वा दवावस्वयं वा दवावस्सयाई वा से एवं दवावस्वयं, उशुमुयस्स आगमतो एवं दवावस्तयं, पुहुत्तं नेच्छइ, तिन्हं सहनयाणं जाणए अवर अवल्लू, कन्हा ?, जइ जाणए अणुवत् न भवइ" इति । उक्तमागमतो द्रव्यमङ्गलमधुना नोआगमतोऽभिधीयते च त्रिधा, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलं भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलं ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गलं च तत्र यन्मङ्गलपदार्थज्ञस्यापगतजीवितस्य शरीरं सिद्धिशिलातलादिगतं तद्भूतभावनया घृतमस्मिन् कुम्भे प्रक्षिप्तमासीदित्येष घृतकुम्भ इत्यादिवदतीतनयानुवृत्त्या ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलं यस्तु वालको नेदानीं मङ्गलशब्दार्थमवबुध्यते अथचावश्यमायत्यां तेनैव शरीरसमु- | च्छ्रयेण भोत्स्यते स भाविभावनिबन्धनत्वाद् घृतमस्मिन् कुम्भे प्रक्षप्स्यते इत्येष घृतकुम्भ इत्यादिवद् भविष्यन्नयानुस For Pitate & Personal Use Only ~30~ wwww.janlibrary.org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [-], भाष्यं -], विभा गाथा [४६,४७,४८], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम प्रपोबारणेन भव्यत्ररीखष्यमङ्गलं, रभवमपि च नोभागमतो द्रव्यमङ्गलं सर्वथा आगमरहितत्वात् , अत एव सर्वनिषेधवाची नोआगनोक्षग्दोऽत्र प्रतिपचण्या, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिकं तु द्रव्यमङ्गलं जिनप्रणीतप्रत्युपेक्षणादिक्रियां कुर्वन् अनुपयुक्तता ॥८ सावादिः, किया हि प्रत्युपेक्षणादिका हस्तपादादिव्यापारविशेषरूपा, ततोऽसावागमो न भवति, आगमस्य ज्ञानत्वात् , शरीरादिचेष्टायास्तु तद्विपरीतत्वात्, तामपि यधुपयुक्तः करोति ततोऽसौ भावमङ्गलं भवति, अनुपयुक्तस सा द्रव्यं 'अनुप-18 बोयो द्रव्य मिति वचनाव, ततः क्रियाया द्रव्यत्वादनागमत्वाच्च तां कुर्वन् साध्वादिरभेदोपचारात् नोआगमतो शरीरभ-11 म्यारीरष्यतिरिकं द्रव्यमङ्गलं, अत्रापि सर्वनिषेघवाची नोशब्दः, उक्त च-"जाणयभवसरीराइरित्तमिह दवमंगलं होइ। बा मजल्ला किरिआ तं कुणमाणो अणुवउचो ॥१॥' (भा०४६) अथवा यत् भूतचरणकरणपरिणाम आगमतो चरीरदब्यमबलवत् भूतभावमबलत्वात् शरीरभव्यशरीरव्यतिरेकं द्रव्यमङ्गलं, यदपि वालकशरीरं चरणकरण कियापरिणामयोग्य तदपि प्रागुक्तभव्यशरीरदब्यमङ्गलवत् भाविभावमङ्गलत्वात् शरीरभव्यशरीरव्यतिरिकं द्रव्यमङ्गलं, मागुके हि नोमागमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे द्रव्यमले भूतभाविज्ञानपरिणामापेक्षे, चरणकरणक्रियापरिणामस्तु ज्ञानपरि- णामामिन इति शरीरभन्यशरीरव्यतिरिक्तता, यदिवा स्वभावत एव शोभनवर्णादिगुणं सुवर्णादि तत् ज्ञशरीरमवशरीरम्यतिरिकं द्रव्यमजलं, बाह च भाष्यकृत- “जं भूयभावमङ्गलपरिणाम तस्स वा जय जोग्ग । Ane ४ा पहावसोहणवण्याइगुणं सुवण्याई॥१॥ पि यहु भावमङ्गलकारणओ मङ्गालंति निद्दिढ । नोआममओ दवं मागमरिहितोति भणियं ॥॥ (भा० ४७ ४८) अत्र जं भूयभावमङ्गलंति यत् भूतचरणकरणक्रियापरिणाम E "+CHOKES JanEduration ima ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [-], भाष्यं -, वि०भागाथा -1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत % सूत्रांक % 44+ + 2 दीप अनुक्रम 'तस्स या जयं जोग्ग मिति तस्य वा-चरणकरणक्रियापरिणामस्व यघोग्यं बालकादिशरीर, शेष सुगमम् । उऊं द्रव्यमङ्गलं, अधुना भावमङ्गलमभिधातव्यं, भावस्य च लक्षणमिदं- भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सवरिन्दादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥१॥" अस्यायमर्थः-भवनं भावः, विवक्षितरूपेण परिणमनमित्यर्थः, यदिवा भव तीति भावः, 'सहादिदुनीभूग्रहो णो वेति कर्तरि णप्रत्ययः, विवक्षितरूपेण परिणत इत्यर्थः, सर्वज्ञः समाख्याता, कोऽसाट्र वित्याह-'विवक्षितक्रियानुभूतियुक्त वक्तुर्या विवक्षिता इन्दनज्वलनजीवनादिका क्रिया तस्या अनुभूतिः-अनुभवनं तया Iयुको विवक्षितक्रियानुभूतियुक्का, क इवेत्याह-इन्दनादिक्रियानुभवात , अत्रादिशब्दात् ज्वलनजीवनादिक्रियापरिग्रहः। इन्द्रादिवत्-शकादिवत्, आदिशब्दापज्वलनजीवादिपरिग्रहः, इन्दनादिक्रियानुभवयुक्केन्द्रादिवदिति भावः, अत्र भावतो मङ्गलं भावमङ्गलं यदिवा भावश्चासौ मङ्गलं च भावमङ्गलं, तच द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो मङ्गलपदार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्ता, उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात् , ननु मङ्गलपदार्थज्ञानोपयोगमात्रेण कथं पुरुषो भावमङ्गलं भवति ?, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निदहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियासाधकत्वाभावात् , तदेतदसम्यक, अभिप्रायापरिज्ञानात्, संवित् ज्ञानमवगमो भावोऽभिप्राय इत्यनर्थान्तरं, 'अर्थाभिधानप्रत्ययाश्च तुल्यनामधेयाः सर्वप्रवादिनाम विसंपादेन स्थिता' तथाहिबाह्यः पृथवनोदराकारोऽर्थोऽपि घट इति व्यपदिश्यते, तद्वाचकमभिधानं घट इति, तरज्ञा-1* वानरूपा प्रत्ययोऽपि घट इति, तथा च लोके पकार:-किमिदं पुरो दृश्यते , घटा, किमसौ वकि, घट, किमस्य चेतसि । ट्रस्पति, पटा, एवं च मति यदनिरिति ज्ञानं ठदव्यतिरेकात माणवकोऽप्यनि: ज्ञानज्ञानिनोः कथंचिदव्यतिरेका FACESS For Farm -~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: -, भाष्यं -1, विभा गाथा [४९,५०], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम उपोद्धातेअन्यथा तज्ज्ञाने सत्यप्वसौ नोपलभेत , अतन्मयत्वात् , प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषान्तरवद्वा, बन्धाधभावप्रसङ्गश्च, ज्ञाना- भावम ज्ञानसुखदुःखपरिणामशून्यत्वात् , आकाशवत् , न खल्वाकाशं ज्ञानाज्ञानसुखदुःखपरिणामरहितं बन्धमोक्षाम्यां युज्यते । ॥९॥ तस्मात्कथश्चिदन्यतिरेको ज्ञानज्ञानिनोः, न च निराकारं ज्ञानं, अनाकारत्वे पदार्थान्तरवत् विवक्षितस्यापि पदार्थस्य परिच्छेदाप्रसक्तः, तदाकारशून्यत्वाविशेषात् , ततो ज्ञानस्याग्याकारत्वात्तव्यतिरिक्त आत्माऽप्यन्याकार इत्यग्निर्माणवकः, न चैवं दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसक्तिः, सर्वस्याग्नेर्दहनाद्यक्रियाप्रसाधकत्वायोगात् भस्मच्छन्नाग्निना व्यभिचारादिति, नोआगमतो भावमङ्गलं 'सुविशुद्धः क्षायिकादिको भावः', नोशब्दोऽत्र सर्वनिषेधवाची, उक्कं च-मङ्गलसुयउवउत्तो आगमओ भावमङ्गलं होइ । नोआगमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाईओ॥१॥"(भा०४९) अथवा-नोआगमतो भाषमालमागमवर्जे ज्ञानचतुष्टयं सर्वनिषेधवचनस्वानोशन्दस्य, यदिवा यः सम्यग्दर्शनशानचारित्रपरिणामः स न आगम एव केवलो नाप्यनागमः किन्वागमसम्मिश्र इति नोमागमतो भावमङ्गलं, नोशब्दोऽत्र मिश्रषचना, आहप-10 “(महवा) सम्मइंसणनाणपरिचोवयोगपरिणामो । नोआगमओ भावो नोसहो मीसभावमि ॥१॥"(भा०५.) वदिवा यो भगवदहनमस्काराधुपयोगः स खल्वागमैकदेशो, विवक्षिताध्ययनाथपेक्षया तस्यैकदेशत्वात् , ततो नोशब्दस्य देशवाचित्वात् नोआगमतः स भाषमङ्गलं । ननु नामस्थापनाद्रव्येषु मङ्गलाभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वात् द्रष्यत्वं च समानमतः एषां प्रतिविशेषः, उच्यते, इह यथा स्थापनेन्द्र लोचनसहनकुण्डलकिरीटकरकुलिशधारणशचीसविधान-18/ सिंहासनाच्यासनादिजनितातिशयः सविन्द्राकारो लक्ष्यते, कर्तृव सतेन्द्राभिप्रायो भवति यथाऽयं मया स्वर्गाषि E land ~334 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: -, भाष्यं -1, विभा गाथा [५३,५५], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: || || प्रत सूत्रांक = दीप अनुक्रम पतिः सावादालिखित इत्यादि, द्रष्टुब तदाकारदर्शनात् प्रत्ययो यथाऽयमिन्द्रो वर्चत इति, प्रणतिकृतश्च फलार्थिनः स्तोत्र प्रवर्णते, फलं च किश्चिदभीष्ट देवतानियोगात् प्राप्नुवन्ति, न तथा नामेन्द्रे नापि द्रव्येन्द्र, ततो नामद्रन्याभ्यामित्थं | स्थापनाया विशेषः, उक्तं च-"आगारोऽभिपाओ बुद्धी किरिया फलं च पारणं । जह दीसइ ठवर्णिद न तहा नामे न दविंदे ॥१॥" (भा० ५३) यथा स द्रव्येन्द्रो भावेन्द्रकारणतां प्रतिपद्यते प्रतिपन्नवान् वा भावेन्द्रतां उपयोगापेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयिष्यति अवाप्तवान् वा न तथा नामेन्द्रो नापि स्थापनेन्द्र इति नामस्थापनाभ्यां द्रव्यस्य विशेषः, स्थापनाद्रव्यलक्षणव्यतिरिक्तस्वरूपं तु नामेति द्रव्यस्थापनाभ्यां नानो विभिन्नता, अपरस्त्वाह-भावमझलमेवैक भावानामेवार्थक्रियाकारित्वात् ये तु नामादयस्ते सङ्कल्पमात्रसम्पादितसत्ताका इति किं तेषामुपन्यासेन', तदेतदसम्यक्, नामादीनामपि भाववत् , तात्त्विकत्वात् तेषामपि भाववदविशेषेण शब्दतः प्रतीतेः, तथाहि-अविशिष्टे इन्द्रवस्तुन्युच्चरिते नामादिचतुष्टयमविशेषेण प्रतीतिमासादयति, किमनेन नामेन्द्रो विवक्षितः आहोश्चित् स्थापनेन्द्रो द्रव्येन्द्रो भावेन्द्रो वा इति !, ततो यथा घट इत्युक्ते कोऽनेन घटो विवक्षितो रक्तः कृष्णः शुक्ल: नीलो वेति शब्दतः प्रतीयमानाः सर्वेऽपि तात्त्विकास्तथैते नामादयोऽपीति, तथा च एतदेव साक्षेपपरिहारं भाष्यकृदाह-"इह भावोच्चिय वत्थु तदत्थमुन्नेहिं किं नु सेसेहिं ! । नामादओऽवि भावा जं तेऽविहु वरथुपजाया ॥१॥" (मा०५५) अत्र 'वत्थुपज्जाया' इति इन्द्रादिरूपस्य सामान्यवस्तुनो विशेषाः, इतश्च नामस्थापनाद्रव्याणि तात्त्विकानि भावमङ्गलाङ्गत्वात्, तदङ्गता तत्परिणामकारणत्वात् , तपाहि-मजलामिषानं सिद्धापभिधान चोपशुस भगवदईत्पतिमा वा रहा भूतबतिभावं भव्य = wwwjaintiorary.org ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं -1, विभा गाथा [५६-५८,६०], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ini प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सपोदाते यतिभावं वा भरीरं चोपलभ्योपजायते प्रायः कस्याप्यासन्नमुक्तिगामिनः सम्यग्दर्शनादिरूपभावमङ्गलपरिणामः, उक्तंद्रनामादीना घ-"अहवा नामंठवणादवाई भावमङ्गलंगाई । पाएण भावमङ्गलपरिणामनिमित्तभावाओ ॥१॥जह मङ्गलाभिहाणं विशिष्टता सिद्धं विजय जिणिंदनामं च । सोऊण पेरिछऊण य जिणपडिमालक्खणाई च ॥२॥ परिनिब्बुयमुणिदेहं भव जइजण पर्यायताच सुवण्णमल्लाइ । दण भावमङ्गलपरिणामो होइ पाएण ॥२॥" (भा० ५६-५७-५८) अन्यच्च-यद् वस्तुनोऽमिधानं तद् अमिषेयधर्ममन्तरेण नोपजायते, अभिधानाभिधेययोर्वाच्यवाचकसम्बन्धेन परस्परम विनाभावित्वात् , अभिधेयध. मोऽपि च नामादिविचारप्रक्रमे नामाभिधीयते, अभिधेये अभिधानोपचारात्, यश्च प्रतिनियत आकारो घटादिवस्तुनः सा स्थापना, या च तत्तद्रूपतया परिणमनशक्तिः सा द्रव्यं कारणत्वात्, यश्च साक्षात् पुरः परिस्फुरन् प्रतिभासते पर्यायः दस भावा, उर्क च-"अहवा वत्युऽभिहाणं नामं ठवणा य जो तदागारो। कारणया से दवं कजावन्न तयं भावो॥१॥" (भा०६०)॥ ततो यद्वस्तु तन्नामादिचतुष्टयात्मकं तदन्तरेण वस्तुत्यायोगादिति तात्त्विकानि नामादीनि। एवं च तात्त्विकनामादिचतुष्टयात्मके सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि व्यवस्थिते ये एकैकांशावलम्बिनो नामादिनया, तद्यथानामनय आह-वस्तुधर्मो नाम तत्प्रत्ययहेतुत्वात् ,यद् यस्य प्रत्ययहेतुस्तत्तद्धर्मो यथा घटस्य स्वरूपादयः, वस्तुनः प्रत्ययहेतुश्च नाम ततो निःसन्दिग्धाविपरीतप्रतीतिसमुद्भवात्, तस्माद्वस्तुधर्मो नाम,यदि पुनर्वस्तुधर्मो नाम न स्यात् ततस्तद्वस्तु वस्त्वेव न ॥१०॥ स्थात्, निरभिधेयत्वात् षष्ठभूतवत्, अन्यच्च-वस्तुधर्मत्वाभावे घट इति नाम्न्युच्चरिते घट इतिप्रतीतिनिःसन्दिग्धा न स्यात् प्रतिवग्धाभावात, किन्तु केषांचित्संशयो यथा किमयमाह, केषांचित्कदाचिद्विपर्ययो यथाऽनेन पट: प्रोक इति, अन्येषां ACड an Edu ~35~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], विभा गाथा [६२,६५-६७], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 3U प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम (अ)प्रतिबन्धं पर्यालोचयतः तदर्शनेनानध्यवसायो, यदिवा यहच्छया भवेत् प्रतिपत्तिः, आह -"संसयविवजया वाउण-15 झवसाओऽहवा जहिच्छाए । होजत्थे पडिवची न वत्थुधम्मो जा नामं ॥१॥ (भा० ६२)न चैतत् दृश्यते, तस्मात् वस्तुधर्मो नाम, तदेव चैकं तात्त्विक, तद्वशादेव सकलव्यवहारप्रवृत्तेन स्थापनादय इत्येवमुक्के स्थापनानय आह-आकार एव वस्तु, तत्रैव बुद्ध्यभिधानप्रवृत्तिक्रियोपलम्भात्, तथाहि-प्रत्यक्षत आकारवदेव वस्तु परिगृह्यते, तदेव च शब्देनाप्यभिधीयते, तत्रैव च पुरुषस्य प्रवृत्तिः, अर्थक्रियामपि च तदेव करोतीत्याकार एव तात्त्विको न नामादयः, तथा च प्रयोगः यदाकाररहितं न तद्वस्तु, यथा गगनेन्दीवरं, आकाररहितं च पराभिमतं नामादि, उक्तं च-"न पराणुमयं पत्थु आगाराभावओ खपुष्पं व । उवलंभववहाराऽऽभावाओ नाणगारं च ॥१॥" (भा०६५) अत्र पूर्वार्द्ध सुगम, उत्तरार्द्धस्य व्याख्यानमिद-न अनाकारं वस्तु उपलम्भाभावात् व्यवहाराभावाच्च । एवं स्थापनानयेनोक्ते द्रव्यनय आह-! तात्विकोत्पादव्ययरहितं यनिर्विकारमाविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामात्मक द्रव्यं तदेवैकं तात्त्विकं, तस्यैव प्रत्यक्षादिना प्रमाणेनोपलभ्यमानत्वात् , यत्तु तदतिरिच्य स्थापनानयेन प्रोच्यते तदसद्, द्रव्यातिरेकेणान्यस्याकारस्योपलम्भाभावात् , उक्तं च-“दवपरिणाममेत्तं मोत्तूणागारदरिसणं किं तं?। उपायबयरहियं दवं चिय निधियारं तं ॥१॥ आविम्भावतिरोभावमेतपरिणामकारणमचिंतं । निचं बहुरूवंपिव नडोव वेसंतरावन्नो ॥२॥" (भा०६६-६७) इति, इतश्च द्रव्यं तात्त्विकं कारणत्वात् मृत्पिण्डपयःप्रभृतिवत्, यचाकारणं न तद वस्तु, यथा गगनकुसुम, अकारणं च पराभिमतमाका. पदीति । एवं द्रव्यनयेनाभिहिवे भावनयः प्राह-भाव एव पारमार्थिको न द्रव्यं, तस्यानुपलम्भाव,म हि मृत्पिण्ड in Ede ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥ ११ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः शिवकस्यासकोशकुशूलादिभावेभ्यो व्यतिरिक्तमन्वयिनमर्थं पश्यामः, न चापश्यन्तः प्रतिपत्तुं शकुमः मा प्रापदत्यन्ता|सतोऽपि षष्ठभूतादेरभ्युपगमप्रसङ्गः, अथ द्रव्यमन्तरेण कथमिव भावानामुत्पत्तिरुपपद्यते ? तस्मादवश्यं द्रव्यमभ्युपगन्तव्यं, तदसम्यक्, प्रतीत्योत्पादवादस्य सम्यग्व्यवस्थितत्वात्, तथाहि पूर्व भावं कारणत्वेन प्रतीत्योत्तरो भावः समुत्पद्यते, पूर्व व कारणं कार्योत्पत्तिसमये स्वत एव विनिवर्त्तते, तस्य क्षणमात्रावस्थायित्वात्, उत्तरोऽपि च भावस्तदुत्तरभावं प्रति कारणभावमनुभूय द्वितीयक्षणे न भवति, सर्वभावानां क्षणमात्रावस्थानात्, 'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा' इति वचनात्, एवमेकैकांशावलम्बिनो नामादितया मिथ्यादृशः एकांशाभ्युपपमपरतया सम्पूर्णवस्तुसंस्पर्शित्वायोगात्, वस्तुनोऽनेकधर्मत्यात्, भगवदर्हन्मतं तु सर्वनयसमूहात्मकमतोऽनेकांशावलम्वि, किन्त्येकांशविचारप्रक्रमेऽपीतरांशसापेक्षत्वात् सम्पूर्णवस्तुग्राहीति प्रमाणं, तथाहि - नामापि च वस्तुधर्मस्तस्य तत्प्रत्यय हेतुत्वात्, आकारोऽपि तात्त्विकस्तस्य प्रत्यक्षादिना | प्रमाणेनाविसंवादितयोपलम्भात्, द्रव्यमपि च प्रमाणं, तदभावे भावानामत्यन्तासतां खरविषाणस्येवोत्पादायोगात्, भावा अपि च तात्त्विका द्रव्यस्य विचित्रशक्तिकतया तथा तथापरिणमनभावात्, तथा चाहुः स्तुतिषु गुरवः-"अन्योऽन्यपक्षप्रतिप| क्षभावावू, यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन्, न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ १ ॥ आद्यस्तुतिकारोऽप्यवोचत् -"नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ १ ॥ तती नामादयोऽपि भाववत् ताविका इति तेषामप्युपन्यासः ॥ अथ सर्वज्ञशासने सकलनयमूलभूतौ द्वावेव नयौ, तद्यथा द्रव्यास्तिकनयः पर्यायास्तिकनयश्च तथा चाहुः श्रीमलवा For Pete & Personal Use Only ~37~ नामादीना सापेक्षता ॥ ११॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ - ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ७५ ], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दिन:--"सङ्गविसेससहविसेसपत्थारमूलवागरणी । दवडिओ य पावनओ य सेसा वियप्पा सिं ॥१॥" [संग्रहविशेषाणां | संग्रहविशेष प्रस्तार मूलव्याकरणिनौ । द्रव्यार्थिकञ्च पर्यायार्थिकश्च शेषा विकल्पा अनयोः ॥ १॥ ] तत्र नामादिचतुष्टयमध्ये कस्य किं सम्मतमिति निरुच्यतां १, उच्यते, नामस्थापनाद्रव्याणि द्रव्यास्तिकनयस्य भावः पर्यायास्तिकनयस्य, कथमिति चेत्, उभ्यते, | इह सिद्धसेनीयास्तावदेवमाहुः - 'सामान्यग्राही नैगमः सङ्ग्रहेऽन्तर्भूतो विशेषग्राही व्यवहारे' इति षडेव तत्त्वत्तो नयाः, तत्र सङ्ग्रहो व्यवहारश्च द्रव्यातिकनयो द्रव्याभ्युपगमपरत्वाद्, अतस्तस्य नामादित्रितयमभिमतं एतावांस्तु विशेषः - सामा- | | न्याभ्युपगमपरत्वात् यानि कानिचिन्नाममङ्गलानि तानि सर्वाणि एकं नाममङ्गलं सर्वाणि स्थापनामङ्गलान्येकं स्थापना| मङ्गलं सर्वाणि द्रव्यमङ्गलान्येकं द्रव्यमङ्गलं, व्यवहारस्तु विशेषग्राहीति नाममङ्गलानि प्रत्येकं भिन्नानीच्छति, एवं स्थापनामङ्गलानि द्रव्यमङ्गलानि चेति, ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतास्तु पर्यायाभ्युपगमपरत्वात् पर्यायास्तिकनयः, ततस्तस्थ भावः सम्मतः, उक्तं च- "नामाइतियं दवट्टियस्स भावो उपज्जवनयस्स । संगहववहारा पढमगस्स सेसा उ इयरस्स ॥ १ ॥ " ( भा० ७५ ) सूत्राभिप्रायेण तु ऋजुसूत्रोऽप्यविशुद्धो द्रव्यास्तिकनयस्तस्यापि द्रव्याभ्युपगमात् तथा चानुयोगद्वारसूत्रम् - "उजुस्सुयरस एगो अणुवउत्तो आगमतो एगं दवावस्वयं, पुडुतं नेच्छर' इति, तदेवमुक्तं प्रासङ्गिकं, अधुना प्रकृतमुच्यते-तत्र नोआगमतो भावमङ्गलमने कप्रकारमुक्तं, अथवा नोआगमतो भावमङ्गलं नन्दी, अथ नन्दीति कः शब्दार्थः १, उच्यते, 'दुनदु समृद्धा' वित्यस्य धातोः 'उदित' इति नमि विहिते नन्दनं नन्दिः, प्रमादो हर्ष इत्यनर्थान्तरं, नन्दिहेतुत्वात् ज्ञानपञ्चकादिकमपि नन्दिः, अथवा नन्दन्ति प्राणिनोऽनेनास्मिन् वेति नन्दिः, 'पदिपटि ... 'नन्दी' शब्दस्य अर्थ एव नाम आदि निक्षेपाः For P&Personal Use Only ~38~ www.anlibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, भाष्यं -], वि०भा गाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नन्देशब्दार्थः प्रत HEIG दीप अनुक्रम उपोद्घाते दोकादिभ्य' इति इप्रत्ययः, असावपि मङ्गलवञ्चतुर्भेदः, तद्यथा-नामनन्दिः स्थापनानन्दिः द्रव्यनन्दिा भावनन्दिश्व, तत्र यस्य जीवस्थाजीवस्य वा नन्दिशब्दान्वर्धरहितस्य नन्दिरिति नाम क्रियते स नाम्ना नन्दि मनन्दिः यद्वा नाम- ॥१२॥ नामवतोरभेदोपचारानाम चासो नन्दिश्च नामनन्दिः, नन्दिरिति नाम वा नामनन्दिः, तथा सद्भावमाश्रित्य लेप्यकमादिश्वसद्भाव चाश्रित्याक्षवराटकादिषु भावनन्दिमतः साध्वादेः स्थापना सा स्थापनानन्दिः, अथवा द्वादशविधतूर्यरूप-द द्रव्यनन्दिस्थापना स्थापनानन्दिः, द्रव्यनन्दिर्बिंधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो नन्दिपदार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्य'मिति वचनात् नोआगमतस्तु त्रिधा, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यनन्दिः भव्यशरीरद्रव्यनन्दिर्जशरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यनन्दिश्च, तत्र यनन्दिपदार्थज्ञस्यापगतजीवितस्य शरीरं सिद्धिशिलातलादिगतं वद्भूतभावनया ज्ञशरीरव्यनन्दिः, यस्तु बालको नेदानी नन्दिशब्दार्थमवबुध्यते अथचावश्यमायत्यां तेनैव शरीरसमुच्छयेण भोत्स्यते स भाविभावनिबन्धनत्वात् भव्यशरीरद्रव्यनन्दिः, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता तु द्रव्यनन्दी द्वादशप्रकार|स्तूर्यसङ्घातः, स चार्य-"भम्भामकुन्दमहलकडम्बझल्लरिहुडुककंसाला । काहलि तलिमा वसों संखो पणवो य पारसमो |॥१॥" (बृ. भा० ) भावनन्दिर्द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो नन्दिपदार्थस्य ज्ञाता वन चोपयुक्का, नोआगमतः पञ्चप्रकारं ज्ञानं, बच्चेदम्- . भिणियोहियनाणं सुपनाणं चेय ओहिनाणं च । तह मणपजवनाणं केवलनाणं च पंचभयं ॥१॥ मा-अर्थाभिमुखो नियतः-प्रतिनियतस्वरूपो बोधा-बोधविशेषोऽभिनिबोधोऽभिनिबोध एवामिनिबोधिक, अभिनिबोध CAIKARACTICACANCARNAKok: ॥१२ Incontre mpanelibrary.org ज्ञानस्य आभिनिबोधिक-आदि पंच प्रकारा: ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक शब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् 'विनयादिभ्य' इत्यनेन स्वार्थे इकण, 'अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानी'ति वचनादत्र नपुंसकता, यथा विनय एव बैनयिकमित्यत्र, अथवा अभिनिवुध्यते अनेनास्मादस्मिन्वेति अभिनिबोध:-तदावरणकर्मक्षयोपशमस्तेन निवृत्तमाभिनिवोधिक, आभिनिबोधिकं च तत् ज्ञानं च आभिनिबोधिकज्ञान-इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशांवस्थितवस्तुविषयः स्फुटप्रतिभासो बोधविशेष इत्यर्थः, तथा श्रवणं श्रुतं-वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंपृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थ घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः, श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, अथवा श्रूयतेऽनेन अस्मात् अस्मिन् वेति श्रुतं-तदावरणकर्मक्षयोपशमा, 'कृद्बहुल मिति वचनात् करणादावपि कप्रत्ययः, तज्जनितं ज्ञानमपि श्रुतं, कार्ये कारणोपचारात्, शृणोतीति वा श्रुतं-आत्मा तदनन्य स्वात् ज्ञानमपि श्रुतं, श्रुतं च तत् ज्ञानं चेति समासः, चशब्दस्वनयोः स्वामिकाल कारणविषयपरोक्षत्वसाधम्योत्तुल्यकक्षसातोद्भावनाः , तथाहि-य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्यापि, 'जत्थ महनाणं तत्थ सुयनाणं जस्थ सुयनाणं| तत्थ मइनाण'मिति वचनात्, ततः स्वामिसाधर्य, तथा यावानेव मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेव श्रुतज्ञानस्यापि, तत्र | प्रवाहापेक्षया अतीतानागतवर्जनानरूपः सर्व एव कालः अप्रतिपतितकजीवापेक्षया तु पट्पष्टिसागरोपमाणि समधिकानि, उकंच-"दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्निए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सबदा ॥१॥" (भा०२७६२) दाइति कालसाधम्र्य, यथा च इन्द्रियानिन्द्रियनिमितं मतिज्ञान तथा श्रुवज्ञानमपीति कारणसाधम्र्य, तथा यथा मति । दीप अनुक्रम In con For the Personal ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्तिः [१], भाष्यं [-], विभा गाथा [९०], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत HEI65 दीप अनुक्रम उपोद्धाते ज्ञानमादेशतः सर्वव्यादिविषयं तथा श्रुतज्ञानमपीति विषयसाधर्म्य, यथा च मतिज्ञानं परोक्षं तथा श्रुतज्ञानमपीति मतिश्रुत PR परोक्षतासाधये, एचकारस्त्ववधारणार्थः , स च परोक्षत्वमनयोरवधारयति, आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने एव परोक्षे न योःपरो॥१६॥ शेष ज्ञानमिति, अथ परोक्षमिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते 'अशूट व्याप्तौं' अक्षुते-ज्ञानात्मना सर्वानर्धान व्याप्नोती क्षता प्रत्यक्षः, यदिवा 'अश भोजने' अश्नाति-सर्वानर्थान् यथायोगं भुङ्क्ते पालयति वेत्यक्षो-जीवः, उभयत्रापि 'मावावद्यमि-10 ४ कमिहनिकष्यशी'त्यादिना उणादिकसप्रत्ययः, अक्षस्य-आत्मनो द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुद्गलमयत्वात् पराणि वन्ते, पृथग्वर्तन्त इति भावः, तेभ्यो यदक्षस्य ज्ञानमुदयते तत्परोक्षं, 'पृषोदरादय' इति रूपनिष्पत्तिः, अथवा परैः-इन्द्रिया-1 दिभिः सह उक्षा-सम्बन्धी विषयविषयिभावलक्षणो यस्मिन् ज्ञाने न तु साक्षादात्मना तत्परोक्षं, धूमादग्निज्ञानवत् , अथ कथमेतयोराभिनिबोधिकश्रुतयोः परोक्षता ?, उच्यते, पराश्रयत्वात्, तथाहि-पुद्गलमयत्वात् द्रव्येन्द्रियमनांस्यात्मनः पृथग्भूतानि ततस्तदाश्रयेणोपजायमानं ज्ञानमात्मनो न साक्षात् किन्तु परम्परयेति परोक्षता, उकं च 'अक्खस्स पोग्गलमया जं दबेंदियमणा परा होति । तेहिंतो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥१॥" (भा०९०) अत्र वैशेपिकादयः प्राहुः नन्वक्षाणीन्द्रियाण्युच्यन्ते, 'खमक्षमिन्द्रियं प्रोक्तम् , हृषीकं करणं स्मृत मिति वचनात्, ततोऽक्षाणांइन्द्रियाणां या साक्षादुपलब्धिः सा प्रत्यक्षे, अक्षं-इन्द्रियं प्रति वर्चत इति प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तेः, तथा च सति सकल लोकप्रसिद्ध साक्षादिन्द्रियाश्रित घटादिज्ञानं प्रत्यक्षमिति सिद्धं, तदेतदयुक्त, इन्द्रियाणामुपलब्धृत्वासम्भवात्, 5 तदसम्भवश्वाचेतनत्वात्, तथा चात्र प्रयोगः- यदचेतनं तन्नोपलब्धा, यथा घटः, अचेतनानि च द्रव्येन्द्रि TKE For Paralel ... परोक्षज्ञानस्य वे भेदे- मति एवं श्रुत ~41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम याणि, नचायमसिद्धो हेतुः, यतो नाम द्रव्येन्द्रियाणि निवृत्युपकरणरूपाणि 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रिय' (त० अ०२ सू०१७) इति वचनात्, निवृत्त्युपकरणे च पुद्गलमये, पुद्गलमयं च सर्वमचेतनं, पुद्गलानां काठिन्यानवबोधरूपतया चैतन्य प्रति धर्मित्वायोगात्, धर्मानुरूपो हि सर्वत्रापि धर्मी यथा काठिन्य प्रति पृथिवी, यदि पुनरनुरूपत्वाभावेऽपि धर्मधम्मिभावो भवेत् ततः काठिन्यजलयोरपि स भवेत्, न च भवति, तस्मादचेतना पुद्गलाः, उकंच-"बोहसहावममुत्तं विसयपरिच्छेयगं च चेयणं । विवरीयसहावाणि य भूयाणि जगप्पसिद्धाणि ॥१॥ ता धम्मधम्मिभावो कहमेएसिं तहऽम्भुवगमे य । अणुरूवत्ताभावे काठिन्नजलाण किन्न भवे ॥२॥ (धर्मसंग्रहणी) इति, नापि सन्दिग्धौनकान्तिकता | हेतोः शङ्कनीया, अचेतनस्योपलम्भकत्वशक्त्ययोगाद्, उपलम्भकत्वं हि चेतनाया धर्मः, ततः स कथं तदभावे भवितुमहेति !, आह-प्रत्यक्षबाधितेयं प्रतिज्ञा, साक्षादिन्द्रियाणामुपलम्भकत्वेन प्रतीतेः, तथाहि-चक्षु रूपं गृहृदुपलभ्यते करें| शब्दं नासिका गन्धमित्यादि, तदेतन्महामोहावष्टब्धान्तःकरणताविलसितं, तथाहि-आत्मा शरीरेन्द्रियैः सहान्योऽन्यानुविधेन व्यवस्थितः, ततोऽयमात्मा अमूनि चेन्द्रियाणि इति विवेकुमशक्नुवन्तो बालिशजन्तवः तत्रापि युष्मादृशां कुशास्त्र सम्पर्कतः कुवासनासङ्गमः, ततः साक्षादुपलम्भिकानीन्द्रियाणि इति प्रतिपन्नाः, परमार्थतः पुनरुपलब्धा तत्रात्मैव, कथ|मेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, तथाहि-कोऽपि पूर्व चक्षुषा विवक्षितमर्थ गृही-1 तवान् ततः कालान्तरे दैवविनियोगतश्चक्षुषोऽपगमेऽपि स तमर्थमनुस्मरति, तत्र यदि चक्षुरेव द्रष्टु स्यात् ततश्चक्षुषोऽभावे तदुपलब्धार्थानुस्मरणं न भवेत्, न वामनाऽसौ अर्थोऽनुभूतः किन्तु चक्षुषा, चक्षुष एव साक्षात् द्रष्टुत्वेनोपगमात्, न Jan Education International For the Personal ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥ १४ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१], भाष्यं [ - ], वि० भा० गाथा [ ९१, ९२], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः धान्येनानुभूतेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणं, मा प्रापदतिप्रसङ्गः, अपिच - मा भूच्चक्षुषोऽपगमस्तथापि यदि चक्षुरेव द्रष्टृ ततः स्मरणमात्मनो न भवेत्, अन्येनानुभूतेऽ ऽन्यस्य स्मरणायोगाद्, भवति च स्मरणमात्मनः, चक्षुषः स्मर्तृत्वेनाप्रतीतेः अनभ्युपगमाच्च, तस्मादात्मैवोपलब्धा नेन्द्रियमिति, तथा चात्र प्रयोगः - यो येवूपरतेष्वपि तदुपलब्धानर्थान् स्मरति स तत्रोपलब्धा, यथा गवाक्षोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्त्ता देवदत्तः, अनुस्मरति च द्रव्येन्द्रियोपलब्धानर्थान् द्रव्येन्द्रियापगमेऽप्यात्मा, इह स्मरणमनुभवपूर्वकतया व्याप्तं व्याप्यव्यापकभावञ्चानयोः प्रमाणतः प्रतिपन्नः, तथाहि — योऽर्थोऽनुभूतः सं स्मर्यते न शेषः तथा स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण प्रतीतेः, विपक्षे चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणं, अननुभूतेऽपि विषये यदि स्मरणं |भवेत्ततोऽननुभूतत्वाविशेषात् खरविषाणादेरपि स्मरणं भवेदित्यतिप्रसङ्गः, तथा द्रव्येन्द्रियापगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणादात्मोपलब्धेति स्थितम् उक्तं च- "केसिंचि इंदियाई अक्खाई तदुवरुद्ध पञ्चक्खं । तन्नो ताई जमचेथणाई | जाणंति न घडो व ॥१॥ उवलद्धा तत्थाया तविगमे तदुचल द्धसरणातो । गेहगवक्खोवरमेऽवि तदुवलद्धाणुसरिया वा ॥ २ ॥ ॥” | ( भा० ९१-९२) अत्र वाशब्द उपमार्थः, अपरे पुनराहु:- न वयमिन्द्रियाणामुपलब्धत्वं प्रतिजानीमहे, किं त्वेतदेव ब्रूमो - यदिन्द्रियद्वारेण प्रवर्त्तते ज्ञानमात्मनि तत्प्रत्यक्षं न चेन्द्रियव्यापारव्यवहितत्वादात्मा साक्षान्नोपलब्धेति वक्तव्यं, इन्द्रि | याणामुपलब्धि प्रति करणतया व्यवधायकत्वायोगात्, न खलु देवदत्तो हस्तेन भुञ्जानो हस्तव्यापारव्यवहितत्वात् साक्षान्न भोक्तेति व्यपदेष्टुं शक्यं, तदेतदसमीचीनं, सम्यकू वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् इह हि यदाऽऽत्मा चक्षुरादिकमपेक्ष्य बाह्यमर्थमवबुध्यते तदाऽवश्यं चक्षुरादेः साढण्याद्यपेक्षते, तथाहि यदा सद्गुणं चक्षुः तदा बाह्यमर्थ स्पष्टं यथाव For P&Personal Use Only ~43~ आत्मनो द्रष्टृता ॥ १४ ॥ anelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम स्थितं चोपलभते, यदा तु तिमिराशुभ्रमणनीयानपित्तसक्षोभदेशदवीयस्वाद्यापादितविभ्रमं तदा विपरीतं संशयित वा. ततोऽवश्यमारमा अर्थोपलब्धौ पराधीनः, तथा च सति यथा राजा निजराजदौवारिकेणोपदर्शितं परराष्ट्रराजकीयं पुरुष पश्यन्नपि समीचीनमसमीचीनं वा निजराजदौवारिकवचनत एव प्रत्येति न साक्षात् तद्वदात्माऽपि चक्षुरादिनोपदर्शित बाह्यमर्थ चक्षुरादिप्रत्ययत एवं समीचीनमसमीचीनं, वा वेत्ति न साक्षात्, तथाहि-चक्षुरादिना दर्शितेऽपि बाह्येऽर्थे यदि संशयमधिरूढो भवति तर्हि चक्षुरादिसागुण्यमेव प्रतीत्य निश्चयं विदधाति, यथा न मे चक्षुस्तिमिरोपप्लुतं नौयानाशुभ्रमणाद्यापादितविभ्रम या ततोऽयमर्थः समीचीन इति, ततो यथा राज्ञो नायं मम || राजदौचारिकोऽसत्यालापी कदाचनाप्यस्य व्यभिचारानुपलम्भादिति निजदीवारिकस्य साद्गुण्यमवगम्य परराष्ट्रराजको| यपुरुषसमीचीनतावधारणं परमार्थतः परोक्षं, तद्वदात्मनोऽपि चक्षुरादिसाद्गुण्यावधारणतो वस्तुयाथात्म्यावधारणं परमार्थतः परोक्ष, नन्विदमिन्द्रियसाद्गुण्यावधारणतो वस्तुयाथात्म्यावधारणमनभ्यासदशामुपगतस्य, अभ्यासदशामाप-* नस्त्वभ्यासप्रकर्षसामादिन्द्रियसाद्गुण्यमनपेक्ष्यैव साक्षादवबुद्ध्यते, ततस्तस्येन्द्रियाश्रितं ज्ञानं कथं प्रत्यक्षं न भवति ? तदसम्यक्, अभ्यासदशामापन्नस्यापि साक्षादनववोधात्, तस्यापीन्द्रियद्वारेणावबोधप्रवृत्तेरवश्यमिन्द्रियसाद्गुण्यापेक्षणात् , केवलमभ्यासप्रकर्षवशात् तदिन्द्रियसागुण्यं झटित्येवावधारयति पूर्वावधतं वा झटित्येव विनिश्चिनोति, ततः काल-1* सौक्षम्यासनोपलभ्यते, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्य, यतोऽवश्यमवायज्ञानमवग्रहहापूर्व, ईहा च विचारणामिका, विचारश्चेन्द्रिदायसागुण्यसभूतवस्तुधर्माश्रितः,अन्यथैकतरविचाराभावेऽवायज्ञानसम्यग्ज्ञानत्वायोगात्, न खस्विन्द्रिये वस्तुनि च सम्यग 44 on Education in For the Personal B ryam ~44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -], नियुक्ति: [१], भाष्यं -], विभागाथा [-], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम उपोद्धाते | विचारिते अवायज्ञानं समीचीनं भवति, ततोऽभ्यासदशापन्नेऽपीन्द्रियसाद्गुण्यावधारणमवसेयं, यदपि चोकम्-'न खलु । ऐन्द्रिय | देवदत्तो हस्तेन भुञ्जानो हस्तव्यापारव्यवहितत्वात् साक्षान्न भोक्तेति ब्यपदेष्टुं शक्य मिति, तदप्ययुगम् , दृष्टान्तदा -15 कस्य न्तिकयोवैषम्याद्, भोक्ता हि भुजिक्रियानुभवभागी भण्यते, भुजिक्रियानुभवश्च देवदत्तस्य न हस्तेन व्यवधीयते, किन्तु || परोक्षता साक्षात् , हस्तो हि कवलप्रक्षेप एव व्याप्रियते, न परिच्छेद क्रियायामिन्द्रियमिवाहारक्रियानुभवेऽपि येन व्यवधानं भवेत्, ५ ततो देवदत्तः साक्षायोकेति व्यवहियते, इह तु वस्तूनामुपलब्धिरुक्कनीत्या चक्षुरादीन्द्रियसाद्गुण्यावगमानुसारेणोपजायते है। ततो व्यवधानात् न साक्षादुपलम्भक आत्मेति । नन्विदं सर्वमूत्सूत्रप्ररूपणं, नन्द्यध्ययनसूत्रे हि इन्द्रियाश्रितं ज्ञानं प्रत्य क्षमुक्तं, तथा च तद्ग्रन्थ:-"पञ्चक्खं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा-इंदियपञ्चक्खं नोइंदियपच्चक्खं चे"ति, सत्यमेतत् , किन्त्विदं| लोकव्यवहारमपेक्ष्योक्तं न परमार्थतः, तथाहि-यदिन्द्रियाश्रितमपरव्यवधानरहितं ज्ञानमुदयते तल्लोके प्रत्यक्षमिति र | व्यवस्थितं, अपरधूमादिलिङ्गनिरपेक्षतया साक्षादिन्द्रियमधिकृत्य प्रवर्त्तनात्, यत्पुनरिन्द्रियव्यापारेऽप्यपरं धूमादिकम|पेक्ष्याम्यादिविषयं ज्ञानमुदयते तल्लोके परोक्षं, तत्र साक्षादिन्द्रियव्यापारासम्भवाद्, यत्पुनरात्मन इन्द्रियमप्यनपेक्ष्य साक्षादुपजायते तत्परमार्थतः प्रत्यक्षं, तच्चावध्यादिकं त्रिप्रकार, ततः संव्यवहारमधिकृत्येन्द्रियानितं ज्ञानं प्रत्यक्षमुक्तंद! न परमार्थतः, अथ कथमेतदवसीयते-संव्यवहारमधिकृत्येन्द्रियाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षमुक्कं न परमार्थतः ।, उच्यते, तत्रैवोत्तरसूत्रार्थपर्यालोचनात्, तथाहि-प्रत्यक्षभेदाभिधानानन्तरं तत्र सूत्र-“परोक्खं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा-आभिणियोहिय-18 नाणे सुयनाण'मित्यादि, तत्र आभिनिबोधिकमवग्रहादिरूपमवग्रहादयश्च श्रोत्रेन्द्रियाचालितास्तत्र वर्णिता, तद्यदिता In En For the Personal Panelibrary.com ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्तिः [१], भाष्यं [-], विभा गाथा [९५], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम श्रोत्रादीन्द्रियाश्रित ज्ञान परमार्थतः प्रत्यक्षं तत्कथमवग्रहादयः परोक्षत्वेनाप्रेऽभिहिता, तस्मादुसरत्रेन्द्रियाश्रितज्ञानस्य परोक्षत्वेनाभिधानादवसीयते प्रागिन्द्रियाश्रितं ज्ञानं संव्यवहारतः प्रत्यक्षमुक्तं, न परमार्थतः, आईच भाष्यकृत्"एगन्तेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पञ्चखं । इंदियमणोभव जंतं संववहारपञ्चक्खं ॥१॥"(भा० ९५) इति । तथा अवशब्दोऽधःशब्दार्थः अव-अधोऽधो विस्तृत वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, अथवा अवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, यद्वा अवधान-आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः, अवधिश्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानं, चशब्दः खल्वनन्तरोतज्ञानद्वयेन सहास्य स्थित्यादिभिः साधर्म्यप्रदर्श*नार्थः, तथाहि-यावानेव मतिश्रुतयोरनन्तरमुक्त प्रवाहापेक्षया अप्रतिपतितैकसत्वाधारापेक्षया वा स्थितिकालस्तावानेवाव-II धिज्ञानस्थापीति स्थितिसाधर्म्य, तथा यथैव मतिश्नुते मिथ्यादर्शनोदयतो विपर्ययरूपतामासादयतस्तथाऽवधिज्ञानमपि, तथाहि-मिथ्यादृष्टेतान्येव मतिश्रुतावधिज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानि भवन्ति, उक्त च-'आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्त"मिति (प्रश.) विपर्ययसाधये, तथा य एव मतिश्रुतज्ञानयोः स्वामी स एवावधिज्ञानस्यापि, तथाहि-विमङ्गज्ञानिनस्त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपदेव मतिश्रुतावधिज्ञानानां लाभसम्भव इति लाभसाधम्य । तथा परि-सर्वतो भावे, अवनमवः, 'तुदादिभ्यो नक्की' इत्यधिकारे 'अकितो वे त्यनेन औणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवन गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्ययो मनःपर्यवः-सर्वतो मनोद्रव्यपरिच्छेद इत्यर्थः, अथवा मनःपर्यय इति पाठः, तत्र पर्ययणं पर्ययः भावेऽल्प्रत्ययः, मनसि मनसो वा पर्ययो मनःपर्यय:-सर्वतस्तत्परिच्छेद EARNACOCARE In contana For the Personal ... प्रत्यक्षज्ञानस्य त्रया: भेदा: - अवधि, मन:पर्याय, केवलज्ञान ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] उपोद्धा ।। १६ ।। “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ८९ ], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इति, स वासौ ज्ञानं च मनः पर्यवज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं वा अपरे - 'मणपजयनाण' मिति पाठेऽपि मनःपर्यायज्ञानमिति शब्दसंस्कारमाचक्षते, तत्रैवं व्युत्पत्तिः- मनांसि - मनोद्रव्याणि पर्येति - सर्वात्मना परिच्छित्ति मनःपर्यायं, 'कर्मणोऽणि' त्यण, मनःपर्यायं च तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानं, यदिवा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः, पर्याया भेदा धर्मा वाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यर्थः, तेषु तेषां वा सम्वन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, इदं चार्द्ध तृतीय द्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनमेव । तथाशब्दोऽवधिज्ञानेन सहास्य छझस्थत्वादिभिः सारूप्यप्रदर्शनार्थः तथाहि - यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति तथा मनः पर्यवज्ञानमपीति छनस्थसाधर्म्य, यथा वाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयं तथा मनःपर्यवज्ञानमपि तस्य मनःपुद्गलालम्बनत्वादिति विषयसाधर्म्य, तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिकभावे वर्त्तते तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति भावसाधर्म्य, यथा चावधिज्ञानं प्रत्यक्षं तथा मनःपर्यायमपि, तथाहि अक्षो भण्यते जीवः एतच्च प्रागेवोपपादितं, अक्षं जीवं प्रति साक्षाद्वर्त्तते यत् ज्ञानं तत्प्रत्यक्ष- इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनः साक्षात्प्रवृत्तिमत्प्रत्यक्षमित्यर्थः, तच्चावध्यादि त्रिभेदं उक्तं च - " अक्खो भन्नइ जीवो वावणभोयणगुणन्नितो जेणं । तं पइ वट्टइ नाणं जं पञ्चक्खं तयं तिविहं ॥ १॥" (भा. ८९ अक्खो अत्थ.) इति प्रत्यक्ष साधर्म्यं । तथा केवलमेकमसहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात्, मत्यादिज्ञाननिरपेक्षता च केवलज्ञानप्रादुर्भावे मत्यादीनामसम्भवात् ननु कथमसम्भवो यावता मतिज्ञानादीनि स्वस्वावरणक्षयोपशमेऽपि प्रादुःष्यन्ति ततो निर्मूलस्वस्वावरणवि लये तानि सुतरां भविष्यन्ति चारित्रपरिणामवत्, उक्तं च - " आवरणदेसविगमे जाई विनंति महसुयाईणि । आवरणसहविगमे कह वाइँ न होति जीवस्सं? ॥ १ ॥" उच्यते इह यथा जात्यस्य सरकतादिमणेर्मलोपदिग्धस्य यावन्नाद्यापि For P&Personal Use Only ~47~ अन्येषां प्रत्यक्षता ॥ १६ ॥ wjanelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम समूलमलापगमस्तावद्यथा यथा देशतो मलविलयः तथा २ देशतोऽभिव्यक्तिरुपजायते, सा च कचित् कदाचित्कथतिदभवतीत्यनेकप्रकारा, तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकालकलाकलापावलम्बिनिखिलपदार्थपरिच्छेदकरणकदक्षपारमार्थिकस्वरूप स्थाप्यावरणमलपटतिरोहितस्वरूपस्य यावन्नाद्यापि निखिलकर्मामलापगमस्तावद् यथा यथा देशतः कर्ममलोच्छेदस्तथा तथा देशतस्तस्य विज्ञप्तिरुज्जृम्भते, सा क्वचित् कदाचित्कथञ्चिदित्यनेकप्रकारा, उक्तं च-"मलविद्धमणेय॑तिर्यथाऽनेकप्रकारतः। कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः ॥१॥” सा चानेकप्रकारता मतिश्रुतादिभेदेनावसेया, ततो यथा मरकतादिमणेरशेषमलापगमसम्भवे समस्तास्पष्टदेशशक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुटरूपैकाभिव्यक्तिरुपजायते तद्वदात्मनोऽपि ज्ञानदर्शन-12 चारित्रप्रभावतो निम्शेषावरणप्रहाणादशेषदेशज्ञानव्यवच्छेदेनैकरूपाऽतिपरिस्फुटा सर्ववस्तुपर्यायसाक्षात्कारिणी विज्ञप्ति-18 रुल्लसति, तथा चोकम्-"यथा जात्यस्य रत्नस्य, निशेषमलहानितः । स्फुटैकरूपाभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तद्धदात्मनः॥१॥ ततो मत्यादिनिरपेक्षं केवलज्ञानं, अथवा शुद्ध केवलं तदावरणमठकलङ्कस्यानवयवशोऽपगमात्, सकलं वा केवलं प्रथ-12 मत एवाशेषतदावरणविगमतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलमनन्यसदृशत्वात् , अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तहै त्वाद, केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानं, यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासिज्ञानमिति भावः, पशब्दो मनःपर्ययज्ञानेन सहास्याप्रमत्तयतिभावादिना साधर्म्यप्रदर्शनार्थः, तथाहि-यथा मनःपर्यवज्ञानमप्रमत्तयतेरेवोदयते तथा केवलज्ञानमपीत्यप्रमत्तयतिसाधये, तथा यथा मनःपर्यायज्ञानं न विपर्ययमासादयति तथा केवलज्ञानमपीति विपर्ययाभावसाधर्म्य, 'पश्चमक'मिति पश्चममेव पञ्चमकं प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययः, पञ्चमता चास्य सूत्रक्रमप्रामाण्यानु Indon For the Personal ... केवलज्ञानस्य विशिष्ट-वर्णनं ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत केवळे शेपामाव: आवरणभेदे हेतुश्च सत्राक १७॥ उपोद्धाते| सरणात, सूत्रं चेद-नाणं पंचविहं पन, तंजहा-आभिणियोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाण'- | मिति, ननु सकलमपीदं ज्ञानं ज्ञायेकस्वभावं, ततो ज्ञप्येकस्वभावत्वाविशेषे किंकृत एष आभिनिबोधिकादिको भेदः, जयभेदकृत इति चेत्, तथाहि-वार्तमानिकं वस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानस्य विषयः त्रिकालसाधारणसमानपरिणामो ध्वनिर्गोचरः श्रुतज्ञानस्य रूपिद्रव्याण्यवधिज्ञानस्य मनोगव्याणि मनःपर्यायज्ञानस्य समस्तपर्यायान्वितं सर्व वस्तु केवलज्ञानस्य, तदेतदसमीचीनं, एवं सति केवलज्ञानस्य भेदवाहुल्यप्रसक्तेः, तथाहि-ज्ञेयभेदात् ज्ञानस्य भेदः, यानि च ज्ञेयानि प्रत्येकमाभिनिवोधिकादिज्ञानानामिष्यन्ते तानि सर्वाण्यपि केवलज्ञानेऽपि विद्यन्ते, अन्यथा केवल ज्ञानेन तेषामग्रहणप्रसङ्गात् , अविषयत्वात् , तथा च सति केवलिनोऽप्यसर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, आभिनिवोधिकादिज्ञानचतुद्रष्टयविषयजातस्य तेनाग्रहणात् , न चैतदिष्टमिति, अथोच्येत-प्रतिपत्तिप्रकारभेदत अभिनिबोधिकादिभेदः, तथाहि न यादृशी प्रतिपत्तिराभिनिवोधिक ज्ञानस्य तादृशी श्रुतज्ञानस्य किन्तु अन्याहशी, एवमवध्यादिज्ञानानामपि प्रतिपत्तव्यं, ततो भवत्येव प्रतिपत्तिभेदतो ज्ञानभेदः, तदप्ययुक्तं, एवं सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानेऽनेकभेदप्रसक्तेः, तथाहि-तत्तद्देशकालस्वरूपभेदेन विविच्यमानमेकैकं ज्ञानं प्रतिपत्तिप्रकारानन्त्यं प्रतिपद्यते, तन्नैषोऽपि पक्षः श्रेयान, स्यादेतद्-अस्त्यावारकं कर्म तत्त्वनेकप्रकारं ततस्तभेदात्तदावार्य ज्ञानमप्यनेकतां प्रतिपद्यते, ज्ञानावारकं च कर्म पञ्चधा, प्रज्ञापनादौ तथाभिधानात् , ततो ज्ञानमपि पञ्चधा प्ररूप्यते, तदेतदतीवायुक्तिसङ्गत, यतः आवार्यापेक्षं ह्यावारकमत आवार्यभेदादादेव तद, नतु तन्नेदादावार्यभेदा, आवार्य व झतिरूपापेक्षया सकलमप्येकं ततः कथमावारकस्य पश्चरूपता येन %A4%AC-4 दीप अनुक्रम न In contana For the Personal ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक क दीप अनुक्रम जीतनेदात ज्ञानस्यापि पञ्चधा भेद उद्गीर्येत, अथ स्वभावत एवाभिनियोधिकादिको ज्ञानस्य भेदो, न च स्वभावा पर्य नुयोगमति, न खलु किमिह दहनो दहति नाकाशमिति कोऽपि पर्यनुयोगयाचरति, 'अहो महती महीयसो भवतः |मुषी, ननु यदि स्वभावत एवामिनिबोधिकादिको ज्ञानस्य भेदस्तहिं भगवतः सर्वज्ञत्वहानिप्रसङ्गः, तथाहि-ज्ञानमात्मनो धर्मस्तस्य चाभिनिबोधिकादिको भेदः स्वभावत एवं व्यवस्थितस्ततः क्षीणावरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गः, सति च तद्भावेऽस्मादृशस्येव भगवतोऽप्यसर्वज्ञत्वमापनं, आमिनिबोधिकादिभिनिर्वस्तुपरिच्छेदात्, केवलज्ञानभावतः समस्तवस्तुपरिच्छेदानासर्वज्ञत्वमिति चेत्, ननु यदा केवलज्ञानोपयोगसम्भवस्तदा भवतु सर्वज्ञत्वं, यदा त्वाभिनिवोधिकादिज्ञानोपयोगस्तदा देशतः परिच्छेदादस्मादृशस्येव बलादसर्वज्ञत्वमापद्यते, न च वाच्यं तस्य तदुपयोग एव न भवति, आत्मस्वभावत्वेन तस्यापि क्रमेणोपयोगस्य निवारयितुमशक्यत्वात् , केवलज्ञानानन्तरं केवलदर्शनोपयोगवत्, ततः केवल ज्ञानोपयोगकाले सर्वज्ञत्वं शेषज्ञानोपयोगकाले चासर्वज्ञत्वमेव, तच्च विरुद्धमिति, आह च-"नत्तेगसहावचे आभिनि*बोधाइ किंकओ मेओ? नेयविसेसाओ चेन सबविसयं जतो चरिमं ॥१॥ अह पडिवत्तिविसेसा नेगेमि अणेगमे. यभावातो। आवरणविभेयओऽविहु सभावभेयं विणा न भवे ॥२॥ तम्मि य सइ सबेसि खीणावरणस्स पावई भावो। तद्धम्मत्ताओच्चिय जुत्तिविरोहो स चाणिडो॥ ३ ॥ अरहावि असवण्णू आभिणियोहाइभावतो नियमा। केवलभावाओ चे सवण्णू नणु विरुद्धमिणं ॥४॥" (धर्मसंग्रहणी) तस्मादिदमेव युक्तियुक्तं पश्यामो यदुत अवग्रहज्ञानादारभ्य यावदुत्कपावं परमावविज्ञानं तावत् सकलमप्येकं, तचासकलसंज्ञितमशेषवस्तुविषयत्वाभावात्, अपरं च केवलिनः, तब dan Education International For the Personal ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, वि०भागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्धाते सिकलसंज्ञितमिति द्वाषेवभेदौ, उक्तं च-"तम्हा अवगहाओ आरम्भ इहेगमेव नाणंति । जुत्तं छउमस्थस्सासगळं इयरंच आवरण केवलिणो॥१॥" (१०) अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावदुक्तं 'सकलमपीदं ज्ञानं ज्ञयेकस्वभावं, ततो ज्ञात्येकस्वभावत्वाविशेरे भेदे हेतु ॥१८॥ किंकृत एष आभिनिचोधिकादिभेद इति' तत्र ज्ञप्त्येकस्वभावता किं सामान्यतो भवताऽभ्युपगम्यते विशेषतो वा, तत्र न तावदाद्यः पक्षः क्षितिमाधत्ते, सिद्धसाध्यतया तस्य बाधकत्वायोगात्, बोधरूपतारूपसामान्यापेक्षयाऽपि सकलमपि ज्ञानमस्माभिरेकमभ्युपगम्यते एव, ततः का नो हानिरिति । अथ द्वितीयः पक्षस्तदयुक्तमसिद्धत्वात् , नहि नाम विशेषतोऽपि ज्ञानमेकमेवोपलभ्यते, प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण उत्कर्षापकर्षकृतभेददर्शनात्, अथ यद्युत्कर्षापकर्षकृतमात्रभेददर्शनात् ज्ञानभेदस्तहिं तावुत्कर्षापकर्षों प्रतिमाणि देशकालाद्यपेक्षया सहस्रशो विद्यते ततः कथं पश्चरूपता ?, नैष दोषः, परिस्थूरनिमित्तभेदतः पञ्चधात्वस्थ प्रतिपादनात् , तथाहि-सकलघातिक्षयो निमित्तं केवलज्ञानस्य मनापर्यायज्ञानस्य त्वामर्षोषध्यादिलब्ध्युपेतस्य प्रमादलेशेनाप्यकलङ्कितो विशिष्टो विशिष्टाध्यवसायांनुगतोऽप्रमादः, 'तं संजयस्स सबप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमतों' इति वचनात् , अवधिज्ञानस्य पुनस्तथाविधोऽनिन्द्रियरूपिद्रव्यसाक्षादवगमनिवन्धनं धयोपशमविशेषः, मतिश्रुतज्ञानयोस्तु लक्षणभेदादिकं, तच्चाने वक्ष्यामः, उक्तं च-"नत्तेगसहावत्तं आहेण विसेसतो पुण-12 असिद्धं । एगंततस्सहावत्तणे उ कह हाणिवुडीओ॥ १ ॥जं अविचलियसहावे नत्ते एगंततस्सहावत्त । न यता । तहोवठद्धं उकरिसावगरिसविसेसा ॥२॥ तम्हा परिथूरातो निमित्तभेयाउ समयसिद्धातो । उववत्तिसंगतोचि आमिजिंबोहाइतो भेओ.॥३॥ घाइक्खतो. निमित्तं केवलनाणस्स पण्णिओ समए । मणपज्जवनाणस्स उ तहाविही अप्पमा-12 GARH In Econ For the Personal barang ~51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [१], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम दोति ॥॥ ओहिनाणस तहा अणिदिएसुपि जो खतोवसमो । मइसुयनाणाणं पुण लक्खणभेयाइतो मेगो ॥" (च.सं. ८३६-४०) यदप्युक्तम्-'ज्ञेयभेदकृत इत्यादि तदनभ्युपगमतिरस्कृतत्वात् दुरापास्तप्रसरं, न हि वयं ज्ञेयभेदमात्रतो ज्ञानभेदमिच्छामः, एकेनाप्यवग्रहादिना बहुरविधवस्तुग्रहणोपलम्भात्, यदपि च प्रत्यपादि-'प्रतिपत्तिप्रकारभेदकृत' इत्यादि, तदपि न नो वाधामाधातुमलं, यतस्ते प्रतिपत्तिप्रकारा देशकालभेदेन आनन्त्यमपि प्रतिपद्यमाना न परिस्थूरनिमित्तभेदेन व्यवस्थापितानाभिनिबोधिकादीन् जातिभेदानतिकामति, ततः कथमेकस्मिन् अनेकभेदभावप्रसङ्गः', उक्तं च-"न य पडिकत्तिविसेसा एगंमि अणेगभेयभावोऽवि जंतेतहाविसिट्टे न जातिभेदे विलंघंति ॥" (ध.सं.८४२)यदप्यवादीत्-'आवायर्या-18 पेक्षं ह्यापारकमित्यादि' तदपि न नो बाधायै, यतः-परिस्थूरनिमित्तभेदमधिकृत्य व्यवस्थापितो ज्ञानस्य भेदः ततस्तद-11 पेक्षमावारकमपि तथा भिधमानं न परवचनीयतामास्कन्दति, एवमुत्तेजितो भूयः सावष्टम्भं परः प्रश्नयति-ननु परिस्थूर| निभित्तभेदव्यवस्थापिता अप्यमी आभिनिबोधिकादयो भेदा ज्ञानस्यात्मभूता उतानात्मभूताः ?, किश्चातः, उभवधाऽपि प्रदोष, तथाहि-यद्यात्मभूतास्ततः क्षीणावरणेऽपि तद्भावप्रसङ्गः, तथा चासर्वज्ञत्वं प्रागुक्तनीत्या तस्यापलं, अब अनात्म भूतास्तर्हि न ते पारमार्थिकाः, ततः कथमावार्यापेक्षो वास्तव आवारकभेदः, तदपि न मनोरम, सम्यक् वस्तुतस्यापरिज्ञानात् , इह हि सकलघनपटलविनिर्मुक्तशारददिनमणिरिव समन्ततः समस्तवस्तुस्तोमप्रकाशनकस्वभावो जीवः, सच तथाभूतः स्वभावः केवलज्ञानमिति व्यपदिश्यते, सच यद्यपि सर्वघातिना केवलज्ञानावरणेनानियते तथापि तखानम्वतमो भागो नित्योपारित एष, "अक्सरस अणंतो भागो निचुम्माखितो, मा पुष ब्रोवि मावरेजा तेणं जीवो आ.. For the Personal de Chly Panelibrary.com ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] पोद्धा ॥ १९ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः: + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अजीवत्तणं पावेजा, सुहुवि मेहसमुदय होर पहा चंदसूराणं' (नन्दी) इति वचनात् ततस्तस्य केवलज्ञानावरणावृतस्य धन| पटलाच्छादितस्येव सूर्यस्य यो मन्दः प्रकाशः सोऽपान्तशलावस्थित मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमसम्पादितं नानात्वं भजते, | यथा घनपटलावृत सूर्यमन्दप्रकाशोऽपांन्तरालावस्थितकटकुट्याद्यावरण विवरप्रदेशभेदतः, स च नानात्वं तत्तत्क्षयोपशमानुरूपं तथा तथा प्रतिपद्यमानः स्वस्वक्षयोपशमानुसारेणाभिधानभेदमश्नुते, यथा मतिज्ञानावरणक्षयोपशमजनितो मतिज्ञानं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजनितः श्रुतज्ञानमित्यादि, तत आत्मस्वभावभूता ज्ञानस्याभिनिबोधिकादयो भेदाः, ते च प्रतिवचनोपदर्शितपरिस्थूरनिमित्तनेदतः पंचसङ्ख्याः, ततस्तदपेक्षमावारकमपि पञ्चधोपवण्णतमिति न कश्चिद्दोषः, न चैवमात्मस्वभावत्वे क्षीणावरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गः, यत एते मतिज्ञानावरणादिक्षयोपशम रूपोपाधिसम्पादितसत्ताकाः, यथा सूर्यस्य घनपटलावृतस्य मन्दप्रकाशभेदाः कटकुव्याद्यावरणविवरभेदोपाधिसम्पादिताः, ततः कथं ते निःशेषावरणक्षयात् तथारूपक्षयोपशमाभावे भवितुमर्हन्ति । न खलु सकलघनपटलकटकुव्याद्यावरणापगमे सूर्यस्य ते तथारूपा मन्दप्रकाशभेदा भवन्ति, उक्तं च- "कडविवरागयकिरणा मेहंतरियस्स जह दिसस्स । ते कडमेहावगमे न होंति जह वह इमाईपि ॥ १॥" ततो यथा जन्मादयो भावा जीवस्यात्मभूता अपि कर्मोपाधिसम्पादितसत्ताकत्वात्तदभावे न भवन्ति तद्वदाभिनिबोधिकादयोऽपि भेदा ज्ञानस्यात्मभूता अपि मतिज्ञानावरणादिकर्मक्षयोपशमसापेक्षत्वात् तदभावे केवलिनो न भवन्ति, ततो नासर्वज्ञत्वदोषभावः, उक्तं च- "जमिह छडमत्यधम्मा जम्माईया न होंति सिद्धाणं । इय केवलीण-माभिणि बोहा भावंमि को दोस्रो १ ॥१॥ १” (४.८४५) इति ।। अपरस्त्वाह-प्रपश्य वयमुक्तयुक्तितो ज्ञानस्य पञ्चभेदत्वं परममीषां For Pre & Personal Use Only ~53~ आवरण भेदे हेतुः ॥ १९ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-1, विभा गाथा [८५,१०६], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम भेदानामित्यमुपन्यासे किचिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथविदेष प्रवृत्तः , अस्तीति ब्रूमः, किं तदिति चेत्, उच्यते, इह K मतिश्रुते सावदेकत्र वक्तव्ये, परस्परमनयोः स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधाद, तच्च प्रागेव भाषितं, अव-६ ध्यादिज्ञानेम्यश्च प्राक्, तद्भाव एवावध्यादिज्ञानसदावाद, उक्तंच-"जं सामिकाठकारणविसयपरोक्खचणेहि तुल्लाई। तभावे सेसाणि य तेणाईए मइसुय ॥१॥” (वि.८५) तत्रापि पूर्व मतिज्ञानं पश्चात् श्रुतज्ञानं, मतिपूर्वकत्वात् श्रुत ज्ञानस्य, तथाहि-सर्वत्रापि पूर्वमहादिरूपं मतिज्ञानमुदयते पश्चात् श्रुतज्ञानं, आह च नन्यध्ययनचूर्णिकृत्-"तेसुवि दिय मइपुषयं सुयंति किच्चा पुष मइनाणं कयं, तस्स पिट्ठतो सुयं"ति, नन्वेते मतिश्रुते सम्यक्त्वोत्पादकाले युगपदुत्पति मासादयता, अन्यथा मतिज्ञानभावेऽपि श्रुताज्ञानप्रसङ्कः, स चानिष्टः, तथा [पि] मिथ्यात्वप्रतिपत्तौ युगपदेवाज्ञानरूपसतया परिणमेते, ततः कथं मतिपूर्व श्रुतमिति, उक्तं च-"णाणाणण्णाणाणि य समकालाई जतो महसुयाई ।तो न सुर्य मइपुषं मइनाणे वा सुअऽनाण॥१॥"(वि.१०६) नैष दोषो, यतः सम्यक्त्वोत्पादकाले समकालं मतिश्रुते लम्धिमात्रमेवाङ्गीकृत्य प्रोष्येते न तूपयोग, उपयोगस्य तथाजीवस्वाभाव्यतः क्रमेणैव सम्भवात् , मतिपूर्व च श्रुतमुच्यते उपयोगापेक्षया, न ४ खलु मत्युपयोगेनासश्चित्य श्रुतमन्यानुसारि विज्ञानमासादयति जन्तुस्ततो न कश्चिद्दोपा, आह प-"इह लद्धिमइसुयाई समकालाई न तूवयोगो सिं। मइपुर्व सुयमिह पुण सुयोवओगोमइप्पभवो ॥१॥"(वि.१०७) अथ मतिश्रुतयोः किंकृतो भेदः, उच्यते, लक्षणभेदादिकृतः, उक्तं च-"लक्खणभेया हेतुफलभावतो भेयइंदियविभागा । वागक्खरमूगेतरभेया भेओ मा. सुयाणं ॥१॥” (वि. १०८) तत्र लक्षणभेदाद् भेदो भाव्यते-अभिमुखं योग्यदेशावस्थितं नियतमर्थमिन्द्रियमनोद्वारेणात्मा dan Education International For the Personal मति-श्रुत ज्ञानस्य लक्षणभेदात् विशिष्ट अर्थाः ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः: + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घाते ४ वेन परिणामविशेषेणावबुध्यते स परिणामविशेषों ज्ञानापरपर्यायः आभिनिवोधिक, तथा शृणोति वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेण शब्देन सह संसृष्टमर्थं परिच्छिनत्ति येन परिणामविशेषेणात्मा स परिणामविशेषः श्रुर्त, भयं च ॥ २० ॥ लक्षणभेदो नन्द्यध्ययने साक्षादभिहितः, तथा च तत्सूत्रम् - " जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं जस्थ सुअनाणं तत्थ आभिणिबोहियनाणं, दोऽवि एयाई, अनुन्नमणुगयाई तहवि पुण एत्थ आयरिया णाणत्तं पण्णवेति, अभिणिबुज्झइत्ति आभिणिवोहियं, सुणेईइ सुव" मिति । ननु यद्येवंलक्षणं श्रुतं तर्हि य एव श्रोत्रेन्द्रियन्धिमान् तथा भाषालब्धिमान् वा तस्यैव श्रुतमुपपद्यते, न शेषस्यै केन्द्रियस्य, तथाहि यः श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् भवति स विवक्षितं शब्दं श्रुत्वा तेन शब्देन वाच्यमर्थे प्रतिपत्तुमीष्टे, न शेषः, शेषस्य तथारूपशक्त्यभावात्, योऽपि च भाषालब्धिमान् भवति द्वीन्द्रियादिरपि सोऽपि प्रायः स्वचेतसि किमपि विकल्प्य तदभिमानतः शब्दमुद्गिरति नान्यथा, ततस्तस्यापि श्रुतं सम्भाव्यते, यस्त्वेकेन्द्रियः स न श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् नापि भाषालब्धिमान्, ततः कथं तस्य श्रुतमुपपद्यते ?, अथ च प्रवचने तस्यापि श्रुतमुपवर्ण्यते, ततः कथं प्रागुक्तं श्रुतलक्षणं सम्यगिति ?, नैष दोषः, इह तावदेकेन्द्रियाणामाहारादिसंज्ञा विद्यन्ते, तथा सूत्रेऽनेकशोऽभिधानात् संज्ञा चाभिलाष उच्यते, यदुक्तमस्यैवावश्यकस्य मूलटीकायां-"आहारसंज्ञाआहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयप्रभवः खल्वात्मपरिणामविशेष" इति, अभिलाषश्च ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद्यदीदमवाप्यते ततः समीचीनं भवतीत्येवं सब्दार्थोल्लेखानुविद्धः स्वपुष्टिनिमित्तप्रतिनियतवस्तुप्राप्यध्यवसायः, स च श्रुतमेव, | तस्य शब्दार्थ पर्यालोचनात्मकत्वात्, शब्दार्थपर्यालोचनात्मकता च ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद्यदीदमवाप्ते, इत्येव For P&Personal Use Only ~55~ ज्ञानक्रमसिद्धिः ॥ २० ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १ ], भाष्यं [ - ], वि० भा० गाथा [१००, १०३ ], मूलं [-- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मादीनां शब्दानामन्तर्जल्पाकाररूपाणां विवक्षितार्थवाचकतया प्रवर्त्तमानत्वात् उक्तं च- "इंदियमणोनिमित्तं अं विज्ञाणं सुयाणुसारेणं । निययत्थोत्तिसमत्थं तं भावसुर्य मई से सं॥ १ ॥” (वि. १०० ) अत्र 'सुयाणुसारेणं ति शब्दार्थपर्यालोचनानुसारेण । शब्दार्थपर्यालोचनं च नाम वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंसृष्टस्यार्थस्य प्रतिपत्तिः, केवलं एकेन्द्रियाणामव्यक्तमेव, किश्च नाप्यनिर्वचनीयं तथारूपक्षयोपशमभावतो वाच्यवाचकभावपुरःसरीकारेण शब्दसंसृष्टार्थग्रहणमवसेयं, अन्यथा आहारादिसंज्ञानुपपत्तेः, यदप्युच्यते यद्येवंलक्षणं श्रुतं तर्हि य एव श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् भाषालब्धिमान् वा तस्यैव श्रुतमुपपद्यत इत्यादि, तदप्यसमीक्षिताभिधानं, सम्यक् प्रवचनार्थापरिज्ञानात्, तथाहि बकुलादीनां स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धि| विकलत्वेऽपि किमपि सूक्ष्मं भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानमभ्युपगम्यते, 'पंचेदियोब वडलो' इत्यादिभाष्यकारवचनप्रामाण्यात्, तथा भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्मं श्रुतं भविष्यति, अन्यथा आहारादिसंज्ञानुपपत्तेः, आह च भा ष्यकृत् - "जह सहमं भावेदियनाणं दबिंदिया व रोहेवि । तह दबसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥ १॥ (वि.१०३) ततः समीचीनं प्रागुक्तं श्रुतलक्षणमिति भवति लक्षणभेदाद्भेदः । तथा हेतुफलभेदात्, तथाहि - मतिः कारणं, मत्या प्राप्यमाणत्वात् श्रुतं तु कार्य, न खलु मतिपाटयमन्तरेण श्रुतविभवमुत्तरोत्तरमासादयति जन्तुस्तथाऽदर्शनात्, यश्च यदुत्कर्षापकर्षवशादुत्कर्षापकर्षभाकू तत्तस्य कारणं, यथा घटस्य मृत्पिण्डः, मत्युत्कर्षापकर्षवशाच्च श्रुतस्योत्कर्षापकर्षो ततः कारणं मतिः श्रुतस्य, इतश्च कारणंमत्या श्रुतस्य पाल्यमानत्वात् पालनं नाम अवस्थितिकरणं, कथं अवस्थितिकरणं मत्या श्रुतज्ञानस्येति चेत्, उच्यते, इह दर्ल श्रुतस्य मतिर्यथा घटस्य मृत्, तथाहि श्रुतेष्वपि बहुपु (प्रन्थेषु) यद्विषयं स्मरणमीहापोहादि अधिकतरं स ग्रन्थः स्फुटं For P&Personal Use Only ~56~ janelibrary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १२२, १२३], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घाते ॥ २१ ॥ प्रतिभाति न शेषः, एतच्च प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धं ततो यथोत्पन्नोऽपि घटो मृदभावे न भवति तथास्वभावायां च मृदि स्थितायामवतिष्ठत इति सा तस्य कारणं, एवं श्रुतस्यापि मतिः कारणं, मतेरुत्पद्यमानत्वात्, मतौ वाऽवस्थितायां ★ तस्याप्यवस्थानात् । तथा च भेदाद्भेदः, तथाहि चतुर्द्धा व्यञ्जनावग्रहषोढाऽर्थावग्रहेह । पाय धारणाभेदादष्टाविंशतिविधमाभिनिबोधिकं ज्ञानं, अङ्गप्रविष्टान प्रविष्टादिभिन्नं च श्रुतज्ञानमिति तथा इन्द्रियविभागाद्भेदः, तत्प्रतिपादिका चेयं पूर्वान्तगंता गाथा- "सोदियोवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दवसुयं अक्खरलंभो य सेसेसु ॥ १ ॥" अस्या व्याख्या-श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्भवति श्रुतं, 'सर्व वाक्यं सावधारणमिष्टितश्चावधारणप्रवृत्ति' रित्येवमिहावधारणं प्रतिपत्तव्यं श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव नतु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेव, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह या श्रोत्रे|न्द्रियोपलब्धिरपि श्रुतमन्धानुसारिणी सेव श्रुतमुच्यते, या पुनरवग्रहेहापायरूपा सा मतिः, ततो यदि श्रोत्रेन्द्रियो|पलब्धिः श्रुतमेवेत्युच्येत तर्हि मतेरपि श्रुतत्वमापद्येत, तच्चायुक्तं, अतः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतमित्यवधारणीयं, आह च भाष्यकृत् - "सोईदिओवलद्धी चैव सुयं न उतई सुयं चैव । सोइंदियज्वलजीवि काई जम्हा मईनाणं ॥ १ ॥ (वि. १२२) तथा 'सेस तु मइनाणं" इति शेषं यच्चक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं विज्ञानं तन्मतिज्ञानं भवतीति सम्बध्यते, तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, आस्तां शेषं विज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचिद् अवग्रहेहापायरूपा मतिज्ञानमिति समुच्चिनोतीति भावः, उक्तं च- "तु समुच्चयवयणातो काई सोइंदिओवलद्धीवि । मइ एवं सइ सोउग्गहादओं होंति मइभेया ॥१॥” (वि. १२२) तदेवं सर्वस्याः शेषेन्द्रियोपलब्धेरुत्सर्गेण मतित्वे प्राप्ते अपवादमाह 'मोत्तूर्णं दवसूयं मुक्त्वा द्रव्यश्रुर्त-पुस्तकपत्र For Prise & Personal Use Only ~57~ मतिश्रुतयोर्भेदः ॥ २१ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) __"आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं -], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-], विभा गाथा [८६,८७], मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम AAACAREERS कादिन्यस्ताक्षररूपां द्रव्यश्रुतविषयां शब्दार्थपोलोचनास्मिकां शेषेन्द्रियोपलब्धि, तस्याः श्रुतज्ञानरूपत्वात् , यश्च द्रव्य श्रुतव्यतिरेकेणान्योऽपि शेषेन्द्रियध्वक्षरलाभः शब्दार्थपोलोचनात्मकः सोऽपि श्रुतं, न तु केवलोऽक्षरलाभः, केवलो अक्षरलाभो मतावपि ईहादिरूपायां भवति, न च सा श्रुतज्ञान, अत्राह-ननु यदि शेषेन्द्रियेष्वक्षरलाभः श्रुतं तर्हि यदवधारणमुक्तं 'श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिरेव श्रुत' मिति तद्विघटते, शेषेन्द्रियोपलब्घेरपि सम्पति श्रुतत्वेन प्रतिपन्नत्वात् , नैष दोषा, यतः शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स इह गृह्यते यः शब्दार्थपर्यालोचनात्मकः, शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी चाक्षरलाभः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरूप इति न कश्चिदोष इति । तथा बल्कसम मतिज्ञानं, कारणत्वात्, शुम्बसमं श्रुतज्ञानं, तत्कार्यत्वात्, ततो यथा वल्कशुम्बयोर्भेदः तथा मतिश्रुतयोरपि । इतश्च भेदो-मतिज्ञानमनक्षरं साक्षरं च, तथाहि-अवग्रहज्ञानमनक्षरं तस्यानिर्देश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकतया निर्विकल्पत्वात्, ईहादिज्ञानं तु साक्षरं, तस्य परामर्शादिरूपतयाऽवश्य वर्णारू[पितत्वात् श्रुतज्ञानं पुनः साक्षरमेव, अक्षरमन्तरेण शब्दार्थपर्यालोचनाऽयोगात् । इतश्च मतिश्रुतयोमेंदो-मूककल्प मतिज्ञानं, स्वमात्रप्रत्यायनफलत्वात् , अमूककल्पं श्रुतज्ञानं, स्वपरप्रत्यायकत्वादिति ॥ मतिश्रुतानन्तरं च कालविपर्ययादिसाधादवधिज्ञानस्योपन्यासः, तदनन्तरं च छद्मस्थविषयभावादिसाधम्यान्मनःपर्यवज्ञानस्योपन्यासः, तदनन्तरं च ५ भावमुनिस्वाम्यादिसाधर्म्यात् सर्वोत्तमत्वाच्च केवलज्ञानस्य, उक्तं च-"मइपुर्व जेण सुयं तेणादीए मई विसिट्ठी वा। मइभेदो चेव सुअं तो मइसमणंतरं भणियं ॥शा कालविवजयसामित्तलाभसाहम्मतोऽवही तत्तो । माणसमित्तो छउमत्थविसयभावाइसाहम्मा ॥२२अंते केवलमुत्तममुणिसामित्तावसाणलाभातो" इति (वि.८६-८७॥) सम्पति 'यथोद्देशं निर्देश न For the Personal ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [२], भाष्यं , विभा गाथा [१६९], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: KI सोनाम प्रत सत्राक दीप अनुक्रम इति न्यायात् ज्ञानपञ्चकादावुद्दिष्टस्याभिनिबोधिकज्ञानस्य स्वरूपममिधीयते, तच्चाभिनियोधिकज्ञानं द्विधा-श्रुतनिशि-४ मतिभेदः तमश्रुतनिश्रितं च, तत्र शास्त्रपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्यैव यदुपजायते तत् श्रुतनिश्रितम्- गा. ३ का अवग्रहादि. यत्पनः सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितबस्तुसंस्पर्शि मतिज्ञानमा पजायते तदश्रुतनिश्रितम्-औत्पत्तिक्यादि, आह भाष्यकृत्-"पुर्व सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयातीतं । तन्निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं ॥१॥"(वि.१६९) नन्वौत्पत्तिक्यादिकमप्यवग्रहादिरूपमेव ततः कोऽनयोः प्रतिविशेषः १, उच्यते, तदप्यवग्रहादिरूपमेव, केवलं शास्त्रानुसारमन्तरेणोपजायत इति भेदेनोपन्यस्तं, ननु 'तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला' इति वचनात् तत्रापि किञ्चित् श्रुतोपकारादेव जायते, तस्कथमश्रुतनिश्रितमिति ?, सत्यमेतत् , वैनयिकी विहाय अश्रुतनिश्रित प्रतिपत्तव्यं, यस्तु वैनयिक्या अश्रुतनिश्रितेषु नन्धध्ययने नियुक्ती वा पाठः स बुद्धिसाम्यादिति कृतं | प्रसङ्गेन । तत्र श्रुतनिश्रिताभिनिबोधिकज्ञानस्वरूपप्रदर्शनार्थमाह जग्गहोईह अवातो य धारणा एव होति चत्तारि । आभिणिबोहियनाणस्स भेयवत्य समासेणं ॥२॥" | अवग्रहणमवग्रहः, अनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणमित्यर्थः, यदाह नन्यध्ययनपूर्णिकृत्-"सामन्नस्स रूवादिबिसेस४ाणरहियस्स अनिद्देस्सस्स अवग्गहणमयग्गह" इति, तथा इहनमीहा-सद्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा ईहि चेष्टाया'मिति वचदानात्, किमुक्तं भवति ?-अवग्रहादुत्तरकालमपायात् पूर्व सद्भतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखः मायोऽत्र मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधम्मो दृश्यन्ते न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः शादिशब्दधर्मा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा, In Edin For the Personal wwwsanelibrary.orm ... अत्र मतिज्ञानस्य 'अवग्रह' आदि भेदा: वर्णयन्ते ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [२], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१८२, १८४,२९१], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आह च भाष्यकृत् -"भूयाभूय विसेसादाणच्चायाभिमुहमीहा ।' (वि. १८४) अन्ये तु संशयमात्रमी हामुपवर्णयन्ति, तदसम्यक्, संशयो ह्यज्ञानं, मतिज्ञानांशश्च ईहा, तत्कथमेषा संशयमात्रं भवितुमर्हति ? उक्तं च- " ईहा संसयमेत्तं केई न तयं तओ जमन्नाणं । मईनाणंसो चेहा कहमन्नाणं तई जुत्तं १ || २ || ” (वि. १८२) तथा तस्यैव अवगृहीतस्य ईहितस्य चार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायः, शाङ्ख एवायं शार्ङ्ग एवायमित्यादिरूपोऽवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवाय इति भावः चशब्दः पृथक् २अवग्रहादिस्वरूप स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः, अवग्रहादीनामीहादयः पर्याया न भवन्तीति तदर्थख्यापनार्थ इत्यर्थः, तस्यैवार्थस्य निर्णीतस्य धरणं धारणा, सा च त्रिधा अविच्युतिर्वासना स्मृतिश्च तत्र तदुपयोगादविच्यवनमविच्युतिः, सा चान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणा, ततस्तथा आहितो यः संस्कारः स वासना, सा च सङ्ख्येयमसङ्ख्येयं वा कालं यावद् भवति, सङ्ख्येयवर्षायुषां सङ्ख्येयं कालमसङ्ख्ये वर्षायुषामसंकोयं कालमिति भावार्थः, ततः कालान्तरे कुतश्चित्तादृशार्थ दर्शनादिकात् कारणात् संस्कारस्य प्रवोधे यद् ज्ञानमुदयते तदेवेदं यन्मया प्रागुपलब्धमित्यादिरूपा सा स्मृतिः, उक्तं च-" तदनन्तरं तदत्थाविच्चत्रणं जो उ वासणा जोगो । कालन्तरेण जो पुणरणुसरणं धारणा साउ || १|| (वि. २९१ ) एताश्वाविच्युतिवासनास्मृतयो घरणलक्षणसामान्यान्वर्थयोगाद्धारण/शब्दवाच्याः, एवंशब्दः क्रमप्रदर्शनार्यः, आर्पत्वाच्च मकारलोपः, एवं अनेनैव क्रमेण, तथाहि नानवगृहीतमीह्यते न चानीहितमवगम्यते न चानवगतं धार्यत इति, चत्वारि आभिनिवोधिकज्ञानस्य भिद्यन्त इति भेदाः त्रिकल्पा अंशा इत्यनर्थान्तरं त एव वस्तूनि भेदवस्तूनि वास्तवा भेदा इति भावः, समासेन सङ्क्षेपेण, नतु विस्तरतः, विस्तरतोऽष्टाविंशत्यादिभेद्भा वात्, अथवा काक्का नीयते एवं भवन्ति चत्वार्याभिनि बोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि समासेन, न तु विस्तरत इति । For P&Personal Use Only ~60~ anelibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥ २३ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [३], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १९४ ] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः साम्प्रतमनन्तरोपन्यस्तानामवग्रहादीनां स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह "अस्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह विआलणं इहं । चवसायं च अवार्य धरणं पुणधारणं बेंति ॥ ३ ॥ " अर्थ्यन्ते गम्यं ते परिच्छिद्यन्ते इतियावत् अर्थाः “कमिप्रगात्तिभ्यस्थ" इत्यौणादिकः थप्रत्ययः, ते च रूपादयः, तेषामर्थानां प्रथमं ग्रहणमवग्रहणमवग्रहं ब्रुवते इति योगः, स च द्विधा- व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च तत्र व्यञ्जनावग्रहपूर्वकोऽर्धात्रमह इति प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः प्रतिपाद्यते, अथ व्यञ्जनावग्रह इति कः शब्दार्थः १, उच्यते, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च यः परस्परं सम्बन्धः, संपृक्तिरित्यर्थः, सम्बन्धे हि सति सोऽर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यक्तुं शक्यते नान्यथा, ततः सम्बन्धो व्यञ्जनं, तथा चाह भाष्यकृत् - "वंजिजइ जेणडत्थो घडोव दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिंदियस छ । इपरिणय दबसंबंधो ॥१॥ (वि. १९४) व्यञ्जनेन सम्बन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि, 'कृद्वहुलमिति वचनात् कर्मण्यनद्र, व्यञ्जनानां शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्राप्तानामवग्रहः - अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, | अथवा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं-उपकरणेन्द्रियं तेन स्वसम्बद्धस्यार्थस्य शब्दादेरवग्रहणं - अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, स चान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणः, आह-ननु व्यञ्जनावग्रहवेलायां न किमपि संवेदनं संवेदयामहे, तत्कथमसी ज्ञानरूपी गीयते १, उच्यते, अव्यक्तत्वान्न संवेद्यते ततो न कश्चिद्दोषः, अस्तित्वे किं प्रमाणमिति चेत्, उच्यते, अनुमानं, तथाहि यदि प्रथमसमयेऽपि शब्दादिपरिणतद्रव्याणामुपकरणेन्द्रियस्य च परस्परसम्पृत्तौ काचिदपि Education International For P&Personal Use Only ~61~ अवग्रहादि स्वरूपम् गा. ३ ॥ २३ ॥ anlibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [३], भाष्यं , विभा गाथा [२०१], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रत सूत्राक ज्ञानमात्रा न भवेत् ततो द्वितीयेऽपि समये न भवेत् , विशेषाभावाद एवं यावचरमसमयेऽपि, अथ चरमसमये ज्ञानमर्थावग्रहरूपं जायमानमुपलभ्यते ततः प्रागपि कापि कियती मात्रा प्रतिपत्तव्या, अब मन्येथा मा भूत प्रथमसमयाविषु सदादिपरिणतद्रव्याभिसम्बन्धेऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा शब्दादिपरिणतद्रव्याणां तत्र है स्तोकत्वात् चरमसमये तु भविष्यति शब्दादिपरिणतद्रव्यसमूहस्य भूयसो भावात्, तदप्ययुकं, यतो यदि प्रथमसमयादिषु शब्दादिद्रव्याणां स्तोकत्वात् सम्पृक्तौ नाव्यक्ताऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रोपजायते तता प्रभूतसमुदायसम्पर्केऽपि न भवेत्, न खलु सिकताकणादिषु प्रत्येकमसति तैललेशे समुदाये तैलमुनवदुपलभ्यते, अस्ति च चरमसमये प्रभूतशब्दादिसम्पर्के ज्ञानं, ततः प्राक्तनेष्वपि समयेषु स्तोकस्तोकतरैरपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैः सम्बन्धे काचिदव्यक्का ज्ञानमात्राऽभ्युपगन्तव्या, अन्यथा चरमसमयेऽपि न स्यात्, उक्तं च-"जं सबहा न वीसु सबेसुवि दत न रेणु तेल्लं व । पत्तेयमणिच्छतो कहमिच्छसि समुदये नाणं ॥१॥" (वि. २०१) ततः स्थितमेतत्-व्यञ्जनावग्रहो *ज्ञानरूपः, केवलं च तत् ज्ञानमव्यकमवसातव्यं, स च चतुर्विधस्तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः घाणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहश्च, ननु सत्सु पञ्चस्विन्द्रियेषु षष्ठे च मनसि कस्मादयं चतुर्विधः, द उच्यते, इह व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्रव्याणां परस्परं सम्बन्ध उच्यते, सम्बन्धश्च चतुर्णा मेव श्रोत्रेन्द्रि यादीना, न नयनमनसोः, तयोरप्राप्यकारित्वात् , कथमप्राप्यकारितेति चेत्, उच्यते, विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात, यदि पुनःप्राप्तमर्थ चक्षुर्मनो वा गृह्णीयात् तर्हि यथा स्पर्शनेन्द्रियं सचन्दनादिकमडारादिकं वा प्राप्तमर्थ परिच्छि कवक दीप अनुक्रम in Educa t ion For the Personal ~ ~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [३], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्धातेन्द चत्कृतानुग्रहोपघातभाग भवति, तथा चक्षुर्मनसी अपि भवेता, न च भवतस्तस्मादप्राप्यकारिणी ते इति, ननु दृश्येते चक्षुषोड |चक्षुषोऽनुग्रहोपघाती, तथाहि-जरठकरप्रसरमभिसर्पयन्तमंशुमालिनं चिरं विलोकमानस्य भवति चक्षुषो विधातः, शशा-1| प्राप्य॥२४॥ करनिकर तरङ्गमालोपशोभितं जलं शावलतरुमण्डलं वाऽवलोकमानस्यानुग्रहः, तदेतज्ञाझ्यविलसितं, यतो न वयं 3 कारिता ब्रूमः सर्वथा चक्षुषोऽनुग्रहोपघातौ न भवतः, किन्तु विषयमप्राप्तं चक्षुर्ग्रहातीत्येवाभिदध्महे, विषयकृतानुग्रहोपघातासम्भवेऽपि तत्परिच्छेदभावात् , प्राप्तेन सूपघातकेनोपघातो भविष्यत्यनुग्राहकेण चानुग्रहः, तत्रांशुमालिनो रश्मयः सर्वत्रापि प्रसरमुपाददते, नात्र विसंवादः, ततस्ते चक्षुः सम्प्राप्ताः सन्तः स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरप्युपानन्ति, शीतांशुरश्मयस्तु स्वभावत एव शीतलत्वादनुग्राहकाः ततस्ते चक्षुरनुगृह्णन्ति, तरङ्गमालासङ्घलजलावलोकेन च जलकणसम्पृक्तसमीरणावयवसंस्प|शतोऽनुग्रहः, शाडुलतरुमण्डलावलोकनेऽपि शाडलतरुच्छायासम्पर्कशीतीभूतसमीरसंस्पर्शात् , शेषकालं तु जलायवलो कनेऽनुग्रहाभिमान उपघाताभावादवसेयः, भवति चोपघाताभावेऽनुग्रहाभिमानो, यथाऽतिसूक्ष्माक्षरनिरीक्षणाद्विनिवृत्त्य | यथासुखं नीलीरक्तवस्त्राद्यवलोकने, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यम् , अन्यथा सम्पर्के यथा सूर्येणोपघातो भवति तथा हुतवहजलशूलाद्यालोकने दाहक्लेदपाटनादयोऽपि कस्मान्न भवन्ति ?, अपिच-यदि चक्षुः प्राप्यकारि तर्हि स्वदेशगतं रजोमलाञ्जनादि किं न पश्यति, तस्मादप्राध्यकार्येव चक्षः, ननु यदि चक्षुरप्राप्यकारि तर्हि कस्मादविशेषेण सर्वानप्यर्थान् न ||81 गृह्णाति, यदि हि प्राप्त परिच्छिन्द्यात् तर्हि यदेवानावृतमदूरदेश वा तदेव गृह्णीयात् नावृतं दूरदेशस्थं वा, तत्र नयनरश्मीनां गमनासम्भवात् सम्पर्काभावात्, ततो युज्येत चक्षुषो ग्रहणाग्रहणे नान्यथा, तथा चोकम्-"प्राप्यकारि चक्षुः उपल on Education in 160 baran ~634 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [३], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 34 प्रत सूत्रांक ध्यनुपलब्ध्योरनावरणेतरापेक्षणात् दूरेतरापेक्षणाच, यदि हि चक्षुरपाप्यकारि भवेत् तदा आवरणभावादनुपलब्धि-1 | रम्यथोपलब्धिरिति न स्यात्, न हि तदावरणमुपघातकरणसमर्थ, प्राप्यकारित्वे तु मूद्रव्यप्रतिघातादुपपत्तिमान् तथा व्यापातः, अतिदूरे च गमनाभावादिति, प्रयोगश्चात्र-न चक्षुषो विषयपरिमाणमप्राप्यकारित्वात् , मनोवत्, तदेतदयु-18 कतरं, दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् ,न खलु मनोऽप्यशेषान् विषयान् गृह्णाति, तस्यापि सूक्ष्मेष्वागमगम्यादिष्वर्थेषु मोहदर्शनात्, ततो यथा मनोध्याप्यकार्यपि स्वावरणक्षयोपशमसापेक्षत्वानियतविपर्य तथा चक्षुरपि स्वावरणक्षयोपशमसापे-10 क्षत्वात् योग्यदेशावस्थितनियतविषयमिति न व्यवहितानामुपलम्भप्रसङ्गो नापि दूरदेशस्थितानामिति, अपिच-दृष्टमप्रा-18 प्यकारित्वेऽपि तथास्वभावविशेषात् योग्यदेशापेक्षणं, यथा अयस्कान्तस्य, न खल्वयस्कान्तोऽयसोऽयाप्यकर्षणे प्रवर्त्तमानः सर्वस्याप्ययसो जगदर्तिन आकर्षको भवति, किन्तु प्रतिनियतस्यैव, अथ मन्येथा अयस्कान्तोऽपि प्राप्यकारी, अय-12 | स्कान्तच्छायाणुभिः समाकृष्यमाणवस्तुनः सम्बन्धभावात् , केवलं ते छायाणवः सूक्ष्मत्वानोपलभ्यन्ते, तदेतदुन्मत्त-18 Iमलपितं, तग्राहकप्रमाणाभावात् , न हि तत्र छायाणुसम्भवग्राहक प्रमाणमस्ति, न चाप्रमाणकं प्रतिपत्तुं शकुमः, अधास्ति | तग्राहकं प्रमाणमनुमान, इह यदाकर्षणं तसंसर्गपूर्वक यथाऽयोगोलकस्य संदंशेन, आकर्षणं चायसोऽयस्कान्तेन, तत्र साक्षादयस्काम्तेन संसर्गः प्रत्यक्षबाधित इत्यर्थात् छायाणुभिः सह द्रष्टव्य इति, तदेतद्वालिशजल्पितं, हेतोरनै कान्ति कत्वात्, मन्त्रेण व्यभिचारात, तथाहि-मन्त्रः स्मर्यमाणोऽपि विवक्षितं वस्त्वाकर्षति, नच तत्र कोऽपि संसर्ग इति ॥ आ.स.५ अन्यस्त्वाह-अस्ति चक्षुषः प्राप्यकारित्वेऽन्यवहितार्थानुपलब्धिरनुमानं, तदप्ययुकं, अत्रापि हेतोरने कान्तिकत्वात् , काचा-11 72564645643 दीप अनुक्रम In con For the Personal randibrary.org ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं [-1, नियुक्ति: [३], भाष्यं [-], वि०भा०गाथा [२२१], मूलं /-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: %ES प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम उपोद्धाते ट्राभ्रस्फटिकैर्व्यवहितस्याप्युपलब्धो, अथेदमाचक्षीथाः नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थ गृह्णन्ति, नायनाश्च रश्मयस्तैजसत्वाश || मनसोडतेजोद्रव्यैः प्रतिस्खल्यन्ते, ततो न कश्चिद्दोषः, तदपि न मनोरम, महाज्वालादौ प्रतिस्खलनोपलब्धेः, तस्मादप्राप्यकारित्वं प्राप्यका२५॥ चक्षुषः । एवं मनसोऽप्यप्राप्यकारित्वं भावनीयं, तत्रापि विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात् , अन्यथा तोयादिचिन्तायामनु रिता महोऽग्निशस्त्रादिचिन्तायां चोपघातो भवेत् , ननु दृश्यतेऽप्यनुग्रहो हर्षादिभिः शरीरोपचयदर्शनात् , तथाहि-हर्षप्रकर्षवशान्मनसोऽतिपुष्टता, तशाच्च शरीरोपचयः, उपधातोऽपि च दृश्यते, शरीरदौर्बल्यदर्शनात्, तथाहि-अतिशो ककरणतो मनसो विधातसम्भवस्तद्वशाच्च शरीरस्य दौर्बल्य, चिन्तावशाच्च हृद्रोग इति, तदेतदतीवासंबद्धं, यत इह मनदि सोऽप्यप्राप्यकारित्वं साध्यमानं वर्तते, विषयकृतानुग्रहोपघाताभावादिति हेतोः, न चेह विषयकृतावनुग्रहोपघाती त्वया है मनसो दर्येते तत्कथं व्यभिचार, मनस्तु स्वयं पुद्गलमयत्वात् शरीरस्यानुग्रहोपघातौ करिष्यति, यथेष्टानिष्टरूप आहारः, तथाहि-इष्टरूप आहारः परिभुज्यमानः शरीरस्य पोषमाधत्ते अनिष्टरूपस्तूपघात, तथा मनोऽप्यनिष्टपुद्गलोपचितमतिशोकादिनिबन्धनं शरीरस्य हानिपादधाति, इष्टपुद्गलोपचितं च हर्षादिकारणं पुष्टिं, "इटाणिद्वाहारम्भवहारे होति पुट्ठिहाणीतो । जह तह मणसो ताओ पोग्गलगणतोत्ति को दोसो, ॥१॥" (वि०२२१) तस्माम्मनोऽपि विषयकृतानुग्रहोसापघाताभावादप्राप्यकारीति चतुर्धा व्यञ्जनावग्रहः । तथा व्यञ्जनावग्रहचरमसमयोपाचशब्दाद्यर्थावग्रहणलक्षणोऽर्थावग्रहः || सामान्यमानानिर्देश्यग्रहणमेकसामयिकमर्थावग्रह इति भावः, 'तथे त्यानन्तर्ये विचारणं-पर्यालोचनमर्थानामित्यनुवर्त्तते, वाहनमीहा, ता हुवते इति योगः, किमुक्तं भवति ।-अवग्रहावुचीर्णोऽपायारपूर्वः सद्भतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसन RAKECARSHA an E ng For Prutta & Personal use only ~654 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [३], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कवड | तार्थविशेषपरित्यागाकाङ्क्षी मतिविशेष इति, विशिष्टोऽवसायो व्यवसायः निर्णयो निश्चयोऽवगम इत्यनर्थान्तरं तं, व्यवसायम् | अर्थानामिति वर्त्तते अवायं घ्रुवत इति संसर्ग, एतदुक्तं भवति - शाङ्ख एवायं शार्ङ्ग एवायमित्याद्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवाय इति चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, व्यवसायमेवावार्थं ब्रुवत इति, धृतिर्धारणम् अर्थानामिति वर्त्तते, परिच्छिन्नस्य वस्तु| नोऽविच्युतिवासनास्मृतिरूपं धरणं पुनर्धारणां ब्रुवते, पुनःशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारणे, ब्रुवते इत्यनेन शास्त्रपारतन्त्र्यमाह, इत्थं तीर्थकरगणधरा ब्रुवते इति, अर्थावग्रहेहापायधारणाः पञ्चस्विन्द्रियेषु षष्ठे च मनसि भावात् प्रत्येकं पड्भेदात्मकाश्चतुर्द्धा व्यञ्जनावग्रह इति सर्वसङ्कलनयाऽष्टाविंशतिभेदभिन्नमाभिनिबोधिकं ज्ञानमवगन्तव्यं, नवरमीहा सदृशधर्मोपेतवस्तुविषयेति नयनादिनिबन्धनेहाविषया यथाक्रमं स्थाणुपुरुषादिकुष्ठोत्पलादिसम्भृतकारवेल्लमांसादिसप्र्पोत्पलनालादयः प्रतिपत्तव्याः, उक्तं च- "थाणुपुरिसादिकुहुप्पलादिसंभियकरेलमंसाई । सप्पुपलनालाइय समाणरुवाइ विसयाई ॥ १ ॥” (वि०२९३) अन्ये पुनरेवं पठन्ति - "अत्थाणं उग्गहणमि उग्गहो तह वियालणे ईहा । ववसायमि अवाओ धरणं पुण धारणं देति ॥१॥ तत्रार्थानामवग्रहणे सति अवग्रहो नाम प्रथमो मतिभेदो भवतीत्येवं ब्रुवते, एवमीहादिष्वपि योज्यं, भावार्थस्तु पूर्ववत्, | अथवा प्राकृतत्वाद्भवति विभक्तीनां व्यत्ययो, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे- “व्यत्ययोऽप्यासा" मिति, ततो यथा आचा| राहे "अगणिं च खलु पुट्ठा वेगे संघायमावजंती" त्यत्र सूत्रे अग्निना च स्पृष्टा, अथवा स्पृष्टशब्दः पतितवाची, अग्नौ च पतिता एके शलभादयः सङ्घातमापद्यन्ते - अन्योऽन्यगात्रसङ्कोचमासादयन्ति तस्मादग्निसमारम्भोऽनेकस स्वव्यापत्तिहेतुत्वान्न कार्य इति द्वितीया तृतीयार्थे सप्तम्यर्थे च व्याख्याता, तथाऽत्रापि सप्तमी प्रथमार्थे द्रष्टव्या, ततोऽयमर्थ - अर्थानामवग्र Education International For Pe&Personal Use Only ~66~ www.janelibrary.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -], नियुक्ति: [४], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: Hd प्रत अवमहादीनां कालमानम् सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्धाते | हणमवग्रहो नाम प्रथमो मतिभेद इत्येवं ब्रुवते तीर्थकरगणघराा, एवमीहादिष्वपि भावनीयं । साम्प्रतमभिहितस्वरूपा- प्रणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह२६॥ उम्गह एक समयं ईहावाया मुहुत्तमंतं तु । कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायबा ॥४॥ अवमहो-व्याख्यानात् नैश्चयिकोऽर्थावग्रहा, किमित्याह-एकं समयं, अत्र "कालाध्वनोव्योता"विति द्वितीया, एकसमयं यावदित्यर्थः, तत्र परमनिकृष्टः कालविशेषः समयः, स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पलपत्रशतन्यतिभेदोदाहरणात् पदृशाटिकापाटनदृष्टान्ताच्चावसेयः, सांव्यवहारिकार्थावग्रहव्यञ्जनावग्रही पृथक्पृथगन्तर्मुहकालप्रमाणी, 'ईहावाया मुहुसमंतं तु' इति ईहाच अवायश्च ईहावायो, प्राकृतत्वाद्बहुवचनं, उक्तं च-"वहुवयणेण दुवयणं छठ्ठीविभत्तीऍ भन्नइ चउत्थी। जह हत्था तह पाया नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥१॥" तौ ईहावायौ मुहूर्तान्तः-भिन्नमुहूत्तै ज्ञातव्यो, अन्तर्मध्यकरणे, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, एतदुक्कं भवति-मुहूर्तान्ता-भिन्नं मुहूर्त ज्ञातव्यो, अन्तर्मुहूर्तमेवेत्यर्थः, क्वचित् मुहुत्तमद्धं त्विति पाठः, तत्र मुहूर्तशब्देन पटिकाद्वयपरिमाणः कालोऽभिधीयते, तस्या मुहूर्ता, तुशब्दो विशेषणार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-व्यवहारापेक्षयाऽर्द्धमित्युकं तत्त्वतस्त्वन्तर्मुहूर्तमवसेयं, तथा कलनं कालः तं कालं न विद्यते सङ्ख्याइयन्तः पक्षमासयनसंवत्सरादय इत्येवंभूता वस्थासावसङ्ख्यः, पल्योपमादिलक्षण इत्यर्थः, त कालमसोय, तथा सन्चायते इति सपा, इयन्तः पक्षमासर्ववनादयः इत्येवं समाप्रमितेः, साल, चशब्दादन्तर्मुहूर्त च, धारणा-अभिहितलक्षणा भवति शातव्या, अयमत्र भावार्थ:-अवायोचरकालमविच्युतिरूपा अन्तर्मुहूर्व भवति, एवं स्मृतिरूपापि, वासना तु] *** CACAKACH RECE In Edonin For the Personal ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ३३४] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तदावरण कर्मक्षयोपशमाख्या संस्कारापरपर्याया, अत एव स्मृतिधारणाया बीजभूता सङ्ख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां सवेयं असपेयवर्षायुषां च पस्योपमादिजीविनामसङ्ख्येयमिति, उक्तं च "त (अ) त्थोग्गहो जहणणो समओ सेसोग्गहादयो बीसुं । अंतोमुहुत्तमेगं तु वासणा धारणं मोत्तुं ॥ १ ॥” (वि०३३४) तदेवमवग्रहादीनां कालमानमभिधाय सम्प्रति श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिषुराह पुढं सुणे सर्व रूवं पुण पासई अपुढं तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुढं वियागरे ॥ ५ ॥ ननु व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणाद्वारेणैव तथा श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्राक् प्रतिपादिता ततः किमर्थमेषः पुनः प्रयास इति १, उच्यते, तत्र प्रक्रान्तगाथा व्याख्यानद्वारेण प्रतिपादिता, सम्प्रति तु सूत्रतः प्रतिपाद्यत इत्यदोषः, श्रोत्रेन्द्रियं कर्तृ शब्दं कर्मतापनं शृणोति -गृह्णाति परिच्छिनतीति भावः स्पृष्टं तनौ रेणुवत् आलिङ्गितमात्रं, किमुक्तं भवति - शब्दद्रव्याणि सकललोकव्यापीनि सूक्ष्माणि, अत एव द्रव्येन्द्रियस्यान्तरपि मनाक् प्रविशन्ति, तदन्यद्रव्यवासनस्वभावानि च श्रोत्रेन्द्रियं शेषेन्द्रियगणापेक्षया प्रायः पटुतरं ततः स्पृष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यसमूहं गृह्णाति एतेन | यदाहुः सुगतमतानुसारिणः - श्रोत्रमप्यप्राप्तकारि, तथा च तद्ग्रन्थः " चक्षुःश्रोत्रमनोऽप्राप्यकारी" ति, ते प्रतिक्षिप्ता द्रष्टव्याः तथाहि अप्राप्यकारि तत् प्रतिपत्तुं शक्यते यस्य विषयकृतानुग्रहोपघाताभावो यथा चक्षुर्मनसी, श्रोत्रस्य च शब्दकृत उपघातो दृश्यते, सद्योजात बालकस्य समीपे महाप्रयक्षताडितझलरीझात्कारश्रवणतो यद्वा विद्युत्प्रपाते, तत्प्रत्यासन्न देशवर्त्तिनां निर्घोषश्रवष्यतो बधिरीभावदर्शनात्, शब्दपरमाणवो हि उत्पत्तिदेशादारभ्य जउतरङ्गन्यायेन प्रस श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्त अप्राप्त विषयस्य वर्णनं For P&Personal Use Only ~68~ www.janelibrary.org Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [ - ], निर्युक्ति: [५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ २७ ॥ उपोद्घाते ४ रमभिगृहानाः श्रोत्रेन्द्रियमागच्छन्ति, ततः सम्भवत्युपघातः, ननु यदि श्रोत्रेन्द्रियं प्राप्तमेव शब्द गृह्णाति नामाप्तं तर्हि यथा गन्धादौ गृह्यमाणे न तत्र दूरासन्नादितया भेदप्रतीतिरेवं शब्देऽपि न स्यात् प्राप्तो हि विषयः परिच्छिद्यमानः सर्वोऽपि सन्निहित एव तत्कथं तत्र दूरासन्नादिभेदप्रतीतिर्भवितुमर्हति अथ च प्रतीयते शब्दो दूरासन्नादितया, तथा च लोके वक्तारः-श्रूयते कस्यापि दूरे शब्द इति, अन्यच्च यदि प्राप्तः शब्दो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तर्हि चाण्डालोकोऽपि | शब्दः श्रोत्रेन्द्रियसंस्पृष्टो गृह्यते इति श्रोत्रस्य चाण्डालरपर्शदोषः, तन्न श्रेयसी श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्तकारिता, तदेतन्महामोहमलीमसमानसभाषितं, यतो यद्यपि शब्दः प्राप्तो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तथापि यत उत्थितः शब्दस्तस्य दूरासन्नत्वे | शब्देऽपि स्वभाववैचित्र्यसम्भवात् दूरासन्नादिभेदप्रतीतिरुहसिष्यति, तथाहि दूरादागतः शब्दः क्षीणशक्तिकत्वात् खिन्न इव लक्ष्यते, अस्पष्टरूपो वा, ततो लोके व्यवहारो दूरे शब्दः श्रूयते इति, अस्य वाक्यस्यायं भावार्थ:- दूरादागतः श्रूयते इति, स्थादेतद्-एवमतिप्रसङ्गः प्राप्नोति, तथाहि एतदपि वक्तुं शक्यते, दूरे रूपमुलभ्यते, किमुक्तं भवति ?-दूरादागतं रूपमुपलभ्यत इति, ततश्चक्षुरपि प्राप्यकारीति प्राप्नोति, न चैतदिष्यते तस्मान्न तत्समीचीनमिति, तदयुक्तं यत इह चक्षुषो | रूपकृतावुपग्रहोपघातौ नोपलभ्येते, श्रोत्रेन्द्रियस्य तु शब्दकृत उपघात उपलम्भगोचरोऽस्ति, यथोक्तं प्राकू, ततो नातिप्रसङ्गापादनं युक्तिमत्, अन्यच्च प्रत्यासनोऽपि जनः पवनस्य प्रतिकूलमवतिष्ठमानः शब्दं न शृणोति, पवनवर्त्मनि | पुनरवतिष्ठमानो दूरदेशस्थितोऽपि शृणोति तथा व लोके वक्तारो न वयं प्रत्यासन्ना अपि त्वदीयं शब्दं शृणुमः, पवनस्य प्रतिकूलमवस्थानात्, यदि पुनरप्राप्तमेव शब्द रूपमिव जनाः प्रमिप्पीयुस्तर्हि पवनस्य प्रतिकूलमप्यवतिष्ठमाना रूपमिव For Pete & Personal Use Only ~69~ | शब्दादी नां सुष्टास्पृष्टवादि ॥ २७ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [५], भाष्यं [ - ], वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | शब्दं यथावस्थितं परिच्छिन्द्युः, नच परिच्छिन्दन्ति, तस्मात्प्राठा एव शब्दपरमाणवः श्रोत्रेन्द्रियेण परिगृह्यन्ते इत्यवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, इतक्षाभ्युपगन्तव्यमन्यथा क्रमग्रहणानुपपत्तेः तथाहि--पथप्राप्ता एव शब्द गृह्यन्ते तर्हि तेषां योग्यदेशावस्थितानां समीपस्यैरस्यैव ग्रहणमेककाले भवेद, यया चक्षुषा योग्यदेशावस्थानां घटपटादीनां, अथ च क्रमेण ग्रहणमनुभूयते, पूर्व समीपस्यैः पश्चाद्दूरस्थैरिति यदपि चोकं 'चाण्डालस्पर्शदोष' इति, तदपि चेतनाविकलपुरुषभाषितमिवासमीचीन, स्पर्शास्पर्शव्यवस्था हि लोके काल्पनिकी न पारमार्थिकी, तथाहि यामेव भुवमग्रे चाण्डालः स्पृशन् याति तामेव पृष्ठतः श्रोत्रियोऽपि तथा यामेव नावमारोहति चाण्डालस्तामेवारोहति श्रोत्रियोऽपि, तथा स एव मारुतः चाण्डालं स्पृष्ट्वा श्रोत्रियमपि स्पृशति, न च तत्र लोके स्पर्शदोपव्यवस्था, तथा शब्दपुद्गलसंस्पर्शेऽपि न भवतीति न कश्चिद्दोषः, अन्यच्च| यदा केतकीदलनिचयं शतपत्रादिपुष्पनिचयं वा शिरसि निवध्य वपुषि वा मृगमदचन्दनाद्यवलेपनमारचय्य विपणिवीथीमागत्य चण्डालोऽवतिष्ठते तदा तद्गत केतकीदलादिगन्धपुद्गलाः श्रोत्रियादिनासिकास्वपि प्रविशन्ति, ततस्तत्रापि चाण्डालस्पर्शदोषः प्राप्नोतीति तद्दोषभयान्नासिकेन्द्रियमप्यप्राप्यकारि प्रतिपत्तव्यं, न चैतद्भवतोऽभ्यागमे प्रतिपाद्यते, ततो वालिशजस्पितमिति कृतं प्रसङ्गेन । केचित्पुनः श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारितामप्यभ्युपगच्छन्तः शब्दस्याम्बरगुणत्वं प्रतिपन्नाः, तदटी, आकाशगुणतायां शब्दस्यामूर्त्तत्वप्रसक्तेः, यो हि यद्गुणः स तत्समानधर्मा, वथा ज्ञानमात्मनः, तथाहि - अमूर्च आत्मा ततस्तद्गुणो ज्ञानमध्यमूर्त्तमेव, एवं शब्दोऽपि यद्याकाशगुणः तर्हि आकाशस्यामूर्त्तत्वात् शब्दस्यापि तद्गुणत्वेनामूर्त्तता भवेत्, न चासौ युक्तिसङ्गता, तलक्षणायोगात्, मूर्त्तिविरहो ह्यमूर्त्तता, न च शब्दानां मूर्त्तिविरहः स्पर्शवत्त्वात्, तथाहि For P&Personal Use Only ~70~ www.janelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -1, नियुक्ति: [9], भाष्यं -1, वि०भागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम अपोलातेहास्पर्शवन्तः शब्दाः, तत्सम्पर्के उपघातदर्शनालोधवत्, न चायमसिद्धो हेतुः, यतो दृश्यते सद्योजातबालकानां कर्णदेशाभ्यर्ण-II शब्दस्या गाढास्फालितझल्लरीझारकारश्रवणतः श्रवणस्फोटो, न चेत्थमुपघातकृत्त्वमस्पर्शवत्त्वे सम्भवति, यथा हि विहायसः, ततो म्वरगुण॥२८॥ विपक्षे गमनासम्भवान्नानैकान्तिकोऽपि, अतश्च स्पर्शवन्तः शब्दाः, तैरभिघाते गिरिगहरभित्त्यादिषु शब्दोत्थानात् लोट तानिरास: वत्, अयमपि हेतुरुभयोरपि सिद्धः, तथाहि-श्रूयते तीव्रप्रयत्नोच्चारितशब्दाभिघाते गिरिगहुरादिषु प्रतिशब्दाः प्रतिदिन ततः स्पर्शवत्त्वान्मूर्त एव शब्दः, 'रूपस्पर्शादिसन्निवेशो मूर्ति'रिति वचनात् , ततः कथमिवाकाशगुणत्वं शब्दानामुपप-ह त्तिमत् , अपिच-तदाकाशमेकमनेकं वा , यद्येकं तर्हि योजनलक्षादपि श्रूयेत, आकाशस्यैकत्वेन शब्दस्य तद्गुणतया दूरासन्नादिभेदाभावात्, अथानेकम्, एवं सति वदनदेश एव स विद्यत इति कथं भिन्नदेशवर्तिभिः श्रूयते !, बदनदेशाकाशगुणतया तस्य श्रोतृगतश्रोत्रेन्द्रियाकाशसम्बन्धाभावात् , अथ च श्रोत्रेन्द्रियाकाशसम्बद्धतया तत्श्रवणमभ्युपगम्यते,8 |तन्न श्रेयानाकाशगुणत्वाभ्युपगमः, नन्वाकाशगुणत्वमन्तरेण शब्दस्यावस्थानमेव नोपपद्यते, अवश्यं हि पदार्थेन स्थितिमता भवितव्यं, तत्र रूपस्पर्शरसगन्धानां पृथिव्यादिमहाभूतचतुष्टयमाश्रयः, शब्दस्य त्वाकाशमिति, तदयुकं, एवं सति पृथिव्यादीनामप्याकाशाश्रितत्वेनाकाशगुणत्वासः, अथ नाश्रयणमात्रं तद्गुणत्वनिवन्धनं, किन्तु समवायः, सचा-12 स्ति शब्दस्याकाशे न तु पृथिव्यादीनामिति, ननु कोऽयं समवायो नाम', एकलोलीभावेनावस्थानं यथा पृथिव्यादिरूपायो-४॥२८॥ रिति चेत्, न तर्हि शब्दस्याकाशगुणत्वम्, आकाशेन सहास्यकलोलीभावेनापतिपत्तेः; अथाकाशे उपलभ्यमानत्वात् तद्गुणता | शब्दस्य तर्हि तूलकादेरप्याकाशे उपलभ्यमानत्वात् तद्गुणता पामोति, अथ तूलकादेः परमार्थतः पृथिव्यादिस्थानमाकाशे | In Edonin For the Personal mpanelibrary.org ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं -], नियुक्ति: [9], भाष्यं -1, विभागाथा [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक तूपलम्भो वायुना सञ्चार्यमाणत्वात्, यद्येवं तर्हि शब्दस्य परमार्थतः स्थानं श्रोत्रादि यत्पुनराकाशेऽवस्थानं तद्वायुना सञ्चार्यमाणत्वात् , तथाहि-यतोर वायुः सञ्चरति ततस्ततः शब्दोऽपि गच्छति, वातप्रतिकूलं शब्दस्याश्रवणात् , उक्तं च प्रज्ञाकरगुप्तेन-"यथा वा प्रेर्यते तूलमाकाशे मातरिश्वना । तथा शब्दोऽपि किं वायोः, प्रतीपं कोऽपि ! शब्दवित् ! ॥१॥" तन्नाकाशगुणः शब्दः, किन्तु पुद्गलमय इति । तथा रूप्यत इति रूपं तत्पुनः पश्यति-गृह्णाति उपलभते इतियावत् , अस्पृष्ट-अनालिङ्गितं, गन्धादिवन्न सम्बद्धमित्यर्थः, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, रूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टमेव, चक्षु-18 पोऽप्राप्यकारित्वात् , एतच्च प्रागेव भावित, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, स चैतद् विशिनष्टि-अस्पृष्टमपि योग्यदेशावस्थितं न पुनरयोग्यदेशावस्थितममरलोकादि, गन्ध्यते-आघ्रायते इति गन्धः तं रस आस्वादने' रस्यतेऽनेनेति रसस्तं च स्पृश्यत इति स्पर्शः तं च, चशब्दौ पूरणाओं, 'बद्धस्पृष्ट' मिति वद्धं-आश्लिष्टं तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृत मित्यर्थः स्पृष्टं पूर्ववत् प्राकृ. तशैल्या चेत्थमुपन्यासः 'वद्धपुढ'ति, परमार्थतस्तु स्पृष्टं च तत् बद्धं च स्पृष्टबद्धमिति द्रष्टव्यं, आह-यद्वद्धं गन्धादि तत्स्पृष्टं भवत्येव अस्पृष्टस्य सम्बन्धायोगात् , ततः स्पृष्टशब्दोच्चारणं गतार्थत्वात् अनर्थकमिति, नैष दोषः, शास्त्रारम्भस्य सर्वश्रोतसाधारणत्वात् , त्रिविधा हि श्रोतार:-केचिदुद्घटितज्ञाः केचिन्मध्यबुद्धयः तथाऽन्ये प्रपञ्चितज्ञाः, तत्र प्रपञ्चितज्ञानामनुग्रहाय गम्यमानस्याप्यभिधानमदोपायेति, प्रकृतभावार्थस्त्वयं-गन्धादिद्रव्याणि स्वल्पानि स्थूलानि तदन्यावासकानि च, माणादीनि चेन्द्रियाणि श्रोनेन्द्रियापेक्षया अपटूनि, ततो घाणेन्द्रियादिगणो गन्धादि आलिङ्गितानन्तरमात्मप्रदेशरात्मीकृतं गृह्णाति, नान्यथेत्येवं 'व्यागृणीयात्' प्रतिपादयेत् , प्रज्ञापकः स्वशिष्येभ्यः, एतदेव व्याख्यानं भाष्यकारो. दीप अनुक्रम % -% 2 *4 *** in Education For the Personal ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] पो ।। २९ ।। “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [ - ], निर्युक्तिः [५], भाष्यं [-] वि० भा०गाथा [३३७], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | ऽप्याह - "पुठ्ठे रेणुं व तशुंमि बद्धमप्पीकथं पपसेहिं । झिकाई चिय गिण्हइ सद्दद्दवाई जं ताई ॥ १ ॥ तह (बहु) सुहुमभावुगाई जं पडुयरयं च सोयविन्नाणं । गंधादी दवाई विवरीयाई जतो ताई ॥ २ ॥ फरसाणंतरमत्तप्पपसमीसीकयाई धिप्पंति । पहु| यरविण्णाणाई जं च न घाणाइकरणाई ||३||” (वि.३३७-९) नन्विदमुक्तं - योग्य देशावस्थितमेव रूपं पश्यति नायोग्यदेशावस्थितं, तत्र कियान् चक्षुषो विषयः कियतो वा देशादागतं श्रोत्रादि गृह्णाति १, उच्यते, श्रोत्रं तावत् शब्दं जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्राद्देशादुत्कर्षतस्तु द्वादशभ्यो योजनेभ्यः, चक्षुरिन्द्रियमपि जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येय भागमात्रावस्थितं पश्यति, उत्कर्षतस्तु सातिरेकयोजनशतसहस्रव्यवस्थितं, प्राणरसनस्पर्शनानि तु जघन्येनाङ्गुला सङ्ख्येयभागमात्रात् देशादागतं गन्धादि गृहन्ति, उत्कर्षतस्तु नवभ्यो योजनेभ्यः । नन्वङ्गुलं त्रिधा भवति, तद्यथा - आत्माङ्गुलमुच्छ्रयाङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलं च तत्र 'जे णं जया मणूसा तेसिं जं होइ माणरुवं तु । तं भणियमिहायङ्गुलमणिअयमाणं पुण इमं तु ॥ १ ॥ इत्येवंरूपं आत्माकुलं, "परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्खा जूया य जवो अङगुणविषडिया कमसो ॥१॥" इत्यादिरूपमुच्छ्रयाङ्गुलं “उस्सेहङ्गुलमेगं हवइ पमाणङ्गुलं सहस्सगुणं । तं चैव दुगुणियं खलु वीरस्सायंगुलं भणियं ॥१॥" इत्येवंलक्षणं प्रमाणालं, तत्र आत्माङ्गुलेन प्रमीयते तत्तत्काले वापीकूपादिकं वस्तु, उच्छ्रयाङ्गुलेन नरतिर्यग्देवनैरविकशरीराणि, प्रमाणाङ्गुलेन नगपृथिवीविमानानि, उक्तं च- "आयङ्गलेण वत्युं उस्सेद्दपमाणतो मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणडुलेणं तु ॥ १॥" तत्रेदमिन्द्रियविषयपरिमाणं किमात्माङ्गुलेन प्रतिपत्तव्यमाहोम्बित् उच्छ्रयाकुलेन १, उच्यते, आत्माङ्गुलेन, तथा चाह चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणचिन्तायां भाष्यकृत् - "अप्पत्तकारि नयणं मणो व नयणस्स विसयपरिमाणं । आयङ्गुलेण ••• अत्र इन्द्रियाणां विषय-मानं वर्णयते For Presne & Personal Use Only ~73~ *696% इन्द्रिया णां विषय मानम् ॥ २९ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं -, नियुक्ति: [५], भाष्यं -], विभा गाथा [३४०-३४२], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम लक्खं भाइरिस जोयणाणं तु ॥२॥" (वि.३४०) ननु देहप्रमाणे समुच्छ्यानुलेन, देहाश्रितानि च इन्द्रियाणि, ततस्तेषां विषयपरिमाणमप्युच्यालेन वक्तुमुचितं, कथमुच्यते आत्माजुलेन !, नैष दोषः, यद्यपि हि नाम देहाश्रितानि इन्द्रियाणि तथापि तेषां | विषयपरिमाणमात्मागुलेन,देहादन्यत्वाद् विषयपरिमाणस्य, तथा चामुमेवार्थमाक्षेपपुरस्सरं भाष्यकृदाह-"नणुभणियमुस्सय-14 कुलपमाणओ जीवदेहमाणाई। देहपमाणं तं चिय न उ इंदियविसयपरिमाणं ॥१॥"(वि०३४१) अत्र 'देहप्पमाणं तं चिय' इति यत् तत् उच्छ्याङ्गुलमेयत्वेनोक तदेहप्रमाणमात्रमेव, नत्विन्द्रियविषयपरिमाणं, तस्यात्माकुलपमेयत्वात् , अथ यदि विषयपरिमाणमिन्द्रियाणामुच्छ्याङ्गुलेन स्यात् ततः को दोष आपद्येत !, उच्यते, पश्चधनुःशतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारज्यवच्छेदः, तथाहि-यदरतस्यात्माकुलं तत्किल प्रमाणाकुलं, तच्च प्रमाणाङ्गुलमुच्छ्यानुलसहस्रेण भवति, "उस्सेहकुलमेगं हवइ पमाणकुलं सहस्सगुण"मितिवचनाद, ततो भरतसगरादिचक्रवर्तिनां या अयोध्यादयो नगर्यो ये च स्कन्धावारा आत्माकुलेन द्वादशयोजनायामतया सिद्धान्ते प्रसिद्धास्ते उच्छ्याङ्गुलपमित्या अनेकानि योजनसहस्राणि स्युः, तथा च सति तत्रायुधशालादिषु ताडितभेर्यादिशब्दश्रवर्णन सर्वेषामापद्येत, "वारसहिं जोयणेहिं सोयं अइगिणहए सह"मिति वचनात् , अथ च समस्तनगरव्यापी समस्तस्कन्धावारव्यापी च विजयदकादिशब्द आगमे प्रतिपाद्यते, तत एवमागमे प्रसिद्धः पञ्चधनुशतादिमनु-13 प्याणां विषयव्यवहारो व्यवच्छेदं मा प्रापदित्यात्माङ्गुलेनेन्द्रियविषयपरिमाणमवसातव्यं, नोच्छ्यानुलेन, तथा चाह भाष्यकृत्-"जं तेण पंचधणुसयनरादिविसयववहारोच्छेओ। पावइ सहस्सगुणियं जेण पमाणङ्गुलं तत्तो ॥१॥" (वि.३४२) अत्र तस्मादात्माङ्गुलेनैवेन्द्रियाणां विषयपरिमाणं नोत्सेधाङ्गुलेनेति उपसंहारवाक्यं (यत्) तत् स्वतः परिभावनीय, यदप्युक्तं प्राक् 'देहा AAPAN In contana For the Personal ~744 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [9], भाष्यं , विभा गाथा [३४३], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्धाते | श्रितानीन्द्रियाणि इति तेषां विषयपरिमाणमुच्छ्याङ्गुलेने ति, तदप्ययुक्तं, इन्द्रियाणामपि केपाश्चित् पृथुत्वस्य आत्माङ्गुलेन | विषयमान मीयमानत्वाभ्युपगमात् , अन्यथा त्रिगन्यूतादिमनुष्याणां रसाद्यभ्यवहारव्यवच्छेदप्रसक्तेः, तथाहि-त्रिगव्यूतादीनां मनु-16 अलविप्याणां पडूगन्यूतादीनां च हस्त्यादीनां स्वस्वशरीरानुसारितया अतिविशालानि मुखानि जिह्वाच, ततो याच्छ्याङ्गुलेन चार | तेषां क्षुरप्राकारतयोक्तस्याभ्यन्तरनिवृत्त्यात्मकस्य जिह्वेन्द्रियस्याङ्गुलपृथक्त्वलक्षणो विस्तारः परिगृह्यते तदा अल्पतया न तत् सर्वा जिहां व्याप्नुयात्, सर्वथा व्यापित्वाभावे च योऽसौ बाहुल्येन सर्वात्मनाऽपि जिया रसवेदनलक्षणः प्रतिपाणि प्रसिद्धो व्यवहारः स व्यवच्छेदं यायात् , एवं प्राणादिविषयेऽपि यथायोगं गन्धादिव्यवहारोच्छेदो भापनीयः, तस्मादात्माङलेन जिहादीनां पृथुत्वमवसातव्यं, नोच्छ्रयाङ्गुलेन, आह च भाष्यकृत्-इंदियमाणेवि तयं भयणिजं जं तिगाउयाईणं। जिभिदियाइमाणं संववहारे विरुज्झेजा ॥१॥" (वि० ३४३) अस्या अक्षरगमनिका-तत्-उच्छ्याङ्गुलमिन्द्रियमानेऽपि, आस्तामिन्द्रियविषयपरिमाणचिन्तायामित्यपिशब्दार्थः, भजनीयं-विकल्पनीयं, कापि गृह्यते कापि न गृह्यते इत्यर्थः, किमुक्तं भवति?- स्पर्शनेन्द्रियपृथुत्वपरिमाणचिन्तायां ग्राह्यमन्येन्द्रियपृथुत्वपरिमाणचिन्तायां तु न प्राचं, तेषामात्माङ्गुलेन परिमाणकरणादिति, कथमेतदवसेयमिति चेत् , तत आह-यद्-यस्मात्सर्वेषामपीन्द्रियाणामुच्छ्याङ्गुलेन परिमाणकरणात् त्रिगव्यूतादीनाम् , आदिशब्दात् द्विगन्यूतादिपरिग्रहः, जिह्वेन्द्रियादिमानं सूत्रोक्तं संव्यवहारे विरुध्येत, यथा च विरुध्येत तथानन्तरमेव भावितं, तस्मात्सर्वमिन्द्रियविषयपरिमाणमात्माङ्गुलेनैवेति स्थितम् । ननु भवत्वात्माङ्गलेन विषयपरिमाणं तथा-18 प्युक्तस्वरूपं चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणं न घटते, अधिकस्यापि तद्विषयपरिमाणस्यागमान्तरे प्रतिपादनात् , तथाहि ACANCARNAACARE EN For the Personal ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं -, नियुक्ति: [५], भाष्यं -], विभा गाथा [३४५-३४७], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम पुष्करवरार्द्ध मानुषोत्तरपर्वतसमीपे मनुष्याः कर्कसङ्क्रान्ती प्रमाणाङ्गलनिष्पन्नः सातिरेकैरेकविंशतियोजनलझर्व्यवस्थित8मादित्यमवलोकमानाः प्रतिपाद्यन्ते शास्त्रान्तरे, तथा च तद्ग्रन्धः-"इगवीसं खलु लक्खा चउतीसं चेव तह सहस्साई। तह पंचसया भणिया सत्तत्तीसा य अइरित्ता ॥१॥इइ नयणविसयमाणं पुक्खरदीवहुवासिमणुयाणं । पुषेण य अवरेण | Pाय पिहं पिहं होइ मणुयाण ॥२॥" ततः कथमुक्तस्वरूपं नयनविषयपरिमाणमात्माङ्गुलेनापि घटते ?, (न) प्रमाणाङ्गुलेनापि ४/व्यभिचारात्, उक्तं च-"लक्खेहि एकवीसाएँ साइरेगेहिं पुक्खरद्धमि । उदए पेच्छंति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१॥ ६/नयणिदियस्स तम्हा विसयपमाणं जहा सुए भणियं । आउस्सेहपमाणगुलाण एक्केणवि न जुत्तं ॥२॥" (३४५-६वि.) सत्यPIमेतत् , केवलमिदं विषयपरिमाणं प्रकाश्यविषयं द्रष्टव्यं, न तु प्रकाशकविषयं, ततः प्रकाशकेऽधिकतरमपि विषयपरिमाणं न ४॥ विरुष्यत इति न कश्चिद्दोषः, कथमेतदवसीयत इति चेत् , उच्यते, पूर्वसूरिकृतव्याख्यानात् , सकलमपि हि कालिकश्रुतं | हा पूर्वसूरिकृतव्याख्यानानुसारेणैव व्याख्यानयन्ति महाधियः, न यथाक्षरसन्निवेशमात्र, पूर्वगतसूत्रार्थसङ्ग्रहपरतया कालि. कश्रुतस्य क्वचित्सशिप्तस्यार्थस्य महता विस्तरेण क्वचिद्विस्तरवतोऽप्यतिसङ्केपेणाभिधाने अक्तिनैः स्वमति (त्या) यथाव स्थितार्थतया ज्ञातुमशक्यत्वात् , अत एवोक्तमिदमन्यत्र--"जह भणियं सुत्ते तहेव जइ तं वियालणा नत्थिा किंकालि-18 हैयाणुयोगो दिट्ठो दिट्ठिप्पहाणेहिं ! ॥१॥" तस्मात्पूर्वसूरिकृतव्याख्यानानाधिकृतग्रन्धविरोधः, आह च भाष्यकृत्-"सुत्ता भिप्पायोऽयं पयासणिजे तयं न ज पयासे । वक्खाणाउ विसेसो नहि संदेहादलक्खणया॥१॥" (३४७वि.) अथोक्तप्रमाण विषयमुलकर कस्मात् श्रोत्रादि शब्दादिक न गृह्णाति !, उच्यते, सामर्थ्याभावात्, उत्कर्षतोऽपि हि श्रोत्रादीना Jan Education International For the Personal ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं -, नियुक्ति: [५], भाष्यं -], विभा गाथा [३४५-३४७], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम हातेमेतावत्येव शक्तिर्षद द्वादशादिभ्य एव योजनेम्य आगतान शब्दादीन गृहन्ति, न परतः, चक्षुरपि सातिरकयोजनलक्षान्त-18 इन्द्रिय।३१॥ यवस्थितं, न परतोऽपीति, तथा द्वादशभ्यो नवम्यश्च योजनेभ्यः परतः समागतानां शब्दादिद्रव्याणां तथाविधप-18 विषयमानं |रिणामाभावाच, परतो हि समागताः शब्दादिपुद्गलास्तथास्वाभाब्यान्मन्दपरिणामास्तथोपजायन्ते येन स्वविषयं श्रोत्रा- Iशब्दश्रवणे दिविज्ञानं नोत्पादयितुमीशाः, आह च भाष्यकृत्-"चारसहिंतो सोत्तं सेसाणि च नवहिं जोयणहितो । गेहंति पत्तमत्थं | दिग्विविदोपत्तो परतो न गेण्हंति ॥१॥दवाण मंदपरिणामयाए परतोन इंदियवलं"ति, (३४८॥वि.) मनसस्तु न क्षेत्रतो विषयपरिमाणं, शोर्भेदः पुद्गलमात्रनिवन्धनाभावात्, इह यत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं न भवति न तस्य विषयपरिमाणं, यथा केवलज्ञानस्य, गा.६ न भवति च पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं मन इति, विषयपरिमाणं हि पुद्गलमात्रनिबन्धनियततया व्याप्तं, तथाहि-यस्य द| विषयपरिमाणमस्ति तत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं दृष्ट, यथाऽवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वा, तत एवं व्याप्यव्यापकभावप्र तिबन्धनिश्चये व्यापकाभावे व्याप्याभाव' इति ब्यापकानुपलब्धिरिय, आह च भाष्यकृत्-"अवरमसंखेजकुलभागातो नयणवज्जाणं ॥ संखेजइभागातो नयणस्स मणस्स न विसयपरिमाणं । पोग्गलमित्तनिबंधाभावातो केवलरसेव ॥१॥" (३४९-३५० वि.) इह 'स्पृष्टं शृणोति शब्द'मित्युक्तं, तत्र किं शब्दप्रयोगोत्सृष्टान्येव केवलानि शब्दद्रयाणि शृणोति उतान्यान्येव तद्वासितानि आहोश्चिन्मिश्राणीति चोदकाभिप्रायमाशा न तावत्केवलानि,तेषां वासकत्वात् , तद्योग्यद्व्यस-| माकुलत्वाच सकललोकस्य, किन्तु मिश्राणि तद्वासितानि वा, न केवलानि गृहातीत्यमुमर्थमभिषित्सुराह भासासमसेडीतो सईज सुणह मीसयं मुणइ । वीसेढी पुण सई सुइ नियमा पराधाए ॥६॥ RASIRSA%A9 Jan Education International For the Personal ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं [-1, नियुक्ति: [६], भाष्यं [-1, विभागाथा [३५२,३५३], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम भाष्यते इति भाषा-वक्त्रा शब्दतयोत्सृज्यमाना द्रव्यसंहतिस्तस्याः समभेष यो भाषासमश्रेणयः, समग्रहणं विश्रेणिव्यवच्छेदार्थ, श्रेणयो नाम क्षेत्रप्रदेशपङ्कयोऽभिधीयन्ते, ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य पढ्तु दिक्षु विद्यन्ते यासूत्स्ष्टा सती मा प्रथमसमय एष लोकान्तमनुधावति, उक्तंप-सेढीपएसपंती वदतो सबस्स छहिसं ताओ । जासु विमुकाधावा सभासा पढमंमि समयंमि॥२॥(३५२वि.)" ता इतो-गतः प्राप्तो भाषासमश्रेणीतः भाषासमश्रेणीव्यवस्थित इत्यर्थः 'शब्द' मापात्वेन परिणतं पुद्गलराशिं 'य' पुरुषाश्यादिसम्बन्धिन 'शृणोति' परिच्छेद्यतया गृह्णाति यत्तदोर्नित्याभिसम्ब-1|| मान्धात् तं मिश्रक शृणोति, किमुक्कं भवति :-भाषकव्युत्सृष्टशब्दद्रव्याणि तद्वासितापान्तरालस्थद्व्याणि चेत्येव मिश्र शब्दद्रव्यराशिं शृणोति, न तु वासकमेव वास्थमेव वा केवलमिति, 'बीसेही पुण'इत्यादि,मचाः कोशन्तीत्यादिवत् आधेये आधारोपचारात् विश्रेणिव्यवस्थितः श्रोताऽपि विश्रेणिरुच्यते, विश्रेणिः पुनः श्रोता शब्द, पुनः शब्दग्रहणं पराघातवासितव्याणामपि तथाविधशब्दपरिणामख्यापनार्थ, शृणोति, 'नियमात्'नियमेन 'पराघातें' वासनायां सत्या, एतदुक्तं भवति-यानि भाषकोत्सृष्टाणि द्रव्याणि मलादिशब्दव्याणि वा तैः परापाते-वासनाविशेषजनिते सति यानि समुलनशब्दपरिणामानि द्रव्याणि तान्येव विश्रेणिस्थः शृणोति, नतु भाषकाद्युत्सष्टानि, तेषामनुश्रेणिगामित्वेन विदिगमनासम्भवात्, न च कुड्यादिप्रतिघातस्तेषां विदिग्गतिनिमित्तं सम्भवति, लेष्ठादिवादरद्रव्याणामेव तत्सम्भवात्, तेषां च सूक्ष्मत्वात् , उकंच-भासासमसेढी (दिठि)ो तम्भासामीसियं सुणइ सई। तद्दबभावियाई अन्नाई सुणेइ विदिसित्थो ॥१॥ (३५३ वि.)" केन पुनर्योगेनैषां वारद्रव्याणां ग्रहणमुत्सगों वा । कथं वेत्येतदाशन गुरुराह-- In contana For the Personal ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ३५५], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घाते ॥ ३२ ॥ गिoes य काइएणं निसरह तह वाइएण जोगेणं । एगंतरं च गिरह निसिरह एगंतरं चैव ॥ ७ ॥ कायेन निर्वृत्तः कायिकः तेन कायिकेन योगेन, योगो व्यापारः क्रियेत्यनर्थान्तरं, सर्व एव हि वक्ता कायक्रियया ३ शब्दद्रव्याणि गृह्णाति चशब्दस्त्वेत्रकारार्थः, स चात्रधारणे, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, गृह्णाति कायिकेनैव, निसृजति उत्सृजति मुञ्चतीतियावत्, 'तथे' त्यानन्तर्यार्थः ग्रहणानन्तरमित्यर्थः उच्यत इति वाकू चाचा निर्वृत्तो वाचिकस्तेन वाचिकेन योगेन, कथं गृह्णाति ? निस्सृजतीति वा ?, किमनुसमयमुतान्यथेत्याशङ्कासम्भवे सति शिष्यानुग्रहार्थमाह - एका न्तरमेव गृह्णाति निसृजत्येकान्तरं चैत्र, यथा ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामान्तरं पुरुषादनन्तरः पुरुषः पुरुषान्तरं, एवमेकैकस्मात्समयादेकैक एवानन्तरसमय एकान्तरं, उक्तं च- "जह गामातो गामो गामंतर मे (वमे) ग एगाओ। एगंतरंति भन्नइ समयाओऽणंतरो समओ ॥ १ ॥ ( ३५५ वि०) ततोऽयमर्थः- प्रतिसमयं गृह्णाति प्रतिसमयं मुञ्चतीति गाथासङ्क्षेपार्थः ॥ अत्र कश्चिदाह--ननु कायिकेन योगेन गृह्णातीत्येतद् युक्तं, तस्यात्मव्यापाररूपत्वात्, निसृजति तु कथं वाचिकेन योगेन ?, को वाऽयं * वाग्योगः १, किं वागेव व्यापारात्मिका आहोश्चित्तद्विसर्गहेतुः कायसंरम्भः, तत्र यदि पूर्वो विकल्पोऽसावनुपपन्नः, वाचो योगत्वायोगात्, न खलु वाक्केवला जीवव्यापारस्तस्याः पुद्गलमात्रपरिणामरूपत्वात् रसादिवत्, तथा च प्रयोगः-यः पुद्गलमात्र परिणामरूपः स जीवव्यापाररूपो योगो न भवति, यथा रसगन्धादयः, पुद्गलमात्रपरिणामरूपा च वागिति योगो ह्यात्मनः शरीरवतो व्यापार से कथं पुद्गलमात्रपरिणामरूपो भवितुमर्हति ?, अन्यच्च-न तथा वाचा किश्चिदन्यत् निसृज्यते, किन्तु सैव ततो वाचो योगत्वे 'निसरइ तह वाइपणंती' त्येतदनुपपन्नं, अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि स कायव्यापार एवेति Education International For P&Personal Use Only ~79~ वचने ग्रह * णनिसर्गो गा. ७ ॥ ३२ ॥ www.janlibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [७], भाष्यं , विभा गाथा [३५६-३५८,३६३,३६४], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत AAR सूत्राक दीप अनुक्रम कायिकेनैव निसृजतीत्यापनं अनिष्टं चैतदिति, तदसम्यक्, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह तनुयोगविशेष एव वाग्योगो ४ मनोयोगश्चेति व्यवहियते, सर्वधा कायव्यापारशून्यस्य सिद्धस्येव तयोरसम्भवात् , तथाहि-आत्मनः शरीरव्यापारे सति येन व्यापारविशेषेण शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिको योगः, येन तु कायसंरम्भेण तान्येव मुञ्चति स वाचिका येन तु मनोद्रव्याणि मनस्त्वेन व्यापारयति स मानसः, ततः काययोग एव संव्यवहारार्थ विधा विभक्त इत्यदोषः, पूएतदेवाक्षेपपुरस्सरं भाष्यकृदाह-"गेण्हेज काइएणं किह निसिरह वाइएण जोगेण? । को वाऽयं वायोगो ? किं वाया कायसंरंभो ॥१॥ वाया न जीवजोगो पोग्गलपरिणामतो रसादिछ । न य ताए निसिरिजइ सञ्चिय निसिरिजए जम्हा २॥ अह सो तणुसरंभो निसिरइ तो काइएण पत्तवं तणुजोगविसेसच्चिय मणवइजोगत्ति जमदोसो ॥३॥(३५६-७-८वि.) अथवा कायव्यापारेणाहतो यो वागद्रव्यसमूहः तदुपष्टम्भेन य उपजायते वागनिसर्गहेतुर्जीवव्यापारः स वाचिको18 योगः, तथा कायव्यापारेणैवाहतो योऽसौ मनोद्रव्यसमूहः तदुपष्टम्भेनोपजायमानो मनोद्रव्याणां चिन्तनहेतुर्व्यापारविशेषः स मनोयोगः, आह च-"अहवा तणुजोगाहियवइदबसमूहजीववावारो । सो वइजोगो भण्णइ वाया निसिरिजई। | तेणं॥२॥ तह तणुवावाराहियमणदषसमूहजीववावारो। सो मणजोगो भण्णइ मन्नइ नेयं जतो तेणं ।।२।। (३६३-४-वि.)ततः साधूकं-'वाचिकेन योगेन निसृजतीति । तथा 'एकान्तरं गृह्णात्येकान्तरं च निसृजती'त्यत्र केचित् प्रथमसमये गृहाति ४. द्वितीये तु प्रथमसमयगृहीतानि मुश्चति तृतीये समये पुनः गृह्णाति चतुर्थे समये तृतीयसमयगृहीतानि मुश्चतीत्येवमेकैकं व्यवदहितमेकान्तरमिति व्याख्यानयन्ति, तेषां विच्छिन्नरत्नावलीकल्पो ध्वनिरापद्यते, अन्तरान्तरग्रहणसमयेषु सर्वेष्वप्यनव In En For the Personal maryam ~80~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] पोद्धा ॥ ३३ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः: + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः णात्, तथा श्रुतविरोधञ्च तथाहि प्रज्ञापनायां भाषापदे सूत्रमिदं - " अणुसमयमविरहियं निरंतरं गेव्हई' इति, अत्र च प्रतिसमयग्रहणप्रतिपादनेन प्रतिसमयनिसर्गप्रतिपादनमपि द्रष्टव्यं गृहीतस्य द्वितीयसमयेऽवश्यं निसर्गात्, एकान्तरग्रहणमोक्षाभ्युपगमे चाधिकृतसूत्रविरोधः, अथ सूत्र एव साक्षादुकं - "संतरं निसिरइ नो निरंतरं, एगेण समर्पणं गण्हइ एगेणं समएणं निसिरइ" इत्यादि, ततः कथमधिकृतसूत्रविरोधः, तदेतदयुक्तम्, सूत्रार्थसम्यक्परिज्ञानाभावात्, इह निसर्गोऽपि ग्रहणापेक्ष इति सान्तरोऽभिहितः, तथाहि - यथाऽऽद्यसमयादारभ्य प्रतिसमयं ग्रहणं नैवं निसर्गः प्रथमसमये तस्याभावादिति ग्रहणापेक्षयाऽसौ सान्तरस्तत उक्तं 'संतरं निसिरह नो निरंतर 'मिति, अथ ग्रहणमप्येवं निसर्गापेक्षया सान्तरमापद्यते, न चैतत्सूत्रे सान्तरमभिहितं तस्माद्यत्किञ्चिदेतद् व्याख्यानमिति, तदयुक्तम्, ग्रहणं हि स्वतन्त्रं, प्रथमसमये निसर्गमन्तरेणापि तस्य भावात् ततो नैवादस्तदपेक्षया सान्तरं, निसर्गस्तु ग्रहणपरतन्त्रं अगृहीतस्य * निसर्गायोगादिति पूर्वपूर्वग्रहण समयापेक्षया सान्तरव्यपदेशः, यद्येवं तत एतत्सूत्रं कथं नीयते - एकेन समयेन गृह्णाति एकेन | निसृजतीति १, उच्यते, सान्तरं निसृजति नो निरन्तरमित्युक्तं, एतच्चावसीयते यत् एकेन समयेन गृह्णाति एकेन समयेन निसृजति किमुक्तं भवति । यानि यानि यस्मिन् यस्मिन् समये गृहीतानि शब्दद्रव्याणि तानि तानि तत्तद्ग्रहणसमयान न्तरसमये सर्वाणि निसृजति, ततो ग्रहणापेक्षया सान्तरो नो निरन्तर इति, अथवा एकेन - आधेन समयेन गृह्णाति 'सर्व वाक्यं सावधारणमिष्टितश्चावधारणविधि' रिति न्यायाद् गृह्णात्येष, न तु निसृजति, द्वितीयसमयादारम्य निसर्गस्य प्रवृत्तेः, प्रथमसमये पूर्वगृहीतस्यासम्भवाद, तथा पकेन- पर्यन्तवर्त्तिना समयेन निजति-निसृजत्येव, न तु गृह्णावि, भाष For P&Personal Use Only ~81~ ग्रहणनिसगयोः सा न्तरनिर न्तरवि चार: ॥ ३३ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८], भाष्यं H, वि०भा०गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम दाणादुपरमात्, अपान्तरालपर्तिपु समयेषु ग्रहणनिसगौं, स्थापना-नान प्रानननु ग्रहणनिसर्गप्रयतावात्मनः |परस्परविरोधिनी ततः कथमेकस्मिन् समये तो युज्यते 1, नैपनि नि नि | नि नि दोषा, एकस्मिन् समये कर्मादाननिसर्गक्रियावत् उत्पादव्ययक्रियावत् अङ्गल्याकाशसंयोगविभागकियावच महणनिसर्गक्रियायस्यापि सजावोपपत्ते, एकस्मिन् समये पथा जीवस्वाभान्यात् द्वावुपयोगी न भवतो 'जुगवं दो नस्थि उवओगा' इति वचनात्, कियास्तु बहधोऽपि घटम्त एव, कायवायनाक्रियाणामेकस्मिन्नपि समये युगपत्प्रवृत्तिदर्शनात् , आह भाष्यकृत्"गहणनिसग्गपयत्ता परोप्परविरोहिणो कह समए । समए दो उबओमा न होज किरियाण को दोसो १ ॥१॥ (३४३वि.) पदुकं 'गृह्णाति कायिकेन घेत्यादि, तत्र कायिको योगः पश्चप्रकार:-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदात, तत् [किं पञ्चप्रकारेणापि कायिकेन गृहाति आहोश्चिदन्ययेत्याशङ्कासम्भवे तदपनोदार्थमिदमाह तिविहंमि सरीरंमी जीवपएसा हवंति जीवस्स जेहि उगेण्हह गहणं तो भासह भासतो भासं॥८॥ 'त्रिविधं विप्रकारे शीर्यत इति शरीरं 'कृशृपूजमंजिकुटिपटिकंडिशोडिहिंसिभ्य ई' इति ईर: प्रत्यया, तस्मिन् औदारिकवैक्रियाहारकाणामन्यतरस्मिन्नित्यर्थः, जीवति-प्राणान् धारयतीति जीवस्तस्य प्रदेशा जीवप्रदेशा भवन्ति, एतावत्युच्यमाने भिक्षोः पात्रमित्यादौ षष्टया भेदेऽपि दर्शनान्मा भूत् भिन्न प्रदेशतया शिष्याणामप्रदेशात्मसम्प्रत्यय इत्यत आइ-जीवस्य, जीवप्रदेशा जीवस्य भवन्ति-जीवस्यात्मभूता भवन्ति, अनेन निष्प्रदेशजीववादनिराकरणमाह सति निष्प्रदेशत्वे करणचरणोरुमीवाद्यवयवसंसर्गाभावप्रसके भेदाभेदविकल्पाभ्यामयोगात्, तथाहि करादिसम्बद्ध For the Personal ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [८], भाष्यं H, विभा गाथा [३६५,३६६], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः % प्रत सूत्रांक १४॥ 95%A5 दीप अनुक्रम जीवदेशस्योत्तमाङ्गादिसम्बद्धात्मदेशेभ्यो भेदोऽभेदोवा !, यदि भेदस्तहि नियमात् जीवस्य सप्रदेशता, भिन्नाकाशदेशव-निविषशहार्तिकरचरणाद्यवयवसम्बद्धप्रदेशभावात् , अथाभेदस्तहि सर्वेषामपि करचरणाधवयवानामेकत्वप्रसङ्गः, एकस्मादप्रदेशात्रीरेण प्रजीवादभिन्नत्वात् , तथाविधैकविवक्षितावयवस्वरूपवत्, उक्कं च-"करचरणाइसु जोगो (गा) न य अपदेसे च (सोत्ति) शाण बाचा पूरा होइ विण्णेओ। अपएसंमि य पावइ करचरणाईणमेगत्तं ॥१॥ जो चेव उ करदेसे स एव जंहोइ चरणदेसेवि । तो एगी सत्यादि भेदे सपएसो नियमतो होइ ॥२॥"(३६५-६धर्म०) वैजीवप्रदेशैः किं करोतीत्यत आह-यैस्तु गृह्णाति, तुशब्दो विशेषणार्थः, | भेदा: किं विशिनष्टि -न सर्वदैव गृह्णाति, किन्तु तत्परिणामे सतीति, किं पुनर्गृहातीत्यत आह-ग्रहणं' गृह्यत इतिगा ..१ ग्रहणम् , 'कृद् बहुल'मिति वचनात् कर्मण्यनद्, शब्दद्रव्यसमूहमित्यर्थः, ततो गृहीत्वा 'भाषते' वक्ति, भाषत इति भाषकः, भाषणक्रियाविशिष्ट इत्यर्थः, अनेन निष्क्रियात्मवादन्यवच्छेदमाह, सति तस्मिन्निष्क्रियत्वेनाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वादापणाभावप्रसक्तः, किं भाषत इत्याह-भाध्यते इति भाषा तां भाषां, ननु ततो भापते भाषकः इत्यनेनैव गता-10 यत्वात् भाषाग्रहणमतिरिच्यते, तदसम्यक्, अभिप्रायापरिज्ञानात् , भाषाग्रहणं हि भाष्यमाणैव भाषा, न पूर्व नापि पश्चादित्य स्वार्थस्य ख्यापनार्थमतो नातिरिक्तमित्यदोषः॥ अथ कतमत् त्रिविधं शरीरं यद्गतेजीवप्रदेशैर्वागद्रव्याणि गृहीत्वा । भाषको भाषत इत्यत आह ओरालियवेचियआहारतो गेण्डइ मुयह भासं । सर्च सचामोसं मोसं च असचमोसंच॥९॥ इह औदारिकशब्देन शरीरतदतोरभेदोपचारात् मत्वर्थीयलोपात् (वा) औदारिकशरीरवान् जीव एव गृह्यते, एवं वैकि A JanEliamong For the Personal Ananelibrary.com 4834 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः: + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [९] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वान् वैक्रियः आहारकवान् आहारकः, असौ औदारिकादिर्गृह्णाति - भादचे शब्दमायोग्यानि द्रव्याणीति गम्यते, गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्य मुञ्चति - निसृजति भाष्यत इति भाषा तां शब्दपरिणतद्रव्यसंहतिं, किंविशिष्टामित्याह - 'सत्या' इह सम्तो - मुनयस्तेषामेव मुक्तिमार्गप्रवृत्ततया तात्त्विकशिष्टत्वात् तेभ्यो हिता- निरवद्यानुष्ठानरूपतया मुक्तिमार्गानुकूलत्वादुपकारिणी सत्या, इह यत् यस्मै हितं तसत्र साध्विति साधुत्वविवक्षायां 'तत्र साधा विति यः प्रत्ययः, अथवा सन्तो- मूलोत्तरगुणास्तेषामेव मुक्तिमार्गतया अतिप्रशस्यत्वात् तेभ्यो हिता तदाराधनात् पूर्ववत्साघुत्वविवक्षायां यः प्रत्ययः, यदिवा सन्तो-जीवादयः पदार्थास्तेभ्यो हिता यथावस्थिततत्स्वरूपप्रत्यायकत्वात् सत्या, अत्रापि पूर्ववत् यः प्रत्ययः, यथा अस्ति जीवः सदसद्रूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपा, तद्विपरीताऽसत्या, यथा नास्ति जीवः एकान्तसद्रूपो वेत्यादिरूपा, तथा सत्यामृषा धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेष्वशोकवनमेवेदमित्यादिरूपा, अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भा वात्सत्यता अन्येषामपि धवादीनां सद्भावान्मृषता, व्यवहारनयमतापेक्षयेदमुच्यते, परमार्थतः पुनरियमसत्येति, यथाऽभि हितार्थायोगात् तथा या न सत्या नापि मृषा सा असत्यामृषा, इह त्रिप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतितिष्ठाशया सर्वज्ञमतानुसारेण या भाषा प्रोच्यते यथा अस्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि सा किल सत्या परिभाषिता, आराधकत्वात् यया पुनर्विप्रतिपतौ सत्यां सर्वज्ञमतोसीर्णमुच्यते यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेति साऽसत्या, विराधनीत्वात्, या पुनर्वस्तुप्रतितिडासामन्तरेण स्वरूपमात्रप्रतिपादनपरा यथा हे देवदत्त ! घटमानय गां देहि मह्यमित्यादिरूपा सा असत्यामृषा, इयं हि स्वरूपमात्रप्रतिपादन फलत्वात् न यथोक्तलक्षणा सत्या नापि मृषा, ततः असत्या चासावमृषा च असत्यामृषेति, आसां For P&Personal Use Only ~84~ wjbrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०,११], भाष्यं , वि०भा०गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत HEIG दीप अनुक्रम उपोद्धातच स्वरूपमुदाहरणयुक्तं प्रज्ञापनासूत्रादवसातव्यं ॥ नन्वौदारिकादिहाति मुञ्चति च भाषामित्युक्त, ततः सा मुक्का भाषालोक15 सती उत्कर्षतः कियत् क्षेत्रं व्यानोति, उच्यते, समस्तमेव लोकं, यद्येवं तर्हि- . भागेप्रमो. ॥३५॥ "कइहिं समएहिं लोगो भासाए निरंतरं तु होइ फुडो। लोगस्स य कहभागेका भागो होइ भासाए ॥१०॥" |त्तरौ मा. कतिभिः समयैलोक्यत इति लोकः, चतुर्दशरज्वात्मक क्षेत्रलोकः परिगृह्यते, भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टो-व्याप्तः१०-११ पूर्ण इत्यनान्तरं, लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः? ॥ अत्रोच्यते"चउहिं समएहिं लोगो भासाए निरंतरं तु होइ फुडो । लोगस्स य चरिमंते चरिमंतो होइ भासाए ॥११॥" चतुर्भिः समयैर्लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टो-व्याप्ता, किं सर्वयैव भाषया उत विशिष्टया ?, उच्यते, विशिष्टया, तथाहि-इह कश्चिद्वका मन्दप्रयलो भवति कश्चिन्महाप्रयज्ञः, तत्र यो मन्दप्रयत्नो वका स यथारूपाणि शब्दद्रव्याणि गृहीतवान् तथारूपाण्येवाभिन्नानि उपजातमन्दशब्दपरिणामानि निसृजति, तानि च तथा निसृष्टानि मन्दप्रयत्ननिसृष्टत्वात् परिस्थूराणि, अत एव तदन्यद्रव्यवासनोत्पादपाटवरहितान्यसञ्जयेयखण्डशो भिद्यते, भिद्यमानानि च सङ्ख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामं विजहति [१७५०], यस्तु महाप्रयत्नो बका, स खल्वादानप्रयत्नेनापि भित्त्वैव गृह्णाति, गृहीत्वा च शब्दपरिणाममपि तेषामत्युत्कटमुत्पादयति, उत्पाद्य च निसर्गप्रयत्नेन भूयो भिक्त्वा निसृजति, तानि च तथा निसृष्टानि सूक्ष्मत्वादतिप्रभूतत्वादत्युत्कटशब्दपरिणामत्वाच्च तदन्यानि बहूनि द्रव्याणि वासयन्ति तदन्यद्रव्यवासकतया षट्स्वपि दिक्षु अनन्तगुणवृत्या परिवर्द्धमानानि लोकान्तमामुवन्ति, शेषं तु तत्पराषातवासितानि द्रव्याणि Indonesia For Pune Personale chy awanelibrary.com ~85~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०,११], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [३८०-३८२,३८७], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 64XOSS दीप अनुक्रम |लोकमापूरयन्ति, आह च भाष्यकृत्-"कोई मंदपयत्तो निसिरह सयलाई सबदवाई । अन्नो तिवपयत्तो निसिरइ सो भिंदिवं ताई ॥॥ गंतुमसंखेजामो अवगाहणवग्गणा अभिन्नाई । भिजति धंसमिति य संखेजे जोयणे गंतुं ॥२॥ भिन्नाई सुहुमथाए अर्णतगुणवडियाई लोगत । पार्वति पूरयति(य) भासाएँ निरंतर लोगं ॥३॥ (३८०-१-२)” अत्र 'असंखेजाओं अवगाहणवग्गणाओं' इति अवगाहना नाम एकैकस्य भाषाद्रव्यस्कन्धस्याधारभूता असोयप्रदेशात्मकक्षेत्रविभागरूपास्तासां वर्मणा अवगाहनावर्गणाः असोया-असद्भयेययोजनप्रमिताः, अत एव प्रागुकं असोयानि योजनानि गत्वेति, शेष सुगम, चतुःसमयग्रहणे त्रिपञ्चसमयग्रहणमपि प्रतिपत्तव्यं, तुलादीनांमध्यग्रहणे आघन्तग्रहणवत्, विचित्रा वा सूत्रगतिः, उकंच"चउसमयमझगहणे तिपंचगहणं तुलाइमज्झस्स । जह गहणे पज्जतम्गहणं चित्ता व सुत्तगई ॥१॥" (३८७वि.) अत्र कथं त्रिभिः समयैर्लोको भाषया निरन्तरमापूरितो भवति?, उच्यते, इह यदा लोकमध्यस्थो वका भवति तदा तेन निसृष्टानि भाषापरिणतानि च्याणि प्रथमसमय एव पद्सु दिक्षु लोकान्तमनुधावंति, जीवसूक्ष्मपुद्गलानामनुश्रेणिगमनात्, द्वितीदायसमये तु त एव पद् दण्डाः चतुर्दिक्षु एकैकशोऽनुश्रेण्या वासितद्रव्यैः प्रसरन्तः षट् मन्यानो भवंति, तृतीयसमये तु पृथक् पृथक् तदन्तरालापूरणात् पूर्णो भवति लोकः, एवं त्रिभिः समयैर्भापया लोकः स्पृष्टो भवति, यदा तु स्वयंभूरमणपरतटवर्तिनि लोकान्ते अलोकस्यात्यन्तनिकटीभूय भाषको वक्ति सनाच्या वा बहिश्चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि तदा चतुर्भिः समयैरापूर्यते, कथं 1, उच्यते, इह यदा त्रसनाच्या बहिर्व्यवस्थितो वकि तदा एकेन समयेनान्तनोंडी सन्दव्याण्यनुप्रविशन्ति, शेषसमयभावना च पूर्ववत्, यदापि लोकान्ते स्वयम्भूरमणपरतटवर्तिनि चतसणां दिशाम % % 2- For the Personal ... भाषाया: लोकपूरणस्य वर्णनं ~86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१०,११], भाष्यं H, विभा गाथा [३८४-३८६], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक एक-CC H दीप अनुक्रम उपोदातेन्यतमस्यां दिशि व्यवस्थितो भापका तदा वामदक्षिणपृष्ठोधोदिशामलोकेन स्खलितत्वात् भाषाद्रव्याणां प्रथमसमये त्रिसमया लोकमध्ये प्रवेशः, शेषास्तु त्रयः समयास्तथैव, यदा तु त्रसनाच्या बहिर्विदिग्व्यवस्थितो भाषको वक्ति तदा पुद्गला- दिना ॥१६॥ नामनुश्रेणिगमनात् समयदयेन शब्दद्रयाणामन्तर्नाडीप्रवेशस्तद्यथा-प्रथमसमये विदिशो दिशिगमनं द्वितोये त्वन्तर्ना-131 भाषया डीप्रवेशः, शेष समयत्रयं पूर्ववदित्येवं पञ्चभिः समयैः सकललोकापूरणं, उकंच-"पढमसमए चिय जतो मुक्काई जति लोकछदिसि ताई।बीयसमयमि तेच्चिय छदंडा हेति छम्मंथा। मथंतरेहि तइए समए पुण्णेहि पूरिओ लोगो । चरहिं समएहिं व्याधिः पूरइ, लोकंते भासमाणस्स ॥२॥ दिसिवठियस्स पढमो तिगमे ते घेव सेसया तिन्नि । विदिसिडियस्स समया पंचाइगमंमि जं दोनि ॥३॥(३८४-५-६वि.)" अनातिगमः-प्रवेशः, शेष प्रतीतं । अन्ये जैनसमुद्घातगत्या सकललोकापूरणमभिमन्यन्ते, तद्यथा-प्रथमसमये ऊ धोमात्रगमनात् दण्डो द्वितीयसमये कपाटः तृतीयसमये मन्धाश्चतुर्थसमयेऽपान्तरालापूरणमिति, उच-"जइणसमुग्पायगइ केई भासंति चाहिं समरहिं । पूरइ सयलो लोगो अण्णे पुण तीहिं समएहिं ॥१॥" इति, तदेतदयुक्तम् , तेषां ह्याचसमये भाषाद्रव्याणामूर्दाधोगमनात् शेषदिक्षु तेषामभावस्तदभावाच पराघातवासितद्रब्याणामप्यसम्भवान्मिश्रशब्दश्रवणासम्भवः, अथ च-भासासमसेढीतो सहज सुणइ मीसयं सुणइ।' इत्यनेनाविशेषण दिक्षु मिश्रशब्दश्रवणमुक्तमिति सूत्रविरोधा, अथ 'व्याख्यानतो विशेषपतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणते'तिवचनादूर्भाधो-18 |दिगवयवर्षिदण्ड एक मिश्रशब्दश्रवणमुकं द्रष्टव्यं, न शेषदिश्विति,नन्वेवमपि त्रिभिः समयैर्लोकापूरणमापद्यते, न चतु:समयसम्भवः, कथमिति चेत्, उच्यते, स खलु दण्ड जाधो गच्छन् अविशेषेण चतसृष्वपि दिक्षु शब्दपायोग्यद्रव्याणि A CCEE For Personal l y . manelibrary.org -~-87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०,११], भाष्यं , विभा गाथा [३९२], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम पराहन्ति पराघाताच शब्दपरिणाम भजन्ते, ततो द्वितीयसमये तानि प्रसरमधिरोहन्ति मन्धान साधयन्ति, तृतीयसमये तु तदन्तरालापूरणात् सकललोकमापूरयन्ति, उक्तं च-"न समुग्घायगई' मीसयसवणं मयं च दंडमि । जइ तोवि जातीहिं पूरह समएहिं जओ पराघातो ॥१॥ (३९२ वि०)" अथ जैनसमुद्घात इव चतुर्भिरेव समयैर्भाषयाऽपि लोकापूरणं| भविष्यति, ततः को दोषः, तदसमीचीनं, सम्यसिद्धान्तापरिज्ञानात् , जैनसमुद्घाते हि जीवप्रदेशा एव स्वरूपेण लोकमा| पूरयन्ति, न पुनस्तत्र कस्यापि पराघातोऽस्ति, ततो न तत्र द्वितीयसमये मन्थाः, किन्तु कपाट एव केवलः, अन्यच्च-केवली| भवोपनाहिकर्मणामुपघाताय केवलिसमुद्घातमारभते, स च केवलचक्षुषा परिभाव्यमान इत्थमेव क्रियमाणस्तेषां भवोपग्राहिकर्मणामुपघाताय प्रभवति, नान्यथा, यदिवा दण्डकपाटादिक्रमेणैव जीवप्रदेशैः सकललोकपूरणं भवति, नान्यथा, तथास्वाभाव्यादिति केवलिसमुद्घातस्य चतुःसमयता, भाषापुद्गलानां स्वनुश्रेणिगमनं पराघातेन द्रव्यान्तरवासक-| तास्वभावश्च सकललोकव्याप्ती हेतुः, ततः प्रथमसमय एव ऊर्ध्वाधोदण्डे कृते द्वितीयसमये चतसृष्वपि दिक्षु अनुश्रेणिगमनात् | पराघातेन तदन्यद्रव्यवासकत्वाच्च ते मन्धानं साधयन्ति, तृतीये तु समये स्वन्तरालापूरणतः समस्तलोकव्याप्तिरिति त्रिसमयतैवात्रापद्यते, न चतुःसमयतेति, अथ योऽसावचित्तमहास्कन्धः प्रज्ञापनादिषु वण्यते स जीवप्रदेशापूरणात्मको | न भवत्यचित्तमहास्कन्धत्वात्, किन्तु पुद्गलमयः, ततो यथाऽसौ पुद्गलमयोऽपि नियमाच्चतुःसामयिक एव, एवं भाष-1 याऽप्यापूरर्ण लोकस्य चतुःसामयिकमेव भविष्यति, न त्रिसामयिकमिति को दोषः ?, तदयुक्तम् , अचित्तमहास्कन्धी हि विश्नसापरिणामेन भवति, विसापरिणामश्च यद्यपि विचित्रस्तथापि स केवलचक्षुषा सर्वदैव तथास्वाभाव्यादित्यमे '-.---.xkxx भा,सू. For the Personal ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१०,११], भाष्यं H, वि०भागाथा [३९४,३९५], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक % % 2362- दीप अनुक्रम उपोद्धातेवोपजायमान उपलब्ध इत्यमेरुष्णत्वमिव न पर्यनुयोगमहति, अन्यच्च-नासौ पराघातेनान्यद्रव्याणामात्मपरिणाममुत्पादयति, किन्तु स्वपुद्गलैरेव लोकमापूरयति, ततोऽसौ चतुःसमय एव, यदि पुनस्तत्रापि परापातो भवेत्तर्हि सोऽपि भाषया ६ द्रव्येण लोकलोकापूरणमिव त्रिसामयिको भवेत्, न चतुःसामयिक इति, आह च भाष्यकृत्-"खंधोऽवि वीससाए न पराघाओ उ व्याप्तिः तेण चउसमयो । अह होज पराघातो हविज तो सोऽवि तिसमइओ॥१॥(३९४वि०)" अन्ये त्वभिदधति-प्रथमसमये तावदूर्द्धदिशि दण्डं करोति,द्वितीयसमये तत्र मन्थानमधो दिशि पुनर्दण्डं, तृतीयसमये ऊर्ध्व दिश्यन्तरालापूरणमधोदिशि तु मन्थानं, चतुर्थसमये तु तत्राप्यन्तरालापूरणात् समस्तमपि लोकं भाषाद्रव्यैरापूरयति इति, तदपि नागमक्षम, कचिदप्यागम एवमश्रवणात् , नापि युक्तिमत् , काऽत्र खलु युक्तिर्यदनुश्रेणिगमनस्वभावानां पुद्गलानामेकयैव ऊर्ध्वदिशा गमनं नाधोदिशा नापि शेषाभिः पूर्वादिदिग्भिरिति यत्किञ्चिदेतत्, उक्तं च-“एगदिसमादिसमये दंड काऊण चउहिं पूरेइ । अण्णेल भणति तंपि य नागमजुत्तिक्खमं होइ ॥१॥(३९५ वि०)" यदुक्तम्-'लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषाया' इति, तत्रोत्तरमाह-लोकस्य च क्षेत्रगणितमपेक्ष्य चरमान्ते असोयभागोभवति भाषाया समस्त लोकव्यापिन्याः, इयमत्र भावनात्रिसमयव्याप्ती चतु:समयन्याप्तौ पश्चसमयव्याप्ती वा नियमेन प्रथमद्वितीयसमयोलोंकासययभागे भाषाया असल्येयो भागो भवति, तथाहि-त्रिसमयच्याप्ती प्रथमसमये दण्डषट्वं भवति, द्वितीयसमये तु षट् मन्थानः, ते च दण्डादयो यद्यपि दैर्येण लोकान्तस्पर्शिनस्तथापि वक्तृमुखविनिर्गतत्वात् तत्प्रमाणानुसारतो बाहल्येन चतुरखुलादिमाना भवन्ति, चतुरादीनि चाकुलानि लोकाकाशासयभागवत्तीन्येवेति त्रिसमयव्याप्ती प्रथमद्वितीयसमययोलोंकासययभागे 84% -- - in Echo For the Personal ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १०,११] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | भाषायाः असङ्ख्येयभावः, चतुःसमयन्याप्तावपि प्रथमसमये लोकमध्यमात्रप्रवेशो द्वित्तीयसमये तु दण्डसमुद्भवः, पञ्चसमयन्यातौ तु प्रथमसमये भाषाद्रव्याणां विदिशो दिशि गमनं द्वितीयसमये लोकमध्ये मात्रप्रवेश इत्युभयत्रापि प्रथमसमये द्वितीय समये च लोका सोयभागे भाषाया असज्ञेयो भागः, त्रिसमयन्यातौ तृतीये समये भाषाया। समस्त लोकव्याप्तिः, चतुःसमयव्याष्ठौ तृतीयसमये लोकस्य सङ्ख्येये भाषायाः सङ्ख्येयो भागः, कथमिति चेत्, उच्यते, स्वयम्भूरमणपश्चिमपरतटवर्तिनि लोकान्ते त्रसनाच्या बहिर्वा पश्चिमदिशि स्थित्वा ब्रुवतो भाषकस्य प्रथमसमये चतुरङ्गुलादिवाहल्यो रज्जुदीर्घो दण्डः तिरश्चीनं गत्वा स्वयंभूरमणपूर्वपरतटवर्त्तिनि लोकान्ते लगति, ततो द्वितीयसमये तस्माद्दण्डादूर्ध्वाधश्चतुर्दश रज्जूच्छ्रितः पूर्वापरतिरश्चीनतया रज्जुविस्तृतः पराघातवासितद्रव्याणां दण्डो निर्गच्छति, लोकमध्ये तु पराघातवासितद्रव्याणामेव चतुरङ्गुलादिवाहल्यं रज्जु विस्तीर्ण दण्डद्वयं विनिर्गत्य स्वयम्भूरमणदक्षिणोत्तरवर्त्तिलोकान्तयोर्लगति, एवं च सति चतुरङ्गुलादिवाहल्यं सर्वतो रज्जुविस्तीर्ण लोकमध्ये वृत्तं छत्वरं सिद्धं भवति, तृतीयसमये तूर्ध्वाधो व्यवस्थितदण्डाच्चतुर्दिक्प्रसुतः पराघातवासितद्रव्यसमूहो मन्धानं साधयति, लोकमध्य व्यवस्थित सर्वतोरज्जु विस्तीर्णछत्वरादूर्ध्वाधः प्रसृतः पुनः स एव त्रसनाडीं समस्तामपि पूरयति, एवं च सति सर्वापि त्रसनाडी ऊर्ध्वाधोव्यवस्थितदण्डमर्थिभावेन तदधिकं च लोकस्य पूरितं भवति, एतावच्च क्षेत्रं लोकस्य सङ्ख्याततमो भागः, तथा च सति चतुःसामयिक्या व्याप्तेः | तृतीयसमये लोकस्य सङ्घवेयतमे भागे भाषाया अपि समस्तलोकव्यापिन्याः सङ्ख्याततमो भागः, पञ्चसामयिक्यास्तु व्यासेः तृतीयसमये लोकासश्लेयतमे भागे भाषाया असङ्ख्येयतमो भागः, तस्यां तस्य दण्डसमयत्वात्, तत्र चोकप्रकारे For P&Personal Use Only ~90~ www.janlibrary.org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१२] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ३९९ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घाते ॥ ३८ ॥ णासवेयभागवर्त्तित्वस्व भावादिति, चतुर्थे समये चतुःसामयिक्यां व्याप्ती मध्यान्तरालपूरणात् समस्त लोकव्याप्तिः, ॐ पञ्चसामयिक्यां तु व्यासौ चतुर्थसमये लोकस्य सङ्ख्येयभागे भाषायाः सङ्ख्येयो भागः, तस्यां तस्य मथिसमयत्वात्, तस्य च सत्येयभागवर्त्तित्वस्य प्रागेव भावितत्वात् पञ्चमसमये तु पश्ञ्चसामयिक्यां व्याप्तौ मध्यान्तरालपूरणात् समस्तलो कव्याप्तिः, एतच्च महाप्रयलवनिसृष्टद्रव्यापेक्षया द्रष्टव्यं मन्दप्रयत्नवक्तृनिसृष्टानि तु लोकासयेयभाग एव वर्त्तन्ते, दण्डादिक्रमेण तेषां लोकापूरणासम्भवात्, त्रिसमयव्याप्तौ चतुःसमयव्याप्तौ पश्चसमयव्याप्तौ च त्र्यादिषु समयेष्वापूरिते लोके लोकस्य चरमान्ते भाषाया अपि चरमान्तो भवति, किमुक्तं भवति ? -लोके निष्ठां गते भाषाऽपि निष्ठां यातीति, उक्तं च-गा. १२ "आपूरियंमि लोगे दोण्हवि लोगस्स तह य भासाएं। चरमंते चरमंतो चरमसमयंमि सबत्थ ||१|| (३९१ वि०)" अस्याक्षरगमनिका- 'सर्वत्र' त्रिसामयिक्यां चतुःसामयिक्यां पञ्चसामयिक्यां च व्याप्तौ चरमे समये ध्यादिरूपे आपूरिते लोके द्वयोरपि, एतदेव व्याचष्टे - ठोकस्य तथा भाषायाश्चरमान्ते चरमान्तो भवति, तत उक्तम्- "लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ" मासा इति, इह 'तभेदपर्यायैर्व्याख्या, तत्र तत्त्वत्तो भेदतश्च मतिज्ञानस्वरूपमुक्तम्, इदानीं नानादेशजविनेयगणसुस्वप्रतिपत्तये तत्पर्यायशब्दानभिधित्सुराह “ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा व गवेसणा । सण्णा सई मई पण्णा, सवं आभिणिषोहियं ॥ १२ ॥ " 'ईह चेष्टायां' ईहनमीहा-सतामर्थानामन्वयिनां व्यतिरेकिणां च पर्यालोचना, तथा अपोहनं अपोहो निश्चय इत्यर्थः, बिमर्शनं विमर्शः, अपायात् पूर्व ईहाया उत्तरः प्रायः शिरः कण्डूयनादयः पुरुषधर्म्मा अत्र घटन्ते इति सम्प्रत्ययः, ... आभिनिबोधकज्ञानस्य पर्यायानां वर्णनं For P&Personal Use Only ~91~ लोक भाषा भाग व्याधिः मतेरे कार्थाः 11 36 11 www.anelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं , विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम तथा अन्वयधर्मान्वेषणं मार्गणा, व्यतिरेकधर्मालोचनं गवेषणा, तथा संज्ञानं संज्ञा-बजनावग्रहोचरकालो मतिवि|शेषः, स्मरणं स्मृति:-पूर्वानुभूतार्थालम्बनप्रत्ययः, मननं मति:-कश्चिदर्थपरिचिसावपि सूक्ष्मधर्मपर्वालोचनरूपा बुद्धिः। है तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रमूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिः, सर्वमिदमामिनिबोधिकं, मतिज्ञानमित्यर्थः, एवं किञ्चिद्भेदाझेदः प्रदर्शितः, परमार्थतस्तु सर्व एवैते मतिवाचकाः पर्यायशब्दाः। तदेवं तत्त्वभेदपर्यायैर्मतिज्ञानस्वरूपं व्याख्याय सम्पति नवभिरनुयोगद्वारैः पुनस्तद्रूपनिरूपणार्थमाह"संतपपपरवणया दबपमाणं च खित्तफुसणा य । कालो अ अंतर भागो भावे अप्पावहुंचेव ॥१३॥ गइ इंदिए य काए जोए वेए कसायलेसासु । सम्मत्तनाणदंसण संजय उवयोग आहारे ॥१४॥ भासग-परित्त-पवत्त-सुहुम सन्नी य होह भवचरिमे । आभिणिवोहियनाणं मग्गिज्वइ एम ठाणेसु ॥१५॥ | सच तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणं-गत्यादिद्वारेषु विचारणं सत्पदमरूपणं सत्पदप्ररूपणस्य भावा-सत्पदप्ररूपणशब्दस्य || प्रवृत्तिनिमित्तं सत्पदप्ररूपणता, तदेव सत्पदप्ररूपणमिति भावः, किमुक्तं भवति - मतिज्ञानमिति यत्सत्पदं तस्य गत्या. दिभिारः प्ररूपणमिति, अथवा सद्विषयं पदं सत्पदं-तदेव मतिज्ञानमितिरूपं पर्द, मतिज्ञानस्य सत्त्वात् प्रकान्तत्वाच, शेषं पूर्ववत्, नन्वसत्पदस्यापि किं प्ररूपणा क्रियते येनेदमुच्यते-'सत्पदप्ररूपणे'ति ।, उच्यते, क्रियते खलु खर| विषाणादेरप्यसत्पदस्य प्ररूपणा, ततः सद्भहणमिति, अथवा सन्ति च तानि पदानि च स्थानानि सत्पदानि गत्यादीनि सातैः प्ररूपणं मतेः सत्पदनरूपणं, शेषं पूर्ववत्, द्रव्यप्रमाणं जीवप्रमाणमिति वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-एकस्मिन् समये - 44 n onin For the Personal n ame सत्पदप्ररुपणा आदि द्वाराणाम् वर्णनं 492~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] पोद्धा ॥ १९ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१३-१५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ४३२] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | मतिज्ञानं कियन्तः प्रतिपद्यन्ते १ इति, सर्वे वा कियन्तः १ इति, चशब्दः समुच्चये, तथा क्षेत्रं वक्तव्यं, कियति क्षेत्रे मतिज्ञानं सम्भवति १, तथा स्पर्शना च वक्तव्या, यथा कियत् क्षेत्रं मतिज्ञानिनः स्पृशन्ति, अथ क्षेत्रस्य स्पर्शनायाश्च कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, यत्रावगाहस्तत् क्षेत्र, स्पर्शना तु तद्भाह्यतोऽपि भवति, तथा परमाणुमधिकृत्योक्तम्- “एगपएसोगाहो | सत्तपसा य से फुसणा (४३२ वि०) ।" च शब्दः पूर्ववत् काल:- स्थितिलक्षणो मतिज्ञानस्य वाच्यः, चशब्दः पूर्ववत्, अन्तरं च- एकदा प्रतिपद्य वियुक्तः कियता कालेन पुनरपि तत् प्रतिपद्यते इत्येवंरूपं तस्य वक्तव्यं, तथा मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनां कतिभागे वर्त्तन्ते इत्येवं भागो वक्तव्यः, तथा कस्मिन् भावे मतिज्ञानिनो वर्त्तन्ते इत्येवं भावो भणनीयः, तथा अल्पबहुत्वं वक्तव्यं, अथ भागद्वारादेवायमर्थोऽवगतस्ततः किमनेन द्वारेण ?, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह मतिज्ञानिनामेव पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकानां परस्परमल्पबहुत्वं वक्तव्यं, भागस्तु शेषज्ञानापेक्षया इति, एष गाथासमुदायार्थः । सम्प्रति प्रागुपन्यस्तगाथाद्वयेनाभिनिवोधिकज्ञानस्य सत्पदप्ररूपणताद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते - आभिनिवोधिकज्ञानं किमस्ति नास्तीति १, अस्ति, यद्यस्ति क्व तत् १ तत्र गतिमङ्गीकृत्यालोच्यते सा गतिश्चतुर्विधा, तद्यथा-नरकगतिस्ति| र्यग्गतिः मनुष्यगतिर्देवगतिश्च तत्र चतुष्प्रकारायामपि गतौ आभिनिबोधिकज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्याः कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति, तत्र (ते) प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ये तत्प्रथमतया आभिनिबोधिकं प्रतिपद्यन्ते, ते प्रथमसमयवर्त्तिनः प्रतिपद्यमानाः, शेषेषु समयेषु तु पूर्वप्रतिपन्नाः, तथा 'इंदिए' ति इन्द्रियाण्यङ्गीकृत्य मृग्यते, तत्र पश्चेन्द्रियाः पूर्वप्रतिपक्षा नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु भाज्याः, द्वित्रिचतुरिन्द्रि Education Internation For P&Personal Use Only ~93~ सदादीति द्वाराणि गत्यादयो मार्गणाः गा. १३०५ ॥ ३९ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [ १३-१५] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Education International यास्तु करणा पर्याप्तावस्थायां पूर्वभवायातं सास्वादन सम्यक्त्वमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति, नतु प्रतिपद्यमानकाः, एकेन्द्रियास्तूभयविकलाः, 'उभयाभावो एगिदिएस संमतलडीए' इतिवचनात् । तथा' 'काए' इति कायानधिकृत्य विचायेते, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदात् कायाः पद्, तत्र सकाये पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु भाज्याः, शेषकायेषु तु पृथिव्यादिषु पञ्चसु उभयाभावः, एतच्च सिद्धान्ताभिप्रायेण, कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण लब्धिपर्याप्तवाद र पृथिव्यब्वनस्पतिकरणापर्याशेषु पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति, सास्वादन सम्यक्त्वस्य तदभिप्रायेण तेषु भावात्, इतरे तु सर्वथा नैव, तेजोवायवस्तूभयविकला एव । तथा 'जोए' इति योगानधिकृत्य विचार्यते - योगास्त्रयः, तद्यथा-मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्च तत्र त्रिषु योगेषु समुदितेषु पाचेन्द्रियवद्वतयं, मनोरहितवाग्योगिषु विकलेन्द्रियवत्, केवलकाययोगिप्येकेन्द्रियवत्। तथा 'वेए' इति वेदानधिकृत्य विचारणा, वेदाश्च त्रयः, तद्यथा-खीवेदः पुरुषवेदो नपुं सकवेदश्व, तत्र त्रिष्वपि वेदेषु विवक्षितकाले पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्याः, कपायाः क्रोधमानमायालो भाख्याः प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलन भेदभिन्नाः, तत्राद्येष्वनन्तानुबन्धिषु क्रोधादिषु सास्वादन सम्यक्त्वमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते, न प्रतिपद्यमानकः, शेषेषु तु द्वादशकपायेषु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्याः, तथा 'लेसासु' इति लेश्यासु चिन्त्यते, तत्र श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणेति लेश्याः, कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्य सम्बन्धादात्मनः कृष्णादिपरिणामाः, तत्रोपरितनीषु तिसृषु लेश्यासु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्याः, आद्यांसु कृष्णादिकासु तिसृषु पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति न त्वितरे, सम्य For P&Personal Use Only ~94~ www.janlibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं H, विभा गाथा [४१४], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सपोद्धाते क्त्वद्वारे निश्चयव्यवहारनयाभ्यां विचारः, तत्र व्यवहारनयो मन्यते-मिथ्यादृष्टिरज्ञानी च सम्यक्त्वज्ञानयोः प्रतिपद्यमा-निश्चयव्य नको भवति, न तु सम्यक्त्वज्ञानसहितः, निश्चयनयस्तु बूते-सम्यग्दृष्टिानी च सम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यते, न तु मिथ्याह- वहाराम्या ॥४०॥ टिरज्ञानी च, आह च भाष्यकृत्-"सम्मत्तनाणरहियस्स नाणमुप्पाइत्ति ववहारो। नेच्छाइयनओ भासइ उपजइ तेहिंज्ञानलाभ: सहियस्स ॥१॥(४१४ वि०)" तत्र व्यवहारः परपक्षदूषणाय स्वपक्षसाधनाय च प्रत्यवतिष्ठते-यदि नाम सम्यग्दृष्टि ज्ञानी च सम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यते इत्यभ्युपगमस्ततस्तत्सम्यक्त्वं ज्ञानं च जातमसावुत्पादयति, न च जातं भूयो जायते, जातत्वाशादेव, निष्पन्नघटवत् , प्रयोगश्चात्र-यद्विद्यमानं तत्केनचिदपि कर्तुं न शक्यं, यथा पूर्वनिष्पन्नो घटः, विद्यमाने च सम्यग-1 दृष्टेः सम्यक्त्वज्ञाने इति, विपक्षे बाधकं प्रमाणमनवस्थाप्रसनः क्रियावैफल्यं च, तधाहि-यदि कृतमपि क्रियते तहि | कृतत्वाविशेषात् भूयो भूयः करणप्रसङ्गा, पूर्वनिष्पन्नत्वेन क्रियायाः फलाभावान्नैष्फल्यमिति, अन्यच्च-प्रत्यक्षबाधा, तथाहि-सर्वमपि कार्य घटादि पूर्वमभूतं भवत् दृश्यते, नतु भूत, अथ क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदादेवमुच्यते सम्य ग्दष्टिज्ञानी च सम्यक्त्वं ज्ञानं च प्रतिपद्यते इति, तदप्ययुक्त, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदस्थाभावात्, प्रत्यक्षत एवं है।घटादिक्रियाकालस्य दीर्घतयोपलभ्यमानत्वात्, न खल्वारम्भ एव शिवकाद्यद्धायां वा घटादिकार्य पश्यामः, किन्तु विवक्षि तक्रियाकालपर्यन्ते, एवमत्रापि न अवणाधारम्भ एव ज्ञानं, किन्तु तदन्त इति मिथ्यादृष्टिरज्ञानी च सम्यक्त्वज्ञानयोः प्रतिपचा, न सम्यग्दृष्टिानी चेति, उक्तंच-"ववहारमयं जायं न जायए भावतो कयघडोब । अहवा कयंपि किजइ किन निश्च न य समत्ती ॥१॥ किरियावेफलंचिय पुषमभूयं च दीसए होतं । दीसइ दीहो य जतो किरियाकालो घडादीणं ॥२॥ | ॥४०॥ ndani ! For the Personal 495 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [४१५-४१८,४२०], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत %*ॐ सूत्रांक दीप अनुक्रम नारंभेञ्चिय दीसह न सिवादद्धाइ दीसइ तदंते । इय न सवणाइकाले नाणं जुत्वं तदतमि ॥ ३॥ (४१५-६-७ वि०) एवमुक्त। निश्चयनय आह-नाजातं खलु जायते किश्चिदपि, अभावत्वात्, खपुष्पवद्, विपक्षे बाधकं प्रमाणं खरविषाणादेरप्युत्पत्तिप्रस-1 झोऽजातत्वाविशेषाद्, आह च भाष्यकृत्-"निच्छइओ नाजायं जायऽभावत्ततो खपुष्पं व । अह व अजायं जायइ जायर तो खरविसाणंपि ॥शा (४१८ वि०)" योऽपि कृतत्वाविशेषात् सदाकरणप्रसङ्ग इति दोष आपादितः स इतरत्रापि समानः, तथाहि-यद्यसत् क्रियते तर्हि नित्यमेव क्रियतामसत्त्वाविशेषात् , न च वाच्यं कार्योत्पत्ती विरमणभावात् सदाकरणाप्रसङ्ग इति, कार्यस्यैवोत्पत्त्ययोगात्, खरविषाणस्येवात्यन्तासत उत्पादयितुमशक्यत्वात् , तथा च सति क्रियाया अपि वैफल्यं, क्रियाफलस्य कार्योत्पादस्यासम्भवात् , यदप्युक्तं 'सर्वमपि कार्य घटादि पूर्वमभूतं भवत् दृश्यते, नतु | भूतमपि, तदप्यसम्यक, अभूतं हि यदि भवत् दृश्यते तर्हि खरविषाणमपि किं नोपलभ्यते !, प्रागसवाविशेषात् , यदप्य|वादीत् 'क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदस्याभावादिति, तदप्यश्लील, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदस्य व्यवस्थितत्वात् , अन्यथा कार्यकाले न क्रियाभाव इति क्रियाया अभावाविशेषात् पूर्ववत् कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गः, एवं च यदुध्यते 'प्रत्यक्षत *एव घटादिक्रियाकालस्य दीर्घतयोपलभ्यमानस्वादिति तद् बालिशजल्पितं, प्रतिसमयं ह्यन्यत् अन्यत् कार्यमुपजायते, तथाहि-शिवकोऽन्यत्कार्यमन्यतमत् स्थासोऽन्यत् कुशूल इत्यादि, ततो यदि परस्परविलक्षणानां प्रतिसमयान्यान्योत्प-12 दूधमानकार्याणां दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते ततो घटस्य किमायातं ?, नहि शेपकार्य क्रियाकालो घटकार्यक्रियाकालः, उक्कं च*"पइसमउप्पण्णाणं परोप्परविलक्खणाण सुबहूर्ण । दीहो किरियाकालो जइ दोसइ किं च (घ) कुंनस्स! ॥१॥(४२०वि०)" यद-|' *******% For the Personal yang ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥ ४१ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १३-१५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ४२१, ४२३], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 1566 निश्चयन्यः ज्ञानलाभा प्यवोचत- 'न खल्वारम्भ एवं शिविकाद्यद्धायां वा घटादिकार्यं पश्याम' इति, तदपि स्थूलमतितासूचकं, प्रथमसमये हि न घटादिकार्यमारब्धं, किन्तु चक्रमस्तकमृत्पिण्डारोपणादि, तच्च तस्मिन् समये दृश्यते, यत् नारब्धं घटादि तत्कथं दृश्यते १, ४ बहारा न खल्वन्यारम्भेऽन्यत् दृश्यते, यथा घटः पटारम्भे, शिवकादयोऽपि न घट इति तदद्भावामपि तस्य दर्शनाभावः, आह च - "अन्नारंभ अन्नं किह दीसउ जह घडो पडारंभे ? । सिवगादयो न घडओ किह दीसउ सो तदद्धाए ? ॥१॥ (४२१ वि० ) ” | यञ्चैतदुक्तम्- 'किन्तु विवक्षितक्रियाकालपर्यन्ते' इति, तत्समीचीनमेव, विवक्षितकार्यनिमित्तभूत कार्यकोटिक्रिया कालपर्यन्त एव तस्यारब्धत्वात् यस्तु लोको व्यवहरति- एतावान् घटस्य करणे कालो लग्न इति स घटार्थितया घटनिमित्तप्रतिस मयोत्पन्नकार्य क्रियाकालं घंटे लगयति, न च विवेचयति स्थूलमतित्वात् एवं भवानपि स्थूलमतितया लोकव्यवहार| पतितः सन् न किमपि विचारयति, आह च - " qइसमय कज्ज कोडी निरविक्खो घडगयाभिलासोऽसि । पइसमयकज्जकालं थूलमइ !घडंमि लाएसि ॥ १॥ (४२३ वि० ) ” एवमत्रापि श्रवणादीनि प्रतिसमयभावीनि परस्परविलक्षणानि कार्याणि, ततो न तत्काले सम्यक्त्वात्पादो ज्ञानोत्पादो वाऽम्यारम्भेऽन्यस्योत्पादाभावात्, यस्मिंस्तु समये सम्यक्त्वोत्पादारम्भो ज्ञानारम्भो वा तस्मिन् समये तदुत्पद्यत एवेति । सम्यक्त्वद्वारे व्यवहारनयमतेन सम्यग्दृष्टिरामिनिवोधिक ज्ञानस्य पूर्वप्रति - पन्न एव नतु प्रतिपद्यमानकः, सम्यक्त्वज्ञानयोयुगपल्लाभात्, तत्काले च क्रियाया अभावात्, तदभावे च प्रतिपद्यमा 4 ॥ ४१ ॥ | नकत्वायोगादिति निश्चयनयमतेन तु सम्यग्दृष्टिराभिनिवोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमानकश्च लभ्यते, क्रियायाः कार्यनिष्ठायाश्च युगपद्भावाद्, एतच्च प्रागेव समर्थितमिति, ज्ञानद्वारे मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवल भेदात् पञ्चधा ज्ञानं, For Pete & Personal Use Only ~97~ andlibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [ १३-१५] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ६. नत्रापि व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां विचारः, तत्र व्यवहारनयमतेन मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानिनः आमिनित्रोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्ना एव, नतु प्रतिपद्यमानाः न तन्मतेन ज्ञानी सन् मतिज्ञानं प्रतिपद्यते किन्त्वज्ञानी इति, केवली न तु पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, तस्य क्षायोपशमिकज्ञानानीतत्वात्, तथा मत्यज्ञानश्रुताज्ञान विभङ्गज्ञानवन्तस्तु कदाचि + | द्विवक्षितकाले प्रतिपद्यमानका भवन्ति, न तु पूर्वप्रतिपन्नाः, निश्चयनयमतेन तु मतिश्रुतावधिज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना । नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानका अपि सम्भवन्ति, सम्यग्दर्शन लाभसमय एव मत्यादिलाभस्य सम्भवात्, क्रियाकालनिष्टाकालयोश्चाभेदात् मनःपर्यायज्ञानिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव, न प्रतिपद्यमानकाः, पूर्वं सम्यक्त्वलाभकाले प्रतिपन्न4 | नतिज्ञानस्यैव पश्चात् यत्यवस्थायां मनःपर्यायज्ञानमद्भावात्, केवलिनां तूभयाभावः, मत्यादिज्ञानव्यवच्छेदेन केवलज्ञाननावात्, मत्याद्यज्ञानवन्तस्तु न पूर्वप्रतिपन्ना, नापि प्रतिपद्यमानकाः, प्रतिपत्तिक्रियाकाले मत्याद्यज्ञानाभावात्, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात्, अज्ञानभावे च प्रतिपत्तिक्रियाया अभावात्, दर्शनद्वारे चक्षुरचक्षुरवधिकेत्रलभेदात् दर्शनं चतुर्द्धा, तत्राद्यदर्शनत्रये लब्धिमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः प्राप्यन्ते, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः, तदुपयोगं त्वाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्ना एव न नु प्रतिपद्यमानकाः, मतिज्ञानस्य लब्धित्वात्, लब्ध्युत्पत्तेश्च दर्शनोपयोगे निषिद्धत्वात्, 'सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स उववजंति' इति वचनात्, केवलदर्शनिनां तूभयाभावः, देशदर्शन व्यवच्छेदेन | केवलज्ञानदर्शनभावात् संयतद्वारे संयत आभिनिवोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्नो नियमाल्लभ्यते, प्रतिपद्यमानको भजनया, ननु | सम्यक्त्वाभावस्थायामेव मतिज्ञानस्य प्रतिपन्नत्वात् संयतः कथं प्रतिपद्यमान कोऽवाप्यते ?, सत्यमेतत्, केवलं योऽतिवि Pse & Personal Use Only ... निश्चय एवं व्यवहार-मतेन मति आदि ज्ञानानां लाभ-अलाभस्य वर्णनं ~98~ wwwww.anlibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं , विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्धाते शुद्धत्वात् सम्यक्त्वं चारित्रं च युगपत्पतिपद्यते स तस्यामवस्थायां प्रतिपद्यमानस्य संयमस्याप्रतिपनत्वात् संयता आभि- दर्शना निबोधिकज्ञानस्य प्रतिपद्यमानको भवति, उक्तं चास्यैव मूलावश्यकचूर्णी-'नस्थि चरितं सम्मत्तविहूर्ण दसणं तु भणि- दीति Pायज' भजनामेवाह-'सम्मत्तचरित्ताई जुगवं पुर्व च सम्मत्तं,' उपयोगद्वारे उपयोगो द्विधा-साकारोऽनाकारच, तत्र पञ्चद्वाराणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि साकारः, चत्वारि दर्शनानि अनाकारः, तत्र साकारोपयोगे पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, अनाकारोपयोगे तु पूर्वप्रतिपन्ना एव, नतु प्रतिपद्यमानकाः, अनाकारोपयोगे, ४ लब्ध्युत्पत्तेरभावात् , आहारद्वारे आहारका पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विकल्पनीयाः, विवक्षितकाले अनाहारका अपान्तरालगतौ पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु न भवन्त्येव, अधुना भाषकद्वारम्-तत्र भाषा लब्धिसम्पन्ना भाषकाः, ते भापमाणा अभाषमाणा वा पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु विवक्षितकाले भज४ानीयाः, भाषालब्धिशून्याश्चोभयविकलाः, ते ह्येकेन्द्रिया एव, तेषां चोभयाभावः प्राग्वत् । परीत्तद्वारे परीत्ताः-प्रत्येक-18 शरीरिणः परीत्तीकृतसंसाराचा, परीत्तीकृतसंसारा नाम स्तोकावशेषसंसाराः, एते उभयेऽपि पूर्वप्रतिपन्नाः नियमतो लभ्यन्ते, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः, अपरीत्तास्तु साधारणशरीरिणोऽपाईपुद्गलपरावादप्युपरि संसारावा, ते मिथ्याष्टिवा-II दुभयेऽप्युभयविकला पर्याप्तकद्वारेपनिराहारादिभिः पर्याप्तिभिर्ये पर्याप्ताःते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, विवक्षितकाले 8 प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः, अपर्याप्तकास्तु षट्पर्याप्त्यपेक्षया पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति, न वितरे । सूक्ष्मद्वारे सूक्ष्माः खल्भयविकलाः, वादरास्तु पूर्वप्रतिपमा नियमतः सन्ति, इतरे तु विवक्षितकाले भाज्या:, अधुना संझिदारं-तबेह JanElicmon inter For the Personal 499~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं H, विभा गाथा [४२९], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * * * प्रत 95 सूत्राक % % दीप अनुक्रम संज्ञिनो दीर्घकालिकोपदेशेन परिगृह्यन्ते, ते च पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो लभ्यन्ते, इतरे तु भजनीयाः विवक्षिते काले, अस-1 ज्ञिनस्तु प्रतिपन्नाः सम्भवन्ति नत्वितरे इति । भव इति द्वारं, तत्रभवसिद्धिकाः संज्ञिवत् , अभवसिद्धिकास्तूभयशून्याः। चरमद्वारे चरमो भवो भविष्यति येषां ते अभेदोपचाराच्चरमाः, ते च पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, अचरमास्तूभयविकलाः, आभिनिवोधिकज्ञानमेतेषु गत्यादिमार्गणास्थानेषु मायेते, तच्च मार्गितमुक्तप्रकारणेति ॥ साम्प्रतमाभिनिवोधिकजीवद्रव्यप्रमाणमुच्यते-तत्र प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य विवक्षितकाले कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्नेति, यदि भवन्ति तर्हि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतस्तु क्षेत्रपल्योपमासख्येयभागप्रदेशराशिप्रमाणाः, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः क्षेत्रपल्योपमासयभागप्रदेशराशिप्रमाणाः उत्कर्षतस्तु तेभ्यो विशेषाधिकाः, उक्तं च"खत्तपलिओवमासंखभाग उक्कोसतो पवजेजा। पुवपवन्ना दोसुवि पलियासंखेजइमभागा ॥१॥” (वि०४२९) अत्र 'दोसुई वित्तिद्वयोरपि पदयोर्जघन्यपदे उत्कृष्टपदे च, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषाधिक द्रष्टव्यं, अन्यथोत्कृष्टपदत्वायोगात् ॥ है इदानी क्षेत्रद्वारम्-तत्र नानाजीवानगी कृत्य सर्वेऽप्याभिनिवोधिकज्ञानिन एकत्र पिण्डिता लोकासङ्ग्येयभागमेव व्यानु-11 वन्ति, आह च मूलटीकाकृत्-"सर्व एवाभिनित्रोधिकज्ञानिनो लोकस्यासये यभागे वर्तते" इति, एकजीव स्त्विलिकागत्या गच्छन् मनुत्तरसुरेषु सप्तसु चतुर्दशभागेषु रजुप्रमाणेषु वर्त्तते, तेभ्यो वाऽऽगच्छन् , अधस्तु पष्ठीं पृथिवीं गच्छन् ततो +वा प्रत्यागच्छन् पञ्चसु चतुर्दशभागेषु, नातः परमधा क्षेत्रमस्ति, यस्मात सम्यग्दृष्टरधः सप्तमनरकगमनं प्रतिषिद्धं, पछी-1 मपि पृथिवीं यावत्सैद्धांतिकमतेन विराधितसम्यक्त्वो गृहीतेनापि क्षायोपशमिकेनं सम्यक्त्वेन कश्चिदुत्पद्यते, तत उक्त + 7 मा.सू. ८ + anon For the Personal barre ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं H, विभा गाथा [४३०-४३२], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥४३॥ दीप अनुक्रम पोटामधः पञ्चसु चतुर्दशमागेष्विति, आहष भाष्यकृत-"खेत्तं हवेज चन्दस मागा सत्तोवरि अहे पंच । इलियागईमता विग्गहगयस्स गमणेऽहवाऽऽगमणे ॥१॥ (वि०४३०)" कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिबङ्मनुष्यो प्रमाण वा वान्तेनैव बायोपशमिकेनोत्पद्यते, न गृहीतेन, सप्तमनरकपृथिव्यां पुनरुभयमतेनापि वान्तेनैव, आह-अपःसप्तमनर त्रस्पर्शन कपृथिव्यामपि सम्यग्दर्शनलाभस्य प्रतिपादितत्वात् तत आगच्छतः पश चतुर्दशभागा अधिका अपि क्षेत्रस्य लम्बन्ते। ततः कथमुक्तं पञ्चसु चतुर्दशसु भागेष्विति, तदप्ययुक्त, सप्तमनरकपृथिव्याः सम्यग्दृष्टेरागमनस्याप्यभावात, कथं!, यस्मात् तत उद्धृत्वास्तिर्यस्वेवागच्छन्ति, देवनारकाच सम्यग्दृष्टयो मनुष्येष्विति, उक्तं च-"आगमणंपि निसिद्धं चर माओ जंतिजं तिरिक्सेसुं।सुरनारगा य सम्मदिडी जं एंति मणुएK ॥१॥"(वि०४३१) अधुना स्पर्शनाद्वारम्-तत्र क्षेत्रस्पकानयोरयं विशेष: यत्रावगाहस्तत् क्षेत्र, स्पर्शनातु ततोऽतिरिका, यथेह परमाणोरकप्रदेश क्षेत्रं सप्तपदेशाच स्पर्शना, उक्तं च-"अवगाहणाइरिपि फुसई बाहिं जहाणुणोऽभिहियं । एगपएस खेतं सत्तपएसा व से फुसणा ॥१॥” (वि०४३२) एतच्च प्रागप्यभिहितं ॥ कालद्वारे उपयोगमधिकृत्य एकस्य अनेकेषां च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तमुद्वर्त्तमात्र एव काला, लम्धिमश्रीकृत्य जघन्येनैकस्वान्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः पक्षष्टिसागरोपमाणि अधिकानि, कथमिति चेत्, उच्यते, इह कश्चित्साधुमेत्यादिज्ञानाम्बितो देशोनां-पूर्वकोटी यावत् प्रव्रज्यां परिपाल्य विजयवैजयन्तजयन्तापराजितविमानानामन्यतमस्मिन् विमाने। उत्कृष्टं त्रयविंशत्सागरोपमपरिमाणं देवायुरनुभूय पुनरप्रतिपतितमत्यादिज्ञान एव मनुजेषूत्पन्नो देशोनां पूर्वकोटींप्रनग्यां। | विषय तदेव विजयादित्कृष्टमायुः संप्राप्य पुनरपि अप्रतिपतितमस्यादिज्ञान एक मनुष्येषु पूर्वकोटी जीवित्वा सिख्यति, +RPSCk%CC% A4 JanEducation ForPrvice Persanamory isaneliterary.com ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१३ - १५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ४३५-४३८ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः एवं विजयादिषु वारद्वयं मनस्य, अथवा अभ्युतदेवलोके द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु देवेषु त्रीन् वारान् गतस्य तानि |ष्ट्रपष्टिसागरोपमाथि अधिकानि भावनीयानि, अधिकं चेह नरभवसम्बन्धि पूर्वकोटित्रयं पूर्वकोटिचतुष्टयं ना द्रष्टव्यं, नानाजीवापेक्षया तु सर्वकालं, न खलु असौ कालोऽस्ति यत्राभिनिबोधिकलब्धिमदम्यो भवति लोक इति उक्तं च"लजीवि जहशेणं एगस्सेवं परा इमा होइ । अह सागरोवमाई छासट्ठी साइरेगाई ॥ १ ॥ दो वारे विजबाइसु गयस्स | तिथिऽवए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सङ्घद्धा॥२॥” (वि० ४१५-४३६) साम्प्रतमन्तरद्वारम् -तत्रैकजीक्मधिकृत्याभिनियोधिक ज्ञानस्थान्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्ते, कथमिति चेत्, उच्यते, इह यदा कश्चिज्जीवः सम्यक्त्वसहितं मतिज्ञानमवाप्य प्रतिपत्य चान्तर्मुहूचे मिथ्यात्वे स्थित्वा पुनरपि तदावरणकर्म्मक्षयोपशमात् सम्यक्त्वसहितं तदवाप्नोति तदा अधन्वमन्तरमन्तर्मुहूर्त्त मतिज्ञानस्य, उत्कर्षतस्त्वपार्द्धपुद्गल परावर्त्तः, स चाशातनाप्रचुर स्वावसातव्यः, उक्तं च- "तित्थयस्पवयणसूर्य आयरिवं गणहरं महद्दियं। आसायंतो बहुसो अनंतसंसारिओ भणिओ॥ १॥ (वि०४३७)” नानाजीवानपेक्ष्यान्त|| राभावः, जमिनिवोधिकज्ञानिभिर्लोकस्य सर्वदैवाशून्यत्वात्, उक्तं च- "एगस्स जहन्नेणं अंतरमंतोमुहुत्तमुक्कोसं । | पोग्गलपरियद्दद्धं देणं दोसबहुलस्स ॥१॥ (वि०४३८) जमसुन्नं तेहिं ततो नाणाजीवाणमंतरं नत्थि ।” भाग इति द्वारं, तत्र | मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनाम ज्ञानिनां चानन्ततमे भागे वर्त्तते, शेषज्ञानिनो हि सिद्ध केवलिसहिता अज्ञानिनस्तु वनस्पतिसहिताः अनन्ताः, आभिनिबोधिकज्ञानिनस्तु सर्वलोकेऽप्यसङ्ख्याता एवेति, आइच - "मइनाणं सेसाणं जीवाणमणंतभागंमि” ( इति अथ भावद्वारं, तत्र मतिज्ञानिनः क्षायोपशमिके भावे वर्त्तन्ते, मत्यादिचतुष्टयस्य क्षायोपशमिकत्वात् ॥ सम्प्रत्यल्पबहुत्व For Pevce & Personal U Ony Jan Education International 102~ www.sanlibrary.org Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१३-१५], भाष्यं H. वि०भा०गाथा , मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * उपोद्धात प्रत सूत्रांक ॥४४॥ दीप अनुक्रम वारम्-तच्च आभिनिवोधिक ज्ञानिनामेव पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानानां परस्परं द्रष्टव्यं, शेषज्ञान्यपेक्षया अल्पबहत्वस्य भागद्वार एवान्तर्गतत्वात् , तत्र सद्भाव सति सर्वस्तोकाः प्रतिपद्यमानका: तेभ्यः पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यपदिनोड-। लान्तरभारत सयातगुणाः तेभ्योऽप्युत्कृष्टपदिनः पूषप्रतिपन्ना विशेषाधिका इति ॥ सम्प्रति यथाच्यावर्णितमतिभेदसङ्ख्याप्रदश-IRT नद्वारेणोपसंहरन्नाह आभिणियोहियनाणे अट्ठावीसं हवंति पयडीओ। - आभिनियोधिकज्ञानेऽष्टाविंशतिर्भवन्ति प्रकृतयः, प्रकृतयो भेदाः इत्यनान्तरं, कथमष्टाविंशतिः प्रकृतयो भवन्तीति | चेत्, उच्यते, इह चतुद्धों व्यञ्जनावग्रहः, तस्य नयनमनोवर्जेन्द्रियसम्भवात् , अावग्रहः पोढा, सर्वेन्द्रियमनस्मु तस्य सम्भवात् , एवं पोढा ईहा पोढा अपायः षोढा धारणा, सर्वसङ्कलनयाऽष्टाविंशतिर्भेदा, ननु प्रागेवावग्रहादिनिरूपणायां 'अस्थाणं ओग्गहण' मित्यादाताः प्रकृतयः प्रदर्शिता एव किमर्थं पुनः प्रयन्ते, नैष दोषः, तत्र हि सूत्रे न सङ्ख्या नियम उक्तः, इह तु सङ्ग्यानियमेन प्रतिपादन गित्यपौनरुवत्यं ।। इदं च मतिज्ञानं चतुर्विधम् , तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र च द्रव्यतः सामान्यादशेन मतिज्ञानी सबैद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति न विशेषादेशेन. किमुक्तं भवति ?-सामान्यप्रकारेण असयेयप्रदेशात्मको लोकव्यापी अमूर्सः प्राणिनां पुद्गलानां च गतिपरिणामपरिणतानां गत्युपष्टम्भहेतुर्धर्मास्तिकायः अमक्येयप्रदेशात्मक एव लोकव्यापी अमूर्तः प्राणिपुद्गलानां स्थितिपरिणामपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भ तुरधर्मास्तिकायः अनन्तप्रदेशात्मको लोकालोकव्यापी अमूर्तोऽवकाशदानहेतुराकाशास्तिकाय इत्यादिरूपेण पडपि देन्या ग्यववुयते न तु सर्वविशषः, सपोयाणां केवलिगम्यत्वात्, उक्तं च-"तं पुण *4-4-2--000-4 ॥४४॥ % - *% JanEdication I NT ForFive Persanamory ** anelibrary.com ... अथ आभिनिबोधज्ञानस्य २८ प्रकृतयः वर्णनं ~103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १६, १७], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः चउबिहं नेवभेदतो तेण जं तदुवडतो । आएसेणं सवं दवाइ घरविहं मुणइ ॥ १ ॥ आएसोत्ति पगारो ओघादेसेण | सङ्घदवाई | धम्मत्थियाइयाई जाणइ न उ सहभेदेणं ॥ २ ॥ ( वि०४०२-४०३ ) एवं सामान्यादेशेन मतिज्ञानी क्षेत्रतो लोकालोकं जानाति कालतः सर्वकालं, इह यद्यपि क्षेत्रकालौ सामान्येन द्रव्यान्तर्गतौ तथापि निवासमात्रपर्याय मधिकृत्य | क्षेत्रं वर्त्तनादिरूपतामधिकृत्य कालो भेदेन रूढ इति पृथगुपादानम्, भावत औदयिकादीन् पञ्च भावान्, उक्तं च- "खेत्तं लोगालोगं, कालं सबद्धमहव तिविपि । पंचोदइयाईए भावे जं नेयमेवइयं ॥ १॥" (वि०४०४) तदेवमुक्तं मतिज्ञानम्, साम्प्रतमवसरमा श्रुतज्ञानमतस्तत्प्रतिपिपादयिषुरिदमाह - सुयणाणे पयडीओ विस्थरतो आवि वोच्छामि ॥ १६ ॥ श्रुतज्ञानं - पूर्वव्युत्पादितशब्दं तस्मिन् प्रकृतयो- भेदास्ताः 'विस्तरतः' प्रपञ्चेन चशब्दात् सङ्क्षेपतश्च, अपिशब्दः | सम्भावने सचैतत् सम्भावयति - तदनन्तरं - अवधिप्रकृतीश्च वक्ष्ये - अभिधास्ये । सम्प्रति ता एवं श्रुतप्रकृतीदर्शयति---- पत्तेयमक्खराई अक्खरसंजोग जन्तिया लोए । एवइया सुयनाणे पयडीओ होंति नायवा ॥ १७ ॥ एकमेकं प्रति प्रत्येकमक्षराणि - अकारादीनि अनेकानेकभेदानि, तद्यथा-अकारः सानुनासिको निरनुनासिकश, पुनरेकैकस्त्रिधा - उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति षोढा अकारः, एवमाकारः प्लुतञ्चत्येष्टादशावर्णभेदाः, एवमिवर्णादिष्वपि यथासम्भवं भेदजातमभिधानीयं तथा अक्षराणां संयोगा अक्षरसंयोगा व्यादयो यावन्तो लोके यथा घटः पट इत्यादि व्याघ्रः स्त्री इत्यादि, एते चानन्ताः, ननु सङ्ख्येयानि अकारादीन्यक्षराणि ततस्तेषां संयोगा अपि सङ्ख्येया एव घटन्ते कथमनन्ता इति ?, Jan Education Inten ... अथ श्रुतज्ञानस्य प्रकृतयः वर्णनं For Peace & Personal Use Only ~104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [१८], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १४२३] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घाते ॥ ४५ ॥ उच्यते, इह पुद्गलास्तिकायादिकमभिधेयं, पुद्गलास्तिकायादिकं च परस्पर विलक्षणमनन्तं च तद्यथा- परमाणुर्द्विप्रदे| शिकस्त्रि प्रदेशिको यावदनम्ताणुक इत्यादि, अभिधेयभेदे चाभिधानस्यापि भेदः, अभिधानभेदस्याभिधेय भेद हेतुकत्वात्, ॐ एकत्रापि चाभिधेयेऽभिधेयधर्मभेदतोऽनेकाभिधानप्रवृत्तिर्यथा परमाणुर्निरंशो निरवयवो निष्प्रदेशो निर्भेदः, तथा ★ व्यणुको व्यंशो द्विप्रदेशो द्विभेदो द्व्यवयव इत्यादि, न चैते ध्वनयः सर्वथैकाभिधेयवाचकाः सर्वशब्दानां भिन्नप्रवृत्तिनिमि तत्वात्, एवं सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यायेषु च यथायोगं भावनीयं ततो भवन्त्यनन्ता अक्षरसंयोगाः, 'एतावत्यः' इयत्परिमाणाः प्रकृतयः श्रुतज्ञाने भवन्ति ज्ञातव्याः ॥ सम्प्रति सामान्यरूपतयो दर्शितानामनन्तानां श्रुतज्ञानप्रकृतीनां यथावद्भेदेन प्रतिपादन सामर्थ्यमात्मनः खलु अपश्यन्नाह - [ ग्रं० २००० ] Jan Education श्रुते १४ प्रकृतिकधनप्रतिज्ञा १६-१८ "कसो मे वण्डं सत्ती सुयनाणसचपयडीओ । चोइसविहनिक्स्खेवं सुयनाणे आवि वोच्छामि ॥ १८ ॥” कुतो मे - मम वर्णयितुं प्रतिपादयितुं शक्तिः - सामर्थ्य !, नैवेत्यर्थः, काः १ - 'श्रुतज्ञान सर्वप्रकृतीः' प्रकृतयो-भेदाः सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः श्रुतज्ञानस्य सर्वप्रकृतयः श्रुतज्ञानसर्वप्रकृतयस्ताः, कथं न शक्तिरिति चेत्, उच्यते, इह ये ग्रन्धानुसारिणी मतिविशेषास्तेऽपि श्रुतमिति प्रतिपादिताः, उक्तं च- 'तेविय मईविसेसा सुयनाणव्यंतरे जाण । ( > | तांश्चोत्कृष्टश्रुतधरोऽप्यभिलाप्यानपि न सर्वान् भाषितुं समर्थः, तेषामनन्तत्वादायुषः परिमितत्वाद्वाचः क्रमवर्त्तित्वाच्च, आह ॥ ४५ ॥ |च भाष्यकृत् - "जावंतो वयण हा सुआणुसारेण केइ लब्भंति । ते सबे सुअनाणं भेआणता मद्विसेसा ॥१॥ (वि०२२६५ ) | उक्कोस व सुअनाणी विजाणमाणोवि तेऽभिलप्पेऽवि । न तरइ सधे वोतुं न पहुप्पइ जेण कालो से ॥ २ ॥ (वि०१४२३ ) ” ततोऽ For Peace & Personal Use Only 105~ wjanlibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्तिः [१९], भाष्यं न, विभागाथा [४५३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम शक्तिस्तस्माचतुर्दशविधनिक्षेपं, निक्षेपणं निक्षेपो-नामादिन्यासः चतुर्दशविश्चासौ निक्षेपश्च चतुर्दशविधनिक्षेपः तं, 'श्रुतज्ञाने' श्रुतज्ञानविषयं, पशब्दात् श्रुताज्ञानविषयमपिशव्दादुभयविषयं च, तत् श्रुतज्ञाने-सम्यक् श्रुते श्रुताज्ञाने-असंजिमिध्याभुते उभय श्रुते-दर्शनविशेषपरिमहादक्षरानक्षरादिरूपे वक्ष्ये-अभिधास्ये, उकं च-नाणंमि सुए चोहसविहं पसदेण तहय अन्नाणे । अविसदेणुमयमिवि किंचि जहासंभवं वोच्छ॥१॥" (वि०४५३) सम्पति चतुर्दशविधश्रुतनिक्षेपस्वरूपोपदर्शनार्थमाह_ "अक्सर सण्णी सम्म साईयं खलु सपञ्जवसियं च । गमियं अंगपविट्ठ सत्तवि एएसपदिक्खा ॥१९॥" | अक्षरादीनि सप्त द्वाराणि अनक्षरादिप्रतिपक्षसहितानि चतुर्दश भवन्ति, सर्वत्र च 'सूचनात् सूत्र'मितिकृत्वा श्रुतशब्दो द्रष्टव्यः, अक्षर श्रुतमनधरश्रुतमित्यादि, तत्र अक्षरमिति 'क्षर सञ्चलने' न क्षरतीत्यक्षरं, तच्च ज्ञानं-चेतना, न खस्बिदमनुपयोगेऽपि प्रच्यवते ततोऽक्षरमिति भावः, इत्थंभूतभावाक्षरकारणत्वादकारादिकमप्यक्षरमभिधीयते, कारणे कार्योपचारात्, अथवा अर्थान् क्षरति न च धयमुपयातीत्यक्षरं, तच्च समासतस्त्रिविधं, तद्यथा-संज्ञाक्षरे व्यञ्जनाक्षरं लब्ध्यक्षरं चेति, तत्र संज्ञाक्षरमक्षराकारविशेषः, यथा घटिकासंस्थानो धकारः, कुरुटिसंस्थानश्चकार इत्यादि, तच बाहयादिलिपीविधानादनेकविध, तथा व्यञ्जनाक्षर-व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, व्यञ्जनं च तदक्षरं च ब्यञ्जना-11 खरं, तोह सर्वमेव भाग्यमाणमकारादि हकारान्त, अर्धाभिव्यञ्जकत्वात् , तथा योऽक्षरोपलम्भस्तल्लन्ध्यक्षरं, तच्च इन्द्रि-15 पानमनोनिमिच श्रुतमन्यानुसारि सानं तदावरणक्षयोपशमो वा, तत्र संज्ञाक्षरं व्यञ्जनावरं च द्रव्यावर, श्रुतज्ञानाख्य ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं 1, नियुक्ति: [२०], भाष्यं H, विभा गाथा [५०२,५०३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पोताते | प्रत सूत्रांक ४६॥ गा. दीप अनुक्रम भावाक्षरकारणत्वात् , लब्ध्यक्षरं तु भावाक्षरं विज्ञानात्मकत्वात् , अक्षरं च तत् श्रुतं च अक्षरश्रुतं ॥ उक्तमयर श्रुतम् ।। | अक्षरानइदानीमनक्षरश्रुतस्वरूपमभिधिरसुराह क्षरश्रुते "ऊससियं नीससियं निच्छुढं खासियं च छीयं च । निस्सिंघियमणुसारं अणक्खरं छेलियाईयं ॥२०॥" उसनमुच्छ्रसितं, भावे कप्रत्ययः, तथा निःश्वसनं निःश्वसितं निष्ठीवनं निष्ठ्यूतं कासनं कासितं, चशब्दः समुच्च- १९-२. यार्थः, क्षवणं धुतं, चशब्दः समुच्चयार्थ एव, अस्य च व्यवहितः सम्बन्धः सेण्टितादि चानक्षरश्रुतमिति, निस्संधनं निस्सिंघितं, अनुस्वारवत् अनुस्वारं, 'अभ्रादिभ्य' इति मत्वर्थीयात्प्रत्ययविधानादनक्षरमपि यदनुस्वारवत् उच्चायते तदनक्षरमनुस्वारमिति भावार्थः, एतदुच्छ्रसिताद्यनक्षरं-अनक्षरश्रुतं, न केवलमेतत् , किन्तु सेण्टनं सिण्टितं एतदादि चानक्षरश्रुतमिति ॥ इह उच्छसितादि द्रव्यश्रुतमात्रं, ध्वनिमात्रत्वात् , अथवा श्रुतविज्ञानोपयुक्तस्य जन्तोः सर्व एव व्यापारः श्रुतं, तस्य तद्भावेन परिणतत्वात् , यद्येवं तहि किमिति करचरणादिचेष्टापि श्रुतमिति न व्यवहियते ?, येनो-18 सितायेवोकमिति, उच्यते, रूदिवशात् , तथाहि-उच्छुसितायेव श्रुतमिति व्यवहारमवतीणे, तस्य श्रूयमाणत्वात् , न करादिचेष्टा, तस्याः श्रवणपथातीतत्वात् , अनुस्वारादयस्त्वकारादिवर्णा इवार्थस्याधिगमका इति निर्विवादमेव ते श्रतं.1 आह च भाष्यकृत्-“ऊससियाई दबसुयमेत्तमहवा सुतोवउत्तस्स । सबोच्चिय वावारो सुयमिह तो किं न चेट्ठावि ॥४६॥ J॥१॥ रूढी' तं सुर्य सुबइत्ति चेट्टा न सुबह कयावि । अहिगमगा वण्णा इव जमणुस्सारादयो तेणं ॥२॥"(वि०५०२-५०३) उकमनक्षरश्रुतद्वारं, दानी संजिद्वारम्-अथ संज्ञीति का शब्दार्थः१, उच्यते, संज्ञानं संज्ञा, सा अस्थास्तीति संज्ञी, ननु anelibrary.com ~107 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं ], नियुक्ति: [२०], भाष्यं H, विभागाथा [५०५-५०७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * प्रत * * सूत्रांक * * * दीप अनुक्रम यदि संज्ञासम्बन्धमात्रेण संज्ञी तत एकेन्द्रिया अपि संझिनः प्राप्नुवन्ति, तेषामप्याहारादिसंज्ञासद्भावात् , तथा च प्रज्ञापनादसूत्रम्-"एगिंदियाणं भंते ! कइविहा सण्णा पण्णता, गोयमा! दसविहा पन्नत्ता, तंजहा-आहारसपणा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा कोहसण्णा माणसण्णा मायासण्णा लोभसण्णा ओहसण्णा लोगसण्णा" इति, सत्यमेतत्. केयलमेतासु संज्ञासु मध्ये या ओघसंज्ञा लोकसंज्ञा वा साऽतिस्तोका, ततो न तत्सम्बन्धमात्रेण संज्ञीति व्यपदेष्टुं शक्यः, न खलु कापणधनमात्रेण लोके धनवानित्युच्यते, या त्वाहारभयपरिग्रहमैथुनादिका संज्ञा सा भूयस्यपि मोहनीयो दयप्रभवत्वेन न विशिष्टा, न चाविशिष्टया संज्ञया संज्ञीत्यभिधातुं शक्यं, न ह्यविशिष्टेन मूर्तिमात्रेण लोके रूपवानिति व्यवहारः, ततो या महती शोभना च ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजन्या मनोज्ञानरूपा संज्ञा तयैव संज्ञीति व्यपदिश्यते, उक्त च-"जइ सण्णासंबंधेण सणिणो तेण सणिणो सके। एगिदियाइयाणवि जं सपणा दसविहा भणिया १॥थोवा न सोहणाविय जं सा तो नाहिकीरए इहई । करिसावणे न धणवं न स्वयं मुत्तिमिवेणं ॥२॥ जह बहुदबोधणवं पसन्धरूवो य रूव होइ। महतीए सोहणाए य तह सण्णी नाणसण्णाए॥३॥" (वि०५०५-५०७) सच है।संज्ञी विविधस्तद्यथा-दीर्घकालिकोपदेशेन हेतुवादोपदेशेन दृष्टिवादोपदेशेन च, तन्त्र यया संज्ञया सुदीर्घमपि कालमती तमर्थ स्मरति एष्यन्तं च चिन्तयति, यथा-कथं न नाम मया कर्तव्यमिति.स दीर्घकालिकोपदेशेन संज्ञी, दीर्घः कालो दीघ-11 हाकालः सोऽस्यास्तीति दीर्घकालिकः स चासावुपदेशश्च, उपदेशोभणनं, दीर्घकालिकोपदेशस्तेन, एष च दीर्घकालिकोपदेशेन | हासंझी मनोज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमशान्मनोलम्धिसम्पन्नोऽनन्तान् मनोयोग्यान पुद्गलान् गृहीत्वा मनस्त्वेन परिण-1* JanEducatoniroerna ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [२०], भाष्यं H, विभा गाथा [५१५-११७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पोहाते प्रत ज सूत्रांक C%A दीप अनुक्रम मग्य मन्यते चिन्तनीयं वस्तुजातं, तेनासौ गर्भजस्तिर्यग्मनुष्यो वा देवो नारको वा द्रष्टव्यो, न शेष एकेन्द्रियादिः, विशि- ष्टमनोलन्धिविकलत्वात् , तथा च सति दीर्घकालिकोपदेशेनासंज्ञी एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियादिश्च प्रतिपत्तव्यः, हेतुनिमित्त कारणमित्यनर्थान्तरं तस्य वदनं वादः तद्विषय उपदेशः-प्ररूपणं हेतुवादोपदेशस्तेन संज्ञी, यो बुद्धिपूर्वकं स्वदेहपरिपालनाय इष्टेष्वाहारादिषु प्रवर्त्तते अनिष्टेभ्यस्तु निवर्त्तते, स च द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः, तस्यापि मनासचिन्तनपूर्वकमिष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्, केवलमस्य मनसा चिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयं, न भूतभविष्यद्विपयमल्पमनोलम्धिसम्पन्नत्वात् , ततो न दीर्घकालिकोपदेशेन संज्ञी लभ्यते, एतन्मतेनासंज्ञिन एकेन्द्रिया एव द्रष्टव्याः, उकंच-"जे पुण सचिंते इटाणिहेसु विसयवत्थुसुं । वति नियत्तंति य सदेहपरिपालणाहे ॥१॥पारण संपइच्चिय कालेंमि तया ण दीहकालण्णू । ते हेउवायसण्णी निचिट्ठा होंति उ असणी ॥२॥" (वि०५१५-५१६) तथा दृष्टिः दर्शनंसम्यक्त्वादि तस्य वदनं वादः तद्विषय उपदेशः-प्ररूपणं तेन संज्ञी-सम्यग्दृष्टिस्तस्य संज्ञा ज्ञानावरणक्षयोपशमभावात् , असंझी मिथ्यादृष्टिः, उक्तंच-"सम्मद्दिड्डी सण्णी संते नाणे खओवसमियंमि । अस्सण्णी मिच्छ दिट्ठीवायोवएसेणं (वि०५१) ततश्च संझिनः श्रुतं संज्ञिश्रुतं, तथा असंजिनः श्रुतमसंज्ञिश्रुतं, तथा सम्यक् श्रुतं-अङ्गाननपविष्टमःचारावश्यकादि, तथा मिथ्याश्रुतं-पुराणरामायणभारतादि, सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात्सम्यकश्रुतं इतरद्वा, तथाहि- सम्यग्दृष्टी सर्वमपि श्रुतं सम्यक्तं,हेयोपादेयशास्त्राणांहेयोपादेयतया परिज्ञानात्,मिथ्यादृष्टौ सर्व मिथ्याश्रुतं विपर्ययात् ॥ तथा सादिसपर्यवसितमनायपर्यवसितं च नयानुसारतोऽवसेब, तब द्रव्यास्तिकनयमतादेशेन अनाद्यपर्यवसितं धर्मास्तिका Siex ४७॥ JEKT vsansliterary.orm ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्तिः [२०], भाष्यं न, विभागाथा [१३७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम यादिवत्, पर्यायास्तिकनवमतादेशेन सादिसपर्यवसितं अनित्यत्वात् नारकादिपयोयवत्, आह पभाष्यकृत्-"अस्थित्ति || नयस्सेयं अणाइपखंतमस्थिकायब । इयरस्स साइसंतं गइपजाएहिं जीवन ॥१॥ (वि०५३७)" अथवा द्रव्यादिचतुष्टयम-- दधिकृत्य साधनाद्यादि मावनीयम् , तद्यथा-एक पुरुषं प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, नानाजीवानानित्यानाधपर्यव-II सितं, कदाचिदपि व्यवच्छेदाभावात् , क्षेत्रतः पञ्च भरतानि पञ्चरवतानि प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, सुषमसुषमादावभावात् , पञ्च महाविदेहानधिकृत्यानाथपर्यवसितं, सकलकालं तत्र भावात् , कालतोऽवसर्पिणी उत्सप्पिणी चाधिकृत्य सादिसपर्यवसितं, तृतीयाधरकेष्वेव भावात् , नोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमधिकृत्यानाद्यपर्यवसितं, महाविदेहेषु सततं भावात्, भावतःप्रज्ञापकगतान् उपयोगस्वरप्रयनस्थानविशेषादीन् भावान् गतिस्थानभेदसवातवर्णरसगन्धस्पर्शनादीन् ज्ञेयगतांश्च भावान् प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, प्रज्ञापकभावानां ज्ञेयभावानां चाम्यथान्यथाभावात्, क्षायोपशमिकं पुनर्भावमा जीकृत्यानाद्यपर्यवसितं, तस्य सर्वकालं भावात् , खलुशब्द एवकारार्थः स चावधारणे तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, सप्तैवैते । श्रुतपक्षाः सप्रतिपक्षाः, न पुनः पक्षान्तरमस्ति, सतोऽत्रैवान्तर्भावात् । सम्प्रति गमिकद्वार-तत्र गमा-भङ्गकाः गणितादि|विशेषास, यदिवा कारणवशतो ये सदृशपाठास्ते गमाः तेऽस्य सन्तीति गमिक अतोऽनेकस्वरादितिमत्वीय इकप्रत्यया, तञ्च पायो दृष्टिवादः, उक्कं च नन्यध्ययने-“गमियं दिडिवादो" इति, यत्पुनरसदृशपाठ तद् अगमिक, तच्च प्रायः कालिकं । साम्प्रतं अंगप्रविष्टद्वार-अथ अङ्गप्रविष्टानङ्गप्रविष्टयोः कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, यद् गणधरैः साक्षाद् || र सबजयविष्टं, तच द्वादशाङ्गं, यत्पुनः स्थविरैर्भद्रबाहुस्वामिमभृतिभिराचार्यरुपनिबद्धं तदनङ्गप्रविष्ट, तचावश्यक % and remona ForFive Persanamory ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [२०], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [५५०-५५२], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पोद्धा ॥ ४८ ॥ निर्युक्त्यादि, अथवा वारत्रयं गणधरपृष्टेन सता भगवता तीर्थकरेण यत्प्रत्युच्यते 'उप्पन्ने वा विगमेइ वा धुचेइ वा' 4 इति पदत्रयं तदनुसृत्य यन्निष्पन्नं तदङ्गप्रविष्टं यत्पुनर्गणधर प्रश्नव्यतिरेकेण शेषकृतप्रश्नपूर्वकं वा भगवतो मुकले व्याकरणं तदधिकृत्य यन्निष्पन्नं जम्बूद्वीपप्रज्ञत्यादि, यच्च वा गणधरव चांस्येवोपजीव्य दृब्धमावश्यक नियुक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदनङ्गप्रविष्टं, यदिवा यत्सर्वतीर्थ करतीर्थेष्वनियतं तदनङ्गमविष्टं, सर्वपक्षेषु द्वादशाङ्गान्यङ्गप्रविष्टं, शेषननङ्गप्रविष्टं, | उक्तं च - "गणहरथेरकथं वा आएमा मुक्कवागरणतो वा । धुवचलविसेसतो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥ १ ॥ (वि०५५०) ननु पूर्व | तावत् पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधरैरुपनिबध्यन्ते, पूर्व करणात् पूर्वाणीति पूर्वाचार्य प्रदर्शितव्युत्पत्तिश्रवणात, पूर्वेषु च सकलवाडायस्यावतारो, न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभिहितं ततः किं शेषाङ्गविरचनेनाङ्ग वाह्य विरचनेन वा १, उच्यते, इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च दुर्मेधस्त्वात्, स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात् उक्तं च-- " तुच्छा गारवबहुला चलिंदिया दुबला घिईए य । इति अइसेसज्झ| यणा भूयावायो न इत्थीणं ॥१॥ (वि०५५२) " अन्त्र अतिशेषाध्ययनानि - उत्थानश्रुतादीनि भूतवादो- दृष्टिबादः । ततो दुर्मेधसां स्त्रीणां चानुग्रहाय शेषाङ्गानामङ्गबाह्यस्य च विरचनमिति, उक्तं च- 'जइविय भूयाबाद सबस्स वयोगयस्स ओयारो । निज्जूहणा तहाविहु दुम्मेहे पप्प इत्थी य ॥ १॥ (वि०५५१)” गाथाशेषं अवधारणप्रयोगं दर्शयता व्याख्यातं ॥ सत्यदप्ररूपणादि | मतिज्ञानवत् आयोज्यं ॥ तदेवं प्रतिपादितं स्वरूपेण श्रुतज्ञानं, साम्प्रतं विषयद्वारेण निरूप्यते - चतुर्विधं श्रुतज्ञानं, तद्यथाद्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वाणि द्रव्याणि जानाति, नतु पश्यति, क्षेत्रतः सर्व Jan Education In For Pivote & Personal Use Ony ~111~ त्रियुता दिभेदाः ॥ ४८ ॥ janibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: २१,२२], भाष्यं H. वि०भा०गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम क्षेत्रं कालतः सर्वे कालं भावतः सर्वान् भावान् । इदं च श्रुतज्ञानं सर्वातिशयरलकल्प प्रायो गुर्वधीनं च ततो | विनेयजनानुग्रहार्थ यो यथा चास्य लाभतं तथाऽस्य दर्शयति "आगमसत्थग्गहणं जं बुद्धिगुणेहिं अट्ठहिं दिहूँ । ति सुयणाणलंभं तं पुत्वविसारया धीरा ॥२१॥" । आ-अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण मयोदया वा यथावस्थितप्ररूपणया गम्यते-परिच्छिद्यते अर्था येनस आगमः, 'मुनाम्नीतिकरणे घप्रत्ययः, स चैव्युत्पत्त्या अवधिकेवलादिरूपोऽपि प्रामोति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-शास्त्रेति शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रं आगमश्च तत् शास्त्रं च आगमशास्त्र, आगमग्रहणेन षष्टितत्रादिकुशास्त्रव्यवच्छेदः, तेषां यथावस्थितार्थप्रकाशनाभावेनानागमत्वात् , आगमशास्त्रस्य ग्रहणमागमशास्त्रग्रहणं, यद् बुद्धिगुणैः । वक्ष्यमाणः करणभूतैरटभिदृष्टं तदेव ग्रहणं श्रुतज्ञानस्य लाभ ब्रुवते, पूर्वेषु विशारदाः पूर्वविशारदाः, विशारदा-विपश्चित:, धीराः-व्रतपाल ने स्थिराः, किमुक्कं भवति !-यदेव जिनप्रणीतवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं, न शेषमिति ॥ बुद्धिगुणैरष्टभिरित्युक्तमतस्तानेव बुद्धिगुणानाह "सुस्ससइ पडिपुच्छइ सुइ गिण्हइ य ईहए वावि । तत्तो अपोहए वा धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ २२॥" | पूर्व तावत् शुश्रूषते-विनययुक्तो गुरुवदनारविन्दान्निर्गच्छद्वचनं श्रोतुमिच्छति, ततः प्रतिपृच्छति यत्र शङ्कितं भवति तत्र भूयोऽपि बिनयनम्रतया वचसा गुरुमनः प्रहादयन् पृच्छति, पृष्टे च सति यद्गुरुः कथयति तत् सम्यक्-व्याक्षेपपरि. |हारेण सावधानः शृणोति, श्रुत्वा चार्थरूपतया गृह्णाति, गृहीत्वा च ईहते-पूर्वापराविरोधेन पालोचयति, चशब्दः समु-15 ForFive Persanamory ansliterary.com ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] उपोद्घाते ॥ ४९ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ २३, २४ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः चयार्थः, अपिशब्दः पर्यालोचयन् किञ्चित्स्वबुद्ध्याऽप्युत्प्रेक्षते इति सूचनार्थः, ततः-- पर्यालोचनानन्तरमपोहते एव| मेतत् यदादिष्टमाचार्येण नान्यथेत्यवधारयति, ततस्तमर्थ निश्चितं स्वचेतसि विस्मृत्यभावार्थ सम्यक् धारयति, करोति च सम्यक् यथोक्तमनुष्ठानं, यथोक्तानुष्ठानमपि श्रुतज्ञानप्राप्तिहेतु:, तदावरण कर्मक्षयोपशमनिमित्तत्वात्, अथवा यद् यद् आज्ञापयति गुरुस्तत्तत्सम्यगनुग्रहं मन्यमानः श्रोतुमिच्छति शुश्रूषते, पूर्वसन्दिष्टश्च सर्वकार्याणि कुर्वन् पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति, पुनरादिष्टः सम्यक् शृणोति शेषं पूर्ववत् ॥ तदेवं व्याख्याता गुणाः, सम्प्रति यत् शुश्रूपते इत्युक्तं तत्र श्रवणविधिमाह - "मूयं हुंकारं वा वाढकार पडिपुच्छ वीमंसा । तत्तो पसंग पारायणं च परिणिट्ट ससमए ॥ २३ ॥” 'मूक' मिति प्रथमतो मूकं शृणुयात्, किमुक्तं भवति १ - प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीमासीत, ततो द्वितीये श्रवणे हुङ्कारं दद्यात्, वन्दनं कुर्यादित्यर्थः, तृतीये वाढकारं कुर्यात्, बाढं- एवमेतत् नान्यथेति प्रशंसेदित्यर्थः, चतुर्थे श्रवणे गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् कथमेतत् इति पञ्चमे मीमांसां प्रमाणजिज्ञासां कुर्यादिति भावः, षष्ठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गं पारगमनं चास्य भवति, ततो सहमे श्रवणे परिनिष्ठो, गुरुवदनुभाषते इत्यर्थः ॥ एवं तावत् श्रवणविधिरुक्तः, सम्प्रति व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह-"सुत्तस्थो खलु पढमो बीओ निज्जुत्तिमीसितो भणितो । तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे २४ " प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थ :- सूत्रार्थप्रतिपादनपरः, खलु एवकारार्थः स चावधारणे, ततोऽयमर्थ:--- गुरुणा प्रथमोऽनु Jan Education International For Peace & Personal Use Only ~113~ बुद्धिगुणाः अनुयोग विधिः २१-२४ ॥ ४९ ॥ www.janlibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२५], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक योगः सूत्राभिधानलक्षण एव कर्तव्यः, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिभेदः, द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शकनियुक्तिमिश्रितो भणितस्तीर्थकरगणधरैः, सूत्रस्पर्शनियुक्तिसहितं द्वितीयमनुयोगं गुरुर्विदध्यादित्याख्यातं तीर्थकरगणधरैरिति भावः, तृतीयश्चानुयोगो निरवशेष:-प्रसकानुप्रसक्तपतिपादनलक्षण इति, 'एषा' उक्तलक्षणो विधिर्भवत्यनुयोगे-व्याख्वायां, आह-परिनिष्ठा सप्तमे इत्युकं त्रयश्चानुयोगप्रकारास्तदेतत्कथं ?, उच्यते, त्रयाणामनुयोगप्रकाराणामन्यतमेन केनचिप्रकारेण भूयो भूयो भाव्यमानेन सप्तवारं श्रवणं कार्यते, ततो न कश्चिदोषः, अथवा कश्चिन्मन्दमतिविनेयमधिकृत्य तदुक्तं द्रष्टव्यं, न पुनरेष एव सर्वत्र श्रवणयिधिनियमः, उद्घटितज्ञविनेयानां सकृच्छ्रवणत एवाशेषग्रहणदर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन ॥ तदेवमुकं श्रुतज्ञानस्वरूपम् , सम्पति प्रागभिहितप्रस्तावमवधिज्ञानमुपदर्शयन्नाह*"संखातीताओ खलु ओहीनाणस्स सबपयडीओ।काई भवपचया खोवसमिया उ काओवि ॥ २५॥” | 61 समानं सङ्ख्या तामतीता:-अतिक्रान्ताः सङ्ख्यातीताः, असङ्घयेया इत्यर्थः, तथा सहयातीतमनन्तमपि भवति ततश्चा नम्ता अपीति द्रष्टव्यं, तथा च खलुशब्दो विशेषणार्थः, स चैतत् विशिनष्टि-क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षया सङ्ख्यातीता द्रव्यभावाख्यप्रमेयापेक्षया त्वनन्ता इति, अवधिज्ञानस्य-प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य प्रकृतयो-भेदा, सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः, इयमत्र भावना-दहावधेर्लोकक्षेत्रासययभागादारभ्य प्रदेशवृज्या असायलोकपरिमाणमुत्कृष्टमालम्वनबातया क्षेत्रमुक्तं, कालश्चावलिकाया असल्ययभागादारभ्य समयवद्या खवसपेयोत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाण उक्त, ज्ञेय । भदाच ज्ञानस्य भेद इति क्षेत्रकालावधिकृत्य संख्यातीतास्तत्प्रकृतयः, तथा तेजसवारद्रव्यापान्तरालवयनन्तप्रादेशिक 402042402- दीप अनुक्रम ~1144 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं ], नियुक्ति: [२६], भाष्यं H, विभागाथा [५७२-५७४], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम उपोद्धात कायादारभ्य विचित्रवृया सर्वमूर्तद्रव्याण्युस्कृष्ट विषयपरिमाणं द्रव्यतः प्रतिवस्तुगतासङ्ग्येयपर्यायपरिमाणं विषयमान। अवधे भावतो, ज्ञेयभेदेनैव ज्ञानस्यापि भेद इति समस्तं पुद्गलास्तिकायं तत्पर्यायांश्चाङ्गीकृत्यानन्ता अवधेः प्रकृतयः, आसां च भैदा ५. IN |मध्ये काश्चनाभ्यतमाः प्रकृतयो भवप्रत्ययाः' भवन्ति कर्मवशवर्चिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवो-नारकादिजन्म स पक्षिणां| २५.२६ | गगनगमनलब्धिरिवोत्पत्ती प्रत्ययः-कारणं यासां ताः भवप्रत्ययाः, ताश्च नारकामराणामेव, काश्चन पुनरन्यतमाः गुणप्रत्ययाः क्षयोपशमेन निर्वृत्ताःक्षायोपशमिकाः ताश्च तियेडमनुष्याणां, उक्तंच-"भवपञ्चइया नारयसुराण पक्खीण वा नभोग. मणं । गुणपरिणामनिमित्ता सेसाण खओवसमियाओ॥१॥” (वि.५७२) ननु अवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे प्रतिपादितं, नारकादिभवस्त्वौदयिकः, ततः स कथं तासामवधिप्रकृतीनां प्रत्ययो भवितुमर्हति !, नैष दोषः, तासामपि क्षयोपशमनिबन्ध नत्वात् , केवलमसौ क्षयोपशमस्तस्मिन् नारकामरभवे सत्यवश्यंभावीति भवप्रत्ययास्ता इत्युक्तं, आह च भाष्यकृत्-18 "ओही खओवसमिए भावे भणितो भयो तहोदइए । तो किह भवपञ्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं ॥१॥ सोवि हु खओवसमिओ किंतु स एवखओवसमलाभो । संमि सइ होअवस्स भण्णइ भवपञ्चओ तो सो ॥२॥" (वि. ५७३31५७४ ) साम्प्रतं सामान्यरूपतयोद्दिष्टानामवधिप्रकृतीनां वाचः क्रमवर्तित्वादायुपश्चाल्पत्वात् यथाव देन तत्प्रतिपादनसामर्थ्यमात्मनोऽपश्यनियुक्तिकृदाह "कत्तो मे वपणे सत्ती ओहिस्स सवपयडीओ।चोदसविहनिक्खेवं इड्डीपत्ते य वोच्छामि ॥२६॥" कुतो 'में मम वर्णयितुं शक्तिरवधेः सर्वप्रकृती, नैव शक्तिरित्यर्थः, आयुषः परिमितत्वाद्वाचः क्रमवर्तित्वाच, ॥५०॥ Jan Education ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२७,२८], भाष्यं H. विभागाथा , मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - *56--% तथापि विनेयजनानुग्रहाय चतुईशविधनिक्षेपं अवधेः सम्बन्धिनमामोषध्यादिलक्षणं ऋद्धि प्राप्ताः ऋद्धिप्राप्तास्तांश्च, चशब्दः समुच्चये, वक्ष्ये-अभिधास्ये ॥ तत्र चतुर्दशविधनिक्षेपपतिपिपादयिषुस्तद्वारगाथाद्वयमाह "ओही खेत परिमाणे, संठाणे आणुगामिए । अवहिए चले तिव्व-मंदपडिवाउप्पया इय ॥ २७॥ नाणदसणविन्भंगे, देसे खित्ते गई इय । इहीपत्ताणुओगे य, एमेया पडिवत्तीओ ॥ २८॥" इह अवध्यादीनि गतिपर्यन्तानि चतुर्दश द्वाराणि, ऋद्धिस्तु चशब्दसमुच्चितत्वात् पञ्चदशं द्वारम् , तच चतुर्दश-18 x विधनिक्षेपवक्तव्यतानन्तरं पश्चाद्वक्ष्यते, अन्ये त्याचार्या अवधिरित्येतत्पदं परित्यज्य आनुगामिकमनानुगामिकसहितम-1 थतोऽभिगृह्य चतुर्दश द्वाराणि व्याचक्षते, वदन्ति च-यस्मानावधिः प्रकृतिः, किन्तु प्रकृतिमान , प्रकृतीनां च चतुईशधा निक्षेप इति, पक्षद्वयेऽप्यविरोधः, तत्रावधिरिति अवधेर्नामादिभेदभिन्नस्य स्वरूपमभिधातव्यं, अवधिशब्दो द्विरावय॑ते, अर्थवशाच विभक्तिपरिणाम इति १, जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नमवधेः क्षेत्रपरिमाणं वक्तव्यं २, तथा संस्थानमवधेतन्यं ३, तथा अनुगमनशील आनुगामिकोऽवधिः सप्रतिपक्षो वक्तव्यः, एकाराम्तता सर्वत्रापि प्रथमान्तस्य प्राकृतत्वात् , यथा-'कयरे आगच्छइ दित्तरूवे' इत्यादि ४, तथा द्रव्यादिषु कियन्तं कालमप्रतिपतितः सन् उपयोगतो लब्धितश्चावतिष्ठते इत्यवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः५, तथा वर्द्धमानतया क्षीयमाणतया च चल:-अनवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः ६, तथा तीनो मन्दो मध्यमश्चावधिर्वक्तव्यः, तत्र तीब्रो-विशद्धः मन्दः-अविशुद्धः तीव्रमन्दस्तूभवप्रकृतिरिति ७, तथा द्रव्याद्यपेक्षया एककाले प्रतिपातोत्पादौ वक्तव्यौ ८, तथा ज्ञानदर्शनविभङ्गा वाच्याः, किमुक्कं भवति ।-किमत्र ज्ञानं दीप अनुक्रम % 14-4-59-2-% 24x4%94%E5% ForFive Persanamory Twsansliterary.orm ... अथ अवधिज्ञानस्य प्रकृतय: वर्णनं क्रियते ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२९], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: जाने प्रत सूत्रांक ॥५१॥ व - दीप अनुक्रम किंवा दर्शनं को वा विभङ्गा, परस्परतश्चामीपामल्पबहुत्वं च चिन्तनीयमिति ज्ञानदर्शनविभारत्रयमवसातव्यं ११, क्षेत्रादीनि तथा 'देस'त्ति कस्य देशविषयः सर्वविषयो वाऽवधिर्भवतीति वकव्यं १२, तथा 'खेत्तति सम्बद्धासम्बद्धसोयासझोया- द्वाराणि न्तरालक्षेत्रद्वारेण क्षेत्रविषयोऽवधिर्वक्तव्यः १३, 'गतिरिति चेत्यत्र इतिशब्दो गणसंसूचको द्रष्टव्यः, 'इत्यादिबहुवच- निक्षेपार नानि गणस्य संसूचकानि भवन्तीति वचनात् , ततो 'गइ इंदिए य काएं' इत्यादिद्वारकलापोऽवघेर्द्रष्टव्यः इत्युकं वेदितव्यं ||२७-२९ १४, तथा ऋद्धिप्राप्तानुयोगश्च वक्तव्यः, अनुयोग-अन्वाख्यानं, एवं अनेन प्रकारेण एता-अनन्तरोकाः 'प्रतिपत्तय ६ प्रतिपदनं प्रतिपत्तिः परिच्छित्तिरित्यर्थः अवधेः प्रकृतय एव प्रतिपत्तिहेतुत्वात् प्रतिपत्तय इत्युच्यते, अथवा प्रतिपद्यते यथावदवगम्यते अवधिराभिः प्रकृतिभिरिति प्रतिपत्तयः, 'लाभादिभ्य' इति करणे तिप्रत्ययः॥ साम्प्रतमनन्तरद्वारगाथाद्वयव्याचिख्यासया इदमाह "नामंठपणादविए खेत्ते काले भचे य भावे य । एसो खलु ओहिस्सा निक्खेवो होह सत्तविहो ॥ २९॥" । यस्ख जीवस्थाजीवस्य वाऽवधिरिति नाम क्रियते स नाम्ना नाममात्रेणावधिर्नामावधिः, यथा लोके मर्यादा अवधिरिति, स्थापनावधिरक्षादि: अवधिरेप इति न्यस्यमाना, अथवा अवधेरेव यदभिधानमवधिरिति तनामावधिर्नाम च तदवधिश्च नामावधिरिति व्युत्पत्चे, स्थापनावषिर्यः खलु अवधेरालम्बनय द्रव्यस्य क्षेत्रस्य यदिवा स्वामिनः आकारविशेषः, सहि विषयविषयिणोरभेदोपचारादवने सम्बन्धी, आकारश्च स्थापना, स्थापनाऽऽकारविशेष' इति वचनात्, उक्कं च-"अहवा नामं तस्सेव जमभिहाणं सपजतस्सेव । ठवणाऽऽगारविसेसो तहक्खेत्तसामीणं ॥२॥"(वि.५८३)अथ द्रव्यावधिरित्युच्यते IKH॥५१॥ Jan F ilm ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२९], भाष्यं H विभागाथा [५८४], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम उस द्विविधा-आगमतो नोमागमतच, तत्रागमतोऽवधिपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्ता, अनुपयोगो द्रव्य'मिति वचनात्, नोमाग- मतसिविधस्तद्यथा-शशरीरद्रव्यावधिः भव्यशरीरद्रव्यावधिः शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावधिश्च, तत्र शरीरभन्यशरीरे प्रतीते, तृतीयस्तु साक्षात्सूत्रेणैवोपात्तः 'दविए' इति द्रव्यावधिव्यालम्बन इत्यर्थः, अथवा सूत्रे प्रथमान्तस्याप्येकारान्तता, जिनवचनस्य च सर्वस्याप्यर्धमागधभाषात्वात् , ततो द्रव्यमेवावधिव्यावधिः, कारणं द्रव्यमिति भावः, यदिवा उत्पद्यमानस्वावधेर्यदुपकारकं शरीरादि तदवधिकारणत्वात् द्रव्यावधिः, माह च-दबोही उपजा जत्थ ततो जंच पासए तेण । जंवोक्यारिदवं देहाइ तदुभवे होइ ॥१॥ (वि.५८४) तथा क्षेत्रेऽवधि क्षेत्रावधिः, किमुक्तं भवति ।-पत्र क्षेत्रेऽवस्थितस्यावधिरुत्पद्यते यत्र वा क्षेत्रेऽवधिः प्रज्ञापकेन प्रकाश्यते यत्र वा क्षेत्रे स्वयोग्यानि द्रव्याण्यवधिः परिच्छिनत्ति स क्षेत्रस्यापारत्वेन प्राधान्यविवक्षया क्षेत्रे व्यपदिश्यते इति क्षेत्रेऽवधिः क्षेत्रावधिरित्युच्यते, एवं यत्र प्रथमपौरुष्यादी कालेऽवधिरुत्पद्यते यत्र वा प्रज्ञापकेन प्ररूप्यते यस्मिन् वा काले स्वयोग्यानि द्रव्याणि परिच्छिनत्ति स कारस्त प्राधान्यविवक्षया कालेन व्यपदिश्यते, कालेनावधिः कालावधिः, अथ किमिति क्षेत्रकालावस्थितानि द्रव्याणि पश्यत्यसावित्युच्यते, न पुनः क्षेत्रकालावेव साक्षात्पश्यतीति !, उच्यते, क्षेत्रकालयोरमूर्त्तत्वेन तदविषयत्वाद्, आह च भाष्यकृत-"खेते जरघुप्पज्जा कहिजए पेच्छए व दवाई।एवं चेव य काले नउ पेच्छइ खेत्तकाले से ॥१॥"( वि.५८५) तथा भवन्ति तत्तत्कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः-नारकादिलक्षणः, 'तुदादिभ्यो नका'वित्यधिकारे 'अकिती चेति अप्रत्ययः तस्मिन् भवे उत्पद्यते वर्चते प्रेक्षते का योऽवधिः स भवावधिः, भावः-क्षायोपशमिकः द्रव्यपर्यायो वा तस्मिन्नवधि - 18695% and remona viewsanelitary.com ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३०], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अवधेर्जधन्यक्षेत्र .३० सूत्रांक दीप अनुक्रम पोद्धातेवावधिः, चशब्दो समुच्चयार्थों, एषोऽनन्तरच्यावर्णितस्वरूपः, खलुशब्द एवकारार्थः स चावधारणे, एष एव नान्यः, निक्षे. पणं निक्षेपोऽवधेर्भवति सप्तविधः-सप्तप्रकारः ॥ सम्पति क्षेत्रपरिमाणाख्यं द्वितीयद्वारं अभिधातव्यं, क्षेत्रपरिमाणं च ॥५२॥ त्रिधा-जघन्य मध्यममुत्कष्टं च, तत्र जघन्य क्षेत्रपरिमाणमभिधित्सुराह "जावइया तिसमयाहारगस्स सुहमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहण्णा ओही खेत्तं जहणं तु ॥ ३०॥" है| आहारयति-आहारं गृहातीत्याहारका, त्रयः समयाः समाहृतारिखसमय, त्रिसमयमाहारक: त्रिसमयाहारका, 'व्याप्ता-10 विति समासः, 'नाम नाम्नेकार्थे समासो बहल'मिति समासः, तस्य त्रिसमयाहारकस्य 'सूक्ष्मस्य' सूक्ष्मनामकर्मोदयव-1 कार्तिनः, पनकजीवस्य पनकश्चासौ जीवश्च पनकजीवा-वनस्पतिविशेषः तस्य, 'यावती' यावत्परिमाणाऽवगाहन्ते क्षेत्रं यस्यां| [स्थिता जन्तवः साऽवगाहना-तनुरित्यर्थः जघन्या-शेषत्रिसमयाहारकसूक्ष्मपनकजीवापेक्षया सर्वस्तोका एतावत्परिमाण-16 मवधेर्जघन्य क्षेत्रं, तुशब्दोऽवधारणे 'तुः स्यानेदेऽवधारणे' इति वचनात् , जघन्य क्षेत्रमवधेरेतावदेवेति, अत्रायं सम्प्रदायः-यः किल योजनसहस्रपरिमाणायामो मत्स्यः स्वशरीरस्य बहिरेकदेशे एवोत्पद्यमानः प्रथमसमये सकलनिजशरीरसम्बद्धानामात्मप्रदेशानामायाम संहृत्याकुलासङ्ख्येयभागवाहल्यं स्वदेहविष्कम्भप्रमाणायामविस्तारं प्रतरं करोति, तमपि द्वितीयसमये संहृत्याङ्गुलासयेयभागविष्कम्भां मत्स्यदेहविष्कम्भप्रमाणायामामात्मप्रदेशानां सूची विरचयति, तृतीयसमये तामपि संहृत्याङ्गुलासङ्घवेयभागमात्रे स्वशरीरस्य बहिः प्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपनकरूपतयोत्पद्यते, तस्योपपातसमयादारभ्य तृतीये समये वर्तमानस्य यावत्प्रमाणं शरीरं भवति तावत्परिमाणं जघन्यमालम्बनवस्तुभाजनक्षेत्रमव ॥ 2 ॥ Jan Education in ForFive Persanamory ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [३०], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [५९३-५९४ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सातव्यं, उक्तं च- योजनसहस्रमानो मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः । उत्पद्यते हि पनकः सूक्ष्मत्वेनेह स ग्राह्यः ॥ १ ॥ संहृत्य चाद्यसमये सद्यायामं करोति च प्रतरम् । सङ्ख्यातीताख्याकुल विभागबाहल्यमानं तु ॥ २ ॥ स्वतनु (क) पृथुत्वमात्रां दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् । तमपि द्वितीयसमये संहृत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥ ३ ॥ सङ्ख्यातीताख्याङ्गुल विभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतनुपृथुत्वदैर्ध्या तृतीयसमये तु संहृत्य ॥ ४ ॥ उत्पद्यते च पनकः स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । | समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति ॥ ५ ॥ तावज्जघन्यमव धेरालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थमेव मुनिगणसुसम्प्रदायात् समवसेयम् ॥ ६ ॥” अत्र कश्चिदाह - किमिति योजनसहस्रायामो मत्स्यः, किं वा तस्य तृतीयसमये स्वदेहृदेशे सूक्ष्मत्वेनोत्पादः किं वा त्रिसमयाहारकत्वं परिगृह्यते १, उच्यते, इह योजन सहस्रमानो मत्स्यः स किल त्रिभिः समयैः आत्मानं सङ्क्षिपति महतः प्रयक्षविशेषात्, महाप्रयत्नविशेषाधिरूढश्चोत्पत्तिदेशेऽवगाहनामारभमाणो अतीव सूक्ष्मामारभते, ततो महामत्स्यस्य ग्रहणं, सूक्ष्मपनकश्चान्यजीवापेक्षया सूक्ष्मावगाहनो भवति, ततः सूक्ष्मपनकग्रहणं, तथा उत्पत्तिसमये द्वितीये समये चातिसूक्ष्मो भवति चतुर्धादिषु तु समयेष्वतिस्थूरस्त्रिसमयाहारकस्तु योग्यस्ततस्त्रिसमयाहारकग्रहणं, उक्तं च- "मच्छो महलकाओ संखितो जो उ तीहिं समएहिं । स किर पयत्तविसेसेण सहभोगाहणं कुणइ ॥ १ ॥ सहयरा सण्हयरो सुहुमो पणगो जहण्णदेहो य । सुबहुविसेसविसिहो सण्हयरो सवदेहेसु ॥ २ ॥ पढमबीएतिसण्हो जमइत्थूलो चउत्यादीसु । तइयसमयमि जोग्गो गहियो तो तिसमयहारो ॥ ३ ॥ (वि. ५९३ - ५९४ ) ” अन्ये तु व्याचक्षते - त्रिसमयाहार कस्येति, आयामप्रतरसंहरणे समयद्वयं तृतीयश्च समयः सूची संहरणोत्पत्तिदेशागमविषयः, एवं त्रयः For Peace & Personal Use Only 120~ wjanlibrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [३१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [५९९-६०० ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घाते ४ समयाः, विग्रहगत्यभावाच्चैतेषु त्रिष्वपि समयेष्वाहारकस्तत उत्पादसमय एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मपनकर्जीवो जधन्यावगाहनश्चासौ, ततस्तच्छरीरमानं जघन्यमवधिक्षेत्रं, तश्चायुक्तं यतस्त्रिसमयाहारकस्येति विशेषणं पनकस्य, न तु मत्स्यस्य, नच मत्स्यायामप्रतर संहरणसमयौ पनकभवस्य सम्बन्धिनौ, किन्तु मत्स्यभवस्य तत उत्पादसमयादारभ्य त्रिसमयाहारकस्येति | द्रष्टव्यं नान्यथा, एतावत्प्रमाणजघन्यक्षेत्रस्यावधिः तैजसभाषाप्रायोग्यवर्गणापान्तरालवर्त्ति द्रव्यमालम्बते, 'तेयाभासादद्दाणमंतरा एत्थ लहइ पट्टवतो' इतिवक्ष्यमाणवचनात् ॥ तदेवं जघन्यमवधेः क्षेत्रमुक्तम्, साम्प्रतमुत्कृष्टमभिधा ॥ ५३ ॥ तुकाम आह “सबबहुअगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिवंसु । खेत्तं सङ्घदिसागं परमोही खेत निदिट्ठो ॥ ३१ ॥” 'सवत्रहु' इति, यत ऊर्द्धमन्य एकोऽपि जीवो न कदा चनापि प्राप्यते ते सर्व बहवः, सर्वबहवश्च तेऽग्निजीवाः सूक्ष्मवादररूपाः सर्वबह्नग्निजीवाः, कदा सर्ववहग्निजीवा इति चेत्, उच्यते, यदा सर्वासु कर्मभूमिषु निर्व्याघातं अग्निकायसमारम्भकाः सर्वबहवो मनुष्याः, ते च प्रायोजितस्वामितीर्थकरकाले प्राप्यन्ते यदा चोत्कृष्टपदवर्तिनः सूक्ष्मानलजीवास्तदा सर्वबहग्निजीवपरिमाणं, उक्तं च- अबाधाए सवासु कम्मभूमीसु जं तदारंभा । सबबहवो मणुस्सा, होन्तऽ जियजिनिंद| कालंमि ॥ १ ॥ उक्कोसया य सुहुमा जया तथा सबबहुगमगणीणं । परिमाण” मिति, (वि.५९९-६००) 'निरन्तर' मिति क्रिया- ॥ ५३ ॥ विशेषणं, यावद् - यावत्परिमाणं क्षेत्रं 'भृतवन्तो' व्याप्तवन्तः किमुक्तं भवति । -नैरन्तर्येण विशिष्टसूचीरचनया यावद्वया| सवन्तः, व्याप्तवन्त इति भूतकालनिर्देश' अजितस्वामिकाल एव च प्रायः सर्वबहवोऽनलजीवा अस्यामवसर्पिण्यां भवन्ति Jan Education International Far Pavoce & Personal Use Ony अवघे कृष्टक्षेत्र ३१ 121~ www.janlibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ३९ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [६०९,६०३,६०४], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International स्मेति ख्यापनार्थः, इदं चानन्तरोदितविशेषणं क्षेत्रमेकदिकमपि भवति तत आह- सर्वदिकं, अनेन सूची भ्रमणप्रमितत्वं क्षेत्रस्य सूचयति, परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, एतावद् अनन्तरोदितं सर्वबहनलसूचीपरिक्षेपप्रमितं क्षेत्रमङ्गीकृत्य 'निर्दिष्टः' | प्रतिपादितो गणधरादिभिः क्षेत्रनिर्दिष्टः किमुक्तं भवति ? - सर्ववह्नग्निजीवा निरन्तरं यावत् क्षेत्रं सूचीभ्रमणेन सर्वदिकं भृतवन्तः एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेद सामर्थ्ययुक्तः परमावधिः क्षेत्रमधिकृत्य निर्दिष्टो गणधरादिभिः । अयमिह सम्प्रदायः - सर्ववह्नग्निजीवादयः प्रायोऽजितस्वामितीर्थकाले प्राप्यन्ते, तदारम्भकमनुष्य बाहुल्यभावात्, सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदवर्त्तिनः तत्रैव विवक्ष्यते, ततश्च ते सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्ति, तेषां खबुद्ध्या षोढा अवस्थानं | कल्प्यते - एकैकक्षेत्र प्रदेशे एकैकजीवावगाहनया सर्वतश्चतुरस्रो घन इति प्रथमं स एव घनो जीवैः स्वावगाहनाभिरिति द्वितीयं, एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः, श्रेणिरपि द्विधा, तत्राद्याः पश्च प्रकारा अनादेशाः, तेषु क्षेत्रस्याल्पीयस्तया प्राप्यमाणत्वात् षष्ठस्तु प्रकारः सूत्रादेशः, उतं च- " एकेकागासपएस जीवरयणा य सावगाहे य । चउरंस घणं पयरं सेढी छट्टो सुयादेसो ॥१॥” (वि.६०१) ततश्चासौ श्रेणिः स्वावगाहनासंस्थापितसकलानलजीवावलिरूपा अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यन्तेन भ्राम्यते सा च भ्राम्यमाणा असलेयान् लोकमात्रान् क्षेत्रविभागान् अलोके प्राप्नोति, एतावत्क्षेत्रमवधिरुत्कृष्टः, उक्तं च-नियगावगाहणागणिजीवसरीरावली भमंतेण । भामिज्जह ओहिनाणीदेहपजततो सा य ॥ १ ॥ अइगंतूणमलोगे लोगागासप्पमाणमेत्ताई। ठाइ असंखेज्जाई इदमोहीखेत्तमुक्कीस ॥ २ ॥ (वि. ६०३ - ६०४ ) ” इदं च सामर्थ्य मात्रमुपवर्च्चते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तर्हि पश्यति, यावताऽलोके तन्न विद्यते, अलोके रूपिद्रव्याणामसंभवात्, रूपिन्द्र Far Pavoce & Personal Use Ony 122~ www.janelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३२-३५], भाष्यं H, विभा गाथा [६०५,६०६], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अक्यो प्रत सुत्रांक 4 % % दीप अनुक्रम पोखाते ब्यविषयश्चावधिः, केवलमयं विशेषो-यावदद्यापि परिपूर्णमपि लोकं पश्यति तावदिह स्कन्धानेव जानाति, यदा पुनः अलोके || IN प्रसरमवधिरधिरोहति तदा यथा २ अभिवृद्धिमासादयति तथा तथा लोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान् स्कन्धान पश्यति, क्षेत्रकाल यावदन्ते परमाणुमपि, उक्तश्च-"सामत्थमेत्तमुत्तं दबं जइ हवेज पेच्छेज्जा । न उ तं तत्थथि जतो सो रूविनिबंधणो प्रतिबंधा |भणिओ ॥१॥ बहुंतो पुण बाहिं लोगत्थं चेव पासई दबं । सुहुमयर सुहुमयरं परमोही जाव परमाणू ॥२॥ (वि.६०५- ३२-३५ ६०६)" एवं तावत् जघन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षेत्रमुकं, सम्प्रति मध्यमं प्रतिपिपादयिपुरेतावत्क्षेत्रोपलमे एतावत्कालोपलम्भः । एतावत्कालोपलंभे च एतावत् क्षेत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्रकटनाथं गाथाचतुष्टयमाह- "अंगुलमावलियाणं भागमसंखेन दोसु संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलिया अंगुलपुहुत्तं ॥ ३२॥ हत्थंमि मुहुसंतो दिवसंतो गाउयम्मि बोधो । जोयण दिवसपुतं पकखंतो पण्णवीसाओ ॥ ३३ ॥ भरहंमि अद्धमासो जंबुद्दीवम्मि साहितो मासो। वासं च मणुयलोए वासपुहुत्तं च रुयगंमि ॥ ३४ ॥ संखिजंमि उ काले दीवसमुहा य हुंति संखेजा। कालम्मि असंखेने दीवसमुद्दा य भइयवा ॥ ३५॥" अङ्गुलमिह क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाकुलममिगृह्यते, अन्ये त्याहुः-अवध्यधिकारादुच्छ्रयाङ्गुलमिति, आवलिका असो-12 यसमयात्मिका, जघन्ययुक्तासङ्ग्यातकप्रमाणसमयसमुदायात्मिका इति भावः, अंगुलं च आवलिका च अंगुलावलिके तयो-18|॥ ५४॥ भागं-अंशमसंख्येयं पश्यत्यवपिज्ञानी, किमुकं भवति-क्षेत्रतोऽङ्गलासयेयभागमात्रं पश्यन् काउत आवलिकाया असर पेयमेव भागमतीतमनागतं च पश्यति, उक्कं च-"खेत्तमसंखे जंगुल पास पासं तमेव कालेणं । आवलियाए भागं नी JanEentarinde ~123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [३२-३५], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [६११-६१४], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम वाणानं च जाणाइ४, (वि.६११) आवलिकावासासोवमार्ग पश्चन् क्षेत्रतोऽङ्गुलामकोयं भावं पश्यति, एवं सर्वपि क्षेत्रकालयोः परस्परं योजना कव्या,क्षेत्रकालदर्शनं चोपचारेण द्रष्टव्यं, न साक्षात्, न खलु क्षेत्रं काळं वा साक्षादवधिज्ञानी पश्यति,तयोरमूर्तत्वाद्, रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, तत एतदुक्तं भवति एतावति क्षेत्रे काले च यानि द्रव्याणि तेषां व्याणां ये पर्यायास्तान् पश्यतीति, उकंच-"वत्येव व जे दवा, तेसि चिय जे हवंति पजाया । इस खेत्ते कालंमि य जोएजा दवपबाए ॥१॥" (वि.६१२)एवं च सर्वत्रापि भावनीयं, क्रिया च गाथाचतुष्टये स्वयमेव योजनीया, तथा बोरगुलावलिकयोः सवेयौ भाग पश्यति, अङ्गुठत्व सोयं भागं पश्यन् आवलिकाया अपि सोयमेव भागं पश्यतीत्यर्थः, तथा अङ्गुलं-अङ्गुमात्रं क्षेत्रं पश्यन् आवलिकान्तः-किञ्चिदूनामावलिकां पश्यति, आवलिकां चेत् कालतः पश्यति क्षेत्रतोऽङ्गुलपृथक्त्वं-परिपूर्णाकुलवृक्क्त्व परिमाण क्षेत्रं पश्यति, उक्तं च-"संखेचंगुलभागे आवलियाएवि मुणइ तइभागं। अमुलमिह पेच्छतो आवलियतो मुणइकालं ॥शापावलियं मुणमाणो संपुण्यं खेत्तमंगुलपुत्त"मिति (वि.६१३, ६१४)पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरा नवभ्यः, तथा हस्ते हस्तमात्रे क्षेत्रे ज्ञायमाने कालतो मुहान्तः पश्वति, अन्तर्महप्रमाणं कालं पश्यतीत्यर्थः,तथा कालतो दिवसान्तः | विधान दिवस पश्यन् वेत्रतो मब्यूर्व-गव्यूतविषयो द्रष्टव्यः, तथा योजन-योजकमात्रं पश्यन् कालतो दिवसपृथक्त्वमात्र कालं पश्यतीत्यर्थः, तथा पक्षान्तः किञ्चिदूनपक्षं पश्यन् क्षेवतः पंचविंशतियोजनानि पश्यति, "भरहमी” त्यादि, भरतेसकठभरतप्रमाणे क्षेत्रेऽवधी कालतोद्धमास म्का, भरतप्रमाणं क्षेत्रं पश्यन् कालतोऽतीतमनागवं चा मास-पश्यतीति सावाये एवं जम्बूद्वीपविषयेऽवधौ साधिको मास कालतो विषयत्वेन बोद्धव्यः, तथा मनुष्यलोके मनुष्यलोकप्रमाणक्षे ना.प. ForFive Persanamory ~1244 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [३२-३५], भाष्यं H. वि०भा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अवधौ. सूत्रांक दीप अनुक्रम आवश्यके 8 विषयोऽवधिवर्ष-संवत्सरमतीतमनागतं च पश्यति, तथा रुचके-रुचकास्यबाह्यद्वीपप्रमाणक्षेत्रविषयोऽवधिर्वर्षपृथक्त्वं || उपोद्धाते पश्यति । 'संखे' त्यादि, संख्यायते इति सङ्ख्येयः, स च संवत्सरलक्षणोऽपि भवति, ततश्चशब्दो विशेषणार्थ उपात्तः, स चैत-15 निवन्धः द्विशिनष्टि-सपेयः कालो वर्षसहस्रात्परो वेदितव्यः, तस्मिन् समयेये कालेऽवधिगोचरे सति क्षेत्रतस्तस्यैवावधेर्गोचरतया ॥५५॥ द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्रास्तेऽपि भवन्ति सङ्ख्येयाः, अपिशब्दान्महानेकोऽपि महत एकदेशोऽपि, किमुक्तं भवति ?सङ्ख्येये कालेऽवधिना परिच्छिद्यमाने क्षेत्रमपि संख्येयद्वीपसमुद्रपरिमाणं परिच्छेद्यं भवति, तत्र यदि नाम अत्रत्यस्यावधिरुत्पद्यते ततो जम्बूद्वीपादारभ्य सङ्ख्येया द्वीपसमुद्रास्तस्य परिच्छेद्याः, अथ वाह्ये द्वीपे समुद्रे वा सोययोजनविस्तृते कस्यापि तिरश्चः सङ्ख्येयकालविषयोऽवधिरुत्पद्यते तदा यथोक्तक्षेत्रपरिमाणं तमेवैकं द्वीपं समुद्रं वा पश्यति, यदि पुनरसवेययोजनविस्तृते स्वयंभूरमणादिके द्वीपे समुद्रे वा सधेयकालविषयोऽवधिः कस्याप्युपजायते तदानीं स प्रागुक्तपरिमाणं तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशं पश्यति, यदिवा इहत्यतिर्यङ्मनुष्यवाह्यावधिरेकद्वीपविषयो द्वीपैकदेशविपयो वा वेदितव्यः। तथा कालेऽसोये-पल्योपमादिलक्षणेऽवधिविषये सति तस्यैवासङ्ख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतया परिच्छेद्या द्वीपसमुद्रास्तु भाज्याः-विकल्पयितव्याः, कस्यचिदसोया एव कस्यचित्सोयाः कस्यचिन्महानेकः कस्यचिदेकदेश इत्यर्थः ॥ ५५ ॥ तत्र इह यदा मनुष्यस्यासधेयकालविषयोऽभ्यन्तरावधिरुत्पद्यते तदानीमसोया द्वीपा समुद्राश्चास्य विषयः, यदा पुनबहिर्वीपे समुद्रे वा वर्तमानस्य कस्यचित्तिरश्चोऽसङ्ख्यकालविषय उपजायते तदा तस्य सङ्ख्यया बीपसमुद्राः, अथवा यस्य मनुष्यस्यासयेयकालविषयो बाह्यद्वीपसमुद्रालम्बनो बाह्यावधिरुत्पद्यते तस्य सङ्ग्वेया द्वीपसमुद्राः, एवमेकद्वीपविषयोऽपि 696 Inmyansliterary.orma ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [ ३६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [६१८] मूलं [- / गाथा-] नदीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | भावनीयः, यदा पुनः स्वयंभूरमणे द्वीपे समुद्रे वा कस्यचित्तिरश्वोऽवधिरसङ्ख्येयकालविषयो जायते तदा तस्य स्वयंभूर| मणस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशो विषयः, स्वयम्भूरमणविषयमनुष्यवाह्यावधिर्वा तदैकदेशो विषयः, क्षेत्रपरिमाणं पुनः सर्वत्रापि योजनापेक्षया संख्येयाख्यं असवेयाख्यं वा तदेवं यथा क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिः कालवृद्धौ च यथा क्षेत्रवृद्धिस्तथा परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य प्रतिपादितं । सम्प्रति द्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्ये यद्वृद्धौ यस्य वृद्धिरुपजायते यस्य च न तदभिधित्सुराह hare बुही, कालो भइयब्बु खेतवुट्टीए । बुट्टीए दुबपज्जव भहयवा वित्तकाला उ ॥ १ ॥ काले-अवधिगोचरे वर्द्धमाने चतुर्णां द्रव्यक्षेत्रकालभावानां वृद्धिर्भवति, तथा क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिस्तस्यां सत्यां कालो भजनीयो - विकल्पनीयः, कदाचिद्वर्द्धते कदाचिन्न, क्षेत्रं ह्यत्यंतसूक्ष्मं कालस्तु तदपेक्षया परिस्थूरः, ततो यदि प्रभूता क्षेत्रवृद्धिस्ततो वर्द्धते शेषकालं नेति । द्रव्यपर्यायां तु नियमतो वर्द्धते, यत उक्तम्- "काले पवमाणे सबै दवायो पवति । खि कालो भइओ वहुति उ दवपज्जाया ॥ १ ॥ (वि. ६१८) तथा द्रव्यं च पर्यायश्च द्रव्यपर्यायौ तयोर्वृद्धौ सत्यां, सूत्रे विभक्तिलोपः प्राकृतत्वाद्, भजनीयावेव क्षेत्रकालौ, तुशब्द एवकारार्थः स च भिन्नक्रमः तथैव च योजितः, भजना |चैवं कदाचित्तयोर्वृद्धिर्भवति कदाचिन्न, यतो द्रव्यं क्षेत्रादपि हृक्ष्मं, एकस्मिन्नपि नभः प्रदेशेऽनन्तस्कन्धावगाहतः, द्रव्यादपि सूक्ष्मः पर्यायः, एकस्मिन्नपि द्रव्येऽनन्तपर्यायसम्भवात् ततो द्रव्यपर्यायवृद्धी क्षेत्र काली भजनीयावेव भवतः, द्रव्ये च वर्द्धमाने पर्याया नियमतो वर्द्धन्ते, प्रतिद्रव्यं सोया नामसङ्ख्यानां वा पर्यायाणामवधिना परिच्छेदसम्भवात् पर्याये तु Jan Education International Pavate & Personal Only ••• •अत्र निर्युक्तिः ३६ एव वर्तते किन्तु मूल संपादने गाथा ||१|| इति मुद्रितं 126~ www.sanlibrary.org Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [*३६], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [६१९,६२४], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पाकालाड़ेि सूत्रांक - MI - दीप अनुक्रम ६वर्द्धमाने द्रव्यं भाज्यम्, एकस्मिन्नपि द्रव्ये पर्यायविषयावधिवृद्यवृद्धिसम्भवात् , आइ च भाष्यकृत्-"भयणा य खेलकाले पोप रिवद्धतेसु दवभावसुं । दवे बहुइ भावोभावे दवं तु भयणिजं॥१"(वि.६१९)आह-ननु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्यो परवधिज्ञानसम्बन्धिनो क्षेत्रकालयोः अङ्गुलावलिकासोयभागादिरूपयोः परस्परं प्रदेशसमयसङ्ख्यया तुल्यत्वमुत हीना॥५६॥ अधिकत्वं', उच्यते, हीनाधिकत्वं, तथाहि-आवलिकाया असंख्येये भागे जघन्यावधिविषये यावन्तः समयास्तदपेक्षया भजता अलस्यासझलेयभागे जघन्यावधिविषये एव ये नभम्प्रदेशास्ते असोयगुणाः, एवं सर्वत्राप्यवधिविषयात् कालादसाय-1 गणत्वमवधिविषयस्य क्षेत्रस्यावगन्तव्य, उकंच-"सबमसंखेजगुणं कालाओ खित्तमोहिविसयंमि । अवरोप्परसंबद्धं समयपएसप्पमाणेणं ॥१॥” (वि.६२४) अथ क्षेत्रस्येत्यं कालादसोयगुणता कधमवसीयते ?, उच्यते, सूत्रप्रामाण्यात् । तदेव सूत्रमुपदर्शयति सुहुमो य होइ कालो तत्तो मुटुमपरयं हवा खेत्तं । बंगुलसेहीमित्ते, भोस्सप्पिणिओ असंखेजा ॥३६॥ 'सूक्ष्मा' लक्ष्णश्च भवति कालः, चशब्दो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थः, यथा सूक्ष्मस्तावत्कालो भवति, यस्मादुत्पलपशतभेदे प्रतिपत्रमसमेवाः समवाः प्रतिपद्यन्ते, ततः सूक्ष्मः कालः, तस्मादपि कालात् सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यस्माद? लश्रेणिमात्रे क्षेत्रे-प्रमाणालैकमात्रे श्रेणिरूपे नमःखण्डे प्रतिप्रदेशं समयगणनया असोया अवसापिण्यस्वीकृत गिराख्वाताः, इदमुक्कं भवति-प्रमाणाजुलैकमात्रे एकैकप्रदेशश्रेणिरूपे नमःखण्डे यावन्तोऽसोवास्क्यसपिणीषु समयाखावत्पमाणा (प्रदेशा) वन्ते, ततः सर्वत्रापि कालादसोयगुणं क्षेत्र, क्षेत्रादपि चानन्तगुणं द्रव्यं, द्रव्यादपि चावधिविषयः। »krts-IN % % 4 ॥५६॥ For Pay & Personal wsanelitary.com .....अत्र नियुक्ति: ३७ एव वर्तते किन्तु मूल संपादने गाथा ||३६|| इति मुद्रितं ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [*३७], भाष्यं , विभा गाथा [६२५,६२८-६२९], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम पर्यायः सङ्गयेयगुणोऽसोयगुणो वा, उकंच-"खेत्तविसेसेहितो, बमणतगुणियं पएसेहिं । दवेडिंतो भावो मखमणोऽसंख-16 गुणियो वा ॥१॥” (वि. ६२५ पए.) उपकमवधेर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्न क्षेत्रपरिमाण, क्षेत्रं चावधिगोचरनन्याधारेजावधेय॑पदिश्यते, ततः क्षेत्रस्य द्रब्यावधिकरवातदभिधानानन्तरं अवधिपरिच्छेदयोग्यं द्रव्यमभिधातव्यं, अवधिश्च त्रिधा-जघन्यो मध्यम उत्कृष्टश्च, तत्र जघन्यावधिपरिच्छेदयोग्य ताबद्रव्यमभिधित्सुराह तेयाभासादवाण अंतरा एत्थ लहह पट्टधगो । गुरुलहु अगुरुयल हुयं तंपि य तेणेव निवाइ ।। ३७ ॥ तैजसं च भाषा च तैजसभाषे तयोच्याणि तैजसभाषाद्रव्याणि तेषां तैजसभाषाद्रब्याणामन्तरात्, प्राकृतत्वाद्विभक्ति-14 ४ परिणामः, अन्तरे, अथवा अंतरे इति पाठान्तरमेव, किमक्तं भवति ?-तैजसभापाद्रव्याणामपान्तराले इति. 'अन' पत-18 स्मिन् उभयायोग्यद्रव्यसमूहे तैजसभाषाभ्यामन्यदेव द्रव्यं 'लभते' पश्यति, कोऽसावित्याह-'प्रस्थापकः' प्रस्थापको नामा। तत्प्रथमतया अवधिज्ञानप्रारम्भकः, किंविशिष्टं तदित्याह- 'गुरुलध्वगुरुलघु' गुरु च लघु च गुरुलघु तथा न गुरुलधु| /अगुरुलघु, किमुक्कं भवति ?-गुरुलघुपर्यायोपेतं गुरुलघु अगुरुलघुपर्यायोपेतमगुरुलघु, तर यत्तैजसद्रव्यासन्नं तद् गुरु-४ दलघु यरपुनभोपाद्रव्यासन्नं तदगुरुलघु, तदपि चावधिज्ञानं प्रच्यवमानं सत्पुनस्तेनैव द्रव्येणोपलब्धेन सता निष्ठां याति, प्रच्यवते इति भावः, तथा चोक्त--"पद्धवगो नाणस्सारंभतो (पासए) जंत(या)दीए । उभयाजोग्गं पेच्छा तेयाभासंतर दबं| ॥१॥ गुरुलघु तेयासन्नं भासासन्नमगुरु व पासेज्जा । आरंभेज दिटुं दट्टणं पडइ तं चेव ॥२॥” (वि.६२८.९) 'तदपि । त्यत्रापिशब्दो यत्प्रतिपाति तत्रायं नियमो न पुनरवधिज्ञानं प्रतिपात्येव भवतीति संदर्शनार्थ, चाब्दस्त्वेषकारार्थः। JanEducatari ForPivate Permaneumony T amakorary.org ....अत्र नियुक्ति: ३८ एव वर्तते किन्तु मूल संपादने गाथा ||३७|| इति मुद्रितं ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३९,४०], भाष्यं H. वि०भा०गाथा , मूलं -/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत स्वस्क भा सूत्रांक वगणात दीप अनुक्रम प्रावयास चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः-अवधिज्ञानमेवैवं प्रच्यवते, न शेषज्ञानानीति, अथ कियत्प्रदेशं तत् द्रव्यं यतैजस-I अवधेराउपोदाते | भाषाद्रव्याणामपान्तरालपत्तिं जपन्यावधिप्रेमयमित्याशङ्का, तत्किल परमाण्वादिक्रमोपचयादौदारिकादिवर्गणानुक्रमतः|| प्रतिपादयितुं शक्यं, अतस्तत्स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुर्गाथाद्वयमाह ओरालविउच्चाहारतेयभासाणपाणमणकम्मे । अह दववग्गणाणं कमो विवज्जासतो खेत्ते ॥ ३९ ॥ कम्मोवरि धुवेयर सुन्नेअरवग्गणा अणंताओ। चउधुवणंतरतणुवग्गणा य मीसो तहाऽचित्तो॥४०॥ आह-किमर्थमौदारिकादिशरीरमायोग्याप्रायोग्यद्रव्यवर्गणाःप्ररूप्यन्ते?, उच्यते-विनेयानामसंमोहाथै, तथा चात्रोदाह-IA रणम्-इह भरतक्षेत्रे मगधाजनपदे प्रभूतगोमण्डलस्वामी कुचिकर्णो नाम गृहपतिरासीत् , स च तासां गवामतिप्रभूतत्वात् | सहनादिपरिमितानां पृथक् पृथगनुपालनार्थ प्रभूतान् गोपालान चक्रे, ते च तासु परस्परं मिलितासु गोपा आत्मीयाः२| | सम्यगजानन्तः सन्तोऽनवरतं कलहमकार्षः, तांश्च तथा परस्परं विवदमानान् उपलभ्यासौ तेषामव्यामो-* हाथ कलहव्यवच्छित्तये च शुक्लकृष्णरक्तकर्बुरादिभेदभिन्नानां गवां प्रतिगोपालं सजातीयगोसमुदायरूपा भिन्ना वर्गणा व्यवस्थापितवान् , एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-इह गोपालप्रभुकल्पो भगवांस्तीर्थकरः गोपकल्पेभ्यः शिष्येभ्यो गोसमूहसमानपुद्गलास्तिकायं तदसम्मोहाय परमाण्वादिवर्गणाविभागेन निरूपितवान् इति, कृतं प्रसङ्गेन, पदार्थः प्रति-I पाद्यते, तत्र औदारिकमहणादौदारिकशरीरप्रायोग्या वर्गणाः परिगृहीताः, इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति, तद्यथा-न्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तब द्रव्यत एकपरमाण्वादीनां यावदनन्तपरमाणूनां क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढानां *RA% and remona viewsanelibrary.com ~129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३९,४०], भाष्यं H. विभागाथा , मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम यावत् असंख्यप्रदेशावगादाना, कालत एकसमयस्थितीनां सर्वेषां परमाणूनां स्कन्धानां च एका वर्गणा द्विसमयस्थितीनां सर्वेषां द्वितीया वर्गणा त्रिसमयस्थितीनां सर्वेषां तृतीया वर्गणा एक्मेकैकसमयवृया संख्येयसमयस्थितीनां |परमाण्वादीनां सङ्खोया वर्गणाः असोयसमयस्थितीनां त्वसोया वर्गणाः, भावत एकगुणकृष्णानां परमाणूनां स्कन्धानां |च सर्वेषामेका वर्गणा कृष्णवर्णगुणद्वययुक्तानां परमाण्वादीनां द्वितीया वर्गणा एवमेकैकगुणवृया सोयकृष्णवर्ण गुणानां सोया वर्गणाः असञ्जयेयकृष्णवर्णगुणानामसोया अनन्तकृष्णवर्णगुणानामनन्ताः, एवं नीललोहितहारि| शक्लेषु ४ सुरभीतरयोर्गन्धयोः ६ तितकटुकषायाम्लमधुरेषु पञ्चसु रसेषु ११ कर्कशमृद्गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षेषु अष्टासु स्पर्शेषु १९ सर्वसपया एकोनविंशतिस्थानेषु प्रत्येकमेकादीनां सोयगुणानां सोयाः असोयगुणानामसाधेयाः अनन्तगुणानामनन्ता वर्गणा वाच्याः, तथा लघुगुरुपर्यायाणां चादरपरिणामान्वितवस्तूनामेका वर्गणा, अगुरुलघुपर्यायाणां तु सूक्ष्मपरिणामपरिणतवस्तूनामेका वर्गणा, एवमेते द्वे वर्गणे भवतः, तत्र समस्तलोकाकाशप्रदेशपर्तिनामेकाकिपरमाणू नां समुदाय एका वर्गणा, ततः समस्तलोकवर्तिनां द्विप्रदेशिकस्कन्धानां द्वितीया वर्गणा, ततः समस्तानामपि त्रिप्रदेशिकस्कन्धानां तृतीया वर्गणा, चतुष्प्रदेशिकस्कन्धानां चतुर्थी, एवमेकोत्तरवृख्या तावन्नेयं यावत् सन्यातप्रदेशिकस्कन्धानां सङ्ख्यया वर्गणाः असल्येयप्रदेशिकानामसङ्ख्येयाः अनन्तप्रदेशिकानामनन्ताः खल्वग्रहणप्रायोग्या वर्गणा विलय विशिष्ट परिणामयुक्का औदारिकशरीरग्रहणप्रायोग्या अनन्तवर्गणा भवन्ति, ततो एकोत्तरप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यत्वात्सूक्ष्मतरपरिणामत्वाचौदारिकस्याग्रहणमायोग्या अनंता वर्गणा भवंति, ताश्च स्वरूपपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्धादरपरि and remona For Five Porno Kaviersanelibrary.orm ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यके 6 णामयुक्तत्वाच्च वैक्रियस्याप्यग्रहणप्रायोग्याः, केवल नौदारिकवर्गणानामासन्नत्वेन तदाभासत्वात् तदग्रहण बोग्या इन्ति व्यव-औदारिउपोद्घाते हियन्ते तासा भौदारिकाग्र हणमा योग्य वर्गणानामुपरि एकैकप्रदेश वृद्ध्या वर्धमानाः स्वल्पद्रव्यनिष्पन्नत्वाद् वादरपरिणामत्वाच्च वैक्रिय शरीरस्याग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति, ताश्च प्रचुरद्रव्यनिष्पन्नत्वात् सूक्ष्मपरिणामत्वा चौदा रिकस्याप्यग्रहणप्रायोग्याः परं वैक्रियवर्गणाप्रत्यासन्नतया तदाभासत्वाद्वैक्रियशरीराग्रहणप्रायोग्या इति व्यपदिष्टाः, तल एवमेकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिर्वृत्तत्वात्तथाविधसूक्ष्म परिणामत्वाच्च वैक्रियशरीरस्य ग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति, तत ऊर्ध्वमेकोत्तरवृद्ध्या प्रवर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यारब्धत्वात्सूक्ष्मतर परिणामत्याच वैक्रियस्याग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्गणाः, तासां च वैक्रियाग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुपर्चेकोत्तरवृद्ध्या प्रवर्द्धमानाः स्वल्पद्रव्यनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामत्वाच्चाहार कशरीरस्याग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्णणाः, तदनन्तरमेकोत्तर वृद्ध्या वर्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिर्वृत्तत्वात् तथाविधसूक्ष्मपरिणामपरिणतत्वाच्चाहारकशरीरस्य ग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्गणाः, ततोऽप्येको सरवृद्ध्या वर्द्धमाना बहुतमद्रव्यनिष्पन्नत्वादतिसूक्ष्मपरिणामत्त्वाच्चाहार कशरीरस्याग्रहणप्रायोग्याः अनन्ता वर्गणाः, एवं तेजसस्य ४ भाषायाः ५ आनाणयोः ६ मनसः ७ कर्मणश्च यथोत्तरमेकोत्तर ज्युपेतानां प्रत्येकमनन्तानामयोग्यानां योग्यानां पुनरबोग्यानां वर्गथानां पृथक् त्रयं वक्तव्यं, आह च भाष्यकृत् -"एगा परमाणूर्ण, एगुत्तरवद्धितो ततो क्रमसो। संखेजपासाणं संखेज्जा वग्गणा होति ॥ १ ॥ तत्तो संखातीता संखातीतप्पपसमाणां । तत्तो पुणो अनंतातपसाण गंतूणं ॥ २ ॥ ओरालियम्स महाप्पायोग्गा वग्गणा अनंताओ। अरहणपायोग्गा, तस्सेव ततो अयंताओं ॥२॥ एवमजोग्गा जोग्गा, पुणो अजो काय ॥ ५८ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ३९,४० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education free For Peace & Personal Use Only ~ 131~ काद्या वर्गणाः ॥ ५८ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [३९,४०], भाष्यं H, विभा गाथा [६३३-६३७,६७५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम दणाणता। वेधियाइयाणं, ने विविगप्पमेक्लेकं ॥४॥ (वि.६३३-६३६) साह-कथं पुनरेकैकस्यौदारिकादेः वयं वयं गम्बजे, उच्यो, तैजसभाषाद्रव्यापान्तरालवयुभयायोग्यद्रव्यावधिगोचराभिधानात् , उक्त च-"एकेकस्सादीए पज्जन्तमि हवंत-11 जोगाई। उ याजोगाई जतो तेयाभासंतरे पढाइ ॥१॥" (वि.