Book Title: Aagam 17 CHANDRA PRAGYAPTI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [१७] श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स। पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः] चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रस्य मलयगिरि रचित वृत्ते: हस्तप्रतस्य आधारेण । एवं पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरैः संपादित 'सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रस्य साहहायेन ] ' (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह संकलिता)। संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१७], उपांग सूज-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूल एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [-], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRS ॥अहम् ॥ श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवरणयुतं श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति-उपाङ्गम् 'चन्द्रप्रज्ञप्ति'सूत्रस्य हस्तप्रत-आधारेण एवं पू० आगमोद्धारक आचार्यदेवश्री आनंदसागरसूरीश्वरैः संपादित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य साहायेन । (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह संकलिता - 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' मूलं एवं वृत्तिः) संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर ses-SSHRSasses दीप अनुक्रम | चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्रस्य “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: १०८+१०३ चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: २१४ मूलाकः विषयः पृष्ठांक पृष्ठांक: विषयः पृष्ठाक: १७२ १७४ ३०८ १९१ ३१० ०११ २०५ ३१२ २०६ ३१३ ३५३ २०७ २१४ ३५६ २१६ ४०१ २२८ ४१० मूलांक: विषय: ०३८ प्राभतं-०७ ०३९ प्राभूतं- ०८ ०४० प्राभूतं- ०९ ०४२ प्राभूत-१०... ०४२ प्राभूतप्राभत- १ ०४३ | प्राभृतप्राभृत- २ ०४५ प्राभूतप्राभूत-३ ०४६ प्राभृतप्राभृत- ४ ०४७ प्राभूतप्राभूत-५ ०४८ | प्राभृतप्राभृत-६ ०५० | प्राभूतप्राभूत-७ ०५१ प्राभूतप्राभूत-८ ०५२ प्राभूतप्राभूत-९ ०५३ प्राभृतप्राभृत- १० ०५४ प्राभूतप्राभूत- ११ ०५६ प्राभूतप्राभत- १२ ०५७ प्राभूतप्राभूत- १३ ०६१ प्राभूतप्राभूत- १४ ०६८ | प्राभूतप्राभूत- १५ ०६९ | प्राभूतप्राभूत- १६ २२९ ००१ प्राभतं- ०१ ००४ | वृत्तिकारकता प्रतिज्ञा-गाथा: । | ००४ ००२ | प्राभूतानां संख्यादि निर्देश: । ००९ ००३ | प्राभृतप्राभृत-अधिकारः ०१८ | प्राभूतप्राभत- १ ०२२ | प्राभृतप्राभृत- २ ०२४ । प्राभूतप्राभूत- ३ ०४८ ०२५ | प्राभृतप्राभृत-४ ०५४ ०२६ | प्राभूतप्राभूत-५ ०६४ ०२८ । प्राभूतप्राभूत-६ ०६९ ०२९ । प्राभूतप्राभूत-७ ०७८ ०३० | प्राभूतप्राभूत-८ ०३१ । प्राभूतं- ०२ ०३१ प्राभूतप्राभूत-१ ०३२ | प्राभूतप्राभूत- २ ०३३ | प्राभूतप्राभूत- ३ { ១២ ०३४ प्राभतं- ०३ १३२ ०३५ | प्राभतं-०४ ०३६ | प्राभूतं- ०५ १५९ ०३७ । प्राभतं- ०६ १६४ मूलाक: | प्राभूतं- ...१० वर्तते ०७० प्राभूतप्राभूत- १७ ०४१ | प्राभतप्राभत- १८ ०७२ प्राभूतप्राभूत- १९ ०७५ | प्राभूतप्राभूत-२० ०८६ प्राभृतप्राभृत- २१ प्राभूतप्राभूत | प्राभृतं-११ ०९९ । | प्राभूतं- १२ प्राभृतं- १३ ११० प्राभतं- १४ १११ प्राभृतं- १५ ११५ प्राभूतं- १६ ११६ प्राभृतं- १७ ११७ | प्राभतं- १८ १२९ प्राभूतं- १९ १९४ प्राभूतं-२० २०८ उपसंहार-गाथा २१२ सूत्रदाने पात्रता २१३ । वीर-वंदना ४७४ ४९४ ४९६ २६३ २६५ २६७ २६९ ५१८ ५२० २८० २९७ २९९ ५२३ ५४२ ५७७ ५९८ Pyo 300 ३०२ ५९८ ३०६ ६०० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [५] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['चन्द्रप्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा प्रवर्तमान काळमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति आगम बहुलतया एक सामान ही प्राप्त होते है. नंदीसूत्र एवं पक्खिसूत्रमें ये दोनों आगम अलगअलग ही गिनवाए है, ये दोनों आगमो को उत्तराध्ययन सूत्र की वृत्तिमे अलग-अलग अंगसूत्रो के उपांग बताये है, फिरभी कौनसे काल में ये दोनों आगम एक सामान जैसे हो गए, इसका मुझे पता नहीं है। मैंने तो L. D.Institute of indology में से 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' की मलयगिरीजी रचित वृत्ति की हस्तप्रतमें से इस आगम का संकलन किया है, फिर इसकी तुलना 'सूर्यप्रज्ञप्ति' से की, तब मुझे पता चला की 'चन्द्रप्रज्ञप्ति में मलयगिरिजी ने आरम्भमें चार गाथा । लिखी है जो 'सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्तिमें नहीं देखी, जबकी सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रशस्तिमें एक ऐसी गाथा है, जो चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्रमे नहीं है । इसके अलावा प्रत्येक प्राभृत, प्रतिपत्ति आदि विषयवास्तु दोनों आगमो मे सामान ही है, हा, दोनों में किंचित पाठांतर मिले थे, हमने इसको इस संकलनमें स्थान दे दिया है। [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रम् के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति दवारा प्रकाशित हई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | [२] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" सूत्र की हस्तप्रत २२ x ९ से.मि. थी, जो 'मुनि माणेक की प्रेरणा से संवत १८५६ में कार्तिक वद-७ को 'बोरसद में पटेल नाथाभाई सनाभाई नामक लहिया ने पूर्ण की थी. हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो का प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे परिवर्तित गाथा एवं पातः के अलावा पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर प्राभत, प्राभतप्राभूत और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा प्राभूत, प्राभूतप्राभूत एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्राभूत, प्राभृतप्राभूत और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [-], ------------------- प्राभूतप्राभृत [-], ------- ------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं | श्री चन्द्रप्रज्ञप्त्याख्यमुपाङ्गं | प्रत सत्राका दीप अनुक्रम प्राभृत १ वृ० अहम् । श्री वर्धमानाय नमः ॥१॥ मुक्ता फलमिव करत कलितं, विश्वे समस्त मपि सततं योवेत्ति, विगत कर्म सङ्ग, यति नाथो जिनो वीरः ।। सर्वश्रुत पारगताः प्रतिहत निःशेष कुपथ संतानाः । जगदेव तिलक भूता, जयंति गणधारिणः ।। विलसउ मनसिस दामे जिनवाणि परम कल्पलतिकेव कल्पित सकल नरामर, शिवसुखफलदानतललिता ।। चंद्रप्रज्ञप्तिमहं गुरुपदेशनुसारतः किञ्चित् । विवृणोमि यथाशक्ति स्पष्टं स्वपरोपकाराय।। [तत्राविघ्नेनेष्ठप्रसिध्यर्थ-मादाविष्ट देवता स्तवमाहं ] अत्र प्रथमं प्राभृतं आरब्धं ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------ . ...-- प्राभूतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [१] + गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -: प्रामृतं-१-प्रामृत प्रामृतं-१: [नमो अरिहंताणं] मू. (१) जयति नवनलिन कुवलय-वियसियसयवत्तपत्तलदलच्छो552 वीरोगयंदमयगल सललियगय विक्कमो मयवं वृ. इतस्तवो द्विधा । गुणोकिर्तनरूपः प्रणामरूपश्च, तत्र गुणात्कीर्तनरूपः साक्षादनयागाथयाऽमिहितः, प्रणामरूपः सामर्थ्य गमौ। यथा च सामर्थ्यगम्यता तथा भावयिष्यते । तत्र जयतिरागादिशत्रुनभिभवति, “जिज्ञिञ्चमिमवेइतिवचनात्" यद्यपिचनसंप्रतिरागादि शत्रूनभिभवतितेषामग्रेएव निर्मूलकाषंकषितच्चात्तथापितत्कलसिद्धच्च लक्षणामद्याप्यविच्युतमवतिष्ठति इतिफले हेतूपचाराजयतिइतितंयदिवासंप्रत्यपि "भगवानुभक्त्यानुध्यायमानोध्यात्रणामभिमवति रागादि क्लेशान् भत्तइ जिनवराणं खिद्येति पुव्वसश्चिया कम्मा इति" वचनात् ततो क्षयति इति फलं अथवा क्षयति सर्वानपि सुरासुरप्रमृतीन् प्राणिनः स्वगुणैरति शेते धातूनामनेकार्थत्वात्, यश्च सकल सुरासुरेभ्योपि स्वगुणैरतिशायी सप्रेथावतामवश्यं प्रणामाझे गुणैरधिकत्वात् ततो जयति किमुक्तं भवति तं प्रतिपणतोस्मि इति यतेन प्रणामरूपस्तवः सामथ्यगम्यो भावितःकोसावित्याह" वीरः शूरवीर विक्रान्ती वीरयतिस्म कषायादि शत्रून् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः । इदंच वीर इति नामनयाष्टिकं किंतु यथावस्थितमन्येन साधारणं परीषहोपसर्गादि विषयं तिर्यञ्चमपि ॥१॥ दीप अनुक्रम [१] ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सुत्रांक [१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१] + गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: च सुरासुरकृतं, अतोवीर इति नाम्नाश्चपायापगम अतिशयोध्वन्यते, अथवा “ईरगति प्रेरणयोः" विशेषेणाऽपुनर्भाव स्वरूपेण ईरयति-प्रेरयति आत्मनः सकाशाद्यावयति याति च शिवमिति वीरः । अत्राप्यपायागमातिशय प्रतिपत्तिः किं विशिष्टं इति आह-नवनलिन इत्यादि । प्राकृते पूर्व निपातो विशेषणनाम तत्र इति। पत्तलशब्दो, वियसिय शब्दश्चनलिनादिशब्दानांपूर्वं द्रष्टव्यः, पत्तलमिति पत्र समृद्धं, पत्ततमिश्चं तिरकं पत्तलम् इति वचनात् क्त्वं प्रत्यग्रं । विकसितं व्याकोशीभूतम्तं च ईषच्चेतंविदु, पद्ममीषभीलमथो उत्पलं इषद्क्तं तु नलिनम् इत्यादिपा, कुवलयं नीलोत्पलंशतपत्रं पत्र शतं संख्योपेतं पद्ममेव, तेषां दलं पत्रं तद्वत् दीर्घमनोहारिणीवाऽक्षिणि यस्य स तथा पुनः कथंभूत इत्याह गजेन्द्र मदकलसलिनगतविक्रमः-अत्रापिमदकलशब्द स्पष्ट विशेषणभूतस्य विशेष्यात्परः निपातः प्राकृतत्वात् मदकलो मदमभिगृलानस्तरुणो गजो, गजानामिन्द्रो गजेन्द्रः शेष गजेभ्यो गुणैरधिकतरत्वात्मदकलश्चासौगजेन्द्रश्च मदकलगजेन्द्रस्तस्येव ललितो मनोज्ञ लीलया सहितो गतरूपो गमनरूपो विक्रमोयस्य स तथा पुनः कथम्भूत इत्याह भगवान्भगः समग्रैश्वर्यादिरूपःउक्तंचऐश्वर्यस्य समग्रस्यरूपस्यरासः श्रियः, धर्मस्याथ प्रयत्न स्पस्यां भगइतींगता भगोऽस्यास्तीति भगवान् । अनेन ज्ञानातिशयोवागतिशयः पूजातिशयोश्चोक्तस्तत्रैश्वर्यवाचित्वविवक्षायांपूजातिशयः प्रयत्नवाचित्वविवक्षायांवागतिशयश्च प्रवर्तते न च ज्ञानातिशयमंतरेण तथारूपो वागतिशयः पूजातिशयश्चत्र वर्तते । आभ्यां ज्ञानातिशयोप्याक्षिप्यते एते च ज्ञानातिशयादयश्चत्वारोप्यतिशया देह सौगन्ध्यादिनामतिशयानाम् उपलक्षणंतानंतरेणैतेषाम्सम्भवात्, ततः चतुत्रिंशदतिशयोवेतो भगवान् वीरो।जयतीतीतत्फलं द्रष्टव्यं, तदेवं वर्तमानेतीर्थाधिपतेवर्द्धमानस्वामिनोनमस्कारामिधायसंप्रतिसामान्यतः पञ्चानामपि परमेष्ठिनां नमस्कारमाह ||१|| दीप अनुक्रम [१] ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सत्राक “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [१] + गाथा ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: मू. (२) नमिऊण असुरसुर-गरुल भूयगपरिवंदिए गय किलेशे। अरिहे सिद्धायरिए उवज्झाए सव्वसाहूय।। वृ असुर-सुर-गरुड-भूयगवन्दितान्-अर्हत्ति त्रिशकृतांसमवसरणादि रूपांपूजामित्यहतस्तीर्थकृतस्तान्, तथासिद्धान्अपगत्सकल कर्ममलात्, आचार्यान् पञ्चविधज्ञानाद्याचार स्वयं परिपालयन् परोपदेशदान सतत प्रवृतान, उपाध्यायन्यथाशक्तिदादशाङ्ग स्वयमध्ययनपराध्यापन निजसुमानसान्, साधून् ज्ञानादिक्रियाभिः मुक्तिसाधन प्रवणान् नत्वा नमस्कृत्या किमित्याह फुडवियड पागडत्थं वोच्छं पुव्व सुयसारणी संदं। सुहुमगणिनोवदिढिं जोइसगणराय पन्नतिं ।। वृ.स्फुटयथावस्थिती निर्मलबोध विषयो, विकटो विस्तीर्णः सूक्ष्मतरबुद्धिगम्य इत्यर्थः, प्रकटः साक्षादशरेषूपरिस्कुरन्निवार्थो यस्यांसा तथा तां पूर्वश्रुतसार निस्पंदं, पूर्वगत श्रुते सार निस्पंदभूतानामेतेन पूर्वेभ्या इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिरुद्धृतेत्यावेदितं । इयंचन पूर्वाणिस्वयमधीत्पतत उध्धृता किं गुरूपदेशान्सारतस्तत आह सूक्ष्मगएकपदिष्ठां सूक्ष्मः, सूक्ष्ममिति परिकलितो गणि आचार्यो, गणोऽस्यास्तिइतिव्यक्तेस्तेनोपदिष्टांयथा पूर्वाणगुरवेणव्याख्यातानितथातेभ्योध्धतेति ||२|| दीप अनुक्रम [२] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्राक “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१] + गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: भावःज्योतिषिग्रह नक्षत्रतारकाणि तेषांगणःसमूहस्तस्यरांक्षाधिपतिद्योतिर्गणराजश्वेन्द्रस्तस्य प्रज्ञप्तिं । प्रज्ञप्यते प्ररूप्यन्ते अनयेतिप्रज्ञप्तिर्यथावस्थित तत् स्वरूप प्रतिपादिका वचनसंततिस्तां वक्ष्येप्रतिपादयिष्यमितत्र पूर्वेषुचंद्गादि वक्तव्यता। "नामेण इंदभूतीत्तिगोतमो वंदिऊण तिविहेणं। पुच्छइ जिनवरवसहंजोइसगणराय पन्नतिं ।। वृ.प्रथमतोगौतमप्रश्नोपेक्षेवमावेदयति।योनाम्नाजगति इन्द्रभूतिरिति प्रसिद्धो, गौतमो गोत्तमगोत्रः,सभगवंतंजिनवर वृषमंवर्द्धमानस्वामिनमस्य स्वसमीपेतप्रश्नासंभवात्रिविधेन चमनसावाचा कायेनचवन्दित्वा-नमस्कृत्य, ज्योतिषराजस्यचन्द्रमस उपलक्षणमेतत्सूयदिश्च प्रज्ञप्तेप्ररूप्यते इति प्रज्ञप्तिश्चन्द्रादीनां यथावस्थिता स्वरूपस्थितस्तां सम्पृच्छतीति । शिष्यस्य प्रश्नावकाशमाशङ्कय प्रथमतो प्रथमतोप्रामृतेषु यदक्तवयं तदुपक्षिपन् गाथा पञ्चकमाह ||३|| दीप अनुक्रम [३] [यहां तक 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' आगम 'सूर्यप्रज्ञप्ति' से अलग पडता है, अब आगे से दोनो आगमोमें बहलतया सबकुछ समान ही दिखाई दिया है ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [१] + गाथा: ||१-१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सर्यप्रजमिवत्ति (मल०) २०प्राभूताधिकारा सूत्रांक ||१-५|| यहां से 'सूर्यप्रज्ञप्ति' और चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनो आगम बहुलतया एकसमान ही है, सिर्फ सूत्र के क्रमांक मे फ़र्क पडता है कह मंडलाइ बचा१तिरिच्छा किं च गच्छद २ ओभासइ केवइयं ३ सेयाइ किं ते संठिई ४॥१॥ कहिं पडिहया लेसा ५, कहिं ते ओयसंठिई ६। के सूरियं वरयते ७, कहं ते उदयसंठिई ८॥२॥ कह कट्ठा पोरिसीच्छाया ९, जोगे किं ते व आहिए १० । किं ते संवच्छरेणादी ११, कह संवच्छराइय १२॥ ३॥ कहं| टीचंदमसो बुढी १३, कया ते दोसिणा बह १४ । के सिग्घगई वुत्ते १५, कहं दोसिणलक्षणं ॥४॥ चयणोववाय १७ उच्चत्ते १८, सरिया कह आहिया १९ । अणुभावे के व संबुत्ते २०, एवमेयाई बीसई॥५॥ .. प्रथमे प्राभृते सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवारं कति वा मण्डलानि द्विकृत्वो ब्रजतीत्येतन्निरूपणीयं, किमुक्तं भवति ?-एवं गौतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्व तद्विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभूते वक्तव्यमिति । एवं सर्वत्रापि भावनीयं ।। द्वितीये प्राभृते 'किं' कथं वाशब्दः सर्वप्राभृतवक्तव्यतापेक्षया समुच्चये तिर्यग्नजतीति २, तृतीये चन्द्रः सूर्यो वा कियक्षेत्रमवभासयति-प्रकाशयतीति ३, चतुर्थे श्वेतताया:-प्रकाशस्य 'कि' कथं 'ते' तव मते संस्थितिः-व्यवस्थेति ४, पश्चमे परिवर्तितनिहाविकधैर्गुतः कृतप्राञ्जलिभिः । भक्तिबहुमानपूर्वमुपयुक्त श्रोतव्यं ॥१॥ दीप अनुक्रम [५-९] ॥६॥ २०-प्राभृतस्य नामानि एवं तस्य विषय-वर्णनं ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------- ---------- प्राभृतप्राभृत [१], -- --------- मूलं [१] + गाथा: ||१-५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] ||१-५|| कस्मिन् सूर्यस्य प्रतिहता लेश्येति ५, षष्ठे 'क' केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उत्तान्यथा ओजस:-प्रकाशस्य संस्थितिः-अवस्थानमिति ६, सप्तमे के पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति-सूर्यलेश्यासंसृष्टा भवन्तीति ७, अष्टमे 'कथं केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते'. तव मतेन सूर्यस्योदयसंस्थितिः८, नवमे कतिकाष्ठा-किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया ९, दशमे योग इति वस्तु किं 'ते' त्वया भगवताऽऽख्यातमिति १०, एकादशे कस्ते-तव मतेन संवत्सराणामादिरिति ११, द्वादशे कति संवत्सरा इति १२, त्रयोदशे 'कथं' केन प्रकारेण चन्द्रमसो वृद्धि:-वृद्धिप्रतिभासः, उपलक्षणमेतत्तेन वृद्ध्यवृद्धिप्रतिभास इत्यर्थः १३, चतुर्दशे 'कदा कस्मिन् काले 'ते' तव मतेन चन्द्रमसो ज्योत्स्ना बहु-प्रभूतेति, १४, पञ्चदशे कश्चन्द्रादीनां मध्ये शीघ्रगतिरुक्क इति १५, पोडशे किं ज्योत्स्नालक्षणमिति वक्तव्यं १५, सप्तदशे चन्द्रादीनां च्यवनमुपपातश्च स्वमतपरमतापेक्षया वक्तव्यः १७, अष्टादशे चन्द्रादीनां समतलाभागादूर्वमुञ्चत्वं-यावति प्रदेशे व्यवस्थितत्वं तत्स्वमतपरमतापेक्षया प्रतिपाद्य १८, एकोनविंशतितमे कति सूर्या जम्बूद्वीपादावाख्याता इत्यभिधेयं १९, विंशतितमे कोऽनुभावश्चन्द्रादीनामिति २०॥ एवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण एतानि अनन्तरोदितार्थाधिकारोपेतानि विंशतिः प्राभृतान्यस्यां सूर्यप्रज्ञप्तौ वक्तव्यानि, अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, इह प्राभृतं नाम लोकप्रसिद्धं यदभीष्टाय देशकालोचितं दुर्लभ वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते, प्रकर्षणासमन्ताद् भ्रियते-पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुपस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः, 'कृहहुल'मिति वचनाच करणे कप्रत्यया, विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परम| दुर्लभाः परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो-विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते, ततः प्राभृतानीव दीप अनुक्रम [५-९] FOPATIBETathwonte ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [?] + ॥१-५॥ दीप अनुक्रम [५-९] *** प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [१] + गाथाः || १ - ५ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) सूर्यप्रज्ञ- प्राभृतानि, प्राभृतेषु चान्तरगतानि प्राभृतप्राभृतानि तदेवमुक्ता विंशतेरपि प्राभृतानामर्थाधिकाराः। सम्प्रति प्रथमे तिवृत्तिः * प्राभृते यान्यपान्तरालवतन्यष्टौ प्राभृतप्राभृतानि तेषामर्थाधिकारान् उपदिदिक्षुराह-( मल० ) ४ ॥ ७ ॥ अत्र सूत्र २ बोबी मुत्ताण १ मदमंडलसंठिई २ । के ते चिन्नं परियरह ३ अंतरं किं चरंति य ४ ॥ ६ ॥ जग्गाहर केवइयं ५, केवतियं च विकंपइ ६ । मंडलाण य संठाणे ७, विक्खंभो ८ अट्ठ पाहुडा ॥ ७ ॥ ( सूत्र ) छप्पंच य सत्तेव य अट्ट तिनि य हवंति पडिवसी । पढमस्स पाहुडस्स हवंति एयाउ पडिवसी ॥ ८ ॥ सूत्रं ) पडिबत्तीओ उदए, तह अस्थमणेसु य। भियवाए कण्णकला, मुहस्ताण गतीति य ॥ ९ ॥ निक्खममाणे सिग्धगई पबिसंते मंदगईइ य । चुलसीइस पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ | १० || उदयम्मि अट्ठ भणिया भेदग्धाए दुबे य पडिवती । चत्तारि मुहुत्तगईए हुंति तइयंमि पडिवसी ॥ ११ ॥ ( सूत्र ) आबलिय १ मुहत्तग्गे २, एवं भागा य ३ जोगस्सा ४ | कुलाई ५ पुन्नमासी ६य, सन्निवाए७य संठिई ८ ॥ १२ ॥ तार ( प ) गं च ९ नेता य १०, चंदमग्गत्ति ११ यावरे । देवताण य अज्झयणे १२, मुहस्ताणं नामया इय १३ ॥ १३ ॥ दिवसा राइ कुत्ता य १४, तिहि १५ गोत्ता १६ भोयणाणि १७ य । आइचवार १८ मासा १९ य, पंच संवकछरा इय २० ॥ १४ ॥ जोइसस्स य दाराई २१, नक्खन्तविजए विय २२ । दसमे पाहुडे एए, बावीसं पाहुउपाहुडा ॥ १५ ॥ सूत्रं प्रथमस्य प्राभृतस्य सरके प्रथमे प्राभृतप्राभृते मुहूर्त्तानां दिवसरात्रिगतानां वृद्ध्यपवृद्धी वक्तव्ये १, द्वितीयेऽर्द्धमण्ड ५ (द्वितियात् पञ्चमं ) मध्ये गाथा: ६-१५ वर्तते For PP Use On ~ 11~ १ प्राभूते १ प्राभूतप्राभृर्त ॥७॥ • सू. २-५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [२-५] + गाथा: ||६-१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२-५] ||६-१५|| लस्य द्वयोरपि सूर्ययोः प्रत्यहोरात्रमर्द्धमण्डलविषया संस्थितिः-व्यवस्था वक्तव्या २, तृतीये तव मतेन कः सूर्यः किय-४ दपरेण सूर्येण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरतीति निरूप्यं ३, चतुर्थे द्वावपि सूर्यों परस्परं कियत्परिमाणमन्तरं कृत्वा चारं चरत है इति प्रतिपाद्यं ४, पञ्चमे कियत्प्रमाण द्वीप समुद्रं वाऽवगाह्य सूर्यश्चारं चरतीति ५, षष्ठे एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्प्रमाण क्षेत्र विकम्प्य-विमुच्य चारं चरतीति ६, सप्तमे मण्डलानां संस्थानमभिधानीयं ७, अष्टमे मण्डलाना-1 मेव विष्कम्भो-बाहल्यमिति ८, एवमर्थाधिकारसमन्वितानि प्रथमे प्राभृते अष्टौ प्राभृतप्राभृतानि । सम्प्रति प्रथम एव प्राभृते चतुरादिषु प्राभूतप्राभूतेषु यत्र यावत्यः प्रतिपत्तयः परमतरूपास्तत्र तावतीरभिधित्सुराह-छप्पंचे'त्यादि, प्रथलामस्य प्राभृतस्य चतुरादिषु प्राभृतप्राभूतेषु यथाक्रममेताः प्रतिपत्तयः-परमतरूपा भवन्ति, तद्यथा-चतुर्थे प्राभृतप्राभृते षट् प्रतिपत्तयः ४, पश्चमे पश्च ५, षष्ठे सप्त ७, सप्तमे अष्टौ ८, अष्टमे तिन ३ इति ॥ सम्प्रति द्वितीये प्राभृते यदर्धाधिकारोपेतानि श्रीणि प्राभूतप्राभृतानि तान् प्रतिपादयति-पडिवत्ती'त्यादि, द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते सूर्यस्योदये अस्तमयनेषु च प्रतिपत्तयः-परमतरूपाः प्रतिपाद्याः स्वमतप्रतिपत्तिश्च, द्वितीये भेदधातः कर्णकला च वक्तव्या, किमुक्तं भवति ?-भेदो मण्डलस्थापान्तरालं तत्र घातो-गमनं, 'हन हिंसागत्यो रिति वचनात् , स एकेषां मतेन प्रति पाद्यः, यथा विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरं सूर्योऽपरमनन्तरं मण्डलं सामतीति, तथा कर्ण: कोटिलाभागः तमधिकृत्यापरेषां मतेन कला वक्तव्या, यथा विवक्षिते मण्डले द्वावपि सूर्यों प्रथमक्षणे प्रविष्टी सन्ती पूर्वापरको टिद्वयं लक्षीकृत्य बुद्ध्या परिपूर्ण यथावस्थितं मण्डलं विवक्षित्वा ततः परमण्डलस्य कर्ण-कोटिभागरूपमभिसमीक्ष्य ततः KARNESS दीप अनुक्रम [१०-१९] ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [२-५] + गाथा: ||६-१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ सूत्रांक (मल.) [२-५] ॥८ ॥ ||६-१५|| 64 कलया २-मात्रया २ इत्यर्थः अपरमण्डलाभिमुखमभिसर्पन्तौ चार चरत इति । तृतीये प्राभृतप्राभृते प्रतिमण्डलं मुहूर्तेषु१प्राभृते सिवृत्तिःगति:-गतिपरिमाणमभिधातव्यं, तत्र निष्कामति प्रविशति वा सूर्ये यादृशी गतिर्भवति ताटशीमभिधित्सुराह- १प्राभूत 'निक्खमें त्यादि निष्क्रामन्-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद हिनिर्गच्छन् सूर्यो यथोत्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् शीघ्रगतिः शीघ्रतरग-4 प्राभूत तिर्भवति, प्रविशन्-सर्वेबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरमागच्छन् प्रतिमण्डलं मन्दगतिः मन्दमन्दगतिः, तेषां च मण्डलाना चतुरशीत-चतुरशीत्यधिक शतं सूर्यस्य भवति, तेषां मण्डलानां च विषये प्रतिमुहर्त सूर्यस्य गतिपरिमाण-IN |चिन्तया पुरुषाणां प्रतिपत्तयो नाम-मतान्तररूपा भवन्ति । सम्पति कस्मिन् प्राभृतमाभृते कति प्रतिपत्तय इत्येतत्परूप-| यति-द्वितीये प्राभृते त्रिष्वपि प्राभृतप्राभृतेषु यथाक्रममेवंसयाः प्रतिपत्तयो भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभृतप्राभृते उदये-सूर्योदयवक्तव्यतोपलक्षिते अष्टौ भणितास्तीर्थकरगणधरैः प्रतिपत्तयो, द्वितीये प्राभृतप्राभूते भेदधाते-भेदधातरूपे परमतवक्तव्यतोपलक्षिते दे एवं प्रतिपत्ती भवतः, तृतीये प्राभृतप्राभृते मुहूर्तगतौ-मुहूर्तगतिवक्तव्यतोपलक्षिते चतस्रः प्रतिपत्तयो भवन्ति, 'पसारी'ति च सूत्रे नपुंसकत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लिई व्यभिचारि, यवाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-'लिङ्गं व्यभिचार्यपी'ति । सम्पति दशममाभृते यान्यपान्तरालवत्तीनि द्वाविंशतिसायानि प्राभृत-1 प्राभृतानि तेषामथाधिकारमाह-दशमे प्राभृते एतानि-सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् एतदर्थाधिकारोपेतानि द्वाविंशतिःXI प्राभूतप्राभूतानि भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणामावलिकाक्रमो वक्तव्यो, यथा अभिजिदादीनि नक्षत्राणि भवन्तीति १, द्वितीये नक्षत्रविषयं मुहू ग्रं-मुहर्त्तपरिमाणं वक्तव्यं २, तृतीये 'एवं भागा'इति 'पूर्वभागा' इति पूर्वपश्चि दीप अनुक्रम [१०-१९] * S ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [२-५] + गाथा: ||६-१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२-५] ||६-१५|| ४] मादिप्रकारेण भागा वक्तव्याः ३, चतुर्थे 'योगस्सति योगस्यादिर्वक्तव्यः, तथा च वक्ष्यति–ता कहं ते जोगस्सा आई आहियत्ति बइज्जा'इति ४, पश्चमे कुलानि चशब्दादुपकुलानि कुलोपकुलानि च वक्तव्यानि ५, पछे पौर्णमासीति पौर्णमासीवक्तव्यता अभिधेया ६, सप्तमे 'सन्निपात'इति अमावास्यापौर्णमासीसन्निपातो वक्तव्यः ७, अष्टमे नक्षत्राणां संस्थितिः-संस्थानं वक्तव्यं ८, नवमे नक्षत्राणां तारानं-तारापरिमाणमभिधेयं, दशमे नेता वक्तव्यो, यथा कत्ति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमाप्त्या के मासं नयन्तीति १०, अपरस्मिन्नेकादशे प्राभृतप्राभृते चन्द्रमार्गाः-चन्द्रमण्डलानि नक्षत्राद्यधिकृत्य वक्तव्यानि ११, द्वादशे नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि-अधीयते-ज्ञायते एभिरित्यध्ययनानि-नामानि वक्तव्यानि १२, त्रयोदशे मुहर्तानां नामकानि वक्तव्यानि १३, चतुर्दशे दिवसा रात्रयश्चोक्काः १४, पञ्चदशे तिथयः १५, षोडशे गोत्राणि नक्षत्राणां १६ सप्तदशे नक्षत्राणां भोजनानि वाच्यानि, यथेदं नक्षत्रमेवंरूपे Fभोजने कृते शुभाय भवतीति १७, अष्टादशे आदित्यानामुपलक्षणमेतचन्द्रमसां च चारा वक्तव्याः १८, एकोनविंशति तमे मासाः १९, विंशतितमे संवत्सराः २०, एकविंशतितमे ज्योतिषां-नक्षत्र चक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि, यथाऽमूनि नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि अमूनि च पश्चिमद्वाराणीत्यादि २१, द्वाविंशतितमे नक्षत्राणां विषय:-चन्द्रसूर्ययोगादिविषयो | निर्णयो वक्तव्य इति ॥ तदेवमुक्ता प्राभृतप्राभृतसक्या तेषामर्थाधिकाराच, सम्प्रति यदुक्तं 'प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथमे माभृतप्राभृते मुहूर्तानां वृद्व्यपवृद्धी वक्तव्ये' इति तद्विवक्षुर्यथा तद्विषये गौतमनामा प्रथमगणधरो भगवन्तं पृच्छति भस्म यथा च भगवान् तत्वमचकथत् तथोपदर्शयन्नाह दीप अनुक्रम [१०-१९] SERIES ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्राक “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], ----------- ------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: नम: श्री वीतरागाय | नमो अरिहंताणं || ते णं कालेणं ते णं समए णं मिथिला नाम नयरी होत्था | रिद्धत्थिमियसमिद्धा पमइतजणजाणवया जाव पासादीया. (४) (तिसे णं मिहिलाए नयरीए बहिया उत्तरपरच्छिमे दिसिभाए एत्थणं माणिभदेणामं चेहए होत्या वपणओ)। तीसे णं मिहिलाए जितसत्तू राया, धारिणी देवी, प्तिवृत्तिः विष्णओ, तेणं काले णं तेणं समए णं तंमि माणिभद्दे चेहए)सामी समोसदे, परिसा निग्गता, धम्मो कहितो, (मल (पडिगया परिसा) जाच राजा जामेव दिसिं पादुन्भूए तामेव दिसिं पडिगते (सूत्र 'तेणं काले ण'मित्यादि, त इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, अस्यायमर्थो-यदा भगवान् विहरति स्म तस्मिन् णमिति वाक्यालङ्कारे दृष्टश्चान्यत्रापि णशब्दो वाक्यालङ्कारार्थे यथा 'इमा णं पुढवी' इत्यादाविति, काले अधिकृतावसप्पिणीचतुर्थभागरूपे, अत्रापि गंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, 'ते णं समए णं ति समयोऽवसरवाची, तथा च लोके वक्तारो-नाचाप्येतस्य वक्तव्यस्य समयो वर्तते, किमुक्तं भवति -नाद्याप्येतस्य वक्तव्यस्यावसरो वर्तत इति, तस्मिन् | समये भगवान् प्रस्तुतां सूर्यवक्तव्यतामचकीत्, तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी अभवत् , नन्विदानीमपि सा नगरी वर्तते ततः कथमुक्तमभवदिति , उच्यते, वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्तविभूतिसमन्विता तदैवाभवत् न तु प्रन्थविधानकाले, एतदपि कथमवसेयमिति चेत् ।, उच्यते, अयं कालोऽवसर्पिणी, अवसर्पिण्यां च प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपगच्छन्ति, पतच्च सुप्रतीतं जिनप्रवचनवेदिनां, अतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधभारु, सम्पति अस्या नगयों वर्णकमाह'रिस्थिमिपसमिन्हा पमुइयजणजाणवया पासाईया एक इति, ऋद्धा-भवनः पौरजनैश्वातीव वृद्धिमुपगता 'ऋधू वृद्धा विति वचनात् स्तिमिता-स्वचक्रपरचक्रतस्करडमरादिसमुत्थभयकल्लोलमालाविवर्जिता समृद्धा-धनधान्यादिविभूति-| युक्ता, ततः पदत्रयस्यापि कर्मधारयः, तथा 'पमुइयजणजाणवय'त्ति प्रमुदिताः-प्रमोदवन्तः प्रमोदहेतुवस्तूनां तत्र ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२०] सूत्रस्य प्रस्तावना, नगरी-वर्णनं ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक SALM दीप सद्भावाजना-नगरीवास्तव्या लोका जानपदा-जनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजानपदा, यावच्छन्देनीपपातिकग्रन्थप्रतिपादितः समस्तोऽपि वर्णकः 'आइन्नजणसमूहा(मणुस्सा) इत्यादिको द्रष्टव्यः, (सू.१)स च ग्रन्थगौरवभयान लिख्यते, केवलं तत एवौपपातिकादवसेयः, कियान द्रष्टव्य इत्याह-पासाईया एक' इति अत्र एकशब्दोपादानात् प्रासादीया इत्यनेन पदेन सह पदचतुष्टयस्य सूचा कृता, तानि च पदान्यमूनि-प्रासादीया दर्शनीया अभि| रूपा प्रतिरूपा, तत्र प्रासादेषु भवा प्रासादीया प्रासादबहुला इत्यर्थः, अत एव दर्शनीया-द्रष्ट योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात् , तथा अभिमुखमतीवोक्तरूपं रूपं-आकारो यस्याः सा अभिरूपा प्रतिविशिष्ट-असाधारणं रूपं-आकारो यस्याः सा प्रतिरूपा, 'तीसेणं मिहिलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरछिमे दिसीभाए एत्थ णं माणिभद्दे नाम चेइए होत्था वण्णओं' इति तस्या मिथिलानगर्या बहिर्य औसरपौरस्त्यः-उत्तरपूर्वारूपो दिग्विभाग ईशानकोण इत्यर्थः, एकारोल मागधभाषानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः,यथा कयरे आगच्छइ दित्तवे'(उत्त०१२-६)इत्यादौ,'अत्र' अस्मिन् औत्तरपौरस्त्ये दिग्विभागे माणिभद्रमिति नाम चैत्यमभवत्, चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यं, तच्चसंज्ञाशब्दत्वाद्देवताप्रतिविम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्य, तच्चेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं, नतु भगवतामहतामायतनमिति, वण्णओ'त्ति तस्यापि चैत्यस्य वर्णको वक्तव्यः, स चौपपातिकग्रन्थादवसेयः (सू.२)। तीसेणं मिहिलाए'इत्यादि, तस्या ४ाच मिथिलायां नगर्यो जितशत्रुर्नाम राजा, तस्य देवी-समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुणधारणा धारिणीनाम्नी देवी, 'वण्णओत्ति तस्य राज्ञः तस्याश्च देव्या औपपातिकग्रन्थोक्को वर्णकोऽभिधातव्यः, (सू.७) तेणं काले णं तेणं समए अनुक्रम [२०] ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रस्तावना. प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) सूत्राक दीप तमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया,धम्मो कहिओ, पडिगया परिसा' तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्मिन् माणिभद्रे चैत्ये 'सामी समोसढे'त्ति स्वामी जगद्गुरुर्भगवान् श्रीमहावीरो अर्हन् सर्वज्ञः सर्वदशी सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छ्रयः समचतुरस्रसंस्थानो बज्रर्षभनाराचसंहननः कजलप्रतिमकालिमोपेतस्निग्धकुचितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्धजः उत्तप्ततपनीयाभिरामकेशान्तकेशभूमिरातपत्राकारोत्तमाङ्गसन्निवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादप्यधिकतरवदनशोभः पद्मोत्प-1 लसुरभिगन्धनिःश्वासो वदनविभागप्रमाणकम्बूपमचारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूर्णविपुलस्कन्धप्रदेशो महापुरकपाटपृथुलवक्षःस्थलाभोगो यथास्थितलक्षणोपेतः श्रीवृक्षपरिघोपमप्रलम्बबाहुयुगलो रविशशिचक्रसीवस्तिकादिप्रशस्तलक्षणोपेतपाणितलः सुजातपार्थो झषोदरः सूर्यकरस्पर्शसञ्जातविकोशपझोपमनाभिमण्डलः सिंहवत्संवर्तितकटीपदेशो निगूढजानुः कुरुविन्दवृत्तजङ्घायुगलः सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणतलप्रदेशः अनाश्रयो निर्ममः छिन्नश्रोता निरुपलेपोऽपगतप्रेमरागद्वेषश्चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतो देवोपनीतेषु नवसु कनककमलेषु पादन्यासं कुर्वन्नाकाशगतेन धर्मचक्रेण आकाशगतेन छत्रेण आकाशगताभ्यां चामराभ्यामाकाशगतेनातिस्वच्छस्फटिकविशेषमयेन सपादपीठेन सिंहासनेन पुरतो देवैः प्रकृध्यमाणेन २ धर्मध्वजेन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्त्रैः पत्रिंशत्सवरार्यिकासहस्रैः परिवृतो यथास्वकल्पं सुखेन विहरन यथारूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा चाssत्मानं भावयन् समवस्तः, समवसरणवर्णनं च भगवत औपपातिकग्रन्धादवसेयं (सू.१०यावत३३) परिसा निग्गय'त्ति मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थं स्वस्मादाश्रयाद्विनिर्गत इत्यर्थः, तन्निर्गमश्चैवम्-'तए णं मिहिलाए नयरीप सिंघाडगतियचउकचचरचउम्मुहमहापहेसु अनुक्रम [२०] %-64646 ॥२ ॥ ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ एवं पन्नवेइ एवं परूबेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे | आइगरे जाव सबन्नू सबदरिसी आगासगएणं छत्तेणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे इह आगए इह समागए इह समोसढे| इहेच मिहिलाए नयरीए वहिआ माणिभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता अरिहा जिणे केबली समणगणपरिबुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ,तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया!तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपजुवासणयाए , तं सेयं खलु एगस्सवि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अहस्सगणयाए ?,तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पजुवासेमो, एयं णो इहभवे परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तएण मिहिलाएनयरीए वहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकग्रन्थोक्त(सू.२७) सर्वमवसेयं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका पर्षत् पर्युपासीना तिष्ठति । 'धम्मो कहिओ'त्ति तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेपजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म उपदिष्टः, स चैवम्-'अस्थि लोए अस्थि जीवा अस्थि अजीवा' इत्यादि, तथा-"जई जीवा वझंति मुच्चती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करिंति केई अपडिबद्धा ॥१॥ अट्टनियट्टियअचित्ता जह जीवा सागरं भवमुर्विति । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥ २॥'तहा आइक्खइ'त्ति या जीवा बध्यन्ते मुच्यन्ते यथा च संक्लिश्यन्ते । यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केचिदप्रतिबद्धाः॥॥ मार्शनियत्रितचिता यथा जीवाः सागरं । भयं (कुखसागर) पयान्ति । यथा च परिहीमकर्माणः सिद्धाः सिकाळपमुपयान्ति ॥२॥ अनुक्रम [२०] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [२०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल०) 'जाब राजा जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए' इति, अत्र यावच्छब्दादिदमोपपातिकप्रन्थोक्तं द्रष्टव्यं-'तए णं सा महइमहालिया परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हडतुडा समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आंयाहिणपयाहिणं करेइ करिता बंदर नर्मसह वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी- सुयक्खाए णं भंते ! निम्गंथे २ पावयणे, नत्थि य केइ अने समणे वा माहणे वा परिसं धम्ममा इक्खिसए, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउथ्भूया तामेव ॥३॥ * दिसं पडिगया, तए णं से जियसत्तू राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सुच्चा निसम्म हडतुडे जाव हयहि* यए समणं भगवं महावीरं बंदर नर्मसह वंदित्ता नर्मसित्ता पसिणाई पुच्छइ पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएइ परिवाइत्ता * उठाए उडाइ उठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव एरिसं धम्ममाइक्लित्तए, एवं वइत्ता हत्थि दुरूहर दुरूहित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाओ माणिभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए' (सू. ३५० ३६-३७) इति इदं च सकलमपि सुगमं, नवरं यामेव दिशमवलम्ब्य किमुक्तं भवति ? - यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतःसमवसरणे समागतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । समणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती णामे (मं) अणगारे गोतमे गोणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसंघयणे जाव एवं बयासी (सूत्रं "ते काले णं तेणं समए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामे अणगारे गोयमे Education International For Park Use Only ~ 19~ प्रस्तावना. ॥ ३ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [२१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गोसेणं सन्तुस्सेहे समजउरंससंठाणसंठिए वारिसमारायसंघयणे जाव एवं वयासी' इति, तस्मिन् काले तस्मिन् समये, शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठ इति प्रथमः, अन्तेवासी शिष्यः अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसङ्गाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः, नामेति प्राकृतत्वात् विभक्तिप रिणामेन नाम्नेति द्रष्टव्यं, अन्तेवासी च किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यात् अतस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमाह-'अनगारः' न विद्यते अगारं - गृहमस्येत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि स्यादत आह-गौतमो गोत्रेण गौतमाहयगोत्रसमन्वित इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेह परिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्वादत आह-'सतोत्सेधः' सप्तहस्तप्रमाणशरीरोहायः, अयं चेत्थंभूतो लक्षणहीनोऽपि सम्भाच्येत अतस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह-'समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितः समाः-शरीलक्षणशास्त्रोक प्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत्समचतुरस्रं, अनयस्त्विह चतुर्दिगविभागोपलक्षिताः शरीरा वयवा द्रष्टव्याः, अन्ये त्वाहुः - समा-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत्समचतुरस्रं, अश्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं १ आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं २ दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं ३ वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तर ४ मिति, अपरे स्वाहुः- विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रं तच्च तत्संस्थानं च २ संस्थानं - आकारस्तेन संस्थितो- व्यवस्थितो यः स तथा, अयं च हीनसंहननोऽपि केनचित्सम्भाध्येत तत आह- 'वज्ररिसहनाराय संघयणे' नाराचं-उभयतो मर्कटबन्धः ऋषभः- तदुपरिवेष्टनपट्टः कीलिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, 'एवं जाव व्यासी' इति, यावच्छन्दोपादानादिदमनुक्तमप्यवसेयं-'कणगपुल गनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे Eaton intentiona इन्द्रभूतिगौतमस्य वर्णनं For Parts Only ~20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [२१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ४ ॥ सूर्यप्रज्ञ- महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चउदसपुवी चडनाणोवगए तिवृत्तिः सक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीररस अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं ( मल० ) * भावेमाणे विहरइ, तए णं से भयवं गोयमे जायसढे जायसंसए जायको उहले उप्पन्नसहे उप्पन्नसंसए उप्पन्नको उहले समुप्पण्णसद्धे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नको उहले उडाए उडेर उडाए उहित्ता जेणेव समणे भगवं महाचीरे तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, आयाहिणपयाहिणं करिता वंदइ नर्मसद् वंदित्ता नर्मसित्ता णच्चासने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नर्मसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासेमाणे एवं वयासी, | अस्यायमर्थ:- कनकस्य- सुवर्णस्य यः पुलको -लवस्तस्य यो निकष:-- (कप) पट्टके रेखारूपः, तथा पद्मग्रहणेन पद्मकेसर राण्युच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात् यथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽप्यवयवो देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्य हस्तायं स्पृष्ट्वा लोको वदति-देवदत्तो मया स्पृष्ट इति, ततः कनकेषु (कस्य) पुलकनिकपवत्पद्म केसरवच यो गौरः स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, अथवा कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो-वर्णः तत्सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत् पद्मकेसर इव यो गौरः स पद्मगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः समासः, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शोत अत आह'उग्गतवे' उग्गं- अप्रधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीर्घं - जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहन दहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्म्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवेति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं हि तेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यप्यशुभानि कर्माणि भस्मसा Education International For PalPrsata Use Only ~ 21~ प्रस्तावना. ॥ ४५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक (७) 39-% 8454545 स्कृतानीति, महत्-प्रशस्तमाशंसादोपरहितत्वात्तपो यस्य स महातपाः, तथा 'उराले'त्ति उदारः-प्रधानः अथवा ओरालो-४ भीष्मः, उग्रादिविशेषणतः पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः, तथा घोरो-निष॑णः परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधिकृत्य निर्दय इत्यर्थः, तथा घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा-ज्ञानादयो यस्य स तथा, तथा घोरस्तपोभिस्तपस्वी, 'घोरबंभचेरवासि'त्ति घोरं-दारुणं अल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्य यत्तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, उच्छूढ-उज्झितं उझि-४ तमिव उज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उच्छूढशरीरः, 'सखित्तविउलतेउलेसे'त्ति संक्षिप्ता-शरीरान्तर्गतत्वेन हस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेष-17 ४ प्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'चउदसपुषि'त्ति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव रचितत्वात् , असौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-चउनाणोवगए' मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानरूपज्ञानचतुष्टयसमन्वित इत्यर्थः, उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति, चतुर्दशपूर्वविदामपि पदस्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह-'सर्वाक्षरसन्निपाती' अक्षराणां सन्निपाता:-संयोगाः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयानि स तथा, किमुक्तं भवति ?-या काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा सम्भवति ताः सर्वा अपि आनातीति, एवंगुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाच्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते विहरतीति योगः, तत्र दूर-विप्रकृष्टं सामन्त-सन्निकृष्टं तत्प्रतिषेधा|ददूरसामन्त, तत्र नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत आह-'उहुंजाणु'त्ति अा जानुनी CASSEMBER दीप अनुक्रम [२१] ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयप्रजप्तिवृत्तिः प्रत (मल०) सूत्रांक ॥५ ॥ [७] दीप अनुक्रम [२१] 545454545 यस्यासौ ऊर्ध्वजानुः, शुद्धपृधिच्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्यायास्तदानीमभावाच्च उत्कटुकासन इत्यर्थी, अधःशिरा नोय तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावः, 'झाणकोट्टोवगए'त्ति ध्यान-धर्म्य शुक् वा तदेव कोष्ठ:-कुशूलो धानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो, यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति, एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्ताकरणवृत्तिरित्यर्थः, 'संयमेन पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन 'तपसा' अनशनादिना, चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुप्तो द्रष्टव्यः, संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थ, प्राधान्यं च संयमस्य |नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, तथाहि-अभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच जायते सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, ततो भवति संयमतपसोर्मोक्षं प्रति प्राधान्यमिति, 'अप्पाणं भावेमाणे विहरई' इति आत्मानं भावयन्-वासयन् तिष्ठतीत्यर्थः, 'ततो णं से इति ततो-ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं, णमिति वाक्यालङ्कारार्थः, 'स' भगवान् गौतमो 'जायस?' इत्यादि जातश्रद्धादिविशेषणः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाताप्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञान प्रति यस्यासी जातश्रद्धः, तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो नामानवधारितार्थ ज्ञानं, स चैवं भगवतः-इह सूर्यादिवक्तव्यता अन्यथा, अन्यथा च तीर्थान्तरीयरुपदिश्यते, ततः किं| तत्त्वमिति संशयः, तथा 'जायकुऊहल्ले त्ति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलः जातीत्सुक्य इत्यर्थः, यथा कथमेनां | सूर्यवक्तव्यतां भगवान् प्रज्ञापष्यितीति, तथा 'उप्पन्नसहे'त्ति उत्पन्ना-पागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासी उत्पन्नश्रद्धा, अथ जातश्रद्धः इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते ,प्रवृत्तबद्धत्वेनोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात्, न धनुत्पन्ना ५ ॥ ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: LOCAL प्रत सूत्राक ७) दीप श्रद्धा प्रवर्तत इति, अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं प्रवृत्तश्रद्धः?, उच्यते यत उत्पन्नश्रद्ध'इति, हेतुत्वप्रदर्शनं चोपपन्न, तस्य काव्यालङ्कारत्वात् , यथा 'प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी'मित्यत्र यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करचमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीप्तत्वादेहेतुतयोपन्यस्तमिति समीचीनं, 'उप्पन्नसहे| उप्पन्नसंसए''उप्पन्नकोउहल्ले' इति प्राग्वत्, तथा संजायसहे'इत्यादि पदपदं प्राग्वत्,नवरमिह सम्शब्दः प्रकर्षादिव-12 चनो वेदितव्यः, तत 'उट्ठाए उद्वेइ' इति उत्थानमुत्था ऊर्व-वर्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उद्वेई' इत्युक्त क्रियारम्भमानमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुत्थयेत्युक्तम्, 'जेणेवे'त्यादि प्राकृतौलीवशादव्ययत्वाच्च येनेति यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यं, यस्मिन् दिग्भागे श्रमणो भगवान महावीरो वर्तते 'तेणेच'त्ति तस्मिन् दिग्भागे उपागच्छति, इह वर्तमानकालनिर्देशस्तकालापेक्षया उपागमनक्रियाया वर्तमानत्वात् , परमार्थतस्तूपागतवानिति द्रष्टव्य, उपागम्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मतापन्नं विकृत्व-त्रीन् बारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, आदक्षिणात्-दक्षिणहस्तादा-8 भरभ्य प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणः तं करोति, कृत्वा वन्दते-स्तौति नमस्यत्ति-कायेन प्रण मति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च 'न'नैव अत्यासन्नोऽतिनिकटः अवग्रहपरिहारात् अथवा नात्यासन्नस्थाने वर्तमान इति गम्यं, तथा 'न' नैवातिदूरोऽतिविप्रकृष्टोऽनौचित्यपरिहारात्, अथवा नातिदूरे स्थाने 'सुस्सूसमाणे'त्ति भगवचनानि श्रोतुमिच्छन्, 'अभिमुत्ति अभि-भगवन्तं प्रति मुखमस्येत्यभिमुखः 'विणयेण'त्ति विनयेन हेतुना 'पंजलियडे'त्ति प्रकृष्ट:-प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन अञ्जलि:-हस्तन्यासविशेषः कृतो-विहितो येन स प्राञ्जलिकृतः, भार्योढादेराकृतिग-18 णतया कृतशब्दस्य परनिपात: 'पज्जुवासेमाणे इति पर्युपासीन:-सेवमान:, अनेन विशेषणकदंबकेन श्रवणविधिरूपदर्शितः, उक्तं च "निहाविगहापरिवज्जिएहिं गत्तेहिं पञ्जलिउडेहिं भत्तिबहुमानपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ||१|| इति, 'एवं वदासि' त्ति एवं-वक्ष्यमाण प्रकारेण मुहूर्तवृद्धिअपवृद्धि वक्तव्यता विषयं प्रश्नं अवादीत् उक्तवान् । अनुक्रम [२१] 645-4-580-%A8 ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ..................... प्राभूतप्राभूत [१], ---------------- मूल [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) ॥९॥ प्राभृते १प्राभृतप्राभूत प्रत सुत्राक दीप ता कहं ते बद्धोवद्धी मुहुत्ताणं आहितेति वदेजा! ता अट्ठएकूणवीसे मुहत्तसते सत्तावीसं च सहिभागे मुहत्तस्स आहिते वि(ति)वदेजा (सूत्रं ८) | 'ता कहं ते बद्धोबडी मुहुत्ताण मित्यादि, अत्र तावच्छब्दः क्रमार्थः, क्रमश्चायमस्त्यन्यदपि चन्द्रसूर्यादिविषय प्रभूतं प्रष्टव्यं, परं तदास्तां सम्प्रत्येतावदेव तावत्पृच्छामि-कथं केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते' त्वया 'मुहूर्ताना' दिवसरात्रिविषयाणां वृद्ध्यपवृद्धी आख्याते इति भगवान् प्रसादमाधाय 'वदेत्' यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं कथयेत् येन मे संशयापगमो भवति, अपगतसंशयश्च परेभ्यो निशङ्कमुपदिशामीति । अत्राह-ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसन्निपाती सम्भिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञाकुशलः सूत्रतश्च प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव, उक्त च-संखाईएवि भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेजा । नयणं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥१॥" ततः कथं संशयसम्भवस्तदभावाञ्च किमर्थं पृच्छतीति !, उच्यते, यद्यपि भगवान् गौतमो यथोकगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि मतिज्ञानावरणीयाधुदये वर्तमानत्वात् छद्मस्थता, छद्मस्थस्य च कदाचिदनाभोगोऽपि जायते, यत उक्कम्-"न हि नामानाभोग छमस्थस्येह कस्यचिन्नेति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृतिकर्म ॥१॥" ततोऽनाभोगसम्भवादुपपद्यते [भगवतोऽपि संशया, न चैतदना, यत उतं उपासकश्रते आनन्दश्रमणोपासकावधिनिर्णयविषये-'तेणं' भताकि आणदेणं समणोवासपणं तस्स ठाणस्स आलोइयवं जाव पडिक्कमियवं उयाहु मए , ततो गं गोयमादी समणे भगवं संपातीतानपि भवान् कथयति महा परः पूछेत् । न चैनं भनतिपायी विजानाति यसैष उपस्थः ॥ १॥ अनुक्रम [२२] ॥९ ॥ अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ आरभ्यते ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप महावीरे गोयम एवं वयासी-तुमं चेवणं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिकमाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमई | खामेहि, तए णं समणे भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमट्ट विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिफमइ, आणंदं च समणोवासयं एयमई सामेह' इति, अथवा भगवान् अपगतसंशयोऽपि | शिष्यसम्प्रत्ययार्थं पृच्छति, तथाहि-तमर्थ शिष्येभ्यः प्ररूप्य तेषां सम्प्रत्ययार्थं तत्समक्षं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति। यदिवा इत्थमेव सूत्ररचनाकल्प इति न कश्चिद्दोषः । एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवान् श्रीवर्द्धमानस्वामी। | प्रतिवचनमभिधातुकामः सविशेषबोधाधानाय प्रथमतो नक्षत्रमासे यावन्तो मुहूर्ताः सम्भवन्ति तावतो निरूपयतिसाता अडे'त्यादि, तावदिति शिष्योक्तपदानुवादः स च न्यायमार्गप्रदर्शनार्थ, तथाहि-सर्वेणापि गुरुणा शिष्येण प्रश्न कृते सति शिष्यपृष्टस्य पदस्य अन्यस्य वा शिष्योक्तस्य तथाविधस्य पदस्य अनुवादपुरस्सरं प्रतिवचनमभिधातव्यं येन गुरुषु शिष्याणां बहुमानो भवति-यथाऽहं गुरूणां सम्मत इति, अन्यच्च तावच्छन्दस्यायमर्थः-आस्तामन्यत्प्रतिवक्तव्यमिदानी तावदेव तवाग्रे कथयामि, एतस्मिन्नक्षत्रमासे अष्टौ मुहर्तशतानि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिं सप्तषष्टिं भागानहमाख्याता इति स्वशिष्येभ्यो वदेत् , एतेन चैतदावेदयति-इह शिष्येण सम्यमगधीतशास्त्रेणापि गुर्वनुज्ञातेन सता तत्त्वोपदेशोऽपरस्मै दातव्यो नान्यथेति, अध कथमेकस्मिन्नक्षत्रमासे अष्टौ शतान्ये कोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति !, उच्यते, इह युगे चन्द्रचन्द्राभिवर्धितचन्द्राभिवर्द्धितरूपसंवत्सरपञ्चकात्मके सप्तषष्टिनक्षत्रमासाः, युगे चोक्तस्वरूपे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशद-| अनुक्रम [२२] ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॥१०॥ सूत्राक दीप अनुक्रम धिकानि १८३०, तत एतेषां सप्तपध्या भागो हियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषा तिष्ठति एकविंशतिः, सा मुहू- १प्राभूते नयनार्थ त्रिंशता गुण्यते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तपध्या भागे हृते लब्धा नव मुहर्ताः ९,४१प्राभृत#शेषाऽवतिष्ठते सप्तविंशतिः, आगतं नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्राः नब मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्त-| प्राभृतं पष्टिभागाः, तत्र सप्तविंशतिरहोरात्रा मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते जातान्यष्टौ शतानि दशोत्तराणि ८१०, तेषां मध्ये उपरितना नव मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, आगतं नक्षत्रमासे मुहूर्तपरिमाणमष्टी शतान्येकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागा इति । इदं च नक्षत्रमासगतमुहर्सपरिमाणं है उपलक्षणं, तेन सूर्यादिमासानामध्यहोरात्रसवां परिभाव्य मुहूर्तपरिमाणं यथाऽऽगर्म भावनीयं, तश्चैवम्-सूर्यमासा युगे |वष्टिर्भवन्ति, युगे चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणां, ततस्तेषां षष्ट्या भागे हृते लब्धा त्रिंशदहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्याई, एतावत्सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशन्मुहूर्त्तश्चाहोरात्र इति त्रिंशत्रिंशता गुण्यते, जातानि नव शतानि मुहूर्ताना, अर्ने चाहोरात्रस्य पञ्चदश मुहर्ताः, तत आगतं सूर्यमासे मुहर्तपरिमाणं नव शतानि पश्चदशोत्तराणि ९१५ तथा युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासास्ततोऽष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य करणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जावानि नव | |शतानि षष्ठयधिकानि ९६०, तेषां द्वाषष्ठ्या भागो हियते, लब्धाः पश्चदश मुहूर्ताः, शेषा तिष्ठति त्रिंशत् ३०, एकोनत्रिशच्चाहोरात्रा मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि सप्तत्यधिकानि ८७०, ततः पाश्चात्याः पश्चदश मुहूर्ता [२२] ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], --------- ------ मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत SAR सूत्राक दीप ट्राएषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, तत आगतं चन्द्रमासे मुहूर्तपरिमाणमष्टौ शतानि पश्चाशीत्यधिकानि त्रिंशच द्वापष्टिभागा महशर्तस्य । कर्ममासश्च त्रिंशदहोरात्रप्रमाणस्ततस्तत्र मुहूर्तपरिमाणं नव शतानि परिपूर्णानि, तदेवं मासगतं मुहर्तपरिमाणकामुकं, प्रतदनुसारेण च चन्द्रादिसंवत्सरगतं युगगतं च मुहूर्जपरिमाणं स्वयं परिभावनीयं । तथा च सत्यवगतं मुहूर्तप रिमाण, सम्पति प्रत्ययने ये दिवसरात्रिविषये मुहूर्तानां वृक्षपवृद्धी ते अवबोडुकाम इदं पृच्छतिRI ता जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सबवाहिरं मंडलं उचसंकमित्ता चार चरति सववाहिरातो मंडलातो सबभंतरं मंडलं अवसंकमित्ता चारं चरति, एस णं अद्धा केवतियं रातिदियग्गेणं आहितेत्तिा स्वदेजा ,ता तिण्णि छापढे रातिदियसए रातिदियग्गेणं आहितेतिवदेजा (सूत्रं ९)ता एताए अद्धाए सरिए। कति मंडलाई चरति ?, ता चुलसीयं मंडलसतं चरति, पासीति मंडलसतं दुक्खुत्तो चरति, तंजहा-णिक्खममाणे चेव पवेसमाणे घेव, दुवे य खलु मंडलाई सई चरति, तंजहा-सवन्भंतरं चेव मंडलं सबषाहिरं चेव मंडलं (सूत्रं १०)॥ 'ता जया ण'मित्यादि, तावच्छब्दार्थभावना सर्वत्रापि प्रागुक्तानुसारेण यथायोगं स्वयं परिभावनीया, शेषस्य च वाक्यस्यायमर्थः-'यदा यस्मिन् काले, णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्विनिर्गत्य प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलचारेण यावत् सर्ववायं मण्डलमुपसतम्य चारं चरति-परिचमणमुपपद्यते, सर्वबाह्याच मण्डलादपसृत्य प्रतिरात्रिन्दिवमेकैकमण्डलपरिचमणेन यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'एमा' एतावती, णमिति पूर्ववत् अद्धा अनुक्रम [२२] ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१], ---------- ----- मूलं [९-१० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयेंमज प्रत सूत्रांक ॥११॥ [९-१०] दीप कियता 'रात्रिदिवाण' रात्रिदिवपरिमाणेन आख्याता इति वदेत् , अत्र प्रतिवचनं-'ता तिन्नि इत्यादि, एपा अद्धा प्राभृते प्तिवृत्तिःवरात्रिन्दिवाण विभी रात्रिदिवसशतैः पट्पष्टै:-षट्पट्यधिकैराख्याता इति, स्वशिष्येभ्यो वदेत् । पुनः पृच्छति-' ता१प्राभूत(मलाएयाए ण'मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, एतया-एतावत्या षट्षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणया अद्धया कति मण्ड-14 लानि सूर्यो द्विकृत्वश्चरति ?, कति वा मण्डलान्येकवारमिति शेषः, अत्र प्रतिवचनवाक्यम्-'ता चुलसीय'मित्यादि, सामान्यतश्चतुरशीत-चतुरशीत्यधिक मण्डल शतं चरति, अधिकस्य मण्डलस्य सूर्यसत्कस्याभावात् , 'तत्रापि चतुरशीतशतमध्ये 'व्यशीतं' घशीत्यधिक मण्डलशतं द्विकृत्वश्चरति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाहिर्निष्कामन् सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशंश्च, द्वे च मण्डले-सर्वाभ्यन्तर सर्वबाह्यरूपे 'सकृदू एकैकं वारं 'चरति परिभ्रमति। भूयः प्रश्नयति जह खलु तस्सेव आदिचस्स संवच्छ रस्स सयं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति सई अट्ठारसमुहुत्ता राप्ती भवति सई दुवालसमुहसे दिवसे भवति सई दुवालसमुलुत्ता राती भवति, पढमे छम्मासे अस्थि अद्वारसमुहुत्ता राती भवति, दोचे उम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे,णत्थि अट्ठारसमुहुत्ताराती, अस्थि दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति पढमे छम्मासे, दोचे छम्मासे णत्थि पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवति, णस्थि पण्णरस-| मुहुत्ता राती भवति, तत्थ णं के हेतुं वदेजा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ सवदीवसमुदाणं सबभतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते, ता जता णं सूरिए सबभंतरमंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहत्ता राती भवति, से| LIKE अनुक्रम [२३-२४] ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभूतप्राभत [१], -------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पदमसि अहोरसंसि अम्भितरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, शता जयाण सरिए अमितराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राती भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, से णिक्खममाणे मूरिए दोसि अहोरसि अन्भतरं तच्च मंडलं स्वसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति चाहिं एगद्विभाग-2 मुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहसा राती भवति चाहिं एगहिभागमुलुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं |णिक्खममाणे सूरिए एगमेगे मंडले दिवसे खेत्तस्स णिबुड्ढेमाणे २रतणिक्खेसस्स अभियुद्धेमाणे २ सबवाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए सबभंतरातो मंडलाओ सबबाहिरं मंडलं उचसंक-18 मित्ता चार चरति तता णं सबभंतरमंडलं पणिधाय एगणं तेसीतेणं राईदियसतेणं तिण्णि छाबड एगडिग हत्ते सते दिवसे खेत्तस्स णिहित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिबुद्वित्ता चारं चरति, तदा णं उत्तमकट्टपत्ता उकोसिपा अट्ठारसमहत्ता राती भवति, जहण्णए वारसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस 3 पढम छम्मासस्स पजवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे (आयमाणे) पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमेत्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अहारसमुहत्ता राती भवति, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए For P OW ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [११] ॥१२॥ 2 ENSEX 9 दोसि अहोरसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरं तचं मंडलं उव-४१माभृते संकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहत्ता राती भवति च रहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तदाणं-12 प्राभृत तरातो तयाणंतर मंडलातो मंडलं संकममाणे दो दो एगविभागमुहत्ते एगमेगे मंडले रतणिखेत्तस्स णिबड़ेमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवढेमाणे २ सयभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबबाहिराओ मंडलाओ सबभंतरं मंडलं जवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सववाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसतेणं तिन्नि छावठे एगट्ठिभागमुहुत्तसते रयणिखेत्तस्स निवुद्वित्ता दिवसखेत्तस्स अभिवद्वित्ता चार चरति तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालस-13 मुहुत्ता राती भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे एस णं आदिचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, इति खलु तस्सेवं आदिचस्स संवच्छरस्स सह अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, सई अट्ठारसमुहत्ता राती भवति, सई दुवालसमुलुत्ता राती भवति, पढमे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे नस्थि दुवालसमुहुत्ता राई अस्थि दुवालसमुहूत्ता राई नस्थि दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, पढमे वा उम्मासे णत्थि पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवति, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता दीप -0- 4 - अनुक्रम [२५] % ॥१२ ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१] ....... ......--- प्राभतप्राभूत [१], .................- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] राई भवति णस्थि रातिदियाणं वहोवड्डीए मुहुत्ताण वा चयोवचएणं, णण्णस्य वा अणुवायगईए, गाधाओ भाणितबाओ (सूत्रं ११) पढमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुड पाहुडं ॥ १-१॥ | 'जह खलु इत्यादि, यदि खलु षट्पट्याधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणायामद्धायां व्यशीतं मण्डलशतं द्विकृत्वश्चरति द्वे च मण्डले एकैकं वारमिति तत एवं सति यदेतद्भगवद्भिः प्ररूप्यते, तस्य षट्पष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणस्य सूर्यसंवसरस्य मध्ये सकृद्-एकवारमष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसोभवति, सकृच्चाष्टादशमुहूतोंरात्रिः, तथा सकृद्-एकवार द्वादशमुहत्तॊ दिवसो भवति सकृय द्वादशमुहर्ता रात्रिः, तत्रापि षण्मासे प्रथमेऽस्ति अष्टादशमुहूर्ता रात्रिनत्वष्टादशमुहूत्तों दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे पण्मासे द्वादशमुहूर्तो दिवसो न तु द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, द्वितीये पण्मासेऽस्त्यष्टादशमुहूत्तों दिवसो नत्वष्टादशमुहर्ता रात्रिः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव द्वितीये पण्मासे द्वादशमुहतों राबिनेंतु द्वादशमुहतों दिवसः, तथा प्रथमे षण्मासे द्वितीये वा पण्मासे नास्त्येतत् यदुत-पञ्चदशमुहूर्तोऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत्, यदुत पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिरिति, तत्र एवंविधे वस्तुतत्त्वावगमे को हेतुः -किं कारणं कया युक्त्या एतत्प्रतिपत्तव्यमिति भावार्थः, 'इति वदे दिति, अत्रार्थे भगवान प्रसादं कृत्वा वदेत् । अत्र प्रतिवचनमाह-ता अयण्ण'मित्यादि, 'अयं'प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो णमिति वाक्यालङ्कारे 'जम्बूद्वीपो'जम्बूद्वीपनामा द्वीपः, स च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः-सर्वमध्यवर्ती सर्वेषामपि शेषद्वीपसमुद्राणामित आरम्य यथागमोतक्रमद्विगुणविष्कम्भतया भवनात् 'जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते'इति, अत्र यावच्छन्दोपादानादिदमन्यदू पन्थान्तरे प्रसिद्धं सूत्रमवगम्तव्यं 'सबक्खुड्डागे पट्टे तेलापूयसंठाणसं ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप सूर्यप्रज्ञ-४ ठिए बढे रहचकवालसंठाणसंठिए वझे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसठिए जोयणसयसहस्समायाम-13 १प्राभृते तिवृत्तिः विखंभण तिन्नि जोयणसयसहस्साई दोनि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगु- प्रामृत(मल०) लाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते' इति, अत्र 'सचखुड्डागत्ति सर्वेभ्योऽप्यन्येभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः प्राभूत क्षुलको-लघुरायामविष्कम्भाभ्यां योजनलक्षप्रमाणत्वात् , शेषं प्रायः सुगर्म परिधिपरिमाणं गणितं च क्षेत्रसमासटी-1 कातः परिभावनीयं, 'ता'इति ततो यदा णमिति पूर्ववत्, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा णमिति प्राग्वत् उत्तमकाष्ठाप्राप्तोऽत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षवाची परमप्रकर्षप्राप्तो यतः परमन्योऽधिको न भवति स इत्यर्थः, 'उकोस'त्ति उत्कर्षतीत्युत्कर्षः उत्कर्ष एवोत्कर्षका उत्कृष्ट इत्यर्थः, अष्टादशमहत्तों दिवसो भवति, तस्मिन्नेव च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्ये चारं चरति जघन्या-सर्पलध्वी द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, एषोऽहोरात्रः पाश्चात्यस्य सूर्यसंवत्सरस्य पर्यवसानं, ततः स |सूर्यस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्कामन् नवं सूर्यसंवत्सरमाददान:-प्रवर्तमानः प्रथमे अहोरात्रे 'अम्भितरानंतर'-18 |न्ति सोभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति ततो यदा सूर्योऽभ्यन्तरानन्तरं-सवोभ्यन्त-| रामण्डलादनन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमहत्तों दिवसो द्वाभ्यां महतंकपष्टिभागाभ्यामूनो " १२॥ |भवति, द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिः कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इहेक मण्डलमेकेनाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्याभ्यां परिसमाप्यते, एकैकश्च सूर्यः प्रत्यहोरात्र मण्डलस्य त्रिंशदधिकोऽष्टादशशतसङ्ग्यान् |भागान् परिकल्प्य एकैकं भार्ग दिवसक्षेत्रस्य रात्रिक्षेत्रस्य वा यथायोग्य हापयिता वर्द्धयिता वा भवति, स चैको मण्ड-13 अनुक्रम [२५] ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] लगतस्त्रिंशदधिकाष्टादशशततमो भागो द्वाभ्यां मुहुर्तेकषष्टिभागाभ्यां गम्यते, तथाहि-तानि मण्डलगतानि त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि भागानां द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकेनाहोरात्रेण गम्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः, ततः सूर्यद्वयापेक्षया पष्टिर्मुहर्ता लभ्यन्ते ततखैराशिककर्मावकाशः, यदि पट्या मुहूर्तेरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि मण्डलस्य भागानां गम्यते तत एकेन मुहूर्तेन किं गम्यते !, राशित्रयस्थापना-। ६० । १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनाजातानि तान्येवाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि तेषामायेनराशिना पष्टिलक्षणेन भागो हियते लब्धाः सार्दास्त्रिंशद्भागाः, एतावन्मुहूर्त्तन गम्यते, मुहूर्तश्चैकपष्टिभागीक्रियते तत आगतमेको भागो द्वाभ्यां मुहूतेकपष्टिभागाभ्यां गम्यते, यदिवा यदि ज्यशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन षट् मुहूर्ता हानी वृद्धौ वा प्राप्यन्ते तत एकेनाहोरानेण किं प्राप्यते ?, राशित्रयस्थापना-1 १८३ । ६।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशि ण्यते, जातास्त एव षट्, तेषां ज्यशीत्यधिकेन शतेन भागहरणं, अत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते ततश्छेद्यच्छेदकराश्योखिकेनापवर्त्तना, जात उपरितनो राशिद्धिकरूपोऽधस्तन एकपष्टिरूपः, आगतं द्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्तस्य एकस्मिन्नहोरात्रे वृद्धी हानी वा प्राप्यते इति, तथा 'ता'इति तस्माद् द्वितीयान्मण्डलानिष्क्रामन् सूर्यों द्वितीये अहोराने सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमपेक्ष्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमवेक्ष्य तृतीये मण्डले उपसङ्कम्य चार चरति सदा चतुर्भिर्मुहूर्तस्यैकपष्टिभागैहीनोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, चतुर्भिमुहत्त-15 स्यैकषष्टिभागैरधिका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिः, एवमुक्तनीत्या 'खलु'निश्चितमेतेनानम्तरोदितेनोपायेन प्रतिमण्डलं ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] सूर्यप्रज्ञ- दिवसरात्रिविषयमुहूत्तैकषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण निष्कामन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैर्दक्षिणाभिमुखं गच्छन् । प्तिवृत्तिःसूर्यः, 'तयाणंतरा'इति तस्माद्विवक्षितादनन्तरान्मण्डलात् 'तयाणंतर मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डल सङ्कामन् २ मामतएककस्मिन् मण्डले मुहर्तस्य द्वौ द्वायेकषष्टिभागौ दिवसक्षेत्रस्य 'निर्वेष्टयन २'हापयन २ रजनिक्षेत्रस्य प्रतिमण्डल द्वी दी। प्राभूत मुहूर्तस्यैकषष्टिभागौ अभिवर्द्धयन् २ ज्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते सर्ववाद्यं मण्डलमुपसङ्कम्य ।१४॥ चारं चरति 'ता'इति ततो यदा तस्मिन् काले अहोरात्ररूपे णमिति प्रागिव सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्मण्डलपरिच| मणगत्या शनैः शनैः निष्कम्य सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'प्रणिधाय'मर्यादीकृत्य द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन व्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि 'षट्पष्टानि' षट्पट्याधिकानि मुहूर्त्तकपष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्य निर्वेष्ट्य'हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य तान्येव त्रीणि मुहूत्र्तकषष्टिभागशतानि पट्पट्याधिकानि अभिवर्स चार चरति, तदा णमिति पूर्ववत्, उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षमाप्ता उत्कर्पिका-तस्कृष्टा अष्टादशमुहर्ताअष्टादशमुहर्त्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहर्तप्रमाणो दिवसः, एषा प्रथमा षण्मासी, यदिवा एतत् प्रथम षण्मासं, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् , एष व्यशीत्यधिकशततमोऽहोरात्रः प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं । 'से पविसमाणे इत्यादि, 'स'सूर्यः सर्ववाद्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयं षण्मासमाददाना-प्रतिपद्यमानो द्वितीयस्य ॥१४॥ पण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वागनन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्काम्य चारं चरति 'ता'इति तत्र यदा सूर्यो| मावाद्यात्-सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामूना अष्टा LORSCOACA दीप अनुक्रम [२५] ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], ----------------- प्राभृतप्राभृत [१], --------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] दिनमहर्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागाभ्यामधिको द्वादशमुहर्तप्रमाणो दिवसः, ततस्ततोऽपि द्वितीयान्मण्ड-14 लादभ्यन्तरं स सूर्यः प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीये अहोरात्रे 'बाहिरं तचं'ति सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तन तृतीयं मण्डलमुपसङ्काम्य चार चरति 'ता जया 'मित्यादि, ततो यदा णमितिपूर्ववत्, सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डलादा-12 फनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति 'ता जया णमित्यादि ततो यदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिश्चतुर्भिः 'एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ति प्राकृतत्वाद व्यत्यासेन पदोपन्यासः, एवं तु यथास्थितपदनिर्देशो द्रष्टव्यो-मुहूकषष्टिभागैरूना भवति, चतुर्भिर्मुहकपष्टिभागैरधिको द्वादशमुहूत्तों दिवसः । 'एवं खलु एएण'मित्यादि, एवं-उक्कनीत्या खल्वेतेन-अनन्तरोदितेनोपायेन प्रति-8 मण्डलं रात्रिदिवसविषयमुहूत्तैकषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण प्रविशन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरुत्तराभिमुख गच्छन् 'तयाणंतराउ'त्ति तस्माद्विवक्षितान्मण्डलात्'तयाणंतर मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् र एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तस्य द्वौ द्वावेकषष्टिभागौ रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्टयन दिवसक्षेत्रस्य प्रतिमण्डलं द्वौ द्वौ मुहूर्तस्यैकषष्टिभागी अभिवर्द्धयन २ यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूते 'सबभंतति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता'इति ततो यदा-यस्मिन् काले णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलामण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविश्य सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वबाह्यमण्डलं 'प्रणिधाय'मर्यादीकृत्य तदाकनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन ज्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि पशष्टानि-पटूपठाधिकानि मुहूर्त-ला ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूखेमज्ञ १प्राभूते १प्राभूतप्राभूत तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] 4-9649+%24 स्यैकषष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्ट्य-हापयित्वा दियसक्षेत्रस्य च तान्येव त्रीणि षट्पटानि मुहसंकपटिभागक्षतानि अभिवर्ध्व चार चरति, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षका उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति जघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, एतत् द्वितीयं षण्मासं, यदिवा एषा द्वितीया षण्मासी, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात्, एष षट्पट्याधिकत्रिशततमोऽहोरात्रो द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानभूतः, 'एष एवंप्रमाण आदित्यसंवत्सरा, एष षट्पध्यधिकत्रिशततमोहोरात्रः 'आदित्यस्य आदित्यसम्बन्धिनः संवत्सरस्य पर्यवसानम् । सम्मत्युपसंहारमाह'इइ खलु तस्सेव'मित्यादि, यस्मादेवं 'इति तस्मात्कारणात्तस्यादित्यस्य-आदित्यसंवत्सरस्य मध्ये 'एवं उक्केन प्रकारेण 'सकृद्' एकवारमष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति सकृच्चाष्टादशमुहर्ता रात्रिः, तथा सकृद् द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति सकृष्च बादशमुहर्ता रात्रिः, तत्र प्रथमे पण्मासे अस्त्यष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, सा च प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, नत्वष्टादशमुहर्तो दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहूत्तों दिवसः, सोऽपि प्रथमषण्मासपर्यवसानेहोरात्रे, नतु द्वादशमुहूचा रात्रिः, द्वितीये षण्मासेऽस्त्येतद् यदुत अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, सच द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूसेडहोरात्रे नत्वष्टादशमुहूर्त्तारात्रिः, तथा अस्त्येतत् यदुत तस्मिन्नेव द्वितीयपण्मासे अस्ति द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, साऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयपण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, न पुनरस्त्येतत् यदुत द्वादशमहतॊ दिवसो भवतीति तथा प्रथमेवा षण्मासे नास्त्येतत्व यदुत पञ्चदशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहर्चा रात्रिः, किं सर्वथा नेत्याह-नाम्यत्र-रात्रिन्दिवानां वृध्यपवृद्धेरन्यत्र न भवति, रानिन्दिवानां तु वृद्ध्यपवृद्धौ च भवत्येव पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः पश्चदशमुहतों दिवसः, ते च वृक्षा ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१] ....... ......--- प्राभतप्राभूत [१], .................- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] पवूद्धी रात्रिन्दिवानां कथं भवत इत्याह-मुहुत्ताणंचयोवचएण'मुहूर्तानां पञ्चदशसङ्ख्यानां चयोपचयेन चयेन-अधिकत्वेन वृद्धिरपचयेन-हीनत्वेनापवृद्धिः, इयमत्र भावना-परिपूर्णपञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे दिवसरात्रीन भवतो, हीनाधिकपञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे तु दिवसरात्री भवतः, पर्व 'अन्नत्थ वा अणुवायगईए'इति वाशब्दः प्रकारान्तरसूचने अन्यत्रानुपातगते:-अनुसारगतेः पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता वा रात्रिनं भवति, अनुसारगत्या तु भवत्येव, साचानुसारगतिरेवं-यदि ज्यशीत्यधिकशततमे मण्डले षण्मुहूर्त्ता वृद्धौ हानौ वा प्राप्यन्ते ततोऽर्वाक् तदर्द्धगतौ यो मुहूर्ताःप्राप्यन्ते,व्यशीत्यधिकशतस्य वाई सार्दा एकनवतिः तत आगतं एकनवतिसकोषु मण्डलेषु गतेषु द्विनवतितमस्य च मण्डलस्या॰ गते पञ्चदश मुहर्ताः प्राप्यन्ते, तवस्तत उ रात्रिकल्पनायां पश्चदशमुहूत्तों दिवसः, पञ्चदशमुहूर्ता च रात्रिर्लभ्यते नान्यथेति, 'गाहाओ भणितव्याओ'त्ति अत्र अनन्तरोक्तार्थसवाहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहुवामिना या नियुक्तिः कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता 'भणितव्याः'पठनीयाः, ताश्च सम्पति कापि पुस्तके न दृश्यन्त इति व्यवच्छिन्नाः सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा शिष्येभ्यः कथनीया व्याख्यानीयाश्चेति । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं । समाप्तं तदेवमुक्त प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृत सम्पति द्वितीयमर्द्धमण्डलसंस्थितिप्रतिपादकं विवक्षुरिदं प्रश्नसूत्रमाह अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभृतं-१ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभूतं- २ आरभ्यते ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: RE प्रत सूत्रांक [१२-१३] (मल.) ॥१६॥ दीप अनुक्रम ता कहं ते अद्धमंडलसंठिती आहिताति वदेजा ?, तस्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिती पं०, तं०-दाहिणा १ प्राभूते ४ चेव अद्धमंडलसंठिती उत्तरा चेव अडमंडलसंठिती । ता कहं ते दाहिणअद्धमंडलसंठिती आहितातिर २प्राभूत&वदेजा, ता अयणं जंबुद्दीवे दीवे सबदीवसमुदाणंजाब परिक्खेवेर्ण ता जया णं सूरिए सबभंतरं दाहिणं * प्राभूतं अमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्टपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहत्ता राती भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तंसिर दाहिणाए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते अभितराणतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमित्ता चार चरति, जता गं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहत्ते[हिं] दिवसे भवति दोहिं एगट्ठभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती दोहिं एगहिभागमुहत्तेहि ४ अधिया से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए अम्भितरं तचं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमिसा चारं चरति ।ता जया णं सूरिए अभितरं तचं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवर्सकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते [हिं] दिवसे भवति चाहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तदणंतरातोऽणंतरंसि तंसि २ देसंमि तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणो २ दाहिणाए २ अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते, सववाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए [२६-२७] ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] SACROG दीप अनुक्रम सबबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिर्ति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ता उकोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमछम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराते अंतरभागाते| तस्सादिपदेसाते चाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए 4 बाहिराणंतरं दाहिणअद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगडिभागमुहुरोहिं अणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि दाहिणाते अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए पाहिरंतरं तचं उत्तरं अद्धमंडलसं-18 ठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए बाहिरं तचं उत्तरं अहमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति तदा णं अट्ठारसमुहुसा राई भवति चाहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तदाणंतराउ तदाणंतरं तंसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणे २ उत्तराए अंतराभागाते तस्सादिपदेसाए सबभंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिर्ति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया गं सरिए सवन्भंतरं दाहिणं अन्डमंडलहिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे, एस ण दोचस्स छमासस्स पनवसाणे, एस गं आदिचे संवच्छरे, एस णं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं १२)ता कहं ते [२६-२७] ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम उत्तरा अद्धमंडलसंठिती आहितातिवदेजा, ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सबदीवजावपरिक्खेवेणं, ता जताणं माभृते सरिए सबभंतरे उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारस- २ मा मुटुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति जहा दाहिणा तहा चेष णवरं उत्तरडिओ प्राभूत अम्भितराणतरं दाहिणं खषसंकमह, दाहिणातो अभितरं तचं उत्तर पवसंकमति, एवं खलु एएणं उवाएणं जाव सबबाहिरं दाहिणं उवसंकमति, सवयाहिरं दाहिणं वसंकमति २त्ता दाहिणाओ बाहिराणंतरं उत्तरं उवसंकमति उत्तरातो याहिरं तचं दाहिणं तच्चातो दाहिणातो संकममाणे २ जाव सबभंतरं उवसंकमति, तहेव । एस णं दोचे छम्मासे एसणं दोचस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिच्चे संवच्छरे, एसणं आदिचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे गाहाओ। (सूत्रं १३) बीयं पाझुडपाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहते'इत्यादि, 'ता'इति क्रमार्थः, पूर्ववद् भावनीया, 'कथं' केन प्रकारेण भगवन् ! ते'तव मते 'अर्द्धमण्डलसं|स्थिति'अर्द्धमण्डलव्यवस्था आख्यातेति वदेत्, पृच्छतश्चायमभिप्रायः-ह एकैका सूर्य एकैकेनाहोरात्रेणकैकस्य मण्डजालस्यामेव भ्रमणेन पूरयति, ततः संशयः कथमेकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरानमेकैका मण्डलपरिचमणव्यवस्थेति पृष्ठति, अत्र भगवान् प्रत्युत्तरमाह-ता खलु'इत्यादि, 'ता'इति तत्रार्द्धमण्डलव्यवस्थाविचारे खलु-निश्चितमिमे दे अ मण्डलसंस्थिती मया प्रज्ञसे, तद्यथा-एका दक्षिणा चैव-दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थिति:-अर्जुमण्डलव्यवस्था म द्वितीया उत्तरा चैव-उत्तरदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, एवमुक्केऽपि भूयः पृच्छति-ता कहं ते'इत्यादिदेह । [२६-२७] ॥१७॥ 61 ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम द्वे अपि अर्जमण्डलसंस्थिती ज्ञातव्ये तत्रेदं तावत्पृच्छामि-कथं स्वया भगवन् 'दक्षिणा'दक्षिणदिग्भाघिसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ?,भगवानाह-'ता अयपण'मित्यादि, इदं जम्यूहीपवाक्यं प्रागिव स्वयं परिपूर्ण परि|भावनीयम् , ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा, णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरी-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति तदा णमिति पूर्ववत् , उत्तमकायाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्तः, उत्कर्षक-उत्कृष्टोऽटादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादू शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि मण्डलगत्या परिचमति येनाहोरात्रपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागानपरे च द्वे योजने अतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयोत्सरार्जुमण्डलसीमायां वर्तते, तथा चाह-से निक्खममाणे इत्यादि स सूर्यः सर्वाभ्यन्तरगतात् प्रथमक्षणादूई शनैः शनैर्निष्क्रामन् अहोरात्रेऽतिकान्ते सति नवम्-अभिनव संवत्सरमाददानो नवस्य प्रथमेऽहोरात्रे दक्षिणस्माद्-दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरात्-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद्विनिर्गत्य 'तस्सादिपएसाए'इतितस्य-सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्याभ्यन्तरानन्तरां-सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति, स चादिप्रदेशादूद्ध शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखमत्रापि तथा कथञ्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तदपि मण्डलमन्ये च द्वे योजने परित्यज्य दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्य मण्डलस्य सीमायां भवति, ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्खम्य चारं चरति [२६-२७] ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) प्राभृते २ प्राभूत प्राभृतं प्रत सूत्रांक [१२-१३] ॥१८॥ 5:45-45844 दीप अनुक्रम तदा दिवसोऽष्टादशमुहूर्तों द्वाभ्यां मुहूकषष्टिभागाभ्यामूनो भवति, जघन्या च द्वादशमुहर्ता रानिः द्वाभ्यां मुहूर्तक- पष्टिभागाभ्यामभ्यधिका, ततस्तस्या अपि द्वितीयस्या उत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितेरुक्कप्रकारेण स सूर्यो निष्कामन् अभिनवस्य सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तराद् द्वितीयोत्तरार्द्धमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनैकषष्टि|भागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद् विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्यार्द्ध|मण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'अम्भितरं तचंति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमपेक्ष्य तृतीयां दक्षिणाममण्डलसंस्थितिमुपसङ्गम्य माचारं चरति, अत्रापि तथा चारं चरति आदिप्रदेशादू शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखं येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तन्मण्डल-2 गतानष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागानपरे च द्वे योजने अपहाय चतुर्थस्योत्तरार्द्धमण्डलस्य सीमायामवतिष्ठते, 'ता जया 'मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयां दक्षिणामीमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति चतुर्भिर्मुहूत्तैकषष्टिभागैरूनो द्वादशमुहर्ता रात्रिः चतुर्भिर्मुहत्तैकषष्टिभागैरभ्यधिका, 'एवं खलु'इत्यादि, एवं-उतनीत्या खलु-निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनदयविकम्पनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तरादर्द्धमण्डलात्तदनन्तरं तस्मिन् २ देशे-दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा ता तां-अर्द्धमण्डलसंस्थितिं सामन २ यशीत्यधिकशततमाहोरात्रपर्यन्ते गते दक्षिणमात्-दक्षिणदिग्भाविनीशान्तरात् ब्यशीत्यधिकशततममण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपा दागात्तस्साइपएसाए इति तस्य-सर्ववाह्यमण्डलगतस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वबाह्यामुत्तराईमण्डलसंस्थि [२६-२७] %95-%A5% ॥१८ FarPurwanaBNamunoonm ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: + + प्रत सूत्रांक [१२-१३] -१८+ दीप अनुक्रम तिमुपसङ्कम्य चारं चरति, स चादिप्रदेशादूई शनैः २ सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणालमण्डलाभिमुखं स्था कथंचनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलसीमावां भवति, नतो बदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्खम्य चारं चरति, तत्र उत्तमकाष्ठां प्राप्ता (परमप्रकर्षगता) उत्कपिका-उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ण रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहूत्तों दिवसः, 'एस ण'मित्यादि, निगमनवाक्यप्राग्वत्, 'स पविसमाणे इत्यादि, सूर्यः सर्वचाह्योत्तरार्द्धमण्डलादिप्रदेशार्प शनैः शनैः सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयदक्षिणार्द्धमण्डलाभिमुखं सामन् तस्मिन्नेवाहोरात्रेऽतिकान्ते सति अभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य पण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविसर्वबाह्यमण्डलगतादन्तरात् सर्वबाह्यान्तरार्द्धमण्डलगताष्टाचत्वारिंशयोजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरार्वाग्भावियोजनदयप्रमाणादपान्तरालरूपानागात् 'तस्साइपएसाए'इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनः सर्वबाह्यानन्तरस्य दक्षिणस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'बाहिराणंतरंति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यानन्तरामभ्यPन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, अत्रापि धार आदिप्रदेशादूर्व तथा कथंचनाप्यभ्यन्तराभिमुखं बचते येनाहोराघपर्यन्ते सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरस्य तृतीया मण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जया ण'मित्यादि, ततो दमदा सूर्यो बाह्यानन्तरा-सर्वबाह्यादनन्तरांदक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहर्ता रात्रि - Pा मुहकपष्टिभागाभ्यामूना भवति, द्वादशमुहर्चप्रमाणो दिवसोद्वाभ्यां मुहत्तैकषष्टिभामाभ्यामधिका 'से पविसमा स्वादिभिवाहोगवेऽविकान्वे सतिसूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्व पण्मासत द्वितीयेभोराने दक्षिणमादामाद [२६-२७] ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] सूर्य सिवृतिः ( मल० ) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - Education international उपांगसूत्र-५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [२] मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः ॥ १९ ॥ क्षिणदिग्भाविनोऽन्तरा दक्षिणदिग्भाविसर्वबाह्यानन्तरद्वितीय मण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनै कषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरा- ४ र्वाग्भावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाङ्गागाद्विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्य सर्वबाह्यादभ्यन्तरस्य तृतीयस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशात्-आदिप्रदेशमाश्रित्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्याया अर्द्धमण्डलसंस्थितेस्तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थि४ तिमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, अत्रापि चार आदिप्रदेशादारभ्य शनैः शनैरपरार्द्ध मण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि प्रवर्त्तमानो द्रष्टव्यो येन तदहोरात्रपर्यन्ते सर्व वाह्यादर्द्ध मण्डलात्तृतीयामर्वाकनीमर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहर्त्ता रात्रिश्चतुर्भिर्मुहतैकपष्टिभागैरुना भवति, द्वादशमुहूर्त्तश्च दिवसश्चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरभ्यधिकः, 'एव' मित्यादि, एवम्-उक्तप्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन - प्रत्यहोरात्रमभ्यन्तरमष्टा चत्वारिंशद्यो जनैकषष्टिभागयोजनद्वयविकम्पनरूपेण शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराट् अर्द्धमण्डलात् तदनन्तरां तस्मिन् २ प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरापरभागे वा तां तामर्द्धमण्डलसंस्थितिं सङ्क्रामन् द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रपर्यन्ते गते उत्तरस्मादुत्तरदिग्भा| विनोऽन्तरात्सर्वबाह्यमण्डलमपेक्ष्य यद् व्यशीत्यधिकशततमं मण्डलं तद्गताष्टाचत्वारिंशद्योजनैकपष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तराभ्यन्तर योजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद्भागात् 'तस्साइपरसाए' इति तस्य - सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतस्य दक्षिणस्वार्द्ध मण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, स चादिप्रदेशादूर्ध्वं शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तरबाह्योत्तरार्द्ध मण्डलाभिमुखं तथा कथञ्चनापि चारं प्रतिपद्यते येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते | सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणा For PanalPrata Use Only ~ 45~ १ प्राभृते ३ प्राभृतप्राभृर्त ॥ १९ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] 8454315 दीप अनुक्रम मर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति तदा उत्तमकाठाप्राप्त उत्कर्षकः-उत्कृष्टः अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, 'एस ण'मित्यादि, निगमनवाक्यं प्राग्वत्, तदेवमुक्ता दक्षिणा अर्द्धमण्डलसंस्थितिः। साम्प्रतमुत्तरामीमण्डलसंस्थितिं जिज्ञासुः प्रश्नयति-ता कहं ते इत्यादि, एतत्प्राग्वद् व्याख्येयं, 'ताजयाण* मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्काम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्ष* कोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्चा रात्रिः, 'जहा दाहिणा तह चेव'त्ति यथा दक्षिणा अर्द्धमण्ड-8 |लव्यवस्थितिः प्रागभिहिता तथा चैव-तेनैव प्रकारेणैषाऽप्युत्तरार्द्धमण्ड लव्यवस्थितिराख्येया, नवरं 'उत्तरे ठिओ अम्भितराणतरं दाहिणं उवसंकमइ, दाहिणाओ अभितरं तच्चं उत्तरं उवसंकमइ, एएणं उवाएणं जाव सबबाहिरं दाहिणं उवसंकमइ, सबबाहिराओ बाहिराणतरं उत्तरं उवसंकमइ, उत्तराओ बाहिरं तच्चं दाहिणं तच्चाओ दाहिणाओ संकममाणे २ जाव सबभंतरमुत्तरं स्वसंकमह'इति, नवरमय दक्षिणा मण्डलव्यवस्थितेरस्यामुत्तरार्द्धमण्डलव्यवस्थायां विशेषोन्यदुत। सर्वाभ्यन्तरे उत्तरस्मिन्नर्द्धमण्डले स्थितः सन् तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते नवं संवत्सरमाददानः प्रथमस्य षण्मासस्य प्रथमेड-४ होरात्रे अभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, तस्मिन्नहोरात्रेऽतिकान्ते प्रथमस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरतृतीयां सर्याभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, एवं खल्वनेनोपायेन प्रागिव तावद् वक्तव्यं यावत्प्रथमस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे पर्यवसानभूते सर्ववाह्यां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, एतत्प्रधमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं, ततो द्वितीयस्य षण्मासस्य KHESARSA [२६-२७] ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] ॐॐ दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ- प्रथमेऽहोरात्र बाह्यानन्तरां सर्वचाह्यस्य मण्डलस्याकिनीमुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति ततस्तस्मिन्नहोरात्रेऽनिमन्ते | 2 १प्राभृते प्तिवृत्तिः द्वितीयस्य षण्मासस्याऽहोरात्रे उत्तरस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेर्विनिःसृत्य बाह्यतृतीयां सबाह्यस्य मण्डलस्यावाकनी तृतीयांशप्राभृत(मल.) दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, तस्याश्च तृतीयस्था दक्षिणस्था मर्द्धमण्डलसंस्थितेरेकैकेनाहोरात्रेणैकामद्धमण्डलसं- प्राभृत स्थिति सङ्क्रामन् २ तावदवसेयो यावद् द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितियुक्सामति, तदेवं दक्षिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेः उत्तरस्यामर्डमण्डलसंस्थितौ नानात्वमुपदर्शित, एतदनुसारेण च स्वयमेव सूत्रालापको यथावस्थितः परिभावनीयः, सचैवं 'से निक्खममाणे सूरिए नव संवच्छरमयमाणे पढबंसि अहोरसि र उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अम्भितराणतरं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, जया रिए अभितराणंतरं दाहिणं अग्रमंडलसंठिर्ति उबसंकमित्ता चार चरति तया णं अवारसमुहुचे दिवसे भवति दोहि गाडिभागमुहत्तेहि जणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहि एयहिभागमहत्तेहिं अहिका, से निक्सममाणे सूरिए दोसि बहो। रतसि दाहिणार अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अभितर तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई नवसंकमिचा पारंपति, Pl व्या गं अहारसमुहुने दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमहत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवति चरहिं पाहिभागम-४॥ हुत्तेहि अहिया, एवं खलु एएणं उबाएणं निक्सममाणे सरिए तयाणतराओ तयागंतरं संसि तंसि देसंसि संमत-11 डलसंठिई संकममाणे उत्तराप भागाए' तस्साइपएसाए सबबाहिरं दाहिणमद्धमंडलसंटिइं नवसंकमिया चारं काति, सा जया णं सूरिप सपबाहिरं वाहिणं अद्धमंडलसंठिड्भुवसंकमिता पारं चरति तक पं उच्चमकापसा उकोसिया महारस [२६-२७] ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ॐER प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम मुहुत्ता राई भवति, जहाए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एसई पढमे छम्मासे एस गं पढमस्स छम्मासस्स फरसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोच्च छम्मासमयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए चाहिराणतर उत्तरं अद्धमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए बाहिराणतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइमुवसंक मित्ता चार चरति तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहि य एगहिभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ लूचन(दो)हिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ तयाणतरं तंसि तसि देससि तं ते अद्धमंडलसंठिई संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सबभंतरं उत्तरं अहमंडलसंठिइमुवसंक| मित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए सबभंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चार चरह तथा णं उत्तमकट्ठपत्ते | |उकोसिए अहारसमहत्ते दिवसे भवति, जहनिया वालसमहत्ता राई भवतित्ति, एस णं दुचे छम्मासे इत्यादि प्राग्वत् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं २ समाप्त तदेवमुक्तं द्वितीयं प्राभृतप्राभृत, सम्पति तृतीयमभिधातव्यं, तत्र चार्थाधिकारश्चीर्णप्रतिचरणं, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूबमाह ता के ते चित्रं पद्धिचरति आहितेति वदेजा, तत्थ खलु श्मे दुवे सूरिया पं०, तं०-भारहे चेव सूरिए एरवए चेव सूरिए, ता एते ण दुवे सूरिए पत्तेयं रतीसाए २ मुहत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडलं चरति, सहीए २ मुहुत्तेहिं एगमेगं मंडलं संघातंति, ता णिक्खममाणे खलु एते दुखे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्ण पडिचरति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पटिचरंति, तं सतमेगं चोतालं,तत्थ के हेऊ S [२६-२७] अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्राभृते ३ प्राभृतप्राभृत प्रत सूत्रांक (मल०) ॥ २१॥ [१४] दीप अनुक्रम [२८] शवदेवा , ता अयणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, तत्थ णं तत्थ णं अयं भारहए चेव सूरिए जंबुवस्स २ पाईणपडिणापतउदीणदाहिणायताए जीवाय मंडलं चवीसएणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लसि चउ- भागमंडलंसि बाणउतियसरियमताई जाई अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरति, उत्तरपचस्थिमेल्लंसि चउभागमंडलं सि एक्काणउति सरियमताई जाइं सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिचरति, तत्थ अयं भारहे सरिए एरवतस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स २ पाईणपडिणीयायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सतेणं छेत्ता उत्तरपुरथिमिलंसि चउभागमंडलंसि बाणउति सूरियमताई जाव सरिए परस्स चिपणं पडिचरति, दाहिणकापचत्धिमेल्लंसि चउभागमंडलंसि एकूणणार्ति सूरियमताई जा सरिए परस्स व चिपणं पडिचरति, तत्व अयं एरवए सूरिए जंबुद्दीवरस २ पाईणपडिणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सतेणं छेत्ता उत्तरपुरस्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि थाणउर्ति सूरियमयाइं जाव सूरिए अप्पणो चेव चिणं पडियरति दाहिणपुरस्थिमिलंसि चउभागमंडलंसि एकाणउतिसूरियमताई जाव सूरिए अप्पणो घेव चिणं पडिचरति, तत्थ णं एवं एरवतिए सरिए भारहस्स सूरियरस जंबुद्दीवस्स पाईणपडिणाय-1 ताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सतेणं छित्ता दाहिणपचस्थिमेल्लंसि चउभागम-| पाडलंसि बाणउर्ति सरियमताई सूरिए परस्स चिणं पडिचरति, उत्तरपुरधिमेल्लंसि चउभागमंडलंसि एका-1 गउति सूरियमताई जाई सूरिए परस्स चेव चिणं पडिचरति, ता निक्खममाणे खलु पते दुचे सूरिया णो ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१] ....... ......--- प्राभतप्राभूत [3], .................- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [२८] 54544%%% अण्णमण्णस्स चिण्णं पहिचरंति, पचिसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमपणस्स चिण्णं पडिचरंति, सतमेगं चोतालं । गाहाओ (सूत्रं)१४ ॥ तइयं पाहुड पाहुडं सम्मत्तं ।। 'ता के ते'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कस्त्वया भगवन् ! सूर्यः स्वयं परेण वा सूर्येण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरति-प्रतिचरन् आख्यात इति वदेत् १, एवं भगवता गौतमेनोक्त भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-तत्व'इत्यादि, तब-अस्मिन् जम्बूद्वीपे परस्परं चीर्णक्षेत्रप्रतिचरणचिन्तायां खटु-निश्चितं यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमधिकृत्येमौ द्वौ सूयौं प्रज्ञप्ती, तद्यथा-भारतश्चैव सूर्यः ऐरावतश्चैव सूर्यः, 'ता एए ण'मित्यादि, तत एतौ णमिति वाक्यालङ्कारे द्वौ सूयौं प्रत्येक त्रिंशता मुहूरेकैकमर्द्धमण्डलं चरतः षष्ट्या २ मुहूतैः पुनः प्रत्येकमेकैकं परिपूर्ण मण्डलं 'ससातयतः'पूरयतः 'ता |निक्खममाणा' इत्यादि, ता इति तत्र सूर्यसत्कैकसंवत्सरमध्ये इमो द्वावपि सूयौँ सर्वाभ्यन्तराम्मण्डलान्निष्क्रामन्ती | नोऽन्योऽन्यस्य-परस्परेण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरतः, नैकोऽपरेण चीण क्षेत्रं प्रति चरति, नाप्यपरोऽपरेण चीर्णमिति भावः, इदं स्थापनावशादवसेयं, सा च स्थापना इयम्-। सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरी प्रविशन्ती द्वावपि खलु सूर्यावन्योMऽन्यस्य-परस्परेण चीर्ण प्रतिचरतः, तद्यथा-शतमेकं चतुश्चत्वारिंशं, किमुक्तं भवति -यैश्चतुर्विंशत्यधिकशतसांग मण्डलं पूर्यते तेषां चतुश्चत्वारिंशदधिक शतमुभयसूर्यसमुदायचिन्तायां परस्परेण चीर्णप्रतिचीर्ण प्रतिमण्डलमवाप्यते | इति, एतदवगमा प्रश्नसूत्रमाह-'तत्थ को हेतू'इति, 'तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्वव्यवस्थाया अवगमे को हेतुः, का| उपपत्तिरिति ?, अत्रार्थे भगवान् वदेत्, अत्र भगवानाह–ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपस्वरूपप्रतिपादकं वाक्य SARERatantntanational Maraturary.com ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१] .............--- प्राभतप्राभूत [3], ...................- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) ॥२२॥ सूत्रांक [१४] पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयं 'तस्थ णमित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे णमिति प्राग्वत्, 'अयं भारहे चेष सूरिप इति १प्राभृते सर्वबाह्यस्य मण्डलस्य दक्षिणस्मिन्नर्द्धमण्डले यश्चारं चरितुमारभते स भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वादारत इत्युच्यते, यस्त्वितर-४३प्राभृत स्तस्यैव सर्ववाह्यस्य मण्डलस्योत्तरस्मिन्बर्द्धमण्डले चार चरति स ऐरावतक्षेत्रप्रकाशकत्वादैरावतः, तत्रायं प्रत्यक्षत उप- प्राभूत शलभ्यमानो जम्बूद्वीपस्थ सम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डले परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं चतविशत्यधिकेन शतेन छित्त्वाविभज्य चतुर्विशत्यधिकशतसयान् भागान् तस्य २ मण्डलस्य परिकल्प्येत्यर्थः, सूर्यश्च प्राचीनापाचीनायतया उदगदक्षिणायतया च जीवया-प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः, तन्मण्डलं चतुर्भािगैर्विभज्य दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्व आग्नेये 1 कोणे इत्यर्थः 'चभागमंडलंसित्ति प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययो मण्डलचतुर्भागे-तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्षे भामे सूर्य-15 संवत्सरसत्कद्वितीयषण्मासमध्ये द्विनवति सूर्यगतानि-द्वानवतिसङ्ग्यानि मण्डलानि स्वयं सूर्येण गतानि-चीर्णानि, किमुक्त भवति ।-पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्कामता स्वचीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, एतदेव व्याचष्टे-'जाई. सरिए अप्पणा चिण्णं पबियरई'इति यानि सूर्य आत्मना-स्वयं पूर्व सर्वाभ्यन्तराममण्डलानिष्क्रमणकाले इतिशेष, चीर्णाचि प्रतिघरति, तानि च द्विनवतिसक्यानि मण्डलानि चतुर्भागरूपाणि चीर्णानि प्रतिचरति, न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि, किन्तु स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काटादशाष्टादशभागप्रमितानि, ते चाष्टादशाष्टादशभागा न सर्वव्यापि मण्ड- ॥२२॥ लेषु प्रतिनियते पब देश, किन्तु कापि मण्डले कुत्रापि, केवलं दक्षिणपौरस्त्यरूपचतुर्भागमध्ये ततो 'दाहिणपुरस्थिमसिपउभागमंडलंसी'त्युकम्, पवमुत्तरेष्वपि मण्डलचतुर्भागवष्टादशभागप्रमितत्वं भावनीय, स एव भारतः सूर्यस्तेषामेव ॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [२८] ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [२८] ॐॐॐॐ द्वितीयानां षण्मासानां मध्ये उत्तरपश्चिमे चतुर्भागमण्डले-मण्डलचतुर्भागे एकनवतिसक्यानि मण्डलानि स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काष्टादशाष्टादशभागप्रमितानि 'खयंमतानि'स्वयं सूर्येण पूर्व सर्वाभ्यन्तराममण्डलान्निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, पतदेव व्याचष्टे-'जाई सूरिए अप्पणा चेव चिपणाई पहिचरति एतत्पूर्ववद् ब्याख्येयं, इह सर्ववाह्यान्मण्डलात् शेषाणि मण्डलानि ज्यशीत्यधिकशतसङ्ख्या नि तानि च द्वाभ्यामपि सूर्याभ्यां द्वितीयषण्मासमध्ये प्रत्येक परिश्रम्यन्ते, सर्वेष्वपि च दिग्विभागेषु प्रत्येकमेकं मण्डलमेकेन सूर्येण परिश्रम्यते द्वितीयमपरेण एवं यावत्सर्वान्तिमं मण्डलं, तत्र दक्षिणपूर्व दिग्भागे द्वितीयषण्मासमध्ये भारतः सूर्यों द्विनवतिमण्डलानि परिचमति, एकनवतिमण्डलानि ऐरावतः, उत्तरपश्चिमे दिग्विभागे द्विनवतिमण्डलान्पैरावतः परिभ्रमति, एकनवतिमण्डलानि भारतः, एतश्च पट्टिकादी मण्डलस्थापनां कृत्वा परिभावनीयं, तत उक्तम्-दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसक्यानि मण्डलानि उत्तरपश्चिमे खेकनवतिसक्यानि भारतः स्वयं चीर्णानि प्रतिपरतीति । तदेवं भारतसूर्यस्य स्वीयं चीर्णप्रतिधरणपरिमाणमुकमिदानी तस्यैव भारतसूर्यस्य परचीर्णप्रतिचरणपरिमाणमाह-तत्थ य अयं भारहे' इत्यादि, 'तत्र'जम्बद्धीपे 'अयं' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो जम्बूद्वीपसम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डले परिश्रमति तत्तन्मण्डलं चतुषिशत्यधिकेन भाग शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया तत्तन्मण्डलं चतुभिर्विभज्य उत्तरपूर्वे ४ इंसाने कोणे इत्यर्थः 'चतुर्भागमण्डले'तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थे भागे तेषामेव द्वितीयानां षण्मासानां मध्ये ऐराव तस्य सूर्यस्य द्विनवतिसूर्यमतानि-द्विनवतिसामान्यैरावतेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेव ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ----------- प्राभृतप्राभृत [3], --------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभृते % प्रत प्राभूत सूत्रांक [१४] ॥२३॥ % सूर्यमज्ञ व्यक्तीकरोति-'जाई सूरिए परस्स चिण्णाई पडिचरई' यानि सूर्यो भारतः 'परस्स चिन्नाई इत्यत्र षष्ठी तृतीयार्थे परेण- प्तिवृत्तिः ऐरावतेन सूर्येण निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे च मण्डलचतुर्भागे एकनवति-एकनवतिसक्यानि | (मल०) ऐरावतस्य सूर्यस्येत्यत्रापि सम्बध्यते, ततोऽयमर्थः-ऐरावतस्य सूर्यस्य सम्बन्धीनि सूर्यमतानि, किमुक्तं भवति -ऐराव तेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेवाह-'जाई सूरिए परस्स चिपणाई पडियरह'पतत्पूर्ववद् व्याख्येयं, अत्राप्येकस्मिन् विभागे द्विनवतिरेकस्मिन् भागे एकनवतिरित्यत्र भावना प्रागिव भावनीया, तदेवं भारतः सूर्यो दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसङ्ख्यानि उत्तरपश्चिमे एकनवतिसङ्ग्यानि स्वयं चीर्णानि उत्तरपूर्वे द्विनवतिसक्यानि दक्षिणपपश्चिमे एकनवतिसक्लान्यैरावतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्युपपादितं, सम्प्रति ऐरावतः सूर्य उत्तरपश्चिमदिग्भागे द्विनवतिस-12 यानि मण्डलानि दक्षिणपूर्व एकनवतिसयानि स्वयं चीर्णानि दक्षिणपश्चिमे द्विनवतिसक्यान्युत्तरपूर्षे एकनवतिसङ्ग्यानि भारतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्येतत्प्रतिपादयति-तत्य अयं एरवए सूरिए इत्यादि, एतच्च सकलमपि प्रागुक्तसूत्रव्या-1 ख्यानुसारेण स्वयं व्याख्येयं । सम्प्रत्युपसंहारमाह-'ता निक्खममाणा खलु'इत्यादि, अस्थायं भावार्थ:-इह भारतः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् प्रतिमण्डलं द्वौ चतुर्भागौ स्वयं चीणों प्रतिचरति द्वौ तु परचीौँ ऐरावतोऽप्यभ्यन्तरं प्रविशन् | प्रतिमण्डलं द्वौ चतुर्भागी स्वचीणौं प्रतिचरति द्वौ तु परचीर्णाविति सर्वसङ्ख्यया प्रतिमण्डलमेकैकेनाहोरात्रद्वयेन उभयसूर्यचीर्णप्रतिचरणविवक्षायामष्टी चतुर्भागाः प्रतिचीर्णाः प्राप्यन्ते, ते च चतुर्भागाश्चतुर्विंशत्यधिकशतसत्काष्टादशभाग-1 प्रमिताः, एतच्च प्रागेव भावितं, ततोऽष्टादशभिर्गुणिताश्चतुश्चत्वारिंशदधिक शतं भागानां भवति, तत एतदुक्तं भवति दीप अनुक्रम % [२८] ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------------- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 15534 [१४] दीप अनुक्रम 'पविसमाणा खलु एए दुवे सूरिया अन्नमन्नस्स चिन्नं पड़ियरंति, तंजहा-सयमेगं चोयाल'मिति, 'गाहाओ'ति, अत्राप्येतदर्थप्रतिपादिकाः काश्चनापि सुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते, ताश्च व्यवच्छिन्ना इति कथयितुं न शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा वक्तव्याः । यदत्र कुवेता टीका, विरुद्धं भाषितं मया । क्षन्तव्यं तत्र तत्त्वज्ञैः, शोध्यं तच्च विशेषतः॥१॥" इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभूतस्य प्राभृतप्राभृतं ३ समाप्तं | सा तदेवमक्तं तृतीयं प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति चतुर्थं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकार कियत्यमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चार चरत इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता केवइयं एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमातो छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थ एगे एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सरिया चारं चरंति आहिताति बदेजा, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं चउतीसं जोयणसयं अन्नमन्नस्स अंतरं कटु सूरिया चार चरति आहियत्ति वहज्जा, एगे एवमासु २, एगे पुण एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसय अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु सूरिया चारं चरंति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु ३, एवं एगं समुई अण्णमण्णस्स अंतरं [२८] अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभृतं- ३ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभूतप्राभृतं- ४ आरभ्यते ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ---------- ----- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप सूर्यप्रज्ञ- कटु ४, एगे दो दीवे दो समुहे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति आहियाति वदेजा, एगे एका प्राभृते प्तिवृत्तिः माहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु तिणि दीवे तिणि समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कहु सूरिया चार चरंति आहिया प्राभूत ति वएज्जा, एगे एचमाहंसु ६, वयं पुण एवं वयामो, ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स प्राभूत ॥२४॥ एगमेगे मण्डले अण्णमण्णस्स अंतर अभिवढेमाणा वा निवढेमाणा वा सूरिया चारं चरंति । तत्थ पं को हेज आहिताति वदेवा, ता अयषणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्वेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं एते दुवे सूरिया सचम्मतरमंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तदा णं णवणउतिजोयणसहस्साइंछचत्ताले जोपणसते अण्णमण्णस्स |अंतरं कहु चारं घरंति आहिताति वदेजा। तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुटुत्ता राई भवति, ते निक्खममाणा सरिया णवं संवच्छरं अयमाणा पतमसि अहोरसि अन्भितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जता गं एते दुवे सरिया' अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा ण नवनवति जोयणसहस्साई छच पणताले जोयणसते पणवीसं च लिएगहिमागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चारं चरति आहिताति वदेजा, तता णं अट्ठारसमुकुत्ते SAl॥२४॥ दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहत्ता राती भवति दोहि. एमविभागमुडसेहि अधिया, ते णिक्खममाणे सूरिया दोसि अहोरसि अभितरं तचं मंडलं उवसंकमिसा चारं चरतिता टोजता दुवे सूरिया अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तया णं नवनवई जोयणसहस्साई एच-1 *XXXSAX+ XXXX अनुक्रम [२९] ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------ प्राभृतप्राभृत [४], ------------------ मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप कावणे जोयणसए नव य एगट्ठिभागे जोयणस्स अपणमण्णस्स अंतरं कट्टपारंचरति आहियत्ति वइज्जा, तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगट्ठिभागमुडुत्तेहिं ऊणे दुबालसमुहुत्ता राई भवद चरहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणुवाएणं णिक्खममाणा एते दुवे सूरिया ततोणंतरातो तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणा २पंच २ जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभियद्धेमाणा २. सबबाहिरं मंडलं जबसंकमिसा चारं चरति, तता णं एग जोयणसतसहस्सं छच सट्टे जोयणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कह चारं परति, ससाणं उत्तमकट्ठपसा उछोसिया अट्ठारसमुहसा राई। भवह, जहण्णए दुवालसमुहले दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, ते पविसमाणा सूरिया दोचं छम्मासं अपमाणा पढमंसि अहोरसंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं ख्वसंकमिशा चारं चरति तदा णं एग जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पण्णे जोयणसते छत्तीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ठ चारं चरंति आहिताति बदजा, तदा णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवई दोहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुसे दिवसे| भवति दोहिं एगहिभागमुहत्तेहिं अहिए, ते पविसमाणा सरिया दोसि अहोरत्तंसि बाहिरं तचं मंडलं उपसंकमिशा चारं चरंति, ता जता णं एते दुवे सरिया बाहिरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तता णं एग जोयणसयसहस्संछच अडयाले जोयणसते पावपणं च पगडिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कह चारं KARERA अनुक्रम [२९] X ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१], ................--- प्राभूतप्राभत [४], ---................. मलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमज्ञ प्रत (मल.) सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] चरंतितता णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहले दिवसे भवति चाहिं || १ प्राभृते प्तिवृतिः &ाएगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणा एते दुवे सरिया ततोऽणंतरातो तदाणंतरं मंड-IIमामृतलाओमंडलं संकममाणा पंच २जोयणा पणतीसे एगहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्संतरंणिबुढे-II प्राभृतं माणा २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, जया णं एते दुवे सूरिया सबभंतरं मंडलं उवसंकमिसा चारं चरंति तता णं णवणउति जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुष्टुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छमासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं आइचे संवच्छरे, एस णं आइचसंवकछरस्स। पज्जवसाणे । (सूत्रं १५)चउत्थं पाहुडपाहुई समतं ॥१-४॥ 'ता केवइयं एए दुवे सूरिया इत्यादि, 'ता'इति प्राग्वत्, एतौ द्वावपि सूयौँ जम्बूद्वीपगतौ कियत्प्रमाणं परस्पर-I मन्तरं कृत्वा चारं चरतः, चरन्तावाख्याताविति भगवान् वदेत, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति शेषकुमतविषयतत्त्वबुद्धिब्युदासाथै परमतरूपाः प्रतिपत्तीर्दर्शयति-तत्व खलु इमाओ'इत्यादि, 'तत्र' परस्परमन्तरचिन्तायां खलु|निश्चितमिमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः षट् प्रतिपत्तयो-यथास्वरुचि वस्त्वभ्युपगमलक्षणास्तैस्तैस्तीर्थान्तरीयैः श्रीयमाणाः प्रज्ञप्ताः |ता एव दर्शयति-तत्थेगे' इत्यादि, तेषां षण्णां तत्तत्प्रतिपत्तिप्ररूपकाणां तीर्थकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीयाः प्रथम स्वशिष्य | प्रत्येवमाहुः-'ता एग'मित्यादि, ता इति पूर्ववदावनीयः, एक योजनसहनमेकं च ब्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं परस्पर - - 6-46 ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः स्यान्तरं कृत्वा जम्बुद्वीपे द्वौ सूर्यो चारं चरतश्चरन्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, अत्रैवोपसंहारमाह- 'एके एवमाहू'रिति, एवं सर्वत्राप्यक्षरयोजना कर्त्तव्या, एके पुनर्द्वितीयास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः - एक योजनसहस्रमेकं च चतुस्त्रिंशंचतुस्त्रिंशदधिकं योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके तृतीयाः पुनरेवमाहुः - एकं योजनसहस्रं एकं च पचत्रिंशदधिकं योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके पुनश्चतुर्था एवमाहुः- एक द्वीपं एकं च समुद्रं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके पुनः पञ्चमा एवमाहुः- द्वौ द्वीप द्वौ समुद्रौ परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके षष्ठाः पुनरेवमाहुः- त्रीन् द्वीपान् त्रीन् समुद्रान् परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरत इति । एते च सर्वे तीर्थान्तरीया मिथ्यावादिनोऽयथातत्ववस्तुव्यवस्थापनात्, तथा चाह- 'वयं पुणे इत्यादि, वयं पुनरासादित केवलज्ञानलाभाः परतीर्थिकव्यव| स्थापितवस्तुव्यवस्थाव्युदासेन 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमुपलभ्य वदामः कथं वदध यूयं भगवन्त इत्याह- 'ता पंचे'त्यादि, 'ता' इति आस्तामन्यद्वक्तव्यं इदं तावत्कथ्यते, द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यतरान्मण्डलान्निष्क्रामन्ती प्रतिमण्डलं पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणे अभिवर्द्धयन्तो वाशब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चये 'निबुट्टेमाणा वा' इति सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ प्रतिमण्डलं पच पच योजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य निर्वेष्टयन्तौ पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणात हापयन्ती, वाशब्दः पूर्वविकल्पापेक्षया समुच्चये, सूर्यौ चारं चरतः, चरन्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, एवमुक्ते भगवान् गौतमो निजशिष्य निःशङ्कितत्वव्यवस्थापनार्थे भूयः प्रश्नयति- 'तत्थ णमित्यादि, तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्व Educatory Internationa For Parks Use Only ~ 58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१] ............--- प्राभतप्राभूत [४], ..................- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] सूर्यप्रज्ञ- व्यवस्थाया अवगमे को हेतु:-का उपपत्तिरिति प्रसादं कृत्वा वदेव !, भगवानाह-ताअयन'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप- प्राभृते सिवृत्तिः४ स्वरूपप्रतिपादकं वाक्यं पूर्ववत्परिपूर्ण स्वयं परिभावनीयम्, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे ४४प्राभृत(मल.) एतौ जम्बूद्वीपप्रसिद्धौ भारतैरावती द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः तदा नक्नवतियोजनसह- प्राभृतं ॥ २६॥ स्राणि षट् योजनशतानि चत्वारिंशानि-चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति चदेत् , कथं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वयोः सूर्ययोः परस्परमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेत् , उच्यते, इह जम्बूद्वीपो योजनलक्षप्रमाणविष्कम्भस्तत्रैकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये अशीत्यधिक योजनशतमवगाहा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति, द्वितीयोऽप्यशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य, अशीत्यधिकं च शतं द्वाभ्यां गुणितं त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ३६० भवन्ति, पतानि जम्बूद्वीपे विष्कम्भपरिमाणालक्षरूपादपनीयन्ते, ततो यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति, 'तया ण'मित्यादि। तदा सर्वाभ्यन्तरे द्वयोरपि सूर्ययोश्चरणकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्तः उत्कर्षका उत्कृष्टो अष्टादशमुहूसों दिवसो भवति, जघन्या-सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्चा रात्रिः 'ते निक्खममाणा' इत्यादि ततस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलासी बावपि सूर्यो निष्कामन्तौ नवं सूर्यसंवत्सरमाददानी नवस्य सूर्यसंवत्सरस्थ प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानग्तरमिति सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः 'ता जया ण'मित्यादि ततो यदा |एतौ द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि पटू पातानि | | पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनानां पञ्चत्रिंशतं चैकपधिभागान् योजनस्येत्येतावत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चार ॐॐॐॐ HREE ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------- ----- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] SkOS SCRESS चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदेत् , तदा कथमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेत् ?, उच्यते, इह एकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्य अपरे च द्वे योजने विकम्प्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले चरति, एवं द्वितीयोऽपि, सतो हे योजने अष्टाचत्वारिंशकषष्टिभागा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यंते, गुणिते च सति | पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येति भवति, एतावदधिकं पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्र प्राप्यते, ततो यथोकमन्तरपरिमाणं भवति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचार चरणकालेऽष्टादशमुहतों दिवसो भवति, द्वाभ्यां 'एगद्विभागमुहत्तेहि ति मुहकपष्टिभागाभ्यामूनो, द्वादशमुहर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहकपष्टि-2 भागाभ्यामधिका, 'ते निक्खममाणा'इत्यादि, ततस्तस्मादपि द्वितीयान्मण्डलान्निष्कामन्ती सूर्यो नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरस्य-सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः 'ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत्, एतौ द्वौ सूर्यो अभ्यन्तरतृतीयं-सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः, 'तदा' तस्मिंस्तृतीयमण्डलचारचरणकाले नवनवतियोजनसहस्राणि षट् च शतानि एकपञ्चाशदधिकानि योजनानां नव चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदेत् , तदा कथमेतावत्प्रमाणमन्तरकरणमिति चेत् ?, उच्यते, इहाप्येकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरद्वितीयमण्डलगतानाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने विकम्प्य चारं चरति, द्वितीयोऽपि, ततो देयोजने अष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यते, हिगुणमेव पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशबैकषष्टिभागा योजनस्वेति भवति, एतावत्पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्राधिक दीप अनुक्रम [२९] *%A4 * ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ------------------- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः प्रत १ प्राभृते ४ प्राभृतप्राभूत (मल.) सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] प्राप्यते इति भवति यथोकमत्रान्तरपरिमाणं,'तया णमित्यादि, यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीये मण्डले चार चरत- स्तदा अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, चतुर्भिः 'एमट्ठिभागमुहत्तेहिं' प्राकृतत्वात्पदव्यत्यासः, ततोऽयमर्थः-मुहत्तैकप- ष्टिभागैरूनो, द्वादशमुह रात्रिश्चतुर्भिमुहसंकषष्टिभागैरधिका, एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन | प्रतिमण्डलमेकतोऽप्येकः सूर्यो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् विकम्प्य चार चरति, अपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवरूपेण निष्कामन्तौ तौ जम्बूद्वीपगतौ द्वौ सूर्यों पूर्वस्मात्पूर्वस्मात्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सामन्ती एकैकस्मिन् मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणापेक्षया पश्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमभिवर्द्ध-* यन्तावभिवर्धयन्ती नवसूर्यसंवत्सरस्य त्र्यशीत्यधिकशततमेऽहोरात्रे प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते सर्ववाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः, 'ता जया ण'मित्यादि ततो यदा एतौ द्वौ सूर्यों सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरतः तदा तावेक योज-2 नशतसहस्रं षटू च शतानि षष्ठ्यधिकानि १००६६० परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, कथमेतदवसेयमिति चेत् ?, उच्यते, इह प्रतिमण्डलं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्यन्तरपरिमाणचिन्तायामभिवर्द्धमानं प्राप्यते, सर्वाभ्यअन्तराच मण्डलात्सर्ववाद्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकशततम, सतः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि योजनानां ९१५, एकपष्टिभागाश्च पञ्चत्रिंशत्सङ्ख्या अशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि | तेषां चतुःषष्टिशतानि पश्चोत्तराणि ६४०५, तेषामेकषष्ट्या भागे हते लब्ध पश्चोत्तरं योजनशतं १०५, एतत्प्राक्तने योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि योजनानि १०२०, एतत् सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतोत्तरपरिमाणे ॥२७॥ S ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१], ................--- प्राभूतप्राभत [४], ---................. मलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप नवनवतियोजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि ९९६४० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डले अन्सरपरिमाणं भवति, तथा ण'मित्यादि तदा सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षप्राप्ता उत्कृष्टा अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहत्तों दिवसः, 'एस णं पढमे छम्मासे इत्यादि प्राग्वत्, 'ते पविस-4 |माणा'इत्यादि, तो ततः सर्ववाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ द्वौ सूयौं द्वितीयं षण्मासमाददानी द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे बाह्यानन्तरं-सर्वबाह्यान्मण्डलादागनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरतस्तदा एक योजनशतसहस्रं षट् शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि पड्विंशतिं चैकषष्टिभागान योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, चरन्तावाख्यातावितिवदेत्, कथमेतावत्तस्मिन् सर्ववाह्यान्मण्डलादतिने द्वितीये मण्डले परस्परमन्तरकरणमिति चेत् ?, उच्यते, इहकोऽपि सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने अभ्यन्तरं प्रविशन सर्ववाह्यामण्डलादाक्तने द्वितीये मण्डले चारं चरति, अपरोऽपि, ततः सर्वबाह्यगतादष्टाचत्वारिंशदतरपरिमाणाद् अत्रान्तरपरिमाणं पशभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्योनं प्राप्यते इति भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणं,'तया ण'मित्यादि, तदा सर्ववाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयमण्डलचारचरणकालेऽष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहूत्तैकषष्टिभागाभ्यामूना, द्वादशमहत्तों दिवसो द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागाभ्यामधिका, ते पविसमाणा'इत्यादि, ततस्तस्मादपि सर्वबाह्यमण्डलाक्तिन-12 द्वितीयमण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ तौ द्वौ सूयौं द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं तचंति सर्वबाह्यान्मण्ड लादाक्तनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतः 'ता जया णमित्यादि तत्र यदा एती द्वी सूर्यो सर्ववाह्यान्मण्ड *% अनुक्रम [२९] % % ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ २८ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः लादर्वाक्तनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरतः तदा एकं योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपञ्चाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, प्रागुक्तयुक्त्या पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्रान्तरपरिमाणमस्य पञ्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य हीनत्वात्, 'तया ण'मित्यादि, तदासर्व बाह्यान्मण्डलादवतनतृतीय मण्डलचारचरणकालेऽष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरुना, द्वादशमुहत्त दिवसश्चतुर्भिरेकषष्टिभागैर्मुहर्त्तस्याधिकः । एवं खलु' इत्यादि, एवम् उक्तप्रकारेण खड- निश्चितमनेनोपायेन एकतोऽप्येकः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् पूर्वपूर्वमण्डलगता दन्तरपरिमाणादनन्तरे अनन्तरे विवक्षिते मण्डले अन्तरपरिमाण| स्याष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् द्वे च योजने वर्धयति हापयत्यपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपेण एतौ जम्बूद्वीपगतौ सूर्यो तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन्तौ सङ्क्रामन्तौ एकैकस्मिन् मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणात् अनन्तरेऽनन्तरे विवक्षिते मण्डले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरपरिमाणं निर्वेष्टयन्ती - हापयन्तौ हापयन्तावित्यर्थः, द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सूर्य संवत्सरपर्यवसानभूते सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः, 'ता जया णमित्यादि, तन्त्र यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः तदा नवनवतियोजन सहस्राणि षट् योजनशतानि चत्वारिंशानि चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, अत्र चैवं रूपान्तरपरिमाणे भावना प्रागेव कृता, शेषं सुगमम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ४ समाप्तं अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ परिसमाप्तं For Parts Only ~63~ १ प्राभृते ४ प्राभृतप्राभृतं ॥ २८ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], .............-- प्राभतप्राभूत [५], ............... मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप तदेवमुक्तं चतुर्थं प्राभृतप्राभृतं सम्पति पञ्चममारभ्यते, तस्य चायं पूर्वमुपदर्शितोऽर्थाधिकारो-यथा कियन्त द्वीप समुद्रं वा सूर्योऽवगाहते इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवतियं ते दीवं समुदं वा ओगाहित्ता सूरिप चारं चरति, आहितातिवदेवा, तस्थ खल इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ-एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं दीवं वा समुई &ावा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु १, एगे, पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एग चउ-ते. तीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमासु-ता| एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु &|३, एगे पुण एवमाहंसु-ता अवडं दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता मूरिए चारं चरति, एगे एवमाइंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एग तेत्तीसं जोयणसतंदीवं वा समुई मोगादित्ता सरिए चारं चरति ५ तस्थ जे ते एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसतं दीवं वा समुदं वा उग्गाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु, जता णं सूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तथा णं जंबुद्दीवं एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, तता णं उत्तमकहपत्ते उघोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई, ता जया णं सूरिए सबबाहिरं मंडलं: जवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं लवणसमुदं एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसपं ओगाहित्ता चारं अनुक्रम [३०] अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-५ आरभ्यते ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्रत प्तिवृत्तिः मल. सूत्रांक २९॥ [१६] 54545464R5% दीप अनुक्रम चरइ, तया णं लवणसमुई एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया गं||१ प्राभूते उत्तमकट्ठपत्सा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहषिणए दुवालसमुहसे दिवसे भवइ । एवं चोत्तीसंद जोयणसतं । एवं पणतीसं जोयणसतं। (पणतीसेवि एवं चेव भाणियचं)तस्थ जे तेएवमासुता अवटुं दीवं वा प्राभृतं समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरति, ते एवमाहंसु-जताणंसूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरत्ति, तताणं अवहुंजंबुद्दीवं २ ओगाहित्ता चारं चरति,तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं सबबाहिरएवि, णवरं अवडं लवणसमुई, तता णं राइंदियं तहेव, तत्य जे ते एवमाहंसु-ता णो किश्चि दीवं वा समुई वा ओगाहिता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु-ता जता सूरिए सबभतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तता णं णो किंचि दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सरिए चार चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमूहुत्ते दिवसे भवति, तहेव एवं समाहिरए मंडले, णवरं णो किंचि लवणसमुई ओगाहिसा चारं चरति, रातिदियं तहेव, एगे एवमासु (सूत्रं १६)॥ 'ता केवइयं दीवं समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरह'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , 'कियन्तं कियत्प्रमाणं द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, चरन्नाख्यात इति वदेत्, एवं प्रश्नकरणादनन्तरं भगवाभिवचनमभिधातु ॥२९॥ काम पतद्विषये परतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनार्थं प्रथमतस्ता एव परतीर्थिकप्रतिपत्तीः सामान्यत उपन्यस्यति-1 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र सूर्यस्य चार चरतो द्वीपसमुद्रावगाहनविषये खस्विमाः-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः SEASORRESTERESANS [३०] ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [५], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -% प्रत सूत्रांक 96-2-9 [१६] दीप परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--एके तीर्थान्तरीया एक्माहुः–ता इति तावच्छब्दस्तेषां तीर्थान्तरीयानां प्रभूतवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः एक योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिक योजनशतं द्वीपं समुद्र या अवगाह्य सूर्यचारं चरति, किमुक्तं भवति -यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा एक योजनसहनमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य चार चरति, तदा च परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमु हतों रात्रिः, यदा तु सर्ववायं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरितुमारभते तदा लवणसमुद्रमेक योजनसहनमेकं च त्रयखि दशदधिकं योजनशतमवगाह्य सूर्यश्वारं चरति, तदा चोत्तमकाष्ठामाता अष्टादशमुहर्त्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, सर्वजघन्यो: द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसः, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमासु' १, एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः,'ता' इति पूर्ववत्, एक योजनसहस्रमेकं च चतुर्विंशदधिक योजनशतं द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, भावना प्राग्वत् , अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमासु', एके पुनस्तृतीया एवमाहुः-एक योजनसहस्रमेकं च पंचत्रिंशदधिक योजनशतभवगाह्य सूर्यश्चार चरति अत्रापि भावना प्रागिव,अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु'एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुर, अवहुं'ति अपगतं सदप्यवगाहाभावतो न विवक्षितमद्धे यस्य तमपार्द्धमर्द्धहीनमद्धमानमित्यर्थः, द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, इयमत्र भावना-यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्गम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्ध जम्बूद्वीपमवगाहते, तदा च दिवसः परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणो भवति,सर्वजघन्या च द्वादशमुहत्तंप्रमाणारात्रिः, यदा पुनः सर्वेबाह्य मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्ध अपरिपूर्ण लवणसमुद्रमवगाहते, तदा च सर्वोत्कर्षकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रिः सर्व अनुक्रम [३०] 40 ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः प्रत (मल.) सूत्रांक -- [१६] दीप अनुक्रम [३०] जघन्यो द्वादशमुहूत्तों दिवसः, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु'४, एके पुनः पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-न किश्चित् १ प्राभृते द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, अनार्य भावार्थः यदापि सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कग्य सूर्यश्चारं चरति ५ग्राभूत तदापि न किमपि जम्बूद्वीपमवगाहते, किं पुनः शेषमण्डलपरिश्रमणकाले, यदापि सर्ववाद्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चार प्राभृतं चरति तदापि न लवणसमुद्रं किमप्यवगाहते, किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले, किन्तु द्वीपसमुद्रयोरपान्तराल एव | सकलेवपि मण्डलेषु चार घरति, अनोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' ५। तदेवमुक्का उद्देशतः पथापि प्रतिपत्तयः, सम्प्रत्येता एव स्पष्टं भावयति| 'तस्थ जेते एवमाहंसुइत्यादि, प्रायः समस्तमपीदं व्याख्याताई सुगम च, नवरं 'चोत्तीसेवित्ति एवं त्रयत्रिंशदधिक-15 योजनशतविषयप्रतिपत्तिवत् चतुर्विंशे शते या प्रतिपत्तिस्तस्यामालापको वक्तव्यः, स चैवम्-'तस्थ जे ते एवमाहंसु एगं| जोयणसहस्सं एगं च चउतीसं जोयणसयं दीवं समुई वा ओगाहित्ता चार चरइ, ते एवमासु जयाणं सूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तया णं जंबुद्दीवं एग जोयणसहस्समेगं च चोत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरह, तयाणं | उत्तमककृपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहनिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ, ता जया णं सूरिए सबबाहिरं मंडलं | उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लवणसमुदं एग जोयणसहस्सं एगं चोत्तीस जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरति, तयाणं उत्तमकद्वपत्ता उक्कोसिया अद्वारसमुहुत्ता राई भवति जहन्नए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवई' 'पणतीसे वि एवं चेव भाणिय' एवमुकेन प्रकारेण पञ्चत्रिंशदधिकयोजनशतविषयायामपि प्रतिपत्ती सूत्रं भणितव्य, तच सुगमस्वारस्वयं भावनीय ॥ ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [३०] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [५] मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः 'एवं सङ्घमाहिरेवित्ति एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डल इव सर्वबाह्येऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः, नवरं जम्बूद्वीपस्थाने 'अवद्धलवणसमुदं ओगाहिता' इति वक्तव्यं तचैवम्- 'जया णं सूरिए सङ्घबाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अवङ्कं लवणसमुद्दे ओगाहित्ता चारं चरति, तथा णं राईदियप्पमाणउच्भासगत्ति' 'तथा ण'मिति वचनपूर्वकं रात्रिन्दिवपरिमाणं जबूद्वीपापेक्षया विपरीतं वक्तव्यं, यज्जम्बूद्वीपावगाहे दिवसप्रमाणमुक्तं तद्रात्रेर्द्रष्टव्यं यद्रात्रेस्तद्दिवसस्य, तञ्चैवम्- 'तथा णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्ने दुवालसमुहन्ते दिवसे भवह', एवमुत्तरसूत्रेऽप्यक्षरयोजना भावनीया । तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्ती रूपदर्श्य सम्प्रत्येतासां मिथ्याभावोपदर्शनार्थ स्वमतमुपदर्शयति वयं पुण एवं बदाम, ता जया णं सूरिए सकभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं जंबुद्दीवं असीतं जोयणसतं ओगाहित्ता चारं चरति, तदा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं सबबाहिरेवि, णवरं लवणसमुहं तिष्णि तीसे जोयणसते ओगाहित्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जण्णए दुबालसमुहुत्ते दिवसे भवति, गाथाओ भाणितवाओ । (सूत्रं १७ ) पढमस्स पंचमं पाहुडपाहुडं ॥ १-५ ॥ "वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानदर्शना 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेत्र प्रकारमाह--यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा जम्बूद्वीपमशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्य चारं चरति, तदा चोचमकाष्ठा प्राप्त Eucation International For Parts Only ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], --------- ----- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल) ॥३१॥ सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [३१] उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, 'एवं सववाहिरेवित्ति एवं सर्वाभ्यन्तरम- १प्राभृते. & ण्डल इव सर्वबाह्येऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः, स चैवम्-'जया णं सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई', ५प्राभूत प्राभूत इति, नवरमिति सर्वबाह्यमण्डलगतादालापकादस्यालापकस्य विशेषोपदर्शनार्थः, तमेव विशेषमाह-'तया णं लवण-12 समुदं तिन्नितीसे जोयणसए ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई|४ भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' इति, इदं च सुगर्म, क्वचित 'सवबाहिरेवी' त्यतिदेशमन्तरेण सकलमपि सूत्रं साक्षाल्लिखितं दृश्यते, गाहाओ भाणियवाओं' अत्रापि काश्चन प्रसिद्धा विवक्षितार्थसङ्घाहिका गाथाः सन्ति ता भाणितव्याः, ताश्च सम्प्रति व्यवच्छिन्ना इति न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, यथासम्प्रदाय वाच्या इति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ५ समाप्तं | तदेवमुक्तं पञ्चमं प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति षष्ठं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकार:-कियन्मानं क्षेत्रमेकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो| विकम्पते इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह- ता केवतियं (A) एगमेगेण रातिदिएणं विकंपइत्ता २ मूरिए चार चरति आहिनेत्ति वदेजा, तत्थ खलु IP॥३१॥ इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालीसं तेसीतसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं रातिदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु १, एगे पुण एवमाहंसु अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभृतं- ५ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभूतप्राभृतं. ६ आरभ्यते ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ANGREGASC★ सूत्रांक [१८] दीप ता अहातिजाई जोयणाई एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण| एवमाहंसु ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ मूरिए चारं चरति, एगे एव-| मासु ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता तिणि जोयणाई अद्धसीतालीसं च तेसीतिसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं, राईदिएणं विकंपहत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता अदुहाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु ५, एगे पुण एवमाहंसु, ता घउ-1 भागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ मूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि जोयणाई अद्धवावण्णं च तेसीतिसतभागे जोयणस्स एगगेगेणं राइदिएणं विक-1 पइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एबमाहंसु ७। वयं पुण एवं वदामो ता दो जोषणाई अडतालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, तत्थ णं को हेतू इतिवदेजा, ता अपण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं उयसं-XI कमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं वसंकमित्ता चार चरति तदा णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगणं राइदिएणं विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं अनुक्रम 4% [३२] 9446 ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], ---------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल.) प्रत सुत्रांक ॥३२॥ [१८] M अहारसमुहत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगडिभा-1 गमुक्षुत्तेहिं अहिया । से णिक्खममाणे सरिए दोचंसि अहोरसि अभितरं तथं मंडल उपसंकमित्ता चारं| ६प्राभृतचरति, ता जया णं मूरिए अम्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पणतीसं च एगट्ठिभागे प्राभूत जोयणस्स दोहिं राइदिएहि विकंपहत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहि-1 भागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहत्ता राई भवति चाहिं एगद्विभागमुहत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणं उबाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडतालीसं च एगहिभागे जोयणरस एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकम्पमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता गं सबभंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीतेणं राईदियसतेणं पंचदसुत्तरजोयणसते विकंपइसा चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उचोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमछम्मासे एस णं पढमछम्मासस्स पजवसाणे, से य पविसमाणे सरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरतसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता जताणं सूरिए वाहिराणंतरं मंडलं उचसंक- ॥३२॥ मित्ता चारं चरति तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगडिभागे जोयणसए एगेणं राइंदिएणं विक-श म्पइत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, दोहिं एगविभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ते । दीप अनुक्रम E % [३२] REKHA ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम दिवसे भवति दोहिं एगहिभागेहिं मुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरतमंसि मंडलंसि उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं सरिए बाहिरतचं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, तया णं पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे| जोयणस्स दोहिं राइदिएहि विकंपइत्ता चारं चरति, राइदिए तहेव, एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सरिए ततोऽणंतरातो तयाणंतरं च णं मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडयालीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए सववाहिरातो मंडलातो सच्चभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सबबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राईदियसतेणं पंचसुत्तरे जोयणसते विकंपइत्ता चार चरति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संबच्छरे एस णं आदिचरस संवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं १८) छ8 पाहुडपाहुडं ॥१-६॥ HI 'ता केवइयं ते एगमेगेण राईदिएणं विकंपइत्ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कियत्प्रमाणं क्षेत्रमिति गम्यते, 'एग-2 मेगेणं' ति अन प्रथमादेकशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकस्ततोऽयमर्थः-एकैकेन रात्रिन्दिवेन-अहोरात्रेण विकम्प्य विकम्प्य वि-13 कम्पनं नाम स्वस्वमण्डलाद्भहिरवष्वष्कणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा सूर्यः-आदित्यश्चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति ॐ%25-2564640 SEASESS [३२] ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) सूत्राक *****KASK [१८] चदेत !, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्ररूप-15 प्राभतेयति-तत्धे'त्यादि, 'तत्र' सूर्यविकम्पविषये खल्विमाः सप्त प्रतिपत्तयः-परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्थेगे'त्यादि, प्राभूत 'तत्र' तेषां सप्तानां प्रवादिनां मध्ये एके एवमाहुः, द्वे योजने अद्धों द्वाचत्वारिंशत्-द्वाचत्वारिंशत्तमो येषां ते अर्धद्वा माभूत चत्वारिंशतस्तान् साढ़ेंकचत्वारिंशत्सवानित्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य, किमुक्तं भवति -व्यशीत्यधिकशतसमभोगैः प्रविभक्तस्य योजनस्य सम्बन्धिनोऽर्दाधिकैकचत्वारिंशत्सङ्ग्यान् भागान् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यश्चारं चरति, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु । एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः, अर्द्धतृतीयानि योजनानि पाएकैकेन रात्रिन्दिवेन बिकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्राप्युपसंहारः 'एगे एवमासु' । एके पुनस्तृतीया एवमाहुःत्रिभागोनानि त्रीणि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु' ३, एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः त्रीणि योजनानि अर्द्धसप्तचत्वारिंशतश्च, सार्द्धषट्चत्वारिंशतश्चेत्यर्थः, त्र्यशीत्यधिशाकशतभागान योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्यरसूर्यश्चारं चरति, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमासु'४। एके। पुनः पञ्चमा एवमाहुः-अर्द्धचतुर्थानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्रोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमासु'५, एके पुनः षष्ठास्तीयोन्तरीया एचमाहुः-चतुर्भागोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन राबिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्वार चरति, अनोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमाहंसु'६, एके पुनः सप्तमा एवमाहु-चत्वारि योजनानिक अर्द्धपश्चाशतक्ष-साकपश्चाशत्सङ्ख्यांश्च व्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं दीप अनुक्रम SSSSS [३२] 5 ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१] ....... ......--- प्राभतप्राभूत [६], .................- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 44 प्रत सूत्रांक [१८] चरति अत्रोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमाहंसु'।तदेवं मिथ्यारूपाः परप्रतिपत्तीरुपदय सम्प्रति स्वमतं भगवानुपदर्शयतिदा'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेव-वक्ष्यमाणप्रकारेण केवल ज्ञानोपलम्भपुरस्सरं वदामः, यदुत द्वे द्वे योजने अष्टाचत्वारिं-1 शच्चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति वदेत् , ४साम्प्रतमस्यैव वाक्यस्य स्पष्टावगमनिमित्तं प्रश्नसूत्रमुपभ्यस्यति-तत्थ को हेतू इति वएज्जा' तत्र-एवंविधवस्तुत त्वावगती को हेतुः, का उपपत्तिरिति वदेत् भगवान् , एवमुक्त भगवानाह–ता अयपण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप-I वाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षकः-उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, 'से निक्खममाणे इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तराममण्डलानिष्क्रामन् स सूर्यो नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अम्भितराणंतरं ति सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरं-बहिर्भूतं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्नवसंवत्सरसत्के प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चारं चरति, चारं चरितुमारभते, 'तदा 'मिति प्राग्वत्, वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टि|भागान् योजनस्य एकैकेन राबिन्दिवेन पाश्चात्येनाहोरात्रेण विकम्प्य चारं चरति, इयमत्र भावना-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूर्वं शनैः शनैस्तदनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचन मण्डलगत्या परिश्रमति यथा तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्थापरे च द्वे योजने अतिकान्तो भवति, ॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [३२] ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------------- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) प्रत सुत्रांक ॥३४॥ [१८] 4 दीप ततो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे एव द्वितीयमण्डलमुपसम्पन्नो भवति, तत उक्तम्-'तया णं दो जोयणाई अडया-13 बा१प्राभृते लीसं च एगढिमागे जोयणस्स एगणं राइंदिएणं विकंपइत्ता सूरिए चारं चरति', 'तया 'मित्यादि, तदा सर्वा-MES भ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले णमिति पूर्ववत् अष्टावशमुहूर्तों दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूतेकषष्टिभागा- प्राभूत भ्यामूनः द्वादशमुहत्तों रात्रि द्वाभ्यां मुहूत्तकषष्टिभागाभ्यामधिका, तस्मिन्नपि द्वितीये मण्डले प्रथमक्षणादूर्व तथा कथञ्चनापि तृतीयमण्डलाभिमुखं मण्डलपरिभ्रमणगत्या चारं चरति यथा तस्याहोरात्रख पर्यन्ते द्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च तद्वहिर्भूते द्वे योजने अतिक्रान्तो भवति, ततो नवसंवत्सरस्व द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षण एव तृतीयं मण्डलमुपसङ्कामति, तथा चाह-से निक्खममाणे इत्यादि, स सूर्यो द्वितीयान्मण्डलात्मथमक्षणादूर्व शनैः शनैर्निष्कामन्-बहिर्मुखं परिभ्रमन् नवसंवत्सरसत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अम्भितरतचंति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां यावत्प्रमाण क्षेत्र विकम्प्य चार चरति तावनिरूपयितुमाह-ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततदनन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशत च एकपष्टिभागान् योजनस्य षिकम्प्य, तथाहि-एकेनाप्यहोरात्रेण द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्च योजनस्यैकषष्टिभागा | ॥ ४ ॥ विकम्पिता द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति, एतावन्मानं विकम्प्य चारं घरति, 'तया ण'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगम, सम्प्रति शेषमण्डलेषु गमनमाह-'एवं खलु'इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रका अनुक्रम % [३२] ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [३२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः रेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन तत्तन्मण्डलप्रवेशप्रथमक्षणादूर्ध्व शनैः शनैस्तत्तद्द्वहिर्भूतमण्डलाभिमुखगमनरूपेण तस्मात्तन्मण्डलान्निष्क्रामन् तदनन्तराम्मडलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ एकैकेन रात्रिन्दिवेन द्वे द्वे योजने अष्टाच त्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयन् २ प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्व वाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया ण'मित्यादि, सुगमं, 'तथा ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधायअवधीकृत्य तत्तद्गतमहोरात्रमादि कृत्वा इत्यर्थः, व्यशीतेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि विकम्प्य, तथाहि एकैकस्मिन्नहोरात्रे द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयति, ततो द्वे द्वे योजने ज्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते, जातानि त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि ३६६, येऽपि चाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा (ग्रंथानं | १००० ) स्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, तेषां योजनानयनार्थमेकपष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतं १४४, एतत्पूर्वस्मिन् योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पश्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, एतावत्प्रमाणं विकस्थ्य चारं चरति, 'तया ण'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमं, सर्व बाह्ये च मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैरभ्यन्तर सर्व बाह्यानन्तरद्वितीय मण्डलाभिमुखं तथा कथञ्चनापि मण्डलगत्या परिभ्रमति येन प्रथमषण्मासपर्यवसानभूताहोरात्र पर्यवसाने सर्वग्राह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने अतिक्रम्य सर्ववाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलसीमायां वर्त्तते, ततोऽनन्तरे द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्ववाद्यानन्तरं द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशति, तथा चाह— 'से पविसमाणे इत्यादि, Education Internation For Park Use Only ~76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१] ............--- प्राभतप्राभूत [६], ................- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमज्ञ प्राभृते प्राभृत प्रत (मल) प्राभूत सूत्राक ॥३५॥ [१८] SASNA स सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयषण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'याहिराणंतरंति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं द्वितीयमनन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति-तत्र यदा सूर्यो बाह्यानन्तरं-सर्वबाह्यमण्डलानन्तरमभ्यन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्वबाह्यमण्डलगतेन प्रथमपण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य, एतच्चानन्तरमेव भावित, चारं चरति-चार प्रतिपद्यते, 'तया ण'मित्यादि, राबिन्दिवपरिमाणं सुगम, 'से पविसमाणे इत्यादि, स सूर्यः सर्ववाह्यानन्तराभ्यन्तरद्वितीयमण्डलादपि प्रथमक्षणादूच शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरतचंति सर्ववाश्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वबाह्यमण्डलगतहे सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य तथा एकेनाप्यहो रात्रेण प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयति, द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण द्वितीयषण्मासप्रथमेन, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति, 'तया ण'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगर्म, 'एवं खलु एएण उवाएणं पविसमाणे इत्यादि सूत्रं प्रागुक्तसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ६ समाप्त दीप अनुक्रम [३२] ॥३५॥ अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-६ परिसमाप्तं ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], .............-- प्राभतप्राभूत [७], .............. मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [३३] तदेवमुक्त षष्ठं प्राभृतमाभृत, सम्प्रति सप्तममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः पूर्वमुद्दिष्टो यथा 'मण्डलानां संस्थान वक्तव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मंडलसंठिती आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमातो अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता सचावि मंडलवता समचउरंससंठाणसंठिता पं० एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु, ता सवा-13 विणं मंडलवताविसमचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु२, एगे पुण एवमाहंसु सवाविणं मंडलवया| समचदुकोणसंठिता पं० एगे ए०३, एगे पुण एवमाहंसु सवावि मंडलवता विसमचजकोणसंठिया पं० एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवया समचकवालसंठिया पं० एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवता विसमचक्वालमंठिया प० एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाहंसुता समावि मंडलवता चक्कद्धवालसंठिया पं० एगे एवमाहंमु७, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवता छत्तागारसंठिया पं० एगे एवमाहंसु, तत्थ जेते एवमाहंसु ता सवावि मंडलवता छत्ताकारसंठिता पं० एतेणं| |गएणं णायवं, णो चेव णं इतरेहिं, पाहुडगाहाओ भाणियबाओ (सूत्रं १९)॥ पढमस्स पाहुडस्स सत्तम पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-७॥ - | 'ता कहं ते मंडलसंठिई' इत्यादि, 'ता'इति पूवित्, कथं भगवन् ! तत्त्वया मण्डलसंस्थितिराख्याता इति भगवान विदेत् , एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सत्येतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनार्थं प्रथमतस्ता एवोप 中六中六中六F六卒中六中六卒六六章太北京 अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-७ आरभ्यते ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१], .. .-- प्राभूतप्राभत [७], ............... मलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मला ) प्रत सूत्राक ॥३६॥ [१९] दीप अनुक्रम [३३] दर्शयति-तत्थ खलु'इत्यादि, 'तत्र' तस्यां मण्डलसंस्थितौ विषये खल्विमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, १प्राभृते तद्यथा-तत्र तेषामष्टानां परतीर्थिकानां मध्ये एके-प्रथमे तीर्थान्तरीया एवमाहुः, 'ता'इति तेषामेव तीर्थान्तरीयाणाम- प्राभूत नेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, 'सवावि मंडलवय'त्ति मण्डल-मण्डलपरिभ्रमणमेषामस्तीति मण्डलवन्ति चन्द्रा- प्राभृतं दिविमानानि तद्भावो मण्डलवत्ता, तत्राभेदोपचारात् यानि चन्द्रादिविमानानि तान्येव मण्डलवत्ता इत्युच्यन्ते, तधा४ चाह-सर्वा अपि-समस्ता मण्डलवत्ता-मण्डलपरिभ्रमणवन्ति चन्द्रादिविमानानि, समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' एवं सर्वाण्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुनद्वितीया एवमाहुः-सर्वा अपि भण्डलवत्ता विषमचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः २, तृतीया एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताः समचतुष्कोणसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ३, चतुर्था आहुः-सर्वा अपि मण्डलबत्ता विषमचतुष्कोणसंस्थिताः प्रज्ञप्ता ४, पञ्चमा आहुः-सर्वा अपि मण्डल. वत्ताः समचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ५, षष्ठा आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ता-६, सप्तमा आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताश्चक्रार्द्धचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ७, अष्टमा पुनराहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताछत्राकारसंस्थिताः प्रज्ञप्ता:-उत्तानीकृतछत्राकारसंस्थिताः, एवमष्टावपि परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्पति स्वमतमुपदिदर्शयिषुराह'तत्थ'इत्यादि, तत्र-तेषामष्टानां तीर्थान्तरीयाणां मध्ये ये एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता छत्राकारसंस्थिताः प्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन, नयो नाम प्रतिनियतैकवस्त्वंशविषयोऽभिप्रायविशेषो, यदाहुः समन्तभद्रादयो-'नयो ज्ञातुरभिप्राय इति, तत एतेन नयेन-एतेनाभिप्रायविशेषेण सर्वमपि चन्द्रादिविमानज्ञानं ज्ञातव्यं, सर्वेषामप्युत्तानीकृतकपि ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], ....... ..-- प्राभतप्राभूत [७], .............. मुलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [३३] स्थार्जसंस्थानसंस्थितस्यान्न चैव-बैच इतर वांपर्नयलथावस्तुतखाभावात, 'पाहुपमाहाओ भाणिपचाओंति अनापि अधिकत्तपातपाभूतार्थप्रतिपादिकाः कावन गाथा वर्सम्ते, ततो यथासम्मकार्य भणितव्या इति ।............... इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभतस्य प्राभतप्राभतं ७ समाप्तं तदेवमुक्त सप्तमं प्राभूतमाभूतं, साम्प्रतमममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारो-'मण्डलानां विष्कम्भो वक्तव्य ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता सवावि णं मंडलवया केवतियं बाहल्लेणं केवलियं आयामविक्रमेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहिताति वदेजा ?, तत्थ खलु इमा तिपिण पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगे एबमाहंसु-ता सघावि णं मंडलवता जोयर्ण वाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एग लेत्तीस जोयणसतं आपामविक्खंभेषां तिपिण जोयणसहस्साई तिषिण य नवणए जोयणसते परिक्खेवेणं १०, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसुला सघावि णं मंडलवता जोवर्ण पाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीर्स जोपणसर्य आयामविक्खं भेणं तिषिण जोयणसहस्साई चत्तारि पिउत्सरे जोपणसते परिक्खेबेणे पं०, एगे एषमासु २, एगे पुण एवमासु-ता जोषण बाहल्लेणं एगं जोषणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं मायामविक्खंभेणं तिमि जोयणसहस्साई सारि पंचुसरे जोयणसले परिक्खेषेण पक्षणसा, एगे एवमासु, वयं पुष एवं वयामो-ता सबाषि मंगलयता अडतालीसं एगहिभागे जोपणस बारलेणं अधियता आयामविसंभेणं परिक्खेत्रेणं आहिताति बवेजा, तस्थ अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभृतं-७ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभूतप्राभृतं. ८ आरभ्यते ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३४] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ३७ ॥ सूर्यप्रज्ञ- ४ नं को ऊत्ति वदेजा ?, ता अयण्णं जंबुदीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जया णं सूरिए सङ्घभंतरं मंडल उबशिवृत्तिः संकमित्ता चारं चरति तथा णं सा मंडलवता अडतालीस एगट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणउड्जोयण(मल०) सहस्सा छच्च चत्ताले जोयणसते आयामविक्वं भेणं तिष्णि जोयणसतसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई एगूणण जोयणाई किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसर अट्ठारसमुते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहन्ता राई भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोर तंसि अभितराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितरातरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सा मंडलवता अडयालीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवई जोयणसहस्साई छच पणताले जोयणसते पणतीसं च एगद्विभागे जोपणस्स आयामविक्तंभेणं तिष्णि जोयणसत सहस्साई पन्नरसं च सहस्साई एवं चउत्तरं जोयणसतं किंचिविसेसृणं परिक्खेवेणं तदा णं दिवसरातिप्यमाणं तहेव । से णिक्खभमाणे सूरिए दोघंसि अहोरत्तंसि अभितरं तचं मंडलं उयसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितरं तवं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं सा मंडलवता अड़तालीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवतिजोयणसहस्साई छच एकावण्णे जोयणसते णव य एगट्टिभागा जोयणस्स आयाम विक्खंभेणं तिष्णि जोयणसय सहस्साई पन्नरस य सहस्साई एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं पं० तता णं दिवसराई तहेब, एवं खलु एतेण णएणं निक्खममाणे सुरिए तताणंतंरातो तदाणं Education International For Penal Lise On ~ 81~ १ प्राभूते ८ प्राभृत प्राभूतं ॥ ३७ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], ............-- प्राभतप्राभता८1. -------------------- मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] FREE तर मंडलातो मंडलं उवसंकममाणे २ जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विखंभवुहिं अभिवहेमाणे २ अट्ठारस २जोयणाई परिरयबुर्खि अभिवहेमाणे २ सववाहिरं मंडलं उचसंकमित्ता मचारं चरति, ता जया णं सूरिए सवयाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सा मंडलयता अडता लीसं एगट्ठिभागा जोयणसयसहस्सं उच्च सद्धे जोयणसते आयामविखंभेणं तिनि जोयणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई तिणि य पण्णरसुत्सरे जोयणसते परिक्खेवेणं तदा णं उकोसिया 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एस णं पतमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पल्लवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पतमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं वाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ताचारं चरति, ताजया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं जवसंकमित्ता चारें चरति तता णं सा मंडलवता अडतालीसं एगहिभागे जोयणस्स चाहल्लेणं एग जोयणसयसहस्सं छच चउपपणे जोयणसते छच्चीसं च एगहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसतसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि य सत्ताणउते जोयणसते परिक्खेवेणं पं०, तता णं राइदियं तहेच, से पविसमाणे सरिए दोचे अहोरसि बाहिरं तचं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिर तचं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, तता णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्टिभागे जोयणस्स पाहल्लेणं एग जो यणसतसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगढिमागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि जोय SAROKAR दीप अनुक्रम [३४] ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], .........................--- प्राभतप्राभता८1. ........................... मल २०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्राभूते प्रत सूत्रांक (मल प्राभृतं [२०] दीप सतसहस्साई अड्डारस सहस्साई बोषिण अउपणातीसे जोपणसने परिक्खेवेवं पं०, दिवसराई नहेब, पर्व वित्तिखतु एतेशुपाए परिसमाणे सूरिप तताणंतरातो तदायतरं मंडलातो मंडल संकममा २पंच २ जोय-12 तणावं पणसीसं च पपद्विभागे ओयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं णिचुहेमा २ अट्ठारस जोक- ॥३८॥ णाई परिस्पर्दिणिबुडेमाणे २ सयभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरति, ता जता णं सरिए सवाभतरं मंडलं उपसंकमिसा वारं घरति, सता गं सा मंडलषया अडयालीसं एगट्विमागे जोयणस्स बाहल्लेणं गवणउति ओयणसहस्साई वचसाले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिपिण जोपणसयसहस्साई पण्पारस य सहस्साई अडणाउति - जोपणाई किंचिविसेसाहियाई परिक्खेवेमं पं०, लता णं उपसमकद्वपत्ते कोसए अट्ठारसमुहुने दिवसे भवति, जहणिया दुधालसमुहस्सा राई भरति, एस दोबस्स छम्मासस्स पजपसाणे एसचं आदि संवच्छ एस आदिबस्स संबस्छरस्स पजचसाणे, ता सवाचिप मंडलवता अतालीसंद एगडिभामे जोयणास पाहलेणं, समावि पां मंदलतरिया दो जोयणाई विसंभेषां, एस णं असा लेसीयसत पहप्पण्णो पंचवमुत्तरे जोपणसाने आहितालिवदेवा, ता अन्भितरातो बंडलवलाओ चाहिरं मंडलवतं चाहिलाराओ वा अम्भितरं मंडलवतं एस पां अदा केवतियं आदिनाति पदेजा, ता पंचसुत्तरजोपणसते आदि-15 तालिबदेखा, अमितराते मंडलवतात बाषिरा मंडसषया माहिराओ मंजसबलातो अम्भितरा मंबलपता एल अद्धा केववियं भाहितानिपदेवा, ता परसत्तरे जोयाणसते अहतासीसंग एगहिभागे जोपास्त आदि अनुक्रम [३४] ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], .........................--- प्राभतप्राभता८1. ........................... मल २०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप SXSXXX नाति बवेजा, ता अम्भालरातो मंडलवतातो पहिरमंडलपला बाहिरालो. अनंतरवसवता एस है केवतियं आहिताति वदेखा, ता पंचणवुसरे जोपणसते तेरस प पहिमाये जोक्पास्स आहिताति बदेजा, अम्भितराते मंडलषताए बाहिरा मंडलक्या बाहिराते मंडलबताले अन्तरमंडलवया, पस अद्धा केवति आहितातिवदेजा ?, ता पंचदसुत्सरे जोयणसए आहियत्ति बवेजा (सन २०) अहम पाहुबपाहुडं । पब पाहुई समत्तं॥ PM तासबारिणं मण्डलवपा' इस्पादि, 'सा' इति पूर्ववत् , सर्वाण्यपि माइलपदावि मण्डलरूपाणि पदानि मण्डलपदानि, मण्डलपदानि] सूर्यमण्डलस्थानानीत्यर्थः, फियम्माचं बाहल्येग कियदायामविष्कम्भाभ्यां किवत्परिक्षेपेण-परिधिना आख्याट्रातानि इति वदेत्, सूत्रेखीवनिर्देश प्राकृतत्वात, माकृते हिलिङ्ग व्यभिचारि, बदाह पाणिनिः स्वमाकृतलक्षणे-लिई व्यभिचार्यपी लि, एवं भगवता गोलमेन प्रश्शे कृते सतिभगवानेतद्विषयपर तीर्थिकप्रतिपसीनां मिथ्याभाकोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एबोपन्यस्यसि तत्स्थ स्वम्' इत्यादि, तत्र मण्डलकाहल्यादिविचारविषये खतिवमास्तिमा प्रतिपयःप्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तब-४ तेषां बयाणां परतीथिकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीकराएवमाहु:-'ता' इति प्राम्बत् , सर्यापयपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि जोयणं बाहल्लेणं तिप्रत्येक योजनमेक 'बाहस्पेन' पिण्डेन एक बोजनसहरमेकं च बखिंशयवखिंवादधिक योजनशत, आयामविसंघेणं'लि आयाम विष्कम्भन आयामरिष्कासमाहारो दबखेम शलोकमायामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः बीणि योजनसहवामी श्रीणि पनवस्यतानि योजनयताविपरिक्षेपःप्रजमाचिस बीर्यान्तरीबायां मवेष मण्डल अनुक्रम [३४] ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१], .. .-- प्राभूतप्राभत [८], ............... मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १ प्राभूते सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक प्राभूत ॥ ३९॥ [२०] SHREE दीप स्थायामविष्कम्भमेवं योजनसहस्रमेक योजनशतं च त्रयस्त्रिंशदधिकमायामविष्कम्माभ्यां ते परिरयपरिमाणं वृत्तपरिमाणात् ब्रिगुणमेव परिपूर्णमिच्छन्ति, न विशेषाधिकमतस्त्रीणि योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि नवनवतानीत्युक्तं, तथाहि-सहस्रस्य | त्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि त्रयविंशतश्च नवनवतिरिति, इदं परिरयपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी चट्टस्स परिरओ होइ' इति परिरयगणितेन व्यभिचारि, तेन हि परिरयपरिमाणानयने त्रीणि योजनसहस्राणि पश्च शतानि ब्यशीत्यधिकानि किश्चित्समधिकान्यागच्छन्ति, तथाहि-एक योजनसहनमेकं च योजनशतं त्रयस्त्रिंशदधिकमित्येकादश योजनशतानि त्रयविंशदधिकानि ११३३, एतेषां वर्गों विधीयते, जात एकको द्विकोऽष्टकखिकः षट्कोऽष्टको नवकः १२८३६८९, सतो दशभिर्गुणितेन जातमेकमधिकं शून्य १२८३६८९०, एतेषां वर्गमूलानयने आगच्छति यथोकं परिरयपरिमाणमतस्तम्मतेन परिरयपरिमाणं व्यभिचारि, एवमुत्तरमपि मतद्वयं परिभावनीय, अत्रैव प्रथममते उपसंहार 'एगे एवमासु' १, एके पुनरेवमाहुः-सर्वाण्यपि सूर्यमण्डलपदानि प्रत्येकमेकं योजनं बाहल्येन एक योजनसहनमेकं च योजनशतं चतुर्खिशं-चतुर्विंशदधिकमाषामविष्कम्भाभ्यां ११३४ त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि व्युत्तराणि १४०२ परिक्षेपतः, तथाहि-एतेषामपि मतेन विष्कम्भपरिमाणात परिरयपरिमाणं परिपूर्णत्रिगुणरूपं, ततः सह-1 अस्य श्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि चतुर्विंशतो व्युत्तरं शतमिति, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमासु' एके पुनरेवमाहुर-सर्वाण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकमेकं योजनं बाहल्येन एक योजनसहनमेकं च योजनशतं । [पञ्चत्रिंश-पश्चत्रिंशदधिकमायामविष्कम्भाभ्यां ११३५ त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पश्चोत्तराणि ३४०५ अनुक्रम [३४] ॥3e ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], ............-- प्राभतप्राभता८1. -------------------- मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक KHESARI [२०] -4-% 84% परिक्षेपतः, तथाहि-कस्य योजनसहस्रस्य त्रीणि योजनसहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि पञ्चत्रिंशतः पञ्चोत्तरं शतमिति, एतानि त्रीण्यपि मतानि मिथ्यारूपाणि परिरयपरिमाणमात्रेऽपि व्यभिचारात्,.अतो भगवान् तेभ्यः पृथक् स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता सहावी त्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् सर्वाण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकं बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्भपरिक्षेपेण-आयामविष्कम्भपरिक्षेपैः पुनरनियतानि आख्यातानि, कस्यापि मण्डलस्य कियान आयामो विष्कम्भः परिक्षेपश्चेति भाव इति स्वशिष्येभ्यो वदेत् , एवमुक्त भगवान् गौतमः पृच्छति-तत्थ णं को हेऊ इति वइज्जा' तत्र-मण्डलपदानामायामविष्कम्भपरिक्षेपानियतत्वे को हेतु:-का उपपत्तिरिति वदेत् !, अत्र भगवानाह-ता अयन्नमित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं परिभावनीय व्याख्यानीयं च, ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदं, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वाद्, बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ज्ञातव्यं, आयामविष्कम्भाभ्यां नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि ९९६४०, तथाहि-एकतोऽपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमशीत्यधिक योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितमपरतोऽपि, ततोऽशीत्यधिकं योजनशतं द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ३६०, एतानि जम्बूद्वीपविष्कम्भपरिमाणालक्षरूपात् शोध्यन्ते, ततो यथोकमायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश सहवाणि एकोनवत्यधिकानि ३१५०८९ परिक्षेपतः, तथाहि-तस्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतियोंजनस दीप अनुक्रम [३४] 96 % ES ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], --------- ----- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- ठिवृत्तिः (मल०) प्रत प्रामृत ॥४०॥ सूत्रांक [२०] हवाणि पद शतानि चारिंगरपिचनि १९१४०, पतेषां पा विधीयते, जातो नवको नवको बिकोऽहक एककोशिको नक्कर डोरेशून्ये ९९२८१२९१.०, तसो दशभिर्युषचे जातमेकमधिकं शून्य ९९२८१२९५०००, अलबर्गमूलानयनेन स यथोकं परिस्यप्रमाणं, शेषं सिधति द्विक पककोऽष्टक शून्यं सप्तको नवकः २१८०७९ पतत् त्व, लिया गमित्याविना रात्रिदिवपरिमाण सुगम । 'से निक्खममा' इत्यादि, स सूर्यः सर्वाभ्यन्तराममण्डलामागुरुप्रकारेण विष्काम नई संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्व प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसहायडू चारं चरति तन यदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा तन्मण्डलपदमष्टाचयारिंशदेकर हिवागायोजनस्य बाइस्येन, नवनवतियोंजनसहस्राणि षट् शतानि पश्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्चविंशचकषष्टिभागा योजनस्थायामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-एकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यस्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्वापरेच योजने बहिरवष्टभ्य द्वित्तीये मण्डले चारं चरति द्वितीयोऽपि, ततो द्वयोर्योजनयोरष्टाचत्वारिंशतकपष्टिभामानां योजनख द्वाभ्यां गुणने पक्ष बोजवानि पञ्चविंशकपष्टिभागा योजनस्पति भवति, एतत्प्रथममण्डलविष्कम्भपरिमाणे[धिकत्वेन प्रक्षिप्यते, तसो भवति यथोक वितीयमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणमिति, तत्र त्रीणि योजनशतसहस्राणि परदश सहमाणि पच समोत्तरं बोजनमतं किचिद्विशेषाधिक परिरयेपा प्रज्ञलं, तथाहि-पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादस्य मण्डलस्य निकम्भायासपरिमाणे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैपष्टिभागा योजनस्थाधिकल्वेन प्राप्यन्ते, सतोऽस्व राशेः पृथक परिरक्परिमाथमानेतव्यं, तब पच योजनान्येष्टिभागकरणार्थमेकका गुण्यन्ते, जातानि चीणि शतानि दीप अनुक्रम [३४] ॥४०॥ ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], .........................--- प्राभतप्राभता८1. ........................... मल २०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] नोत्तराणि ३०५, पतेषां मध्ये उपरितनाः पञ्चत्रिंशदेकषधिभाया प्रक्षिप्यन्ते, जातानि बीपि शतामि चत्वारिंशवधि गानि ३४०, एतेषां वर्गो विधीयते, वर्गपित्वा प दशभिर्गुणनात् ततो जास एकक एकक पक्षका बस्त्रीणि शून्यानि ११५९०.०, तत एषां वर्गभूलानयने लब्धानि दश शतानि पञ्चसमत्यधिकानि १०७५, एतेषां योजवान बनार्थमेकपा भागे हते लब्धानि सप्तदश योजनानि अत्रिंशकपष्टिभामा योजनस्य १७६०, एतत्पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणेऽधिकरवेग है प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, किश्चिविशेषोनता च किश्चिदूनत्रयोविंशत्या एकपष्टिभाग-2 रूनला द्रष्टव्या, 'तया पांदिवसरापमाणं तह घेव' तदा-द्वितीयमण्डलधारचरणकाले दिवसरात्रिप्रमाणं तथैव-12 माग्वत् ज्ञातव्यं, तयम्-तया णं अद्वारसमुकुसे विक्से हवा दोदि एगद्विभागमुहत्तेहि ऊणे दुवाससमु.। हुत्ता राई भषति दोहि एगविभागमुडुत्तेहिं अहिया, 'से मिक्सममाणे इत्यादि, ततः सूर्यो द्वितीयस्मारमण्डलादुक्ताकारेण निष्कामन् मक्संवत्सरसरके द्वितीयेऽजोरात्रे 'अभितरं तचंति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डल मुपसङ्कम्य चार चरलि, 'ता जया व्यमित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्ब चार दाचरति तदा सत्तृतीयं मण्डलपद अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् योजना शताब्येकपञ्चाशदधिकानि बबाहिभागा योजनख ९९१५१ आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाश्या, तथाहिप्रायिवाचापि पूलमालविकम्भायामपरिमाणात् पञ्च योजनानि पञ्चम्किपष्टिभान योजनस्साधिकत्वेन प्राप्यन्ते, ततो थोकम्म्यामविष्कम्भपरिसायं भवति बीवियोजनमतसहवाणि पदम बहाफिएवं पञ्चविंशत्यधिक योजना दीप अनुक्रम [३४] ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], ............-- प्राभतप्राभता८1. -------------------- मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रशसिवतिः (मल.) प्रत सूत्रांक ॥४१॥ [२०] दीप परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य विष्कम्भे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकवष्टिभागा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्यन्ते, ४१ प्राभृते ततो यथोक्तमत्रायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, तस्य च पृथक् परिरयपरिमाण सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच एकप-ल [ष्टिभागा योजनस्य, एतनिश्चयनयमतेन, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतमवलम्ब्य परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षि- प्राभृतं तानि, व्यवहारनयमतेन हि लोके किशिदूनमपि परिपूर्ण विवक्ष्यते, तथा यदपि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणे किश्चिदूनत्वमुक्तं तदपि व्यवहारनयमतेन परिपूर्णमिव विवक्ष्यते, ततः पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणे अष्टादश योजनान्यधिकस्वेन प्रक्षिप्यन्ते इति भवति यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं, 'तया णं दिवसराई तहेव' इति तदा तृतीयमंडलचा-1 रचरणकाले दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, तच्चैवम्-तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगठिभागमुहु-1 सेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहि एगडिभागमुहुत्तेहि अहिया, 'एवं खल्वि'त्यादि, एवं-उक्तप्रकारेण खलु & निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमे कैकमण्डलमोचनरूपेण निष्कामन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सामन्| सामन् एकैकस्मिन् मण्डले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्येवंपरिमाणां विष्कम्भवृद्धिमभिव-14 आर्द्धयन्नभिवर्द्धयन् एकैकस्मिन्नेतन्मण्डले अष्टादश अष्टादश योजनानि परिरयवृद्धिमभिवर्द्धयन्नभिवर्धयन इहाष्टादश अष्टादशेति व्यवहारत उक्तं, निश्चयनयमतेन तु सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशतं चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्रष्टव्यं, एतच्च प्रागेव भावितं, न चैतत्स्वमनीषिका विजृम्भितं, यत उक्तं तद्विचारप्रक्रमे एव करणविभावनायां-'सत्तरस जोयणाई अद्वतीसं च एगहिभागा १७६६ एयं निच्छएण संववहारेण पुण अट्ठारस जोयणाई' इति प्रथमषण्मासपर्य अनुक्रम [३४] 45-%94564594 ॥४१॥ ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१], .. .-- प्राभूतप्राभत [८], ............... मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -25% प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३४] वसानभूते ज्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा तत्सर्वबाह्य मण्डलपदं अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य वाहल्येन एक योजनशतसहस्रं षटू शतानि षध्यधिकानि १००६६० आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः सर्वबाह्यं मण्डलं पर्यवसानीकृत्य त्र्यशीत्यधिक मण्डलशतं भवति, मण्डले २ च विष्कम्भे २ परिवर्द्धन्ते पञ्च २ योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य, ततः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन |शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, येऽपि च पश्चत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य तेऽपि त्र्यशीत्य[धिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुःषष्टिः शतानि पश्चोत्तराणि ६४०५, तेषामेकषष्ट्या भागे हृते लब्धं पञ्चोत्तरं योजनशतं ४१०५, एतत्पूर्वस्मिन् राशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि १०२०, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डलविष्क-17 म्भायामपरिमाणे अधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५ परिक्षेपतः, नवरं पश्चदशोत्तराणि | फिश्चिश्यूनानि द्रष्टव्यानि, तथाहि-अस्य मण्डलस्य विष्कम्भो योजनलक्ष षट् योजनशतानि षट्यधिकानि १००६६०, अस्य वगों विधीयते, जात एककः शून्यमेककत्रिको द्विकश्चतुष्कस्त्रिकः पञ्चका पट्टो द्वे शून्ये १०१३२४३५६००, ततो दशभिर्गुणने जातमेकमधिकं शून्यं १०१३२४३५६०००, अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि ३१८३१४, शेषमुद्धरति. पश्चकः पञ्चकस्त्रिकचतुष्कः शून्यं चतुष्कः ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३४] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ४२ ॥ ५५३४०४ छेदराशिः पङ्कखिकः पङ्कः पङ्को द्विकोऽष्टकः ६३६६२८ तत एतेन पश्चदशं योजनं किञ्चिदूनं किल लभ्यते इति व्यवहारतः सूत्रकृता परिपूर्ण विवक्षित्वा पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तं, अथवा मण्डले २ पूर्व २ मण्डलापरिरयवृद्धी सप्तदश २ योजनानि अष्टात्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्य लभ्यन्ते, ततः सप्तदश योजनानि व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, ५ जाताम्येकत्रिंशच्छताम्येकादशोत्तराणि ३१११, येsपि चाष्टात्रिंशदेकपष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, ॐ जातान्येकोनसप्ततिशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ६९५४, तेषां योजनानयनार्थये कषष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुर्दशोत्तरं योजनशतं ११४, तच पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते जातानि द्वात्रिंशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि २२२५, एतानि सर्वाभ्य न्तरमण्डलपरिश्यपरिमाणे त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि नवाशीत्यधिकानि ३१५०८९ इत्येवंरूपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि २१८३१४, तथा सप्तदशानां योजनानां अष्टात्रिंशतो कषष्टिभागानामुपरि यानि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि २७५ शेषाण्युद्धरन्ति तानि ध्यशीत्यधिकेन सतेन गुण्यन्ते जातान्यष्टषष्टिसहस्राणि षट् शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि ६८६२५, तेषां छेदराशिना पश्चाशद|धिकैकविंशतिचतरूपेण २१५० भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य, शेषं स्तोकत्वात् त्यक्तं, परं व्यव हारतः परिपूर्ण योजनं विवक्षितमिति पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तं, 'तथा ण' मित्यादिना रात्रिन्दिवपरिमाणं पण्मासोपसंहरणं च सुगमं, 'से पविसमाणे' इत्यादि, ततः स सूर्यः सर्वबाद्यान्मण्डलात् प्रायुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं पण्मासमाददानो द्वितीयस्व पण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाद्यानन्तरमर्वाचनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति, 'ता सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल०) Education Internation For Parts Only ~ 91~ १ प्राभृते ८ प्राभूत प्राभृतं ॥ ४२ ॥ wor Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१], .. .-- प्राभूतप्राभत [८], ............... मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप जया णमित्यादि, तत्र यदा णमितिवाक्यालकारे सर्ववाद्यानन्तरमर्वातनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य पारं परति तदा तन्मण्डलपदं अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, एक योजनशतसहस्रं षटू च योजनशतानि चतुष्प-13 बाशदधिकानि पशितिश्चैकषष्टिभागा योजनस्य १००६५४२ आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-एकतोऽपि तन्मण्डलं सर्ववाहामण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्थापरे द्वे योजने विमुच्याभ्यन्तरमवस्थितमपरतोऽपि, ततो योजनद्यस्याष्टाचत्वारिंशतश्चैकषष्टिभागानां द्वाभ्यां गुणने पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशकषष्टिभागा योजनस्येति भयति, एतत्सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणात् शोभ्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७ परिक्षेपतः प्रक्षिप्तं, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशकपष्टिभागा योजनस्येति त्रुष्यन्ति, पश्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतश्चैकषष्टिभागानां परिरये सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य भवन्ति, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षितानि, प्रागुक्तात्सर्वबाह्यमण्डलपरिरयपरि|माणात् त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि इत्येवंरूपादष्टादश योजनानि शोभ्यन्ते, ततोल यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, 'तया णं राइंदियाणं तह चेव'त्ति तदा रात्रिन्दिवं रात्रिदिवसौ तथैव वकव्यो, तौ चैवम्-'तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगद्विभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवइ सदोहि एगडिभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, 'से पविसमाणे इत्यादि, ततः स सूर्यस्तस्मादपि द्वितीयस्मान्मण्डलात्मागुक्तक अनुक्रम [३४] CREASE ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१], ............-- प्राभतप्राभता८1. -------------------- मलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: N८प्राभृत प्रत सूत्रांक [२०] 125454 दीप अनुक्रम [३४] सूर्यप्रज्ञ- प्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयस्य पण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सवबाह्यान्मण्डलादवाक्तनं तृतीय मण्डलमुपसङ्गम्य चार प्राभूतेप्तिवृत्तिःचरति, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदं अष्टाचत्वा-| (मल०) रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य वाहल्येन एक योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपश्चाश प्राभूत ॥४३॥ कषष्टिभागा योजनस्य १००६४८५२ आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्या, तथाहि-पूर्वस्मान्मण्डलादिदं मण्डलमायामविष्कम्भेन पञ्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य हीनं, ततः पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादेक योज-2 नशतसहस्रं षट् शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि पड्विंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनस्वेत्येवंरूपात्पञ्च योजनानि पञ्चविंशबैक पष्टिभागा योजनस्य शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७९ परिक्षेपतःप्रक्षिप्तं, तथाहि-प्राक्तनमण्डलादिदं मण्डलं पञ्चभियोजनैः पश्चशिता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य विष्कम्भतो हीन, पश्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतकषष्टिभागानां परिरयपरिमाणं व्यवहारतोऽष्टादश योजनानि, ततस्तानि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतपरिरयपरिमाणं भवति, 'दिवसराई तहेव'त्ति दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगविभागमुहत्तेहिं ऊणा, दुधालसमुहत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगहिभागमहत्तेहि अहिए' इति, 'एवं खस्वि'त्यादि || एतत्सूत्रं मागुक्तव्याख्यानानुसारेण स्वयं परिभाषनीयं, नवरं 'निवेढेमाणे' इति निवष्टयन निर्वेष्टयन हापयन् हापयनित्यर्थः, 'ता जया 'मित्यादि सुगम, अधुना प्रस्तुतवक्तव्यतोपसंहारमाह-'ता सवावि ण'मित्यादि, ततः सर्वाण्यपि 524 ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३४] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मण्डलपदानि प्रत्येकं बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य, उपलक्षणमेतत् अनियतानि चायामविष्कम्भपरिधिभिः तथा सर्वाण्यपि च मण्डलान्तरकाणि - मण्डलान्तराणि, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, द्वे द्वे योजने विष्कम्भेन, तत एष द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्येवंरूपो, णमिति वाक्यालङ्कारे, अध्वा-पन्थाख्यशी|त्यधिकशतप्रत्युत्पन्नः- त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुणितः सन् पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्याख्याता इति वदेत्, तथाहि-द्वे योजने त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते जातानि त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि ३६६, येऽपि च अष्टाचत्वारिंशदेकप|ष्टिभागास्तेऽपि व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, तेषां योजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतं १४४, तत् पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पश्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, अस्यैवार्थस्य व्यक्तीकरणार्थं भूयः प्रश्नसूत्रमाह-- 'ता अभितराओ' इत्यादि, 'ता' इति तत्र अभ्यन्तरात्- सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलपदात् परतो यावद्वाह्यं सर्वबाह्यं मंडलपदं बाह्याद्वा सर्वबाह्याद्वा मण्डलपदादवक यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलपदमेष- एतावान् अध्वा कियान् कियत्प्रमाण आख्यात इति वदेत् ?, एवमुक्ते गौतमेन भगवानाह-'ता' इत्यादि, तावानध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत् । स्वशिष्येभ्यः, पचदशोत्तरयो| जनशतभावना प्रागुकानुसारेण स्वयं परिभावनीया, 'अग्भितराए' इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरान्मण्डलपदादारभ्य यावद्वाह्यं सर्वत्राह्यं मण्डलपदं यदिवा बाह्येन सर्वबाह्येन मण्डलपदेन सर्वबाह्यान्मण्डलपदादारभ्य | यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं एष एतावान् अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् १, भगवानाह - 'ता पंचे'त्यादि, स एतावान् Education International For Pernal Use On ~94~ war Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------- प्राभृतप्राभूत [८], --------- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [२०] ॥४४॥ दीप अध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्यष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्याख्यात इति वदेत्, पूर्वस्मादध्यपरिमाणात् एतस्याध्वपरिमाणस्य सर्वबाह्यमण्डलगतेन बाहल्यपरिमाणेनाधिकत्वात् , 'ता अम्भितरे'त्यादि, 'ता' इति अभ्यन्तरा D८प्राभूक्तन्मण्डलपदात्परतो बाह्यमण्डलपदात्-सर्वबाह्यमण्डलादाक् यद्वा बाह्यमण्डलपदादाक् अभ्यन्तरमण्डलात्परत एषः प्राभूत अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता पंचे'त्यादि, पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रयोदश चैकषष्टिभागा योजनस्य आख्यात इति वदेत् , पूर्वस्मादध्वपरिमाणादस्याध्वपरिमाणस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतसर्वबाह्यमण्डलगतबाहल्यपरिमाणेन पश्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकैकयोजनरूपेण हीनत्वात् , तदेवमभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावत्सर्वबायं मण्डलं सर्ववाद्याद्वा मण्डलादाक् यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं तथा सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलाभ्यां सह तथा सर्वाभ्यन्तरसर्ववाह्यमण्डलाभ्यां विना यावदध्वपरिमाणं भवति तावनिरूपित, सम्प्रति सर्वाभ्यन्तरेण मण्डलेन सह सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो वाह्यमण्डलादाक् यदिवा सर्वबाह्यमण्डलेन सह सर्वबाह्यमण्डलादर्वाक् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावदध्वपूरिमाणं भवति तावन्निरूपयति-'अम्भितराए' इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः सर्ववाह्यान्मण्डलाद गिति गम्यते, यदिवा सर्वबाझेन मण्डलपदेन सह सर्वबाह्यान्मण्डलादक सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परत इति गम्यते, योऽध्या एष णमिति वाक्यालकारे अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् 1, भगवानाह–'ता' | इत्यादि, तावानध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत्, भावना सुगमत्वान्न क्रियते। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ८ समाप्तं अनुक्रम [३४] ॥४४॥ अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभृतप्राभृतं- ८ परिसमाप्तं तत् समाप्ते प्रथम प्राभूतं अपि परिसमाप्तं ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [२], .. .-- प्राभूतप्राभत [१], .............. मलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] तदेवमुक्तं प्रथमप्राभूत, सम्प्रति द्वितीय वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कथं तिर्यक सूर्यः परिश्रमतीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह. ता कहं तेरिच्छगती आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पहिवत्तीओ पण्णताओ, तत्धेगे एवमा इंसु ता पुरच्छिमातोलोअंतातो पादोमरीची आगासंसि उत्तिति सेणं इमं लोयं तिरियं करेह तिरियं करेत्तापिचत्थिमंसि लोयंसि सायंमि रायं आगासंसि विद्धंसिस्संति एगे एवमाहेसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमातो लोअंतातो पातो सूरिए आगासंसि उत्तिद्दति, से णं इमं तिरियं लोपं तिरियं करेति करित्ता पचत्धिर्मसि लोयंसि सरिए आगासंसि विडंसंति, एगे एवमाहंसु२, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरत्थिमाओ लोयंतातो पादो सूरिए आगासंसि उत्तिट्ठति, से इमं तिरिय लोयं तिरियं करेति करित्ता पचत्थिमंसि लोयंसि सायं अहे पडियागच्छंति, अधे पडियागच्छेत्ता पुणरवि अवरभूपुरस्थिमातो लोयंतातो पातो सरिए आगासंसि उत्तिद्वति, एगे एबमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरथिमाओ लोगंताओ पाओस् रिए पुढविकायंसि उत्तिकृति, से णं इमं तिरियं लोयं तिरिय करेति करेत्ता पचत्थिमिल्लंसि लोयंतसि सायं सूरिए पुढविकार्यसि विद्धंसह, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढविकायंसि उत्तिहइ से णं इमं तिरिय लोयं तिरियं करेइ करेत्ता पचस्थिमंसि लोयतंसि सायं सरिए। पुढविकापंसि अणुपविसह अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छद २ पुणरवि अवरभूपुरस्थिमाओ लोगंताओ दीप अनुक्रम [३५] अथ द्वितियं प्राभृतं आरब्धं अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ आरभ्यते ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .............-- प्राभतप्राभत [1. -------------------- मलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) सूत्रांक ॥४५॥ [२१] दीप अनुक्रम पाओ सूरिए पुदविकायंसि उत्तिट्टइ, एगे एव०५, एगे पुण एवमाहेसु ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओग्राभूत मूरिए आउकायंसि उत्तिइ, से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करेइ करेत्ता पचत्थिमंसि लोयंतंसि पाओ १प्राभृतसूरिए आउकायंसि विद्धसंति, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरथिमातो लोगंतातो पाओ प्राभृतं सूरिए आपकार्यसि उत्तिट्ठति, से णं इमं तिरिय लोयं तिरियं करेति २सा पञ्चस्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आउकायंसि पविसह, पविसित्ता अहे पडियागच्छति २त्ता पुणरवि अवरभूपुरत्धिमातो लोयंतातो पादो सूरिए आउकायंसि उत्तिट्ठति, एगे एव०७, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरस्थिमातो लोयंताओ बहूई जोयणाई यह जोयणसाई बहूई जोयणसहस्साई उहुं दूरं उप्पतित्ता एत्य गं पातो सूरिए आगासंसि उत्तिदृति, से गं इमं दाहिणहुं लोयं तिरियं करेति करेसा उत्तरडलोयं तमेव रातो, से णं इमं उत्सरलोयं तिरियं करेइ २त्ता दाहिणहलोयं तमेव राओ, से णं इमाई दाहिणुत्तरडलोयाई तिरियं करेइ करित्ता पुरस्थिमाओ लोयंतातो पहुई जोयणाई बहुयाई जोयणसताई बहूई- जोयणसहस्साई उहं दूर उप्पतित्ता एत्थ णं पातो सूरिए आगासंसि उत्तिकृति एगे एवमाहंसु८ । वयं पुण एवं वयामो, ताग अंबुवस्स २ पाइणपडीणायतओदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउबीसेणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुर-1४॥ ४५ ॥ च्छिमंसि उत्तरपञ्चस्थिमंसि य चउम्भागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभा-1 गातो अट्ठ जोयणसताई उडे उष्पतित्सा एत्थ णं पादो दुवे सूरिया उसिटुंति, ते णं इमाई दाहिणुसराई [३५] ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [३५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जंबुद्दीवभागाईं तिरियं करेंति २ सा पुरत्थमपचत्थिमाई जंबुद्दीवभागाई तामेव रातो, ते णं इमाई पुरच्छिमपचत्थिमाएं जंबुद्दीव भागाई तिरियं करेंति २ ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवभागाई तामेव रातो, ते णं इमाई दाहिणुत्तराई पुरच्छिमपथत्थिमाणि य जंबुद्दीवभागाई तिरियं करेति २ ता जंबुद्दीवरस २ पाईणपडियायत ओदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चडवीसेणं सतेणं ऐसा दाहिणपुरच्छिमिल्स उत्तरपञ्चत्थिमिल्लेसि य च भागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो अट्ठ जोयणसयाई उन्हं उप्पइत्ता, एत्थ णं पादो दुवे सूरिया आगासंसि उत्तिद्वंति (सूत्रं २१) ॥ वितीयस्स पढमं ॥ १ ॥ 'ता कहूँ तेरच्छगई' इत्यादि, अस्त्यन्यदपि प्रभूतं प्रष्टर्व्य परं एतावदेव तावत्पृच्छामि कथं 'ते' त्वया भगवन् ! सूर्यस्य तिर्यग्गतिः- तिर्यक्परिभ्रमणमाख्याता इति वदेत्, एवमुक्ते भगवान् एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्या भावो |पदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एव प्रतिपत्तीरुपन्यस्यति - 'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र तस्यां सूर्यस्य तिर्यग्गतौ तिर्यग्गतिविष ये खल्विमा - वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञष्ठाः, ता एव क्रमेणाह - 'तत्थेगे' इत्यादि, तत्र तेषामष्टानां परतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत् पौरस्त्यालोकान्तादूर्ध्वमिति गम्यते, पूर्वस्यां दिशीति भावार्थ:, प्रातः- प्रभातसमये मरीचि :- मरीचिसङ्घातः किरणसङ्घात इत्यर्थः, आकाशे उत्तिष्ठति उत्प द्यते, एतेन एतदुक्तं भवति नैतद्विमानं नापि रथो नापि कोऽपि देवतारूपः सूर्यः किन्तु किरणसङ्गात एष वर्चुलगोलाकारो लोकानुभावात्प्रतिदिवसं पूर्वस्यां दिशि प्रातराकाशे समुत्पद्यते, यतः सर्वत्र प्रकाशः प्रसरमधिरोहति, स इत्थंभूतो Education Internation For Parts Only ~98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२]. .................--- प्राभतप्राभूत [१], .............. ... मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक विवृत्तिः (मल) ४६॥ । [२१] मरीचिसात उपजातः सन् णमिति वाक्यालङ्कारे इम-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं लोक-तिर्यग्लोक तिर्यकरोति, किमुक्ताप्राभते भवति !-तिर्यक् परिभ्रमन्निम तिर्यग्लोक प्रकाशयतीति, तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये विध्वंसते, ४१ प्राभूत* अत्रोपसंहार:-'एगे एवमासु तथा जगत्स्वाभाव्यात् स मरीचिसङ्घात आकाशे विध्वंसते-विध्वंसमुपयाति एवं सकल- प्राभूत कालमपि, अत्रैवोपसंहारः, 'एगे एवमाइंसु'१, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूचं प्रातः सूर्यों लोकप्रसिद्धो देवतारूपो भास्करस्तथाजगत्स्वाभाच्यादाकाशे उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन्निम तिर्यग्लोक तिर्यकरोति-तिर्यक परिभ्रमनिमं| लोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यक् च कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये आकाशे विध्वंसते अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु'२, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी तथाविधपुराणशास्त्रप्रसिद्ध आकाशे उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोदतः सन्तिम प्रत्यक्षत उपलभ्यमान मनुष्यलोक तिर्यक् करोति तिर्यक् च कृत्वा पश्चिमलोकान्ते सायं-सन्ध्यासमये अध आकाशमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागेन प्रत्यागच्छति, अधोलोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तते इत्यर्थः, तन्मतेन हि भूरियं गोलाकारा लोकोऽपि च गोलाकारतया व्यवस्थितः, ४ इदं च मतं सम्प्रत्यपि तीर्थान्तरीयेषु विज़म्भते, ततस्तद्गत पुराणशास्त्रादेतत्सम्यगवसेयं, अस्य त्रयो भेदाः, एके एव& माहुः-प्रातः सूर्य आकाशे उत्गपछति, अपरे आहुः-पर्वतशिरसि, अन्ये आहुः-समुद्रे इति, तत्र प्रथमानामिदं मतमुप-1| न्यस्तं, अध: प्रत्यागत्य च पुनरप्यवरभुव:-अधोभुवः पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूयेमाकाशे | प्रातः सूर्य उदूगच्छति, एवं सर्वदापि द्रष्टव्यं, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु'३, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्ता दीप अनुक्रम [३५]] ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२]. .................--- प्राभतप्राभूत [१], .............. ... मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] दर्य प्रातः सूर्यो देवतारूपस्तथाविधपुराणप्रसिद्धः पृथिवीकाये-पृथिवी कायमभ्ये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति-उत्पचते. सचोत्पन्नः सन्तिम मनुष्यलोक तिर्यकरोति, तिर्यक् परिश्रमन्निमं मनुष्यलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यकृत्वा पश्चिमे , लोकान्ते सायं-सामध्ये समये सूर्यः पृथिवीकाये-अस्तमयभूधरशिरसि विध्वंसते-विध्वंसमुपयाति, एवं प्रतिदिवस सकलकालं जगत्स्थितिः परिभावनीया, अनोपसंहारः 'एगे एवमासु'४, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी पृथ्वीकाये-उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्गतः सन्निम प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यकृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये पृथिवीकार्य-अस्तमयभूपरमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागवतिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तते, ततः पुनरप्यवरभुवः-अधोभुवः पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये-उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति, एतेऽपि भूगोलवादिनः परं पूर्व आकाशे उत्तिष्ठतीति प्रतिपन्नाः एते तु पर्वतशिरसीति शेषः, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु' ५, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालोकान्तादू प्रातः सूर्योऽष्काये-पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति-उत्पद्यते, स चोरपन्नः सन्निम-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यकृत्या पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये सूर्योऽप्काये-पश्चिमसमुद्रे विध्वंसमुपगच्छति, एवं सर्वदापि, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहेसु'६, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यः सदावस्थायी पुराणशास्त्रप्रसिद्धोऽकाये-पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्गतः समिम तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यक परिभ्रमन्निम तिर्यग्लोक प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये सूर्योऽप्कार्य-पश्चिमसमुद्र दीप अनुक्रम [३५]] ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .............-- प्राभतप्राभत [1. -------------------- मलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत २ प्राभुते प्राभूतप्राभूत सूत्रांक [२१] दीप सूर्यमज्ञ- मनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्त्तत इति भावः, अधः प्रत्यागत्य तिवृत्तिः चावरभुवः-अध:पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्योऽकाये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति- (मल. उद्गच्छति, एवं सकलकालमपि, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु' ७, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रथमतो ॥४७॥ बहूनि योजनानि ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि तदनन्तरं क्रमेण बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य-बुझ्या गत्वा अत्र-अस्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्गतः सन्निम दक्षिणा - लोक-दक्षिणदिग्भाविनमर्द्धलोकं, दक्षिणं लोकस्यामित्यर्थः, तिर्यक्करोति-तिर्यक् परिश्रमन् दक्षिणलोकाई प्रकाशयतीत्यर्थः, दक्षिणं चार्द्धलोक तिर्यकुर्वन् तदैवोत्तरमलोकं रात्रौ करोति, ततः स सूर्यः क्रमेणेममर्द्धलोकमुत्तरं तिर्यकरोति, तत्रापि तिर्यक् परिभ्रममन् उत्तरमर्द्धलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, उत्तरं चालोकं तिर्यपरिभ्रमणेन प्रकाशयन् तदैव दक्षिणMमर्जलो रात्रौ करोति, ततः स सूर्य इमी दक्षिणोत्तरार्द्धलोकी तिर्यकत्वा भूयोऽपि पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रथमतो बहूनि योजनानि गत्वा ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि तदनन्तरं बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य-गुळ्या गत्वा अत्र-अस्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति-उद्गमछति, एवं सकल कालं, अत्रोपसंहारमाह-एगे एकमाहंसु'दा तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदर्य स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थित वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा, चतुर्विशत्यधिकशतसक्वान् भागान् मण्डलं परिकल्प्ये अनुक्रम [३५]] ॐॐॐ ॥४७॥ ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [३५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः त्यर्थः, भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया प्रत्यक्षया - दवरिकयेत्यर्थः, तन्मण्डलं चतुर्भिर्भागैर्विभज्य दक्षिणपौरस्त्य उत्तरपश्चिमे च चतुर्भागमण्डले-मण्डल चतुर्भागे एकत्रिंशद्भागप्रमाणे, एतावति किल चतुरशीत्यधिकमपि | मण्डलशतं सूर्यस्योदये प्राप्यते इति 'चडवीसेणं सरणं हित्ता चउभागमंडलंसी त्युक्तं, अस्याः - प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रक्तप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्वमष्टौ योजनशतान्युत्प्लुत्य - बुद्ध्या गत्वा अत्रान्तरे प्रातद्व सूर्यादुत्तिष्ठतः - उद्गच्छतः, दक्षिणपौरस्त्यमण्डलचतुर्भागे भारतः सूर्य उद्गच्छति अपरोत्तरस्मिन् मण्डलचतुर्भागे ऐरावतः सूर्यः, तौ चैवमुद्गतौ भरतैरावतसूर्यौ यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः किमुक्तं भवति : - भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्यमण्डल चतुर्भागे उद्गतः सन् तिर्यक् परिभ्रमति तिर्यक् परिभ्रमन् मेरोर्दक्षिणभागं प्रकाशयति, ऐरावतः पुनः सूर्योऽपरोत्तरदिग्विभागे उद्गच्छति स चोद्गतः सन् तिर्यक् परिभ्रमन् मेरोरुत्तरभागं प्रकाशयतीति, इत्थं च भारतैरावतसूर्यौ यदा मेरोर्दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः तदैव सौ पूर्वपश्चिमी जम्बूद्वीपभागौ रात्रौ कुरुतः, एकोऽपि सूर्यस्तदा पूर्वभागं पश्चिमभागं वा न प्रकाशयतीत्यर्थः, दक्षिणोत्तरौ च भागो तिर्यकृत्वा ताविमौ पूर्वपश्चिम जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः, इयमन्त्र भावना - ऐरावतः सूर्यो मेरोरुत्तरभागे तिर्यक् परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरोरेव पूर्वस्यां दिशि तिर्यक परिभ्रमति, भारतः सूर्यो मेरोर्दक्षिणतस्तिर्यक परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरोः पश्चिमे भागे तिर्यक परिभ्रमतीति, इत्थं च यदा ऐरावतभारती सूर्यौ यथाक्रमं पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कुरुतस्तदैव दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ रात्रौ कुरुतः, एकोऽपि सूर्यस्तदा दक्षिणभागं उत्तरभागं वा न प्रकाशयतीति भावः, तत इत्थं यथाक्रममैरावत Ja Eucation International For Parts On ~102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [२]. ......... .......--- प्राभतप्राभूत [१], .................. मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभृते प्राभूत प्राभूत मितिः प्रत मल. सूत्रांक 5454545-4-% ४८॥ [२१] भारतसूर्यों पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कृत्वा यो भारतः सूर्यः स उत्तरपश्चिममण्डल चतुर्भागे उदयमासादयति, यश्चरावतः स दक्षिणपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे इति, एतदेवोपदर्शयन्नुपसंहारमाह-'ते णं' इत्यादि, तो भारतैरावतौ सूर्यों प्रथमतो यथाक्रममिमी दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागौ ततो यथायोगं पूर्वपश्चिमी जम्बूद्वीपभागौ, भारतः पश्चिमभागमैरावतः पूर्वभागमित्यर्थः, तिर्यक् कृत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः, चतुर्भिविभज्य यथायोगं दक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपश्चिमे वा मण्डलचतुर्भागे अस्या रसप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्वमष्टी योजनशतान्युत्प्लुत्य अत्रास्मिन्नवकाशे प्रातद्वौं सूर्यावाकाशे उत्तिष्ठतः-उद्गच्छतः, य उत्तरभार्ग पूर्वस्मिन्नहोरात्रे प्रकाशितवान् स दक्षिणपौरस्त्ये मण्डल चतुर्भागे उद्गच्छति, यस्तु दक्षिण भार्ग प्रकाशयति स्म स उत्तरपश्चिमे मण्डल चतुर्भागे, एवं| सकलकालं जगत्स्थितिः परिभावनीया । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां वितिय-प्राभूतस्य प्राभतप्राभतं । समाप्तं तदेवमुकं द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं, सम्पति द्वितीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'मण्डलान्तरे सङ्क्रमणं वक्तव्य'मिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे २ सरिए चारं चरति आहिताति वदेजा , तत्थ खल इमातो दुवे % दीप अनुक्रम % [३५] % 5 अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ परिसमाप्तं अथ द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [३६] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२], प्राभृतप्राभृत [२], मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पडिवसीओ पण्णत्ताओ, तत्येंगे एवमाहंसु ता मंडलातो मंडलं संकममाणे २ सूरिए भेयधारणं संकामह एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ता मंडलाओ मंडल संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेदेति, तत्थ जे ते एव माहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे २ भेवधारणं संकमइ, तेसि णं अयं दोसे, ता जेणंतरेणं मंडलातो मंडल संकममाणे २ सूरिए भेघघाएणं संकमति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो न गच्छति, पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेति, तेसि णं अयं दोसे, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेदेति, तेसि णं अयं विसेसे ता जेणंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेदेति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो गच्छति, पुरतो गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेति, तेसि णं अयं विसेसे, तत्थ जे ते एवमाहंसु-मंडलातो मंडल संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेदेति, एतेणं गएणं तवं णो वेष णं इतरेणं । (सूत्रं २२ ) वितियस्स पाहुडस्स वितीयं ॥ 'ता कह' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं भगवन् ! मण्डलान्मण्डलं सङ्क्रामन् सूर्यचारं चरति, चारं चरन्नाख्यात इति वदेत्, किमुक्तं भवति १-कथं भगवन्नेष सूर्यवारं चरन् मण्डलाम्मण्डलं सङ्क्रामन् आख्यात इति, अत्र हि मण्डलामण्डलान्तरसङ्क्रमणमेव वक्तव्यमतस्तदेव प्रधानीकृत्य वाक्यस्य भावार्थो भाषनीयः, एवमुक्ते भगवानाह - 'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र - मण्डलान्मण्डलान्तरसङ्क्रमणविषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते तथथा-तत्र के एवमाहुः-ता इति पूर्ववत्स्वयं परिभावनीयं, मण्डलादपरमण्डलं सङ्क्रामन् सङ्क्रमितुमिच्छन् सूर्यो भेदघातेन सङ्क्रामति, भेदो-मण्डलस्य मण्डलस्यापा Eucation International For Penal Use On ~ 104~ wor Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .......--.---------- प्राभतप्राभत श. -------------------- मलं [२२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) ॥४९॥ सूत्रांक [२२]] दीप अनुक्रम न्तरालं तत्र घातो-गम, एतच्च प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति :-विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तद- प्राभृते|न्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मण्डलं सङ्कामति, सङ्क्रम्य च तस्मिन्मण्डले चारं चरति, अनोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु | २प्राभूत|१, एके पुनरेवमाहुः 'ता' इति पूर्ववत् मण्डलान्मण्डलं सामन्-समितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मण्डलं प्रथमक्षणादू-15 ज़मारभ्य कर्णकलं निर्वेष्टयति-मुञ्चति, इयमत्र भावना-भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्वस्वस्थाने उद्गतः सन् अपरमण्डलगतं कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैः शनैरधिकृतं मण्डलं तया कयाचनापि कलया मुञ्चन् चारं चरति येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमण्डलस्यारम्भे वर्तते इति, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तच्चैवं 37 |भावनीय-कर्ण-अपरमण्डलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूच क्षणे क्षणे कलयाऽतिकान्तं | यथा भवति तथा निर्वेष्टयतीति, तदेवं प्रतिपत्तिद्वयमुपन्यस्य यद्वस्तुतत्त्वं तदुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तब-तेषां द्वयानां मध्ये ये एषमाहुः-मण्डलान्मण्डलं सङ्कामन भेदघातेन सङ्कामति तेषामयं-अनन्तरमुच्यमानो दोषः, तमेवाह-येन-यावतार | कालेन अन्तरेण-अपान्तरालेन मण्डलान्मण्डल सामन् सूर्यो भेदघातेन सङ्कामतीत्युच्यते, एतावतीमा पुरतो-द्वितीये मण्डले न गच्छति, किमुक्तं भवति -मण्डलान्मण्डलं सामन् यावता कालेनापान्तरालं गच्छति तावत्कालाऽनन्तरं परिचिमितुमिष्टे, द्वितीयमण्डलसत्काहोरात्रमध्यात् श्रुव्यति, ततो द्वितीये मण्डले परिभ्रमन् पर्यन्ते तावन्तं कालंन परिश्रमेत् ॥४९॥ तद्गताहोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात् , एवमपि को दोष इत्याह-पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽगच्छन् मण्डलकालं परिभ-| वति, यावता कालेन मण्डल परिपूर्ण भ्रम्यते तस्य हानिरुपजायते, तथा च सति सकलजगद्विदितप्रतिनियतदिवस [३६] ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत RI. -------------------- मलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२]] 545 रात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः, 'तेसि णमयं दोसेत्ति तेषामयं दोषः, तत्थे त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-मण्ड-1. लान्मण्डल सङ्क्रामन् सूर्योऽधिकृतमण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति-मुश्चति तेषामयं विशेषो-गुणः, तमेव गुणमाह-'जेणे'स्यादि, येन-यावता कालेनापान्तरालेन मण्डलाम्मण्डलं सामन् सूर्यः कर्णकलमधिकृतं मण्डलं निर्वेष्टयति, एतावतीमद्धां पुरतोऽपि द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽपि गच्छति, इयमत्र भावना अधिकृतं मण्डल किल कर्णकलं निर्वेष्टितं अतोऽपान्तरालगमनकालोऽधिकृतमण्डलसत्क एवाहोरात्रेऽन्तर्भूतस्तथा च सति द्वितीये मण्डले सङ्कान्तः सन् तद्गतकालस्य मनागप्यहीनत्वाद् यावता कालेनापान्तरालं गम्यते तावता कालेन पुरतो गच्छत्ति, ततः किमित्याइ-पुरतो गच्छन्मण्डलकालं न परिभवति यावता कालेन प्रसिद्धेन तन्मण्डल परिसमाप्यते तावता कालेन तन्मण्डलं परिपूर्ण समापयति, न पुनर्म-| नागपि मण्डलकालपरिहाणिस्ततो न कश्चित् सकलजगत्प्रसिद्धप्रतिनियतदिवसरात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः, एष तेषाः | मेवंवादिना विशेषो-गुणः, तत इदमेव मतं समीचीनं नेतरदित्यावेदयन्नाह-'तत्थेत्यादि तत्र येते वादिन एवमाहु मण्डलान्मण्डलं सङ्क्रामन् सूर्योऽधिकृतं मण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति, एतेन नयेन-अभिप्रायेणासमन्मतेऽपि मण्डलान्मण्डमालान्तरसङ्ग मणं ज्ञातव्यं, न चैवमितरेण नयेन, तत्र दोषस्योक्तत्त्वात् ॥ .. इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितिय-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं २ समाप्त दीप 45 अनुक्रम [३६] RXCCCCC08 अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्तं ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सयंप्रज प्रत सूत्रांक [२३] प्तिवृत्तिः (मल०) ॥५०॥ दीप तदेवमुक्तं द्वितीयस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभूत सम्पति तृतीयमुच्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा प्राभूते ट्रमण्डले २ प्रतिमुहर्स गत्तिर्वक्तव्ये ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ३ प्राभृत| ता केवतियं ते खेतं सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति आहिताति वदेवा, तत्थ खलु इमातो पसारि प्राभृतं पडिवत्तीओ पण्णसाओ, तस्थ एगे एवमाहंसु-ता छ छ जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहत्तेण गच्छति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता पंच पंच जोयणसहस्साई मूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति एगे| एवमाहंसु २, एगे पुण एचमाहंसु-ता चत्तारि २ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, एगे। एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु ४, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता छ छ जोयणसहस्साइंसुरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति & ते एवमाहंसु-जता णं सूरिए सबभंतरं मंडलं वसंकमित्ता चरति तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसे अट्ठारसमुहुने दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहसा राई भवति, तेसिं च णं दिवसंसि एगं जोषणसतसहस्सा अट्ट य जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णसे, ता जया णं मूरिए सचबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं उत्तमकहपत्ता कोसिया अट्ठारसमुष्टता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, तेर्सिा चणं विवसंसि बावत्तर्रि जोयणसहस्साई तापक्खेते पण्णते, तया णं च छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहसणं गच्छति, तत्थ जे ते एचमाहंसुता पंच पंच जोयणसहस्साईसरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, अनुक्रम [३७] SAMACAMERC naturary.com अथ द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] ते एवमासु-ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तहेव दिवसराइप्पमाणं तंसिचा (ण तायखेतं नजइजोपणसहस्साई, ता जया णं सबबाहिरं मंडलं)उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं तं व राइंदियप्पमाणं तंसि च गं दिवसंसि सहि जोयणसहस्साई नाववेत्ते पन्नत्ते, तता णं पंच (पंच) जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता जया णं मूरिए सबभंतरं मंडलं |उवसंकमित्ता चार चरति तता णं दिवसराई तहेव, तंसि च णं दिवससि बावत्तरि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पपणत्ते, ता जया णं सूरिए सत्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं राइंदियं तधेव, तसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई ताबक्खेत्ते पं०, तता णं चत्तारि २ जोयणसहस्साई मूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति तस्थ जे ते एवमासु छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति ते एवमाहंसु-ता सूरिए णं उग्गमणमुहुत्तेणं सिप अत्थमणमुहुर्त सिग्धगता भवति, तता णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, मज्झिमतावखेत्तंसमासादेमाणे २ सूरिए ४ है मज्झिमगता भवति, तताणं पंच पंच जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, मज्झिमं तावखेत्तं संपत्ते । मूरिए मंदगती भवति, तता णं चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ को हेऊत्ति वदेजा ?, ता अयणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दिवसराई तहेब तसि च णं दिवसंसि एकाणइति जोयणसहस्साई तावखेत्ते पं०, ता जया णं ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .......--.---------- प्राभतप्राभत [३. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रामृते प्रत प्राभूत सूत्रांक [२३] दीप सूर्यप्रज्ञ- सरिए सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तताणं राइंदियं तहेब, तस्सि च णे दिवसंसि एगहि- प्तिवृत्तिःजोपणसहस्साई तावखेत्ते पण्णसे, तता णं छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुसेणं|2 (मल.) गच्छति, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं बदामो तासातिरेगाई पंच रजोयणसहस्साइंसूरिए एगमेगेणं मुहुसेणं ॥५१॥ गच्छति, तत्थ को हेतूत्ति वदेजा, ता अयपणं जंबुद्दीवे २ परिक्खेवेणं ता जता णं मूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई दोषिण य एकावण्णे जोयणसए एगूणतीसं च सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इधगतस्स मणुसस्स सीतालीसाए जोपणसहस्सेहिं| दोहि य तेवढेहिं जोयणसतेहि एकवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छति, तया णं दिवसे राई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तंसि अम्भितराणं&तरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, ता जयाणं सूरिए अम्भितराणंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई दोणि य एकावणे जोयणसते सीतालीसच सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुह-| तेणं गच्छति, तता णं इहगयस्स मणूसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउणासीते य जोयणसते सत्ताव-| पणाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सट्ठिभागंच एगद्विहा छेत्ता अउणावीसाए चुपिणयाभागेहिं सूरिए चक्खुष्कासं हवमागच्छति, तता णं दिवसराई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि अम्भितरतचं मंडलं । उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अम्भितरतचं मंडलं जवसंकमित्ता चारं चरति तता पंच २ अनुक्रम [३७] ॥५१॥ ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .........................--- प्राभतप्राभत [३]. ........................... मल २३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] जोयणसहस्साई दोणि य पावण्णे जोयणसते पंच य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणू० सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं छण्णउतीए य जोयणेहिं तेत्तीसाए य सविभागेहिं । जोयणस्स सर्टि भागं च एगट्टिधा छेत्सा दोहिं चुपिणयाभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, तता | दिवसराई तहेव, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ अट्ठारस २ सहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुटुत्तगति अभिघुहृमाणे २चुलसीति सीताइ है जोयणाई पुरिसच्छायं णिबुढेमाणे २ सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजया गं सूरिए सववाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई तिनि य पंचुत्तरे जोयणसते पण्णरस य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणेहिं अट्ठहिं एक्कतीसेहिं जोयणसतेहिं तीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हषमागच्छति तता गं उत्तमकट्टपत्ता उकोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस ण पदमस्स छम्मासस्स पजवसाणे ॥ से पविसमाणे सूरिए दो छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति ता जता णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई तिण्णि य चत्तरे जोषणसते सत्तावणं च* ६ सहिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्ता णं इधगतस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणसहस्सोहि दीप अनुक्रम [३७] ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [२]. ..................--- प्राभतप्राभत [३], ..............- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल)| सूत्रांक [२३] नवहि य सोलेहिं जोयणसएहिं एगूणतालीसाए सहिभागेहिं जोयणस्स सहिभागं च एगट्टिहा छेत्ता सहिए प्राभृते थुपिणयाभागे सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छति, तता णं राइंदियं तहेब, से पविसमाणे सूरिए दोचंसिप्राभृतअहोरत्तंसि बाहिरं तचं मंडल उवसंकमित्ता चारं घरति, ता जया णं मूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता है। प्राभूतं चार चरति तताण पंच पंच जोयणसहस्साई तिन्नि य चउत्तरे जोयणसते तालीसं च सहिभागे जोय-12 णस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स एगाधिरोहिं यत्तीसाए जोयणसहस्सेहि एकावण्णाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सहिभागं च एगद्विधा छेत्ता तेवीसाए चुणियाभागेहिं सरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, राइंदियं तहेब, एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तताणतरातो तताणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ अहारस २ सहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई णिचुहेमाणे २सातिरेगाई पंचासीति २ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवुहेमाणे २ सबभतरं मंडल उपसंकमित्ता चारं चरति, ता जता णं मूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तताणं पश्च २ जोयणसहस्साई दोषिण य एक्कावण्णे जोयणसए अढतीसंच सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं महत्तेणं गच्छति तता णं इहमयस्स मणूसस्स | ॥५२॥ सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य दोवढेहिं जोयणसतेहिं एकवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए। चक्खुष्कासं हवमागच्छति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति, जहपिणया दुवा ACCOG दीप अनुक्रम [३७] ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभत [३], -------------------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] ॐनमक दीप अनुक्रम [३७] ट्र!लसमुहत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोचस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं आदिचे संबच्छरे एस णं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं २३) वितियं पाटुडं समतं ॥ 'ता केवतियं ते खित्तं सूरिए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कियन्मानं क्षेत्रं भगवन् ! ते त्वया सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, गच्छनाख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते सति भगवान् एतद्विषयपरतीथिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव परप्रतिपत्तीरुपदर्शयति-तस्थ'इत्यादि, तत्र-प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणचिन्तायां खल्विमाश्चतस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां चतुर्णा वादिना मध्ये एके एवमाहुः-षट् २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' १, एवमग्रेतनान्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः-पश्च २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहर्सेन गच्छति २, एके पुनस्तृतीया एवमाहु:-चत्वारि २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन | मुहर्तेन गच्छति, ३, अपरे पुनश्चतुर्था एवमाहुः-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदेवं चतम्रोऽपि प्रतिपत्तीः सझेपत उपदर्य सम्प्रत्येतासां यथाक्रम भावनिकामाह-'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-पटू पटू योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूत्तेन गच्छति ते एवमाहुः-बदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा उत्तमकाछाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहत्तॊ दिवसो भवति सर्वजघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्र प्रशष्ठ एक योजनशतसहस्रमष्टौ च योजनसहस्राणि, तथाहि-तस्मिन्नपि मण्डले उदयमानः सूर्यो दिवसस्यान यावन्मात्र क्षेत्रं व्यामोति तावति व्यवस्थितश्चक्षुर्गोचरमायाति तत एतावत्किल पुरतस्तापक्षेत्रं, यावच्च R C+ ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], ----- -- प्राभृतप्राभूत [3], --------------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सयमज प्रत सूत्रांक [२३] ॥ ५ ॥ दीप अनुक्रम [३७] INIपुरतस्तापक्षेत्रं तावत्पश्चादपि, यत उदयमान इवास्तमयमानोऽपि सूर्यो दिवसस्थार्द्धन यावन्मानं क्षेत्रं व्यानोति तावति | २प्राभृते प्तिवृत्तिः साव्यवस्थितश्चक्षुषोपलभ्यते, पतच प्रतिप्राणि सुप्रसिद्धं, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसस्थाई नव मुहर्तास्ततोऽष्टादशभिर्म-1 |३प्राभूत(मल०) हर्यावन्मात्र क्षेत्रं गम्यं तावत्प्रमाणं तापक्षेत्रं, एकैकेन मुहूर्तेन षट् षट् योजनसहस्राणि गम्यन्ते, ततः पण्णां योजनसह प्राभूत साणामष्टादशभिर्गुणने भवत्येकं योजनशतसहस्रमष्टौ योजनसहवाणीति, एवमुत्तरत्रापि तत्तन्मण्डलगतदिवसपरिमाणं प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणं च परिभाच्य तापक्षेत्रपरिमाणभावना भावनीया, यदा च सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति सर्वजघन्यश्च द्वादशमुहूत्र्तो दिवसः, तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्रपरिमाण द्विसप्ततिर्योजनसहस्राणि ७२०००, तदा हि तापक्षेत्र द्वादशमुहूर्तगम्यप्रमाणं, अत्रार्थे च भावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया, मुहर्तेन च षट्पट् योजनसहस्राणि गच्छति, ततः षण्णा योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवन्ति द्वासप्ततिरेव योजनसहस्राणीति, इमामेवोपपत्ति लेशत आह-तेसि णमित्यादि, तेषां हि तीर्थान्तरीयाणां मतेन सूर्यः षट् पड् योजनसहस्राण्यकेकेन मुहूर्चेन गच्छति तत: सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्तमेव तापक्षेत्रपरिमाणं भवतीति, तथा 'तत्थे'त्यादि, तत्र-तेषां वादिना मध्ये ये ते एवमाहुः पञ्च पञ्च योजनसहनाणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति त एवXIमाहुः यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति 'तहेव दिवसराइप्पमाण'मिति अत्र प्रस्ताचे दिवसरात्रि-13 प्रमाणं तथैव-प्रागिव द्रष्टव्यं, 'तया णं उत्तमककृपत्ते उक्कोसए अवारसमुहुत्ते दिवसे हवा, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं-तापक्षेत्रपरिमाणं प्रज्ञप्तं Hirwastaram.org ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] मानवतियोजनसहस्राणि, तदा हि प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्तप्रमाणं तापक्षेत्रं, एकैकेन च महसेन गच्छति सूर्यः पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि, ततः पञ्चानां योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणनेन नवतिरेव योजनसहस्राणि भवन्ति, 'ता जया 'मित्यादि, यदा सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा 'तं चेव राईदियप्पमाण'मिति, तदेव प्रागुकं रात्रिंदिवप्रमाणं-रात्रिदिवसप्रमाणं वक्तव्यं, तद्यथा-"उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अटारसमुहुत्ता राई हवइ जहन्निए दुवाल| समुहुत्ते दिवसे भवतीति, 'तस्सि च णमित्यादि, तस्मिन् सर्ववाद्यमण्डलगते सर्वजघन्ये द्वादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे | तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं षष्टिोजनसहस्राणि ६००००, तदा ह्यनन्तरोक्तयुक्तिवशाद् द्वादशमुहूर्ध्वगम्यप्रमाणं तापक्षेत्रमेकैकेन च मुहूसेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छति ततः पञ्चानां योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवति षष्टियोजनसहस्राणि,| अत्रैवोपपत्तिलेशमाह-'तया णं पंच पंचे'त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरणकाले सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले च पश्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्तमातपक्षेत्रप-14 रिमाणं भवति २,'तत्थे त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-चत्वारि २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति त एवं सूर्यतापक्षेत्रप्ररूपणां कुर्वन्ति-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे हवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई'। इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं द्विसप्ततियोंजनसहस्राणि ७२०००, तथा हि-एतेषां मतेन सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन चत्वारि २ योजनसहस्राणि गच्छति, सर्वाभ्यन्तरे च दीप अनुक्रम [३७] SAREastatinintenational ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [२], .......--.---------- प्राभतप्राभत [३. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] 545 दीप सूयप्रज्ञ मण्डले तापक्षेत्रपरिमाणं प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुर्तगम्यं, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणने भवन्ति द्विस-४२ प्राभृते तिवृत्तिः सतियोजनसहस्राणि, 'ता जया 'मित्यादि, सतो यदा सूर्यः सर्ववाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, तदा 'राईदियं३ प्राभूत (मल.) तहेव'त्ति रात्रिंदिवं-रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तच्चैवम्-'तया णं उत्तमकट्ठपत्ता नकोसिया अझारसमुहुत्ता प्राभृत ॥५४॥ राई भवइ, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति' 'तस्सि च णमित्यादि, तस्मिंश्च सर्ववाह्यमण्डलगते द्वादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं अष्टाचत्वारिंशयोजनसहस्राणि ४८०००, तदा हि तापक्षेत्रं द्वादशमुहर्तगम्यं, एकैकेन च मुहूर्तेन चत्वारि २ योजनसहस्राणि गच्छति, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणनेऽष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्ति, इमामेवोपपत्ति लेशतो भावयति–'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्वबाह्यमण्डलचारकाले च यतश्चत्वारि योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्तं तापक्षेत्रपरिमाण भवति ३ । 'तत्थे त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ते एवमाहुः-एवं सूर्यचारं प्ररूपयन्ति, सूर्य सद्गमनमुहूत्ते अस्तमयनमुहूर्ते च शीघ्रगतिर्भवति ततस्तदा-उद्ग-1 मनकालेऽस्तमयनकाले च सूर्य एकैकेन मुहर्तेन षट् षड् योजनसहस्राणि गच्छति, तदनन्तरं सर्वाभ्यन्तरगतं मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं मुक्खा शेष मध्यम तापक्षेत्रं परिश्रमेण समासादयन् मध्यमगतिर्भवति, ततस्तदा पञ्च पश्च योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, सर्वाभ्यन्तरं तु मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं सम्प्राप्तः सन् सूर्यो मन्दगतिर्भवति, ततस्तदा यत्र तत्र सवा मण्डले चत्वारि २ योजनसहस्राणि एकैकेन मुहलेन गच्छति, अत्रैव भावार्थ पिच्छिषुराह-'तत्धेत्यादि, तत्र अनुक्रम [३७] W ॥५४ ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] ॐॐॐॐॐॐॐॐ दीप ४ाएवं विधवस्तुतत्त्वव्यवस्थायां को हेतुः -का उपपत्तिरिति वदेत, एवं स्वशिष्येण प्रश्ने कृते सति ते एवमाह: 'तार अयपण'मित्यादि, अत्र जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च, 'जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकहपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ,' 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वा-४ भ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहर्तप्रमाणदिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं एकनवतियोजनसहस्राणि ९१०००, तानि चैवमुपपद्यन्ते-15 उद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयमुहर्ने च प्रत्येक घटू योजनसहस्राणि गच्छतीत्युभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि १२०००, सर्वाकाभ्यन्तरं मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्र मुक्त्वा शेषे मध्यमे तापक्षेत्रे पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छतीति पञ्चानां योजनसहस्राणां पञ्चदशभिर्गुणने पश्चसप्ततियोजनसहस्राणि ७५०००, सर्वाभ्यन्तरे तु मुहूर्त्तमात्रगम्ये तापक्षेत्रे चत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छतीति सर्वमीलने एकनवतियोजनसहस्राणि ९१००० भवन्ति, न चैतान्यन्यथा घटन्ते, तथा 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य सूर्यश्चारं चरति तदा रात्रिंदिवं-रात्रिंदिवपरि-18 माणं तथैव-आगिव वेदितव्यं, तचैवम्-'तया णं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अवारसमुहत्ता राई भवइ, जहन्नए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवई' इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्ववाह्यमण्डलगते द्वादशमुहर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्त, एकपष्टियोजनसहस्राणि ११०००, तानि चैवं घटा प्राश्चन्ति-उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूर्ते च प्रत्येक पट् षट् योजनसहस्राणि गच्छन्ति, तत उभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि भवन्ति १२०००, सर्वाभ्यन्तरं मुहर्तमानगम्यं तापक्षेत्रं अनुक्रम [३७] ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्रत (मल०) सूत्रांक [२३]] ॥५५॥ दीप मुक्त्वा शेषे मध्य मे तापक्षेत्रे नवमुर्तगम्यप्रमाणे पञ्च पश्च योजनसहस्राणि एकैकेन मुहून गच्छति, ततः पश्चानां प्राभूते योजनसहस्राणां नवभिर्गुणने पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि भवन्ति ४५०००, सर्वाभ्यन्तरे तु मुहूर्तमात्रगम्ये तापक्षेत्रे ४३.ग्राभृतचत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छति, सर्वमीलने एकषष्टिर्योजनसहस्राणि, न तान्यन्यथोपपद्यन्ते, ततः 'तया णमि- प्राभूत त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्ववाह्यमण्डलधारकाले चोकप्रकारेण पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहवाणि सूर्य एकैकेन 'मुहर्तेन गच्छति, अयोपसंहारः-'एगे एवमासु' एके चतुर्था वादिन एवं-अनन्तरोक्तेन 8 प्रकारेणाः । तदेवं परतीधिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता साइरेगाई'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् सातिरेकाणि-समधिकानि पश्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकै केन मुहतेन गच्छति, शह कापि मण्डले कियताऽधिकेन पश्च पश्च योजनसहस्राणि गच्छति, ततः सर्वमण्डलप्राप्तिमपेक्ष्य सामान्यत उक्तं सातिरेकाणीति, एवमुक्त है भगवान् गौतमस्वामी स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनाय भूयः पृच्छति-तत्थेत्यादि, सत्र-एवंविधायामनन्तरोदितायो| वस्तुव्यवस्थायां को हेतु:-का अपपसिरिति वदेत, भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-'ता अयण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप ॥५५॥ वाक्यं पूर्ववत्स्वयं परिपूर्ण परिभाषनीयं, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं | चरति तदा पश्च पश्च योजनसहस्राणि द्वे द्वे योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य ५२५१३० | एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकं मण्डलमेकेनाहोरात्रेण परि अनुक्रम [३७] IN ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] ASEA5% PHTसमाप्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मप्रिमाणः, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां मण्डलं परिभ्रमणतः परिसमाप्यते, द्वयोश्चाहोरात्रप्रमाणयोर्मुहर्ताः षष्टिर्भवन्ति, ततो मण्डलपरिरयस्य षष्ट्या भाग हारयेत् , भागलब्धं भवति तन्मुहर्तगतिप्रमाणं, तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि पश्चदश सहस्राणि नवाशी(एकोननव)त्यधिकानि | ३१५०८९ अस्य षष्ट्या भागेहते लब्धं यथोकं मुहर्तगतिपरिमाणमिति। अत्रास्मिन् सर्वाभ्यन्तरे मण्डले कियति क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य इहगताना मनुष्याणां चक्षुर्गोचरमायातीतिप्रश्नावकाशमाशश्याह-'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डल चारचरणकाले उदयमानः सूर्य इहगतस्य मनुष्यस्य, अत्र जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थ:-इहगतानां भरतक्षेत्रगतानां| मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशाता योजनसहर्टाभ्यां त्रिषष्टाभ्यां-त्रिषष्ठ्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या च पष्टिभाग-1 |र्योजनस्य चक्षुःस्पर्श 'हवं ति' शीघ्रमागच्छति, काऽनोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह दिवसस्यान यावन्मानं क्षेत्र च्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्यः उपलभ्यते, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहर्सप्रमाणस्तेषामढ़ें नव मुहूर्ताः, एककस्मिक्ष मुह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं परन् पश्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोन-13/ त्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य गछति, तत एतावन्मुद्रगतिपरिमाणं नवभिर्मुहतैर्गुण्यते, ततो भवति यथोकं दृष्टिपथप्राप्तताविषये परिमाणमिति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारधरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुत्ता राई भवई'। Mइति, 'से निक्खममाणे इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलामागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् सूर्यों नवं संवत्सरमाददानो +S दीप अनुक्रम [३७] + ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभूते प्राभृतप्राभूत प्रत सूत्रांक [२३] सूर्यप्रज्ञ- नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अम्भितरानंतर ति सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य तिवृत्तिः४ चार चरति 'ता जया ण'मित्यादि तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार (मल) चरति तदा पञ्च योजनसहस्राणि द्वे योजनशते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५१।। एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिन् सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं व्यवहारतः परिपूर्ण सप्तोत्तरं निश्चयमतेन तु किंचिन्यून ३१५१०७, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्ति-14 वशात् षश्या भागो हियते, लब्धं यधोकमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अथवा पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणादस्य मण्डलस्य | परिरयपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि वर्द्धन्ते, निश्चयतः किश्चिदूनानि, अष्टादशानां च योजनानां पश्या भागे हृते लब्धा अष्टादश षष्टिभागा योजनस्य, ते प्राक्तनमण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवति यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणमिति, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणमाह-तया 'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगतानां मनुष्याणां सक्षचत्वारि-3 ४शता योजनसहरकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन सप्तपञ्चाशता पष्टिभागैरे च षष्टिभागमेकषष्टिधा छिया तख सरक&ारेकोनविंशत्या पूर्णिकाभागः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले मुहर्तगतिपरिमाणं पश योजनसहवाणि द्वे शते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशच षष्टिभागा योजनस्य ५२५१५ दिवसोऽष्टादशमुहुर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहतैष-15 ष्टिभागाभ्यामूनस्तस्यार्द्ध नव मुहतो एकेन एकषष्टिभागेन हीनाः, ततः सकलैकषष्टिभागकरणार्थ नव मुहूर्ता एकषष्ट्या 54ER-SAM दीप अनुक्रम [३७] ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप KARANASA SAUDAXARXAG गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तत एक रूपमपनीयते, जातानि पश्च शतान्यष्ट चत्वारिंशदधिकानि ५४८, ततोऽस्य द्वितीयस्य मण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि पश्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरमिति ३१५१०७, तत्पश्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, ततो जात एकका सधको द्विकः पदः सप्तकोऽष्टकः षटूस्त्रिका पढ़। १७२६७८६३६, ततो योजनानयनार्थमेकपष्टेः षष्ट्या गुणिताया यावान् राशिर्भवति तेन भागो हियते, एकषष्ट्यां च षष्ट्या गुणितायां पत्रिंशच्छ तानि पश्यधिकानि भवन्ति ३६६०, तैर्भागे हृते लब्धं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यधिक योजनानां, शेषमुखरति चतुर्विंशच्छतानि पण्णवत्यधिकानि ३४९६, ततोऽस्माद्योजनानि नायान्तीति षष्टिभागानयनाथै छेदराशिरेकषष्टिर्धियते, वेन भागे हते लब्धाः सप्तपश्चाशत्पष्टिभागाः एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा इति । 'तया 'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव बक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं अहारसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगडिभागमुहुत्तेहिं अहिया इति, 'से निक्खममाणे इत्यादि, द्वितीयस्मादपि मण्डलात् स सूर्यः प्रागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् नवस्य संवत्सरस्थ सरके[४ अद्वितीयेऽहोरात्रे 'अम्भितरतच'ति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीय मण्डलमुपसङ्काम्य चार चरति, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्ड लातृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा पश्च पश्च योजनसहस्राणि वे योजनशते द्विपश्चाशे | द्विपञ्चाशदधिके पञ्च च पष्टिभागान् योजनस्य ५२५२ एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिन्मण्डले परिरयपरिमाणे त्रीणि योजनलक्षाणि पश्चदश सहस्राणि शतमेकं पञ्चविंशत्यधिक ३१५१२५, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या 558 अनुक्रम [३७] ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३]] 5+5+%ॐ दीप सूर्यप्रज्ञ- भागायत, लय यथार भागो हियते, लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्चगतिपरिमार्ण, अथवा पूर्वमण्डलमुहूर्त्तगतिपरिमाणादस्मिन् मण्डले मुहूर्त- प्राभूतेप्तिवृत्तिःगतिपरिमाणचिन्तायां प्रागुक्तयुक्तियशादष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्थाधिकाः प्राप्यन्ते, ततस्तत्प्रक्षेपे भवति यधोकमत्र ३ प्राभृत(मल०) मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह-'तया 'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरत- साभूत ती यमण्डल चारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहर ॥५७॥ पाःणवत्या च योजनेखयविंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां शुर्णिकाभागाभ्यां ४७०९६४ासूर्यश्वक्षुःस्पर्शमागपति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहर्तममाणश्चतुर्मि| महकपष्टिभागैरूनस्तस्याई नव मुहर्ता द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागाभ्यां हीनाः, ततः सामरत्येकषष्टिभागकरणार्थ नवापिस | मुहर्ता एकपष्टया गुप्यन्ते, गुणयित्वा च द्वायेकषष्टिभागौ तेभ्योऽपनीयेते, ततो जाता एकषष्टिभागाः पञ्च शतानि सप्त चत्वारिंशताऽधिकानि ५४७, ततोऽस्य तृतीयमण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पश्चदश सहस्राणि शत-I मेकं पञ्चविंशत्यधिकमिति ३१५१२५, तत्पश्चभिः शतैः सप्तचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, जाताः सप्तदश कोटयखयोविंशतिः पातसहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पश्चसप्तत्यधिकानि १७२३७३३७५, एतेषामेकपष्टया पल्या गुणितया ३६६० भागो हियते, लब्धानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि षण्णव त्यधिकानि ४७०९६, शेषमुद्धरति विंशतिशतानि पञ्चदशोत्तराणि २०१५, ततोऽस्माद्योजनानि नायान्तीति पष्टिभागानयनार्थं हेदराशिरेकषष्टिनियन्ते, तेन भागे हते लब्धास्त्रयस्त्रिंशत्यष्टिभागा एकस्य च षष्टिभागस्य सत्को द्वावेकषष्टिभागौ । 'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरतृतीय अनुक्रम [३७] ॐॐॐ ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२], प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मण्डल चारणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वेदितव्ये, ते चैदम्- 'तथा णं अट्ठारसमुहुते दिवसे हवइ, चहिं एगट्टिभागमुडुतेहिं ऊणे दुवालसमुहन्ता राई भवइ चहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं अहिया' इति, सम्प्रति चतुर्थादिषु मण्डलेष्वविदेशमाह-' एवं खल्वि'त्यादि, एवं उच्केन प्रकारेण खलु निश्चितमेवेन-अनन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैस्त तद्बहिर्मण्डलाभिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तराम्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण सङ्क्रामन् सङ्क्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिमित्यन सूत्रे द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वाद्भवति प्राकृतलक्षणवशात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, यथा--'कस्तो रति मुद्धे । पाणियसद्धा सउणघाण' मित्यन [कुतो रात्रौ मुग्धे ! पानीयश्रद्धा शकुनकानाम् ] ततोऽय| मर्थः- मुहूर्त्तगतौ अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान्निश्चयतः किशिदूनानभिवर्द्धयमानः २ 'पुरिस|च्छायमिति पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्तता, अत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः तस्यामेकैकस्मिन् मण्डले चतुरशीतिः २ 'सीपाई'ति शीतानि किञ्चिन्यूनानीत्यर्थः, योजनानि निर्वेष्टयन् २- हापयन्नित्यर्थः इदं च स्थूलत उक्त, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यं प्रयशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्तताविषये विषयहानौ ध्रुवं ततः सर्वभ्यन्तरान्मण्डला तृतीयं यन्मण्डलं तत आरभ्य यस्मिन् यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातु| मिष्यते तत्तन्मण्डलसङ्ख्या षटूत्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीये मण्डले एकेन चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्यावत् सर्व मण्डले व्यशीत्यधिकेन शतेन, गुणयित्वा च ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते सति यद्भवति तेन Eucation International For Parts Only ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .......--.---------- प्राभतप्राभत [३. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप सूर्यमज्ञ- हीना पूर्वमण्डलगता दृष्टिपथप्राप्तता-तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता द्रष्टव्या, अथ त्र्यशीतियोजनानीत्यादि- २ प्राभृते तिवृत्तिः कस्य ध्रुवराशेः कथमुत्पत्तिः!, उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शतेल प्राभूत(मल.) त्रिषध्यधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य ४७२६३३०, एतच्च नवमुहूर्तगम्यं, तत एकस्मिन् मुह कषष्टि-II प्राभृतं ७५८॥ भागे किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतान्येकोनपश्चाशदधिकानि ५४९, तैर्भागो || लाहियते, लब्धा षडशीतियोजनानि पञ्च पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य एकपष्टिवा छिन्नस्य सत्काचतुर्विंशति र्भागाः ८६६ । पूर्वस्मात् २ च मण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादश २ योजनानि व्यवहाकरतः परिपूर्णानि वर्द्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहूर्त्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे मण्डले मुहूत्र्तगतिपरिमाण चिन्तायां | मितिमुहूर्त्तमष्टादशाष्टादश पष्टिभागा योजनस्य प्रवर्द्धमाना द्रष्टव्याः, प्रतिमुहूर्ते कषष्टिभार्ग चाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीये मण्डले सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति नवभिर्मुह तैकषष्टिभागनोनावन्माचं क्षेत्रं व्याप्यते तावति स्थितस्ततो नव मुहूर्ता एकपट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तेभ्य एक रूपमपनीयते, जातानि पञ्च शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि ५४८, तैरष्टादश गुण्यन्ते, जातान्यष्टानवतिः शतानि चतुःषष्टिसहितानि (९८६४, तेपो षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेकषष्ट्याधिक शतं षष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागस्य । सत्का एकषष्टिभागाः , तत्र विंशत्यधिकेन षष्टिभागशतेन द्वे योजने लब्धे पश्चादेकचत्वारिंशत्पष्टिभागा अबति-13 छन्ते, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिंशषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कात्रिचत्वारिंशदेव ष्टिभागा इत्येवं अनुक्रम [३७] ५८ nimlainturary.org ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] रूपं प्रागुक्तात् षडशीतियोजनानि पञ्च पष्टिभागा योजनस्य एकपष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्माच्छो-18 | ध्यते, शोधिते च तस्मिन् स्थितानि पश्चात् घ्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिःषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कार द्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ८३३० । एतावद् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् हानी प्राप्यते, किमुक्कं भवति ?-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततायां हानौ वर्व, अत एवं ध्रुवराशिपरिमाणात् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमेतावता हीनं भवतीति, एतच्चोत्तरोत्तरमण्डलविषयदृष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानौ ध्रुवं, अत एव ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशेरुत्पत्तिः, ततो द्वितीयस्मान्मण्डलादनन्तरे तृतीये मण्डले एष एव ध्रुवराशिः एकस्य षष्टिभागस्य सत्कैः पत्रिंशतकपष्टिभागैः सहितः सन् यावान् भवति तद्यथा-त्र्यशीतियोंजनानि चतुर्विंशतिः षष्टिभागा योजनस्य सप्तदश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा इति, एतावान् द्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपधप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते, ततो भवति यथोकं तस्मिन् तृतीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणं, चतुर्थे मण्डले स एव ध्रुवराशि सप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थं हि मण्डलं तृतीयापेक्षया द्वितीय, ततः पत्रिंशद् द्वाभ्यां Kगुण्यते, गुणिता च सती द्विसप्ततिर्भवति, तया च सहितः सन् एवंरूपो जातरुयशीतिर्योजनानि चतुर्विंशतिः पष्टिभागा| योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिांगाः ८३३४१ । एतावान् तृतीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्तताप रिमाणात् शोध्यते, ततो यथावस्थितं चतुर्थे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चेदम्-'सप्तचत्वारिंशद्योजनसहहैमाणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दश एकषष्टिभागाः ४७०१३ तास AREauratonintamarina ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभत [३], -------------------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [२३] ॥ ५९॥ दीप | सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया घशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा सा २प्राभूते पत्रिंशत् व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपश्चाशदधिकानि ६५५२, ततः षष्टिभागानयनार्थमे-४ ३प्राभृतकपल्या भागो झियते, लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां १०७, शेषाः पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागा उद्धरन्ति २५, एतत् ध्रुव- प्राभूत राशी प्रक्षिप्यते, ततो जातमिदं-पश्चाशीतियोजनानि एकादश षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः षट् एकपष्टिभागाः ८५४ा लाइव पटूबिंशत एवमुत्पत्तिः-पूर्वस्मात् २ मण्डलादनन्तरेऽनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुहत्कषष्टिभागाभ्यां हीनो भवति, प्रतिमुहूतेकषष्टिभाग चाष्टादश एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागा हीयन्ते, तत उभयमीलने पत्रिंशमयति, ते चाष्टादश एकषष्टिभागाः कलया न्यूना लभ्यन्ते न परिपूर्णाः, परं व्यवहारतः पूर्वं| परिपूर्णा विवक्षिताः, तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा एकषष्टिरेकषष्टिभागास्यन्ति, एतदपि व्यवहारत उच्यते, परमार्थतः पुनः किशिदधिकमपि त्रुव्यदबसेय,ला ततोऽमी अष्टषष्टिरेकपष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पश्चाशीतियोजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभा|गस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५ इति जातं, ततः सर्ववाघमण्डलानन्तराफिनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथ-| प्राप्ततापरिमाणादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६ सा इत्येवरूपात् शोध्यते, ततो यथोक्तं सर्ववाद्ये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चाने स्वयमेव सूत्रकृद्धक्ष्यति, तत एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथमाप्ततारूपायां द्वितीयादिषु केषुधि अनुक्रम [३७] 65%A5% III ५९ ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .........................--- प्राभतप्राभत [३]. ........................... मल २३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] मण्डलेषु चतुरशीति २ किश्चिन्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु मण्डले प्वधिकानि अधिकतराणि उक्तप्रकारेण निर्वे-4 ४ टयन २ तावदवसेयं यावत्सर्ववाद्यमण्डलमुपसङ्कग्य चारं चरति, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् ४ |सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं परति तदा एकैकेन मुहूर्तेन पश्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि त्रीणि शतानि पञ्चदश च पष्टिभागान् योजनस्य ५३०५१७ गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परित्यपरिमाणं त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, तत एतस्य प्रागुक्तयुकिवशात् पट्या भागो हियते, ततो लब्धं| यथोक्तमत्र मुहर्तगतिपरिमाणमिति, अत्रैव दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-तया ण'मित्यादि, तदा-सर्ववाह्यमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनमिहगतानां मनुष्याणां एकत्रिंशता योजनसहवैरष्टभिरेकत्रिंशदधिकोजनशतैख्रिशता च षष्टिभागोजनस्य ३१८३१३० सूर्यः शीघ्रं चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तदा यस्मिन् मण्डले चारं चरति सूर्य द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, दिवसस्य चार्डेन यावन्मानं क्षेत्र व्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहूर्तानामढ़ें षट् मुहस्तितो यदत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं पश्च योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चो-12 त्तराणि पश्चदश च षष्टिभागा योजनस्य ५३०५४ तत् षद्भिर्गुण्यते, ततो यथोक्तमत्र दृष्टिपथमाप्ततापरिमाणं भवति, अत्रापि दिवसरात्रिप्रमाणमाह-'तया णमित्यादि, सुगमम् । 'से पविसमाणे इत्यादि, स सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलादुक्तप्रकारेणाभ्यन्तर्र मण्डलं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिरानंतर ति सर्वबाह्यान्मण्डलादनन्तरमाक्तनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'ता जया णमित्यादि तत्र यदा सर्वबाह्यानन्त RESEARCHERE ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२], प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ६० ॥ रमर्वाक्तनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन मुहर्त्तेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि सप्तपञ्चाशतं च पष्टिभागान् योजनस्य ५३०४६० गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिश्यपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानां ३१८२९७, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् पश्या भागो हियते, * हृते च भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्रासतापरिमाणमाहू - 'तथा णमित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनं इहगतानां मनुष्याणामेकत्रिंशता योजनसहस्रैर्नवभिः षोडशैः- पोडशोत्तरैर्योजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैः षष्ट्या चूर्णिकाभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि--अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहर्त्तकपष्टिभागाभ्यामधिकः, तेषां चार्ज षट् मुहूर्त्ता एकेन मुहर्त्तकपष्टिभागेनाभ्यधिकाः, ततः सामस्त्येनैकपष्टिभागकरणार्थे पडपि मुहूर्त्ता एकषड्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च एकषष्टिभागस्तत्राधिकः प्रक्षिप्यते ततो जातानि त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि एकषष्टिभागानां ३६७, ततः सर्वबाह्यादर्वाचने तस्मिन् द्वितीये मण्डले यत्परिश्यपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे वाते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७, तदेभिस्त्रिभिशतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, जाता एकादश कोटयोऽष्टपष्टिर्लक्षाश्चतुर्द्दश सहस्राणि नव शतानि नवनवत्यधिकानि ११६८१४९९९, एतस्य एकपट्या गुणितया षष्ट्या ३६६० भागो हियते, हृते च भागे लब्धान्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशोत्तराणि ३१९१६, शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिः शतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि २४३९, न चातो योजनान्यायान्ति ततः षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनचत्वारिंशत्पष्टि सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ( मल० ) Education International For Para Lise Only ~ 127 ~ २ प्राभृते र प्राभृतप्राभृतं ॥ ६० ॥ waryra Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२], प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भागाः २९ एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 'तथा णं राईदियं तहेव तदा सर्व बाह्यानन्तरार्वाकनद्वितीयमण्डलयोश्चारकाले रात्रिन्दिवं- रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव प्रागिव वक्तव्यं तच्चैवम्- 'तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगट्टिभागमुहूतेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहि एगट्टिभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, 'से पविसमाणे' इत्यादि, ततः सर्ववाह्यानन्तशर्वाचनद्वितीयस्मादपि मण्डलादुक्तप्रकारेण प्रविशन् सूर्यो द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरत चं 'ति सर्व बाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति 'ता जया णमित्यादि तत्र यदा णमिति पूर्ववत् सर्वबाह्याभ्मण्डलादर्वाचनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा पश्च पञ्च योजन सहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च पष्टिभागान् योजनस्य ५२०४ एकैकेन मुहर्त्तेन गच्छति, तस्मिन् हि मण्डले परिश्यपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके इति ३१८२७९, अस्य षष्ट्या भागो हियते, हृते च भागे लब्धं यथोकमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं, अत्रापि हि दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह'तया ण' मित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणामेकाधिकैर्द्वात्रिंशता सह| रेकोनपञ्चाशता षष्टिभागैरेकं च पष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैस्त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणश्चतुर्भिरेक षष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्धं पर मुहर्त्ता द्वाभ्यां मुहसैंकषष्टिभागाभ्यामधिकाः, ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं पडपि मुहूर्त्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च द्वावेकप ष्टिभागौ प्रक्षिप्येते, ततो जातानि त्रीणि शतान्यष्टषष्ट्यधिकान्येकषष्टिभागानां ३६८, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिश्यपरि Educatin internationa For Parts Only ~128~ • Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति (मल०) का प्रत सूत्रांक [२३] ॥ १॥ दीप माणे श्रीणि लक्षाण्यष्टादश सहवाणि बेशते पकोमाशीत्यधिके ११८२७९ इति, सदेभिसिमिः शतैर षष्ठयधिकगुण्यति, प्राभते जाता एकादश कोटवा एकसप्ततिः शतसहस्राणि पदिशतिः सहस्राणि पट शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ११७१२६६७२,४प्राभृतएतस्य षष्ट्या पकपया गुणितया ३१६० भागो हियते, हृते च भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि ३२००१, प्राभूत शेषमुद्धरति श्रीणि सहस्राणि द्वादशोत्तराणि ३०१३, तेषां पष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनपश्चाशत्पष्टिभागाः प्रयोविंशतिश्च एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकवष्टिभागा इति, रसिदियं तहेव'त्ति रात्रिन्दिवं-रात्रिदिवसपरिमाणमत्र तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तचैवम्-'तया णं अवारसमुहुत्ता राई भवइ चरहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहत्ते दिवसे हवइ बाहिं एगविभागमुहुत्तेहिं अहिए' इति, सम्प्रति सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनेषु चतुरादिषु मण्डलेषु अतिदेशमाह-एवं खस्वि'त्यादि, 'एवं उकेन प्रकारेण 'खलु' निखितमेतेनोपायेन शनैः शनैतत्सदभ्यन्त-18 रानन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराम्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डल सामन् २ एकैकस्मिन् । मण्डले मुहर्तगतिमित्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे मुहूर्तगतौ-मुहूर्त्तगतिपरिमाणे अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहा-12 रतः परिपूर्णान् निश्चयतः किशिदूनाग्निवेष्टयन २-हापयन् २ इत्यर्थः, पूर्वपूर्वमण्डलापेक्षया अभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलस्य BIM६१॥ परिरयमधिकृत्याष्टादशभियोजनहनित्वात् ,पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः-पुरुषच्छायाया दृष्टिपथमाप्ततारूपायां सातिरेकाणि पञ्चाशीतिः २ योजनानि अभिवर्द्धयन् २, इदं च सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनानि कतिपय यानि प्रथमद्वितीयादिमण्डलान्यपेक्ष्य स्थूलत उक्त, परमार्थतः पुनरेवं द्रष्टव्यं-इह येनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला अनुक्रम [३७] 15 ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] छात्परतो दृष्टिपथप्राप्तता हापयन् विनिर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनेषु मण्डलेषु दृष्टिपथप्राप्ततामभिवर्धयन् । प्रविशति, तत्र सर्वबाह्यमण्डलाक्तिनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् सर्वबाह्यमण्डले पश्चाशीतिर्योजनानि नव षष्टिभागान योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कान् पष्टिभागान् हापयति, एतच्च मागेवभावितं, ततस्तस्मात्सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणेऽभिवर्द्धयति ध्रुवं, ततोऽक्तिनेषु मण्डलेषु यस्मिन् २ मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते (तत्र तत्र तृतीयमण्डलादारभ्य तत्त न्मण्डलसङ्ग्यायां पत्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेन चतुर्थमण्डलचिन्तायां द्वाभ्यामेवं यावत्सर्वाभ्यन्त|सरमण्डलचिन्तायां वशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यल्लभ्यते तद् ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना सहितं पूर्व 12 पूर्वमण्डलगतै दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्र २ मण्डले द्रष्टव्यं, तद्यथा-तृतीये मण्डले षट्त्रिंशत् एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता पत्रिंशदेव, सा ध्रुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं पश्चाशीतियोजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः ८५ एतेन सहितं पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्तताप-12 रिमाणं एकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्वष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभा-18 गस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६ । इत्येवरूपं क्रियते, ततोऽधिकृते तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्त-IN तापरिमाणं भवति, तच्च प्रागेवोपदर्शित, चतुर्थे मण्डले पट्त्रिंशद् द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय शेपेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं BOOKS ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], .......--.---------- प्राभतप्राभत [३. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक [२३] S दीप भवति-द्वात्रिंशत्सहस्राणि पडशीत्यधिकानि योजनानामष्टापश्चाशच षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य सत्का |२प्राभूते सिवृत्तिः एकादशैकषष्टिभागाः ३२०८६ ।।ठ, एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयं, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्त-| (मल) ३प्राभूत तापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा पत्रिंशद् व्यशी त्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य प्राभूत ॥६२॥ यशीत्यधिकशततमत्वात् , ततो जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२, तेषामेकषष्ट्या भागे हते लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां, शेष पञ्चविंशतिः । एतत्पञ्चाशीतियोजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्कार पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५।। इत्येवंरूपात् ध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चात् व्यशीतियोजनानि द्वाविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकपष्टिभागाः, इह पत्रिंशत् २ एकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते एतच्च प्रागेवोतं, तच कलान्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा लभ्यन्ते, ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातमिदं यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ८३ शाएतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेकोनाशीत्यधिक योजनानां सप्तपञ्चाशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः ४७१७९।४।। Mil॥६२॥ इत्येवंरूपं सहितं क्रियते, ततो यथोकं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्च सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि माद्वे शते त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य ४७२६३।१एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु मण्डलेषु अनुक्रम [३७] ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२], ............-- प्राभतप्राभत [३]. -------------------- मलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप | सातिरेकाणि पश्चाशीति योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीतिं पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि ध्यशीति योजनानि अभिवर्धयन् ।। सायद वक्तव्यः यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसतम्य चारं चरति 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा पञ्च पश्च योजनसहस्राणि द्वे एकपश्चाशदधिके योजनशते एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५१४एकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदा च इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगताना मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहर्टाभ्यां त्रिषष्टाभ्या-त्रिषष्ट्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या षष्टिभागैर्योजनस्य ४७२६३ सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, एतच्च मुहूर्तगतिपरिमाणं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं च प्रागेव भावितं सूत्रकृताऽपि प्रस्तावाजय उक्त ततो न पुनरुक्ततादोषः, 'तया णं उत्तमकट्टपत्ते' इत्यादि सुगर्म, यावत्याभृतप्राभूतपरिसमाप्तिः। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितिय-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ३ समाप्त merocore अथ तृतीयं प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं द्वितीय प्राभृत, सम्पत्ति तृतीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः, "कियरक्षेत्रं चन्द्रः सूर्यों या प्रकाशयती|ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवतियं खेत्तं चंदिमसरिया ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पगासंति आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ वारस पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थेगे एवमासु, ता एग दीवं एगं समुई चंदिमसूरिया ओभासेंति अनुक्रम [३७] अत्र द्वितियं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ तृतीयं प्राभृतं आरभ्यते ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३८] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [३], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥ ६३ ॥ सूर्यप्रज्ञ- उज्योति तवेंति पगासेंति, एगे एवमाहंसु ता तिष्णि दीवे तिष्णि समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति०, एगे सिवृत्तिः २ एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु ता अद्धवउत्थे दीवसमुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पगासिंति मल०) एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु ता सत्त दीवे सत्त समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासिंति ४ एगे एव माहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु ता दस दीवे दस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति ४, एगे एवमाहंसु ५, युगे पुण एवंमाहंसु, ता बारस दीवे वारस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति ४, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु, बायालीसं दीवे पापालीसं समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति एक (४), एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु बावन्तरिं दीवे बावन्तरिं समुदे बंदिमसूरिया ओभासंति, एक (४), एगे एवमाहंसु ८, एगे पुण एवमाहंसु ता पातालीसं दीवसतं बाया समुहस्तं चंदिमसूरिया ओभासंति४ एगे एवमाहंसु ९, एगे पुण एवमाहंसु, बावसरिं' समुदसतं चंदिमसूरिया ओभासंति एक (४) एगे एवमाहंसु १०, एगे पुण एवमाहंसु ता बायालीसं दीवसहस्सं बायालं समुहसहस्सं चंदिमसूरिया ओभासंति, एक (४), एगे, एवमाहंसु ११, एगे पुण एवमाहंसु ता बावतरं दीवसहस्सं बाचत्तरं समुदसहस्सं चंदिमसूरिया ओझासंति एक (४) एगे एवमाहंसु १२, वयं पुण एवं बदामो भयण्णं जंबुद्दीवे सबदीवसमुद्दाणं जाव परिक्वेवेणं पण्णसे, से णं एगाए जगतीए सपतो समंता संपरिक्खिसे, सा णं जगती तहेव जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जाव एवामेव सपुहावरेणं जंबुद्दीवे २ चोइस सलिलासयसहस्सा छप्पन्नं च सलिला सहस्सा भवन्तीति मक्खाता, जंबुदीचे णं दीवे पंचचकभागसंठिता आहितातिवदेज्जा, ता कहं For Parts Only ~ 133~ ३ प्राभृतम् ॥ ६३ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] K XVERS जबुद्दीवे २ पंचचकभागसंठिते आहिताति बदेला, ता जता णं एते दुवे सूरिया सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं जंबुद्दीवस्स २ तिण्णि पंचचउक्कभागे ओभासंति उज्जोति तवंति पभासंति, तक-एगेवि एग दिवढे पंचचक्कभागं ओभासेति एक (४) एगेषि एवं दिवढं पंचचक्कभागं ओभासेति एक (४) तता ण उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहत्ता राई भवर, ता जता [ण एते दुवे सूरिया सबबाहिरं मंडलं एवसंकमित्ता चारं चरति तदा जंबुरीवस्स २ दोषिण चकभागे ओभासंति उज्जोति तवंति पगासंति, ता एगेवि एर्ग पंचचक्कवालभागं ओभासति जोवेइ तवेइ पभासइ, एगेवि एक पंचचक्कवालभागं ओभासह पक(४), तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवह जहण्णए दुवालसमुह से दिवसे भवति ॥ (सूत्रं २४)॥ ततियं पारडं समत्तं ॥ 'ता केवाइय'मित्यावि, ताइति पूर्ववत् कियत् क्षेत्रं चन्द्रसूर्याः, बहुवचनं जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयस्य सूर्यदयस्य च भावात्, अवभासयन्ति, तत्रावभासो ज्ञानस्यापि प्रतिभासो व्यबहियते अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-उद्योतयन्ति, स चोद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत आतप इति चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते, यदुक्तम्MI"चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः" इति, प्रकाशशब्दः सूर्यप्रभायामपि, एतच्च प्रायो बहूनां सुप्रतीतं, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थमुभयसाधारणं भूयोऽप्येकार्थिकद्वयमाह-तापयन्ति प्रकाशयन्ति आख्याता इति,इहार्षत्वात्तिवाद्यन्तपदेनापि सह नामपदस्य समन्वयो भवति, तत एवमर्थयोजना द्रष्टव्या-कियत् क्षेत्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्त उद्योतयन्त दीप अनुक्रम [३८] SA ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ (मल०) प्रत सूत्रांक [२४] ॥६४ दीप अनुक्रम [३८] |स्तापयन्तः प्रकाशयन्त आख्याता भगवतेति भगवान् वदेत् !, एवं गौतमेनोके भगवानेतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एवोपन्यस्यति-तत्थेत्यादि, तत्र-चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविषये इमाः खलु द्वादश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्यां द्वादशानां परतीथिकानां मध्ये एकेप्रथमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः, एक द्वीपं एक समुद्रं चन्द्रसूयौँ अवभासयन्तौ उद्योतयन्तो तापयन्तौ प्रकाशयन्ती, सूत्रे | द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्, उक्तं च-बहुवयणेण दुवयण मिति, द्विवचनं चात्र तात्त्विकमवसेयं, परतीथिकैरेकस्य चन्द्रमस एकस्य च सूर्यस्याभ्युपगमात् , सम्प्रति अस्यैव प्रथममतस्योपसंहारमाह-'एगे एबमासु' एवं सर्वाण्यपि उप-12 संहारवाक्यानि भावनीयानि१, एके द्वितीयाः पुनरेवमाहुः-त्रीन् द्वीपान त्रीन् समुद्रान् चन्द्रसूर्यों यावच्छ(कश)ब्दोपादानात् अवभासयत इत्यनेन सह पदचतुष्टयं द्रष्टव्यं, तद्यथा-अवभासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयत इति, एवमुत्त-15) स्वापि द्रष्टव्यं, २, एके पुनस्तृतीया एवमाहुः- अद्धच उत्थे'इति अर्द्ध चतुर्थ येषां ते अर्द्धचतुर्थाः, त्रयः परिपूर्णाश्चतुर्थस्य चार्द्धमित्यर्थः, अर्द्ध चतुर्थान् द्वीपान् अर्घचतुर्धान समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयत इत्यादि प्राग्वत् ३, एके चतुर्थाः पुनरे-12 |वमाहुः-सप्तद्वीपान् सप्त समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः४, एके पुनः पञ्चमा एबमाचक्षते-दश द्वीपान् दश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ५, एके पुनः षष्ठा एवमभिदधति-द्वादश द्वीपान द्वादश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ६, एके पुनः सप्तमा एवं भाषन्ते-द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ७, एके पुनरष्टमा एवमाहुःद्वासप्तति द्वीपान् द्वासप्ततिं समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ८, एके पुनर्नवमा एवमाहुः-द्विचत्वारिंशं-द्वाचत्वारिंशद-15 ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम &ाधिक द्वीपशतं द्वाचत्वारिंशदधिक समुद्रशतं चन्द्रसूर्याषवभासयतः ९, एके पुनर्दशमा एवं जल्पन्ति-द्वासप्तत-द्वासप्त त्यधिक द्वीपशतं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रशतं चन्द्रसूर्याववभासयतः १०, एके एकादशाः पुनरेवमाहुः-द्वाचत्वारिंशंद्वाचत्वारिंशदधिकं द्वीपसहस्रं द्वाचत्वारिंशदधिकं समुद्रसहवं चन्द्रसूर्याववभासयतः ११, एके द्वादशाः पुनरेवमाहुःद्वासप्ततं-द्वासप्तत्यधिक द्वीपसहयं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रसहस्र चन्द्रसूर्याववभासयतः १२, एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा च भगवानेता व्युदस्य स्वमतं भिन्नमेव कथयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवल चक्षुषः केवलचक्षुषा यथावस्थितं जगदुपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता अयन्न'मित्यादि, अत्र 'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए'त्ति यथा जम्बूदीपप्रज्ञप्तौ 'अयण्णं जंबुद्दीये इत्यारभ्य यावत् एषामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे | चोद्दस सलिलसयसहस्साई छप्पन्नं च सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खाय' मित्युक्तं, तथा एतावग्रन्थसहस्रचतुष्टयप्रमाणमत्रापि वक्तव्यं परं ग्रन्थगौरवभयान्न लिख्यते, केवलं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपुस्तकमेव निरीक्षणीयमिति, अयमेवंरूपो. जम्बूद्वीपः पञ्चभिः पासङ्खयोपेतैश्चक्रभागैः-चक्रवालभागैः संस्थित आख्यातो मया इति वदेत्स्वशिष्याणां पुरतः, एव| मुक्त भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधार्थं भूयः पृच्छति-'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवान् । त्वया जम्बूद्वीपो द्वीपः पश्चचक्रभागसंस्थित आख्यात इति वदेत् , भगवानाह-ता जया ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववित्, यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, एतौ प्रवचनवेदिनां प्रसिद्धी द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसतम्य चारं चरतः तदा तो समुदितौ द्वावपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य त्रीन् पश्यचक्रवालभागान् अवभासयत उद्योतयतस्तापयंता प्रकाशयतः, [३८] ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभृतम् प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक [२४] दीप कथं प्रकाशयत इति परप्रश्नावकाशमाशय एतदेव विभागत आह-'एगोऽवी'त्यादि, एकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य एक पञ्चचक्रवालभाग-पञ्चमं चक्रवालभागं बर्द्धमिति-द्वितीयमई यस्य स ब्यर्द्धः, पूरणार्थो वृत्तावन्तभूतो यथा तृतीयो भागस्त्रिभाग इत्यत्र, तं, अयं च भावार्थः-एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग द्वितीयस्य पञ्चमस्य चक्रवालभागस्यान सहितं प्रकाशयति, तथा एकोऽपि-अपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः, एकं पञ्चमं चक्रवालभागं घड़े प्रकाशयतीत्युभयप्रका-1 शितभागमीलने परिपूर्ण भागवयं प्रकाश्यं भवति,इयमत्र भावना-जम्बूद्वीपगतं प्रकाश्यं चक्रवालं पश्यधिकषटूबिंशच्छतभार्ग कल्प्यते ३६६०, तस्य पश्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतप्रमाणः ७३२, सार्द्धः सन् अष्टानवत्यधिकसहस्रभागमानः १०९८, ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यः षट्यधिकषत्रिंशच्छतसङ्ग्याना भागानामष्टानवत्यधिक सहस्र प्रकाशयति, द्वितीयोऽप्यष्टानवत्यधिक सहस्र, उभयमीलने एकविंशतिः शतानि षण्णवत्यधिकानि २१९६ प्रकाश्यमानानि लभ्यन्ते, तदा च द्वौ पश्चचक्रवालभागौ रात्रिः, तद्यथा-एकतोऽपि पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसक्यो राविरपरतोऽपि एकः पञ्चमभागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसङ्ख्यो रात्रिः, उभयमीलने चतुर्दश शतानि चतुःषष्ट्य-1 |धिकानि १४६४ पश्यधिकषत्रिंशच्छतभागानां रात्रिः, सर्वभागमीलने पत्रिंशरछतानि षष्ट्याधिकानि भवन्ति, सम्प्रति तत्र दिवसरात्रिप्रमाणमाह-'तया ण'मित्यादि, तदा-अभ्यन्तरमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्त:-परमप्रकषप्राप्तः उत्कृष्टोऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमहर्ता रात्रिः, ततो द्वितीयेऽहोरात्रे द्वितीये| मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यों जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्यैकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई पयधिकपद्मिशच्छ अनुक्रम [३८] ६५॥ ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - % प्रत - R - सूत्रांक [२४] - 4 दीप तभागसत्कभागद्वयहीन प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्ध षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतभागद्वयहीनं ४ प्रकाशयति, तृतीयेऽहोरात्रे तृतीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग सार्द्ध षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छ-४ तभागसत्कभागचतुष्टयन्यून प्रकाशयति, अपरोऽप्येकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्ध षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागचतुटयन्यून प्रकाशयति, एवं प्रत्यहोरात्रमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागद्वयमोचनेन प्रकाशयन् तावदवसेयः यावत्सर्वबाह्य मण्डलं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः व्यशीत्यधिकशततम, ततः प्रतिमण्डलं भागद्वयमोचनेन यदा सर्वबाह्ये मण्डले चरति तदा त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि भागानां त्रुष्यन्ति, व्यशीत्यधिकस्य शतस्य द्वाभ्यां गुणने एतावत्याः सवाया भावात् , त्रीणि च शतानि षट्पध्यधिकानि पञ्चमचक्रवालभागस्य द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागप्रमाणस्या?, ततः पञ्चमचक्रवालभागस्या परिपूर्ण तत्र मण्डले त्रुव्यतीति एक एव परिपूर्णः पश्चमचक्रवालभागस्तत्र प्रकाश्यः, तथा चाह-'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् एतौ प्रवचनप्रसिद्धौ द्वावपि सूयौं सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतः तदा तो समुदितौ जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वौ चक्रवालपञ्चमभागौ अव-12 भासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयतः, तद्यथा-एकोऽपि सूर्य एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग प्रकाशयतीत्येकोऽपिअपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः एकं पञ्चमं चक्रवालभागं प्रकाशयति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वबाह्यमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्जघन्यतो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, इह यथा-४॥ 9 - अनुक्रम 6 [३८] ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप सूर्यप्रज्ञ-1 निष्कामतोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयः प्रकाशविधिः क्रमेण हीयमान उक्तः तथा सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशतोः क्रमेण ४३प्राभृतम् प्तिवृत्तिःवर्द्धमानो वेदितव्यः, तद्यथा-द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादकनेऽनन्तरे द्वितीये मण्डले (मल०) वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पश्चमचक्रवालभागं षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतसयभागसत्कभागद्वयाधिक ॥६६॥ 18| प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतसवभागसत्कभागद्वयाधिकं प्रकाशयति। द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादतिने तृतीये मण्डले वर्तमान एकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग षट्यधिकपत्रिंशच्छतसंख्यभागसत्कभागचतुष्टयाधिकं प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्यः परत एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग यथोक्तभागचतुटयाधिक प्रकाशयति, एवं प्रतिमण्डलमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसस्कभागद्वयवर्द्धनेन प्रकाशयन् तावदवसेयः यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वितीयस्य पञ्चमचक्रवालभागस्याई परिपूर्ण भवति, तत एको ऽपि सूर्यस्तत्र मण्डले एकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई जम्बूद्वीपस्य प्रकाशयत्यपरोऽप्येक पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई, तथा चैतदेव जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दश भागान् परिकल्प्यान्यत्राप्युक्तम्-'छच्चेव उ दसभागे जंबुद्दीवस्स दोवि दिवसयरा। ताविति दित्तलेसा अभितरमंडले संता ॥१॥चत्तारि य दसभागे जंबुदीवस्स दोवि दिवसयरा । ताविति संतलेसा ॥६६ बाहिरए मंडले संता ॥२॥ छत्तीसे भागसए सद्धिं काऊण जंबुदीवस्स । तिरियं तत्तो दो दो भागे वहेइ हायइ वा ॥३॥ इति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां तृतिय-प्राभूतं समाप्तं अनुक्रम [३८] अत्र तृतीयं प्राभृतं परिसमाप्तं ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] 4555575515% ॥अथ चतुर्थं प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्त तृतीयं प्राभृतं, सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः कथं वेततायाः संस्थितिराख्याते'ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते सेआते संठिईया आहितातिवदेजा, तत्थ खलु इमा दुविहा संठिती पं०, तं-चंदिमसूरियसंठिती य१तावक्खेत्तसंठिती य २, ता कहं ते चंदिमसूरियासंठिती आहितातिवदेजा, तत्थ खलु इमातो सोलस पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्धेगे एवमाहंसु-ता समचउरससंठिता चंदिमसूरियासंठिती एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु, ता विसमचउरंससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पं० २, एवं समचउकोणसंठिता ३ ता विसमचउकोणसंठिया ४ समचक्कवालसंठिता ५ विसमचकवाल संठिता ६ चकचकवालसंठिता पं० एगे एवमाहंसु७, एगे पुण एवमासु ता छत्तागारसंठिता चंदिमसूरियसंठिता पं०८ गेहसंठिता ९गेहावणसंठिता १० पासादसंठिता ११ गोपुरसंठिया १२ पेच्छाघरसंठिता १३ वलभीसंठिता १४ हम्मियतलसंठिता १५ वालग्गपोतियासंठिता १६ चंदिमसूरियसंठिती पं०, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता समचउरंससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पं०, एतेणं गएणं तवं णो चेव णं इतरेहिं । ता कहं ते तावक्षेत्तसंठिती आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थ णं एगे एवमाहंसुता गेहसंठिता तावखित्तसंठिती पं०, एवं जाब वालग्गपोतियासंठिता तावक्खेत्तसंठिती, एगे एवमासु ता जस्सं SASREKHA अथ चतुर्थं प्राभृतं आरभ्यते ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] ठिते जंबुद्दीवे तस्संठिते तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता एगे एवमासु ९, एगे पुण एवमासु ताजस्संठित प्राभृतम् तिवृत्तिः भारहे वासे तस्संठिती पण्णत्ता १०, एवं उज्जाणसंठिया निजाणसंठिता एगतो णिसघसंठिता, दुहतो णिस(मल०) संठिता सेयणगसंठिता एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता सेणगपट्ठसंठिता ताववेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमासु, वयं पुण एवं वदामो, ता उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठिता तावक्खेत्तसंठिती पं० अंतो संकुला बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिधुला अंतो अंकमुहसंठिता बाहिं सस्थिमुहसंठिता उभतो पासेणं तीसे दुवे वाहाओ अवहिताओ भवंति पणतालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे दुवे पाहाओ अणवहिताओ भवंति, तं०-सपन्भंतरिया चेव पाहा सबबाहिरिया चेव बाहा, तत्थ को हेतूसिवदेजा, ता अयणं *जबरीवे २ जाच परिकखेवेणं ता जया णं सूरिए सवन्भंतरं मंडलं उथसंकमित्ता चारं चरति तता उद्धी-18 मुहकलं बुआपुप्फसंठिता तावखेससंठिती आहितातिवदेजा अंतो संकुडा पाहिं वित्थता अंतो बट्टा बाहिं। पिधुला अंतो अंकमुहसंठिता बाहिं सत्थिमुहसंठिआ, दुहतो पासेणं तीसे तथेव जाव सबबाहिरिया घेव वाहा, तीसे गं सबभतरिया वाहा मंदरपचयंतेणं णव जोयणसहस्साई चत्तारि य छलसीते जोषणसते .. ६७॥ मणव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितातिवदेजा, ता से णं परिक्खेवविसेसे कतो आहितातिवप्रादेजा, ता जे णं मंदरस्स पचयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहि छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिताति वदेजा, तीसे णं सघयाहिरिया बाहा लवणसमुइंतेणं चउणउति ला दीप अनुक्रम [३९] % ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] 1515515% दीप अनुक्रम [३९] जोयणसहस्साई अह य अहसढे जोयणसते घसारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितातिवदेना, ता से णं परिक्खेवविसेसे कतो आहिताति वदेजा, ताजे णं जंबुद्दीवस्स २ परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहि गुणित्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एसणं परिक्खेवविसेसे माहिताति वदेज्जा, सीसे णं तावक्खेसे केवतियं आयामेणं आहितातिवदेजा?, ता अत्तरि जोयणसहस्साई तिणि च तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागे च आयामेणं आहितेति वदेज्जा, तया णं किंसंठिया अंधगारसंठिई आहितेति वदेजा ?, उद्धीमुहकलंबुआपुरफसंठिता तहेव जाव बाहिरिया चेव बाहा, तीसे गं सबभतरिया बाहा मंदरपवतंतेणं छनोयणसहस्साई तिणि य चउवीसे जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितेतिवदेजा, तीसे| णं परिक्खेवविसेसे कतो आहितेति वदेजा , ता जे मंदरस्स पचयस्स परिक्खेवेणं तं परिक्खेवं दोहिदा गुणेत्ता सेसं तहेव, तीसे णं सघयाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेणं तेवहिजोयणसहस्साई दोपिण य पणयाले जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, ता से णं परिक्खेवविसेसे कत्तो आहितेति वदेजा, ता जेणं जंबुद्दीवस्स २ परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणित्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहितेति बदेजा, ता सेणं अंधकारे केवतिय आयामेणं आहितेति वदेजा, ता अट्ठत्तरि जोयणसहस्साई तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च आयामेणं आहितेति वदेज्जा, तता णं उत्तमकपत्ते अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवर, ता जया णं ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत (मल०) सूत्रांक ॥६८॥ [२५] दीप सरिए सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तता णं किंसंठिती तावखेत्तसंठिती आहिताति वदेवा, ता उद्धामुहकलंबुयापुप्फसंठिती तावक्खेत्तसंठिती आहिताति वदेजा, एवं जं अम्भितरमंडले अंधकारसंठितीए पमाणं तं बाहिरमंडले तावक्खेससंठितीए जं तहिं तावखेससंठितीए तं वाहिरमंडले अंधकारसंठितीए भाणियवं, जाव तता णं उत्तमकट्ठपत्ता पक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुते दिवसे भवति, ता जंबुद्दीवे २ सूरिया केवतियं(खेत) उर्दु तवंति केवतियं खेतं अहे तवंति केवतियं खेतं तिरियं तवंति, ता जंयुद्दीवे णं दीवे सूरिया एर्ग जोयणसतं उहुं तवंति अट्ठारस जोयणसताई अधे पतवंति सीतालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य तेवढे जोयणसते एकवीसं च सद्विभागे जोयणस्स तिरिय तवंति (सूत्रं २५)॥ चउत्थं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते सेयाए संठिई आहिया इति वदेजा" ता इति पूर्ववत् , कथं भगवन् ! त्वया श्वेततायाः संस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् !, एवं भगवता गौतमेनोके वर्द्धमानस्वामी भगवानाह-तत्थे'त्यादि, तत्र श्वेतताया विपये खल्वियं-बक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा संस्थितिः, तद्यथा' तामेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, तद्यथेत्यत्र तच्छब्दोऽव्यय, ततोऽ यमर्थ:-सा श्वेतता यथा-येन प्रकारेण द्विधा भवति तथोपदयते, चन्द्रसूर्यसंस्थितिस्तापक्षेत्रसंस्थितिश्च, इह श्वेतता चन्द्रसूर्यविमानानामपि विद्यते तस्कृततापक्षेत्रस्य च ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते, तेनोक्तप्रकारेपा धेतता द्विविधा भवति, तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितिविषये प्रश्नयति-ता कहं ते इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं ते स्वया अनुक्रम [३९] ॥६८ ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] S दीप भगवन् ! चन्द्रसूर्यसंस्थितिराख्याता इति वदेत् !, इह चन्द्रसूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवाभिहिता तत इह चन्द्रसूर्यविमानसंस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा द्रष्टव्या, एवमुक्त भगवानेतद्विपये यावत्यः परतीथि-1 काणां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्धेत्यादि, तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थिती विचार्यमाणायां खस्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः। प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एके वादिन एवमाहुः-समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, समचतुरस्र संस्थिति-संस्थान लायस्याचन्द्रसूर्यसंस्थितेः सा तथा, अत्रैवोपसंहारवाक्यमाह-एगे एवमासु, एवं सर्वत्रापि प्रत्येकमुपसंहारवाक्यं द्रष्टव्यं १. एके पुनरेवमाहुः विषमचतुरखसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिराख्याता, अत्रापि विषमचतुरस्र संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः २, एवं 'समचउकोणसंठिय'त्ति एवं-उक्तेन प्रकारेणापरेषामभिप्रायेण समचतुष्कोणसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थिति-3 वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाइंसु समचउकोणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाईसु' अत्र 'समचउक्कोणसंठिय'त्ति समाश्चत्वारः कोणा यत्र तत् समचतुष्कोण ( तत् ) संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ३, 'विसम चउकोणसंठिय'त्ति 'एगे पुण एवमाइंसु-विसमचउकोणसठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाईसु'४'समचकलावालसंठिय'त्ति समचक्रवालं-समचक्रवालरूपं संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण चन्द्रसूर्यसंस्थिति वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे एषमाइंसु समचक्कवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु'५, 'विसमचक्कवालसंठिय'त्ति विषमचक्रवालं-विषमचक्रवालरूपं संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे एवमाहंसु विसमचक्वालसंठिया चैदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु'६, चकचक्कवाल अनुक्रम [३९] ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) ॥६९॥ सूत्रांक [२५] दीप संठिय'त्ति चक्रस्य-रथाङ्गस्य यदर्द्धचक्रवाल-चक्रवालस्यार्द्ध तद्रूपं संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाईसु चकद्धचक्कवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु'७,'एगे पुण'इत्यादि, एके पुनराहुः छत्राकारसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिःप्रज्ञप्ता, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु'८'गेहसंठिय'ति गेहस्येव-वास्तुविद्योपनिबद्धस्य गृहस्पेव संस्थित--संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु गेहसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाईसु' ९,'गेहावणसंठिय'त्ति गृहयुक्त आप-1 णो गृहापणो-वास्तुविद्याप्रसिद्धस्तस्येव संस्थितः-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमासु, गेहावणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु' १०,'पासायसंठिय'त्ति प्रासादस्पेव संस्थानं | यस्याः सा तथाऽन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु, पासायसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' ११ 'गोपुरसंठिय'त्ति, गोपुरस्येव-पुरद्वारस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथाऽन्येषां मतेनाभिधा-13 तव्या, सा चैवम् -'एगे पुण एवमाहंसु गोपुरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' १२ 'पेच्छाघरसंठिया सि प्रेक्षागृहस्येव वास्तुविद्यामसिद्धस्य संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेनाभिधातच्या, तथथा-'एगे पुणY एवमाहंसु पिच्छाघरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु' १३, वलभीसंठिय'त्ति बलभ्या श्व-गृहाणामाच्छादनस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेनाभिधातच्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाईसु बउभीस-1 ठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नता, एगे एवमाहंसु' १४,'इम्मियतलसंठिय'त्ति हय-धनवतां गृहं तस्य तल-उपरितनो अनुक्रम [३९] ॥ ६९॥ ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [४], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भागस्तस्यैव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु हम्मियतलसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' १५ 'वालग्गपोत्तिषासंठिय'त्ति वालाप्रपोतिका शब्दो देशीशब्द| त्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडास्थानं उघुप्रासादमाह तस्या इव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेन अ| भिधानीया, तद्यथा- 'एगे पुण एवमाहंसु वालग्गपोत्तिया संठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' १६ । तदेवमुक्ताः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयः, एतासां च मध्ये या प्रतिपत्तिः समीचीना तामुपदर्शयति- 'तत्थे' त्यादि, तत्र तेषां षोडशानां परतीर्थिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञष्ठा इति एतेन नयेन नेतव्यं - एतेनाभिप्रायेणास्मन्मतेऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिरवधार्येति भावः तथाहि इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमसुषमादयो युगमूलाः, युगस्य चादौ श्रावणे मासि बहुलपक्षप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्त्तते तद्वितीयस्वपरोत्तरस्यां चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्त्तते द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्रसूर्याः समचतुरस्रसंस्थिता वर्त्तन्ते, यत्त्वत्र मण्डलकृतं वैषम्यं यथा सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्त्तेते चन्द्रमसौ सर्वबा इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते, तदेवं यतः सकलकालविशेषाणां सुषमासुषमादिरूपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिताः सूर्यचन्द्रमसो भवन्ति ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानेनोपवर्णिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदाय समचतुरस्रसंस्थिति: परिभावनीयेति, 'नो वेव णं इयरेहिं ति नो चेव-नैव इतरैः- शेषैर्नयैश्चन्द्रसूर्य संस्थितिर्ज्ञातव्या, तेषां मिथ्यारूपत्वात्, तदेवमुक्ता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः । सम्प्रति तापक्षेत्रसंस्थितिमभिधातुकामः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नस् Education International For Parts Only ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ माभतम् त्तिः प्रत (मल०) ॥७०॥ सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] शत्रमाह-ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं भगवन् ! त्वया तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् १, एव- मुक्त भगवान् एतद्विषये यावत्यः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-तस्यां तापक्षेत्रसंस्थिती विषये खल्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां षोडशानां परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहुः-गेहसंठिय'त्ति गेहस्येव-वास्तुविद्याप्रसिद्धगृहस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु, एवं जाव वालग्गपोत्तियासंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता इति, एवं-अनन्तरोकेन प्रकारेण चन्द्रसूर्यसंस्थितिगतेन प्रकारेणेत्यर्थः, गृहसंस्थिताया ऊवं तावत् वक्तव्यं यावद्वालाग्रपोत्तिकासंस्थिता प्रज्ञप्ता इति, तथैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु गेहावणसंठिया तावखेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाईसु २, एगे पुण एवमाइंसु पासायसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु २, एगे पुण एवमाइंसु गोपुरसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु पिच्छाघरसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहम ५, एगे पुण एवमासु वलभीसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाइंसु हम्मियतलसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाइंसु ७, एगे पुण एवमासु वालग्गपोत्तिवासंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु अत्र सर्वेष्वपि पदेषु विग्रहभावना प्रागिव कर्तव्या, 'एगे पुण'इत्यादि एके पुनरेवमाहुः 'जस्संठिय'त्ति यत् संस्थित-संस्थानं यस्य स यत्संस्थितो जम्बूद्वीपो द्वीपस्तत्संस्थिता-तदेव--जम्बूद्वीपगतं संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु'९, एके पुनरेवमाहुः-यत्संस्थितं भारतं वर्षे तत्संस्थिता SAREarathinintenational ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ******* [२५] दीप अनुक्रम [३९] तापक्षेत्रसस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्र विग्रहभावना प्रागिव वेदितव्या, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु' १०, एवं-उक्तेन प्रकारेण| धानसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिरपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमासु, उज्जाणसंठिया तावखित्तसं-II ठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु, (ग्रंथाग्रं २०००) अत्र उद्यानस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ११, 'निजाणसंठिय'त्ति निर्याण-पुरस्य निर्गमनमार्गः तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या. सा चैवम्-एगे पुण एवमासु, निजाणसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाईसु' १२, 'एगतोनिसहसंठिय'त्ति एकतो-रथस्य एकस्मिन् पार्वे यो नितरां सहते स्कन्ध पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो-बलीवईस्तस्येव संस्थितंसंस्थान यस्याः सा एकतोनिषधसंस्थिता अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु, एगतोनिसहसंठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु १३, 'दुहतोनिसहसंठिय'त्ति अपरेषामभिप्रायेणोभयतोनिषधसंस्थिता वक्तव्या, उभयतो-रथस्योभयोः पार्श्वयो? निषधौ-चलीवहौं तयोरिव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा, सा चैवं वक्तव्या-'एगे पुण एवमासु दुहओनिसहसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु १४ 'सेयणगसंठिय'त्ति & श्येनकस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेणाभिधातव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहेसु सेयाण संठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता एगे एवमाहंसु' १५, 'एगे पुण'इत्यादि, एके पुनरेवमाहुः, सेचनकपृष्ठस्येव-श्येनपृष्ठस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' १६, तदेवमुक्ताः पोड-४ शापि प्रतिपत्तया, एताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपा अत एता व्युदस्य भगवान् स्वमतं भिन्नमुपदर्शयति-वयं पुण'इत्यादि, ** 45-45 ** ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभृतम् प्रत सूत्रांक [२५] दीप सूर्यप्रज्ञ- वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थित वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण बदामः, तमेव प्रकारमाह-'उद्धी- तिवृत्तिःमुखे'त्यादि, अर्वमुखकलम्बुकपुष्पसंस्थिता-ऊर्ध्वमुखस्य कलम्बुकापुष्पस्येव-नालिकापुष्पस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः (मल०) सा तथा, तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, मया शेपैश्च तीर्थकृद्भिः, सा कथम्भूतेत्यत आह-अन्तः-मेरुदिशि सङ्कचा-सचिता बहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तर्मेरुदिशि वृत्ता-वृत्तार्द्धवलयाकारा सर्वतोवृत्तमेरुगतान् बीन् द्वौ वा दशभागान॥७१॥ भिव्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात् , बहिर्लवणदिशि पृथुला मुत्कलभावेन विस्तारमुपगता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्ट स्पष्टयति-'अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठियत्ति अन्तर्मेरुदिशि अङ्क:-पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धः तस्य मुख-अग्रभागोऽद्धेवलयाकारस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा बहिर्लवणदिशि स्वस्तिकमुखसं-| स्थिता-स्वस्तिकः-सुप्रतीतः तस्य मुख-अग्रभागः तस्येवाति विस्तीर्णतया संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा, 'उभओपासेणं ति उभयपार्थेन मेरुपर्वतस्योभयोः पार्श्वयोस्तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विधाव्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन ये द्वे बाहे ते आयामेन-जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः, सा चैकैका आयामतः किंप्रमाणा इत्याहपश्चचत्वारिंशत् २ योजनसहस्राणि ४५०००, तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेरेकैकस्या दे च बाहे अनवस्थिते भवतः, तद्यथा-1 सर्वाभ्यन्तरा सर्वबाह्या च, तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा, या तु लवणदिशि जम्बूद्वीप-ड्रा पर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्ववाह्या, आयामश्च दक्षिणोत्तरायततया प्रतिपत्तन्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततया, एवमुक्ते सति भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनार्थं भूयः पृच्छति-'तत्थेत्यादि, तत्र-तस्यामेवंविधायामनन्त अनुक्रम [३९] ॥७१॥ ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] %%B555 दीप अनुक्रम [३९] रोदितायां वस्तुच्यवस्थायां को हेतुः ?-का उपपत्तिरिति भगवान् वदेत् !, एवमुक्त भगवानाह-'ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्य पूर्ववत् परिपूर्ण भावनीय, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य |चार चरति तदा 'उद्धमुहकलंबुयापुप्फे'त्यादि, प्राग्वत् व्याख्येयं यावत्सर्वाभ्यन्तरा वाहा सर्वबाह्या च वाहा, 'तीसे 'मित्यादि, तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरुपर्वतान्ते-मेरुपर्वतसमीपे, सा च परिक्षेपेण-मन्दरपरिक्षेपग-12 ततया नव योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य ९४८६ आख्याता मया इति वदेत्, एवमुक्ते भगवान् गौतमः प्रश्नयति-ता से ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , स तापक्षेत्रसंस्थितपरिक्षेपविशेषो-मंदरपरिरयपरिक्षेपणविशेषः कुतः-कस्मात्कारणादेवंप्रमाण आख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत् , भगवानाह-ता जे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालकारे मन्दरस्य-मेरोः पर्वतस्य परिक्षेप-परिरयगणितप्रसिद्धस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्छित्त्वा-विभज्य, अथ कसमादेवं क्रियत इति चेत् , उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रप्रमाणानुसारेण त्रीन् दशभागान् प्रकाशयति, एतच मागेवोर्क, सम्प्रति च मन्दरसमीपे तापक्षेत्रे चिन्ता क्रियमाणा वर्त्तते ततो मन्दरपरिरयः सुखावबोधार्थे प्रथमतस्त्रि(भिर्गुण्यते गुणयित्वा च दशभिर्विभज्यत इति, दशभिश्च भागे हियमाणे यथोक्तं मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, तथाहि-मन्दरपर्वतस्य विष्कम्भो दश सहस्राणि १०००० तेषां वर्गो दश कोब्यः १०००००००० तासां दशभिर्गुणने कोटिसतं १००००००००० अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि एकत्रिंशत्सहस्राणि पट् शतानि किश्चिन्यूनत्रयोविंशत्यधिकानि ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] ॥७२ ॥ दीप सूर्यप्रज्ञ- परं व्यवहारतः परिपूर्णानि विवक्ष्यन्ते ३१६२३, एष राशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जातानि चतुर्नवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि प्रामृतम् प्तिवृत्तिः &ाएकोनसप्तत्यधिकानि ९४८७९, एतेषां दशभिर्भागहारे लब्धानि नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि (मल. नव च दशभागा योजनस्य, तत एष एतावान्-अनन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेषा-मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषस्तापक्षे संस्थितेराख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः, अयं चार्थोऽन्यत्राप्युक्त:-"मन्दरपरिरयरासीतिगुण दसभाइयमिजं लड़। & होइ तावखेत्तं अभितरमंडले रविणो ॥१॥" तदेवं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये मन्दरसमीपे तापक्षेत्रसंस्थिते. सर्वाभ्यन्तरवाहाया विष्कम्भपरिमाणमुक्तं, इदानीं लवणसमुद्रदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते या सर्वबाह्या बाहा तस्या विष्क४म्भपरिमाणमाह-तीसे 'मित्यादि, तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः लवणसमुद्रान्ते-लवणसमुद्रसमीपे सर्वबाह्या बाहा सा परि|क्षेपेण-जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपेण चतुर्नवतियोजनसहस्राणि अष्टौ च अष्टषध्याधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान। योजनस्य ९४८६८ यावदाख्याता इति वदेत्, अत्रैव स्पष्टावबोधाधानाय प्रश्नं करोति-ता से ण'मित्यादि, ता. इति पूर्ववत्, स एतावान् परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेः कुतः१-कस्मात् कारणादाख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत्, है भगवानाह-ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् यो जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः-परिरयगणितप्रसिद्धस्तै परिक्षेपं त्रिभिगुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्छित्वा-दशभिर्विभज्य अत्रार्थे कारणं प्रागुक्तमेवानुसरणीय, दशभिर्भागे ह्रियमाणे यथोकं जम्बूद्वीपपर्यन्ते तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपस्त्रीणि लक्षाणि षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्य-13 |धिके ३१६२२७ त्रीणि गव्यूतानि ३ अष्टाविंशं धनु शतं १२८ त्रयोदश अङ्गुलानि १३ एकमोडलं, एतावता च अनुक्रम [३९] ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] 3555555 दीप योजनमेकं किल किचिन्यूनमिति व्यवहारतः परिपूर्ण विवक्ष्यते, ततो द्वे शते अष्टाविंशत्यधिके वेदितव्ये ३१६२२८,13 एष त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव लक्षाणि अष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ९४८६८४, एतेषां दशभिर्भागो हियते, लब्धं यथोकै जम्बूद्वीपपर्यन्ते सर्वबाह्याया बाहाया विष्कम्भपरिमाणं, ततः 'एस 'मित्यादि, एप | एतावान् अनन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेपो जम्बूद्वीपपरिरयः परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेराख्यात इति वदेत , उक्त चैतदन्यत्रापि-"जंबुद्दीवपरिरये तिगुणे दसभाइयमि जं लद्धं । तं होइ तावखित्तं अभितरमंडले रविणो ॥१॥ | तदेवं जम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरायाः सर्वबाह्यायाश्च बाहाया विष्कम्भपरिमाणमुक्तं । सम्प्रति सामस्त्येना यामतस्तापक्षेत्रपरिमाण जिज्ञासुस्तद्विषयं प्रश्नमाह-'ता से णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, तापक्षेत्रं आयामतः सामस्त्येन | ४ दक्षिणोत्तरायततया कियत्-किंग्रमाणमाख्यातमिति वदेत्, भगवानाह-ता अहुत्तर मित्यादि ता इति पूर्ववत् अष्टसप्ततिः योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि-त्रयस्त्रिंशद धिकानि योजनविभागं च यावत् आयामेन दक्षिणोत्तरायततया आख्यातमिति वदेत्, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं दक्षिणोत्तरायततया मेरोरारभ्यतावद्ध ते यावालवणसमुद्रस्य षष्ठो भागः, उक्तं च-"मेरुस्स मज्झभागाजाव य लवणस्स रुंदछन्भागा।तावायामो एसो सगडद्धीसंठिओ नियमा ॥१॥" अन 'एसो'इत्यादि, एष तापो नियमात् शकटोद्धिसंस्थितः, शेष सुगर्म, तत्र मेरोरारभ्य। जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत्पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि लवणस्य विस्तारो द्वे योजनलक्षे तयोः षष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजन-8 ४ सहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य च विभागः, तत उभयमीलने यथोक्तमायामप्रमाणं भवति, अनुक्रम [३९] ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] सूर्यप्रज्ञ-18 इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य लेश्या अभ्यन्तरं प्रविशन्ती मेरुणा प्रतिस्खल्यते, यदि पुनर्न प्रतिस्खल्यते ततो| प्तिवृत्तिः |मेरोः सर्वमध्यभागगतं प्रदेशमवधीकृत्यायामतो जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाशयेत् , अत एवेत्थं जम्बू-12 RI४ प्राभृते (मल०) द्वीपस्य पञ्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाश्यानि सम्भाव्य सर्वाभ्यन्तरेऽपि मण्डले वर्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रस्यायामप्रमाणं तापक्षेत्र प्रमाणं ॥७३॥ ज्योतिष्करण्डकमूलटीकायां श्रीपादलिप्तसूरिभिरुयशीतिर्योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योज-2 सू २५ नस्य च त्रिभाग इत्युक्त, युफ चैतत्सम्भावनया तापक्षेत्रायामपरिणाम, अन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पञ्चचत्वारिंश-II सहस्रमात्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिनिष्कामति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्यं मण्ड-* लमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वथा मन्दरसमीपे प्रकाशो न प्रामोति, अथ च तदापि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेण विशेषपरिमाणमये वक्ष्यते, तस्मात्पादलिप्तसूरिव्याख्यानमप्यभ्युपगन्तव्यमिति । तदेवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्य | तापक्षेत्रसंस्थितिरुक्का, सम्पति तदेव सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्यान्धकारसंस्थितिं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले 'सिंठिय'त्ति किं संस्थित-संस्थानं यस्याः यदिवा कस्येव | संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा किंसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता इत्यादि, ता इति *पूर्ववत् कवींमुखकृतकलम्बुकापुष्पसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्याता इति वदेत्, सा च अन्तः-मेरुदिशि विष्कम्भ ला॥७३॥ कामधिकृत्य सङ्कुचा-सङ्कचिता, बहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तः-मेरुदिशि वृत्ता-वृत्तावलयाकारा, सर्वतो वृत्त मेरुगती बी दशभागी व्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात, बहिः-लवणदिशि पृथुला-विस्तीर्णो, एतदेव संस्थानकथनेन % * * SAREauratonintamanna ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] स्पष्टयति-'अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सस्थिमुहसंठिया' अनयोश्च पदयोाख्यानं प्रागिव वेदितव्यं, 'उभओ पासे 'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेस्तापक्षेत्रसंस्थितिद्वैविध्यवशाद् द्विधा व्यवस्थिताया मेरुपर्वतस्योभयपानउभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमेकैकभावेन ये जम्बूद्वीपगते बाहे ते आयामेन-आयामप्रमाणमधिकृत्यावस्थिते भवतस्तद्यथापञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि ४५०००, द्वे च बाहे विष्कम्भमधिकृत्यैकैकस्या अन्धकारसंस्थितेर्भवतस्तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा| सर्ववाह्या च, एतयोश्च व्याख्यान प्रागिव द्रष्टव्यं, तत्र सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भमधिकृत्य प्रमाणमभिधित्सुराह-तीसे 'मित्यादि, तस्या-अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा या बाहा मन्दरपर्वतान्ते-मन्दरपर्वतसमीपे सा च षटू योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विशानि-चतुर्विशत्यधिकानि ६३२४ षट् द्वादशभागान् योजनस्य यावत्परिक्षेपेणपरिरयपरिक्षेपणेनाख्याता इति वदेत् , अमुमेवार्थ स्पष्टावबोधनार्थ पृच्छति–ता से ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सः यथोकप्रमाणपरिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषः कुतः-कस्मात्कारणात् आख्यातो नोनोऽधिको वेति भगवान् वदेत् १, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालङ्कारे मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा, कस्माद् द्वाभ्यां गुणनमिति चेत्, उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्ययोरेकस्यापि सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र वा प्रदेशे यत्तचक्रवालक्षेत्रानुसारेण दशभागात्रयः प्रकाश्या भवन्ति अपरस्यापि सूर्यस्य वयः प्रकाश्या दशभागास्तत उभयमीलने पटू दशभागा भवन्ति, तेषां च त्रयाणां २ दशभागानामपान्तराले द्वौ २ दशभागी रजनी ततो द्वाभ्यां दीप RRESEARTHANE अनुक्रम [३९] ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज- सिवत्तिा (मल०) प्रत सूत्रांक ॥७४॥ [२५] गुणनं, तीच द्वौ दशभागाविति दशभिर्भागहरणं, 'सेसं तं चेव'ति शेषं तदेव प्रागुकं वक्तव्यं, तच्चेदम्-'दसहिं छित्ता प्राभृते दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहियत्ति वइज्जा' अस्यायमर्थः-दशभिश्छित्वा-दशभिर्षिभध्य दशभि- तापक्षेत्रभांगे हियमाणे यथोक्तमन्धकारसंस्थितेमन्दरपरिरयपरिक्षेपपरिमाणमागच्छति, तथाहि-मेरुपर्वतपरिरयपरिमाणमेकत्रिं- | प्रमाणं शयोजनसहस्राणि षट् शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ३१६२३, एतद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते सू२५ षट्चत्वारिंशदधिके ६३२४६, एतेषां दशभिर्भागे हुते लब्धानि षट् योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि षट् च दशभागा योजनस्य ६३२४ । तत एष एतावाननन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपणविशेष आख्यात इति वदेत् । तदेवमुक्तमन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् , अधुना सर्वबाह्याया बाहाया आह-तीसे 'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थिते सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्तेलवणसमुद्रसमीपे जम्बूद्वीपपर्यन्ते, सा च परिक्षेपेण-जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपणेनाख्याता त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वे पञ्चचत्वारिंशे योजनशते षट् च दशभागान् योजनस्य यावत् १९२४५ । एतदेव स्पष्टं स्वशिष्यानवयोधयितुं भगवान् गौतमः पृच्छति-ता से ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सः-तावान् परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिक्षेपणविशेषः कुतः-कस्मात्कारणात् आख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत् ?, भगवान् वर्धमानस्वामी आह-ता जे 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुण-15 यित्वा दशभिश्छित्त्वा-दशभिर्विभज्य, अन्न कारणं प्रागेवोक, दशभिर्भागे हियमाणे यथोकमन्धकारसंस्थितेर्जम्बूदीपप दीप अनुक्रम [३९] ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप रिरयपरिक्षेपणमागच्छति, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि षोडश सहस्राणि द्वे शते अष्टाविंशत्यधिके ३१६२२८, एतद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि षट् लक्षाणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि ६३२४५६, तेषां दशभिर्भागे हते लब्धानि त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके षट् च दशभागा योजनस्य । ६३२४५। तत एप एतावान् अनन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपणविशेष आख्यात इति वदेत् , तदेवमुक्त सर्वबाह्याया अपि बाहाया विष्कम्भपरिमाण, सम्प्रति सामस्त्येनान्धकारसंस्थितेरायामप्रमाणमाह-'तीसे णमित्यादि, इदं चायामप्रमाणं तापक्षेत्रसंस्थितिगतायामपरिमाणवत्परिभावनीयं, समानभावनिकत्वात् । अत्रैव सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानयोः सूर्ययोर्दिवसरात्रिमुहूर्तप्रमाणमाह-'तया ण'मित्यादि सुगम । तदेवं | सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिं अन्धकारसंस्थितिं चाभिधाय सम्प्रति सर्वबाह्यमण्डले तामभिधित्सुराह-'ता जया 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा किंसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिरा-15 ख्याता इति भगवान् वदेत् !, भगवानाह-'ता ऊद्धमुहे त्यादि, ता इति पूर्ववत् , ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता (इति) वदेत् स्वशिष्येभ्यः, 'एव'मित्यादि, एवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण यदभ्यन्तरमण्डले अभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये अन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमुक्तं तद्वाह्यमण्डले-बाह्यमण्डलगते सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितेः परिमाणं भणितव्यं, यत्पुनस्तत्र-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितेःप्रमाणं तद्वाह्यमण्डले वर्तमाने सूर्येऽन्धकारसंस्थिते प्रमाणम-1 भिधातव्यं, तच्च तावत् 'तयाणं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई त्यादि, तच्चैव सूत्रतो भणनीयं-'अंतो संकुडा अनुक्रम [३९] ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [४] प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१७] उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ७५ ॥ ४ है बाहिं वित्थडा अंतो बट्टा बाहिं पिहुला अंतो अंकमुहसंठिया चाहिं सत्धिमुहसंठिया, उभयोपासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवडियाओ भवंति पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवद्विआओ भवंति, तंजहा - अस्मितरिया चैव बाहा सबबाहिरिया चैव वाहा, सीसे णं सवन्तरिचा वाहा मंदरपद्ययंतेणं छ जोयणसहस्साई तिन्नि य चडवीसे जोयस उच्च दसभागा जोयणस्स परिक्खेवेणं आहियत्ति वएज्जा, तीसे णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिवत्तियएच्या १, ता जेणं मंदरस्स पवयस्स परिक्खेवे ते णं दोहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एस णं परिक्लेव विसेसे आहियत्ति वएज्जा, ता से णं तावक्खेचे केवइयं आयामेणं आहियत्ति वएज्जा?, ता तेसीइ जोयणसहस्साइं तिन्नि तेत्तीखे जोयणसए जोयणतिभागं आहियत्ति वएज्जा, तया णं किंसंठिया अंधकारसंठिई आहिअत्ति वइज्जा ?, ता उड्डी मुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठिया आहियत्ति वएज्जा, अंतो संकुडा वाहिं वित्थडा अंतो चट्टा बाहिं पिहुला अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ भवंति, पणयालीस २ जोयणसहस्साई आवामेणं, दुबे व पां तीसे बाहाओ अणवहियाओ भवंति, तंजहा सधन्भंतरिया चैव बाहा सबबाहिरिया चैव वाहा, तीसे णं सबन्धंतरिया बाहा मंदरपचयंतेणं नव जीयणसहस्साई चचारि य छलसीए जोयणसए नव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवे आहियति वएज्जा, ता जेणं मंदरस्स पवयस्स परिक्लेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एस णं परिक्खेवविसेसे आहियत्ति वएज्जा, तीसे णं सवबाहिरिया बाहा लवणसमुद्दतेण उणउई जोयणसहस्साई अडय अट्टट्ठे जोयणसए चचारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए इति वएज्जा, वा एस णं परिक्खेवविसेसे कओ Eucation International For Park Use Only ~157~ ४ प्राभृते तापक्षेत्रप्रमाणं सू २५ ।। ७५ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] आहिए इति वएजा?, ताजे णं जंबुद्दीवस्स दीक्स्स परिक्खेवे पण्णते तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्वेषविसेसे भाहिए इति वएज्जा, तीसे णं अंधकारे केवइए आयामेणं आहिए इति वइजारी, ता तेसीइ जोयणसहस्साई तित्रिय तित्तीसे जोयणसए जोयणत्तिभागं च आहिए इति वएजा, तया णं उत्तमकहपत्ता* उक्कोसिया अट्ठारसमुहुना राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' इदं च सकलमपि मागुक्तसूचव्याख्यानुसारेण स्वयं परिभावनीयं, तापक्षेवसंस्थिती चिन्त्यमानायां यन्मंदरपरिरयादि द्वाभ्यां गुण्यते अन्धकारचिन्तायां तु[4 | तनिभिस्तदनन्तरं चोभयत्रापि दशभिविभजनं तथा सर्ववाद्ये मण्डले सूर्यस्य चारं चरतो लवणसमुद्रमध्ये पश्च योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं तदनुरोधाद, अन्धकारश्चायामतोवर्द्धते ततख्यशीतियोजनसहस्राणि इत्युक्तमिति । तदेवमुक्तं तापक्षेत्रसंस्थितिपरिमाणमन्धकारसंस्थितिपरिमाणं च, सम्प्रत्यूर्ध्वमधः पूर्वविभागेऽपरविभागे च यावत्प्रकाशयतः सूर्यों तन्निरूपणार्थ सूत्रमाह-ता जंबुद्दीवे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, जंबूद्वीपे कियत्-कियत्प्रमाणं क्षेत्रं सूर्यावूर्व तापयतः-प्रकाशयतः कियरक्षेत्रमधः कियरक्षेत्रं तिर्यक, पूर्वभागे अपरभागे चेत्यर्थः, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपेक द्वीपे सूर्यों प्रत्येकं स्वविमानादूर्वमेकं योजनशतं तापयत:-प्रकाशयतः अधस्तापयतोऽष्टादश योजनशतानि, एतच्चाघो-14 लौकिकग्रामापेक्षया द्रष्टव्यं, तथाहि-अधोलौकिकग्रामाः समतलभूभागमवधीकृत्याधो योजनसहस्रेण व्यवस्थिता तत्रापि सूर्यप्रकाशः प्रसरति, ततः समतलभूभागस्याधो योजनसहस्रं तदूर्व चाष्टौ योजनशतानीत्युभयमीलनेऽष्टादश योजनशतानि, तिर्यक् स्वविमानात् पूर्वभागेऽपरभागे च प्रत्येक तापयतः सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वे योजनशते दीप अनुक्रम [३९] ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) ५प्राभतेलेश्याप्रति शहतिः सू२६ सूत्रांक [२५] दीप त्रिषष्टे--त्रिषष्ट्यधिके एकविंशतिं च पष्टिभागान योजनस्य । ४७२६३६४ ॥. इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां चतुर्थ-प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तं चतुर्थं प्राभृतं, सम्मति पश्चममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारः कस्मिन लेश्या प्रतिहते ति, ततस्तद्विषय प्रश्नसूत्रमाह ता कस्सि णं सरियस्स लेस्सा पडिहताति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एचमाहंसु ता मंदरंसि णं पचतंसि सूरियस्स लेस्सा पद्धिहता आहिताति पदेजा, एगे एवमासु १ एगे पुण एवमाहंसु ता मेऊसि णं पवतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहितातिवदेजा, एगे एवमाहंसु २ एवं एतेणं अभिलावेणं भाणियवं, ता मणोरमंसिणं पव्वयंसि, ता सुदंसणंसि णं पवयंसि, ता सर्वपमंसिणं पवतंसि ता गिरिरायसि णं पचतंसि ता रतणुच्चयंसि णं पचतंसिता सिलुच्चयंसिणं पवयंसि ता लोअममंसि पवर्तसि ता लोयणार्भिसि णं पचतंसिता अच्छंसिणं पञ्चतंसि तासूरियावत्तंसि णं पचतंसि सूरियाचरणसि गं पचतंसि ता उत्तमंसि णं पवयंसि ता दिसादिस्सिणं पचतंसि ता अवतंसंसि णं पचतंसि ता धरणिखीलंसि णं पचयंसि ता धरणिसिंगंसिणं पञ्चर्यसि ता पचतिदंसि णं पचतंसि ता पचयरायसि णं पञ्चयंसि सूरियस्स लेसा पडिहता आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंस । वयं पुण एवं वदामो-ता मंदरेवि पवुञ्चति अनुक्रम [३९] ॥७६॥ अत्र चतुर्थ प्राभृतं परिसमाप्तं अथ पञ्चमं प्राभृतं आरभ्यते ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [9], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम जाव पचयराया वुच्चति, ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेसं पडिहणंति, अदिहावि णं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमलेसंतरगताविण पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति ॥ (सूत्र २६ ) ॥ सूरियपण्णत्तीए भगवतीए पंचमं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कस्सि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य लेश्या प्रसरतीति कस्मिन् स्थाने लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत् ?, अयमिह भावार्थ:-इहावश्यमभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्या कस्मिन् स्थाने प्रतिहतेत्यभ्युप-| गन्तव्यं, यतः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले जम्बूद्वीपगतं तापक्षेत्रमायामतः पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहनप्रमाणमेवाख्यातमेतच सर्वाभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये लेश्याप्रतिहतिमन्तरेण नोपपद्यते, अन्यथा निष्कामति सूर्ये तत्प्रतिबद्धस्य तापक्षेत्रस्यापि निष्क्रमणभावात् सर्वबाह्ये मण्डले चारं चरति सूर्ये हीनमायामतो भवेत् न च हीनमुक्तमतोऽवसीयते कापि लेश्या प्रतिघातमुपयाति ततस्तदवगमाय प्रश्न इति, एवं प्रश्ने कृते सति भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थे'त्यादि, तत्र-सूर्यलेश्याप्रतिहतिविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा 'तन्त्र' तेषां ५ |विंशतेः परतीर्थिकानां मध्य एक एवमाहुः-मन्दरे पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, वदेदिति तेषां | मूलभूतं स्व शिष्यं प्रत्युपदेशः, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु' १, एके पुनरेवमाहुः-मेरी पर्वते सूर्यलेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः २, 'एच'मित्यादि एवं-उक्केन प्रकारेण-एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेषभूतेना-4 लापकेन शेषप्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेव प्रतिपत्तिविशेषभूतानालापकान् दर्शयति-ता मणोरमंसि णं पचतंसी [४०] ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [9], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] ॥७७॥ सूर्यप्रज्ञ- त्यादि प्रत्यालापकं च पूर्वोक्तानि पदानि योजनीयानि, तत एवं सूत्रपाठः-'एगे पुण एवमाहंसु ता मणोरमंसि णं पवयंसि १५ प्राभृते शिवत्तिः सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति वइजा एगे एवमासु ३, एगे पुण एवमाहंसु, ता सुदंसणंसि णं पचपंसि सूरियलेसा लेश्याप्रति(मल०) पिडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमासु, ता सयंपहसि पवयंसि सूरियलेसा पडिहया हतिः सू२६ | आहियत्ति वइज्जा एगे एवमासु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता गिरिरायसि णं पचयंसि सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति | वएज्जा, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाइंसु ता रयणुचयंसि पवयंसि सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु ता सिलुच्चयंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे पवमा सासु ८, एगे पुण एवमासु ता लोयमज्झसि णं पचयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु ९, जाएगे पुण एवमाहंसु ता लोगनाभिंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वइजा एगे एवमाहंसु १०, एगे पुण एवमाईसु ता अच्छसि गं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाइंसु ११, एगे पुण एवमाहंसु ता सूरियावत्तसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १२, एगे पुण एवमाहंसु ता सूरियावरणंसि पश्यसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु १३, एगे पुण एव-18 माहंसु ता उत्तमंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु १४, एगे पुण एवमाहंसु ॥ ७७॥ ता दिसादिस्सि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमासु १५, एगे पुण एवमासु ता अवतससि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा पगे एवमासु १६, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणि-I ******555 दीप अनुक्रम [४०] ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [9], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] खीलंसि णं पधयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १७, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणिसिं४ गंसि शं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमासु १८,एगे पुण एवमाहंसु ता पबईदंसि णं पब-४ दयसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १९, एगे पुण एवमाहेसु ता पवयरायसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु २०, तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्योतिष एवं वदामः यदुत 'ता'इति पूर्ववत् यस्मिन् पर्वतेऽभ्यन्तरं प्रसरन्ती सूर्यस्य लेश्या प्रतिघातमुपगच्छति स मन्दरोऽप्युच्यते यावत्पर्वतराजोऽप्युच्यते, सर्वेषामप्येतेषां शब्दानामेकार्थिकत्वात् , तथा मन्दरो नाम देवस्तत्र पल्योपमस्थितिको महर्द्धिका परिवसति तेन तद्योगान्मन्दर इत्यभिधीयते१, सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वान्मेरुः २, मनांसि देवानामपि अतिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः ३, शोभनं जाम्बूनदमयतया वजरनबहुलतया च मनोनिर्वृतिकरं दर्शनं यस्यासौ सुदर्शनः, ४, स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा रनबहुल तया प्रभा-प्रकाशो यस्य स स्वयंप्रभः ५, तथा सर्वेषामपि गिरीणामुच्चस्त्वेन तीर्थकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा A गिरिराजः ६, तथा रत्नानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येन चयः-उपचयो यत्र स रत्नोच्चयः ७, तथा शिलाना-पाण्डुककम्बलशिलामभृतीनामुत्-फर्य शिरस उपरि चयः-सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः ८, तथा लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य समस्त-1 स्यापि मध्ये वर्तते इति लोकमध्यः ९, तथा लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य नाभिरिव-स्थालमध्यगतसमुन्नतवृत्तच CACAGR AASKAR दीप अनुक्रम [४०] ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [9], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॥७८॥ सूत्रांक [२६] CAMKARACTICE दीप अनुक्रम न्द्रक इव लोकनाभिः १०, तथा अच्छ:-स्वच्छ। सुनिर्मलजाम्बूनदरलबहुलत्वात् ११, तथा सूर्य उपलक्षणमेतत् चन्द्र-४५प्राभृते ग्रहनक्षत्रतारकाच प्रदक्षिणमावर्त्तन्ते यस्य स सूर्यावर्तः १२, तथा सूर्यैरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाभिश्च समन्ततः बालेश्याप्रतिपरिभ्रमणशीलैरात्रियते स्म-वेष्यते स्मेति सूर्यावरणः 'कृढ़हुल'मिति वचनात्कर्मण्यनत्प्रत्ययः १३, तथा गिरीणामु हतिःसूरक्ष त्तम इति उत्तमः १४, दिशामादिः प्रभवो दिगादिः, तथाहि-रुचकात् दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्यवत्ती, ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते १५, तथा गिरीणामवतंसक इवेत्यवतंसकः १६, अमीषां च षोडशानां नाम्नां सवाहिके इमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्ध गाथे-"मंदर मेरुमणोरम सुदंसण सयपभे य गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चय मझे लोगस्स नाभी य ॥१॥ अच्छे य सूरियावत्ते, सूरियावरणे इय । उत्तमे य दिसाई य, वडिसे इय सोलसे ॥२॥" तथा धरण्या:-पृथिव्याः कीलक इव धरणिकीलकः, तथा धरण्याः शृङ्गमिव धरणिङ्गः, पर्वतानामिन्द्रः पर्वतेन्द्रः, पर्वतानां राजा पर्वतराजः, तदेवं सर्वेऽपि मन्दरादयः शब्दाः परमार्थत एकार्थिकास्ततो भिन्नाभिप्रायतया प्रवृत्ताः प्राक्तनाः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः। यापि च लेश्याप्रतिहतिः सा मन्दरेऽप्यस्ति अन्यत्रापि च, तथा चाहता जे गं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिताः सूर्यस्य लेण्यां। स्पृशन्ति ते पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात्, येऽपि पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुद्गलान्तर्गताः सूक्ष्मत्वान चक्षस्पर्शमुपयान्ति तेऽप्यदृष्टा अपि सूर्यलेश्यां प्रति-131।।७८ ।। मन्ति, तैरप्यभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात् , येऽपि मेरोरन्यत्रापि चरमलेश्या-| [४०] SARERatoninhitional ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [9], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: न्तरगता:-चरमलेश्याविशेषसंस्पर्शिनः पुद्गलास्तेऽपि सूर्यलेश्या प्रतिघ्नन्ति, तैरपि चरमलेश्यासंस्पर्शितया चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां पंचम-प्राभूतं समाप्तं प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम E3%84% 2595% तदेवमुक्तं पञ्चमं प्राभृतं, सम्पति पष्ठमारभ्यते, सस्य चायमर्थाधिकारः-'कथमोजःसंस्थितिराख्याता इति, ततस्तद्धिषयं प्रश्नसूत्रमाह ता करते ओयसंठिती आहितातिवदेखा?, तस्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवसीओ पण्णताओ. तत्धेगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजे, अण्णा अवेति, एगे एवमासु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सरियस्स ओया अण्णा उप्पजति अण्णा अवेति २, एतेणं अभिलावेणं णेतवा, ता अणुराइंदियमेव ता अणुपक्खमेव ता अणुमासमेव ता अणुउडुमेव ता अणुअयणमेव ता अणुसंवच्छरमेव ता अणुजुगमेव ता अणुवाससयमेव ता अणुवाससहस्समेव ता अणुवाससयसहस्समेव ता अणुपुषमेव ता अणुपुषसपमेव अणुपुषसहस्समेव ता अणुपुषसतसहस्समेव ता अणुपलितोवममेव ता अणुपलितोवमसतमेव ता अणुपलितोवमसहस्समेव ता अणुपलितोबमसयसहस्समेव ता अणुसागरोवममेव, ता अणुसागरोवमसतमेव ता अणुसागरोवमसहस्समेव ता अणुसागरोचमसयसहस्समेव एगे एवमाहंसु [४०] RRRRRE | अत्र पञ्चमं प्राभूतं परिसमाप्तं अथ षष्ठं प्राभृतं आरभ्यते ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ६ ओजःस्थिति प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति (मल०) ॥७९॥ सूत्रांक प्राभृते सू२७ [२७] दीप ता अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उपचति अण्णा अवेति, एगे एवमाइंसु वयं पुण एवं वदामो ता तीसं २ मुहुत्ते सूरियस्स ओया अवहिता भवति, तेण परं सूरियस्स ओया अणवाहिता भवति, छम्मासे सरिए ओयं णिचुड्डेति छम्मासे मूरिए ओर्य अभिवति, णिक्खममाणे सरिए देसं णिचुडेति पविसमाणे सूरिए देसं अभिवुहेह, तत्व को हेतूति वदेजा ?,ता अयपणं जंबुद्दीवे २सषदीवसमु० जाव परि-18 क्लेवेणं, ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उथसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकढपत्ते उकोसए अट्टहारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छ अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए अभि-४ तराणतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तताणं एगणं राइदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स णिबुद्वित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिवहित्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं सतेहिं छित्ता,तता णं अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुष्टुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगडिभागमुहुत्तेहिं &अहिया, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरसि अम्भितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता. जया णं सूरिए अम्भितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दोहिं राईदिएहिं दो भागे ओयाए दिवसखेत्तस्स णिबुडित्ता रयणिखित्तस्स अभिवढेसा चारं चरति, मंडलं अट्ठारसतीसेहिं सएहिं छेत्ता, तताणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमु अनुक्रम [४१] ॥७९॥ ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [४१] हुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एतेणुवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओतदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे रएगमेगे मंडले एगमेगेणं राइदिएणं पगमेगेणं २ भागं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिबुडेमाणे २रयणिवेत्तस्स अभिवढेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सबबाहिरं मंडलं वसंकमित्ता चारं चरति तता णं सबभंतरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीतेणं राइंदियसतेणं एग तेसीतं भागसतं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिब्बुहेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुहेत्ता चारं चरति मंडल अट्ठारसहिं तीसेहिं छेत्ता, तता णं उत्समकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पहमळम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढ़मंसि अहोरसि बाहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं घरति, ता जया णं सूरिए याहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरति तता णं एगेणं राईदिएणं एग भागं ओयाए रतणिक्खेत्तस्स णिचुहेत्ता दिवसखेप्सस्स अभिवत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिंतीसेहिं छेत्ता, तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगट्ठिभागमुष्टुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुहूत्तेहिं अधिए, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तर्थ मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सरिए बाहिरतचं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तता णं दोहिं राइदिएहिं दो भाए ओयाए रगणिखेत्तस्स णिचुढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवुहेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं छेत्ता, तया णं ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सुर्यप्रज्ञमितिः प्रत माभृते सूत्रांक [२७] दीप ROSAROKASAGAR अट्ठासमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एमटिभा- ओ गमुहुत्तेहिं अधिए, एवं खलु एतेणुगएणं पविसमाणे सूरिए तताणंतरातो तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संक-2 | स्थितिममाणे २ एगमेगेणं राइदिएणं एगमेगेणं भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स णिव्वुहमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवड्डेमाणे २ सम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सववाहिरातो मंडलातो सधभंतरं मंडल सू२५ उवसंकमित्ता चार चरति तता णं सबबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेण तेसीतेणं राइंदियसएण एग तेसीतं| भागसतं ओयाए रयणिखित्तस्स णिवुहेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवढेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसतीसेहि सएहिं छेत्ता, तता णं उत्समकहपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुष्टुत्ता राई। भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोचस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे, एस णं| आदिचस्स संवच्छरस्स पचवसाणे (सूत्रं २७) ॥ छई पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते ओयसंठिई इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कधं?-केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उतान्यथा ओजस:-प्रकाशस्य संस्थिति:-अवस्थानमाख्याता इति वदेत्, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः सम्भवन्ति तावतीः कथयति-तत्थे'त्यादि, तत्र-ओजःसंस्थिती विषये खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चविंशते परतीथिकानां मध्ये एके वादिन एवमाहुः, 'ता'इति पूर्ववत्, अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेवी ॥८ ॥ सूर्यस्य ओजोऽन्यदुत्पद्यते अन्यदपैति, किमुक्तं भवति ?-प्रतिक्षणं सूर्यस्य ओजः प्राक्तनभिन्नप्रमाणं विनश्यति, अन्य अनुक्रम [४१] ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] देव प्राकनादिनप्रमाणमोज उत्पद्यते, सूत्रे च ओजःशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वादार्षत्वाद्वा, अत्रैवोपसंहारः || 'एगे एवमासु' १, एके पुनरेवमाहुः, 'ताइति पूर्ववत्, अनुमुहूर्तमेव-प्रतिमुहर्तमेव सूर्यस्य ओज़ोऽन्यदुत्पद्यते अन्यच्च प्राक्तनमपति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु'२, एवं 'मित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेष-8 भूतेनालापकेन शेष प्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेवाभिलापविशेषान् दर्शयति-ता अणुराइदियमेवे'त्यादि, सुगम, नवरं रात्रिन्दिवं रात्रिन्दिवमनु अनुरात्रिंदिवमित्येवं सर्वत्र विग्रहभावना करणीया, पाठः पुनरेवं सूत्रस्य वेदितव्य:एगे एवमाहेसु ता अणुराइंदियमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अन्ना अवेति, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपक्खमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहसु ता अणुमासमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जति(अन्ना) अवेइ,एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउउमेव सूरियस्स ओआ अन्ना उपजइ, अन्ना अवेह, एगे एवमाहंसु ६, एगे एवमासु ता अणुअयणमेव सूरियरस ओया अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एषमाइंसु ता अणुसंवच्छरमेव सूरियस्स ओजा अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, पाएगे एवमाहंसु८, एगे पुण एवमासु ता अणुजुगमेव सूरियस्स ओआ अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगेएवमाहंसु ९,एगे पुण एवमाहंसु ता अणुवाससयमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ अण्णा अवेइ,एगे एवमाहंसु १०, ता एगे पुण एवंमाइंसु अणुवाससहस्समेव सूरियस्स ओआ अण्णा उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु ११, एगे पुण एवमासु ता अणुवाससय-४ सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १२, एगे पुण एवमाहेसु ता अणुपुषमेव मूरि दीप अनुक्रम [४१] ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रज्ञ- (मल०) तिवृत्तिः प्रत सूत्रांक [२७] दीप SEARSHAHR यस्स ओथा अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु १५, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपुबसयमेव सूरियस्स ओया ओजःअन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १४, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपुषसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्प- स्थितिजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु १५, एगे पुण एवमासु ता अणुपुषसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उपज्जइFI प्राभृते अन्ना अबेइ, एगे एवमाईसु १६, एगे पुण एवमासु ता अणुपलिओवममेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अशा अवेइ, सू २७ एगे एवमासु १७, एगे पुण पवमासु ता अणुपलिओवमसयमेव सूरियस्स ओया अन्ना उपजाइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाइंसु १८, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपलिओवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १९, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेइ, एगे एव-15 मासु २०, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोषममेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमासु २१, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोवमसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेह, एगे एवमासु २२, एगे| [पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जा, अन्ना अवेइ, एगे पचमाहंसु २३, एगे पुष्प |एवमासु ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अण्णा अबेइ, एगे एवमासु २४, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाइंसु २५' एताच ॥८१॥ पतिपत्तयः सवों अपि मिथ्यात्वरूपा यतोऽत एतासामपोहेन भगवान् स्वमतमुपदर्शयति-वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण| वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता तीस मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपे प्रतिवर्षे परिपूर्णतया त्रिशतं त्रिंशतं मुहूचान ५ अनुक्रम [४१] ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] 45645625657 यावत सूर्यस्य भोज:-प्रकाशोऽवस्थितं भवति, किमुकं भवन्तिी, सूर्यसंवत्सरपर्यन्ते यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारे | चरति तदा सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतमोजः परिपूर्णप्रमाणं त्रिंशतं मुहूर्तान यावद् भवति, 'लेण पति ततः परं सर्वाबन्तरान्मण्डलात्परमित्यर्थः, सूर्यस्यौजोऽनवस्थितं भवति, कस्मादनवस्थितं भवतीति चेत्, अत आह-छम्मासे' इत्यादि, यस्मात्कारणात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः प्रथमान् सूर्यसंवत्सरसत्कान् पण्मासान् यावत्सूर्यो जम्बूद्वीपमतमोजः-प्रकाशंॐ प्रत्यहोरात्रमेकैकस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशतसङ्ख्यभागसत्कस्य भागस्य हापनेन निर्वेष्टयति-हापयति, तदनन्तरं द्वितीयान पण्मासान् सूर्यसंवत्सरसत्कान यावत्सूर्यः प्रत्यहोरात्रमेकैकत्रिंशदधिकाष्टादशशतसङ्ख्यसत्कभागवर्द्धनेनौजः-प्रकाशमभिवर्द्धयति, एतदेव व्यकं ब्याचष्टे-'निक्खममाणे इत्यादि, सुगमम् , नवरं देशमिति-त्रिंशदधिकानामष्टादशशतसमानां भागानां सत्कं प्रत्यहोरात्रमेकैकं भाग, तेनोच्यते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिपूर्णतया त्रिशतं मूहर्तान यावदवस्थितं सूर्यस्यौजस्ततः परमनवस्थितमिति, एतदेव चैतत्येन विभावयिषुः प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यझाह-'तत्थे'त्यादि, तत्र-निष्कामन सूर्यो देश-यथोक्तरूपं निर्वेष्टपति प्रषिशनभिवर्द्धयतीत्येतस्मिन् विषये को हेतुः-का उपपत्तिरिति वदेत्, भगवानाह'ता अयन'मित्यादि, इदं जम्बूदीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च, ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् सूर्यो नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान दीप अनुक्रम [४१] ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः प्रत (मला सूत्रांक [२७] स्थितिप्राभुते सू२७ १०८२॥ दीप 646454552 तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेन प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैः कलामात्रकलामात्रहापननाहोरात्रपर्यन्ते एक भागमोजसः-प्रकाशस्य दिवसक्षेत्रगतस्य निर्वेष्य-हापयित्वा तमेव चैक भागं रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धयित्वा चारं चरति, कियत्प्रमाणं पुनर्भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य वर्द्धयित्वा ?, तत आह-मण्डलमष्टादशभित्रिंशः-त्रिंशदधिकैः शतैश्छित्त्वा, किमुक्तं भवति ?-द्वितीयं मण्डलमष्टादशभिस्त्रिंशदधिकैर्भागशतैविभग्य तत्सत्कमेक भागमिति, कस्मात्पुनर्मण्डलस्याष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भागानां परिकल्प्यन्ते !, उच्यते, इह एकैकं मण्डलं द्वाभ्यां सूर्याभ्यां एकेनाहोरात्रेण भ्रम्या पूर्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहर्तप्रमाणः, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वावहोरात्रौ भवतः, द्वयोश्चाहोरात्रयोः पष्टिर्मुहर्ताः, ततो मण्डलं प्रथमतः पथ्या भागैविभज्यते, निष्कामन्तौ च सूर्यो प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकं द्वौ द्वौ मुहूर्तेकषष्टिभागौ हापयतः प्रविशन्तौ चाभिवर्धयतः, यौ च द्वौ मुहूत्कषष्टिभागौ तौ समुदितावेकः सार्द्धत्रिंशत्तमो भागः, ततः षष्टिरपि भागाः सार्द्धया त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशताऽधिकानि च भागानां, एवं निष्क्रामन् सूर्यः प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतसयानां भागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयन् रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धयन् ' तावद्वक्तव्यः यावत्सर्वबाह्ये मण्डले व्यशीत्यधिक भागशतं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयिता रजनिक्षेत्रस्य चाभिवर्द्धयिता भवति, त्र्यशीत्यधिक च भागशतमष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां दशमो भागः, ततः 'सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वधार्थी मण्डले जम्बूद्वीपचक्रवाल दशभागस्खुव्यति रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धते' इति यत्मागभिहितं तदपि समीचीनं जातमिति, एवमभ्यन्तरं प्रविशन | अनुक्रम [४१] ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] प्रतिमण्डलमष्टादशशतभागानां त्रिंशदधिकानां सत्कमेकैक भागमभिवर्द्धयन् तावद्वक्तव्यो यावत्सर्वाभ्यन्तरे मण्डले न्यशीत्यधिक भागशतं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्द्धयति रजनिक्षेत्रगतस्य च हापयति, ज्यशीत्यधिकं च भागशतं . जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशमो भागस्ततः सर्वबाह्यान्मण्डलात्सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्यैको दशमश्चक्र-14 वालभागोऽभिवर्द्धते रजनिक्षेत्रगतस्य तु ग्रुट्यतीति यत्प्रागवादि तदविरोधीति, सूत्र तु-तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे इत्यादिकं सकलमपि प्राभृतपरिसमाप्तिं यावत्सुगम, नवरमेवमत्रोपसंहारः-यत एवं सूर्यचारस्ततः प्रतिसूर्यसंवत्सरं सूर्यसंवत्सरपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रिंशतं २ मुहर्त्तान् यावत्परिपूर्णमवस्थितमोजस्ततः परमनवस्थित, सर्वाभ्यन्तरेऽपि च मण्डले त्रिंशतं मुहूर्तान् यावत्परिपूर्णमवस्थितमोज उच्यते व्यवहारतो निश्चयतः पुनस्तत्रापि प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैहींयमानमवसेयं, प्रथमक्षणावं सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं चार चरणादिति ।। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां षष्ठं-प्राभृतं समाप्तं MI तदेवमुक्त षष्ठं प्राभृत, सम्पति सप्तमं आरभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कस्तव मतेन भगवन् ! सूर्य वरयती'ति, तत एतद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता के ते सूरियं वरंति आहिताति वदेजा?, तत्थ खलु इमाओवीसं पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता मंदरे णं पचते सरियं वरयति आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता मेरू दीप अनुक्रम [४१] 1958 अत्र षष्ठं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ सप्तमं प्राभृतं आरभ्यते ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [७], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप सूर्यप्रज्ञ ण पवते सूरियं वरति आहितेति वदेजा, एवं एएणं अभिलावणं तवं जाव पचतराये णं पवते सूरियं वर- वरणप्तिवृत्तिः यति आहितेति वदेज्या, तं एगे एबमासु, वयं पुण एवं वदामो-ता मंदरेवि पवुचति तहेव जाव पञ्चतरा-18 प्राभूत (मल) एवि पवुचति, ताजे णं पोग्गला सूरियस्स लेस फुसति ते पोग्गला सूरियं वरयंति, अदिहावि णं पोग्गला सू २७ ॥८ ॥ सूरियं वरयंति, चरमलेसंतरगतावि गं पोग्गला सूरियं वरयति (सूत्रं २८)॥ सत्तमं पाहुई समत्तं ॥ 'ता के ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कस्तव मतेन भगवन् ! सूर्य वरयति ?, वरयन् 'वर ईप्सायां' आतुमिच्छन् । स्वप्रकाशकत्वेन स्वीकुर्वन् , आख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते भगवान् एतद्विपया यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयः तावती: कथयति-तत्थे'त्यादि, तत्र सूर्य प्रति वरणविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां विंशतः परतीथिकानां मध्ये एके प्रथमा एषमाहुः-मन्दरः पर्वतः सूर्य वरयति, मन्दरः पर्वतो हि सूर्येण मण्डलपरिसम्या सर्वतः४ा प्रकाश्यते, ततः सूर्य प्रकाशकरवेन वरयतीत्युच्यते, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमासु'१, एके पुनरेवमाहुः, मेरुपर्वतः सूर्य वरयन्नाख्यात इति वदेत् , अत्राप्युपसंहारः 'एगे एवमासु'२, 'एव'मित्यादि, एवं-उक्केन प्रकारेण लेश्याप्रतिहतिविष यविमतिपत्तिवत् तावनेतव्यं यावत्पर्वतराजः पर्वतः सूर्य वरयन् आख्यात इति वदेत्, एके एवमा हुरिति, किमुक्त। Xभवति ?-यथा प्राक् लेश्याप्रतिहतिविषये विंशतिः प्रतिपत्तयो येन क्रमेणोक्तास्तेन क्रमेणात्रापि वक्तव्याः, सूत्रपाठोऽपिट्रा।८३॥ प्रथमप्रतिपत्तिगतपाठानुसारेणान्यूनातिरिक्तः स्वयं परिभावनीयो, ग्रन्थगौरवभयातुन लिख्यते, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकम-11 तिपत्तयः, संप्रति भगवान् स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकार-14 अनुक्रम [४२] 24-01- 23 ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [७], ----------- प्राभृतप्राभूत-], -------------- मूल [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 45%355% माह-'ता मंदरेऽवी'त्यादि, ता इति पूर्ववत् , योऽसौ पर्वतः सूर्य वरयन् आख्यातः स मन्दरोऽप्युच्यते मेरुरप्युच्यते यावत्पर्वतराजोऽध्युच्यते, एतच्च प्रागेव भाषितं, ततो भिन्नभिन्नविषयतया प्रवृत्ताः प्राक्तन्यः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः, अपि च-न केवलो मेरुरेव सूर्य वरयति, किं वन्येऽपि पुद्गलाः, तथा चाहता जे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् जे णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुगता अमेरुगता वा सूर्यलेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः स्वप्रकाशकत्वेन सूर्य वरयन्ति, ईप्सितं हि सूर्येण प्रकाश्यते, ततो लेश्यापुद्गलैः सह सम्बन्धात्परंपरया ते-सूर्य स्वं कुर्वन्तीत्युच्यते, ये च प्रकाश्यमानपुद्गलस्कन्धान्तर्गता मेरुगता अमेरुगता वा सूर्येण प्रकाशिता अपि सूक्ष्मत्वान्न चक्षुःस्पर्शमु पगच्छन्ति तेऽपि प्रागुक्तयुक्त्या सूर्य घरयन्ति, येऽपि च चरमलेश्यान्तरगताः-स्वचरमलेश्याविशेषस्पर्शिनः पुगलास्तेदूऽपि सूर्य वरयन्ति, तेषामपि सूर्येण प्रकाश्यमानत्वात् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां सप्तम-प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्त सप्तमं प्राभृतं, सम्प्रति अष्टममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः-'कथं त्वया भगवन् ! उदयसंस्थितिराख्याता' इति, तत इत्थंभूतमेव प्रश्नसूत्रमाह|ता कहं ते उदयसंठिती आहितेति बदेजा, तत्थ खलु इमाओ तिणि पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्त्थेगे एवमाहंसु, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणहे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता णं उत्तरहेवि अट्ठारसमु NAGAR [२८] दीप अनुक्रम [४२] F ON | अत्र सप्तमं प्राभृतं परिसमाप्त अथ अष्टमं प्राभृतं आरभ्यते ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ८उदय सूर्यप्रक- प्तिवृत्तिः प्रत सूत्राक [२९] दीप अनुक्रम [४३] हुत्ते दिवसे भवति, जया णं उत्तरढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं दाहिणड्डेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, त(ज,दा णं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरडेवि सत्तरसमुष्टुत्ते दिवसे स्थितिभवति, जया णं उत्तरहे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणहेवि सत्सरसमुहत्ते दिवसे भवति, एवं प्राभूत सू३९ परिहावेतई,सोलसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे चउदसमुष्टुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ते दिवसे जाव णं जंयु-18 लाहीवे२ दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे तया णं उत्तरद्धेवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जता णं उत्तरद्धे बारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता णं दाहिणहेवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवति, तता णं दाहिणडे बारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पञ्चयस्स पुरच्छिमपस्थिमेणं सता पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति सदा | पपणरसमुहुत्ता राई भवति, अवहिता णं तत्थ राइंदिया पण्णता समणाउसो, एगे एवमासु, एगे पुण 87 एबमाहंसु जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्धे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तया णं उत्तरद्धेवि अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरडे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ तता णं दाहिणहृवि अट्ठार समुहत्ताणतरे दिवसे भवह एवं परिहावेतवं, सत्तरसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति, सोलसमुहुत्ताणतरे०, पण्णबारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति, चोहसमुहत्ताणंतरे,तेरसमहत्ताणतरे०.जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिण बारसमुसाहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धेवि बारसमुलुत्ताणतरे दिवसे, जता णं उत्तरद्धे वारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवह तया णं दाहिणद्धेवि बारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं जंबुदीचे २ मंदरस्स पचयस्स | ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] पुरस्थिमपचस्थिमै णं णो सदा पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति णो सदा पपणरसमुहुत्ता राई भवति, अणव-1 हिता णं तत्थ राइंदिया णं समणाउसो, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे अवारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं उत्तरडे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरहे अट्ठारसमुलुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणढे यारसमुहुत्ता (राई भवइ, जया णं दाहिणहे अट्ठारसमुहुत्ता) तरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे वारसमुष्टुत्ता राई भवइ, जता णं उत्तरहे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणद्धे बारसमुहुत्ता राई भवति, एवं णेतचं सगलेहि य अर्णतरेहि य एकेके दो दो आलावका, सबहिं दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जाव ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे बारसमुहुत्तार्णतरे। दिवसे भवति तदा णं उत्सरद्धे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरद्धे दुधालसमुहुत्साणंतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणद्धे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तता णं जंबुद्दीवे २ मन्दस्स पच्चयस्स पुरस्थिमपचस्थिमेणं णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति पणेवत्थि पण्णरसमुहत्ता राई भवति, बोच्छिण्णाणं तत्थ राई[दिया पं० समणाउसो। एगे एवमाहंसु ३ । वयं पुण एवं वदामो, ता जंबुद्दीवे २ सूरिया उदीणपाईणमुग्ग-1 लिच्छति पाईणदाहिणमागच्छंति, पाईणदाहिणमुग्गच्छति दाहिणपडीणमागच्छति दाहिणपडीणमुग्गमच्छति पडीणउदीणमागच्छन्ति पडीणउदीणमुग्गच्छन्ति उदीणपाईणमागच्छन्ति, ता जता णं जंबुद्दीवे २|| दाहिणद्धे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे दिवसे भवति, जदा णं उ० तदा पं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स परयस्स पुरच्छि A ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत मल. ८प्राभूते उदयसंस्थितिः सू२९ सुत्रांक ॥८५॥ [२९] दीप अनुक्रम [४३] मपञ्चच्छिमे णं राई भवति, ता जया णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पञ्चयस्स पुरथिमे णं दिवसे भवति तदाणं पञ्चच्छितिवृत्तिःलमेणवि दिवसे भवति, जया णं पचत्यिमे गं दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २मंदरस्स पवयस्स उत्तरदाहि णे णं राई भवति, ता जया णं दाहिणद्धेवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरद्धे उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जदा उत्तरद्धे० तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमे णं जहपिणया दुवालसमुहुत्ता राई भवति,ता जयाणं जबुद्दीवे २ मन्दरस्स पवतस्स पुरकिछमे णंउकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तताणं पचत्धिमेणवि उकोसए अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति, जता णं पचस्थिमे णं उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते |दिवसे भवति तता णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणे गं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं एएणं गमेणं णेतच, अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगदुवालसमुहत्ता राई भवति, सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहसा राई, सत्तरसमुहसाणंतरे दिवसे भवति सातिरेगतेरसमुहत्ता राई भवति, सोलसमुहुत्ते दिवसे भवति चोइसमुहुत्ता राई, भवति, सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति सातिरेगचोदसमुहत्ता राई भवति, पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई, पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगपण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, चाउद्दसमुहुत्ते दिवसे सोल समुहुत्ता राई, चोहसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगसोलसमुहुत्ता राई, तेरसमुहुसे दिक्से सत्तरसमुहसा राई, तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगसत्तरसमुहुत्ता राहे, जहषणए| दुवालसमूहुत्ते दिवसे भवति उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, एवं भणितवं, ता जया णं जंबुद्दीवे २ ॥८५॥ ॐॐॐS ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: %13656 प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] दाहिण वासाणं पढमे समए पडिचजति तता णं उत्तरडेवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जति, जता णं उत्तरद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जति तता णं जंबुद्दीवे २मंदरस्स पवयस्स पुरच्छिमपचत्धिमे णं अर्णतरपुरक्ख डकालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवजइ, ता जया णं जंबुद्दीवे मंदरस्स पच्चयस्स पुरच्छिमेणं वासाणं दापढमे समए पनिवजइ तता णं पचस्थिमेणवि वासाणं पढमे समए पडिवजह, जया गं पचत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवजह तताणं जंबुद्दीवे २ मंददाहिणे णं अणंतरपच्छाकयकालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवति, जहा समओ एवं आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुलुत्ते अहोरत्ते पक्खे मासे उऊ, एवं दस आलावगा जहा चासाणं एवं हेमंताणं गिम्हाणं च भाणितवा, ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्धे |पढमे अयणे पडिवजति तदा णं उत्तरद्धेवि पढमे अयणे पडिवजह, जताणं उत्तरढे पढमे अयणे पडिवजति तदा गं दाहिणद्धेवि पढमे अयणे पडिवज्जइ, जता णं उत्तरद्धे पढमे अयणे पडिवज्जति तता णं जंबुद्दीवे २ मंद-12 रस्सं पवयस्स पुरत्धिमपञ्चस्थिमेणं अतरपुरक्खडकालसमयंसि पढमे अयणे पडिवज्जति, ता जया णं जंबु-12 दीवे २ मन्दरस्स पवयस्स पुरथिमेणं पढमे अयणे पडिवज्रति तता णं पचत्थिमेणवि पढमे अयणे पडिववइ, जया णं पञ्चस्थिमेणं पढमे अयणे पडिवजह तदा पां जंबुद्दीवे २मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतरपच्छाकडकालसमयंसि पढमे अयणे पडिवण्णे भवति, जहा अयणे तहा संवच्छरेजुगे वाससते, एवं वाससहस्से वास-11 सयसहस्से पुबंगे पुछ एवं जाव सीसपहेलिया पलितोवमे सागरोवमे, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणहे HASABS ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) स्थितिः सू२९ सूत्रांक [२९] ॥८६॥ दीप अनुक्रम [४३] उस्सप्पिणी पडियज्जति तता णं उत्तरद्धेवि उस्सप्पिणी पडिवजति, जता णं उत्तरद्धे उस्सप्पिणी पडिवनतिमाभृते तता गं अंबुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं वधि ओसप्पिणी व अस्थि उस्सप्पिणी अब- उदयसंहिते णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो, एवं उस्सप्पिणीवि । ता जया णं लवणे समुद्दे दाहिणद्धे दिवसे भवति | तता णं लवणसमुद्दे उत्तरद्धे दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्धे दिवसे भवति तता णं लवणसमुरे पुरच्छिमपञ्चत्यिमे णं राई भवति, जहा जंबुद्दीवे २ तहेव जाव उस्सप्पिणी, तहा धायइसंडे णं दीवे सूरिया ओदीण. तहेव, ता जता णं घायइसंडे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवति तता णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्ध दिवसे भवति तता णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पचताणं पुरथिमपचत्थिमेणं राई भवति, एवं जंबुरीवे २ जहा तहेव जाव उस्सप्पिणी, कालोए णं जहा लवणे समुद्देतहेव, ता अम्भतरपुक्खरद्धे णं सूरिया उदीणपा-1 ईणमुग्गच्छ तहेव ता जया णं अभंतरपुक्खर णं दाहिणद्धे दिवसे भवति तदा णं उत्तरडेवि दिवसे भवति, Mजता णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवति तताणं अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पवताणं पुरस्थिमपचत्थिमेणं राई भवति सेसं जहा जंबुद्दीवे तहेव जाव उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ॥ (सूत्रं २९)॥ अट्ठमं पाहुडं समसं॥ | 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण सूर्यस्य उदयसंस्थितिस्ते-खया भगवाख्याता इति । #वदेत् ?, एवमुक्त भगवानेतद्विषया यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति-तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्थामुदयसंस्थिती विषये || तिम्रः प्रतिपत्तया-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एके-प्रथमाः परती-| 355 ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 5+ प्रत सूत्रांक [२९] %ASS दीप अनुक्रम [४३] र्थिका एवमाहुः-ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा अष्टादश मुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि अष्टादशमुहूर्तो दिवसः, तदेवं दक्षिणार्द्धनियमनेनोत्तराईनियम ' उक्तः, सम्प्रति उसरार्द्धनियमनेन दक्षिणार्द्धनियमनमाह-'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा उत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूर्तो दिव सो भवति तदा दक्षिणाऽपि अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसः, 'ता जया 'मित्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाबें सप्तदश-14 मुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तराद्देऽपि सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति, यदा चोत्तरार्दै सप्तदशमुहूों दिवसो भवति तदा दक्षिणार्डेऽपि सप्तदशमुहत्तों दिवसः, 'एवं'इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एकैकमुहर्सहान्या परिहातव्यं, परिहानि| मेव क्रमेण दर्शयति-प्रथमत उक्तमकारेण षोडशमुहूत्र्तो दिवसो वक्तव्यः, तदनन्तरं पञ्चदशमुहूर्तस्ततचतुर्दशमुहूर्चस्ततखयोदशमुहः, सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्कसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्-'जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरडेवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरहे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणहेवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवई'इत्यादि, द्वादशमुहूर्त्तदिवसप्रतिपादक सूत्रं साक्षादाह-ता जया 'मित्यादि,४ ता इति-तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढ़े द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि द्वादशमुहूत्तों दिवसो, यदा उत्तराई द्वादशमुहूर्तो दिवसस्तदा दक्षिणाऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, तदा च अष्टादशमुह दिदिवसकाले | जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि सदा-सर्वकालं पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति, सदैव च पश्चदशमुहूर्चा रात्रिः, कुत इत्याह-अवस्थितानि-सकलकालमेकप्रमाणानि, णमिति वाक्यालङ्कारे, तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य । XXS ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) उदयस स्थितिः सूत्राक सू २९ [२९]] CACAXARA दीप अनुक्रम [४३] पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिंदिवानि प्रज्ञप्तानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, एतच्च प्रथमानां परतीक्षिकानां मूलभूतं |स्वशिष्यं प्रत्यामन्त्रणवाक्यं, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एचमाहंसु'१, एके पुनरेवमाहुः यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणे- स्मिन्नर्देऽष्टादशमुहर्त्तानन्तर:-अष्टादशभ्यो मुहूर्तेभ्योऽनन्तरो-मनाकू हीनो हीनतरो वा यावत्सप्तदशभ्यो मुहर्तेभ्यः | किश्चित्समधिकप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽप्यष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा चोत्तरार्धेऽष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणाद्धेऽपि अष्टादशमुहुनिन्तरो दिवसः, तथा यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिगाढ़े सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तराद्धेऽपि सप्तदशमुहर्त्तानन्तरो दिवसः, यदा उत्तरार्दै सप्तदशमुहू-* निन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणाःऽपि सप्तदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एकैकमुहर्चहान्या परिहातव्यं, परिहानिप्रकारमेवाह-सोलसे'त्यादि, प्रथमतः पोडशमुहूर्तानन्तरो दिवसो वक्तव्यः, ततः पञ्चदशमुहर्ता| नन्तरस्तदनन्तरं चतुर्दशमहत्तानन्तरः, ततः त्रयोदशमुहूर्तानन्तरः, एतेषां हि मतेन न कदाचनापि परिपूर्णमुहर्तप्रमाणो दिवसो भवति, ततः सर्वत्रानन्तरशब्दप्रयोगः, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरसूत्रं तु साक्षाद्दर्शयति,"ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्ध द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसस्तदा उत्तराद्धेऽपि द्वादशमुहर्त्तानन्तरो दिवसः, यदा चोत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणाद्धेऽपि द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसः, तदा चाष्टादशमुहूत्तानन्तरादिदिवसकाले जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नो-नैव सदा-सर्वकालं पञ्चदशमुहूतों दिवसो भवति नापि सदा पञ्चदश मुहर्ता रात्रिः, कुत इत्याह-'अणवडिया णमित्यादि, अनवस्थितानि-अनियतप्रमाणानि, FarPuraaNamunom. ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: * आ प्रत ॐॐ%% सूत्रांक [२९] णमिति वावयालंकारे रूलु स्त्र-मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिंदिवानिप्रज्ञप्तानि, हे श्रमण हे आयुष्मन् !, अत्रोप सहारमाह-एगे एवमाहंसु'२, एके पुनरेवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत् ,जम्बूद्वीपे द्वीपे यदा दक्षिणाद्देऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा उत्तरा द्वादशमुहर्ता रात्रिः, यदा चोत्तराद्धेऽष्टादशमुत्तों दिवसो भवति तदा दक्षिणा द्वादशमुहूत्ता रात्रिः, तथा यदा दक्षिणाढे 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे'त्ति अष्टादशभ्यो महूर्तेभ्योऽनन्तरो-मनाक् हीनो हीनतरोयावत्सप्सद शन्यो महतेभ्यः किश्चिदधिक एवंप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्दै द्वादशामुहर्ता रात्रिः, यदाच उत्तरार्धे अष्टादश मुहूर्ता रात्रिः तदा दक्षिणार्धे द्वादशमुहत्तों दिवसः यदा चोत्तराद्धेऽष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसः तदा दक्षिणार्डे द्वादश मुहूर्सा रात्रिः, एवं'मित्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्रयो दशमुहूर्तानन्तरदिवसवक्तव्यता एकैकस्मिंश्च सप्तदिशादिके सङ्ग्याविशेषे सकलैर्मुहत्तैरनन्तरैश्च किश्चिदूनद्वाँ द्वावालापको वक्तव्यो, सर्वत्र च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तद्यथा-'जयार गणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणहे सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवइ तयाणं उत्तरढे दुवालसमुहुत्ताराई भवति, जया णं उत्तरहे सत्तरसमुहुत्ते। दिवसे भवइ तया णं दाहिण हे दुवालसमुहत्ता राई भवति, जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणहृसत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तथा |णं उत्तरहे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरहे सत्तर समुहुत्ताणतरे दिवसे हवा तया णं दाहिणद्वे दुवालसमुहुत्ता राई | |भवइ' एवं षोडशमुहूर्तपोड शमूह नन्तरपञ्चदशमुहूर्तपञ्चदशमुहूर्तानन्तरचतुर्दशमुहूर्तचतुर्दशमुह नन्तरत्रयोदशमुहूर्त त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरद्वादशमुहर्जगता अपि नव आलापका वक्तव्याः, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरगतं आलापकं साक्षादाह-'जया ण'मित्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढे द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरार्दै द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, 355258 दीप अनुक्रम [४३] %% AX ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [८], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ८८ ॥ से यदा चोत्तरार्द्धं द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति तदा दक्षिणार्थे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति) यदा चोत्तरार्द्धे द्वादशमुहूर्त्ता५ नन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणा द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, तदा चाष्टादश मुहूर्त्तानन्तरादिदिवस काले जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ' पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं' ति पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि नैवास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहर्त्ता दिवसो भवति, नाप्यस्येतत् यथा पञ्चदशमुहर्त्ता रात्रिर्भवतीति, कुत इत्याह-'वोच्छिन्ना णमित्यादि, व्यवच्छिन्नानि णमिति वाक्वाकारे खलु तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि रात्रिन्दिवानि प्रज्ञतानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु ३' एताश्च तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः, भगवतोऽननुमतत्वात्, अपिच-ये तृतीया वादिनः सदैव रात्रिं द्वादशमुहूर्त्त प्रमाणामिच्छन्ति तेषां प्रत्यक्षविरोधः, प्रत्यक्षत एवं हीनाधिकरूपाया रात्रेरुपलभ्यमानत्वात् । सम्मति स्वमतं भगवानुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपे २ सूर्यो यथायोगं मण्डलपरिभ्रम्या भ्रमन्तौ मेरोरुदकप्राच्यां-उत्तरपूर्वस्यां दिशि उद्गच्छतः, तत्र चोद्गत्य प्राग्दक्षिणस्यां - दक्षिणपूर्वस्यामागच्छतः, ततो भरतादिक्षेत्रापेक्षया प्राग्दक्षिणस्यां दक्षिणपूर्वस्यामुद्गत्य दक्षिणापायां-दक्षिणापरस्यामागच्छतस्तत्रापि च दक्षिणापरस्याम परविदेहक्षेत्रापेक्षया उद्गत्यापागुदीच्यां अपरोत्तरस्यामागच्छतः, तत्रापि चापरोत्तरस्यामैरावतादिक्षेत्रापेक्षया उद्गस्य उदक्प्राच्यां - उत्तरपूर्वस्यामागच्छतः, एवं तावत्सामान्यतो द्वयोरपि सूर्ययोरुदयविधिरुपदर्शितो, विशेषतः पुनरयं यदैकः सूर्यः पूर्वदक्षिणस्यामुद्गच्छति तदा अपरोऽपरोत्तरस्यां दिशि समुद्गच्छति, दक्षिणपूर्वोङ्गतश्च सूर्यो भरतादीनि क्षेत्राणि मेरुदक्षिणदिग्वसनि मण्डलभ्रम्या ४ Education International For Parts Only ~ 183~ ८ प्राभृते उदयसंस्थितिः सू २९ ॥ ८८ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4 प्रत 4 सूत्रांक %9-27 [२९] दीप अनुक्रम [४३] परिचमन प्रकाशयति, अपरोऽपरोत्तरस्यामुद्गतः सन् तत ऊ मण्डलपरिधम्या परिभ्रमन ऐरावतादीनि क्षेत्राणि मेरोरुत्तरदिग्भावीनि प्रकाशयति, भारतश्च सूर्यो दक्षिणापरस्यामागतः सन्नपरविदेहक्षेत्रापेक्षया उदयमासादयति, पेरावत: सूर्यः पुनरुत्तरपूर्वस्थामागतः पूर्वविदेहापेक्षया समुद्गच्छत्ति, ततो दक्षिणापरस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्व भण्डलचम्या परिधमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति, उत्तरपूर्वस्यामुद्तस्तु तत ऊर्ध्वं मण्डलगत्या चरन् पूर्व विदेहानवभासवति, तत एष पूर्वविदेहप्रकाशको भूयो दक्षिणपूर्वस्यां भरतादिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अपरविदेहप्रकाशकस्त्वपरोत्तरस्यामिति । तदेवं जम्बूद्वीपे सूर्ययोरुदयविधिरुक्तः, सम्प्रति क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह-ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढे दिवसो भवति तदा उत्तरार्दैऽपि दिवसो भवति, एकस्व सूर्यस्य दक्षिणदिशि परिभ्रमणसम्भवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमुत्तरदिशि परिभ्रमणसंभवात् , यदा चोत्तरार्धेऽपि दिवसस्तदा जम्बूद्वीपे | द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपचत्थिमेणं'ति पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि रात्रिर्भवति, तदानीमेकस्यापि सूर्यस्य तत्राभावात् 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि दिवसो भवति तदा पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति, एकस्य सूर्यस्य पूर्वदिग्भावसम्भवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमपरस्यां दिशि भावात् , एतच्च प्रागेव भावितं, यदा च पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति तदा जम्बूदीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे 'ति ४ उत्तरतो दक्षिणतश्च रात्रिर्भवति, 'ता जया 'मित्यादि तत्र यदा णमिति प्राग्वत्, जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढ़ें उत्क पकः-उत्कृष्टोऽष्टादशमुहर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तराद्धेऽपि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, उत्कृष्टो BREAKERXXX ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्ठिवृत्ति मल० सूत्राक ॥८९॥ [२९] दीप अनुक्रम [४३] ADSONGS ह्यष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारित्वे, तत्र च यदैकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवति तदा अप- प्राभृते रोऽप्यवश्यं तत्समया श्रेण्या सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवतीति दक्षिणाढे उत्कृष्टदिवससम्भवे उत्तरार्दैऽप्युत्कृष्टदिवस-18 उदयसंसम्भवः, यदा उत्तरार्दो उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिम स्थितिः पञ्चत्धिमे णं'ति पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सर्वोभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्ययोः17 सू२९ सर्वत्रापि रात्रेदशमुहुर्तप्रमाणाया एव भावात् , तथा 'जया णमित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य || पूर्वस्यां दिशि उत्कर्षका उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूचों दिवसो भवति तदा मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसः, कारणं दक्षिणोत्तरार्द्धगतं प्रागुक्तमनुसरणीयं, यदा च मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे णति उत्तरतो दक्षिणतश्च जघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रिः, अत्रापि कारणं पूर्वपश्चिमार्द्धरात्रिगतं प्रागुक्तमनुसरणीयं, 'एव'मित्यादि, एवम्-उक्केन प्रकारेण पतेमानानन्तरोदितेन गमेन-आलापकगमेन वक्ष्यमाणमपि नेतव्यं, किं तद् वक्ष्यमाणमित्याह-'अट्ठारसमुहुत्ताणतरह-I त्यादि, यदा मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणोत्तरार्द्धयोः पूर्वपश्चिमयोर्वा अष्टादशमुहानन्तर:-सप्तदशभ्यो मुहुर्तेभ्य ऊर्च किश्चिन्यूनाष्टादशमुहर्त्तप्रमाणो दिवसः तदा पूर्वपश्चिमयोदक्षिणोत्तरार्द्धयोर्वा सातिरेकद्वादशमुहतों रात्रिर्भवतीति, एवं ट्रा शेषाण्यपि पदानि भावनीयानि, सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्तालापकगमानुसारेण स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्-'ता जया VI८९ बुद्दीवे दीवे दाहिणढे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तयाणं उत्तरहृवि अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरहे| awranasurary.org ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] अद्वारसमुहत्ताणंतरे दिवसे हवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स पुरच्छिमपच्चत्थिमे सातिरेगदुवालसमुहत्ता राई भवइ, ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरच्छिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तया णं पचत्थिमेणं अहारसमुहत्ताणतरे दिवसे हवइ, जया णं पञ्चस्थिमेणवि अहारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पबयस्स उत्तरदाहिणे णं साइरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सप्तदशमुहुर्त्तदिवसादिप्रतिपादका अपि सूत्रालापका भावनीयाः, 'ता जया 'मित्यादि तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा वर्षाणां-वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-भवति तदा उत्तरार्थेऽपि वर्षाणां प्रधमः समयो भवति, समकालनैयत्येन दक्षिणा उत्तरार्द्धं च सूर्ययोश्चारभावात् , यदा चोत्तरार्द्ध वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं' पूर्वस्यासपरस्यां च दिशि 'अर्णतरपुरक्खडे'त्ति अनन्तरं--अव्यवधानेन पुरष्कृतः-अग्रेकृतो यः सोऽनन्तरपुरस्कृतोऽनन्तरं द्वितीय इत्यर्थः, तस्मिन् 'कालसमयंसित्ति समयः सङ्केत्तादिरपि भवति ततस्तव्यवच्छेदार्थ कालग्रहणं, कालश्चासौ समयश्च कालसमयः, तत्र वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-भवति, किमुक्त भवति !-यस्मिन् समये दक्षिणाोत्तरार्द्धयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तस्मादूर्ध्वमनन्तरे द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा 'ण'मिति प्राग्वत् जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति, सर्वकालनयत्येन पूर्वपश्चिमयोरपि सूर्ययोश्चारचरणात्, यदा च पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीपे दीप अनुक्रम [४३] ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज प्रत (मल) सूत्राक [२९] दीप अनुक्रम [४३] द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे णति उत्तरतो दक्षिणतश्च अनन्तर:-अव्यवधानेन पश्चात्कृतोऽनन्तरपश्चात्कृतःप्राभृते तस्मिन् कालसमये वषोंकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपन्नो भवति, भूत इत्यर्थः, इह यस्मिन् समये दक्षिणा उत्तरार्दै च वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदनन्तरे अग्रेतने द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाणां प्रथमः समयो भवतीति, पता स्थितिः ४वन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोर्वकालस्य प्रथमः समयो भवति ततोऽनन्तरे पश्चाद्भाविनि समये दक्षिणो-14 सू २९ त्तरार्द्धयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवतीति गम्यते तकिमर्थमस्योपादान ?, उच्यते, इह क्रमोत्कमाभ्यामभिहितोऽर्थः अपश्चितज्ञानां शिष्याणामतिसुनिश्चितो भवति ततस्तेषामनुग्रहाय तदुक्तमित्यदोषः, 'जहा समय'इत्यादि, यथा समय उक्त तथा आवलिका प्राणापानी स्तोको लबो मुहत्तोऽहोरात्रः पक्षो मास ऋतुश्च-प्रावृडादिरूपो वकव्या, एवं च समयगतमालापकमादिं कृत्वा दश आलापका एते भवन्ति, ते च समयगतालापकरीत्या स्वयं परिभावनीया, तपथा-'जया है णं जंबुद्दीवे द्दीवे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमा आवलिया पडिवजह, जया ण उत्तरहे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पपयस्स पुरच्छिमपञ्चस्थिमे थे अणंतरलापुरक्खडकालसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, ता जया णं जंबुद्दीवे मंदरस्त पबयस्स पुरछिमे णं वासाणं & ॥९ ॥ पढमा आवलिया पडियाजा [लया णं पञ्चत्थिमेणं पढमा आवलिया पडिवजन २] तया णं जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पक्ष्यस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतरपच्छाकडकालसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवन्ना भवई' इदं च प्रागुक्तव्याख्यानुसारेण व्याख्येयं, नवरं 'आवलिया पडिवजह'त्ति आवलिका परिपूर्णा भवति, शेष तथैव, एवं प्राणापानादिका अन्यालापका ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [८], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भणनीया: 'एए' इत्यादि, यथा वर्षाणां वर्षाकालस्य एते अनन्तरोदिताः समयादिगता अत्र आलापका भणिताः 'एवं हेमंताणं'ति शीतकालस्य, 'गिम्हाणं'ति ग्रीष्मकालस्योष्णकालस्येत्यर्थः, प्रत्येकं समयादिगता दश दश आलापका भणितव्याः, अयनगतं खालापकं साक्षात्पठति-'ता जया ण'मित्यादि सुगमं, 'जहा अयणे' इत्यादि, यथा अपने आलापको भणितः तथा संवत्सरे युगे - वक्ष्यमाणस्वरूपे चन्द्रादिसंवत्सरपञ्चकात्मके वर्षशते वर्षसहस्रं वर्षशतसहस्रे पूर्वाङ्गे पूर्वे एवं 'जाव सीसपहेलिय'ति, एवं यावत्करणादमून्यपान्तराले पदानि द्रष्टव्यानि, 'तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अबवंगे अववे हूहूयंगे ये उप्पलंगे उप्पले पउमंगे परमे नलिणंगे नलिणे अस्थनितरंगे अत्थनिउरे अडयंगे अडए नड अंगे नए चूलियंगे चूलिए सीसपहेलियंगे' इति, अत्र चतुरशीतिर्वर्षलक्षाण्येकं पूर्वाङ्गं, चतुरशीतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि एकं पूर्वमेवं पूर्वः पूर्वो राशिचतुरशीतिलक्षैर्गुणित उत्तरोत्तरो राशिर्भवति, यावच्चतुरशीतिशीर्षप्रहेलिकाङ्ग लक्षाणि एका शीर्षप्रहेलिका, एतावान् राशिर्गणितविषयोऽत ऊर्ध्वं गणनातीतः, स च पल्योपमादि, 'पलिओ मे सागरोवमे' अनयोः स्वरूपं सङ्ग्रहणीटीकायामुक्त, आलापकास्तु स्वयं वक्तव्याः, अवसर्पिण्युत्सपिणीविषयमाठापकं साक्षादाह-'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्द्धेऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते परिपूर्णा भवति तदा उत्तरार्द्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते, यदा उत्तरार्द्ध अवसर्पिणी प्रतिपद्यते परिपूर्णा भवति, तदा दक्षिणार्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते -प्रतिपूर्णा भवति, यदा उत्तरार्द्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नैवास्त्यवसर्पिणी नाप्युत्सर्पिणी, कुत इत्याह-अवस्थितो णमिति खलु तत्र पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि कालः प्रज्ञप्तो मया Education International For Palsta Use On ~188~ waryra Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ८प्राभृते लवणादी समयादि सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] सूर्यप्रज्ञ-1शेषैश्च तीर्थकरैः हे श्रमणायुष्मन् ! ततस्तत्रावसप्पिण्युत्सर्पिण्यभावः, 'एवमुस्सप्पिणीवित्ति, एवमुक्केन प्रकारेणोस्स-४ प्तिवृत्ति पिण्यपि-उत्सर्पिण्यालापकोऽपि वक्तव्या, स चैवम्-'ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया (मल०) णं उत्तरद्धेवि पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जइ, जया णं उत्तरद्धेवि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे ॥