६३७) अहे' त्यादि, अथ एष द्रव्यवर्मछानां क्रमः-परिपाटी, वर्गणा वगा राशिरिति पर्यायाः, तथा विपर्यासतो' विपर्यासेन क्षेत्रे' क्षेत्रविषयो वर्गणाक्रमो वेदितव्यः, तद्यथा-परमा लां घणुकाद्यनन्ताणुकपर्यन्तस्कन्धानां च एकैकाकाशप्रदेशावगाहिनां सर्वेषामेका वर्गमा, घ्यणुकाधनन्तामुकपयन्त: 11 कन्धानां द्विप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानां द्वितीया वर्गणा, व्यणुकाद्यनन्ताणुपयन्तस्कन्धानां त्रिप्रदेशावगाहिनां तृतीया वर्गणा, एवमेकैकाकाशप्रदे वृद्ध्या सङ्ग्येयप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानां सञ्चयेया वर्गणाः, ततोऽसाधेयप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानामसमययाः, हाच एकैकाकाशप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमानाः खलु असोया वर्गणा विलढय कर्मणः। प्रायोग्या असावेया वर्गणा भवन्ति, ततोऽनन्तरमल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वादु बादरपरिमाणत्वेन बहाकाशप्रदेशावगाहि त्वाच्च तस्यैव कर्मणोऽग्रहणप्रायोग्या एककाकाशप्रदेशवृद्ध्या असङ्ख्यया वर्गणाः १ एवमेकेकाकाशप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमा-* जाना मनसोऽप्यसबेया अग्रहणवगणाः, पुनरेतावत्य एव तस्य ग्रहणवर्गणाः, पुनरेतावत्प्रमाणा एवं तस्यैवाग्रहणप्रायोग्यार वर्गणाः, एवमानप्राणयोनापायास्तैजसस्याहारकस्य वैक्रियस्यौदारिकस्य चायोग्ययोग्यायोग्यवर्गमाना क्षेत्रतोऽपि प्रतिलोमं त्रयं त्रयं प्रत्येकमायोजनीयम् "परं परं सूक्ष्मा प्रदेशतोऽसोयगुण"मिति (तत्त्वा.२-३८-३९) वचनात, भाष्यकारोप्याह-"पएसोगाढाण वग्गणेगा पएसबुडीए। संखेज्जोगाढाणं, संखेज्जा वगगा तत्तो ॥१॥ (वि.६७५) तत्तो संखातीता। संसातीत समाणाणं । गंतुमसंखेजातो जोग्गातो कम्मुणो भणिया॥२॥ ततो संखातीया तसेव पुणो हर्वतऽजोग्गातोत।। %- 2 % ForFive Persanamory * ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] मावश्यके उपोद्घाते ॥ ५९ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ३९, ४० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [६४८-६४९], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः माणसदवाईणवि, एवं तिविकप्पमेकेकं ॥ ३ ॥ " ( वि. ६४८, ६४९ ) अधुना द्वितीयगाथाव्याख्या - तत्रानन्तरगाथायां | कर्मद्रव्यवर्गणाः प्रतिपादिताः, सम्प्रति प्रदेशोत्तरवृद्ध्या तदग्रहणप्रायोग्याः प्रदवर्यन्ते क्रियते मिथ्यात्वादिसचिवैजींवेनिंवर्त्यते इति कर्म्म कर्म्मण उपरि कम्मोपरि, ' नाम नाम्नैकार्थे समासो बहुलमिति समासः, षष्ठीतत्पुरुषस्तु न प्राप्नोति, 'अव्यये 'ति प्रतिषेधात्, कम्मग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुपरीतिभावः, 'धुवे'ति ध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, तद्यथा-कर्मग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुपरि एकाधिकपरमाणू पचितातिसूक्ष्मपरिणामानन्तपरमाण्वात्मिका प्रथमा ध्रुववर्गणा भवति, तत एकोत्तरवृद्धया वर्द्धमानाः एता अपि धुत्रवर्गणा अनन्ता वेदितव्याः, ध्रुवा-नित्याः लोकव्यापितया सर्वकालावस्थायिन्य इति भावः, अन्तदीपकं चेदं ततश्चैतासां धुत्रत्वभणनेन प्रागुक्ता अपि कर्म्मवर्गणान्ताः सर्वा एव वर्गणा ध्रुवा इत्यवगन्तव्यम्, तासामपि सर्वत्र लोके सदैवाव्यवच्छेदात्, अन्यच्च - एता ध्रुववर्गणा वक्ष्यमाणाश्चाधुवाद्याः सर्वा अपि ग्रहणाप्रायोग्यवर्गणाः अतिबहुद्रव्योपचित्वेनातिसूक्ष्मपरिणामत्वेन च सर्वजीवैरौदारिका दिभावेनाग्रहणात् तदनन्तरमि - त्थमेवैकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमाना ध्रुववर्गणाभ्य इतरा अध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, एताश्च तथाविधपुलपरिणामवैचित्र्यात् कदाचिल्लोके न भवन्त्यपि तत एता अध्रुवा इति व्यपदिश्यन्ते, अध्रुवा अशास्वत्यः, कदाचिन्न सन्त्यपीति भावः, ततः 'सुन्ना' इति 'सूचनात् सूत्र' मिति न्यायात् शून्यान्तरवर्गणाः परिगृह्यन्ते एकोत्तर वृद्ध्या, कदाचिच्छून्यानि - व्यवहितानि अन्तराणि यासां ताः शून्यान्तराः ताश्च ता वर्गणाश्च शून्यान्तरवर्गणाः, किमुक्तं भवति । - एता एकोच रवृद्ध्या निरन्तरमनन्ताः सदैव प्राप्यन्ते, परं कदाचिदेतास्वेकोत्तरवृद्धिरन्तरान्तरा शुव्यति, तत एताः शून्यान्तरवर्गणाः, एता अध्य Jan Education International For Peace & Personal Use Only ~133~ ध्रुवाचा वर्गणाः ॥ ५९ ॥ www.janelibrary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [३९,४०], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [६४१-६४२], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -- दीप अनुक्रम SHAREkok नन्ता एव, 'इयर' इति इतरग्रहणादशून्यान्तरवर्गणा गृह्यन्ते, एकोपरच्या सर्वदेवाशून्यानि अन्तराणि यास ता अशून्यान्तराः ताश्च ता वर्गणाच अशून्याम्तरवर्गणाः, पता कोत्तरवस्या निरन्तरमेव लोके सर्वदैव प्राप्यन्ते, न पुन-11 रकोत्तरवृद्धिहीनिरपान्तराले, तत पता अशून्यान्तरवर्गणार, ता अपिच प्रदेशोत्तरपस्या खस्वनन्तार, 'चउधुवणंतर इति, ततोऽशून्यान्तरवर्मणानामुपरि ध्रुवानन्तराणि चत्वारि वर्गणाद्रव्याणि भवन्ति, भुवाणि च सर्वकालभावित्वादनन्तराणि च निरन्तरकोत्तरवृद्धिभात्त्वात् सुवानन्तराणि, किमुक्तं भवति ।-आधा ध्रुवाऽनन्तरवर्गणाः प्रथमतोऽनन्ता भवन्ति, तदनन्तरमेतावत्यो द्वितीयास्ततस्तृतीया ततश्चतुर्था वाच्या, भुववर्गणाः प्रागप्युक्ताः परं ताभ्य पता भिन्ना एव, न पुनस्तास्वन्तर्भवन्ति, अतिसूक्ष्मपरिणामत्वादहुद्रध्योपचितत्वाच, एतासां चतसृणामपि ध्रुववर्गणानां प्रत्येकमपान्तराले एकोत्तरवृद्धिहानिरवसातव्या, अन्यथा निरन्तरमेकोत्तरवृद्धिसम्भवे चातुर्विध्यासम्भवात्, एवं तनुवर्गणानामपि भावनीयम्, एतासां चतसृणां ध्रुववर्गणानामुपरि प्रत्येकमेकोत्तरवृद्धियुक्तानन्तवर्गणात्मिकाश्चतस्रस्तनुवर्गणा भविति, तनूनाम्-औदारिकादिशरीराणां भेदाभेदपरिणामाभ्यां योग्यत्वाभिमुखा वर्गणास्तनुवर्गणाः, अथवा वक्ष्यमाणमिश्रस्कन्धाचितस्कन्धद्वयस्य तनुः देहः शरीरं मूर्तिरितियावत्, तद्योग्यत्वाभिमुखा वर्गणास्त नुवर्गणाः, आह च भाष्यकृत्“धुवर्णतराइ चत्तारि, जं धुवाई अणंतराइं च । भेयपरिणामतो जा सरीरजोग्गत्तणाभिमुहा ॥१॥ खंधदुगदेहजोग्गसणेण वा देहवग्गणातोत्ति (वि. ६४१-६४२)। 'मीसो' इति, तदनन्तरं मिश्रस्कंधो भवति, सूक्ष्म एव सन् ईषद्वादरपरिणामाभिमुखा सूक्ष्मत्ववादरत्वपरिणाममिश्रणात् मिश्रस्कन्धा, आह चभाष्यकृत्- "सुहुमो दरगयवायरपरिणामो मीसगोखंघो।। and remona wiewsanelibrary.cret ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [३९,४०], भाष्यं , विभा गाथा [३८३,६४२,६४५], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आवश्यके योद्धात उत्कृष्टाचित्तस्कधयोनीनात्वम् सूत्रांक दीप अनुक्रम (वि. ६४२)'तहा अचित्तो"इति, तथेत्यानन्तये अचित्त इति पदकदेशे पदसमुदायोपचारा'अचित्तमहास्वन्धः, स च विश्व- सापरिणामवैचित्र्यात् केवलिस मुद्घातगत्या चतुर्भिः समयः सकललोकमापूरयति, चतुर्भिरेव च समयैस्त स्व संहरणमिति, आहच भाष्यकृत्-जइणसमुग्धायगई चाहिं समएहिं पूरणं कुणइ । लोगस्स तेहिं चेव य, संहरणं तस्स पडिलोमं ॥१॥ (वि.३८३) आह-अचित्तत्वाव्यभिचारादचित्तविशेषणमनर्थकमिति, न, केवलिसमुद्घातसचित्तकर्मपुद्गललोकव्यापि (ता)व्यवच्छेदपरतया विशेषणस्य सार्थकत्वात् , एष एव सर्वोत्कृष्टप्रदेद्योऽचित्तमहास्कन्ध इति केचिद् ब्याचक्षते, तदसम्यक्, यस्मात्प्रज्ञापनायामवगाहनस्थितिभ्यामसङ्ख्येयभागहीनादिभेदाच्चतुःस्थानपतिता उक्ताः उत्कृष्टप्रादेशिकाः स्कन्धाः तथा च तत्सूत्रम्- “उकोसपएसियाणं भंते ! खंधाणं केवइया पजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणंता, से केणगुण भंते ! एवं वुच्चइ १, गोयमा ! उक्कोसपए सिए खंधे उक्कोसपएसियस्स खंधस्स दबठ्ठयाए तुले, एकैकद्रव्यत्वात् , पदसट्ठयाए तुले, उत्कृष्ट प्रदेशस्य चिन्त्यमानत्वात्, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, तंजहा-असंसेजभागहीणे वा संखेजभागहीणे वा असंखेजगुणहीणे वा संखिजगुणहीणो वा, अह अब्भहिए असंखेजभागचन्भहिए वा संखेजभामअवभहिए वा संखिजगुणम्भहिए का असंखिज्जगुणभहिए बा, एवं ठिइएवि च उट्ठाणवडिए, वण्णरसगंधफासेहिं छहाणवडिए" इति, एपः पुनरचित्तमहास्कन्धोऽचित्तमहास्कन्धान्तरेण सहावगाहनास्थितिभ्यां तुल्य एव, अन्यत्र सामान्य उत्कृष्टप्रादेशिकस्कन्धोऽटस्पों गीयते, अचित्तमहास्कन्धः पुनातुःस्पर्शः, ततोऽन्येऽपि उत्कृष्ट प्रादेशिकाः स्कन्धाः सन्तीति नियमतः प्रतिपत्तव्यम्, तथा चोक-सन्दुक्कोसपएसो रसो केई न चायमेनंतो। उक्कोसपएस्पे जमवमाहदिईओ चउट्ठाणो ॥१५ (वि.६४५)| x ॥ ६ . ForFive Persanamory wsanelibrary.com ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आ.सू. १९ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [४१] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [५४५,५४६, ६५५,६५६], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः फासो यजतो भणितो एसो य चडफासो । अण्णेऽवि ततो पोग्गलमेया संतित्ति सद्धेयं ॥२॥ (वि. ५४५ - ५४६ ) इह माक् 'तजसभाषाद्रव्याणामपान्तराले गुरुलघ्वगुरुलघु च जघन्यावधिप्रायोग्यं द्रव्यमुक्तम्, जघन्यावधिश्च द्विधा - गुरुलघुद्रव्यारब्धोऽगुरुलघुद्रव्यारब्धव, तत्र गुरुलघुद्रव्यारब्धः कोऽपि तान्येव तेजस प्रत्यासन्नानि गुरुलघुद्रव्याणि दृष्ट्वा विध्वंसमापद्यते, 'संपिय तेणेव निहाइ' इति वचनात् यस्तु विशुद्धिमासादयन् प्रवर्द्धते सोऽधस्तनानि तान्येव गुरुलघून्यौदारिकादीनि द्रव्याणि दृष्ट्वा ततोऽधिकतरां विशुद्धिमासादयन् क्रमेणैवागुरुलघूनि भाषादिद्रव्याणि पश्यति, अगुरुलघुद्रव्यसमारब्धोऽपि कश्चिदू हि वर्द्धमान इतराण्यपि तत्कालं गुरुलघून्यौदारिकादीनि पश्यति, उक्तं च - " गुरुल हुदवारो गुरुलहु | दबाइ पेच्छिउं पच्छा । इयराई कोइ पेच्छर, विमुज्झमाणो कमेणेव ||१|| अगुरुलहुसमारद्धो उहुं बहइ कमेण सो नाही। वहृतोऽविय कोई पेच्छइ इयराई सयराहं ॥ २ ॥” (वि.६५५ - ६५६) अत्र 'सयराह' मिति शीघ्रं युगपदिति तात्पर्यार्थः ॥ अथ किं गुरुलघु किं वा अगुरुलघु इति शङ्कायां तत्स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह " ओरालिय उद्दिय आहारग तेय गुरुलहू दवा । कम्मगमणभासाई एयाई अगुरुलहुयाई ॥ ४१ ॥ इह द्वौ नय-व्यवहारनयो निश्चयनयश्च तत्र व्यवहारनयः प्राह-चतुर्धा द्रव्यम्, तद्यथा-किञ्चिद्गुरु किञ्चिल्लघु किश्चिदुरुलघु किञ्चिदगुरुलघु, तत्र यदूर्ध्वं तिर्यग्वा प्रक्षिप्तमपि पुनर्निसर्गादधो निपतति द्रव्यं तद्गुरु, तद्यथा लोट्वादि, यत्तु द्रव्यं निसर्गत एवोर्ध्वगतिस्वभावं तलघु, यथा दीपकलिकादिः, यत्पुनर्नोर्ध्वगतिस्वभावं नाप्यधोगतिस्वभावं किन्तु स्वभावेनैव तिर्यग्गतिधर्मकं तद्गुरुलघु, यथा वायुः, यत्तूर्ध्वाधस्तिर्यग्गतिस्वभावानामेकतरस्वभावमपि न भवति Far Pevate & Personal Use Ony ~136~ janelibrary.org Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४२,४३], भाष्यं H, विभा गाथा [६५८,६५९], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [-1 आवश्यके सर्वत्र वा गच्छति तद्गुरुलघु, यथा बोमपरमाण्वादि, उऊंच-"गुरुयं लहुये उभय नोभयमिति वावहारिषनवस्स 13 गुरूलपु. उपोद्धाते | दवं लेई दीवो वाऊ वोम जहासंखं ॥१॥” (वि.६५८) निश्चयनयः पुनरिदमाह-न सर्वगुकांतेन किमपि वस्त्वस्ति, गुरोरपिसाव्यविभालोष्ट्रवादेः प्रयोगादादिगमनदर्शनात, नाप्येकान्तेन सर्वलवप्यस्ति, अतिलघोरपि वायवादेः करताडनादिना अधोगमना- Iगाःगा.४१ ॥५१॥18| दिदर्शनतः, तस्माद् द्विविधमेव वस्तु, तद्यथा-गुरुलघु अगुरुलघु च, तत्र यद् बादरं भूभूधरादिकं तत्सर्व गुरुलपु, शेष तु भाषामाणापानमनोवर्गणादिकं परमाणुव्यणुकन्योमादिकं च सर्वमगुरुलघु, उक्तं च-"निच्छयतो सबगुरुं सबलहुं वा न विजए दवं । बायरमिह गुरुलहुयं अगुरुल हुं सेसयं दवं ॥१॥" (वि. ६५९) तत्रेयं गाथा निश्चयनयमतेन, पदार्थव्याख्या त्वम्-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसद्रव्याणि अपराण्यपि तैजसद्रव्यप्रत्यासन्नानि तदाभासानि बादररूपत्वाद्गुरुलघूनि" गुरुलघुस्वभावानि, कार्मणमनोभाषाद्रव्याणि तु आदिशब्दात् प्राणापानद्रव्याणि भाषाद्रव्याग्वित्तीनि भाषाभासानि अपराण्यपि च परमाणुब्धणुकादीनि व्योमादीनि च एतानि 'अगुरुलघूनि' अगुरुलघुस्वभावानि ॥ वक्ष्यमाणगाथाद्वयसम्बन्ध एवं-पूर्व किल क्षेत्रकालसम्बन्धिनो केवलयोरकुलावलिकासोयादिविभागकल्पनया परस्परोपनिबन्ध उकः, सम्मति तयोरेवोकलक्षणेन द्रव्येण सह परस्परोपनिबन्ध उपदश्यते संखेज मणोदवे, भागो लोगपलियस्स बोद्धयो । संखेज कम्मदवे, लोगे थोखूणय पलियं ॥४२॥ तेयाकम्मसरीरे तेयादा य भासदचे य । बोद्धवमसंखेजा दीवसमुहा य कालो य ॥४३॥ मनोवगर्गणागतं मनःपरिणामयोग्यं मनोद्रव्यं तस्मिन् मनोद्रव्ये-मनोद्रव्यविषये अवधौ ‘संखेजत्ति'. सोयतमो -AXECRACK Jan Edition Farve Personal ~137~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ४२, ४३], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [६७० ], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भागो लोकपल्योपमयोः, सूत्रे चैकत्वं समाहारद्वन्द्वविवक्षणात् विषयत्वेन वोद्धव्यः किमुक्तं भवति १-मनोवर्गणागतं द्रव्यं पश्यन् अवधिः क्षेत्रतो लोकस्य सङ्ख्याततमं भागं कालतस्तु पल्वोपमस्य सततमं भागं पश्यति, 'संखेज कम्मदक्षे' इति कर्म्मवर्गणागतं कर्मपरिणामयोग्यं कर्मद्रव्यं तद्विषयेऽवधौ सोया लोकपस्योपमयोर्भागा विषयत्वेन विज्ञेयाः, इदमुक्तं भवति-कर्म्मवर्गणाद्रव्यं पश्यन् अवधिः क्षेत्रतो लोकस्य सथेयान् भागान् पश्यति, कालतस्तु पल्योपमस्य सोयान् भागान् उक्तं च- "लोगपलियाण भागं संखइमं मुणइ जो मणोदवं । संखेज्जे पुण भागे, पासइ जो कम्पुणो जोगं ॥ १ ॥” (वि. ६७०) 'लोए थोऊणयं पलियं' ति लोके चतुर्दशरज्वात्मकठोक विषयेऽवधौ कालतः स्तोकोनं पल्योपमं विषयतया विज्ञेयम्, किमुक्तं भवति ? - क्षेत्रतः समस्तं लोकं पश्यन्नवधिः कालतः स्तोकोनं पल्योपमं पश्यतीति, द्रव्येण सह क्षेत्रकालयोरुपनि बन्धे प्रस्तुते केवलयोरुपनिबन्धप्ररूपणमसमीचीनं, विस्मरणशीलता सूचकत्वादिति चेत्, नैष दोषः, द्रव्योंपनिबन्धस्यात्रापि सामर्थ्य प्रापितत्वात्, तथाहि पूर्व 'काले चउण्ह वुड्डी' इत्युक्तम्, कालवृद्धिश्चात्र अनन्तरोक्तकर्म्मद्रव्यदर्शकापेक्षया प्रतिपादिता, ततोऽस्य समस्तलोकस्तोकोनपत्योपमदर्शिनः सामर्थ्यात्कर्मद्रव्योपरि यत् किमपि ध्रुववर्गणादि तद्विषयत्वेन द्रष्टव्यम्, अत एव तदुपर्युपरि द्रव्याणि पश्यतः क्षेत्रकालवृद्धिक्रमेण परमावधिसम्भवोऽप्यनुमेयः, द्वितीयगाथाव्याख्या- शरीरशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तैजसशरीरे कार्मणशरीरे च एतद्विषयेऽवधाविति भावः, तथा तेजसवर्गणा द्रव्यविषयेऽवधौ भाषाद्रव्यवर्गणाविषये चावधौ क्षेत्रतः प्रत्येकमसङ्ख्या द्वीपसमुद्राः कालश्चासज्ञेयः - पल्यो|पमासोय भागरूपो विषयत्वेनावसातव्यः इह यद्यप्यविशेषेणोकं तथापि तैजसशरीरात् कार्मणशरीरस्य सूक्ष्मत्वात् Far Pete & Personal Use Only ~138~ এজেনে Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४२,४३], भाष्यं H. वि०भा०गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आवश्यक उपोदाते सूत्रांक पातपत्रिकाला ६२॥ 2 % दीप अनुक्रम तहशिन इदमेव द्वीपसमुद्रकालासङ्ख्यत्वं बृहद् द्रष्टव्यम् , कार्मणशरीरादप्यचद्धानां तैजसवर्गणाच्याणां सूक्ष्मत्वाद वृहत्तरं, तेभ्योऽपि भाषाद्रव्याणामतिसूक्ष्मत्वाद् बृहत्तममिति, ननु पूर्व कर्मद्रव्यदर्शिनः प्रत्येकं लोकपल्योपमभागाच्यादी सक्वेया विषयत्वेनोकाः, अत्र तु कार्मणशरीरद्रव्यदर्शिनः किमतिस्तोकावेव क्षेत्रकालो विषयत्वेनाभिहिताविति, II उच्यते-पूर्व कर्मद्रव्याणि कर्मवर्गणागतानि जीवेन शरीरतया अवद्धानि उक्कानि, अत्र तु शरीरतया बद्धानि, गा.४ बद्धानि चाबद्धेभ्यो बादराणि भवन्ति, अब्यूततन्तुभ्यो ब्यूततन्तुषु तथादर्शनात्, ततः कार्मणशरीरदर्शिनः स्तोको क्षेत्रकालावुकाविति, अपरस्त्वाह-ननु यदि तैजसद्रव्याणि पश्यतोऽसोया द्वीपसमुद्राः कालश्चासवेयो विषयः, तह यत्यागुक्तम्-तैजसभाषापान्तरालद्रव्यदर्शिनोऽङ्गलावलिकासवेयभागादि क्षेत्रकालप्रमाणं तद्विरुध्यते, अपान्तरालद्रव्याणि हि तैजसेभ्योऽपि परत्वात्सूक्ष्माणि, तत्र तैजसद्रव्योपलब्धावसधेयक्षेत्रकालाभिधानं तैजसद्रव्येभ्योऽपि परसूक्ष्मद्रव्योपलब्धौ त्वालावलिकाऽसयभागादिक्षेत्रकालाभिधानमिति कथं न विरोधः, नैष दोषः, इह विचित्रा वस्तुकया, ततोपान्तरालद्रव्याणि प्रारम्भकस्सावधेविषयः, तैजसानि स्वसझयेयद्वीपसमुद्रासङ्ख्येयकालविषयस्येति न कश्चिद्दोषः, यदिवा अल्पद्रव्याण्यधिकृत्य तत् अङ्कलावलिकासयभागादिक्षेत्रकालप्रमाणमुक्तमिदं तु प्रचुरतैजसद्व्याण्यधिकृत्यासोयद्वीपसमुद्रासयेयकालाभिधानमित्यविरोधः ॥ ननु जघन्यावधिप्रमेयं प्रतिपादयता गुरुलध्वगुरुलघु च द्रव्यं पश्य- ३२॥ तीत्युकं, न सर्वमेव, विमध्यमावधिप्रमेयमपि च अङ्गुलावलिकासङ्ख्येयभागाद्यभिधानान्न सर्वद्रव्यरूपं, तत्रस्थानामेव दर्शनात्, तत उत्कृष्टावधेरपि किमसर्वद्रव्यरूपमालम्बनमाहोश्चित् सर्वद्रव्यमालम्बनमिति संशयः, ततस्तदपनोदार्थमाह % -% For Five Persana tumory ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Inter “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [४४] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः "एगपएसोगाढं, परमोही लहइ कम्मगसरीरं । लहर अ अगुरुअलहुअं तेअसरीरे भव" ॥ ४४ ॥ प्रकृष्टो देशः प्रदेशः एकश्चासौ प्रदेशच एकप्रदेशः तस्मिन्नवगाढं व्यवस्थितं एकप्रदेशावगाढं - परमाणुव्यणुकादि द्रव्यं, परमश्चासाववधिश्च परमावधिः उत्कृष्टावधिरित्यर्थः, लभते पश्यति, अवध्यवधिमतोरमेदोपचारादवधिः पश्यतीत्युक्तम्, तथा कार्मणशरीरं च लभते आह-परमाणुव्यणुकादिकं द्रव्यमनुक्तं कथं लभ्यते ? यावता एकप्रदेशावगाढं | कार्मणशरीरमित्युपात्तमेव कस्मान्न योज्यते ?, तदसम्यक्, कार्मणशरीरस्य जीवप्रदेशानुसारितया सयातीत प्रदेशावगाहिस्वेनैकप्रदेशावगाढत्वायोगात्, लभते चागुरुलघु चशब्दाद् गुरुलघु च जात्यपेक्षया सर्वमे (त्रै) कवचनम्, ततः सर्वाण्यप्ये|कप्रदेशावगाढानि कार्मणशरीराणि अगुरुलघूनि गुरुलघूनि च द्रव्याण्यसौ पश्यतीति प्रतिपत्तव्यमिति, तथा तैजसशरीरविषयेऽवधौ कालतो भवपृथक्त्वं तेनासत्येयेन कालेन विशिष्यते, भवपृथक्त्वमध्य एव स पल्योपमासोयभागः कालो नाधिकः, एतन्मध्ये एव च भवपृथक्त्वं न तदतिक्रमेऽपीति । आह--नभ्वेकप्रदेशागाढस्य परमाण्वादेरतिसूक्ष्मत्वात् तदुपलम्भे वादराणां कार्मणशरीरादीनामुपलम्भो गम्यते एव ततः किमर्थं तेषां पृथगुपन्यासो १, व्यर्थत्वाद्, अथवा एकप्रदेशावगाढमित्यपि न वक्तव्यम्, 'रूपगतं लभते सर्व मित्यस्य वक्ष्यमाणत्वात्, तदयुक्तं सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, तथाहि--यः सूक्ष्मं परमाण्वादि पश्यति तेन वादरं कार्म्मणशरीरादिकमवश्यं द्रष्टव्यम् यो वा बादरं पश्यति तेन सूक्ष्ममप्यवश्यं ज्ञातव्यमिति न कोऽपि नियमः, यतः - 'तेया भासादद्वाणमंतरा' इत्यादिवचनात् प्रथमोत्पत्ता व गुरुलघुद्रव्यं पश्यनप्यवधिर्न गुरुलघुपलभते, अन्यद्वा अतिस्थूरंमपि घटादिकं तथा मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि सूक्ष्माण्यपि For Pivote & Personal Use Ony 140~ janelibrary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आवश्यके उपोद्घाते सूत्रांक - दीप अनुक्रम पश्यति, चिन्तनीयं तु घटादिकं रथूरमपि न पश्यति, तत एवं विज्ञानविषयवैचित्र्यसम्भवे सति संशयव्यवच्छेदार्थमेक- परमावधेप्रदेशावगादग्रहणे सत्यपि शेषविशेषणोपादानमदुष्टमेव, यदप्युक्तम्-अथवा एकप्रदेशावगादमित्यपि न बक्तब्यमित्यादि, विषयःमा. तदप्यश्लीलं, तस्यैव वक्ष्यमाणस्य प्रपञ्चायास्य प्रवृत्तत्वात् , लभते रूपगतं सर्व, यत एकप्रदेशावगाढादिकं पश्यतीति, यदिवा एकप्रदेशावगावग्रहणेन परमाण्वादि द्रव्यं गृहीतम् , शेषं तु कर्मवर्गणापर्यन्तं कार्मणशरीरग्रहणेनोपलक्षित, कर्मवर्गणोपरितनं तु सर्वमपि द्रव्यमगुरुलघुग्रहणेन गृहीतं, चशब्दसूचितगुरुलघुग्रहणेन तु घटपटभूभूधरादिकमत: समस्तपद्लास्तिकायविषयत्वं परमावघेरनेन सूत्रेणाविष्कृतं, तथा च सति रूपगतं लभते सर्वमित्येतद् वक्ष्यमाणमस्यैव नियमाय प्रतिपत्तव्यम् , 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमाय भवतीति न्यायात्, एतदेव रूपगतं सर्वं लभते, नान्यदित्यलं विस्तरेण ॥ तदेवं परमावधेर्द्रव्यरूपो विषय उक्तः, अधुना क्षेत्रकालौ तद्विषयतया प्रतिपिपादयिषुराह "परमोहि असंखेजा लोगमेत्ता समा असंखेजा । स्वगयं लहइ सई खेत्तोवमियं अगणिजीवा ॥४५॥" पामश्चासावबधिश्च परमावधिः, क्षेत्रतोऽसङ्ग्येयानि लोकमात्राणि, खण्डानि इति गम्यते, लभते इति सम्बन्धः, कालतस्तु समा-उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरसक्येया एव लभते, तथा द्रव्यतो रूपगतं-मूर्तद्रव्यजातं 'लभते' पश्यति 'सर्व समस्तं, किमुक्तं भवति:-परमाण्वादिभेदभिन्नं समस्तं पुद्गलास्तिकार्य पश्यतीति, भावतस्तु प्रतिद्रव्यं सोयानसङ्ख्येयान् वा । पर्यायानिति । यदुक्तमसोयानि लोकमात्राणि खण्डानि परमावधिः पश्यतीति, तदसोयफमूनमधिकं च कोऽपि सङ्कल्पयेदतो नियतपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-उपमीयतेऽनेन उपमितं, माहुलकात् फरणे निष्ठाप्रत्ययः, क्षेत्रस्योपमित क्षेत्रोपमितं, andre wsanelionary.orm ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [४६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ६८९ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education Internal क्षेत्रप्रमाणकारिणः प्रागभिहिता एवाग्निजीवाः, इदमुक्तं भवति उत्कृष्टावघेर्विषयत्वेन क्षेत्रतो येऽसज्ञेया लोकाः प्रोक्तास्ते प्रागभिहितस्वागवाहनाव्यवस्थापितोत्कृष्टासत्येय सूक्ष्मवादराग्निजीवसूच्या परमावधिमतो जीवस्य सर्वतो भ्रम्यमाणया यत्प्रमाणं क्षेत्रं व्याप्यते तत्प्रमाणाः समवसेया इति, ननु रूपगतं लभते सर्वमित्येतदनन्तरगाथायामर्थतोऽभिहितमेव ततः किमर्थं पुनरत्राभिहितम् १, तदयुक्तम्, अत्रार्थे परिहारस्य प्रागेवोक्तत्वाद्, अथवा अनंन्तरगाथायामेकप्रदेशावगाढमित्यादि परमावधेः द्रव्यपरिमाणमुक्तम्, इह तु रूपगतं लभते सर्वमिति क्षेत्रकालयोर्विशेषणं तच्चैवम् - क्षेत्रकालद्वयं लोकमात्रासङ्ख्यखण्डासयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणं यदि रूपिद्रव्यानुगतं भवति ततः समस्तं लभते न केवलं, तस्यारूपित्वादवधिज्ञानस्य च रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वात् इत्थंभूत परमावधिकलितश्च नियमादन्तर्मुहूर्तमात्रेण केवला लोकलक्ष्मीमासादयति, उक्तं च- 'परमोहिमाणविदो केवलमंतो मुहुत्तमेतेण' (वि. ६८९ ) ॥ तदेवं मनुष्यानधिकृत्य क्षायोपशमिकः खल्वनेकप्रकारोऽवधिरुक्तः, सम्प्रति तिरश्वोऽधिकृत्य तं प्रतिपिपादयिषुराह "आहारतेयलंभो, उफोसेणं तिरिक्खजोणीसु । गाउय जहण्णमोही नरपसु य जोयकोसो ॥ ४६ ॥ आहारश्च तेजश्च आहारतेजसी तयोर्लाभः प्राप्तिः परिच्छित्तिरित्येकोऽर्थः आहारते जोलाभः सूत्रे च लम्भ इति निर्देश: प्राकृतत्वाद्, आहारते जो ग्रहणमुपलक्षणं, ततः यान्यौदारिकवैक्रिया हार कतैजसद्रव्याणि यानि च तदन्तरालेषु तदयोग्यानि तेषां सर्वेषामपि परिग्रहणं, उत्कर्षत स्तिर्यग्योनिषु, किमुक्कं भवति। तैर्यग्योनिकसत्त्वाधारो योऽवधिः स उत्क र्षत औदारिकवैक्रिया हारकतेजोद्रव्याणि तदन्तरालद्रव्याणि च सर्वाणि पश्यतीति उक्तं च- 'ओरालियवेट बिय आहार Far Pavoce & Personal Use Only ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं ], नियुक्ति: [४७], भाष्यं H, विभागाथा [६९१-६९२], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नारक प्रत सूत्रांक वधिः गा. ४६-७ - दीप अनुक्रम IRL आवश्यक ६ गतेयगाई तिरिएसु । उक्कोसेणं पेच्छइ जाइं च तदंतरालेसु॥२॥"(वि. ६९१)एतद्रव्यानुसारेण क्षेत्रकालभावा अपिपरि-18 उपोदातेरछेद्यतया स्वयमभ्यूह्याः, तदेवं यदुक्तम्-“काओ भवपचइआ,खओवसमियाओ काऽओ वि।" इति तत्र झायोपसमिकपक- तयोऽभिहिताः, अथ भवप्रत्ययास्ता प्रतिपाद्याः, ताश्च सुरनारकाणां भवन्ति, तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमं नारकाणामभिधि॥४॥ सूत्सुराह-'गाउये त्यादि, 'नरकेषु तु' नरकेषु पुनरुत्कृष्टेष्वेव मध्ये जघन्योऽवधिः क्षेत्रतो गब्यूतं पश्यति, स च सप्तमपृथि ब्यामवसातव्यः, उत्कृष्टस्तु योजनं पश्यति, सच प्रथमायां पृथिव्याम्, आह च भाष्यकृत्-"भणितो खयोवसमिओ,भवपञ्चइओस चरमपुढवीए। गाउयमुक्कोसेणं पढमाए जोयर्ण होइ ॥१॥” (वि.६९२)इत्थंभूतक्षेत्रानुसारेण द्रव्यादयः स्वयं परिभावनीयानातदेवं सामान्येन नारकजातिमधिकृत्याभिहितमुत्कृष्टमवधिक्षेत्रपरिमाणम्,अथ तदेव रत्नप्रभादिपृथिवीभागेनाह "चत्तारि गाउयाई, अछुट्टाई तिगाउयं चेव । अड्डाइजा दोन्नि य दिवड्डमेगं च नरएसु ।। ४७॥" इह नरका नाम नारकाणामाश्रयाः, ते च सप्तपृथिव्याधारत्वेन सवधा भिद्यन्ते, तत्र नरकेषु रसप्रभायां उत्कृष्टमवधिद्र परिमाणं चत्वारिगव्यूतानि जघन्यमर्द्धचतुर्थीनि, शर्करामभायामुत्कृष्टमर्द्धचतुर्थानि, अर्द्ध चतुर्थ येषां तान्यईचतुर्थानि, सार्दानि वीणि गव्यूतानीति भावः, जघन्यं वीणि गन्यूतानि, वालुकाप्रभायामुत्कृष्टं त्रीणि गव्यूतानि जघन्यमर्द्धतृतीयानि, पप्रभायामुत्कृष्टमर्द्धतृतीयानि जघन्यं द्वेगन्यूते, धूमप्रभायामुत्कृष्टं द्वेगन्यूते जघन्यं ब्यर्ब गव्यूतं, तमम्मभायामुत्कृष्टं घड़ गब्यूतं, द्वितीयमर्दै यस्य तत् बर्ड, सार्धमित्यर्थः, पूरणार्थो वृत्तावन्तभूतो यथा द्वितीयो भागो द्विभाग इत्यत्र, जघन्य गन्यूतं, तमस्तमम्प्रभायामुत्कृष्टं गन्यूतं जघन्यमई गव्यूतं, सर्वोत्कृष्टमर्द्धगम्यूतोनं जपन्यमिति तात्प ++C4%AACAKCE FANA Jan FrPivesPersana tumory ~1434 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Inte “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [४७], भाष्यं [H] वि० भा० गाथा [ ६९४], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 1 पर्यम्, अथ जघन्यमनुक्कं कुतोऽवसीयते ?, उच्यते, प्रज्ञापनासूत्रात्, तथा च तत्सूत्रम् - " रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति?, गोयमा । जहण्णेणमदुहाई गाउयाई, उक्कोसेणं चत्तारि गाठयाइं जाणंति पासंति. सकरप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं तिन्नि गाडयाई उक्कोसेणं अट्ठाई गाउयाई जाणंति पासंति, वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अडाइज्जाई गाउयाई उक्कोसेणं तिन्नि गाडयाई जाणंति पासंति, पंकष्पभापुढ विनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहशेणं दोन्नि गाउयाई उक्कोसेणं अहाइजाइं गाउयाई जाणंति पासंति, धूमप्पभापुढ विनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणेणं दिवहूं गाउयं उकोसेणं दो गाउयाई जाणंति पासंति, तमप्पभापुढवीनेरइयाणं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहणणेणं गाउयं उक्कोसेणं दिवहगाउयं जाणंति पासंति, अहे सतमाए पुच्छा, गोयमा ! जहणेणं अद्धगाउयं उकोसेणं गाउयं जाणंति पासंति" ननु यदि सप्तम पृथिव्यामर्द्धगव्यूतं जघन्यमवधिक्षेत्रपरिमाणं तर्हि यदुक्तं प्राकू 'गाउय जहण्णमोही नरपसु य' इति तद् व्याहन्यते, नैष दोषः, उत्कृष्टजघन्यापेक्षया तदभिधानात् इदमत्र हृदयम् - सप्तस्वपि पृथिवीषु यद् गन्यूतचतुष्ट्यादिकमुत्कृष्टमवधिक्षेत्रपरि| माणं तन्मध्ये सप्तमपृथिवीनारकाणां गव्यूतलक्षणमवधिक्षेत्रं स्वस्थाने उत्कृष्टमपि शेषपृथिव्युत्कृष्टापेक्षया सर्वस्तोकत्वाजघन्यमुक्तमिति, न चैतत् स्वमनीषिकाविज्जृम्भितं यत आह भाष्यकृत् - "अट्टगाइबाई, जहण्णयं अर्द्धगाउयंताई । जं गाजयंति भणियं संपिय उक्कोसगजणं ॥ १॥ (वि.६९४) तदेवं नारकसम्बन्धिनो भवप्रत्ययावधेः स्वरूपमभिहितम्, सम्प्रति देवसम्बन्धिनः प्रतिपिपादयिषुरिदं गाथात्रयमाह - For Peace & Personal Use Only ~144~ sanlibrary.org Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [४८-५०], भाष्यं H. वि०भा०गाथा , मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आवश्यके उपोदाते प्रत वैमानिकानामवधिर गा.४८४९-५० सूत्रांक दीप अनुक्रम "सकीसाणा पढम, दोच्चं च सणंकुमारमाहिंदा । तचं च बंभलंतग सुकसहस्सारग चउत्थिं ॥४८॥ आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढविं । तं चेव आरणाय ओहीणाणेण पासंति ॥ ४९ ॥ छट्टि हेट्टिममज्झिमगेविला सत्तर्मि च उवरिल्ला । संभिन्नलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा ॥५०॥ शक्रश्च ईशानश्च शक्रेशानौ-सौधर्मेशानकल्पदेवेन्द्रौ प्रथमा रक्षप्रभाभिधानां पृथिवीं, पश्यन्तीति क्रियां द्वितीयगाथायां वक्ष्यति, शनशानग्रहणं चोपलक्षणं तेन सौधर्मेशानकल्पनिवासिनो देवाः सामानिकादयोऽपि परिगृह्यन्ते, तेषामप्यवधिना रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सर्वान्तिममधस्तनं भागं यावद्दर्शनात्, द्वितीयां च पृथिवीमित्यग्रतः सम्बध्यते, सनत्कुमारमाहेन्द्रौ-तृतीयचतुर्थकल्प देवाधिपी, अत्रापीन्द्रग्रहणमुपलक्षणं तेन तत्कल्पनिवासिनः सामानिकादयोऽपि प्रतिपत्तव्याः, एवं तृतीयां च पृथिवी ब्रह्मलोकलान्तकदेवेन्द्रोपलक्षितास्तत्कल्पनिवासिनो देवाः पश्यन्ति, शुक्रसहस्रारसुरेन्द्रोपलक्षितास्तत्कल्पनिवासिनश्चतुर्थी (थीं) पृथिवीं पश्यन्ति । द्वितीयगाथाव्याख्या-आनतप्राणतकपे प्राकृतत्वाद्विभक्तिवचनव्यत्यय इति वचनात् द्वयोरर्थयोरेकवचनं, ततोऽयमर्थः-आनतप्राणतयोः कल्पयोर्देवाः पश्यन्ति पञ्चमी पृथिवी, तामेव आरणाच्युतयोः कल्पयोर्देवा अवधिज्ञानेन पश्यन्ति, स्वरूपकथनमेवेदम्, नतु व्यवच्छेदकमवधिज्ञानस्यैवेह प्रस्तुततया व्यवच्छेद्याभावात् , नवरं तां विशुद्धतरां बहुपर्यायां चेति प्रतिपत्तव्यम् , उत्तरोत्तरदेवानां विमलतरावधिज्ञानसद्भावात् । तृतीयगाथाव्याख्या-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि ग्रैवेयकानि विमानानि, तानि च विधा-अधस्तनौवेयकानि मध्यमवेयकानि उपरितननैवेयकानि च, तत्राधस्तनमध्यमवेयका आधेये आधारोपचारात् अधस्तनम JanEentarior Koirwsanelitrary.com ~1454 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [११], भाष्यं , वि०भा०गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम ध्यमवेयकविमानवासिनो देवाः षष्ठीं तमःप्रभाभिधानां पृथिवीं पश्यन्ति, सप्तमी च पृथिवी उपरितना-उपरि| तनवेयकविमानवासिनो देवाः पश्यन्ति, तथा सम्भिन्नां चतसृष्वपि दिक्षु स्वज्ञानेन व्यासां लोकनाडी चतुर्दशरजुपमाणां कन्याचोलकसंस्थानामवधिना पश्यन्ति 'अनुत्तरा' अनुचरविमानवासिनो देवाः । एष क्षेत्रतो देवानां भवप्रत्य यावधेविषय उक्तः, एतदनुसारेण द्रध्यतः कालतो भावतश्चायसेयः, तदेवमधो वैमानिकावधेः क्षेत्रपरिमाणं प्रतिपादितम् , ४ अधुना तिर्यगूर्व च तत्प्रतिपादयन्नाह "एएसिमसंखेजा, तिरियं दीवा य सागरा चेव । पहुयपरं उवरिमगा उहुंच सकप्पथभाई ॥५१॥ एतेषां सौधर्मादिदेवानां सङ्ग्यायन्ते इति सङ्ग्येया न सोया असङ्ख्येयास्तिर्यक् दीपाश्च जम्बूद्वीपादयः सागराश्च लवणसागरादयः, क्षेत्रतोऽवधिपरिच्छेद्यतया इति वाक्यशेषः, तदेव द्वीपसमुद्रासयेयं बहुतरक-प्रभूततरं पश्यन्ति उप|रिमा एव उपरिमकाः, उपर्युपरि देवलोकनिवासिनो देवा इत्यर्थः, उपर्युपरिदेवलोकनिवासिनां देवानां विशुद्धविशुद्धतरा-18 वधिज्ञानसद्भावात् , तथा ऊर्ध्व स्वकल्पस्तूपायेव यावत् , आदिशब्दात् ध्वजादिपरिग्रहा, क्षेत्रं सौधर्मादयो देवाः सर्वेऽपि पश्यन्ति, न परतः, तथा भवस्वाभाव्यात्, जघन्यतः पुनरमी सर्वेऽपि सौधर्मादयोऽनुत्तरविमानवासिपर्यन्ता अगुलासङ्ख्येयभागमात्र क्षेत्रं पश्यन्ति, उक्तं च प्रज्ञापनायाम्-"सोहम्मगदेवा णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति, गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग उकोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए हेछिल्ले चरिमते, तिरिय ४॥ जाव असंखेजे दीवसमुहे, उहुं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणति पासंति, एवं ईसाणगदेवावि, सणंकुमारदेवावि | शाएवं घेव, नवरं 'अहे जाव दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए हेछिल्ले चरिमंते, एवं माहिंददेवावि, भलोगलतगदेवा तच्चाए। wiewsanelibrary.cret ~146 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं ], नियुक्ति: [१२], भाष्यं H, विभागाथा [७०२-७०३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 16 प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम आवश्यकेा पुढवीए हेछिल्ले चरिर्मते, महासुक्कसहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेहिले चरिमंते, आणयपाणयआरण-दामानिउपोद्धाते अचुयदेवा अहे पंचमाए पुढविए धूमप्पभाए हेडिल्ले चरमंते, हेडिममझिमगेविजगदेवा अहे जाव छडीए तमाए पुढबीए कानां हिडिल्ले चरमंते, उवरिमगेविजगदेवाणं भंते ! केवइयं खेतं ओहिणा जाणंति पासंति, गोयमा! अण्णेणं अंगुलस्म असं-18/शपाणां च खेजभागं उक्कोसेणं अहे सत्तमाए पुढवीए हेछिले चरिमंते, तिरियं जाव असंखिजे दीवसमुद्दे, उखु जाव सगाई विमा-₹तियंगूलणाई ओहिणा जाणंति पासंति, अणुत्तरोववाइदा णं भंते ! देवा णं केवइयं खेचं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा ! मवधिः जहन्नेणं अंगुलरस असंखेजभार्ग उक्कोसेणं संभिन्नं लोगनालिं जाणंति पासंति", अत्र अपर आह-नन्वहुलासयभाग-8 गा.५१-२ प्रमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तिर्यङ्मनुष्येष्वेव, न शेषेषु, यत आह भाष्यकृत् स्वकृतभाष्य-/ टीकायाम्-"उत्कृष्टोमनुष्येष्वेव नान्येषु, मनुष्यतिर्यग्योनिषु जघन्योनान्येषु, शेषाणां मध्यम एवे"ति, वक्ष्यति च-'उकोसो मणुपसुं मणुस्सतिरिच्छएमु य जहण्णो' इति(वि.७०३) तत्कघमिह वैमानिकानां सर्वजघन्य उक्त', उच्यते-सौधर्मादिदेवानां पारभाविकोऽप्युपपातकाळेऽवधिः सम्भवति, सच सर्वजघन्योऽपि कदाचिदवाप्यते, उपपातानन्तरं तु देवभवप्रत्ययजस्ततो न कश्चिदोषः, आह च दुष्यमान्धकारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपो भाष्यकृत् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-"वेमाणि-12 याणमंगुलभागमसंखं जहण्णतो होइ । उववाए परभविओ, तन्भवजो होइ तो पच्छा ॥१॥" (वि.७०२) तदेवं वैमानि-18॥ ६६ ।। कानामवधिक्षेत्रपरिमाणमुक्तम्, इदानी सामान्यतस्तद्धर्जदेवानां प्रतिपिपादयिषुराह "संखेजजोषणा खलु, देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेजा जहण्णयं पण्णवीसं तु॥५२॥ FACAR *CSAKAL CCC ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] मा.सु. १२ Jan Education fr “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ५३ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ७०१ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सवेयानि च तानि योजनानि च सवेययोजनानि, खलुशब्द एवकारार्थः स चावधारणे अस्य च उभयथा सम्बन्धं उपदर्शयिष्यामः, देवानामर्द्धसागरे पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् अर्द्धसागरोपमे न्यूने आयुषि सति, किमुक्तं भवति, १ - अर्द्धसागरोपमे न्यूने आयुषि सति देवानां सङ्ख्वेययोजनान्येवावधिक्षेत्रं, तथा देवानां सवेययोजनान्यवधिक्षेत्रमर्द्धसागरोपमे न्यून एवायुषि सति, न परिपूर्णे नाप्यधिके इति, ततः परं सम्पूर्णार्द्धसागरोपमादावायुषि पुनरसयेयानि योजनान्यवधिक्षेत्रमवसेयम् ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च संस्थानविशेषाद्वक्ष्यमाणाद् भावनीयम् ॥ उक्तं उत्कृष्टमवधिक्षेत्रम्, अथ जघन्यमाह - 'जहण्णय मित्यादि, जघन्यमवधिक्षेत्रमिति देवानामिति वर्त्तते, पञ्चविंशतिस्तुशब्दस्य एवकारार्थत्वात् पञ्चविंशतिरेव योजनानि तानि च दशवर्षसहस्रस्थितीनां भवनपतिव्यन्तराणामवसातव्यानि, 'पणबीस जोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसि' मिति वचनात्, ज्योतिष्काः पुनरसङ्ख्येय स्थितिकत्वाज्जघन्यतोऽपि सत्येययोजनप्रमितान् सोयान् द्वीपसमुद्रान् अवधिज्ञानतः पश्यन्ति, उत्कर्षतोऽपि सोययोजनप्रमितानेव सत्येयान् द्वीपसमुद्रान्, केवलमधिकतरान् उक्तं च प्रज्ञापनायाम् " जोइसिया णं भंते! केवइयं खित्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा ! जहन्नेणवि संखिज्जे दीवसमुद्दे उक्कोसेणवि संखिजे दीवसमुद्दे” भाष्यकारोऽप्याह- “दुविहोऽचि जोइ[सि]याणं, संखेजो ठिइविसेसेणं ।” (वि. ७०१ ) अत्र सङ्ख्येयः सङ्ख्येययोजनप्रमित सङ्ख्येय द्वीपसमुद्रविषयः स्थितेर्विशेषात् स्थितेरसवेयत्वादित्यर्थः ॥ अथ अयमेव चावधिर्येषामुत्कृष्टादिभेदभिन्नो भवति तानुपदर्शयन्नाह“उक्कोसो मणुपसं, मणुस्सतेरिच्छिपसु य जहण्णो । उक्कोस लोगमित्तो परिवाह परं अपडिवाई ॥ ५३ ॥” For Peace & Personal Use Only 148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आव. मल. पोख अवधी ॥ ६७ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ५४,५५ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ७०४], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इह द्रव्यतः क्षेत्रः eat भवतश्चोत्कृष्टोऽवधिर्मनुष्येष्वेव न देवादिषु तथा मनुष्याश्च तिर्यञ्चश्च मनुष्यतिर्यञ्चस्तेषु मनुष्य तिर्यक्षु च जघन्यः, चशब्द एवकारार्थः, मनुष्यतिर्वक्ष्वेव जघन्यो, न नारकसुरेषु, तत्र प्रतिपातिष्ववधिषु मध्ये उत्कृष्टोऽवधिः प्रतिपतितुं शीलमस्येति प्रतिपाती लोकमात्र एव, मात्रशब्दोऽलोकव्यवच्छेदार्थः, इदमत्र हृदयम् - | यद्यवधिः प्रतिपतति तत उत्कर्षतो लोकमात्र एव, न लोकात् परं प्रदेशमात्रमपि पश्यन्, तथा चाह- 'परं अपडिवाई' ततो लोकात् परमेकमप्याकाशप्रदेशं पश्यन् नियमाद् अप्रतिपाती, क्षेत्रपरिमाणद्वारे प्रस्तुते प्रसङ्गतः प्रतिपात्यप्रतिपातिस्वरूपाभिधानमदुष्टमेव, विनेयजनप्रतिपत्तिलाघवात् उक्तं क्षेत्रपरिमाणद्वारम् १ ॥ अधुना संस्थानद्वारमभिधित्सुराह - fuबुगागार जहणो, बट्टो उक्कोसमायतो किंचि । अजहण्णमणुक्कोसो य, खेत्ततोऽगसंठाणो ॥ ५४ ॥ स्तिबुक:- उदविन्दुस्तस्यैवाकारो यस्यासौ स्तिबुकाकारो जघन्यावधिः, तमेव स्पष्टयति-वृत्तः, सर्वतो वृत्त इति भावः, पनकक्षेत्रस्य वर्त्तुलत्वाद्, उत्कृष्टः - परमावधिः, आयतः - प्रदीर्घः, किञ्चित् - मनाक् वह्निजीवसूच्या अवधिमच्छरीरस्य सर्वतो स्वाम्यमाणया व्याप्यमानस्य क्षेत्रस्य एतदाकारभावात् उक्तं च "पणको थिबुगागारो, तेण जहन्नावही तदागारो । | इयरो सेढिपरिक्खे तो सदेहाणुवत्तीए ॥१॥ (वि.७०४) तथा 'अजघन्योत्कृष्टश्च' न जघन्यो नाप्युत्कृष्टः अजघन्योत्कृष्टः, चशब्दोऽवधारणे, अजघन्योत्कृष्ट एव, 'क्षेत्रतोऽनेकसंस्थानः' अनेकानि संस्थानानि यस्यासावनेक संस्थानः, एवं तावज्जाघन्योत्कृष्टाषधिसंस्थानमभिहितम् ॥ सम्प्रति विमध्यमावधिसंस्थानप्रतिपादनार्थमाह तप्पागारे पल्लग - पडग-सरि-मुइंग- पुष्फ-जवे । तिरिय-मणुपसु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ ॥५५॥ Jan Education International For Pavoce & Personal Use Ony ~149~ उत्कृष्टप्रतिपाती गा. ५३ ॥ ६७ ॥ www.sanelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education International “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ५४,५५ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ७०७], मूलं [- /गाथा - ] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः • उत्तरार्द्धे तिर्यग्मनुष्याणामबघेर्नानाविधसंस्थानभणनात् पूर्वार्डेन संस्थानप्रतिपादनं ययाक्रमं नारकभवन| पतिव्यन्तरज्योतिष्क कल्पोपपन्नकल्पातीत मैवेयकानुत्तरसुराणामवधेरवसातव्यम्, तथा च पूर्वार्द्धप्रतिपादितसंस्थानविषयं भाष्यम् - "नेरइय-भवण-वणयर- जोइस कप्पालयाणमोहिस्स । गेविज्जणुत्तराणन्य होंतागिइओ जहासंखं ॥ १॥” (वि. ७०७) तमो नाम काष्ठसमुदाय विशेषो यो नदीप्रवाहेण प्लाव्यमानो दूरादानीयते, स च आयतख्यत्रश्च भवति, तस्येवाकारो | यस्यासौ तप्राकारोऽवधिर्नारकाणां 'पल्लग'त्ति पलको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः, स च ऊर्ध्वायत उपरि च | किञ्चित्सङ्गिशः, आकारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, पलकस्येवाकारो यस्यासी पलकाकारो भवनपतीनां, पटहः - आतोद्यविशेषः, स च किञ्चिदायत उपर्यधश्च समप्रमाणः, पटह एव पटहकस्तदाकारोऽवधिर्व्यन्तराणाम्, तथा उभयतो विस्तीर्णा चर्मावनद्धमुखा मध्ये सहसा ढक्काकारा शहरी- आतोद्यविशेषरूपा तदाकारोऽवधिर्ज्योतिष्कदेवानां मृदङ्गो-वाद्यविशेषः, स चाधस्ताद्विस्तीर्ण उपरि च तनुकः सुप्रतीतस्तदाकारोऽवधिः सौधर्मादिदेवानामच्युतदेवपर्यन्तानां, 'पुप्फ'चि पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् सप्रशिखा पुष्पभृता चङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी परिगृह्यते, तदाकारोऽवधिर्यैवेयकविमाननिवासि - देवानां, 'जब' इति अत्रापि पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् यवनालक इति द्रष्टव्यम्, यवनालको नाम कन्याचोलकः, स च मरुमण्डलादिप्रसिद्धश्चरणकरूपेण कन्यापरिधानेन सह सीवितो भवति येन परिधानं न खसति, कन्यानां चैष मस्तकपदेशेन प्रक्षिप्यते, अत एवायमूर्ध्वः सरकञ्चुक इति व्यपदिश्यते, तथा च तप्रादिव्याख्यानं कुर्वन्नाह भाष्यकृत्“तप्पेण समागारो तप्यागारो स चाययत्तंसो । उढायओ य पलो, उवरिं च स किंचि संखित्तो ॥ २ ॥ नश्चायओ For Pevate & Personal Use Ony 150~ wjanelibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१६], भाष्यं H, विभा गाथा [७०८-७१३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H दीप आव.मल.81 समोऽविय, पडहो हिट्ठोवरिं पईओ सो । चम्मावणद्धविच्छिण्णवलयरूवा य झल्लरिया ॥३॥ उड्ढायओ मुइंगो, हेडा रुंदो खानउपोद्घातेतहोवरि तणुओ। पुप्फसिहाबलिरड्या, चंगेरी पुष्फचंगेरी ॥४॥ जवनालउत्ति भणिओ, उन्भो सरकंचुओ कुमारीए । मानुगामुकं अवधी अह सबकालनियओ कायाइक्कोऽवि सेसाणं ॥ ५॥" इति, (वि.७०८-११) यवनालकाकारोऽवधिरनुत्तरसुराणां । एष च च,गा. नारकादीनामनुत्तरसुरपर्यन्तानामेतदाकारः सर्वकालनियतः प्रत्येतव्यः । 'तिरियमणुएसु' इत्यादि, तिर्यश्वश्च मनुष्याश्च ५५-६ ॥६॥PISIS तिर्यङ्मनुष्यास्तेषु अवधिर्नानाविधं संस्थितं संस्थानं यस्य स नानाविधसंस्थिता, स्वयम्भूरमणजलनिधिवासिमत्स्यगण वत्, अपिच-तत्र मत्स्थानां वलयाकारं संस्थानं निषिद्धं, तिर्यङ्मनुष्यावधेस्तु तदपि भवति, उक्तं च-"नाणागारो दितिरियमणएस मच्छा सयंभूरमणेव । तत्थ वलयं निसिद्धं, तस्सिह पण तपि होजा हि ॥६॥(वि.७१२)" भणित: प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरैः, अनेन च संस्थानप्रतिपादनेनेदमावेदितम्-भवनपतिव्यन्तराणामूर्व प्रभूतोऽवधिवैमानिकानामधः ज्योतिष्कनारकाणां तिर्यग विचित्रो नरतिरश्चाम् , आह च भाष्यकृत्-"भवणवइ-चतराणं उड्ढे बहुगो अहो यी सेसाणं । नारग-जोइसियाणं तिरिय ओरालिओ चित्तो ॥७॥" (वि.७१३) उक्तं संस्थानद्वारम् २ । सम्पति सप्रतिपक्षमानुगामिकद्वारार्थ प्रचिकटविषयेदमाह- . अणुगामिओय ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं । अणुगामी अणणुगामी मीसो य मणुस्सतेरिच्छे ॥५६॥ गान्तं पुरुषमासमन्तात् अनुगच्छतीत्येवंशीला अनुगामी अनुगाम्येवानुगामिका, स्वार्थे कपत्ययः, यदिवा अनुगमः प्रयोजनमस्खेत्यानुगामिका, अनुशतिकादिपाठाभ्युपगमावुभयपदवृद्धि, आनुगामिकश्चावधिविधा, तथा अन्तगतो अनुक्रम कलकलाई JanEduration inoria mpaintiorary.org ~1514 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [१६], भाष्यं H. वि०भा०गाथा [७३८], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम मध्यगतः, अथान्तगत इति कः शब्दार्थः१, उच्यते, इह पूर्वाचार्यप्रदर्शितमर्थत्रयम्, अन्ते-आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते गतः| स्थितोऽन्तगतः, कात्र भावनेति चेत्, उच्यते-इहावधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्द्धकरूपतयोत्पद्यते, स्पर्द्धकंच नाम अवधिज्ञानप्रभावा गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः, तथा चाह भाष्यकृत्स्वोपज्ञभाग्यटीकायां-"स्पर्द्धकमवधिविच्छेदकविशेष" इति, तानि च एकजीवस्यासोयानि सोयानि वा भवन्ति, यद्धस्यतिफडा व असंखेजा संखेजे यावि एगजीवस्स' (वि. ७३८) इति, तानि च विचित्ररूपाणि कानिचित्पर्यन्तव[चिषु मात्मप्रदेशेषूत्पद्यन्ते, तत्रापि कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिचिन्मध्यवर्तिवारमप्रदेशेषु, तत्र यः पर्यन्तवर्तिष्वात्मप्रदेशेष्ववधिरुत्पद्यते स आत्मनः पर्यन्ते स्थित इतिकृत्वा अन्तगत इत्यभिधीयते, तैरेव पर्यन्तवत्रिंभिरात्मप्रदेशः साक्षादववोधात्, अथवा औदारिकशरीरस्यान्ते गतः-स्थितोऽन्तगतः, औदारिकशरीरमधिकृत्य कयाचिदेकया दिशोपलम्भात् , इदमपि सर्द्धकरूपकमवधिज्ञानं, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेपि औदारिकशरीरान्ते कयाचिदेकया दिशा यशादुपलभते सोऽप्यन्तगतः, आह-यदि सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमस्ततः सर्वतः किं न पश्यति ?, उच्यते, एकदिशैव क्षयोपशमसम्भवात् , विचित्रो हिदेशाद्यपेक्षया कर्मणां क्षयोपशमः, ततः सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानामित्थंभूत एव स्वसामग्रीवशात् क्षयोपशमः संवृत्तो यदौदारिकशरीरमपेक्ष्य कयाचिद्विवक्षितया दिशा पश्यतीति, तथा चोक्तं नन्द्यध्ययनचूणौँ “ओरालियसरीरंते ठियं-गति एगहुँ, तंच आयप्पएसफडगावहिएगदिसोपलंभाओ य अंतगयमोहिनाणं भन्नइ, अहवा सवायप्पएसेसु विसुद्धेमुवि ओरालियसरीरगंण एगदिसि पासेण For Farm ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आव.मट पोद्धाते सुत्राक अवधी दीप अनुक्रम गयमंतगयंति भण्णइ" इति, एष द्वितीयोऽर्थस्तृतीयः पुनरयं-एकदिग्भाविना तेनावधिना यदुधोतितं क्षेत्रं तस्यान्ते अन्तमवर्तते सोऽवधिः, अवधिज्ञानवतस्तदन्ते वर्तमानत्वात् , ततोऽन्ते एकदिग्गतस्यावधिविषयस्य पर्यन्ते गतः-स्थितोऽन्तगतः, ध्यगत अन्तगतश्चावधिस्त्रिधा, तद्यथा-पुरतोऽन्तगतः पृष्ठतोऽन्तगतः पार्वतोऽन्तगतश्च, तत्र यथा कश्चित् पुरुषो हस्तगृहीतया व्याख्या ४| दीपिकया पुरतः प्रेयमाणया पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, एवं येनावधिना तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव सवे-18/ त्यान्यसयेयानि वा योजनानि पश्यति, नान्यत्र, सोऽवधिः पुरतोऽन्तगत इत्यभिधीयते, तथा स एव पुरुषो यधा पृष्ठतो हस्तेन ध्रियमाणया दीपिकया पृष्ठत एवं पश्यत्येवं येनावधिना पृष्ठत एव सङ्ख्येयान्यसोयानि वा योजनानि पश्यति | सः पृष्ठतोऽन्तगतः, येन पुनः पार्श्वत एकतो द्वाभ्यां वा सङ्ख्येयान्यसङ्ग्येयानि वा योजनानि पश्यति स पार्श्वतोऽन्तगतः, उक्तं च नन्द्यध्ययने-"पुरतोऽन्तगएणं ओहिणाणेणं पुरतो चेव संखेजाणि वा असंखेजाणि वा जोयणाई जाणइ . पासइ, मग्गतोऽन्तगएणं ओहिणाणेणं मग्गतो चेव संखेजाणि वा असंखेजाणि वा" इत्यादि, मध्यगत इत्यत्रापि त्रिधार व्याख्यानं, इह मध्यं प्रसिद्धं दण्डादेरिव, तत्रात्मप्रदेशानां मध्ये-मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु गतः-स्थितो मध्यगतः, अयं च है स्पर्द्धकरूपः सर्वदिगुपलम्भकारणं मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवधिरवसातव्यः, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोप शमभावेऽपि औदारिकशरीरमध्यभागेनोपलव्धेः, तन्मध्ये गतो मध्यगतः, उक्तं च नन्द्यध्ययनचूर्णी-“ओरालियसरीरमज्झे फडुगविसुद्धीतो सघायप्पएसविसुद्धीतो वा सबदिसोवलंभत्तणतो मज्झगतोत्ति भण्णई' त्ति, अथवा तेनावधिना यदुद्योति क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु तस्य मध्यभागे स्थितो मध्यगतः, अवधिज्ञानिनस्तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्चित्वात्, आह च नन्द्यध्ययन lan Education on wainitiorary.org ~153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्तिः [१७], भाष्यं H, विभा गाथा ७१४,७१५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम चूर्णिकृत्-"अहवा उपलद्धिखेत्तस्स अवधिपुरिसो मझगतोति, अतो वा मज्झगतो ओहि भन्नाई" इति, सत्रेहान्तगतो न माह्यो, देवनारकाणामभ्यन्तरावधित्वात् , किन्तु मध्यगतः, सोऽप्यन्त(न्त्य)व्याख्यानविशिष्टो, देवनारकाणां स्वावधियोतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात् , तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, आनुगामिक एव यथोकरूपो नान्य इति, केषामित्याहनरान् कायन्ति-स्वयोग्यान् आह्वयन्तीति नरकाःनारकाश्रयाः तेषु भवा नारकास्तेषां, तथा 'दीन्यन्ति' यथेच्छया क्रीडन्तीति देवाः तेषां, मनुष्यश्च तिर्यक् च मनुष्यतिर्यक् तस्मिन् मनुष्यतिर्यचि (रश्चि) जातावेकवचनम्, ततोऽयमर्थ:-मनुष्येषु तिर्यक्षु आनुगामिक उक्तशब्दार्थः, अनानुगामिका-अवस्थितशृङ्खलानियन्त्रितप्रदीप इव यो गच्छन्तं पुरुषं नानुगच्छति, आह च भाष्यकृत्-"अणुगामिओऽणुगच्छइ, गच्छंतं लोयणं जहा पुरिसं । इयरो य नाणुगच्छइ ठियपईवो व गच्छतं ॥१॥ (वि.७१४) यस्य तूत्पन्नस्वावधेर्देशो प्रजति स्वामिना सह अपरश्च देशः प्रदेशान्तरचलितपुरुषस्योपहतेकलोचनवदन्यत्र न प्रजति स मिश्न उच्यते, उक्तं च-"उभयसहावो मीसो, देसोजस्साणुजाइ नो अन्नो । कासइगयस्स है कत्थई, एगं उवहम्मइ जहच्छि ॥२॥ (वि.७१५) एष च भवति, अयं गाथासलेपार्थः-देवनारकाणां सर्वात्मप्रदेशजाभ्यन्तरावधिरूपमध्यगतः आनुगामिकोऽवधिः, तिर्यडूमनुष्याणां सर्वप्रभेदः-आनुगमिकोऽनानुगामिको मिश्नश्चेति ।। उक्तमानुगामिकद्वारम् ३ । अथावस्थितदारं वक्तव्यम्, अवस्थितत्वं चावधेराधारभूतक्षेत्रत उपयोगतो लन्धितश्च चिन्तनीयम्, तत्र क्षेत्रत उपयोगतश्च प्रतिपिपादयिषुरिदमाह सित्सस्स अवडाणं तेसीसं सागरा उ कालेणं । दवे भिन्नमुहत्तो पज्जवलंमेय सत्तल ॥१७॥ ... and ration wwimwaintiorary.org, ~1540 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१७], भाष्यं H, विभा गाथा [७१९-७२१], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम आव.मल. अवस्थितिः अवस्थानम्, अवधेराधाररूपतालक्षणेन पर्यायेण क्षेत्रस्यावस्थानं, कालेन-कालमाश्रित्य सागरोपमाणि अवस्थाउपोदातेतुशब्द एवकारार्धः स चावधारणे भिन्नकमश्च त्रयस्त्रिंशतमेव, इयमत्र भावना-अनुत्तरसुरा यत्र क्षेत्रे येष्वेव च प्रति- नम् गा. अवधी नियतेषु क्षेत्रप्रदेशेषु जन्मसमयेऽवगाढास्ते प्रायस्तत्रैवाभवक्षयमवतिष्ठन्ते, ततः तानधिकृत्योत्कर्षतोऽवधेरवस्थानं त्रय-12 स्त्रिंशतं सागरोपमाणि यावदवाप्यते, उक्तं च-"आहारे उवओगे, लद्धीए का हविजऽवत्थाणं । आहारो से खितं, तेत्तीसं 81 ॥७ ॥ सागरा तत्य ॥शा विजयाइसूबवाए जत्थोगाढो भवक्खयं (ओ वि०) जाव । खेत्तेऽवचिट्ठइ तहिं दवेसु य देहसयणेसु ॥२॥ (वि.७१९-२०)" उपयोगमधिकृत्यावधेरवस्थानं, द्रवति-गच्छति तांस्तान पर्यायानिति द्रव्यं, वाहुलकात् कर्तरि प्रत्ययः, तस्मिन् द्रव्ये-द्रव्यविषये तत्र चान्यत्र क्षेत्रे भिन्न श्चासौ मुहूर्त्तश्च भिन्नमुहूर्तः, अन्तर्मुहूर्त कालं यावदिति तात्पर्यार्थः, न परतः,सामर्थ्याभावात्, उकंच-"दबे भिन्नमुहुत्तं,तत्थऽनत्थ व हवेज खेत्तमि। उवओगोन उपरओ सामत्थाभावओ तस्स 5॥३॥ (वि.७२१)" तथा तत्रैव द्रव्ये ये पर्यवा:-पर्यायधर्मास्तल्लाभे पर्यायान्तरं संचरतोऽवधेरुपयोगमधिकृत्यावस्थानं सप्लाष्टो वा समयान् यावत्, न परतः, पर्यायाणां सूक्ष्मतया परतस्तद्विषयेऽवस्थाने सामाभावात् , अन्ये तु व्याचक्षतेपर्येवा द्विविधाः, तद्यथा-गुणाः पर्यायाच, तत्र सहवर्जिनो गुणाः शुक्लत्वादयः, क्रमवर्जिनः पर्यायाः नवपुराणादयः, तत्र | गुणा: स्थूला पर्यायास्तु सूक्ष्माः, यथा २ च सूक्ष्म वस्तु तथा २ उपयोगस्य स्तोककालता, द्रव्यगुणपर्यायाश्च यथोत्तरं सूक्ष्मास्ततो गुणेष्वष्टौ समयान यावदुपयोगस्यावस्थानं, पर्यायेषु तु सप्त समयानिति, उप-"दवे तत्थेव गुणा, संचरओ सच वह वा समया । अण्णे पुण अटूठ गुणे भणंति तप्पजवे सत्त ॥४॥जह जह मुहुर्म वत्थु तह तह थोवोवओगया। land jainitiorary.org. ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [५८,५९], भाष्यं H. विभा गाथा [७२२-७२३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक * * ॐ* * दीप अनुक्रम होइ । दवगुणपनवेखें तह पत्तेयपि नायवं ॥५॥ (वि.७२५-३)" अथ लब्धिमधिकृत्यावस्थानकालमानमाह अद्धाऍ अवठ्ठाणं, छावर्हि सागरा उ कालेणं । उक्कोसगं तु एयं, एक्को समओ जहनेणं ॥५॥ इह अद्धा नामावधिज्ञानावरणक्षयोपशमरूपा लन्धिरभिप्रेता, ततो अद्धाया-लब्धेः कालेन-कालतोऽवधेरवस्थानं, तत्रान्यत्र वा क्षेत्रे तेष्वन्येषु वा द्रव्यादिषूपयुक्तस्यानुपयुक्तस्य वा भवति षट्पष्टिसागरोपमाणि, तुशब्दस्य विशेषणार्थवान्मनागधिकानि, उक्कं च-“सा सागरोचमाई, छावढि होज साइरेगाई। विजयाइसु दो वारे गयस्स नरजम्मणा समयं ॥७॥" (वि.७२५) उपसंहारमाह-'उक्कोसग मित्यादि, कालतोऽवस्थानमिदमाधारादिषु उत्कर्षतः प्रतिपादितमवसातव्यम् । जघन्येन-जघन्यतः पुनरुपयोगलब्धी अङ्गीकृत्यावस्थानं द्रव्यादावप्येकः समयः, तत्र नरतिरश्चां समयादूर्ध्वमवधेः प्रतिपाताद्नुपयोगाद्वा एकसमयावस्थानता विज्ञेया, देवनारकाणां तु येषां भवस्य चरमसमये सम्यक्त्वलाभाद्विभङ्गज्ञानमवधिज्ञानरूपतया परिणमति ततः परं च मृतानां तदवधिज्ञानं प्रच्यवते तेषामवसातव्यम् । तदेवमुक्तमवस्थितद्वारम् ४ । अधुना चलद्वारमभिषित्सुराहबुड्ढी चा हाणी वा, चउबिहा होइ खेत्त-कालाणं । दवेसु होइ दुविहा, छविह पुण पखवे होइ ॥१९॥ चलद्वारमिदमुच्यते, चलश्वावधिद्रव्यादिविषयमङ्गीकृत्य वर्द्धमानको हीयमानको वा भवति, वृद्धिहानी च प्रत्येक सामान्येनागमे पडि प्रोके, तद्यथा-अनन्तभागवृद्धिः १ असङ्ग्यातभागवृद्धिः २ सङ्ख्यातभागवृद्धिः ३ सङ्ग्यातगुणवृद्धिः *४ असमातगुणवृद्धिः ५अनन्तगुणवृद्धिः६ तथा अनन्तभागहानिः१ असश्चातभागहानिः २ सङ्ख्यातभागहानिः ३ सया SCACACANCE % 44 andur For Farm aintiorary.org. ~156 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [५८,५९], भाष्यं H. विभा गाथा ७३०-७३२], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H दीप भाव.मल.|| तगुणहानिः ४ असवातगुणहानिः ५ अनन्तगुणहानिः ६, एतयोश्च पविधवृद्धिहान्योर्मध्यादवधिविषयभूतक्षेत्रकालयो-जालन्ध्यकउपोदाते | राद्यतभेदद्वयवर्जिता चतुर्विधा वृद्धिहनिर्वा भवति, अनन्तभागवृद्धिरनन्तगुणवृद्धि तथा अनन्तभागहानिरनन्तगुण-1 स्थानं . अवधौ । हानिर्वा क्षेत्रकालयोर्न सम्भवति, अवधिविषयभूतक्षेत्रकालयोरानन्त्याभावात् , इयमत्र भावना-यावत् क्षेत्रं प्रथममवधिना व्यादिव प्रवर्द्धमानाख्येन दृष्टं ततः प्रतिसमयं स प्रवर्द्धमानोऽवधिः कश्चिदसझ्यातभागवृद्धं पश्यति कोऽपि सङ्ख्यातभागवृद्धं कोऽपिशादिवों सङ्ख्यातगुणवृद्धमपरोऽसङ्ख्यातगुणवृद्ध, तथा यावत् क्षेत्रं प्रथममवधिना हीयमानेन दृष्टं ततः प्रतिसमयमसङ्ख्यातभा- गा.५८-९ गहीनं कश्चित्पश्यति कश्चित्सङ्ख्यातभागहीन कोऽपि सङ्ग्यातगुणहीनमन्योऽसङ्ख्यातगुणहीनं, एवं क्षेत्रस्य वृद्धिोनिर्वा चतुर्विधा भवति, इत्थं कालेऽपि वृद्धिहान्योश्चातुर्विध्य भावनीयम्, द्रव्येषु पुनरवधिविषयभूतेषु द्विविधा वृद्धिर्हानिर्वा भवति, तथाहि-यावन्ति द्रव्याणि प्रथममवधिना दृष्टानि ततः परं कोऽपि तेभ्योऽनन्तभागाधिकानि पश्यति, अपरस्तु, नातेभ्योऽनन्तगुणवृद्धानि, नत्वसङ्ग्यातभागादिना वृद्धानि, तथास्वाभाव्यात्, तथा ततः परं कोऽपि पूर्वोपलब्धेभ्योऽनन्त४ भागहीनानि द्रव्याणि पश्यति, अपरस्त्वनन्तगुणहीनानि, नत्वसमातभागादिना हीनानि, तथास्वाभाव्यादेव, पर्यायेषु । त पुनः पूर्वोक्का षड्विधाऽपि वृद्धिर्हानिर्वा भवति, उक्कं च-"पइसमयमसंखिजइभागहियं कोई संखभागहियं । अन्नो । संखेजगुणं खित्तमसंखिजगुणमण्णो ॥ २॥ पेच्छइ विवडमाणं, हायंतं वा तहेव कालंमि । नाणंतवुद्धि-हाणी पेच्छा ॥१॥ ४ दोऽवि नाणंते ॥३॥दधमणंतसहियं अर्णतगुणवुहियं च पेच्छेजा। हायंत वा भावम्मि, छविहा बुहि-हाणीओ" ॥ है (वि.७३०-२) एतेषां च द्रव्यक्षेत्रकालभावानां परस्परं संयोगे चिन्त्यमाने एकस्य वृद्धावेवापरस्य वृद्धिः, नत्वेकस्य हाना अनुक्रम H JanEducation froornational wwimjainitiorary.org. ~157 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं . नियुक्ति: [६०,६१], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [७३३], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ACCASEACHES दीप अनुक्रम वन्यस्य वृद्धिा, तथा एकस्य हानावेवापरस्य हानिा, नत्वेकस्य वृद्धावपरस्य हानि:, अन्यश्च-एकस्य द्रव्यादेर्भागेन वृद्धी हानौ वा जायमानायामपरस्यापि प्रायो भागेनैव वृद्धिहानी, न तु गुणकारेण, गुणकारेणाप्येकस्य गुणवृद्धिहान्योः प्रवर्त्तमानदायोरपरस्यापि प्रायो गुणकारेणैव ते प्रवते, न तु भागेन, यत उक्त-"बुड्ढीए चिय वुड्ढी, हाणी हाणी' न उ विवजासो। || भागे भागो गुणणे, गुणो य दवाइसंजोए" ॥५॥ (वि.७३३) आइ-ननु क्षेत्रस्थासङ्ख्येयभागादिवृद्धौ तदाधेयद्रव्याणामपि तन्निबन्धनत्वादसोयभागादिवृद्धिः प्रामोतीति, तथा द्रव्यस्यानन्तभागादिवृद्धौ सत्यां तत्पर्यायाणामप्यनम्तभागादिवृद्धिरेव प्राप्नोति, न पटूस्थानक, पर्यायाणां द्रव्यनिबन्धनत्वाद्, उच्यते, इह यद्यपि नाम स्वरूपेण क्षेत्रानुवर्तिनः पुद्गलाः पुद्गलानुवर्तिनश्च पर्यायास्तथापि यदा क्षेत्रानुवृत्त्या पुद्गलाः परिसङ्ख्यायन्ते पुद्गलानुवृत्त्या च तत्पर्यायास्तदा |क्षेत्रस्यासोयादिभागवृद्धिहान्योर्द्रव्यस्यापि तदनुवृत्त्या तथैव वृद्धिहानी प्रामुतो, द्रव्यस्यापि चानन्तभागादिवृद्धिहान्योस्तत्पर्यायाणामपि तदनुवृत्या तथैव वृद्धिहानी, यदा तु स्वक्षेत्रादनन्तगुणाः पुद्गलाः पुद्गलेभ्योऽपि तत्पर्याया अनन्तगुणाः, अवधिश्च क्षयोपशमाधीनः, क्षयोपशमश्च तत्चद्व्यादिसामग्रीवशाद्विचित्रपरिणामः, केवलतेजसा च भगवतैवस्वरूप एषोपलब्धस्तदा यथोक्तस्वरूपे एव वृद्धिहानी प्रतिपत्तव्ये ५।नान्यथेति न कश्चिदोषः, उक्त चलद्वारमिदानीं तीजमन्दद्वारमभिधित्सुराह फडाय असंखेजा, संखेजे यावि एगजीवस्स । एगप्फड्डुवओगे, नियमा सवत्थ पवउत्तो ॥६॥ फडाय आणुगामी, अणाणुगामी य मीसया व । पडिवाइ अपडिवाई, मीसा य मणुस्सतेरिच्छे ॥६॥ 4%95 1 tan Education inarnational wwimwaintiorary.org. ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६०, ६१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आव. मल. ॥ ७२ ॥ स्पर्द्धकारण प्रागुकस्वरूपाणि तानि चैकजीवस्य सत्येयान्यसत्रेयान्यपि भवन्ति, तत्र एकस्पर्द्धकोपयोगे सति नियमात् उपोद्घाते सर्वत्र सर्वेषु स्पर्द्धकेषूपयुक्तो भवति, एकोपयोगत्वाज्जीवस्य, एकलोचनोपयोगे द्वितीयलोचनोपयुक्तवत्, द्वितीयगाथाअवधौ १ व्याख्या - एतानि च स्पर्द्धकानि विविधानि भवन्ति, तद्यथा अनुगमनशीलान्यानुगामिकानि-यत्र प्रदेशे तिष्ठतोऽवधि | मतो जीवस्योत्पन्नानि ततोऽन्यत्रापि प्रजतस्तस्यानुयायीनीति भावः, एतद्विपरीतानि अनानुगामिकानि, आनुगामिकानानुगामिकरूपो भयस्वरूपाणि मिश्राणि कानिचिदेशान्तरानुयायीनि कानिचिनेति भावः, एतानि च पुनः प्रत्येकं त्रिधा ४ भवन्ति, तद्यथा - प्रतिपतनशीलानि प्रतिपातीनि कियन्तमपि कालं स्थित्वा ततो ध्वंसगमनस्वभावानीति भावः तद्विपरीतान्यप्रतिपातीनि, आमरणांत भावीनीत्यर्थः, प्रतिपाताप्रतिपातस्वभावानि मिश्राणि कानिचित् प्रतिपातीनि कानिचिनेत्यर्थः एतानि च स्पर्द्धकानि मनुष्यतिर्यक्षु योऽवधिस्तस्मिन्नेव भवन्ति, न देवनारकावधी, पर आह-ननु तीव्रमन्दद्वारे प्रस्तुते स्पर्द्धकावधिस्वरूपं प्रतिपादयतः कथं न प्रक्रमविरोधः, उच्यते, इह प्राय आनुगामिकाप्रतिपातीनि स्पर्द्धकानि तीव्रविशुद्धियुक्तत्वात् तीत्राणि भण्यन्ते, अनानुगामिप्रतिपातीनि त्वविशुद्धत्वान्मन्दानि, मिश्राणि मध्यमानि ततस्तीत्रमन्दद्वारमित्यदोषः, अपरस्त्वाह-आनुगामिकाप्रतिपातिस्पर्द्धकयोः परस्परं कः प्रतिविशेषः ? को वा अनानुगामिकप्रतिपातिस्पर्द्धकयोः, उच्यते-अत्राप्रतिपातिस्पर्द्धक मानुगामिकमेव भवति, आनुगामिकं तु प्रतिपात्यप्रतिपाति चेति विशेषः, तथा प्रतिपाति प्रतिपतत्येव पतितमपि च देशान्तरे गतस्य कदाचिज्जायते, न चेत्थमनानुगामिकमित्यनानुगामिकप्रतिपातिनोर्विशेषः, उतं तीव्रमन्दद्वारम् ६ । इदानीं प्रतिपातोत्पातद्वारं विवृण्वन् गाथाद्वयमाह For Pitate & Personal Use Only ~ 159~ तीत्रमन्दे स्पर्धकान गा. ६०-१ ॥ ७२ ॥ wjainslibrary.org Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] - १३ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [६२, ६३ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः बाहिरलं मे भो, दबे खेत्ते य काल - भावे य । उप्पा - परिवाओऽवि य तदुभयं वेगसमएणं ॥ ६२ ॥ अमितरबद्वीप, तदुभयं नत्थि एगसमएणं । उप्पा पडिवाओऽविय, एगयरो एगसमएणं ॥ ६३ ॥ द्रवमितो योऽवस्तिस्यैव एकस्यां दिशि भवति स ब्राह्मावधिरथवा अनेकास्वपि दिक्षु यः स्पर्द्धकावधिरन्योऽन्यं विच्छिन्नो भवति सोऽपि बाह्यावधिः । स्थापना । अथवा सर्वतः परिमण्डलाकारोऽप्यवधिर्योऽवधिमतो जीवस्य बकुलमानादिना क्षेत्रव्यवधानेन सर्वतोऽसम्बद्धः सोऽपि बाह्यावधिः, तथा चात्रार्थे चूणिः- “बाहिरलंभो नाम जत्थ से ठिक्स्स ओहिनाणं समुप्पन्नं तम्मि ठाणे सो ओहिनाणी न किंचि पासइ, तं पुण ठाणं जाहे अंतरियं होइ, तंजहा - अंगुलेण वा अंगुरपुहुत्तेण वा विहत्यीए वा विहत्यिपुहुचेण वा एवं जाव संखेज्जेहि वा असंखेज्जेहि वा जोयणेहिं, ताहे पास, एस बाहिरलंभो भण्णइ, स्थापना ० तस्य एवंविधस्य 'बाह्यस्य' बाह्यावर्ला- प्राप्तौ सत्यां 'भाग्यो' विकल्पनीयः, कोऽसावित्याह-उत्पाद' उत्पत्तिः, 'प्रतिपातो' ध्वंसः, 'तदुभयं च' उत्पादप्रतिपातरूपं उभयं च एकसमयेन, कस्मिन् विषये इत्याह- द्रव्ये क्षेत्रे काले मावे च, इह गायायामपिशब्दचशब्दाः यथायोगं पूरणसमुच्चयार्थाः, एकस्मिन् समये द्रव्यादौ विषवे वयोधरूपख ब्राह्मावधेः कदाचिदुत्पादो भवति कदाचिद् व्ययः कदाचिदुभयम् । उत्पादप्रतिपादयोः परस्परविरुद्धत्वात्कथमुभयमेकसमयेनेति चेत्, न एष दोषः, विभागेन भावात् तथा चात्र दावानलदृष्टान्तः, तथाहि - दावानलः | सत्वेककाल एव एकतो दीप्यते अन्यतश्च ध्वंसते, तथा अवधिरप्येकदेशे जायते अन्यत्र प्रच्यवते, उक्तं च- “उप्पाओ परिवाओ उमयं वा होज एगसमएणं । कहमुभवमेगसमए, विभागओ तं न संबस्स ॥ १ ॥ दावानलो व कत्थइ, For Pitate & Personal Use Only 160~ wjainslibrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [६४], भाष्यं H, विभा गाथा [७५०,७५१,७५४], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H भाव.मल. सपोदाते अवधौ दीप अनुक्रम लग्गा विझाइ समयमलचो । तह कोइ ओहिदेसो से जायइ नासए बिइओ॥२॥" (वि.७५०-१) द्वितीयगाथाब्याख्या व्याख्या- उत्पाद इह द्रष्र्यः सर्वतः सम्बद्धःप्रदीपस्य प्रभानिकरवत् सोऽभ्यन्तरावधिस्तस्य-अभ्यन्तरस्याभ्यन्तरावधेर्लन्धिरम्यन्तरलम्धि- पातौ गा, स्तस्यां सत्या, अभ्यन्तरावधिप्राप्तावित्यर्थः, उक्तं च चूर्णो-"तत्थ अभंतरलद्धी नाम जत्थ से ठियस्स ओहिनाणं समुप्पण्णं 31 ६२-३ तस्थ ठाणातो आरम्भ ओहिनाणी निरंतर संवद्धं संखेजमसंखेज वा खेतं ओहिणा जाणइ पासइ, एस अम्भितरलद्धिति"द तदुभयम्-उत्पादप्रतिपातरूपमुभयं नास्ति एकसमयेन, द्रव्यादी विषये इत्यनुवर्तते, किं तर्हि?, उत्पादः प्रतिपातो वा एकतर एव एकसमयेन, अपिशब्द एवकारार्थः, स च भिन्नक्रमस्तथैव च योजितः, अयमिह भावार्थ:-प्रदीपस्येवोत्पाद एव वा टू प्रतिपात एव वा एकसमयेनाभ्यन्तरावधेरुपजायते, न तूभयमदेशावधित्वात् , न ह्येकस्य एकपर्यायोत्पादव्ययौ युगप-16 द्रवितुमर्हतः, परस्पर विरोधात्, आह च-"उप्पाओ विगमो वा, दीवस्स व तस्स नोभयं समयं । न भवण-नासा समयं वत्थुस्स जमेगधम्मेणं ॥१॥" (वि. ७५४) उकं प्रतिपातोत्पादद्वारम् । सम्पति यदुक्तं-"संखेज मणोदवे भागो 8 लोगपलियस्स' इत्यादि, तत्र किल द्रव्यादित्रयस्य परस्परोपनिबन्ध उक्ता, इदानी प्रसङ्गत एवोत्पादप्रतिपाताधिकारे द्रव्यपर्याययोः परस्परमुपनिवन्ध प्रतिपादयन्नाह दवाओ असंखेजे, संखेने यावि पज्जवे लहइ। दो पजवे दुगुणिए, लहह य एगाउ दवाओ॥१४॥ परमाण्वादि द्रव्यमेकं पश्यावधिज्ञानी द्रव्यात् सकाशात् तत्सर्यायानुत्कर्षतोऽसावेयान् सझेयांश्चापि मध्यमतो 'लभते' प्रायोति, पश्यतीति तात्पर्या, जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणिती एकस्माट्रव्यालभते, किमुकं भवतिी-सामा KI७३॥ Jan Educmon Internations ~1614 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [६५], भाष्यं H, वि०भा०गाथा , मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम न्यतो वर्णगन्धरसस्पर्शलक्षणांश्चतुरः पर्यायानेकस्मिन् द्रव्ये पश्यति, न त्वेकगुणकालादीन बहूनिति, उक्त प-"गं||| द्र दवं पेच्छ, खंघमणुं वा स पज्जवे तस्स । उकोसमसंखिजे, संखिजे पेच्छई कोई ॥ १॥दो पजवे दुगुणिए, सबजहण्णेण पेच्छए ते य । वण्णाइया व चउरो नाणंते पेच्छइ कयाइ ॥२॥" (वि.७६१-२) अनम्तांश्च पर्यायानुत्कर्षतोऽपि न प्रेक्षते एकभाद्रव्यगतान् , अनन्तेषु द्रव्येषु समुदितेष्वनन्तांस्तान् पश्यत्येव, यत उक्तं नन्द्यध्ययने-"भावतोणं ओहिणाणी अणते भावे जाणइ पासई" इत्यादि ।गतं सप्रसङ्ग उत्पादप्रतिपातद्वारम्, इदानी ज्ञानदर्शनविभङ्गलक्षणं द्वारत्रय युगपदभिधित्सुराह सागारमणागारा, ओहि-विभंगा जहएणया तुल्ला । उवरिमगेवेजेसु(उ) परेण ओही असंखेजो ॥६५॥ इह योऽवधिर्विशेषग्राहकः स साकारः, सच सम्यग्दृष्टेः ज्ञानमित्यभिधीयते, स एव मिथ्यादृष्टेविभङ्गा, यः पुनः सामान्यप्राहकोऽवधिः विभङ्गो वा सोऽनाकारः, स च दर्शनं, तत्र साकारानाकाराववधिविभङ्गो जघन्यकादारभ्य तुल्यौद लोकपुरुषग्रीवाभवानि अवेयकानि उपरिमाणि च तानि अवेयकाणि च उपरिमप्रैवेयकाणि तेषु यावत् , तुशब्दो विशेष णार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-नारकभवनपतिदेवेभ्य आरम्य तिर्यमनुष्यवर्जमुपरिवेयकेषु यावत् साकारानाकाराववधि|विभङ्गौ क्षेत्रकालविषयावधिमधिकृत्य जघन्यादारभ्य तुल्यस्थितिकत्वेन तुल्याविति, इयमत्र भावना-नारका भवनपत्यादयश्च उपरितनौवेयकविमानवासिपर्यन्ता देवा ये ये जघन्यतुल्यस्थितयो मध्यमतुल्यस्थितयो उत्कृष्टतुल्यस्थितयो वा तेषां तेषामवधिविभङ्गज्ञानदर्शने क्षेत्रकालरूपी विषयावधिकृत्य परस्परतस्तुल्ये, न तु द्रव्यभावविषयौ तावङ्गीकृत्य, तुल्यस्थितिकानामपि सम्यग्दर्शनं विशुद्धतपःकर्मादिकं च प्राग्भवगतं कारणं प्रतीत्यातिदरं तल्यत्वाभावात. 'परेण - an Educa t ion wwwjainitiorary.org. ~1624 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आ. मठ, पोदा अवघी ॥७४ “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [H], निर्युक्तिः [ ६६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ओही असंखेजों' इति त्रैवेयकविमाने वस्तु परतोऽनुत्तर विमानेष्ववधिः, ज्ञानदर्शनरूपोऽवधिरेव भवति, न तु विभङ्गज्ञानं, मिथ्यादृष्टीनां तत्रोपपाताभावात्, स च क्षेत्रतः कालतश्वासङ्ख्यो भवति, असङ्ख्यातक्षेत्र कालविषयो भवतीति भात्रः, द्रव्यभावैस्त्वनन्दविषयः, इह तिर्यज्यनुष्याणां तुल्यस्थितीनामपि क्षयोपशमतीव्रमन्दतादिकारणवैचित्र्यात् क्षेत्रकाल-विषययोरप्यवधिविभङ्गज्ञानदर्शनयोर्विचित्रता, न पुनस्तुल्यतैवैतीह तद्वर्जनं । मतं ज्ञानदर्शनविभङ्गरूपं द्वारत्रयम् । अधुना देशद्वारमभिषित्सुरिदमाह नेरहयदेवतित्वं करा य ओहिस्सऽमाहिरा होंति । पासंति सबओ खलु सेसा देसेण पासति ॥ ६६ ॥ नैरविकाञ्च देवाञ्च तीर्थकराश्य नैरविकदेवतीर्थकराः, तीर्थंकरा इत्यत्र 'तीर्थात्वेके' इति वचनात् खप्रत्यये तीर्थशन्दस्य मम्, धशब्दोऽवधारणेऽस्य च व्यवहितः प्रयोगः, तं च दर्शयिष्यामः, अवधेः- अवधिज्ञानस्याबाह्या एव, बाह्या न कदाचनापि मवन्तीत्यर्थः सर्वतोऽवभासकावध्युपलब्धक्षेत्रमध्यवर्त्तिनः सदैव भवन्तीति भावना, उक्तं च-- “ ओहिणामनसे सम्भंवरगा होंति नारयाईया । सबदियोऽवहिविसओ तेसिं दीवप्यभोवम्मो || १ || ” (वि. ७६७) तथा पश्यन्ति सर्वतःसर्वासु दिक्षु विदिषु च खनुशब्दोऽवधारणार्थः सर्वाखेव दिग्विदिविति, आह-अवघेरवाह्या भवन्तीत्यस्मादेव सर्वत इत्वस्य अन्यत्वात् सर्वतःशब्दग्रहणमतिरिच्यते, नातिरिच्यते, अभ्यन्तरत्वाभिधानेऽपि सर्वतो दर्शनाप्रतीतेः, न खल्ववमेरम्यन्तरत्वेऽपि सति सर्वे सर्वतः पश्यन्ति, कस्वचिद्दिगन्तरालादर्शनात्, विचित्रत्वादवधेः, ततः सर्वतो दर्शनख्यापनायें 'पाति सघतो खड़' इत्युक्तम्, आह च माष्यकृत् - "अम्मिंतरत्ति भणिए, भण्णइ पासंति सबओ कीस १ । For Pitate & Personal Use Only 163~ पर्यायसाबारादि. अत्राद्यवि. धिः ६४-६ ॥ ७४ ॥ www.jinslibrary.org Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ६७ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [७६८, ७७१], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ओयइ जमसंतयदिसो अंतोऽवि ठिओ न सबतो ॥१॥” (वि. ७६८) शेषास्तिर्यङ्नरा देशेन एकदेशेन पश्यन्ति, 'सर्व वाक्यं सावधारणमिष्टितश्चावधारणविधि' रिति एवमवधारणीयः- शेषा एव देशतः पश्यन्ति, नतु शेषा देशतः एव, तिर्यङ्गनराणां | देशतः सर्वतश्च यथायोगमवधिना दर्शनात् उक्तं च- "सेसे च्चिय देसेणं, न उ देसेणेव सेसया किं तु । देसेण सबओ - वि य पच्छंति नरा तिरिक्खा य ॥१॥ (वि.७७१) अथवाऽन्यथा व्याख्यायते - नैरयिकदेवतीर्थङ्करा एवावधेरबाह्या भवन्ति, किमुक्तं भवति:- नियतावधयो भवन्ति, नियमेनैषामवधिर्भवतीति भावः एवं चाभिहिते सति संशयः- किं ते देशेन पश्यन्ति उत सर्वतः, ततः संशयापनोदार्थमाह- पश्यन्ति सर्वतः खलु सर्वत एव तेनावधिना नैरयिकादयो, नतु देशतः, अत्र पर आह- ननु पश्यन्ति सर्वतः खल्वित्येतावदेव स्तामवधेरवाद्या भवन्तीत्येतन्न युक्तं यतो नियतावधित्वप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते, नियतावधित्वं च देवनारकाणां 'दोन्हं भवपञ्चइयं, तंजहा- देवाणं नेरइयाणं चेति वचनसामर्थ्यात्सिद्धं, तीर्थकृतां तु पारभवि कावधिसमन्वागमस्यातिप्रसिद्धत्वात् उच्यते-इह यद्यपि 'दोन्हं भवपचयं' इत्यादिवचनतो नैरयिकादीनां नियतावधित्वं लब्धं, तथापि सर्वकालं तेषां नियतोऽवधिरिति न लभ्यते, ततः सर्वकालं नियतावधित्वख्यापनार्थमवधेरवाह्या भवन्तीत्युक्तम्, आह् — यद्येवं तीर्थकृतामवधेः सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यते, न, छद्मस्थकालस्यैव तेषां विवक्षणात् शेषं प्राग्वत् ॥ गतं देशद्वारम् । इदानीं क्षेत्रद्वारं विवरीषुराह संखेज्जमसखेलो, पुरिसमबाहाए खेप्तओ ओही । संबद्धमसंबद्धो लोगमलोगे य संबद्धो ॥ ६७ ॥ इह कश्चित् क्षेत्रतोऽवरिवधिमति जीवे प्रदीपे प्रभापटलमित्र सम्बद्धो-लग्नो भवति, जीवावष्टन्धक्षेत्रादारभ्य निर For Pitate & Personal Use Only ~164~ ainslibrary.org Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [६७], भाष्यं H, वि०भा०गाथा , मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आव.मल. स्पोद्धाते अवधी संबद्धासंबद्धौ गा. सूत्रांक ॥७५॥ दीप न्तरं द्रष्टव्यं वस्तु प्रकाशवतीति भावः, कश्चित्पुनरतिविप्रकृष्टं तमोव्याकुलमन्तरालवत्तिनं प्रदेशमुल्लच दूरस्थित- मित्त्यादिप्रतिस्फलितप्रदीपप्रभेवासम्बद्धो जीवे भवति, कया हेतुभूतया असम्बद्ध इत्याह-'पुरिसमबाधाए' इति मकारो- |ऽलाक्षणिकः, पूर्यते सुखदुःखाम्यामिति पुरुषः, अबाधनमवाधा, अपान्तरालमित्यर्थः, आह च-'अबाहा नाम पुरिसस्स ओहीए य जं अंतरं सा अबाहा भण्णई' इति, पुरुषादबाधा पुरुषाबाधा तया हेतुभूतया असम्बद्धः। स च सम्बद्धोसम्बद्धश्चावधिः क्षेत्रतः कियान् भवतीत्यत आह-संखेजमसंखेजों' अत्रापि मकारोऽलाक्षणिकः, सङ्ख्येयः असवेयश्च योजनापेक्षया भवति, किमुकं भवति:-असम्बद्धोऽप्यवधिः क्षेत्रतः सङ्ख्येयानि वा योजनानि भवत्यसोयानि वा, एवं सम्बद्धोऽपि, किं केवल एव सम्बद्धो असम्बद्धो वाऽवधिः सङ्ख्येयोऽसयेयो वा योजनापेक्षया भवति', नेत्याह-पुरुषाबाधया | इदं पदं द्वितीयवारमावर्चितम् , नवरं अस्मिन् वारे सहार्थे तृतीया पुरुषावाधया सोयोऽसङ्ख्येयो वा भवतीति, इदमुक्त भवति-पुरुषस्यावधेश्चापान्तरालमपि सङ्ख्येयान्यसङ्ख्येयानि वा योजनानि भवतीति, आह चूर्णिकृत्-"जोवि असंबद्धो सोवि संखिजाणि असंखिज्जाणि वा जोयणाणि अंतरे किच्चा ततो परेण पासइ, आरेण न पासई" इति, सा च पुरुषाबाधा असम्बद्ध एवावधौ भवति, नतु सम्बद्धे, तन्त्र सम्बद्धत्वेनैव तदसम्भवादिह त्वसम्बद्धेऽवधौ अपान्तराले च चतुर्भङ्गिका-सङ्ख्येयमन्तरं सङ्ख्येयोऽवधिः १ सङ्ख्येयमन्तरमसङ्ख्येयोऽवधिः २, असङ्गवेयमन्तरं सधेयोऽवधिः ३ असोयमन्तरं असोयोऽवधिः ४, सम्बद्धे स्ववधौ विकल्पाभावः, तदुत्थानहेतोरन्तरलक्षणस्य द्वितीयपदस्य तत्राभावात् , तथाऽयमवधिलोकेऽलोके च सम्बद्धोऽपि भवति, तथा चाह-'लोगमलोगे य संबद्धों' इह लोकशब्देन लोकान्तः परिगृह्यते, अनुक्रम RSAष्ट्र IDh७५ 1 tan Education inarnational For Farm wwimwaintiorary.org, ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [६८], भाष्यं H. विभागाथा [७७४-७७५], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: PR प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम ESESEXAINA तथा पूर्वपूरिकृतम्याख्यानाद, अत्रापि चतुर्भलिका-पुले सम्बद्धो लोकान्ते, पुरुष सम्बद्धो न डोकान्ते, -- तोऽम्यन्तरावधि:२, न पुरुष सम्वृद्धः किन्तु लोकान्ते, एकदिग्वधी वाद्यावधिः३, शून्योऽयं भङ्ग इति टीकाकारा, बद- सम्बक, पूणों भाष्ये चाप्रतिषेधादसम्भवहेतुत्वाभावाच, तथा न लोकान्ते सम्बद्धो नापि पुरुषे, चायावधिरेव स्वोकदेशवती ४ यस्त्वलोके सम्बद्धः स पुरुषे नियमात् सम्बद्ध एव, अभ्यन्तरावरेवालोकदर्शनसमर्थत्वात्, बाइच भाष्यकृत"संखिजमसंखिजे, देहाओ खित्तमन्तरं का संखेंज्जासंखेज, पेच्छेन तदतरमबाहा" ॥१॥ संबद्धा-संबद्धो, मरलोयतेसु होइ चउम्भंगो। संबद्धो र अलोए, नियमा पुरिसेऽवि संबद्धो ॥२॥"(वि.४७४-५) इति गर्ने क्षेत्रद्वारम् । इदानी गतिद्वार विमणिपुराहगह नेहयाईआ, हेहा जह वणिया तहेव इहं । इही एसा वणिज्जइत्ति तो सेसियाओऽवि ॥१८॥ अत्रेवमवधेयं-श्रीहरिभद्रसूरिपादानां लोकान्तस्यालोकस्य चैक्यतामाश्रित्य यथाऽलोकसंबद्धस्यावधेरवश्यमभ्यन्तरावधिता श्रीमद्विः स्वयमपि स्वीकृता तथा लोकान्तसंबद्धस्याप्यवधेरात्मसंबद्धत्वस्यावश्यंभावः संमतः, अत एव च लोकान्तमलोकान्तं चामिल न पुरुषसंबन्धभवं चतुर्भलिकाद्वयं, एकस्यामेव च चतुर्भनयां 'संबद्धो उ अलोए' इत्यादिभाष्यं 'जो पुण अलोगस्स अप्पमवि पासइ सो पुरिसेण [नियमेण संबद्धों' इति चूर्णिश्च संगतिमाषहति, चतुर्भगिकाद्वयपक्षे तु श्रीमद्वाक्यं भाष्यचूर्णिवाक्याभ्यां मिन्नामिप्रायक, अलोकदर्शकलेवात्मसंबद्धत्वनियमात , पूर्वत्र लोकालोकशब्देन तदन्तपहचतुर्मझी चैका, उत्तरत्र चतुर्भजीद्वयं महश्चान्तस्य विकल्पेन, मिनश्च परस्परं, मर्यादाभावोमयदर्शकत्वादन्तममम, असम्यगित्यादि न मर्यादापशेणैव, निकटप्रान्वनाशाचयक्वाचित्वमन्वशन्दस्पेति कोशकारोक्किापि । andmine watinidhrary.com ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [६८], भाष्यं H, विभा गाथा [७७७-७७८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम आव.मल.. गति रयिकादिका, गतिग्रहणं शेषस्य इन्द्रियादिद्वारकलापस्योपलक्षणं, ततोऽयमों-ये गत्वादयः सत्पदप्ररूपणा-18 गत्यादिउपोद्घाते हेतवो ये च द्रव्यप्रमाणादयोऽष्टी द्वारविशेषास्ते यथा अधस्तान्मतिश्रुतयोवर्णितास्तथैवेहापि द्रष्टव्याः, अयं तु विशेषः- मार्गणाः अवधी ये पूर्व मतिज्ञानस्य प्रतिपत्तारः प्रागुक्तास्तेऽवधिज्ञानस्यापि प्रतिपत्तव्याः, नवरं पूर्व मतिज्ञानस्यावेदका अकषायिणो गा.