९१॥ मदरस्स पबयस्स पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं नेव अस्थि अवसप्पिणी णेवत्थि उस्सप्पिणी अवडिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो!' तदेवं जंयुद्धीपवक्तव्यतोका, सम्पति लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह-'लवणे णं समुद्दे'इत्यादि, तहेव'त्ति यथा जम्बूद्वीपे उद्गम-15 | विषये आलापक उका तथा लवणसमुद्रेऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'लवणे गं सूरिया उईणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिण-17 मागच्छंति, पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपाईमागच्छति, दाहिणपाईणमुग्गच्छ पाईणउईणमागच्छति, पाईणनईण-15 मुग्गच्छ उईणपाईणमागच्छति' इदं च सूत्रं जम्बूद्वीपगतोद्गमसूत्रवत् स्वयं परिभावनीयं, नवरमत्र सूर्योश्चत्वारो वेदि-ल तव्याः, 'चत्तारि य सागरे लवणे' इति वचनात् , ते च जम्बूद्वीपगतसूर्याभ्यां सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः, तथथा-दो ४ सूर्यों एकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिबद्धी द्वौ द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तत्र यदकः सूर्यो जम्बू द्वीपे दक्षिणपूर्वस्यामुगच्छति तदा तत्समश्रेण्या प्रतिबद्धौ द्वौ सूयौं लवणसमुद्रे तस्यामेष दक्षिणपूर्वस्यामुदयमागच्छतस्तदैव जम्बूद्वीपगतेन सूर्येण सह तत्समवेण्या प्रतिवद्धौ द्वावपरौ लवणसमुद्रे अपरोत्तरस्यां दिशि उदयमासादयता, तत उदयविधिरपि योद्धयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपसूर्ययोरिव भावनीयः, तेन दिवसरात्रिविभागोऽपि क्षेत्रविभागेन तथैव द्रष्टव्यः, तथा चाहता जया ण'मित्यादि सुगम, नवरं 'जहा जंबुद्दीवे दीवे'इत्यादि, यथा जम्बूद्वीपे द्वीपे 'पुरच्छिमपच ~ 189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] ANGRESS54 दीप अनुक्रम [४३] छिमेणं राई भवई'इत्यादिक सूत्रमुक्तं यावदुत्सपिण्यवसर्पिण्या लापकस्तथा लवणसमुद्रेऽप्यन्यूनातिरिक्त समस्त मणितव्यं, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे इत्यस्य स्थाने लवणसमुद्रे इति वक्तव्यमिति शेषः । तदेवं लवणसमुद्गताऽपि वक्तव्यतोक्का, सम्प्रति धातकीखण्डविषयां तामाह-'धायइसंडे णं सूरिया'इत्यादि, अत्राप्युद्गमविधिः प्राग्वद् भावनीयः, नवरमत्र सूर्या द्वादश, 'धायइसंडे दीवे वारस चंदा य सूरा ये' इति वचनात् , ततः षट् सूर्या दक्षिणदिक्चारिभिर्जम्बूद्वीपगतलवणसमुद्रगतः सूयः सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट् उत्तरदिक्चारिभिः, सम्प्रत्यत्रापि क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह-| "ता जया णमित्यादि, यदा धातकीखण्डे द्वीपे दक्षिणा. दिवसो भवति तदा उत्तरार्खेऽपि दिवसो भवति, यदा उत्तरार्दैऽपि दिवसस्तदा धातकीखण्डे मन्दरयोः पर्वतयोः पूवार्द्धपश्चिमार्द्धगतयोः प्रत्येकं पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रि|र्भवति, 'एवं मित्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण यथा जम्बूद्वीपे उक्तं तथैवात्रापि वक्तव्यं, तच्च तावद्यावदुत्सर्पिण्यालापकः। 'कालोए'इत्यादि, कालोदे समुद्रे यथा लवणेऽभिहितं तथैवाभिधातव्यं, नवरं कालोदे सूर्या द्विचत्वारिंशत् , तत्रैकविंशतिदक्षिणदिकचारिभिर्जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डगतैः सह समश्रेण्या सम्बद्धा एकविंशतिरुत्तरदिक्चारिभिः, तत उदयविधिर्दिवसरात्रिविभागश्च क्षेत्र विभागेन तथैव वेदितव्यः । साम्प्रतमभ्यन्तरपुष्करवरार्द्धवक्तव्यतामाह-ता अभि|तरपुक्खरद्धे'इत्यादि, इदमपि सूत्रं सुगम, 'तहेव'त्ति तथैव जम्बूद्वीप इव वक्तव्यं, नवरमत्र सूर्या द्वासप्ततिः, 'तत्र | पत्रिंशद्दक्षिणदिक् चारिभिर्जम्बूद्वीपादिगतैः सह समश्रेण्या प्रतिवद्धाः षट्त्रिंशदुत्तरदिकचारिभिः, तत उदयविधिर्दिवस ERE ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सिवत्तिः प्रत ॥९२ सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] सूर्यप्रज्ञ-IA रात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन प्राग्वदवसेयः, तथा चाहता जया ण'मित्यादि, सुगमम् ॥'. प्राभृते लेश्या इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां अष्टम-प्राभतं समाप्त तदेवमुक्तमष्टमं प्राभृतं, सम्पति नवममारभ्यते-तस्य चायमाधिकार:-कतिकाष्ठा पौरुषीच्छायेति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कतिकडं ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेजा!, तत्थ खलु इमाओ तिषिण पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला संतप्पति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तदर्णतराई बायराइंपोग्गलाई संतातीति एस णं से समिते तावक्खेत्ते एगे एवमा-18 हंसु, एगे पुण एवमाहंसु-सा जेणं पोग्गला सूरियस्स लेसं फसति ते णं पोग्गला नो संतप्पंति, ते गं पोग्गला असंतप्पमाणा तदर्णतराई बाहिराई पोग्गलाई णो संतावतीति एस णं से समिते तावक्खेसे पगे। एवमाहंसु २, एगे पुण एवमासु, ताजे पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति ते णं पोग्गला अत्थेगतिया णो संतप्पंति अत्थेगतिया संतप्पंति, तत्थ अत्धेगहआ संतप्पमाणा तदणंतराइं बाहिराई पोग्गलाई अत्येग का॥१२॥ तियाई संतावेति अत्यंगतियाई णो संतावेंति, एस णं से समिते तावखेस, एगे एवमाहंसु ३। वयं पुण एवं वदामो, ता जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ बहिसा (उच्छूडा) अभि S अत्र अष्टमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ नवमं प्राभृतं आरभ्यते ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [४४] |णिसवाओ पताति, एतासि णं लेसाणं अंतरेसु अण्णतरीओ छिपणलेसाओ संमुच्छंति, तते ण ताओ दछिण्णलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संतावेंतीति एस णं से समिते तावक्खेत्ते ॥ (सूत्रं ३०) "ता कइकहते'इत्यादि पूर्ववत् 'कति' किंप्रमाणा काष्ठा-प्रकों यस्याः सा कतिकाष्ठा तां कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां। लाते' तव मते सूर्यः 'पौरुषी' पुरुष भवा पौरुषी तो पौरुषी छायां निवर्तयति, निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत् !, किंप्रमाणां पौरुषीछायामुत्पादयन् सूर्यों भगवान् त्वया आख्यात इति वदेदिति स पार्थः, एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः। प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-तस्याः पौरुष्याः छायायाः प्रमाणचिन्तायां प्रथमतस्तावदिमास्तापक्षेत्रस्वरूपविषयाः खलु तिसः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्र' तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एके-प्रथमा एवमाहु: ताजे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः सूर्यशलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते-सन्तापमनुभवन्ति, सन्तप्यन्त इति कर्मकत्तेरि प्रयोगः, ते च पुद्गलाः सन्तप्यमानाः तद-18 नन्तरान्-तेषां सन्तप्यमानानां पुद्गलानामव्यवधानेन ये स्थिताः पुद्गलास्ते तदनन्तरास्तान् बाह्यान् पुद्गलान् , सूत्रे च नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात्, सन्तापयन्ति, इतिशब्दः प्रस्तुतवक्तव्यतापरिसमाप्तिसूचका, 'एस 'मित्यादि। एतत्-एवं स्वरूप 'से' तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्रं, अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, 'त' इति पूर्ववत्, ये णमिति प्राग्वत् पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गला न सन्तप्यन्ते-न सन्तापमनुभवन्ति, SHA फर ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [९], ....................-- प्राभतप्राभूत [-], .............. मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [४४] सूर्यप्रज्ञ- यश्च पीठफलकादीनां सूर्यलेश्यासंस्पृष्टानां सन्ताप उपलभ्यते स तदाश्रितानां सूर्यलेश्यापुद्गलानामेव स्वरूपेण, न पीठ- ९ माभूते प्तिवृत्तिः फलकादिगतानां पुद्गलानामिति न प्रत्यक्षविरोधः, ते णमिति प्राग्वत्, पुद्गला असन्ताप्यमानास्तदनन्तरान् बाह्यान् II लेश्या (मला पुद्गलान्न सन्तापयन्ति-नोष्णीकुर्वन्ति, स्वतस्तेषामसन्तप्तत्वात् , इतिशब्दः प्राग्वत् व्यक्तः, 'एस ण'मित्यादि, एतत् सू ३० ॥१३॥ एवंस्वरूप 'से' तस्य सूर्यस्य तापक्षेत्र समितं-उपपन्नमिति, अत्र उपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' २, एके पुनरेवमाहुः, ता इति पूर्ववत् , णमिति प्राग्वत् ये पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गला अस्तीति प्राकृतत्वाग्निपातत्वाहा | सन्ति एककाः केचन पुद्गला ये सूर्यलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते-सन्तापमनुभवन्ति, तथा सन्त्येककाः केचन पुद्गला ये न सन्तप्यन्ते, तत्र ये सन्त्येककाः सन्तप्यमानास्ते तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् अस्त्येतत् यत् एककान्-कांश्चित्सन्तापयन्ति, अस्त्येतद्यदेककान्-कांश्चिम सन्तापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, 'एस णमित्यादि, एतत्-एवंस्वरूपं 'से' तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्र, अत्रोपसंहारमाह-एगे एचमाहंसु'एतास्तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा च एता| काव्युदस्य भगवान् भिन्न स्वमतमाह-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेव-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता| जईए (जाओ इमाओ) इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , या इमाःप्रत्यक्षत उपलभ्यमानाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां सत्केभ्यो विमानेभ्यो Kलेश्या उच्छूढाः, एतदेव व्याचष्टे-अभिनिःसृतास्ताःप्रतापयन्ति-बाह्यं यथोचितमाकाशवर्ति प्रकाश्य प्रकाशयन्ति, एतासां चेत्थं विमानेभ्यो निम्रतानां लेश्यानामन्तरेषु-अपान्तरालेष्वन्यतराश्छिन्नलेश्याः सम्मूच्र्छन्ति, ततस्ता मूलच्छिन्ना लेश्याः [सम्मूर्षिछताः सत्यस्तदनन्तरान् वाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, 'एस 'मित्यादि, एतत्-एवंस्वरूप, 54: 5555 ॥ ९३। ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [९], ....................-- प्राभतप्राभूत [-], .............. मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] से तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्रमिति । तदेवं तापक्षेत्रस्य स्वरूपसम्भव उक्तः, सम्प्रति किंप्रमाणां पोरुषीछायां है निवर्तयतीत्येतत् बोडुकामः पृच्छन्नाह| ता कतिकडे ते सूरिए पोरिसीकछायं णिवत्तेति आहितेति वदेज्या ?, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवसीओ'पण्णताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ आहितेति वदेजा, | एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेजा, एतेणं अभिलावेणं तवं, ता जाओ चेव ओयसंठितीए पणुचीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव णेतवाओ, जाव अणुउस्सप्पिणीमेव सूरिए पोरिसीए छायं णिवत्तेति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं ब-4 लादामो-ता सरियस्स णं उचसं च लेसंच पडुच छाउद्देसे उच्चत्तं च छायं च पडुच लेसुदेसे लेसं चायं च पडच्च उच्चत्तोडेसे, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता अस्थि णं से दिवसेजंसि ठाणं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसीच्छायं निवत्तेइ, अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसीच्छायं |णिवत्तेति एगे एवमाहंसु१,एगे पुणएवमासुता अस्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सरिए दुपोरिसीच्छायं |णिवत्तेति अस्थि णं से दिवसे जंसि दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं णिवत्तेति २, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता अस्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि मूरिए चउपोरिसियं छायं णिवत्तेति, अस्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सरिए दोपोरिसियं छायं निवत्तेइ ते एवमासु, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं CAASARAN दीप अनुक्रम [४४] ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ---------- ---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप सूर्यप्रज्ञ- उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकहपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवति, जहणिया दुवा- ९प्राभूते सिवृत्तिः लसमुहत्ता राई भवति, तेसिं च णं दिवसंसि सरिए चउपोरिसीयं छायं निषत्तेति, ता उग्गमणमुहुर्ससि य४ पौरुषीछा(मल. अस्थमणमुहत्तंसि य लेसं अभिवढेमाणे नो चेव णं णिबुढेमाणे, ता जता णं मूरिए सबबाहिरं मंडलं उब-1 या सू३१ संकमित्ता चारं चरति तताणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवाल॥९४॥ समुहुत्ते दिवसे भवति, तसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं निवत्तेइ, तं०-उग्गमणमुहुरासिय अस्थमणमुहसि य, लेसं अभिवढेमाणे नो चेव णं निवुहेमाणे १, तत्थ णं जे ते एवमासु ता अस्थि से दिवसे जैसि णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवसेइ अस्थि णं से दिवसे जंसि र्ण दिवसंसि सरिए 2 Xणो किंचि पोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवमाहंसु, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं पघसंकमित्ता चार चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसिए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, तं०-उग्गमणमुहसंसि अस्थमणमुहुरासि य लेसं अभिवढमाणे णो व णं णिवुहमाणे, ता जया णं सरिए सत्वबाहिरं मंडलं उघसंकमिसा चारं चरति तता । णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहसे दिवसे भवति तंति च णं दिवसंसि सरिए णो किंचि पोरिसीए छायं णिवत्तेति, तंब-जग्गमणमुहतंसि य अस्थमणमुहुरासि य, नो चेव णं लेसं अभिबुद्देमाणे वा निबुड्ढेमाणे वा, ता कइकट्ठ ते सरिए पोरिसीच्छायं निवसह आहियत्तिक-४ अनुक्रम - [४५] E-06 ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप जा, तत्थ इमाओ छण्णउह पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्थेगे एवमासु, अस्थि णं ते से देसे जंसि || संसि सरिए एगपोरिसीयं छायं निवत्तेइ एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता अस्थि णं से देसे सिाई देसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवं एतेणं अभिलावेणं णेतवं, जाव छण्णउतिं पोरिसियं छायं| णिवत्तेति, तत्थ जे ते एचमाहंसु ता अत्थि णं से देसे जसिणं देसंसि मूरिए एगपोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवमासु ता सरिपस्स णं सबहेडिमातो सूरप्पडिहितो बहित्ता अभिणिसट्टार्टिलेसाहिं ताडिज्ज- Pमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावतियं सरिए उहूं उपतेर्ण एच तियाए एगाए अद्वाए एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए तत्थ से सरिए एगपोरिसीयं छायं णिवसेति, तस्थ जे ते एषमाहंसु, ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं णिवत्तेति, ते एवमान कासु-ता सूरियस्स गं सबहेडिमातो मरियपडिधीतो बहित्ता अभिणिसहिताहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं| इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातोभूमिभागातो जावतियं सूरिए उहुं उच्चत्तेणं एवतियाहिं दोहिं अद्धाहिं दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहिं उमाए एत्व णं से सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवंणेयर जाव तत्थ जे ते एवमासु ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छपणउतिं पोरिसियं छायं णिवत्तेत्ति ते एवमाहंसु-ता सरियस्स णं सबहिडिमातो सूरप्पडिधीओ बहित्ता अभिणिसट्ठाहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो जावतियं मूरिए उहुं उच्चत्तेणं एवतियाहिं अनुक्रम [४५] ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: (मल) प्रत सूत्रांक [३१] दीप सूर्यप्रज्ञ- माछाणवतीए छायाणुमाणुप्पमाणेहिं उमाए एस्थ णं से सूरिए छण्णउतिं पोरिसियं छायं णिवत्तेति एगे एव-121 प्राभूते प्तिवृत्तिः |माहंसु, वयं पुण एवं वदामो, सातिरेगअउणट्ठिपोरिसीणं सूरिए पोरिसीछायं णिवत्तेति, अवद्धपोरिसी णं पारुपीछा छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा?, ता तिभागे गते वा सेसे वा, ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किया सू. २१ गते वा सेसे वा?, ता चउभागे गते वा सेसे वा, ता दिवद्धपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा?, ता पंचमभागे गते वा सेसे वा, एवं अद्धपोरिसिं छोई पुच्छा दिवसस्स भागं छोडं वाकरणं जाव ता: अद्धअउणासहिपोरिसीछायादिवसस्स किं गते वा सेसे वा?, ता एगूणवीससतभागे गते वा सेसे वा, ता अउणसडिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे चा बावीससहस्सभागे गते वा सेसे वा, ता सातिरंगअउणसहिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा?, ता णस्थि किंचि गते वा सेसे वा, तत्थ खलु माइमा पणवीसनिविट्ठा छाया पं०, तं०-खंभछाया रज्जुछाया पागारछाया पासायछाया उबग्गछाया उचत्तछाया अणुलोमछाया आरुभिता समा पडिहता खीलच्छाया पत्रच्छाया पुरतोउदया पुरिमकंठभाउवगता पच्छिमकंठभाउवगता छायाणुवादिणी किटाणुवादिणाछाया छायछाया (गोलछाया तत्व णं गोलच्छाया अट्ठविहा)पं०२०-गोलछाया अबद्धगोलच्छाया गाढलगोलछाया अवद्धगाढलगोल छाया गोलाबलिच्छाया अवहुगोलावलिच्छाया गोलपुंजछाया अवद्धगोलपुंजछाया॥ (सूत्रं ३१) ॥णवमं पाहुडं समत्तं ॥ HABAR अनुक्रम [४५] ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप 'ता कहकडं तेइत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां भगवन् ! त्वया सूर्यः पौरुषीच्छायां निवर्तयन्ना-II ख्यात इति वदेत् , एवमुके भगवान् प्रथमतो लेश्यास्वरूप विषये यावन्त्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थ खल इत्यादि, तत्र-तस्यां पौरुभ्यां छायायां विषये लेश्यामधिकृत्य खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चविंशतेः परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुः-ता इति पूर्ववत् , अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेव सूर्यः पौरुपीछायां, इह लेश्यावशतः पौरुषीछाया भवतीति ततः कारणे कार्योपचारात् पौरुषीछायेति लेश्या द्रष्टव्या, तां निवर्तयति निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत् , किमुक्तं भवति -प्रतिक्षणमन्यामन्यां सूर्यो लेश्यां निवर्तयन् आख्यात इति वदेत्, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाहंसु, 'एवमित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन सूर्यपाठगमेन या एव ओजःसंस्थितौ पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः उक्ताः ता एव क्रमेणात्रापि नेतन्याः, तावद्यावच्चरमप्रतिपत्तिप्रतिपादकमिदं सूत्र-'एगे पुण एवमाहंसु-ता अणु-ओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेव सूरिप'इत्यादि, मध्यमास्त्वालापका एवं ज्ञातव्या'एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुर्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निवत्तेइ आहियत्ति वएज्जा 'एगे एवमाहेसु' इत्यादि, तदेवं लेश्याविषयाः परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति तद्विषयं स्वमतमाह-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः, कथमित्याह'ता सूरियस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , सूर्यस्य णमिति वाक्यालङ्कारे उच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः, किमुक्तं | भवति !-यथा सूर्य उचैरुचस्तरामधिरोहति यथा च मध्याह्लादूर्व नीचैस्तरामतिकामति एतदपि लौकिकव्यवहारापेक्षया उच्यते, लौकिका हि प्रथमतो दूरतरवर्तिनं सूर्य उदयमानमतिनीचैस्तरां पश्यन्ति, ततः प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं अनुक्रम [४५] A ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक तिवृत्तिः (मल) ॥९६॥ [३१] दीप भवन्तमुचैरुच्चस्तरां मध्याह्रादूर्व च क्रमेण दूरं दूरतरं भवन्तं नीचैींचैस्तरामिति, तथा यथा लेश्याः सञ्चरन्ति, तद्यथा- माभृते अतिनीस्तरां वर्तमाने सूर्ये सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुन उपरि प्लवमाना वस्तुनो दूरतः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य: पौरुषीछा या सू३१ वस्तुनो महती महत्तरा छाया भवति, उच्चैरुचस्तरां वर्द्धमाने सूर्ये प्रत्यासन्नाः प्रत्यासनतराः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य वस्तुनो हीना हीनतरा छाया भवति, सत एवं तथा तथा वर्तमानं सूर्यस्योच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायाया अन्यथाभवन्त्या उद्देशो ज्ञातव्यः, इह प्रतिक्षणं तत्तत्पुद्गलोपचयेन तत्तत्पुद्गलहान्या वा यत् छायाया अन्यत्वं तत्केवल्येव जानाति छमस्थस्तूद्देशतस्तत उक्तं-छायोद्देश इति, 'उत्तं च छायं च पडुच्च लेसोद्देस इति, तथा तथा विवर्त्तमानं सूर्यस्योधत्वं छायां च हीनां हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्तीं प्रतीत्य-आश्रित्य लेश्यायाः-प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं दूर दूरतरं वा परिपतन्त्या उद्देशो ज्ञातव्या, तथा 'लसं च छायं च पडुच उच्चत्तोडेसे' इति, लेश्या-प्रकाश्यस्य वस्तुनो दूरं दूरतरमासन्नमासनतरं परिपतन्तीं छायां च हीनां हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्तीं प्रतीत्य सूर्यगतस्योच्चत्वस्य तथा तथा विवर्त्तमानस्योद्देशो ज्ञातव्यः, किमुक्तं भवति -त्रीण्यप्येतानि प्रतिक्षणमन्यथान्यथा विवर्तन्ते, तत एकस्य द्वयस्य वा तथा तथा विवर्तमानस्योद्देशत उपलम्भादितरस्याप्युद्देशतोऽवगमः कर्त्तव्य इति । तदेवं लेश्यास्वरूपमुक्त, सम्प्रति पौरुष्याश्छायायाः परिमाणविषये परतीर्थिकप्रतिपत्तिसम्भव कथ-II॥९६ ॥ यति-तस्थे'त्यादि, तत्र-तस्यां पौरुष्याश्छायायाः परिमाणचिन्तायां विषये खस्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञ, तद्यथा-तत्र-1 लातेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुः अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्य उगमनमुहर्ते अस्तमयमुहूचे च अनुक्रम [४५] ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप चतुष्पौरुषी-चतुष्पुरुषप्रमाणां पुरुषग्रहणमुपलक्षणं तेन सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनश्चतुर्गुणां छायां निवर्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूर्ते च द्विपौरुषीं-द्विपुरुषप्रमाणां छायां सूर्यो निर्वर्त्तयति, अत्रापि ला पुरुषग्रहणमुपलक्षणं ततः सर्वस्यापि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणां छायां निवर्तयतीति द्रष्टव्यं, अनोपसंहारः-'एगे एक माइंसु' १, एके पुनरेवमाहुः-ता इति पूर्ववत्, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूत्रे च सूर्यो द्विपौरुषी-पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निवर्तयति, पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनो द्विगुणां छायां निर्वतैयतीत्यर्थः, तथा अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्योऽस्तमयमुहूर्ते उद्गमनमुहूर्तेच न काश्चिदपि पौरुषी छायां निर्वर्तयति । सम्प्रत्येते एव मते भावयति-तत्थे' त्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे चतुष्पौरुषी छायां सूर्यो निवर्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यों द्विपौरुषी छायां निवर्तयति, एवं स्वमतविभावनार्थमाहुः-'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा-पस्मिन् काले णमिति वाक्यालकारे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यश्चतुष्पौरुषी-चतुष्पुरुषप्रमाणां छायां निर्वयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयमुहुर्ने च, स चोद्गम-15 नमुहूर्तेऽस्तमयमुहूत्रं च चतुष्पौरुषी छायां निर्वर्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् प्रकाश्यवस्तुन उपरि प्लवमानां दूरं दूरतरं परिक्षिपन् नो चैव-नैव निर्वेष्टयन्-प्रकाश्यवस्खुन उपरिप्लवमानां प्रत्यासन्नं प्रत्यासनतरं परिक्षिपन तथा सति छायाया हीनहीनतरत्वसम्भवात् , 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा BA अनुक्रम [४५] ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [९], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः *सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ९१ ॥ प्राप्ता चत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, जघन्यो द्वादशमुहूर्ती दिवसः तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषी-पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्त्ते अस्तमयमुहर्त्ते च स च तदा द्विपौरुष छायां निर्वर्त्तयति, लेश्यामभिवर्द्धयन नो चैष निर्वेष्टयन् अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद्भावनीयः । तथा तत्र तेषां द्वयानां मध्ये ये वादिन एवमाहुःअस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे स सूर्यो द्विपौरुष छायां निर्वर्त्तयति अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यो न कांचिदपि पौरुषीं छायां निर्वर्तयति त एवं स्वमतविभावनार्थमाचक्षते- 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुत्त दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा - उद्गमन मुहूर्त्तेऽस्तमयमुहूर्त्ते च स च तदानीं द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैव निर्वेष्टयन्, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, जघन्यो द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसस्तस्मिंश्च दिवसे उद्गमनमुंहर्त्तेऽस्तमयमुहूर्त्ते च सूर्यो न काश्चिदपि पौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति, 'नो चेव ण'मित्यादि, न च-नैव तदानीं सूर्यो लेश्यामभिवर्द्धयन् भवति निर्वेष्टयन् वा, अभिवर्द्ध[य]ने अधिकाधिकतराया निर्वेष्ट [य]ने हीनहीनतरायाश्छायायाः सम्भवप्रसङ्गात् । तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं पृच्छति'ता कइकट्ठ'मित्यादि, यद्येवं परतीर्थिकानां प्रतिपत्ती 'ता' तर्हि भगवान् स्वमतेन त्वया कतिकाष्ठां किंप्रमाणां सूर्यः पौरुपीं छायां निर्वर्त्तयन् आख्यात इति वदेत् १ तत्र भगवान स्वमतेन देशविभागतः पौरुषीं छायां तथा तथा अनिय Eucation International For Parts Only ~ 201~ ९ प्राभृते पौरुषीछा या सू ३१ ॥ ९१ ॥ wor Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] तप्रमाणां वक्ष्यति, परतीथिकास्तु प्रतिनियतामेव प्रतिदिवस देशविभागेनेच्छति ततः प्रथमतस्तन्मताम्येषोपदर्शयति'तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्मिन् देशविभागेन प्रतिदिवसं प्रतिनियतायाः पौरुष्याश्छायाया विषये षण्णवतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां षण्णवतेः परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुर, ता इति पूर्ववत्, अस्ति स देशो यस्मिन् देशे |सूयें आगतः सन् एकपीरुषी-एकपुरुषप्रमाणां पुरुष ग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायाँ निर्वःयति, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाईसु'१, एके पुनरेवमाहुः अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्यो द्विपौरुषीं-द्विपुरुषप्रमाणां पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणामित्यर्थः, छायां निर्वर्त्तयति, अनोपसंहारः-'एगे एवमासु' २, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन-सूत्रपाठगमेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्र नेतव्यं तावद्यावच्चरमप्रतिपत्तिगतं सूत्र, तदेव खण्डशो दर्शयति-'छन्नउ'इत्यादि, एतचैवं परिपूर्ण द्रष्टव्यं-'एगे पुण पषमाइंसु, अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छन्न उइपोरसिं छायं निवत्तइ आहियत्तिवएज्जा एगे एवमाहंसु' मध्यमप्रतिपत्तिगतास्त्वालापकाः सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयाः, सम्प्रत्येतासामेव पण्णवतिप्रतिपत्तीनां भावनिकां चिकी-| राह-तत्धे'त्यादि, तत्र-तेषां षण्णवतिपरतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्य एकपौरुषी-प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायां निर्वःयति त एवं स्वमतविभावनार्थमाहुः-'ता सूरियस्स ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सूर्यस्य सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः-सूर्यप्रतिधानात् सूर्यनिवेशादित्यर्थः बहिनिःसृता या जलेश्यास्ताभिः 'साडिजमाणाहिं'ति ताज्यमानाभिरस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयादू भूमिभागाद्यावति सूर्य दीप अनुक्रम SSCREE *665555****** [४५] ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] सूर्यप्रज्ञ- ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन व्यवस्थित एतावताऽध्वना, सूत्रे चाधशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वात् , एकेन च छायानुमान-राते तिवृत्तिः माणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यदुदेशतः प्रमाणमनुमीयते तेन, इहाकाशदेशे सूर्यसमीपे प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणं नैव | पौरुषीछा(मल०) साक्षात् परिग्रहीतुं शक्यते किन्तु देशतोऽनुमानेन तत छायानुमानप्रमाणेनेत्युक्त, 'उमाए'त्ति अवमितः परिच्छिन्नो या सू३१ यो देश-प्रदेशो यस्मिन् प्रदेशे आगतः सन् सूर्य एकपौरुषी पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः ॥१२॥ प्रमाणभूतां छायां निवर्तयति, इयमत्र भावना-प्रथमत उदयमाने सूर्ये या लेश्या विनिर्गत्य प्रकाशमाश्रितास्ताभिः | प्रकाश्यवस्तुदेशे की क्रियमाणाभिः किश्चित्पूर्वाभिमुखमवनताभिः प्रकाश्येन च वस्तुना यः सम्भाव्यते परिच्छिन्न आकाशप्रदेशः तत्रागतः सूर्यः प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां छायां निवर्तयति, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या, 'तत्धेत्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्यो द्विपीरुपी छायाँ निर्वतयति त एवं स्वमतविस्फारणार्थमाहुर-ता सूरियस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् सूर्यस्य सर्वाधस्तात् सूर्यप्रतिधेः-सूर्यनिवेशाद्वहिनिःसृताभिर्लेश्याभिस्ताज्यमानाभिरस्था रत्नप्रभायाः पृधिव्या बहुसमरमणीयाद्भूमिभागादूर्ध्वमुच्चत्वेन व्यवस्थितः एतावनयां द्वाभ्यामद्धाभ्यां द्वाभ्यां छायानुमानप्रमाणाभ्यां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणाभ्यामवमितः-परिच्छिन्नो यो देशस्तन समागतः सूर्यो द्विपीरुषी-प्रकाश्यवस्तुनो द्विगुणां छायाँ निर्वयति, एवमेकैकप्रतिपत्तावेकैकच्छायानुमानप्रमाणवृत्या तावनेतव्यं यावत्पण्णवतितमा ट्रा R ॥ ६ ॥ प्रतिपत्तिः, तदूगतानि च सूत्राणि स्वयं परिभावनीयानि, सुगमत्वात् , तदेवमुक्काः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः । सम्पति स्वम-1 तमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेववक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'सातिरेगे'त्यादि, सूर्य दीप 649*9848 अनुक्रम [४५] ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 3% [३१] % दीप अनुक्रम +5%95 गिद्गमसमये अस्तम नसमये च सातिरेकैकोनषष्टिपुरुषप्रमाणां छायां निवर्तयति-पतदेव विभावयिपुराह-'ता अवहे। इत्यादि, अपगतमद्धे यस्याः सा अपार्द्धा सा चासौ पौरुषी च अपार्द्धपौरुषी छाया पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्थापि वस्तुनः प्रकाश्य स्थार्द्धप्रमाणा छाया, एवमुत्तरत्राप्युपलक्षणव्याख्यानं द्रष्टव्यं, दिवसस्य किं गते-कतमे भागे गते। | शेषे वेति-कतितमे भागे शेपे भवति !, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , दिवसस्य त्रिभागे गते भवति, दिव-| सस्य त्रिभागे वा शेषे, 'ताइत्यादि, पौरुषी पुरुषप्रमाणा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा इत्यर्थः, छाया कि गते-कतितमे | भागे गते शेषे वेति-कतितमे वा भागे शेषे भवति ?, भगवानाह-दिवसस्य चतुर्भागे गते चतुर्भागे शेषे वा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणभूता छाया अन्यत्र ग्रन्थान्तरे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्योता, तथा च नन्दि चूर्णिग्रन्ध:-"पुरिसत्ति संक पुरिससरीरं वा, ततो पुरिसे निप्फन्ना पोरिसी, एवं सबस्स वत्थुणो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति तदा पोरिसी। हवइ, एयं पोरिसिप्रमाणं उत्तरायणस्स अंते दक्षिणायणस्स आईए इकं दिणं भवइ, अतो परं अद्धएगसहिभागा अंगुलस्स दक्खिणयणे वहुंति, उत्तरायणे हस्संति, एवं मंडले २ अन्ना पोरिसी" इति, तत इदं सकलमपि पौरुषीविभाग-2 माणप्रतिपादनं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्यावसेयं, तथा 'ता'इति पूर्ववत् , ब्यर्द्धपौरुषी-सार्द्धपुरुषप्रमाणा छाया दिषसस्य किंभागे-कतितमे भागे गते भवति, किं शेषे वा-कतितमे वा भागे शेषे ?, भगवानाह-'ता' इति पूर्ववत् , दिवसस्य पञ्चमे भागे गते वा भवति, शेपे वा पञ्चमे भागे, 'एव'मित्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण अर्द्धपौरुषी-अर्द्धपुरुषप्रमाणां छायां क्षित्वा २ पृच्छा-पृच्छासूत्र द्रष्टव्यं, 'दिवसभाग'ति पूर्वपूर्वसूत्रापेक्षया एकैकमधिकं दिवसभागं क्षित्वा २ व्याकरण-उत्त [४५] CS ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत-], -------- ----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप सूर्यप्रज्ञ- रसूत्रं ज्ञातव्यं, तच्चैवम्-'विपोरिसी णं छाया किं गए वा सेसे वा?, ता छन्भागगए का सेसे वा, ता अड्डाइजपोरिसी 1 प्राभृते प्तिवृत्तिःण छाया किंगए वा सेसे वा?, ता सत्तभागगए वा सेसे वा इत्यादि, एतच्च एतावत् तावत् यावत् 'ता उगुणही त्यादि- पीरुपीछा(मल) सुगर्म, सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषी तु छाया दिवसस्य प्रारम्भसमये पर्यन्तसमये वा, तत आह-'ता नस्थि किंचि गए वाया सू२१ सेसे वा' इति, सम्प्रति छायाभेदान् ब्याचष्टे-'तत्थे'त्यादि, तत्र तस्यां छायायां विचार्यमाणायां खल्वियं पञ्चविंशति" विधाः छायाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा 'खंभछायेत्यादि, प्रायः सुगम, विशेषव्याख्यानं चामीपा पदानां शास्त्रान्तरायथासम्प्र दायं धाच्य, गोलछायेत्युक्तं ततस्तामेव गोलछायां भेदत आह-तत्थे'स्यादि, तत्र-तासां पञ्चविंशतिच्छायानां मध्ये खल्वियं गोलछाया अष्टविधा प्रज्ञता, तद्यथा-'गोलछाया' गोलमात्रस्य छाया गोलछाया, अपार्द्धस्य-अर्द्धमात्रस्य गोलस्य M छाया अपार्द्धगोलछाया, गोलानामावलिोलावलिस्तस्या छाया गोलावलिच्छाया अपार्द्धायाः-अपार्द्धमात्राया गोलावले. छाया अपार्द्धगोलावलिच्छाया, गोलानां पुञ्जो गोलपो गोलोत्कर इत्यर्थः तस्य छाया गोलपत्रछाया, अपार्द्धस्य-अर्द्ध-12 मात्रस्य गोलपुञ्जस्य छाया अपार्द्धगोल पुअच्छाया॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां नवम-प्राभृतं समाप्त तदेवमुक्तं नवमं प्राभृतं, सम्प्रति दशममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकासे यथा 'योग इति किं भगवन् । त्वया | समाख्यायते' इति, ततस्तद्विषयनिर्वचनसूत्रमाह ता जोगेति वत्थुस्स आवलियाणिवाते आहितेति वदेज्जा, ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स आवलियाणि अनुक्रम [४५] ॥१३॥ | अत्र नवमं प्राभूतं परिसमाप्तं अथ दशमं प्राभृतं आरभ्यते ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------- ------ मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२]] दीप वाते आहितेति वदेज्जा !, तत्य खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्धेगे एवमाइंसु ता सव्वेवि |णं णक्खत्ता कत्तियादिया भरणिपजवसाणा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाइंसु, ता सबेवि णं णक्खत्ता |महादीया अस्सेसपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाइंसु, ता सबेवि णं णक्खत्ता घणिहादीया सवणपज्जयसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमासु, ता सब्वेवि गं णक्खत्ता अस्सिणीआदीया रेवतिपज्जवसाणा प०, एगे एवमासु ४, एगे पुण एवमाहंसु-सब्वेविणं णक्खत्ताभरणीआदिया अस्सिणीपज्जवसाणा एगे एवमासु । वयं पुण एवं वदामो, सचेवि णं णक्वत्ता अमिईआदीया उत्तरा साढापजवसाणा पं०२०-अभिईसवणो जाव उत्तरासादा।। (सूत्रं ३२) दसमस्स पढम पाहुडपाहुई समत्तं ।।४ &ा 'ता जोगेति बत्थुस्से'त्यादि, ता इति आस्तां तावदन्यत्कथनीयं सम्प्रत्येतावदेव कथ्यते-योग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य 'आवलिकानिवायो'त्ति आवलिकया क्रमेण निपातः-चन्द्रसूर्यैः सह सम्पात आख्यातो मयेति वदेत् स्वशिप्येभ्यः, एवमुक्त भगवान् गौतमः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण भगवान् त्वया योग इति योगवस्तुनो-नक्षत्रजातस्यावलिकानिपातः स आख्यात इति वदेत् , भगवानाह-तस्थ खलु'इत्यादि, तत्र-तस्मिन्नक्षत्रजातस्यावलिकानिपातविषये खल्विमाः पञ्च प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ता,तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः-ता इति पूर्ववत् सर्वाण्यपि नक्षत्राणि कृत्तिकादीनि भरणिपर्यवसानानि प्रज्ञतानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात, अत्रैवोपसंहारः-'एगे एवमासु' १, एवं शेषप्रतिपत्तिचतुष्टयगता अनुक्रम [४६] AREasatirinternational अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-१ आरभ्यते ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------- ------ मूलं [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] दीप सूर्यप्रज्ञ- न्यपि सूत्राणि परिभावनीयानि, तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदर्थ सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं-12१०माभते न्यपि सूत्राणि सिवृत्तिः वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-ता सवेऽपि ण'मित्या दि, ता इति पूर्ववत्, सर्वाण्यपि नक्षत्राणिश्माभूत. (मल.) अभिजिदादीनि उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, कस्मादिति चेत् १, उच्यते, इह सर्वेषामपि सुषमसुषमादिरूपाणां नक्षत्राव कालविशेषाणामादि युग 'पए उ सुसमसुसमादयो अद्धाविसेसा जुगादिणा सह पवत्तंति जुगतेण सह समपंती'ति श्रीपा- कालिकासू१२ ॥५॥ दलिप्तसूरिवचनप्रामाण्यात , युगस्य चादिः प्रवर्तते श्रावणमासि बहुलपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे | चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति, तथा चोक्तं ज्योतिष्करण्डके-"सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइनक्खत्ते । सवत्थ पढमसमये जुगस्स आई वियाणाहि ॥१॥' अत्र सर्वत्र भरतैरवते महाविदेहे च, शेष सुगम, ततः इत्थं सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभिजिनक्षत्रस्य वर्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षत्राणि प्रजाताति. तास्येच तद्यथेलया- दिनोपदर्शयत्ति-अभिई सवणे'त्यादि, ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभूतस्य ।। प्राभूतप्राभूतं-१ समाप्त तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति द्वितीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो 'नक्षत्रविषयी मुहूर्तपरिमाणं वक्तव्य मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह४. ता कहं ते मुहत्ता य आहितेति वदेजा, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णवत्ताणं अस्थि णक्वते जेणं अनुक्रम [४६] CHECK अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [२], -------- ------ मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] प्रणव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तहिभागे मुहुत्तस्स चंदेणं सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोयं पजोएंति, अस्थि णक्खत्ता जेणं पणतालीसे मुहुत्ते चंदेणं सर्दि जोएंति, ता एएसिद ण अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं कयरे नक्खत्ते जे णं नवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुलुत्तस्स चंदेणं सद्धिं जोएन्ति, कयरे नक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएंति, कतरे नक्खत्ता जे तीस मुटुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंति, कतरे नक्खत्ता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सहि जोयं जोइंति ?, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तस्थ जे ते णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण ४सद्धिं जोयं जोएंति से णं एगे अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति लते णं छ, तं०-सतभिसया भरणी अद्दा अस्सेसा साति जेहा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे गं तीसं मुहत्तं चंदेण सद्धिं जोयं जोयति ते पण्णरस, तं०-सवणे धणिट्ठा पुबा भद्दवता रेवति अस्सिणी कत्तिया मग्गसिर पुस्सा महा| पुवाफग्गुणी हत्थो चित्ता अणुराहा मूलो पुवआसाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पणतालीसं मुहुसे चंदेण सर्द्धि जोगं जोएंति तेणंछ, तंजहा-उत्तराभहपद रोहिणी पुणवसू उत्तराफग्गुणी विसाहा उत्तरासादा(सूत्रं३३) | 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! प्रतिनक्षत्र मुहू ग्रं-मुहर्सपरिमाणमाख्यातमिति वदेत् १, ठाएवमुक्त भगवानाह-'ता एएसि 'मित्यादि, 'ता'इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्येऽस्ति तन्नक्षत्रं यन्नव मुहान एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति सप्तषष्टिभागान यावत् चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति-उपैति, तथा अस्ति-निपात दीप 15ॐॐॐॐॐ अनुक्रम [४७] ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------ मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयमज्ञप्तिवृत्तिः डा२प्राभृत (मल०) प्रत सूत्रांक [३३]] ॥१५॥ वाद् व्यत्ययाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चदश मुहूर्तान यावच्चन्द्रेण सह योगमुपयान्ति, तथा सन्ति तानि नक्ष- १० प्राभृते वाणि यानि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पश्चचत्वारिंशतं मुहर्त्तान यावञ्चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति, एवं सामान्येन भगवतोक्ने विशेषनिर्धारणार्थ भगवान पृच्छति गौतमः-ता एएसिण-K प्राभाते नक्षत्राणां मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये कतरनक्षत्रं यन्नव मुहूर्त्तानेकस्य च मुहर्सस्य सप्तविंशति चन्द्रेग सप्तपष्टिभागान् यावचन्द्रेण सह योगं युनक्ति, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चदश मुहूत्तोन यावचन्द्रेण सहयोग योगं युञ्जन्ति, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावचन्द्रेण सह योगमश्नवते, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चचत्वारिंशतं मुहर्तान् यावश्चन्द्रेण सार्द्ध योगमुपयन्ति, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-ता एएसिण'मित्यादि, 'ता'इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं नव मुहूर्त्तानेकस्य च मुहस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिभागान् यावचन्द्रेण सह योगं युनक्ति तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयं, कथमिति चेत्, उच्यते, इह अभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यैकविंशति भागान् चन्द्रेण सह योगमुपैति, ते च एकविंशतिरपि भागा मुहूर्तगतभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तथा च एतावान् कालमधिकृत्य सीमाविस्तारोऽभिजिन्नक्ष त्रस्थान्यत्राप्युक्तः “छ चेव सया तीसा भागाण अभिइ सीमविक्खंभो । दिवो सबडहरगो सधेहि अणंतनाणीहिं॥१॥ मातेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा नव मुहर्ता एकस्य च महतस्य सप्तर्षिशतिः सक्षषष्टिभागाः ९ क च-"अभि-12 इस्स चंदजोगो सत्तडीखंडिओ अहोरत्तो । भोगा य एगवीसं ते पुण अहिया नव मुहत्ता ॥१॥" तथा 'तत्थे'त्यादि, दीप अनुक्रम [४७] ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------.. ..-- प्राभतप्राभत [२], .......... ..... मुलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] दीप अनुक्रम [४७] तत्र-तेषामष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तान् यावश्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते तानि षट्, तद्यथा| शतभिषक् इत्यादि, तथाहि-एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्द्धान् त्रयस्त्रिं. |शद्भागान् यावच्चन्द्रेण सह योगो भवति, ततो मुहूत्र्तगतसप्तपष्टिभागकरणार्थ त्रयस्त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि नवत्यधिकानि ९९०, यदपि सार्द्ध तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्सस्य सप्तपष्टिभागास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातः पूर्वराषिः सहस्र पश्चोत्तरं १००५, तथा चैतेषां प्रत्येक कालमधिकृत्य सीमाविस्तारोह मुहूर्त्तगतसप्तषष्टिभागानां पञ्चोत्तरं सहनं, उक्तं च-"सयभिसयाभरणीए अद्दा अस्सेस साह जिहाए । पंचोत्तरं सहस्सं भागाणं सीमविक्खंभो ॥१॥" अस्य पञ्चोत्तरसहस्रस्य सप्तषट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहर्चाः, उक्तं च-"सय| भिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जिहा य । एए छन्नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ॥२॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति तानि पश्चदश, तद्यथा-'सवणों इत्यादि, तथाहिएतेषां कालमधिकृत्य प्रत्येक सीमाविष्कम्भो मुहर्तगतसप्तषष्टिभागानां दशोत्तरे वे सहने २०१०, ततस्तयोः सप्तपट्या भागे हृते लब्धाः त्रिंशन्मुहूर्ताः, तथा तत्र यानि नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशतं मुहर्तन यावचन्द्रेण साई योर्ग युञ्जन्ति तानि पद, तद्यथा-'अत्तरभद्रपदा इत्यादि, तेषां हि प्रत्येक कालमधिकृत्य सीमाविष्कम्भो मुहर्स-IM गतसप्तषष्टिभागानां त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि ३०१५, ततस्तेषां सप्तपथ्या भागे हते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशदेव मुहूर्त्ता लभ्यन्ते, उक्तं च-"तिमेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता पणयालमुहुत्ससंजोगा ॥१॥ ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [४७] सूर्यज्ञसिवृत्तिः ( मल० चन्द्रप्रज्ञप्ति" - · उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२], मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. .. आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः अवसेसा नक्खत्ता पनरस ए हुति तीसइमुहुत्ता। चंदंमि एस जोगो नक्खत्ताणं समक्खाओ ॥ २ ॥” तदेवमुक्तो नक्ष त्राणां चन्द्रेण सह योगः, सम्प्रति सूर्येण सह तमभिधित्सुराह— Education International ॥ ॥ २०५ तातेसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्वत्ते जेणं चत्तारि अहोरते छच मुहुत्ते सूरेण सद्धि २ जोयं जोएंति, अस्थि गवखत्ता जेणं छ अहोरते एकवीस व मुहते सूरेण सद्धिं जोयं जोति, अस्थि ॐ णक्खन्ता जेणं तेरस अहोरते वारस य मुहते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति अस्थि णक्खन्ता जेणं वीसं अहोरसे तिष्णिय मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खते जं वत्तारि अहोरते छच्च मुहुसे सूरेण सद्धिं जोयं जोपंति, कतरे णक्खन्ते जेणं छ अहोरते एकवीसमुत्ते सूरेणं सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जेणं तेरस अहोरते वारस मुहते सूरेण सद्धिं जोयं जोति कतरे णक्खत्ता जे णं वीसं अहोर ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जे से णक्खते जेणं चत्तारि अहोरते छच मुहते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति से णं अभीषी, तत्थ जे ते क्खता जे छ अहोरन्ते एकवीसं च मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ, तं०- सतभिसया भरणी अदा अस्सेसा साती जेट्ठा, तत्थ जे ते तेरस अहोरते दुवालस य मुहते सूरेण सद्धिं जोयं जोति ते पणरस, तंजहा-सवणो धणिट्ठा पुचाभवता रेवती अस्सिणी कतिया मग्गसिरं पूसो महा पुजाफरगुणी हत्थो चित्ता अणुराधा मूलो पुवाआसाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं बीसं अहोरते तिष्णि य मुहते सुरेण For Park Lise Only ~ 211~ १० प्राभृते २ प्राभूतप्राभृते नक्षत्राणां सूर्योण यो गः सू ३४ १०२ ॥ ९६ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) -------------.. ..-- प्राभतप्राभत [२], .......... ..... मुलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम सिद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ, तंजहा-उत्तराभवता रोहिणी पुणवसू उत्तरफग्गुणी विसाहा उत्तरासाढा (सूत्रं ३४) दसमस्स वितीयमिति ॥ IFA ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽस्ति तन्त्रक्षन यवतरो|ऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान् यावत् सूर्येण साह योगमुपैति, तथा अस्तीति सन्ति तानि यानि षट् अहोरात्रान् एकवि-1 शतिं च मुहूर्तान् सूर्येण सार्द्ध योग युञ्जन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश मुहूर्तान् यावत्सूर्येण सह योगमुपयन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि विंशतिमहोरात्रान् बीन मुहूर्तान यावत्सूर्येण समं| योग युद्धन्ति, एवं भगवता सामान्येनोक्त विशेषावगमनिमित्तं भूयोऽपि भगवान् गीतमः पृच्छति-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवान् निर्वचनमाह-ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेनेक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहर्त्तान् सूर्येण सार्ड योग युनक्ति तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयं, तथाहि-सूर्ययोग-1 विषयं पूर्वाचार्यप्रदर्शितमिदं प्रकरणं-"ज रिक्खं जावइए वच्चइ चंदेण भाग सत्तडी । तं पणभागे राईदियस्स सूरेण | तावइए ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-यत् ऋक्ष-नक्षत्रं यावतो राबिन्दिवस्य-अहोरात्रस्य सम्बन्धिनः सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण सह योग व्रजति तन्नक्षत्रं रात्रिन्दिवस्य पश्चभागान् तावतः सूर्येण समं ब्रजति, तत्राभिजिदेकविंशति । सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण समं वर्तते, तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं वर्तमानमवसेयं, एकविंशतिश्च पञ्च-18 मिभोगे हते लब्धाश्चत्वारोऽहोरावाः एकः पञ्चमो भागोऽवतिष्ठते, स मुहर्मोनयनाय त्रिंशता गुण्यते, जाता त्रिंशत्तस्याः [४८] ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥१०३॥ [३४] दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ- हि पञ्चभिर्भागे हुते लब्धाः षण्मुहर्ता इति, उक्त च-"अभिई छच्च मुहुत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्ते । सूरण सम वच्चइ/१० प्राभृते प्तिवृत्तिः इत्तो सेसाण बुच्छामि ॥१॥"[ग्रंथा० ३०००] तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि षट् २प्राभृत(मल०) अहोरात्रानेकविंशतिं च मुहर्सान् यावत् सूर्येण समं योगमुपयन्ति तानिपटू, तद्यथा-सयभिसया'इत्यादि, तथाहि- माभृतं, एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण सम सार्खान अयखिंशत्सङ्ख्याकान् सप्तपष्टिभागानहोरात्रस्य ब्रजन्ति अपार्द्धक्षेत्रत्वादे- नक्षत्रासूय तेषां, तत एतावतः पञभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं वजन्तीति प्रत्येयं, प्रागुक्तकरणप्रामाण्यात्, त्रयस्त्रिंशतश्च पश्चभि योगासू३४ भीगे हृते लब्धाः षट् अहोरात्राः, पश्चादवतिष्ठन्ते सा स्त्रयः पञ्चभागाः, ते सवर्णनाया जाताः सप्त, मुहू नयनाय |त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे शते दशोत्तरे २१०, एते च मुहार्द्धगते, ततः परिपूर्णमुह नयनाय दशभिर्भागो हियते, | लब्धा एकविंशतिर्मुहाः, उच-"सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जिहा य । वचंति मुहुत्ते इतकवीस छञ्चेवऽहोरत्ते ॥ १॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश च मुहर्तान् यावत् सूर्येण समं योगं युञ्जन्ति तानि पञ्चदश, तद्यथा-'सवणो' इत्यादि, तथाहि-अमूनि परिपूर्णान् सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण समं ब्रजन्ति, ततः सूर्येण सह एतानि पञ्चभागानप्यहोरात्रस्य सप्तपष्टिसयान गच्छन्ति, सप्तपष्टेच ॥१०॥ | पञ्चभिर्भागे लब्धास्त्रयोदश अहोरात्राः, शेषौ च द्वौ भागौ तिष्ठतः, तौ त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिः, तस्याः पञ्चभि-I भोगे हते लब्धा द्वादश मुहाः , उक्तं च-“अवसेसा नक्खत्ता पचरसवि सूर सहगया जंति । बारस चेव मुहुत्ते तेर-18 सय समे अहोरते ॥१॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतिर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि विंशतिमहोरात्रान् श्रीन मुहू [४८] ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [२], -------- ------ मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] कासव दीप अनुक्रम तन् यावत्सूर्येण समं योगमश्नुवते तानि षट्, तद्यथा-'उत्तरभवया इत्यादि, एतानि हि षडपि नक्षत्राणि प्रत्येक चन्द्रेण सम सप्तषष्टिभागानां शतमेकस्य च सप्तषष्टिभागस्यार्द्ध ब्रजन्ति, तत एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजनमवगन्तव्यं, शतस्य च पश्चभिर्भागे हृते लब्धा विंशतिः अहोरात्राः, यदपि चैकस्य पञ्चभागस्यार्द्धमुद्धरति | & तदपि त्रिंशता गुण्यते, जाता त्रिंशत, तस्या दशभिर्भागे हुते लब्धास्त्रयो मुहर्ता इति ॥... इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- २ समाप्तं उक्तं दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति तृतीयमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारः-एवंभागानि नक्ष| त्राणि वक्तव्यानी ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते एवंभागा आहितातिवदेजा ?, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णवत्ता एवंभागा समखेत्ता पं०, अस्थि णक्खत्ता पच्छभागा समक्खेत्ता तीसमुहुत्ता पं०, अस्थि णक्षत्ता णतंभागा अवडखेत्ता पण्णरसमुहत्ता पं०, अस्थि णक्खत्ता उभयंभागा दिवङखेत्ता पणतालीसं मुहत्तापं०,ता एएसिणं अट्ठावीसाए णवत्ताणं कतरे णक्खत्ता पुर्वभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० कतरे कतरे कतरे नक्खत्ता उभयंभागा दिवहखेत्ता पणतालीसतिमुहुत्ता पं०,ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णकखत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता पुवंभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-पुच्चापोहवता कत्तिया मघा पुवाफग्गुणी मूलो! [४८] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [२], ---------------------- मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ANG प्रत सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक ॥१०४॥ [३५] दीप पुषासाढा, तत्थ जे णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं०,ते दस, तंजहा-अभिई सवणो धिणिट्ठा रेवती अस्सिणी मिगसिरं पूसो हत्थो चित्सा अणुराधा, तत्थ जे ते णक्खत्ता संभागा अद्धर-18प्राभूत १०माभृते खेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-सयभिसया भरणी अद्दा अस्सेसा साती जेट्ठा, तत्थ जे ते XI प्राभृतं पक्वत्ता उभयंभागा दिवडखेत्ता पण्णतालीसं मुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-उत्तरापोट्ठवता रोहिणी पुण-पश्चाद्धागावसू उत्तराफग्गुणी विसाहा उत्तरासाढा (सूत्रं ३५) दसमस्स ततियं पाहडपाहुढं समतं ॥ दीनि सू३५ | 'ता कहं तेइत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया एवंभागानि-वक्ष्यमाणप्रकारभागानि नक्षत्राणि आख्यातानि इति भगवान् वदेत् !, एवमुक्के भवगानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, एते| पामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पूर्वभागानि-दिवसस्य पूर्वभागश्चन्द्रयोगस्यादिमधि-3 कृत्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि 'समक्खेत्ता' इति सम-पूर्णमहोरात्रप्रमित क्षेत्रं चन्द्रयोगमधिकृत्यास्ति येषां तानि समक्षेत्राणि अत एव त्रिंशन्मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पश्चाद्भागानि-दिवसस्य पश्चात्तनो भागश्चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पश्चाभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि 'नक्कंभागानि' नक्तं-रात्री चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भागः-अवकाशो येषांतानि तथा, 'अपार्द्धक्षेत्राणी ॥१०॥ ति अपगतमर्द्ध यस्य तदपाई, अर्द्धमात्रमित्यर्थः, अपार्द्धमर्द्धमात्र क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं येषां चन्द्रयोगमधिकृत्य तानि अपार्द्धक्षेत्राणि, अत एव पश्चदशमुहूर्तोनि, पञ्चदश चन्द्रयोगमधिकृत्य मुहर्चा विद्यन्ते येषां तानि तथा प्रजातानि, तथा अनुक्रम [४९] ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [४९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२] मूलं [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि नक्षत्राणि 'उभयभागानि' उभयं-दिवसरात्री तस्य दिवसस्य रात्रेश्चेत्यर्थः, चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भागो येषां तानि तथा, तथाहि - व्यर्द्धक्षेत्राणि, द्वितीयमर्द्ध यस्य तद् द्व्यधै सार्द्धमित्यर्थः, द्वार्द्ध-सार्द्धमहोरात्रप्रमितं क्षेत्रं येषां तानि तथा, अत एव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि एवं भगवता सामान्येनो के विशेषावबोधनार्थं भगवान् गौतमः पृच्छति-ता एएसि णमित्यादि सुगमं, भगवान् प्रतिवचनमाह - 'ता एएसि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि तानि षट्, तद्यथा - 'पुचपुढवया' इत्यादि, एतच्चानन्तरे एवं प्राभृतप्राभृते योगस्यादौ चिन्त्यमाने भावयिष्यते, तथा तेषामष्टाविं शतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहर्त्तानि प्रज्ञप्तानि तानि दश, तथथा - 'अभिई' इत्यादि, तथा तत्र तेषां अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि नतभागानि अपार्द्धक्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तानि प्रज्ञघानि तानि पटू, तथथा- 'सयभिसया' इत्यादि, तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राण्युभयभागानि तानि व्यर्द्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्त्तानि तानि षट् तथथा- 'उत्तरापुह्वया' इत्यादि, सर्वत्रापि च भावना अग्रेऽनन्तरमेव भावयिष्यते ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ३ समाप्तं - तदेवमुक्तं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते तस्य चायमर्थाधिकारो 'योगस्यादिर्वकव्य' इति, किञ्च पूर्वमनन्तरप्राभृतमाभृते नक्षत्राणां पूर्व भानगतायुक्तं, तच्च योगत्यादिपरिज्ञानमन्तरेण नावगन्तुं शक्यते ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह Education Internation For Park Lise Only अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ४ आरभ्यते ~ 216~ 66 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [४], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक मा [३६] दीप सूर्यप्रज्ञता कहं ते जोगस्स आदी आहिताति वदेवा!,ता अभियीसवणा खलु दुवे णक्खत्ता पच्छाभागा सम- १० पाभृते प्तिवृत्तिः खिता सातिरेगऊतालीसतिमुहुत्ता तपढमयाए सायं चंदेण सदि जोयंजोएंति, ततो पच्छा अवरं सातिरेयं ४४ प्राभृत. (मल.) दिवसं, एवं खलु अभिईसवणा दुवे णक्खत्ता एगराई एगं च सातिरेग दिवसं चंदेण सर्टि जोगं जोएंति, प्राभूत योगादिः ॥१०५॥ जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियइंति जोयं अणुपरियहित्ता सायं चंदं धणिट्ठाणं समप्पंति, ता पणिहा खलु| सू३६ णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, २ सा चंदणं सद्धिं जोगं जोएत्ता ततो पच्छाराई अवरंच दिवसं, एवं खलु धणिहाणक्खत्ते एगं चराई एगंच दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टिति जोयं अणुपरियहित्ता सागं चंदं सतभिसयाणं समप्पेति ता सयभिसया खलु णक्वत्ते णतंभागे अबढे खेत्ते पपणरसमुहत्ते पदमताए सागं चंदेण सहिं जोएति को लभति अवरं दिवसं, एवं खलु संयभिसया णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सविंद जोपं जोएति, जोयं जोएसा| जोयं अणुपरियट्टति, जोयं अणुपरियट्टित्ता तो चंदं पुवाणं पोट्ठवताणं समप्पेति, ता पुवापोट्ठवता खलु नक्खत्ते पुर्षभागे समखेते तीसतिमुहते तप्पक्षमताए पातो चंदेणं सद्धिं जोपं जोएति, ततो पच्छा अबरराई, साएवं खलु पुवापोडवताणक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुप ४ ॥१०५॥ रियति २ पातो चंदं उत्तरापोहचताणं समप्पेति, ता उत्तरपोढवता खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवहखेसे 31 पणतालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएति अवरं च रातिं ततो पच्छा अवरं दिवस, अनुक्रम [५०] ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [१०] एवं खलु उत्तरापोट्ठवताणक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएति अवरं च रातिं, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु उत्सरापोहवताणक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएति जोइत्ता जोयं अणुपरियति त्ता सागं चंदं रेवतीणं समप्पेति, ता रेवती खलु णक्खत्ते पच्छभागे समखेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पतमताए सागं चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रेवतीणक्खत्ते एग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियति २त्ता सागं चंदं अस्सिणीणं समप्पेति, ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छिमभागे समवेत्ते तीसतिमुहुत्ते तपढमताए सागं चंदेण सदि जोयं जोएति, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु अस्सिणीणक्खत्ते एर्ग च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोगं अणुपरियड २सा सागं चंदं भरणीणं समप्पेति, ता भरणी खलु णक्खत्ते णसंभागे अवड्डखेत्ते पण्णरसमुहत्ते तप्पढमताए सागं चंदेण सद्धिं जोय जोएति, णो लभति अवरं दिवसं, एवं खलु भरणीणक्खत्ते एर्ग राई चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियति २त्ता पादो चंदं कत्ति-X &याणं समप्पेति, ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुचंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमताए सागं चंदेणं सद्धिं जोगं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियइ २ हित्ता पादो चंदं रोहिणीणं समप्पेति, रोहिणी जहा उत्तरभद्दवता मगसिरं जहा धणिहा अद्दा जहा सतभिसया पुणवसु जहा उत्तराभद्दवता पुस्सो जहा धणिट्ठा है अस्सेसा जहा सतभिसया मघा जहा पुवाफग्गुणी पुवाफग्गुणी जहा पुवाभहवया उत्तराफग्गुणी जहा ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [४], --------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञठिवृत्तिः (मल०) ॥१०६॥ [३६] 553 दीप अनुक्रम उत्तराभहवता हस्थो चित्ता य जहा धणिट्ठा साती जहा सतभिसया विसाहा जहा उत्तरभद्दयदा अणुराहा| प्रभात जहा धणिट्ठा सयभिसया मूला पुवासाढा य जहा पुखभद्दपदा उत्तरासादा जहा उत्तराभद्दवता (सूत्रं ३६)॥ दसमस्स चउत्थं पाहुडपाहुई समतं ।' प्राभृत | 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं त्वया भगवन् योगस्यादिराख्यात इति वदेत् ?, इह निश्चयनयमतेन योगादिः चन्द्रयोगस्यादिः सर्वेषामपि नक्षत्राणामप्रतिनियतकालप्रमाणा, ततः सा करणवशादवगन्तव्या, तच्च करणं ज्योतिष्कर-] ण्डके समस्तीति तट्टीको कुर्वता तत्रैव सप्रपञ्च भाषितं अतस्ततोऽवधार्य, अत्र तु व्यवहारनयमधिकृत्य बाहुल्येन यस्य नक्षत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्यादिर्भवति तमभिधित्सुराह-अभीइ'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, द्वे अभिजिच्छवणाख्ये नक्षत्रे पश्चामागे समक्षेत्रे, इहाभिजिन्नक्षत्रं न समक्षेत्रं नाप्यपार्द्धक्षेत्रं नापि बर्द्धक्षेत्रं, केवलं श्रवणनक्षत्रेण सह सम्बद्धमु-४ पात्तमित्यभेदोपचारात् तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रमित्युक्तं, सातिरेकैकोनचत्वारिंशन्मुहर्सप्रमाणे, तथाहि-साति-| रेका नव मुहूर्त्ता अभिजितस्त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्तं मुहूर्तपरिमाणं भवति, तत्प्रथमतया-चन्द्रयोगस्य प्रथमतया सायं-विकालवेलायां, इह दिवसस्य कतितमाचरमाद्भागादारभ्य यावदानेः कतितमो भागो यावन्नाद्यापि परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकस्तावान् कालविशेषः सायमिति विवक्षितो द्रष्टव्यः, तस्मिन् सायंसमये चन्द्रेण सार्द्ध योग युतः, इहाभिजिन्नक्षवं यद्यपि युगस्यादी. प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति तथापि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विवक्षित, १०६ । श्रवणनक्षत्रं च मध्याह्रादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपादत्ते ततस्तत्साहचर्यात् तदपि सायंसमो चन्द्रेण [१०] ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [४], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] +5+%434 दीप अनुक्रम [१०] युज्यमानं विवक्षित्वा सामान्यतः सायं चन्द्रेण 'सद्धिं जोगं जुजति' इत्युक्त, अथवा युगस्यादिमतिरिच्यान्यदा बाहुस्यमधिकृत्येदमुक्तं ततो न कश्चिदोषः, 'ततो पच्छा इत्यादि, पश्चात्-तत ऊर्ध्वं अपरमन्यं सातिरेक दिवसं यावत्, एतदेवोपसंहारच्याजेन व्यक्तीकरोति—'एवं खलु इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण खल्षिति निश्चये अभिजिच्छ्रचणे दे नक्षत्रे सायंसमयादारभ्य एकां रात्रि एकं च सातिरेक दिवसं चन्द्रेण सार्द्ध योगं युक्तः, एतावन्तं च कालं योगं युक्त्वा तद|नन्तरं योगमनुपरिवर्तयते, आत्मनश्च्यावयत इत्यर्थः, योगं चानुपरिवर्त्य सार्य दिवसस्य कतितमे पश्चामागे चन्द्रं धनिछायाः समर्पयतस्तदेवमभिजिच्छ्रवणधनिष्ठाः सायंसमये चन्द्रेण सह प्रथमतो योगं युञ्जन्ति, तेनामूनि त्रीण्यपि पश्चाझा-13 गान्यवगन्तव्यानि, 'ता'इत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं धनिष्ठा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं, सायंसमये तस्य प्रथमतश्चन्द्रेण |सह युज्यमानत्वात् , समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायंसमये चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, चन्द्रेण सह योग युक्त्वा ततः सायंसमयादूच ततः पश्चाद्रात्रिमपरं च दिवसं यावद्योगं युनक्ति, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्याचष्टे-'एवं खल्वि त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्रं शतभिषजः समर्पयति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलावलोके, तत| इदं नक्षत्रं नक्तंभाग द्रष्टव्यं, तथा चाह-'ता'इत्यादि, ता इति ततः समर्पणादनन्तरं शतभिषक् नक्षत्रं खलु नकंभाग-3 ममार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त तत्प्रथमतया चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, तच्च तथायुक्तं च सन्न लभते अपरं दिवसं, पञ्चदशमुहर्त्तप्रमाणत्वात् , किन्तु राज्यन्तरेव योगमधिकृत्य परिसमाप्तिमुपैति, तथा चाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावघोगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं पूर्वयोः प्रोष्ठपदयोः-भद्रपदयोः समर्पयति, इह पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथम other ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [४], --------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमश प्रत तिवृत्तिः (मल०) SRI प्राभृतं सूत्रांक ॥१०७॥ [३६] दीप तया योगा प्रवृत्त इतीदं पूर्वभागमुच्यते, तथा चाह–ता पुर्वेत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं पूर्वप्रोष्टपदानक्षत्रं खलु १० प्राभृते पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्पथमतया प्रातश्चन्द्रेण सह योग युनक्ति, तच्च तथायुक्तं सत् ततः प्रातः समयादूर्व तं ४ प्रामृत सकलं दिवसमपरां च रात्रिं यावद्वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेनाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगमं यावद्योगमनुपरिवत्यै पातश्चन्द्रभुत्तरयोः प्रोष्ठपदयोः समर्पयति, इदं किलोत्तराभद्रपदाख्यं-नक्षत्रमुक्तप्रकारेण पातश्चन्द्रेण सह योगमधि योगादिः | गच्छति, केवलं प्रथमान् पञ्चदश मुहूर्तान् अधिकानपनीय समक्षेत्रं कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते तदा नक्तमपि योगो-II |ऽस्तीत्युभयभागमवसेयं, तथा चाह-'ता'इत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं (उत्तर) प्रोष्ठपदानक्षत्रं खलूभयभागं ब्यर्द्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया-योगप्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, तब तथायुक्तं सत्तं सकलमपि दिवसमपरां च रात्रिं ततः पश्चादपरं दिवसं यावद् वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति-'एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्र रेवत्याः समर्पयति, तत्र रेवतीनक्षत्रं सायंसमये चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततस्तत्पश्चाद्भागमवसेयं, तथा चाहता रेवई' इत्यादि, 'ता' इति ततः समर्पणादनन्तरं शेष सुगम, इदं च चन्द्रेण सह युक्तं सत्सायसमयादर्दू सकलां रात्रिं अपरं च दिवस यावचन्द्रेण सह युक्तमवतिष्ठते, समक्षेत्रत्वात् , एतदेवोपसंहारत आह-'एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्रमश्चिन्याः समर्प ॥१०७॥ यति, तत इदमप्यश्विनीनक्षत्रं सायंसमये चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् पश्चामागमवसेयं, तथा चाह-'ता'इत्यादि। सुगम, नवरमिदमपि अश्विनीनक्षत्रं समक्षेत्रत्वात् सायंसमयादारभ्य ता सकलां रात्रिमपरं च दिवसं यावश्चन्द्रेण सह अनुक्रम [१०] ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [४], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [१०] सायुक्तमवतिष्ठते, एतदेवोपसंहारव्याजेनाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगर्म, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायं प्रायः परिस्फुटनक्ष-13 |ब्रमण्डलालोकसमये चन्द्र भरण्याः समर्पयति, इदं च भरणीनक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्री चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततो नक्तंभागमबसेयं, तथा चाह-ताभरणी'त्यादि, पाठसिद्ध, नवरमिदमपार्द्धक्षेत्रत्वाद्रात्रावेव योग परिसमापयति, ततो न लभते चन्द्रेण सह युक्तमपरं दिवस, एतदेवोपसंहारव्याजेन परिस्फुटयति-एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य | प्रातश्चन्द्रं कृत्तिकानां समर्पयति, इदं च कृत्तिकानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः पूर्वभागमवसेयं, एतदेवाह-ता कत्तियेत्यादि सुगम, नवरमिदं समक्षेत्रत्वात् प्रातःसमयादूर्व सकलं दिवसं ततः पश्चाद्रात्रि परिपूर्णा चन्द्रेण सह युक्तं वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति एवं खलु इत्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं रोहिण्याः समर्पयति, इदं च कृत्तिकानक्षत्रं यद्धक्षेत्रं, अतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं प्रतिपत्तव्यं, 'रोहिणी जहा उत्तरभद्दवय'त्ति रोहिणी यथा प्रागुत्तरभद्रपदा उक्ता तथा वक्तव्या, सा चैवम्-'ता रोहिणी खलु नक्खत्ते उभयभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु रोहिणीनक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियहेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं मिगसिरस्स समप्पेइ 'मिगसिरं जहा धणि?'त्ति मृगशिरा नक्षत्रं यथा पार धनिकायोक्ता तथा वक्तव्या, तद्यथा-'ता मिगसिरे नक्खत्ते पच्छंभागे तीसइमुहसे तपढमयाए सायं चंदेण सदि जोगी जोएइ, सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएत्ता ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु मिगसिरे नक्खत्ते एगं राई एगं च दिवस ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] सू३६ सूर्यप्रज्ञ- चन्देण सद्धिं जोयं जोएड, जोगं जोइता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अदाए समप्पेई' अत्र १० प्राभूत प्तिवृत्तिः सायमिति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये अत एवैतन्नक्तंभाग, तथा चाह-'अहा जहा सयभिसया आ ४प्राभृत(मल.) यथा प्राक् शतभिषगभिहिता तथाऽभिधातच्या, सा चैवम्-'ता अद्दा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अबहुखेत्ते पारसमुहुरो रामाभृतं ॥१०८॥ मतपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभेइ अवरं दिवस, एवं खलु अहा एग राई चंदेण सद्धिं जोर्ग जोएइ, योगादिः जोयं जोएत्ता जोय अणुपरियट्टेइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुणधसूर्ण समप्पेई' इदं च पुनर्वसुनक्षत्रं व्यर्ब-14 नत्वात् प्रागुक्तयुक्तः उभयभागमवसेयं, तथा चाह-'पुणवसू जहा उत्तरभदवया पुनर्वसुनक्षत्रं यथा प्राक् उत्तरभन्न-1 पदानक्षत्रमुक्त तथा वक्तव्यं, तच्चैवम्-'ता पुणवसू खलु नक्खत्ते उभयभागे दिवडते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अपरं च राई ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु पुणवसू नक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सचिं जो जोपइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियडेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्येह इदं च पुष्यनक्षत्रं सायंसमये दिवसाचसानरूपे चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततः पश्चादागमवसेयं, तथा चाह|'पुस्सो जहा पणिहा' पुष्यो यथा पूर्व धनिष्ठाऽभिहिता तथाऽभिधातव्या, तद्यथा-ता पुस्से खलु नक्खत्ते पच्छभागे | समक्खे से तीसइमुहुत्ते तपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोएचा ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु पुस्से १०८। नक्खत्ते एर्ग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएड, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियडेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं असिलेसाए समप्पेइ, इदं चाश्लेषानक्षत्रं सायंसमये-परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकरूपे प्रायश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, दीप अनुक्रम [५०] %AM CASCANAK A nmurary.org ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [४], --------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम तत इद नभागमवसेयं, अपार्द्धक्षेत्रत्वाच तस्यामेव रात्री योग परिसमापयति, तथा चाह-'असलेसा जहा सपभि-2 सया' यथा शतभिषक् प्रागभिहिता तथा अश्लेषापि वक्तव्या, सा चैवम्-'ता असिलेसा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अबहुखेत्ते ४ | पारसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जो जोएत्ता नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु असिलेसान क्खन्ने एग राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ जोयं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेह, जोगं अणुपरियहित्ता पाओ चंदं मघाणं । | समप्पेइ,'इदं च मपानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमश्नुते, ततः पूर्वभागमवसातव्यं, तथा चाह-मघा यथा| पूर्वफाल्गुनी तथा द्रष्टच्या, तद्यथा-'ता मघा खलु नक्खत्ते पुषभागे समक्खेते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ततो पच्छा अवरं राई, एवं खलु मघानक्वत्ते एग दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियट्टे जोगं अणुपरियहित्ता पाओ चंदं पुवफग्गुणीणं समप्पेइ,' इदमपि पूर्वफाल्गुनीनक्षत्र प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुक्तनीत्या समधिगच्छति, ततः पूर्वभागं प्रत्येतन्यं, तथा चाह-'पुवाफग्गुणी जहा पुचभद्दवया, यथा प्राक् पूर्वभाद्रपदाऽभिहिता तथा पूर्वफाल्गुन्यप्यभिधातव्या, तद्यथा-'ता पुषफग्गुणी खलु नक्खसे पुषभागे सम-1 झित्ते तीसमुहुत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोइं जोएइ, ततो पच्छा अवरं राई, एवं खलु पुवाफग्गुणीनक्खत्ते यं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोर्ग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंद स्वराणं फल्गुणीणं समप्पेई पतरोत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं यक्षेत्रमतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं वेदितव्यं, तथा चाह-- बसरफराणीजहा उत्तरभदयया' यथा प्रागुत्तरभद्रपदोक्का तमोत्तरफाल्गुन्यपि वकन्या, सा चैव-'उत्तरफग्गुणी 31 [५०] ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [४], --------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) ॥१०॥ [३६] दीप | खलु णक्खत्ते पणयालीसइमुहुसे तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं च दिवस, १० प्राभृते | एवं खलु उत्तरफग्गुणीनक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोग अणुपरियट्टेइ जोगं प्राभृत| अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं हत्थस्स समप्पेइ,' इदं च हस्तनक्षत्रं सायं-दिवसावसानसमये चन्द्रेण सह योगमधिरोहति प्राभूत तेन पश्चाद्भागमवसेय, चित्रानक्षत्रं तु किश्चित्समधिके दिवसावसाने चन्द्रयोगमधिगच्छति, ततस्तदपि पश्चाद्भाग मन्तव्यं, पैतदेवाह-'हत्थो चित्ता य जहा धणिवा' यथा धनिष्ठा तथा हस्तं चित्रा च वक्तव्या, तद्यथा-ता हत्थे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु हत्थनक्खचे एग राई एगं च दिवस चंदेण सद्धिं जोगं जोषद, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियो जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं चित्ताए समप्पेइ'त्ति, 'ता चित्ता खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु चित्ता नक्खत्ते एगं राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं में जोएइ, जोयं जोइत्ता जोगं अणुपरियडे जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं साईए समप्पेई, स्वातिश्च सायं-प्रायः परि-2 स्फुटदृश्यमाननक्षत्रमण्डलरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैति, तत इयं नक्तंभागा प्रत्येया, तथा चाह-'साई जहां सयभिसया यथा शतभिषक् तथा वक्तव्या, सा चैवम्-'साई खलु नक्खत्ते नभागे अवलुखेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभेइ अवरं दिवसं, एवं खलु साई नक्खत्ते एर्ग राईचंदेण सद्धिं जोयं जोएड, जोग जोइत्ता जोग अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं विसाहाणं समप्पेई' इदं च विशाखानक्षत्रं व्यर्द्धक्षेत्र, अतः अनुक्रम [५०] SHRASEX ॥१०९ ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [४], ---------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागमवगन्तव्यं, तथा चाह-विसाहा जहा उत्सरंभदयया' यथा उत्तरभद्रपदा तथा विशाखा वक्तव्या, तद्यथा-'ता विसाहा खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवट्ठखित्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पडमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं | जोएइ अवरं च राई, तओ पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु विसाहानक्खत्ते दो दिवसं एगं च राई चंदेणं सद्धिं जोर्ग जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेव जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अणुराहाए समप्पेई, तत एवमनुराधानक्षत्रं | सायंसमये-दिवसावसानरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैतीति पश्चाद्भागमवसेयं, तथा चाह-'अणुराहा जहा धणिट्ठा' यथा धनिष्ठा तथाऽनुराधा वक्तव्या, सा चैवम्-'अणुराधा खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तपढमयाए| सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु अणुराहा नक्खत्ते एगं राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोग अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं जिहाए समप्पेई' ज्येष्ठायाश्च सार्यसमये समर्पयति, प्रायः परिस्फुटं दृश्यमाने नक्षत्रमण्डले, तत इदं ज्येष्ठानक्षत्र नभागमवसेयं, तथा चाह-जिट्ठा जहा सयभिसया', यथा शतभिषक् तथा ज्येष्ठा वक्तव्या, तद्यथा-'ता जेट्ठा खलु नक्खत्ते नतंभागे अवलुखेते पारसमुहुत्ते || तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभइ अवर दिवस, एवं खलु जिट्टानक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धिं| जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियहित्ता पातो चंदं मूलस्स समप्पेई' मूलनक्षत्रं चेदमुक्तलियुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपागच्छत् पूर्वभागमवसेयं, तथा चाह–'मूलो जहा पुषभइवया' यथा पूर्वभद्रपदा तथा मूलनक्षत्रमभिधातव्यं, तच्चैवम्-'ता मूले खलु नक्खत्ते पुर्वभागे समक्खित्ते तीसइमुहुते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धि। [५०] BREAKISEX ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [४], --------------------- मूलं [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमा प्तिवृत्तिः प्रत सूत्रांक (मला ॥११॥ [३६] ACCOR जोगं जोएइ, तओ पच्छा अबरं च राई, एवं खलु मूलनक्खत्तं एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियट्टे जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुबासाढाणं समप्पेई' इदमपि पूर्वापाढानक्षत्रं प्रातश्चन्द्रेण प्राभृतसह योगमुक्तयुक्त्या समुपैति इति पूर्वभागं विज्ञेयं, एतदेवाह-'पुवासादा जहा पुत्वभवया,' यथा पूर्वभद्रपदा तथा|| प्राभृतं पूर्वापाढा वक्तव्या, सा चैवम्-'ता पुषासाढा खलु नक्खत्ते पुवभागे समकूखेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पडमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, अवरं च राई, एवं खलु पुवासादानक्खत्ते एगं च दिवस एग च राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियटेइ जोग अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरासाढाणं समप्पेइ', उत्तराषाढानक्षत्रं च बर्द्धक्षेत्रत्वादुभयभागमवसेयं, तथा चाह-उत्सरासादा जहा उत्तरभद्दवया' यथा उत्तरभद्रपदा तथा उत्तराषाढा वक्तव्या, तद्यथा-'उत्तरासादा खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवङखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोग जोएइ अवरं च राई तओ पच्छा अवर दिवस, एवं खलु उत्तरासादानक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोगं जोइत्ता सायं चंदमभिईसवणाणं समष्पेइ, तदेवं बाहुल्यमधिकृत्योकप्रकारेण यथोक्तेषु कालेषु नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगमुपयन्ति, ततः कानिचित्पूर्वभागानि कानिचित्पश्चानागानि कानिचिन्नक्तंभागानि कानिचिदुभयभागान्युक्तानीति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभूतस्य प्राभृतप्राभूतं- ४ समाप्त दीप अनुक्रम [५०] ॥११०॥ ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम च (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [५], --------------------- मूलं [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७]] दीप अनुक्रम . तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति पश्चममारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो-यथा 'कुलानि वक्तव्यानीति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते कुला आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमे वारस कुला वारस वकुला चत्तारि कुलोचकुला, वारस है कुला, तंजहा-पणिहाकुलं उत्तराभवताकुलं अस्सिणीकुलं कत्तियाकुलं संठाणाकुलं पुस्साकुलं महाकुलं उत्तराफग्गुणीकुलं चित्ताकुलं विसाहाकुलं मूलाकुलं उत्तरासाढाकुलं,वारस उपकुला, तंजहा-सवणो उपकुल पुचपट्ठवताउवकुलं रेवतीवकुलं भरणीउबकुलं पुणवसुउवकुलं अस्सेसाउवकुलं पुषाफग्गुणीजवकुलं हत्याउचकुल सातीयकुलं जेहाउबकुलं पुषासाढाउचकुलं, चत्तारि कुलोवकुलातं०-अभीयीकुलोवकुलं सतभिसया-12 कुलोवकुलं अद्धाकुलोवकुलं अणुराधाकुलोषकुलं (सूत्रं ३७)॥दसमस्स पाहुडस्स पंचमं पाहुड पाहुडं समत्त। 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया कुलान्याख्यातानीति वदेत , एवमुक्त भगवानाह-तत्थे त्यादि, इह न केवलं भगवता कुलान्येवाख्यातानि किंतूपकुलानि कुलोपकुलानि च, ततो निर्धारणार्थप्रतिपत्त्यर्थ तत्रेति, भगवान् घूते-'तत्र' तेषां कुलादीनां मध्ये खस्विमानि द्वादश कुलानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , इमे इति च प्रतिपदमभिसम्बध्यते, इमानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि द्वादश उपकुलानि, इमानि-वक्ष्यमाणस्वरूपाणि चत्वारि कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि, अथ किं कुलादीनां लक्षणम् ?, उच्यते, इह थैर्नक्षत्रैः प्रायः सदामासानां परिसमाप्तय उपजायन्ते माससदशनामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि, तद्यथा-श्राविष्ठो मासः प्रायः श्रविष्ठया धनिष्ठापरपर्यायया परिसमा-४ [५१] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-५ आरभ्यते ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [५], -------- ------ मूलं [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: स्यमज्ञसिवत्तिः मल० प्रत सूत्रांक [३७]] ॥११॥ सू३७ दीप प्तिमुपैति १ भाद्रपद उत्तरभद्रपदया २ अश्वयुक् अश्विन्या इति ३, धनिष्ठादीनि प्रायो मासपरिसमापकानि माससदृशनामानि कुलानि, यानि च कुलानामुपकुलाना चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानि अभिजिदादीनि चत्वारि नक्षत्राणि, उक्त च-"मासाणे परिणामा हुंति कुला उवकुला उ हिडिमगा। हुंति पुण कुलोवकुला अभिईसयभअणुराहा ॥१॥" [अत्र 'मासाण परिणामा' इति प्रायो मासानां परिसमापकानि कचित् 'मासाण सरिसनामा' इति पाठा, तत्र मासानां कुलादि सदशनामानीति व्याख्येयं, 'सय'त्ति शतभिषकू, शेष सुगम, सम्पति यानि द्वादश कुलानि यानि च द्वादश उपकुलानि 131 यानि च चत्वारि कुलोपकुलानि तानि क्रमेण कथयति-'बारस कुला तंजहा इत्यादि सुगम ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ५ समाप्त तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य पश्चर्म प्राभृतप्राभृत, सम्पति षष्ठमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारा-यथा पाणमा-ना स्योऽमावास्यश्च वक्तव्या' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता-कहं ते पुणिमासिणी आहितेति वदेजा, तस्थ खलु इमाओ बारस पुण्णिमासिणीओ बारस अमावासाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-साविट्ठी पोहवती आसोया कत्तिया भग्गसिरी पोसी माही ॥११॥ फग्गुणी चेती विसाही जेहामूली आसाढी, ता साविट्ठिण्णं पुण्णमासि कति णवत्ता जोपति , ता Mतिषिण णवत्ता जोइंति, तं0-अभिई सवणो धणिहा, ता पुढवती, पुढवतीपणं पुषिणमं कति सक्ससा अनुक्रम [५१] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ५ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ६ आरभ्यते ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] जोएंति, ता तिन्नि नक्खत्ता जोयंति, तं०-सतिभिसया पुवासाढवती उत्तरापुट्टवता, ता आसोदिण्णं पुषिणमं ४ कति णक्खत्सा जोएंति , ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-रेवतीय अस्सिणी य, कत्तियणं पुण्णिम कति णक्वत्ता जोएंति !, ता दोणि णक्वत्ता जोएंति तं०-भरणी कत्तिया य, ता मागसिरीपुन्निम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोषिण णक्वत्ता जोएंति, तं०-रोहिणी मग्गसिरो य, ता पोसिपणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति , ता तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-अहा पुणवसू पुस्सो, ता माहिण्णं पुषिणम कति णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि नक्खत्ता जोयंति, तं०-अस्सेसा महा य, ता फग्गुणीण्णं पणिम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-पुषाफरगुणी उत्तराफग्गुणी य, ता चित्तिषणं पुषिणमं कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोणितं०-हत्थो चित्ता य, ता विसाहिणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति !, दोषिण णक्खत्ता जोएंति तं०-साती विसाहा य, ता जेट्ठामूलिण्णं पुण्णिमालासिपणं कति णक्खत्ता जोएंति , ता तिन्नि णक्खत्ताजोयंति, सं०-अणुराहा जेट्ठा मूलो, आसाढिपणं पुषिणम कति णक्खत्सा जोएंति , ता दो णक्खत्ता जोएंति, तं-पुवासाढा उत्तरासादा (सूत्रं ३८)॥ 'ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं । केन प्रकारेण केन नक्षत्रेण परिसमाप्यमाना इत्यर्थः, पौर्णामास्य आख्याता, अन पोर्णामासीग्रहणममावास्योपलक्षणं, तेन कथममावास्या अभ्याख्याता इति वदेत् , एवमुक्ते भगवानाह'तस्थेत्यादि, तत्र-तासां पौर्णमासीनाममावास्यानां च मध्ये जातिभेदमधिकृत्य खस्विमा द्वादश पौर्णमास्यो द्वादश दीप अनुक्रम SAREaratunnational ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] सूर्यप्रज्ञ- चेमा अमावास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी' इत्यादि, तत्र श्रविष्ठा-धनिष्ठा तस्यां भवा श्राविष्ठी-श्रावण- १० प्राभूते तिवृत्तिःमासभाविनी प्रोष्ठपदा-उत्तरभाद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदी-भाद्रपदमासभाविनी, अश्वयुजि भवा आश्वयुजी अश्व ६प्राभूत(मल०) युगमासभाविनी, एवं मासक्रमेण तत्तन्नामानुरूपनक्षत्रयोगात् शेषा अपि वक्तव्याः । सम्प्रति यैनक्षत्ररेकैका पूर्णमासी, प्राभृतं पूर्णिमादि परिसमाप्यते तानि पिच्छिषुराह-ता सावविन्न'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , पाविष्ठी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि नक्षत्र युञ्जति ?-कति नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्ति, भगवानाह-'ता तिन्नि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युजम्ति-त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यथायोग संयुज्य परिसमापयन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा चार इह श्रवणधनिष्ठारूपे द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयतः, केवलमभिजिनक्षत्रं श्रवणेन सह सम्बद्धमिति तदपि परिसमापयतीत्युक्त, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, इह प्रवचनप्रसिद्धममावास्यापौर्णमासीविषयंचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थमिदं करणम् नाउमिह अमावासं जह इच्छसि कमि होइ रिक्सम्मि । अवहारं ठरविज्जा तत्तियरूवेहि संगुणए ॥ १ ॥ छावट्ठी व मुहुचा विसति-I भागा य पंच पडिपुना । पास ट्ठिभागसहिगो य इको हवह भागो ॥२॥ एयमवहाररासि इच्छअमावाससंगुणं कुजा । नक्सत्ताणं एनो। | सोहणगविहिं निसामेह ॥ ३॥ बाबीसं च मुहुणा छायालीसं विसट्ठिभागा य । एवं पुणवसुस्स य सोहेयर्थ हबद बुच्छ ॥ ॥ बावतरं । सयं फग्गुणीण बाणउदय वे विसाहामु । चत्वारि अ यायाला सोज्झा अह उत्तरासाढा ॥ ५ ॥ एवं पुणवसुस्सय मिसट्ठिभागसहियं II ला॥११२॥ सोहणगं । इचो अमिईआई विइयं वुच्छामि सोहणगं ॥ ६॥ अभिइस्स नव मुहुत्ता बिसटिभागा य हुँति चउवीसं । छावट्ठी असमचा दीप 25th अनुक्रम [५] SEKSॐ ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] SECRE दीप अनुक्रम [५] भागा सहिछेअकया ॥ ७ ॥ उगुणडं पोट्ठवयातिसु चेव नवोत्तरं च रोहिणिया । तिसु नवनवएसु भये पुणवसू फग्गुणीसोय ॥८॥ पंचेब उगुणपन्नं सयाइ उगुणुत्तराई छवेव । सोज्झाणि विसाहासुं मूले सत्तेव चोआला ॥ ९॥ अट्ठसय उगुणवीसा सोहणगं उत्तराण. | साढाणं । चउवीसं खलु भागा छावट्टी चुण्णिआओ य ॥१०॥ एआइ सोहइत्ता जे सेसं तं हवेइ नक्खतं । इत्थं करेइ उडुबइ सूरेण | समं अमावासं ॥ ११ ॥ इच्छापुनिमगुणिओ अवहारो सोत्थ होइ कायबो । तं चेव य सोहणगं अभिई भई तु काय ॥ १२ ॥ सुद्धमि & सोहणगे जं सेसं तं भविज नक्खतं । तत्थ य करेइ उडुबइ पडिपुनो पुन्निमं विउलं ॥ १३ ॥ एतासां गाथानां क्रमेण व्याख्या-याममावास्यामिह-युगे ज्ञातुमिच्छसि, यथा कस्मिन्नक्षत्रे वर्तमाना परिसमाता| भवतीति तावद्रूपैर्यावत्योऽमावास्या अतिक्रान्तास्तावत्याः सङ्ग्याया इत्यर्थः, वक्ष्यमाणस्वरूपं अवधार्यते-प्रथमतया स्था-12 प्यते इलाधार्यो-ध्रुवराशिस्तमवधार्यराशि पट्टिकादौ स्थापयित्वा चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सङ्गणयेत्, अथ किंप्रमाणोऽसाववधार्यों राशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्धमाह-'छावट्ठी' गाहा, षट्पष्टिमुंहूत्तों एकस्य च मुहर्तस्य पश्च परिपूणों द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टितमो भागः, एतावत्प्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथमेतावत्प्रमाणस्यास्योत्पत्तिरिति चेत् १, उच्यते, इह यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं| लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४।५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चलक्षणो गुण्यते, जाता दश, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, तत्र छेद्यच्छेदकराश्योचिकेनापवर्त्तना क्रियते, जात उपरितनश्छेद्यो | राशिः पथकरूपोऽऽधस्तनो द्वापष्टिरूपः, लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थमष्टा ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ ठिवृत्तिःला (मल०) प्रत सूत्रांक [३८] XX ॥११॥ दीप दशभिः शतस्त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुण्यन्ते, जातान्येकनवतिः शतानि पश्चाशदधिकानि ९१५०, छेदराशिरपि1१० प्राभृते द्वापष्टिप्रमाणः सप्तपण्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि ४१५४, उपरितनराशिर्मुहर्ज्ञान ६प्राभृत यनाय भूयस्त्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुःसप्ततिः सहस्राणि पश्च शतानि २७४५००, तेषां चतुष्पश्चाशदधिकैकच प्राभृतं त्वारिंशच्छतैर्भागहरणं, लब्धाः षट्षष्टिर्मुहर्ताः ६६, शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि ३३६, ततो पूर्णिमादि नक्षत्रं द्वाषष्टिभागानयनार्थं तानि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि विंशतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि द्वात्रिंशदधिकानि'२०८३२, तेषामनन्तरोक्तेन छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः ५, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः, ततस्तस्या द्वापध्या अपवर्तना क्रियते, जात एककः, छेदराशेरपि द्वापट्याऽपवर्तनायां लब्धाः सप्तषष्टिः, तत आगतं पट्पष्टिमहतो एकस्य च मुहूर्तस्य पश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इति, तदेवमुक्तमवधार्यराशिप्रमाणे, | सम्पति शेषविधिमाह-एपमवहारे'त्यादि, एतं-अनन्तरोदितस्वरूपमवधार्यराशिमिछाऽमावास्यासंगुण-याममा वास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्समया गुणितं कुर्यात, अत ऊर्च च नक्षत्राणि शोधनीयानि, ततोऽत अय नक्षत्राणां शोधनक- ट्राविधि-शोधनकमकारं वक्ष्यमाणं निशमयत-आकर्णयत । तत्र प्रथमतः पुनर्वसशोधनकमाह-बावीसं'चेत्यादिगाथा, द्वाविंशतिमुत्तों एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः एतद्-एतावत्प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण भवति । शोद्धव्यं, कथमेवं प्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत् !, उच्यते, इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षत्र | ॥११३॥ पर्याया लभ्यन्ते तदैक पर्वातिक्रम्य कतिपयास्तेनैकेन पर्वणा लभ्यन्ते !, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।१ । अत्रान्त्येन अनुक्रम [५] ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] राशिना एकलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चैव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तेषां चतुविशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः पञ्च चतुर्विशत्यधिकशतभागाः, ततो नक्षत्रानयनार्थमेतेऽष्टादशभिः शतैत्रिशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैः गुणयितव्या इति, गुणकारच्छेदराश्योर्द्विकेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिषिष्टिः ६२, ततः पञ्च नवभिः पञ्चदशोत्तरैः शतैर्गुण्यन्ते, जातानि पश्चचत्वारिंशवछतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, छेदराशिौषष्टिलक्षणः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपश्चाशदधिकानि ११५४, तथा पुष्यस्य ये त्रयोविंशतिः सप्तपष्टिभागाः प्राक्तनयुगचरमपर्वणि सूर्येण सह योगमायान्ति ते द्वापट्या गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि षविंशत्यधिकानि १४२६, एतानि प्राक्तनात् पश्चसप्तत्यधिकपश्चचत्वारिंशच्छतप्रमा-3 णात् शोध्यन्ते, शेष तिष्ठन्ति एकत्रिंशच्छतानि एकोनपश्चाशदधिकानि ३१४९, तत एतानि मुहूर्तानयनार्थं त्रिंशता | गुण्यन्ते, जातानि चतुर्णवतिः सहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तत्यधिकानि ९४४७०, तेषां छेदराशिना 'चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः, शेष तिष्ठन्ति त्रीणि सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि ३०८२, एतानि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वापट्या गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षमेकनवतिः सहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १९१०|८४, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धाः षट्चत्वारिंशन्मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः, एषा पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोध-| नकनिष्पत्तिः । शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-यावत्तरं सय'मित्यादि, द्वासप्ततं-द्विसप्तत्यधिक शतं फाल्गुनीनां-उत्तरफाल्गुनीनां शोध्यं, किमुक्तं भवति -द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वसुप्रभृतीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, दीप 55555 अनुक्रम [५] ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [३८] ॥११४॥ 6445 दीप एवमुत्तरत्रापि भावार्थों भावनीयः, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्वे शते द्विनवत्यधिके २९२, अथा-1|१. प्राभृत नन्तमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राण्यधिकृत्य शोध्यानि चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४२, 'एयं पुणे'त्यादि-४ |६प्राभृतगाथा, एतदनन्तरोक्तं शोधनकं सकलमपि पुनर्वसुसत्कद्वापष्टिभागसहितमवसेयं, एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसुसत्का द्वाविं- |प्राभूतशतिर्मुहूर्तास्ते सर्वेऽप्युत्तरस्मिन् शोधनकेऽन्त प्रविष्टाः प्रवर्तन्ते, नतु द्वापष्टिभागाः, ततो यद्यच्छोधनक शोध्यते तत्र पूर्णिमादि तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा उपरितना शोधनीया इति, एतच्च पुनर्वसुप्रभृत्युत्तराषाढापर्यन्तं प्रथम नक्षत्रं सू३८ |शोधनकं, अत ऊर्ध्वमभिजितमादिं कृत्वा द्वितीय शोधनकं वक्ष्यामि, तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-'अभिहस्से'त्यादिगाथाचतुष्टयं, अभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकं नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य सत्काश्चतुर्विंशतिषिष्टिभागा, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिश्छेदकृताः परिपूर्णाः षट्पष्टिभागाः, तथा एकोनषष्ट-एकोनपट्यधिक शतं प्रोष्ठपदाना-उत्तर-18 भद्रपद्मनां शोधनकं, किमुकं भवति । एकोनपात्यधिकेन शतेनाभिजिदादीम्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुख्यन्ति, एवमुत्तरत्रापि भावना कर्तव्या, तथा त्रिषु नवोत्तरेषु शतेषु रोहिणिका-रोहिणिपर्यन्तानि शुक्ष्यन्ति, तथा त्रिषु नवनवतेषु-नवनवत्यधिकेषु शतेषु शोधितेषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्रजातं शुद्धयति, तथा एकोनपश्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राप्य फाल्गुन्यश्व-उत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु एकोनसप्तत्यधिकानि | ॥११४॥ पटू शतानि ६६९ शोभ्यानि, मूलपर्यन्ते नक्षत्र जाते सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि शोध्यानि ७४४, उत्तराषाढाना| उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि ८१९, सर्वेन्यपि च शोधनेषूपरि अभिजितो| अनुक्रम [५] -4-5 ~ 235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५] नक्षत्रस्य सम्बन्धिनो मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः षट्षष्टिश्च चूर्णिकाभागा एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागार ४शोधनीयाः, 'एयाई इत्यादि, एतान्यनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्रं, पतसिंक्ष नक्षत्रे करोति सूर्येण सममुडुपतिरमावास्यामिति । तदेवममावास्याविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमुक्त, सम्पति पौर्णमासीविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमाह-इच्छापुनिमे त्यादि, यः पूर्वममावास्याचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानामवधार्यराशिरुक्तः स एवात्रापि पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविधौ ईप्सितपौर्णमासीगुणितो-यां पौर्णमासी ज्ञातुमि-14 च्छति तत्सङ्ख्यया गुणितः कर्तव्यः, गुणिते च सति तदेव पूर्योकं शोधनं कर्त्तव्यं, केबलमभिजिदादिक नतु पुनर्वसुप्रभृतिक, शुद्धे च शोधनके यत् शेषमवतिष्ठते तद्भवेन्नक्षत्रं पौर्णमासीयुक्त, तस्मिंश्च नक्षत्रे करोति उडुपतिः-चन्द्रमाः परिपूर्णः पूर्णमासी विमलामिति। एष पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविषयकरणगाथाद्वयाक्षरार्थः, सम्पत्यस्यैव भावना क्रियतेकोऽपि पृच्छति-युगस्यादी प्रथमा पौर्णमासी श्राविष्ठी कस्मिंश्चन्द्रनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति , तत्र षट्पष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंरूपोऽवधार्यराशिधियते, प्रथमायां किल | पौर्णमास्यां पृष्टमित्येकेन गुप्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततस्तस्मादभिजितो नव मुहूर्ता एकस्य चे मुहूर्तस्य चतुर्विंशति षष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येवंपरिमाणं शोधनकं शोधनीयं, तत्र षट्पष्टे व मुहूर्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तपश्चाशत् , तेभ्य एको मुद्दों गृहीत्वा द्वापष्टिभागीकृतस्ते च द्वापष्टिरपि द्वापष्टिभागराशी पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जानाः सप्तषष्टिः द्वापष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्रिचत्वारिंशत् , तेभ्य एक रूपमादाय सप्तप ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यमज्ञप्तिवृत्ति (मल.) ॥११५|| सूत्रांक [३८] दीप |ष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तपष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तपष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः १. प्राभृते शुद्धाः स्थितौ पश्चाद् द्वौ सप्तषष्टिभागौ, ततस्त्रिंशता मुहूत्तैः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्मुहूर्ताः पड्विंशतिः, तत इदमागतं- प्राभृतधनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसङ्ख्येषु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसखयेषु सप्त- प्राभूत षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । यदा तु द्वितीया श्राविष्ठीपौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युग- पूर्णिमाद स्यादित आरभ्य त्रयोदशी, ध्रवराशिः ६६ ।। त्रयोदशभिर्गुण्यते, जाता मुहूर्तानामष्टौ शतानि अष्टापश्चाशदधिकानि नक्षत्रं ८५८, एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चषष्टिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ८५८॥ तत्रा-1 |ष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैर्मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कैः षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, ततः स्थिताः पश्चादेकोनचत्वारिंशन्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तपष्टिभागाः ३९॥ ततो नवभिर्मुहरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्र शुद्ध्यति, स्थिताः पश्चात्रिंशन्मुहूताः पञ्चदश मुहूत्तेस्य द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चदश सप्तपष्टिभागाः३० ।। १७ तेभ्यस्त्रिंशता श्रवणः शुद्धः, आगतं एकोन-11॥११५।। . |त्रिंशतिमुहूत्तेपु एकस्य च मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु । धनिष्ठायां द्वितीया श्राविष्ठीपौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । यदा तु तृतीया श्राविष्ठी पौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युगस्यादितः पञ्चविंशतितमेति पूर्वोक्तो धुवराशिः ६६ ।। पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि पञ्चाशदधिकानि अनुक्रम + ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ROGR प्रत सूत्रांक [३८] H १६५०, एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चविंशं शतं द्वाषष्टिभागानां १२५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५, तत्र षोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिः १६३८ मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्थाष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः ४८ एकस्य हैं इच द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकेन शतेन १३२ द्वौ नक्षत्रपोयो शुख्यतः, स्थिताः पश्चाद् द्वादश मुहूर्ताः १२ एकस्य च ₹ मुहुर्तस्य पश्चसप्ततिषिष्टिभागाः ७५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७, ततो नवभिर्मुह रेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्रं शुजत्यति, स्थिताः पश्चात्रयोदश मुहूर्ताः १३ एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः १३ एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्तषष्टिभागाः | २९, आगतं श्रवणनक्षत्रं षड्दिशती मुहर्नेम्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनचस्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयति, एवं चतुर्थी आविष्ठीं पौर्णमासी धनिष्ठानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च सुमुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, पञ्चमी श्राविष्ठी पौर्णमासी श्रवणनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च सुमुहूर्तस्य षष्टिसक्येषु द्वापष्टिभागेष्वे कस्य द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिं नयतीति । तदेवं यानि नक्षत्राणि श्राविष्ठी पौर्णमासी सपरिसमापयन्ति तान्युक्तानि, सम्पति यानि प्रोष्ठपदी समापयन्ति तान्याह-ता पोहवइपणं इत्यादि, ता इति पूर्ववत् । प्रोष्ठपदी-भाद्रपदी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति-कति नक्षत्राणि यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः, एवं सर्वत्रापि युञ्जन्तीत्यस्य पदस्य भावना कर्तव्या, भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता'इति पूर्व -28 दीप अनुक्रम [५] ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप सूर्यपज- वत् , त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-शतभिषक् पूर्वप्रोष्टपदा उत्तरप्रोष्ठपदा च, तत्र प्रथमा प्रोष्ठपदी पौर्णमासीमुत्तर १०प्राभूते प्तिवृत्तिः भाभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेषु चतुःषष्टी सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिस-11प्राभूत(मल०) माप्तिं नयति, द्वितीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमष्टसु मुहर्तेषु शेषेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाप- प्राभृतं |ष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकपश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, तृतीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासीं शतभिषक् । पूर्णिमादि ॥११६॥ पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पदसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु. । नक्षत्र चतुर्थी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी उत्तरभद्रपदानक्षत्रं चत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमेकविंशती मुहूत्रेधेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकादशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, 'ता आसोई 'मित्यादि, आश्वयुजी णमिति वाक्यलङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, भगवानार'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-रेवती अश्विनी च, इहोत्तरभद्रपदानक्षत्रमपि कांचिदा-| श्वयुजी पौर्णमासी परिसमापयति, परं तत्पौष्ठपदीमपि पौर्णमासी परिसमापयति, तत्रैव च लोके तस्य प्राधाम्ब, तन्नाम्ना तस्याः पौर्णमास्याः अभिधानादतस्तदिह न विवक्षितमित्यदोषः, तथाहि-प्रथमामाश्वयुजी पौर्णमासीमश्विनी-1 नक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, द्वितीयामाश्वयुजी पौर्ण ||११६॥ मासी रेवतीनक्षत्रं सप्तवासु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चाशति सप्त-14 अनुक्रम [५] BOOKS SHESAR SAREarattin international ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप पष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाश्वयुजी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्र चर्तुदशमु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य एकस्मिन् दाय-1 टिभागे एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं चतुर्ष मुहूसंध्येकस्य च मुहर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमीमाश्वयुजी पौर्ण-1 मासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चायति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य दशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । कत्तियपण'मित्यादि, कार्तिकी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-वे नक्षत्रे युः, तद्यथाभरणी कृत्तिका वा, इहायश्विनीनक्षत्रमपि काश्चित् कार्तिकी पौर्णमासी परिसमापयति परं तदाश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रधानमितीह तन्न विवक्षितं, तत्र प्रथमा कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्यु द्वापष्टिभागेब्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टी सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं पत्रिंशती मुहूत्येकस्य च मुहर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां कार्तिकी पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्याप्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी कार्तिकी पौर्णमासी भरणीनक्षत्रं नव मुहर्सेव्यकस्य च मुहूर्तस्य पश्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु.सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । 'ता मग्गसिरणं पुषिणमं करणखत्ता जोइंति'त्ति ता इति पूर्ववत्, कति नक्षत्राणि मार्गशीर्षी पौर्णमासी युञ्जन्तिी, अनुक्रम [५] ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप १०प्राभूते सूर्यप्रज्ञ- भगवानाह-'ता दोण्णी त्यादि, ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युतः, तद्यथा-रोहिणिका मृगशिरश्च, तत्र प्रथा मार्गशीर्षी प्राभूत विवृत्तिः टापौर्णमासी मृगशिरोऽष्टसु मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वापष्टिभागस्य 'सत्केष्वेकषष्टी सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, प्राभूत (मल) द्वितीयां मार्गशीषी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टि-1 पूर्णिमादि ॥११७॥ भागस्याष्टाचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च नक्षत्र मुहूर्तस्य त्रिपश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मार्गशीर्षी सू ३८ पौर्णमासी मृगशिरोनक्षत्रं द्वाविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकविशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रं अष्टादशसु मुहूत्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य चत्वारिं-15 शति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टसु सवपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, 'ता पोसीं ण'मित्यादि, ता इति । पूर्ववत्, पौषी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासीं कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह-ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रिीणि नक्षत्राणि युद्धन्ति, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च, तत्र प्रथमा पीपी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्वयोर्मुहर्त्तयोरेकस्य &च मुहूर्तस्य पट्पश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टौ सप्तपष्टिभागेषु, द्वितीयां पौषी पौर्णमासी एकोन-TI त्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु ॥११७॥ शेषेषु, तृतीया पौषी पौर्णमासीमधिकमासादतिनीमा नक्षत्रं दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, अधिकमासभाविनी पुनस्तामेव तृतीयां पोणेमासी[81 अनुक्रम [१२] ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५] पुष्यनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति | सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य अष्टसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पश्चमी पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षवं द्विचत्वारिंशति मुहष्वेकस्य च मुहूर्तस्य | दिपञ्चविंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्ठिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिं नयति। 'तामाहीपण'मित्यादि,४ ता इति पूर्ववत् , माघी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-'ता दोण्णी'त्यादि, दे नक्षत्रे युङ्कः, तद्यथा-अश्लेषा मघा च, चशब्दात्काश्चिन्माधी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं काश्चित्पुष्यनक्षत्र च, तद्यथाप्रथमा माघी पौर्णमांसी मघानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप-13 ष्टिभागस्य एकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां माघी पौर्णमासीमश्लेषानक्षत्रमष्टसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां माघी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमष्टाविंशती मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी माघी पौर्णमासी मघानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेपेषु, पञ्चमी माघी पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, 'ता फग्गुणीण्ण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् फाल्गुनी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह–ता दोणी त्यादि, ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [६], --------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक [३८] सू ३८ आता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-पूर्वफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी च, तत्र प्रथमां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनी- १. प्राभृते प्तिवृत्तिः नक्षत्रं विंशतो मुहुर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पदचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टापञ्चाशति सप्तपष्टि- प्राभृत(मला) भागेषु शेषेषु, द्वितीयां फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्र द्वयोमुहर्त्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य प्राभृतं च द्वापष्टिभागस्य पश्चचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वे- पूर्णिमादि ॥११८॥ कस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी फाल्गुनी | नक्षत्र पौर्णमासीमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रयस्त्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टो द्वापष्टिभागेप्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूसेवेकस्य च मुहर्तस्य पश्चविंशतौ द्वापष्टिसङ्ग्येषु भागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । 'ता चित्तिण्ण'मित्यादि, लता इति पूर्ववत् , चैत्रीं पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह-'ता'इत्यादि, दे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-हस्तः चित्रा च, तत्र प्रथमां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभाने४ाब्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रमेकादशसु मुहवेकस्य | च मुहूर्तस्य षट्स द्वाषष्टिभलोषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु; तृतीयां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूसे एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशलो द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तप-19 ष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेषु पकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु 445464ॐ+5%% दीप अनुक्रम [५] 5 ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप ॐXXXSARA%% एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रं चतुर्विशती मुहूर्तेष्वेकस्य च Mमहर्सस्य विंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति । 'ता वहसाहिंस-1 मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , वैशाखी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ,भगवानाह-ता दोग्णीत्यादि, ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युकः, तद्यथा-स्वातिः विशाखा च, चशब्दादनुराधा च, इदं हि अनुराधानक्षत्र विशाखातः परं, विशाखा चास्यां पौर्णमास्यां प्रधाना, ततः परस्यामेव पौर्णमास्यां तत्साक्षादुपात्तं नेहेति, तत्र प्रथमां वैशाखी पौर्णमासीं विशाखानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं पञ्चविंशती मुहुनेषु एकस्य च मुहुर्तस्यैकस्मिन् द्वापष्टि-14 &भागे एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां वैशाखी पौर्णमासी अनुराधानक्षत्रं पञ्चविंद शतौ मुहत्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशती द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनत्रिंशति सप्तषष्टिभामेषु शेषेषु, चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य पश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप-18 |ष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वातिनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्त्तस्य पश्चदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति । 'ता जेट्टामूलिंण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत, ज्येष्ठामौली णमिति वाक्यभूषणे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति , भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्व-15 पत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलं च, तत्र प्रथमा ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्र सप्तक-ला SEXERCISE अनुक्रम [५] ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः (मल०) ॥११९॥ नक्षत्रं दीप अनुक्रम [५] शसु महतैषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चपश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां १० प्राभृते ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य अष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप ६प्राभृतष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं चतुएं मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्त प्राभूत पूर्णिमादि स्थाष्टादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठान-1 मेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पशदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पनामी ज्येष्ठामूली पौर्णमासी अनुराधानक्षत्रं द्वादशसु मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य । द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः परिसमाप्तिमुपनयति । 'आसादिन्न'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , आषाढी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-ता दो'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, द्वे नक्षत्रे युङ्गा, तद्यथा-पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, तत्र प्रथमामाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं पदिशती मुहवेकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयामाषाढी पौर्णमासी पूर्वाषाढानक्षत्र सप्तसु मुहर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाषाढी पौर्णमासी उत्तराषाढा नक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तरापादानक्षत्रमेकोनचत्वारिंशति मुहूर्तेषु ॥११९॥ एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप RCAX पश्चमीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं स्वयं परिसमाप्नुवन परिसमापयति, किमुक्तं भवति?-एकत्र पञ्चमी आषाढी पौर्ण-12 मासी समाप्तिमेति अन्यत्र चन्द्रयोगमधिकृत्योत्तराषाढानक्षत्रमिति । इह सूत्रकृत एव शैलीयं यद् यद् नक्षत्र पौर्णमासीममावास्यां वा परिसमापयति तद्यावशेषे परिसमापयति तावत्तस्य शेष कथयति, ततस्तदनुरोधेनास्माभिरष्यत्र तथैवोक्तम्, यावता पुनर्यावत्यतिक्रान्ते परिसमापयति तावदेव प्रागुक्तकरणवशात् कथनीयं, चन्द्रप्रज्ञप्तावपि तथैव वक्ष्यामि, अमा-18 वास्याधिकारमपि अनन्तरं तथैव वक्ष्यामः, तदेवं यानि नक्षत्राणि यां पौर्णमासी युञ्जन्ति तान्युक्तानि, सम्प्रति गतार्थामपि मन्दमतिविवोधनार्थ कुलादियोजनामाह ता साविट्टिपणं पुषिणमासिं णं किं कुलं जोएति उवकुलं जो कुलोवकुलं जोएति ?, ता कुलं वा जोएति उबकुलं बाजोएति कुलोचकुलं वा जोएति, कुलंजोएमाणेधणिट्ठाणकखत्ते उचकुलं जोएमाणो सवणे णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे अभिईणक्खत्ते जोएति, साविहिं पुण्णिम कुलं वा जोएति उचकुलं वा जोएति| कुलोववकुलं वा जोएति, कुलेण वा (उचकुलेण वा कुलोचकुलेण वा) जुत्ता साविट्ठी पुषिणमा जुत्तातिवत्तई सिया, ता पोहवलिण्णं पुषिणमं किं कुलं जोएति उवकुलं जोएति कुलोवकुलं वा जोएति ?, ता कुलं वा जोएति उवकुलं वा जोएति कुलोबकुलं वा जोएति, कुलं जोएमाणे उत्तरापोहवया णक्खत्ते जोएति, डाउवकुलं जोएमाणे पुषापुढचता णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खसे जोएति, पोट्ठ-1 वतिषणं पुण्णमासिं णं कुलं वा जोएति उपकुलं वा जोएति कुलोवकुलं चा जोएति, कुलेण वा जुत्ता ३ पुट्ठ अनुक्रम [५] ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१३] सूर्यप्रज्ञ- वता पुषिणमा जुत्ताति वत्त सिगा, ता आसोई णं पुण्णिमासिणं किं कुलं जोएति उचकुल जोएति १० प्राभूत प्राभृतप्तिवृत्तिः कुलोवकुलं जोएति, णो लभति कुलोचकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएति, उबकुलं जोएमाणे प्राभृतं (मल रवतीणक्खत्ते जोएति, आसोई णं पुषिणमं च कुलं वा जोएति उपकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता उब लकुलोपकुला कुलण वा जुत्ता अस्सादिणं पुण्णिमा जुत्तति वत्त सिया, एवं तबाउ, पोस पुषिणमंजेट्ठामूलं पुषिणमंच ॥१२०॥ कुलोचकुलंपि जोएति, अवसेसासु णत्थि कुलोवकुलं, ता साविढि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति, दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-अस्सेसा य महा य, एवं एतेणं अभिलावणं तवं, पोहवतं दो णक्खत्ता जोएंति, मातं०-पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, अस्सोई हत्थो चित्ता य, कत्तियं साती विसाहा य, मग्गसिरं अणुराधा जेट्टामूलो, पोसिं पुवासादा उत्तरासाढा, माहिं अभीयी सवणो धणिठ्ठा, फग्गुणी सतभिसया पुषपोट्ठवता उत्तरापोट्टयता, चेति रवती अस्सिणी, विसाहिं भरणी कत्तिया य, जेट्ठामूलं रोहिणी मगसिरं च, ता आसादि। णं अमावासिं कति णवत्ता जोएंति ?, ता तिषिण णक्खत्ता जोएंति, तं-,अद्दा पुणवस पुस्सो, ता साविढि णं ॥१२०॥ ४ अमावासं किं कुलं जोएति उवकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएड?, कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएइ नो लम्मा कुलोवकुलं, कुलंजोएमाणे महाणक्खत्ते जोएति, उवकुलं वा जोएमाणे असिलसा जोएइ, कुलेण वा जुसा XI उचकुलेण वा जुत्ता'साविट्ठी अमावासा जुत्ताति वत्सई सिया?,एवं णेतर्ष, णवरं मग्गसिराएमाहीए आसाठीए| ४ाय अमावासाए कुलोषकुलंपि जोएति, सेसेसु णस्थि (सू० ३९) ॥ दसमस्स पाहुडस्स डे पाहुपाहुकमत %496 ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ****** K [३९] CTSGRACOCOCACADCASE 'ता सावितिण्ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, श्राविष्ठी पौर्णमासी किं कुल युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति, भगवानाह-'ता कुलं वा' इत्यादि, कुलं वा युनक्ति, वाशब्दः समुच्चये, ततः कुलमपि युनक्कीत्यर्थः, एवं उप-|| कुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युञ्जन् धनिष्ठानक्षत्रं युनक्ति, तस्यैव कुलं (लतया) प्रसिद्धस्य सतः श्राषिष्ट्या पौर्णमास्यां। भावात् , उपकुलं युजन् श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युजन् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, तद्धि तृतीयायां श्राविष्ठप पौर्णमास्यां द्वादशसु मुहूर्तेषु किश्चित्समषिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः श्रवणेन सह सहचरत्वात् स्वयमपि तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि तां परिसमापयतीति विवक्षितत्वाद् युनक्कीत्युक्तं, सम्प्रति उपसंहारमाह'साथिहिन्न'मित्यादि, यत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः श्राविछ्याः पौर्णमास्यां योजनाऽस्ति ततः श्राविष्ठी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनतीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्थशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात्, यदिवा कुलेन वा युक्ता सती श्राविष्ठी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् , एवं शेषमपि सूत्रं निगमनीयं, यावत् 'एवं नेयवाओं'इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण शेषा अपि पौर्णमास्यो नेतव्याः-पाठक्रमेण वक्तव्याः, नवरं पीपी पौर्णमासी ज्येष्ठामूली च पौर्णमासी कुलोपकुलमपि युनक्ति, अवशेषासु च पौर्णमासीषु कुलोपकुल नास्तीति परिभाच्य वक्तव्याः, ताश्चैवम्-'ता कत्तियण्णं पुन्निमासिणी किं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, ता कुलंपि जोएइ उवकुलंपि जोएइ, नो लभेइ कुलोबकुलं, कुलं जोएमाणे कत्तिआणखत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे भरणीनक्खत्ते जोपड, ता कत्तिअन्न पुण्णिमं कुलं वा जोएड उवकुलं वा जोपइ, कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता कत्तियपु दीप अनुक्रम [१३] ONSUMUASSASA A ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्तिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक ॥१२॥ [३९] दीप अनुक्रम [१३] पिणमा जुत्तत्ति वत्तवं सिआइत्यादि, तावद्वक्तव्यं यावदापाढीपौर्णमासीसूत्रपर्यन्तः, तथा चाह-'जाव आसाढीपुन्निमा १० प्राभृते जुत्तत्तिवत्तवं सिया' । तदेवं पौर्णमासीवक्तव्यतोक्ता, सम्पति अमावास्यावक्तव्यतामाह-'दुवालसें त्यादि, द्वादश अमा- ६प्राभृत. वास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी इत्यादि, तत्र मासपरिसमापकेन अविष्ठानक्षत्रेणोपलक्षितो यः श्रावणो मासः प्राभृतं सोऽप्युपचारात् श्राविष्ठा तत्र भवा श्राविष्ठी, किमुक्तं भवति -श्रविष्ठानक्षत्रपरिसमाप्यमानश्रावणमासभाविनीति, लापकला प्रोष्ठपदी प्रोष्ठपदानक्षत्रपरिसमाप्यमानभाद्रपदमासभाषिनी, एवं सर्वत्रापि वाक्यार्थो भावनीयः, 'ता साविहिषण मि धि सू ३९ त्यादि, ता इति पूर्ववत् , अाविष्ठीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति -कति नक्षत्राणि यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य | श्राविष्ठीं अमावास्यां परिसमापयन्ति, भगवानाह-ता दोणी'त्यादि, ता इति पूर्वत्, द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-अश्लेपा मघा च, इह व्यवहारनयमते यस्मिन्नक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्याक्तिने पञ्चदशे नक्षत्रे अमावास्या भवति, यस्मिंश्च नक्षत्रे अमावास्या तत आरभ्य परतः पञ्चदशे नक्षत्रे पौर्णमासी, तत्र श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां ट्राबोका ततोऽमावास्थायामप्यस्यां श्राविष्ठयां अश्लेषा मघाश्चोक्काः, लोके च तिथिगणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां | वर्तमानायामपि च प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतोऽमावास्याऽभूत् स सकलोऽप्यहोरात्रो अमावास्येति व्यवहियते, ततोल मघानक्षत्रमध्येवं व्यवहारतोऽमावास्यायां प्राप्यत इति न कश्चिद्विरोधः, परमार्थतः पुनरिमाममावास्यां श्राविष्ठीमिमानि 2 त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-पुनर्वसुः पुष्योऽश्लेषा च, तथाहि-अमावास्याचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणं ||१२१।। मागेवो, तत्र तभावना क्रियते-कोऽपि पृच्छति-युगस्यादौ प्रथमा श्राविछयमावास्था केन चन्द्रयुक्तेन नक्षत्रेणोपेता सती ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) ........---- प्राभूतप्राभृत [६], ---------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१३] &समाप्तिमुपयाति !, तत्र पूर्वोदितस्वरूपोऽवधार्यराशिः षट्षष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इति प्रमाणो ध्रियते, धृत्वा चैकेन गुण्यते, प्रथमाया अमावास्यायाः पृष्टत्वात् , एकेन |गुणितं तदेव भवतीति राशिस्तावानेव जातः, ततस्तस्माद् द्वाविंशतिमहत्तों एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टि-18 भागा इत्येवंपरिमाणं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, तत्र षषष्टेर्मुहुर्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुद्वर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वा-13 रिंशत् ४४, तेभ्य एकं मुहर्तमपकृष्य तस्या द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते, कृत्वा च ते द्वापष्टिभागराशिंमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता | सतषष्टिः, तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहूर्तेभ्यस्त्रिंशता मुहूर्तः पुष्यः शुद्धः स्थिताः पश्चात् त्रयोदश मुहर्ताः, अश्लेषानक्षत्रं च द्विक्षेत्रमिति पश्चदश मुहूर्तप्रमाणे, तत इदमागतं-अश्लेषानक्षत्रमेक|स्मिन् मुहूर्ते एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिधाछिन्नस्य षट्पष्टिसङ्ख्येषु भागेषु शेषेषु प्रथमाऽमावास्या समाप्तिमुपगच्छति, तथा च वक्ष्यति-ता एएसिं पंचण्ह संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे बाकणं नक्खण जोएड, ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीस वावहिभागा मुहूत्तस्स बावहिभागं च सत्तहिहा छेत्ता छावडी चुण्णिाभागा सेसा'इति, यदा तु द्वितीयामावास्या चिन्त्यते तदा सा युगस्यादित आरभ्य त्रयो दशीति स ध्रुवराशिः ६६।। त्रयोदशभिर्गुण्यते, जातानि मुहूर्तानामष्टौ शताम्यष्टापश्चाशदधिकानि ८५८ एकस्य | तीच मुहर्तस्य पश्चषष्टिषष्टिभागा ६५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः १३, तत्र 'चत्तारि य चायाला अह सोज्झा उत्तरासाढा' इति वचनात् चतुर्भिर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहसंशतैः षट्चत्वारिंशता च द्वापष्टिभाग-1 ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------... -- प्राभतप्राभत [६], ----............... मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल प्रत सूत्रांक ॥१२२॥ [३९] रुत्तरापाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चत्वारि शतानि पोडशोत्तराणि एकस्य च मुहर्तस्य प्राभत एकोनविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कारयोदश सप्तपष्टिभागाः । ४१ ।। तत एतस्मात् |६प्राभृतत्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्- प्राभृतं पष्टिः सप्तषष्टिभागाः ३९९ ३३ ६० इति शोधनीयं, तत्र षोडशोत्तरेभ्यश्चतुःशतेभ्यः त्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि कुलोपकुला शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः, तेभ्यः एकं मुहूर्त गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टि गाः क्रियन्ते, कृत्वा च द्वापष्टिभाग पाधि सू ३९ राशौ प्रक्षिप्यन्ते, जांता एकाशीतिः, तस्याश्चतुर्विशतिः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत् , तस्या रूपमेकमादाय सप्तपष्टिर्भागाः क्रियन्ते, तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः, पश्चादेकोऽवतिष्ठते, स सप्तपष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः, आगतं पुण्यनक्षत्र-पोडेशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुईशसु सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु द्वितीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति, यदा तु तृतीयाश्राविष्ठ्यमावास्या चिन्त्यते सा युगादित आरभ्य पञ्चविंशतितमेति स ध्रुवराशिः ६६।३।। पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि पश्चाशदधिकानि मुहूर्तानां १६५० एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशं द्वाषष्टिभागशतं । । एकस्य द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः तत्र चतुर्भिईिचत्वारिंशदधिकर्मुहूर्तशतैरेकस्य प मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः प्रथममु|त्तराषाढापर्यन्तं शोधनकं शुद्ध, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां द्वादश शतान्यष्टोत्तराणि १२०८ द्वापष्टिभागाश्च मुहस्य का एकोनाशीतिः ७१ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५, ततोऽष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैः ८१९ 4%AGAR दीप अनुक्रम [१३] ।॥१२२। ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१३] महानामेकस्य मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः। शुद्ध्यति, स्थितानि पश्चात्रीणि शतानि नवाशीत्यधिकानि मुहूर्तानां ३८९ एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः ५४ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पडूविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २६, ततो भूयविभिनवोत्तरैर्मुहूर्त्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतु|विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ता अशीतिः एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, ८018।। ततत्रिंशता मुहतैर्मृगशिरः शुद्धं, स्थिताः पश्चात्पञ्चाशन्मुहूर्ताः ५०, ततः पञ्चदशभिरा शुद्धा, स्थिताः पञ्चत्रिंशत् ३५, आगतं पुनर्वसुनक्षत्रं पञ्चत्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु तृतीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति, एवं चतुर्थी श्राविष्ठीममावास्यामश्लेषानक्षत्रं प्रथमस मुहूर्तस्य सप्तसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति , पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां पुष्यनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्त्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ३।३। परिणमयति, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन ४ प्रकारेण एतेन-अनन्तरोदितेन अभिलापेन-आलापकेन शेषमप्यमावास्याजातं नेतन्यं, विशेषमाह-पोहवयं दो नक्सत्ता जोपति,' अत्र चैवं सूत्रपाठः-'ता पोहवइण्णं अमावासं कह नक्खत्ता जोएंति , ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति, तंजहापुवफग्गुणी उत्तरफग्गुणी य' इदमपि व्यवहारत उच्यते, परमार्थतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदीममावास्यां परिसमाप 4 % ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः मल०) ॥१२३॥ [३९] दीप अनुक्रम [१३] यन्ति, तद्यथा-मघा पूर्वफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी च, तत्र प्रथमा प्रोष्ठपदीममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं चतुएं मुहूर्तेषु ४१० प्राभृते एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशती द्वापष्टिभागेवेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वयोः सप्तपष्टिभागयोः ४ । २६ । २ अतिक्रान्तयोः, प्राभूत द्वितीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकषष्टी द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टि-1 का प्राभृतं. कुलोपकुला भागस्य पञ्चदशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ७ । ६१ । १५ । तृतीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां मघानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य |धि सू ३९ च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११ ॥ ३४॥ २८, चतुर्थी प्रोष्ठपदीममावास्यां पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २१ । १२।४२ । पञ्चमी प्रोष्ठपदीममावास्यां मघानक्षत्रं चतुर्विशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २४ । ४७।५५। परिसमापयति, 'आसोई दोपणी'त्यादि, अत्राप्येवं पाठ:-'ता आसोइण्णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति', ता दोणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-हस्थो चित्ता य' एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनराश्वयुजीममावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-उत्तरफाल्गुनी हस्तः चित्रा च, तन्त्र प्रथमामाश्वयुजीममावास्या हस्तनक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तपष्टिभागेषु २५।३१।३ गतेषु, ॥१२॥ द्वितीयामाश्वयुजीममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं चतुश्चत्वारिंशति मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुएं द्वाषष्टिभागेषु एकस्य &च द्वापष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपष्टिभागेषु ४४।४।१६ गतेषु, तृतीयामाश्वयुजीममावास्यां उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तद-13 ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 62 प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१३] शसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु १७॥ ३९।२९ गतेषु, चतुर्थीमाश्वयुजीममावास्यां हस्तनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य सप्तदशसु द्वापष्टि-1 भागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु १२१५ गतेषु, पञ्चमीमाश्वयुजीममावास्यां उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशत्ति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूत्तस्य द्विपश्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति | सप्तपष्टिभागेषु ३०। ५२१५४ गतेषु परिसमापयति, 'कत्तियणं साई विसाहा यत्ति, अत्राप्येवं सूत्रपाठः-'ता कत्तियष्ण अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि नक्खत्ता जोइंति, तंजहा- 'साईबिसाहा यत्ति, एतदपि व्यवहारनयमते, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि कार्तिकीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-स्वातिविशाखा चित्रा च, तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु १६ । ३६ । ४ गतेषु, द्वितीयां कार्तिकीममावास्यां स्वातिनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेषु ५।२२।१७ गतेषु, तृतीयां कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य | त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु ८१४४।३० गतेषु, चतुर्थी कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु १३ ॥ २२१४४ गतेषु, पञ्चमी * कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रं एकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य SCX ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक ॥१२४॥ [३९] ROMA+ दीप अनुक्रम [५३] | सप्तपश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु २१।५७।५७ । गतेषु समाप्तिमुपनयति, मग्गसिरं तिण्णि, तंजहा-अणुराहा जिह्वामूलो १० प्राभृते इति, अत्रापि सूत्रालापक एवम्-'ता मग्गसिरं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति !, ता तिन्नि नक्षत्ता जोएंति, तंजहा- प्राभृतअनुराहा जिट्टा मूलो य' इति, एतदपि व्यवहारतो निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि मार्गशीषीममावास्यां परिस-1 प्राभूत मापयन्ति, तद्यथा-विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा च, तत्र प्रथमां मार्गशीपीममावास्या ज्येष्ठानक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेषु एकस्य च काकुलोपकुला हाधि सू ३९ महतस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु ७॥४१॥५, द्वितीयां मार्गशीष ममावास्यामनुराधानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११।१४।१८, तृतीयां मार्गशीर्षीममावस्यां विशाखानक्षत्रमेकोनत्रिंशति मुहूर्वेष्वेकस्य च मुहर्तस्य । एकोनपथाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २९ । ४९।३१, चतुर्थी | मार्गशीर्षीममावास्यामनुराधानक्षत्रं चतुर्विशती मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभा गस्य पश्चचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु २४ । २७ । ४५, पञ्चमी मार्गशीर्षीममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रिचत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वापष्टिभागस्याष्टापञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ४३। ०।५८ परिसमापयति। 'पोसिं च दोन्नि-पुवासादा उत्तरासादाय'त्ति, अत्रैवं सूत्रालापका तापोसिं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति, संजहा-पुवासाढा य उत्तरासाढा यत्ति, एतदपि व्यवहारत उक्तं, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि परिसमाप ॥१२४॥ | यन्ति, तद्यथा-मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, तथाहि-प्रथमां पीपीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्रमष्टाविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) ........---- प्राभूतप्राभृत [६], ---------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] महर्सस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य व द्वापष्टिभागस्य षट्सु सम्पष्टिभागेषु गतेषु २८।२६।६। द्वितीयां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्र द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशतौ द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशतौ सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २११९ । १९ । तृतीयामधिकमासभाविनी पौषीममावास्थामुत्तराषाढानक्षत्रमेकादशसु | मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनषष्टी द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११॥ ५९।१३, चतुर्थी पौषीममावास्यां पूर्वापाढानक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप ष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सक्षपष्टिभागेषु गतेषु १५॥५६॥ ४६, पञ्चमी पौषीममावास्यां मूलनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्ते-12 4वेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपष्टौ सप्तषष्टिभागेवंतिकान्तेषु १९ । ५।५९ परि समापयति । 'माहिं तिण्णि अभीई सवणो धणिहा' इति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:-'ता माहिणं अमावासं कह नक्खत्ता जोएंति ?, ता तिणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-अभिई सवणो धणिहा य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि माघीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा अभिजित् श्रवणश्च, तथाहि-प्रथमां माघीममावास्यां श्रवणनक्षत्रं दशसु मुहूत्तेंव्वेकस्य च मुहूर्तस्य पइविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्याष्टसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । १०।२६। ८, द्वितीयां माधीममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं त्रिषु मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षडूविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्थ विंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । ३।२६।२०, तृतीयां माघीममावास्यां श्रवणनक्षत्र योविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु दीप अनुक्रम [१३] इॐॐॐॐॐॐ ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१३] सूर्यप्रज्ञ- गतेषु २३ । ३९ । ३५, चतुर्थी माधीममावास्यां अभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य सप्तत्रिंशति द्वापष्टिभागे- १० प्राभृते तिवृत्ति कस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु ६।३७॥ ४७, पञ्चमी माघीममावास्यामुत्तराषाढा-| ६प्राभृत(मल.) नक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहत्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेष्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टी सप्तपष्टिभागेषु गतेषु प्राभृत ४२५।१०।६० परिसमापयति । 'फग्गुणी दोषि तंजहा-सयभिसया पुर्वमहवयत्ति, अत्राप्येवं सूत्रालापका-15IRIT कुलोपकुला [धि सू ३९ SIता फग्गुणी णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति !, ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-सयभिसया पुषभदवया य, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शतभिषक् | पूर्वभाद्रपदा च, तत्र प्रथा फाल्गुनीममावास्या पूर्वभद्रपदानक्षत्रं षट्सु महत्तेचेकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु।६।३१।९, द्वितीयां फाल्गुनीममावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं विंशती मुहूतेंवेकस्य च मुहूर्तस्य चतुषु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य चद्वापष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु २०१४।२२, तृतीया फाल्गुनीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टि भागस्य षट्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु १४।४४ । ३६, चतुर्थी फाल्गुनीममावास्यां शतभिषक् नक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य *च मुदत्तस्य सप्तदशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य चद्वापष्टिभागस्य एकोनपश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ३ । १७। ४९ ॥१२५॥ कापश्चमी फाल्गुनीममावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं पदसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपक्षाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टि भागस्य सत्केषु द्वाषष्टी सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ६१५२।१२। परिणमयति । 'चितिं तिन्नि, तंजहा-उत्तरभद्दवया रेवती ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [१३] अस्सिणी यत्ति अत्राप्येवं सूत्रालापकः-'ता चित्तिन्न अमावास कइ नक्षत्ता जोएंति ?, ता तिण्णि नक्खत्ता जोएंति, |तंजहा-उत्तरभदयया रेवई अस्सिणी य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि चैत्रीममावास्यां परि-1 समापयन्ति, तद्यथा-पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती च, तत्र प्रथमां चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ३७ । ३६ ॥ १०, द्वितीयां चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेम्बेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टि-ट भागस्य त्रयोविंशती सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ११।९।२२, तृतीयां चैत्रीममावास्यां रेवतीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनपश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु ५ । ४२ । ३७, चतुर्थी चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं त्रयोविंशती मुहर्तेषु एकस्य च मुहूत्र्तस्य द्वाविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च दापष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु २३ । २२१५०, पञ्चमी चैत्रीममावास्यां पूर्वभाद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूत्तेवे कस्य च मुहूर्तस्य सप्तपश्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टी सप्तपष्टिभागेष्वतिकान्तेषु २७ । ५७ । ६३| & परिसमापयति । 'वइसाही भरणी कत्तिया यत्ति, अत्राप्येवं सूत्रपाठः-'ता वइसाहिणं अमावासं कई नक्वत्ता जोएन्ति !, ता दोणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-'भरणी कत्तिया यत्ति, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनस्त्रीणि ४ नक्षत्राणि वैशाखीममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि चामुनि-तद्यथा-रेवती अश्विनी भरणी च, तत्र प्रधमा वैशाखी& ममावास्यामश्विनीनक्षत्रमष्टाविंशता मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यै ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [ ५३ ] चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [ ३९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ।। १२६ ।। कादशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २८ । ४१ । ११, द्वितीयां वैशास्त्रीममावास्यां अश्विनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहर्त्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तषष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु २ । ३९ । २३, तृतीयां वैशालीममावास्यां भरणीनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुःपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च ४ द्वाषष्टिभागस्याष्टात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु । ११ । ५४ । १८, 'चतुर्थी वैशाखीममावास्यामश्विनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु १५ | २७ । ५१, पञ्चमी वैशाखीममावास्यां रेवती नक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य सत्केषु चतुःषष्टी सप्तषष्टिभागेषु १९।० । ६४ । परिणमयति, 'जिट्ठामूर्ति रोहिणी मिगसिरं चत्ति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:-'ता जेामूलिवणं अमावासं कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि णक्खत्ता जोपंति, तंजहा- रोहिणी मिगसिरो यत्ति, एतदपि व्यवहारतः, निश्चयतः पुनर्द्वे नक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयतः, तद्यथा- रोहिणी कृत्तिका च तत्र प्रथमां ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणीनक्षत्र मे कोनविंशती मुहूर्त्तेष्वेकस्य मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु १९ । ४६ । १२, द्वितीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिकानक्षत्रं त्रयोविंशती मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनविंशती द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतौ सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २३ । १९ । २५, तृतीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणीनक्षत्रं द्वात्रिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्त्तस्यैकोनषष्टौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु समतिक्रान्तेषु ३२ । ५९ । ३९, चतुर्थी ज्येष्ठामूलीममावस्यां Education International For Para Lise Only ~ 259~ १० प्राभूते ६ प्राभृतप्राभृतं कुलोपकुला धि सू ३९ | ॥ १२६ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [३९] रोहिणीनक्षत्रं षट्सु मुहब्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेष्षेकस्य च द्वापष्टिभागस्य विपञ्चाशति सप्वषष्टिभा-I गेषु । १२ । ५२ । पञ्चमी ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिकानक्षत्रं दशसु मुहर्तेषु एकस्य मुहूर्तस्य पश्चसु द्वापष्ट्रिभागेष्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चपष्टी सप्तपष्टिभागेषु गतेषु १०। ५। ६५ परिसमापयति । ता आसाढीण'मित्यादि, ता. इति पूर्ववत्, आसाढी णमिति वाक्यालङ्कारे, कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह–ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, दात्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च, एतदपि व्यवहारत उक, परमार्थतः पुनरमूनि त्रीणि नक्ष त्राणि आषाढीममावास्यां परिणमयन्ति, तद्यथा-मृगशिर आद्रों पुनर्वसुश्च, तत्र प्रथमामाषाढीममावास्यामादानक्षत्रं द्वादशसु महाब्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु। २५१ । १३ । द्वितीयामाषाढीममावास्यां मृगशिरो नक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशती द्वापष्टि भागेध्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य षड्विंशती सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु १४ । २४।२६ातृतीयामाषाढीममावास्यां पुनर्वसुनम मानवसु मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वयोषिष्टिभागयोरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ९।२।४ । चतुर्थीमाषाढीममावास्यां मृगशिरोनक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वे|कस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सक्षषष्टिभागेषु गतेषु २७१ ३७१५३॥पञ्चमीमाषाढीममावास्या पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविंशती सामुहष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पोडशसु द्वापष्टिभागेषु समतिक्रान्तेषु २२॥ १५॥ । परिसमापयतीति। तदेवं द्वादशानामध्य-18 मावास्यानां चन्द्रयोगोपेतनक्षत्रविधिरुक्तः । सम्प्रत्येतासामेव कुलादियोजनामाह-'ता साविहिन्न'मित्यादि, ता इति दीप अनुक्रम [१३] ARAS ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] सूर्यप्रज्ञ-18 पूर्ववत् , अाविष्ठी-श्रावणमासभाविनीममावास्यां किं कुल युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा गुनक्ति, भग-12 ग . प्राभृते तिवृत्ति: वानाह-कुलं वेत्यादि, कुलमपि युनक्ति, वाशब्दोऽपिशब्दाः , उपकुलं वा युनक्ति, न लभते योगमधिकृत्य कुलो-XIाभत (मल.) पकुलं, तत्र कुलं-कुलसंज्ञं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति, एतद् व्यवहारत उच्यते, व्यवहारतो प्राभूत ॥१२७॥ |हि गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानाथामपि च प्रतिपदि योऽहोरात्रो मूलेऽमावस्यया सम्बद्धः स सकलोऽप्यहोरात्रो-15 अमावस्या अमावास्येति व्यवहियते, तत एवं व्यवहारतः श्राविष्ट्यामप्यमावास्थायां मघानक्षत्रसम्भवादुक्तं कुलं मुझन्मयानक्षत्र युन- नक्षत्र कीति, परमार्थतः पुना कुलं युनत्पुष्यनक्षत्र युनक्कीति प्रतिपत्तव्यं, तस्यैव कुलप्रसिद्ध्या प्रसिद्धस्य श्राविठ्याममावासायां सम्भवात् , एतच्च प्रागेवोक्तम् ,उत्तरसूत्रमपि व्यवहारनयमधिकृत्य यथायोग परिभावनीयमिति, उपकुलं युञ्जत् अश्लेषानक्षत्रं युनकि, सम्प्रत्युपसंहारमाह-ता साविहिन्न'मित्यादि, यत उक्तप्रकारेण द्वाभ्यां कुलोपकुलाभ्यां श्राविठ्याममावास्यायां चन्द्रयोगः समस्ति नतु कुलोपकुलेन ततः श्रापिष्ठीममावास्यां कुलमपि वाशब्दोऽपिशब्दार्थः युनक्ति उपकुल वा युनक्ति इति वक्तव्यं स्यात् , यदि कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता सती श्राविठयमावास्था युकेति वक्तव्य स्थात् , 'एवं नेयवमिति एवमुक्तप्रकारेण शेषमप्यमावास्याजातं नेतव्यं, नवरं मार्गशीर्षा माघी फाल्गुनीमाषाढीममावास्यां कुलोपकुलमपि युनतीति वक्तव्यं, शेषासुखमावास्यासु कुलोपकुलं नास्ति,सम्पति पाठकानुग्रहाय सूत्रालापका दश्यन्ते- ॥१२७॥ 'ता पुढवइण्णं अमावासं किं कुल जोएड उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ, ता कुलं वा जोएइ ज्वकुलं वा जोपहनो लब्भइ कुलोवकुल, कुर्ल जोएमाणे उत्तराफग्गुणी जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुवाफग्गुणी जोएइ, ता पुढवइण्णं अमावास | दीप अनुक्रम [१३] ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------- ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] CAS दीप अनुक्रम [१३] कुलं वा जीएइ उपकुलं या जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पोछवया अमावासा जुत्तत्तिपत्त सिया । ता आसा-12 दिइण्ण अमावासं किं कुल जोएइ उबकुलं जीएइ कुलोचकुलं जोएइ, ता कुलं वा जोएइ, उवकुल वा जोड, नो लमहाल कुलोबकुलं, कुल जोएमाणे चित्तानक्खत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे हत्थनक्खत्ते जोपर, ता आसाइणं अमावासं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता आसाई अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । ता कत्तियणं अमावासं किं कुलं वा जोपा उपकुलं वा जोएइ कुलोबकुलं वा जोएइ, ता कुलं वा जोएड उपकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे विसाहानक्खत्ते जोएइ, उपकुलं वा जोएमाणे साइनक्खत्ते जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उबकुलेण वा जुत्ता कत्तिई अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । ता मग्गसिरिणं अमावास ४कि कुलं जोएइ उपकुलं जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ ?, ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोचकुलं वा जोपद, कुलं जोएमाणे मूलनक्षत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे जेठानक्षत्ते जोपड, कुलोचकुल जोएमाणेx अणुराहानक्खत्ते जोएइ, कुत्रेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता मागसिरिण अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । पोसिण्णं अमावासं किं कुलं वा जोएइ उबकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, नो लम्भइ कुलोचकुलं, कुलं जोएमाणे पुषासाढा णक्खत्ते जोपड उपकुलं जोएमाणे & उत्तरासाढा णक्सत्ते जोएइ, ता कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा .जुत्ता पोसी अमावासा जुत्तत्ति वत्त ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सयमजप्तिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक ॥१२८॥ [३९] दीप अनुक्रम | सिया'इत्यादि, निश्चयतः पुनः कुलादियोजना मागुक्तं चन्द्रयोगमधिकृत्य स्वयं परिभावनीया ।। १०प्राभूवे ७प्राभृतइति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ६ समाप्त | प्राभृतं पूर्णिमामातदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभूतं, सम्प्रति सप्तममारभ्यते, तस्य चायमथाधिकारा-पाणेमास्यमावा वास्यासनि स्यानां चन्द्रयोगमधिकृत्य सन्निपातो वक्तव्यः' ततस्तद्विपयं प्रश्नसूत्रमाह पातः सू४० ता कहं ते सण्णिवाते आहितेति वदेजा , ता जया णं साविट्ठीपुषिणमा भवति तता णं माही अमा|वासा भवति, जया णं माही पुण्णिमा भवति तता णं साविट्ठी अमावासा भवति, जता णं पुट्ठवती पुण्णिमा भवति तता णं फग्गुणी अमावासा भवति, जया णं फग्गुणी पुषिणमा भवति तता णं पुट्ठवती| अमावासा भवति, जया णं आसाई पुषिणमा भवति तता णं चेत्ती अमावासा भवति, जया णं चित्तीस पुण्णिमा भवति तया णं आसोइ अमावासा भवति, जया णं कत्तियी पुषिणमा भवति तता णं वेसाही| अमावासा भवति, जता णं वेसाही पुषिणमा भवति तता णं कत्तिया अमावासा भवति, जया णं मग्गसिरी पुषिणमा भवति तता णं जेवामूले अमावासा भवति, जता णं जेट्ठामूले पुषिणमा भवति तता णं मग्ग M ॥१२८॥ |सिरी अमावासा भवति, जता णं पोसी पुषिणमा भवति तता णं आसाढी अमावासा भवति, जता णं आ-1 साढी पुषिणमा भवति तता णं पोसी अमावासा भवति (सूत्रं४०)दसमस्स पाहुडस्स सत्तम पाहुडपाहु समत्त। JAIMEaratiminumational अथ दशमे प्राभूते प्राभूतप्राभृतं- ६ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-७ आरभ्यते ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [७], -------------------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत + सूत्रांक [४०] 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं :-केन प्रकारेण भगवन् ! स्वया चन्द्रयोगमधिकृत्य पौर्णमास्यमावास्यानां सन्निपात आख्यात इति वदेत् १, एवमुक्ते भगवानाह-'ता जया ण'मित्यादि, इह व्यवहारनयमतेन यस्मिनक्षत्रे पौर्ण- & मासी भवति तत आरभ्याक्तिने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे नियमतोऽमावास्या, ततो यदा श्राविष्ठी-श्रविष्ठानक्षत्र४ायुक्का पौर्णमासी भवति तदा तस्यामक्तिनी अमावास्या माघी-मघानक्षत्रयुक्ता भवति, मधानक्षत्रादारभ्य श्रविष्ठान-I &ाक्षत्रस्य पश्चदशरवात्, एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा तु णमिति वाक्यालकारे माघी-मपानक्षत्रयुका पौर्ण-t मासी भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या श्राविष्ठी-श्रविष्ठायुक्ता भवति, मघात आरभ्य पूर्व अविष्ठानक्षत्रस्य पश्चदश-17 त्वात् , एतच्च माघमासमधिकृत्य वेदितव्यं, तथा 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे प्रोष्ठपदी-उत्तरभद्रपदायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा णमिति प्राग्वत् पाश्चात्या अमावास्या फाल्गुनी-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता भवति, उत्तरभद्रपदात आरभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य पश्चदशत्वात् , यत्त्वपान्तराले अभिजिन्नक्षत्रं तरस्तोककालत्वात् प्रायो: न व्यवहारपथमवतरति, तथा च समवायानसूत्रम्-'जंबुद्दीवे दीवे अभिईवजेहिं सत्तावीसाए नक्खत्तेहिं सैववहारो वट्टइ'त्ति, ततः सदपि तन्न गण्यते इति पञ्चदशमेवोत्तरभद्रपदात आरभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रमिति, एतच भाद्रपदमासमधिकृत्योकमवसे यं, 'जयाण'मित्यादि, यदाच फाल्गुनी-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदापा-1 श्चात्या अमावास्या पौष्ठपदी-उत्तरभाद्रपदोपेता भवति, उत्तरफाल्गुन्या आरभ्य पूर्वमुत्तरभद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात्, इदं |च फाल्गुनमासमधिकृत्योतं, 'जया ण'मित्यादि, यदा च आश्वयुजी-अश्वयुग्नक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या दीप अनुक्रम [५४]] Fhi ~ 264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------ मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः मल) ॥१२९॥ सूत्रांक [४०] नन्तरामावास्या चैत्री-चित्रानक्षत्रसमन्विता भवति, अश्विन्या आरभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात्, एतच्च व्यवहा-12.प्राभृते रनयमधिकृत्योक्तमवसेय, निश्चवत एकस्यामप्यश्वयुग्मासभाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्रासम्भवाद्, एतच्च प्रागेव दर्शितं, ८प्राभूत , यदा च चैत्री-चित्रानक्षत्रोपेता पौर्णमासी जायते तदा ततः पाश्चात्यानन्तरामावास्या आश्वयुजी-अश्वयुग्नक्षत्रोपेता माभृतं भवति, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासभाविन्याममावास्यायामश्विनीनक्षत्रस्थासम्भवात्, एतच्च सूत्र- पूर्णिमामामश्वयुक्चैत्रमासमधिकृत्य प्रवृत्तं वेदितव्यं, 'जया ण'मित्यादि, यदा च कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवतिावास्थासनि तदा वैशाखी-विशाखानक्षत्रोपेता अमावास्या भवति, कृत्तिकातोऽर्वाग्विशाखायाः पञ्चदशत्वात् , यदा वैशाखी-विशाखा पातःसूट. कानक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा ततोऽनन्तरा-पाश्चात्या अमावास्या कार्तिकी कृत्तिकानक्षत्रोपेता भवति, विशाखातः12 पूर्व कृतिकायाश्चतुर्दशत्वात् , एतच्च कार्तिकवैशाखमासावधिकृत्योक्तं, एवमुत्तरसूत्रमपि भावनीयम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ७ समाप्त तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतं, साम्प्रतमष्टममारभ्यते, तस्य चायमाधिकार-मक्षत्राणां |संस्थानं बक्तव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ।॥१२९॥ | ता कहं ते नक्सत्तसंठिती आहितेति वदेजा', ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीयी ण णक्खत्ते किंसंठिते पपणत्ते, गो! गोसीसावलिसंठिते पणत्ते, सवणे णक्खसे किंसंठिते पण्णसे, काहारस दीप अनुक्रम [१४] WEBSASSES * * * अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ७ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ८ आरभ्यते ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [८], -------- ------ मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप विते ५०, धणिहाणक्खत्ते किंसंठिते प० १, सउणिपलीणगसंठिते पं०, सयभिसयाणक्खत्ते किंसंठिते| पण्णत्ते, पुष्फोवयारसंठिते पण्णत्ते, पुवापोट्टवताणक्खत्ते किंसंठिते पण्णसे?, अवहुवा विसंठिते पण्णत्ते, एवं उचरावि, रेवतीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, णावासंठिते पं०, अस्सिणीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, आसक्खंघसंठिते पण्णते, भरणीणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, भगसंठिए पं०, कत्तियाणक्खत्ते किंसंठिते| पण्णते?, छुरघरगसंठिते पं०, रोहिणीणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, सगडुड्डिसंठिते पण्णत्ते, मिगसिराणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, मगसीसावलिसंठिते पं०, अहाणक्खत्ते किंसंठिते पं० १, रुधिरविंदुसंठिए पपणत्ते, पुणवसू णक्खत्ते किंसंठिते पं०१, तुलासंठिए पं०, पुप्फे णक्खत्ते किंसंठिते पण्णसे,चद्धमाणसंठिएपण्णत्ते, अस्सेसाणक्खत्ते किंसंठिए पण्णते?, पडागसंठिए पण्णत्ते, महाणक्खसे किंसंठिए पण्णत्ते, पागारसंठिते पण्णत्ते, पुषाफग्गुणीणवखत्ते किंसंठिए पं०, अद्धपलियंकसंठिते पं०, एवं उत्सरावि, हत्थे णकखत्ते किंसंठिते पं०१, हत्थसंठिते पं०, ता चित्ताणक्खत्ते किंसंठिते पं०, मुहफुल्लसंठिते पण्णत्ते, सातीणक्वत्ते किंसंठिते पण्णसे , खीलगसंठिते पन्नत्ते, विसाहाणक्खत्ते किंसंठिए पपणते ?, दामणिसंठिते प०, अणु-1 राधाणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, एगावलिसंठिते पं०, जेहानक्खत्ते किंसंठिते पं०१, गयदंतसंठिते पण्णत्ते, मूले | णक्खत्ते किंसंठिए पं०१, विच्छुयलंगोलसंठिते पं०, पुवासादाणक्खत्ते किंसंठिए पपणत्ते ?, गयविकामसंठिते |पं०, उत्तरासाढाणक्खसे किंसंठिए पपणत्ते, साइयसंठिते पं०(सूत्रं४१) दसमस्स अट्ठमं पाहुडपाहुडं समत्तं॥ अनुक्रम [१५] ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [८], -------- ------ मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [४१] 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण भगवन् ! नक्षत्राणां संस्थिति:--संस्थानमाख्यातेति १० प्राभूते विदेत् ?, एवमुक्त्वा भूयः प्रत्येक प्रश्नं विदधाति-'ता'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्ष- प्राभृत त्राणां मध्ये यदभिजिन्नक्षत्रं तत् 'किंसंठितंति कस्येच संस्थितं-संस्थानं यस्य तरिकसंस्थितं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह- प्राभृतं 'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, एतेषाममन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽभिजिन्नक्षत्रं गोशीपावलि- नक्षत्रसंस्था संस्थितं प्रज्ञप्त, गोः शीर्षे गोशीर्ष तस्यावली-तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः तत्सम संस्थान प्रज्ञप्त, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं दामनी-पशुवन्धन, शेष प्रायः सुगम, संस्थानसङ्घाहिकाश्चेमा जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसत्कास्तिस्रो गाथाः'गोसीसावलि १काहार २ सउणि ३ पुष्फोक्यार ४ यावी ५य [उत्तराद्वयं]णावा ६ आसक्खंधग ७ भग८ छुरघरए ९ य सगडुजी १०॥१॥ मिगसीसावलि ११ रुधिरविंदु १२ तुल १३ वद्धमाणग १४ पड़ागा १५ । पागारे १६४ पलके १७ [ फाल्गुनीद्धय ] हत्थे १८ मुहफुल्लए १९ चेव ॥२॥खीलग २० दामणि २१ एगावली २२ य गवदंत २३ विच्छुयअले २४ य । गयविकमे २५ य तत्तो सीहनिसाई २६ य संठाणा ॥३॥".. इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ८ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृतप्राभूतं, सम्प्रति नवममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-'प्रतिनक्षत्रं | ॥१३०॥ | ताराप्रमाणं वक्तव्य' 'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ॐॐ+5 54555 दीप अनुक्रम [१५] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ८ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ९ आरभ्यते ~267~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [९], -------- ------ मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [५६] -ता कहं ते तारग्गे आहितेति वदेज्जा, तां एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीईणक्खसे कतितारे पं०१, तितारे पपणत्ते, सवणेणक्खत्ते कतितारे पं० १, तितारे पण्णत्ते, धनिहाणखत्ते कतितारे प०१, पण तारे पण्णत्ते, सतभिसयाणक्खत्ते कतितारे पं०१, सततारे पण्णत्ते, पुवापोहवता कतितारे पं०१, दुतारे पपणत्ते, एवं उत्तरावि, रेवतीणक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते, बत्तीसतितारे पण्णत्ते, अस्सिणीणक्खत्ते कतितारे पपणत्ते, तितारे पण्णते, एवं सच्चे पुच्छिज्जति, भरणी तितारे पं०, कत्तिया छतारे पण्णत्ते, रोहिणी |पंचतारे पण्णत्ते, सवणे तितारे पं०, अद्दा एगतारे पं०, पुणवसू पंचतारे पण्णत्ते, पुस्से णक्खत्ते तितारे प०, अस्सेसा छत्तारे पन्नत्ते, महा सत्ततारे पण्णत्ते, पुवाफग्गुणी दुतारे पन्नत्ते, एवं उत्तरावि, हत्थे पंचतारे पण्णत्ते, चित्ता एकतारे पण्णत्ते, साती एकतारे पण्णत्ते, विसाहा पंचतारे पं०, अणुराहा पंचतारे पं०, जेट्ठा तितारे पं०, मूले एगतारे पण्णत्ते, पुवासाढा चउतारे पण्णत्ते, उत्तरासाढाणक्खत्ते चउतारे पं०॥४ (सूत्रं ४२) दसमस्स पाहुडस्स नवमं पाहुडपाहुड समत्तं ।। 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण ते-त्वया भगवन् ! नक्षत्राणां 'तारामं ताराप्रमाणमाख्यातं इति वदेत् , एवं सामान्यतः प्रश्नं कृत्वा सम्प्रति प्रतिनक्षत्रं पृच्छति–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामभिजिन्नक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तं, एवं शेषाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि, ताराप्रमाणसङ्क्राहिके चेमे जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे-“तिग १ तिग २ पंचग ३ सय ४ दुग ५ दुग ६ बत्तीस ७ तिर्ग ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [९], -------- ------ मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [५६] सूर्यप्रज्ञ तह तिगं९ च । छ १० पंचग ११ तिग १२ इक्कग १३ पंचग १४ तिग १५ इक्कर्ग १६ चेव ॥१॥ सत्सग १७ दुग १० प्राभृते तिवृत्तिःला ४१८ दुग १९ पंचग २० इकि २१ ग २२ पंच २३ चउ २४ तिर्ग २५ चेव । इकारसग २६ चउकं २७ चउकगं २०४ ९प्राभूत(मल०) चेव तारग्गं ॥२॥ प्राभृते इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ९ समाप्त ॥१३॥ नक्षत्रतारा मंसू ४२ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य नवर्म प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति दशममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः यथा 'कति १०मा० नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया के मासं नयन्तीति ततस्तद्विषयं प्रभसूत्रमाह-. १० प्रा० ता कहं ते णेता आहितेति बज्जा, तावासाणं परमं मासं कति णक्खत्ता ति?, ता चत्तारि णवत्ता मासनेतृ. णिति, तंजहा-उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिहा, उत्तरासाढा चोदस अहोरत्ते णेति, अभिई सत्स अहोरते नक्षत्र णेति,सवणे अट्ठ अहोरत्ते णेति घणिहा एग अहोरतं नेह, तंसिणं मासंसि चरंगुलपोरिसीए छायाए सरिए ट्र अणुपरियति, तस्स णं मासस्स परिमे दिवसे दोपादाइं चत्तारिय अंगुलाणि पोरिसी भवति। ता वासाणं दोचं मासं कति णक्खत्ता णति ?, ता चत्तारिणक्खत्ता ति, तं०-धणिहा सतभिसपा पुषहवता उत्तरपोहवया, धणिट्ठा चोइस अहोरसे णेति, सयभिसया सत्त अहोरते णेति, पुवाभवया अह अहोरत्ते णेइ, उत्तरापो ॥१३१॥ ट्ठवता एर्ग अहोरत्तं णेति, तसिणं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, सस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाई अट्ट अंगुलाई पोरिसी भवति । ता वासाणं ततियं मासं कति गक्ससा अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १० आरभ्यते ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] कति ?, ता तिणि णक्खत्ता णिति, तं०-उत्तरपोहवता रेवती अस्सिणी, उत्तरापोट्टवता चोइस अहोरत्ते दाणेति, रेवती पण्णरस अहोरते णेति, अस्सिणी एग अहोरसं गेह, तंसिं च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरि-18|| सीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमदिवसे लेहत्थाई तिणि पदाई पोरिसी भवति, ता वासाणं चउत्थं मासंकतिणक्खत्ता णेति, ता तिन्नि नक्खत्ता णेंति, तं०-अस्सिणी भरणी कत्तिया, अलास्सिणी चउपस अहोरते णेह, भरणी पन्नरस अहोरत्ते इ, कत्तिया एग अहोरत्तं जेड. तसिं च णं मासंसिसो लसंगुला पोरिसी छायाए सूरिए अणुपरियइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिन्नि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ।ता हेमंताणं पढमं मासं कह णक्खत्ता ऐति?,ता तिणि णक्खत्ता ऐति, तं०-कत्तिया रोहिणी संठाणा, कत्तिया चोइस अहोरत्तेणेति,रोहिणी पन्नरस अहोरत्ते णेति, संठाणा एग अहोरणेति, तंसि च णं मासंसि वीसंगल पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिषिण पदाइं अgl |अंगुलाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं दो मासं कति णक्खता णेति, चत्तारिणक्खत्ताणेंति,तं०-संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो, संठाणा चोइस अहोरत्ते णेति अद्दा सत्त अहोरत्ते णेति पुणवसू अह अहोरत्तेणेति पुस्से एग अहोरत्तं ति, तंसि च णं मासंसि चउवीसंगुलपोरिसीए छायाएसूरिए अणुपरियति, तस्सणं मासस्स चरिमे दिवसे लेहहाणि चत्तारि पदाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ?,ता तिषिण णक्खत्ता ऐति, तं०-पुस्से' अस्सेसा महा, पुस्से चोइस अहोरते णेति, अस्सेसा पंचदस अहोरत्तेणेति, %ॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [१७] स ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३]] दीप सूर्यप्रज्ञ- महा एग अहोर णेति, तसि च णं मासंसि वीसंमुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स र्णमा-४१० प्राभृते प्तिवृत्तिः |सस्स चरिमे दिवसे तिणि पदाई अटुंगुलाई पोरिसी भवति। ता हेमंताणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति, ९प्राभृत(मल.) ता तिपिण नक्खत्ता णेंति, तं०-महा पुवफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, महा चोदस अहोरत्तेणेति, पुवाफग्गुणी पनरसप्राभृते नक्षत्रतारा॥१२॥ अहोरत्ते णेति, उत्तराफरगुणी एग अहोर ति, तसिं च णं मासंसि सोलस अंगुलाई पोरिसीए छायाए ग्रं सू ४२ लिरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिषिण पदाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवति । ता गिम्हाणं पढमं मासं कतिणक्खत्ता ऐति?, ता तिन्नि णक्खत्ता ऐति, तं-उत्तराफग्गुणी हस्थो चित्ता, उत्त १० प्रा० राफग्गुणी चोइस अहोरते णेति, हत्थो पण्णरस अहोरत्ते णेति, चित्ता एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं माससि दुवालसअंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहटाइ या नक्षत्रं तिणि पदाई पोरिसी भवति । ता गिम्हाणं वितियं मासं कति णक्खत्ता गति?, ता तिषिण णक्खत्ताणेंति, सू ४३ पतं०-चित्ता साई विसाहा, चित्ता पोरस अहोरत्ते णेति, साती पण्णरस अहोरत्ते णेति, विसाहा एग अहो-४ हारत्तं ति, तसि च णं मासंसि अटुंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे| दिवसे दो पदाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवति । गिम्हाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ऐति', ता ति णक्खस्ता आणति, तं-विसाहा अणुराधा जेट्ठामूलो, विसाहा चोदस अहोरते णेति, अणुराधा सत्त (पणरस), जेवामूलं लाएग अहोरत्तं ति, तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्सा अनुक्रम [१७] ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: +% * प्रत सूत्रांक [४३] दीप परिमे दिवसे दो पादाणि य चत्तारि अंगुलाणि पोरिसी भवति, ता गिम्हाणं चंउत्थं मासं कति पाकवता लणेति ?, ता तिषिण णक्खत्ता ऐति, तं०-मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा, मूलो चोइस अहोरत्तेणेति, पुषासादा पण्णरस अहोरते णेति, उत्तरासाढा एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि बहाए समचउरंससंठिताए जग्गोधपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहवाई दो पदाई पोरिसीए भवति (सूत्र ४३) दसमस्स पाहुडस्स दसमं पाहुडपाहुई समतं ॥१०-१० ॥ 'ता कहं ते नेता आहियत्ति वएजा'ता' इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण भगवंस्ते-खया स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्षत्ररूपो नेता आख्यात इति वदेत् १, एतदेव प्रतिमासं पिपृच्छिपुराह-ता वासाण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथम मासं श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयन्ति-गमयन्ति ?, भगवानाह-"ता चत्तारी'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, चत्वारि नक्षत्राणि स्वयमस्तगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया क्रमेण नयन्ति, तद्यथा-उत्तरासाढा अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, तत्रोत्तराषाढा प्रथमान् । चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान्नयति, ततः परं श्रवणनक्षत्रमष्टौ अहोरात्रान्नयति, एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रा गताः, ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिनं चरममेकमहोरात्रं धनिष्ठानक्षत्रं स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, एवं चत्वारि नक्षत्राणि श्रावण मासं नयन्ति, तस्सि च णमित्यादि, तस्मिंश्च श्रावणे मासे चतुरङ्गलपौरुष्या-चतुरङ्गलाधिकपारुष्या छायया । S अनुक्रम [१७] 44KISCC ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], ----------------- मूल [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत (मल) सूत्रांक [४३] ॐ+ दीप सूर्यप्रज्ञ- सूर्योऽनु-प्रतिदिवस परावर्तते, किमुक्तं भवति ।-श्रावणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसङ्कान्त्या १.प्राभृते प्तिवृत्तिः तथा कथञ्चनापि परावर्तते यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्ते चतुरहुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति, तदेवाह-तस्स ण ९प्राभूत. मित्यादि, तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाङ्गलानि पौरुषी भवति, 'ता वासाण'मित्यादि, ता इति प्राभूते ॥१३३॥ पूर्ववत् वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य द्वितीयं भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति', अस्य वाक्यस्य नक्षत्रताराभावार्थः प्राग्वभावनीया, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत , चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शत-| ग्रं सू४२ १.प्रा० भिषक् पूर्वप्रोष्ठपदा उत्तरप्रोष्ठपदा 'च, तत्र धनिष्ठा तस्मिन् भाद्रपदे मासे प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमने १.प्रा० नाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, तदनन्तरं शतभिषक्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान् ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्वपोष्टपदा तदन-12 मासनेतृ० न्तरमेकमहोरात्रमुत्तरप्रोष्ठपदा, एवमेनं भाद्रपदं मासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च नक्षत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, मासे भाद्रपदे अष्टाङ्गलपौरुध्या-अष्टाहुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवस परावर्त्तते, सू ४३ अत्राप्यय भावार्थ:-भाद्रपदे मासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्क्रान्त्या तथा कथमपि परावर्त्तते ट्रायथा तस्य भाद्रपदस्य मासस्यान्ते अष्टालिका पौरुषी भवति, एतदेवाह-'तस्स ण'मित्यादि सुगम, एवं शेषमासगता-1 न्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं 'लेहत्थाई तिम्नि पयाईन्ति रेखा-पादपर्यन्तवर्जिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि ॥१३॥ पीरुपी भवति, किमुक्तं भवति -परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति, एषा चतुरङ्कला प्रतिमासं वृद्धिस्तावदवसेया यावत्पौषो मासा, तदनन्तरं प्रतिमासं चतुरला हानिर्वक्तव्या, सा च तावत् यावदापाढो मासः, तेनापानपर्यन्ते द्विपदा अनुक्रम [१७] B5 ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], ----------------- मूल [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: B प्रत सूत्रांक [४३] पौरुषी भवति, इदं च पौरुषीपरिमाणं व्यवहारत उक्त, निश्चयतः सा.विंशता अहोरात्रैश्चतुराला वृद्धिर्हानिर्वा वेदि-13 है तव्या, तथा च निश्चयतः पौरुषीपरिमाणप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः करणगाथा:-"पवे पारसगुणे तिहिट सहिए पोरिसी' आणयणे । छलसीयसयविभत्ते जं लद्धं तं वियाणाहि ॥१॥ जइ होइ विसमलद्धं दक्षिणमयणं ठविज नायव । अह हवइ समं लद्धं नायब उत्तरं अयणं ॥२॥ अयणगए तिहिरासी चतुग्गुणे पक्षपाय भइयवं । जलद्धमंगुलाणि खयबुड्डी पोरुसीए उ ॥३॥ दक्खिणबुद्दी दुपया अंगुलयाणं तु होइ नायबा। उत्तर अयणे हाणी कायबा चउहि पाएहिं ॥४॥ सावणबहुलपडिवया दुपया पुण पोरिसी धुवा होइ । चत्तारि अंगुलाई मासेणं बहुए तत्तो ॥५॥ इकचीसइ भागा तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्षिणअयणे वुड्डी जाव उ चत्तारि उ पयाई ॥६॥ उत्तर अयणे हाणी चाहिं पायाहि जाव दो पाया । एवं तु पोरिसीए बुहिखया हुंति नायथा ॥७॥ बुट्ठी वा हाणी वा जावइया पोरिसीए दिहा उ। ततो दिवसगएणं जं लद्धं तं खु अयणगयं ॥८॥" एतासां क्रमेण व्याख्या-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ | पौरुषीपरिमाणं ज्ञातुमिष्यते ततः पूर्व युगादित आरभ्य यानि पर्वाण्यतिक्रान्तानि तानि प्रियन्ते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेयोः प्रागतिक्रान्तास्तिथयस्ताभिः सहितानि क्रियन्ते, कृत्वा च षडशीत्यधिकेन शतेन तेषां भागो हियते, इह एकस्मिन्नयने ज्यशीत्यधिकमण्डलशतपरिमाणे चन्द्रनिष्पादितानां तिथीनां पडशीत्यधिक शतं भवति, ततस्तेन भागहरणं भागे च हते यल्लब्धं तद्विजानीहि सम्यगवधारयेत्यर्थः । तत्र यदि लब्धं विषमं भवति यथा एकत्रिका पञ्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पर्यन्तवर्ति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यं, अथ भवति लब्धं समं तद्यथा-द्विकश्चतुष्कः षट्ठोड दीप अनुक्रम [१७] EHENSES ॐ ~274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], --------------------- मूल [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत १० ग्राभूते प्राभतप्राभृते पौरुष्याधिकारःसू४३ सूत्रांक [४३]] दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ- एको दशको वा तदा तत्पर्यन्तवत्ति उत्तरायणमवसेय, तदेवमुक्तो दक्षिणायनोत्तरायणपरिज्ञानोपायः । सम्पति षडशील्यतिवृत्तिःधिकेन शतेन भागे हते यच्छेषमवतिष्ठते यदिवा भागासम्भवेन यच्छेषं तिष्ठति तद्गतविधिमाह-'अयणगए इत्यादि, (मल०) यः पूर्व भागे हते भागासम्भवे या शेषीभूतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वतते से चतुर्भिर्गुण्यते, गुणयित्वा च पर्वपादेन- ॥१३४॥ युगमध्ये यानि सर्वसङ्ग्या (ग्रंथा० ४०००) पर्याणि चतुर्विशत्यधिकशतसक्यानि तेषां पादेन-चतुर्थेनांशेन एकत्रि- शता इत्यर्थः, तया भागे हृते यल्लब्धं तान्यङ्गलानि चकारादलांशाश्च पौरुष्याः श्यवृझ्या ज्ञातव्यानि, दक्षिणायने पदध्रुवराशेरुपरि वृद्धी ज्ञातव्यानि, उत्तरायणे पदधुवराशेः क्षये ज्ञातव्यानीत्यर्थः, अथैवंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य वा कथमुत्पत्तिः, उच्यते, यदि पढशीत्यधिकेन तिथिशतेन चतुर्विशतिरङ्गलानि क्षये वृद्धी वा प्राप्यन्ते, तत एकस्यां तिथी का वृद्धिः क्षयो वा, राशित्रयस्थापना १८६ ॥ २४॥ १ अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेय, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तत आयेन राशिना पडशीत्यधिकशत| रूपेण भागो शियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकस्वादागो न लभ्यते, ततः छेद्यच्छेदकराश्योः पढ़ेनापवर्तना, जात उपरितनो |राशिचतुष्करूपोऽधस्तन एकत्रिंशत्, लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशदूभागाः क्षये पूजी वेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिंशद् भागहार इति, इह यल्लब्धं तान्यङ्गलानि क्षये वृद्धौ वा ज्ञातव्यानि इत्युक्तं, तत्र कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणं ध्रुवराशेरुपरि वृद्धौ कस्मिन् वा अयने किंप्रमाण ध्रुवराशेः क्षये इत्येतन्निरूपणार्थमाह-"दक्षिणबुड्डी'इत्यादि, दक्षिणासायने द्विपदात्-पदद्वयस्योपरि अङ्गुलानां वृद्धिर्ज्ञातव्या, उत्तरायणे चतुर्यः पादेभ्यः सकाशादङ्गलाना हानिः, तत्र युग [१७] M ॥१३४॥ ~275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] मध्ये प्रथम संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारभ्य वृद्धिस्तनिरूपयति-'सावणे'त्यादि गाथाद्वयं, युगस्य प्रथमे ४ * संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे प्रतिपदि पौरुषी द्विपदा-पदद्वयप्रमाणा ध्रुवा भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथिक्रमेण तावद धर्द्धते यावत् मासेन-सूर्यमासेन सार्वत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एकत्रिंशसिथिभि| रित्यर्थः, चत्वारि अङ्गलानि वर्धन्ते, कथमेतदवसीयते यथा मासेन-सूर्यमासेन साईविंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशति-18 राध्यात्मकेनेत्यत आह-'एक्कतीसे त्यादि, यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशनागा बर्द्धन्ते, एतच्च प्रागेव भावित, परि पूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि पदानि, ततो मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्युक्तं, तदेवमुक्ता वृद्धिः। सम्पति हानिमाह-'उसरे'त्यादि, युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्या आरभ्य चतुर्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिथि एकत्रिंशभागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदुत्तरायणपर्यन्ते ही पादौ पौरुषीति, एष प्रथमसंवत्सरगतो विधिः, द्वितीये संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे त्रयोदशीमादी कृत्वा वृद्धिः, माघमासे ४ शुक्लपक्षे चतुर्थीमादिं कृत्वा क्षयः, तृतीयसंवत्सरे श्रावणे मासे शुक्ले पक्षे दशमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपत्५ क्षयस्यादिः, चतुर्थे संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदशी क्षयस्यादिः, पश्चमे संवत्सरे श्रावणे मासे शुक्लपक्षे चतुर्थी वृद्धेरादिः, माघमासे शुक्लपक्षे दशमी क्षयस्यादिः, एतच्च करणगाथानुपात्तमपि पूर्वा-1 चार्यप्रदर्शितब्याख्यानादवसितं, सम्प्रत्युपसंहारमाह-एवं तु'इत्यादि, एवम्-उकेन प्रकारेण पौरुष्या-पीरुषीविषये वृद्धिलक्षयौ यथाक्रमं दक्षिणायने पूत्तरायणेषु वेदितव्यो, तदेवमक्षरार्थमधिकृत्य व्याख्याताः करणगाथाः, सम्प्रत्यस्य करणस्य दीप अनुक्रम [१७] ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 2 माभूते प्रत सूत्रांक मल.) እና በ [४३]] दीप भावना क्रियते-कोऽपि पृच्छति-युगे आदित आरभ्य पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति ?, तत्र १० प्राभृते चतुरशीतिधियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथी पृष्टमिति पञ्च, चतुरशीतिश्च पश्चदशभिर्गुण्यते जातानि द्वादश शतानि मामूत पध्यधिकानि १२६०, एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि १२६५, तेषां पौरुष्याधि|पडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षट्, आगतं षट् अयनान्यतिक्रान्तानि सप्तममयनं वर्तते, तद्गतं च शेषमे-IPS कारःसू४३ कोनपश्चाशदधिकं शतं तिष्ठति १४९, ततश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि षण्णवत्यधिकानि ५९६, तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, तत्र द्वादशाङ्कलानि पाद इत्येकोनविंशतेद्वादशभिः पदं लब्ध, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्त अङ्गुलानि, पष्ठं चायनमुत्तरायणं तद् गतं सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्त्तते, ततः पदमेकं सप्त अङ्गलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि पदानि सप्त अकुलानि, ये च सप्त एकत्रिंशदागाः शेषीभूता ४ वर्तन्ते तान् यवान् कुर्मः, तत्राष्टी यवा अङ्गले इति ते सप्त अष्टभिर्गुण्यन्ते, जाताः षट्पञ्चाशत् ५६, तस्या एकत्रिंशता भागे हृते लब्ध एको यवः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, आगतं पश्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां त्रीणि पदानि सप्त अकुलानि एको यव एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इत्येतावती पौरुषीति । तथाऽपरः कोऽपि पृच्छति-सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी, तत्र पण्णवतिधियते, तस्याश्चाधस्तात् पन्न, षण्णवतिश्च 31 | पञ्चदशभिगुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४४०, तेषां मध्येऽधस्तनाः पश्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि १४४५, तेषां पडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त अयनानि, अनुक्रम [१७] ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], ---------- मूल [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] शेष तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतं १४३, तत् चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पश्च शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ५७२, तेषामेकत्रिंशता भागो ह्रियते, लब्धान्यष्टादशाङ्कलानि १८, तेषां मध्ये द्वादशभिरजुलैः पदमिति लब्धमेकं पदं षट् अङ्गलानि, उपरि | चांशा उद्धरन्ति चतुर्दश १४, ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते, जातं द्वादशोत्तर शतं ११२, तस्यैकत्रिंशता भागे हते लब्धाखयो यवाः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, सप्त चायनान्यतिक्रान्तानि अष्टमं वर्तते, अष्टम चायनमुत्तरायण, उत्तरायणे च पदचतुष्टयरूपात् ध्रुवराशेहानिर्वक्तच्या तत एक पद सप्त अङ्गलानि यो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात्पात्यते, शेष तिष्ठति दे पदे पश्चाङ्गलानि चत्वारो यवा एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशधागा, एतावती युगे आदित आरभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथी पौरुषीति, एवं सर्वत्र भावनीयं । सम्प्रति पौरुषीपरिमाणतोऽयनगतपरिमाणज्ञापनार्थमियं करणगाथा-बुद्दी 'त्यादि, पौरुष्यां यावती वृद्धिहानिर्वा दृष्टा ततः सकाशाद् दिवसगतेन प्रवर्त्तमानेन वा त्रैराशिककर्मानुसारणतो यत् लब्धं तत् अयनगतं-अयनस्य तावत्प्रमाणं, गतं वेदितव्यं, एष करणगाथाक्षरार्थः। भावना त्वियम्-तत्र दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गलानि वृद्धौ दृष्टानि, ततः कोऽपि पृच्छति-किय गतं दक्षिणायनस्य ?, अत्र त्रैराशिककर्मावतारो-यदि चतुर्भिरङ्गलस्य एकमात्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते ततश्चतुर्भिरङ्गलैः कति तिथीलभामहे ?, राशित्रयस्थापना ४,१, ४ । अत्रान्त्यो राशिरगलरूप एकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जातं चतुर्विंशत्यधिक शर्त १२४, तेन मध्यो राशिगुण्यते, जातं तदेव चतुर्वि| शत्यधिकं शतं १२४, 'एकगुणने तदेव भवतीति वचनात् , तस्य चतुष्करूपेणादिराशिना भागो हियते, लब्धा एकत्रि दीप अनुक्रम [१७] ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------- ------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) ॥१३६॥ [४३] दीप शत्तिथयः, आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरङ्गाला पौरुष्यां वृद्धिरिति । तथा उत्तरायणे पदचतुष्टयाद- १० माभूते ङ्गलाष्टक हीनं पौरुण्यामुपलभ्य कोऽपि पृच्छति-किं गतमुत्तरायणस्य !, अत्रापि त्रैराशिक-यदि चतुर्भिरङ्गलस्य एकत्रि १०मा भृतशागैरेका तिथिर्लभ्यते ततोऽष्टभिरअलैहीनः कति तिथयो लभ्यन्ते !, राशित्रयस्थापना ४।१।८ । अत्रात्यो राशि-IMIMIMS प्राभूते रेकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुप्यते, जाते वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८, ताभ्यां मध्यो राशिरेककरूपो गुण्यते, AIRAT जाते ते एव द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८, तयोराद्येन राशिना चतुष्करूपेण भागहरणं, लब्धा द्वाषष्टिः ६२, आगतमुत्तरायणे द्वापष्टितमाया तिथी अष्टावकलानि पौरुष्या हीनानीति । तस्सि च णं मासंसि वहाए'इत्यादि, तस्मिनापाढे मासे प्रकाश्यस्य वस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया ग्यमोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया उपलक्षणमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया, आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिकान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनरापाढमासस्य चरमदिवसे, तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये, ततो यत्प्रकाश्य वस्तु यरसंस्थान भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते, तत उक-वत्तस्य वत्तयाए' इत्यादि, एतदेवाह--'खकायमनुरङ्गिन्या'X स्वस्थ-स्वकीयस्य छायानिबन्धमस वस्तुनः काया-शरीरं खकायस्तं अनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंशीलाऽनुरङ्गिनीXI ॥१३६॥ "द्विषद्गृहे त्यादिना घिनश्प्रत्ययः, तया स्वकायमनुरबिन्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवसं परावते, एतदुकं भवतिआषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्कान्त्या तथा कथानापि सूर्यः परावर्तते यथा सर्वस्यापि अनुक्रम [१७] ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], ---------- ------- मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐॐॐॐॐ [४३] दीप प्रकाश्यवस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति, शेषं सुगमम् ॥ इति इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभूतस्य प्राभृतप्राभृतं- १० समाप्त तदेवमुक्तं वशमस्य प्राभूतस्य दशमं प्राभृतप्राभृत, साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'नक्षत्राण्यधिकृत्य चन्द्रमार्गा वक्तव्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते चंदमग्गा अहितेति वदेजा, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्षताणं अस्थि णवत्ता जे गं| सता चंदस्स दाहिणेणं जो जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं सता चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोयंति, अत्धि ४ णक्वत्ता जे गं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमईपि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खसा जे णं चंदस्स दाहि णवि पमपि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ते जेणं चंदस्स सदा पमई जोअंजोएंति, ता एएसिणं अट्ठावीसाए। नक्षत्साणं कतरे नक्षत्सा जे णं सता चंदस्स दाहिणणं जोयं जोएंति, तहेव जाच कतरे नक्खत्ता जे गं सदा चंदस्स पमई जोयं जोएंति ?, ता एतेसि णं अहावीसाए नक्खत्ताणं जे णं नक्खत्ता सया चंदस्स दाहि-8 गण जोयं जोएंति ते णं छ, तं०-संठाणा अद्दा पुस्सो अस्सेसा हत्थो मूलो, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सदा चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति,ते गं बारस, तंजहा-अभिई सवणो धणिट्ठा सतभिसया पुषभदवया उत्तरा-18 पोट्टषता रेवती अस्सिणी भरणी पुषाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी साती १२, तस्थ जे ते णक्खत्ता जे गं अनुक्रम [१७] * 4% FarPranaamymucom अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १० परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ११ आरभ्यते ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------- ------- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दीप सूर्यप्रज्ञ- चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमईपि जोयं जोएंति ते णं सत्त, तंजहा कत्तिया रोहिणी पुणवसू महा १० प्राभृते शिवतिः चित्ता विसाहा अणुराहा, तत्थ जे ते नक्खत्ता जे चंदस्स दाहिणेणवि पमपि जोयं जोएंति ताओ णं ११प्राभुत(मल.) दो आसाढाओ सबबाहिरे मंडले जोयं जोएंमु वाजोएंति वा जोएस्संतिवा, तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं सदा प्राभृते ॥१३७॥ चंदस्स पमई जोयं जोएंति, साणं एगा जेट्टा (सूत्रं ४४)॥ चन्द्रम| 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं !-केन प्रकारेण नक्षत्राणां दक्षिणत उत्तरतः प्रमईतो यदिवा सूर्यनक्षत्रै-12 णमार्गः सू४४ Xविरहिततया अविरहिततया चन्द्रस्य मार्गा:-चन्द्रस्य मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलरूपा वा मागों आख्याता इति| विदेत , भगवानाह-'ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्येऽस्तीति निपातत्वादाप-14 स्वाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि णमिति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति-कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि स्थितानि उत्तरस्यामपि दिशि स्थितानि योग युञ्जन्ति,IAL प्रमईमपि-प्रमईरूपमपि योगं कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि * ॥१३७॥ योगं युआन्ति प्रमहरूपमपि योग युञ्जन्ति, अस्ति तन्नक्षत्रं यत्सदा चन्द्रस्य प्रमईरूपं योग युनक्ति, एवं सामान्येन भग-IX वतोके भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता एएसिण'-IA मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां 51 अनुक्रम [१८] LCSCCS ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------- ------- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [१८] दिशि व्यवस्थितानि योगं कुर्वन्ति तानि पद, तद्यथा-मृगशिर आर्द्रा पुष्योऽश्लेषा हस्तो मूलश्च, एतानि हि सर्वाण्यपि पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डलस्य बहिश्चारं चरन्ति, तथा चोक्तं करणविभावनायां-पन्नरसमस्स चंद्दमंडलस्स बाहिरओ मिग| सिर अद्दा पुस्सो असिलेहा हत्थ मूलो य" जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तावप्युक्तम्-"संठाण अद्द पुस्सोऽसिलेस हत्थो तहेव मूलो य । बाहिरओ बाहिरमंडलस्स छप्पे य नक्खत्ता ॥