६८ मनापर्यायज्ञानिनश्च पूर्वप्रतिपन्ना एवोकाः, इह तु प्रतिपद्यमाना अपि द्रष्टव्याः, यतः श्रेणिद्वये वर्तमानानामवेदकानामकपायाणां च केषाश्चिदवधिज्ञानमुत्पद्यते, येषां चानुत्पन्नावधिज्ञानानां मतिश्रुतचारित्रवतां प्रथममेव मनःपर्यायज्ञानमुत्पद्यते ते च मनःपर्यायज्ञानिनः केचित्पञ्चादवधिज्ञानस्य प्रतिपत्तारो भवन्ति, अन्यच्च-अनाहारका अपर्याप्तकाश्च मतिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना एवोकाः, नतु प्रतिपद्यमानकाः, इह तु येऽप्रतिपतितसम्यक्त्वास्तिर्यमनुष्येभ्यो देवनारका सजायन्ते तेऽवधिज्ञानस्य प्रतिपद्यमानका अपि प्रत्तिपत्तव्याः, पूर्वप्रतिपन्नाः पुनर्ये एव मतिज्ञानस्य प्रागुक्तास्त एव द्रष्टव्याः, नवरं द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्चो मुक्त्वा, ते हि सास्वादनसम्यग्दृष्टयो मतिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना उक्का, अवधेस्तु न प्रतिपद्यमानका नापि पूर्वप्रतिपन्ना इति, शेषं तथैव, उक्तं च-"जे पडिवज्बंति मई, तेऽवहिनाणंपि समहिआ अण्णे । बेयकसायाईआ, मणपजवनाणिणो चेव ॥१॥ सम्मा सुरनेरइयाऽणाहारा जेय हॉति पज्जचा ते चिय पुषपवण्णा, वियलाऽसण्णी य मोत्तूर्ण ॥रा(७७७-८) एतदेव विनेयजनानुग्रहाय सविस्तरं भाव्यते, तत्रैवं सत्पदप्ररू N ७६॥ पणावतारः कोऽपि शिष्यः कश्चिदाचार्य पृच्छति, भगवन् ! अवधिज्ञानं किमस्ति । नास्ति ? इति, आचार्य आह-नियमादस्ति, है। यद्यपि अस्ति तथापि कथमवगन्तव्यम् ?, आचार्य आह-त्यादिभिर्मार्गणास्थानः, तानि चामूनि 'गइ इंदिए यमाहा 'भास कर landi Jainitiorary.org ~167 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [६८], भाष्यं , विभा गाथा [४०९-४१०], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक _ 4- दीप अनुक्रम गपरिच'गाहा, (वि.४०९-१०) तत्र गतिद्वारे चतुर्विधायामपि गती अवधिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्य-15 मानकास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, इन्द्रियद्वारे एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु न पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानकाः, पञ्चेन्द्रियेषु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्या, कायद्वारे पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिषूभयाभावः, बसकाये| पश्चेन्द्रियवत्, योगद्वारे त्रिषु योगेषु समुदितेषु पञ्चेन्द्रियवत्, मनोरहितवाग्योगिषु केवलकाययोगेषु चोभयाभावः, वेदद्वारे | त्रिष्वपि वेदेषु पञ्चेन्द्रियवत्, अवेदकेषु उभयमपि भाव्यम् , एवं कषायद्वारेऽपि, लेश्याद्वारे उपरितनीषु तिसषु लेश्यासु पञ्चेन्द्रियवत् , आद्यासु तिसृषु पूर्वप्रतिपन्नाः सन्ति, नवितरे, सम्यक्त्वद्वारे निश्चयव्यवहाराम्यां विचारः, तत्र व्यवहार नवमतेन मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिश्चावधिज्ञानस्य प्रतिपत्ता, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सम्यग्दृष्टिरेव, निश्चयनयमतेन प्रतिपद्यमानका है पूर्वप्रतिपन्नश्चावधिज्ञानस्य सम्यग्दृष्टिरेवेति, ज्ञानद्वारे व्यवहारनयमतेन ज्ञानी वा प्रतिपद्यमानको भवत्यज्ञानी वा, यदि ज्ञानी तत आमिनिबोषिकज्ञानी श्रुतज्ञानी मनःपर्यायज्ञानी, अज्ञानी मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी विभङ्गज्ञानी वा, पूर्वप्रतिपक्षाः पुनििनन एव, तेच मतिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यायज्ञानिनश्च, केवलज्ञानी पुनरवधिज्ञानस्य न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानका समूलधात देशज्ञानघाते केवलज्ञानसम्भवात्, निश्चयनयमतेन प्रतिपद्यमानकाः पूर्वप्रतिपन्नाश्च नियमतो ज्ञानिन एव, तत्र मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानका अपि सम्भवंति, केवलज्ञानिनामुभयाभावः, देशज्ञानानां व्यवच्छेदे केवलज्ञानसद्भावात् , मत्याद्यज्ञानवन्तस्तु न पूर्वप्रपतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानकाः, प्रतिपतिक्रियाकाले मत्यादिज्ञानभावाद, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरैक्यात् , दर्शनद्वारे NCR __ an Education For Farm ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं []-], निर्युक्तिः [ ६८ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अवधौ ॥ ७७ ॥ आव. म. ४ चक्षुर्दर्शनी अचक्षुर्दर्शनी अवधिदर्शनी च लब्धिमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः प्राप्यन्ते, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्याः, उपोद्घाते | उपयोगं प्रतीत्य पूर्वप्रतिपन्ना एव, नतु प्रतिपद्यमानकाः, अवधिज्ञानस्य लब्धित्वालब्ध्युत्पत्तेश्च दर्शनोपयोगे निषिद्धत्वात्, | केवलदर्शनी न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानको, देशदर्शन व्यवच्छेदेन केवलदर्शनभावात् संयतद्वारे संयता असंयताः || संयतासंयताः अवधिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रपद्यमानकास्तु भाज्याः, उपयोगद्वारे साकारोपयोगे पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, अनाकारोपयोगे तु पूर्वप्रतिपन्ना एव, न तु प्रतिपद्यमानकाः, अनाकारोपयोगे सम्भ्युत्पत्तेरभावात्, आहारकद्वारे आहारकाः पूर्वप्रतिपन्नाः नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमान का विवक्षितकाले भाज्याः, अनाहारका श्चापान्तरालगतौ पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमान काश्च विवक्षितकाले सम्भवन्ति, प्रतिपतितसम्यक्त्वानां तिर्यमनुष्येभ्यो देवनारकत्वेनोत्पद्यमानानामवधिज्ञानस्य प्रतिपतेरपि सम्भवात्, भाषकपरीत्तद्वारे प्राग्वत्, पर्याप्तद्वारे बहिः पर्याप्तिभिर्ये पर्याप्तास्ते पूर्वप्रतिपन्नाः नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानका विवक्षितकाले भाज्याः, अपर्याटका अपि षट्पर्यात्यपेक्षया करणापर्याष्ठास्ते पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाश्च सम्भवन्ति, सूक्ष्मादीनि द्वाराणि * द्रव्यप्रमाणादीनि च प्राग्वत्, उक्तमवधिज्ञानं तच्चतुर्द्धा तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च तत्र द्रव्यतोऽवधिज्ञानी जघन्यतोऽनन्तानि रूपिद्रव्याणि, उत्कर्षतः सर्वाण्यपि (रूपि) द्रव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्यतोऽङ्गुलस्यासमेयभागं उत्कर्षतोऽलोके लोकप्रमाणमात्राणि सङ्ख्यातीतानि खण्डानि, कालतो जघन्येनावलिकाया असयं Jan Education International For Pitate & Personal Use Only ~ 169~ गत्यादिमार्गणाः गा. ६८ ॥ ७७ ॥ wjanlibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [६९,७०], भाष्यं , वि०भा०गाथा H], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत t सूत्रांक A H 4 दीप अनुक्रम भागमत्कर्षतोऽसोया उत्सप्पिण्यवसर्पिणीः, भावतो जघन्येनाप्यनन्तान भावान् सर्वभावानामतन्तभागं जानाति पश्यति, एष चावधिः ऋद्धिविशेषो गीयते, तत ऋद्धिप्रतिपादनावसरात् शेपर्धयोरपि पर्यन्ते, ता एवाह आमोसहि विप्पोसहि, खेलोसही जल्लमोसहि चेव । संभिन्नसोय उजुमह, सबोसहि चैव बोद्धचो॥ ६९॥ चारणआसीविसा केवली य मणनाणिणो य पुषधरा । अरिहंत-चक्कवडी बलदेवा वासुदेवा य ॥७॥ | तत्र आमर्षणमामर्षः, संस्पर्शनमित्यर्थः, स एव औषधिर्यस्यासावामोंषधिः, करादिसंस्पर्शनमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थो, लग्घिलब्धिमतोरभेदोपचारात् साधुरेवामपौषधिलब्धिरित्यर्थः, एवं शेषपदेष्वपि भावना कार्या, 'विप्पोसहि। इति, मूत्रस्य पुरीपस्थ वाऽवयवो विट् उच्यते, अन्ये त्याहुः-विडिति विष्ठा इति प्रश्नवणं ते औषधिर्यस्यासौ तथा, खेल:श्लेष्मा औषधिर्यस्य स तथा, जल्लो-मलः स औषधिर्यस्य स तथा, सुगन्धाश्चैते भवन्ति विडादयस्तल्लब्धिमता, इयमत्र भावना-इहामषाँपधिलब्धिः कस्यापि शरीरैकदेशे समुत्पद्यते, कस्यापि सर्वस्मिन् शरीरे, तेनात्मानं परं वा यदा व्याध्यपगमवुझ्या परामशति तदा तदपगमो भवति, विडादिभिरपि तल्लब्धिमन्तो यदाऽऽत्मानं परं वा रोगापनयनवुझ्या परामृशन्ति तदा तद्रोगापगमः, 'सम्भिन्नसोय इति यः सर्वैरपि शरीरदेशः शृणोति स सम्भिन्नश्रोताः, अथवा श्रोतांसि-18 इन्द्रियाणि सम्भिन्नानि एकैकशः सर्वविषयैर्यस्य स सम्भिन्नश्रोता:-एकतरेणापीन्द्रियेण समस्तापरेन्द्रियगम्यान् विषयान् योऽवगच्छति स सम्भिन्नश्रोता इत्यर्थः, अथवा श्रोतांसि-इन्द्रियाणि सम्भिन्नानि-परस्परत एकरूपतामापन्नानि यस्य । स तथा, प्रोत्रं चक्षुकार्यकारित्वात् चक्षुरूपतामापन, चक्षुरपि प्रोत्र कार्यकारित्वात् तद्पतामापनमित्येवं सम्भिन्नानि % *245 E wwimjainitiorary.org. ... अत्र आमर्षांषधि आदि ऋद्धिनां वर्णनं क्रियते ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ६९, ७०], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ७८३ ], मूलं [- / गाथा-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः यस्य परस्परमिन्द्रियाणि स सम्भिन्नश्रोता इति भावः, अथवा द्वादशयोजनविस्तृतस्य चक्रवर्त्तिकटकस्य युगपत् ब्रुवाणस्य | उपोद्घातचूर्यसङ्घातस्य वा युगपदास्फाल्यमानस्य सम्भिन्नान् लक्षणतो विधानतश्च परस्परतो विभिन्नान् जननिवहसमुत्थान् ॐ शङ्खकाहला भेरी भाणकढकादितूर्यसमुत्थान् वा युगपदेव सुबहून् शब्दान् यः शृणोति स सम्भिन्नश्रोताः, उक्तं च- "जो सुणइ सबतो सुणइ सवविसए व सबसोएहिं । सुणइ बहुए व सद्दे भिन्ने संभिन्नसोओ सो ॥ १ ॥” (वि. ७८३ ) एवं च ॥ ७८ ॥ सम्भिन्नश्रोतृत्वलन्धिरपि तथा ऋज्ची- प्रायो घटादिमात्रग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः- विपुलमतिमनः पर्यायज्ञानापेक्षया किश्चिदविशद्धतरं मनःपर्यायज्ञानमेव, 'सङ्घोसहि' इति सर्व एव विमूत्रकेशनखादयोऽवयवाः सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थत्वादीषधयो यस्यासौ सर्वोषधिः, अथवा सर्वा-आमषषध्यादिका औषधयो यस्य एकस्यापि साधोः स तथा, 'चारण' इति चरण-गमनं तद्विद्यते येषां ते चारणाः, ज्योत्स्नादिभ्योऽण् इति मत्वर्थीयोऽण्प्रत्ययः, तत्र गमनमन्येषामप्यस्ति ततो विशेषणान्यथानुपपत्त्या चरणमिह विशिष्टं गमनमागमनं चाभिगृह्यते, अत एवातिशयने मत्वर्थीयोऽयं, यथा रूपवती कन्येत्यत्र, ततोऽतिशायिगमनागमनलब्धिसम्पन्नाश्वारणाः, ते च द्विभेदाः- जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च तत्र ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनागमनविषयलब्धिसम्पन्नास्ते जङ्घाचारणाः, ये पुनर्विद्यावशतः समुत्पन्नगमनागमनलब्धयस्ते विद्याचारणाः, जङ्घाचारणाश्च रुचकवरद्वीपं यावत् गन्तुं समर्थाः, विद्याचारणा नन्दीश्वरं, तत्र जङ्घाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवस्तत्र रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति, विद्याचारणास्त्वेवमेव, जङ्घाचारणश्च रुचकवरद्वीपं गच्छन् एकेनैवोत्पातेन गच्छति, प्रतिनिवर्त्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दीश्वरमायाति, द्वितीयेन स्वस्थानं, यदि पुनर्मेरुशिखरं जिगमिषुस्तर्हि प्रथमेनैवोत्पातेन पण्ड आव. मल. Jan Education h For Pitate & Personal Use Only ~171~ लब्ध्यधिकारः गा. ६९-७० ॥ ७८ ॥ janslibrary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [६९,७०], भाष्यं H. विभा गाथा [७८६-७९०], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: S प्रत सूत्रांक * E ** दीप अनुक्रम * कवनमभिरोहति, प्रतिनिवर्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति, द्वितीयेन स्वस्थानमिति, जकाचारणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवति, ततो लब्ध्युपजीवेन औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाचारित्रातिशयनिबन्धना लब्धिरपि हीयते, ततः प्रतिनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां स्वस्थानमायाति, विद्याचारणाः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तर पर्वतं गच्छPIन्ति, द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, तत्र च गत्वा चैत्यानि वन्दते, ततः प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायाति, तथा मेरुं गच्छन् प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति, द्वितीयेन पण्डकवन, तत्र चैत्यानि वन्दित्वा ततः प्रतिनिवर्तमान एकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायाति, विद्याचारणो हि विद्यावशाद्भवति, विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, ततः प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानागमनमिति, उक्तं ध-"अइसयचरणसमत्था जला-वि जाहिं चारणा मुणओ । जंघाहिँ जाइ पढ़मो नीसं काउं रविकरेऽवि ॥२॥ एगुप्पाएण गओ रुयगवरमिओ तओ पडिहिनियचो। बीएणं नंदिस्सरमिहं तओ एइ तइएणं ॥३॥ पढमेण पंडगवणं, वीओप्पाएण नंदणं एइ । तइओप्पारण मतमो इह जंघाचारणो होइ ॥४॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु विइएण । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो दाइहई ।। ५॥ पढमेण नंदणवणे वीओप्पाएण पंडगवणम्मि। एइ इई तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥५॥" (वि.७८६-९०)। आसीविस'इति, आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आशीविषाः, ते द्विविधा-जातितः कर्मतश्च, तत्र जातितो वृश्चिकमण्डू-11 कोरगमनुष्यजातयः क्रमेण बहुबहुतरवहुतमविषाः, वृश्चिकविषं हि उत्कर्षतोऽर्द्धभरतक्षेत्रप्रमाणं शरीरं व्यामोति, बासाट्रीमण्डूकविष भरतक्षेत्रप्रमाणं, भुजङ्गमविषं जम्बूदीपप्रमाणं, मनुष्यविष समय क्षेत्रप्रमाणं, कर्मतश्च पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनयो | ** ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७१,७२], भाष्यं , विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक H पाव.मल. उपोदाते अवधौ ॥७९॥ दीप अनुक्रम मनुष्याः, देवाश्चासहस्त्रारात्, एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिकभुजङ्गादिसाध्या क्रिया कुर्व- 1लन्ध्यधिन्ति, शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीति भावः, देवास्त्वपर्याप्तावस्थायां तच्छक्तिमन्तोऽवसातव्याः, ते हि पूर्व मनु-15 कारः के प्यभवे समुपार्जितोर्जिताशीविषलब्धयः सहस्रारान्तदेवेष्वभिनवोपन्ना अपर्याप्तावस्थायां प्राग्भविकाशीविषलब्धिसं- शवादिबल स्कारादाशीविषलब्धिमंतो व्यवहियन्ते, ततः परं पर्याप्तावस्थायां संस्कारस्यापि निवृत्तिरिति न तव्यपदेशभाजा, यद्यपिचगा. च नाम पर्याप्ता अपि देवाः शापादिना परं व्यापादयन्ति तथापि न लब्धिव्यपदेशः, भवप्रत्ययतस्तथारूपसामर्थ्यस्य सर्वसाधारणत्वात् , गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो लब्धिरिति प्रसिद्धिः । 'केवली येत्यादि, केवलिनश्च प्रसिद्धाः,मनोज्ञानिनो मनःपर्यायज्ञानिना, तच्च मनःपर्यायज्ञानं विपुलमतिरूपं गृह्यते, ऋजुमतिरूपस्य प्रागेव गृहीतत्वात् तत्र, विपुलं-बहुविशेषोपेतं वस्तु मन्यते-गृहातीति विपुलमतिः, वाहुलकारकर्तरि तप्रत्ययः, यदिवा विपुला-पर्यायशतोपेतचिन्तनीयघटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मतिर्मननं यत् तबिपुलमतिः, पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः-दशचतुर्दशपूर्वविदः, अशोकाद्यष्टमहा-2 प्रतिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यहन्तः-तीर्थकराचक्रवर्तिन:-चतुर्दशरत्नाधिपाः षट्खण्डभरतेश्वराः, बलदेवाः प्रसिद्धाः, वासुदेवाः सप्तरत्नाधिपाः अर्द्धभरतप्रभवः, एते हि सर्वे एव चारणादयो लब्धिविशेषाः, इह वासुदेवत्वं चक्रवर्तित्वमहत्त्वं च ऋद्धयः प्रतिपादितास्तत्र तदतिशयप्रतिपादनार्थमाह सोलस रायसहस्सा सबषलेणं तु संकलनिवद्धं । अंछंति वासुदेवं अगडतमी ठियं संतं ॥७१॥ घेत्तूण संकलं सो, वामगहत्येण अंछमाणाणं । अॅजिज विलिंपिज व महुमहणं ते न चाएंति ॥७२॥ ॥७९ anon ! For Prats Personal un any wanity ~1734 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [७३-७५], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम इह वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषाद्धलातिशयो वासुदेवस्य प्रदर्श्यते, षोडश राजसहस्राणि सर्वबलेन इस्त्यश्वरथपदातिरूपेण समन्वितानि खलानिबद्धं 'अञ्छति' देशीवचनमेतत् आकर्षन्ति वासुदेवं अवटतटे-कूपतटे स्थितं सन्त, ततश्च गृहीत्वा श्वालामसौ वामहस्तेन 'अंछमाणाणं'ति आकर्षतां, मुंजीत विलिंपेद्वा अवज्ञया दृष्टः सन्, न पुनस्ते मधुमधनं शक्नुवन्त्याऋष्टुमिति वाक्यशेषः । चक्रवर्तिबलप्रतिपादनार्थमाह दो सोला बत्तीसा, सबवलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछति चक्कवहि, अगडतडम्मी ठियं संतं ॥ ७ ॥ घेत्तूण संकलं सो, वामगहत्येण अंडमाणाणं । भुंजिन विलिंपिज व, चकहरं ते न चाएंति ॥ ७४॥ 'द्वौ पोडशकौं' द्वात्रिंशदित्येतावत्येव वाच्ये द्वौ षोडशकावित्यभिधानं चक्रवर्तिनो वासुदेवात् द्विगुणढिख्यापनार्थ, राजसहस्राणीति गम्यते, द्वात्रिंशद्राजसहस्राणि सर्ववलेन समन्वितानि शृङ्खलानिवद्धमाकर्षन्ति चक्रवर्तिनं अवटतटे स्थितं सन्तं, गृहीत्वा शृङ्खलामसौ वामहस्तेनाकर्षतां भुञ्जीत विलिम्पेद्वा, न पुनस्ते चक्रवर्तिनं शक्नुवन्त्याऋष्टुमिति वाक्यशेषः॥ सम्पति तीर्थकरवलपतिपादनार्थमिदमाह| जं केसवस्स उ वलं, तं दुगुणं होई चक्कवहिस्स । तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ॥७॥ यत् केशवस्य बलं तद् द्विगुणं भवति चक्रवर्तिनः, ततः शेषवला 'बला' बलदेवा बलवन्तः, केशवबलापेक्षया त्वर्द्धबला इति प्रसिद्धेरवगन्तव्यम् , तथानिरवशेषवीर्यान्तरायक्षयादपरिमितं बलं येषां तेऽपरिमितबला, के ते इत्याह-जिनवरेदन्द्रा -तीर्थकृतः, तथा (यद्वा) ततश्चक्रवत्तिनो बलादूलवन्तो जिनवरेन्द्रा,कियता बलेनेत्याइ-अपरिमितबला, अपरिमितेन ४ an Educa t ion wwwjainitiorary.org. ~1744 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७३-७५], भाष्यं H. विभागाथा [७९९-८००], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम बलेन बलवन्त इति भावः, तदेवमुका लब्धयः। एताश्चान्यासामपिक्षीराश्रवमध्वाश्रवसर्पिराश्रवकोष्ठबुद्धिबीजबुद्धिपदानुसा-18किती उपोलादारित्वाक्षीणमहानसत्वप्रभृतिलब्धीनामुपलक्षणं, तेन ता अपि प्रतिपत्तव्याः, तत्र पुंडूचारिणीनां गवां लक्षस्य क्षीरमद्धो-61 काबलं अवधी क्रमेण दीयते यावदेवमेकस्याः पीतगोक्षीरायाः क्षीरं, तकिल चातुरक्यमित्यागमे गीयते, तद्यथोपभुज्यमानमतीव मन:- क्षीराश्रवा 18शरीरप्रल्हादहेतुरुपजायते तथा यद्वचनमाकण्येमानं मनाशरीरसुखोत्पादनाय प्रभवति ते क्षीराश्रवाः, क्षीरमिव वचन-18|द्याच गा. ३८.ne मासमन्तात् श्रवम्तीति क्षीराश्रवाः इति व्युत्पत्तेः, तथा मध्वपि किमप्यतिशायि शर्करादिमधुरद्रव्यं द्रष्टव्यम् , घृतमपि ७३-५ पुंदेषुचारिगोक्षीरसमुत्थं मन्दाग्निकथितमतिविशिष्टवर्णाद्युपेतं, मचिव वचनमाश्रवन्तीति मध्वाचवाः, घृतमिव वचन-1 माअवन्तीति घृताश्रवाः, तथा कोष्ठ इव धान्यं येषां बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदवस्थावेव सूत्राथों धारयति न किमपि तयोः कालान्तरेऽपि गलति ते कोष्ठबुद्धयः, कोष्ठ इच बुद्धिर्येषां ते कोष्ठबुद्धयः इति व्युत्पत्तेः, येषां पुनर्बुद्धिरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते, ते पदानुसारिबुद्धयः, येषां पुनर्बुद्धिः एकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थपदमवगाहते ते वीजबुद्धयः, उक्तं च-"खीरमहुसप्पिसाओवमा उ वयणा तवासवा होति । कोयधनसुनिग्गलमुत्तत्था कोहबुद्धीया ॥१॥जो सुत्तपएण बहुं सुयमणुधावइ पवाणुसारी सो। जो अत्थपएणत्वं अणुसरइ स बीयबुद्धी उ ॥२॥" (वि.७९९-८००) अक्षीणं महानसं येषां ते अक्षीणमहानसाः, येषां भिक्षा lne नान्यैहुभिरगुपभुज्यमाना निष्ठां याति, किन्तु तैरेव जिमितैः, तेऽक्षीणमहानसाः, आह च चूर्णिकृत्-"अक्खीणमहाणसियस्स मिक्सा न अनेण निढविजइ, तमि जिमिए निढाई इति, प्रभृतिग्रहणात् गणधरत्वपुलाकत्वतेजःसमुद्घाताहारक land ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] Jan Education “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७३-७५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः शरीरकरणादिलब्धयो वेदितव्याः, एतासां च लब्धीनां मध्येऽर्हस्वलब्धिर्वासुदेवत्वलन्धिश्चक्रवर्त्तित्वलन्धिः सम्भिन्नश्रोतोलब्धिर्जाचारणलब्धिः पूर्वधरलब्धिरित्येताः सष्ठ उब्धयो भव्य स्त्रीणां नोपजायन्ते, अभव्यपुरुषाणामृजुमतित्वविपुलमतित्वलब्धी अपि, अभव्यस्त्रीणां मध्वाश्रवक्षीराश्रवसप्पिराश्रवल ब्धयोऽपि, उक्तं च "जिणत्रलचक्कीकेसव संभिन्न जंघच रण पुढे य । भवियाए इत्थियाए एयाओं न सत्त लद्धीओ || १ ||" शेषास्तु भवन्तीति सामर्थ्यादवसीयते, "रिजुमइविपुलमईओ, सत्त य एयाओं पुवभणियाओ । लद्धीओं अभवाणं, होंति नराणंपि न कयाइ ॥१॥ अभवियमहिलाणंपिह्न एवाओ न होंति सत्त लद्धीओ । महुखीरासवलद्धीवि नेव सेसाओं अविरुद्धा ||२||” अन्ये त्वेवमाहुः- आमपौषधिलब्धिः १ श्लेष्मीपधिलब्धिः २ जल्लोषधिलब्धि ३ विपश्रवणौषधिलब्धिः ४ सर्वोषधिलब्धिः ५ कोष्ठबुद्धिः ६ बीजबुद्धिः ७ पदानुसारी ८ सम्भिन्नश्रोता ९ ऋजुमतिः १० विपुलमतिः ११ क्षीरमध्वाश्रवलब्धिः १२ अक्षीणमहानसलब्धिः १३ वैक्रियलब्धिः १४ जङ्घाचारणलब्धिः १५ विद्याधरलब्धिः १६ अर्हत्त्वलब्धिः १७ चक्रवर्त्तित्वलन्धिः १८ वलदेवत्वलन्धिः १९ वासु| देवत्वलब्धिः २० एता विंशतिलब्धयो भव्यपुरुषाणां भवन्ति, तथा चोक्तम्- "आमोसही य खेले जल्ले विप्पे य होइ सबै य। कोट्ठे यं बीयबुद्धी पयाणुसारी य संभिन्ने ॥ १ ॥ उज्जुमइ विउल खीरे महु अक्खीणे विउवि चरणे य। विजाहर अरहंता चक्कीबलवासु वीसइमा ॥२॥ भवसिद्धियाणमेया, वीसंपि हवंति इत्थ लद्धीओ!” इति, तदेतदसम्यक्, अन्यासामपि भवसिद्धियोग्यानां गणधरत्वपुलाकत्वप्रभृतीनां लब्धीनां सद्भावात् नाप्येता भवसिद्धिकयोग्या एव, वैक्रियविद्याधरत्व For Pityte & Personal Use Only ~176~ jainslibrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं []-], निर्युक्तिः [ ७६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आव. म. ४ उब्धीनामामर्षोषध्यादिलब्धीनामपि चाभव्यानामपि सम्भवात् ॥ सम्प्रति मनःपर्यायज्ञानं लब्धिनिरूपणायां सामान्यतोऽउपोद्घाते पदिष्टमपि विषयस्वाम्यादिविशेषोपदर्शनाय ज्ञानपञ्चकक्रमायातमभिधित्सुराह अवधौ ॥ ८१ ॥ मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं । माणुस स्वेत्तनिबद्धं, गुणपचयं चरितवओ ॥ ७३ ॥ मनःपर्याय॒ज्ञानं प्राग्निरूपितशब्दार्थम्, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, स च रूपिविषयक्षायोपशमिकत्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानादिदं मनःपर्यायज्ञानं स्वाम्यादिभेदाद्भिन्नमिति विशेषयति, तथाहि अवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टेरपि भवति, द्रव्यतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयं क्षेत्रतो लोकविषयं कतिपयलोकप्रमाणखण्डापेक्षया लोकालोकविषयं च कालतोऽतीतानागतासङ्ख्येयोत्सपि व्यवसर्पिणीविषयं भावतोऽशेषेध्वपि रूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसयेय पर्यायविषयं मनःपर्यायज्ञानं पुनः संयतस्याप्रमत्तस्या| मर्षोषध्याद्यन्यतमर्द्धिप्राप्तस्य द्रव्यतः संज्ञिमनोद्रव्यविषयं क्षेत्रतो मनुष्यक्षेत्रगोचरं कालतोऽतीतानागतपल्योपमासङ्ख्येयभागविषयं भावतो मनोगता नन्तपर्यायालम्बनं ततोऽवधिज्ञानाद्भिन्नम् एतदेव लेशतः सूत्रकृदाह-जनमनःपरिचिन्ति तार्थप्रकटनं जायन्ते इति जनास्तेषां मनांसि जनमनांसि तैः परिचिन्तितश्चासावर्थश्च जनमनः परिचिन्तितार्थः स प्रकव्यते-प्रकाश्यतेऽनेनेति जनमनः परिचिन्तितार्थप्रकटनं, तथा मानुषक्षेत्र निबद्धं, न तद्बहिर्व्यवस्थितप्राणिमनोद्रव्यविषय| मिति भाषः, तथा गुणाः- क्षान्त्यादयः ते प्रत्ययाः- कारणं यस्य तद् गुणप्रत्ययम्, चारित्रमस्यास्तीति चारित्रवान् तस्य चारित्रवतोऽप्रमत्तसंयतस्य । इदं मनःपर्यायज्ञानं समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञष्ठं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च तत्र | द्रव्यतः ऋजुमतिरनन्तानन्तप्रादेशिकान् मनोभावपरिणतपुद्गलस्कन्धान् जानाति, तानेव विपुलमतिर्विशुद्धतरान, क्षेत्रत Jan Education h ... अथ मनः पर्यवज्ञानस्य वर्णनं क्रियते For Pitate & Personal Use Only ~177~ मनःपर्या यंत्र गा. ७६ ॥ ८१ ॥ janlibrary.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७७], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [८१३-८१४], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ऋजुमतिरधोलौकिकग्रामेषु यः सर्वाघस्तन आकाशप्रदेशप्रतरस्तं यावत् ऊई यावत् ज्योतिश्चक्रस्योपरितलं तिर्यग्यायदर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रेषु अर्द्धतृतीयाकुलहीनेषु संज्ञिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तानां मनोगतान् भावान् जानाति, विपुलमति' रर्द्धद्वतीयैरङ्गुलैरभ्यधिकान्, कालंत ऋजुमतिरतीतमनागतं च पल्योपमत्वासत्येयभागमेव विपुलमतिरभ्यधिकतरं विशुद्धतरं च भावत ऋजुमतिरनन्तान् भावान् जानाति, तानेव विपुलमतिरभ्यधिकतरान् इह साक्षात् तानेव मनःपर्यायान् परिच्छिनति, मनस्त्वपरिणतैः पुनः स्कन्धैरालोचितान् बाह्यानर्थान् मनोद्रव्याणां तथारूपपरिणामान्यधानुपपसितः, युक्तं चैतत् यतो मूर्त्तद्रव्यालम्बनमेवेदं मनःपर्यायज्ञानमिष्यते, मन्तारस्त्वमूर्त्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्यन्ते, ततोऽनुमानत एव चिन्तितमर्थमवबुध्यन्ते, नान्यथेति प्रतिपत्तव्यम् आह व भाष्यकृत् - "मुणइ मणोदवाई नरलोए | सो मणिजमाणाइं । काले भूय-भविस्से पलियाऽसंखिज्जभागम्मि ॥ १ ॥ दबमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएऽते | तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं ॥२॥” (बि.८१३-४ ) इदं मनःपर्यायज्ञानं मनोद्रव्याणां पर्यायानेव गृह्णन् उपजायते, पर्यायाश्च विशेषाः, विशेषग्राहकं च ज्ञानमतो मनःपर्यायज्ञानमेव भवति नतु मनःपर्यायदर्शनमिति ॥ सत्पदप्ररूपणतायस्त्ववधिज्ञानवदगन्तव्याः, नानात्वं चानाहारकापर्याटको न प्रतिपद्यमानको नापि पूर्वप्रतिपन्नाविति । उक्तं मनःपर्यायज्ञानमिदानीमवसरप्राप्तं केवलज्ञानं प्रतिपादयन्नाह- अह समयपरिणाम - भावविशत्तिकारणमणतं । सासयमप्पडिवार्य, एगविहं केवलण्णाणं ॥ ७७ ॥ अवशब्द इहोपन्यासार्थः, पूर्वमुद्देशसूत्रे मनःपर्यायानन्तरं केवलज्ञानमुपन्यस्तं, तत्सम्प्रति तात्पर्यनिर्देशार्थमुपन्यस्यते ... अथ केवलज्ञानस्य वर्णनं क्रियते For Pivate & Personal Use Only ~178~ www.janlibrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [७], भाष्यं H, विभा गाथा [८२५,८२६,८२८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: केवलज्ञानं गा.७६ प्रत सूत्रांक H दीप आव.मल. इति, पठितश्चान्यत्राप्युपन्यासार्थोऽधशब्दः, यत उकम् अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेष्वि"ति, उपोद्धाते सर्वाणि च तानि द्रव्याणि च-जीवादीनि तेषां परिणामाः-प्रयोगविनसोभयजन्या उत्पादादयः पर्यायाः सर्वद्रव्यपरिणा- अवधी IPमास्तेषां भावा-सत्तास्वरूपंस्खलक्षणं वा स्वं स्वमसाधारणरूपं तस्य विशेषेण ज्ञान विज्ञप्तिः विज्ञानं वा विज्ञप्तिः परिच्छेद इत्यर्थः ।। तस्याः कारण-हेतुः सर्वद्रव्यपरिणामविज्ञप्तिकारणं, केवलज्ञानमिति सम्बध्यते, उक्तं च-"सबदवाण पओग-धीससामी-| सजा जहाजोगं । परिणामा पजाया जम्मविणासादओ सवे (ते उ)॥१॥ तेर्सि भावो सत्ता, सलक्खणं वा विसेसतो तस्स । नाणं विष्णत्तीए कारणं केवलण्णाणं ॥२॥" (वि.८२५-६) तच्च स्वज्ञेयानन्तत्वादनन्तम् , तथा शश्वद् भवं शाश्व तम्, सदोपयोगवदिति भावार्थः, तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति न प्रतिपाति अप्रतिपाति, सदावस्थायीति भावः, ननु यत् है शाश्वतं तदप्रतिपात्येव ततः किमनेन विशेषणेन?, तदयुक्तम् , सम्यक्शब्दार्थापरिज्ञानात् , शाश्वतं हि नाम अनवरतं भवदु च्यते, शश्वद्भवंशाश्वतमिति व्युत्पत्तेः,तच्च कियत्कालमपि भवति,यावद्भवति तावनिरन्तरं भवनात्,ततः सकलकालभावप्रतिपत्त्यर्थमप्रतिपातिविशेषणोपादानं, एष तात्पर्यार्थः-अनवरतं सकलकालं भवतीति, अथवा एकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशेष्यभावप्रतीतिज्ञापनार्थ विशेषणद्वयोपादानम्, तथाहि-शाश्वतमप्रतिपात्येव, अप्रतिपाति तु शाश्वतमशाश्वतं च भवति, यथा अप्रतिपात्येवावधिज्ञानमिति,तथा एकविधम्-एकप्रकारं तदावरणक्षयस्यैकरूपत्वात् , उक्कं च-"पजायओ अणंतं, सासयमिदं सतोवओगाओ। अबयओऽपडिवाई एगविहं सबसुद्धीए ॥२॥" (वि.८२८) केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानम् ॥ इह तीर्थकृत्समुपजातकेवलालोकस्तीर्थकरनामकर्मोदयतः तथाखाभाच्यादुपकार्यकृतोपकारानपेक्षं सकलसत्त्वानुमहाय KAKUCCESS अनुक्रम JanEducation ino ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [८], भाष्यं न, वि०भा गाथा [१४१,८३१], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक KC दीप अनुक्रम सवितेव प्रकाश देशनामातनोति, तत्राव्युत्पन्न विनेयानां केषांचिदेवमाशङ्का भवेत्-भगवतोऽपि तीर्थकृतस्तावत् द्रव्यश्रुतं ध्वनिरूपं विद्यते, द्रव्य श्रुतं च भाव श्रुतपूर्वकं, ततो भगवानपि श्रुतज्ञानीति, ततस्तदाशकापनोदार्थमाह- केवलनाणेणऽस्थे नाउंजे तत्थ पनवणजोग्गे । ते भासह तित्थयरो, वइजोगसुयं हवइ सेसं ॥७८॥ . केवलज्ञानेन 'सर्व वाक्यं सावधारणमिति न्यायात् केवलज्ञानेनैव, न श्रुतज्ञानेन, तस्य शायोपशमिकभावातिक्रमात्, सर्वक्षये देशक्षयाभावात्, अर्थान्-धर्मास्तिकायादीनभिलाप्यानभिलाप्यान् ज्ञात्वा-विनिश्चित्य ये तत्र-तेषामभिलाष्यानां मध्ये प्रज्ञापनयोग्या अभिलाप्या इत्यर्थः तान भाषते, नेतरान्, तानपि प्रज्ञापनयोग्यान भाषते, न सर्वान, तेषामनन्तत्वेन सर्वेषां | |भाषितुमशक्यत्वात् , वाचः क्रमवर्तित्वाच, आयुषश्च परिमितत्वात् , किन्तु कतिपयानेवानन्तभागमात्रान् , आह च भाष्य|कृत-"पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पण्णवणिजाणं पुण अणंतभागो सुबनिबद्धो ॥१॥"(वि.१४१) तत्रापि तान् कतिपयान भाषते ग्राहकापेक्षया योग्यान् , तत्रापि यावन्मात्रे भणिते शेष स्वयमप्यभ्यहितमीष्टे तावन्मात्र.1 न स्वभ्यूह्यमपि, उक्त च-"तत्थवि जोग्गे भासइ नाजोग्गे गाहगाणुवित्तीए । भणिएवि जंमि सेसं सयमूहइ भणइ तम्मत्तं | mer(वि.८३१) तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिःप्रोच्यमानस्तस्य भगवतो वाग्योग एव भवति, न श्रुतं, तस्य | भाषापर्योत्यादिनामकर्मोदयनिबन्धनत्वात् , श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात् , स च वाग्योगो भवति श्रुतं शेषम्-अप्रधान, द्रव्यश्रुतमित्यर्थः, श्रोतणां भावश्रुतकारणतया द्रव्यश्रुतं व्यवहियते इति तात्पर्याधः, अन्ये त्वेवं पठन्ति-'वइयोग सुर्य हवइ तेसिं' तत्रायमर्थः-तेषां श्रोतणां श्रुतकारणत्वात् स वाग्योगः श्रुतं भवति, श्रुतमिति व्यवहियते इत्यर्थः, अथवा In Eduard ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७८], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आव.मल. उपोद्धाते अवधी सुत्राक ॥ ३॥ दीप वाग्योगश्रुतं द्रव्यश्रुतमिति ॥ तत्केवलज्ञानं स्वामिनमधिकृत्य द्विविधं प्रशप्तम् , तद्यथा-भवस्थकेवलज्ञानं सिद्धकेवलज्ञानं, जिनवाच: च, तत्र यद् मनुष्यभवे अवस्थितस्य चतुर्वघातिकर्मस्वक्षीणेषु केवलज्ञानं तद् भवस्थकेवलज्ञानं, यत् पुनरशेषेषु कर्माशे-18| श्रुतता प्वपगतेषु सिद्धत्वावस्थायां तत् सिद्धकेवलज्ञानं, तत्र यद्भवस्थकेवलज्ञानं तद् द्विविधम् , तद्यथा-सयोगिभवस्थकेवलज्ञान- गा. ७८ मयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, तत्र केवलज्ञानोत्पत्तेरारभ्य यावदद्यापि शैलेश्यवस्था न प्रतिपद्यते तावत् सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं, शैलेश्यवस्थायामयोगिभवस्थकेवलज्ञानं, तत्र यत्सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं तद् द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यधा-प्रथमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञानमप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवल ज्ञानं च, तत्र यस्मिन् समये केवलज्ञानमुत्पन्नं तस्मिन् समये तत्प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं, शेषेषु तु समयेषु शैलेशीप्रतिपत्तेरा वर्तमानमप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवल ज्ञानम् , अथवाsन्यथा द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-चरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानमचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानम्, तत्र यत्सयोगित्वावस्थायाश्चरमसमये वर्तमानं तत् चरमसमयसयोगिभवस्थकेवल ज्ञान, ततःप्राक् शेषेषु समयेषु वर्तमानमचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं, तथा अयोगिभवस्थकेवल ज्ञानमपि द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-प्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानमप्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, अथवा चरमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानमचरमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, प्रथमाप्रथमचरमाचरमसमयभावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया। सिद्धकेवलज्ञानं विविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अनन्तरसिद्धकेवल- ८३॥ | ज्ञानं परम्परसिद्ध केवलज्ञानं च, सत्र यस्मिन् समये सिद्धो जायते तस्मिन् समये वर्तमानमनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं, सिद्धत्वद्विती| यादिसमयेषु वर्तमानं परम्परसिद्ध केवल ज्ञानं, तत्रानन्तरसिद्धकेवल ज्ञानमुपाधिभेदात् पञ्चदशविध प्रज्ञतम् , तद्यथा-तीर्थ अनुक्रम wwwpaintiorary.org, ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७८ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | सिद्ध केवलज्ञान १ मतीथसिद्ध केवलज्ञानं २ तीर्थंकरसिद्ध केवलज्ञान ३ मतीर्थकर सिद्ध केवलज्ञानं ४ स्वयंबुद्धसिद्ध केवलज्ञानं ५ प्रत्येकबुद्धसिद्धकेवलज्ञानं ६ बुद्धबोधितसिद्धकेवलज्ञानं ७ खीलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं ८ पुरुषलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं ९ नपुं| सकलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं १० स्वलिङ्गसिद्ध केवलज्ञान ११ मन्यलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं १२ गृहिलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं १३ एक| सिद्ध केवलज्ञानं १४ अनेकसिद्ध केवलज्ञानं १५ च । तत्र ये तीर्थकराणां तीर्थे वर्त्तमाने सिद्धास्तेषां यत्केवलज्ञानं तत्तीर्थसिद्धकेवलज्ञानम्, यत्पुनस्तीर्थकराणां तीर्थेऽनुत्पन्ने व्यवच्छिन्ने वा सिद्धास्तेषां यत्केवलज्ञानं तदतीर्थसिद्धकेवलज्ञानं, तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं तीर्थकरसिद्ध केवलज्ञानं, शेषाणामतीर्थकरसिद्ध केवलज्ञानं, तथा स्वयंबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं स्वयंवृद्ध सिद्ध केवलज्ञानं, प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं प्रत्येकबुद्धसिद्धकेवलज्ञानम्, अथ स्वयंवुद्धप्रत्येकबुद्धानां कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतः, तथाहि स्वयंवुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, स्वयमेव - वाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः स्वयंबुद्धा इति व्युत्पत्तेः, आह च चूर्णि कृत् - "सयमप्पणिज्जं जाइस्सरणादिकारणं पहुच बुद्धा सयंबुद्धा” इति, ते च द्विधा-तीर्थकरास्तीर्थकरव्यतिरिक्ताश्च, इह तीर्थकरव्यतिरिचैरधिकारः, आह च चूर्णिकृत् -"ते सर्वबुद्धा दुविहा- तित्थयरा तित्थयरवइरित्ता य, इह वइरितेहिं अहिगारो' इति, प्रत्येकबुद्धास्तु वाह्यं प्रत्ययमपेक्ष्य, प्रत्येकं बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः इति व्यु | त्पत्तेः तथा च श्रूयते बाह्यप्रत्ययसापेक्षा करकण्डादीनां बोधिः, बहिः प्रत्ययमपेक्ष्य ते च बुद्धाः सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति न गच्छ्वासिन इव संहताः, उकं च चूर्णो- "पत्तेयं बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः, Jan Education International For Pitate & Personal Use Only 182~ jainslibrary.org Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [७८], भाष्यं H, वि०भा०गाथा , मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक आव.मल. उपोद्धाते अवधौ ACC H दीप अनुक्रम पएसि नियमा पत्तेयं विहारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा" इति, तथा स्वयंबुद्धानामुपधिर्वादशविध एव पात्रादिका प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा-जघन्यत उत्कर्पतश्च, तत्र जघन्यतो द्विविधा, उत्कर्षतो नवविधा प्रावरणवर्जः, उकै च-पत्ते-II यबुद्धाणं जहण्णेणं दुविहो, उक्कोसेण नवविधो पावरणवज्जो भवति" इति, तथा स्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतं श्रुतं भवति वा केवलभेद नवा, यदि भवति ततो लिङ्गं देवता वा प्रयच्छति गुरुसन्निधौ वा गत्वा प्रतिपद्यते, यदि च एकाकिविहरणसमर्थ | इच्छा च तस्य तथारूपा जायते तत एकाकी विहरत्यन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते, अथ पूर्वाधीतं श्रुतं तस्य न भवति तर्हि नियमात् गुरुसन्निधौ गत्वा लिङ्गं प्रतिपद्यते, गच्छं चावश्यं न मुञ्चति, तथा चोक्तं चूर्णी-"पुबाही सुयं से हवर वा नवा, जइ से नत्थि तो लिङ्गं नियमा गुरुसन्निहे पडिवजइ, गच्छे य विहरइ इति, अह पुवाहीयसुयसंभवो अस्थि तो से लिङ्ग देवया पयच्छइ, गुरुसन्निहे वा पडिवजइ, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा च से तो एको चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरई" इति, प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति, तच्च जघन्यत एकादशाङ्गानि उत्कर्षतः किश्चिन्यूनानि दश पूर्वाणि, तथा लिङ्ग तस्मै देवता प्रयच्छति, लिङ्गरहितो वा कदाचिद् भवति, तथा चोकम्-“पत्तेयबुद्धाण पुवाहीअसुयं नियमा हवा, जहण्णेणं एकारस अंगा उक्कोसेणं भिन्नदसपुषी, लिङ्गं च से देवया पयच्छइ, लिंगवजिमोवाभवइ, जतो भणियं-"रूप्पं पत्तेयबुहा" इति, तथा बुद्धैः-आचार्यादिभिवोंधितस्य यत्केवलज्ञानं तत् बुद्धबोधितके-18neym वलज्ञान, स्त्रिया लिङ्ग स्त्रीलिङ्गं, स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच्च विधा, तद्यथा-वेदः शरीरनिर्वृत्तिः नेपथ्यं च, तत्रेह शरीरनिर्वृत्त्या प्रयोजनं, न वेदनेपथ्याभ्यां, वेदे सति सिद्धत्वाभावात् , नेपथ्यस्य चाप्रमाणत्वात्, आह च नन्यध्ययनचूर्णि SAMA land For Farmony ~1834 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ७८ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मा.सु. १५ Jan Education Interna कृत् -' इत्थीए लिंगं इत्थिलिंगं, इत्थीए उवलक्खणंतिवृत्तं भवति, तं च तिविहं वेदो सरीरनिधित्ती नेवत्थं च, इह सरीरनिवित्तीए अहिगारो, न वेयनेवत्थेहिंति" तस्मिन् स्त्रीलिङ्गे वर्त्तमाना ये सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं स्त्रीलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं, एवं | पुरुषलिङ्गे सिद्धानां केवलज्ञानं पुरुषलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं, एवं नपुंसकलिङ्गसिद्ध केवलज्ञान मपि भाव्यम्, तथा स्वलिङ्गे- रजोहरणादी सिद्धानां केवलज्ञानं स्वलिट: सिद्ध केवलज्ञानं, अन्यलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं नाम यदन्यस्मिन् लिने वर्त्तमानाः सम्यक्त्वं प्रतिपद्य भावनाविशेषात् के ज्ञानमुत्पाद्य केवलोत्पत्तिसमकालमेव कालं कुर्वन्ति तदन्यलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानं, यदि पुन| स्तेऽन्यलिङ्गस्थिताः केथलमुपाद्यात्मनोऽपरिक्षीणमायुः पश्यन्ति ततः साधुलिङ्गमेव परिगृह्णन्ति, गृहलिङ्गे स्थिताः सन्तो ये सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं गृहिलिङ्गसिद्ध केवलज्ञानम्, एकसिद्ध केवलज्ञानं नाम यस्मिन् समये स विवक्षितः सिद्धस्तस्मिन् | समये यद्यन्यः कोऽपि न सिद्धस्ततस्तस्य केवलज्ञानमेकसिद्धकेवलज्ञानं, एकस्मिन् समयेऽनेकेषां सिद्धानां केवलज्ञानमनेकसिद्धकेवलज्ञानं, एकस्मिंश्च समयेऽनेके सिद्ध्यन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसङ्ख्या वेदितव्याः, यत उक्तम् - " बत्तीसा अडयाला सट्ठी वायत्तरी व बोद्धवा । चुलसीओ छन्नउई, दुरहियमहुत्तरस्यं च ॥ १ ॥” अस्या विनेयजनानुग्रहाय व्याख्याअष्टौ समयान् यावद निरन्तरमेकादयो द्वात्रिंशत्पर्यन्ताः सिद्धान्तः प्राप्यन्ते, किमुक्तं भवति, १-प्रथमे समये जघन्यत एको | द्वौ वा उत्कर्षतो द्वात्रिंशत्सिद्धयन्तः प्राप्यन्ते, द्वितीयेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतो द्वात्रिंशत्, एवं यावद| टमेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतो द्वात्रिंशत्, ततः परमवश्यमन्तरम्, तथा त्रयस्त्रिंशदादयोऽष्टचत्वारिंशपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः सप्त सर यावत्याप्यन्ते परतो नियमादन्तरं, तथा एकोनपञ्चाशदादयः षष्टिपर्यन्ता For Pitate & Personal Use Only ~184~ jinslibrary.org Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [७८], भाष्यं H, वि०भा०गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक X दीप अनुक्रम आव.म.निरन्तरं सिझ्यन्तः पत्कर्षतः षट् समयान यावत्प्राप्यन्ते, तथैकषध्यादयो द्विसप्ततिपर्यन्ता निरन्तरं सिष्यन्तः उत्कर्षतः|| उपोदाते पञ्च समयान यावदवाप्यन्ते, ततः परमन्तरं, त्रिसप्तत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतचतुरः समयान सिद्धाः अवधी यावत् , तत मन्तरं, तथा पञ्चाशीत्यादयः षण्णवतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतस्लीन समयान, परतो नियमा दन्तरं, तथा सप्तनवत्यादयो झुत्तरशतपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतो द्वौ समयौ यावत् , परतोऽवश्यमन्तरं, तथा घ्युत्तरशतादयोऽष्टोत्तरशतपर्यन्ताः सिझ्यन्तो नियमादेकमेव समयं यावदवाप्यन्ते, न द्विवादिसमयानिति । परम्परसिद्धकेवलज्ञानमनेकविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अप्रथमसमयसिद्धकेवलज्ञानं, सिद्धत्वद्वितीयसमयकेवलज्ञानमिति भावः, द्विसमयसिद्धकेवलज्ञानं, सिद्धत्वतृतीयसमयकेवल ज्ञानमित्यर्थः, एवं त्रिसमयसिद्धकेवलज्ञानं चतुःसमयसिद्धकेवलज्ञानं यावत् सङ्गचेयसमयसिद्धकेवलज्ञानमसङ्ख्येयसमयसिद्ध केवलज्ञानमनन्तसमयसिद्धकेवलज्ञानम् । तदेवमुकं केवलज्ञानस्वरूपमधास्य गत्यादिद्वारविषया सत्पदप्ररूपणता द्रव्यप्रमाणादीनि च विभाव्यन्ते, तत्र सत्पदप्ररूपणायां गतिमङ्गीकृत्य सिद्धिगती| मनुष्य-तौ च केवलज्ञानम्, इन्द्रियद्वारे नोइन्द्रियाऽतीन्द्रियेषु, कायद्वारे त्रसकायाकाययोः, योगद्वारे सयोगायोगयोः, वेदद्वारेऽवेदकेषु, कषायद्वारेऽकपायेषु, लेश्याद्वारे शुक्ललेश्यालेश्ययोः, सम्यक्त्वद्वारे सम्यग्दृष्टिषु, ज्ञानद्वारे केवलज्ञानिषु, दर्शनद्वारे केवलदर्शनिषु, संयतद्वारे संयतेषु नोसंयतेनोअसंयतेनोसंयतासंयतेषु, उपयोगद्वारे साकारानाकारोपयोगयोः, आहारक-| द्वारे आहारकानाहारकयो, भाषकद्वारे भाषकाभाषकयोः, परीत्तद्वारे परीनेषु नोपरीत्तापरीतेषु च, पर्याप्ठद्वारे पर्याप्तेषु | | नोपयांप्तापर्याधेषु च, सूक्ष्मद्वारे बादरेषु नोसूक्ष्मवादरेषु च, संज्ञिद्वारे संक्षिषु नोसंज्ञासंजिषु, भव्यद्वारे भव्येषु नोभव्या लायन १ - ५ ॥ - - * wwwjainitiorary.org. ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७९], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम भव्येषु च, चरमद्वारे चरमेषु, भवस्थकेवलिनां चरमत्वाद्, अचरमेषु च, सिद्धानां भवान्तरप्राप्त्वभावतोऽचरमत्वात् , पूर्व प्रतिपन्नपतिपद्यमानकयोजना तु स्वधिया कर्तव्या, द्रव्यप्रमाणद्वारे प्रतिपद्यमानकानाश्रित्योत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतं केवलिनां हैं प्राप्यते, पूर्वप्रतिपन्नाच जघन्यत उत्कर्षतश्च कोटीपृथक्त्वप्रमाणा भवस्थकेवलिनः प्राप्यन्ते, सिद्धाः अनन्ता, क्षेत्र| स्पर्शनाद्वारयोस्तु जघन्यतो लोकस्याप्यसङ्ख्येयभागे केवली लभ्यते, उत्कर्षतस्तु सर्वलोके, कालद्वारे साद्यपर्यवसितं काल मा सर्वोऽपि केवली भवति, अन्तरं तु केवलज्ञानस्य न विद्यते, प्रतिपाताभावात् , भागद्वारं मतिज्ञानवत्, मावद्वारे क्षायिके भावे, अल्पबहुत्वद्वारं मतिज्ञानिवत् ॥ तच्च केवलज्ञानं समासतश्चतुर्विध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतः केवलज्ञानी सर्वव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रतः सर्व क्षेत्रम्, कालतः सर्वकालम् , भावतः सर्वान् भावान् , उकं च केवलज्ञानं, तदभिधानाच नन्दी, तदभिधानान्मालमिति ॥ तदेवं मङ्गलस्वरूपाभिधानारेण ज्ञानपञ्चकमुक्तम् , इह तु प्रकृतेन श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा चाह नियुक्तिकृत्। इत्थं पुण अहिगारो सुयनाणेणं जतो सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽषिय अणुयोग पदीवदिलुतो ॥७९॥ अत्र-पुनः प्रकृतेऽधिकारः श्रुतज्ञानेनैव (श्रुतेन) शेषाणां मत्यादिज्ञानामामात्मनोऽपि चानुयोगो व्याख्यानं क्रियत इति वाक्यशेषः, खपरप्रकाशकत्वात् , तथा चावं प्रदीपदृष्टान्तः, यथा हि प्रदीपः स्वपरप्रकाशकत्वात् स एव गृहेऽधिक्रियते एवमिहापि श्रुतज्ञानमिति भावः॥पीठिका समाधा॥ कर an Educa t ion wwwjainitiorary.org ~1864 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] उपोद्घातनिर्युतिः ॥ ८६ ॥ Jan Education in “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [८३८-८३९ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सम्प्रति मङ्गलसाध्यः प्रकृतोऽनुयोग उपदर्श्यते स च स्वपरप्रकाशकत्वात् गुर्वायत्तत्वाच श्रुतज्ञानस्य, उच सो मइनाणाईणं कयरस्स ? सुयस्स, जं न सेसाई । होंति पराहीणाई, न य परवोहे समत्थाई ॥ १ ॥ पाएण पराहीणं, दीवोब परप्पवोहगं जं च । सुयनाणं तेण परप्पवोहणत्थं तदणुयोगो ॥ २ ॥ (वि.८३८-९) आह- नन्वावश्यकस्यानुयोगः प्रकृत एव, पुनः श्रुतज्ञानस्येत्ययुक्तं, नैष दोषः, आवश्यकमिदं श्रुतान्तर्गतमित्येतदर्थप्रदर्शकत्वादेतद्वाक्यस्य, ननु यदि आवश्यकस्यानुयोगस्तर्हि तदावश्यकं किमङ्ग अङ्गानि श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः अध्ययनमध्ययनानि उद्देशक उद्देशकाः?, उच्यते, आवश्यकं | श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि च न शेषा विकल्पाः, उक्तं च-"आवस्सयं नो अंगं नो अंगाई सुयक्खंधो नो सुअक्खंधा नो अज्झयणं अज्झयणा नो उद्देसो नो उद्देसगा इति”, (अनु. ६) ननु नन्दीव्याख्याने अङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुतनिरूपणायामनङ्गसंज्ञा प्रतिषा|दितैव, ततः कथं किमङ्गमङ्गानीत्याशङ्कासम्भवः, सत्यमेतत्, केवलं तद्व्याख्यानानियमप्रदर्शनार्थमेतद्वाक्यमित्यदोषः, न | खत्यवश्यं शास्त्रादौ नन्द्यध्ययनार्थकथनं कर्त्तव्यमिति नियमः, अकृते चाशङ्कासम्भव इति, ननु शास्त्रस्यादाववश्यं मङ्गलार्थं । नन्द्यभिधानं तावत् कर्त्तव्यम्, ततः कथमनियमः, नैष दोषः, ज्ञानपञ्चकाभिधानमात्रस्यैव मङ्गलत्वात् तथाहि -ज्ञान|पञ्चकाभिधानमात्रमेवावश्यं शास्त्रस्यादौ मङ्गलार्थ कर्त्तव्यम्, नत्ववयवार्थाभिधानं, अवयवार्थानभिधाने चाशङ्कासम्भवः, किच- आवश्यकव्याख्यानारम्भे शास्त्रान्तरव्याख्यानारम्भोऽसमीचीनोऽप्रस्तुतत्वात् शाखान्तरं च नन्दी, पृथक् श्रुतस्कन्धत्वात्, यद्येवमिहावश्यक श्रुतस्कन्धानुयोगप्रारम्भे किमिति नन्यनुयोगः कृतः?, उच्यते-शिष्यानुग्रहार्थे, न पुनरेष नियम इति ख्यापनार्थम्, अथवा अपवादपदप्रदर्शनार्थम्, तथाहि कदाचिदुत्कलितप्रज्ञ विनीत पुरुषापेक्षया तदनुग्रहार्थे उत्क्र For Pivate & Personal Use Only 187~ नन्दी व्याख्या ऽ नियम; ॥ ८६ ॥ wjainslibrary.org Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H Jain Education h “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मेणापि अन्यारम्भे चान्यव्याख्यायते इति कृतं प्रसङ्गेन, तत्र यस्मादिदं शाखाभिधानमावश्यक श्रुतस्कन्ध इति तद्भेदाश्चाध्ययनानि तत आवश्यकं निक्षेतव्यम् श्रुतस्कन्धश्च, अपरस्त्वाह- किमिदं शास्त्राभिधानं प्रदीपाभिधानवत् यथार्थं आहोश्चित् पलाशाभिधानवत् अयथार्थ उत डित्थाद्यभिधानवत् अनर्थकं ?, तत्र ं यदि यथार्थ ततस्तदुपादेयम्, तत्रैव | समुदायार्थपरिसमाप्तिभावात् उच्यते - यथार्थम्, तथाहि पूर्व सूरि प्रदर्शितेयमस्य व्युत्पत्तिः- अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकम्, श्रमणादिभिरवश्यं उभयकालं क्रियते इति भावः क्वचिदिति कर्म्मणि वाहुलकात् उप्रत्ययः, पृषोदरादय इति निपातनात् शेषरूपसिद्धिः, अथवा ज्ञानादिगुणानामा-समन्तात् वश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात् तदावश्यकं शेषाद्वे 'ति कच्प्रत्ययः, यदिवा ज्ञानादिगुणकदम्बकं मोक्षो वा आ-समन्तात् वश्यं क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकं, अथवा 'आवरसयं'ति प्राकृतशैल्या आवासकं, गुणशुन्यमात्मानं गुणैरावासयतीत्यावासकं, गुणसानिध्यमात्मनः करोतीति भावः तच्चा|वश्यकं चतुर्विधम्, तद्यथा-नामावश्यकं स्थापनावश्यकं द्रव्यावश्यकं भावावश्यकञ्च तत्र जीवस्याजीवस्य जीवानां वा अजीयानां वा तदुभयस्य वा तदुभयेषां वा आवश्यकमिति नाम क्रियते तन्नामनामवतोरभेदोपचारात् नामावश्यकं, स्थापनावश्यकं नाम काष्ठकर्मादिष्वक्षवराटकादिषु वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया या यदावश्यकमिति स्थाप्यते। तत् स्थापनावश्यकं द्रव्यावश्यकं द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतश्च तत्र आगमतो यस्यावश्यकमिति पदं शिक्षितं । स्थितं जितं मितं परिजितं नामसमं घोषसमं अहीनाक्षरमनत्यक्षरमव्याविद्धाक्षरमस्खलितममिलितमव्यत्यास्म्रेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोषं कण्ठौष्ठ विप्रमुक्कं वाचनोपर ं च स्यात् स पुरुष आगमती द्रव्यावश्यकं तत्र शिक्षितं नाम यत् पा ... अथ आवश्यक शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते For Pityte & Personal Use Only 188~ wjainslibrary.org Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७९], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक CARRICA H दीप अनुक्रम उपोद्धात- अन्तं नीतम् , तदेवाचिस्मरणतश्चेतसि स्थितत्वात् स्थितं अप्रच्युतमित्यर्थः, परावर्त्तनं कुर्वतः परेण वा कचित्पृष्टस्य यत् आवश्यक नियुक्तिः शीघमागच्छति तत् जितम् , अक्षरसङ्ख्यया पदसङ्ख्यया या परिच्छिन्नं मितं, परि समन्तात् जितं परिजितं, परावर्तनं कुर्वतो हा निक्षेपाः यत्क्रमणोत्क्रमण वा समागच्छतीति भावः, नामसमं यथा कस्यचित् स्वनाम शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं च ॥८ ॥ भवति तथतदपीति भावः, घोषसमं यथा गुरुणाऽभिहिता घोपास्तथा यत्र शिष्येणापि सम्यगुञ्चार्यन्ते तद् घोषसममिति भावः, अहीनाक्षरमेकेनाप्यक्षरेणाहीनम् , अनत्यक्षरमेकेनाप्यक्षरेणानधिकं,तथा न व्याविद्धानि-विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव विपर्यस्तान्यक्षराणि यत्र तदब्याविद्धाक्षरम् , उपलशकलाद्याकुलभूभागे लाङ्गलमिव यन्न स्खलति तदस्खलितं, अनेकशाखसम्बन्धीनि सूत्राणि एकत्र मालयित्वा यत्पठ्यते तन्मिलितं यन्न तथा तदमिलितम् , अव्यत्यावेडितमस्थानविरतिरहितं, अत एव प्रतिपूर्ण हीनाधिकाक्षराभावात् , प्रतिपूर्णघोषं गुरुवत् सम्यगुदात्तादिघोषाणामुच्चारणात् , वाचनोपगतं वाचनया प्रश्न परिवर्तनया धर्मकथया नानुप्रेक्षया उपगतं प्राप्त, शेष सुगमम्, नोआगमतो द्रव्यावश्यकं त्रिविधम्, तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिकद्रव्यावश्यकं च, तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे है पूर्ववत् , तद्व्यतिरिकं त्रिधा, तद्यथा-लौकिकं कुपावचनिकं लोकोत्तरं च, तत्र ये इमे राजेश्वरतलवरमाडविक प्रभृतयः प्रातरुत्थाय शरीरचिन्तामुखदन्तप्रक्षालनराजकार्यादि कुर्वन्ति तल्लौकिकं व्यावश्यक, ये पुनरिमे | चरकप्रमुखाः परिबानकाः प्राप्तरुत्थाय स्कन्धादिदेवतागृहसम्मार्जनोपलेपनघूपनादि कुर्वन्ति तत् कुमावचनिकमावश्यकं, यत्पुनरेते अमणगुणमुकयोगिनः पहजीवनिकायनिरनुकम्पा हया इव उद्दामानो गजा इव निरङ्कुशाः KXCORREASE रूम ( tan Education incomational wwimjainitiorary.org. ~189 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः |पाण्डुरपटप्रावरणा जिनानामनाज्ञया स्वच्छंदसो विहृत्योभयकाळं आवश्यककरणायोपतिष्ठन्ते तल्लोकोत्तरं इन्यावश्यकं, भावशून्यत्वेनाभिप्रेतफलाभावात्, एत्थ उदाहरणं-वसंतपुरं नगरं, तत्थ गच्छो अगी अत्यसंविग्गो विहरइ, तस्थ एगो अगीयत्थो समणगुणमुकजोगी, सो दिवसे २ उदउल्लससणिद्ध आहाकम्माईणि पडिसेवित्ता विआले महया संवेपण आलोएइ, तस्स पुण गणी अगीअत्यत्तणओ पायच्छित्तं दितो भइ-अहो इमो धम्मसंठिओ साहू, सुहं पडिसेविडं दुक्खं आलोएडं, एवं नाम एस आलोपइ अग्रहंतो, असढत्तणतो एस सुद्धोत्ति, एवं दहूण अन्ने अगीयत्था समणा पसंसंति, चिंतंति य- नवरं आलोएयवं, नत्थेत्थ किंचि पडिसेविपणंति, तत्थन्नया कयाइ कोइ गीयत्यो संविग्गो विहरमाणो अगतो, सो तं दिवसदेवसियविहिं दहूण उदाहरणं दरिसेइ गिरिनयरे अ कोइ रयणवाणियगो, सो रयणाण घरं भरेऊण पलीबेइ, तं पासिता सबो लोगो पसंसद्, अहो इमो धन्नो भयवंतं हुयासणं तिप्पेइ, अक्षया कयाइ वेण सं घरं पलीवियं, वातो य पबलो जाओ, दहुं सवं नयरं, पच्छा रण्णा पडिभणितो, सबस्सावहारो से कतो, अन्नहिं नगरे एगो एवं करेइ, सो रायणा सुतो जहा एवं करेइ, सो सबस्तहरणं काऊण विसज्जितो, अडवीए कीस न पलीवेसि १, जहा तेण वाणियगेण अवसेसावि दडा एवं तुमंपि एयं पसंसंतो एए साहुणो परिच्चयसि, जाहे न ढाइ ताहे साहुणो भणिया- एस महानिद्धम्मो अगीयत्थो अलं एयस्स आणाए, जइ एयस्स निम्गहो न कीरइ ताहे अनेऽवि विणस्संति, गतं द्रव्यावश्यकं सम्प्रति भावावश्यकं वक्तव्यं तदपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च तत्र आगमतो भावावश्यकमावश्यकज्ञाता उपयुक्तः, 'उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात् नोआगमतो भावावश्यकं त्रिविधं तद्यथा-लौकिकं Jan Education International For Pityte & Personal Use Only 190~ www.janlibrary.org Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७९], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: त्रुतनि क्षपाः प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम उपादात-131कुमावचनिकं लोकोत्तरं च, तत्र यत्पूर्वाहे भारतव्याख्यानम् अपराहे रामायणव्याख्यानमेतलौकिक, यत् पुनरते चरकनियुकिदाप्रभृतयः पाखण्डस्था निजनिजदेवतास्मरणजापप्रमुखमनुष्ठानं कुर्वन्ति तत् कुघावनिकं भावावश्यक, यत् पुनः श्रमणो। या श्रमणी था श्रावको वा श्राविका वा एकान्ते विशुद्धचित्त उभयकालं प्रतिक्रमणं करोति तल्लोकोत्तरं नोआगमतो। ॥८ ॥ भावावश्यक, ज्ञानक्रियारूपोभयपरिणामात्मकत्वात्, मिश्रवचनश्चात्र नोशब्दः, अनेन लोकोत्सरेणेहाधिकारः, अस्या लाचामन्येकाथिकानि-आवश्यकं अवश्यकरणीयं धृवनिग्रहो विशुद्धिः अध्ययनपद्धवर्गः न्यायः आराधनामार्ग इति, उक्तं च-"आवस्सयं अवस्सकरणिज धुवनिग्गही विसोही य । अझयणछकवग्गोनाओ आराहणामग्गो"॥१॥ (अन-२01 आवश्यकशब्दस्य व्युत्पत्तिप्रदर्शिका चेयं गाथा-"समणेण सावएण य अवस्स कायषयं हवइ जम्हा। अंतो अहोनिसस्स या तम्हा आवस्सयं नाम॥१॥(अनु-३१)"श्रुतमपि चतुर्विध-तद्यथा-नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं द्रव्यश्रुतं भावश्रुतंच, तत्र नामस्था-16 |पने प्रतीते, द्रव्यश्रुतं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्विविध-: ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् , तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे पूर्ववत्, तद्व्यतिरिक्त पुस्तकपत्रन्यस्तम् , अथवा श्रुत-11 |मिति सूत्रमप्युच्यते, तच सूत्र तव्यतिरिकं पञ्चधा, तद्यथा-अण्डज पोण्ड कीटजं वालजं वल्वजं च, तत्र अण्डज|| चटकसूत्र, पथेन्द्रियहंसगर्भसम्भवमित्यन्ये, पोण्डजं कर्पासप्रभवं, कीटज पञ्चधा, तद्यथा-पट्टसूत्रं मलय अंशुकं चीनांशुक | कृमिरागं, अत्र वृद्धव्याख्या-किल यत्र विषये पट्टसूत्रमुत्पद्यते तत्रारण्ये बननिकुञ्जस्थाने मांसचीडादिरूपस्यामिपस्य | पुञ्जाः क्रियन्ते, तेषां च पुञ्जानां पार्वतो निम्ना उन्नताश्च साम्तरा बहवः कीलका भूमौ निखन्यन्ते, तेषु च वनान्तरेषु : JanEdurason froom For Farm ... अत्र श्रुत शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते ~1914 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७९], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: IPI प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सश्चरन्तः पतङ्गकीटाः समागत्य मांसाचामिषोपभोगलुब्धाः कीलकान्तरेष्वितस्ततः परिधमन्तो लालाः प्रमुश्शन्ति, ताश्चा कीलकेषु लग्नाः परिगृह्यन्ते, एतत्पट्टसूत्रमभिधीयते, अनेनैव क्रमेण मलयविषयोत्पन्नं तदेव मलयं, इत्थमेव चीनविषयकहिरुत्पन्नमंशुकम् , इत्यमेव चीनविषयोत्पन्नं तदेव चीनांशुकमित्यभिधीयते, क्षेत्रविशेषाद्धि कीटविशेषः, कीटविशेषाच्च पट्टसूत्रादिव्यपदेशविशेष इति, एवं क्वचिद् विषये मनुष्यादिशोणितं गृहीत्वा केनापि योगेन युकं भाजनसम्पुटे स्थाप्यते, तत्र च प्रभूताः कृमयः समुत्पद्यन्ते, ते च वाताभिलापिणो भाजनच्छिद्रैर्निर्गत्य तदासन्नं पर्यटन्तो यल्लालाजालमभिमुन्वन्ति तत्कमिरागं पट्टसूत्रमुच्यते, तच्च रक्तवर्णकृमिसमुत्थत्वात् स्वपरिणामत एव रक्तं भवति, अन्ये त्वभिदधति-यदा तत्र शोणिते कृमयः समुत्पन्ना भवन्ति तदा सकृमिकमेव तन्मलित्वा किट्टिसं परित्यज्य रसो गृह्यते, तत्र च कश्चिद्योगः प्रक्षिप्यते, तेन यद्ज्यते पट्टसूत्र तस्कृमिरागमिति, तच्च धौताद्यवस्थास्वपि न मनागपि राग मुञ्चति, वालजं पञ्चविधं, तद्यथा-1 आणिकमौष्टिक मृगलोमिक कौत किट्टिसं च, तत्र ऊर्णामयं और्णिकम्, औष्ट्ररोमनिष्पन्नमौष्ट्रिक, मृगाकृतयो बृहत्पुच्छा | आटविका जीवविशेषा मृगास्तलोमनिष्पन्नं मृगलोमिक, उदररोमनिष्पन्नं कौतवम् , ऊर्णादीनां यदुद्धरितं किद्विसं तन्निष्पन्न | सूत्रमपि किट्टिस, बल्ब सणप्रभृति, भाषश्रुतं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआभगमतो द्विविध-लौकिक लोकोत्तरं च, तत्र लौकिक भारतरामायणादि, लोकोत्तरं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् । आवश्यक ४/ नोआगमतो भावभुतं, मोशब्द एकदेशवचनः, तस्य चेमान्येकार्थिकानि-श्रुतं सूत्र ग्रन्थः सिद्धान्तः प्रवचनमाज्ञा वचनं उपदेशः प्रज्ञापना आगमः उकं च--"सुयमुत्तगंथसिद्धंतपवयणे आणवयणउवएसे । पण्णवणआगमे या एगा SCCCCCCTOCKMARK FarPihaNAParamal-m DriN ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ ८९ ॥ Jan Education Insp “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ९०२ ], मूलं [-- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पजवा सुते || १|| ” ( अनु-४० वि. ८९४) स्कन्धोऽपि नामादिभेदाच्चतुर्विधः, तत्र नामस्थापने गते, द्रव्य [श्रुत]स्कम्धो द्विधा-मागमतो नोआगमतश्च तत्र आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्त्रिविधो-शशरीर भव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्, तत्र ज्ञशरीर भव्य शरीरे प्रतीते, तद्व्यतिरिक्तस्त्रिविधः, तद्यथा - सचित्तोऽचित्तो मिश्रब्ध, तत्र सचित्तो द्विपदादिः अचित्तो द्विप्रदेशका दिर्मिश्रः सेनादेर्देशादिः, भावस्कन्धो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च तत्र आगमतो ज्ञाता उपयुक्तो, नोआगमतस्त्विदमावश्यकं, नोशब्दों देशवचनः सकलश्रुतस्कन्धापेक्षया आवश्यक श्रुतस्कन्धस्य एकदेशत्वात्, सामायिकादीनां श्रुतविशेपाणां स्कन्धः श्रुतस्कन्धः आवश्यकं च तत् श्रुतस्कन्धश्च आवश्यक श्रुतस्कन्धः । आह— कस्मादिदमावश्यकं पडध्ययनात्मकम् ?, उच्यते, पडर्थाधिकारभावात्, ते चामी सामायिकादीनां यथाक्रममर्थाधिकाराः, "सावज्जजोगविरई १ उकिसण २ गुणवतो अ पडिवत्ती ३। खलियस्स निंदणा ४ वणतिगिच्छ ५ गुणधारणा ६ चैव ॥१॥” (अनु-६० वि. ९०२) अस्था विनेयजनानुग्रहायाक्षरगमनिका -प्रथमे सामायिक लक्षणेऽध्ययने प्राणातिपातादिसर्वसावद्ययोगविरतिरर्थाधिकारः, 'उक्कित्तण' इति द्वितीये चतुर्विंशतिस्तवाध्ययने प्रधानकर्म्मक्षयकारणत्वात् लब्धबोधविशुद्धिहेतुत्वात् पुनर्वोधिफलत्वाच्च सर्वसावद्ययोगवि रत्युपदेशकत्वेनोपकारिणां तीर्थकृतां गुणोत्कीर्त्तनाधिकारः, 'गुणवतो अ पडिवन्तीति गुणाः - मूलगुणोत्तरगुणरूपा व्रतपिण्डविशुद्ध्यादयस्ते विद्यन्ते यस्यासौ गुणवान् तस्य प्रतिपत्तिः बन्दनकादिका कर्त्तव्येति तृतीये वन्दनाध्ययनेऽर्थाधि| कारः, चशब्दात्पुष्टालम्बनेऽगुणवतोऽपि प्रतिपत्तिः कर्त्तव्येति द्रष्टव्यं, 'खलियरस निंदण' ति स्खलितस्य-मूलोत्तरगुणेषु प्रमादाचीर्णस्य प्रत्यागतसंवेगस्य जन्तोर्विशुद्धाध्यवसायक्तोऽकार्यमिति निन्दा प्रतिक्रमणेऽर्थाधिकारः, 'वणतिगिच्छा' ... अत्र स्कन्ध शब्दस्य निक्षेपाः वर्णयते For Pitate & Personal Use Only ~193~ स्कन्धनिक्षेपाः ॥ ८९ ॥ www.jainslibrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [H] “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं []-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इति कायोत्सर्गाध्ययने व्रणचिकित्सा अर्थाधिकारः, इदमुकं भवति चारित्रपुरुषस्य योऽयमतिचाररूपो भावगणस्तस्य | दशविधप्रायश्चित्तभेषजेन कायोत्सर्गाध्ययने चिकित्सा प्रतिपादयिष्यते इति, 'गुणधारणा चेवे' ति प्रत्याख्यानाध्ययने गुणधारणा अर्धाधिकारः, इदमत्र हृदयम् - मूलगुणोत्तरगुणप्रतिपत्तिस्तस्याश्च निरतिचारसन्धारणं यथा भवति तथा | प्रत्याख्यानाध्ययने प्ररूपणा करिष्यते, चशब्दादन्ये चापान्तरालार्थाधिकारा विज्ञेयाः, एवकारोऽवधारणे इति गाथार्थः॥ एतेषां चार्थाधिकाराणां प्रत्यध्ययनमर्थाधिकारद्वार एवावसरः, केवलमिह प्रसङ्गत उक्ताः । तदेवमावश्यक श्रुतस्कन्धानां न्यास उक्तः, इदानीमध्ययनन्यासप्रस्तावः तं चानुयोगद्वारक्रमायातं प्रत्यध्ययनमोघनिष्पन्ने नामनिष्पन्ने च लाघवार्थ वक्ष्यामः, एप आवश्यकस्य समुदायार्थः, साम्प्रतमवयवार्थप्रदर्शनाय एकैकाध्ययनं वक्ष्यामः, तत्र प्रथममध्ययनं सामाविकं प्रथमता चास्य समभावलक्षणत्वाच्चतुर्विंशतिस्तवादीनां च तद्भेदत्वात्, अस्य च सामायिकाध्ययनस्य महापुरस्येव चत्वारि अनुयोगद्वाराणि भवन्ति, अनुयोगो नाम सूत्रस्य व्याख्यानं तस्य द्वाराणीव द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानि अनुयोगद्वाराणि यथा हि अकृतद्वारं नगरमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि हस्त्यश्वरथजनसङ्कुलत्वात् दुःखसञ्चारं कार्याति पत्तये च जायते, कृतचतुर्मूलप्रतोलीद्वारं तु सप्रतिद्वारं सुखनिर्गमप्रवेशं कार्यानतिपत्तये च सामायिकपुरमप्यर्थाधि. गमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, कृतैकानुयोगद्वारमपि कृच्छ्रेण द्राघीयसा च कालेनाधिगम्यते, विहितसप्रभे| दोपक्रमादिद्वारचतुष्टयं तु सुखाधिगममल्पीयसा च कालेनाधिगम्यते, ततः फलवाननुयोगद्वारोपन्यासः, उक्तं च---- “अणुओगद्दाराई महापुरस्सेव तस्स चत्तारि । अणुओगोत्ति तदत्यो, दाराई तस्स उ मुहाई ॥ १ ॥ अकयद्दारमनगर, Jan Education International ••• अत्र अनुयोगद्वाराणि दर्शयते For Pitate & Personal Use Only ~194~ www.janlibrary.org Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं . नियुक्ति: [७९], भाष्यं H, विभा गाथा [९१५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अनुयोगद्वाराणि सूत्रांक दीप अनुक्रम जमोदात कएगदारपि दुक्खसंचारं। चउमूलद्दारं पुण सप्पडिदारं सुहाहिगमः।२॥ सामाइयपुरमेव (महपुरमवि) अक्रयद्दा तहेगदारं वा। नियुक्तिः दुरहिगमं चउदारं सप्पडिदारं सुहाहिगर्म ॥शा (वि.९०७-९) तानि चानुयोगद्वाराण्यमूनि-उपक्रमो निक्षेपः अनुगमो नयः, तत्र शाखमुपक्रम्यते-समीपमानीयते निक्षेपस्यानेनेति उपक्रमः, निक्षेपयोग्यतापादनमिति भावः, उपक्रमान्तर्गतभेदैहि विचारित निक्षिप्यते नान्यथेति, निक्षेपणं निक्षेपो-नामादिभेदैः शास्त्रस्य न्यसनं, अनुगमनमनुगम्यते वा शास्त्रमनेनेति अनुगमःसूत्रस्यानुकूलः परिच्छेदः, तथा नयनं नीयते वा अनेनेति नया-वस्तुनो वाच्यस्य पर्यायाणां सम्भवतोऽधिगमः । ननूपक्रमादिद्वाराणां किमित्येवं क्रमः!, उच्यते, इह नानुपक्रान्तं सत् निक्षिप्यतेऽसमीपीभूतत्वात् , गुरुपर्वक्रमलक्षणेन हि सम्बन्धेन समीपमानीतं नामादिभेदैनिक्षेसुं शक्यं, नान्यथेति, न च नामादिभेदैरनिक्षिप्तं यथावदर्थतोऽनुगम्यते, न चार्धतोननुगत नयैर्विचारयितुं शक्यते, ततोऽयमेव क्रमः, उकच-"दारक्कमोऽयमेव उ निक्खिप्पड जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइनानत्वं नाणुगमो नयमयविहूणो॥२॥"(वि.९१५)तत्र उपक्रमो द्विविधः-शास्त्रीय इतरश्च, तत्रेतरः षट्पकारः, तद्यथानामोपक्रमः स्थापनोपक्रमो द्रव्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः कालोपक्रमोभावोपक्रमश्च, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्योपक्रमो द्विधा आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतः उपक्रमपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्त्रिधा-ज्ञशरीरद्रव्योपक्रमो भव्यशरीहादग्योपक्रमो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्योपक्रमश्च, तत्राद्यभेददयं प्रतीतं, तव्यतिरिक्तद्रव्योपक्रम निविधस्तद्यथा सचिचद्रन्योपक्रमोऽचिचद्रव्योपक्रमः मिश्रद्रव्योपक्रमश्च, सचित्तद्रव्योपक्रमस्तु त्रिधा-द्विपदचतुष्पदापदोपाधिमेदात्, पुनरेकैको द्विधा-परिकर्मणि वस्तुनाशेष, वत्र परिकर्म नाम द्रव्यस्ख गुणविशेषपरिणामकरणं, वस्त्वभावापादनं वस्तुनाशः, तत्र ९० and in + Jainitiorary.org ~1954 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [७९], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम परिकर्मणि द्विपदोपक्रमो यथा पुरुषस्य वर्णादिकरणमथवा कर्णस्कन्धवर्द्धनादि, अन्ये तु शास्त्रगन्धर्वनृत्यादिकलासम्पादनमपि द्रव्योपक्रमं व्याचक्षते, तदसाधु, शास्त्रादिपरिज्ञानस्य विज्ञानविशेषात्मकत्वात् तदुपक्रमस्य भावोपक्रमत्वात् , यदिवा आत्मद्रव्यसंस्कारविवक्षया द्रव्योपक्रमत्वेऽप्यविरोधः, एवं शुकशारिकादीनामपि शिक्षागुणविशेषकरणं भावनीय, तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं चतुष्पदोपक्रमः, अपदानां वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्धक्यादिगुणापादनमपदोपक्रमः । ननु यत्स्वयं कालान्तरभाब्युपक्रम्यते यथा तरोर्वार्धक्यादि तत्र परिकर्मणि द्रव्योपक्रमता युक्ता, वर्णकरणं कलादिसम्पादनं च कालान्तरेऽपि विवक्षितहेतुजालमन्तरेण नोपपद्यते ततः कथं तस्य परिकर्मणि द्रव्योपक्रमता !, नैष दोषः, विवक्षितहेतुजालमन्तरेण नोपपद्यते इत्यस्यासिद्धत्वात् , वर्णो हि नामकर्मविषाकोदयसम्भवी कलादयोऽपि च ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमभाविनः, ततो विवक्षितहेतुजालमन्तरेणापि कालान्तरे स्वयमप्यते सम्भवन्ति, विभ्रमविलासादीनां युवावस्थायां तथा दर्शनात् , ततः स्वयं कालान्तरभाविनामेतेषां अर्वाक् विवक्षितहेतुजालेन | सम्पादनं उपपद्यते परिकर्मण्युपक्रमणमिति, वस्तुविनाशे तु पुरुषादीनामुपक्रमणं खङ्गादिभिर्विनाशः। आह-परिकमै. वस्तुविनाशयोरभेद एव, उभयत्रापि पूर्वरूपपरित्यागेनोत्तरावस्थापत्तेरविशिष्टत्वात् , तदसम्यक्, परिकर्मोपक्रमजनितोत्तररूपापत्तौ हि प्राणिनामविशेषेण प्रत्यभिज्ञानाद्युपजायते, वस्तुनाशोपक्रमसम्पादिते तूत्तरधर्मे वस्तुन्यदर्शन मिति महान है विशेषः, अथवा एकत्र नाश एव विवक्षितो नोचरावस्थेत्यदोषः, अचित्तद्रव्योपक्रमः परिकम्मणि यथा पद्मरागमणेः मासू. १६वारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादन, व तुविनाशे विनाशः, मिश्रद्रव्योपक्रमः परिकर्मणि कटकादिविभूषितपुरुषादिद्र In Education For Prats a persona unan Jainitiorary.org ~1964 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ९२६], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोदास निर्युक्तिः ॥ ९१ ॥ ४ व्यस्य शिक्षापादनं, वस्तुविनाशे खद्गादिभिर्विनाशः । कारकयोजना स्वधिया भावनीया, तद्यथा— द्रव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैर्वा द्रव्ये द्रव्येषु वा उपक्रमो द्रव्योपक्रमः, तत्र द्रव्यस्योपक्रमो यथा एकस्य पुरुषस्य शिक्षाकरणं, द्रव्याणामुपक्रमो यथा तेषामेव बहूनां द्रव्येणोपक्रमो यथा फलकेन समुद्रतरणं, द्रव्यैरुपक्रमो बहुभिः यथा फलकैर्नावं निष्पाद्य समुद्रोल्लङ्घनं द्रव्ये उपक्रमो यथा कस्याप्येकस्मिन् फलके उपविष्टस्य शिक्षाकरणं, द्रव्येषूपक्रमो वह्नषूपविष्टस्य, तथा क्षेत्रस्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः, सोऽपि द्विधा - परिकर्मणि वस्तुविनाशे च ननु क्षेत्रमाकाशं 'खेत्तं खलु आगास' मिति वचनात्, तश्चामूर्त्त नित्यं च ततः कथं तस्य परिकर्म्मविनाशोपपत्तिः १, उच्यते, इह तद्व्यवस्थितद्रव्यपरिकर्मविनाशौ भवतः | उपचारेण खलु क्षेत्रस्यापि परिकर्म्मविनाशौ व्यपदिश्येते भवति च तात्स्थ्यात्तद्द्व्यपदेशो, यथा-मञ्चाः क्रोशन्ति, ततो न कश्चिद्दोषः, तत्र परिकर्म्मणि क्षेत्रोपक्रमो नावा समुद्रस्योलङ्घनं हलकुलिकादिभिर्वा इक्ष्वादिक्षेत्रस्य परिकर्म्मणा, वस्तुविनाशे क्षेत्रोपक्रमो गजवन्धनादिभिः क्षेत्रस्य विरूपीकरणं, तथा कालो नाम वर्त्तनादिरूपत्वात् द्रव्यपर्यायः, ततो द्रव्यस्य परिकर्म्मणि वस्तुविनाशे वा कालस्यापि तावुपचर्येते इति कालोपक्रमः, उक्तं च - "जं वत्तणाइरूवो कालो दद्याण चेव पज्जाओ। ता तकरणविणासे कीरइ कालोवयारोत्थ (उ) ॥१॥ (वि. ९२६) अथ ये वर्त्तनादिरूपमेव कालमिच्छन्ति तम्मतेन कालोपक्रम एवंरूपो भवतात्, यस्तु लोकप्रसिद्धो घटिका मुहूर्त्तप्रहरादिरूपस्तस्य कथं परिकर्म्मरूपो विनाशरूपश्च उपक्रमः १, २ ॥ ९१ ॥ उच्यते, इह यत् शङ्कादिच्छायया नाडिकया वा यथार्थ प्रहरादिपरिज्ञानं स परिकर्म्मणि कालोपक्रमः, यत्तु ग्रहनक्षत्रादिचारविशेषैर्विरूपीभवनं स वस्तुविनाशे कालोपक्रमः, आह च- "छायाऍ नालियाए व परिकम्मं से जहत्थविण्णाणं । रिक्खा For Pityte & Personal Use Only ~197~ उपक्रमाः anorary.org Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ९२७], मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ईचारेहि व तस्स विणासो विवज्जासो ॥ १ ॥” (वि. ९२७) भावोपक्रमो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च तत्र आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतो द्विधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च भावोपक्रमो हि नाम परहृदयाकृतस्य यथावत्परिज्ञानं तच्च प्रशस्ताप्रशस्तविषयतया द्विभेदमिति द्विघा भावोपक्रमः - प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च तत्राप्रशस्तो ब्राह्मणीगणिकामात्यादीनां, अत्रोदाहरणानि, एगा मरुगिणी, सा चिंतेइ किह धूयाओ सुहियाओ होजत्ति ?, ताहे जेडिया धूया सिक्खविया -जह तुमं वरेण सह कीलंती अवसरं लहेऊण वरं मत्थए पन्हियाए आहणिज्जासि, तीए तहा कथं, सो तुट्ठो पायं महितुमारखो, न हु दुक्खाविया तुमंति, ततो पभाए तीए मायाए कहियं, ताए भण्णइ-जं करेहि तं करेहि, न एस तुब्भ अवरज्झइ' इति, बीया सिक्खविया, तीएवि तहा कथं, सो झंखित्ता उवसंतो, मायाए कहियं, सा भणइ-तुमपि बीसत्था चिट्ठह, नवरं झंखणतो एसत्ति, तइया सिक्ख विया, तीपवि पाएण मत्थए आहतो, सो रुहो, तेण दढं पिट्टिता, घाडिया य, तं अकुलपुत्ती जा एवं करेसि, तीए मायाए कहियं, पच्छा कहवि अणुगमिओ, अम्हं एस कुलधम्मोत्ति, घूया य भणिया- जहा देवयस्स तहा वट्टिजासि, न अन्नहा इति । गणियादितो - एगंमि नयरे चउसट्ठिकलाकुसला गणिया, तीए परभावोवकमणनिमित्तं रघरंमि सबाओ पगिईओ नियनियवावारं करेमाणीओ आलिहावियाओ, तत्थ य जो जो पर वज्रइमाइ सो सो नियं नियं सिप्पं पसंसेइ, नायभावो य सुअणुयत्तो हवइ, अणुयतिओ य उवयारं गाहितो बहुयं बहुयं दबजायं वियरह, एसवि अपसत्थो भावोदकमो । इयाणिममच्चदितो एगंमि नयरे कोइ राया अस्सवाइणियाए अमत्रेण सह निग्गतो, तत्थ य से अस्सेण वच्चंतेण कंमिवि परसे काइया वोसिरिया, खेलरं बद्धं तं पुढबीए थिरत्तणतो तहद्वियं चैव रण्णा पंडिनियस For Pitate & Personal Use Only ~ 198~ www.janlibrary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [७९], भाष्यं H, विभा गाथा [९३१-९३४], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम उपोद्घात-INमाणेण सुइरं निज्झाइयं, चिंतियं च रण्णा-इह तलागं सोहणं हवइत्ति, न उण वुर्स, अमचेण य इंगियागारकुसलेणी भाबोनियुकिनारायाणमणापुच्छिय महासरवरं खणावियं, से पालिए आरामा पचुरा कवा, तेणं कालेणं तेणं समएणं रन्ना पुणरवि पक्रमः अस्सवाहणियाए गच्छंतेणं दिह, भणियं चऽणेण-केणेयं खणावियं ?, अमच्चेण भणियं-सामि ! तुम्भेहि चेव, राइणा भणियं-कहं !, अमच्चेण भणियं-अवलोयणाए कहिए परितुद्वेण रण्णा पसाओ कतो, एसोऽवि अपसत्थो भावोवक्कमो, उक्तोऽप्रशस्तो भावोपक्रमः । इदानी प्रशस्त उच्यते-तत्र श्रुतादिनिमित्तमाचार्यभावोपक्रमः प्रशस्तः, आह-ननु व्याख्या पतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानमनर्थक, तदसम्यक्, तस्यापि व्याख्यानत्वात् , गुर्वधीना हि शास्त्रारम्भास्ततः। अवश्यं कर्तव्यो गुरुभावोपक्रमः, उक्तं च-"गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकाविणा मान्यम् ॥१॥(प्र.६९) तथा भाष्यकारेणाप्यभाषि-"गुरुचित्तायत्ताई वक्खाणंगाई जेण सबाई । तो ताजेण सुप्पसन्न होइ तयं तं तहा कज्जं ॥शा जो जेण पगारेणं तूसइ करणविणयाणुवित्तीहिं । आराहणाएँ मग्गो सोच्चिय अबाहतो तस्स ॥२॥ आगारिंगियकुसलं जइ सेयं वायसं वए पुजा । तहविय सिं नवि कूडे विरहमिय कारणं पुच्छे ॥३॥3 निवपुरिछएणगुरुणा मणितो गंगा कतोमुही वहइ ।। संपाइयवं सीसो जह तह सवत्थ काय ॥ ४॥ (वि. ९३१-४) एताश्चतस्रोऽपि भाष्यगाथा सुगमाः, नवरं चरमगाथाया भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्छेदम्-कन्यकुछने पुरे केनचिद्राज्ञा ॥१२॥ सूरिणा सह गोष्ठीप्रवन्धे प्रोफ-राजपुत्रा विनीता, सूरिणाऽभिहितं-साधवः, ततो विवादे सूरिणा प्रोकं-युष्मदीयः सर्वोत्कृष्टगुणो विनेयो राजपुत्रः परीक्ष्यतामस्मदीयस्त्वविनीतो भवतां यः प्रतिभासते स एव साधुरिति, ततोऽभ्युपगतं राज्ञा, CCAMESCRIPARK For any ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ९३१-९३४] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | समादिष्टश्च विनीततया प्रसिद्धो राजपुत्रः - कुतोमुखी गङ्गा वहतीति शोधय, तेनोक्तम्- किमिह शोधनीयं ?, बालानामपि प्रतीतमेतत् - पूर्वाभिमुखी गङ्गा प्रवहतीति, राज्ञा प्रोचे-किमिति त्वमत्रैव वितण्डावादं करोषि ?, गत्वा निरीक्षस्व तावत्, ततो मनस्यसूयां वहन् बहिः संवृतिं कृत्वा महता कष्टेन ततः प्रदेशान्निर्गतः, सिंहद्वारे च गच्छन् केनापि मित्रेण पवृच्छे-भद्र ! क्व गतव्यं ?, तेनासूयया प्रोकम्-अरण्ये रोझानां लवणदानार्थ, ततो मित्रेणोक्तम्- कोऽयं व्यतिकरो ?, राजपुत्रेण सर्वमपि राजादिष्टं निवेदितं, मित्रेणोक्तं- यदि राज्ञो ग्रहः संलग्नः तत्किं तवापि संलग्नः ?, गत्वा निवेदयनिरीक्षिता मया गङ्गा, पूर्वाभिमुखी वहति, तथैवानुष्ठितं राजपुत्रेण, प्रच्छन्नहेरिकेण च निवेदितं राज्ञस्तच्चेष्टितं, ततो बिलक्षेण राज्ञा प्रोक्तम्- भव्यं साधुरपि परीक्ष्यतां, ततो यः कश्चिदविनीतो राज्ञा लक्षितस्तद्विषये राज्ञा परीक्षार्थं प्रतिपादितेन गुरुणाऽभिहितः स शिष्यो गत्वा निरीक्षस्व केन मुखेन गङ्गा बहतीति, तत्र पूर्वाभिमुखी गङ्गा बहतीति गुरवोऽपि विदन्ति, परमत्र केनापि कारणेन भवितव्यमिति चेतसि निश्चित्य तेन प्रोकम् - इच्छाम्यादेशमिति एतच्चाभिधाय निर्गतः प्राप्तो गङ्गां निरीक्षिता सा स्वयं तदनन्तरं पृष्टा परेभ्यः तदनु शुष्कतृणादिवाहने नान्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चिता, ततो निवेदितमागत्य गुरुभ्यः - इत्थमित्थं च मया निश्चितं पूर्वाभिमुखी गङ्गा वहतीति, प्रच्छन्नहेरिकेणाप्यस्य सर्वे निवेदितं, ततोऽभ्युपगतं सहर्षेण राज्ञा गुरुवचनमिति । ननु यद्येवं गुरुभावोपक्रम एवाभिधातव्यो न शेषा निष्प्रयोजनत्वात्, तदयुक्तं, गुरुचित्तप्रसादनार्थं तेषामुपयोगित्वात्, तथाहि देशकालावपेक्ष्य परिकर्मनाशौ द्रव्याणामुदक|दनादीनामाहारादिकार्येषु कुर्वन् हरति विनेयो गुरूणां चेतः, अथवोपक्रमसामान्यात् प्रकृते निरुपयोगा अप्यन्यत्रोपयो For Pitate & Personal Use Only ~ 200~ jainslibrary.org Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ ९३१-९३४] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घात निर्युक्तिः ॥ ९३ ॥ श्यन्ते इत्युपन्यस्तास्ततो न कश्चिद्दोष इत्यलं प्रसङ्गेन, उक्त इतर उपक्रमः । सम्प्रति शास्त्रीय उच्यते, स षोढा, तद्यथाआनुपूर्वी १ नाम २ प्रमाणं ३ वक्तव्यता ४ अर्थाधिकारः ५ समवतारां ६, तत्रानुपूर्वी दशधा तद्यथा-नामानुपूर्वी स्थापनानुपूर्वी २ द्रव्यानुपूर्वी ३ क्षेत्रानुपूर्वी ४ कालानुपूर्वी ५ गणनानुपूर्वी ६ उत्कीर्त्तनानुपूर्वी ७ संस्थानानुपूर्वी ८ ७ सामाचार्यानुपूर्वी ९ भावानुपूर्वी १०, उक्तं च- "नामं ठवणादविए, खेते काले य गणण अणुपुबी । उकित्तण संठाणे मैं सामायारी य भावे य ॥ १ ॥” एतासु दशस्वानुपूर्वीषु यथासम्भवमवतारणीयमिदं सामायिकाध्ययनं तत्रोत्कीर्त्तनानुपूर्व्या गणनानुपूर्व्या चाजसा समवतरति, उत्कीर्त्तनं नाम संशब्दनं यथा सामायिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि, गणनंपरिसवानं, एकं द्वे त्रीणि चत्वारि, सा च गणनानुपूर्वी त्रिप्रकारा, तद्यथा पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी च तत्र सामायिकं पूर्वानुपूर्व्या प्रथमं पश्चानुपूर्व्या षष्ठम्, अनानुपूर्व्या त्वनियतं कचित्प्रथमं क्वचिद् द्वितीयमित्यादि, तत्रानानुपूर्वीणामयं करणोपायः, -एगादेगुत्तरगा छगच्छगया परोप्परऽव्भत्था । पुरिमंतिमदुगहीणा परिमाणमणाणुपुबीनं ||१|| (वि. ९४२) अस्या गाथाया अक्षरगमनिका-एकाद्या एकोत्तरकाः अड्डा व्यवस्थाप्यन्ते, एकोत्तरका इति एकैक उत्तरोबर्द्धमानो येषु ते एकोत्तरकाः ते च षडध्ययनप्रस्तावात् षड्गच्छगताः समवसेयाः, तत्र पण्णां गच्छः-समुदायः षड्गच्छः तं गताः- तत्प्रतिबद्धाः ते च परस्पराभ्यस्ताः - परस्परगुणिताः प्रथमान्तिमभङ्गद्वयरहिताः सर्वसङ्ख्यारूपमनानुपूर्वीणां परिमाणं ॥ ९३ ॥ भवति, तथाहि एकोत्तरकाः पढ़ध्ययनविषयाः पडङ्काः स्थाप्यन्ते, १ । २ । ३ । ४ । ५ । ६ । ते च परस्परं गुण्यन्ते, तद्यथा- एक केन द्विको गुण्यते, जातौ द्वौ, एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् द्वाभ्यां त्रिको गुण्यते जाताः पटू ~ 201~ अनानुपूविभेदाः jainslibrary.org Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [७९], भाष्यं H. वि०भा०गाथा [९४३], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 8952 दीप अनुक्रम H तैश्चत्वारो गुण्यन्ते जाताः चतुर्विशतिः तया पञ्च गुण्यन्ते जातं विशं शतं, तेन षट् गुण्यन्ते, जातानि विशानि सप्त भङ्गकशतानि ७२०, इह च प्रथमभङ्गः पूर्वानुपूर्वीरूपःचरमभङ्गस्तु पश्चानुपूर्वीरूपस्तदपनयनेऽष्टादशोत्तराणि सप्त शतानि | सर्वसङ्ख्यया अनानुपूर्वीभङ्गकपरिमाणं, अथवेयमनानुपूर्वीभङ्गकानामानयनोपायभूता करणगाथा-"पुवाणुपुधि हेहा सम| याभेएण कुण जहाजेई । उवरिमतुल्लं पुरओ नसेज पुबक्कमो सेसे॥१॥"(वि.९४३) अस्या अपीयमक्षरगमनिका-इह विवक्षितपदानां क्रमेण स्थापना पूर्वानुपूर्वी, तस्या अधस्ताद् द्वितीयादिभङ्गकान जिज्ञासुः कुरु-स्थापय एकादिपदानीति शेषः, कथमित्याह-ज्येष्ठस्यानतिक्रमेण यथाज्येष्ठं, यो यस्यादौ स तस्य ज्येष्ठः, यथा एकको द्विकस्य ज्येष्ठः, त्रिकस्यानुज्येष्ठा, चतुष्कादीनां तु ज्येष्ठानुज्येष्ठः, एवं त्रिकस्य द्विको ज्येष्ठः, स एव द्विकश्चतुष्कस्यानुज्येष्ठः पञ्चकादीनां ज्येष्ठानुज्येष्ठः, एवं सत्युपरितनाङ्कस्याधस्तात् ज्येष्ठो निक्षिप्यते तस्मिन्नलभ्यमानेऽनुज्येष्ठस्तस्मिन्नप्यलभ्यमाने ज्येष्ठानुज्येष्ठ इति यथाज्येष्ठ निक्षेपं कुरु, किमनियमेन, नेत्याह-'समयाभेदेन' समयः-संकेतः प्रस्तुतभङ्गरचना व्यवस्था तस्य अभेदः-अनतिक्रमः तेन समयाभेदेन निक्षेपं कुरु, समयस्य च भेदस्तदा भवति यदा तस्मिन्नेव भजनके निक्षिप्ताङ्कसदृशोऽपरोऽप्यङ्कः समापतति, तत एवम्भूतं समयभेदं वर्जयन्नेव ज्येष्ठाद्यङ्कनिक्षेपं कुरु, उक्तं च-"जहियम्मि उ निक्खित्ते, पुणरवि सो चेव अंकविनासो। सो होइ समयभेदो वजयवो पयत्तेणं ॥१॥"(अनु.चू.) निक्षिप्तस्य चाकस्य पुरस्तात्-अग्रतः उपरितना: तुल्यं-सदृशं यथा मवति एवं न्यसेत् , उपरितनाङ्कसदृशानेवाङ्कान् पुरतः स्थापयेदित्यर्थः, 'पुश्वक्कमो सेसे' इति यथासङ्ख्यं निक्षिप्ताङ्कस्य दि यथासम्भवं पृष्ठतः शेष-पद्धरितशेषाङ्कानाम् पृष्ठतस्तानेवोद्धरित शेषान् पूर्वक्रमेण स्थापयेत्, यः समया लघुः स प्रथम an Education wwwjainitiorary.org. ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [७९], भाष्यं H. वि०भा०गाथा [९४३], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नि.लावस्वता प्रत सूत्रांक 4 दीप पोडात- स्थाप्यते यस्तु सङ्ग्यया महान् स पश्चात् एष पूर्वक्रमः, पूर्वानुपूर्वीलक्षणे प्रथमभङ्गके इत्थमेव क्रमस्य दृष्टत्वादिति करण-18 नयुक्ति गाथार्थः, भावार्थस्तु दिङमात्रप्रदर्शनाय सुखाधिगमाय ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि त्रीणि पदान्याश्रित्योपदय॑ते-तत्र एकद्धि विलक्षणस्य पदत्रयस्याभ्यासे सामान्येन सर्वसङ्ख्यया षड् भङ्गाः, ते चैवमधिकृतेन करणेनानीयन्ते, तत्रायं पूर्यानुपूर्वीलक्षणः ॥९४ ॥ प्रथमो भङ्गकः १।२।३ । अस्याश्च पूर्वानुपूर्व्या अधस्ताद् भङ्गकरचनायां क्रियमाणायामेककस्य तावत् ज्येष्ठ एव हा दिनास्ति, द्विकस्य तु विद्यते एककः स तदधस्तानिक्षिप्यते, तस्य चाग्रत 'उवरिमतुलं पुरतो नसेज' इति वचनात् त्रिको म्यस्यते, पृष्ठत उद्धरितशेषो द्विको दीयते, ततोऽयं द्वितीयो भङ्गकः सम्पन्नः २।१।३ । अत्र द्विकस्य विद्यते ज्येष्ठः परं नासौ तदधस्तान्निक्षिप्यते, अग्रतः सदृशाङ्कपातेन समयभेदप्रसङ्गात् , एककस्य तु ज्येष्ठ एव नास्ति, त्रिकस्य तु, विद्यते ज्येष्ठो द्विकः स तदधस्तानिक्षिप्यते, अत्र चाप्रभागस्य तावदसम्भव एव, पृष्ठतस्तु स्थापितशेषौ एककत्रिको * क्रमेण स्थाप्यते, 'पुवकमो सेसे' इति वचनात्, ततोऽयं तृतीयो भङ्गका सज्जातः १।३।२। अत्राप्येकस्य ज्येष्ठ एव न विद्यते, त्रिकस्य तु ज्येष्ठोऽस्ति द्विको न चासौ तदधस्तान्यस्यते, अग्रे सदृशापातेन समयभेदापत्तेः, ततोऽस्यैवानुज्येष्ठ एकक स्थाप्यते, अग्रतस्तु द्विको दीयते, 'उवरिमतुल्लं पुरतो नसेज' इति वचनात् , पृष्ठतस्तु स्थापितशेषस्त्रिको व्यवस्थाप्यते इति चतुर्थों भक्तः३।१।२। अधत्रिकस्य विद्यते द्विको ज्येष्ठः एककश्वानुज्येष्ठः परं तौ न तदधस्ता-15 निक्षिप्येते, पुरतः सदृशाङ्गपातेन समयभेदपसनात्, एककस्य तु ज्येष्ठ एव नास्ति, द्विकस्य तु अस्त्येकको ज्येष्ठः स तदधस्ताव्यस्यते, तस्य पृष्ठतस्तु स्थापितशेषौ द्विकविको क्रमशः स्थाप्यते इति पञ्चमो भतः २।३।१ अत्र द्विकस्या अनुक्रम ~203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [७९], भाष्यं H. वि०भा०गाथा [९४३], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम स्त्येकको ज्येष्ठः किन्त्वसौ न तदधस्तानिक्षिप्यते, पुरतः सदृशान्यासापत्त्या समयभेदप्रसक्तः, त्रिकस्य तु द्विको ज्येष्ठः, स तदधस्तानिक्षिप्यते, अग्रतस्त्वेकको दीयते, 'उवरिमतुलं पुरतो नसेज' इति वचनात्, पृष्ठतस्तु स्थापितशेषत्रिका शस्थाप्यते, एष षष्ठो भङ्गः३।२।१ षण्णामपि च भङ्गानामियं समुदायस्थापना ॥ अत्राद्यभङ्गस्य पूर्वानुपूर्वीत्वाच्चरमस्य च पश्चानुपूर्वीत्वाम्मध्यमा एव चत्वारो भङ्गाः अनानुपूर्वीत्वेन मन्तव्याः, एवं चतुःपञ्चषट्सप्ताष्टादिपदानामपि भङ्गकाः समानेतव्याः। इदानीं नाम वक्तव्यं-प्रतिवस्तु नमनान्नाम, तच्चैकादिदशान्तं यथाऽनुयोगद्वारेषु तथा वक्तव्यं, तत्र सामायिकस्य पण्नाम्न्यवतारः, तत्र च षट् भावा औदयिकादयो निरूप्यन्ते, तत्र सर्वस्यापि श्रुतस्य क्षायोपशमिकत्वात् क्षायोपशमिके भावेऽवतारः । तथा प्रमाण द्रव्यादि, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणमिति व्युत्पत्तेः, तच्च |प्रमाणं प्रमेयभेदाच्चतूरूपं, तद्यथा-द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रप्रमाणं कालप्रमाणं भावप्रमाणं च, तत्र सामायिक भावात्मकत्वात् भाव-| दाप्रमाणविपयं, तच्च भावप्रमाणं गुणनयसङ्ख्याभेदात् त्रिप्रकार, तद्यथा-गुणप्रमाणं नयप्रमाण सत्याप्रमाणं चेति, तत्रेदं जीवगुणरूपत्वात् गुणप्रमाणेऽन्तर्भवतीति, गुणप्रमाणमपि द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र जीवादपृथगभूतत्वात् सामायिकस्य जीवगुणप्रमाणे समवतारः, जीवगुणप्रमाणमपि त्रिधा, तद्यथा-ज्ञानगुणप्रमाणं दर्शनगुणप्रमाणं | चारित्रगुणप्रमाणं च, तत्र बोधात्मकत्वात् सामायिकस्य ज्ञानगुणप्रमाणे समवतारः, ज्ञानगुणप्रमाणमपि चतुद्धा, तद्यथा-प्रत्यक्षमनुमानमुपमानमागमश्च, तत्र सामायिकस्य प्रायः परोपदशसन्यपेक्षत्वादागमप्रमाणे समवतारः, आगमोऽपि द्विधा लौकिकलोकोत्तर भेदात् , तत्रेदं सामायिक सर्वज्ञप्रणीतत्वाल्लोकोत्तरे समवतरति, ननु लोको E Jainitiorary.org ~ 204 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ।। ९५ ।। Jan Education from “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [९४७, ९४८, ९५०], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सरोऽप्यागमः सूत्रार्थीभयरूपत्वात् त्रिविध एव तत्रेदं क्वान्तर्भवति १, उच्यते, सामायिकस्य सूत्रार्थीभवरूपत्वात्रिविधेऽपि लोकोत्तरागमे, उक्तं च- "जीवानन्नत्तणतो जीवगुण बोहभावतो नाणे । लोगुत्तरमुत्तत्थोभयागमे तस्स भावाओ ॥१॥ (वि. ९४७) ननु लोकोत्तर आगमस्त्रिधा, तद्यथा-आत्मागमः अनन्तरागमः परम्परागमश्च ततः केद्रं समवतरति १, उच्यते, इदं सूत्रतो गौतमादीनामात्मागमः तच्छिष्याणां जम्बूस्वामिप्रभृतीनामनन्तरागमः, प्रशिष्याणां तु प्रभवप्रमुखाणां परम्परागमः, तथा अर्थतोऽर्हतामात्मागमः गणधराणामनन्तरागमः सच्छिष्याणां परम्परागमः एवं सूत्रतोऽर्थतश्च त्रिविधे प्रमाणेऽन्तर्भवति, उक्तं च- "सुत्ताउ गणहराणं तस्सिसाणं तहा पसिस्साणं । एवं अत्ताणंतरपरम्परागमपमाणमि ||१||” “अत्थेण उ तित्थंकरगणहरसिस्साणमेवमेवेदं ॥ (वि. ९४८॥ ) " नयप्रमाणे तु मूढनयं कालिक श्रुतमिति नयस्य नाधुनाऽवतारः, पूर्व त्वनुयोगानामपृथग्भावे स आसीत्, यदिवा पुरुषं कञ्चनापि समासाद्य नयप्रमाणतस्त्ववित्। | यथाशक्ति नयेऽपि समवतारं कुर्यात्, आह ब - "आसि पुरा सो नियतो अणुओगाणमपुहुत्तभावंम | संपइ नत्थि पुहुत्ते | होज्जवि पुरिसं समासज्ज ॥ १॥" (वि. ९५०) सम्प्रति सङ्ख्याप्रमाणं चिन्त्यते, तत्र सङ्ख्या नामस्थापना व्यक्षेत्रकालोपम्यपरिमाभावभेदादष्टप्रकारा यथाऽनुयोगद्वारेषु तथा वक्तव्या, तत्रोत्कालिक श्रुतपरिमाणसङ्ख्यायां समवतारः, तत्र सूत्रतः सामा| यिकं परिमितप्रमाणं अर्थतोऽनन्तपर्यायत्वादपरिमितप्रमाणं । सम्प्रति वक्तव्यता, सा त्रिविधा, तद्यथा-स्वसमयवक्तव्यता परसमयवक्तव्यता उभयसमयव कव्यंता चेति, तत्र समयः - सिद्धान्तः वक्तव्यता - पदार्थविचारः, तत्र स्वसमयवक्तव्य| तायामस्य सामायिकाध्ययनस्य समवतारः, स्वसमयस्यैव अत्र प्रतिपाद्यमानत्वाद्, एवं सर्वाण्यप्यध्ययनानि स्वसमयवक्त For Pyate&Personal Use Only ~ 205~ नामप्रमाणे ॥ ९५ ॥ wjainslibrary.org Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [७९], भाष्यं H, विभा गाथा [९५३,९५८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक KKRA% EXX - दीप अनुक्रम व्यतायां समवतारणीयानि, परसमयप्रतिपादकानां उभयसमयप्रतिपादकानामपि सम्यग्दष्टेः स्वसमयत्वात् , हेयोपादे| यार्थानां सम्यक् हेयोपादेयतया परिज्ञानात् , आह च-परसमओ उभयं वा सम्मदिद्विस्स ससमओ जेणं । तो सबज्झयणाई ससमयक्त्तवनिययाई ॥१॥(वि.९५३)" इदानीमाधिकारः, स चाध्ययनसमुदायार्थः, स च स्वसमयवकन्यतैक-| देशः, सच सावद्ययोगविरतिरूपः । इदानीं समवतारः, स च लावार्थ प्रतिद्वारं समवतारणाद्वारेण प्रदर्शित एव, उक्त उपक्रमः । इदानी निक्षेपः, स च त्रिविधस्तद्यथा-ओपनिष्पनो नामनिष्पञ्चः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च, तत्रौषो नाम सामान्य शाखाभिधाने, तच्चेह चतुर्विधम्-अध्ययन १ मक्षीण २ मायः ३ क्षपणा ४च, एकंच-"ओहो जं सामन्न, सुयाभिहाणं चउविहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य पत्तेय॥२॥"(वि.९५८) पुनरेकैकं नामादिभेदाच्चतुर्विधं, तद्यथा-नामा| ध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं भावाध्ययनं च, तथा नामाक्षीणं स्थापनाक्षीणं द्रव्याक्षीणं भावाक्षीणं, तथा नामायः स्थापनायो द्रव्यायो भावायः, नामक्षपमा स्थापनाक्षपणा द्रव्यक्षपणा भावक्षपणा च, एतानि च यथा|ऽनुयोगद्वारेषु तथा प्ररूप्येदं सामायिकमध्ययनं भावाध्ययने भावाक्षीणे भावाये भावक्षपणायां चायोज्यं, तत्र यस्मादनेन शुभमध्यात्म जन्यतेऽथवाऽध्यात्ममानीयते, अधिकं वा अयनं बोधस्य संयमस्य मोक्षस्य वा इदमित्यध्ययनमाद्यव्युत्पत्तिपवदये पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तथा शिष्येभ्योऽनवरतं दीयमानमप्यम्युच्छित्तिनयापेक्षया नक्षयमुपयात्यलोकवदित्यक्षीणं, शानदर्शनचारित्राणां प्राप्तिहेतुत्वादायः, पापकर्मक्षपणहेतुत्वात् क्षपणा, उक्तं च-"जेण सुहज्झप्पजणणं| अजझाप्पाणयणमडियमयणं वा ।बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स च तमायणं ॥१॥अमीणं दिजंतं अघोच्छिचिनयतो E - - wwwjainitiorary.org. ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युक्तिः ॥ ९६ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [७९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [९६०, ९६१,९७०], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अलोगोब । आयो नाणाईणं झवणा पावाण खवणंति ॥ २ ॥ (वि. ९६० - १) नामनिष्पन्ने निक्षेपे सामायिकमिति विशेषनाम, तञ्च नामादिभेदाच्चतुर्विधमिदं च निरुक्तिद्वारे सूत्रस्पर्शिकनिर्युकौ च प्रपञ्चेन वक्ष्यामः, आह-यदि तदिह नाम अबसरप्राप्तं तर्हि किमिति निरुक्त्यादावस्य स्वरूपप्रतिपादनं । तत्र चेत् स्वरूपाभिधानमस्य तर्हि कस्मादत्रोपन्यासः ?, उच्यते, इह निक्षेपद्वारे निक्षेपमात्रस्यैवावसरः, निरुकौ तु तदन्वाख्यानस्येत्यदोषः, नन्वेवमपि निरुक्तिद्वार एव यदि सामायिकव्याख्यानं ततः किं सूत्रे पुनरभिधीयते ?, तदसम्यकू, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, सूत्रे हि सूत्रालापकव्याख्यानं, न तु नाम्नः, निरुक्तौ तु निक्षेपद्वारन्यस्तं सामायिकमित्यध्ययनाभिधानं निरूप्यते, इत्यलं प्रसङ्गेन, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । सम्प्रति सूत्रालापक निष्पननिक्षेपस्यावसरः, स च प्राप्तावसरोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मादिति चेत्, उच्यते, सूत्राभावाद, असति हि सूत्रे कस्यालापकस्य निक्षेपः १, ततोऽस्तीतः तृतीयमनुयोगद्वारमनुगमाख्यं तत्रैव निक्षेप्स्यामः, आह-यदि प्राप्तावसरोऽप्यसाविह न निक्षिप्यते ततः किमित्युपन्यस्यते ?, उच्यते, निक्षेपसामान्यात्, आह च- "इह जइ पत्तोऽवि तओ न नस्सए कीस भण्णए इहई १ । दाइज्जइ सो निक्खेवमित्तसामण्णतो नवरं ॥१॥” (वि. ९७०) इदानीमनुगमावसरः, स च द्विधा -निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमञ्च, निर्युक्त्यनुगमस्त्रिविधः, तद्यथा-निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमः, उपोद्घात| निर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शक नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमो नाम यदधो नामादिन्यासान्ध्याख्यानमुक्तं ततः सोऽनुगत एव, इदानीमुपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमप्रस्तावः, स च उद्देशादिद्वारलक्षणः, ततोऽस्य महार्थत्वात् मा भूद्विन इति प्रारम्भेऽस्य मङ्गलमुच्यते, आह- ननु मङ्गलं प्रागेवोकं ततः किं पुनस्तेन ?, अथ कृतमङ्गलैरपि पुनर्मङ्गलमभिधीयते For Pivate & Personal Use Only ~ 207 ~ ओघनिष्पनादिभेदाः ॥ ९६ ॥ www.janlibrary.org Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] 智友:送 “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ८० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [९६०, ९६१, ९७०], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तर्हि प्रतिद्वारं प्रत्यध्ययनं प्रतिसूत्रं च वक्तव्यमिति, ततः कश्चिदेवं प्रतिविधानमाह मार्क्स हि शाखखादी मध्येऽवसाने चेति प्रतिपादितं, तत्रादिमङ्गलं ज्ञानपञ्चकरूपमुक्तमिदानीं मध्यमङ्गलमुच्यते इति, तदेतदयुक्तं, शाखमेव हि तावन्नारभ्यते, अनारब्धे तु शास्त्रे कुतो मध्यावकाश इति । अथ ब्रूयात् चतुरनुयोगद्वारं शास्त्रम्, अत एव चानुयोगद्वाराणां शास्त्राङ्गना, तलेोऽनुयोगद्वारद्वये उपक्रमनिक्षेपरूपेऽतिक्रान्ते मध्यावकाश इति भवति मध्यमङ्गलावसरः, नन्वेवमपीदं शास्त्रमध्यं न भव, अध्ययनमध्यत्वात्, शास्त्रमध्ये व मध्यमङ्गलाबसर इति यत्किञ्चिदेतत्, तस्मादयमत्र पक्षः श्रेयान्इह यत दी मह प्रतिपादितं तदावश्यकस्यादिमङ्गलं, इदं तु वक्ष्यमाणं न आवश्यकस्य, किन्तु सर्वानुयोगोपयोग्युपो घातनिर्युक्तिरूपः प्रकान्त उपोद्घातः तस्य, सर्वानुयोगोपयोगित्वेनास्य महार्थत्वात् कथञ्चित् शास्त्रान्तरत्वात्, तथा च सर्वानुयोगोपयोगितामेव दर्शयन् वक्ष्यति "आवस्सयस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे निज्जुतिं बोच्छामि तहा दसाणं च ॥ १ ॥” इत्यादि, तथा “सेसेसुवि अज्झयणेसु होइ एसेव निजत्ती' इत्यत्र शेषेष्वप्यभ्ययनेषु| चतुर्विंशतित्तवादिष्विति, आह— सामायिकान्वाख्यानेऽधिकृते कोऽत्र दशवैकालिकादीनां प्रस्तावो येन तदुत्क्षेपोऽत्र | क्रियमाणः शोभते ?, उच्यते, उपोद्घातसामान्यात्, तथाहि तेषामपि प्रायः खल्वयमेवोपोद्घातः, स्तोको विशेषः, स च स्वस्वनिर्युको वक्ष्यते इत्यदोषः इत्यलं प्रपचेन । तत्रोपोद्घातस्यादिमङ्गलमाह तित्थपरे भगवंते अणुत्तरपरकमे अभियनाणी । तिने सुगइगइगए सिद्धिपहपदेसए वंदे ॥ ८० ॥ तीर्थे कुर्वन्तीत्येवंशीलास्तीकराः, 'हेतुतच्छीलानुकुडेवि 'त्यादिना टः प्रत्ययः, अर्थ तीर्थमिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, Jan Education ... अत्र तीर्थंकरस्य विशेषण सह वंदना क्रियते For Pitate & Personal Use Only ~208~ www.jinslibrary.org Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८०], भाष्यं H. विभा गाथा [१०३०], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - ॥९७॥ 4 दीप अनुक्रम SCk तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ, 'दिरमिहनिनीकुषपागोरविकाशिवचिरिचिसिचिभ्यः किदिति कित्प्रत्ययः,तञ्च नामादिभेदाचतुर्धा, तीर्थकरवतद्यथा-नामतीर्थ स्थापनातीर्थ द्रव्यतीर्थ भावतीर्थ च, नामस्थापने सुगमे, द्रव्यतोऽपि यावत् नोआगमतो ज्ञशरीरभ- न्दनम् गा. व्यशरीरे, तद्व्यतिरिक्तं नद्यादीनामनपायः समो विभागः, तीर्थसिद्धौ च त्रितयं सिद्धं, तद्यथा-तरीता तरणं तरणीयं || च, तत्र पुरुषस्तरीता बाहुडुपादि तरणं नधादि तरणीय, द्रव्यता स्वस्य तीर्णस्यापि पुनस्तरणीयभावात् , कदाचिदपायसम्भवेनानेकान्तिकत्वाञ्च, अथ तीर्थ नद्यादिनानतीर्थ पुराणेषु प्रसिद्धं गीयते, न शेष, तच्च भवतारणात्तीर्थमिति, तदसम्यक्, तस्यापि बाह्यमलमात्रापनयनकारितया द्रव्यतीर्थत्वानतिकमात्, न खलु तदान्तरं मलमपनेतुं समर्थम्, आ-x न्तरो हि मलः सर्वधा समुच्छिन्नो भवति भाविमलोत्पत्तिनिरोधतः प्राचीनमलविध्वंसतश्च, तत्र भाविमलोत्पत्तिनिरोध-6 स्तावत्तीर्थस्नानान्न भवति,मलो हि प्राणातिपातादिकारणपूर्वकस्ततस्तन्निवृत्त्यैव तदुत्पत्तिनिरोध उपजायते, न तीर्थस्नानमात्रात्, अत एवोक्तमत्र धर्मकीर्तिना-"वेदप्रामार्ण्य कस्यचित्कर्तृवादः, स्ाने धर्मेच्छाजातिवादायलेपः । सन्तापारम्भः पापहानाय चेति, ध्वस्तप्रज्ञाने पञ्च लिङ्गानि जाब्ये ॥१॥" अन्यच्च-तीर्थस्नान विशेषतो भाविमलोत्पत्तिकारणं, न पुनस्तदुत्पत्तिनिरोधहेतुः,जीवोपघातहेतुत्वादुदूखलायधिकरणवत्, तथाहि-तीर्थस्नानं कुर्वता विराध्यन्ते बहवोऽष्का-10 यिका जीवा इति, प्रतीतमेतत् तत्त्ववेदिनां, तत उदूखलायधिकरणमिव शूनाङ्गमिदमिति न भवतारणायोपजायते, इतश्च न भवतारणकारणं-कामाबतया यतिजनायोग्यत्वात्, मण्डनवत्, आह प-"सूणंगपि व तमुखलं व न य मोक्खकारणं से पहाणं । न य जइजोग्ग तं मंडणंव कामंगभावातो॥१॥"(वि.१०३०) नापि प्राचीनमलोच्छेदहेतुः, प्राचीनमलस्य विशिष्ट JanEduration noor For PiaNAParamal-Un Dil X a nationary.org ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८०], भाष्यं H. विभागाथा [१०३२], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 554%4 - CAKACCIA दीप अनुक्रम कियासव्यपेक्षाध्यवसायजन्यस्य तत्पत्यनीकक्रियासहगताध्यवसायत एव क्षयसम्भवात् ततो भाविमलोत्पत्तिनिरोधाभावतः प्राचीनमलक्षयाभावतश्च भवतरणानुपपत्चेने भावतीर्थ नद्यादितीर्थमिति, भावतीर्थ द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो ज्ञाता उपयुक्त, नोआगमतः सङ्घः सम्यग्दर्शनादिपरिणामानन्यत्वात् , उक्तंच-"तित्थं भंते ! तित्थं तित्थयरे तित्य, गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थंकरे, तिरथं पुण चाउचण्णो समणसंघो"इति(१२-६८२) अस्मिंश्वभावतीर्थे तरीता | तद्विशेष एव साधुः, सम्यगदर्शनादित्रयंकरणभावापन्नं तरणं, तरणीयः संसारसमुद्रः, आहष-"भावे तित्थं संघो सुयविहि तारतो तहिं साहू । नाणाइतियं तरणं तरियबो भवसमुद्दो ॥२॥"(वि.१०३२) अथवा यथा नद्यादिगतः समो वि|भागोऽनपायः पङ्कप्रक्षालनाद्दाहोपशमात्पिपासाव्यवच्छेदात्तीर्थमिति प्रसिद्धं, पृषोदरादिदर्शनतत्रिषु स्थितमिति तीर्थमिति | व्युत्पत्तेः, एवं सहोऽपि कर्ममलक्षालनात् क्रोधाग्निदाहोपशमात् लोभरूपतृष्णाव्यवच्छेदाच त्रिषु स्थित इति तीर्थमित्युहाच्यते, उक्तं च-"पदाहपिपासानामपहारं करोति यत् । तद्धर्मसाधनं तथ्यं, तीर्थमित्युच्युते बुधैः ॥१॥" अथवा नद्यादिगतं द्रव्यतीर्थ चतुर्दा दृष्ट, तद्यथा-सुखावतारं सुखोत्तारं १ सुखावतारं दुरुत्तारं २ दुःखावतारं सुखोत्तारं ३ दुःखावतारं दुरुत्तारं ४, एवं भावतीर्थमपि चतुर्द्धा द्रष्टव्यं, तत्र यत्र सुखेनैवावतरन्ति-प्रविशन्ति प्राणिनः सुखेनैव च यत उत्तरन्ति-यन्मुञ्चन्ति तरसुखावतारं सुखोत्तारं, तच्च शैवं द्रष्टव्यं, तत्र रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गमनोवाकायजयादिलक्षणदुष्करानुष्ठानाभावतः सुखेनैव प्रवेशात् , निपुणयुक्त्यभावतो निविडवासनाया आकालपरिपालनहेतुभूताया अयोगतः, "शैवो द्वादश वर्षाणि, प्रतं कृत्वा ततः परम् । यद्यशक्तस्त्यजेत् पश्चादू, यागं कृत्वा व्रतेश्वरे ॥१॥" इत्या E 9424CESAX an Educa t ion wwimwaintiorary.org, ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ८० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १०४०, १०४१, १०४८], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ ९८ ॥ उपोद्घात-दिना दीक्षात्यागस्य निर्दोषताश्रवणाश्च सुखेनैव मोक्षणसम्भघाच, तथा यत् सुखेन स्वीक्रियते दुःखेन परित्यन्यते तत् निर्युतिः सुखावतारं दुरुत्तारं तच्च बौद्धं शासनं, तत्र हि 'मृद्धी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भकं मध्ये पानकं चापरा । द्राक्षाखण्डं शर्करा बार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यसिंहेन दृष्टः ॥ १ ॥" तथा " मणुण्णं भोयणं भुवा, मणुष्णं सवणासणं । मणुष्णंसि अगारंसि, मणुष्णं झायए मुणी ||२||” इत्याद्यभिधानतो विषयसुखसिद्धेः सुखेनैव प्रवेशः, तथा निपुण युक्तिवस्तीव्रवासनोत्पादात् प्रतत्यागे महतः संसारदण्डादेः प्रतिपादनाञ्च दुःशकस्तत्परित्यागः, तथा यत्र दुःखेन प्रवेशः सुखेन विनिर्गमः तद् दुःखावतारं सुखोचारं तच्च दिगम्बरं दर्शनं, तद्धि नाग्यमतिदुष्करं लज्जास्पदत्वादिति दुःखेन प्रविश्यते, अनेषणोयपरिभोगकपायबाहुल्यदर्शनतस्तु तद्विरागोपपत्तेः सुखेन परित्यज्यते इति चतुर्थभङ्गगतं त्विदं पारमेम्वरं प्रवचनम्, अत्र हि रागद्वेषकपायेन्द्रियपरीषहोपसर्गादिजयस्य सदा अप्रमत्तभावस्य शिरोलुञ्चनादिकष्टानुष्ठानस्य च प्रतिपादनान्महता कष्टेन प्रवेशः प्रविष्टस्य च तत्त्वाधिगमेनामोचनात् एतद्वतं त्विह संसारपरित्राणकारणं व्रतभङ्गेच महान् संसार इति जनानस्य दुष्करपरित्यागः, उक्तं च- " अहव सुहोतारोत्तारणाइ दबे चढविहं तित्थं । एवं चिज भावं| मिवि तत्थामयं सरकखाणं ॥१॥ तच्चण्णियाण बीयं विसयसुहकुसत्थभावणाघणियं । तइयं च वोडियाणं चरिमं जहणं सिवफलं तु ॥२॥ (वि. १०४०- १) तत्र दुःखावतारदुःखोचाररूपपरमतीर्थकरणशीलास्तीर्थकरास्तान् वन्दे इति योगः, तथा भगःसमत्रैश्वर्यादिलक्षणः स येषामस्तीति भगवन्तः, उक्तं च-" इस्सरियख्वसिरिजसधम्मपयत्ता मया भगाभिक्खा । ते तेसिमसा समासेति जतो तेण भगवंतो ५१॥ (वि.१०४८) ग्रान्, ननु तीर्थकरानित्यनेनैव भगवत इति गतं, तीर्थकृतामुक लक्षण Jan Education For Pilyate Personal Uon Oly ~211~ तीर्थकरवन्दनम् ॥ ९८ ॥ www.jinslibrary.org Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [८०], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम भगाव्यभिचारात् ततः किमनेन विशेषणेन?, तदयुकम् अस्य नयमवान्तरावलम्बिपरिकल्पितबुद्धादितीर्थकरतिरस्कारपर-12 त्वात्, तथाहि-न ते बुद्धादयः स्वस्वदर्शनरूपतीर्थकारिणोऽपि तत्त्ववृत्त्या भगवन्तो, यधोक्तसमप्रैश्वर्यादिगुणकलापा-18 | योगादिति, तथा परे-पात्रयः ते च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मत्सरिणो भावतः क्रोधादयः, इह भावशत्रुभिः प्रयोजनं, तेषामेवोच्छेदतो मुक्तिभावात् , आक्रमणमाक्रमः-पराजयः उच्छेद इतियावत् परेषामाक्रमः पराक्रमः सोऽनुतरः-अनन्यसदृशो येषां तेऽनुत्तरपराक्रमास्तान, वन्दे इति क्रिया सर्वत्र योज्या, आह-ये खल्वैश्वर्यादिभगवन्तस्तेऽनुत्त-18 रपराक्रमा एव, तमन्तरेण विवक्षितभगासम्भवात्, ततोऽनुत्तरपराक्रमानित्येतदतिरिच्यते, नैष दोषः, अस्य अनादिसिद्धैश्वर्यादिसमन्वितपरमपुरुषप्रतिपादनपरनयवादनिषेधपरत्वात्, तथाहि-कैश्चिदनुत्तरपराक्रमत्वमन्तरेणैव हिरण्यगर्भादीनामनादिविवक्षितभगयोगोऽभ्युपगम्यते, उकं च-"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥" इत्यादि, तथाभूतान् भगवतस्तीर्थकरान् मा ज्ञासिषुर्विनेया इति तद्व्यवच्छेदार्थमनुत्तरपराकमानित्युक, तथा अमितम्-अपरिमितं ज्ञेयानन्तत्वात् ज्ञानं केवलज्ञान अमितज्ञान तद्येषामस्ति तेऽमितज्ञानिनस्तान्, ननु ये अनुत्तरपराक्रमास्तेऽमितज्ञानिन एव, क्रोधादिपरिक्षयोत्तरकालमवश्यममितज्ञानस्य भावात्, सत्यमेतत्, केवलं ये केशक्षयेऽप्यगितज्ञानं नाभ्युपगच्छन्ति, तथा च तद्ग्रन्थः, “सर्व पश्यतु या मा वा, तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसलापरि झान, तस्य नः कोपयुज्यते ॥१॥" इत्यादि, तन्मतव्यवच्छेदफलमिदं विशेषणमित्यदोषः, तद्व्यवच्छेदश्चैवम्-सर्वभा-14 भवपरिज्ञानाभावे तत्त्ववृत्त्या एकस्यापि वस्तुनः परिज्ञानायोगात् , सर्वस्यापि यथायोगमनुवृत्तव्यावृत्तधम्मतया सर्वेः सह । Snary ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनकिः ॥ ९९ ॥ Jain Education Im “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ८१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१०५८ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सव्यपेक्षत्वात्, आह व "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ १ ॥” आचाराङ्गेऽप्युक्तम्- "जे एगं जाणइ से सबं जाणइ, जे सर्व जाणह से एगं जाणइ” इति, ( ८-१२३) अथवा ये खसिद्धान्ते छद्मस्थवीतरागास्तेऽनुचरपराक्रमा भवन्ति, कपायादिशत्रूणामाक्रमणात्, न त्वमितज्ञानिनः, केवलज्ञानाभावात्, ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमिदं विशेषणमिति, तथा तरन्ति स्म भवार्णवमिति तीर्णास्तान्, तीर्त्वा च भवौघं सुगतिगतिगतान्, तत्र सर्वज्ञत्वात् सर्वदर्शित्वाच्च निरुपमसुखभागिनः सुगतयः - सिद्धास्तेषां गतिः सुगतिगतिः, अनेन तिर्यङ्नरनारकामरगतिव्यवच्छेदेन पञ्चमीं मोक्षगतिमाह, तां गताः - प्राप्ताः सुगतिगतिगतास्तान्, अनेन ये प्राप्ताणिमाद्यष्टविधैश्वर्य स्वेच्छाविलसनशीलं पुरुषं तीर्ण प्रतिपादयन्ति तथा च तद्ग्रन्थः- "अणिमाद्यष्टविधं | प्राप्यैश्वर्य कृतिनः सदा । मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥" इत्यादि, तद्द्व्यवच्छेदमाह, तथा सिद्धेः- पश्चमग|तिरूपायाः पन्थाः सिद्धिपथः तस्य प्रधाना देशकास्तद्धेतुभूतसामायिकादिप्रतिपादनात् प्रदेशकाः सिद्धिपथप्रदेशकास्तान्, | अनेनानेक भव्यसत्त्वोपकारितीर्थकरनामकर्म्मविपाकोदयसमन्वितं भगवतां स्वरूपमाह । एवं तावदविशेषेण ऋषभादीनां | मङ्गलार्थं वन्दनमुक्तमिदानीमखिल श्रुतज्ञानार्थप्रदेशकत्वेनासन्नोपकारित्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधिपतेर्वर्द्धमानस्वामिनो वन्दनमाहदामि महाभागं महामुणिं महायसं महावीरं । अमरनररायमहियं वित्थयरभिमस्स तित्थस्स ॥८१॥ 'वंदामीत्यादि दीपकमशेषोत्तरपदानुयायि द्रष्टव्यं तत्र भागः - अचिन्त्यशक्तिः, आह च माष्यकृत् - "भागोऽचिंता सत्ती स महाभागो महष्यभावोति । स महामुणी महंतं जो मुणइ मुणिष्पहाणो वा ॥ १॥ (वि.१०५८) इति, महान् |... भगवन् महावीरस्य स्तुति एवं वंदन For Pityte & Personal Use Only ~213~ तीर्थकरणन्दनम् ॥ ९९ ॥ www.jainslibrary.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education h “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ८२ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१०५८ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भागोऽस्य महाभागो - महाप्रभावस्तं, तथा मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति सुनिः सर्वज्ञत्वात, महांश्चासौ मुनिश्र | महामुनिः, तथा त्रैलोक्यव्यापित्वाम्महद्यशोऽस्येति महायशास्तं, महावीरमित्यभिधानं, तस्येयं व्युत्पत्तिः शूर वीर विक्रान्ती' | कषायादिशत्रुजयात् महाविक्रान्तो महावीरः, यरिवा 'ड विदारणे' विदारयति कर्म्मरिपुसङ्घातमिति वीरः, अथवा अनन्यानुभूतमहातपःश्रिया विशेषतो राजते इति वीरः, अन्तरङ्गमहामोहवलनिईलनाय तपोवीर्यमनन्तं व्यापारयतीति वा वीरः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, उक्तं च-“विदारयति यत्कर्म्म, उपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तच, तस्माद्वीर | इति स्मृतः ॥ १ ॥” तथा अमराश्च नराश्य अमरनरास्तेषां राजानः- इन्द्रचक्रवर्त्तिप्रभृतयस्तै मे हितः -पूजितस्तं, तीर्थकरंतीर्थकरणशील, कस्य तीर्थस्य करणशीलमित्यत आह- अस्य वर्त्तमानकालावस्थायिनस्तीर्थस्य । एवं तावदर्थवतुर्मङ्गलार्थ वन्दनमुक्तम्, इदानीं सूत्रकर्तृप्रभृतीनामपि पूज्यत्वाद्वन्दनमाह कारसवि गणहरे पवायए पवयणस्स वंदामि । सवं गणहरवंसं वायगवंसं पवणं च ॥ ८२ ॥ एकादशेति सङ्ख्यावाचकः शब्दः, अपिः समुच्चये, अनुत्तरं ज्ञानदर्शनादिधर्म्मगणं धारयन्तीति गणधरास्तान, प्रकर्षेण प्रधाना आदौ वा वाचकाः प्रवाचकास्तान्, कस्य प्रवाचकाः १, प्रवचनस्य- द्वादशाङ्गस्य, वन्दे, एवं तावत् मूलगणधरवन्दनं कृतं, | तथा सर्वे - निरवशेषं गणधरा - आचार्यास्तेषां वंशः - परम्परया प्रवाहस्तं तथा वाचका उपाध्यायास्तेषां वंशखं, तथा प्रवचनम् - आगमं च वन्दे, आह च-तीर्थकृतो मूलगणधराश्च वन्द्याः स्युः, तेषां यथाक्रममर्थसूत्रप्रणेतृत्वात्, वंशद्वयस्य प्रवचनस्य च कथं कन्द्यता, उच्यते, इह यथा अर्थवकारोऽर्हन्तो वन्द्याः सूत्रवकारश्च गणधराखथा यैरिदमाचार्योपाध्यायैरर्यसूत्ररूपं प्रवचनमा ... गणधर आदेः वंदना For Pitate & Personal Use Only ~ 214~ www.jinslibrary.org Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [८३-८६], भाष्यं H, विभा गाथा [१०५८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4 दीप अनुक्रम उपोद्धात- नीतं तवंशोऽप्यानयनद्वारेणोपकारीति बन्धः, प्रवचनं तु साक्षाद्वृत्त्यैवोपकारीवि वन्द्यमिति । इदानी प्रकृतमुपदर्शयति- गणधरानियुक्तिः ते वंदिऊण सिरसा अत्यपुसृत्तस्स तेहिं कहियस्स । सुयनाणस्स भगवओ निति कित्तइस्सामि ।। ८३॥ | दिवन्दनं तान्-अनन्तरोकान् तीर्थकरादीन शिरसा उपलक्षणत्वात् मनःकायाभ्यां च वन्दित्वा, किम् ?-नियुक्ति कीर्तयि-12 ॥१०॥ दशनियुप्यामि, कस्य :-'अर्थपृथक्त्वस्य' अर्थात् कधश्चिद्भिन्नत्वात् सूत्रं पृथक् उच्यते, प्राकृतत्वाच्च पृधगेव पृथक्त्वम्, अर्थस्तु किप्रतिज्ञा सत्राभिधेयः प्रतीत एव, अर्थश्च पृथक्त्वं च अर्थपृथक्त्वं समाहारो द्वन्द्वः तस्य, श्रुवज्ञान विशेषणमेतत्, सूत्रार्थोभय प गा .८२-६ पवेत्यर्थः, तैः-तीर्थकरगणधरादिभिः कयितस्य-प्रतिपादितस्य, कस्येत्याह-श्रुतज्ञानस्य भगवतः, स्वरूपाभिधानमेतत्, सूत्रार्ययोः परस्परं निर्योजन सम्बन्धन नियुकिः, तां कीर्तयिष्यामि-प्रतिपादयिष्यामि । ननु किमशेषश्रुतज्ञानस्या। दून, किं तर्हि 1, श्रुतविशेषाणामावश्यकादीनाम्, अत आह भाषस्सयस्स दसकालियस्स तह उत्सरज्झमायारे । सूयगडे निजुर्ति वोच्छामि तहा दसाणं च ॥४॥ कप्पस्स य निजुर्ति ववहारस्सेव परमनिउणस्स । सूरिअपण्णत्तीए वोच्छ इसिभासिआणं च ।। ८५ ॥ एएसि नितिं वोच्छामि अहं जिणोवएसेणं । आहरण-हेज-कारणपयनिवहमिणं समासेणं ॥८६॥ जावश्यकस्य दशवकालिकस्य तथा 'भामा सत्यभामे'त्यादाविव पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'उत्तरग्झे'त्युचरा-II १०॥ सायवनमहणं,ततोऽयमर्थः-उत्तराध्ययनाचारयोः,तथा 'सूत्रकृते सूत्रकृताङ्गविषयां नियुक्ति वक्ष्ये,तथा दशानां च-दशाचIवपन्न तथा कल्पख सथा व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य, अब परमग्रहणं मोवाङ्गत्वात निपुणग्रहणं त्वन्वंसकत्वात्। JanEduration Incom ... अथ नियुक्ति-रचना प्रतिज्ञा क्रियते ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [८७], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक PEACO 4 दीप अनुक्रम नसत्वयं व्यवहारो मन्वादिप्रणीतव्यवहार इव व्यंसक सच्चपचासुववहारा (१२-२३)इति वचनात् तथा सूर्यप्राप्तेर्वस्ये, तथा ऋषिभाषितानांच-देवेन्द्रस्ववादीनाम्, अनेकशः क्रियाभिधानं शास्त्रान्तरविषयत्वात्, समासव्यासरूपत्वाच शाखारम्भस्खेत्यदुष्टम्, पतेषां श्रुतविशेषाणां नियुक्ति वक्ष्याम्यहं जिनोपदेशेन,न तुस्वमनीषिकया, कथंभूतामित्याह-आहरणहेतुपदनिवहाम् , इमाम्-अन्तस्तत्वतया निष्पन्नां 'समासेन' सङ्केपेण, तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमाहरण, दृष्टान्त इति भावः, साध्ये सत्येव भवति साध्याभावे च न भवत्येवं साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणो हेतुः, हेतुमुल्लस्य प्रथम दृष्टान्ताभिधानं न्यायप्रदर्शनार्थ-कचि तुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यते, यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायो मत्स्यादीनां सलिलमिव, तथा कचिद्धतुरेव केवलोऽभिधीयते, न दृष्टान्तः, यथा मदीयोऽयमश्वो विशिष्टचिह्नोपलव्ध्यन्यथानुपपत्तेः, तथा च नियुक्तिकारेणाम्यघायि-"जिणवयणं सिद्धं चेव, भन्नई कत्थई उदाहरणं। आसज्ज उ सोयारं हेऊवि कहिंचि भण्णेजा।शा"(५-४९)इति, कारणम्-उपपत्तिमात्रं,यथा निरुपममुखः सिद्धा, ज्ञानानावाधप्रकर्षात्, नानाविद्वदगनादिलोके प्रतीतः साध्यसाधनधर्मानुगतो दृष्टान्तोऽस्ति, आहरणं च हेतुश्च कारणं च आहरणहेतुकारणानि तेषां पदान्याहरणहेतुकारणपदानि तेषां निवहः-सातो यस्यां नियुको सा तथाविधा तां। तब 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतोऽधिकृतावश्यकाध्ययनस्य सामायिकस्योपोद्घातनियुक्तिमभिधित्सुराह सामाइपनिति बोच्छ उवएसियं गुरुजणेणं । आयरियपरंपरएण आगयं आणुपुबीए ॥ ८७॥ सामायिकस नियुक्ति सामायिकनिकिस्तां वक्ष्ये, कथंभूतामित्याह-उप-सामीप्येन देशिता उपदेशिता तां, केन !-18 In Education For Farm wainitiorary.org | ... अथ सामायिकस्य उपोद्घात् नियुक्ति: दर्शयते ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ८७], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घातनिर्युक्तिः १०१ ॥ गुरुजनेन - तीर्थकर गणधरलक्षणेन, पुनरुपदेशकालादारम्य आचार्यपारम्पर्येणागतां स च परम्परको द्विधा द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यपरम्परकः पुरुषपारम्पर्येण इष्टकानामानयनं, अत्र चासम्मोहार्थ कथानकं गाधाविवरणसमाप्तौ वक्ष्यामः, भावपरम्परकस्त्वियमेव उपोद्घातनिर्युक्तिराचार्यपारम्पर्येणागतेति कथमाचार्यपारम्पर्येणागतमिति चेत्, अत आहआनुपूर्व्या-परिपाव्या, तद्यथा - जम्बूस्वामिनः प्रभवेनानीता ततोऽपि शय्यम्भवादिभिरिति, अथवा जिनगणधरेभ्य आरभ्य आचार्यपारम्पर्येणागतां पश्चात् स्वकीयगुरुजनेनोपदेशितामिति । तत्र द्रव्यपरम्परके इदमुदाहरणं- साकेतं नाम नगरं, तस्स उसरपुरच्छिमे दिसीभागे सुरप्पियगो नामगो जक्खो, तस्साययणं, सो य सुरपिओ जक्लो सन्निहियपाडिहेरो, सो वरिसे वरिसे चित्तिज्जर, महो य से परमो किजइ, सो य चित्तितो समाणो तं चैव चित्तगरं मारेइ, अह न चितिआइ तो पभूयजणमारिं करेइ, तो चिचगरा सबै पठाइडमारद्धा, पच्छा रण्णा नायं जइ सबै पठाइस्संति तो एसो जक्खो अचिन्तितो अम्छ वहाए भविस्सर, ततो तेण चित्तकरा सवे संकलियवद्धा कथा, तेसिं सवेसिं नामाई पचए लिहिऊण घडए छूढाणि, ततो वरिसे वरिसे जस्स नामं वालएण अयाणमाणेण कहिज्जमाणं निग्गच्छद तेण चित्तेयधो, एवं कालो वच्चइ, अन्नया कयाइ कोसंबिओ चितकरदारको घरातो पलाइउं तत्थागतो सिक्खगो, सो भमंतो सागेयस्स चित्तगरस्स घरमल्लीणो, सोऽवि एगपुत्तगो थेरीपुत्तगो, सो से मित्तो जातो, एवं तस्स तत्थ अच्छंतस्त्र अह तंमि वरिसे थेरीपुत्तस्स वारतो जातो, पच्छा सा 'थेरी बहुप्पगारं करुणं रुयह, तं रुयमाणं थेरिं दद्दूण कोसंगको जातकरुणो भणइकिं अम्मो । रुपसि १, ताए कहियं जहा मम पुचस्स वारतो जातो, सो भणइ मा रुयह, अह एवं जक्खं चित्तिस्वामि, Jan Education Ind ... अत्र मृगावतेः कथानकं वर्णयते For Pivate & Personal Use Only ~217~ पारम्पये इष्टकानयनशा गा. ૮૭ ॥ १०१ ॥ jainslibrary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८७], भाष्यं , विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक N 4 दीप अनुक्रम वाहे सा मणा-तुम मे पुत्तो किन होहिसि !, तेण भणियं-सचं तव पुत्तोऽहं, तहावि अहं दिसत, अच्छह तुम्भे असोगामो, ततो तेण छट्ठभत्तं काऊण अहतं वत्थजुयलं परिहिचा अहगुणाए पोचीए मुहं बंधिळण चोक्खेण पयत्तेण सुईभूतेण नवएहिं कलसेहिं पहावित्ता [वज्रलेपादिकुद्रव्यरहितः] नवगेहिं कुच्चेहिं नवगेहिं मलसंपुडेहिं अस्सेहिं व हिं चितिऊण पायवडिओ भणइ-खमह मए जमवरदंति, ततो तुट्ठो जक्खो भणइ-चरेहि वरं, सो भणइ-एस चेव मम वरं | देहि-मा लोग मारेहि, जक्खो भणइ-एयं तावडियमेव, जं तुम न मारिओ, एवमन्नेऽवि न मारेमि, अन्नं भण, सो भणइ-अस्स एगदेसमवि पासामि दुपवस्स चा चउप्पयस्स वा अपयरस वा तस्स तयणुरूवं स्वं निबत्तेमि, एवं होउत्ति दिण्णो वरो, ततो सो लद्धवरो रण्णा सकारितो समाणो गतो कोसंबिनयरिं, तत्थ सयाणितो नाम राया, सो अन्नया कयाइ सुहासणगतो दूयं पुच्छइ-किं मम नस्थि जं अनराईणं अस्थि ?, तेण भणियं-चित्तसमा नत्थि, 'मणसा देवाणं एवायाए पत्विवाणं तक्खणमित्तमेव आणत्ता चित्तगरा, तेहिं सभाओवासा विभइया, पचित्तिया, तस्स वरदिण्णगस्सो ! रणो अंतेउरकिड्डापदेसो सो दिनो, तेण तत्थ तयाणुरुवेसुरूवेसु निम्मिएसु कयाइ मिगावईए बाउकडगंतरेण पायंगुहतो। दिहो, सवमाणेण नायं-जहा एसा मिगावई, तेण पायंगुढगाणुसारेणं देवीए एवं निवत्तियं, तीसे चक्खुम्मि उम्मिल्लिजंते दएगो मसिबिंदू उरुअंतरे पडितो, तेण फुसिओ, पुणोवि जातो,एवं तिन्निवारा, पच्छा तेण नार्य-एएण एवं होयवमेव, वतो चित्तसभा निम्माया, ततो राया चित्तसरूवं पलोयंतो तं पएस पलो जत्थ सा देवी, निवनंतेण सो बिंदू दिवो, दण रुहो, एएष मम पत्ती परिसिया इति, ततो वझो आणतो, वित्तगरसेणी उबढ़िया-सामि ! एस वरलद्धमोति, 51 - Anh and nombong wwwjainitiorary.org. ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [८७], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: R . प्रत सुत्रांक रम्पयम् - 4 दीप अनुक्रम पोदाताहततो से जाए मुहं दाइयं, तेण तयाणुरूवं निबत्तियं, तहावि तेण संडासगो छिंदावितो, निविसओ आणसो, सो पुणोदइष्टकापानिर्यतिजक्सस्स उबवासेण ठितो, भणितो य-वामेण चित्तिहिसि, सयाणियस्स पदोसं गतो, तेण चिंतियं-पोतो एयस्स पीई। ॐा पिवेज्जा, ततो अणेण मिगावतीए चित्तफलए रुवं चित्तेण पज्जोयस्स उवट्ठवियं, तेण दिई, पुच्छिमओ य, तेण कहियं 31 ॥१०२॥ सविसेस, ततो पज्जोएण सयाणियस्स दूतो पेसिओ-मिगावई देविं सिग्धं पडवेह, जइ न पट्ठवेसि ततो सवसामग्गीए पहामि, गतो दूतो, तेण असक्कारितो निद्धमणेण निच्छूढो, तेण कहियं पज्जोतस्स, पज्जोतोऽविय दूयवयणेण आसुरुत्तो। सबवलेण कोसंबि पइ, तं आगच्छंतं सोउं सयाणितो अप्पवलो चिचे खुहितो, अतिसारेण पंचत्तमुवगओ, ताहे मिगाव-161 वीए चिंतियं-मा इमो बालो मम पुत्तो विणस्सिहिति, एस खरेण न सक्कए, पच्छा दूतो पट्टवितो, भणितोय-एस कुमारो बालो, अम्हेंहिं गएहिं मा सीमंतराइणा केणइ अण्णेण पिलिजिहिई, सो भणइ-को मर्म घरमाणे पिल्लिहिद,सा। मणा-ओसीसए सप्पो जोयणसए विजो, किं करेहिइति !, नगरि दढं करेह, सो भणइ-आमं करेमि, सा भणइ-तज्जेणीए इडगाओ बलियाओ ता एयाहिं कीरउ, आमंति, तस्स य चद्दस राइणो वसवत्तिणो, तेण ते सबला ठाविया, परिसपरंपरएण तेहिं इट्टगा आणीयातो, कयं नगरं दडं, ताहे ताए भण्णइ-इयाणि धन्नस्स भरेहि नगरिं, ततो तेण भरिया, जाहे नगरी रोहगसज्जा जाया ताहे सा विसंवइया,चिंठियं चणाए-धन्ना णं ते गामागरनगरपट्टणमडक्सशिवेसा जत्थ सामी विहरह, पवजामि जइ सामी एज, ततो भगवं समोसढो, तत्व सबवेरा पसमंति, मिगावती निग्गया, धम्मे कहिखमाणे एग्रो पुरिसो एस सबत्तिकाचं पच्छन्नं मणसा पुच्छड, ततो सामिणा भणितो-बायाए पुच्छ देवाणु-12 CTCA%AGAN JanEduration noorms anttiorary.org ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [८७], भाष्यं , विभा गाथा H1, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम H * प्पिया 1, वरं बहवे ससा संबुझंति, एवमवि भणिते तेण भणिय-भव!जा सा सा सा', तत्थ भगवया आमंति भणितो, ततो गोतमसामिणा भणियं-भय । किं एएण जा सा सा सेति भणिय । तत्व तीसे उट्ठाणपारिआवणिय सर्व भगवं ट्रपरिकहेइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी, तस्थ एगो सुवण्णगारो इत्थीलोलो, सो पंच पंच सुवण्णसयाणि है दाऊण जा पहाणा कन्ना तं परिणेइ, एवं तेण पंचसया पिंडिया,एक्केक्काए तिलगचोद्दसगं अलंकारं करेइ, दिवस जाए समं भोगे मुंजइ तदिवसं देइ अलंकारं, सेसकालं न देइ, सो इस्सालुगो तं घरं न कयाइ मुयइ, न वा अन्नस्स अल्लियावं देइ, सो अन्न या मित्तस्स पगते मिचेण वाहिओ, अणिच्छंतोऽवि बला जेमे नीतो, सो तहिं गओचिनाऊण ताहिं चिंतियं-कि अम्हं एएणं सुवण्णएणंति ?, अज पइरिक्क हामो समालभामो आविधामो, हायातो पइरिक्के मज्जियव यविहीए, तिलगचोद्दसगेण अलंकारेऊण अदागं गहाय पेहमाणीतो चिट्ठति, सो य ततो आगतो, तं दडूण आसुरत्तो, ट्र तेण एक्का महिला ताव पिट्टिया जाव मुयत्ति, ततो अन्नाओ भणति एवं अम्हेऽवि एक्केक्का निहंतवा, तम्हा एयं एत्धेत्र अदागपुंजं करेमो, तत्थ एगणेहिं पंचहिं महिलासएहिं पंच एगूणाई अदागसयाई जमगसमगं पक्खित्ताई, तत्थ सो अहा. गपुंजो जातो, पच्छा पुणोदि तासि पच्छायावो जातो, का गई अम्ह पइमारिगाणं भविस्सइ, लोए य उद्धंसणाओ सहियबा, ताहे साहिं घरकवाडाई निरंतरं निच्छिद्दाई दाराई उवेऊण से अग्गी दिन्नो सबतोसमंततो, तेण पच्छाणुतावेण साणुक्को. सयाए ताए य अकामनिजराए य मणूसेसु उववण्णा,पंचवि सया चोरा जाया, एगमि पधए परिवसंति,सोऽवि सुवण्णकारो| मा.सू. १८कालमुवगतो तिरिक्खेसु उववनो, तत्थ जा सा पढममारिया सा एक्कं भवं तिरिएसु, पच्छा एक्कमि बनणकुळे पेडो - 24% and |... मृगावते: कथा मध्ये 'जासासा' कथा कथयते ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८७], भाष्यं , विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- बडा तीसेवा द्रव्यपर प्रत सूत्रांक - - 4 दीप अनुक्रम आयातो, सो व पंचवरिसो जातो, सो य सुवण्णगारजीवो तिरिक्खेसु भमिऊणं तंमि कुले दारिया जाया, सो चेडो तीसे बालग्गाहो, साय निश्चमेव रोयइ, तेण ओदरपोप्पयं करतेण किहवि सा जोणिहारेण हत्येण आहया, तह चेव ठिया रोड म्प रकेर तेण नायं लद्धो मए उवाओ इति,एवं सो निचकालं करेइ,सो तेहिं मावापिईहिं नातो, ताहे हणिजण धाडिओ. साविष्टान्ता अपडुप्पमा चेव कामाउरेण विप्पणहा, सो चेडो पलायमाणो चिरनगरविणट्ठदुस्सीलायारो जातो, गतो एग चोरपल्लिं जत्थ ताणि एर्णाणि पंच चोरसयाणि परिवसंति, सावि विणसीला पइरिक्कं हिंडंती एगं गामं गया, सो गामो तेहिं चोरेहिं पिस्लिमो,सा तेहिं गहिया, सा तेहिं पंचहिवि चोरसएहिं परिभुत्ता,तेसिं चिंता जाया-अह इमा वरागी एत्तियाण त खुवर्ण सहर, जा अशा से विइज्जा लभेजामो तो से विस्सामो होजा, ततो तेहिं अन्नया कयाइ तीसे बिहज्जा आणीया, जंचेव दिवसं आणीया तदिवसं छिद्दाणि सा मग्गइ, केण उवाएण भारेज्जा, ते य अन्नया धार्डि घेत्तुं पहा४ विया, ताए सा भणिया-पेच्छ कूवेहिं किंपि दीसइ, सा दकुमारद्धा, ताप तत्थेव छुढा, ते आगया पुच्छति, ताए भण्णा-अप्पणो महिलं कीस न सारवेह 1, तेहिं नायं-जहा एयाए मारिया, ततो तस्स बंभणचेडगस्स हियए ठियं-जहा एसा मम पावकम्मा भगिणित्ति, सुबइ य जहा भयवं महावीरो सबन्न सबदरिसी य, ततो एस समोसरणे पुच्छर, ततो सामी १०॥ भणइ-सञ्चैव सा तव भगिणी, एवं कहिए सो संवेगमावन्नो, पबइओ,एवं सोऊण सबा सा परिसा पयणुरागा जाया,ततो मिगाबई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदह नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-नवरं पजोयं आपुच्छामि,ततो तुम्भं सगासे पपयामित्तिमणिऊण पजोयं आपुच्छा, ततो पज्जोतो तीसे महइमहा कलाकन र an Educa t ion wwwjainitiorary.org. ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [८८] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः www - लिवाए सदेवमणुयासुराए परिसाए लज्जाइ न तरह वारेर्ड ताहे बिसज्जेइति, ततो मिगावई पज्जोयस्स उदयणं कुमारं निक्खेवगनिखितं काऊण पवया, पज्जोयस्सवि अट्ठ अंगारवईपमुहाओ देवीओ पवइयातो, ताणिवि पंच चोरसयाणि तेण गंतूण संबोहियाणि, एवं पसंगेण भणियं, पत्थ इहगापरंपरगेणाहिगारो, एस दापरपरंगो । साम्प्रतं नियुक्तिस्वरूपाभिधानार्थमिदमाह - निजुत्ता ते अस्था जं बद्धा तेण होइ निजुत्ती । तहवि य इच्छाबेह विभासिउं सुत्तपरिवाडी ॥ ८८ ॥ यद्यस्मात् सूत्रे निश्वयेनाधिक्येन साधु वा आदौ वा युक्ताः-सम्बद्धा निर्युक्ताः, निर्युक्ता एवं सन्तंस्ते श्रुताभिधेया जीवाजीवादयोऽर्था अनया प्रस्तुतनिर्युक्त्या बद्धा-व्यवस्थापिता व्याख्याता इतियावत् तेनेयं भवति निर्युक्तिः, निर्युकानां-सूत्रे प्रथममेव सम्बद्धानां सतामर्थानां व्याख्यारूपा युक्तियोंजनं निर्युक्तयुक्तिरिति प्राप्ते शाकपार्थिवादिदर्शनात् युक्तलक्षणस्य पदस्व लोपात् निर्युक्तिरिति भवति, ननु यदि प्रथममेव सूत्रेऽर्थाः सम्बद्धा एव सन्ति तर्हि किमिति ते निर्युक्त्या व्याख्यायन्ते १, सम्बद्धानां स्वयमेव विनेयवर्गेणावबुद्ध्यमानत्वात्, तत आह-' तहवियेत्यादि, यद्यपि सूत्रे सम्बद्धा एवार्थाः सन्ति तथापि तान् सूत्रे निर्युक्तानपि अर्थान् विभाषितुं व्याख्यातुं सूत्रपरिपाटी-सूत्रपद्धतिः एषयतीव एषयति- प्रयोजयति, इयमत्र भावना - अप्रतिबुद्ध्यमाने श्रोतरि गुरुं तदनुग्रहार्थं सूत्रपरिपाठ्येव विभाषितुमेषयति, इच्छत इच्छत मां प्रतिपादयितुमितीत्थं प्रयोजयतीवेति, क्वचित् 'सूत्रपरिपाटी मिति पाठः, तत्रैवं व्याख्या- शिष्य एव सूत्रपरिपाटीमनवबुद्धयमानो गुरुमिच्छायां प्रवर्त्तयति इच्छत इच्छत मां विभाषितुं व्याख्यातुं सूत्रपरिपाटीमिति, व्याख्या व निर्युक्तिः अतः पुनर्योजनरूपा निर्युतिरित्यमदोषायेति ॥ इह प्रागिदमुक्तम्- अर्थ पृथक्त्वस्य तैस्तीर्थकरणणधरैः कथितस्य श्रुतज्ञा Jan Education International 'निर्युक्ति' शब्दस्य व्याख्या प्रस्तूयते For Pitate & Personal Use Only 222~ www.janlibrary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८९-९०], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक % - ** 4 दीप अनुक्रम उपोद्धात-13नस्य नियुक्ति कीर्चयिष्यामीति, तब तेषामेव तीर्थकरगणधराणां शोलादिसम्परसमन्वितताप्रतिपादनार्य वाथाद्वयमाहनियुकिः तष-नियम-नाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी । तो मुयइ नाणवुदि भवियजणवियोहणट्टाए ॥ ८९॥ सं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिविहां निरवसेसं । तित्थयरभासियाइं गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥ ९॥ ॥१०॥ रूपको नामात्रालङ्कारः, तत्र वृक्षो द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतः प्रधानो वृक्षः कल्पवृक्षा, यथा तमारुह्य कश्चिद् गन्धादि-11 ८९-९० गुणसमन्वितानां कुसुमानां सञ्चयं कृत्वा तदधोभागवर्चिनां पुरुषाणां तदारोहणासमानामनुकम्पया कुसुमानि बिस्जति, तेऽपि च भूपातरजोगुण्डनभयात् विमलविस्तीर्णपटैः प्रतीच्छन्ति, पुनर्यधोपयोगमुपभुञ्जानाः परेभ्यश्चोपकुर्वाणाः सुखं प्राप्नुवन्ति, एवं भाववृक्षेऽपि सर्वमिदमायोज्यं, तद्यथा-तपश्च नियमश्वज्ञानं च तपोनियमज्ञानानि तान्येव वृक्षस्तपोनियमज्ञानवृक्षः तम्, अनशनादिवायाभ्यन्तरभेदभिन्नं तपः, नियमस्त्विन्द्रियनोइन्द्रियसंयमः, तत्र श्रोत्रादीनां संयमनं इन्द्रियनियमः, क्रोधादीनां विनिग्रहो नोइन्द्रियसंयमा, ज्ञानमिह केवलज्ञानं परिगृह्यते,तस्यैव सम्पूर्णत्वात, उत्तरत्र केवलिग्रहणाच, इत्थंभूतं वृक्षमारूढा,इह ज्ञानं सम्पूर्णमसम्पूर्ण च भवति ततः सम्पूर्णज्ञानपरिग्रहार्थमाह-केवलं सम्पूर्णज्ञानमस्यास्तीति केवली,असावपि त्रिविधा, तद्यथा श्रुतकेवली क्षायिकसम्यक्त्वकेवलीक्षायिकज्ञानकेवली, यदिवा चतुविंधः,तद्यथा-श्रुतकेवली अवधिकेवली मनःपर्यायज्ञानकेवली केवलज्ञानकेवलीति,तत्र श्रुतादिकेवलिव्यवच्छित्तये केवल ज्ञानेन केवलित्वं प्रतिपिपादयिषुराह-अमितज्ञानी,अमितज्ञानेन केवलीति भावार्थः, स चेह प्रक्रमाद् भगवान् चतुतिदशदतिशयसम्पन्नस्तीर्थकरः, 'तोचि ततो वृक्षात् ज्ञावरूपकुसुमवृष्टिं कारणे कार्योपचारात् ज्ञानकारणभूतशब्दकुसुमवृष्टिं, * %* ॥१४॥ *% an dan For Farm ... 'गणधर' द्वारा सूत्र-रचनाया: कथन ~223 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [८९-९०], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक F 4 दीप अनुक्रम AKASACREAKEXकर किमर्थमित्याह-भन्याश्च ते जनाश्च भव्यजनास्तेषां विबोधनम् तदर्थ-तनिमित्तम्, अत्र पर आह-ननु कृतकृत्यो भगवान ४ ततस्तस्य परेभ्यस्तत्त्वकथनमनर्थकम् , प्रयोजनाभावात्, अथास्ति प्रयोजनं तहिं नासौ कृतकृत्या, प्रयोजनसापेक्षत्वादस्म- दादिवत्, अन्यच्च-सर्वज्ञो वीतरागश्च भगवान् स भव्यानेव विबोधयतीत्ययुकं, तथाहि-सर्वज्ञत्वादसावभव्यानामपि वि-12 वोधनोपायमवगच्छति, अन्यथा सर्वज्ञत्वव्याघातप्रसङ्गात्, न च तस्य भव्येषु पक्षपातो येन भन्यानेव विवोधयति नाभ-18 व्यान् वीतरागत्वादिति, अत्रोच्यते, कृतकृत्यो भगवान् न भवति, तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयस्याद्याप्यनुभूयमानत्वात् , तदनुभवश्च सद्धर्मदेशनादिप्रकारेणेति न तत्त्वकथनमनर्थकं, यदप्युक्तम् ' सर्वज्ञो वीतरागश्च भगवानि'त्यादि, तत्रापि | यत एव भगवान् सर्वज्ञोऽत एव भव्यानेव विबोधयति,अभव्यानां बोधनोपायस्य कस्याप्यभावात्, अन्यथा अभब्यत्वायोगात् , ततो न कश्चिद्दोषः, न च पक्षपातो भव्येषु, वीतरागत्वात्,केवलं तस्य भगवतखैलोक्याधिपतेः पक्षपातनिरपेक्षमविशेषेण सद्धर्मदेशनां कुर्वतो विभिन्न स्वभावेषु प्राणिषु तथा तथा स्वाभाव्याद् विबोधावियोधकारिणी पुरुषोलुककमलकुमुदादिप्यादित्यस्य प्रकाशनक्रियेव सद्धर्मदेशनक्रियोपजायते, ततो न कश्चिद्दोषः, उकं च वादिमुख्येन-"वद्वाक्यतोऽपि केपाश्चिदबोध इति मेऽद्रुतम् । भानोर्मरीचयः कस्य, नाम नालोकहेतवः॥१॥ नैवाद्भुतमुलूकस्य, प्रकृत्या विष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन, भासन्ते भास्वतः कराः ॥२॥" किञ्च-यथा सुवैद्यः साध्यमसाध्यं वा व्याधि [चिकित्समानः प्रत्याचक्षाणश्च नातज्ज्ञो न च रागद्वेषवान्, एवं साध्यासाध्यभन्याभव्यकर्मरोममपनयननपनयंश्च नातरझोन च रागद्वेषवान् , या वा योग्ये दलिके रूपं कुर्वन् अयोग्ये चाकुर्वन् रूपकारो नातग्झो नवा रागद्वेषवान। 4%25A4% 1- land in paintiorary.org ~2244 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥१०५॥ Jan Education h “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [८९-९० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः एवं योग्यान् विबोधयन् अयोग्यांश्चाविबोधयन् नातज्ज्ञो नवा रागद्वेषवान् भगवान्, उत्कंच " सज्झं तिगिच्छमाणो, रोगं रागी न भष्णए बेजो । मुणमाणो य असज्यं निसेहयंतो जह अदोसो ॥ १ ॥ तह भवकम्मरोगं, नासंतो रागवं न जिणवेजो। नय दोसी अभवासज्झकम्मरोगं निसेहंतो ॥ २ ॥ मोसुमजोगं जोग्गे, दलिए रूवं करेइ रूयारो। न य रागद्दोसिल्लो, तहेव जोग्गे विवोहंतो ॥ ३ ॥ (वि. ) ” द्वितीयगाथा व्याख्या - तां ज्ञानकुसुमवृष्टिं बुद्धिमयेनबुद्ध्यात्मकेन पटेन गणधराः - प्रागुक्तस्वरूपा गौतमादयो ग्रहीतुम् आदातुं निरवशेषां सम्पूर्णा, गणभृतां बीजादिबुद्धित्वात् किं कुर्वन्तीत्यत आह-भाषणानि भाषितानि, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तीर्थकरस्य भाषितानि तीर्थकरभा| पितानि कुसुमकल्पानि प्रश्नन्ति, विचित्रकुसुममालावत्, किमर्थमित्याह - प्रगतं प्रशस्तमादौ वा वचनं प्रवचनं - द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदर्थं कथमिदं प्रवचनं भवेदित्येवमर्थमिति वा, यदिवा प्रवतीति प्रवचनम्, बहुलवचनात् कर्त्तर्यनद्र, सङ्घस्तदर्थमिति, तथा चायमेवार्थो भाष्यकारेणापि पोषितः, -“ तुंगं विलक्खंधं सातिसयो कप्प - रुक्खमारूढो । पज्जत्तगहिय बहुविहसुरमिकुसुमोऽणुकंपाए ॥ १ ॥ कुसुमत्थिभूमिविट्ठियपुरिसपसारियपडेसु पक्खिवइ । गंधति तेऽवि घेत्तुं से सजणाणुग्गहडाए || २ || लोगवणसंडमज्झे, चोत्तीसाइसय संपदोवेतो । तवनियमनाणमइयं स ४ ॥ १०५ ॥ | कप्परुक्खं समारूढो ॥ ३ ॥ पात्तमाणकुसुमो, ताई छउमत्थभूमिसंथेसु । नाणकुसुमत्थिगणहसियबुद्धिपडेसु पक्खिवइ ॥ ४ ॥ तं नाणकुसुमबुद्धिं धेनुं बीयाइवुद्धयो सवं । गंधति पत्रयणडा माला इव चित्तकुसुमाणं ॥ ५ ॥ पार्थ For Pitate & Personal Use Only 1904564 225~ निर्युति स्वरूपं ८८ सूत्ररचना ८९-९० jainslibrary.org Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ९१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वयणं पवयणमिह सुयनाणं कथं सई होज । पवयणमहवा संघो, गर्हिति तयणुग्गहट्ठाए ॥ ६ ॥ (वि.) " | प्रयोजनान्तरं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह घे व सुहं सुहगणणधारणा दाउ पुच्छिउं चैव । एएहिं कारणेहिं जीयंति कथं गणहरेहिं ॥ ९१ ॥ भोकं वचनवृन्दं मुत्कलकुसुमनिकुरम्बमिव सर्वात्मना ग्रहीतुं न शक्यते, प्रथितं तु सूत्रीकृतं सत् ग्रहीतुं आदातुं सुखं भवति, सुखेन प्रहीतुं प्रभूतमपि शक्यते इति भावः, इयमत्र भावना-पदवाक्यप्रकरणाध्यायोद्देशाध्ययनप्राभृतवस्तु पल्लवादिनियतक्रमव्यवस्थापितं जिनवचनमेतावदस्य गृहीतमेतावञ्च पुरस्ताद् ग्रहीत - व्यमिति विवक्षया प्रवर्द्धमानेनोत्साहेन यक्षत एवं ग्रहीतुं शक्यते, तथा गुणनं धारणं च गुणनधारणे ते अपि प्रथिते सति सुखं भवतः, तत्र गुणनं - परावर्त्तनं धारणा त्वविस्मृतिः, तथा दातुं शिष्येभ्यः प्रष्टुं च संशयापनोदार्थं गुरुपादमूले सुखं भवति, सुखेन प्रश्नः शिष्येभ्यश्चातिसर्जनं कर्त्तुं शक्यत इति भावः, एतैरनन्तरोक्तैः कारणैः जीयन्त इति जीविरुद श्रुतस्योजीवनमिदमिति, किमुतं भवति ? - जीवितं जीवनरूपं न कदाचिद् व्यवच्छेदमुपयाति तथा श्रुतमप्यव्यवच्छि तिनयाभिप्राय तो न कदाचिद् व्यवच्छिद्यते, ततो जीवितमिव जीवितं सदाऽवस्थानं द्वादशाङ्गस्य स्यादित्येवमर्थं कृतं प्रथितं गणधरैः, अथवा न सुखादिकारणेभ्य एव, किं तर्हि ? 'जीयंति'त्ति जीवितं मर्यादा गणधराणामिदं जीवितम् इयं मर्यादा तन्नाम कर्मोदयतस्तत्स्वभावतया कर्त्तव्यमेव श्रुतविरचनमिति तैः सूत्रं प्रथितम्, अथवा जीयन्त इति जीतम् आचरितं कल्प इत्येकोऽर्थः ततः सर्वेषां गणभृतामिदं जी [वि]तम्-अयं कल्पो यथा सन्दर्भणीयं तीर्थकरवचनमिति तैः कृतं, Jan Education International For Pitate & Personal Use Only 226~ www.janlibrary.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९२,९३], भाष्यं , विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्घात-1 नियुक्तिः IHA हेतुः ९० सूत्रांक ॥१०६॥ LGAOCALCA:CACC त्तिः सुत्रा दीप अनुक्रम -"सवेहिं गणहरेहि, जीयति सुर्य जतो न वोच्छिनं गणहरमजावा वा जीर्य सबाणुपितं वा" १(वि० सूत्रमन्धने अथ तीर्थकरभाषिताम्येव क्रमव्यवस्थापितानि सूत्रमस्तु, गणधरसूत्रीकरणे तु को विशेषः ।, उच्यते, इह भगवान् विशिष्टमतिसम्पनगणधरापेक्षया प्रभूतार्थ स्वल्पमेवार्थमात्रममिघत्ते, नवितरजनसाधारणं अन्धराशि, ततो गणधराणां सूत्र-131 कृतिः, तथा चाह। अत्थं भासद अरहा सुत्तं गंथति गणहरा निउणं । सासणस्स हियवाए, तओ सुत्तं पवसेइ ।। ९२॥ *दि९१-३ अर्थम्-अर्थमात्रमेवाहन भाषते, न प्रभूतजनसाधारणं ग्रन्थराशि, ततो गणधराः शासनस्य हितार्थ 'निपुर्ण' बहु ४ सूक्ष्मार्थप्रतिपादकं निगुणं वा-नियतगुणं सन्निहिताशेषसूत्रगुणमितियावत् 'सूत्र' द्वादशाङ्गरूपं प्रमन्ति,तत एव सूत्रं जगति प्रवर्त्तते इति, कचित्पाठान्तरं 'गणहरा निउणा' इति, तत्र गणधराः विशेष्यन्ते, निपुणाः सूक्ष्मार्थदर्शिवाद, नियतगुणा निगुणा वा,सन्निहितसमस्तगुणत्वात्॥आह-तत्पुनःसूत्रंकिमादिकं किंपर्यवसानं कियत्परिमाणं को वाऽस्य सार इत्यत आइ सामाइयमाईयं मुयनाणं जाव पिंदुसाराओ तस्सवि सारो धरणं सारो चरणस्स निधाणं ॥१३॥ तत् श्रुतज्ञानं सामायिकमादिर्यस्य तत् सामायिकादि यावत् बिन्दुसारात्-बिन्दुसारं यावत्, बिन्दुसाराख्वचतुर्दशपूपर्यन्तमित्यर्थः, तच्च मूलभेदापेक्षया विभेदं, तद्यथा-अङ्गमविष्टमनङ्गप्रविष्टं च, अक्लमविष्टं द्वादशभेदमाचारादिभेदाद्.. अनङ्गमविष्टमनेकभेदमावश्यकतद्व्यतिरिक्तकालिकोकालिकादिभेदात् उक्कं च-घनेकद्वादशभेदं श्रुत (तत्त्व)मिति,12 E SS JanEducation nor ... 'गणधर' द्वारा सूत्र-रचनाया: हेतु: ~227 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९२,९३], भाष्यं , विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक Asc-CA F 4 दीप अनुक्रम तस्यापि-श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणं, सारशब्दोऽत्र फलवचनः प्रधानवचनश्च मन्तव्यः, तस्य फलं चरणं, यदिवा तस्मादपि श्रुतज्ञानाचरणं प्रधानं, ननु चरणं नाम संवररूपा क्रिया, क्रिया च ज्ञानाभावे हता, 'हया अनाणतो किया' इति वच|नात्, ततो ज्ञानक्रियाभ्यां समुदिताभ्यामेव मोक्ष इति समानत्वमेवोभयोः, कथं ज्ञानस्य सारश्चरणमिति !, उच्यते, इह यद्यपि "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" (तत्त्वा-१.१) इति समानं ज्ञानचरणयोर्निर्वाणहेतुत्वमुपन्यस्त, तथापि है|गुणप्रधानभावोऽस्ति, तथाहि-ज्ञान प्रकाशकमेव, 'नाणं पयासय'मिति वचनात् , चरणं त्वभिनवकर्मादाननिरोधफलं | शामागुपात्तकर्मनिर्जराफलं च, ततो यद्यपि ज्ञानमपि प्रकाशकतयोपकारीति ज्ञानचरणरूपदिकाधीनो मोक्षः, तथापि प्रका-15 ४ शकतयैव व्याप्रियते ज्ञानं, कर्ममलशोधकतया तु चरणमिति प्रधानगुणभावाच्चरणं ज्ञानस्य सारः, उक्कं च-"नाणं पयास-४ यं चिय गुत्तिविसुद्धीफलं च जं चरणं। मोक्खो य दुगाहीणो चरणं नाणस्स तो सारो॥१॥" (वि. )अपिशब्दात् सम्य-14 शक्त्वस्यापि सारश्चरणम्, अथवा अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, तस्य-श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणमपि, अपिशब्दानिर्वाणम५/पीत्यर्थः, अन्यथा ज्ञानस्य निर्वाणहेतुता न स्यात्, किन्तु चरणस्यैव,अनिष्टं चैतत् 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः तथा 'नाणकिरियाहिं मोक्खो' इत्यादि वचनात् , केवलं सा ज्ञानस्य निर्वाणहेतुता गौणतया प्रतिपत्तव्या, मुख्यतया तु] चरणस्य, यतः केवलज्ञानलाभेऽपि न तत्क्षणमेव मुक्तिरुपजायते, किन्तु शैलेश्यवस्थाचरमसमयभाविचरणप्रतिपत्त्यन-161 पान्तरम्, अतो मुख्य कारणं निर्वाणस्य चरणं, तथा चोक्तम्-"जं सवनाणलंभानंतरमहवा न मुच्चए सबो । मुबह य सबसंवरलाभे तो सोपहाणयरोग(वि.)तत उक्तम्-तस्य सारश्चरणमिति तथा 'सारो चरणस्स निवाण'मित्यत्र JanEducation nou For Farm ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युक्तिः ॥ १०७ ॥ “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ९४ ९६], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः * सारशब्दः फलवचनः, चरणस्य संयमतपोरूपस्य सारः फलं निर्वाणम्, इहापि शैलेश्यवस्थाभावि सर्वसंवररूपथारित्रमन्तरेण निर्वाणस्याभावात् तद्भावे चावश्यंभावादिति प्रधानभावमधिकृत्य उपन्यस्तम्, अन्यथा शैलेश्यवस्थायामपि क्षायिकज्ञानदर्शने स्त इति सम्यग्ज्ञानदर्शनादिरूपरत्नत्रयस्य समुदितस्यैव निर्वाणहेतुत्वमिति ॥ तथा चाह नियुक्तिकारःसुयमाणम्मिवि जीवो बहंतो सो न पाउण मोक्खं । जो तव-संजममइए जोगे न चएइ वोढुं जे ॥ ९४ ॥ श्रुतज्ञाने अपिशब्दान्मत्यादिष्वपि ज्ञानेषु जीवो वर्त्तमानः सन् न प्राप्नोति मोक्षमित्यनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः, यः किंविशिष्ट इत्याह-यस्तपःसंयममयान्- तपःसंयमात्मकान् योगान् न शक्नोति वोदुमित्यनेन हेत्वर्थः, जे इति पादपूरणे 'इजेराः पादपूरणे' इति वचनात् दृष्टान्तस्तु स्वयमभ्युद्यो वक्ष्यति वा, प्रयोगः-न ज्ञानमेवेप्सितार्थप्रापकं सत्क्रियाविरहात् स्वदेशप्रात्यभिलषितगमनक्रियाशून्यमार्गज्ञज्ञानवत्, सौत्रो वा दृष्टान्तः, मार्गज्ञनिर्यामकाधिष्ठितेप्सित दिकूसम्यापक पवनक्रियाशून्यपोतवत् ॥ तथा चाह जह छेयलद्धनिजाम ओऽवि वाणियगइच्छियं भूमिं । वाएण विणा पोओ न चएह महण्णवं तरिडं ॥ ९५ ॥ तह नाणलद्धनिजामओऽवि सिद्धिवसहिं न पाउण । निउणोऽवि जीवपोओ तब संजममाख्यविहीणो ॥ ९६ ॥ ' यथा ' येन प्रकारेण 'छेको' दक्षो 'लब्धः' प्राप्तो निर्यामको येन पोतेन स तथाविधः अपिशब्दात् सुकर्णधाराद्य| धिष्ठितोऽपि वणिज इष्टा वणिणिष्टा तां भूमिं महार्णवं तीर्त्वा वातेन विना पोतों न शक्नोति, प्राप्तुमिति वाक्यशेषः, उपनय | माह तथा श्रुतज्ञानमेव लब्धो निर्यामको येन जीवपोतेन स तथाविधः, अपिशब्दात्सुनिपुणमतिकर्णधाराद्य विष्ठितोऽपि, For Pitate & Personal Use Only मोक्ष प्राप्तौ संयमस्य मुख्यतायाः कथनं 229~ संयमस्य मुख्यता ९४-६ 11 800 11 wjainslibrary.org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१७], भाष्यं H, वि०भा०गाथा , मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम संयमतपोनियमरूपेण मारुतेन विहीनो निपुणोऽपि जीवपोतो भवार्णव तीवी सन्मनोरथवणिजोऽभिप्रेतां सिद्धिवसतिं न मामोति, तस्मात्तपःसंयमानुष्ठाने खस्वप्रमादवता भवितव्यम् ॥ तथा चात्रीपदेशिकमेव गाथासूत्रमाहसंसारसागराओ उन्बुड्डो मा पुणो निवुड्डेज्बा । चरणगुणविप्पहीणो, बुड्डा सुबहुंपि जाणतो ॥९७ ॥ | अस्याः पदार्थों स्टान्ताभिधानद्वारेण प्रोच्यते, यथा नाम कश्चित् कच्छपः प्रचुरतृणपत्रपटलनिविडतमशैवलाच्छादि| तोदकान्धकारमहादान्तर्गतो विविधानेकजलचरक्षोभादिव्यसनपरम्पराव्यवस्थितमानसः सर्वतः परिभ्रमन् कथमपि शेवालरन्ध्रमासाद्य तेनैव च तत उपरि विनिर्गत्य शरदि पार्वणचन्द्रचन्द्रिकास्पर्शसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वबन्धुस्नेहाकटचेतोवृत्तिस्तेषामपि तपस्विनामदृष्टकल्याणानामहमिदं सुरलोककल्पं किमपि दर्शयामीत्यवधार्य तस्मिन्नेव हृदमध्ये |निमन्न, ततः समासादितवन्धुवर्गस्तदर्शननिमित्तं विवक्षितरन्ध्रोपलब्धये पर्यटन अवश्यं कष्टतरं व्यसनमनुभवति स्म, एवमयमपि जीवकच्छपोऽनादिकर्मपटलसन्तानाच्छादिताम्मिथ्यादर्शनादितमोऽनुगतान विविधशिरोनेत्रकर्णवेदनावर-10 कुष्ठभगंदरादिशरीरेष्टवियोगानिष्टसम्प्रयोगादिमानसदुःखजलचरसमूहानुगतान , संसरणं संसारः,भावे घञ्प्रत्ययः, स एव | सागरस्तस्मात् परिचमन् कथश्चिदेव मनुष्यभवप्राप्तियोग्यकर्मोदयलक्षण रंध्रमासाद्य मनुष्यत्वप्राया उन्मनः सन् जिनचन्द्रवचनकिरणावबोधमासाद्य दुष्पापोऽयं जिनवचनबोधिलाभ इत्येवं जानानः स्वजनस्नेहविषयातुरचित्ततया मा पुनः कूर्मवत् तत्रैव निमजेत, आह-अज्ञानी कूर्मोऽतो निमजति, इतरस्तु हिताहितप्राप्तिपरिहारज्ञो ज्ञानी ततः कथं निमज्जति ।। 8+ E स an Education to For Prats personal van on wainitiorary.org .. चरण-गुणस्य महत्ता प्रतिपादनम् । ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ १०८ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ९८-१०० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तत आह-चरणगुणैः विविधम्- अनेकप्रकारं प्रकर्षेण हीनश्चरणगुणविप्रहीणः, ततः सुबह्णपि जानन् निमज्जति, अथवा निश्चयन यदर्शनेनासावप्यज्ञ एव, ज्ञानफलशून्यत्वाद्, अतो निमज्जतीति प्रकृतमेवार्थे समर्थयमान आह सुबहुपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पहीणस्स ! | अंधस्स जह पलिता दीवसय सहस्सकोडीवि ॥ ९८ ॥ -सुबहपि श्रुतमधीतं चरणविप्रहीणस्य निश्चयतोऽज्ञानमेव, तत्फलाभावात् ततस्तत्सदपि किं करिष्यति ? न किविदपि, अकिञ्चित्करमेवेति भावः, अत्रैव दृष्टान्तमाह-अन्धस्य यथा दीपशतसहस्रकोट्यपि, प्रदीष्ठानां दीपानां शतसह - स्राणि तेषां कोटी, अपिशब्दात् तद्द्व्यादिकोटयोऽपि, आह च भाष्यकृत् - "संतंपि तमण्णाणं नाणफलाभावओ सुबहुयंपि । सक्किरियापरिहीणं, अंधस्स पदीव कोडीवि ॥ १ ॥” व्यतिरेकमाह अपि सुमहीयं पगासयं होइ चरणजुत्तस्स । एक्कोऽवि जह पईयो, सचक्खुयस्सा पयासेइ ॥ ९९ ॥ अल्पमपि श्रुतमधीतं ' चरणयुक्तस्य' सावद्येतरयोगनिवृत्तिपरिणामरूपचरणलक्षणचक्षुष्मतः प्रकाशकं भवति - हेयोपादेवार्थप्राप्तिपरिहारप्रदर्शकमुपजायते, चरणानुगतयथावस्थितशुद्धपरिणामरूपचक्षुरुपेतत्त्वाद्, तत्रैव दृष्टान्तमाह-एकोऽपि यथा प्रदीपः सचक्षुष्कस्य प्रकाशयति । आह-नन्वित्थं सति चरणरहितानां ज्ञानसम्पत् सुगतिफलापेक्ष या निरर्थिका प्राप्नोति, सत्यमेवमेतत्, इष्यते एव निरर्थिका, यत आह जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी नहु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी नहु सुग्गईए ॥ १०० ॥ For Pitate & Personal Use Only ~231~ चरणोपदेशः ९७-१०० ॥ १०८ ॥ wanslibrary.org Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०१], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [११५७], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम H है। यथा खरश्चन्दनभारवाही सन् भारत भागी-चन्दनकाहमारमुद्वहन तजनित्वमादिकष्टमागी, न तु चन्दनस्य चन्दनरसक्रियमाणविलेपनादेर्भागी, एवमेव, खुशब्दोऽवधारणे, ज्ञानी चरणेन हीनः सन् ज्ञानस्व-ज्ञानपठनपरावर्तनचिन्तनादिजन्यक्केशपरम्परकस्य भागी, नतु सुदेवत्वसुमानुषत्वसिद्धिलक्षणावा: सुगतेः, उकं च-"नहि नाणं विफलं चिय किलेसफलयपि चरणरहियस्स।निष्फलपरिवहणातो चंदणमारोखरस्सेव ॥१॥" (वि०११५७) सम्पति मा भूद्विनेयस्य एकान्तेनैव ज्ञानेऽनादरः क्रियायां च तच्छून्यायां पक्षपात इति द्वयोरपि केवलयोरिष्टफलासाधकत्वमुपदर्शयति । हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणो किया । पासंतो पंगुलो बडो, धावमाणो य अंधओ ॥ १०१॥ अत्राक्षरार्थः प्रतीत एच, भावार्थः तदुदाहरणादवसेयः, बच्चेदम्-एगम्मि महानगरे पलीवणं संवृत्तं, तमि य अणाहा | दुवे जणा, तंजहा-पंगुलो अंघलोय,तेवनगरलोएजलणभयसमुन्भंतलोयणे पलायमाणे संते पंगुलतो गमणकिरियावियलो। जाणंतोवि पलायणमग्गं कमागएण अगणिणा दहो, अंघोऽवि गमणकिरियाजुचो पलायणमग्गमजाणतो तुरियं जलमणाभिमुहं चेव गंतु पयहो, ततो अगणिभरियाए खाणीए पडितो, दहो य, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-ज्ञान्यपि क्रिया रहितो न कांग्रेः पलायितुं समर्थः, नापीतरः समर्थों, ज्ञानविकलत्वात्, अत्र प्रयोगो-ज्ञानमेव विशिष्टफलसाधकं न भवति, सस्क्रियायोगशून्यत्वात्, नगरदाहे पलपलायनविज्ञानवत् , नापि क्रियेव विशिष्टफलप्रसाधिका सम्ज्ञानरहितवात, नगरदाह एवान्धस्य पलायनक्रियावत्, नन्वेवं समुदितयोरपिज्ञानक्रिययोनिर्वाणप्रसाधकसामानुपपत्तिः, प्रत्येकमभावान्, सिकतालवत् , आह --"पचेवमभावाओ, निवार्ण समुदियासुविन जुत्तं । नाणकिरियासु वोतुं सिक an Education et For Farm ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं . नियुक्ति: [१०२], भाष्यं , विभा गाथा [११६३,११६५], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञानक्रि सूत्रांक चलायाभ्यां - H लम् १०१-२ दीप अनुक्रम दातासमुदायतेलं व ॥१॥(वि.११५३)" नेप दोषः, समुदायसामर्थ्यस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् ,तपाहि-ज्ञानक्रियाभ्यां कटादिकार्य- नियुतिः | सिद्धय उपलभ्यन्ते एव, नतु सिकतासु तैल,म च दृष्टमपहोतुं शक्यते, पषमाभ्यामदृष्टकार्यसिद्धिरप्यविरुद्धेति न कश्चि-I होषः, किश्व-न सर्वथैवानयोः प्रत्येक निर्वाणप्रसाधकसामोयोगः, देशोपकारित्वाभ्युपगमात्, तथा हि तदेव देशोप- ॥१०॥ कारित्वं समुदाये समप्रस्वादिष्टफलप्रसाधकं भवति, केवलं तु सामग्रीविकलतयेतरसापेक्षत्वादसाधकमिति केवलयोः सामर्थ्यायोगः, उक्कं च-"वीसुं न सबह चिय सिकतातेलं व साहणाभावो । देसोवगारिया जा सा समुदायमि संपुष्णा ॥१॥ (वि.११६५) एतदेवाह संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, बहु एगचक्केण रहो पयाए । अंघो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगरं पविट्ठा ।। १०२॥ ज्ञानक्रिययोः संयोगनिष्पत्तावेव मोक्षलक्षणं फलं वदन्ति-व्याचक्षते भगवन्तस्तीर्थकराः, न हि लोकेऽप्येकचक्रेण रथः प्रवर्तते, एवमन्यदपि सामग्रीजन्य कार्य सर्वेमवगन्तव्यम्, अत्रैव दृष्टान्तमाह-अन्धश्च पङ्गश्च बने समेत्यमिलित्वा तौ सम्प्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टी, समेत्येत्युक्तेऽपि तौ सम्प्रयुक्ताविति पुनरभिधानमात्यन्तिकसम्प्रयोगप्रदर्शनाधम् , अत्र उदाहरणं-एगम्मि रण्णे रायभएण नगरातो उपसिय लोगो ठिओ, पुणोवि धाडिभपण पवहणाणि उल्झिय पलातो, तत्थ दुवे अणाहा उझिया, गयाए धाडीए लोगग्गिणा वायपलीविएण वणदवो लग्गो, ते य भीया, तत्थ अंधो छुट्टकच्छो अयाणतणतो अग्गिसंमुई चेव पलायइ, ततो पंगुणा भणियं-मा इतो नास, जत्तो इतो चेव अग्गी, तेण ॥१०९॥ an Edmonton For PiaNAParamal-Un Dil Jainitiorary.org ... ज्ञान-क्रियाया: पारस्पारिक संबंधम् दर्शयते ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०३], भाष्यं H, विभा गाथा -, मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक F FACCRAC4 4 ४||भणिय-कुतो पुण गच्छामि।,पंगुणा भणियं-अहंपि पुरतो अतिदूरे मग्गदेसणेन समत्यो, जतो पंगू, ता में बंधे करेह जेण अहं कंटगजलणादिअपाप परिहरावितो सुहं तं नगरं पावयामि, तेण तहत्ति पडिवज्जिय मणुष्ठियं, गया य खेमेण दोवि नगर, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-एवं ज्ञानक्रियाभ्यां समुदिताभ्यां सिद्धिपुरमवाप्यते इति, प्रयोगश्चात्रविशिष्टकारणसंयोगोऽभिलषितकार्यप्रसाधका, सम्यक्रियोपलब्धिरूपत्वादन्धपङ्बोरिव नगरावाः, यः पुनरभिलषितफलसाधको न भवति स सम्यक्रियोपलब्धिरूपोऽपि न भवति, इष्टगमनादिक्रियाविकलविघटितैकचक्ररथवदिति व्यतिरेकः, ननु ज्ञानक्रिययोः सहकारित्वे सति किं केन स्वभावेनोपकुरुते, किमविशेषेण शिविकोद्वाहकवत्, उतने भिन्नस्वभावतया गमनक्रियायां नयनचरणादिवत् , उच्यते, भिन्नस्वभावतया, यत आहनाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥१०॥ इह यथा किश्चिदुद्घाटद्वारं बहुवातायनजालकरूपच्छिद्रं वाताकृष्टादिप्रचुररेणुकचवरपूरित शून्यगृहं, तत्र व वस्तुकामः कोऽपि तत् शुशोधयिपुरवातायनजालकानि सर्वाण्यपि बाह्यरेणुकचवरप्रवेशनिषेधार्थ स्थगयति, मध्येच प्रदीपं प्रज्वलयति, पुरुषं च कचवराद्याकर्षणाय व्यापारयति, तत्र प्रदीपो रेवादिमलप्रकाशनव्यापारेणोपकुरुते, द्वारा दिस्थगर्न बाह्यरेण्वादिप्रवेशनिषेधेन, पुरुषस्तु रेवाद्याकर्षणात् तच्छोधनेन, एवमिहापि जीवापवरक उद्घाटितानव४द्वारः सद्गुणशून्यो मिथ्यात्वादिहेत्वाकृष्टकर्मकचवरापूरितो मुक्तिसुखनिवासहेतोः शोधनीयो वर्चते, तत्र ज्ञायतेऽने नेति ज्ञान, तच प्रकाशयतीति प्रकाशक, ज्ञानं प्रकाशकत्वेनोपकुरुते, सरस्वभावत्वात् , गृहमलापनयने प्रदीपवदिति दीप अनुक्रम an Education n ational ... ज्ञान, तप एवं संयमस्य समायोगे मोक्ष-प्राप्ति: । ~2344 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०३], भाष्यं H, विभा गाथा -, मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- नियुक्तिः प्रत सूत्रांक RECERNET दीप भावः, क्रिया तु तपासंयमरूपत्वादित्वमुपकुरुते, शोषवतीति शोषकं, किन्तदित्याह-तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकार ? पाहतापपलनकमवापत्तिमप्रकारका ज्ञानादी. कति तपः, तत्ोधकत्वेनोपकुरुते,तत्स्वभावत्वात्, गृहकचवरोज्ज्ञनक्रियया तच्छोपने कर्मकरपुरुषवत् , तथा संवमनं नामपक संयमः, भावेऽल्प्रत्ययः, आश्रवद्वारविरमणमितियावत्, चन्दः पृथग्ज्ञानादीनां प्रकान्तफलसिद्धौ भिन्नोपकारः इत्या-1 रितार. वधारणाः , गोपनं गुप्तिः, स्त्रियां तिप्रत्ययः, आगन्तुककर्माकचनरनिरोध इति हृदयं, गुप्तिकरणशीलो गुप्तिकरो, हेतु-18 वच्छीलानुकूलेष्वित्यादिना टप्रत्ययः, किमुकं भवति !-संयमोऽप्यपूर्वकर्माकचवरागमननिरोधेनोपकुरुते, तत्स्वभावलात, गृहशोधने पवनप्रेरितकचवरागमननिरोधेन वातायनादिस्थगनवत्, एवं च त्रयाणामेच, अपिशब्दोऽवधारणे. अथवा सम्भावने, किं सम्भावयति-त्रवाणामपि ज्ञानादीनां, किंविशिष्टानाम् !-निश्चयतः थायिकाणां, न तु क्षायोपमित्रानामपि, समायोगे-संयोगे मोषः-सर्वया अष्टविधकर्ममलवियोगलक्षणः जिनानां शासनं जिनशासनं तस्मिन् 'मषिता' उक्तः, नन्वेवं सति 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्यागमो विरुध्यते, सम्यग्दर्शनमन्तरेपोकलक्षणज्ञानादिषयादेव मोक्षप्रतिपादनाद्, नैप दोषः, ज्ञानग्रहणेन तस्थापि ग्रहणाद्, अन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, अत एवान्यत्र चतुष्टयमुसं-"ज्ञानं सुमार्गदीपं सम्यक्त्वं तदपराङ्मुखत्वाव । चारित्रमानवान्नं रुपयति कर्माणि तु तपोऽग्निः॥