१॥" ततः सदैव दक्षिणदिग्व्यवस्थितान्येव तानि चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्युपपद्यन्ते नाम्यथेति, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि यानि सदा-सर्वकालं चन्द्रस्योत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युजन्ति-कुर्वन्ति तानि द्वादश, तद्यथा-'अभिई इत्यादि, एतानि हि द्वादशापि नक्षत्राणि सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले चारं चरन्ति, तथा चोक्तं करणविभावनायां-“से पढमे सबभतरे चंद|मंडले नक्खत्ता इमे, तंजहा-अभिई सवणो धणिहा सयभिसया पुषभद्दवया उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी भरणी पुषफग्गुणी उत्तरफग्गुणी साई" इति, यदा चैतैः सह चन्द्रस्य योगस्तदा स्वभावाच्चन्द्रः शेषेष्वेव मण्डलेषु वर्त्तते, ततः सदैवैतान्युत्तरदिग्व्यवस्थितान्येव चन्द्रमसा सह योगमुपयन्तीति, तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति उत्तरस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति प्रमईरूपमपि योगं युञ्जन्ति तानि सप्त, तद्यथा-कृत्तिका रोहिणी पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा, केचित् पुनज्येपठानक्षत्रमपि दक्षिणोत्तरप्रमईयोगि मन्यन्ते, तथा चोक्तं लोकश्रियाम्-'पुणवसु रोहिणिचित्तामहजेडणुराह कत्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोगी'त्ति, अन 'उभयजोगि'त्ति व्याख्यानयता टीकाकृतोतं-एतानि नक्षत्राणि उभययो ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत ०प्राभूते११माभूतप्राभृते चन्द्रश्रमणमार्गः सू४४ सूत्रांक [४४] दीप सूर्यप्रज्ञ- गीनि-चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिद् भेदमप्युपयान्तीति, तच्च वक्ष्यमाणज्येष्ठासूत्रेण सह विरोधीति न प्तिवृत्तिः प्रमाण, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये ये ते नक्षत्रे ये णमिति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि-दक्षि- (मल०) णस्यामपि दिशि व्यवस्थिते योगं युङ्गः, प्रमर्दै च-प्रमरूपं च योगं युक्तः, ते णमिति वाक्यालङ्कारे, द्वे आपाढे पूर्वाषाढो-1 तरापाढारूपे, ते हि प्रत्येक चतुस्तारे, तथा च प्रागेवोक्तम्-'पुधासाढे चउत्तारे पण्णत्ते' इति, तत्र द्वे द्वे तारे सर्वबाद्यस्य ॥१३८॥ पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरतो वे द्वे बहिः, तथा चोक्तं करणविभावनायाम्-"पुवुत्तराण आसाढाणं दो दो ताराओ अम्भितरओ दो दो बाहिरओ सघबाहिरस्स मंडलस्स" इति, ततो ये द्वे द्वे तारे अभ्यन्तरतस्तयोर्मध्येन चन्द्रो गच्छतीति तदपेक्षया प्रमई योगं युत इत्युच्यते, ये तु द्वे द्वे तारे बहिस्ते चन्द्रस्य पश्चदशेऽपि मण्डले चारं चरतः सदा दक्षिणदिगब्यवस्थिते ततस्तदपेक्षया दक्षिणेन योग युङ्ग इत्युकं, सम्प्रत्येतयोरेव प्रमईयोगभावनार्थ किश्चिदाह-ताओ य सबबाहिरे'त्यादि, ते च-पूर्वाषाढोत्तराषाढारूपे नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमयुक्तां युक्ती योक्ष्येते वा सदा सर्वबाह्ये मण्डले व्यवस्थिते, ततो यदा पूर्वाषाढोत्तराषाढाभ्यां सह चन्द्रो योगमुपैति तदा नियमतोऽभ्यन्तरतारकाणां मध्येन गच्छतीति तदपेक्षया प्रमदमपि योग युक्त इत्युक्तं, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यत्तनक्षत्रं यत्सदा चन्द्रस्य प्रमईकामद्देरूपं योगं युनक्कि सा एका ज्येष्ठा । तदेवं मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपाश्चन्द्रमार्गा उक्काः, सम्प्रति मण्डलरूपान चन्द्रमार्गानभिधित्सुः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह1 ता कति ते चंदमंडला पपणत्ता , ता पण्णरस चंदमंडला पं०, ता एएसि णं पण्णरसण्डं चंदमंहलाणं अनुक्रम [१८] For Pare ~ 283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------- ------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] साथि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया, अस्थि चंदमंडला जे णं रविससिणक्खत्ताणं सामण्णा भवति, अस्थि मंडला जे णं सया आदिचेहिं विरहिया, ता एतेसि र्ण पण्णरसह चंदमंडलाणं कयरे चंदमंडला जे णं सता णक्खत्तेहिं अविरहिया, जाव कयरे चंदमंडला जे णं सदा आदिवविरसाहिता?, ता एतेसि णं पण्णरसण्हं चंदमंडलाणं तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सदा णक्खत्तेहिं अविरहिता तेणं अह, तं०-पढमे चंदमंडले ततिए चंदमंडले छ? चंदगडले सत्तमे चंदमंडले अट्ठमे चंदमंडले दसमे चंदमंडले एकादसे चंदमंडले पण्णरसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सदा णक्खत्तेहिं विरहिया तेणं सत्त, तं-बितिए चंदमंडले चउत्थे चंदमंडले पंचमे चंदमंडले नवमे चंदमंडले बारसमे चंदमंडले तेरसमे चंदमंडले चउद्दसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंडले जे णं ससिरविनक्खताणं समाणा भवंति, ते नणं चत्तारि, तंजहा-पढमे चंदमंडले बीए चंदमंडले इक्कारसमे चंदमंडले पारसमे चंदमंडले, तत्थ जेते| ४चंदमंडला जे णं सदा आदिवविरहिता ते णं पंच, तं०-छठे चंदमंडले सत्तमे चंदमंडले अट्ठमे चंदमंडले & नवमे चंदमंडले दसमे चंदमंडले, (सूत्र ४५) दसमस्स एक्कारसमं पाहुडपाहुई समत्तं ॥ | "ता कइ णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , कतिसङ्ख्यानि णमिति वाक्यालङ्कारे, चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाह–ता पण्णरसे'त्यादि, ता इति प्राग्वत् , पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, तत्र पश्च चन्द्रमण्डलानि जम्बूद्वीपे शेषाणि च दश मण्डलानि लवणसमुद्रे, तथा चोक्तं "जंबूदीपप्रज्ञप्ती-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहिता केव-त दीप BARABARKESEAC अनुक्रम [१९] ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [ ५९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) — प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [११], मूलं [ ४५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ( मल०) ॥१३९॥ सूर्यप्रश- ४ इया चंदमंडला पन्नता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असीर्य जोयणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं पंच चंदमंडला पण्णत्ता, •ष्ठिवृत्तिः लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं ओगाहिता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता १, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिष्णि तीसाई जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमंडला पण्णत्ता, एवामेव सपुधावरेणं जंबुद्दीवे लवणे य पन्नरस चंदमंडला भवन्तीति अक्खायं" 'ता' इत्यादि, 'ता' इति तत्र एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'अस्थि' त्ति सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षत्रैरविरहितानि तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षत्रैर्विरहितानि तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि - साधारणानि, किमुक्तं भवति ?-रविरपि तेषु मण्डलेषु गच्छति शश्यपि नक्षत्राण्यपीति, तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा आदित्याभ्यां सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् विरहितानि येषु न कदाचिदपि द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये एकोऽपि सूर्यो गच्छतीति भावः, एवं भगवता सामान्येनोके भगवान् गौतमो विशेषावगमननिमित्तं भूयः प्रश्नयति- 'ता एएसि ण' मित्यादि सुगमं, भगवानाह - 'ता एएसिणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि णमिति प्राग्वत् | सदा नक्षत्रैरविरहितानि तान्यष्टौ तद्यथा-'पढमे चंदमंडले' इत्यादि, तत्र प्रथमे चन्द्रमण्डले अभिजिदादीनि द्वादश नक्षत्राणि, तथा च तत्सग्रहणिगाथा - 'अभिई सवण घणिट्ठा सयभिसया दो य होंति भवया । रेवइ अस्सिणी भरणी दो फग्गुणि साइ पढमंमि ॥ १ ॥ तृतीये चन्द्रमण्डले पुनर्वसुमधे षष्ठे चन्द्रमण्डले कृत्तिका सप्तमे रोहिणीचित्रे अष्टमे विशाखा दशमे अनुराधा एकादशे ज्येष्ठा पञ्चदशे मृगशिर आर्द्रापुष्यो अश्लेषा हस्तो मूलः पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च Ja Eucation Internationa For Par Use Only ~285~ १० प्राभृते ११ प्राभूतप्राभृते चन्द्रमण्डलमार्गः सू ४५ ॥१३९॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ४५ ] दीप अनुक्रम [ ५९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) — प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [११], मूलं [ ४५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तत्राद्यानि पटू नक्षत्राणि यद्यपि पञ्चदशस्य मण्डलस्य बहिश्चारं चरन्ति तथापि तानि तस्य प्रत्यासन्नानीति तत्र गण्यन्ते, ततो न कश्चिद्विरोधः, तथा तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षविरहितानि तानि सप्त, तद्यथा-द्वितीयं चन्द्रमण्डलमित्यादि, तथा तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति तानि णमिति प्राग्वत् चत्वारि, तद्यथा- 'पढमे चंदमंडले' इत्यादि, तथा तत्र तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा आदित्याभ्यां विरहितानि तानि पञ्च तद्यथा-'छट्ठे चंदमंडले' इत्यादि सुगमं एतद्भणनाच्च यान्यभ्यन्तराणि पञ्च चन्द्रमण्डलानि, तद्यथाप्रथमं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थे पञ्चमं, यानि च सर्ववाद्यानि चन्द्रमण्डलानि तद्यथा-एकादशं द्वादशं त्रयोदशं चतुर्दशं पश्चदशमित्येतानि दश सूर्यस्यापि साधारणानीति गम्यते, तथा चोक्तमन्यत्र - 'दस चैव मंडलाई अभितरबाहिरा रविससीणं । सामन्नाणि उ नियमा पत्तेया होंति सेसाणि ॥ १ ॥" अस्याक्षरगमनिका - पश्चाभ्यन्तराणि पञ्च बाह्यानि सर्वसङ्ख्या दश मण्डलानि नियमाद्रविशशिनोः सामान्यानि - साधारणानि, शेषाणि तु यानि चन्द्रमण्डलानि पडादीनि दशपर्यन्तानि तानि प्रत्येकानि असाधारणानि चन्द्रस्य, तेषु चन्द्र एव गच्छति नतु जातुचिदपि सूर्य इति भावः, इह किं चन्द्रमण्डलं कियता भागेन सूर्यमण्डलेन न स्पृश्यते कियन्ति वा चन्द्रमण्डलस्यापान्तराले सूर्यमण्डलानि कथं वा षडादीनि दशपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्येण न स्पृश्यन्ते इति चिन्तायां विभागोपदर्शनं पूर्वाचार्यैः कृतं, ततस्तद्विनेयजनानुग्रहायोपदर्श्यते तत्र प्रथमत एतद्विभावनार्थं विकम्पक्षेत्रकाष्ठा निरूप्यते, इह सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पश्च Education Internation For Parts Only ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------- ------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभूत प्रत सूत्रांक [४५] प्राभृते चन्द्रमण्डलमागे: सू४५ सूर्यप्रज्ञ- योजनशतानि दशोत्तराणि, तथाहि-यदि सूर्यस्यैकेनाहोरात्रेण विकम्पो द्वे योजने एकस्य च योजनस्याष्टाचत्वारिंश-18 प्तिवृत्तिःदेकषष्टिभागा लभ्यन्ते, ततख्यशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-२१८३ अत्र सवर्णनार्थ (मल.) योजने एकपल्या गुण्यते, गुणयित्वा चोपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातं सप्तत्यधिक ॥१४०॥ शतं १७०, एतण्यशीत्यधिकेन शतेनान्त्यराशिना गुण्यते, जातान्येकत्रिंशत् सहस्राणि शतमेकं दशोत्तरं ३१११०, तत एतस्य राशेयोजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि पश्च योजनशतानि दशोत्तराणि ५१०, एतावती सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, चन्द्रमसः पुनर्विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकपष्टिभागाः, तथाहि-यदि चन्द्रमस एकेनाहोरात्रेण विकम्पः षटूत्रिंशद्योजनानि एकस्य च योजनस्य पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागा लभ्यन्ते ततश्चतुर्दशभिरहोरात्रैः किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १४ अत्र सवर्णनार्थं प्रथमतः पत्रिंशतं एकषध्या गुण्यते गुणयित्वा चोपरितनाः पश्चविंशतिरेकषष्टिभागास्तत्र प्रक्षिसे प्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिः शतानि एकविंशत्यधिकानि २२२१, एतानि सप्तभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चत्वारः सप्तभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातानि पञ्चदश सहस्राणि पश्च शतान्येकपश्चाशदधिकानि १५५५१, ततो योजनानयनार्थ छेदराशिरप्येकषष्टिलक्षणः सप्तभिर्गुण्यते, जातानि चत्वारि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ४२७, तत उपरितनो राशिचतुर्दशभिरम्त्यराशिरूपैर्गुण्यते, ततो जातो द्वे लक्षे सप्तदश सहस्राणि सप्तदशानि चतुर्दे शाधिकानि २१७७१५, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः सप्तभिरपवर्तना, जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं व्युत्तरं ३११०२ दीप १.१६१४.. . अनुक्रम [१९] ॥१४॥ *** ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] छेदराशिरेकषष्टिस्ततस्तया भागे हृते लब्धानि पञ्च योजनशतानि नचोत्तराणि एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकषष्टि-18 भागाः ५०९१५३, एतावती चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, सूर्यमण्डलस्य २ च परस्परमन्तरं द्वे द्वे योजने चन्द्रमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य च परस्परं अन्तरं पश्चत्रिंशद् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः, उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ-"सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलस्स एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते ?, गोअमा! दो जोयणाई सूरमंडलस्स सूरमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते" तथा "चंदमंडलस्स णं भंते । चंदमंडलस्स एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते?, गोयमा पन्नत्तीसं जोयणाई तीसं च एगठिभागा जोअण-12 स्स एगं च एगहिभार्ग सत्तहा छित्ता चत्तारि अ चुण्णिा भागा सेसा चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णते" इति, एत-13 हादेव च सूर्यमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य च स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणयुक्तं सूर्यस्य चन्द्रममश्च विकम्पपरिमाणमवसेयं, | तथा चोकम्-"सूरविकंपो एको समंडला होइ मंडलंतरिया। चंदविकंपो य तहा समंडला मंडलंतरिया ॥१॥" अस्या, गाथाया अक्षरगमनिका-एकः सूर्यविकम्पो भवति 'मंडलंतरियत्ति अन्तरमेव आन्तये, भेषजादित्वात् स्वार्थे यण, ततः स्त्रीत्वविवक्षायां डीप्रत्यये आन्तरी आन्तर्येवं आन्तरिका मण्डलस्य मण्डलस्यान्तरिका मण्डलान्तरिका 'समंडल'त्ति इह | मण्डलशब्देन मण्डलविष्कम्भ उच्यते, परिमाणे परिमाणवत उपचारात् , ततः सह मण्डलेन-मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन | परिमाणेन वर्तते इति समण्डला, किमुक्तं भवति-एकस्य सूर्यमण्डलान्तरस्य यत्परिमाणं योजनद्वयलक्षणं तदेकसूर्यमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागलक्षणेन सहितमेकस्य सूर्यमण्डलस्यविकम्पपरिमाणमिति, तथा मण्डलान्त दीप अनुक्रम [५९] 5 ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], ...............-- प्राभतप्राभत [११], ..... ......- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्तिवृत्तिः ११प्राभूत मल.) पाभृते प्रत सूत्रांक [४५]] ॥१४॥ दीप भरिकाचन्द्रमण्डलान्तरपरिमाण पञ्चत्रिंशत् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागा एकस्य चैकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागा इत्येवंरूपं 'समंडल'त्ति मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन सहिता एकश्चन्द्रविकम्पो भवति, यस्तु विकम्पक्षेत्रकाष्ठा-४ दर्शनतो विकम्पपरिमाणं ज्ञातुमिच्छति तं प्रतीय पूर्वाचार्योपदर्शिता करणगाथा-"सगमंडलेहि लद्धं सगकठाओ हवंति | सविकंपा । जे सगविक्खंभजुया हवंति सगमंडलंतरिया ॥१॥" अस्या अक्षरमात्रगमनिका-ये चन्द्रमसः सूर्यस्य वा चन्द्रमण्ड लमागे विकम्पाः, कथम्भूतास्ते इत्याह-'स्वकविष्कम्भयुताः स्वकमण्डलान्तरिकाः' स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणसहितस्वस्वमण्डलान्तरिकारूपा इत्यर्थः, भवन्ति स्वकाष्ठातः-स्वस्वविकम्पयोग्यक्षेत्रपरिमाणस्य स्वकमण्डलैः-स्वस्वमण्डलसङ्ख्यया भागे हुते यलब्धं तावत्परिमाणास्ते स्वविकम्पा:-स्वस्वविकम्पा भवन्ति, तथाहि-सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजन-1 शतानि दशोत्तराणि ५१०, तान्येकपष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या' गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं देशोत्तरं ३१११०, सूर्यस्य मण्डलानि विकम्पक्षेत्रे व्यशीत्यधिकं शतं १८३, ततो योजनानयनार्थ व्यशीत्यधिक मण्डलशतमेकषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकादश सहस्राणि शतमेकं त्रिषध्यधिकं १११६३, एतेन पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धे द्वे योजने, शेषमुपरिष्टादुद्धरति सप्ताशीतिः शतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, ततः सम्प्रत्येकषष्टिभागा आनेतन्या इत्यधस्तात् छेदराशिः यशीत्यधिक शतं १८३, तेन भागे हृते लब्धा अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ४८, एतावदेकैकस्य सूर्यविकम्पस्य परि- | ॥१४१॥ माणं, तथा चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रिपञ्चाशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य ५०९ तत्र योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थ एकपट्या गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि एकोनपञ्चाशदधिकानि ३१०४९, तत४ अनुक्रम [५९] ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] उपरितनास्त्रिपश्चाशदेकपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं व्युत्तर ३११०२, चन्द्रस्य तु विकम्पक्षेत्रमध्ये मण्डलानि चतुर्दश १४, ततो योजनानयनाघे चतुर्दश एकषया गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि चतुःपश्चाशदधिकानि ८५४, तैः पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धानि षट्त्रिंशद् योजनानि ३६, शेषाणि तिष्ठन्ति त्रीणि शतान्यष्टापश्चाशदधिकानि ३५८, अत ऊर्व एकपष्टिभागा आनेतव्याः, ततश्चतुर्दशरूपोऽधस्तात् छेदराशिः १४, तेन भागे हृते लब्धाः | पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाः २५, शेषास्तिष्ठन्ति अष्टौ, सप्तभागकरणार्थ सप्तभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पश्चाशत् ५६, तस्याश्च| तुर्दशभिर्भागे लब्धाश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावत्परिमाण एकैकश्चन्द्रविकम्प इति । तदेवं चन्द्रस्य सूर्यस्य च विकम्पक्षेत्र| काष्ठा चन्द्रमण्डलानां सूर्यमण्डलानां च परस्परमन्तरमुक्तं, सम्प्रति प्रस्तुतमभिधीयते-तत्र सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले | सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं सर्वात्मना प्रविष्टं, केवलमष्टावेकपष्टिभागाश्चन्द्रमण्डलस्य बहिः शेषा वर्तन्ते, चन्द्रमण्डलात् सूर्यमण्डलस्याष्टाभिरेकपष्टिभागहीनत्वात् , ततो द्वितीयाचन्द्रमण्डलादागपान्तराले द्वादश सूर्यमार्गाः, तथाहिद्वयोश्चन्द्रमण्डलयोरन्तरं पश्चत्रिंशत् योजनानि त्रिंशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र योजनान्येकपष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकविंशतिः शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि २१६५, सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, तत्र द्वे योजने एकपल्या गुण्येते, जातं द्वाविंशं शतं १२२, तत उपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य प्रक्षि-14 प्यन्ते जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धा द्वादश, एतावन्तोऽपान्तराले सूर्यमार्गा भवन्ति, दीप अनुक्रम [५९] ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [५९] सूर्यप्रज्ञ शेष तिष्ठति पञ्चविंशं शतं १२५, तत्र द्वाविंशेन शतेन द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने लब्धे शेषास्तिष्ठन्ति त्रय8/१० प्राभृते तिवृत्तिः एकपष्टिभागाः, येऽपि च प्रथमे चन्द्रमण्डले रविमण्डलात् शेषा अष्टावकषष्टिभागास्तेऽप्यत्र प्रक्षिप्यन्ते इति जाता११माभूत(मल०) एकादश एकपष्टिभागाः, तत इदमागतं द्वादशात्सूर्यमार्गात् परतो द्वितीयाचन्द्रमण्डलादाक् द्वे योजने एकादश च प्राभृते चन्द्रमण्ड॥१४॥ एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र योजनद्वयानन्तरं सूर्यमण्डलमतो द्वि लमागे तीयाच्चन्द्रमण्डलादोगभ्यन्तरं प्रविष्टं सूर्यमण्डलं एकादश एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् , ततः परं प षटुशिंत्रदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलं चन्द्रमण्डलसम्मिश्र, ततः सूर्यमण्डलात्परतो बहिर्विनिर्गतं चन्द्रमण्डलमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान , ततः परं भूयस्तृतीय[स्य चन्द्रमण्डलादर्वाग् यथोक्तपरिमाणमन्तरं, तयथा-पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशदेक-14 पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावति चान्तरे द्वादश सूर्यमागों लभ्यन्ते, ठाउपरि चढे योजने प्रयकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागासतोऽत्र मागुक्ताका द्वितीयस्य चन्द्रमण्डलस्य सत्काः सूर्यमण्डलाद बहिर्विनिर्गता एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य ट्रा चत्वारः सप्तभागाः प्रक्षिष्यन्ते, ततो जाताखयोविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सरक एकः सप्तभागा, तत इदमायात-द्वितीयाचन्द्रमण्डलारपरतो द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो योजनदयातिक्रमेण सूर्य-15 लामण्डलं, तच तृतीयाबन्द्रमण्डलाद गभ्यन्तरं प्रविष्टं त्रयोविंशतिमेकषष्टिभागान एक च एकषष्टिभागसत्कं सतभागं, ततः ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभूत [१०], -- -- प्राभृतप्राभूत [११], ------------- मूल [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] 455 दीप अनुक्रम [१९] पाश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य षट् सप्तभागाः सूर्यमण्डलस्य तृतीयचन्द्रमण्डलसम्मिश्राः ततस्ततीयं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गतमेकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तमार्ग, ततो भूयोऽपि यथोकं चन्द्रमण्डलान्तरं तस्मिंश्च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने त्रय एक-18 पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागास्ततो येऽत्र तृतीयमण्डलसत्काः सूर्यमण्डलादहिविनिर्गता एकत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तभागस्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाताश्चतुर्विंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पश्च सप्तभागास्तत इदं वस्तुतत्त्वं जातं-तृतीयाचन्द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गा द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो योजनद्वयमतिक्रम्य सूर्यमण्डलं तच्चतुर्थाचन्द्रमण्डलादाक् अभ्यन्तरं प्रविष्टं चतुर्विंशतमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पश्च सप्तभागान, ततः शेष सूर्यमण्डलस्य त्रयोदश एकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्को द्वौ भागौ इति, एतावच्चतुर्थचन्द्रमण्डलसम्मिश्र, चतुर्थस्य च चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलादू बहिर्विनिर्गतं द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागा, ततः पुनरपि यथोदितपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, द्वादशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि दे। योजने ब्रय एकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र चायचतुधेचन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डला बहिर्विनिर्गता द्वाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागास्ते अत्र राशी प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाताः षट्चत्वारिंशदेकषष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्को सप्तभागा, तत एवं वस्तुस्वरूपमवग 55 ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ENCR प्रत सूत्रांक [४५] ॥१४३॥ दीप अनुक्रम [५९] सूर्यप्रज्ञ- न्तव्य-चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलात् परतो द्वादश सूर्यमार्गा द्वादशाच्च सूर्यमार्गात्परतो योजनद्वयातिक्रमे सूर्यमण्डलं, तब १० प्राभृते प्तिवृत्तिः पञ्चमाञ्चन्द्रमण्डलादक अभ्यन्तरं प्रविष्टं षट्चत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् द्वौ च एकस्यैकपष्टिभागस्य सत्को सप्तभागी, ४११प्राभूतशेष सूर्यमण्डलस्य एक एकषष्टिभाग एकस्य च एकषष्टिभागस्य पञ्च सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं पञ्चमचन्द्रमण्डलसम्मिश्र, प्राभृते तस्य पश्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाहिर्षिनिर्गतं चतुःपश्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य द्वी सप्त चन्द्रमण्डभागौ, तदेवं पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि, चतुर्यु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश णमार्ग: स४५ सूर्यमार्गा इति जातं, सम्प्रति पष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलासंस्पृष्टानि भाव्यन्ते-तत्र पञ्चमाञ्चन्द्रमण्डलात्परतो भूयः षष्ठं चन्द्रमण्डलमधिकृत्यान्तरं [तञ्च पश्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशकषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र च पञ्चत्रिंशद्योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थमेकषष्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनास्त्रिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिष्यन्ते, ततो जातान्येकविंशतिः शतानि पाषट्यधिकानि २१६५, येऽपि |च पश्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गताश्चतुःपञ्चाशदेकषष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्को सप्त|भागी तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिः शतान्येकोनविंशस्यधिकानि २२१९, सूर्यस्य विकम्पो वे योजने अष्टाच त्वारिंशदेकषष्टिभागाधिके, तत्र द्वे योजने एकपल्या गुण्येते जातं द्वाविंशं शतमेकपष्टिभागानां, तत उपरितना अष्टाचसात्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिष्यन्ते, जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन पूर्वरायोर्भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्ति || 13ानव एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागास्तत इदमागतं-पचमाचन्द्रमण्डलात्परतत्रयोदश सूर्यमागास्त्र-ना ॥१४३॥ ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], ------------------ मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [५९] योदशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि षष्ठाचन्द्रमण्डलादाक् अन्तरं नव एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य | सत्काः पट् सप्तभागाः, ततः परतः षष्ठं चन्द्रमण्डलं, तच्च षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागात्मक, ततः परतः सूर्यमण्डलादागन्तरं षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागस्तदनन्तरं सूर्यमण्डलं तस्माश्च परत एकपष्टि|भागानां चतुरुत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्केनैकेन सप्तभागेन हीनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं प्राप्यते इति तस्मात्सूर्यमण्डलात्परतोऽन्ये द्वादशसूर्यमाई लभ्यन्ते, ततः सर्वसङ्कलनया तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्य-14 मार्गाः, तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि सप्तमाञ्चन्द्रमण्डलार्वाक् अन्तरमेकविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रयः सप्तभागाः, ततः सप्तमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्च सप्तमाचन्द्रमण्डलात्परतः चतुश्चत्वारिंशता एकषष्टि-12 भागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैश्चतुर्भिः सप्तभागैः सूर्यमण्डलं, ततो द्विनवतिसरेकषष्टिभागैश्चतुर्भिश्च एकस्य एकपष्टिभागस्य सत्कैः सप्तभागः न्यूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं ततः परमस्तीत्यन्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्य बहिरष्टमाचन्द्रमण्डलादक अन्तरं त्रयस्त्रिंशदेकषष्टिभागाः, ततोऽष्टमं चन्द्रमण्डलं, तस्माचाष्टमाचन्द्रमण्डलात्परतस्त्रयस्त्रिंशता एकपष्टिभागः सूर्यमण्डलं, ततः एकाशीतिसयरेकषष्टिभागैरूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं पुरतो विद्यते इति ततः पुरतोऽन्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गास्ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्रयोदशाच सूर्यमार्गात पुरतो नवमाञ्चन्द्रमण्डलादागन्तरं चतुश्चत्वारिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागा, ततः परं नवमं चन्द्रमण्डलं, ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], .............--------- प्रातिप्राभूत [११], -------------------- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: M प्रत सूत्रांक [४५] सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॥१४॥ दीप अनुक्रम [५९] तस्माच नवमाचन्द्रमण्डलात् परत एकविंशत्या एकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागैः सूर्यमण्डलं ततो एकोनसप्ततिसरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागः परिहीणं यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र ११माभृतचान्ये द्वादश सूर्यमार्गाः, एवं चास्मिन्नष्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि से प्राभृते दशमाञ्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं पट्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य एकः सप्तभागः, ततो दशमं चन्द्र-४ चन्द्रमण्डमण्डलं, तस्माच दशमाचन्द्रमण्डलात्परतो नबभिरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकपष्टिभागस्थ सस्कैः पद्भिः सप्तभागैः सूर्य-| मार्गः मण्डलं ततः सप्तपञ्चाशता एकपष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः पद्भिः सप्तभागैरूनं प्रागुक्तपरिमाणं चन्द्रमण्ड-12 सू४५ लान्तरं, ततो भूयोऽपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, ततस्त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि एकादशाच्चन्द्रमण्डलाद गन्तरं सप्तपष्टिः एकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागाः, तदेवं पञ्च चन्द्रमण्डलानि षष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि सूर्यासम्मिश्राणि, षट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गा इति जातं । सम्प्रत्येतदनन्तरमुच्यते-तत्र एकादशे चन्द्रमण्डले चतुष्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्को द्वौ सप्तभागौ इत्येतावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं एक एकषष्टिभाग एकस्य च एकपष्टिभागस्य पश्च सवभागाः इत्येतावन्मानं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं एकादशाच्चन्द्रमण्डलाहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलं, षट्चत्वारिंशदेकपष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागी तत् एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरमस्तीति द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते. ततः परमेकोनाशीत्या एकपष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां सतभागाभ्यां द्वादशं चन्द्रमण्डलं, तच्च | ॥१४॥ BY ~ 295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], ...............-- प्राभतप्राभत [११], ..... ......- मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] दीप द्वादर्श चन्द्रमण्डल सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं द्वाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पश्च | सप्तभागान , शेष च त्रयोदश एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्को द्वी सप्तभागी इत्येतावन्मानं | सूर्यमण्डलसम्मिश्र, तस्माच द्वादशाश्चन्द्रमण्डला(हिर्विनिगतं सूर्यमण्डलं चतुर्विंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्य एकस्य। |च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पश्च सप्तभागान् , तत एतावन्मात्रेण हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा | लभ्यन्ते, द्वादशाच सूर्यमार्गात्परतो नवतिसपरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकपष्टिभागस्य सरकैः पद्भिः सप्तभागैखयोदर्श चन्द्रमण्डलं, तब त्रयोदशं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्ट, एकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं, शेष चतुर्विंशतिरेकपष्टिभागाः एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागा इत्येतावन्मानं सूर्यमण्ड-18 लसम्मिश्र, तस्साच त्रयोदशचन्द्रमण्डला बहिः सूर्यमण्डलं विनिर्गतं त्रयोविंशतिमेकषष्टिभागान् एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं, तत एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्रच द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परत एक पष्टिभागानां व्युत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सस्कैत्रिभिः सप्तभागैश्चतुर्दशं चन्द्रमण्डलं, तच्च चतुर्दशं चन्द्रम-18 Cण्डलं सूर्यमण्डादभ्यन्तरं प्रविष्टमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् , शेष षट्त्रिं शदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलसम्मिश्र, तस्माचतुर्दशाच्चन्द्रमण्डला बाहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलमेकादश एकपष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान्, तत एतावता हीनं यथोक्तपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परतः एकपष्टिभागानां चतुर्दशोत्तरेण अनुक्रम [१९] CRACC ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [ ५९ ]] प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [११], मूलं [ ४५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रशसिवृत्तिः ( मल० ) ॥१४५॥ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) — शतेन पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं तच्च पञ्चदर्श चन्द्रमण्डलं सर्वान्तिमात्सूर्यमण्डलादर्वागभ्यन्तरं प्रविष्टमष्टावेकषष्टिभागान्, | शेषा अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः सूर्यमण्ड सम्मिश्राः, तदेवमेतान्येकादशादीनि पञ्चदशपर्यन्तानि पश्ञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति, चतुर्षु च चरमेषु चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गाः, एवं तु यदन्यत्र चन्द्रमण्ड लान्तरेषु सूर्यमार्गप्रतिप्रादनमकारि यथा- 'चंदंतरेस असु अभिंतर बाहिरेस सूरस्स । वारस वारस भग्गा छस तेरस तेरस भवंति ॥ १ ॥' तदपि संवादि द्रष्टव्यम् । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमंप्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ११ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य एकादशं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति द्वादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः - 'देवतानाम'ध्ययनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते देवताणं अज्झयणा आहिताति वदेजा १, ता एएणं अट्ठावीसाए नवखत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंदेवताएं पण्णत्ते ?, बंभदेवयाए पं०, सवणे णक्खते किंदेवयाए पनते ?, ता विण्णुदेवयाए पण्णत्ते, धणिट्ठाणवते किंदेवताए पं०१, ता वसुदेवयाए पण्णत्ते, सयभिसयानक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते १, ता वर णदेवयाप पण्णत्ते, (पुचपोह० अजदे०) उत्तरापोडवयानक्खसे किंदेवयाए पण्णत्ते, ता अहिवह्निदेवताप पण्णसे, एवं सब्रेवि पुच्छिति, रैवती पुस्सदेवतास्सिणी अस्सदेवता भरणी जमदेवता कत्तिया अग्गिदेवता रोहिणी Educatan Intention For Parts Use Only अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ११ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १२ आरभ्यते ~ 297~ १० प्राभृते १२ प्राभूत प्राभृते नक्षत्रदेवाः सू ४६ ॥१४५॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], ............----- प्राभतप्राभत [१२], -------------------- मूल [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: * 5 प्रत सूत्रांक [४६] दीप पयावहदेव या सट्ठाणा सोमदेवयाए अहा रुहदेवयाए पुणवसू अदितिदेवयाए पुस्सो वहस्सइदेवयाए अस्सेसाठी सप्पदेवयाए महा पितिदेवताएपं० पुवाफग्गुणी भगदेवयाए उत्सराफग्गुणी अज्जमदेवताए हत्थे सचियादे बताए चित्ता तहदेवताए साती वायुदेवताए विसाहा इंदग्गीदेवयाए अणुराहा मित्तदेवताए जेट्ठा इंददे-17 हवताए मूले णिरितिदेवताए पुखासाढा आउदेवताए उत्तरासादा विस्सदेवयाए पण्णत्ते॥ (सूत्रं ४६) सदसमस्स बारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ | ता कहं ते देवयाण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं :-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया नक्षत्राधिपतीनां देवतानाम ध्ययनानि-अधीयन्ते ज्ञायन्ते यैस्तानमध्ययनानि नामानीत्यर्थः, आख्यातानीति , वदेत् , एवं प्रश्ने कृते भगवानाहमाता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां-अनन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽभिजिनक्षत्रं किंदेवताककिंनामधेयदेवताकं प्रज्ञप्तम् , भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, ब्रह्मदेवतार्क-ब्रह्माभिधदेवताकं प्रज्ञावं, श्रवणनक्षत्रं फिंदेवताकं प्रज्ञप्तं !, भगबानाह-'ता'इत्यादि, विष्णुनामदेवताकं प्रज्ञप्तं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, देवताभिधानसङ्घाहिकाश्चमास्तिस्रः प्रवचननसिद्धाः सङ्ग्रहणिगाथा:-"बम्हा विण्हू य वसू वरुणो तह जो अर्णतरं होई । अभिवहिपूस गंधव चेव परतो जमो होइ॥१॥ अग्गि पयावइ सोमे रुहे अदिई बहस्सई चेव । नागे पिइ भग अज्जम सविया तहाय वाऊ य ॥२॥ इंदग्गी मित्तोवि य इंदे निरई य आउविस्सोय । नामाणि देवयाणं हवंति रिक्खाण जहकमसो ॥३॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १२ समाप्त अनुक्रम [६०] 55453 ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] + ||2-3|| दीप अनुक्रम [६१-६४] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [१३], मूलं [ ४७ ] + गाथा: (१-३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ- तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः — 'मुहूर्त्तानां प्तिवृति: ५ नामधेयानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ( मल० ) ॥१४६॥ ताक ताणं नामधेजा आहिताति वदेज्जा १, ता एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स तीस मुहुप्ता तं०- ६ "रोदे सेते मित्ते, वायु सुगीए (पी) त अभिचंदे । महिंद बलवं बंभो, बहुसच्चे चेव ईसाणे ॥ १ ॥ तट्टे य भावियप्पा वेसमणे वरुणे य आणंदे । विज (प) वीससेणे पयावई चेव उवसमेय ॥ २ ॥ गंधव अग्गिवेसे सयरिसहे आयवं च अममे य । अणवं च भोग रिसहे सबट्टे रक्खसे चेव ॥ ३ ॥ ( सूत्रं ४७ ) दसमस्स पाहुडस्स तेरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहते मुत्ताण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया मुहूर्त्तानां नामधेयानि - नामान्येव नामधेयानि, 'नामरूपभागाद्धेय' इति स्वार्थे धेयप्रत्ययः, आख्यातानीति वदेत्, भगवानाह - 'ता एगमेग|स्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत, एकैकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्ता वक्ष्यमाणनामधेययुक्ता इति शेषः, तान्येव नामधे - यान्याह - 'तंजहा- रोहे' त्यादि गाथात्रयं तत्र प्रथमो मुहूर्त्तो रुद्रो द्वितीयः श्रेयान् तृतीयो मित्रश्चतुर्थो वायुः पञ्चमः सुपीतः षष्ठोऽभिचन्द्रः समः ' माहेन्द्रोऽष्टमः बलवान् नवमः ब्रह्मा दशमः बहुसत्यः एकादश ईशानो द्वादशः त्वष्टा त्रयोदशः भावितात्मा चतुर्दशः वैश्रमणः पञ्चदशः वारुणः षोडशः आनन्दः सप्तदशो विजयः अष्टादशो विश्वसेनः एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः विंशतितमः उपशमः एकविंशतितमो गन्धर्वः द्वाविंशतितमोऽग्निवेश्यः त्रयोविंशतितमः can Internationa For Prata Use Only अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १२ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ आरभ्यते ~299~ १० प्राभूते १३ प्राभूतप्राभूते मुहूर्त्तनामानि सू ४७ ॥१४६॥ or Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------- ----- प्राभूतप्राभूत [१३], -------------------- मूलं [४७] + गाथा:(१-३) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] ||१-३|| पभा चतुर्विशतितमः आतपवान् पञ्चविंशतितमोऽममः पविशतितमः ऋणवान् सप्तविंशतितमो भीमः अष्टाविशतितमो वषभः एकोनत्रिंशत्तमः सवोर्थः त्रिशत्तमा राक्षस इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां Juniora- दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १३ समाप्त | तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदर्श प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति चतुर्दशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः-दिवसराविप्ररूपणा कर्तव्या, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते दिवसा आहियत्तिवइजा , ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पनरस दिवसा पं० सं०-परिवादिवसे|| वितियदिवसे जाव पण्णरसे दिवसे, ता एतेसि पण पण्णरसण्हं दिवसाणं पन्नरस नामधेजा पं० तं०-पुवंगे सिद्धमणोरमे य तत्तो मणोरहो (हरो) चेव । जसभडू य जसोधर सबकामसमिद्धेति य ॥१॥इंद मुद्धाभिसित्ते य सोमणस धणंजए य योद्धचे । अत्थसिडे अभिजाते अचासणे य सतंजए ॥२॥ अग्गिवेसे उव-X समे दिवसाणं नामधेजाई। ता कहते रातीओ आहिताति वदेजा ?, ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस है राईओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पडिवाराई बिदियाराई जाव पण्णरसा राई, ता एतासि णं पण्णरसण्हं राईणं पण्णरस नामधेजा पपणता, तं०-उत्तमा य मुणक्खत्ता, एलावथा जसोधरा । सोमणसा चेच तघा सिरिसंभूता य योद्धा ॥१॥ विजया य विजयंता जयंति अपराजियाय गच्छा य । समाहारा चेव तथा तेया दीप अनुक्रम [६१-६४] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ आरभ्यते ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१४], -------------------- मूलं [४८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्ति प्रत सूत्रांक [४८] मल.) ॥१४७॥ गाथा: . १.प्राभृते य तहा य अतितया ॥१॥ देवाणंदा निरती रयणीणं णामधेज्जाई ॥ (सूत्रं ४८) दसमस्स पाहुस्स १४ माभूतचउद्दसमं पाहुपाहुढं समत्तं ।। माभृते MI 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः, भगवन् ! त्वया दिवसा आख्याता दिवसराइति वदेत् , भगवानाह-'ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य अत्रापान्तरालवती मकारोऽलाक्ष त्रिनामानि णिका, णमिति वाक्यालङ्कारे, पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः वक्ष्यमाणक्रमयुक्ताः, तमेव क्रममाह-तंजहे- सू४८ त्यादि, तद्यथा-प्रतिपत्प्रथमो दिवसो द्वितीया द्वितीयो दिवसः तृतीया तृतीयो दिवसः एवं यावत्पश्चदशी पञ्चदशो दिवसः, 'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां पञ्चदशानां दिवसानां क्रमेण पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाप्रथमः प्रतिपलक्षणः पूर्वाङ्गनामा द्वितीयः सिद्धमनोरमः तृतीयो मनोहरः चतुओं यशोभद्रः पञ्चमो यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धः सप्तम इन्द्रमूर्दाभिषिक्त अष्टमः सौमनसः नवमो धनञ्जयः दशमोऽर्थसिद्धः एकादशोऽभिजातः द्वादशोइत्यशनः त्रयोदशः शतञ्जयः चतुर्दशोऽग्निवेश्मा (श्यः) पञ्चदश उपशमः, एतानि दिवसानां क्रमेण नामधेयानि, 'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः रात्रय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह'ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पश्चदश रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपत्ता ॥१४॥ प्रतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा रात्रिः द्वितीयदिवससम्बन्धिनी द्वितीया रात्रिः, एवं पञ्चदशदिवससम्बन्धिनी पञ्चदशी रात्रिः, एतश्च कर्ममासापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्रैव पक्षे पक्षे परिपूर्णानां पञ्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात् , 'ता एएसि ' दीप अनुक्रम [६५-७१] FarPurwanamuronm walanaturary.orm अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ आरभ्यते ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१४], -------------------- मूलं [४८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] ॐॐॐॐॐ5% गाथा: | मित्यादि, तत्र एतासां पञ्चदशाना रात्रीणां यथाक्रमममूनि पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमा प्रतिपत्सम्बधिनी रात्रिरुत्तमा-उत्तमनामा द्वितीया सुनक्षत्रा तृतीया एलापत्या चतुर्थी यशोधरा पञ्चमी सौमनसी षष्ठी श्रीसम्भूता सप्तमी विजया अष्टमी वैजयन्ती नवमी जयन्ती दशमी अपराजिता एकादशी इच्छा द्वादशी समाहारा त्रयोदशी तेजा चतुर्दशी अतितेजा पश्चदशी देवानन्दा, अमूनि क्रमेण रात्रीणां नामधेयानि भवन्ति । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १४ समाप्तं I तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दशं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति पञ्चदशमारभ्यते, तस्य चायमर्धाधिकारः-तिथयो। वक्तव्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते तिही आहितेति बदेजा ?, तत्थ खलु इमा दुविहा तिही पण्णता, तंजहा-दिवसतिही राईतिही य, ता कहं ते दिवसतिही आहितेति चदेजा?, ता एगमेगस्स णं पण्णरस २ दिवसतिही पण्णत्ता, सं०-णंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पंचमी पुणरवि गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स दसमी पुणरवि गंदे भहे जये तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरस, एवं ते तिगुणा तिहीओ सधेसि दिवसाणं, कहं ते राईतिधी आहितेति वदेजा ?, एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस रातितिधी पं०, तं०-उग्गवती भोगवती जसवती सव-2 है सिद्धा सुहणामा पुणरवि उग्गवती भोगवती जसवती सबसिद्धा सुहणामा पुणरवि उग्गवती भोगवती दीप अनुक्रम [६५-७१] EST अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १५ आरभ्यते ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सयंमज प्रत सूत्रांक [४९] जसवती सघसिद्धा सुहणामा, एते तिगुणा तिहीओ सवासिं रातीणं ॥ (सूत्रं ४९) दसमस्स पाहुस्स१० प्राभूते सिवृत्तिःपण्णरसमं पाहुडपाहुडं समतं ।। १५माभृत(मल०) 'ता कहं ते तिही त्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् , कथं: केन प्रकारेण केन क्रमेण तिथय आख्याता इति वदेत्, ननु प्राभृते दिवसेभ्यस्तिथीना का प्रतिविशेषः येन एताः पृथक् पृछचन्ते !, उच्यते, इह सूर्यनिष्पादिता अहोरात्राः चन्द्रनिष्पा- दिवसरात्रि ॥१४८॥ तिथिनामा दिताः तिथयः, तत्र चन्द्रमसा तिथयो निष्पाद्यन्ते वृद्धिहानियां, तथा चोक्तम्-"तं स्यय कुमुयसिरिसप्पभस्स चंदरसाद मानि सू ४९ राइसुरुगस्स । लोए तिहित्ति निययं भण्णइ बुडीएँ हाणी ॥१॥"[त्वं रचय (पूजा) कुमुदश्रीसत्प्रभस्य चन्द्रस्य रात्रिसुरुचेः । लोके तिथिरिति नियत भण्यते ( यस्य) वृद्ध्या हान्या ॥१॥] तत्र वृद्धिहानी चन्द्रमण्डलस्य न स्वरूपतः किन्तु राहुषिमानावरणानावरणकृते, तथाहि-इह द्विविधो राहु, तद्यथा-पराहुः ध्रुवराहुश्च, तत्र यः पर्वराहुः तत्गता चिन्ताऽत्रानुपयोगिनीत्यने वक्ष्यते क्षेत्रसमासटीकायां वा कृतेति ततोऽवधार्या, यस्तु वराहुस्तस्य विमान कृष्णं, तच चन्द्रमण्डलस्याधस्ताचतुरङ्गलमसम्माप्तं सत् चारं चरति, तत्र चन्द्रमण्डलं बुज्या द्वाषष्टिसपिभोगः परिकलाहप्यते, परिकल्प्य च तेषां भागानां पश्चदशभिर्भागो हियते, लब्धाश्चत्वारो द्वापष्टिभागाः शेषौ द्वौ भागी तिष्ठता, तो च सदा ता वृद्धी (सदानावृतौ) एषा फिल चन्द्रमसः षोडशी कलेति प्रसिद्धिः, तत्र कृष्णपक्षे प्रतिपदि वराहुवि-1* OMX॥१४८॥ मानं कृष्णं, तच्च चन्द्रमण्डलस्याधस्तापातुरङ्गलमसंप्राप्तं सत् चारं चरत् आत्मीयेन पश्चदशेन भागेन द्वी द्वापष्टिभागी | सदाऽनावार्थस्वभावी मुक्त्वा शेषषष्टिसत्कषष्टिभागात्मकस्य चन्द्रमण्डलस्य एक चतुर्भागात्मक पश्चदशभागमावृणोति, दीप अनुक्रम [७२] ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४९) दीप अनुक्रम [७२] द्वितीयस्यामात्मीयाभ्यां द्वाभ्यां पञ्चदशभागाभ्यां द्वौ पञ्चदशभागौ, तृतीयस्यामात्मीय खिभिः पञ्चदशभागैत्रीन् पश्चदशभागान, एवं यावदमावास्यायां पश्चदश भागानावृणोति, ततः शुक्लपक्षे प्रतिपदि एकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, द्वितीयस्यां दी पश्चदशभागी तृतीयस्यां त्रीन् पश्चदशभागान् एवं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशापि भागाननावृतान् करोति, तदा च सर्वात्मना परिपूर्ण चन्द्रमण्डलं लोके प्रकटं भवति, वक्ष्यति चामुमर्थमग्रेऽपि सूत्रकृत्-'तत्थ णं जे से धुवराइ से णं बहुलपक्खस्स पडिवए पण्णरसभागेण' मित्यादिना ग्रन्थेन, तत्र यावता कालेन कृष्णपक्षे पोडशो भागो द्वापप्टिभागसत्कचतुर्भागात्मको हानिमुपगच्छति स तावान् कालविशेषस्तिथिरित्युच्युते, तथा यावता कालेन शुक्लपक्षे षोड| शभागो द्वापष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणः परिवर्द्धते तावत्प्रमाणः कालविशेषस्तिधिर्भवति, उक्तं च-"सोलसभागा काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरस । तित्तियमित्ते भागे पुणोऽवि परिवहुए जोण्हे ॥१॥ कालेण जेण हायइ सोलस भागो उ सा तिही होइ । तह चेव य वुडीएएवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥२॥" अत्र 'जोण्हे' इति जोत्स्ने शुक्लपक्षे इत्यर्थः, शेषं सुगम, अयं च पूर्वाचार्यपरम्परायात उपनिषदुपदेश:-अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागप्रविभक्तस्य ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथिरिति, अथाहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः सुप्रतीतः, प्रागेव सूत्रकृता तस्य तावत्प्रमाणतयाऽभिधानात्, तिथिस्तु किंमुहूर्तप्रमाणेति !, उच्यते, परिपूर्णा एकोनत्रिंशन्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, उक्तं च"अउणत्तीसं पुन्ना उ मुहुत्ता सोमओ तिही होइ । भागावि य बत्तीर्स बाव(दुस)हिकाएण छेएणं ॥१॥" कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागीकृतस्य सत्का ये एकषष्टिभागास्तावत्यमाणा तिथिरित्युच्यते, तत्रैकषष्टि ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रभू प्रत सुत्राक [४९] दीप अनुक्रम [७२] स्त्रिंशता गुण्यते जातानि अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एते च किल द्वाषष्टिभागीकृतसकलतिथिगतमुहूर्त- प्राभले प्तिवृत्तिमा सत्का अंशाः, ततो मुहर्त्तानयनार्थं तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा मुह- १५प्रामत(मल.) लास्य, एतावन्मुहूर्तप्रमाणा तिथिः, एतावता हि कालेन चन्द्रमण्डलगतः पूर्वोदितप्रमाणः षोडशो भागो हानि वोपगच्छति प्राभृते ॥१४९॥ वर्द्धते वा, तत एतावानेव तिथेः परिमाणकालः, तदेवमहोराबादस्ति तिथेः प्रतिविशेष इत्युपपन्नस्तिथिविषये पृथक्मना,दिवसरात्रि एवं गीतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र-तिथिविचारविषये खल्विमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा-अतिथिनामा &ास्तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिवसतिथयो रात्रितिथयश्च, तत्र तिथेः पूर्वार्द्धभागः स दिवसतिथिरित्युच्यते, यस्तु पश्चार्ज-15 नि सू ४९ |भागः स रात्रितिथिरिति, 'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण कया नानां परिपाव्या इत्यर्थः, दिवसतिथय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह-एगमेगस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य णमिति वाक्यालङ्कारे पक्षस्य मध्ये पशदश दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा नन्दा द्वितीया भद्रा तृतीया जया चतुर्थी तुच्छा पञ्चमी पक्षस्य पूर्णा, ततः पुनरपि षष्ठी तिथिनन्दा सप्तमी भद्रा अष्टमी जया नवमी तुच्छा दशमी पक्षस्य पूणों, ततः पुनरप्येकादशी तिथिर्नन्दा द्वादशी भद्रा त्रयोदशी जया चतुर्दशी तुच्छा पक्षस्य पञ्चदशी पूर्णा, एवं'मित्यादि, एवं-उक्केन प्रकारेण, एते इति खीत्वेऽपि प्राप्ते पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , एता अनन्तरोदितास्तिथयो नन्दायाः, नन्दादीन्यनन्तरो-I ॥१४९॥ |दितानि तिथिनामानीत्यर्थः, त्रिगुणाः, विगुणितानीति भावः, सर्वेषां पक्षान्तर्वर्तिनां दिवसानां, सर्वासा पक्षान्तवर्तिनीनां दिवसतिथीनामित्यर्थः, 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण, कया नाम्नां परिपाव्या ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 151585% [४९) दीप अनुक्रम [७२] इत्यर्थः, भगवन् ! ते त्वया रात्रितिथय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह–ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, पंकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश रात्रितिधयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा उग्रवती द्वितीया भोगवती तृतीया || यशोमती चतुर्थी सर्वसिद्धा पश्चमी शुभनामा ततः पुनरपि षष्ठी उग्रवती सप्तमी भोगवती अष्टमी यशोमती नवमी है सर्वसिद्धादशमी शुभनामा ततः पुनरप्येकादशी उग्रवती द्वादशी भोगवती त्रयोदशी यशोमती चतुर्दशी सर्वसिद्धा पञ्चदशी शुभनामा, एवमेतात्रिगुणास्तिथया, एवमेतानि त्रिगुणानि तिथिनामानीत्यर्थः, सर्वासां रात्रीणां-रात्रितिथीनां | वाचकानीति शेषः ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १५ समाप्त तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य पश्चदशं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति षोडशमारभ्यते, तस्य घायमर्थाधिकारः-यथा 'गोत्राणि वक्तव्यानी'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहका ता कहं ते गोता आहिताति वदेजा,ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णवत्ताणं अभियी णक्खत्ते किंगोते ?, |ता मोग्गल्लायणसगोते पण्णत्ते, सवणे णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते, संखायणसगोते पण्णत्ते, धणिहाणक्षसे | किंगोत्ते पं०१, अग्गतावसगोत्ते पं०, सतभिसयाणक्खत्ते किंगोसे पण्णते ?, कण्णलोयणसगोत्ते पं०, पुवा|पोट्ठवताणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते?, जोउकपिणयसगोते पण्णते, उत्सरापोहवताणक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते, धणंजयसगोसे पण्णसे, रेवतीणक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? पुस्सायणसगोते पण्णत्ते, अस्सिणीनक्खसे किंगोते ४ 1543 अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १५ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १६ आरभ्यते ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१६], ----------------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] दीप पिण्णत्ते', अस्सादणसगोते पण्णते, भरणीणक्वते किंगोते पण्णते?, भग्गवेससगोत्ते पं०, कत्तियाणक्खसे||१०माभृते प्तिवृत्तिःकिंगोत्ते पण्णत्ते ?, अग्गिवेससगोत्ते पं०, रोहिणीणक्खत्ते किंगोते पं०?, गोतमगोत्ते पण्णत्ते, संठाणाण-१६माभृत(मल)मक्खत्ते किंगोते पं०१, भारायसगोत्ते पपणत्ते, अहाणक्खत्ते किंगोते पं०१, लोहिचायणसगोत्ते पं०, पुण-12 प्राभृते बसूणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ?, वासिहसगोत्ते पं०, पुस्से णक्खत्ते किंगोत्ते पं०, उमज्जायणसगोत्ते पं० नक्षत्रगो. ॥१५०॥ अस्सेसाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, मंडचायणसगोत्ते पं०, महाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, पिंगायणसगोत्ते पं० त्राणि सू ५० पुषाफग्गुणीणक्वत्ते किंगोत्ते पं०१, गोवल्लापणसगोत्ते पं०, उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते किंगोते पं०१, कासव४ गोते पण्णत्ते, हत्थेणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, कोसियगोते पण्णत्ते, चिसाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०, दभियाणस्स-४ मोसे पपणत्ते, साईणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते?, चामरछगोत्ते पं०, विसाहाणक्खत्ते किंगोते पं०१, सुंगायणसगोत्ते पं०, अणुराधाणक्खत्ते किंगोत्से पं०१, गोलचायणसगोत्ते पं०, जेहानक्वते किंगोत्ते पं०१, तिगिछायणसगोसे पं०, मूलेणखत्ते किंगोत्ते पं०?, कचायणसगोते पणत्ते, पुवासाढानक्षत्ते किंगोते पणते?, वझियायणसगोते पण्णत्ते, उत्तरासाढाणक्खसे किंगोते पण्णत्ते , बग्घावचसगोते पण्णसे ॥ (सूत्रं ५०) दसमस्स पाहुडस्स सोलसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ।' का॥१५०॥ ४-'ता कहते'इत्यादि, इति (अत्र) नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसम्भवः, यत इदं गोत्रस्य स्वरूपं लोकप्रसिद्धिमुपागमत-प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यसन्तानो गोत्रं, यथा गर्गस्यापत्यं सन्तानो गर्गाभिधानो गोत्रमिति, न चैवस्वरूप अनुक्रम [७३] क ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१६], -------- ------- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] दीप नक्षत्राणां गोत्रं सम्भवति, तेषामपिपातिकत्वात् , तत इत्थं गोत्रसम्भवो द्रष्टव्यः-यस्मिनक्षत्रे शुभैरशुभैा प्रहः समानं | 5 यस्य गोत्रस्य यथाक्रमं शुभमशुभं वा भवति तत्तस्य गोत्रं, ततः प्रश्नोपपत्तिः, 'ता'इति पूर्ववत्, कथं त्वया | नक्षत्राणां गोत्राणि आख्यातानीति वदेत् १, भगवानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्रं मोद्गल्यायनसगोत्र-मोद्गल्यायनेन सह गोत्रेण वर्तते यत्तत्तथा, श्रवणनक्षत्रं शाङ्खायनसगोत्रं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, क्रमेण गोत्रसङ्घाहिकाश्चेमा जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसत्काश्चतस्रः सनहणिगाथा:"मोग्गल्लायण १ संखायणे २ य तह अग्गभाष ३ कण्णल्ले ४ । तत्तो य जोकण्णे ५ धणंजए ६ चेव बोद्धबे ॥१॥ पुस्सायण ७ अस्सायण ८ भग्गवेसे ९ य अग्गिवेसे १०य । गोयम ११ भारदाए १२ लोहिचे १३ चेव वासिढे १४ ॥ २ ॥ उज्जायण १५ मंडरायणे १६ य पिंगायणे १७ य गोवल्ले १८ । कासव १९ कोसिय २० दब्भिय २१ भाग| (चाम) रच्छा य २२ मुंगाए २३ ॥३॥गोलजायण ३४ तिमिलायो य ३५ कच्चायणे २६वा मले । ततो य बन्मियायण २७ बग्यावच्चे २८ य गुत्ताई ॥४॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य पाभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥' प्राभतप्राभतं-१६ समाप्तं . तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य षोडश प्राभृतमाभृतं, सम्मति सप्तदशमारभ्यते, तस्य चायमथाधिकार:-'भोजनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते भोयणा आहिताति वदेज्जा १, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णं णक्खत्ताणं, कत्तियाहिं ॐॐॐॐॐ अनुक्रम [७३] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १६ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १७ आरभ्यते ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१७], --------------------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] दधिणा भोचा कजं साधिति, रोहिणीहिं चसम (मस) मंसं भोचा कर्ज साधेति, संठाणाहिं मिगमंसं १० प्राभृते भोचा कर्ज साधिति, अदाहिं णवणीतेण भोचा कजं साधेति, पुणवसुणाऽथ घतेण भोचा कर्ज साधेति, प्राभृत(मल) पुस्सेणं खीरेण भोचा कर्ज साधेति, अस्सेसाए दीवगमंसं भोचा कजं साधेति, महाहिं कसोतिं भोचा कज्जाभृते ॥१५॥ साधेति, पुवाहिं फग्गुणीहिं मेढकमंसं भोचा कज्जं साति, उत्तराहिं फग्गुणीहिं णक्खीमंसं भोचा कलं नक्षत्र साति, हत्थेण वत्थाणीएण भोचा कजं साधेति, चित्ताहि मग्गसूवेणं भोचा कजं साधेति, सादिणा फलाई भोजनानि भोचा कजं साधेति, विसाहाहिं आसित्तियाओ भोचा कज्जं साधेति, अणुराहाहिं मिस्साकरं भोचा कळसा सू५१ धेति, जेहाहिं लट्टिएणं भोचा कजं साधेति, पुवाहिं आसाढाहिं आमलगसरीरे भोचा कजं साधेति, उत्तराहिं। |आसाढाहिं बलेहिं भोचा कर्ज साधेति, अभीयिणा पुप्फेहिं भोचा कजं साति, सवणेणं खीरेणं भोचा कर्ज साधेति, सयभिसयाए तुवराउ भोचा कर्ज साधेति, पुवाहिं पुट्ठचयाहि कारिल्लएहिं भुच्चा कजं साधेति, एस-1 राहिं पुट्टवताहिं वराहमंसं भोचा कजं साधेति, रवेतीहिं जलयरमसं भोचा कजं साधेति, अस्सिणीहिं तित्ति-४ परमंसं भोचा कर्ज साधेति वद्दकमंसं वा, भरणीहिं तलं तंदुलकं भोचा कर्ज साधेति (सूत्रं ५१) दसमस्स |पाहुडस्स सत्तरसमं पाहुडपाहुदं समत्तं ।।। ॥१५॥ 'ता कहं ते भोयणे त्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं ?-केन प्रकारेण नक्षत्रविषयाणि भोजनानि आख्यातानीति वदेत्, भगवानाह–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये कृत्तिकाभिः SECASSACANCA4% दीप अनुक्रम [७४] ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१७], -------------------- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] दीप पुमान् कार्य साधयति, दक्षा सम्मिश्नमोदनं भुक्त्वा, किमुक्तं भवति -कृत्तिकास प्रारब्धं कार्य दभि भुक्ते प्रायो निर्विघ्नं ।।। सिद्धिमासादयतीति, एवं शेषेष्वपि सूत्रेषु भावना द्रष्टव्या ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम __ प्राभतस्य प्राभतप्राभतं- १७ समाप्त तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य सप्तदर्श प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रत्यष्टादशमारभ्यते, तस्य चायमथाधिकार:-चन्द्रादि-का त्यचारा वक्तव्या' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते चारा आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमा दुविहा चारा पं०, तं-आदिच्चचारा य चन्द्रचारा य, ता कहं ते चंदचारा आहितेति वदेजा , ता पंचसंवच्छरिएणं जुगे, अभीइणक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, सवणे णक्खत्ते सत्तढि चारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, एवं जाव उत्तरासादाणक्खत्ते सत्तहिचारे चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति । ता कहं ते आइचचारा आहितेति वदेजा,ता पंचसंवच्छ रिए णं जुगे, अभीयीणक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, एवं जाव उत्तरासादाणक्खते पंचचारे ट्रसरेण सद्धिं जोयं जोएति (सूत्रं ५२) दसमस्स पाहुस्स अट्ठारसमं पाहुडपाहुर समत्तं ॥ * 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण किंप्रमाणया साया इत्यर्थः, चारा आख्याता इति विदेत्, भगवानाह-'तत्थेत्यादि, तत्र-चारविचारविषये खल्विमे वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा-द्विप्रकाराबाराः प्रज्ञप्ता, द्विविध्यमेवाह-तद्यथा-आदित्यचाराश्चन्द्रचाराश्च, चशब्दौ परस्परसमुच्चये, तत्र प्रथमतश्चन्द्रचारपरिज्ञानार्थं तद्विषय अनुक्रम [७४] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १७ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १८ आरभ्यते ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [७५] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [१८], मूलं [५२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मख० ) ॥१५२॥ प्रश्नसूत्रमाह- 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कथं ? -केन प्रकारेण, कया साया इत्यर्थः, त्वया भगवन् ! चन्द्रधारा आख्याता इति वदेत्, भगवानाह - 'ता पंचे' त्यादि, ता इति पूर्ववत्, पञ्चसांवत्सरिके - चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभिवर्द्धित रूपंपञ्च संवत्सरप्रमाणे णमिति वाक्यालङ्कारे युगे अभिजिन्नक्षत्रं सप्तषष्टिं चारान् यावत् चन्द्रेण सार्द्धं योगं युनक्ति - योगमुपपद्यते, किमुक्तं भवति !-चन्द्रोऽभिजिनक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तषष्टिसङ्ख्यान् चारान् चरतीति कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह योगमधिकृत्य सकलनक्षत्रमण्डली परिसमातिरेकेन नक्षत्रमासेन भवति, नक्षमासाश्च युगमध्ये सप्तषष्टिरेतच्चाग्रे भावयिष्यते ततः प्रतिनक्षत्रपर्याय मेकैकं चारमभिजिता नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य योगसम्भवादुपपद्यते चन्द्रोऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तषष्टिसान् चारान् चरतीति एवं प्रतिनक्षत्रं भावनीयं । सम्प्रति आदित्यचारविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कथं किंप्रमाणया साया भगवन् ! त्वया आदित्यचारा आख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह - 'पंच संवच्छरिए ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, पञ्चसांवत्सरिके-चन्द्रादिपञ्चसंवत्सरप्रमाणे युगे युगमध्येऽभिजिन्नक्षत्रं पञ्च चारान् यावत् सूर्येण सह योगं युनक्ति, | अत्राप्ययं भावार्थ:- अभिजिता नक्षत्रेण संयुक्तः सूर्यो युगमध्ये पञ्चसङ्ख्यान् चारान् चरति, कथमेतदवगम्यते इति चेत्, उच्यते, इह योगमधिकृत्य सूर्यस्य सकलनक्षत्रमण्डली परिसमाप्तिरेकेन सूर्यसंवत्सरेण, सूर्यसंवत्सराश्च युगे भवन्ति पश्च, ततः प्रतिनक्षत्रपर्यायमेकैकं वारमभिजिता नक्षत्रेण सह योगस्य सम्भवात् घटतेऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो Education internationa For Penal Use Only ~311~ १० प्राभृते १८ प्राभूतप्राभूते चाराः ५२ ॥१५२॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५२] दीप अनुक्रम [७५] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [१८], मूलं [५२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः युगे पश चारान् चरति, एवं शेषनक्षत्रेष्यपि भावना भावनीया ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं १८ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्याष्टादशं प्राभृतप्राभृतं साम्प्रतमेकोनविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:'मासप्ररूपणा कर्त्तव्ये 'ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मासा आहिताति बदेखा ?, ता एगमेगस्स णं संवच्छस्स वारस मासा पण्णत्ता तेसिं च दुविहा नामजा पण्णत्ता, सं०- लोइया लोडसरिया य, तत्थ लोइया णामा सावणे भगवते आसोप जाय आसाढे, लोउत्तरिया णामा-अभिनंदे सुपह्डेय, विजये पीतिवद्वणे। सेजसे य सिवे यावि, सिसिरेचिय हेमवं ॥ १ ॥ नवमे वसंतमासे, इसमे कुसुमसंभवे । एकादसमे णिदाहो, वणविरोही य बारसे ॥ २ ॥ सूत्रं ५३ ) दसमरस पाहूडस्स एग्णवीशतितमं पाहुडपाहुडे समत्तं ॥ 'ता कहं ते' इत्यादि, पूर्ववत् कथं ? - केन प्रकारेण कया नाम्नां परिपाव्या इत्यर्थः भगवन् ! त्वया मासानां नामधेयानि आख्यातानीति वदेत्, भगवानाह - 'एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् एकैकस्य संवत्सरस्य द्वादश मासाः प्रज्ञष्ठाः तेषां च द्वादशानामपि मासानां नामधेयानि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि - लौकिकानि लोकोत्तराणि च तत्र लोके प्रसिद्धानि लौकिकानि, लोकादुत्तराणि यानि न लोके प्रसिद्धानि किन्तु प्रवचन एव तानि लोकोत्तराणि तत्र लौकिक लोकोत्तराणां मध्ये लौकिकानि नामान्यमूनि, तद्यथा— 'श्रावणो भाद्रपद' इत्यादि, लोकोत्तराणि नामान्यमूनि Jan Education Intimational For around Only अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १८ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १९ आरभ्यते וא ~312~ *********** Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५३ ] + ॥१-२॥ दीप अनुक्रम [७६-७८] प्राभृत [१०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सूर्यमशविवृत्तिः ( मल० ) ॥१५३॥ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१९], मूलं [ ५३ ] + गाथा: आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तद्यथा- प्रथमः श्रावणरूपो मासोऽभिनन्दः द्वितीयः सुप्रतिष्ठः तृतीयो विजयः चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः पञ्चमः श्रेयान् षष्ठः शिवः सप्तमः शिशिरः अष्टमो हैमवान् नवमो वसन्तमासः दशमः कुसुमसम्भवः एकादशो निदाघः द्वादशो वनविरोधी ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं १९ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभूतस्य एकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति विंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः - 'यथा पञ्च संवत्सराः प्रतिपाद्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ताकति णं भंते! संचच्छरे आहिताति वदेजा १, ता पंच संबच्छरा आहितेतिवदेखा, तं०क्खशसंवच्छरे जुगसंचच्छरे पमाणसंवच्छरे लक्खणसंवच्छरे सणिच्छरसंवच्छरे (सूत्रं ५४ ) । ता णक्खत्त संवच्छरे णं दुबालसविहे पण्णत्ते, सावणे भवए जाव आसाढे, जं वा वहस्सतीमहग्गहे दुवालसहिं संयच्छरेहिं स णक्खत्तमंडलं समाणेति ( सूत्रं ५५ ) ॥ 'ता कर णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् कति किंसक्त्याः णमिति वाक्यालङ्कारे संवत्सरा आख्याता इति वदेत् । भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, पश्च संवत्सरा आख्याता इति वदेत्, तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सर इत्यादि, तत्र यावता कालेनाष्टाविंशत्यापि नक्षत्रैः सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेषो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः, उक्तं च--"नक्खत्तचंद जोगो बारसगुणिओ य नक्खत्तो" अत्र पुनरेकोनितनक्षत्र पर्याययोग एको नक्षत्रमासः सप्तविं | शतिरहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य, एष राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा त्रीण्यहोरात्रशतानि सप्त Education International For Parts Only अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २० आरभ्यते ~313~ १० माभृते १९ प्राभूतप्राभूते माता सू ५३ २० प्राभृते प्राभृत संवत्सराः ५४ नक्षत्र संव० सू ५५ ॥१५३॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५४-५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४-५५] दीप अनुक्रम विंशत्यधिकानि एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावत्प्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। युगं पश्चवर्षात्मकं तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः । युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः । लक्षणेन यथावस्थितेनोपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः। शनैश्चर| निष्पादितः संवत्सरः शनैश्चरसंवत्सरः शनैश्चर सम्भवः । तदेवं पश्चापि शनैश्चर संवत्सरान् नामतः प्रतिपाद्य सम्प्रत्येतेपामेव संवत्सराणां यथाक्रर्म भेदानाह–ता नक्खत्ते स्यादि, ता इति प्राग्वत् नक्षत्रसंवत्सरो द्वादधाविधो-द्वादशपकारः, तब था-'श्रावणो भाद्रपद'इत्यादि, इह एकः समस्तनक्षत्रयोगपर्यायोद्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः, ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य Mपूरका द्वादश समस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावणभाद्रपदादिनामानस्तेऽप्यवयवे समुदायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरः, ततः श्नाव णादिभेदात् द्वादशविधो नक्षत्रसंवत्सरः, 'जं वे'त्यादि, वाशब्दः पक्षान्तरसूचने, अथवा यत् सर्व-समस्त नक्षत्रमण्डलं वृहस्पतिर्महामहो योगमधिकृत्य द्वादशभिः संवत्सरैः समानयति-परिभ्रमन् समापयति एष नक्षत्रसंवत्सर, किमुक्त। भवति -थावता कालेन बृहस्पतिनामा महामहो योगमधिकृत्याभिजिदादीन्यष्टाविंशतिमपि नक्षत्राणि परिसमापयति | तावान् कालविदोपो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। | ता जुगसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णते, तं०-चंदे चंदे अभिवहिए चंदे अभिवहिए चेव, ता पढमस्स णं चंदस्स संबच्छरस्स चवीसं पचा पं०, दोचस्स णं चंदसंबच्छरस्स चवीसं पचा पं०, तच्चस्स णं अभिवहितसंवच्छरस्स छंधीसं पचा पं०, चउत्थरस णं चंदसंवच्छरस्स चवीसं पवा पं०, पंचमस्स णं अभिवडियसंव [७९-८०] ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [८१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥१५४॥ च्छरस्स छच्चीसं पचा पण्णत्ता, एवामेव सपुधावरेणं पंचसवच्छरिए जुगे एगे चवीसे पदसते भवतीति मक्खातं (सूत्रं ५६ ) ॥ 'ता जुगसंच्छरे णमित्यादि, युगसंवत्सरो-युगपूरकः संवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तथथा - चान्द्रश्चान्द्रोऽभिवर्द्धितश्चान्द्रोऽभिवर्द्धितश्चैव उक्तं च- "चंदो चंदो अभिवडिओ य चंदोऽभिवडिओ चेव । पंचसहियं जुगमिणं दि तेलोकदं सीहिं ॥ १ ॥ पढमबिइया उ चंदा तइयं अभिषट्टियं वियाणाहि । चंदं चैव चउत्थं पंचममभिवहियं जाण ॥ २ ॥ तत्र द्वादशपूर्णमासीपरावर्त्ता यावता कालेन परिसमाप्तिमुपयान्ति तावान् कालविशेषश्चान्द्रः संवत्सरः, उक्तं च - 'पुष्णिमपरियट्टा पुण वारस संवच्छरो हवइ चंदो ।' एकश्च पूर्णमासीपरावर्त्त एकश्चान्द्रमासः, तस्मिंश्च चान्द्रमासे रात्रिन्दिवपरिमाणचिन्तायामेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, एतद् द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य एवं परिमाणश्चान्द्रः संवत्सरः, तथा यस्मिन् संवत्सरेऽधिकमाससम्भवेन त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति सोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः, उक्तं च- "तेरस य चंदमासा एसो अभिवडिओ उ नाययो ।' एकस्मिंश्चन्द्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिंशद्भवति द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागा अहो - | रात्रस्य, एतच्चानन्तरमेवोक्तं, तत एष राशिखयोदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुचत्वारिंशश्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, एतावदहोरात्रप्रमाणोऽभिवर्द्धित संवत्सर उपजायते । कथमधिकमाससम्भवो येनाभिवर्द्धितसंवत्सर उपजायते १, कियता वा कालेन सम्भवतीति ?, उच्यते, इह युगं चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभि Education International For Park Use Only ~315~ १० प्राभृते २० प्राभृत प्राभृते युगसंवत्सराः सू ५६ ॥ १५४॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ----------------- मूल [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] लवतिरूपपञ्चसंवत्सरं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि पञ्च वर्षाणि भवन्ति, सूर्यमासश्च सात्रिंश-* दहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमास एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा दिनस्य, ततो गणितसम्भावनया सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चन्द्रमासोऽधिको लभ्यते, स च यथा लभ्यते तथा (ज्ञापनाय) पूर्वाचार्यप्रदर्शितेयं करणगाथा-14 'चंदस्स जो विसेसो आइयरस य हविज मासस्स । तीसइगुणिओ संतो हवइ हु अहिमासगो एको ॥१॥ अस्या है अक्षरगमनिका-आदित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य यो भवति विश्लेषः, इह विश्लेषे कृते | सति यदवशिष्यते तदप्युपचाराद्विश्लेषः, स त्रिंशता गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाणात् सार्थत्रिंशदहोरात्ररूपाञ्चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यते, ततः स्थित हैं पश्चाहिनमेकमे केन द्वापष्टिभागेन न्यूनं, तच दिनं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रिंशदिनानि, एकश्च द्वाषष्टिभागस्त्रिंशता गुणितो जातात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ते विंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते, ततः स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच४ द्वापष्टिभागा दिनस्य, एतावत्परिमाणश्चान्द्रो मास इति भवति.सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो, युगे च सूर्यमासाः षष्टिस्ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, उक्तं च-"सट्टीए अइयाए हवइ हु अहिमासगो जुगळूमि । बाबीसे पबसए हवइ य बीओ जुगद्ध मि ॥१॥ अस्याप्यक्षरगमनिका|एकस्मिन् युगेऽनन्तरोदितस्वरूपे पर्वणां-पक्षाणां षष्टी अतीतायां, षष्टिसत्येषु पक्षेष्वतिक्रान्तेषु इत्यर्थः, एतस्मिन्नवसरे युगाद्धेषु-युगाचप्रमाणे एकोऽधिकमासो भवति, द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वाविंशे-द्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽति 4545464+++ KERSSEX दीप अनुक्रम [८१] ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभत [१०]. ....................-- प्राभूतप्राभूत [२०], .............--- ------- मूलं [५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: तिवृत्तिः प्रत सूर्यम(मत.) ॥१५५॥ २० प्राभृत सूत्रांक [१६] 15 दीप क्रान्ते युगस्यान्ते-युगस्य पर्यवसाने भवति, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिकमासः पश्चमे वेति द्वौ युगेऽभिवद्धिंतसं| वत्सरौ । सम्पति युगे सर्वसजाया यावन्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निदिदिक्षुः प्रतिवर्ष पर्वसङ्ख्यामाह-'ता पढमस्स १० प्राभ्वे ण'मित्यादि, 'ता' इति तत्र युगे प्रथमस्य णमिति वाक्याल ती चान्द्रय संघसरस्य चतुर्विंशतिः पाणि प्रज्ञप्तानि, माइते द्वादशमासात्मको हि चान्द्रः संवत्सरः, एकैकस्मिंश्च मासे दे द्वे पर्वणी, ततः सर्वसञ्जयया चान्द्रे संवत्सरे चतुर्विंशतिः युगसंवत्सपर्याणि भवन्ति, द्वितीयस्यापि 'चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति, अभिवतिसंवत्सरस्य पद्दविंशतिः पर्वाणि,रासू ५६ | तस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् , चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि, पञ्चमस्य अभिवतिसंवत्सरस्य पति- पर्वकरणानि शतिः पर्वाणि, कारणमनन्तरमेवोतं, तत एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुच्चावरेणं'ति पूर्वापरगणितमीलनेन पश्चसां-I वत्सरिके युगे चतुर्विशत्यधिक पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृर्मिया च । इह कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले किं पर्ये समाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाचार्यैः पर्वकरणगाथा अभिहिताः, ततस्ता विनेयजमानुग्रहार्थमुपदिश्यन्ते"इच्छापहि गुणिजे अयणं रूवाहि तु कायर्व । सोझं च हवइ एत्तो अयणक्खेत्तं उडुवइस्स ॥ १ ॥ जइ अयणा सुझंती तइपवजुया उ रुवसंजुत्ता । तावइयं तं अयणं नस्थि निरंसंमि रूबजुयं ॥२॥ कसिणमि होइ रूवं पक्खेवो दोय होति भिन्नंमि । जावया सावइया एते ससिमंडला होति ॥३॥ ओयम्मि उ गुणकारे अम्भितरमंडले हवइ आई। जुग्गमि |य गुणकारे वाहिरगे मंडले आई ॥४॥" एषां क्रमेण व्याख्या-यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलादिविषया ज्ञातुमिच्छा तेन ॥१५५॥ ध्रुवराशिर्गुण्यसे, अथ कोऽसौ ध्रुवराशिः ?, उच्यते, इह ध्रुवराशिप्रतिपादिकेयं पूर्वाधार्योपदर्शिता गाथा-"एगच मंडलं % अनुक्रम [८१] % % % ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: -4 -M प्रत सूत्रांक [१६] मंडलस्स सत्तहभाग चत्तारि । नव चेव चुण्णियाओ इगतीसकरण छेएण॥१॥" अस्या अक्षरयोजना-एक मण्डलमेकस्य च मण्डलस्य सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः च नव चूर्णिकाभागा एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशत्कृतेन छेदेन ये चूर्णिका भागास्तेन च | एतावत्प्रमाणो ध्रुवराशिः, अयं च पर्वगतक्षेत्रादयनगतक्षेत्रापगमे शेषीभूतः, एतस्य चोत्पत्तिमात्र भावयिष्यामः, तत एवंभूतं ध्रुवराशिमीप्सितपर्वभिर्गुणयित्वा तदनन्तरमयनं रूपाधिकं कर्त्तव्यं, तथागुणितस्य मण्डलराशेः यदि चन्द्रमसोऽयनक्षेत्रं | परिपूर्णमधिक वा सम्भाव्यते तत एतस्मादीप्सितपर्षसयागुणितात् मण्डलराशरुडपतेः-चन्द्रमसोऽयनक्षेत्रं भवति शोध्य.1 यति च-यावत्सल्यानि चायनानि शुद्ध्यन्ति ततिभिर्युक्तानि पर्वाणि अयनानि क्रियन्ते, कृत्वा च भूयो रूपसंयुक्तानि है। विधेयानि, यदि पुनः परिपूर्णानि मण्डलानि शुक्ष्यन्ति राशिश्च पश्चानिलेपो जायते तदा तदयनसङ्ख्यानै निरंशं सद्रूपयुक्तं नास्ति, न तत्रायनराशौ रूपं प्रक्षिप्यते इति भावः, तथा कृत्स्ने-परिपूर्णे राशी भवत्येकं रूपं मण्डलराशौ प्रक्षेपणीयं, भिन्ने-खण्डे अंशसहिते राशावित्यर्थः, द्विरूपे मण्डलराशौ प्रक्षेपणीये प्रक्षेपे च कृते सति यावान् मण्डलराशिर्भवति | तावन्ति मण्डलानि तावतिथे ईप्सिते पर्वणि भवन्ति । तथा यदि ईप्सितेन पर्वणा ओजोरूपेण-विषमलक्षणेन गुणकारों भवति तत आदिरभ्यन्तरे मण्डले द्रष्टव्या, युग्मे तु-समे तु गुणकारे आदिबर्बाह्ये मण्डलेऽवसेयः, एष करणगाधासमू| हाक्षरार्थः, भावना स्वियम्-कोऽपि पृच्छति-युगादौ प्रथमं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमुपयाति , तत्र प्रथम पर्व पृष्टमिति घामपार्वे पर्वसूचक एककः स्थाप्यते, ततस्तस्यानुश्रेणि दक्षिणपार्षे एकमयनं, तस्य चानुश्रेणि एकं| मण्डलं, तस्य च महलस्याधस्ताचत्वारः सप्तपष्टिभागास्तेषामप्यधस्तानव एकत्रिंशदागाः, एष सर्वोऽपि राशि वराशिः, दीप 45455 अनुक्रम [८१] ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप सूर्यप्रज्ञ 1सच ईप्सितेन एकेन पर्वणा गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव राशिः, ततः 'अयनं रूपाधिकच याभृते प्तिवृत्तिः कर्तव्य मिति वचनादेकं रूपमयने प्रक्षिप्यते, मघडलराशौ चायनं न शुद्ध्यति, ततो 'दो य होति भिन्नंमि' इति वचनातू प्राभूत(मल०) मण्डलराशौ द्वे रूपे प्रक्षिप्येते, तत आगतमिदं प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीयस्य मण्डलस्य, ओयंमि य गुणकारे अन्भितर प्राभृते |मंडले हवाइ आई' इति वचनात् , अभ्यन्तरवर्तिनश्चतुषु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशदूभागेषुला युगसंवत्स॥१५६॥ * गतेषु समाप्तिमुपयातीति, अयन चेह चन्द्रायणमवसेयं, चन्द्रायणं च युगस्यादौ प्रथममुत्तरायणं द्वितीयं दक्षिणायनमिति द्वितीयेऽयनेऽभ्यन्तरवर्तिनस्तृतीयस्य मण्डलस्येत्युक्तं, तथा कोऽपि पृच्छति-द्वितीयं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमधिगच्छतीति, तत्र द्वितीय पर्व पृष्टमिति स एव प्रागुक्तो ध्रुवराशिः समस्तोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, ततो जाते द्वे अयने द्वे मण्डले अष्टौ सप्तपष्टिभागा अष्टादश एकत्रिंशद्भागास्ततः 'अयनं रूपाधिकं कर्तव्य'मिति वचनात् है अयने रूपं प्रक्षिप्यते, मण्डलराशौ चायनं न शुद्ध्यति, सतो 'दो य होंति भिन्नंमि' इति वचनान्मण्डलराशी हे प्रक्षि-15 प्येते, तत आगतं द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थस्य मण्डलस्य 'जुग्गमि व गुणकारे बाहिरगे मंडले हवाइ आई' इति विचनात् बाह्यमण्डलादग्विचिनः अष्टसु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्याष्टादशस्वेकत्रिंशद्भागेष्वतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमुपैति, तथा कोऽपि प्रश्नयति-चतुर्दशं पर्व कतिसक्वेष्वयनेषु मण्डलेषु वा समाप्तिं गच्छतीति, स एव प्रागुक्तो ॥१५६॥ धूिवराशिः समस्तोऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यते, जातानि अयनानि चतुर्दश मण्डलान्यपि चतुर्दश, चत्वारः सप्तपष्ठिभागाश्चतुलादेशभिगुणिताः षट्पश्चाशत् ५६, नव एकत्रिंशद्भागाश्चतुर्दशभिर्गुणिता जातं पडूविंशत्यधिकं शतं १२६, तत्र पर्विशत्य +- अनुक्रम [८१] +-% 355 ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [२०], ------------------ मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप -- धिकस्य शतस्य एकत्रिंशता भागो हियते, लब्धाः चत्वारः सप्तपष्टिभागाः, द्वौ चूर्णिकाभागौ तिष्ठतः, चस्वारश्च सप्तषष्टिभागा उपरितने सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताः षष्टिः सप्तपष्टिभागाचतुर्दशभ्यश्च मण्डलेभ्यस्त्रयोदशभिमण्डलैस्त्रयोदशभिश्च सप्तपष्टिभागैरयनं शुद्ध, तेन पूर्वाण्ययनानि चतुर्दशसवानि युतानि क्रियन्ते, ततः 'अयनं रूपाधिक कर्त्तव्य मिति वचनानूयोऽपि तत्रैक रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि षोडश अयनानि, सप्तपष्टिभागाश्च चतुष्पश्चाशत्सङ्ख्या मण्डलराशाबुद्धरितास्तिष्ठन्ति, ते सप्तपष्टिभागराशी षष्टिरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुर्दशोत्तरं शतं ११४, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेकं मण्डलं, पश्चादबतिष्ठन्ते सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः, ततो 'दो य होति भिन्नमि' इति वचनान्मण्डलराशौ द्वे रूपे प्रक्षिप्येते, जातानि त्रीणि मण्डलानि, चतुर्दशभिश्चात्र गुणितं कृतं, चतुर्दशराशिश्च यद्यपि युग्मरूपस्तथाऽप्यत्र मण्डलराशेरेकमयनमधिकं प्रविष्टमिति त्रीणि मण्डलान्यभ्यन्तरमण्डलादारभ्य द्रष्टव्यानि, तत आगतं चतुर्दशं पर्व पोडशेऽयनेऽभ्यन्तरमण्डलादारभ्य तृतीये मण्डले सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य द्वयोरेकत्रिंशदागयोर्गतयोः परिसमामोतीति । तथा द्वापष्टितमपर्वजिज्ञासायां स पूर्वोक्तो ध्रुवराशिषिष्ट्या गुण्यते, जातानि द्वापष्टिरयनानि द्वापष्टिमण्डलानि वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके सवषष्टिभागानो २४८ पश्च शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि एकत्रिंशद्भागानां ५५८, तेषामेकत्रिंशता भागे हुते लब्धाः परिपूर्णाः अष्टादश सप्तषष्टिभागास्ते उपरितने सप्तपष्टिभागराशी प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते षट्पट्यधिके २६६, उपरि च द्वापष्टिमण्डलानि, तेभ्यो द्विपश्चाशता मण्डलैपिचाशता च एकस्य मण्डलस्य सप्तपष्टिभागैश्चत्वारि अयनानि लब्धानि, तान्ययनराशी प्रक्षिष्यन्ते, जातानि - अनुक्रम [८१] **5-%ावस्या -- - ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------- ------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [८१] सूर्यप्रज्ञ- पटूपष्टिरयनानि ६६, पश्चादवतिष्ठन्ते नव मण्डलानि पञ्चदश च सप्तषष्टिभागा मण्डलस्य, तत्र पञ्चदश सप्तपष्टिभागाः||१० प्राभृते शिवृत्तिः सप्तपष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते एकाशीत्यधिके २८१, तयोः सप्तषष्या भागे हते लब्धानि चत्वारि मण्ड- २० प्राभूत (मल)INCRMA लानि, शेषा अवतिष्ठन्ते त्रयोदश सप्तपष्टिभागा मण्डलस्य, ते च मण्डलाराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रयोदश मण्डलानि, प्राभूत ११५७त्रयोदशभिर्मण्डलैत्रयोदशभिश्च सप्तपष्टिभागैः परिपूर्णमेकमयनं लब्धमिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि सप्तषष्टि युगसंवत्स रयनानि, 'नस्थि निरंसमि रूवजुय'मिति वचनादयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते, केवलं 'कसिणंमि होइ रुवं पक्खेवो' इति| करणात वचनान्मण्डल स्थाने एकं रूपं न्यस्पते, द्वाषष्ट्या वात्र गुणकारः कृतो द्वापष्टिरूपश्च राशियुग्मो यान्यपि च चत्वायेंयनानि प्रविष्टानि तान्यपि युग्मरूपाणि रूपं चात्राधिकमेकं न प्रक्षिप्तमिति पञ्चममयनं तत्स्थाने द्रष्टव्यमिति बाह्यमण्डलमादिष्टव्यं, तत आगतं द्वापष्टितम पर्व सप्तषष्टावयनेषु परिपूर्णेषु जातेषु बाह्यमण्डले प्रथमरूपे परिसमाप्ते परिसमाप्तिं गतमिति, एवं सर्वाण्यपि पर्वाणि भावनीयानि, केवलं विनेयजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारो लेशतोऽक्षरताडित उपदर्यते, तत्र प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तमिति ध्रुवराशिं कृत्वा पर्वायनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं रूपं प्रक्षेप्तव्यं, भागे च तावत्सलयाका भागाः, मण्डले चायनक्षेत्रे परिपूर्णे त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा इत्येतावत्प्रमाणमयनक्षेत्रं शोधयित्वाऽयनमयनराशी' प्रक्षेप्तव्यं, अनेन क्रमेण वक्ष्यमाणः प्रस्तारः सम्यक् परिभावनीयः, द्रास च प्रस्तारोऽयं-प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्यु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभा-18 ॥१५७॥ ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गस्य नवस्वे कत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तं, द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य अष्टसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशद्भागेषु अष्टादशसु तृतीयं पर्व चतुर्थेऽयने पञ्चमे मण्डले पञ्चसस्य मण्डलस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य सप्तविंशती एकत्रिंशद्भागेषु चतुर्थ पर्व पञ्चमेऽयने षष्ठे मण्डले षष्ठस्य मण्डलस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य पञ्चस्व कत्रिंशद्भागेषु पञ्चमं पर्व षष्ठेऽयने सप्तमें मण्डले सप्तमस्य मण्डलस्य एकविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्दशस्त्रकत्रिंशद्भागेषु, पष्ठं पर्व सप्तमेऽयनेऽष्टमे मण्डलेऽष्टमस्य मण्डलस्य पञ्चविंशती मतपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य त्रयोविंशतावेकत्रिंशद्भागेषु सप्तमं पर्व अष्टमेऽयने नवमे मण्डले नवमस्य मण्डलस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकस्मिन्नेकत्रिंशद्भागे अष्टमं पर्व नवमेऽयने दशमे मण्डले दशमस्य मण्डलस्य चतुखिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य दशस्वेकत्रिंशद्भागेषु नवमं पर्व दशमेsयने एकादशे मण्डले एकादशस्य मण्डलस्याष्टात्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकोनविंशतावेकत्रिंशद्वागेषु, दशमं पर्व एकादशेऽयने द्वादशे मण्डले द्वादशस्य च मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्याष्टाविंशती एकत्रिंशद्भागेषु, एकादशं पर्व द्वादशेऽयने त्रयोदशे मण्डले त्रयोदशस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य षट्सु एकत्रिंशद्भागेषु, द्वादशं पर्व चतुर्द्दशेऽयने प्रथमे मण्डले प्रथमस्य मण्डलस्याष्टात्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य पञ्चदशस्वेकत्रिंशद्भागेषु, त्रयोदशं पर्व पञ्चदशेऽयने द्वितीये | मण्डले द्वितीयस्य मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य चतुर्विंशतौ एकत्रिंशद्भागेषु चतु Education International For Parts Only ~322~ www.landbrary.org Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ----------------- मूल [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्तिवृत्तिः प्रत सूत्रांक (मल.)AIRROR ॥१५८॥ [१६] दीप दशं पर्व षोडशेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य द्वयो- १०प्राभूते रेकत्रिंशद्भागयोः, पञ्चदशं पर्व सप्तदशेऽयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य एकपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च ४० प्रामृतसप्तषष्टिभागस्य एकादशवेकत्रिंशद्भागेषु, एवं शेषेष्वपि पर्वस्वयनमण्डलप्रस्तारोभावनीयो, अन्धगौरवभयात्तु न लिख्यते। प्राभृते अथ किं पर्व कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे परिसमाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाचायः करणमुपदर्शितं, सम्प्रति तदप्युपद- युगसंवत्स यते-'चउवीससय काऊण पमाणं सत्तसहिमेव फलं । इच्छापधेहिं गुणं काऊणं पजया लद्धा ॥१॥ अद्वारसहिरासू ५६ |सएहिं तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि । तेरस विउत्तरेहिं सएहिं अभिइम्मि सुद्धम्मि ॥२॥ सत्तहिबिसठ्ठीणं सबग्गेणं है पर्वकरणानि तओ उजं सेसं । तं रिक्खं नायव जत्थ सम हवइ पर्व ॥३॥' त्रैराशिकविधौ चतुर्विशत्यधिक शतं प्रमाण-प्रमाणराशिं कृत्वा सप्तषष्टिरूपं फलं-फलराशिं कुर्यात् , कृत्वा च ईप्सितैः पर्षभिर्गुणं-गुणकारं विदध्यात्, विधाय चान राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागे हृते यल्लन्धं ते पर्याया ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सङ्गुण्यते, सङ्गुणिते च तस्मिन् ततस्त्रयोदशभिः शतैर्युत्तरैरभिजित् शोधनीयः, अभिजितो भोग्यानामेकविंशतेः सप्तपष्टिभागानां द्वापट्या गुणने एतावतः शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् , ततस्तस्मिन् शोधने सप्तषष्टिसङ्ख्या या द्वाषष्टय-18 तासां सर्वाग्रेण यद्भवति, किमुक्तं भवति, -सप्तपट्या द्वाषष्टौ गुणितायां यद भवति तेन भागे हृते यल्लब्ध तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि, यत्पुनस्ततोऽपि भागहरणादपि-शेपमवतिष्ठते तादृशं नक्षत्र ज्ञातव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति, एष करणगाथाक्षरार्थः, भावना त्वियम्-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिः पर्याया लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा कि अनुक्रम [८१] ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१७] उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः लभामहे १, राशिश्रय स्थापना -- १२४ । ६७ । १ । अत्र चतुर्विंशत्यधिकशतरूपो राशिः प्रमाणभूतः सप्तषष्टिरूपः फर्क तत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते, जातस्तावानेव तस्याद्येन राशिना चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्लोकत्वाद् भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागरूपैर्गुणयिष्याम इति गुणकार छेदराश्योर नापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिद्वषष्टिः ६२, तत्र सप्तषष्टिर्न वशतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यते, जातान्ये कषष्टिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि ६१३०५, एतस्मादभिजितत्रयोदश शतानि इयुत्तराणि शुद्धानि स्थितानि शेषाणि षष्टिसहस्राणि त्र्युत्तराणि ६०००३, तत्र छेदराशिद्वषष्टिरूपः सप्तषष्ठ्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धाश्चतुर्दश १४, तेन श्रवणादीनि पुष्यपर्यन्तानि चतुर्द्दश नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, एतानि मुह तनयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि ५५४१०, तेषां भागे हते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्त्ताः शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्द्दश शतानि अष्टोत्तराणि १४०८, एतानि द्वाषष्टिभागानयनार्थं द्वापट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योद्वपियाऽपवर्त्तना क्रियते, तत्र गुणकारराशिर्जात एककश्छेदराशिः सप्तषष्टिः, एकेन गुणित उपरितनो राशिर्जातस्तावानेव तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकविंशतिः २१, पश्चादवतिष्ठते एकः सप्तषष्टिभागः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य, आगतं प्रथमपर्व अश्लेषायात्रयोदश मुहर्त्तान् एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकविंशतिर्द्धापष्टिभागान् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकं सप्तषष्टिभागं भुक्त्वा समाप्तमिति, तथा यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिः, an Internationa For Parts Only ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ----------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल०) ॥१५॥ [१६] दीप अनुक्रम पर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४ । ६७।२। अत्रान्त्येन राशिना मध्य-1 १० प्राभृते २०प्राभूतराशिगुण्यते, जातं चतुर्विंशदधिक शतं १३४, तस्यायेन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, लब्ध एको प्राभृते नक्षत्रपर्यायः, स्थिताः शेषा दश, तत एतान् नक्षत्रानयनायाष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकः सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति युगसंवत्सगुणकारच्छेदराश्योरनापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिद्वषष्टिः ६२, तत्र राः सू५६ दश नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातान्ये कैनवतिः शतानि पञ्चाशदधिकानि ९१५०, तेभ्यस्त्रयोदश शतानि निवर्वकरणानि द्रवत्तराव्यभिजितः शुद्धानि, स्थितानि पश्चादष्टसप्ततिः शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि ७८७८, तत्र द्वापष्टिरूप-छ-1 दराशिः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धमेकं श्रवणरूपं नक्षत्र, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्त्रिंशच्छतानि चतुर्नवत्यधिकानि ३६९४, एतानि मुहानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्ष दश सहस्राणि अष्टौ शतानि विंशत्युत्तराणि ११०८२०, तेषां छेदराशिना भागे हते लब्धाः षड्विंशतिर्मुहत्तो। २६, शेषाणि तिष्ठन्ति पोडशोत्तराणि अष्टाविंशतिः शतानि २८१६, एतानि द्वापष्टिभागानयनाथ द्वापध्या गुणयितव्यानि, तत्र गुणकारच्छेद्यराश्योषष्ट्याऽपवर्तना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपो जात छैदराशिः सप्तषष्टिः, तत्रैकेन उपरितनो राशिगुणितो जातस्तावानेव तस्य सप्तषध्या भागे हृते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा। एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी, आगतं द्वितीयं पर्व धनिष्ठानक्षत्रस्य पडूविंशतिं मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाचत्वारिंशतं ॥१५९॥ द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ भुक्त्वा समाप्तिमुपगच्छति, एवं शेषेष्वपि पर्वसु सर्वाणि नक्ष [८१] ~325~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------- ------- मूलं [५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप त्राणि भावनीयानि, तरसवाहिकाश्चमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः पञ्च गाथा:-"सप्प धाणहा अजम अभिवुही चित्त आसलाइंदरिंग । रोहिणि जिट्ठा मिगसिर विस्साऽदिति सवण पिउदेवा ॥१॥ अज अज्जम अभिवुही चित्ता आसो तहा विसाहाओ।। रोहिणि मूलो अदा वीस पुस्सो धणिहा य ॥२॥ भग अज अजम पूसो साई अग्गी य मित्तदेवा य । रोहिणि पुषासाहा पुणवसू वीसदेवा य ॥३॥ अहिवसु भगाभिवृड्डी हत्थस्स विसाह कत्तिया जेठा । सोमाउ रवी सवणो पिउ वरुण भगाभिवुड्डी य ॥४॥ चित्तास विसाहग्गी मूलो अद्दा य विस्स पुस्सो अ । एए जुगपुबद्धे बिसहिपबेसु नक्खत्ता ॥ ५॥" एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सर्पः-सप्पदेवतोपलक्षितं नक्षत्रं (अश्लेषा) १ द्वितीयस्य धनिष्ठा २ तृती-1 यस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः २ चतुर्थस्याभिवृद्धिः--अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा ४ पञ्चः मस्य चित्रा ५ षष्ठस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी ६ सप्तमस्य इंद्राग्निः-इन्द्राग्निदेवतोपलक्षिता विशाखा ७ अष्टमस्य रोहिणी ८ नवमस्य ज्येष्ठा ९ दशमस्य मृगशिरः १० एकादशस्य विश्वदेवतोपलक्षिता उत्तराषाढा ११ द्वादशस्यादितिःअदितिदेवतोपलक्षितः पुनर्वसुः १२ प्रयोदशस्य श्रवणः १३ चतुर्दशस्य पितृदेवा-मघाः १४ पञ्चदशस्याजा-अजदेवतो. पलक्षिताः पूर्वभद्रपदाः १५ पोडशस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः १६ सप्तदशस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा १७ अष्टादशस्य चित्रा १८ एकोनविंशतितमस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९ विंशतितमस्य विशाखा २० एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविंशतितमस्य मूलः २२ त्रयोविंशतितमस्य आद्रो २३ चतुर्विंशतितमस्य विष्वक्-विष्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा २४ पञ्चविंशतितमस्य पुष्पः २५ पडूविंशतितमम्य धनिष्ठा अनुक्रम [८१] ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ------------------ मूल [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप सूर्यप्रज्ञ-४२६ सप्तर्षिशतितमस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २७ अष्टाविंशतितमस्याज:-अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभ-11१० प्राभृते तिवृत्तिः द्रपदा:२८ एकोनत्रिंशत्तमस्यार्यमा-अर्यमदेवता उत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य पुष्या-पुष्यदेवताका रेवती ३० एकत्रि- २०प्राभृत(मल.) शत्तमस्य स्वातिः ३१ द्वात्रिंशत्तमस्याग्नि:-अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमस्य मित्रदेवा-मित्रनामा देवो प्राभूते यस्याः सा तथा अनुराधा इत्यर्थः ३३ चतुर्विंशत्तमस्य रोहिणी ३४ पश्चत्रिंशत्तमस्य पूर्वाषाढा ३५ षट्त्रिंशत्तमस्य युगसंवत्स॥१६०.1 पुनर्वसुः ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवाः उत्तराषाढा इत्यर्थः ३७, अष्टात्रिंशत्तमस्याहिः-अहिदेवतोपलक्षिता अश्लेषा ठार पर्षकरणानि |३८ एकोनचत्वारिंशत्तमस्य वसुः वसुदेवोपलक्षिताः धनिष्ठा ३९ चत्वारिंशत्तमस्य भगो-भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः ४० एक-* चत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा ४१ द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः ४२, त्रिचत्वारिंशत्त-| मस्याश्वः-अश्वदेवा अश्विनी ४३ चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य विशाखा ४४ पश्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका ४५ षट्चत्वारिंशत्तमस्य ज्येष्ठा ४६ सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरोनक्षत्रं ४७ अष्टाचत्वारिंशत्तमस्यायु:-आयुर्देवाः पूर्वापाहाः ४८ एकोनपश्चाशत्तमस्य रविः-रविनामकदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रं ४९ पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः ५० एकपञ्चाश| तमस्य पिता-पितृदेवा मघाः ५१ द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणो-वरुणदेवोपलक्षितं शतभिषा नक्षत्रं ५२ त्रिपशाशत्तमस्य भगो-15 भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः ५३ चतुःपञ्चाशत्तमस्याभिवृद्धि:-अभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा ५४ पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५ पट् ॥