१॥" इति। यत् प्राग्नियुकिकृताऽभ्यधावि-श्रुतज्ञानेऽपि जीवो वर्चमानः सन् न प्रामोति मोक्षमिति, तत्पतिज्ञागाथासूत्र, तचैव सूत्रसूचितः खस्वयं हेतुरवगन्तव्यः, कुतः , तल बायोपथमिकत्वाद, दृष्टान्तोऽपि सूत्रसूचितोयमवधिज्ञान-1 विदिति, साविकज्ञानाववाचौ च मोबावाधिरिति तत्वं, सता श्रुतसैव बायोपश्चमिकमावमुपदर्शववि अनुक्रम In Educa For Farm ~2354 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १०४, १०५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भावे खओवसमिए दुबालसंगंपि होइ सुयनाणं । केवलियनाणलंभो नण्णत्य लए कसायाणं ॥ १०४ ॥ भवनं भावो भवतीति वा भावस्तस्मिन् स च औदयिकाद्यनेकभेदस्तत आह- क्षायोपशमिके, द्वादशाङ्गानि यत्र तत् द्वादशाङ्गम्, अपिशब्दादबाह्यमपि भवति श्रुतज्ञानम् उपलक्षणमेतत्, मत्यादिज्ञानत्रयमपि सामायिकचतुष्टयमपि, तथा केवलस्य भावः कैवल्यं - धातिकर्मवियोग इत्यर्थः तस्मिन् ज्ञानं कैवल्यज्ञानं, कैवल्ये सति ज्ञानग्रहणेन इह यो 'बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते' इति वचनात् प्रकृतिविमुक्तस्य बुद्ध्यभावात् ज्ञानाभाव इति प्रतिपन्नस्तस्य प्रकृतिमुक्काज्ञानिपुरुषप्रतिपादनपरकुनयमतव्यवच्छेदमाह, तस्य लाभः - प्राप्तिः, कथं ? -कपायाणां क्रोधादीनां क्षये सति नान्यत्र, तृतीयार्थे सप्तमी, नान्येन प्रकारेण, छास्थवीतरागावस्थायां कषायक्षये सत्यप्यक्षेपेण कैवल्यज्ञानाभावे ज्ञानावरणक्षयानन्तरं चावश्यभावे कषायक्षयग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थ, कषायक्षय एव सति निर्वाणं, नान्यथा, कषायक्षय एव सति त्रयाणामपि सम्यक्त्वादीनां क्षायिकत्वसिद्धेः, नन्वेवं तर्हि यदादावुक्तं श्रुतज्ञानेऽपि वर्त्तमानः सन् जीवो न प्राप्नोति मोक्षं, यस्तपः संयमात्मकयोगशून्य इति विशेषणं तदनर्थकं श्रुतेऽपि सति तपःसंयमात्मकसहिष्णोरपि मोक्षाभावात्, सत्यमेतत्, केवलं क्षायोपशमिक सम्यक्त्व श्रुतचारित्राणामपि समुदितानां क्षायिकसम्यक्त्वादिनिबन्धनत्वेन परम्परया मोक्ष हेतुत्वमस्तीत्यदोषः । आह प्रतिपन्नमस्माभिर्मोक्षकारणकारणं श्रुतादि, परं तस्यैव कथमलाभो लाभो बेति, उच्यतेअहं पडणं उकोसहिईऍ घट्टमाणो उ । जीवो न लहइ सामाइयं चपि एगयरं ॥ १०५ ॥ अष्टानां प्रकृतीनां ज्ञानावरणीयादिकर्म्मप्रकृतीनाम उत्कृष्टा चास्यै स्थिति उत्कृष्टस्थितिस्तस्यां वर्त्तमानो जीवो न लभ Jan Education Intern •••• कषायक्षये एव मोक्षः ... सामयिक प्राप्तेः संयोगः For Pitate & Personal Use Only ~236~ jainslibrary.org Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१०४,१०५], भाष्यं [-] वि०भा०गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घातनिर्युतिः ॥१११॥ तेन प्राप्नोति, किन्तदित्याह -सामायिकं, किं तदित्याह चतुर्णा - सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिक सर्व| विरतिसामायिकानामेकतरम् - अन्यतमद्, अपिशब्दात् मतिज्ञानादि च न लभते, न केवलमेतानि न लभते, पूर्वप्रतिपन्नोऽध्यायुर्वर्जकर्मोत्कृष्टस्थितौ न भवति, यतोऽवाप्तसम्यक्त्वस्तत्परित्यागेऽपि न भूयो प्रन्थिमुच्योत्कृष्ट स्थितीः कम्मप्रकृतीर्थप्राति, 'बंघेण न वोलइ कयाई 'ति वचनात् एष सिद्धान्तिकाभिप्रायः, कर्म्मग्रन्धिकास्तु भिन्नग्रन्थेरप्युत्कृष्ट स्थितिबन्धो भवतीति प्रतिपन्नाः, आयुषस्तूत्कृष्टस्थितौ वर्त्तमानः सम्यक्त्व श्रुतसामायिकयोरनुत्तरसुर उपपातकाले पूर्वप्रतिपक्षो न प्रतिपद्यमानकः, पूर्वमवश्यं प्रतिपन्नत्वात, आयुषस्तु जघन्यस्थितौ वर्त्तमानो न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, आयुर्जघन्यस्थितिः शुल्लकभवग्रहणप्रमाणा, सा च वनस्पतिषु, न च वनस्पतिषु सम्यक्त्वस्यापि पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, सास्वा* दनसम्यक्त्वसहितस्यापि तेष्वनुत्पादात्, 'उभयाभावो पुढवाइपसु' इति वचनात् प्रकृतीनां चोत्कृष्टेतरभेदभिक्षा स्थितिरियं ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां उत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः सप्ततिर्मोहनीयस्य नामगोत्रयोविंशतिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्येति, जघन्या तु द्वादश मुहूर्त्ता वेदनीयस्य नामगोत्रयोरष्टी शेषाणामन्तर्मुहूर्त्तमिति, उक्तं च- "बीसमयरोवमाणं कोडाकोडीउ नामगोयाणं । सयरी मोहस्स ठिई सेसाणं तीस उक्कोसा ॥ १॥ आउस्स सागराई तेत्तीस अवरतो मुहुसंतो। अट्ठ उ नामागोए वेयणिए बारस मुहुता ॥ २॥ (वि. ११८७ - ८ ) नन्वेताः कर्म्मप्रकृतयः किं युगपदेवोत्कृष्टां स्थितिमासादयन्ति उत एकस्यामुत्कृष्टस्थितिमापनायां सत्यामन्या अपि नियमत उत्कृष्टस्थितयो जायन्ते, आहोम्बिदन्यथा वैचित्र्यमिति १, उच्यते, अन्यथा वैचित्र्यं, तथाहि — मोहनीयत्वोत्कृष्टायां स्थितौ शेषाणा For Pitate & Personal Un Only ~237~ श्रुतस्य क्षायोपसामाविकलाभः १०४-५ ॥ १११ ॥ janatarary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१०६], भाष्यं न, वि०भा०गाथा [११८९,११९०,११९४,११९५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4 दीप अनुक्रम CON4444449-90% नामपि पण्णामुत्कृष्टव स्थितिः, आयुषस्तु उत्कृष्टा वा मध्यमा वा, न तु जपन्या, मोहनीवरहितानां तु शेषप्रकृतीनामन्य-IN तमस्खा उत्कृष्टस्थितिसगावे मोहनीयस्य शेषाणां उत्कृष्टा वा मध्यमा वा, न तु जघन्येति, पर्क-"मोहस्सुको-|४| साए ठिईएँ सेसाण कण्हमुकोसा । आउस्सुकोसा वा मज्झमिया वा न उ जहण्णा ॥ १ ॥ मोहविवजुकोसद्विारे मोहस्स सेसियाणं चारकोस मज्झिमा वा कस्सइन जहणिया होजा ॥२॥ (वि.११८९-९०)" तदेवमुकं सम्यक्त्वादीनामलाभकारणम्, मधुना लाभकारणमाह सत्तण्हं पयडीणं अभितरओ उ कोडिकोडीए । काऊण सागराणं जह लहइ चउण्डमण्णयरं ॥ १०६॥ सक्षानामायुवर्जानां कर्मप्रकृतीनां या पर्यन्तवर्तिनी स्थितिस्तामजीकृत्य सागरोपमाणां कोटाकोटी तस्या अभ्यन्तर पक्-मध्य एष, तुशब्दोऽवधारणार्थः, कृत्वा आत्मानमिति गम्यते, यदि लभते-यदि प्रामोति चतुर्णी-श्रुतसामायिकादीनामन्यतमत् , तत एव लभते नान्यथा, पाठान्तरं 'काऊण सागराणं ठिई लभइ चउण्डमण्णयर' तत्र सागरोपमाणां | | कोटीकोव्या अम्यन्तरतो-मध्ये कृत्या स्थितिं लभते चतुर्णामन्यतमत्, एष गाथाक्षरार्थः, इयमत्र भावना-आयुर्वर्जानां | | सप्तानां कर्मप्रकृतीनां यदा स्थितिः पर्यन्तवर्तिनी पस्योपमासङ्ख्येयभागहीनसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा अवतिष्ठते तदा धनरागद्वेषपरिणामरूपोऽत्यन्तदुर्भेददारुपन्धिवत्कर्मप्रन्धिर्भवति, उकंच-"अंतिमकोडाकोडी, सबकम्माण आउव-| जाणं । पलियासंखेजइमे भागे खीणे हवा गंठी ॥शा गहित्ति सुदुम्मेदो कक्खडघणरूढगूढगंठिया जीवस्स कम्मजणितो घणरागहोसपरिणामो॥२॥”(वि.११९४-५)तस्मिंश कर्मग्रन्थावपूर्वकरणनामविशेषविशुद्धिकुठारधारया भिन्ने परमपदहेतुः । JanEduration Inoermanions/ For Prats Personal un any imjainitiorary.org ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१०६], भाष्यं , वि०भा०गाथा [११९६-१२०१], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 44 + उपोदात- सम्यक्त्वलाभ उपजायते, केवलं कर्मग्रन्धेर्भेद एव मनोविघातपरिश्रमादिभिःसाधः, तथाहि स जीवः कर्मरिपुमध्य-18सामायिक नियुक्तिः दिगतस्तं प्राप्य विघातयन्नतीव परिश्राम्यति,प्रभूतकारातिसैन्यान्तकारितया सातखेदत्वात् , महासमरशिरसि दुर्जया- तुः १०१ पाकृतानेकशत्रुगणः सुभट इव, उकं च-"भिन्नंमि तमि लाभो संमत्ताईण मोक्खहेऊणं । सो य दुलभोपरिस्समचित्तवि-11 ॥११२॥ घायाइविग्घेहि ॥ १॥(वि.११९६)" अपरस्त्वाह-ननु किं तेन कर्मग्रन्धिना भिन्नेन ? किंवा सम्यक्त्वादिना अवाप्न ? यावता यथाऽतिदीर्घा कर्मस्थितिः सम्यक्त्वादिगुणरहितेनैव क्षपिता एवं कर्मशेषमपि गुणरहित एव क्षपयित्वा विवक्षितफलभाम् भविष्यतीति, उच्यते, स हि तस्यामवस्थायां प्रवर्तमानोऽनासादितगुणान्तरोन शेषक्षपणया विशिष्टफलप्रसाधनायालं, चित्तविघातादिप्रचुरविघ्नसकुलत्वात्, विशिष्टायाश्चाप्राप्तपूर्वफलप्राप्तेः प्रागभ्यस्तक्रिययाऽयासुमशक्य-14 स्वास, अनेकसंवत्सरानुपालिताचाम्लादिपुरश्चरणक्रियाऽऽसादितगुणान्तरसहायक्रियारहितविद्यासाधफवद्, उक्तंच"कम्महिई सुदीहा खविया जइ निग्गुणेण सेसंपि । खउ निग्गुणञ्चिय किंथ पुणोदंसणादीहिं ? ॥१॥ आचार्य आह"पारण पुषसेवा परिमउई साहणमि गुरुतरिया । होइ महाविजाए किरिया पायं सविग्धा य ।। २॥ तह कम्मद्विइखवणे परिमई मोक्खसाहणे गुरुई। इह दंसणाइकिरिया, दुलहा पायं सविग्घा य॥श(वि.११९७-२००) अथवा यत एव वही कर्मस्थितिरनेनोन्मूलिता अत एवापचीयमानदोषस्य सम्यक्त्वादिगुणलाभः सञ्जायते, अशेषकर्मपरिक्षये सिद्धत्ववत् , तत ॥११या एष च मोक्षः, ततो न शेषमपि कर्मा गुणरहित एवापाकृत्य मोक्ष प्रसाधयति, आइ.च-"महब जउचिम सुबहुं खवितो निगुणोन सेसंपि । सलवेइ जजो कभए सम्मचमुबाइगुणलाम॥२॥ (वि.१२०१)" इति। सम्पति सम्यक्त्वादिगुणा दीप अनुक्रम + + + क र JanEduration Incom ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१०७], भाष्यं , वि०भा०गाथा [१२०२-१२०३], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक F 4 दीप अनुक्रम वातिविधिरुभ्यते, इह जीवा द्विविधा भवन्ति, तद्यथा-भव्याच अमव्याश्च, तत्र भव्यानां करणत्रयं भवति, करणं नाम 5 सम्यक्त्वाद्यनुगुणो विशुद्धरूपः परिणामविशेषः, तद्यथा-यथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवकिरणं, तत्र यथैव-अना-14 |दिसंसिद्धेनैव प्रकारेण प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं यथाप्रवृत्वं च तत्करणं च यथाप्रवृत्तकरणम्अनादिकालात्कर्मक्षपणाय प्रवृत्तो गिरिसरिदुपलघोलना[न्यायेन] कल्पोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तकरणमिति, तथा अप्राप्ठपूर्वमपूर्व स्थितिघातरसघावाद्यपूर्वार्थनिर्वकं वा अपूर्वक, तच्च तत्करणं च अपूर्वकरणं, निवर्त्तनशीलं निवर्णिन निवर्ति अनिवर्ति-आसम्यग्दर्शनलाभान्न निवर्तत इत्यर्थः, ततः प्राग्वत्करणशब्देन सह विशेषणसमासः, एतानि श्रीण्यपि यथोचरं विशुद्धविशुद्धतराध्यवसायरूपाणि भवन्ति भव्यानाम् , अभव्यानां त्वाद्यमेव करणं, तत्र अनादिकालादारभ्य याच ग्रन्धिस्थानं तावदाय, प्रन्धि तु समतिकामतो द्वितीय,प्राक्तनात् विशुद्धतराध्यवसायरूपेण तेन ग्रन्थे दकरणात्, सम्यग्दर्शनलाभाभिमुखस्य तृतीयम्, उक्तंच-“करणं अहापवत्तं अपुबमनियट्टिमेव भषाणं। इयरेसिं पढम चिय भन्नइ करणं तु परिणामो ॥१॥ जा गंठी ता पढम गठिं समइच्छतो हवइ बीयं । अनियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीने ॥२॥" (वि.१२०२-३) सम्यक्त्वं पुरस्कृतम्-अभिमुखं कृतं येन स सम्यक्त्वपुरस्कृतोऽभिमुखसम्यक्रव इत्ययः तस्मिन् | जीवे सम्पति करणत्रयमङ्गीकृत्य सामायिकलाभदृष्टान्तानभिधित्सुराह पल्लगगिरिसरिभोवल-पिवीलिया-पुरिस-पह-जरग्गदिया। कोडम-मल-पत्याणि पसामाइयलामविता ।। १०७॥ Himjainstiorary.org ... सामायिक-करणे लाभ: ~240-~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१०७], भाष्यं , वि०भा०गाथा [१२०५-१२०६], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक % * दीप अनुक्रम उपोयात-II इह सामायिकलामे नव दृष्टान्ताः, तद्यथा-प्रथमः पत्यकदृष्टान्तः १ द्वितीयो गिरिसरिदुपलहटान्तः २ तृतीयः पल पिपीलिकादृष्टान्तः ३ चतुर्थः पुरुषदृष्टान्तः ४ पञ्चमः पयदृष्टान्तः ५षष्ठो ज्वरगृहीतदृष्टान्तः ६ सप्तमः कोद्रवदृष्टान्तः हटान्दार * अष्टमो जलदृष्टान्तः ८ नवमो वखरूपः। तत्र प्रथमपस्यकदृष्टान्तभावना-पत्यको नाम लाटदेशे धान्यालयः, तत्र यथा कश्चित् महापल्ये धान्यं स्वल्पं स्वल्पतरं प्रक्षिपति, प्रचुरं प्रचुरतरं तत आदत्ते, तत एवं ग्रहणनिक्षेपकरणे कालान्तरेण स रिक्कीभवति, एवं कर्मधान्यपल्ये जीवोऽनाभोगप्रवृत्तेन यथाप्रवृत्तकरणेन स्वल्पं स्वल्पतरमुपचिन्वन् प्रभूतं प्रभूततरमपचिन्वन् गच्छता कालेन ग्रन्धिमासादयति,पुनस्तं भिन्दानस्यापूर्वकरणं सम्यग्दर्शनलाभाभिमुखस्यानिवर्तीति, एष पल्यकदृष्टान्तः, एकं च-"जो पल्लेऽइमहल्ले धन्नं पक्खिवइथोवथोवतरं। सोहेइ बहुबहुतरं झिज्जइ थोवेण कालेण ॥२॥ तह कम्मधन्नपल्ले, जीवोऽणाभोगतो बहुतरागं । सोहंतोथोवतरं, गिण्हतोपावए गठिं॥२॥" (वि.१२०५-६)अत्र पर आहनन्वेष दृष्टान्तोऽनुपपन्नो, यतः-संसारिणो योगवतः प्रतिसमयं चयापचयाबुक्की, तत्रासंयतस्य बहुतरस्य चयोऽल्पतरस्थापचयः, अत आगमः-पल्ले महइमहल्ले, कुंभं पक्खिवइ सोहई नालिं । अस्संजए अविरए बहु बंधइ निजरइ थोवं ॥१॥पल्ले महइमहल्ले, कुंभं सोहेइ पक्खिवे नालिं । जे संजए पमत्ते बहुनिजर बंधए थोवं ॥२॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभ सोहेइ पक्खिव न किंचि । जे संजएउपमत्ते, बहु निजर बंधइन किंचि ॥३॥ (श्राव. ३५-३६-३७) ततो नाम पूर्वमसंयतस्य मिथ्यादृष्टेरविप्रभूततरकर्मबन्धस्य कुतो मन्धिदेशप्राप्तिसम्भवो। यतः सम्यक्त्वावाप्तिरिति, तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात्, इदं हि सूत्र बाहुल्यमङ्गीकृत्य प्रवृचं, प्रायेणासंयत उकप्रकारेण वनाति, नतु सर्व एवासंयत SROSex JanEducation fnoormational Jainitiorary.org ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०७], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - h दीप अनुक्रम है एवमेव, ततो न कशिदोषः, उक्कं च-"एयमिह ओषविसयं भणियं सबेन एवमेवत्ति । अस्संजतो य एवं पडुच्च ओस समावं तु ॥१॥" (श्राव. ३८) अवैतदेवं कथमवसीयते यथेदं सूत्रं बाहुल्यविषयं न पुनः सर्व एवासंयत एवमेव बनातीति, उच्यते, अन्यथा बन्धाभावप्रसङ्गात् , तथाहि-यदि सर्व एवासंयतः सूत्रोक्तप्रकारेण कर्मपुद्गलोपादानमादत्ते ततः कालान्तरे प्रतिदिवसं पुरुषसहस्रदशकेन रूप्यकपञ्चकग्रहणे एकरूप्यकमोक्षे च (s) दिवसत्रयमध्ये लक्षस्य व्यवच्छेद इव सर्वपुद्गलानां जीवमेहणतोऽभावः प्रामोति, तदभावे च बन्धाभावा, बन्धयोग्यकर्मपुद्गलासम्भवात् , आह च-"पावइ बंधाभावो अन्नहा पोग्गलाणऽभावातो। इयवुहिगहणतो ते सये जीवेहिं जुज्जति ॥१॥" (श्राव. ३९) अथ मन्येथाः-गृहीतपुद्लानामसङ्येयकालादृमवश्यं मोक्षा, पुद्गलानामुस्कर्वतोऽप्यसोयकालस्थितिकत्वात् , ते च मुच्यमानाः प्रतिसमयं सर्वजीवेभ्योऽप्यनन्तगुणाः, ततः कथं पुद्गलानामसम्भवतो बन्धा-150 भावप्रसङ्गः १, उक्तंच-"मोक्खु असंखेज्जातो, कालातो ते यजं जिएहितो । भणियाणंतगुणा खलु न पस दोसो ततो जुत्तो॥१॥" (श्राव. ४०) तदेतदयुक्तम्, मोक्षो हि गृहीतानां कियत्कालातिक्रमे भवति, ग्रहणं त्ववश्यं प्रतिसमयं प्रतिजीवं च सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानां, ततः कथं प्राक्पसञ्जितदोषानवकाश इति, आह च-"गहणमणंताण न किं जायइ समएण ता कहमदोसो?"॥ (श्राव. ४०॥) इति, अथ ब्रुवीधाः-एवंरूपस्तावदागमो विजृम्भते 'जावणं एस जीवे एयइ बेयइ चलइ फंदइ घट्टइ खुम्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ताव सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा] विहधए वा एगविहबंधए वा, नो चेवणं अबंधए सिया' (व्याख्या. सू.) इति, तथा संसारोऽपि प्रतिसमय E XTRACTOcte an Educa t ion wwwjainitiorary.org. ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०७], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१२०७,१२२२,१२२३], मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - 4 दीप अनुक्रम प्रपोदात- बन्धकसत्त्वसंमृतिरूपः प्रत्यक्षत एवोपलभ्यते, तत आगमप्रामाण्यात्संसारदर्शनाचन तथा भूयसामनन्तानां पुद्गलानां प्रन्धिपानियुकिः ग्रहण पथा बन्धयोग्यकर्मपुद्गलासम्भवतो बन्धाभावप्रसङ्ग इति, उक् च-"आगमसंसारातो, न तहाणताण महणं प्तिसंभवः तु।" (श्राव. ४१) इति, ननु यद्येवं सम्यक्त्वादेरपि प्रतिपादक आगमो वर्तते, "सम्मत्तमि उलद्धे पलियाहत्तेण सावतो|81 ॥११४॥ होह चरणोवसमखयाण सागर संखतरा होति ॥१॥ एवं अपरिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्नवरसढिवज्ज एग भवेणं च सवाई ॥२॥"(वि.१२२२-३) तथा मोक्षोऽपि सम्यक्त्वादिगुणघातिनां कर्मपुद्गलानां सिद्धएव, सम्यक्त्वादि-* गुणानां स्वगतानां स्वसंवेदनतः परगतानां त्वनुमानतो दर्शनात्, ततो आगमतो मोक्षाच्च प्राचीनमेव सूत्रमोपविषयं | | किं नाभ्युपगम्यते', एवं ह्यनिष्टकल्पनापरिहारः पूर्वसूरिकृतव्याख्यानबहुमान (च) तदहमाने च सर्वज्ञाज्ञाराधनं, तस्मात-16 देव व्याख्यानं समीचीनमिति घटते प्रन्धिदेशप्राप्तिरिति न कश्चिद्दोषः, उक्तंच-"आगममोक्खाज न किंचि विसेसवि-1 सयत्तणेण सुत्तस्स । तो जाविहऽसंपची न घडइतम्हा अदोसो उ॥१॥" (श्राव.४२) इति भावितः पल्यकदृष्टान्तः, कथं पुनरनाभोगतःप्रचुरतरकर्मक्षय इति गिरिसरिदुपलदृष्टान्त उच्यते-गिरेः सरिगिरिसरित्तस्थामुपला: पाषाणा गिरि सरिदुपलास्तद्वत्, इयमत्र भावना-यथा गिरिसरितुपला-परस्परसन्निकणोपयोगशून्या अपि विचिवाकृतयो जायन्ते एवं पायथाप्रवत्तकरणतो जीवास्तथाविधविचित्रकर्मस्थितिका विचित्रा इति यथाप्रवृत्तकरणतो प्रन्थिदेशप्राप्तिः. उ%-- G"गिरिनइवत्तणिपत्थरपडणोवम्मेण पढमकरणेणं । जा.गंठी कम्मठिइक्खवणमणाभोगतो तस्स ॥१॥(वि.१२०७) अपना पिपीलिकादष्टान्तः, पिपीलिका-नाम कीटिकार, तासां क्षिती गमन स्वभावतो भवति, कासांचित स्वभावत एव For Farm 'सम्यक्त्व विषयक विशद विवरण । ~243 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [१०७], भाष्यं H. विभा गाथा [१२०८-१२१०], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम H ESSAGटककारक स्थाण्यारोहणमपरासां च सञ्जातपक्षाणां तस्मादप्युत्पतनमन्यासां स्थाणुबुग्नेऽवस्थानं कासाश्चित् स्थाणुबुनात् प्रत्यवसर्पणम्, एवमिह जीवानां कीटिकानां क्षितौ स्वभावगमनमिव यथाप्रवृत्तकरणं, स्थावारोहणसदृशमप्राप्तपूर्ववादपूर्वकरणं, ततः कीलकादुत्पतनमिव जीवानामनिवर्तिकरणम् , अनिवर्तिकरणवलेन मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकादुमृत्य सम्यग्दृष्टिगुणस्थानगमनात्, स्थाणुवुनावस्थानसदृशं ग्रन्थाववस्थानं, स्थाणुबुनादवसर्पणसदृशं ग्रन्थिदेशात्पुनर्व्यावर्त्तनेन दीर्घकर्मस्थितिकरणम् , उक्तं च-"खितिसाहावियगमणं, थाणूसरणं ततो समुप्पयणं । ठाणं थाणुसिरे वा ओरहणं वा मुइंगाणं ॥१॥अत्र 'थाणुसिरे वा' इति स्थाणुबुने इति द्रष्टव्यं, बुघ्नप्रदेश एवं भूतलसम्बद्धो निमग्नस्थाणुप्रदेशापेक्षया। शिर इव शिरो विवक्षितम् , "खितिगमणंपिव पढम थाणूसरणं व करणमप्पुवं । उप्पयणंपिव तत्तो, जीवाणं करणमनियत्री ॥२॥थाणुव गंठिदेसो गंठियसत्तस्स तत्वऽवत्थाणं ओयरणंपिव तत्तो पुणोवि कम्मट्ठितिविवही ॥३॥"(वि०१२०८-१०) अब 'धाणुव' इति स्थाणुवुन्नमिवेत्यर्थः । सम्प्रति पुरुषदृष्टान्तः यथा केचन त्रयः पुरुषाः महानगरयियासब महाटवीं प्रपन्नाः सुदीर्घमध्वानमतिकामन्तः कालातिपातभीरवो भयस्थानमाढौकमानाः शीघ्रतरगतयो गच्छन्तः पुरस्तादुभयतः समुत्खातकरवालपाणी द्वौ तस्करावालोक्य तेषामेका प्रतीपमनुप्रयातः अपरस्तु ताभ्यामेव गृहीतः अ-यस्तु तो द्वाप्यतिकम्यष्टं नगरमनुप्राप्त इत्येष दृधान्तः, अयमुपनयः-इह संसाराटव्यां पुरुषाखयः संसारिणः कल्प्यन्ते, पन्थाः कर्मस्थितिरतिदीर्घा, भयस्थानं ग्रन्थिदेशा, द्वौ तस्करौ रागद्वेषौ, तत्र प्रतीपगामी यो यथाप्रवृत्तिकरणेन ग्रन्थिदेशमासाद्य पुनरनिएपरिणामः सन् कर्मस्थितिमुस्कृष्टामासादयति, तस्करद्वयावरुनः प्रवलरागद्वेषोदयो ग्रन्धिकसत्त्वः, अभिलषितनमरानु and in Far PiaNAParamal-Un Dil ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥११५॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १०७ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१२११-१२१४], मूलं [- /गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | प्राप्तोऽपूर्वकरणतो रागद्वेषचौराचपाकृत्यानिवर्त्तिकरणेनावातसम्यग्दर्शनः उक्तं च-"जह वा तिष्णि मणूसा जंतऽडविप | सभावगमणेणं । वेलाइकमभीया तुरंति पत्ता य दो चोरा ॥ १ ॥ दहुं मग्गतडत्थे, ते एगो मग्गतो पडिनियत्तो । बिइतो गहितो तइतो समइकंतो पुरं पत्तो ॥ २ ॥ अडवी भवो मणूसा जीवा कम्मट्टिई पहो दीहो । गंठी य भयद्वाणं राग|| दोसा य दो चोरा ॥३॥ भग्गो ठिइपरिवुद्धी, गहितो पुण गंठिओ गतो तइतो । सम्मतपुरं एवं जोइजा तिण्णि करणाणि |||४||" (वि. १२११-४) अत्र पर आह-ननु ग्रन्थिभेदं कृत्वा सम्यग्दर्शनमुपदेशतो लभते उतानुपदेशतः १, उच्यते, उभयथापि लभते, कथं १, पयः परिभ्रष्टपुरुपत्रयवत्, तथाहि —यथा कश्चित्पथः परिभ्रष्टपुरुष उपदेशमन्तरेणैव परिभ्रमन् स्वयं पन्थानमासादयति, कश्चिन्तु परोपदेशेन, अपरस्तु नासादयत्येव, एवमिहाप्यत्यन्तग्रनष्ट सत्पयो जीवो यथाप्रवृत्तकरणतः संसाराटव्यां परिभ्रमन् कश्चित् ग्रन्थिमासाद्यापूर्वकरणेन तमतिक्रम्यानिवर्त्तिकरणमनुप्राप्य स्वयमेव सम्यग्दर्शनादिरूपं निर्वाणपु| रपन्थानं लभते, कश्चित्परोपदेशाद्, अपरस्तु प्रतीपगामी ग्रन्थिकसत्वो वा नैव लभते इति । सम्प्रति ज्वरदृष्टान्तः, यथा ज्वरः कश्चित्स्वयमेवापैति कश्चिद् भेषजोपयोगेन कश्चिन्नैवापैति, एवमिहापि मिथ्यादर्शनमहाज्वरोऽपि कश्चित्स्वयमेवापैति, कश्चिदर्हद्वचन भेषजोपयोगाद्, अपरस्तु तदौषधोपयोगेऽपि नापैति । कोद्रवदृष्टान्तः, यथा केषाञ्चित् कोद्रवाणां मदनभावः स्वयमेव कालान्तरतोऽपैति केषाञ्चिद् गोमयादिपरिकर्म्मतोऽपरेषां तथापरिकर्म्मणायामपि नापैति, एवं मिथ्यादर्शनभावोऽपि केषाञ्चित्स्वयमेव विनाशमुपयाति, अपरेषामुपदेशपरिकर्म्मतः, अन्येषां तु न सर्वथाऽवैति, योऽपि च स्वयमु|पदेशपरिकर्म्मणातो वाऽपैति सोऽप्यपूर्वकरणबलेन, तथाहि —स जीवोऽपूर्वकरणेन शुद्धाशुद्धाशुद्धमदनकोद्रवनिदर्श Jan Education International For Pivate & Personal Use Only ~ 245~ १०७ सम्यक्त्वा सिदृष्टान्ताः ॥११५॥ jinslibrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक" - मूलसूत्र - १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १०७ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१२१५-१२१७, १२२०, १२२१ ], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International नेन मिथ्यात्वं मिथ्यादर्शनसम्यग्मिथ्यादर्शनसम्यग्दर्शनभेदेन त्रिधा विभजते, तथा चोकम् - "मयणा दरनिवलिया | निवलिआ य जह कोहवा तिविहा । तह मिच्छन्तं तिविहं परिणामवसेण सो कुणइ ॥१॥ (वि. १२२० ) ततोऽनिवर्त्तिकरणविशेषात् सम्यक्त्वं प्राप्नोति, एवं करणत्रययोगवतो भव्यस्य सम्यग्दर्शनप्राप्तिः, अभव्यस्यापि कस्यचिद्यथाप्रवृत्तिकरणतो ग्रन्थिमासा चाईदादिविभूतिसन्दर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्त्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति, न शेषसामायिकलाभः, उक्तं च- "नासेइ सर्य व परिकम्मतो व जह कोदवाण मयभावो । नासइ तह मिच्छमओ, सयं व परिकम्मणाए वा ॥ १ ॥ अप्पुवेण तिपुंजं, मिच्छत्तं कुणइ कोदबोवमया । अनियट्टीकरणेण उ सो सम्मदंसणं लद्दह ॥ २ ॥ तिकराइपूर्य, दहुं अण्णेण वावि कज्जेणं । सुयसामाइयलंभो होज अभवस्स गंथिंमि ॥३॥” (वि. १२१५-७) सम्प्रति जलदृष्टान्तः, यथाहि - जलं मलिनमर्द्धविशुद्धं शुद्धं चेति त्रिधा भवति, एवं दर्शनमपि मिथ्यादर्शनादिभेदेन अपूर्वकरणतस्त्रिधा करोति, एवं वखदृष्टान्तेऽपि भावना कार्या, आह च - "जह वेह किंचि मलिणं, दरसुद्धं सुद्धमंबु वत्थं वा । एवं परिणामवसा, करे | सो दंसणं तिविहं ॥ १ ॥” (वि. १२२१) सम्प्रति प्रासङ्गिकमुच्यते एवं सम्यग्दर्शनलाभोत्तर कालमवशेषकर्म्मणः पल्योपमपृथक्त्वस्थितिपरिक्षयोत्तरकालं देशविरतिरवाप्यते पुनः शेषायाः सवेयेषु सागरोपमेषु स्थितेरपगतेषु सर्वविरतिः, तदनन्तरमव| शेषस्थितेरपि सङ्ख्येयेष्वेव सागरोपमेषु क्षीणेषु उपशमश्रेणिः, तदनन्तरं भूयोऽप्यवशिष्टस्थितेः सङ्ख्येयेषु सागरोपमेष्वपगतेषु क्षपकश्रेणिरिति, इयं च देशविरत्यादिप्राप्तिरेतावत्कालतो देवमनुष्येषूत्पद्यमानस्याप्रतिपतितस्योत्कर्षतो द्रष्टव्या, अन्यथा अन्यतरश्रेणिरहितस्य सम्यक्त्वादिगुणप्राप्तिरेकभवेनाप्यविरुद्धेति, भणितमानुषङ्गिकमिदानीं यदुदयात् सम्यक्त्वसामा | For Pitate & Personal Use Only ~246~ www.janlibrary.org Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [१०८], भाष्यं , वि०भा०गाथा [१२२६,१२२७], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: I प्रत सूत्रांक - 25-SEKA 4 उपोद्धात- 1यिकादिलाभो न भवति सञ्जातो वाऽपैति तानिह आवरणरूपान् कषायान् प्रतिपादयशाह, यदिवा यदुकं 'कैवल्यज्ञा-15 नियुक्तिः४ानलाभो नान्यत्र कषायक्षयादिति, ते कषायाः के। किंसाका वा! को वा कस्य सम्यक्त्वादिसामायिकस्यावरण सया को वा खलु कस्योपशमादिक्रम इत्यमुमर्थमभिधित्सुराह॥११॥ वारका पढमिलुआण उदए नियमा संजोयणाकसायाणं । सम्मईसणलंभं भवसिद्धीयाविन लहंति ॥ १०८॥ प्रथमा एव प्रधमेल्लुकाः, देशीवचनमेतत् , यथा 'पढमेला एस्थ घरे' त्यादि, तेषां प्रथमेलुकानाम्-अनन्तानुवन्धिनां HIोधादीनां, तेषां प्राथम्यं सम्यक्त्वाख्यप्रथमगुणविघातित्वात् क्षपणक्रमाद्वा, उदयः-उदयावलिकाप्रविष्टानां तत्पुद गलानामद्धतसामर्थ्यता तस्मिन्नुदये, नियमेन अस्थ पदस्थ व्यवहितपदेन सह सम्बन्धः तं च दर्शयिष्यामः, सम्पति । हा पुनः प्रथमेलका एवं विशेष्यन्ते, किंविशिष्टानां प्रथमेलुकानाम् कर्मणा तत्फलभूतेन वा संसारेण सह संयोजयन्ति जीवमिति संयोजनाः, उक्तंच-"खवणं पडुच्च पढमा पढमगुणविघाइणोत्ति से (वा) जम्हा। संजोयणा कसाया भवादिसंजोयणातो य॥१॥" (वि.१२२६) ते च कषायाश्च संयोजनाकषायाः, 'कषाया' इति कपन्ति-परस्परं हिंसन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निति कप:-संसारः कर्म वा ततः कप:-कर्म भवोवा तस्य आयो-लाभो येभ्यस्ते कषायाः, अथवा कर्ष-संसारमाययन्ति-गमयनीति कपायाः, आह च-कर्म कसो भवो वा कसमातो सिं जतो कसावा तो।कसमाययंति व अतो गमयंति कसं कसा-13 यति "(वि.१२२७) तेषां प्रथमेल्लुकानां संयोजनकपायाणामुदये किम् !-नियमेन सम्यक्-अविपरीतं दर्शनं सम्यग-18 दादर्शनं सस्य लाभा-प्राप्तिः सम्बग्दर्शनलामः तं, मवे सिद्धिर्येषां ते मवसिद्धिकाः, सर्वेषामेव भवे सति सिद्धिर्भवति ततः किं दीप अनुक्रम and I For Farm ... कस्य कषायस्य उदये कस्य अलाभ: वर्तते? ~247 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१०९,११०], भाष्यं H. विभागाथा [१२३२,१२३३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4 दीप अनुक्रम BACCASHARMA भवग्रहणेन !, सत्यमेतत्, केवल भवग्रहणादिह तद्भवो गृह्यते, तद्भवसिद्धिका अपि न लमन्ते, किं पुनः परीत्तसंसा-12 रिणः अभव्या वेति ॥ उकाः सम्यक्त्वस्यावरणभूताः कषाया, सम्प्रति देशविरत्यावरणभूतान तान् प्रतिपादयति. बीयकसायाणुदए, अपचक्खाणनामधेजाणं । सम्मइंसणलंभ, विरयाविरई न उ लहंति ॥ १०९॥ द्वितीयाश्च ते कषायाच द्वितीयकषायास्तेषां, द्वितीयता देशविरतिलक्षणद्वितीयगुणविघातित्वात् क्षपणक्रमाद्वा, उदये, 'प्रत्याख्याननामधेयानां' न विद्यते देशतः सर्वतो वा प्रत्याख्यानं येषूदयप्राप्तेषु तेऽप्रत्याख्यानाः, सर्व निषेधवाची न, आह च-"सा देसो व जतो, पञ्चक्खाणं न जेसिमुदएणं । ते अप्पचक्खाणा सबनिसेहे मतोऽकारो॥१॥" (वि. १२३२) अप्रत्याराना इति नामधेयं येषां तेऽप्रत्याख्याननामधेयास्तेषामुदये, सम्यग्दर्शनलाभ, भव्या लभन्त इति वाक्य| शेषः, अयं च वाक्यशेषो विरताविरतिविशेषकतुशब्दसंसूचितो द्रष्टव्यः, आह च-"सम्मईसणलंभ, लहिंति भविअत्ति है वसेसोऽयं । विरयाविरइविसेसणतुसद्दसंलक्खितोऽयं च ॥१॥" (वि.१२३३) तथा विरमणं विरतं तथा न विरतिरविरतिर्विरतं चाविरतिश्च विरताविरतिर्देशविरतिरित्यर्थः तां नतु लभंते, तुशब्दात् सम्यग्दर्शनं तु ठभंते इति भावः ।। अथ तृतीयस्य सर्वविरतिगुणस्यावारकान् तृतीयकषायानाह तइयकसायाणुदए, पचक्खाणावरणनामधेजाणं । देसिकदेसविरई, चरित्तलंभ न उ लहंति ॥ ११ ॥ का सर्वविरतिलक्षणतृतीयगुणविघातित्वात् क्षपणक्रमादा तृतीयास्ते च ते कषायाश्च तृतीयकषायास्तेषामुदये, किंविधिसानामित्याह-आवृण्वन्तीत्यावरणाः, 'कृदाहुल'मिति कयनद, प्रत्याख्यानं-सर्वविरविलक्षणं तस्यावरणाः प्रत्याख्यानाच X* In Educa ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१११], भाष्यं H. विभागाथा [१२३५], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4 दीप अनुक्रम सपोद्धात-181रणाः प्रत्याख्यानावरणा इति नामधेय येषां ते प्रत्याख्यानावरणनामधेयाः तेषा, नम्बप्रत्याख्याननामधेयानामुदये प्रत्या-16देशमयनयुक्तदाख्यानं नास्तीत्युक्तं, नत्रा प्रतिषिद्धत्वात्, इहापि चावरणशब्देन प्रत्याख्यानप्रतिषेध एवाभिधीयते, ततः क एषां प्रतिवि-दायाख्यात॥११७॥ दोषः, उच्यते, तत्र नञ् सर्वनिषेधवचनः, इह पुनरामर्यादायामीपदथें वेति, ईषन्मर्यादया वाऽऽवृण्वन्तीत्यावरणा- चारित्रावा |स्ततः सर्वविरतिनिषेध एवायमावरणशब्दो वर्तते, न देशविरतिनिषेधे इति महान् विशेषः, आह च-"सर्व पञ्चक्खाणं,18/१०९-१११ | वरेंति ते जं न देसमेएणं । पचक्खाणावरणा आमज्जादीसदत्थेसु ॥१॥" (वि.१२३५) देशश्च एकदेशश्च देशैकदेशी, तत्र देश:-स्थूरप्राणातिपातादिः एकदेशस्तु-तस्यैव दृश्यवनस्पतिकायाचतिपातः तयोर्देशैकदेशयोविरतिः-निवृत्तिस्तां, लभंते इति वाक्यशेषः, अत्रापि वाक्यशेषः 'चरित्तभं नउ लहंती'त्यत्र तुशब्दोपदानाल्लभ्यते, यत आह-'चरित्ते'त्यादि, 'घर 8 गतिभक्षणयोः' चरन्ति-गच्छन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं, 'खनसहलूधूवते रिति इत्रप्रत्ययः, चरित्रमेव चारित्रं, किमुकंद |भवति :-अन्यजन्मोपात्ताष्टविधकर्मसञ्चयापचयाय चरण-सर्वसावधयोगनिवृत्तिरूपं चारित्रमिति तस्य लाभश्चारित्रला-10 भस्तं न तु लभन्ते, तुशब्दात् देशैकदेशविरतिं तु लभन्ते एवेति ॥ अमुमेवार्थ सङ्गृह्य विभणिषुस्तथा चतुर्थकपायाणां | यथाख्यातचारित्रादिविघातित्वं च दिदर्शयिषुराह- . मूलगुणाणं लंभ, न लहड मूलगुणघाइणो उदए । संजलणाणं उदए न लहइ चरणं अहक्खायं ॥ ११ ॥ इह सम्यक्त्वं महाव्रताम्यणुव्रतानि च मूलभूता गुणाः मूलगुणाः, उत्तरगुणाधारा इत्यर्थः, तेषां मूलगुणानां लाभ न लभते-न पामोति, कदेत्याह-मूलगुणान् घातयितुं शीलं येषां ते मूलगुणघातिनः तेषां मूलगुणघातिनाम्-अनन्तानुव lan Educat i on ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ११२, ११३], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः लेडल न्ध्यप्रत्याख्यानकषायप्रत्याख्यानावरणानां द्वादशानां कषायाणामुदये, तथा सम्-ईषत्परीषदादिसम्पाते चारित्रिणमपि ज्वलयन्तीति सचलनाः क्रोधादयस्तेषामुदये न लभते चरणं चारित्रं, किं सर्वमेव १, नेत्याह- 'यथाख्यातं' यथैव तीर्थ| करगणधरैराख्यातमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत् तद् यथाख्यातम्, अकषायमित्यर्थः, सकषायं तु लभते एव ॥ न च यथाख्यातचारित्रमात्रोपघातिन एव सञ्ज्वलनाः, किन्तु शेषचारित्रदेशोपघातिनोऽपि तदुदये शेषचारित्रस्यापि देशतोऽतिचारसम्भवात्, तथा चाह सवेवि य अइयारा संजलणाणं तु उदयभ होंति । मूलच्छेजं पुण होइ बारसहं कसायाणं ॥ ११२ ॥ सर्वेऽपि आलोचनादिच्छेदपर्यन्तप्रायश्चित्तशोध्या अपिशब्दात् कियन्तोऽपि अतिचरणान्यविचाराः - वारित्रस्खलन| विशेषाः सम्ज्वलनानामेवोदयतो भवन्ति, तुशब्द एवकारार्थः, द्वादशानां पुनः कषायाणामुदयतो मूलच्छेद्यं भवति, | मूलेन-अष्टमस्थानवर्त्तिना प्रायश्चित्तेन छिद्यते- अपनीयते यत् दोषजातं तत् मूलच्छेद्यम्, अशेषचारित्रोच्छेदकारीति भावः, पुनः शब्दः प्रक्रान्तार्थविशेषक एव भवति द्वादशानामनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणानां कषायाणामुदये, अथवा मूलच्छेद्यं दोषजातं यथासम्भवतो योज्यते, तद्यथा - प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्टयोदये सर्वविरति | रूपस्य चारित्रस्य मूलच्छेद्यं सर्वनाशरूपं दोषजातं भवति, अप्रत्याख्यानकपायचतुष्टयोदये देशविरतिचारित्रस्य, अनन्तानुबन्धिकपायचतुष्टयोदये तु सम्यक्त्वस्येति । यतश्चैवमतः चारसविहे कसाए, खइए उबसामिए व जोगेहिं । लन्मह परिचलंभो, तस्स विसेसा इमे पंच ॥ ११३ ॥ For Pivate & Personal Use Only Jan Education International ~ 250 ~ www.jainslibrary.org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [११४,११५], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ' ॥११॥ व दीप अनुक्रम उपोदात- 11 द्वादशविधे-द्वादशप्रकारेऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्ने कषाये-क्रोधादिरूपे 'क्षपिते' विध्यातानितुल्यता नीते 'उपश-18 अतिचारनियुक्तिः||मिते' भारछनाग्निकल्पता प्रापिते वाशब्दात् वायोपशमिके च-अर्द्धविध्यातज्वलनसमतामुपनीते योगैः-मनोवाकायल-14ःचारि क्षणैः प्रशस्तैहेतभूतैः, किं -उभ्यते चारित्रलाभा, तत्र क्षयत उपशमतः क्षयोपशमतश्चाद्यानि त्रीणि लभ्यम्ते, सूक्ष्मस- टा म्पराययथाख्यातचारित्रे पुनः क्षयत उपशमतो वा, न तु क्षयोपशमतः, उक्कं च-"खयतो वा समतो वा, खतोवसमतो18| ११२-१५ व तिणि उन्भन्ति । सुहुमाइक्खायाई खयतो समतो व नन्नत्तो॥१॥” (वि.१२५७) 'तस्य चारित्रस्य सामान्वरूपस्य, न तु द्वादशविधकपायक्षयादिजन्यस्यैव, विशेषा-भेदा इमे-वक्ष्यमाणाः पञ्च ॥ तानेवाह- सामाइय स्थ पदम, छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धी, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ११४ ॥ तत्तोय अहक्खायं, खायं सर्वमि जीवलोयम्मि । जं चरिऊण सुविहिया, वचंतऽयरामरं ठाणं ॥ १५॥ समोरागद्वेपरहितत्वाद् अयो-गमनं समायः, एष चान्यासामपि साधुक्रियाणामुपलक्षणं, सर्वासामपि साधुक्रियाणां रागद्वेषरहितत्वात् , समायेन निर्वृत्तं समाये भवं वा सामायिकं, यद्वा समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो-लाभः समायः समाय एवं सामायिकं, विनयादेराकृतिगणतया 'विनयादिभ्य' इति स्वार्थे इकण, तच्च सर्वसावद्यविरतिरूपं, यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिक तथापि छेदादिविशेषविशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, प्रथम || पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठति, तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्रत्वरं भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु अनारोपितमहाबतख शैक्षकस्य विज्ञेयं, यावत्कविकं प्रवज्यापतिपचिकालादारभ्यामाणोपरमात्, तच्च महा % A In Education to For PiaNAParamal-Un Dil ... चारित्रस्य भेदानां वर्णनं ~2514 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education in “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ११४,११५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१२६२ १२६७], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विदेहतीर्थ करतीर्थेषु भरतैरावतभाविमध्य द्वाविंशतितीर्थकर तीर्थेषु च साधूनामवसेयं, तेषामुपस्थापनाया अभावात्, उक्तं च"सबमिणं सामाइय छेयाइविसेमओ पुणो भिन्नं । अविसेसिय सामाइय ठियमिह सामन्नसन्नाए ॥१॥ सावज्जजोगविरइति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इतरमावक हंतिय पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥ २॥ तित्थेसु अणारोवियवयस्स सेहस्स येवकालीयं । | सेसाणमाय कहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥३२॥ (वि.१२६२-४) ननु चेत्वरमपि सामायिकं 'करोमि भदन्त ! सामायिकं याव | जीव' मित्येवं यावदानुरागृहीतं, तत उपस्थापनाकाले तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः १, आह च-"नणु जावजीवाए इत्तरियंपि गहियं मुयंटस होइ पइण्णालोवो, जहावकहियं मुयंतस्स ॥१॥” (वि.१२६५) उच्यते ननु प्रागेवोक्तं सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सायकं सर्वत्रापि सर्व सावद्ययोगविरतिसद्भावात्, केवलं छेदादिविशुद्धिविशेषैर्विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानाएं भजते, ततो यथा यावत्कथिकं सामायिकं छेदोपस्थापनं वा परमविशुद्धिविशेषरूप सूक्ष्म सम्परायादिचारित्रावासौ नङ्गमास्कन्दति तथेत्वरमपि सामायिकं विशुद्धिविशेषरूपच्छेदोपस्थापनावाप्तौ, यदि हि प्रव्रज्या परित्यज्यते तर्हि तद्भङ्ग अद्यते, न तु तस्यैव विशुद्धिविशेषच्छेदोपस्थापनावातौ, उक्तं च- "नणु भणियं सबं चिय, सामाइयमिणं विमुद्धितो भिन्नं । वज्रविरइमइयं को वय लोयो विसुद्धीए १ ॥१॥ उन्निक्खमतो भंगो जो पुण तं चिव करेइ सुद्धयरं । सन्नामेत्तविसिद्धं सुहुमंपि तस्स को भङ्गो ||२||” (वि.१२६६-७) तथा छेदोपस्थापनं भवेत् द्वितीयं, तत्र छेदः पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च महात्रतेषु यस्मिन् चारित्रे तत् छेदोपस्थापनं तच्च द्विधा - सातिचारं निरतिचारं च तत्र निरतिचारं यत् इत्वरसामायिकवतः शैक्षस्वारोप्यते, तीर्थान्तरसङ्क्रान्तौ वा यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्द्धमानस्वामि तीर्थे सङ्क्रामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ, सातिचारं यन्मूलगुण For Piryate Personal on Drly 252~ jainslibrary.org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ११४, ११५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १२६९], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ ११९ ॥ उपोद्घात- घातिनः पुनर्ब्रतोच्चारणं, उक्तं च- "सेहस्स निरइयारं तित्थंतरसंकमे व तं होज्जा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे निर्युक्तिः १ ॥ १ ॥ (वि. १२६९) 'उभयं चे 'ति सातिचारं निरतिचारं च स्थितकल्पे-प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थे, तथा परिहरणं परिहारः| तपोविशेषस्तेन विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रं तत्परिहारविशुद्धिः, तच्च द्विधा - निर्विशमानकं निर्विष्टकायकं च तत्र निर्विशमानका - विवक्षितचारित्रसेवका निर्विष्टकायिका - आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः, तद्व्यतिरेकाञ्चारित्र मेवमुच्यते, इह नवको गणश्चत्वारो निर्विशमानकाश्चत्वारश्चानुचारिणः एकः कल्पस्थितो वाचनाचार्यः, यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसम्पन्नास्तथापि कल्पत्वात्तेषामेकः कश्चित्कल्पस्थितोऽवस्थाप्यते, निर्विशमानकानां चायं परिहार:- "परिहारियाण उ तवो जहन्न मज्झो | तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणितो धीरेहिं पत्तेयं ॥१॥ तत्थ जहन्नो गिम्हे चत्थ छट्टं तु होइ मज्झिमओ । अट्ठममिह | उक्कोसो एतो सिसिरे पवक्खामि ॥२॥ सिसिरे उ जहन्नाई, छठ्ठाई दसमचरिमगो होइ । वासासु अट्ठमाई बारसपज्जंतगो | नेओ ॥ ३ ॥ पारणगे आयामं, पंचसु गहु दोसऽभिग्गहो भिक्खे। कप्पडियाइ पइदिण करेंति एमेव आयामं ॥ ४ ॥ एवं छम्मा| सतवं चरिजं परिहारगा अणुचरंति । अणुचरगे परिहारियपयट्ठिए जाव छम्मासा ॥ ५॥ कप्पट्ठितोवि एवं छम्मास तवं करे इ सेसा उ। अणुपरिहारगभावं वयंति कप्पठियत्तं वा ॥ ६ ॥ एवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वन्नितो कप्यो । संखेवतो विसेसो विसेससुसाउ नायवो ॥७॥ कप्पसमतीऍ तयं जिणकष्पं वा उर्वेति गच्छं वा । पडिवजमाणगा पुण, जिणस्सगासे पवजंति ॥ ८ ॥ विरथ| यरसमीवासेवगस्स पासे व नो उ अन्नरस । एएसिं जं चरणं परिहारविसुद्धियं तं तु ॥ ९ ॥” (पंचव०) अथैते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भवन्ति १, उच्यते, इह क्षेत्रादिनिरूपणार्थं विंशतिर्द्वाराणि तद्यथा क्षेत्रद्वारं १ कालद्वारं २ For Pitate & Personal Use Only 253~ सामायि कादीति ॥ ११९ ॥ www.jaintlibrary.org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [११४,११५], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ANGA दीप अनुक्रम चारित्रद्वारं तीर्थद्वारं ४ पर्यापद्वारं ५ आगमद्वारं दद्वार.कल्पद्वारं ८लिङ्गद्वारं ९ श्याद्वारं १० ध्यानद्वारं ११ गणनाद्वारं १२ अमिग्रहद्वारं १३ प्रत्रज्याद्वारं १४ मुण्डापनद्वारं १५ प्रायश्चित्तद्वारं १६ कारणद्वारं १७ निष्पतिकर्मताद्वारं १८ मिक्षाद्वारं १९ पथद्वारं २०, तत्र क्षेत्रे द्विधा मार्गणा-जन्मतः सद्भावतच, तत्र यत्र क्षेत्रे जातस्तत्र जन्मतो मार्गणा, यत्र च कल्पे स्थितो वर्चते तत्र सद्भावतः, उकं च-"खेत्ते दुहेह मग्गण जम्मणतो चेव संतिभावे य। जम्मणतोजहिं जातो संतीभावोय जहिं कप्पे ॥१॥" (पंच.१४८५) तत्र जन्मतः सद्भावतश्च पञ्चसु भरतेषु पञ्चस्वैरवतेषु, न तु महाविदेहेषु, न चैतेषां संहरणमस्ति, येन जिनकल्पिका इव संहरणतः सर्वासु कर्मभूमिषु अकर्मभूमिषु वा प्राप्येरन, उक्तं च-"खेत्ते भरहेरवएसु होति संहरणवजिया नियमा।"(पं.१५२९) कालद्वारेऽवसपिण्यां तृतीये चतुर्थे वा अरके जन्म सद्भावः पञ्चमेऽपि, उत्सपिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे वा जन्म, सद्भावतः पुनः तृतीये चतुर्थे वा, उकंच-"ओसप्पिणीए दोमुं, जम्मणतो तीसु संतिभाषेणं । उस प्पिणि विवरीतो,जम्मणतो संतिभावे य॥१॥"(पंच.१४८७) नोत्सर्पिण्यवसप्पि-18 हैणीरूपे चतुरिकप्रतिभागेकाले न सम्भवन्ति, महाविदेहक्षेत्रेषु तेपामसम्भवात् , चारित्रद्वारे संयमस्थानद्वारेण मार्गणा, तत्र सामायिकस्य छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि तानि परस्परतुल्यानि, समानपरिणामत्वात् | ४ ततोऽसवेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्योच यानि संयमस्थानानि तानि परिहारविशुद्धिकयोग्यानि, तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिभाव्यमानान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीनि, तेष्वपि सम्भवात् , ततः उर्व यानि सङ्ख्यातीतानि संयमस्थानानि तानि सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रयोग्यानि, उक्तं च-1 an Educa t ion wwwjainitiorary.org ~2544 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ १२० ॥ Jan Education I “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ११४, ११५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः "तुला जहन्नठाणा संजमठाणाण पढमवीयाणं । तत्तो असंखलोगे गंतुं परिहारियद्वाणा ॥ १ ॥ तेवि असंखा लोगा, अविरुद्धा चैव पढमबीयाणं । उवरिंपि ततोऽसंखा संजमठाणा उ दोन्हंपि ॥ २ ॥” (पंच. १५३०-१) तत्र परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्तिः स्वकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्त्तमानस्य भवति, न शेषेषु यदा त्वतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेपेष्वपि संयमस्थानेषु भवेत्, परिहारविशुद्धिहेतुकल्पसमाप्यनन्तरमन्येष्वपि चारित्रेषु सम्भवात् तेष्वपि च वर्त्तमान| स्यातीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वाविरोधात् उक्तं च "सहाणे पडिवत्ती अन्नेमुवि होज पुवपडिवन्नो । तेसुवि नहंतो सो, तीयनयं पप्प वितीए के ॥ १ ॥” (पंच. १५३२) तीर्थद्वारे परिहारविशुद्धिको नियमात्तीर्थे प्रवर्त्तमान एव सति भवति, न तूच्छेदे नानुपपत्त्यां वा तदभावे जातिस्मरणादिना, उक्तं च- "तित्यत्ति नियमतो चिय होइ स तित्थंमि न उण तदभावे । विगएणुप्पन्ने वा जाइस्सरणाइएहिं तु ॥ १ ॥" (पंच. १४९१ ) पर्यायद्वारे पर्यायो द्विधा - गृहस्थपर्यायो यतिपर्यायश्च, एकैकोऽपि द्विधा- जघन्य उत्कृष्टश्च तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्य एकोनत्रिंशद्वर्षाणि यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि चोत्कर्षतो देशोनपूर्व कोटीप्रमाणौ, उकं च "एयस्स एस नेओ गिहिपरियातो जहन्न गुणतीसो । जतिपरियानो वीसा दोसुवि उक्कोस देसूणा ॥ १ ॥” (पंच. १४९४ ) आगमद्वारं अपूर्व मागमं स नाधीते, यस्माचं कल्पमधिकृत्योचित योगाराधनत एव स कृतकृत्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विश्रोतसिकाक्षयनिमिचं नित्यमेवैकाग्रमनाः सम्यक् प्रायोऽनुस्मरति, आद च - "अप्पुषं नाहिज्जइ, आगममेसो पहुच तं ४ ॥ १२० ॥ कप्पं । जमुचियप गहितजोगाराहण तो चैव कयकिच्चो ॥ १॥ पुवाहीयं तु तयं पायं अणुसरह निचमेवेसो । एगग्गमणो सर्व विस्सोयसिगाइखयहेऊ ॥ २ ॥” (पंच. १४९५-६) वेदद्वारे प्रवृत्तिकाले वेदः पुरुषवे दो वा भवेत् नपुंसकवेदो वा, न खीवेदः, स्त्रियां For Pitate & Personal Use Only ~ 255 ~ परिहारविशुद्धिः jainslibrary.org Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [११४,११५], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक स दीप अनुक्रम तपरिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्त्यसम्भवाद्, अतीतनयमधिकृत्य पुनः पूर्वप्रतिपनश्चिन्त्यमानः सवेदो वा भवेदवेदो वा, तत्र | सवेदः श्रेणिप्रतिपत्त्यभावे, उपशमश्रेणिप्रतिपत्तौ क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तौ वा त्ववेद इति, उक्तंच-"वेदो पवित्तिकाले इत्थी-100 वजो य होइ एगयरो।पुवपडिवनगो पुण, होज सवेदो अवेदो वा॥१॥ (पंचव. १४९७)” कल्पद्वारे स्थितकल्प एवायं, नास्थितकल्पे, 'ठियकप्पंमि य नियमा'इति वचनात् , तत्र 'आचेलकु १ देसिय २ सिज्जायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ टा वय ६ जेठ ७ पडिक्कमणे ८ मासं ९ पजोसवणकप्पे १० ॥१॥ (पंच. १५००) इत्येवंरूपेषु दशसु स्थानेषु ये स्थिताः साधवस्तेषां कल्पः स्थितकल्पः, ये पुन:-"सेजायरपिंडमी चाउजामे य पुरिसजेढे य । किइकम्मस्स य करणे चत्वारि अवट्ठिया कप्पा ॥१॥" । इत्येवंरूपेषु चतुर्ववस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाचेलक्यादिषु षट्सु अस्थितास्तत्कल्पोस्थितकल्पः उक्तं च-"ठिय अद्वितो य कप्पो, आचेलकाइएसु ठाणेसु । सबेसु ठिया पढमो चाठिय छसु अट्ठिया बीओ| ॥१॥" (पंच. १४९९) लिङ्गद्वारे नियमतो द्विविधेऽपि लिङ्गे भवति, तद्यथा-द्रव्यलिङ्गे भावलिङ्गे च, एकेनापि विना विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगाद, लेश्याद्वारे तेजःप्रभृतिकासु उत्तरासु तिसृषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिक कल्पं प्रतिपद्यन्ते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनः कथञ्चित्सर्वास्वपि लेश्यासु भवति, तत्रापीतरासु अविशुद्धासु लेश्यासु नात्यन्तं सड़क्लिष्टासु वर्तते, तथाभूतासु च तासु वर्तमानो न प्रभूतं कालमवतिष्ठते, किन्तु स्तोकं, यतः स्ववीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्चते, अथ प्रथमत एव कस्मात्मवर्चते ?, उच्यते-कर्मवशात् , उक्कं च-"लेसासु विसुद्धासु य पडिवजह तीसुन उण सेसासु । पुषपडिवनतो पुण होजा वासुवि कहंचि ॥१॥नचंतसंकिलिट्ठासु थोवकालं च हंदि इयरासु । चिचा %A4%2 बास.२१ In Education For PiaNAParamal-Un Dil ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [११४,११५], भाष्यं , विभा गाथा 1, मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक उपोडातनियुक्तिः दीप अनुक्रम ACCACANCE कम्माण गई तहावि विरिय फलं देह ॥२॥" (पंच. १५०३-४) ध्यानद्वारे धर्मध्यानेन प्रवर्द्धमानेन परिहारिक कल्प परिहारविप्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनरातरौद्रयोरपि भवति, केवलं प्रायेण निरनुबन्धः, आह च-"झाणमिवि नियमेण पडिवजह शुद्धिक सो पवहमाणेणं । इयरेसुऽवि झाणेसुं पुषपवन्नो न पडिसिद्धो ॥१॥ एवं च कुसलजोगे उद्दामे तिबकम्मपरिणामो। रोद्देसुऽवि भावो, इमस्स पायं निरणुबन्धो ॥२॥" (पंच. १५०५-६) गणनाद्वारे जघन्यतस्त्रयो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतः शतसया, पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत उत्कर्षतो वा शतशः, पुरुषगणनया जघन्यतःप्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिरुत्क-II पतः सहस्त्रं, पूर्वप्रतिपक्षका पुनजेधन्यतः शतशः उत्कर्षतः सहस्रशा, आह च-"गणतो तिमेव गणा जहन्न पडिवत्ति सयस उकोसा । उक्कोस जहन्नेणं सयसोचिय पुवपडिवन्ना ॥१॥ सत्तावीस जहन्ना, सहस्समुक्कोसतो य पडिवत्ती। सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्न जहन्न उकोसा ॥२॥” (पंच. १५३४-५) अन्यच्च-यदा पूर्वप्रतिपन्नकल्पमध्यादेको निर्गच्छति 5 अन्यः प्रविशति तदोनप्रक्षेपे प्रतिपत्ती कदाचिदेकोऽपि भवति पृथक्त्वं वा, पूर्वप्रतिपन्नोऽप्येवं भजनया कदाचिदेकर प्राप्यते पृथक्त्वं वा, उकंच-"पडिवजमाण भयणाएँ होज एकोऽवि ऊणपक्खेवे । पुवपडिवनयावि य, भइया एक्को जापुहत्तं वा ॥१॥"(पंच. १५३६) अभिग्रहद्वारे अभिग्रहाश्चतुर्विधाः, तद्यथा-द्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहा भावाभिग्रहाश्च, एते चान्यत्र चर्चिता इति न भूयश्चय॑न्ते, तत्र परिहारविशुद्धिकस्यैतेऽभिग्रहा न भवन्ति, यस्मादेतस्य [॥१२॥ कल्प एव यथोदितरूपोऽभिग्रहो वर्तते, उप-"दवाईय अभिग्गह, विचित्तरूवा न होति पुण केई। एयरस जाव कप्पो कप्पोच्चियऽभिग्गहो जेणं ॥१॥ एयंमि गोयराई नियया नियमेण निरववादा यातप्पालणं चिय परं एयस्स विस 4CCCCC ~257 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ११४, ११५], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International द्धिठाणं तु ॥ २ ॥ ( पं. १५०९ - ११ ) प्रत्रज्याद्वारे नासावन्यं प्रज्ञाजयति कल्पस्थितिरेषेतिकृत्वा, आह च- “पडावे न एसो अक्षं कप्पद्विहति कारणं ।” (पं. १५१० ) उपदेशं पुनर्वथाशक्ति प्रयच्छति, मुण्डापनाद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डयति, अथ प्रवम्यानन्तरं नियमतो मुण्डनमिति प्रब्रज्याग्रहणेनैव गृहीतमतः किमर्थमिदं पृथग् द्वारं !, तदयुक्तं, प्रव्रज्यानन्तरं नियमतो मुण्डापनस्यासम्भवाद्, अयोग्यस्य कथञ्चिद्दत्तायामपि प्रब्रज्यायां पुनरयोग्यतापरिज्ञाने मुण्डापनायोगात्, ततः पृथगिदं द्वारमिति । प्रायश्चित्तविधिद्वारे मनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारं प्राप्तस्य नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायवित्तं यतोऽस्य कल्प एकाग्रताप्रधानस्ततस्तद्भङ्गे गुरुतरो दोष इति । कारणद्वारे - कारणं नाम आलम्बनं, तत्पुनः सुपरिशुद्धं ज्ञानादिकं तच्चास्य न विद्यते येन तदाश्रित्यापवादपदसेविता स्यात्, एष हि सर्वत्र निरपेक्षः क्लिष्टकर्म्मक्षयनिमित्तं प्रारब्धमेव स्वं कल्पं यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा वर्त्तते, उकं च" कारणमालंबणमो तं पुण नाणाइयं सुपरिसुद्धं । एयस्स तं न विज्जइ उचियंतपसाहणा पायं ॥ १ ॥ सवत्थ निरवइक्खो, आढत्तं चिय दर्द समाणितो । वट्टर एस महष्या, किलिकम्मक्खयनिमित्तं ॥ २ ॥ ( पं. १५१७-८ ) " निष्प्रतिकर्मताद्वारे एष महात्मा निष्प्रतिक| शरीरोऽक्षिमलादिकमपि कदाचिन्नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि समापतिते व्यसने द्वितीयपदमा सेवते, उक्तं च"निष्पडिकम्मसरीरो अच्छिमलाईवि नावणेइ सया । पाणतिएविय तहा वसणंमि न बहुए बीए ॥ १ ॥ अप्पबहुत्तालोयणविसयातीतो उ होइ एसन्ति । अहवा सुहभावातो बहुगं एयंचिय इमस्स ॥ २ ॥ ( पं. १५१९-२० )" भिक्षाद्वारे पथद्वारे च भिक्षा विहारक्रमश्चास्य तृतीयस्यां पौरुष्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्गो, निद्राऽपि चास्याल्पा द्रष्टव्या, For Pitate & Personal Use Only ~ 258~ www.jainslibrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [११४,११५], भाष्यं H, विभागाथा [१२७८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत रायः सूत्रांक = % दीप अनुक्रम उपोद्घात- यदि पुनः कथमपि जवाबलमस्य परिक्षीणं भवति तथाप्येषोऽविहरनपि महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते, किन्तु तत्रैव सूक्ष्मसंपनियुक्तिः यथाकल्पमात्मीययोगं विदधातीति, रकं च-"तइयाए पोरिसीए भिक्खाकालो विहारकालो उ । सेसासु उ उस्सग्गो 81 तपाय अप्पा य निद्देति ॥१॥ जंघावलंमि खीणे अविहरमाणोउन बीअमावजे । तत्थेव अहाकप्पं कुणइय जोगं महाभागो ॥१२२॥ ॥२॥" (पं. १५२१-२) एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः, तद्यथा-इत्वरा यावत्कथिकाच, तत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं तमेव कल्पं गच्छं वा समुपयास्यन्ति ते इत्वराः, ये पुनः कल्पसमाप्त्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्प प्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कधिकाः, उक्कं च-"इचरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहियति।" (पं.१५२३) अत्र स्थविरकल्पमुपलक्षणं स्वकल्पे चेति द्रष्टव्यं, तत्रेत्वराणां कल्पप्रभावादेव देवमनुष्यतिर्यग्योनिककृता उपसर्गाः सद्योघातिनः आतङ्का अतीवाविषह्याश्चातीव वेदना न प्रादुष्पन्ति, यावत्कथिकानां पुनः सम्भवेयुरपि, ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति, जिनकल्पिकानां चोपसर्गादयः सम्भवन्तीति, उक्तं च-"इत्तरियाणुवसम्गा आयंका वेयणा य न हवंति। आवकहियाणभइया" इति ॥ (पं. १५२६) 'सुहुमं तह संपरायं चेति तथे त्यानन्तर्ये गाथाभङ्गभयाद् व्यवहितस्योपन्यासः, सूक्ष्ममित्यनु स्वारोऽप्यलाक्षणिका, सूक्ष्मसम्परायं चतुर्थ चारित्रं, तत्र संपर्येति संसारमनेनेति सम्पराय:-कषायोदयः सूक्ष्मो-लोभाशा-14 विशेष: सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्पराय, तच्च द्विषा-विशुध्यमानकं सङ्क्तिश्यमानकं च, तत्र विशुख्खमानकंक्षपकश्रेणिमु-I॥१२॥ पशमश्रेणिं वा समारोहता, सविश्वमानकं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्थ, उकंच-"सेटिं विलमातो तं विसुज्झमाणं ततो भयंतस्स।वह संकिलिस्समाणं परिणामवसेण विशेवं ॥१॥" (वि.१२७८) तचो अ अहक्खाय'मित्यादि, ततश्च-सूक्ष्म 8 = an Education For PiaNAParamal-Un Dil ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Inter “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ११६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१२८५- १२८६ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सम्परायान्तरं 'अथाख्यातम्' अथशब्दो यथार्थे आझ अभिविधौ याथातथ्येन अभिविधिना च यत् ख्यातं - कथितमकषायं चारित्रमिति तत् अथाख्यातं, उक्तं च-"अहसहो जाइत्थे आउनभिविहीएँ कहियमक्वायं । चरणमकसायमुदितं तमहक्खायं जहक्वायं ॥१॥” (वि. १२७९) यथाख्यातमिति द्वितीयं नाम, तस्यायमन्वर्थः - यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं - प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत् तद्यथाख्यातं तथा चाह- ख्यातं प्रसिद्धं सर्वस्मिन् जीवलोके, यत् कथंभूतमित्याह यच्चरित्वा - आसेव्य शोभनं विहितम् - अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः - सुसाधवो व्रजन्त्यजरामरं-न विद्यते जरा यत्र तदजरं न वियते प्राणी यत्र तदमरम्, अचूप्रत्ययो बाहुलकात्, अजरं च तदमरं च अजरामरंमोक्षलक्षणं स्थानं, इदं च द्विधा, तद्यथा-छास्थिकं कैथलिकं च तत्र छाद्मस्थिकमुपशान्तमोहगुणस्थाने क्षीणमोहगुणस्थानके वा, केवलिकं सयोगिकेवलिभवं अयोगिकेवलिभवं च । इह सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातचारित्रं च उपशमक्षयलभ्यमतः कर्मोपशमक्रमप्रदर्शनार्थमाह अण- दंस-नपुंसि-स्थीवेय-छक्कं च पुरिसवेयं च । दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उसमे ॥ ११६ ॥ इह उपशमश्रेणिप्रारम्भको भवत्यप्रमत्तसंयत एव, अन्ये त्वविरतदेशविरतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतानामन्यतम इति, उपशम श्रेणिपर्यवसाने त्वप्रमत्तसंयतप्रमत्तसंयतदेशविरताविरतानामन्यतमः, उक्तं च-" उवसामग सेडीए पटुवगो अप्पमत्तविरतो उ । पज्जवसाणे सो वा होइ पमत्तो अविरतो वा ॥ १ ॥ अन्ने भणति अविरयदेसपम चापमत्तविरयाणं । अन्नयरो पडिवजह दंसणसमणम्मि उ निवट्टी ॥२॥ (वि. १२८५-६ ) स चेत्यमुपशमश्रेणिमारभते - 'अण'ति 'अणरणे' त्यादि For Pitate & Personal Use Only 260~ www.janbrary.org Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं न, नियुक्ति: [११६], भाष्य , विभा गाथा [१२८५-१२८६], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सपोद्वात. प्रत सूत्रांक नियुक्तिः * ॥१२३॥ = दीप अनुक्रम RANDED 1,24 दण्डकधातुः, अणन्तीव-अविकलहेतुत्वेनासातवेधं नरकाघायुष्कं च शब्दयन्त्याकारयन्तीत्यणा:-आद्याः क्रोधादयश्च-151 उपशमश्रेत्वारः कषायाः, अथवा 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् अण' इत्यनन्तानुवन्धिन इति द्रष्टव्यं, तत्रासौ प्रतिपत्ता |णिः ११६ प्रशस्तेष्वध्यवसायेषु वर्तमानः प्रथम युगपदन्तर्महूर्त्तमात्रेण कालेनानन्तानुवन्धिनः क्रोधादीनुपशमयति, ततो दर्शन दर्शस्त-दर्शनं, तच्च त्रिविधं, तद्यथा-मिथ्यादर्शनं सम्यग्मिथ्यादर्शनं सम्यग्दर्शनश्च, एतानि त्रीण्यपि युगपदन्तर्मुहूर्तमात्रेणोपशमयति, एवं सर्वत्र युगपदुपशमकालोऽन्तर्मुहूर्सप्रमाण एव द्रष्टव्यः, यदि पुरुषः प्रारम्भकः ततो 'नपुंस'त्ति अनुदीर्णमपि नपुंसकवेदमन्तर्मुहूर्तेनोपशमयति, ततः स्त्रीवेदं, तदनन्तरं हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सालक्षणं हास्यषद्धं, ततः पुरुषवेदम्, अथ स्त्रीप्रारम्भिका ततः प्रथमं नपुंसकवेदमुपशमयति, पश्चात् पुरुषवेदं तदनन्तरं हास्यादिपर्ट्स अथ ||3 नपुंसकः प्रारम्भकस्ततोऽसावनुदीर्णमपि प्रथम स्त्रीवेदमुपशमयति ततः पुरुषं वेदं तदनन्तरं स्त्रीवेदम्, ततः हास्यादिषटू | ततो नपुंसकवेदमिति, 'दो दोएगंतरिए'इत्यादि, इत जी द्वौ द्वौ-क्रोधाद्यौ एकान्तरिती-संज्वलनक्रोधान्तरितौ सदृशी-1 क्रोधादितया परस्परं तुल्यौ सदृशं युगपदेव प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेनोपशमयति, एतदुक्तं भवति-अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधी क्रोधत्वेन सदृशौ युगपदन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणोपशमयति, ततः सञ्चलनक्रोधमेकाकिनमेवान्तर्मुहर्तमात्रेणोपशमयति, ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदेव ततः सज्वलनमानमेकाकिनमेव, ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावर- ।॥१२३॥ णमाये युगपत् ततः समवलमायामेकाकिनी, ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभौ ततः सञ्चालनलोभ, तं चोपशमयन् विधा करोति, तत्र द्वौ भागौ युगपदुपशमयति, तृतीयभागं सोयानि खण्डानि करोति, तान्यपि पृथक्पृथक्का CROMAX-* = landini ~2614 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [११६], भाष्यं H, विभा गाथा [१२९३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम सालभेदेनोपशमयति, तत एतेषां सङ्ख्येयानां खण्डानां यच्चरम खण्डं तदसायेयानि खण्डानि करोति, ततः समये समये| दाएकैकं खण्डमुपशमयति, इह दर्शनसप्तके उपशान्तेऽपूर्वकरणोऽनिवृत्तिबादरो वाऽभिधीयते, स चानिवृत्तिबादरस्तावद् यावत् सङ्ख्येयान्तिमचरमखण्ड । ननूपशमश्रेणिप्रस्थापकोऽप्रमत्तसंयत एव 'उवसागमसेढीए पढ़वगो अप्पमत्तविरतो य' इति | वचनात्, अप्रमत्तसंयतश्च अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वानामुपशमाद् भवति, अन्यथा तेषामुदये सम्यक्त्वादिलाभायोगात् , तथा चाभिहितं प्राक्-'पढमेल्लुयाण उदय'इत्यादि, ततः कथमिदानी तेषामुपशमो भण्यते । इति, तदसत्, सम्यक् सिद्धान्तापरिज्ञानात्, पूर्व हि तेषां क्षयोपशम. एवासीत्, नोपशमा, इदानी | तूपशमः क्रियते । ननु क्षयोपशमोऽप्युदिते कर्मीशे क्षीणेऽनुदिते च उपशान्ते भवति, उपशमोऽपि चेत्थंभूत एव, ततः कोऽनयोः प्रतिविशेषो येनैवमुच्यते-पूर्व क्षयोपशम आसीत् इदानी तूपशमः क्रियते इति, उच्यते, इह क्षयोपशमे तदावारकस्य कर्मणः प्रदेशतोऽनुभवोऽस्ति, उपशमे तु स न भवतीति प्रति विशेषः, आह च भाष्यकृत्-"वेएइ संतकम्म | खतोवसमिएसु नाणुभावं सो। उवसंतकसाओ पुण, वेएइ न संतकम्मपि ॥१॥"(वि. १२९३) ननु यदि सत्यपि क्षयोपशमेऽनन्तानुबन्ध्यादिकषायमिथ्यात्वानां प्रदेशतोऽनुभवोऽस्ति तहिं कथं न सम्यक्त्वादिगुणविधात उपजायते ?, तदुदये धवश्यं | सम्यक्त्वादिगुणलाभः सन्नप्यपगच्छति, यथा सास्वादनसम्यग्दृष्टेरिति, नैष दोषः, प्रदेशतोऽनुभवस्य मन्दानुभावत्वात् , मन्दानुभावो ह्युदयो न स्वावार्यगुणविघातमाधातुमलं, यथा चतुर्जानिनो मतिज्ञानावरणादीनां विपाकतोऽप्युदयः, तथाहि-मतिज्ञानावरणादिक कर्म ध्रुवोदयं ध्रुवोदयत्वाचावश्यं सर्वदा विपाकतोऽनुभवनीयं, विपाकानुभवापेक्षयैव ध्रुवोद E and room For Prath & Personal un any ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [११७], भाष्य , विभा गाथा [१२९७,१२९८], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सपोद्वात- यत्वाभिधानात्, अथ च तत् सकलचतुर्तानिनो गौतमादेरिव नमत्यादिज्ञानविधातकृत् भवति, तदनुभवस्य मन्दानुभा- योपशनियुक्तिः वत्वात् , तधदि विपाकतोऽप्यनुभूयमानं मन्दानुभावोदयत्वान्न स्वावार्यगुणविघाताय प्रभवति ततः प्रदेशतोऽनुभूयमान-ममन्दान. मनन्तानुवन्ध्यादि सुतरांन प्रभविष्यति, तदुदयस्यातीव मन्दानुभावत्वाद्, आह च भाष्यकृत्-"किह दंसणाइघातो न ॥१२४॥ होइ संजोयणाइवेदयतो । मंदाणुभावयाए जहाणुभावंमिवि कहंचि॥॥ निचोदिण्णंपि जहा, सगलचउपणाणिणो तदा-18 वरणं न विधाइ मंदयाए पएसकम्मं तहानेयं ॥२॥" (वि.१२९७-८) इह सवेयानि लोभखण्डानि उपशमयन् वादरसम्पराय म. ११७ । उच्यते, चरमस्य तु सोयखण्डस्यासक्येयानि खण्डानि, प्रतिसमयमेकैकखण्डमुपशमन् सूक्ष्मसम्परायः ॥ तथा चाहलोभाणू वेयंतो जो खलु उक्सामओ व खवओ वा। सो सहुमसंपराओ अहखाया ऊणो किंचि ॥११७ ॥ लोभस्य-सङ्ग्वलनलोभस्य अणून-सोयतमस्य खण्डस्यासङ्ख्येयानि खण्डानि वेदयमानः-अनुभवन् उपशमका क्षपको वा भवति, सोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत्सूक्ष्मसम्परायो भण्यते, अयं च ययाख्यातात्किञ्चिदूनः, किमुक्तं भवति ?सूक्ष्मसम्परायावस्थामन्तर्मुहर्त्तमात्रकालमानामनुभूय उपशमकनिम्रन्थो यथाख्यातचारित्री भविष्यतीति, इह यदि नद्धायुरुपशमश्रेणिप्रतिपन्नः श्रेणिमध्यगतगुणस्थानानुवर्ची उपशान्तमोहो वा भूत्वा कालं करोति तदा नियमेनानुत्तरसुरेवृत्पद्यते, श्रेणिप्रतिपतितस्य तु कालकरणेऽनियमः, नानामतित्वेन नानास्थानगमनात्, अथाबद्धायुस्ता प्रतिपन्नः12 ॥१२४॥ कावन्तिमुहुचेमुपशाम्तमोहो भूत्वा नियमतः पुनरप्युदितकषायः कारस्न्येन श्रेणिप्रतिलोममावर्चते, रकं प-"बद्धा-19 र पहिवको सेविगतो वा पसंतमोहो वा । जइ कुणइ कोई काठं वचा तोऽणुचरसुरेसुं ॥१॥ अनिवडाक हो JanEduration nor Paintionary.org ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education I “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [११८ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१३०३, १३०४, १३०७], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पसंतमोहो मुहुत्तमेतद्धं । उदितकसाओ नियमा नियन्त्तर सेढिपडिलोमं ॥ २ ( वि. १३०३-४ ) ॥ तथा च एतदेव दुरन्तं कषायसामर्थ्यमुत्कीर्त्तयन्नाह उवसामं उचणीया, गुणमहया जिणचरितसरिसंपि । पडिवायंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्ये १ ॥ ११८ ॥ उपशमनमुपशमः तम् अपिशब्दात् क्षयोपशममपि, उपनीताः, केनेत्याह-गुणैर्महान् गुणमहान् तेन गुण महताउपशमकेन, प्रतिपातयन्ति कषायाः संसारे, कम् ? - तमेवोपशमकं कथम्भूतमित्याह - 'जिनचारित्रसदृशमपि' जिनस्यकेवलिनश्चारित्रेण कृत्वा सदृशः- तुल्यो जिनचारित्रसदृशो द्वयोरपि कषायोदयरहितचारित्रयुक्तत्वात्, तमेवंभूतमपि प्रतिपातयन्ति, किं पुनः शेषान् सरागस्थान् ?, तान् सुतरां प्रतिपातयन्ति, अथोपशान्ताः सन्तः कषायाः कथं स्वस्वरूपमुपदर्शयन्ति ?, उच्यते, इह यथा भस्मच्छन्नोऽग्निः स्वरूपेणाद्यापि सत्त्वात् पवनादिसहकारिकारणान्तरमासाद्य पुनः स्वं स्वरू पमुपदर्शयति यथा वा अञ्जनद्रुमो वनदवध्यामितोऽप्यंतः सारस्य अद्यापि सचेतनत्वाद् उदकसेकादिकारणसामग्रीमवाप्य पुनरपि अङ्कुरपुष्पपत्रप्रवालादिरूपं निजस्वरूपमुपदर्शयति एवमुपशान्ता अपि कपायाः स्वरूपेणाद्यापि सन्त इति तथाविधं किञ्चिक्षिमिचमासाद्य स्वस्वरूपं प्रकटन्ति, ततोऽन्तर्मुहर्त्तान्नियमेन प्रतिपतति, उक्तं च- "दवदूमियंजणदुमो छारच्छन्ना- | गणिव पञ्चयतो । दावेइ जह सरूवं तह स कसातोदयो भुज्जो ॥१॥ (वि. १३०७) प्रतिपतितश्च संसारं पर्यटति, तथाहि - स ताब तद्भव एव निर्वाणं न लभते उत्कर्षतस्तु देशोनमर्द्धपुद्गलपरावर्त्तमपि संसारमनुबध्नाति, उच् च - " तंमि भवे For Pitate & Personal Use Only ~ 264~ www.janlibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ १२५ ॥ Jan Education h “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - १ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [११९ - १२१] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १३०८, १३११], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः निवाणं न लभइ उकोसतो व संसारं । पोग्गलपरियहद्धं, देसूणं कोइ हिँडेजा ॥ १ ॥” (वि. १३०८) यत एवं तीर्थकरोपदेशोऽत औपदेशिकं गाथाद्वयमाह जह उवसंतकसातो लहइ अनंतं पुणोऽवि पडिवायं । न तु मे वीससियहं धेदेऽवि कसायसेसम्म ॥ ११९ ॥ अणथोवं वणधोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । न हु भे बीससियां धेवंपि हु तं बहुं होइ ॥ १२० ॥ यद्युपशान्त कषायोऽप्यनन्तं भूयोऽपि प्रतिपातं लभते ततः स्तोकेऽपि कपायशेषे 'न हु' नैव 'मे' भवद्भिर्विश्वसितव्यम्, अमुमेवार्थ सदृष्टान्तं भावयति- 'अणथोव' मित्यादि, ऋणस्य स्तोकं ऋणस्तोकं व्रणस्तोकमग्निस्तोकं कषायस्तोकं च दृष्ट्वा 'न हु' नैव भवद्भिर्विश्वसितव्यं यतः स्तोकमपि तत्-ऋणादि बहु-प्रभूतं भवति, तथा चानेकदोषसम्भवः, तथाहि ऋणं प्रवर्द्धमानं गच्छता कालेनातिप्रभूतं सद्दासत्वमुपनयति, यथा वणिग्दुहितुः साधुभगिन्याः, प्रणश्च विस न् अतिप्रभूतो भूत्वा स्तोककालेन मरणं, वह्निर्वाता दिसामग्रीवशादतिप्र सरमधिरोहन सर्वस्यापि ग्रामनगरादेर्दाहं, कषायाः पुनः प्रवर्द्धमाना भवमनन्तमिति, उक्तं च--"दासत्तं देइ अणं अचिरा मरणं वणो विसप्पंतो । सबस्स दाहमग्गी देति कसाया भवमणतं ॥ १ ॥” (वि. ११११) उक्तमौपशमिकं चारित्रमिदानीं क्षायिकमाह, अथवा सूक्ष्मसम्पराय यथाख्यातचारित्रे उपशमश्रेण्यङ्गीकरणेनोके, सम्प्रति क्षपकश्रेण्यङ्गीकरणतः प्रतिपादयति--- अण-मिच्छ - मीस - सम्मं, अट्ठ नपुंसित्थिषेय-छकं च । पुमवेयं च खवेह कोहाईए य संजलणे ॥ १२१ ॥ इह यः क्षपकश्रेणिप्रस्थापकः सोऽवश्यं मनुष्यो वर्षाष्टकाचोपरि वर्तमान उत्तम संहननशुद्ध ध्यानापितमना अविरत For Pitate & Personal Use Only ~ 265~ अल्पार्णा ४ दावविश्वा• सः ११८ २० ॥ १२५ ॥ wanaliorary.org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education h “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [११९- १२१ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [१३१४,१३१६, १३१७], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | सम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंवतानामन्यतमः आह च- "पडिवतीए अविरयदेसपमत्तापमत्तविरयाणं । अन्नयरो पडिवजह सुद्धज्झाणोवगयचित्तो ॥ १ ॥” (वि. १३१४) केवलं यद्यप्रमत्तसंयतः पूर्ववित् ततः शुक्लध्यानोपगतः श्रेणिमारभते, शेषस्तु धर्मध्यानोपगतः, तत्र क्षेपक श्रेणिमारोहन् स प्रथममनन्तानुबन्धिनश्चतुरोऽपि क्रोधादीनन्तर्मुहूर्त्तेन युगपत् क्षपयति, तदनन्तभागं तु मिथ्यात्वे प्रक्षिप्य मिथ्यात्वं सहैव तेन युगपत् क्षपयति, यथा ह्यतिसम्भृतो दवानलः खल्वर्द्ध| दग्धेन्धन एवेन्धनान्तरमासाद्य उभयमपि दहति एवमसावपि क्षपकस्तीत्रशुभपरिणामत्वादवशेषमन्यत्र प्रक्षिप्य क्षपयति, तदनन्तरं तथैव सम्यग्मिथ्यात्वं तदनन्तरमेव च सम्यक्त्वम्, इह यदि बद्धायुः क्षपकश्रेणिमारभते अनन्तानुबन्धिक्षव्यानन्तरं च मरणसम्भवतो व्युपरमते ततः कदाचिन्मिथ्यादर्शनोदयात् भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिन उपचिनोति तद्वीजस्य मिथ्यात्वस्याविनाशात्, क्षीणमिथ्यादर्शनस्तु न उपचिनोति, बीजाभावात् क्षीणसप्तकस्वप्रतिपतितपरिणामोऽवश्यं त्रिदशेषु मध्ये समुत्पद्यते, प्रतिपतितपरिणामस्तु नानामतिसम्भवात् यथापरिणामं सर्वगतिभाग भवति, उक्तं च--" बद्धाऊ पडिवन्नो, पढमकसायक्खए जइ मरेजा। ता मिच्छत्तोदयतो चिणिज्ज भूतो न खीणंमि १ ॥ तंमि मतो जाइ दिवं तप्परिणामो य सत्तए खीणे । उवरयपरिणामो पुण पच्छा नाणामइगइओ || २ ||" (वि. १३१६ - ७) वद्धायुः कोऽपि यदि तदानीं कालं न करोति तथापि सप्तके क्षीणे नियमादवतिष्ठते, न चारित्रमोहक्षपणाय यलमादधाति, आह च - "बद्धाऊ परिवन्नो नियमा खीणंमि सत्तए ठाए ।" अत्राह - ननु यदि दर्शनत्रिकमपि क्षयमुपनीतं ततः किमसौ सम्य| ग्दृष्टिरुतासम्यग्दृष्टिः १, उच्यते, सम्यग्दृष्टिः, सम्यग्दर्शनाभावे सम्यग्दृष्टित्वमनुपपन्नमिति चेत्, तदसद्, अभिप्रा For Pitate & Personal Use Only 266~ wjainslibrary.org Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१२२-१२३], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१३१८-१३२१], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक + दीप अनुक्रम चपोदात-पायापरिज्ञानात इह निमर्दनीकृतमदनकोद्रवकल्पा अपगतमिथ्यात्वभावा मिथ्यात्वपुद्गला एवं यत् सम्यग्दर्शनं तदेव दक्षपकरेनियुक्तिक्षीणं, यत्पुनरात्मपरिणतिस्वभावं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं तन्न क्षीणम्, अपि च-तदतीव श्लक्ष्णशुद्धावपटलवि- णिः १६ गमेन मनुष्यस्य दृष्टिरिव शुद्धजलानुगतं शुद्धं वस्त्रमिव वा जलक्षये विशुद्धतरस्वरूपं भवति, आह च-"खीणमि | प्रकृतयः ॥१२६॥ दसणतिए कि होइ ततो तिदसणातीतो। भण्णइ सम्मद्दिट्ठी सम्मत्तखए कुतो सम्म ॥१॥ निवलियमयणकोदव-| १२१-३ रूवं मिच्छत्तमेव सम्मत् । खीणं न उ बो भावो सद्दहणालक्खणो तस्स ॥२॥ सो तस्स विसुद्धयरो जायइ सम्मतपुमालक्खयए । दिविष साहसुद्धग्भपडलविगमे मणूसस्स ॥३॥जह सुद्धजलाणुगयं वत्थं सुद्ध जलक्खए सुतरं । सम्मतसुद्धपोग्गलपरिक्खए दंसणं एवं ॥४॥" (वि. १३१८-२१) यदि पुनरबद्धायुःक्षपकश्रेणिमारभते ततः सक्षके वीणे नियमादनुपरतपरिणाम एव चारित्रमोहक्षपणाय यत्नमारभते, यदाह-"इयरो अणुवरतो चिय, सयलं सेटिं समायेइ ।" वक्षपणक्रमश्चार्य-सम्यक्त्वस्य थपितशेषेऽवतिष्ठमान एवाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानाचरणकपायाष्टकं समकमेष क्षपयि तुमारभसे, पतेषु चावपितेष्वन्याः षोडश प्रकृतीः क्षपयति, तत्प्रतिपादकमिदं गाथावयम् गइआणुपुरि दो दो जाती मामं च जाव चरिंदी। आयावं उज्जोयं, थावरनामं च सुहुमं च ॥ १२२॥ साहारमण्पजसं निरानिरंच पयलपयलं च । धीणं खवेइ ताहे अवसेसं जंच अट्ठण्डं ॥ १२ ॥ १२६॥ गतिश्च आनुपूर्वीच गत्यानुपूज्यौं दे दे, तद्यथा-नरकगतिनाम नरकानुपूर्वीनाम तिर्यग्गतिनाम तिर्यगानुपूर्वीमाम, तथा खातिनाम एकेन्द्रिवादिजाविनाम यावचतुरिन्द्रियार, किमुकं भवति ।-एकेन्द्रियजाविनाम द्वीन्द्रियजा + land ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१२२-१२३], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१३३०-१३३१], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CAKAC दीप अनुक्रम तिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम इति, चः समुच्चये, तथा आतपनाम उद्योतनाम स्थावरनाम सूक्ष्मनाम साधारणनाम अपर्याप्तकनाम निद्रानिद्रां प्रचलामचलां स्त्यानद्धि च, एताश्च पोडशापि कर्मप्रकृतीः क्षपयित्वा तदन15/न्तरं यदष्टानां कषायाणां शेष तत् क्षपयति, सर्वमिदमन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण, ततो नपुंसकवेदं ततः खीवेदं ततो हास्यादिपर्दू, ततः पुरुषवेदस्य खण्डनयं कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् वपयति, तृतीयं तु खण्डं सञ्चलनक्रोधे प्रक्षिपति, पुरुषे प्रतिपत्तययं । क्रमः, नपुंसकादौ प्रतिपत्तर्युपशमश्रेणिन्यायो वक्तव्यः, ततः क्रोधादीन् चतुरः संज्वलनान् प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण क्षपयति, क्षपणं चैषां खण्डत्यादिकरणक्रमेण पुरुषवेदवत् वाच्यं, क्रोधसत्कं च तृतीयं खण्डं माने प्रक्षिपति, मानसत्कं मायायां मायासत्कं लोमे, क्षपणकालश्च प्रत्येकं सर्वत्रान्तर्मुहर्चप्रमाणो मन्तव्यः, श्रेणिरपि सो अन्तमुहसेमाना, एकस्मिन्नप्यन्तर्मुहर्ने लघुतराणामन्तर्मुहूर्तानामसङ्ख्येयानां भावात् , लोभस्य तु चरमं तृतीयं खण्डं सोयानि | खण्डानि करोति, तानि च खण्डानि पृथक् पृथक् कालभेदेन क्षपयति, तेषामपि च सङ्ख्याततमं चरम खण्डमसयेयानि खण्डानि करोति, तानि तु समये समये एकैकशः क्षपयति । इह व क्षीणदर्शनसप्तको निवृत्तिबादर उच्यते, तत अङ्कमनिवृत्तिवादरो यावत् सङ्ख्याततम चरमं लोभखण्ड, तत ऊ मसङ्ख्येयानि लोभखण्डानि प्रतिसमयमेकैकं क्षपयन | सूक्ष्मसम्परायो यावच्चरमलोभांशक्षयः, अत ऊर्दू यथाख्यातचारित्री भवति, उक्कं च--"दंसणमोहक्सवणे, नियहि | अनियहिबादरो परतो । जाव र सेसो संजलणलोभमसंखेजभागोत्ति॥॥ तदसंखेजवभागं समये समये खवेइ एफेकं ।। ना.सू.२२एरथ व सुहुमसरामो लोभाणू जाव इकोनि ॥२॥ (वि. १३१-१)" महासमुद्रमतरणपरिमान्तवत् मोहसागर - 2 4.4 4 -4 ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१२२-१२३], भाष्यं H, विभा गाथा [१३३२-१३३३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * श्रेणिः सूत्रांक - दीप अनुक्रम उपोदात- तीा अनाभोगनिवर्तितेन करणेन विश्राम्यति, ततः छद्मस्थवीतरागत्वद्विचरमसमययोः प्रथमे समये निद्रामनियुक्तिःचले क्षपयति चरमसमये पञ्चविधं ज्ञानावरण चतुर्विधं दर्शनावरणं पञ्चविधमन्तरायमिति चतुर्दश प्रकृतीयुगपत् । क्षपयित्वा अनन्तरसमये केवलज्ञानं केवलदर्शनं चोत्पादयति, आह च चूर्णिकृत्-"ज संखेजइमं लोभरस ॥१२७॥ खंडं तं असंखेजे भागे करेइ, तेवि कमेण खवेइ, तत्थ खवओ सुहुमसंपराओ, जाहे तंपि खविसं होइ|४|| । ताहे खबगनियंटो लम्भइ, इत्थंतरा वीसमइ अणाभोगनिवत्तिएणं करणोवाएणं, जहा कोइ महासमुई तरिऊण जाहे अणेण थाहो लद्धो हवइ ताहे अंतोमुहुत्तं अच्छि ऊण सेसं तरइ, एवं सो अणेगभवसंचियं कम्म खविऊण ताहे मुहुर्ततरं आसत्थो, एत्थंतरे जाव अच्छइ ताहे नियंठो लन्भइ जाव दोहिं समरहिं सेसेहिं केवलनाणं उपजिस्सइत्ति | ताहे जो एगो समओ तत्थ निई पयलं च खवेइ, जो चरमसमयो तत्थ पंचविहं नाणावरणिजं चउविहं दरिसणावरणिजं पंचविहमंतरायं एताओ चउद्दस कम्मपगडीओ जुगवं खवित्ता अणंतं केवलनाणं दसणं उप्पाडेई" इति, भाष्यकारोऽप्याह-"खीणे खवगनियंठो, वीसमए मोहसागरं तरि । अंतोमुत्तमुदहि, तरि थाहे जहा पुरिसो॥१॥ छतमत्थकालदुचरमसमए निई खवेइ पयलं च । चरमे केवल लाभो, खीणावरणंतरायस्स ॥२॥ (वि. १३३२-३)" इह परमे |समये क्षीणावरणान्तरायस्य-क्षीणज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपञ्चकस्यानन्तरसमये केवललाभ इति प्रति- 2॥१२७॥ तापत्तव्यम् , अन्ये त्वेवमभिदधति+द्विचरमे समये क्षीणमोहो निद्रां प्रचलां च अपयति, नाम्नश्चमाः प्रकृतीस्तद्यथा देवगतिदेवानुपूव्यों वैक्रियद्विकं प्रथमवर्जानि पञ्च संहननानि उदितवोनि पञ्च संस्थानानि आहारकनाम तीर्थकर CREAKRA E CAKACC an Education in ons wwwjainitiorary.org ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१२४], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: *** प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम ********** नाम च यद्यस्यातीर्थकरः प्रतिपत्ता इति, अबार्थे च तन्मतेन तिम्रोऽन्यकर्तृका इमा गाथा:-"वीसमिऊण नियंठो दोहि उ समएहिं केवले सेसे। पढमं निई पयलं नामस्स इमाउ पयडीतो ॥१॥ देवगइआणुपुषी वेषियसंघयणपढमवजाई। अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारनामं च ॥२॥ चरमे नाणावरणं पंचविहं दंसणं घरविकप्पं । पंचविहमंतराय खवाचा केवली होइ ॥३॥" एतच्च मतमसमीचीनं, चूर्णिकृतो भाष्यकृतः सर्वेषां च कर्मग्रन्थकाराणामसम्मतत्वात् , केवलं वृत्तिकृता केनाप्यभिप्रायेण लिखितमिति, सूत्रेऽप्येता गाथा: प्रवाहपतिताः, नियुकिकारकृतास्त्वेता ने भवन्ति, चूर्णी भाष्ये चाहणादिति, उत्पन्न केवलज्ञानकेवल दर्शनश्च भगवान् सर्व वस्तु जानाति ॥ तथा चाह नियुक्तिकार: संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं च सबओ सबं । तं नथि जंन पासइ भूयं भवं भविसं च ॥१२४॥ | सम्-एकीभावेन भिन्न सम्भिन्नं, यथा वहिस्तथा मध्येऽपीत्यर्थः, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणं सर्वमपि ज्ञेयं विष-18 यत्वेन दर्शनीयं, तत्र सम्भिन्नमिति द्रव्यं विशेष्यं सूचितं, कालभावी तद्विशेषको, कालभावी हि द्रव्यस्य पर्यायौ, ता. स्ताभ्यां समन्तादिन्नं द्रव्यमिति सम्भिन्नग्रहणेन त्रितयमपि सूचितम्, एतत्पश्यन्-उपलभमानो लोक-धर्माद्याधारभूतं क्षेत्रमलोकं च-तद्विपरीत क्षेत्रम्, अनेन क्षेत्रं प्रतिपादितम् , एतावदेव चतुर्विध ज्ञेयं, नान्यदिति, किमेकया दिशा पश्यनित्याह-सर्वतः-सर्वासु दिक्षु, तास्वपि किं कियदपि द्रव्यादि उत नेत्याह-'सर्व' निरवशेष, अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह १ नियुक्तीनां सर्वासा चूादावमहात् न युक्तमिदं, अपकोपशमकते प्रकृते मोहमाश्रित्येति न नामविचारण्यादी, मतभेदस्तु नासं. भगति वा गाथा वृत्ती व्याख्याताः I tan Education insormations wwimwaintiorary.org ~2704 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१२५], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अपोद्धात प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम तन्नास्ति किमपि ज्ञेयं भूतम्-अतीतं भवतीति भव्यं-वर्तमानं भविष्यञ्च यन्न पश्यति केवलीति, इत्थं तावदुपोद्घात- वलय. नियुकिः नियुको प्रसूतायां प्रसङ्गतो यदुक्तम् 'तपोनियमज्ञानवृक्षमारूढः केवली'ति अयमसौ केवली निदर्शितः, एतस्मात् रूपं प्रवच दिसामायिकादिश्रुतमाचार्यपारम्पर्येणायातम्, एतस्माच जिनप्रवचनप्रसूतिरित्यादि, सर्व प्रासङ्गिक नियुक्तिसमुत्थानप्रसङ्गेलाय. ॥१२८॥ नोकं, साम्प्रतमपिच केयं जिनप्रवचनोत्पत्तिः कियदभिधानं चेदं जिनप्रवचनं को वाऽस्याभिधानविभाग! इत्येतत्प प्रासङ्गिकशेष शेषद्वारसंग्रहं चाभिधित्सुराह जिणपवयणउत्पत्ती पवयणएगडिया विभागोय। दारविहीय नपविही वक्खाणविहीय अणुओगो॥ १२॥ PI इह जिनप्रवचनोत्पत्तिः प्रवचनैकार्थिकानि एकार्थिकविभागश्चेति त्रितयमपि प्रसङ्गशेष, द्वाराणि-उद्देशनिर्देशादीनि ४ तेषां विधि-प्ररूपणं द्वारविधि:, अयमुपोद्घातोऽभिधीयते, नयविधिस्तूपक्रमादीनां मूलानुयोगद्वाराणां चतुर्थमनुयोगद्वारं, तथा व्याख्यानस्य विधिर्व्याख्यानविधिः-शिष्याचार्यपरीक्षाभिधानम् , अनुयोगः-सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः सूत्रानुगमश्चेति समुदायार्थः । आह-चतुर्थमनुयोगद्वारं नयविधिमभिधाय पुनस्तृतीयानुयोगद्वाराख्यानुयोगाभिधानं किमर्थम् , उच्यते, नयानुगमयोः सहचरभावमदर्शनार्थ, तथाहि-नयानुगमौ प्रतिसूत्रं युगपदनुगच्छतः, नयमतशून्यस्यानुगमस्याभावात् , यदि युगपन्नयानुगमी गच्छतस्तर्खेतदुपन्यासोऽपि युगपदेवास्तु, किमर्थमनुयोगद्वारचतुष्टयोपन्यासे नयानामन्ते | उपन्यासः,सच्यते, युगपद्धकुमशक्यत्वान्, माह मूलटीकाकृत-"अनुयोगद्वारचतुष्टयोपन्यासेतु नयानामन्तेऽमिषानं युमपाकुमशात्वा"दिति । अपरस्त्वाह-चतुरनुयोगद्वारात्मकं झालं, ततश्चतुरनुयोगद्वारातिरिकस an Education from For Farm ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१२६], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम व्याख्यानविधेरुपन्यासो निरर्थका, तदयुक्तम् , अनुगमाङ्गतया निरर्थकत्वायोगात्, अनुगमाङ्गता च व्याख्याङ्गत्वादिति, तत्र जिनप्रवचनोत्पत्तिनियुक्तिसमुत्थानप्रसङ्गतोऽभिहिता, अद्वचनत्वात् प्रवचनस्य, आह च 'सुयमिह जिणप्पवयणं तस्सुप्पत्ती पसंगतोऽभिहिया' इति ॥ सम्प्रति प्रवचनैकार्थिकानि तद्विभागं च प्रतिपादयन्नाह-(प्रन्था ५०००) एगठियाणि तिन्नि उपवयण सुसं तहेव अत्यो य । एककस्स य एत्तो नामा एगट्टिया पंच ॥ १२६ ॥ एकोऽथों येषां तान्येकार्थिकानि त्रीण्येव, कानि पुनस्तानीत्यत आह-प्रवचनम्-उक्तशब्दार्थ सूचनात्सूर्व अर्यते | इत्यर्थः-अभिधेयं, चः समुच्चये, अत कई एकैकस्य-प्रवचनस्य सूत्रस्य अर्थस्य च नामान्येकार्थिकानि पश्च, इह प्रवचन सामान्य श्रुतज्ञानं, सूत्रार्थों तु तद्विशेषौ, उक्तं च-"जमिह पगयं पसत्थं पहाणवयणं च पवयणं तं च । सामन्नं सुयनाणं विसेसतो सुत्तमत्थो य ॥१॥ (वि. १३६७)" आह-सूत्रार्थयोः प्रवचनेन सहकार्थता युक्ता, तयोस्तद्विषयत्वात् , सूत्रार्थों च परस्परविभिन्नौ, तथाहि-सूत्रं व्याख्येयमर्थस्तु तद्व्याख्यानमिति, अथवा त्रयाणामप्येषां भिन्नार्थतैव युक्त्युपपन्ना, प्रत्येकमेकाथिकविभागसद्भावात् , घटपटशकटवद्, अन्यथा एकार्थतायां सत्यां मेदेनैकार्थिकाभिधानमयुक्तं, घटकुम्भयोरिवेति, अत्रोच्यते, इह यथा मुकुलविकसितयोः पद्मविशेषयोः सङ्कोचविकाशरूपपर्यायभेदेऽपि कमल सामान्यरूपत्वेनाभेदः तथा सूत्रार्थयोरपि प्रवचनापेक्षया परस्परतश्चाभेदः, तथाहि-अविवृतं मुकुलतुल्यं सूत्र, तदेव विवृतं प्रबोधितं विकचकल्पमर्थः, प्रवचनं तूभयमपि, यथा च तेषां कमलसङ्कोचविकाशानामेकाथिकविभाग उपलभ्यते, कमलमरविन्दं पङ्कज-| मित्यादि पीकार्थिकानि तथा मुकुलं तं सङ्कुचितमित्यादीनि मुकुलकाथिकानि तथा विकचं फुई विबुद्धमित्यादीनि | land ~272~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं , नियुक्ति: [१२७], भाष्यं H. विभा गाथा [१३७९-१३८०], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक H दीप अनुक्रम स्पोद्धात- विकसितैकार्थिकानि, तथा प्रवचनसूत्रार्थानामपि पद्ममुकुलविकसितकल्पानामेकार्थिकविभागो न विरुद्ध इति, अथवा प्रवचनश्रुनियुकिः अन्यथा व्याख्यायते-एकाधिकानि त्रीण्येवाश्रित्य वक्तव्यानि, तद्यथा-प्रवचनमेकाथिकगोचरस्तथा सूत्रमर्थश्च, शेष तार्थकाई पूर्ववत्, आह-यद्येवं द्वारगाथायां यदुक्तं प्रवचनैकार्थिकानि इति तद् व्याहन्यते, सूत्रार्थयोरप्येकाधिकाभिधानात्, नैष । ता ॥१२९॥ दोषः, प्रवचनस्य सामान्यविशेषरूपतया सूत्रार्थयोरपि प्रवचनविशेषरूपत्वेन प्रवचनत्वोपपत्ते, आह-यद्येवं तर्हि १२६-७ है विभागश्चेति पृथगद्वाराभिधानमनर्थक, तदसम्यक्, विभागश्चेति किमुक्तं भवति ?-नाविशेषेण सामान्यविशेषरूपस्य प्रवचनस्य पञ्चदशैकार्थिकानीति, किं तर्हि :-विभागश्च वक्तव्या, विशेषगोचराभिधानपर्यायाणां सामान्यगोचराभिधान: पर्यायत्वानुपपत्तेः, नहि चूतसहकारादयो वृक्षादिशब्दपर्याया भवन्ति, लोके तथा व्यवहाराभावादिति ॥ तत्र प्रवचनसूत्रयोस्तावत् पञ्च पञ्च एकाथिकान्याह सुयधम्म तित्थ मग्गो पावयणं पवयर्ण च एगट्ठा। सुत्तं तंतं गंयो पाटो सत्थं च एगट्ठा ॥१२७॥ श्रुतस्य धर्मः-स्वभावः श्रुतधर्मः, श्रुतस्य बोधस्वभावात् श्रुतस्य धर्मो बोधो बोद्धव्या, अथवा श्रुतं च तत् धर्मश्च सुगतिधारणात् श्रुतधर्मः, यदिवा जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य श्रुतं च तत् धर्मः श्रुतधर्मः, उक्कं च-"बोहो सुयस्स धम्मो, सुर्य व धम्मो सजीवपज्जातो। सुगईए संजमंमि य धरणातो वा सुयं धम्मो॥१॥" (वि.१३७९) तथा तीर्यते संसारस- ॥१२९॥ मुद्रोऽनेनेति तीर्थ, तच्च सह इत्युक्तम्, इह तु तदुपयोगानन्यत्वात्प्रवचनं तीर्थमुच्यते, पाच-"तित्थंति पुषभणिय, संघो जो नाणचरणसंघातो। इह पवयणपि तित्थं, तत्तोऽणत्यंतरं जेण ॥१॥" (वि. १३८०) तथा मृज्यते-शोध्यतेऽनेनात्मा इति CCCC land For PiaNAParamal-Un Dil al ~273 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [१२८], भाष्य , वि०भागाथा [१३८१-१३८६], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम मार्गःमार्ग वा मार्गः, शिवस्यान्वेषणमिति भावः, पप-"मजिज्बा सोहिंजा, जेणचा पवयणं तओमग्गो। अहवा |सिवस्स मग्गो, मग्गणमन्नेसणं पंथो ॥२॥"(वि.१३८१)इति, तथा प्रगतमभिविधिना जीवादिषु पदार्थेषुवचनं प्रावचन,प्रवच-13 नमुक्तशब्दार्थम्, उकानि पञ्च प्रवचनैकार्थिकानि, सम्पति पञ्च सूत्रैकार्थिकान्याह-'मुत्त'मित्यादि, सूचनात् सूत्र, तन्यतेऽनेन अस्मादस्मिन्निति वा तवं प्रभ्यतेऽनेन अस्मादस्मिमिति वा अर्थ इति अन्था, प्रथ्यते इति वा ग्रन्थः, पठनं पाठः पठ्यते. वा तदिति पाठः, पठ्यते-व्यक्त क्रियतेऽनेन अस्मादस्मिन्नभिधेयमिति वा पाठः, तथा शिष्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा ज्ञेयमात्मा वा इति शास्त्रम् , एकाधिकानीति पुनरभिधानं सामान्यविशेषयोः कथञ्चि दख्यापनार्थमिति ।। अथ अर्थकार्थिकानि वक्तव्यानि, तत्र अर्थों व्याख्यानमनुयोग इत्यनर्थान्तरम् , अतोऽनुयोगैकार्थिकानि विभणिपुराहअणुओगो य निओगो, भास विभासा य वत्तियं चेव । एए अणुओगस्स उ, नामा एगट्ठिया पंच ॥ १२८॥ __ सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजनमनुयोगः अथवाऽभिधेये व्यापारः सूत्रस्य योगः अनुकूलोऽनुरूपो वा योगोऽनुयोगा। यथा घटशब्देन घटस्य प्रतिपादनमिति, उक्तं च-"अनुयोजणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेएणं । वावारो वा जोगो, जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥" (वि. १३८६) तथा नियतो निश्चितो वा योगः-सम्बन्धी नियोगः, यथा घटशब्देन घटस्यैव प्रतिपादनं न पटादेरिति, तथा भाषणं भाषा व्यक्तीकरणमित्यर्थः, यथा घटनात् घटा, चेष्टावानर्थों घट इति, तथा विविधा भाषा विभाषा-पर्यायशब्दैः स्वरूपकथनं यथा घटः कुटः कुम्भ इति, वार्तिकं त्वशेषपर्यायकथनमिति, एतान्यनुयोगस्य नामान्येकार्थिकानि पञ्च, एष गाथासमुदायार्थोऽवयवार्थे तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्र यद्यपि CAMERA JanEduranon Inoernational wwwjainitiorary.org ... अत्र अनुयोगस्य वर्णनं क्रियते ~2744 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१२९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १३८९ ], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घात- १ प्रवचनादीनामे कार्थिका भिधानप्रक्रमस्तथाप्यनुयोगस्वानुयोगादीनामेकार्धिकानां मेदोपन्यासेनान्वाख्यानमर्थगरीयस्त्वनिर्युक्तिः ख्यापनार्थम्, उकं च - " सुत्तहरा अत्थहरो अत्थहरा होइ तदुभयधरो छ ।” इत्यादि, तत्रानुयोगाख्यप्रथमद्वारस्वरूपं * व्याचिख्यासुराह ॥१३०॥ नामं ठवणा दविए, खित्ते काले वयण-भावे य । एसो अणुओगस्सा, निक्खेवो होइ सत्तविहो ॥ १२९ ॥ नामानुयोगो यस्य जीवादेरनुयोग इति नाम क्रियते, नानो वा अनुयोगो नामानुयोगो-नामव्याख्या, यदिवा नानाअनुरूपो योगो नामानुयोगः, उक्तं च- "नामस्स जोडणुयोगो, अहवा जस्साभिहाणमणुयोगो। नामेण व जो जोभ्गो जोगो नामाणुजोगो सो ॥ १ ॥” (वि. १३८९) स्थापना - अक्षनिक्षेपादिरूपा, तत्र योऽनुयोगं कुर्वन् स्थाप्यते सोऽनुयोगानुयोगवतोरमेदोपचारात् स्थापनानुयोगः, स्थापना चासावनुयोगश्च स्थापनानुयोगः, यदिवा स्थापनाया अनुयोगो-व्याख्या स्थापनानुयोगः अथवा यः स्थापनाया अनुकूलो योगः-सम्बन्धः किमुक्कं भवति १-यस्य स्थापना स्थाप्यमाना देशकालाद्यपेक्षया युक्ता प्रतिभासते इति स स्थापनानुयोगः, उक्तं च- "ठवणाए जोऽणुयोगोऽणुयोग इति वा ठवेज्जए जं तु । जा बेह जस्स ठवणा जोग्गा ठवणाणुजोगो सो ॥ १ ॥” द्रव्यानुयोगो द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतोऽनुयोगपदार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, नोआगमतस्त्रिधा तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यानुयोगो भव्यशरीरद्रव्यानुयोगस्तद्व्यतिरिक्तश्च तत्र ज्ञशरीर भव्यशरीरे प्रसिद्धे, तद्व्यतिरिक्तस्त्वनेकधा-द्रव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैर्द्रव्ये द्रक्येषु वा अनुयोगो द्रव्यानुयोगः, एवं क्षेत्रादिष्वपि षद्भेदयोजना कार्या, तत्र द्रव्यस्यानुयोगो Jan Education For Pitate & Personal Use Only ~275~ अनुयोगे पर्यायाः निक्षेपाश्च १२८-९ ॥१३०॥ wjinslibrary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Inters “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १२९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १३९३ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः द्विघा, तद्यथा - जीवद्रव्यस्यानुयोगोऽजीवद्रव्यस्वानुयोगच, एकैकोऽपि चतुर्धा, तद्यथा-प्रम्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतय, उक्तं च- "दवस्स उ अणुयोगो, जीवद्दवस्स वा अजीवस्स । एक्केकंमि य एतो, हवंति दवाइया चउरो ॥ १ ॥” (वि. १३९३) तत्र द्रव्यतो जीव एकं द्रव्यं क्षेत्रतोऽसङ्घयप्रदेशावगाढः काठतोऽनाद्यपर्यवसितः भावतोऽनन्तज्ञानानन्तदर्शनचारित्रदेशचारित्राचारित्रागुरुलघुपर्यायवान्, एष जीवद्रव्यस्य द्रव्यादिमेदाच्चतुर्द्धाऽनुयोगः, अजीवद्रव्याणि परमाण्वादीनि,, तत्राजीवद्रव्यस्य द्रव्यादिभेदाच्चतुर्द्धाऽनुयोग एवं- द्रव्यतः परमाणुरेकं द्रव्यं क्षेत्रतो एकप्रदेशावगाढः कालतो जघन्येनैकं समयं द्वौ वा उत्कर्षतस्त्वसमेया उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्यावत् भावतस्त्वेकरस एकवर्ण एकगन्धो द्विस्पर्श इति एतेषां स्वस्थानेऽनन्ता रसादिपर्याया एकगुणतिकादिमेदेन द्रष्टव्याः, एवं व्यणुकादीनामपि अनन्ताशुकस्कन्धावसानानां | स्वरूपं द्रष्टव्यम् । उक्तो द्रव्यस्यानुयोगः, साम्प्रतं द्रव्याणामनुयोगोऽभिधीयते, सोऽपि द्विधा - जीवद्रव्याणामजीवनव्याणां घ, एकैकोऽपि चतुर्घा, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र अनन्तानि जीवद्रव्याणि इति द्रव्यतः, जीवद्रव्याणि सर्वलोकापन्नानीति क्षेत्रतः, अनाद्यनिधनानि जीवद्रव्याणि इति कालतः, तथा अनन्तानि परमाण्वादीन्यजीवद्रव्याणि इति द्रव्यतः तानि समस्तलोकाश्रितानीति क्षेत्रतः तचत्सामग्रीवशात् तथा २ सादिपर्यवसानानि अनाद्यनिधनानि धर्मास्तिकायादिनीति वा कालतः, भावतोऽनुयोगो जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां च यथा प्रज्ञापनायां, तथा च तत्र सूत्रम् - "कविद्दा णं भंते ! पजवा पक्षचा १, गोयमा ! दुविधा पनचा, तंजहा- जीवपजवा य अजीवपावा य, जीवपज्जवा णं भंते । किं संजा संबेजा भणता ?, गोषमा ! नो संखेजा नो असंखेखा अनंता, एव! For Pitate & Personal Use Only ~276~ jainslibrary.org Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ १२९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [ १४००, १४०२ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ १३१ ॥ उपोद्घात- मजीवपज्जवादि अनंता" इत्यादि, उक्तो द्रव्याणामनुयोगः, सम्प्रति द्रव्येण द्रव्यैर्वा द्रव्ये द्रव्येषु वा अनुयोगो भाव्यते, निर्युक्तिः ७ तत्र एकया खटिकया एकेन प्रलेपेनैकेनाक्षादिना वा कृत्वा योऽनुयोगः क्रियते स द्रव्येणानुयोगः, यस्तु बहुभिरक्षादिभिः स द्रव्यैरनुयोगः, यस्तु द्रव्ये फलकादावुपविष्टेनानुयोगः क्रियते स द्रव्येऽनुयोगः, यस्तु बहुषु फलकेषु प्रभूतासु वा निषद्यासूपविष्टेन स द्रव्येष्वनुयोगः, तथा क्षेत्रस्यैकस्य जम्बूद्वीपादेरनुयोगो यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, तस्या जम्बूद्वीपलक्षणेकक्षेत्रव्याख्यानरूपत्वात्, बहूनां क्षेत्राणामनुयोगो यथा द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः, बहूनां द्वीपसमुद्राणां तथा व्याख्यानात्, | क्षेत्रेणानुयोगो यथा पृथिवीकायिकादिसत्वा व्याख्यानं जम्बूद्वीपं प्रस्थकं कृत्वा, उक्तं च- "जंबुद्दीवपमाणा, पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं । एवं मविजमाणा हवंति लोगा असंखेज्जा ॥ १ ॥” (वि. १४००) क्षेत्रैरनुयोगो यथा बहुद्वीपसमुद्रप्रमाणं प्रस्थनं कृत्वा पृथिवीकायादिसङ्ख्याभणनम्, उक्तं च-- "खेतेहिं बहुदीवेहिं पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं । एवं मवि - | जमाणा हवंति लोगा असंखेज्जा ॥ १ ॥” (१४०२) क्षेत्रेऽनुयोगस्तिर्यग्लोके भरतादौ वा क्षेत्रेष्वनुयोगोऽर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु, | कालस्यानुयोगो यथा समयस्यानुयोगद्वारेषु प्ररूपणा, कालानामनुयोगः प्रभूतानां समयावलिकादीनां प्ररूपणा, कालेनानुयोगो यथा वादरवायुकायिकानां वैक्रियशरीराणि अद्धापल्योपमस्यासङ्ख्येय भागमात्रेणापह्रियन्ते, कालैरनुयोगो यथा प्रत्युत्पन्नास कायिकाः प्रतिसमयमेकैकापहारेणापह्रियमाणा असङ्ख्याभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपश्यिन्ते इति, कालेऽनुयोगो द्वितीयपौरुपयां, कालेषु अनुयोगो यथा अवसर्पिण्यां तृतीयचतुर्थपञ्चमेष्वारकेषु तद्यथा-सुषमाचरमभागे दुष्पमसुषमायां पुष्पमायां चेति, उत्सर्पिण्यां कालद्वये दुष्पमसुषमायां सुषमदुष्पमायां । वचनस्यानुयोगो यथा इत्थम्भूत For Pivate & Personal Use Only Jan Education in ~277~ अनुयोगनिक्षेपाः ॥ १३१ ॥ jainslorary.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१२९], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ८ दीप अनुक्रम मेकवचन द्विवचन बहुवचनं वा, वचनानामनुयोगो यथा इत्यंभूतान्येकवचन द्विवचनबहुवचनानि, यदिवा पोडशानां वचनानामनुयोगः, तानि च षोडश वचनान्यमूनि-"लिंगतियं वयणतियं कालतियं तह परोक्ख पञ्चक्खं । उवणयऽवणयचजकं अङ्गात्थं होइ सोलसमं ॥१॥ अस्या अक्षरगमनिका-लिङ्गत्रिक इयं खी अयं पुरुषः इदं नपुंसकमिति, वचनत्रिक एकवचन द्विवचन बहुवचनमिति, कालत्रिकमकरोत् करोति करिष्यतीति, परोक्षवचनं यथास इति,प्रत्यक्षवचनं यथा अयमिति, उपनयः-स्तुतिरपनयो-निन्दा तयोर्वचनचतुष्कं, यथा-रूपवती स्त्रीत्युपनयवचनं, कुरूपा स्त्रीत्यपनयवचनं, रूपवती खी किन्तु कुशीलेत्युपनयापनयवचनं, कुरूपा स्त्री किन्तु सुशीलेत्यपनयोपनयवचनमिति, तथा अन्यश्चेतसि निधाय विप्रतारकवुद्ध्या अन्यदिणिपुरपि सहसा यच्चेतसि तदेव वति यत् तत्वोडशमध्यात्मवचनं, वचनेनानुयोगो यथा कश्चिदाचार्यः साध्वादिभिरभ्यर्थित एकेनापि वचनेनानुयोगं करोति, वचनैरनुयोगो यथा स एव बहुभिर्वचनैरभ्यर्थितस्तं करोति, क्षायोपशमिके तु वचने स्थितस्यानुयोगो वचनेऽनुयोगः, वचनेष्वनुयोगो व्यक्तिविवक्षया बहुषु क्षायोपशमिकेषु वचनेषु स्थितस्य, अन्ये तु प्रतिपादयन्ति-वचनेषु नास्त्यनुयोगः, वचनस्य क्षायोपशनिकत्वेनैकतया बहुत्वासम्भवात्, भावानुयोगो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतो भावस्यानुयोगोऽन्यतमस्यौदयिकादेाख्यानं, भावानामनुयोगो नाम बहूनामौदयिकादीनां भावानां व्याख्यानं, |मावेनानुयोगः सङ्ग्रहादीनां पञ्चानामध्यवसायानामन्यतरेणाध्यवसायेन योऽनुयोगः, सबहादयः पश्चामी-'पञ्चहिं| ठाणेहिं सुर्य वाएजा, तंजहा-संगहवयाए १ उवग्गहड्डयाए २ निजरहयाए ३ सुअपज्जवजाएणं ४ अबोछित्तीए ५] K-4446 ८ *431 ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ ११२ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १२९], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अस्य स्थानाङ्गसूत्रस्वायमर्थः कथं नु नामैते शिष्याः सूत्रार्थसग्राहकाः सम्पत्स्यन्ते इति सङ्ग्रहार्थता, कथं नु नाम गीतार्थ भूखा वस्त्राद्युत्पादनेन गच्छस्योपग्रहकरा भविष्यन्तीत्युपग्रहार्थता, ममाप्येतान् वाचयतः कर्मनिर्जरा विपुला भविष्यतीति कर्मनिर्जरार्थता, तथा श्रुतपर्यवजातं श्रुतपर्यायराशिर्ममापि वृद्धिं यास्यतीति श्रुतपर्यवजातं चतुर्थं कारणं, श्रुतस्य शिष्यप्रशिष्यपरम्परागततया अव्यवच्छिचिर्मूयादिति पञ्चममव्यवच्छित्तिः कारणं, एतैः पञ्चभिरभिप्रायैः श्रुतं सूत्रतोऽर्थतश्च वाचयेदिति, एषामेव सङ्ग्रहादिभावानां मध्यात् द्वित्रादिभिर्भावैः सर्वैर्वाऽनुयोगं कुर्वतो भावैरनुयोगः, क्षायोपशमिके भावे स्थितस्य व्याख्यां कुर्वतो भावेऽनुयोगः, भावेषु पुनर्नास्त्यनुयोगः, क्षायोपशमिकभावस्य एकत्वाद्, | अथवा एकोऽपि क्षायोपशमिको भाव आचारादिशाखलक्षणविषयभेदादनेकधा भिद्यते तदाऽऽचारादिशास्त्रविषयभेद| भिन्नेषु बहुषु क्षायोपशमिकेषु भावेषु बुद्ध्या व्यवस्थितस्य व्याख्यां कुर्वतो भावेष्वनुयोग इत्यप्यविरुद्धमिति, अथवा | प्रतिक्षणमन्यथाऽन्यथा परिणमिते क्षायोपशमिकभावेऽपि ततः प्रतिक्षणमन्यस्मिन् अन्यस्मिन् परिणममाने क्षायोपशमिके भावेऽवस्थितस्य व्याख्यां कुर्वतो घटते मावेष्वनुयोग इति ॥ अथ तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावानुयोगेषु कस्य कुत्र समावेशः १, उच्यते, इइ द्रव्ये नियमाद्भाक, पर्यावरहितस्त्व द्रव्यत्वासम्भवात्, द्रव्यपर्यायी च क्षेत्रकालाविनाभाविनौ, ततो द्रव्यानुयोगे भावानुयोगस्य कालानुयोगस्व क्षेत्रानुषोमस्य भावतारो भवति, क्षेत्रे तु द्रव्यकालभावानुयोगानां भजना, | तथाहि यदि क्षेत्रं लोकरूपं विवक्ष्यते तर्हि तत्र द्रव्याणि धर्मास्तिकाबादीनि सन्ति कालच वर्चनादिलक्षणः समयाव|लिकादिरूपो वा भावास्तु गुरुब्धवोऽगुरुतमवो वा वर्णादिरूपाञ्च ततः क्षेत्रानुयोगे लोकक्षेत्र विषये विवक्षिते द्रव्यानुयोगः For Pivate & Personal Uan Only ~279~ अनुयोगनिक्षेपाः समावेशय ॥ १३२ ॥ jainslibrary.org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३०], भाष्यं H, विभा गाथा [१४०८], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम 29- 9096 कालानुयोगो भावानुयोगश्च यथाविवक्ष सम्भवति, अथालोकरूपस्य क्षेत्रस्यानुयोगविवक्षा तर्हि न तत्रान्यानि द्रव्याणि सन्ति, येऽप्यगुरुलघुपर्यायास्तेऽपि प्रतीता एव, अमूर्तत्वादलोकाकाशस्य, कालश्च तत्र सन्नपि वर्तनादिरूपोन विवक्ष्यते, ब्यवहाराभावात् , तदभावश्चानाद्यनिधनतया प्रतीतत्वात्, ततोऽलोकरूपक्षेत्रानुयोगे न द्रव्यानुयोगस्य न कालानुयोगस्य नापि भावानुयोगस्य सम्भव इति क्षेत्रानुयोगे द्रव्यकालभावानुयोगानां भजना, कालानुयोगः पुनद्रव्यक्षेत्रभावानुयोगेषु भजनया, कालो हि नाम द्विधा भवति-पत्तनादिरूपः समयावलिकादिरूपश्च, तत्र यदि वर्तनादिलक्षणो विवक्ष्यते ततः समस्तद्रव्यक्षेत्रभावव्यापीति द्रव्यानुयोगे क्षेत्रानुयोगे भावानुयोगे च कालानुयोगस्य सम्भवः, अथ समयावलिकादिरूपस्य विवक्षा तर्हि (स) समयक्षेत्र एव नान्यत्रेति समयक्षेत्रगतद्रव्यक्षेत्रभावानुयोगेषु तदनुयोगस्य सम्भवो, न तदहि व्यक्षेत्रभावानुयोगेष्विति, | उक्तं च-"दवे नियमा भावो न विणा ते यावि खेत्तकालेहिं । खेत्ते तिण्हवि भयणा कालो भयणाएँ तीसुपि ॥१॥" (वि. १४०८) उत्कोऽनुयोगः, एतद्विपरीतोऽननुयोगः, साम्प्रतमनुयोगाननुयोगप्रतिपादकदृष्टान्तप्रतिपादनार्थमाहवच्छगगोणी खुजा सज्झाए चेव बहिरउल्लावो । गामेल्लए य वयणे सत्तेव य होंति भावम्मि ॥१३०॥ इह यथा नामादिभेदात् सप्तविधोऽनुयोगो वर्णितस्तथाऽननुयोगोऽपि यथासम्भवं वर्णयितव्यः, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्याननुयोगे तत्प्रसङ्गातो द्रव्यानुयोगे वत्सगावाबुदाहरणं, क्षेत्राननुयोगानुयोगयोः कुब्जा उदाहरणं, कालाननुयोगानुयोगयोः स्वाध्यायः, वचनाननुयोगानुयोगयोरुदाहरणद्वयं, तद्यथा-बधिरोष्ठापो ग्रामेयकश्च, भावे तु उदाहरणानि सप्त विश्यमाणानि । तत्र वत्सगोदृष्टान्तभावा इयम्-"जइ गोदोहतो जो पाडलाए वच्छगो तं बहुलाए मुयइ बाहुलेयं वा बा.सू.२३ ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥१३३॥ Jan Education h “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १३० ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः बच्छगं पाडलाएं मुयइ तोऽणणुयोगो वुद्धकज्जस्स य अप्पसिद्धी, जइ पुण जो जाए तं ताए चैव मुयह तो अणुयोगो तो युद्धकज्जरस य निष्फसी, एवमिहावि जइ जीवलक्खणेणमजीवं परूवेइ अजीवलक्खणेणं वा जीवं तो अणणुओगो भवइ, ततो वितहपरूवणेण विसंवयंतेण अत्थो विसंवयर, अत्थेण विसंबयंतेण चरणं विसंवयर, चरणविणासे मोक्खाभावो, मोक्खाभावे दिक्खा निरत्थिगा, अह पुण जीवलक्खणेणं जीवं परूवेइ अजीवलक्खणेणं अजीवं तो अनुयोगो, ततो कज्जसिद्धी, अविगलो अत्थावगमो होइ, ततो चरणबुडी ततो मोक्खो इति, उक्तो द्रव्याननुयोगानुयोगयोर्वत्सगोदृष्टान्तः । सम्प्रति क्षेत्राननुयोगानुयोगयोः कुब्जोदाहरणं भाव्यते - पइठाणे नगरे सालिवाहणो राया, सो वरिसे वरिसे भरुयच्छे नयरे नहवाहणं रायाणं रोहेइ, जाहे य वरिसारत्तो पत्तो हवइ ताहे सनगरं पड़ जाइ, एवं कालो वच्चइ । अन्नया तेण रोहरण गएलएणमत्थाणमंडवियाए निट्टतं, तस्स य पडिग्गहधारिणी खुज्जा, सा चिंतेइ-नूर्ण राया जातुकामो तेण एसा अपरिभोगा संभाविया, तीसे य राउलतो जाणसालितो परिचितो, तीए तस्स सिहं, सो (तेण) पर जाणगाणि पमक्खिउं पयट्टावियाणि य, तं दट्टण सेसतो खंधावारो पट्टितो. राया रहसि एकल्लो धूलादिभया गच्छिस्सामित्ति पयट्टो जाब सबो खंधावारो पट्टितो दिट्टो, राया चिंतेइन मए कस्सइ कहियं, कहमेएहिं नायं?, गवि परंपरपण जाव खुज्जत्ति, ततो पुच्छिया खुज्जा, ताए तहेवमक्खायं एत्थ खुजाए अपरिभोगं खेत्तं जायंति पण्णवंतीए अणुओगो, अन्नहा पुण अणणुओगो, एवं निष्प एस मेगंतनिञ्चमेकमागासं पडिवलावंतस्स अणणुओगो, सप्पदेसाइ पुण पडिवज्जाविंतस्स अणुयोगो । कालाननुयोगानुयोगयोः स्वाध्यायोदाहरणभावना - एगो साहू पादोसियं परियहंतो रहसेण कालं न याणइ, सम्मदिट्टिगा य देवया तं For Pitate & Personal Use Only 281~ द्रव्याधनुयोगादी दृष्टान्ताः ॥१३३॥ wwww.jainslibrary.org Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३०], भाष्यं H, विभा गाथा , मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: VT प्रत सूत्रांक LELENCELEC दीप अनुक्रम हियहाए बोहेइ मिच्छदिहिगाइ भएण, सा तकस्स घडं भरेऊण महया महया सद्देण घोसेइ-महियं महियं विक्काइ इति, सो तीसे कण्णारोडगमसहतो भणइ-अहो तक्वेलत्ति, सा भणइ-जहा तुम्भं सज्झायवेला तहा ममवि तकवेलत्ति, ततो साहू उवउंजिऊण मिच्छादुकडंति भणइ, देवयाए अणुसासिओ-मा पुणोवि एवं काहिसि, मा मिच्छादिडियाए छलिजिहिसि, तस्स अकाले सज्झायंतस्स अणणुयोगो, देवयाए कालं साहंतीए अणुयोगो। इदानीं वचनविषये बधिरोल्लापोदाहरणभाबना-एगमि गामे बहिरकुडुंब परिवसइ, थेरो थेरी य ताणं पुत्तो तस्स भज्जा, सो पुत्तो हल वाहेइ, अन्नया पंथे वच्चंतो पंथएहिं पंथे पुच्छिते भणइ-घरजायगा एए माझ बइल्ला, ततो खेत्तंगतो,भजाए तस्स भत्तमाणियं, तीसे कहेइ-जहा एए मझ बइल्ला सिंगिया, सा भणइ-लोणियं वा अलोणियं वा तव मायाए रखें, नाहं जाणामि, तीए घरे आगंतूण सासुयाए कहियं, सा कत्र्तती चिट्टइ, ततो सा भणइ-थुलं वा वरड वा भवउ मे सुत्तं, थेरस्स पोतं होहिइ, ततो थेरो आगतो, सो| किर तिलरक्खगो आसि, ततो थेरीए भणियं-जहा एवं ते वह भणति, ततोमए भणियं-थुलं वा वरर्ड वा भवतु, थेरस्म पोत्तं होहिइत्ति, घेरो भणइ-पाई ते जिएण एगपि तिलं न खामि, एस्थ तेसिं तं वयर्ण अन्नहा कहताणमणणुजोगो, तहेव कहताणं पुण अणुजोगो, एवं जइ एगवयणं परूवियर्व दुवयणं परवेइ दुवयणे वा एगवयर्ण तो अणणुयोगो, अह तहेब परुवेइ तो अणुयोगो । इदानीं ग्रामेयकोदाहरणं भाव्यते-एर्गमि नगरे एगा महिला, सा भत्तारे मए कट्ठाईणिवि ता विइकीयाणि, घिच्छामोत्ति ता जीवमाणी खुडुगं पुत्री घेत्तुं गामं गया, सो दारतो वहृतो मायरं पुच्छइकहिं मम पिया, तीए सि?-जहा मतो इति, ततो सो पुणो पुच्छइ-केण पगारेण सो जीवियाइतो, सा भणइ-ओ ex. wwwjainitiorary.org ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३०], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक उपोद्धात- नियुक्तिः ॥१३४॥ = दीप अनुक्रम लग्गाए, तो खाई अहपि ओलग्गामि, साभणइ-न जाणिहिसि ओलग्गिउं, ततो पुच्छइ-कई ओलगिजइ, भणितो द्रव्याधनुविणयं करेजासि, केरिसो विणतो, भणइ-जोकारो कायवो नीयं चंकमियई छंदाणुवत्तिणा होयई, ततो सो नगरं योगादी पहावितो, अंतरा अणेण वाहा मयाण गहणत्वं निलुक्का दिट्ठा, ततो सो वड्डेणं सद्देणं तेसिं जोकारोत्ति भणइ, तेण| दृष्टान्ताः सद्देण मया पलाया, ततो तेहिं रुद्वेहिं सो घेनुं पहतो, सदभावो णेण कहितो, ततो तेहिं भणियं-जया एरिसं पेच्छे-18 जासि तया निलकंतेहिं नीयं आगंतवं, न य उल्लविजइ, सणियं वा, ततो अग्गे गच्छंतेण रयगा दिवा, ततो निलुकतो सणिय सणिय पइ, तेसिं च रयगाणं पोत्तगा हीरंति, ते थाणं बंधिऊण रक्खंति, सो निलुकतो एइ, एस चोरोत्ति तेहिं गहितो बंधितो पिट्टितो य, सम्भावे कहिते मुको, तेहिं भणियं-एवं भणिजासि-सुद्धं नीरयं निम्मलं च । भवतु, असं च पडल, ततो सो नयरसमुहं एइ, एगत्य वीयाणि वाविजंति, तेण भणिय-भट्ठि! सुद्धं नीरयं भवतु, ऊसो य पडल, ततो तेहिं किमकारणवेरिओ एवं भासइत्ति गहितो बंधितो पिट्टितो य, सम्भावे कहिते मुक्को, भणितो य-परिसे कजे एवं भण्णइन्चहुं एरिसं भवतु, भंडिं भरेह एयस्स, ततो पुणो नगरसम्मुहं एति, एगत्थ मडयं नीणिज्जतं दई भणति-बहुं एरिसं भवतु, भंडिं भरेह एयस्स, तत्थवि गहितो पिट्टितो य, सम्भावे कहिते मुक्को, भणितो य-परिसे कजे।। एवं वुच्चइ-एरिसेणं अच्चंतवियोगो भवतु, अन्नत्थ विवाहे भणइ-अञ्चंतविओगो भवउ, तत्थवि पिट्टिओ, सम्भावे ॥१३॥ कहिए मको. भणितो य-एरिसे कज्जे एवं भण्णइ-निच्छ एरिसयाणि पेच्छंतया होह, सासयं च एवं हवतु, ततो गच्छंतो। एगत्थ नियलबद्धं दंडियं दद्दण एवं भणति-निच्छ परिसयाणि पेच्छंतया होह, सासयं च भे एवं हवउ, तत्थवि गहितो || = land LO ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३१], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम पिद्वितोय, सम्भावे कहिते मुको, भणितो य-एरिसे कजे एवं मणिजासि-एबातो मे हुँ मुक्तो स्वरचि, क्तो गातो एगस्थ केइ मिचा संघाडयं करिते पिच्छा, तत्थ भणइ-एयातो मे लहुं मोक्खो भवन, तस्ववि पिहिजो, सम्भावे कहिए मुको, गतो नगरे, तत्थ एगस्स दंडिकुलपुत्चगस्स आलीणो, सो सेवंतो अच्छा, अभया दुम्भिक्खे तस्स कुलपुचस्स अंबिखल्लिया सिद्धिल्लिया, तस्स भवाए सो भण्णति-जाहि महाजणमझातो सदावेहि बेण मुंजइ, सीपला अपाओग्गा भविस्सइ, तेण गंतुं महायणमज्झे बडेणं सहेणं भणितो-एहि एहि सीयली किर होई अंबखलिया, सो लज्जितो, घरं गएण अंबाडितो, भणितो य-एरिसे कने नीयमातूणं कपणे कहिज्जइ, अन्नया परं पलिच, तस्स भज्जाए भणितोलहुं सहावेह ठकुरंति, ततो सो तत्थ गतो सणिय सणियं आसन्नं होऊण कपणे कहेइ, जाव सो तत्थ गच्चा सणियं सणियं आसन्नं होऊण अक्सा पयट्टो ताव घरं सर्व झामियं, तत्यवि अंबाडितो, भणितो य-परिसे कजे न आगम्मइ, नवि अक्खाइज्जइ, किंतु अप्पणा चेव पाणियं वा गोमुत्तं वा आदि कार्य गोरसंपि छुल्मइ ताव जाव विझाइ, अन्नया तस्स दंडिपुत्तगरस पहाइऊण धूर्वितस्स धूमो निग्गच्छइत्ति गोमुत्तं छुढं गोमुत्ताइयं च । एवं जो अनमि कहियो अकं कहे। तो अणणुयोगो भवति, सम्म कहेजमाणे अणुयोगों' इति, द्वितीयं च वचनाननुयोगानुयोगविषयमुदाहरणं वचनानुयोगस्य गरीयस्त्वख्यापनार्थम् ॥ यदुक्तम्-'सप्तैव भवन्ति भावाननुयोगानुयोगविषयाण्युदाहरणानि तानि प्रतिपादयति सावगभजा सत्सवईए य कोंकणगदारए नउले । कमलामेला संबस्स साहसं सेणिए कोचो ॥११॥ प्रथममुदाहरणं आवकभार्या १ द्वितीयं सातपदिकः पुरुषः २ तृतीयं कोहणदारका चतुर्व नकुला ४ पञ्चमं Indon For Prath & Personal un any ~2844 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥१३५॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १३१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कमलामेला ५ पष्ठं शांबस्य साहमं ६ सप्तमं श्रेणिकस्य षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् कोपः ७ । तत्र श्रावकभार्योदाहरणमिदम्- सावगेण नियभज्जाए वयंसिया उन्भडरूवा आभरणालंकार विभूसिया दिट्ठा, अज्झोववन्नो, एयं चिय सुमरिडं दुब्बलो भवइ, महिलाए पुच्छितो न कहेइ, निबंधे सिहं, तीए भणियं-आणेमि, ताहे संझासमए तेहिं चैव क्त्थाभरणेहिं अप्पाणं नेवस्थित्ता अंधकारे अलीणा संबुत्था, पच्छा बितियदिवसे अद्धिई पगतो वयं खंडियंति, ततो ताए भणियं वयं न खंडियं, अहं चैवागया, साभिन्नाणं पत्तियावितो, एवं जो ससमयवत्तवयं परसमयवत्तत्रयं भणइ, परसमयवत्तवयं वा ससमयवत्तवयं, उदइयभावलक्खणेण उवसमियं भावं परूवेद उवसमियभावलक्खणेण वा ओदइयं, ताहे | अणणुयोगो, सम्मं परुविज्जमाणे अणुयोगो तथा सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति साप्तपदिकः, तदुदाहरणमिदं - एगंमि पश्चंतगामे एगो अलग्गयमणूसो साहुमाहणाईणं न सुणेइन वा समीयमल्लियइ, नावि रोज्जं देइ, मा मम धम्मं कहेहिंति, माऽहं धम्मं सोचा सहओ होहामित्ति, अन्नया तं ग्रामं साहुणो आगता, पडिस्सयं मग्गति, ताहे गोलिएहिं सो न देइत्ति सोवि एएहिं पवंचितो होउ इति तस्स घरं दंसियं, जहा एरिसो तारिखो तुम्भ भत्तो सावगोत्ति एयस्स घरं जाह, ताहे साहूणो घरं गया, दिट्ठो सो, पर न चैव आढाइ, तत्थ एक्केण साहुणा भणियं-जह न चेव सो एसो, अहवा पवंचियामोत्ति, तं सोऊण तेण ते साहूणो पुच्छिता, कहियं जहा अम्ह कहियं एरिसो तारिलो वा सावगोत्ति, सो चिंतेइ अहो अकर्ज, ममं ताव पश्चंतु, तो किं साहुणो पर्वचंतित्ति, ताहे मा तेसिमसारया होउत्ति भगइ - देमि पडिस्सयं एकाए ववत्थाए, जइ मम धम्मं न कहेह, साहूहिं भणियं --एवं होउत्ति, दिनं घरं, वरसारत्ते निवत्ते आपुच्छंति-अम्हे विहरामो, ताहे Jan Education Internationa For Pitate & Personal Use Only 285~ भावानुयोगादौ हष्टान्ताः ॥१३५॥ jainslibrary.org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३१], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम |पयहा साहुणो अन्नत्य विहरिलं, तेण अणुबइया, ततो सीमापजते धम्मो कहितो, सो भणइ-भय इत्य न किंचि मूल-1 |गुणं उत्तरगुणं मज्जमहुमंसविरई वा घेत्तुं तीरइ, पच्छा साहूहिं सत्तवइयं वयं दिन्नं, मारेउकामेणं जावइएणं कालेणं । | सत् पया ओसकिजति एवइयं कालं पडिक्खिई मारेयचं, संबुझिस्सइत्तिकाउं, गया साहुणो । अन्नया सो चोरियाए गतो, अवसउणेणं नियत्तो रत्तिं सणियं घरं एइ, तदिवसं च तस्स भगिणी आगतेलिया, सा पुरिसनेवत्यं काऊणं भाजजायाए समं नडपेक्खिया गया, चिरेण आगया, निदकताओ तहेव एकमि चेव सयणे सहयातो, इयरो य आगतो, ततो पेच्छइ, परपुरिसोत्ति असिं करिसित्ता आहणामित्ति, वयं सुमरियं, ठितो सत्तपर्यतरं, एयमि अंतरे तस्स भगिणीए । बाहा भजाए अकंतिया, तीए दुक्खाविनंतीए भणियं-हला अवणेहि बाहातो मे सीसं, तेण सरेण नाया-भगिणी मे एस पुरिसनेवत्थिया इति, लज्जितो जातो, अहो मए मणागेण अकर्ज न कयंति, उवणतो जहा सावगभज्जादिहते, सो संवुद्धो पाइतो। कोंकणकदारकोदाहरणमिदम्-कोंकणगविसए एको दारगो, तस्स माया मता, पिया से अन्नमह लियं न लहर, सवत्तिपुत्तो अच्छा इति, अन्नया सपुत्तगो कठ्ठाणं गतो, ताहे अणेण चिंतियं-जाव एसो जीवइ ताबा दि महिलं न लभामि, तो मारेमि एयमिति कंडं पक्खित्तं, आणत्तो-वच्च कंडं आणेहि, सो पहावितो, अन्नेण कंडेण विद्धो। चेडेण भणियं-किं तए कंडं खितं ?, विद्धोमित्ति, पुणोवि खितं, रडतो मारितो, पुदमयाणतेण विद्धोमित्ति अगणुयोगो, मारिजामित्ति एवं नाए अणुयोगो, अहवा सारक्खणिज्जं मारेमित्ति अणणुयोगो, सारक्खंतस्स अणुयोगो, एवं अन्नं परूवेयर्ष अन्नं पर्वतस्स अणणुयोगो, जहाभूतं परूवेमाणस्स अणुयोगो । नकुलोदाहरणमिदम्-एगा चार-12 PokX2% I tan Education inarnational For Prath & Personal un any ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥१३६॥ Jan Education Inderna “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १३१], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ष्टान्ताः भडिया गब्भिणी जाया, अन्नावि नउलिया गन्मिणी चेव, तत्य एगाए एव रतीए समगं ताओ पहुंचातो, ततो ४ भावानुयोचारभडीए चिंतियं मम पुत्तस्स रमणतो भविस्सइ, तस्सवि नउलस्स पीइयं खीरं च देइ, अक्षया तीसे अविरइयाए गादी - कंडतीए जत्थ मंचुल्लियाए सो दिकरओ उयारितो तत्थ सप्पेण घडित्ता सइतो मतो, नउलेणं मंचुलियाए ओवरंतो दिट्ठो, ततो तेण खंडाखंडीकतो, ताहे सो तेण रुहिरलित्तेण तुंडेण तीसे अविरइवाए मूढं गंतूण चाडु करे, ताहे नायं पण मम पुत्तो खइतो, मुसलेण आहणित्ता मारितो, ताहे धावंती गया पुरास्स मूलं, जाव सप्पं खंडाखंडी कयं पासइ, ताहे दुगुणतरं अद्धिई पगता, तीसे अविरइयाए पुषिं अणणुयोगो पच्छा अणुओगो, एवं जो अनं परुवेववं अनं परूवे तस्स अणणुयोगो, जो पुण तं चैव परूबेड़ तस्स अणुयोगो । कमलामेोदाहरणं - चारवईए बलदेवपुत्तस्स निसस्स पुसो सागरचंदो रूवेणमुकिडो, सवेसिं संबाईणं इट्ठो, तत्थ य वारवतीए वत्यवस्स चेव अन्नस्स रण्णो कमलामेला नाम घूया, उकिडसरीरा, सा य उग्गसेणन तुयस्स घणदेवस्स वरेलिया, इतो व नारदो सागरचंदस्स परे समागतो, अब्भुट्ठितो य सागरचंदेण, ततो उवविद्धं समाणं सागरचंदो नारयं पुच्छइ-भयवं । दिट्ठं किंचि जच्छेर १, सो भइ-मामे दिनं, कहिं १, इहेब बारवतीए कमलामेला नाम दारिगा, सागरचंदो पुच्छर करसह सा दिनिया 1, नारदो मणइ-आमं, ततो सो भणइ कई मम ताप समं संपओगो हुजा १, नारदो न ग्रणामिति मणिव गतो, सो व सागरचंदो तं सोऊण नदि आसने नवि सयणे भिदं लभह, तं दारियं फलए लिहतो नामं च गेव्हंतो अच्छर, नारदोबि कमलामेलाप अंतियं गतो, ताप पुच्छितो—दि किंचि दिपुचमरवंति !, सो भण-दुवे विद्वानि-कवेन सागर For Pitate & Personal Use Only 287~ ॥१३६॥ jainslibrary.org Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३१], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: R प्रत सूत्रांक . दीप अनुक्रम चंदो विरूवत्तणेण धणदेवो, ततो सागरचंदे मुच्छिता धणदेवे विरत्ता, नारएण समासासिया, तेण गंतुमक्खियं सागरच-18 दस्स जहा तुम सा इच्छतित्ति, ताहे सागरचंदस्स माया अन्ने य कुमारा आदन्ना-परइ नूणं सागरचंदोत्ति, संबो आगतो जाव पेच्छइ सागरचंदं विलवमाणं ताहे अणेण पच्छतो ठाइऊण अच्छीणि दोहिवि हत्थेहिं पच्छाइयाणि, सागरचंदेण भणियं-कमलामेला इति, संवेण भणियं-नाहं कमलामेला, किंतु अहं कमलामेलो, ततो सागरचंदेण भणियं-आमं तुम दाचेव ममं विमलकमलदललोललोयणिं कमलामेलं मेलेहिसि, ताहे तेहिं कुमारेहिं संबो मज पायइत्ता अब्भुवगच्छावितो, विगतमदो चिंतेइ-अहो मए आलो अब्भुवगतो, इयाणिं किं सक्का काउं', निवहियबंति पज्जुन्नं पन्नतिं विजं पाडिहारियं मग्गइ, तेण दिन्ना, ततो कमलामेलाए विवाहदिवसे सविज्जाए पडिरूवं विउविऊणमवहरिया कमलामेला, रेवते उज्जाणे तीए सह विवाह काऊणं सधे मिलिया उवललंता अच्छति, विजापडिरूवंपि विवाहे वट्टमाणे अट्टहासं काऊण उप्पइयं, ततो जातो खोभो, न णज्जइ केणइ हरियत्ति, नारदो पुच्छितो भणइ-रेवइए उज्जाणे दिवा, केणवि | विजाहरेण अवहरिया इति, ततो सवलवाणो निग्गतो कण्हो, संबो विजाहरवं काऊण संपलग्गो जुज्झिउं, सवे सेसा राइणो पराइया, ततो कण्हेण सद्धिं लग्गो, ततो जाहे अणेण नातो रुद्वो तातोत्ति ततो से चलणेसु पडितो, ततो सैबेण भणियं-एसा अम्हेण गवक्खेणं अप्पाणं मुयंती दिट्ठा, ततो कण्हेण उग्गसेणो अणुगमितो, पच्छा इमाणि भोगे मुंज-11 माणाणि विहरंति, अन्नया भयवं अरिहनेमिसामी समोसरितो, ततो सागरचंदो कमलामेला य सामिसगासे धम्म सोजण गहियाणुवयाणि सावगाणि संवुत्ताणि, ततो सागरचंदो अहमिचउद्दसीसु सुन्नघरेसु वा सुसाणेसु वा एगराइयं पडिम ठाइ, A%AA%AR land ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १३१ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ १३७ ॥ घणदेवेणं एय नाऊण तंबियातो सूइतो घडावियातो, ततो सुनघरे पडिमं ठियस्स बीससुबि अंगुलीनहेसु अक्लोडियातो, ततो सम्ममहियासेमाणो वेयणाभिभूतो कालगतो देवो जातो, ततो विश्यदिवसे गवेसंतेहिं दिट्ठो अकंदो * जातो, गवेसंतेहिं सूईतो दिट्ठातो, तंबकुट्टगसगासे उचलद्धं धणदेवेण कारावियाओ, रुसिया कुमारा धणदेवं मग्गंति, दोण्हवि बलाणं युद्धं संपलग्गं, ताहे सागरचंदो देवो अंतरे ठाऊण उवसामेइ, पच्छा कमलामेला भयवतो सगासे पद्मइया, एत्तियं पसंगेण भणियं एत्थ सागरचंदस्स संवकुमारं कमलामेलं मन्नमाणस्स अणणुयोगो, नाहं कमलामेलत्ति भणिए अणुयोगो, एवं जो विवरीयं परूवेइ तस्स अणणुयोगो, जहाभावं परूवेमाणस्स अणुयोगो । संवस्स साहसमुदाहरणं- अंबवती कन्हं भणइ एकावि मए पुत्तस्स अणाडिया न दिट्ठा, कण्हेण भणियं - अज्ज दाएमि, ताहे कण्हेण जंबवईए आभीरीरूवं कयं सयं आभीरो जातो, दोवि तकं घेत्तुं बारवइमज्झमोइण्णाणि महियं विकिणंति, संत्रेण दिट्ठाणि, आभीरी भणिया - एहि महियं किणामिति, सा अणुगच्छइ, आभीरो मग्गेण एइ, सो एकिलयं देउलियंमि पविसेइ, सा आभीरी भणइ-नाहं पविसामि, किंतु मोल्लं देहि, जइ इच्छा तो पत्थ चैव द्वितो तर्क गेण्ड्राहि, सो भइ-अवस्सं पइसियां, सा नेच्छइ, ताहे हत्थे लग्गो, आभीरो उद्धाइतो, संवेण समं संपलग्गो, संबो जुद्धमहिद्वितो, आभीरो वासुदेवो जातो, इयरीबि जंबवती, ततो संबो पियरं मायरं च पासिऊण लज्जितो अंगुट्ठि काऊण पलाइतो, बिइयदिवसे मड्डाए आणिजंतो खीलगं घडेइ, वासुदेवेण पुच्छितो- किं एयं घडेहिसि १, सो भणइ-जो पारियासियं बोलं कहेहि तस्स मुहे खोडिज्जिहिर, पत्थ पढममणणुयोगो, नाप अणुयोगो, एवं जो विवरीयं परुवेह तस्स अणणुयोगो, इयरस्स अणुयोगो। श्रेणिक कोपोदाहरणम् For Pivate & Personal Use Only 289~ भावानुयोगादी - ष्टान्ताः | ॥ १३७ ॥ jainslibrary.org Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Insem “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१३२] भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | रायगिहे नयरे सेणिको राया, चेल्लणा तस्स भज्जा, सा वज्रमाणसामिमपच्छिमतित्ययरं वंदित्ता वेयालियवेलाए माइमासे | नवरं पविसइ, अंतरापहे य साहू पडिमा पडिवनतो दिट्ठो, तीए रतिं सुतियाए किहवि हत्थो लंबितो, जया सीएण गहितो तथा चेतियं, हत्थो समिज्झे पवेसितो, तस्स इत्थस्स तणएण सर्व सरीरं सीएण गहियं, पच्छा ताए | भणियं - स तबस्सी किं करिस्सइ संपयं ?, पच्छा सेणिएण चिंतियं-संगारदिनतो कोई, रुहेण पभाए अभयो भणितोसिग्धमंतेडरं पलीवेहि, सेणिको गतो सामिसगासं, अभएणं हत्थिसाला पलीविया, सेणिको सामिं पुच्छर - किं चेहणा एगपत्ती अणेगपत्ती १, सामिणा भणियं एगपत्ती, ताहे मा डज्झिहित्ति तुरियं निग्गतो, अभयो य निप्फिडइ, सेणिएण भणियं-पलीवियं १, अभयो भणति आमं, सेणितो भणइ-तुमं किं न पडितो ?, भणइ अहं सामिमूले पवइस्सामि किं मम अग्गिणा १, ताहे अभएण चिंतियं मा विणस्सिहिह, पच्छा भणियं-न डज्झइ, सेणियस्स पेलणाए पुर्वि अणणुयोगो, पुच्छिए अणुयोगो, एवं विवरीयपरूवणे अणणुयोगो, जहाभावे परूविए अणुओगो, ॥ एवं तावदनुयोगः सप्रतिपक्षः प्रपञ्चेनोको, नियोगोऽपि प्राक्प्रतिपादितस्वरूपमात्रः सोदाहरणोऽनुयोगवदवसेयः, साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तभाषादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह कट्ठे पोत्थे चिन्ते सिरिघरिए बोंड देसिए चैव । भासग विभासए वा वित्तीकरणे य आहरणा ॥ १३२ ॥ काष्ठ इति काष्ठविषयो दृष्टान्तः, यथा काष्ठे कश्चित् रूपकारः स्वल्पाकारमात्रं करोति, कश्चित् स्थूलावयवनिष्पतिं, कश्चित्पुनरशेषाङ्गोपाङ्गाद्यवयवनिष्पत्तिं, एवं काष्टकल्प सामायिकादिसूत्रं तत्र भाषकः परिस्थूरमर्थमात्रमभिधत्ते For Pitate & Personal Use Only ~ 290~ www.jainlibrary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं १, नियुक्ति: [१३२], भाष्य , वि०भागाथा [१४२६-१४२७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम उपोद्धात-16 यथा समभावः सामायिकमिति, विभाषकस्तु तस्यैवानेकधा अर्थमभिधत्ते, यथा समभावः सामायिक, समानां वा भाषकादिनियुक्तिः ज्ञानदर्शनचारित्राणां वाऽऽयः समायः समाय एव सामायिक, स्वार्थे इकणप्रत्यय इत्यादि, तथा व्यक्तिकरणशीलो । | स्वरूपम् व्यक्तिकरः, यः खलु निरव शेषव्युत्पत्तिअतिचारानतिचारफलादिभेदभिन्नमधै भाषते स व्यक्तिकर इति भावः, सच ॥१३८॥ निश्चयतः चतुर्दशपूर्वधर एव, इह भाषकादिस्वरूपान्याख्यानात् भाषादय एवं प्रतिपादिता द्रष्टव्याः, भाषादीनां | तत्मभवत्वात् , उक्तं च- 'पढमो रूवागारं धूलावयवोवदंसणं वीओ । तइतो सवावयवो निद्दोसो सबहा कुणइ ॥१॥ कट्ठसमाणं सुत्तं तदत्यरूवेगभासणं भासा । थूलट्ठाण विभासा सबेसि वत्तियं नेयं ॥२॥ (वि.१४२६-७) सम्पति पुस्तविषयो दृष्टान्तः, यथा पुस्ते कश्चिदाकारमात्रं करोति, कश्चित्परिस्थूलावयवनिष्पत्ति, कश्चित्वशेषावयवनिष्पत्तिमिति, दार्शन्तिकयोजना प्राग्वत् । इदानी चित्रविषयो दृष्टान्तः, यथा चित्रकर्मणि कश्चिद्वर्तिकाभिराकारमात्रं करोति, कश्चित् हरितालादिवर्णो दं, कश्चित्त्वशेषपर्यायनिष्पादयति, दान्तिकयोजना पूर्ववत् । श्रीगृहिकोदाहरणम्-श्रीगृहं-भाण्डागारं तदस्यास्तीति 'अतोऽनेकस्वरादिति इकप्रत्ययः, तदृष्टान्तभावना इयम्-कश्चिद्रनानां भाजनमेव वेत्ति, इह भाजने रनानि सन्तीति, कश्चिजातिमानादि, कश्चित्पुनर्गुणानपि, एवं प्रथमद्वितीयतृतीयकल्पा भाषकादयो द्रष्टव्याः। तथा 'बोण्ड मिति पद्म, तद्यथा ईषद्भिन्नमर्द्धभिन्नं विकसितरूपमिति त्रिधा भवति, एवं भाषाद्यपि क्रमेण योजनीयम् । इदानी देशिक-18/॥१८॥ विषयमुदाहरणं, देशनं देश:-कथनमित्यर्थः सोऽस्यास्तीति देशिका, यथा कश्चिदेशिकः पन्थानं पृष्टः सन् दिग्मात्रमेव कथयति, कश्चित्चद्व्यवस्थितनाममगरादिभेदेन, कश्चित्पुनस्तदुत्थगुणदोषभेदेन कथयति, एवं भाषादयोऽपि क्रमेण 2 I JanEthicason immon For Prvono a Personal torony wjainelibrary.org ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३३], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक = दीप अनुक्रम योजनीयाः। तदेवं तावद्विभाग उका, सम्पति द्वारविधिमवसरप्रातमपि विहाय व्याख्यानविधिः प्रतिपाद्यते, अथा चतुरनुयोगद्वारानधिकृत एव व्याख्यानविधिस्ततः किमर्थ प्रतिपाद्यते इति ।, उच्यते, शिष्याचार्ययोः सुखश्रवणसुखव्याख्यानप्रवृत्त्या शास्त्रोपकारार्थम् , अथवा चतुरनुयोगद्वाराधिकृत एव व्याख्यान विधिः, अनुगमेऽन्तर्भावाद्, अन्तर्भावश्च व्याख्याङ्गत्वादित्यभिहितमेतत् प्रागपि, आह-यद्यसावनुगमाङ्गं ततः किमवतार्य द्वारविधेः प्राक् प्रतिपाद्यते , उच्यते, इह द्वारविधिरपि बहुवक्तव्यस्ततो मा भूदिहापि व्याख्यानविधिविपर्यय इत्यत्रैवाचार्यशिष्ययोर्गुणदोषाः प्रतिपाद्यन्ते, येनाचार्यों गुणवते शिष्यायानुयोगं करोति, शिष्योऽपि गुणवदाचार्यसन्निधावेव शृणोतीति, ननु यदि व्याख्यानविधिरनुगमाङ्गत्वादिहावतार्य प्रोच्यते तर्हि द्वारगाथायामप्येवं कस्मान्नोपन्यस्तः, उच्यते, सूत्रव्याख्यानस्य गुरुत्वख्यापनार्थ, यथा विशेषतः सूत्रव्याख्यायामाचार्यः शिष्यो वा गुणवान् अन्वेष्टव्यः, इत्यलं विस्तरेण । व्याख्यानविधि प्रतिपादयति गोणी चंदणकंधा चेडीओ सावए बहिरगोहे । टंकणओ ववहारो पडिवक्खे आयरिय-सीसे ॥१३३ ॥ __ आचार्य शिष्ययोर्योग्यायोग्यविचारे गौणी-गौस्तदुदाहरणं वक्तव्यम् , तथा चन्दनकन्था तथा चेव्या-जीर्णाभिनवश्रेष्ठिपुत्रिके, तथा श्रावकः तथा बधिरगोहा-बधिरपुरुषः तथा टंकणव्यवहारः षष्ठ उदाहरणम्, एतेषु षट्सूदाहरणेषु शिष्याचार्ययोः साक्षादयोग्यत्वमभिधाय ततः प्रतिपक्षे योग्यत्वं योजनीयं, योग्यत्वं वा साक्षादभिधाय ततः प्रतिपक्षेऽयोग्यत्वमायोज्यम्, अथवा एषां षषणामुशाहरणानां मध्ये योग्यत्वायोग्यत्वयोः कमेणैकमुदाहरणमाचार्यस्य एक शिष्य स.२४ JanEduration inoornar For PiaNAParamal-Un Dil ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३३], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सपोद्धात-स्त्येिवं योजना कार्या, तत्राय गोटष्टान्त:-एगम्मि नवरे एगेण कस्सइ पुत्तस्स समासे गावी रोगिया रहिउँपि असमत्था व्याख्यानियुक्तिः निविट्ठा चेव पकिणिया, सो तं पडिविक्किणइ, ततो कयगा भणंति-पेच्छामो से गइपयारं दुद्धं च जोएमि ता किणीहामि, नविधी सो भणइ-मए एवंविहा उवविट्ठा चेव गहिता, जइ पडिहाइ तुम्हेवि एवमेव गिण्हह, इयरे भणंति-जइ तुमं बोदहो गवादि॥१३॥ ताकि अम्हेवि बोद्दहा, वयं न गेण्हामो, एवं जो आयरिओ पुच्छितो परिहारं दाउमसमत्थो भणइ-मएवि एवं सुयं,8 दृष्टान्ताः तुम्हेवि एवं सुणहत्ति, तस्स सगासे न सोय, संसइयपयंमि मिच्छत्तसंभवातो, जो पुण अविकलगोविकिणगो इवटा गा.१३३ अक्खेवनिण्णयपसंगपारगामी तस्स सगासे सोयबं, सीसोवि अविचारियगाही पढमगोविक्षिणगोव सो य अजोग्यो, इत्यरो अ जोग्गोत्ति । चन्दनकन्थोदाहरणम्-बारयईए वासुदेवस्स तिनि भेरीओ, तंजहा-संगामिया अब्भुइया कोमुइया, तत्र प्रथमा सङ्क्रामकाले समुपस्थिते सामन्तादीनां ज्ञापनार्थ वाद्यते, द्वितीया पुनरागन्तुके कमिश्चित्प्रयोजने | समुद्भूते लोकानां सामन्तादीनां च परिज्ञापनाय, तृतीया कौमुदीमहोत्सवाद्युत्सवज्ञापनार्थ, तातो तिण्णिवि गोसीसचंद-10 पणमइतो देवतापरिग्गहियातो, तसं चउत्थी मेरी असिवप्पसमणी, तीसे उप्पत्ती कहिजइ-तेणं कालेणं तेणं समपणं सको देविंदो, सो तत्थ देवलोगे सुरमझे वासुदेवस्स गुणकित्तणं करेइ-अहो उत्तमपुरिसा एए अवगुणं न गिण्हंति, नीएण य| जुद्धेण न जुझंति, तत्थ एगो देवो असदहतो आगतो, वासुदेवोऽवि जिणसगासं बंदगो पडितो, सो अंतरा कालसुणयरूवं | ॥१९॥ मययं विउवह दुम्भिमेघ, तस्स मंधेण सबो लोगो पराभग्गो, वासुदेवेण दिट्ठो, भणियं चऽणेण-अहो इमस्स कालसुणयस्स पंडुरा दंता मरगयभायणनिहित्तमुत्चावलीव रेहिंति, देवो चिंतेइ-सच मुणग्माही, ततो वासुदेवस्स आसरयणं दीप अनुक्रम AKAA%2-%COM 443-AAACTS: land ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १३३], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गहाय पहावितो, सो व वंदुरापालपण नातो, तेण कूवियं-जहा आसो हीरह, ततो कुमारा रायाणो अ निग्गया, ते | देवेण इयविप्पहया काऊण घाडिया, वासुदेवो निम्मतो, भणइ-कीस मम आसरयणं ईरसि ?, एसो मम आसो तुम्भ न होइ, देवो भणइ-इमं जुज्झे पराजिणिऊण गिण्हाहि, वासुदेवेण भणियं-वाढं, किह जुज्झामो १ तुमं भूमीप अहं च रहे तो रह गेण्ह, देवो भणइ-अलं मे रहेण, एवं आसो हत्थी पडिसिद्धो, वायाजुद्धाइयाई सवाई पडिसेहेइ, तो खाई केण जुज्झेण जुज्झियवं १, देवो भणइ- अहिट्ठाणजुद्धेण, वासुदेवेण भणितं - पराजितोऽहं, नेहि आसरयणं, नाहं नीयजुद्धेण जुज्झामि ततो देवो तुट्टो समाणो भणति वरेहि वरं किं ते देमि १, वासुदेवेण भणियं -असिवोवसमणिं मेरि देहि, तेण दिना, एसा तीसे भेरीप उप्पत्ती । ताहे सा रुपडं छण्हं मासाणंते वाइजइ, तत्थ जो सहूं सुणेइ तस्स पुन्वुप्पन्ना रोगा उक्समंति, नवगावि छम्मासे न उप्पजंति, तत्थऽनया कयाइ आगंतुको वाणियगो आयातो, सो य अतीव दाहज्जरेणाभिभूतो, तं मेरीपालगं मणइ-गेण्ह तुमं सयसहस्सं मम एत्तो पलमेतं देहि, तेण लोमेण दिन्ना, तत्थऽन्ना चंदणथिग्गलिया दिन्ना, एवमन्त्रेणवि अन्नेणवि मग्गितो दिन्नं च सा सबा चंदणकंथा जाता, सा अन्नया कयाइ असिदे वासुदेवेण तालाविवा, जाव तं चैव सभं पूरेइ, तेण भणियं-जोएह मा मेरी विणासिया होज्जा, ताहे जोइया दिट्ठा कंथीकया, हा भेरी सच्चा विणासिया, तओ सो भेरीपालो ववरोवितो, अशा भेरी अट्टमभत्तेण आराहइत्ता लद्धा, अन्नो भेरीपालो कतो, सो आयरेण रक्खड़, सो पूतो। एवं वः शिष्यः सूत्रमर्थं वा परमतेन स्वकीययन्थान्तरेण वा मिश्रवित्वा कन्यां करोति अथवा विस्मृतं सूत्रमर्थं वा सुशिक्षितः स्वयमेवाहं नान्यं कञ्चित्कदाचित्किमपि पृच्छामीत्यकारेण For Pitate & Personal Use Only ~ 294~ www.jainslibrary.org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H नियुक्ति: [१३३], भाष्य , वि०भा०गाथा [१४३८-१४३९], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत नियुक्ति सूत्रांक ॥१४॥ दीप अनुक्रम परमतादिभिरपि मिश्रयित्वा सम्पूर्ण विदधाति सोऽनुयोगश्रवणस्य न योग्यः, एवं कन्धीकृतस्त्रार्थों गुरुरपि नानुप्रयोगभाणस्य योग्यः, उक्तं च-"जो सीसो सुत्तत्थं चंदणकथं व परमयाईहिं । मीसेइ गलियमहवा मिक्खियमाणेण स न जोग्गोनविधी १॥ कंथीकयसुत्तस्थो, गुरूवि जोग्गोन भासियवस। अविणासियसुचत्या, सीसायरिया विणिदिहाशा" (वि.१४३८-९) गवातिअत्र 'सिक्खियमाणेण' इति सुशिक्षितोऽहं स्वयमेव नान्यं पृच्छामीति मानेन, गलितं-विस्मृतं सम्पूर्ण करोति इत्यर्थः, दृष्टान्साः शेष सुगमम् । सम्प्रति चेष्टीदृष्टान्त उच्यते-वसंतपुरे नयरे जुण्णसेद्विधूया अभिनवसेद्विधूया य, वासिं परोप्परं पीई, तहवि: गा. १३३ से जुण्णसेद्विधूयाए अस्थि वेसो, जहा-अम्हे एएहिं उपट्टियाणि, ताओ अन्नया कयाइ मजिलं गयातो, तत्थ जा सा नवगस्स सेट्ठिस्स धूया सा तिलगचोद्दसगेण अलंकारेण अलंकिया, सा आभरणाणि तडे ठवित्ता ओइन्ना, जुन्नसेटि-18 धूया ताणि गहाय पहाविता, इयरा जाणइ-खेड़े करेइ इति, तीए जुष्णसेहिधूयाए मायापिऊण सिहं, ताणि भणति-16 तुहिका अच्छाहि, नवगसेहिधूया व्हाइत्ता निययं घरं गया, पिउमाऊणं कहियं, तेहिं मग्गिते न दिति, अम्हे उबहिः। याणित्ति परिभूताई, किं आभरगाणिवि अम्हाणं नत्थि ?, रायकुळे ववहारो जातो, नथि सक्खी, तत्थ कारणिगा|| भणंति-वेडितो वाहिजंतु, वाहित्ता भणिया-जइ तुभच्चयं ता आविद्ध, ताहे सा जुण्णसेद्विधूया के हत्थे तं पाए। आविधेइ, जं पाए तं हत्थे, न याणेइ, तं च से असिलिई जायं, वाहे तेहिं नार्य, जहा-एतीए न होति, ताहे इयरी भणिया-तुम आविंध, ताए कमेण आविड़, सिलिटुं च से जाय, भणिया य-मेल्लेहि, ताहे तहेव निचं आमुचतीए परिवाडीए मुकं, ताहे सो जुण्णसेट्टी। दंडितो, जहा सो एगभवियं मरणं पत्तो एवमायरिोविजं अन्नत्य तमनहिं ॥१४॥ janEduration inooral ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H. नियुक्ति: [१३४,१३५], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१४४०-१४४३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: O प्रत सूत्रांक | संघडेइ, अन्नवत्तवयातो अन्नस्थ परूवेइ, एवं सो संसारदंडेण दंडिजा, तारिसस्तगासे न सोयचं, जह सा नवगसेहिधूया जसं पत्ता आविंधणसुहं च एवं जो आयरिओ न विसंवाएइ तेण अरहताणं आणा कया भवइ, तस्स पासे | सुत्तत्थाणि गहेयबाणि, एस्थ गाहातो-“अत्थाणत्यनिउत्ताऽऽभरणाणं जुण्णसेद्विधूयव । न गुरू विहिमणिए वा विवरीयनिजोजतो सीसो ॥१॥ सत्थाणत्यनिउत्ता ईसरधूया समूसणाणं वा । होइ गुरू सीसोविय विणिजोजतो जहाभणियं |॥२॥" (वि.१४४०-१)श्रावकोदाहरणं पूर्ववत् , नवरमेवमुपसंहारः-"चिरपरिचियपि न सरइ सुत्तत्थं सावगो समजं व । जोन स जोगो सीसो गुरुत्तणं तस्स दूरेणं ॥१॥"(वि.१४४२) बधिरपुरुषोदाहरणमपि पूर्ववदेव, नवरमत्रैवमुपसंहारः-"अन्नं पुट्ठो* अन्नं जो साहइ सो गुरू न बहिरोब । न य सीसो जो अन्नं सुणेइ अणुभासए अन्नं ॥१॥"(वि. १४४३) सम्पति | टंकणकव्यवहारोदाहरण-उत्तरावहे टंकणानाम मेच्छा, ते सुवण्णदंताईहिं दक्षिणावहगाई भंडाई गेण्हंति, ते य अवरो परंभास न याणंति, पच्छा पुंजे करंति, हत्थेणं उच्छाइंति, जाव इच्छा न पूरइ न ताव अवणेति, एवं एएसि इच्छियपडि[च्छितो ववहारो, आयरिएणं ताव सिस्सस्स अत्थो भाणियबो जाव तस्स पडिपुग्नं गहणं, सीसेण य ताव पुच्छियवं जाव | उवगयंति, एसा टंकणवणितोवमा । इत्थमुक्तेन प्रकारेण गवादिषु द्वारेषु साक्षादभिहितार्थविपर्ययः प्रतिपक्षः स आचार्य|शिष्ययोर्यधायोग योजनीयः, स च योजित एवेति । सम्प्रति विशेषतः शिष्यदोषगुणान् प्रतिपादयति कस्स न होही देसो अणभुवमओ य निरुवगारी य । अप्पच्छंदमईओ पत्थियओ गंतुकामो य॥१३४ ॥ विणओणएहिं पंज लियडेहि छंदमणुपत्तमाणेहिं । आराहिओ गुरुजणो सुपं बहुविहं लहुं देह ॥ १३४ ॥ 44-CCIM दीप अनुक्रम ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, विभा गाथा [१४५३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्यातनियुतिः सूत्रांक ॥१४॥ दीप अनुक्रम आह-शिष्यदोषगुणामिषानं किमर्थम् , उच्यते, कालान्तरेण तस्वैव गुरुत्वभवनादयोम्बावच गुरुपदविधाने तीर्थ-शिष्यदोषकराज्ञादिलोपप्रसङ्गात् , तत्र प्रथमगाथाब्याख्या-कस्य गुरोर्न भवति द्वेष्टा(प्यः)-अप्रीतिकरः शिष्यः, अपि तु भवत्येव, गुणाःधिकिं सर्व एव !, नेत्याह-अनभ्युपगतः-श्रुतसम्पदा अनुपसम्पन्नः, अनिवेदितात्मा इति भावः, उपसंपन्नोऽपि न सर्व प्यारीक्षा एवावेप्यो भवति, तत आह-निरुपकारी छ' निरुपकर्तुं शीलमस्येति निरुपकारी-गुरूणां निरुपकारका, गुरुकृत्येव-18| गा. प्रवर्तक इति भावः, उपकार्यपि न स सर्व एवाद्वेष्य इत्यत आह-आत्मच्छन्दा-आत्मायत्ता मतिर्यस्य कार्येष्वसावात्म- ११४-६ च्छन्दमतिका स्वाभिप्रायकार्यकारी, गुर्वायत्तमतिरपि न सर्व पवाद्वेष्यः, तत आह-प्रस्थितो' यो योऽन्यः कोऽपि शिष्यो गन्तुमनास्तस्य द्वितीयः, तथा गन्तुकामश्च, गन्तुकामो नाम सोऽभिधीयते यः सदैव गन्तुमना व्यवतिष्ठते, वक्ति च-कोऽस्य गुरोः सन्निधानेऽवतिष्ठते ।, समर्थ्यतामेतत् श्रुतस्कन्धादि ततो यास्यामीति, तदेवंभूतः शिष्यो न योग्यः श्रवणस्य । इदानीं गुणाः प्रतिपाद्यन्ते-विनया-अभिवन्दनादिलक्षणस्तेनावनता विनयावनतास्तरित्थंभूतैः सद्भिः, तथा पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो यैस्ते कृतप्राञ्जलयस्तैः, तथा-छन्दो-गुर्वभिप्रायः तं इगिताकारादिना विज्ञाय तदध्यवसितश्रद्धानसमर्थनकरणकारणादिना अनुवर्तमानैः, उक्कं च-सहइ समत्थेइ य कुणइ करावेइ गुरुजणाभिमयं । छंदमणुवसमाणो स गुरुजणाराहणं कुणइ ॥१॥" (वि. १४५३) तैरेवं आराधितो गुरुजनम् श्रुतं-सूत्रार्थोभयरूपं बहुविधम्- ॥१४॥ अनेकप्रकारं लघु-शीनं ददाति-प्रयच्छति ॥ सम्पत्ति प्रकारान्तरेण शिष्यपरीक्षा प्रतिपादयतिसेलघव-महग-बालमि-परिपूणम-हंस-महिस-मेसेय।मसम-जलूम-पिराली जाहग-गो-मेरी-बाहेरी॥१५ ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१४५३], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम 'सड'त्ति मुद्गशैला-मुद्रप्रमाणः पाषाणविशेषः बनो-मेघा, लभ पनच लयनः तदुदाहरणं प्रथम, कुटो-पट चालणी प्रतीता, परिपूर्णका-सुधरीचिटिकागृह, हंसमहिपमेषमसकजलौकाविडास्यः प्रारीता, जाहक सेड्डुलकर, गौर मेरी आमेरी च प्रतीता । उदाहरणं च द्विघा भवति-परितं कल्पितंच, उकं च-"परियं च कषियं 4 बाहर दुविहमेव पन्नत् । अत्यस्स साहणट्ठा इंधणमिव ओयणट्ठाए॥१॥"(पिण्डनि. ६३०) तत्थ इमं कप्पियं, तंजा-मुम्न-2 सेलो पुक्खलसंवट्टतो व मझमेहो जंबुद्दीवपमाणो, तत्थ य नारवस्थाणीओ कलहं संजोएइ, मुम्मसेलं मणति-तुम्भ नामग्गहणे कप पुक्खलसंवतो भणइ-जा णं एगाए धाराए विराएमि-भिननीति भावार्थः, सेलो उपासितो भणइ-जइ मे तिलतुसतिभागंपि उल्लेइ तो नाम न वहामि, पच्छा मेहस्स मूले भणइ मुम्गसेलवयणाई सउकरिसाई, ततो सो कुवितो सबायरेण जुगप्पमाणाहिं पाराहि परिसितुमारदो, सत्तरसे वुढे चिंतेइ-इयाणिं गतो सो वरागोत्ति ठितो, इयरो मिसिमिसंतो उज्जलतरो जातो दिप्पिउमारद्धो, मणइ-जोझरोसि, मेहो लजितो गतो, एवं कोई सीसो मुम्गसेलसमाणो |एगंपि पयं नायगाइ, ततो खन्नो आयरिओ गजतो मागतो, अहण्णं गाहेमि, पठति च गमातमानस:-"आचार्य स्यैव तजाव्य, यच्छियो नावबुध्यते । गावो गोपालकेनेव, कुतीर्थेनावतारिताः॥१॥" वदो पढावेउमारतो,न सक्तिो, लजितो, परिसस्स न दायचं, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह यस्मान वन्ध्या गौः शिरशिकवदनपृष्ठपुग्छोदरादौ सस्नेह सृष्टा सती दुग्धपदायिनी भवति, तथा स्वाभाव्याद्, एक्मेषोऽपि सम्यक् पाठ्यमानोऽपि पदमप्येकं नावमाइते, ततो न तस्य | ठावदुपकार, भावनोपकायमा प्रत्युताचार्ये सूत्रे चापकीर्तिरुपयायवे, पान सभ्यशस्यमाचर्यस्य व्याया E I tan Education inaormational ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिषेक: ११४२॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ १३६ ], भाष्यं []-], वि० भा० गाथा [ १४५३, १४५८ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः याम् इदं वाऽध्ययनं न समीचीनम्, कथमयमन्यथा नावबुध्यते इति, अपि च-तथाविधकुशिष्यपाउने तत्यात्रत्रोधाभावात् उत्तरोत्तरसूत्रार्थावगाहने सूरेः सकलावपि शास्त्रान्तर्गतौ सूत्रार्थी भ्रंशमाविशतः, अन्येषामपि च पश्रणामुत्तरोत्तरसूत्रार्थावगाहनहानिप्रसङ्गः, उक्तं च- "आयरिए सुत्तंमि य परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । अन्नेसिंपि य हाणी पुट्ठावि न दुद्धया वंझा ॥१॥” (वि. १४५७) मुद्रशैलप्रतिपक्षाद् ततो योग्यशिष्यविषयो दृष्टान्तः कृष्णभूमिप्रदेशः, तत्र हि प्रभूतमपि | निपतितं जलं तत्रैवान्तः परिणमति, न पुनः किञ्चिदपि ततो बहिरपगच्छति, एवं यो विनेयः सकलसूत्रार्थग्रहणधारणे समर्थः स कृष्णभूमिप्रदेशतुल्यः, स च योग्यः, ततस्तस्मै दातव्यमिदमध्ययनमिति, उक्तं च- "बुट्टेऽवि दोणमेहे न कण्हभोमाओ लोए उदयं । गहणधरणासमत्थे, इय देयमछित्तिकारंमि ॥ १ ॥ (वि. १४५८ ) सम्प्रति कुटदृष्टान्तभावना - कुटा- घटाः, ते द्विविधास्तद्यथा - नवीना जीर्णाश्च, नवीना ये सम्प्रत्येवापाकतः समानीताः, जीर्णा द्विविधा भाविता अभाविताश्च, भाविता द्विविधाः प्रशस्तद्रव्यभाविता अप्रशस्तद्रव्यभाविताश्च तत्र ये कर्पूरागुरुचन्दनादिभिः प्रशस्तद्रव्यैर्भावितास्ते प्रशस्तद्रव्य भाविताः, ये पुनः पलाण्डुलशुन सुरातैलादिभिर्भावितास्तेऽप्रशस्तद्रव्यभाविताः, प्रशस्ता प्रशस्तद्रव्यभाविता अपि द्विधा-वाम्या अवाम्याश्च, अभाविता नाम ये केनापि द्रव्येण न वासिताः, एवं शिष्या अपि प्रथमतो द्विधा नवीना जीर्णाश्च तत्र ये बालभावे वर्त्तमाना अज्ञानिनः सम्प्रत्येवावबोधयितुमारब्धास्ते नवीनाः, जीर्णा द्विविधा - भाविता अभाविताश्च तत्राभाविता ये केनापि दर्शनेन न वासिताः, भाविता द्विविधाः - कुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिभिः संविग्भैश्च, कुप्रावचनिकपार्श्वस्यादिमिरपि भाविता द्विविधाः -वाम्या अवाम्याश्च, संविभैरपि भाविता द्विधा -वाम्या अवा For Pitate & Personal Use Only ~299~ शिष्य रीक्षायां शैलादि दृष्टान्ताः ॥१४२॥ jainstibrary.org Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, विभा गाथा [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम म्याच, तत्र ये नवीना ये जीर्णा अभाविता येच कुमावचनिकादिमाविता अपि कम्या वे च संविघ्नभाविता अवाम्याते सर्वेऽपि । योग्या:, शेषा अयोग्याः । अथवाऽन्यथा कुटदृष्टान्तभाक्ना-इह चत्वारः कुटास्तद्यथा-छिद्रकुटः खण्डकुटः कण्ठहीनकुटा सम्पूर्णकुटश्च, तत्र यस्य अधो बुने छिद्रं स छिद्रकुटः, यस्य पुनरोष्टपरिमण्डलाभावः स कण्ठहीनकुटः, यस्ख पुनरेकपाचे खण्डेन हीनता स खण्डकुटः, यः पुनः सर्वावयवसंपूर्णः स संपूर्णकुटा, एवं शिष्या अपि चत्वारो वेदितव्याः, तत्र यो| व्याख्यानमण्डल्यामुपविष्टः सर्वमर्थमवबुध्यते व्याख्यानादुत्थितश्च न किमपि सारति स छिद्रकुटसमानो, यथा हि छिद्र कुटो यावत्तदवस्थ एव गाढमवनितलसंलग्नोऽवतिष्ठते तावन्न किमपि जलं ततः श्रवति, स्तोकं वा किञ्चिदिति, एवमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुसन्धानेन सूत्रार्थमुपदिशति तावदवबुध्यते, उत्थितश्चेव्याख्यानमण्डल्या. तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसन्धा-| दिनविकलत्वान्न किमपि अनुस्मरति, यस्तु व्याख्यानमण्डल्यामप्युपविष्टोऽर्द्धमात्र विभाग चतुष्कं वा हीन वा सूत्रार्थमवधार-1. यति तथाऽवधारितं च स्मरति स खण्डकुटसमानः, यस्तु किञ्चिद्नं सूत्रार्थमबघारयति पश्चादपि च तथैव स्मृतिपथमवतारयतिर सकण्ठहीनकुटसमानः, यस्तु आचार्योक्तं सकलमपि सूत्रार्थ यथावदवधारयति पश्चादपि च तथैव संपूर्ण स्मरति स सम्पूर्णकुटसमाना,अत्र छिद्रकुटसमान एकान्तेनायोग्यः,शेषा यथोत्तरं प्रधानाःप्रधानतराः प्रधानतमाः।सम्पति चालनीष्टष्टान्तभावना, चालनी लोकासिद्धायया कणिक्कादि चाल्यते, तत्र यथा चालन्यामुदकं प्रक्षिप्यमाणं तत्क्षणादेव गच्छति, न पुनः किय-12 म्तमपि कालमवतिष्ठते, तथा यस्य सूत्रार्थः प्रदीयमानो यदैव कर्णे प्रविशति तदैव विस्मृतिपथमुपैति स चालणीसमानः, तथा दामुद्गशैलच्छिद्रकुटचालणीसभानशियमेदप्रदर्शनार्थमुक्कं भाष्यकृता-"सेलेयछिदुचालिणि मिहोकहा सोज रट्ठियाणं तु । AA%A an Education in For Prath & Personal un any ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१४६३-१४६७], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम उपोद्यात- छिड्डाह तत्व विट्ठो सुमरिंसु सरामि नेयाणि ॥ रमेम विसइ बीएम, नीइ कम्येण पालिणी आह । धनोरथ आहाशय नियुतिः सेलो पविसइ नीइ वा तुमं ॥२॥" (कि.१४१३-४) तत एपोऽपि चालनीसमानो न योग्यः। चालनीप्रतिपक्षभूवं च रीक्षायां वंशदलनिर्माप्ति तापममाजनं, ततो हि विन्दुमात्रमपि जलं नववति, उक्तं च-"तावसखउरकविणयं चालणिपडिवखुन लागि ॥१४३ ॥ सबह दवपि (वि.१४६५) ततस्तत्समानो योग्यः । सम्पति परिपूणकदृष्टान्तो माव्यते, परिपूणको नाम घृतक्षीरगालनी दृष्टान्ताः सुगृहाभिषचटकाकुलायो का, तेन ह्याभीर्यो घृतं मालयन्ति, ततो यथा स परिपूणकः कचवरं धारयति घृतमुज्झति तथा * शिष्योऽपि यो व्याख्यावाचनादौ दोषपनभिगृह्णाति गुणांस्तु मुश्चति स परिपूणकसमानः, स चायोग्यः, आह च चूर्णिकृत् "वक्खाणाइसु दोसं हिययंमि ठवेइ मुयइ गुणजालं । सो सीसो अ अजोग्गो भणितो परिपूणगसमाणो ||शा"(नन्दीटीप्प.) आह-सर्वक्षमतेऽपि दोषाः सम्भवन्तीत्यश्रद्धेयमेतत्, सत्यम्, उक्तमत्र भाष्यकृता-"सबन्नुप्पामना दोसा हुन संति |जिनमए केवि । अणुक्उत्सकहणं, अपत्तमासन व वंति ॥१॥(वि.१४६६)" सम्पति इंसदृष्टान्तभावना-यथा हंसः | क्षीरमुदकमिश्रितमपि उदकमपहाय क्षीरमापिबति तथा शिष्योऽपि यो गुरोरनुपयोगादिसम्भवान् दोषान् अवधूय गुणानेव केवलानादत्ते स हंससमाना, स चैकान्तेन योग्यम, ननु हंसर सीरमुदकमिश्रितमपि कथं विभक्तीकरोति', येन श्रीरमेव केवलमापिवति, न तूदकमिति, उच्यते, जिह्वाया अम्मलेन कूर्चिकीभूय पृथग्भवनात्, उक्तंच-"अंबसणेण जीहाएँ, कृचिया होइसीरमुदममि । इंसो मुत्तूक जलं आविया वं बहसुसीसो (वि.१४६७) मोचूम दढं दोसे गुरुषोऽणुवउत्तभासिवादईएमेण्हइ गुणे बोने कोनो समवयसारस्व (मन्दीटी.) दानी महिाधन्तभावना-यथा महिषो निषानखान ॥१४ ॥ an insansliterary.orms ~3014 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१४६८-१४७०], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - + दीप अनुक्रम हैमवासः सन् उदकमध्ये सदुद मुहुर्मुहुः भवाम्यां वाजयनवगाहमानच सकलमपि कलुपीकरोति, वतो न स्वयं पातुं शक्रोति, नापि यूयं, तदपिछयोऽपि यो व्याख्यानप्रबन्धावसरेऽकाण्ड एवं क्षुद्रपृच्छाभिः कलहविकथादिभिर्वा आ-H स्मनः परेक चानुयोगबणविघातमाघते स महिषसमानः, स चैकान्तेनायोग्यः, उक्तं च-"सयमवि न पियइ महिसो नब जूहं पिबइ लोलिय उदयं । विग्गहविकहाहिं तहा अथकपुच्छाहि य कुसीसो ॥१॥"(वि.१४६८) मेषोदाहरणभावना| यथा मेषो वदनस्य तनुत्वात् स्वयं च निभृतात्मा गोष्पदमात्रस्थितमपि जलमकलुषीकुर्वन् पिबति तथा यः शिष्योऽपि पद-11 मात्रमपि विनयपुरःसरमाचार्यचित्तं प्रसादयन् पृच्छति स मेषसमानः, स चैकान्तेन योग्यः । मसकदृष्टान्तभावनायः शिम्यो मसक इव जात्यादिकमुद्दयन् गुरोमनसि व्यथामुत्पादयति स मसकसमानः, स चायोग्यः । जलौकाहटान्तभाक्ना-यथा जलौकाः शरीरमदुन्वती रुधिरमाकर्षति तथा शिष्योऽपि योऽदुन्वन् श्रुतज्ञानमापिबति स जलुकासमानः, उकं च-"जलुगा व तम(ज)दूमितो, पियइ सुसीसोऽवि सुयनाणं । (वि.१४७०) बिडालीदृष्टान्तभावना-यथा निडाली भाजनसंस्थ क्षीरं भूमौ बिनिपात्य पिवति, तथा दुष्टस्वभावत्वात् , शिष्योऽपि यो विनयकरणादिभीततया न साक्षाद् गुरुसमीपे गत्वा शृणोति, किन्तु व्याख्याचादुत्थितेभ्यः केभ्यश्चित् स बिडालीसमानः, स चायोग्यः । तथा जाहका|तियग्विशेषस्तदुदाहरणमाक्ना-वथा जाहकः स्तोकं स्तोकं क्षीरं पीत्वा पार्थाणि लेढि, तथा शिष्योऽपि पूर्वगृहीतं सूत्र-11 *मर्थ वा मतिपरिचितं कृत्वा जन्यत्कृच्छति स जाहकसमाना, सच योग्यः । सम्पति गोदृष्टान्तभावना-यथा केनापिक कौटुम्बिोन कमिंतिपर्वणि चतुश्चतुर्वेदारमामि विप्रेम्यो गौर्दता, ततस्ते परस्परं चिन्तयामासुः गया इयमेकमा + wiewsanelibrary.cret ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, वि०भा०गाथा [१४७३-१४७५], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोदात- नियुक्तिः रोक्षायां सूत्रांक ॥१४४॥ दीप अनुक्रम गौश्चतुर्णामस्माकं, ततः कथं कर्त्तव्या?, तत्रैकेनोक-परिपाच्या दुह्यतामिति, तच्च समीचीनं प्रतिभातमिति सर्वैः प्रतिपन्न | शिवततो यस्य प्रथमदिवसे गौरागता तेन चिन्तित-चयाऽहमद्यैव धोक्ष्यामि, कल्ये पुनरन्यो धोक्ष्यति, ततः किं निरर्थिकामस्थाश्चारिं वहामि', ततो न किश्चिदपि तस्यै तेन दत्तं, एवं शेषेरपि, ततः सा श्वपाककुलनिपतितव तृणसलिलादिविरहिता || शलादि. | गतासुरभूत्, ततः समुत्थितस्तेषां धिग्जातीयानामवर्णवादो लोके, शेषगोदानादिलाभब्यवच्छेदश्च, एवं शिष्या अपि ये दृशन्ताः चिन्तयन्ति-न खलु केवलानामस्माकमाचार्यों व्याख्यानयति, किन्तु प्रतीच्छकानामपि, ततस्त एव विनयादिकं करिष्यन्ति, किमस्माकमिति, प्रतीच्छका अप्येवं चिन्तयन्ति-निजशिष्याः सर्व करिष्यस्ति, किमस्माकं कियत्कालावस्थायिनामिति ।। ततस्तेषामेवं चिन्तयतामपान्तराल एवाचार्यों विषीदति, लोके च तेषामवर्णवादो जायते, अन्यत्रापि च गच्छान्तरे दुर्लभी तेषां सूत्रायौं, ततस्ते गोपतिगाहकचतुर्द्विजातय इवायोग्या द्रष्टच्याः, उक्तं च-"अन्नो दुझिहि कल निरत्ययं से | वहामि किं चारिं।। चउचरणगवी उ मया अवन्नहाणी उ बडुवाणं ॥१॥(वि.१४७३) सीसा पडिच्छगाणं भरोत्ति तेऽविय हु सीसगभरोत्ति।न करेंति सुत्तहाणी अन्नत्थवि दुलह तेसि ॥२॥"(वि.१४७५) एष एव गोदृष्टान्तः प्रतिपक्षेऽपि योजनीयः, यथा कश्चित्कौटुम्बिको धर्मश्रद्धया चतुर्यः चतुर्वेदपारगामिभ्यो गां दत्तवान् , तेऽपि च पूर्ववत्परिपाट्या दोग्धुमारब्धाः, तत्र वस्त्र प्रथमदिवसे सा गौरागता स चिन्तितवान्-यद्यहमस्खाश्चारिं न दास्यामि ततः क्षुधा धातुक्षयादेषा प्राणानपहास्थति,81 सतो मे लोकेषु गोहत्यावर्णवादो भविष्यति, पुनरपि चास्मभ्यं न कोऽपि गवादिकं दास्यति, अपिच-वदि मदीयचारिचरणेन पुष्टा सती शेरैरपि ब्राह्मणै|क्ष्यते ततो मे महान् अनुग्रहो भविष्यति, अहमपिच परिपाच्या पुनरप्येना G ॥१४४। Jan Education wsanelitary.com ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-१ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१३६], भाष्यं H, विभा गाथा H], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत AAG सूत्रांक दीप अनुक्रम धोक्ष्यामि, ततोऽवश्वमस्यै दातव्या चारिरिति ददौ धारिम्, एवं शेषा अपि ददुः, ततः सर्वेऽपि चिरकालं दुग्धाम्यवहारभाजिनो जाताः, लोके च समुच्छलितः साधुवादः, लभन्ते च प्रभूतमन्यदपि गवादिक, एवं येऽपि विनेयाश्चिन्तयन्तियदि वयमाचार्यस्य न किमपि विनगादिकं विधातारस्तत एषोऽवसीदन्नवश्यमपगतासुभविष्यति, लोके च कुशिष्या इमे इल्यवर्णवादः, ततो गच्छान्तरेऽपि न वयमवकार्य लप्स्यामहे, अपिच-अस्माकमेष प्रव्रज्याशिक्षावतारोपणादिकरणतो महोपकारी, सम्पति च जगति दुर्लभं श्रुतरसमुपयच्छन् वर्चते, ततोऽवश्यमेतस्य विनयादिकमस्माभिः करणीयम् , अन्यञ्च-यद्यस्मदीयविनयादिसाहायकवलेन प्रतीच्छकानामध्याचार्यत उपकारः किमस्माभिर्न लब्ध 1, द्विगुणतरपुण्य लाभस्यास्माकं भावात्, प्रातीच्छिका अपि ये चिन्तयन्ति-अनुपकृतोपकारी भगवानाचार्योऽस्माकं, को नामान्यो महादन्तमेवं व्याख्याप्रयासमस्मन्निमित्तं विदधाति !, ततः किमेतेषां वयं प्रत्युपकर्तुं शकाः, तथापि यत्कुर्मः सोऽस्माकं महान् लाभ इति परस्परनिरपेक्षं विनयादिकमादधते, तेषां नावसीदत्याचार्योऽव्यवच्छिन्ना च सूत्राधेप्रवृत्तिः समुच्छलति च | ततः सर्वत्र साधुवादः गच्छान्तरे च तेषां सुलभ श्रुतज्ञानं परलोके च सुगत्यादिलाभः । मेर्युदाहरणं प्राग्वत् । सम्पत्याभीरीष्टान्तभावना, कश्चिदाभीरो निजभार्यया सह विक्रयाय घृतं गण्या गृहीत्वा पत्तनमवतीर्णः, चतुप्पथे च समागत्व वणिगापणेषु पणायितुं प्रवृत्तो, यटितश्च पणावाः सबूटा, ततः समारब्धे घृतमापे गळ्या अधस्तादवस्थिता आभीरी घृतं । मा पारकेण समर्यमाणं प्रतीच्छति, ततः कथमप्यर्पणे ग्रहणे वाऽनुपयोगतोऽपान्तराले एवं एको लघुघटरूपो वारको| भूमी मिपत्य लण्डशो भग्नः, ततो घृतहानिदूनमनाः पसिरुल्लपितु खरपरुषवाक्यानि पाप-त-बचा हा पापीयसि । ५.......५५ ForPivate Permaneumony anelibrary.com ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युतिः ॥ १४५ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१३६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | दुःशीले ! कामविडम्बितमानसा तरुणिमाभिरमणीयं पुरुषान्तरमवलोकसे, न सम्यग्वारकमभिगृहासि, ततः सा खरपरुषवाक्यश्रवणतः समुद्भूत कोप वेशवशोच्छलित कम्प कम्पितपीनपयोधरा स्फुरदधरबिम्बोष्ठी दूरोत्पाटित वरेखाधनुरवष्टम्भतो नाराचश्रेणिमिव कृष्णकटाक्षसन्ततिमविरतं प्रतिक्षिपन्ती प्रत्युवाच - हा ग्रामेयकाधम ! घृतघटमप्यवगणय्य विदग्ध| मत्तकामिनीनां मुखारविन्दान्यव लोकसे, न चैतावता अवतिष्ठसे, ततः खरपरुषवाक्यैर्मामप्यधिक्षिपसि, ततः स एवं प्रत्युकोऽतीव ज्वलितकोपानलो यत्किमप्यसम्बद्धं भाषितुं लग्नः साऽप्येवं, ततः समभूत्तयोः केशाकेशि, ततो बिसंस्थुलपादादिन्यासतः सकलमपि प्रायो गन्त्रीघृतं भूमौ निपतितं तच्च किञ्चिच्छोपमुपगतं अवशेषं चावलीढं श्वभिः, गन्त्रीघृतमपि शेषीभूतमपहृतं पश्यतोहरैः, सार्थिका अपि स्वं स्वं घृतं विक्रीय स्वग्रामगमनं प्रपन्नाः, ततः प्रभूतदिवसभागातिक्रमेणापसृते युद्धे स्वास्थ्ये च लब्धे यत्किश्चित् प्रथमतो विक्रीणयामास घृतं तद्रव्यमादाय तयोः स्वग्रामं गच्छतोः अपान्तरालेऽस्तं गते सहस्रभानौ सर्वतः प्रसरमभिगृहति तमोविताने परास्कन्दिनः समागत्य वासांसि द्रव्यं बलीवद्द चापहृतवन्तः, तत एवं तौ महतो दुःखस्य भाजनमजायेतां एष दृष्टान्तोः, अयमर्थोपनयः यो विनेयोऽन्यथा प्ररूपयन्नधीयानो वा खरपरुषवाक्यराचार्येण शिक्षितोऽषिक्षेपपुरःसरं प्रतिवदति - यथा त्वयैवेत्थमहं शिक्षितः, किमिदानीं निम्हुषे ? इत्यादि, स न केवलमात्मानं संसारे पातयति, किन्वाचार्यमपि खरपरुषप्रत्युच्चारणादिना तीव्रतीव्रतरकोपानलज्वालनात्, भवन्ति च कुविनेया मृदोरपि गुरोः खरपुरुषप्रत्युच्चारणादिना कोपप्रकोपकाः, उर्फ चोत्तराध्ययनेषु - 'अणासवा धूलवया कुसीला, मितंपि चंडं पकरिंति सीसा' इति, अपिच-गुरवो गुणगुरवः, ततस्ते यदि कथमपि दुष्टशैक्षशिक्षापनेन कोपमुपागमंत- * For Pevate & Personal Use Ony ~305~ अनुयोगे दृष्टान्ताः ॥ १४५ ॥ janelibrary.org Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-१ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१३६ ], भाष्यं [-] वि० भा० गाथा [-] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः घापि तेषां भगवदाज्ञावर्त्तित्वादल्पपापभाजां मिध्यादुष्कृतादिमात्रेणापि विशुद्धिरुपजायते, शिष्यस्तु भगवदाज्ञाविलो| पत्तो गुर्वाशातनायाश्चोपचिताशुभगुरुकर्मा दीर्घतरसंसारभागी, किश्च एवं स वर्त्तमानो मतिमानपि श्रुतरलाद्वहिर्भवति, अन्यत्रापि तस्य दुर्लभ श्रुतत्वात्, को हि नाम सचेतनो दीर्घतरजीविताभिलापी सर्पमुखे स्वहस्तेन पयोबिन्दून् प्रक्षिपतीति, स एकान्तेनायोग्यः । प्रतिपक्षभावनायामपीदमेव कथानकं परिभावनीयम्, केवलमिह घृतघटे भन्ने सति द्वावपि तौ दम्पती त्वरि| तत्वरितं कपरैर्यथाशक्ति घृतं गृहीतवन्तौ स्तोकमेव विननाश, निन्दति चात्मानमाभीरो यथा-ही न मयां घृतघटस्ते सम्यक् समर्पितः, आभीर्यपि वदति - समर्पितस्त्वया सम्यक् न मया सम्यक् गृहीतः, तत एवं तयोर्न कोपावेशदुःखं नापि घृत| हानिः नापि सकाल एवान्यसार्थिकः सह स्वग्राममभिसर्पतामपान्तराले तस्करावस्कन्दः, ततस्तौ सुखभाजनं जातो, एवमि हापि कथञ्चिदनुपयोगादिनाऽन्यथारूपे व्याख्याने कृते सति पश्चादनुस्मृतयथावस्थितव्याख्यानेन सूरिणा शिष्यं पूर्वमुक्कं व्याख्यानं चिन्तयन्तं प्रति एवं वक्तव्यम्-वत्स ! मैवं व्याख्यः, मया तदानीमनुपयुक्तेन व्याख्यातं, तत एवं व्याख्याहि, तत | एवमुक्ते सति यो विनेयः कुलीनो विनीतात्मा स एवं प्रतिवदति-यथा भगवन्तः किमन्यथा प्ररूपयन्ति १, केवलमहं मतिदौर्बल्यादन्यथाऽवगतवानिति, स एकान्तेन योग्यः ॥ तदेवमाचार्य शिष्यदोषगुणकथन लक्षणो व्याख्यानविधिः प्रतिपादितः सम्प्रति कृतमङ्गलोपचारो व्यावर्णितप्रसङ्गविस्तरः प्रदर्शितव्याख्यानविधिरुपोद्घातं प्रतिपादयति आवश्यक मलयगिरिजी वृत्तेः पूर्वार्धस्य प्रथमो भाग समाप्तः द्वितिय भागस्य आरंभ: निर्युक्ति: [ १३५, १३६ ], १ से २६ द्वारैः कृतः आवश्यक- मूलसूत्र- [४० / १] निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी । | [M.Com.,M.Ed.,Ph.D., श्रुतमहर्षि] Jan Education International ~ 306~ www.janelibrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 40/1 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "आवश्यक-मूलसूत्र" [नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरिजी-रचिता वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आवश्यक” नियुक्ति: एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: >Remember it's a Net Publications of 'jain e library's' ~307