१६॥ पश्चाशत्तमस्याश्वा-अश्वदेवा अश्विनी ५६ सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७ अष्टपश्चाशत्तमस्यानि:-अप्रिदेवोपलक्षिताः कृत्तिका:५८ एकोनषष्टितमस्य मूला ५९पष्टितमस्य आद्रो ६० एकषष्टितमस्य विष्वक्-विष्वग्देवा उत्तरापाढाः६१हापष्टितमस्य || अनुक्रम [८१] ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप पुष्यः ६२, एतदुपसंहारमाह-एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वार्दै यानि द्वाषष्टिसङ्ग्यानि पर्वाणि तेषु क्रमेण वेदितव्यानि, एवं प्रागुक्तकरणवशादुत्तराद्देऽपि द्वाषष्टिसङ्ख्येषु पर्वस्ववगन्तव्यानि । सम्प्रति कस्मिन् सूर्यमण्डले किं पर्व समाप्ति यातीति चिन्तायां यत्पूर्वाचार्यैरुपदर्शितं करणं तदभिधीयते-"सूरस्सवि नायबो सगेण अयणेण मंडलविभागो । अयणमि । जे दिवसा स्वहिए मंडळे हवइ ॥१॥" अस्या व्याख्या-सूर्यस्यापि पर्व विषयो मण्डलविभागो ज्ञातव्यः स्वकीयेनायनेन, किमुक्तं भवति ।-सूर्यस्य स्वकीयमयनमपेक्ष्य तस्मिन् तस्मिन् मण्डले तस्य तस्य पर्वणः परिसमाप्तिरवधारणीयेति, तत्र अयने शोधिते सति ये दिवसा उद्धरिता वर्तन्ते तत्सये रूपाधिके मण्डले तदीप्सितं पर्व परिसमा भवतीति वेदितव्यं, एषा करणगाथाऽक्षरघटना, भावार्थस्त्वयम्-इह यत्पर्व कस्मिन् मण्डले समाप्तमिति ज्ञातुमिष्यते तत्समया प्रियते. धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, गुणयित्वा च रूपाधिका क्रियते, ततः सम्भवन्तोऽवमरात्राः पात्यन्ते, ततो यदि व्यशीत्यधिकेन शतेन भागः पतति तर्हि भागे हते यलब्धं तान्ययनानि ज्ञातव्यानि, केवलं या पश्चादिवससमयाऽवतिष्ठते तदन्तिमे मण्डले विवक्षितं पर्व समाप्तमित्यवसेयं, उत्तरायणे वर्तमाने बाह्य मण्डलमादिः कर्त्तव्यं दक्षिणायने च सों-15 भ्यन्तरमिति । सम्प्रति भावना क्रियते-ततः कोऽपि पृच्छति-कस्मिन् मण्डले स्थितः सूर्यो युगे प्रथम पर्व समापयतीति, इह प्रथमं पर्व पृष्टमित्येकको ध्रियते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाताः पञ्चदश, अत्रैकोऽप्यवमरात्री न सम्भवतीति न किमपि पात्यते, ते च पश्चदश रूपाधिकाः क्रियन्ते, जाता षोडश, युगादौ च प्रथम पर्व दक्षिणायने, तत आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा पोडो मण्डले प्रधर्म पर्व परिसमाप्तमिति । तथाऽपरः पृच्छति-चतुर्थ पर्व कस्मिन् मण्डले परिसमामो अनुक्रम [८१] ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ----------------- मूल [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक CCTS [१६] दीप तीति !, तत्र चतुष्को ध्रियते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाता षष्टिः, अत्रैकोऽत्रमरात्रः सम्भवतीत्येकः पात्यते, जाता १० प्राभृते प्तिवृत्तिः एकोनषष्टिः ५९, सा भूयोऽप्येकरूपयुता क्रियते, जाता षष्टिः, आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा पष्टितमे मण्डले चतुर्थे| २०प्राभूत(मळ०) पर्व समाप्तमिति । तथा पञ्चविंशतितमपर्वजिज्ञासायां पञ्चविंशतिः स्थाप्यते, सा पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि प्राभृते पञ्चसप्तत्यधिकानि ३७५, अत्र पडवमरात्रा जाता इति षट् शोध्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि ३६९, ॥१६॥ तेषां व्यशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धी द्वौ, पश्चात्तिष्ठन्ति त्रीणि, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि चत्वारियोामारासूप, पर्वकरणानि दाच द्वौ लब्धौ ताभ्यां द्वे अयने दक्षिणायनोत्तरायणरूपे शुद्धे, तत आगतं तृतीये दक्षिणायनरूपे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादित कृत्वा चतुर्थे मण्डले पश्चविंशतितम पर्व परिसमाप्तमिति । चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विशत्यधिक शतं | स्थाप्यते, तत्पश्चदशभिर्गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि पश्यधिकानि १८६०, चतुर्विशत्यधिकपर्वशते च त्रिंशदमवरात्रा भूता इति प्रिंशत्पात्यते, जातानि पश्चादष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि अष्टादश शतान्येकत्रिंशदधिकानि १८३१, तेषां व्यशीत्यधिकेन शतेन भागे हते लब्धानि दशायनानि पश्चादवतिष्ठते एका, दशमं च अयनं युगपर्यन्ते उत्तरायणं, तत आगतमुत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चतुर्विशत्यधिक शततम पर्व समाप्तमिति । सम्प्रति किं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तिमधिगच्छति एतन्निरूपणार्थ यत्पूर्वाचार्यैः करणमुक्त | बा॥१६॥ तदुपदश्यते-'चउवीससयं काऊण पमाणं पजए य पंच फलं । इच्छापबेहिं गुणं काऊणं पज्जया लद्धा ॥ १ ॥ अट्ठारस य सएहिं तीसहिं सेसगंमि गुणियम्मि । सत्तावीससएसुं अट्ठावीसेसु पूसंमि ॥ २॥ सत्तइबिसठ्ठीणं सबग्गेणं तओ उ अनुक्रम [८१] ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] 2-0E 56555*5% ज सेसं । तं रिक्खं सूरस्स उ जत्थ समत्तं हवा पर्व ॥ ३॥ एतासां तिसणां गाथानां क्रमेण व्याख्या-राशिकविधी चतुर्विशत्यधिकशतप्रमाणे प्रमाणराशिं कृत्वा पञ्च पर्यायान् फलं कुर्यात् , कृत्वा च ईप्सितैः पर्वभिर्गुणं-गुणकारं विदध्यात्, विधाय चायेन राशिना-चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हर्तव्यो, भागे हुते यलब्ध ते पर्यायाः शुद्धा ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैगुण्यते, गुणिते च तस्मिन् सप्तविंशतिशतेषु अष्टाविंशत्यधिकेषु शुद्धेषु पुष्यः शुक्यति, तस्मिन् शुद्धे सप्तषष्टिसङ्ख्या या द्वाषष्टयस्तासां सर्वाग्रेण यनवति, किमुक्तं भवति ?-सप्तपथा द्वाषष्टौ गुणितायां यद् भवति तेन भागे हते थलब्धं तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि द्रष्टव्यानि, यत्पुनस्ततोऽपि-भागहरगादपि शेषमवतिष्ठते तदक्षं सूर्यस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति, एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः । भावना स्वियम्-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातस्तावानेव पञ्चकरूपः, तस्यायेन राशिना चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्तोकत्वाद्भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थ अष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरनापवर्तना, जातो गुणकारराशिव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ छेदराशिषिष्टिः ६२, तत्र पश्च नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि |४५७५, पुष्यस्य चतुश्चत्वारिंशद् भागा वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि सप्तविंशतिः शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि | |२७२८, एतानि पूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चादष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, तत्र छेदरा दीप अनुक्रम [८१] 多次为众多交多 ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [८१] सूर्यप्रज्ञ- शिषिष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातानि एकचत्वारिंशत् शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते,१०याभृते तिवत्तिः तत्र राशेः स्तोकत्वात् भागो न लभ्यते, ततो दिवसा आनेतव्याः, तत्र चछेदराशिपिष्टिरूपा, परिपूर्णनक्षत्रानयनाथै २०प्राभूत(मल) हि द्वापष्टिः सप्तपध्या गुणिताः, परिपूर्ण च नक्षत्रमिदानी नायाति, ततो मूल एव द्वापष्टिरूपश्छेदराशिः, केवलं पञ्चभिः माभृते सप्तषष्टिभागैरहोरात्रो भवति, ततो दिवसानयनाय द्वाषष्टिः पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि दशोत्तराणि ३१०, युगसंवत्स।।१६२॥ तैर्भागो हियते, लब्धाः पश्च दिवसाः, शेष तिष्ठति द्वे शते सप्तनवत्यधिके २९७, ते मुहूर्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, तत्र | रासू ५६ पकरणानि गुणकारच्छेदराश्योः शून्येनावपर्तना जातो गुणकारराशिस्त्रिकरूपश्छेदराशिरेकत्रिंशत् , तत्र त्रिकेनोपरितनो राशिर्गुण्यते जातान्यष्टौ शतान्येकनवत्यधिकानि ८९१, तेषामेकत्रिंशता भागो हियते, लब्धा अष्टाविंशतिर्मुहर्राः २८ एकस्य च मुहूर्तस्य५ त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः आगतं प्रथमं पर्व अश्लेषानक्षत्रस्य पञ्च दिवसानेकस्य च दिवसस्याष्टाविंशतिं मुहर्ता-18 नेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान् भुक्त्वा समाप्तं, अथवा पुष्ये शुद्धे यानि स्थितानि पश्चादष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, तानि सूर्यमुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि चत्वारि श&ातानि दशोत्तराणि ५५४१०, तेषां प्रागुतन छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश मुहूताः १३, शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शतान्यष्टोत्तराणि १४०८, ततोऽमूनि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्यो १६२॥ दोषध्याऽपवत्तेना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपश्छेदराशिः सप्तषष्टिरूपस्तत्र एकेन गुणितो राशिस्तावानेव जातः १४०८, तस्य सप्तषया भागो हियते, लब्धा एकविंशतिः २१ द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टि 4% AXEE* % ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ---------- ------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] भागः, तत आगतं युगस्यादी प्रथम पर्व अमावास्यालक्षणमश्लेषानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहूर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशति द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एक सप्तपष्टिभागं भुक्त्वा सूर्यः समापयति, तथा च वक्ष्यति-ता एएसिणं पंचहं संबच्छराणं पढम अमावासं चंदे केण नक्खत्तेणं जोएड, ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एकमुहुत्ते चत्तालीसे बावहिभागा मुहत्तस्स बावडिभागं च सत्तहिहा छित्ता छावहि चुण्णिआ सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जो-४ एइ, ता असिलेसाहिं चेष, असिलेसाणं एको मुहत्तो चत्तालीसं बावडिभागा मुहुत्तस्स पावहिभागं च सत्तहिहा छेत्ता छावही चुणिया सेसा' इति, तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्षशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४।५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाता दश १०, तेषामायेन राशिना भागहरणं, ते च स्तोकवाद् भागं न प्रयच्छन्ति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैर्गुणयितच्या इति, गुणकारकछेदराश्योरट्टेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि १९१५ छेदराशिषिष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः दश गुण्यन्ते, जातानि एकनवतिः शतानि पञ्चाशदुत्तराणि ९१५०, तेभ्यः सप्तविंशतिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाच्चतुःषष्टिः शतानि द्वाविंशत्यधिकानि ६४२२, छेदराशिौषष्टिरूपः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि | |४१५४, तैर्भागो हियते, लग्धमेकं नक्षत्र, तथाश्लेषारूपमश्लेषानक्षत्रं चाद्धक्षेत्रं अत एततूगताः पञ्चदश सूर्यमुहत्तो अधिका वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वाविंशतिः शतान्यष्टपश्यधिकानि २२६८, ततो मुहू नयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जाता दीप 155555575 अनुक्रम [८१] ~ 332~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] A दीप सूर्यप्रज्ञ- न्यष्टषष्टिः सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि ६८०४० तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो ह्रियते, लब्धाः पोडश महः १६. १० प्राभते दिशेषाण्यवतिष्ठन्ते पञ्चदश शतानि षट्सप्तत्यधिकानि १५७६, तानि द्वाषष्टिभागानयना द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुण-४२० प्राभृत(मल०) कारच्छेदराश्योपट्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिः ६७, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्ता- प्राभृते ॥१६॥ वानेव जातः, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हुते लब्धास्खयोविंशतिद्वोपष्टिभागाः २३ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टि- युगसंवत्स |भागाः ३५, तत्र ये लब्धाः षोडश मुहत्तों ये चोद्धरिताः पाश्चात्याः पश्चदश मुहूर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते, जाता एकत्रिंशत् ३१,IXL तत्र त्रिंशता मघा शुद्धा, पश्चादुद्धरत्येकः सूर्यमुहूर्तः, तत आगतं द्वितीय पर्व श्रावणमासभावि पौर्णमासीरूपं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्यैकं मुहूर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान भुक्त्वा सूर्यःपरिसमापयतीति, तथा च वक्ष्यति-"ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णमासिं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएड | तापणिहादि, धणिकाणं तिमि मुहुत्ता एगूणवीसं च बावहिभागा मुहुत्तस्स वावडिभागं च सत्तविहा छेत्ता पण्णट्टी चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण नक्खत्तेणं जोएइ, ता पुषाहिं फरगुणीहिं पुषाणं फग्गुणीणं अट्ठावीस व मुहुत्ता | अठ्ठावी(ती)संच बावद्विभागा मुहुत्तस्स बावडिभागं च सत्तछिहा छेत्ता बत्तीस चुणिया भागा सेसा" इति, तथा यदि चतु-18 |विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततनिभिः किं लभामहे ?, राशिवयस्थापना-१२४ । ५।३॥ अत्रान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चदश १५, तेषामायेन राशिना भागहरणं, तत्र राशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिक सक्षषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति अनुक्रम [८१] 4-9-25% 8059 SAREauraton international ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः गुणकारच्छेदश श्योरनापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिद्वपष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः पञ्चदश गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १३७२५, तेभ्यः सप्तविंशतिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पञ्चाद्दश सहस्राणि नव शतानि सप्तनवत्यधिकानि १०९९७, छेदराशिद्वषष्टिरूपः सप्तपट्या गुणितो जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धे द्वे नक्षत्रे २, ते चाश्लेषामघारूपे, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमित्येतद्गताः पञ्चदश सूर्यमुहूर्त्ता उद्धरिता वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति पविंशतिः शतानि नवाशीत्यधिकानि २६८९, एतानि मुहूर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यशीतिः सहस्राणि षट् शतानि सप्तत्यधिकानि ८०६७०, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहर्त्ताः १९, शेषाण्यवतिष्ठन्ते सप्तदश शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि १७४४, एतानि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वापष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योद्वपट्याऽपवर्त्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिः ६७, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः १४४४, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः षड्विंशतिर्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ । २३। तत्र ये दधा एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः ये चौद्धरिताः पाश्चात्याः पश्चदश मुहर्त्तास्ते एकत्र मील्यन्ते, जाताश्चतुस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः, तत्र विंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, शेपास्तिष्ठन्ति चत्वारो मुहूर्त्ताः, तत आगतं तृतीयं पर्व भाद्रपदगतामावास्यारूपं उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्त्तानेकस्य च मुहर्त्तस्य पविंशतिं द्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति, तथा च वक्ष्यति , Education Internation For Par Use Only ~ 334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ठिवा प्रत सूत्रांक [१६] |'ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं दोचं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जीएइ ?, ता उत्तराहिं फग्गुणीहि, उत्तरफग्गु- १०प्राभूते NALIणीणं चत्तालीस मुहत्ता पण्णत्तीसं बावद्विभागा मुहत्तस्स बावडिभागं च सत्तविहा छेत्ता पण्णही चुणिया भागा सेसा.२० प्राभत(मल.) | समयं च णं सूरे केणं नक्सत्तेणं जोएइ, ता उत्तराहिं चेव फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीस प्राभृते च बावहिभागा मुहुत्तरस वावडिभागं च सत्तडिहा छेत्ता पण्णवी चुणिया भागा सेसा" इति, एवं शेषपर्वसमापकान्यपि युगसंवत्स॥१६४॥ | सूर्यनक्षत्राण्यानेतन्यानि । अथवेदं पर्वसु सूर्यनक्षत्रपरिज्ञानार्थ पूर्वाचार्योपदर्शितं करणं-'तित्तीसं च मुहत्ता विसडि भागोरासू५६ पवेकरणानि य दो मुहुत्तस्स । चुत्ती चुण्णियभागा पवीकया रिक्खधुवरासी ॥१॥ इच्छापञ्चगुणाओ धुवरासीओ य सोहणं कुणसु । पूसाईणं कमसो जह दिहमणतनाणीहिं ॥२॥ उगवीसं च मुहुत्ता तेयालीसं बिसटिभागा य । तेचीस चुण्णियाओ पूसरस य सोहणं एवं ॥३॥ उगुयालसयं उत्तरफग्गु उगुणह दो विसाहासु । चत्तारि नवोत्तर उत्तराण साढाण सोझाणि । (पं० ५०००)॥४॥ सचत्य पुस्ससेसं सोझं अभिइस्स चउरउगवीसा । बावठी छन्भागा बत्तीस नुणिया भागा॥५॥ गुणत्तरपंचसया उत्तरभद्दषय सत्त उगुवीसा। रोहिणि अहनवोत्तर पुणबसंतम्मि सोज्झाणि ॥६॥ अट्ठसया उगुवीसा बिसहिभागा य होंति चउवीसं । छावही सत्तहिभागा पुसस्स सोहणगं ॥७॥ एतासां क्रमेण व्याख्यात्रयस्त्रिंशन्मुहत्तों एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्वापष्टिभागावेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशचूर्णिकाभागाः ३३ । २ । ३४, एष सर्वेष्वपि पर्वसु पर्वीकृत-एकेन पर्वणा निष्पादित ऋक्षध्रुवराशिः-सूर्यनक्षत्रविषयो ध्रुवराशिः, कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेत् ॥१६॥ उच्यते, त्रैराशिकात् , तच्चेदं त्रैराशिक-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्यशतेन पश्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन दीप अनुक्रम [८१] *RO ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) (१७) प्राभत [१०], .................-- प्रातिप्राभत [२०], -------- -- मूल [५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति x + + प्रत सूत्रांक + + [१६] + पर्वणा किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१२४।५।१अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते, जातः स तावानेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , ततः चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो द्रियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद |भागो न लभ्यते, लब्धा एकस्य सूर्यनक्षत्रपर्यायस्य पञ्च चतुर्विशत्यधिकशतभागाः, तत्र नक्षत्राणि कुर्म इत्यष्टादशभिः ४ शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैः पञ्च गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरट्टैनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिषिष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः पश्च गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, एतानि मुहूर्त्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि शते पञ्चाशदधिके १३७२५०, छेदराशिश्च द्वापष्टिरूपः सप्तषठ्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदहै धिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते लब्धास्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ताः ३३, शेष तिष्ठत्यष्टषष्ट्यधिकं शतं १६८, एतद् द्वापष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योषध्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपश्छेदराशिः सप्तपष्टिरूपः, एकेन च गुणितं तदेव भवति, ततोऽष्टपथ्यधिकमेव शतं जातं, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धौ द्वौ द्वापष्टिभागी, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति । 'इच्छापोत्यादि, इच्छाविषयं यत्पर्व-पर्वसङ्ख्यानं तदिच्छापर्व तद्गुणो-गुणकारो यस्य ध्रुवराशेस्तस्मात् , किमुक्तं भवति ?-ईप्सितं यस्पर्व तत्सलाया गुणितात् ध्रुवराशेः पुष्यादीनां नक्षत्राणां क्रमश:-क्रमेण शोधनं कुर्याद्यथा दिष्ट-यथा कथितमनन्त ज्ञानिभिः, कथं कथितमित्याह-उगवीसं चेत्यादि गाथा, एकोनविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशर्णिका दीप अनुक्रम [८१] ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमज्ञ प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक ॥१६॥ [१६] दीप भागाः १९ ॥ ४३ । ३३ । एतद्-एतावत्प्रमाणं पुष्यशोधनकं, कथमेतावतः पुष्यशोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह १० प्राभृते पाश्चात्य युगपरिसमाप्ती पुष्यस्य त्रयोविंशतिः सतषष्टिभागा गताश्चतुश्चत्वारिंशदवतिष्ठन्ते, ततस्ते मुहू नयना) त्रिंशता ४२० प्राभूतगुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां सप्तषट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुद्राः १९, शेषास्तिष्ठति सप्तचत्वारिंशत् ४७, सा द्वाषष्टिभागानयनार्थ द्वापट्या गुण्यते, जातान्येकोनत्रिंशत् शतानि चतुई-12 लाराः सू५६ शोत्तराणि २९१४, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धानिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य उपकरणानि त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागा इति । 'उगुयालसय मित्यादि, एकोनचत्वारिंश-एकोनचत्वारिंशदधिकं मुहूर्त्तशतमुत्तराफा-1 ल्गुनीना-उत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यम् १३९, द्वे शते एकोनपष्टे-एकोनषष्ट्यधिके विशाखासु-विशाखा-11 पर्यन्तेषु शोध्ये २५९, चत्वारि मुहूर्तशतानि नबोत्तराणि उत्तराषाढानां-उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि ४०९, 'सबस्थे'त्यादि, एतेषु सर्वेष्वपि शोधनेषु यत्पुष्यस्य मुहूर्तेभ्यः शेष-त्रिचत्वारिंशन्मुहर्तस्य द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाष-I |ष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति तत्प्रत्येक शोधनीयं, तथा अभिजितश्चत्वारि मुहूर्त शतानि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि षटू द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्यैकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशचूर्णिकाभागाः-सप्तपष्टिभागा इति शोध्यम् , एतावता पुष्यादीन्यभिजिदन्तानि नक्षत्राणि शुक्वन्तीतिभावार्थः । तथा 'उगुणत्तरेत्यादि, एकोनसप्ततानि-एकोनसप्त-Iल॥१५॥ त्यधिकानि पश्च मुहूर्तशतानि उत्तरभाद्रपदानां-उत्तरभाद्रपदान्तानां शोध्यानि ५६९, तथा सप्तशतान्येकोनविंशानि४ एकोनविंशत्यधिकानि ७१९ रोहिणीपर्यन्तानां शोध्यानि, पुनर्वस्वन्ते-पुनर्वसुपर्यन्ते अष्टौ शतानि नवोत्तराणि ८०९४ अनुक्रम [८१] ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 42-% [१६] 84% दीप शोभ्यानि । 'अट्ठसए'त्यादि, अष्टौ शतान्येकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति - पष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा इति पुष्यस्य शोधनक, एतावता परिपूर्ण एको नक्षत्रपर्यायः शुक्ष्यतीति तात्पर्यार्थः, एष करणगाथाक्षरार्थः । सम्प्रतिकरणभावना क्रियते-तत्र कोऽपि पृच्छति प्रथम पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति !, तत्र ध्रुवराशिस्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्विषष्टिभागावेकस्य च द्वाषष्टि|भागस्य चतुस्विंशत् सप्तषष्टिभागा इत्येवंरूपो ध्रियते ३३॥ २॥३४॥धृत्वा चैकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततः पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहुर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशसप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, तत स्थितात्रयोदश मुहूर्ता एकस्य च मुहर्तस्य एकविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागः । १३ । २१ । १, तत आगतमेतावदश्लेषानक्षत्रस्य सूर्यो भुक्त्वा प्रथम पर्व श्रावणमासभाव्यमावास्यालक्षणं परिसमापयतीति । द्वितीयपर्वचिन्तायां स एव ध्रुवराशिः २३।२।३४ द्वाभ्यां गुण्यते, जाता षट्पष्टिमुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः। ६६।५।१, एतस्माद् यथोदितप्रमाण १९ । ४३ । ३३ पुष्यशोधनकं शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् पट्चत्वारिंशन्मुहर्ताः योविंशतिपिष्टिभागाः मुहर्तस्य एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ४६ । २३ । ३५ । ततः पञ्चदशभिर्मुहूत्तरश्लेषा शुद्धा त्रिंशता मघा, स्थितः पश्चादेको मुहूर्तः तत आगतं द्वितीयं पर्व पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्यैकं मुहर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य । त्रयोविंशतिं द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान् भुक्वा सूर्यः परिसमाप्तिं नयति । तृतीय 95 अनुक्रम [८१] THESEX SARERaininanatana ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], .............--- प्राभतप्राभूत [२०], ...........- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल.) गा प्राभृते [१६] ॥१६६॥ दीप पर्वचिन्तायां स एव धुवराशिः । ३३ । २।३४ त्रिभिर्गुण्यते जाता नवनवतिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य सप्त द्वापष्टि-1४१० प्राभते भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ९९ । ७ । ३५, एतस्मात्पुण्यशोधनं १९ । ४३ । ३३१ शोध्यन्ते,13०प्राभृत|स्थिताः पश्चादेकोनसप्ततिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी |६९।२६।२, ततः पश्चदंशभिर्मुह रश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी, स्थिताः पश्चात् चत्वारो मुहर्ता, आगतंयुगसंवत्सतृतीयं पर्व भाद्रपदामावास्यारूपमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्त्तानेकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशतिं द्वापष्टिभागान् एकस्य | |च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागी भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति, एवं शेषपर्यस्वपि सूर्यनक्षत्राणि वेदितव्यानि । तत्र कापर्वकरणानि युगपूर्वार्द्धभाविद्वापष्टिपर्वगतसूर्यनक्षत्रसूचिका इमाः पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा:-"सप्पभग अजमदुगं हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य । जेट्टाइगं च छकं अजाभिवुहीदु पूसासा ॥१॥छकं च कत्तियाई पिइभग अज्जमदुर्ग च चित्ता य । वाउ विसाहा अणुराह जे आउं च वीसुदुर्ग ॥२॥ सवण धनिहा अजदेव अभिवुड्डी दु अस्स जमबहुला । रोहिणि | सोमदिइदुगं पुरसो पिइ भगजमा हत्थो ॥ ३॥ चित्ता य जिवज्जा अभिईअंताणि अह रिक्साणि । एए जुगपुरद्धे | बिसहिपबेसु रिक्खाणि ॥४॥" एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सूर्यनक्षत्रं सर्पः-सर्पदेवतोपलक्षिता | अश्लेषा १, द्वितीयस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २ ततोऽयमद्विकमिति तृतीयस्य पर्वणोऽर्थमदेवतोपलक्षिता ॥१६६॥ उत्तरफाल्गुन्यः ३ चतुर्थस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः ४ पञ्चमस्य हस्तः ५ षष्ठस्य चित्रा ६ सप्तमस्य विशाखा ७ अष्टमस्य मित्रोमित्रदेवतोपलक्षिता अनुराधा ८ ततो ज्येष्ठादिक पटू क्रमेण वक्तव्यम् , तद्यथा-वमस्य ज्येष्ठा ९ दशमस्य मूलं १० 5 अनुक्रम [८१] ॐॐॐ ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप एकादशस्य पूर्वापाढा ११ द्वादशस्योत्तराषाढा १२ त्रयोदशस्य श्रवणः १३ चतुर्दशस्य धनिष्ठा १४ पञ्चदशस्य अजा-- अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः १५ षोडशस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा १६ सप्तदशस्योत्तरभद्रपदा १७ अष्टादशस्य पुष्यः-पुष्यदेवतोपलक्षिता रेवती १८ एकोनविंशतितमस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९ पदं च कृत्तिकादिकमिति, विंशतितमस्य कृत्तिकाः २० एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविंशतितमस्य मृगशिरः २२ * त्रयोविंशतितमस्याी २३ चतुर्विंशतितमस्य पुनर्वसुः २४ पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५ पडूविंशतितमस्य पितरः-पितृदे वतोपलक्षिता मघाः २६ सप्तविंशतितमस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्दः २७ अष्टाविंशतितमस्यार्यमा-अर्थमदेवा उत्तरफाल्गुन्यः २८ एकोनत्रिंशत्तमस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य चित्रा ३० एकत्रिंशत्तमस्य वायु:-वायुदेवतोपलक्षिता स्वातिः ३१ द्वात्रिंशत्तमस्य विशाखा ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमस्थानुराधा ३३ चतुर्विंशत्तमस्य ज्येष्ठा ३४ पञ्चत्रिंशत्तमस्य पुनरायु:-आयुर्देवतोपलक्षिताः पूर्वाषाढाः ३५ षट्त्रिंशत्तमस्य विष्वगदेवा उत्तराषाढा ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्याप्युत्तरापाढा ३७ अष्टात्रिंशत्तमस्य श्रवणः ३८ एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा ३९ चत्वारिंशत्तमस्याज:-अजदेवतोपलक्षिता पूर्वभद्रपदा ४० एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदाः ४१ द्वाचत्वारिंशत्तमस्याप्युत्तरभद्रपदा ४२ चत्वारिंशत्तमस्याश्या-अश्वदेवा अश्विनी ४३ चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य यमो-यमदेवा भरणी ४४ पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य बहुला:-कृत्तिकाः ४५ षट्चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी ४६ सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरः ४७ अदितिद्वि कमिति अष्टचत्वारिंशत्तमस्यादितिः-अदितिदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्र ४८ एकोनपश्चाशत्तमस्यापि अनुक्रम [८१] ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप सूर्यप्रज्ञ- पुनर्वसुनक्षत्र ४९ पश्चाशत्तमस्य पुष्यः ५० एकपश्चाशत्तमस्य पिता-पितृदेवा मघाः ५१ द्वापञ्चाशत्तमस्य मनो-भगदे- १० प्राभृते प्तिवृत्तिः४ वतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५२ त्रिपश्चाशत्तमस्यार्यमा अर्थमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ५३ चतुःपश्चाशत्तमस्य ४२० प्राभूत (मल हस्तः ५४ अत अझै चित्रादीनि अभिजित्पर्यन्तानि ज्येष्ठावर्जान्यष्टौ नक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तद्यथा-पचपश्चाशत्त &ा प्राभृते ॥१६७॥ मस्य चित्रा ५५ षट्पञ्चाशत्तमस्य स्वातिः ५६ सप्तपश्चात्तमस्य विशाखा ५७ अष्टपशाशत्तमस्य अनुराधा ५८ एकॉनष- युगसवत्स|ष्टितमस्य मूलः ५९ षष्टितमस्य पूर्वाषाढाः५० एकपष्टितमस्योत्तराषाढाः ६१ द्वापष्टितमस्याभिजिदिति १२, एतानि X पर्वकरणानि नक्षत्राणि युगस्य पूवार्द्ध द्वापष्टिसहयेषु पर्वसु यथाक्रम युक्तानि । एवं करणवशेन युगस्योत्तराद्धेऽपि द्वापष्टिसह पर्वसु ज्ञातव्यानि । किं पर्व चरमदिवसे कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु समाप्तिमियत्तीत्येतद्विषयं यत्करणमभिहितं पूर्वाचार्येस्तदभिधी-II यते-चरहिं हियम्मि पये एके सेसमि होइ कलिओगो । बेसु य दावरजुम्मो तिसु तेया चमु कडजुम्मो॥१॥कलि-13I [ओगे तेणबई पक्खेवो दावरम्मि बावही । तेऊए एकतीसा कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो ॥२॥ सेसद्धे तीसगुणे वावठी भाइ-ला यंमि जंली । जाणे तइसु मुहत्तेसु अहोरत्तस्स तं पर्व ॥३॥" एतासां क्रमेण व्याख्या-पर्वणि-पर्वराशी चतुभिभके। सति योकः शेषो भवति तदा स राशिः कल्योजो भण्यते द्वयोः शेषयोर्वापरयुग्मस्थिषु शेषेषु वेतीजक्षतुएं शेपेषु कृतयुग्मः, 'कलि ओयेत्यादि, तत्र कल्योजोरूपराशी विनवतिः प्रक्षेपः-प्रक्षेपणीयो राशिः, द्वापरयुग्मे द्वाषष्टिः तौजसि | ४॥१६७n [एकत्रिंशत् कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः, एवं प्रक्षिप्तप्रक्षेपाणां पर्वराशीनां सतां चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो हियते, हते च भागे यच्छेषमवतिष्ठते तस्यायं विधि:-'सेसद्धे'इत्यादि, शेषश्चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागे हते अवशिष्ट अनुक्रम [८१] ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः स्वार्द्धं क्रियते, कृत्वा च त्रिंशता गुण्यते, गुणयित्वा च द्वापट्या भज्यते, भक्ते सति यल्लब्धं तान् मुहूर्त्तान् जानीहि, लब्धशेषं मुहर्त्तभागान् तत एवं स्वशिष्येभ्यः प्ररूपय, तद्विवक्षितं पर्व चश्मे अहोरात्रे सूर्योदयात्तावत्सु मुहूर्त्तेषु तावत्सु च मुहूर्त्तभागेषु अतिक्रान्तेषु परिसमाप्तमिति, एष करणगाथाक्षरार्थः । भावना त्वियम् प्रथमं पर्व घरमेऽहोरात्रे कति मुहर्त्तानतिक्रम्य समाप्तमिति जिज्ञासायामेको प्रियते, अयं किल कल्योजी राशिरित्यत्र त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुर्नवतिः, अस्य चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हर्त्तव्यः, स च भागो न लभ्यते राशेः स्तोकत्वात्, ततो यथासम्भवं करणलक्षणं कर्त्तव्यं, तत्र चतुर्नवतेरर्द्ध क्रियते, जाता सप्तचत्वारिंशत् ४७, सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि दशोत्तराणि १४१०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्त्ता २२, शेषा तिष्ठति षट्चत्वारिंशत् ४६, तत द्यच्छेदकराश्योरर्द्धनापवर्त्तना, लब्धास्त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः ३३, आगतं प्रथमं पर्व चरमे अहोरात्रे द्वाविंशतिं मुहूर्त्तान् एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । द्वितीयपर्वजिज्ञासायां द्विको प्रियते, स किल द्वापरयुग्मराशिरिति द्वाषष्टिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुःषष्टिः, सा च चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भार्ग न प्रयच्छति ततस्तस्यार्द्धं क्रियते, जाता द्वात्रिंशत् सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि नव शतानि षष्यधिकानि ९६०, तेषां द्वापट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्त्ताः १५, पश्चादवतिष्ठते त्रिंशत्, ततञ्छेद्यच्छेदकर। श्योर नापवर्त्तना, लब्धाः पञ्चदश एकत्रिंशद्भागाः १५, आगतं द्वितीयं पर्व चरमेऽहोरात्रे पञ्चदश मुहूर्त्तानेकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चदश एकत्रिंशद्धागानतिक्रम्य [ द्वितीयं पर्व ] समाप्तमिति । तृतीयपर्वजिज्ञासायां त्रिको प्रियते, स किल तीजोराशिरिति तत्रैकत्रिंशत् Education International For Parts Only ~342~ wor Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------------------- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमज्ञतिवत्तिः प्रत सूत्रांक (मरु०) ॥१६॥ [१६] प्रक्षिप्यते, जाता चतुस्त्रिंशत् ३४, सा चतुर्विशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति ततस्तस्याई क्रियते, जाताः सप्त- १०याभृते दश, ते त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पश्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा अष्टौ ८, शेषा- २०प्राभूतस्तिष्ठन्ति चतुर्दश १४, तत छेद्यच्छेदकराश्योरद्धेनापवर्तना, लब्धाः सप्त एकत्रिंशत्भागाः, आगतं तृतीयं पर्व चरमे-12 होरात्रे अष्टौ मुह नेकस्य सप्त एकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । चतुर्थपर्वजिज्ञासायां चतुष्को प्रियते, सास राःसू ५६ किल कृतयुग्मराशिरिति न किमपि तत्र प्रक्षिप्यते, चत्वारश्चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति, ततस्तेऽर्द्ध क्रियन्ते, पर्वकरणात जाती द्वी, ती त्रिंशता गुण्येते, जाता पष्टिः ६०, तस्या द्वाषष्ट्या भागो हियते, भागश्च न लभ्यते इति छेद्यच्छेदकराश्योरद्धेनापवर्तना, जातात्रिंशदेकत्रिंशद्भागाः आगतं चतुर्थं पर्व चरमेऽहोरात्रे मुहूर्तस्य त्रिंशतमेकत्रिंशद्धागानतिक्रम्य समाप्ति गच्छतीत्येवं शेषेष्वपि पर्वसु भावनीयं । चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विंशत्यधिकं शतं ध्रियते, तस्य किल चतुभिर्भागे हते न किमपि शेषमवतिष्ठते इति कृतयुग्मोऽयं राशिः, ततोऽत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, ततश्चतुर्विशत्यधिकेन शतेन | |भागो हियते, जातो राशिनिलेपः, आगतं परिपूर्ण चरममहोरात्र भुक्त्वा चतुर्विंशतितम पर्व समाप्तिं गतमिति । तदेवं यथा|४|| पूर्वाचार्यरिदमेव पर्वसूत्रमवलम्ब्य पर्वविषयं व्याख्यानं कृतं तथा मया विनेयजनानुग्रहाय स्वमत्यनुसारेणोपदर्शित, सम्मति प्रस्तुतमनुश्रियते-तत्र युगसंवत्सरोऽभिहितः, साम्प्रतं प्रमाणसंवत्सरमाह ॥१६॥ -ता पमाणसंवच्छरे पंचविहे पं०, तं०-नक्षत्ते चंदे उड़ आइये अभिवहिए (सूत्रं ५७)॥ MI-- 'पमाणे'त्यादि, प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सर वातुसंवत्सरचन्द्रसंवत्सर। आदित्यसंव-15 दीप ENTERTAINXXX अनुक्रम [८१] ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक + [५७] 5 दीप अनुक्रम सरोऽभिवतिसंवत्सरश्च, तत्र नक्षत्रचन्द्राभिवतिसंवत्सराणां स्वरूपं प्रागेवोक्तमिदानी ऋतुसंवत्सरांदित्यसवत्सरयो स्वरूपमुच्यते-तत्र द्वे घटिके एको मुहूर्त्तत्रिंशन्मुहूर्त्ता अहोरात्रः पञ्चदश परिपूर्णा अहोरात्राः पक्षः द्वौ पक्षी मासो द्वादश मासाः संवत्सरो, यस्मिंश्च संवत्सरे त्रीणि शतानि पधाधिकानि परिपूर्णान्यहोरात्राणां भवति एष ऋतुसंवत्सर, ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधानः संवत्सर ऋतुसंवत्सरः, अस्य चापरमपि नामदयमस्ति, तद्यथा-कर्मसंव-14 त्सरः सवनसंघरसरः, तत्र कर्म-लौकिको व्यवहारस्तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः, लोको हि प्रायः सर्वोऽप्यनेनवाला संवत्सरेण व्यवहरति, तथा चैतद्गतं मासमधिकृत्यान्यत्रोकम्-"कम्मो निरंसयाए मासो वषहारकारगी डोए । सेसा-1 ओ संसयाए पवहारे दुकरो चित्तुं ॥१॥" तथा सवनं-कर्मसु प्रेरणं 'पू प्रेरणे' इति वचनात् तत्प्रधानः संवत्सरा सब-1 नसंवत्सर इत्यप्यस्य नाम, तथा चोक्त-"वे नालिया मुहत्तो सही उण नालिया अहोरत्तो । पमरस अहोरसा पक्लो तीस दिणा मासो ॥१॥ संवच्छरोज बारस मासा पक्खा य ते चउधीस । तिनेच सथा सट्ठा हवंति राइंदियाणं तु ॥२॥ एसो उ कमो भणिओ निअमा संवच्छरस्स कम्मस्स । कम्मोसि सावणोत्ति य उउइत्तिय तस्स नामाणि ॥३॥" तथा यावता कालेन षडपि प्रावृडादयः ऋतवः परिपूर्णाःमावृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष आदित्यसंवत्सरः, उकै च"छप्पि उकपरियहा एसो संयच्छरो उ आइचो" तत्र यद्यपि लोके पश्यहोरात्रप्रमाणः प्रावृडादिक मातुः मसिद्ध तथापिण परमार्थतः स एकषष्ट्यहोरात्रप्रमाणो वेदितव्यः, तथैवोक्षरकालमव्यभिचारदर्शनात् , अस एव चास्मिन् संवत्सरे जोगिन शतामि यदपथ्यधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरं भवति, तथा चान्यत्रापि पश्चस्वपि संघत्सरेषु यथोक्त [८२] ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------- ------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] दीप अनुक्रम 18 मेव रानिन्दिवानां परिमाणमुफ, "तिन्नि अहोरत्तसया छावहा भक्खरो हवइ वासो । तिन्नि सया पुण सहा कम्मो संव-13१० प्राभूते तिवृत्तिः च्छरो होइ ॥१॥ तिन्नि अहोरत्तसया चउपना नियमसो हवइ चंदो । भागो य बारसेव य बावविकएण छेएण ॥ २॥ २०प्राभृत. (मल.) तिन्नि अहोरत्तसया सत्तावीसा य होति नक्षत्ता । एक्कावन्नं भागा सत्तविकएण छेएण॥३॥ तिन्नि अहोरत्तसया तेसी- प्राभृते ॥१६॥ ईचेव होइ अभिवडी । चोयालीसं भागा बावहिकएण छेएण ॥४॥ एताश्चतस्रोऽपि गाधाः सुगमाः, इदं च प्रतिसं- युगसंवत्स वत्सरं रात्रिन्दिवपरिमाणमप्रेऽपि वक्ष्यति परमिह प्रस्तावादुक्कं । सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय संवत्सरसङ्ख्यातो माससङ्ख्या वापर पर्वकरणानि प्रदर्श्यते-तत्र सूर्यसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि षटूषयधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरस्तत्र त्रयाणां शतानां षट्पट्याधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लन्धाः त्रिंशत् ३०, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्, ते अर्द्ध क्रियते, जाता द्वादश, ततो लब्धमेकं दिवसस्यार्द्ध मेतावत्परिमाणः सूर्यमासः, तथा कर्मसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि | पश्यधिकानि रात्रिन्दिवानां तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धात्रिंशदहोरात्रा एतावत्कर्ममासपरिमाण, तथा चन्द्रसंवत्स-1 रस्य परिमाणं श्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र त्रयाणां शतानां चतुष्पश्चाशदधिकानां द्वादशभिभोगे हते लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्राः, शेषाः तिष्ठन्ति षट् अहोरात्राः, ते द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जात्तानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ३७२, येऽपि द्वादश द्वापष्टिभागा उपरितना P१६९॥ स्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि, तेषां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा, |एतावच्चन्द्रमासपरिमाणं । तथा नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि रात्रिन्दिवानामेकस्य च रात्रि 94+ [८२] ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], ...............-- प्राभतप्राभत [२०], ..... ......- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] दीप अनुक्रम न्दिवस्य एकपश्चाशत्सप्तपष्टिभागाः, तत्र त्रयाणां शतानां सप्तविंशत्यधिकानां द्वादशभिभागो हियते, लब्धाः सप्तविंशति-IX रहोरात्राः, शेपास्त्रयस्तिष्ठन्ति, ततस्तेऽपि सप्तषष्टिभागकरणार्थं सप्तपध्या गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, येऽपि च उपरितना एकपश्चाशत्सप्तषष्टिभागास्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपश्चाशदधि २५२, तेषां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, एतावनक्षत्रमासपरिमाणं, तथा अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, तत्र त्रयाणां शतानां ध्यशीत्यधिकानां द्वादश भिर्भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश, ते च चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुट्रविशत्युत्तरशतेन १२४ गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि चतुःषष्यधिकानि १३६४, येऽपि चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिं शद् द्वापष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थं द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जाताऽष्टाशीतिः, साऽनन्तरराशी प्रक्षिप्यते, जातानि चतुर्दश शतानि द्विपश्चाशदधिकानि १४५२, तेषां द्वादशभिर्भागो ह्रियते, लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशइत्युत्तरशतभागाना, एतावदभिवद्धितमासपरिमाणं, तथा चोक्तम्-"आइच्चो खलु मासो तीस अद्धं च सावणो तीसं । *चंदो एगुणतीसं विसहिभागा य बत्तीस ॥१॥ नक्खत्तो खलु मासो सत्तावीसं भवे अहोरत्ता । अंसा य एकवीसा सत्तविकएण छेएण ॥२॥ अभिवहिजो य मासो एकतीसं भवे अहोरचा । भागसयमेगवीसं चउवीससएण छेएणं ॥शा सम्प्रति एतैरेव पचभिः संवत्सरैः प्रागुक्तस्वरूपं युग-पञ्चसंवत्सरात्मक मासानधिकृत्य प्रमीयते, तत्र युग-ग्रागुदितस्वरूपं यदि सूर्यमासर्विभज्यते ततः पष्टिः सूर्यमासा युगं भवन्ति, तथाहि-सूर्यमासे सा खिंशदहोरात्रा युगे चाहोरात्रा CCESS [८२] ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], --------- ------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः (मल.) ॥१७॥ [५७] दीप अनुक्रम णामधादश शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह युगे अयश्चन्द्रसंवत्सरा ही चाभि- १०प्राभते वद्धिंतसंवत्सरौ, एककर्मिश्च चन्द्रसंवत्सरेऽहोरात्राणां बीणि शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि भवन्ति, द्वादश च द्वापष्टि- २०प्राभृतभागा अहोरात्रस्य ३५४१३, तत एतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातान्यहोरात्राणां दश शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि १०६२ षट्त्रिंशच माभूते द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, अभिवद्धितसंवत्सरे च एकैकस्मिन् अहोरात्राणां त्रीणि शतानि ग्यशीत्यधिकानि चसुश्च- युगसंवत्समात्वारिंशष द्वापष्टिभागा अहोरावस्य, (तत एतबू द्वाभ्यां गुण्यते जातानि सप्तषष्ट्यधिकानि सप्त शतान्यहोरात्राणां " पर्वकरणानि पइिंशतिश्च द्विषष्टिभागा अहोरानस्य, तदेवं चन्द्रसंवत्सरत्रयाभिवर्द्धितसंवत्सरस्याहोरात्रमीलने त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणामष्टादश शतानि, सूर्यमासम्म च पूर्वोचरीत्या सार्द्धत्रिंशदहोरात्रमानतेति सेन भागे कृते स्पष्टमेव पटेोभः, तथाहि-अष्टादशशत्याविंशदधिकाया अर्धीकरणाय द्वाभ्यां गुणने पट्यधिका षट्त्रिंशच्छती त्रिंशतवाधीकरणाय द्वाभ्यां गुणने षष्टिः एकप्रक्षेपे एकषष्टिस्तेन पूर्वोत्तराशेः भागे कृते लभ्यते षष्टिः, तथा च युगमध्ये सूर्यमासाः षष्टिरिति स्थित सावनस्य तु मासा एकषष्टिः, प्रिंशदिनमानत्वाद् तस्य त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्याविंशता भागे एकपटेलोंभात् । चन्द्र-11 मासा द्विषष्टियत एकोनविंघाल्या अहोरात्रैरेकोनविंशता द्विषष्टिभागैरधिकर्मासः, युगदिनानां तैर्भागे च द्वाषष्टेलोंभात्, कर्म त्रिंशदधिकाया अष्टादशशल्या द्विषष्टिभागकरणार्थं गुणकारे एक लक्ष त्रयोदश सहस्राणि पधयधिकमेकं शतं १९३१६६ ॥१७॥ चन्द्रमासस्यापि भागकरणाय द्विषया एकोनविंशति गुणिते प्रक्षिप्ते च द्वात्रिंशति शिदधिकाथा अष्टादशशत्या भाषः तया भके पूर्वोकराशी द्वाषष्टेर्भावात् चन्द्रमासा द्वापष्टिरिति । नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः, कथमिति चेत्, मक्षत्रमासस्थावत [८२] ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ---------- ------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] ॐ834 सप्तविंशत्या अहोरात्रैरेकविंशत्या च सप्तपष्टिभागः,) तत्र सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तषष्टिभागकरणार्थ सतषाच्या गुण्यन्ते. जातान्यष्टादश शतानि नवोत्तराणि १८०९, तत उपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, आताम्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, युगस्यापि सम्बन्धिनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणा अहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जात एको लक्ष द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दशोत्तराणि १२२६१०, एतेषामष्टादशशतैर्खिशदधिकैर्नक्षत्रमाससत्कसप्तपष्टिभागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तपष्टिर्भागाः ६७ । तथा यदि युगमभिवद्धितमासैः परिभग्यते तदा अभिवर्द्धितमासा युगे भवन्ति सप्तपञ्चाशत् सप्त रात्रिन्दिवानि एकादश मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य द्वापष्टिभागास्खयोविंशतिः, तथाहि-अ. भिवर्द्धितमासपरिमाणमेकत्रिंशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विशत्यधिकशतभागानामहोरात्रस्य, तत एकत्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जातान्यष्टात्रिंशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ३८४४, तत उपरितनमेकविंशत्युत्तरं शतं भागानां तत्र प्रक्षिप्यते, जातान्येकोनचत्वारिंशच्छतानि पश्चषष्ट्यधिकानि ३९६५, यानि ठाच युगे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तानि चतुर्विंशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जाते ट्रेलले पबि शतिः सहस्राणि नव शतानि विंशत्यधिकानि २२६९२०, तत एतेषामेकोनचत्वारिंशच्छतैः पञ्चषट्यधिकरभिवद्धितमाससत्कचतुर्विशत्युत्तरशतभागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः समपञ्चाशन्मासाः, शेषाणि तिष्ठन्ति नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तेषामहोरात्रानयनाय चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त रात्रिन्दिवानि, शेषास्तिष्ठन्तिः चतुर्विंशत्युत्तरशतभागाः सप्तचत्वारिंशत्, तत्र चतुर्भि गरेकस्य च भागस्य चतुर्भिस्त्रिंशद्भागैर्मुहर्तो भवति, सथाहि ॐBE दीप अनुक्रम [८२] ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) सूत्रांक ॥१७॥ [५७] दीप अनुक्रम एकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता अहोरात्रे च चतुर्विंशस्युत्तरं शतं भागानां कल्पितमास्ते, ततस्तस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य व चतुविशत्युत्तरशतस्य १०प्राभृते त्रिंशता भागे हते लब्धाश्चत्वारो भागाः एकस्य च भागस्य सरकाश्चत्वारखिंशद्भागास्तत्र पञ्चचत्वारिंशद्भागैरेकस्य च २० प्राभृतभागस्य सत्कैश्चतुर्दशभित्रिंशद्भागैरेकादश मुहूर्त्ता लब्धाः, शेषस्तिष्ठत्येको भाग एकस्य च भागस्य सत्काः षोडश त्रिंश- प्राभूते भागाः, किमुक्तं भवति -षट्चत्वारिंशत्रिंशदागा एकस्य भागस्य सत्काः शेषास्तिष्ठन्ति, ते च'किल मुहर्तस्य चतुर्विंश युगसंवत्सत्युत्तरशतभागरूपास्ततः षट्चत्वारिंशतश्चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य च द्विकेनापवर्त्तना क्रियते, लब्धा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा- रा: खयोविंशतिः, उक्तं चैतदन्यत्रापि-"तत्थ पडिमिजमाणे पंचहि माणेहिं सबगणिएहिं । मासेहि विभजता जइ मासा पर्वकरणानि होति ते वोच्छं ॥१॥" अत्र 'तत्थे'ति तत्र, 'पंचहि माणेहित्ति पंचभिर्मानैः-मानसंवत्सरः-प्रमाणसंवत्सरैरादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः, पूर्वगणितैः प्राक्प्रतिसञ्जयातस्वरूपैः प्रतिमीयमाने-प्रतिगण्यमाने मास-सूर्यादिमासैः, शेषं सुगमम् । "आइयेण उ सट्ठी मासा उउणो उ होंति एगही। चंदेण उ बाबही सत्तट्ठी होति नक्खत्ते॥१॥ सत्तावणं मासा सत्त य राईदियाई अभिवढे । इकारस य मुहुत्ता बिसद्विभागा य तेवीसं ॥२॥" सम्पति लक्षणसंवत्सरमाह ता लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पं०-नक्खत्ति चंदे उड, आइच्चे अभिवुहिए। ता णक्खत्ते णं संवच्छरेणं |पंचविहे पं०-समगं णक्खत्ता जोयं जोएंति, समगं उदू परिणमंति । नचुण्हं नाइसीए बहुउदए होइ नक्खत्ते । ॥१॥ससि समग पुनिमासिं जोईता विसमचारिनक्खत्ता । कडुओ बहुउदओ य तमाहु संवच्छर चंदं|21॥१७॥ ॥२॥ विसमं पचालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासह तमाहु संवच्छर कम्म [८२] ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१८] + गाथा(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] ||१-५|| ॥ ३ ॥ पुढविदगाणं च रसं पुप्फफलाणं च देइ आइच्चे । अप्पेणवि वासेणं संमं निष्फजए सस्सं ॥ ४॥ आइ-13 चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमन्ति । पूरेति निणय (पण) थलये तमाहु अभिवहितं जाण ॥५॥ ता सणिकछरसंवच्छरे णं अट्ठावीसतिविहे पं०, तं०-अभियी सवणे जाव उत्तरासाढा, जं वा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवकछरेहि सर्व णक्वत्तमंडलं समाणेति (सूत्रं ५८) ॥ दसमस्स पाहडस्स वीसतिम|४| पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ | 'लक्खणे संवच्छरेत्यादि, लक्षणसंवत्सरः पञ्चविधः-पश्चप्रकारः प्रज्ञप्तः, तच्च पञ्चविधत्वं प्रागुक्तमेव द्रष्टव्यं, तद्यथानक्षत्रसंवत्सरः चन्द्रसंवत्सरः ऋतुसंवत्सरः आदित्यसंवत्सरोऽभिवर्द्धितश्च, किमुक्त भवति न केवलमेते नक्षत्रादिसंवत्सरा यथोक्तरानिन्दिवपरिमाणा भवन्ति किन्तु तेभ्यः पृथग्भूता अन्येऽपि वक्ष्यमाणलक्षणोपेताः, ततो लक्षणोपपन्नः संवत्सरः पृथक् पश्यविधो भवतीति, तत्र प्रथमतो नक्षत्रसंवत्सरलक्षणमाह-'ता नक्खत्ते'त्यादि, 'ता' इति तत्र नक्षत्रसंवत्सरो रक्षणमधिकृत्य पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति-नक्षत्रसंवत्सरस्य पञ्चविध लक्षणं प्रज्ञप्तमिति,131 हैतदेवाह-"समर्ग नक्खत्ता जोगं जोएंति समग उऊ परिणमंति । नचुण्ह नातिसीतो बहुउदओ होइ नक्खत्तो १॥" यस्मिन् संवत्सरे समक-समकमेव एककालमेव ऋतुभिः सहेति गम्यते नक्षत्राणि-उत्तराषाढामभृतीनि योग युञ्जन्ति-चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति सन्ति तां पौर्णमासी परिसमापयन्ति, तथा समकमेव-एककालमेव तया तया परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सह ऋतवो निदाघाद्याः परिणमन्ति-परिसमाप्तिमुपयन्ति, इय-13 दीप अनुक्रम [८३-८९] 154545454 For P OW ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१८] + गाथा(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] ||१-५|| सूर्यप्रज्ञ- मत्र भावना-यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्रैर्माससदृशनामकैस्तस्य तस्य ऋतो पर्यन्तवती मासः परिसमाण्यते, तेषु च तां १० तिवृत्तिः तां पौर्णमासी परिसमापयत्सु तया तया पौर्णमास्या सह ऋतवोऽपि निदाघादिकाः परिसमाप्तिमुपयन्ति, यथा/२०प्राभूत(मल०) उत्तरापाढानक्षत्रं आषाढी पौर्णमासी परिसमापषति, तया आषाढपौर्णमास्या सह निदाघोऽपि प्रतुः परिसमाप्तिमुपैत्ति, माभृते ॥१७२॥ मस नक्षत्रसंवत्सर, नक्षत्रानुरोधेन तस्य तथा तथा परिणममानत्वात् , एतेन च लक्षणद्वयमभिहितं द्रष्टव्यं, तथा न विद्य-IPI तेऽतिशयेन उष्णं-उष्णरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णः तथा न विद्यतेऽतिशयेन शीतं यत्र स नातिशीतो बहु उदक परी सू५८ . यत्र स बहूदकः एवंरूपैः पश्चभिः समप्रैर्लक्षणैरुपेतो भवति नक्षत्रसंवत्सरः। सम्प्रति चन्द्रसंवत्सरलक्षणमाह-"ससिसमनागपुण्णमासि जोपंता विसमचारिनक्खत्ता । कडओ बहुउदओया तमाहु संक्च्छर चंदं ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्राणि | 2 | विषमचारीणि मासविसदृशनामानीत्यर्थः, शशिना समकं योगमुपगतानि तां तां पौर्णमासी युञ्जन्ति-परिसमापयन्ति, यश्च कटुका-शीतातपरोगादिदोषबहुलतया परिणामदारुणो बहूदकश्च तमामहर्षयः संवत्सरं चान्द्रं-वन्द्रसम्बन्धिना चन्द्रानुरोधतस्तत्र मासानां परिसमाप्तिभावान माससहशनामनक्षत्रानुरोधतः। सम्पति कर्मसंवत्सरलक्षणमाह-"विसम | पवालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासह तमाहु संवच्छरं कर्म ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे वनस्पतयो विषम-विषमकालं 'प्रवालिनः परिणमन्ति' प्रवाल:-पल्लवाड्रस्तधुक्ततया परिणमन्ति, तथा अनूतुष्यपि-ICI ॥१७॥ स्वस्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं फलं च ददति-प्रयच्छन्ति, तथा वर्ष-पानीयं न सम्यक् यस्मिन् संवत्सरे मेषो वर्षति तमाहुर्महर्षयः संवत्सरं कर्म-कर्मसंवत्सरमित्यर्थः । अधुना सूर्यसंवत्सरलक्षणमाइ-"पुढविदगाणं व रसं पुष्फफलाणं च देर दीप अनुक्रम [८३-८९]] ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------- ..............-- प्राभतप्राभत [२०], --------------..-- मूल [५८] + गाथा(१-५) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] ||१-५|| आइलो । अप्पेणवि वासेणं सम्म निष्फज्जए सस्सं ॥१॥" पृथिव्या उदकस्य तथा पुष्पानां फलानां च रसमादित्यसं-19 वत्सरो ददाति तथा अल्पेनापि-स्तोकेनापि वर्षेण-वृष्ट्या सस्य निष्पद्यते-अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् सस्य निष्पादयति, किमुक्त है भवति -यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधोदकसम्पर्कादतीव सरसा भवति उदकमपि परिणामसुन्दररसोपेतं परिणमते पुष्पानां च-मधूकादिसम्बन्धिनां फलानां च-चूतफलादीनां रसः प्रचुर सम्भवति स्तोकेनापि वर्षेषा धान्यं सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तमादित्यसंवत्सरं पूर्वषयः उपदिशन्ति । अभिवतिसंवत्सरलक्षणमाह-"आइयतेयततिया खणलवदिवसा उऊ परिणमंति । पूरेइ निण्णथलए तमाहु अभिवडियं जाण ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे क्षणलवदिवसा ऋतव आदित्यतेजसा कृत्वा अतीव तताः परिणमन्ते यश्च सर्वाण्यपि निम्नस्थानानि स्थलानि च जलेन पूरयति तं संवत्सरं जानीदि यथा तं संवत्सरमभि* वर्द्धितमाहुः पूर्वय इति । तदेवं लक्षणसंवत्सर उक्तः, सम्प्रति शनैश्चरसंवत्सरमाह-तासणिच्छरें'त्यादि, तन्त्र शनैश्वरसं वत्सरोऽष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजित्-अभिजित्शनैश्चरसंवत्सरः श्रवणः-श्रवणशनैश्चरसंवत्सर, एवं यावदुत्तराषाढा-उत्तरापाठाशनैश्वरसंवत्सरा, तन यस्मिन् संवत्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह पानवरो योगमुपादत्ते सोऽभिजितशनैश्चरसंवत्सरः, श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे योगमुपादत्ते स श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः, एवं सर्वत्र भावनीयं- वेल्यादि, वाशब्दः प्रकारान्तरताद्योतनाय तत्सर्व-समस्त नक्षत्रमण्डलं शनैश्चरो महाग्रहस्त्रिंशता संवत्सरैः समानयति एता-15 वान् कालविशेषत्रिंशद्वर्षप्रमाणः शनैश्चरसंवत्सरः। विंशतितम प्राभृतप्राभृतं समाक्षं ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभूतप्राभूतं- २० समाप्त दीप अनुक्रम [८३-८९] । ~ 352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) है सूत्रांक ॥१७॥ दीप तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितम प्राभृतप्राभृतं, साम्प्रतं एकविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो १० प्राभृते यथा 'नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि,' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह २१प्राभूत PI प्राभूते ता कहते जोतिसस्स दारा आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगे एचमाहंसु ता कत्तियादी णं सत्त नक्षत्ता पुषादारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु१, पगे पुण एवमाहंसुणि सू ५९ ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पपणत्सा एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमासु ता धणिवादीया| सत्त णक्वत्ता पुषदारिआ पण्णत्ता एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु अस्सिणीयादीया णं सत्स णक्खत्ता पुषादारिया पं० एगे एचमाहंसु ४, एगे पुण एवमासु ता भरणीयादीआ णं सत्स णक्खता पुषदारिआ पण्णता । तत्थ जे ते एवमाहंसु ता कत्तियादी णं सत्त णक्खत्ता पुवदारिया पं० ते एवमाहंसु-तं०-18 कत्तिया रोहिणी संठाणा अदा पुणवस पुस्सो असिलेसा, सत्त णक्खता दाहिणदारिया पं०तं०-महा पुषफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हस्थो चित्ता साई विसाहा, अणुराधादीया सस णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० सं०-| अणुराधा जेट्टा मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा अभियी सवणो, धणिहादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं०२०-धणिवा सतभिसया पुच्चापोट्ठवता उत्सरापोट्टवता रेवती अस्सिणी भरणी ॥ तत्थ जे ते एवमाहंसुता W॥१७॥ महादीया सत्त णक्खत्ता पुखदारिया पं०ते एवमासु तं०-महा पुत्वाफग्गुणी हत्थो चित्ता साती बिसाहा, अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पं० सं०-अणुराधा जेट्ठा मूले पुवासाढा उत्तरासादा अभियी अनुक्रम [१०] 4565654 अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २० परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २१ आरभ्यते ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------------------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक START4 [५९]] ४सवणे, पणिहादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं०२०-धणिट्ठा सतभिसया पुषापोट्टवता उत्तरापोट्ट बता रेवती अस्सिणी भरणी, कत्तियादीया सत्त णक्वत्ता उत्तरदारिया पं०, तंजहा कत्तिया रोहिणी संठा णा अहा पुणवस पुस्सो अस्सेसा । तत्थ ण जे ते एवमासु, ता धणिहादीया सस णक्खत्ता पुच्चदारिया पं० साते एवमासु, तंजहा-धणिट्ठा सत्सरिसया पुवामद्दवया उत्तराभवता रेवती अस्सिणी भरणी, कत्तिया-1 दीया सत्तणक्खत्ता दाहिणदारिया पं० संजहा-कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो अस्सेसा, महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० तंजहा-महा पुषाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्यो चित्ता साती विसाहा, अणुराधादीया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पं०२०-अणुराधा जेट्ठा मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा अभीयी सवणो ॥ तत्व जे ते एवमासु, ता अस्सिणीआदीया सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पण्णत्ता, एते एवमाहंसु, तंजहा-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवस , पुस्सादिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णता तं०-पुस्सा अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हस्थो चित्ता, सादीयादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० तंजहा-साती विसाहा अणुराहा जेवा मूलो पुवासादा उत्तरासाढा, अभीयीआदि सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं०, तं०-अभिई सवणो धणिट्ठा सतभिसया पुषभद्दवया उत्तरभदवया रेवती॥ तत्थ जे ते एवमासु ता भरणिआदीया सत्तणक्खत्ता पुखदारिया पं० ते एवमाहंसु, तंजहाभरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो, अस्सेसादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, दीप अनुक्रम [९०] ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------- ------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ५९] दीप सूर्यप्रज्ञ- तंजहा-अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता साई, विसाहादीया सत्त णक्खत्ता प्रच्छि-१०माभृते प्तिवृत्तिःमदारिया पं००-विसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो पुषासाढा उत्तरासाढा अभिई, सवणादीया सस णक्खन्ता २१माभृत(मल०) उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं०-सवणो धणिहा सतभिसया पुचापोहवया उत्तरपोडवया रेवती अस्मिणी, एते एव-श प्राभृते ॥१७॥ माहंसु, वयं पुण एवं वदामो ता अभियादि सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पणत्ता, तं०-अभियी सवणो नक्षत्रद्वारा धणिट्ठा सतभिसया पुषापोहचता उत्तरापोडवया रेवती, अस्सिणीमादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया Mणि सू ५९ पं०२०-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अहा पुणवसू, पुस्सादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं०२०-पुस्सो अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तरफग्गुणी हस्थो चित्ता, सातिआदीया सत्त णखत्ता उत्तरदारिया पं०, तं०-साती बिसाहा अणुराहा जेट्टा मूले पुषासाहा उत्सरासादा (सूत्रं ५९) दसमस्सा पाहुडस्स एकवीसतितम पाहुडपाहुई समतं ॥ आता कहं ते जोइसदारा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः ज्योतिपो-नक्षत्रयकस्य द्वाराणि आख्यातानीति वदेत् १, एवमुक्के भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपसयस्तावतीरुपदर्शयतिला ॥१७॥ 'तत्थेत्यादि, तत्र-द्वारविचारविषये खस्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च परतीथिकानां प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, ता एवं कमे-म णाह-तस्थेगे'त्यादि, तत्र-तेषां पञ्चानां परतीथिकसाताना मध्ये एके एवमाहुः कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वलद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः शुभमुपजायते तानि पूर्वद्वारकाणि, एवं वैक्षिणकाल अनुक्रम [१०] ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------- ------- मूलं [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐॐॐ [५९]] दीप रकादीन्यपि वक्ष्यमाणानि भावनीयानि, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु',एके पुनरेवमाहुः-अनुराधादीनि सप्त नक्ष-13 चाणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, अत्राप्युपसंहारः-'एगे एवमाहंसु', एवं शेषाण्यप्युपसंहारवाक्यानि योजनीयानि, एका पुनरेवमाहुः-धनिष्ठादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, एके पुनरेवमाहुः-अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि । प्रज्ञतानि, एके पुनरेवमाहुर्भरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, सम्प्रत्येतेषामेव पश्चानामपि मतानां भावनिकामाइन 'तत्य जे ते एबमासु' इत्यादि सुगम, भगवान् स्वमतमाह-'वयं पुण'इत्यादि पाठसिद्धम् ॥ ... ... ... . इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं-प्राभतस्य प्राभतप्राभतं- २१ समाप्त तदेवमुकं दशमस्य प्राभूतस्य एकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति द्वाविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो यथा 'नक्षत्राणां विचयो वक्तव्यः' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ‘ता कहं ते शक्वत्तविजये आहित्तेति वदेजा ?, ता अयपणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्वेवणं, ता जंबुरीवे णं दीवे दो चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा दो सूरिया तर्विसु वा तवेति वा तविस्संति वा, छप्पपणं णक्खत्ता जोयं जोएंसु वा ३, तंजहा-दो अभीयी दो सवणा दो धणिट्ठा दो सतभिसया दो पुरापो- हवता दो उत्तरापोवता दो रेवती दो अस्सिणी दो भरणी दो कत्तिया दोरोहिणी दो संठाणा दो अहा दो। पुणवसू दो पुस्सा दो अस्सेसाओदो महा दो पुवाफग्गुणी दो उत्तराफरगुणी दो हत्था दो चित्ता दो साईदो अणुराधा दो जेट्ठा दो मूला दो पुवासाढा दो उत्तरासाढा, ता एएसिणं छप्पपणाए नक्खत्तार्ण अस्थि णक्खसा SARKARAN अनुक्रम [१०] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २१ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २२ आरभ्यते ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रशतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १७५ ॥ जे णं णव मुहते सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि नक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुसे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, अस्थि णक्खता जेणंतीसमुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खता जेणं पणयालीसं मुहुते चंदे सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खताणं कतरे णक्खसे जे णं णवमुत्ते सत्तावीसं च सप्तसट्टिभागे मुहुत्तस्स चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जेणं पत्ररसमुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खता जेणं तीसं मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जे णं पणतालीस मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सप्तद्विभागे मुहत्तस्स चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं दो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पण्णरस मुष्टुते चंदे सद्धिं जोयं जोएंति ते णं बारस, तंजहा- दो सत भिसया दो भरणी दो अहा दो अस्सेसा दो साती दो जेठ्ठा, तत्थ जे णं तीसं मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोपंति ते णं तीसं, तंजहा- दो सबणा दो घणिट्ठा दो पुछभद्दवता दो रेवती दो अस्सिणी दो कत्तिया दो संठाणा दो पुस्सा दो महा दो पुवा फग्गुणी दो हत्था दो चिन्ता दो अणुराधा दो मूला दो पुबासाढा, तत्थ जे ते णक्खता जेणं पणतालीसं मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोपंति ते णं बारस, तंजहा- दो उत्तरापोडवता दो रोहिणी दो पुणइस दो उत्तराफग्गुणी दो विसाहा दो उत्तरासादा, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ते जेणं चत्तारि अहोरत्ते छन् मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति, अत्थि णक्खत्ता जेणं छ अहोरते एकवीसं च Ja Eucation International For Parts Only ~357~ १० प्राभृते २२ प्राभृत. प्राभृते नक्षत्रयोगा दि सू ६० ॥१७५॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे गंवीसं अहोरते तिन्निय मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं तं चैव उच्चारेयवं, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरते छच मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोपंति, ते णं दो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा- दो सतभिसया दो अदा दो अस्सेसा दो साती दो विसाहा दो जेट्ठा, तत्थ जे ते णकुखत्ता जेणं तेरस अहोरते बारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं तीसं, तंजहा- दो सवणा जाब दो पुवासाढा, तत्थ जे ते णक्खसा जेणं वीसं अहोरसे तिष्णि य मुहुसे सूरेण जोपं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा-दो उत्तरापोडवता जाब उत्तरासाढा (सूत्रं ६० ) । 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं !-केन 'नक्खत्तविजयंति विपूर्वश्चि स्वभावात् स्वरूपनिर्णये वर्त्तते, तथा चोक्तमन्यत्र "आप्तवचनं प्रवचनं ज्ञात्वा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् ।" तत्र विचयनं विश्वयो नक्षत्राणां विचयो नक्षत्रविचयः- नक्षत्राणां स्वरूपनिर्णय आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह - 'ता अयण्ण' मित्यादि, इदं जम्बूहीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं कृत्वा परिभावनीयं, 'ता जंबुद्दीचे ण'मित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपे द्वौ चन्द्रों प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते, द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ तापयतस्तापयिष्यतः, षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि चन्द्रादिभिः सह योगमयुञ्जन् युञ्जन्ति योश्यन्ति, तत्र तान्येव षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि दर्शयति- 'तंज' त्यादि Educatuny Internationa For Parts Only ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०] प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ-सुगमं, इह भरतक्षेत्रे प्रतिदिवसमष्टाविंशतिरेव नक्षत्राणि चारं चरन्ति, ततः पूर्वमस्य दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीये प्राभृ- १० प्राभृते सिवृत्तिः ५ तप्राभृतेऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितं, सम्प्रति पुनः सकलमेव जम्बूद्वीपमधिकृत्य ४ २२ प्राभृत ( मल० ) ४ नक्षत्रसीमा॥१७६॥ विष्कंभादि सू. ६१-६२ प्राभूते नक्षत्राणि चिन्त्यमानानि वर्त्तन्ते तानि च सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशत्, ततस्तेषां सर्वेषामपि चन्द्रसूर्याभ्यां सह योगमधिकृत्य मुहूर्त्तपरिमाणं चिचिन्तयिषुरिदमाह - 'ता एएसि ण' मित्यादि, एतच्च प्रागुक्तद्वितीयप्राभृतप्राभृतवत्परिभावनीयम् । तदेवं कालमधिकृत्य चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितं, सम्प्रति क्षेत्रमधिकृत्य तच्चिचिन्तयिषुः प्रथमतः सीमाविष्कम्भविषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते सीमाविक्खंभे आहितेति वदेज्जा ?, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्वत्ताणं अस्थि णक्खत्ता जेसि णं छसया तीसा सत्तद्विभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अस्थि णक्वत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसट्टिभागती सतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अस्थि णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दनुत्तरा सत्तद्विभाग तीसतिभागाणं सीमाविक्वंभो, अस्थि णक्खन्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सत्तसट्टिभागती सतीभागाणं सीमाविक्खंभो, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्ता जेसि णं छसया तीसा तं चैव उच्चारत, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सससद्विभागतीसहभागाणं सीमाविक्खंभो ? ता एतेसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं छ सता तीसा सत्तट्टिभागतीसति भागेणं सीमाविक्खंभो ते णंदो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचु Eucation International For Parts Only ~359~ ॥ १७६ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [९२-९३] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०] प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तरं सप्तसट्टिभागती सतिभागाणं सीमाविक्खंभो ते णं बारस, तंजहा- दो सतभिसया जाब दो जेट्ठा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तद्विभागतीसतिभागाणं सीमाविवखंभो ते णं तीसं, सं०-दो सबणा जाव दो पुष्वासाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं तिष्णि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तट्ठिभागती सतिभागाणं सीमाविक्लंभो ते णं बारस, तं०-दो उत्तरा पोडवता जाब उत्तरासादा वा (सूत्रं ६१ ) एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सता पादो चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खताणं किं सया सायं चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति?, एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया दुहा पविसिय २ चंद्रेण सद्धिं जोयं जोपंति ?, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं न किंपि तं जं सया पादो चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, नो सया सागं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, नो सया दुहओ पविसित्ता २ चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, णण्णत्थ दोहिं अभीयीहिं, ता एतेणं दो अभीयी पायंचिय २ चोत्तालीसं २ अमावासं जोएंति, णो चेवणं पुण्णिमा सिणिं (सूत्रं ६२ ) । 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं १-केन प्रकारेण कियत्या विभागसङ्ख्यया इत्यर्थः, भगवन् ! त्वया सीमाविष्कम्भ आख्यात इति वदेत्, भगवानाह 'ता एएसि णमित्यादि, इहाष्टाविंशत्या नक्षत्रैः स्वगत्या स्वस्वकालपरिमाणेन क्रमशो यावत् क्षेत्रं बुद्ध्या व्याप्यमानं सम्भाव्यते तावदेकमर्द्ध मण्डलमुपकल्प्यते एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमर्धमण्डलमित्येवंप्रमाणं बुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमण्डलं, तस्य मण्डलस्य 'मण्डलं सय सहस्त्रेण अडाणउए सएहिं छित्ता इच्चेस Education International For Park Use Only ~360~ war Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [ ९२-९३] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १७७॥ १० प्राभृते प्राभृते नक्षत्रसीमा सू ६१-६२ नक्खत्ते खेत्तपरिभागे नक्खत्तविजए पाहुडे आहियत्तिवेमि' इति वक्ष्यमाणवचनात् अष्टानवतिशताधिकशतसहस्रविभागैर्विभज्यते, किमेवंसयानां भागानां कल्पने निबन्धनमिति चेत्, उच्यते, इह त्रिविधानि नक्षत्राणि, तद्यथा- समक्षे- ४ २२ प्रा भूत*त्राणि अर्द्धक्षेत्राणि द्व्यर्द्धक्षेत्राणि च तत्र यावत्प्रमाणं क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रैस्तावत्क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण सह योगं यानि * गच्छति तानि समक्षेत्राणि तानि च पञ्चदश, तद्यथा-श्रवणो घनिष्ठा पूर्वभद्रपदा रेवती अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघा पूर्वफाल्गुनी हस्तः चित्राऽनुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति, तथा यानि अहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्यार्द्धं चन्द्रेण सह योगमश्नुवते तान्यर्द्धक्षेत्राणि तानि च पटू, तद्यथा - शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातिर्ज्येष्ठेति, तथा द्वितीयमधैं यस्य तत् द्व्यर्द्ध, मार्धमित्यर्थः, द्व्यर्द्धमधिकं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोगयोग्यं येषां तानि यर्द्धक्षेत्राणि, ताम्यपि षट्, तद्यथा-उत्तरभद्रपदा उत्तरफाल्गुनी उत्तराषाढा रोहिणी पुनर्वसु विशाखा चेति, तत्र सीमापरिमाणचिन्तायामहोरात्रः सप्तषष्टिभागीक्रियते इति समक्षेत्राणां क्षेत्रं प्रत्येकं सप्तषष्टिभागाः परिकल्प्यन्ते, अर्द्धक्षेत्राणां त्रयस्त्रिंशत् अर्द्ध च, पर्द्धक्षेत्राणां शतमेकमर्द्ध व, अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, समक्षेत्राणि च नक्षत्राणि पञ्चदशेति सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातं सहस्रं पश्चोत्तरं १००५, अर्द्धक्षेत्राणि पडिति ततः सार्द्धा त्रयस्त्रिंशत् पङ्गिर्गुण्यते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, घर्द्धक्षेत्राण्यपि पटू, ततः शतमेकमर्द्ध च पङ्गिस्ताच्यते, जातानि षट् शतानि त्र्युत्तराणि ६०३, अभि जिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः, सर्वसङ्ख्यया जातानि अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावदुद्भागपरिमाणमेकमर्द्धमण्डखमेतावद्भागमेव द्वितीयमिति त्रिंशदधिकान्यष्टादश शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पत्रिंशच्छतानि षष्यधि Education Internation For Parts Only ~361~ ॥ १७७॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], ...... ...-- प्राभतप्राभत [२२], ........ .... .... मुलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२] कानि ३६६०, एकैकस्मिन्नहोरात्रे किल त्रिंशन्मुहुर्ता इति प्रत्येकमेतेषु पथ्यधिकषट्त्रिंशच्छतसङ्ख्येषु भागेषु त्रिंशदागक-8 ल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि १०९८००, तत इत्थं मण्डलस्य भागान् परिकल्प्य भगवान् प्रतिवचनं ददाति-'ता'इति तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्येऽस्तीति निपातत्वादार्षत्वाद्वा स्तस्ते नक्षत्रे ययोः प्रत्येक षट् शतानि त्रिंशानि-त्रिंशदधिकानि सप्तपष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः-सीमापरिमाणं, तथाऽस्तीति लसन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येक पश्चोत्तर सहस्र सप्तपष्टित्रिंशदागानां सीमाविष्कम्भा, सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं द्वे सहने दशोत्तरे सप्तपष्टित्रिंशदागानां सीमाविष्कम्भः, सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, एवं भगवता सामान्येनोके भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-ता एएसि 'मित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये कतराणि तानि नक्षत्राणि येषां षट् शतानि त्रिंशानि सप्तपष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, 'तं चेव उच्चारेय'ति तदेवानन्तरोक्तमुक्तप्रकारेणोचारयितव्यं, तद्यथा-'कयरे नक्खता जेसिं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तविभागतीसहभागाणं सीमाविक्खंभो, कयरे नक्खत्ता जेर्सि दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तट्ठिभागातीसहभागाणं सीमाविक्खंभो'इति, चरमं तु सूत्रं साक्षादाह'कयरे नक्षत्ता इत्यादि, एतानि त्रीण्यपि सूत्राणि सुगमानि (च), भगवानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां षट् शतानि त्रिंशानि सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः ते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, इह एकैकस्याभिजितो नक्षत्रस्य सप्तपष्टि ॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [९२-९३] 538 ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], ---- --------- प्राभृतप्राभूत [२२], ---------- ----- मूलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [९२-९३] सूर्यप्रज्ञ-18 खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्का एकविंशतिर्भागाश्चन्द्रयोगयोग्याः, एकैकस्मिंश्च भागे त्रिंशझागपरिकल्पनादे- १० प्राभृते विवृत्तिःला कविंशतिस्त्रिंशता गुण्यते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तथा तत्र तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि २२प्राभूत(मल०) तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं पञ्चोत्तरं सहस्रं सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः तानि द्वादश, तद्यथा-वे शतभिषजी प्राभते ॥१७८॥ 'जाव दो जेहाउ'त्ति यावच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्यं-'दो भरणीओ दो अदाओ दो अस्सेसाओ दो साईओ दो जेवाओं' नक्षत्रसीमाइति, तथाहि-एतेषां द्वादशानामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरावगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः सास्त्रिय विष्कभादि 1 ६१-१२ खिंशदागाश्चन्द्रयोगे योग्यास्ततस्त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते जातानि नव शताति नवत्यधिकानि.९९०, अर्द्धस्थापि च त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां भागे हते लब्धाः पञ्चदश १५, सर्वसङ्ख्यया जातं पश्चोत्तरं सहसं १००५, तथा तत्र तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां वे सहस्र दशोचरे सप्तषष्टिभागत्रिंशभागानां सीमाविष्कम्भस्तानि |त्रिंशत्, तद्यथा-द्वौ श्रवणी 'जाय दो पुषासाढाइति यावच्छब्दादेवं पाठो द्रष्टव्य:-दो घणिहा दो पुषभहवया दो रेवई | दो अस्सिणी दो कत्तिया दो मिगसिरा दो पुस्सा दो मघा दो पुवफग्गुणीओ दो हत्था दो चित्ता दो अणुराहा दो मूला दो। जापुवासाढा'इति, तथाहि-एतानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, तत एतेषां सक्षपष्टिखण्डीकृतस्थाहोरावगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः परि-14 मा॥१७८॥ पूर्णाः सप्तपष्टिभागाः प्रत्येक चन्द्रयोगयोग्याः, तेन सप्तपष्टिस्त्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे सहने दशोत्तरे इति, तथा तत्रतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येक त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि सप्तपष्टित्रिंशदा-12 गानां सीमाविष्कम्भस्तानि द्वादशश, तद्यथा-वे उचरे प्रोष्ठपदे 'जाव दो उत्तरासाबा' इति यावच्छन्दकरणादेवाला ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२] द्रष्टव्यं 'दो रोहिणी दो पुणवसू दो उत्तरफग्गुणी दो विसाहा दो उत्तरासादा' इति, एतानि. हि नक्षत्राणि क्षेत्राणि ! ततः सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काश्चन्द्रयोगयोग्या भागाः शतमेकमर्थं च प्रत्येकमवगन्तव्याः, तत्र शतं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रीणि सहस्राणि, अर्द्धमपि त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां विभज्यते लब्धाः पञ्चदशेति । 'ना एएसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये किं नक्षत्रं यत् सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति ,किं नक्षत्रं यत्सदा सायं-दिवसावसानसमये चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, किं तन्नक्षत्रं यत्सदा द्विधा-प्रातः सायं च समये प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, भगवानाह-ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये न किमपि तन्नक्षत्रमस्ति यत्सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, किं सर्वथा नेत्याह-'नसत्धेत्यादि. नेति प्रतिषेधोऽन्यत्र द्वाभ्यामभिजिद्भ्यामवसेयः, कस्मादित्याह-ता एएसि ण'मित्यादि ता इति तत्र-तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये एते-अनन्तरोदिते द्वे अभिजितौ-अभिजिन्नक्षत्रे युगे युगे प्रातरेव पातरेव चतुश्चत्वारिंशत्तमाममा-४ वास्यां चन्द्रेण सह योगमुपगम्य युकः-परिसमापयतः, नो चैव पौर्णमासी, अथ कथमेतदवसीयते, यथा युगे युगे चतुश्चत्वारिंशत्तमा २ ममावास्यां सदैव प्रातः समये अभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण साई योगमुपागम्य परिसमापयतीति , उच्यते, पूर्वाचार्योपदर्शितकरणवशात् , तथाहि-तिथ्यानयनार्थं तावत्करणमिदं-'तिहिरासिमेव बावहिभाझ्या सेसमेगसद्विगुणणं| च । बावडीऍ विभत्तं सेसा अंसा तिहिसमत्ती॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका ये युगमध्ये चन्द्रमासा अतिक्रान्तास्ते तिथिराश्यानयनाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तस्य राशेर्भागो द्वापया हियते, हृते च भागे यदवतिष्ठते तस्मिन्नेकपल्या दीप अनुक्रम [९२-९३] AREauratoninternational ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], ---- --------- प्राभृतप्राभूत [२२], ---------- ----- मूलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: & प्राभृते प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [९२-९३] सूर्यप्रज्ञ- गुणयित्वा द्वाषया विभक्के ये अंशा उद्धरन्ति सा विवक्षिते दिने विवक्षिततिथिपरिसमाप्तिः, ततश्चतुश्चत्वारिंशत्तमायातिवृत्तिः ममावास्यायां चिन्त्यमानायां विचत्वारिंशचन्द्रमासा एकं च चन्द्रमासस्य पर्वावाप्यते, ततखिचत्वारिंशत्रिंशता गुण्यन्ते, २२ ग्राभूत ( माजातानि द्वादश शतानि नवत्यधिकानि १२९०, तत उपरितनाः पर्वगताः पञ्चदश प्रक्षिष्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि ॥१७९॥ पश्चोत्तराणि १३०५, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते लब्धा एकविंशतिः, सा त्यज्यते, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते एकपट्या गुण्य-नक्षत्रसीमान्ते, जातं ज्यशीत्यधिकं शतं १८३, तस्य द्वापट्या भागे हते लब्धौ द्वौ, तो त्यक्ती, शेषा तिष्ठत्येकोनषष्टिः ५९, आग- विष्कभादि तमेकोनषष्टिापष्टिभागास्तस्मिन् दिनेऽमावास्या । अमावास्यासु पौर्णमासीषु च नक्षत्रानयनाथै प्रागुक्कमेव करणं, तत्र ६१-६२ ध्रुवराशिः, षट्पष्टिमुंहतों एकस्य च मुहर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः १६ तन्त्र चतुश्चत्वारिंशत्तमा अमावास्या चिन्तयितुमारब्धा, ततश्चतुश्चत्वारिंशता स गुण्यते, जातानि मुहत्तोंनामेकोनत्रिंशपछतानि चतुरुत्तराणि २९०४ एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागानां दे शते विंशत्यधिके २२० एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः तत्र पुनर्वसुप्रभृतिकमुत्तराषाढापर्यन्तं चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुदतों-- नामेकस्य च मुहूर्तस्य पट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः ४४२४३ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विशतिः शतानि द्वाषष्ठाधिकानि २४६२ एकस्य च मुहूत्तस्य चतुःसप्तत्यधिकं शतं द्वापष्टिभागानां १७४, ततोऽभिजिदादिसकलनक्षत्रमण्डलशोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य चद्वापटिभागस्य षषष्टिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ । २४ । ६६ इत्येवंप्रमाणं यावत्सम्भवं शोधनीय, तत्र त्रिगुणमपि शुद्धिमासा-181॥१७९॥ S -AC+ ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [९२-९३] दयतीति त्रिगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थिताः पश्चात् षण्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः ६।३७ । ४७ । आगतं चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्थायामभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहू-18 तेषु सप्तमस्य च मुहूर्तस्य सक्षत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यमावास्यापौर्णमासीप्रक्रमादेव तत्प्ररूपणां चिकीर्षुरिदमाह तत्थ खलु इमाओ वावहिं पुणिमासिणीओ पावहि अमावासाओ पण्णत्ताओ, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णिमासिणि चंद किंसि देसंसि जोएइ, ताजंसिणं देसंसि चंदे चरिमं बावहि पुण्णिमासिणि जोएति ताए तेणं पुण्णिमासिणिहाणातो मंडलं चउच्चीसेणं सतेणं छेत्ता दुषत्तीसं भागे उवातिणा वित्ता एस्थ णं से चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएति, ता एएसिणं पंचहं संबच्छराणं दो पुण्णिमासिणि &ीचंदे कंसि देसंसि जोएति, ता जंसिणं देसंसि चंदे पढमं पुणिमासिणि जोएति, ता तेणंपुषिणमासिणिहाणातो & मंडलं चउवीसेणं सतेणं छत्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोचं पुण्णिमासिणि जोएति, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि चंदो हैदोचं पुषिणमासिणि जोएति, ताते पुण्णिमासिणीठाणातो मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता दुबत्तीसं भागे| उवाइणावेत्ता, एत्य णं तचं चंदे पुण्णिमासिणि जोएति, ता एतेणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुषिणमासिणि चंदे कसि देसंसि जोएंति ?, ता जंसि णं देसंसि चंदे तचं पुषिणमासिणि जोएति, ताते पुषिणमा ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], --------------------- मूल [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप सूर्यप्रज्ञ-. सिणिवाणाते मंडलं चउच्चीसेणं सतेणं छेत्ता दोणि अट्ठासीतेभागसते उवायिणावेत्ता एत्य णं से चंदे दुषा-18 १०याभृते. प्तिवृत्तिः लसमं पुण्णिमासिणि जोएति, एवं खलु एतेणुवाएर्ण ताते २ पुण्णिमासिणिहाणाते मंडलं चवीसेणं स- २२माभूत (मल.) तेणं छेत्ता दुबत्तीसंभागे उपातिणावेत्ता तसि २ देसंसि तं तं पुणिमासिणि चंदे जोएति, ता एतेसि | प्राभूते पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावडिं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएति, ता जंयुद्धीवस्स णं २ पाईण- पूर्णिमामा ॥१८॥ वास्याः पडिणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउधीसेणं सतेणं छेत्ता दाहिणिलंसि चउभागमंडलंसि सू६३ सत्तावीसं चउभागे उपायणावेत्ता अट्ठावीसतिभागे वीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवातिणावेसा तिहिं| भागेहिं दोहि य कलाहिं पञ्चस्थिमिलं चउभागमंडलं असंपत्ते एस्थ णं चंदे चरिमं चावहि पुण्णिमासिणिं जोएति (सूत्रं ६३) 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खलु इमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा द्वापष्टिः पौर्णमास्यो द्वापष्टिरमावास्याः प्रज्ञप्ता, एवमुक्के भगवान् गीतमः पृच्छति-'ता'इति तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौणेमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-परिसमापयति !, भगवानाह-'ता जंसि ण' मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रश्च रमा पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनी द्वापष्टितमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात् पूर्णमासीस्थानात्-चरमद्वापष्टित-II | ॥१८॥ Xमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागांच उपादाय-गृहीत्वा अन द्वात्रिंशजागरूपे देशे चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति, भूयः प्रभं करोति, 'ता अनुक्रम [९४] ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- ------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप पएमिणमित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये या द्वितीया पौर्णमासी तर चन्द्रः कस्मिन् देशे परिसमापयति !, भगवानाह---'ता जंसि णमित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रः प्रथमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात्पूर्णमासीस्थानात्-प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागानुपादायात्र प्रदेशे चन्द्रो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति, एवं तृतीयपौर्ण-४ दमासीविषयमपि सूत्र व्याख्येयम्, एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि, नवरं 'दोण्णि अट्ठासीए भागसए'त्ति तृती यस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवभित्रिंशतो गुणने द्वे शते अष्टाशीत्यधिक भवतः २८८, सम्प्रत्यतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेना हायां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्ततोऽनन्तरां पौर्णमासी तस्मात्पाश्चात्यपौर्णमा सीपरिसमाप्तिस्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा परतस्तद्गतान द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे चन्द्रः परिसमापयति, स चैवं परिसमापयन् तावद्वेदितव्यो यावद् भूयोऽपि चरमां द्वापष्टिं पौर्ण-15 मासी तस्मिन् देशे परिसमापयति यस्मिन् देशे पाश्चात्ये युगे चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी परिसमापितवान्, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, गणितक्रमवशात्, तथाहि-पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां द्वात्रिंशतो भागानामतिक्रमे तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, द्वापष्टिश्च सर्वसङ्ख्यया युगे पौर्णमास्यः, ततो द्वात्रिंशत् द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकोनविंशत्यधिकानि चतुरशीत्यधिकानि अनुक्रम [९४] PSI - ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [६३] दीप सूर्यप्रज्ञ-15/१९८४, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षोडश सकलमण्डलपरावर्ताः, समस्तस्यापि च रानिले-४१० प्राभृते दापीभवनादागतं यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धिचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिः, चरमद्वापष्टितमपरिसमाप्ति-२२ प्राभृत. (मल०) देशं पृच्छति-'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदिताना पचानी संवत्सराणां मध्ये परमां बाप-II प्राभृते पूर्णिमामा॥१८॥ ष्टितमां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-परिसमापयति ?, भगवानाह-जंबुद्दीवस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, वास्याः जम्बूद्वीपस्य गमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनायतया, इह प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा गृह्यते, अपाचीन-18 |ग्रहणेन दक्षिणापरा, ततोऽयमर्थः-पूर्वोत्तरदक्षिणापरायतया, एवमुदीचिदक्षिणायतया-पूर्वदक्षिणोत्तरापरायतया जीवयाप्रत्यश्चया दवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुर्विशेन-चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य भूयश्चतुर्भिविभज्यते, ततो दाक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भार्ग विंशतिधा छिरवा तवगतानष्टादश भागानुपादाय शेषैखिभिर्भागश्चतुर्थस्य भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां पाश्चात्यं चतुर्भागमण्डलमसम्पाप्ता, अस्मिन् प्रदेशे चन्द्रो द्वापष्टितमा चरमा पौर्णमासी परिसमापयति ॥ तदेवं चन्द्रस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्त, सम्प्रति सूर्यस्य | पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-1 | ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं परमं पुषिणमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएति , ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिम पावहि पुण्णिमासिणि जोएति ताते पुणिमासिणिहाणातो मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता चउण-| का॥१८॥ वर्ति भागे उवातिणावेत्ता एत्य णं से सूरिए पढम पुणिमासिणि जोएड, ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छ अनुक्रम [९४] CA ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९५-९७] राणं वोचं पुण्णिमासिणि सूरे कसि देसंसिजोएति?, ता जंसिणं देससि मुरे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइताए पण्णिमासिणीठाणाओ मंडलं' चउवीसं सएण छेत्ता दो चउणवहभागे उवाइणावित्ता एस्थ णं से सूरे दोच. पुषणमासिणि जोएइ, ता एएसिणं पंचण्हं संघच्छराणं तच्चं पुषिणमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएइ, ता जसिणं देसंसि सूरे दोचं पुषिणमासिणि जोएति ताते पुण्णिमासिणिहाणाते मंडलं चउच्चीसं सतेणं छेसा चउ णउतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सरे तच्च पुणिमासिणि जोएति, ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसं पुषिणमासिणि० जोएति, ताते पुणिमासिणिहाणाते मंडलं चउद्दीसेणं सतेणं छेत्ता अट्टछत्ता|ले भागसते ज्वाइणावेत्ता, एस्थ णं से सूरे दुवालसमं पुषिणमासिणि जोएति, एवं खलु एतेणुवाएणं ताते &२ पुणिमासिणिहाणाते मंडलं चवीसेणं सतेण छेत्ता चउणउतिं २ भागे उवातिणावेत्ता तसिणं | देसंसि तं तं पुषिणमासिणि सूरे जोएति, ता एतेसि णं पंचहं संवच्छराणं परिमं वावडिं पुण्णिमासिणि सूरे | कसि देसंसि जोएतिी,ताजंबुहीवरसणं पाईणपडिणीयताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउच्चीसेणंसएणं छेसा पुरच्छिमिसि चउभागमंडलंसि ससाथीसं भागे उवातिणावेत्ता अट्ठावीसतिभागं वीसधा छेत्ता अट्टार सभागे उवादिणावेत्ता तिहिं भागेहि दोहिय कलाहिं दाहिणिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं सूरे चरिमं वावहि । ४ पुषिणमं जोएति (सूत्रं ६४)।ता एएसिणंपंचण्ह संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति ?, सैता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमबावहिं अमावासं जोएति ताते अमावासहाणाते मंडलं चउबीसेणं सतेणं 585 ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्राभृते प्रत सूत्रांक [६४-६६] सूर्यप्रज्ञ- छेसा दुषत्तीसं भागे उवादिणावेत्ता एत्थणं से चंदे पढम अमावासं जोएति, एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स १० प्राभृते प्तिवृत्तिः पुणिमासिणिओ तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भणितवाओ बीइया ततिया दुवालसमी, एवं खलु २२प्राभृत(मल)टाएतेणुवाएणं ताते २ अमावासाठाणाते मंडलं चउच्चीसेणं सतेणं छेत्ता दुवीसं २ भागे उवादिणावेत्ता तंसि । देसंसि तं तं अमावासं चंदेण जोएति, ता एतेसि गं पंचण्हं संवच्छराणं चरम अमावासं चंदे कंसि पूर्णिमामा॥१८॥ वास्थाः देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि चंदे चरिमं बावहि पुण्णिमासिणि जोएति, ताते पुषिणमासिणिट्ठाणाए| सू६४& मंडलं चउधीसेणं सतेणं छत्तीसोलसभागे उक्कोवइत्ता एस्थ णं से चंदे चरिमं बावहि अमावासं जोएति ६५-६६ (सूत्रं ६५)ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं सूरे कंसि देसंसि जोएति , ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं यावढि अमावासं जोएति ता ते अमावासट्ठाणाते मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवा-४ |यिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे पढम अमावासं जोएति, एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुण्णिमासिणीओ तेणेव अमावासाओवि, तंजहा-बिदिया तइया दुवालसमी, एवं खलु एतेणुवाएणं ताते अमावासहाणाते मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिं २ भागे उवायिणावेत्ता ता जसिणं देसंसि सूरे चरिमं बावर्हि अमावास जोएति ताते पुणिमासिणिहाणाते मंडलं चचीसेणं सतेणं छेत्ता सत्तालीसंभागे उक्कोवइत्सा एत्थ णं से सूरे | ॥१८२॥ चरिमं बावढि अमावासं जोएति (सूत्रं १६)॥ 'ता एएसिणे'मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् | दीप अनुक्रम [९५-९७] ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१०], ...................---- प्राभूतप्राभूत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] 5555453 दीप अनुक्रम [९५-९७] देशे स्थितः सन् युनक्ति-परिसमापयति !, भगवानाह-'ता जंसि ण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्चरमां-पाश्चात्ययुगवर्तिनी द्वापष्टितमां पौर्णमासी युनक्ति--परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-वरमद्वाषष्टितमपी मासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विंश त्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य तद्गतान् चतुर्नवति भागान् उपादाय सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, किमत्र कारणमिति चेत्, उच्यते, इह परिपूर्णेषु त्रिंशदहोरात्रेषु परिसमासेषु सत्सु स एव सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे वर्तमान प्राप्यते, न कतिपयभागन्यूनेषु, पौर्णमासी च चन्द्रमास-1 पर्यन्ते परिसमाप्तिमुपैति, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ततविंशत्तमेऽहोरात्रे द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु गतेषु सूर्यश्चरमद्वाषष्टितमात् पौर्णमासीपरिसमाप्ठिनिबन्धनात् स्थानात | चतुर्नवती चतुर्विशत्यधिकशतभागेष्वतिकान्तेषु प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयन्नवाप्यते, किमुक्तं भवति ।-त्रिंशता भागस्तमेव देशमप्राप्तः सन्नवाप्यते इति, त्रिंशतो द्वापष्टिभागानामहोरात्रसत्कानामधापि स्थितत्वात्, भूयः प्रश्नयति-ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र युगे एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे स्थितः सन् युक्ति-परिसमापयति ।, भगवामाह-'ता जंसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः प्रथमा पौर्णमासी परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-प्रथमात् पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलं चतुविशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् चतुर्नवतिभागान् उपादाय अत्र देशे स्थितः सन् सूर्यो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति एवं तृतीयपौर्णमासीविषयमपि सूत्रं कर्त्तव्यं, एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि, नवरं 'अहछत्ताले भाग RRBAR 34 ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [६४-६६] ॥१८॥ H दीप अनुक्रम [९५-९७] सए'त्ति तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि १० प्राभूतेषट्चत्वारिंशदधिकानि ८४६, सम्प्रति शेषपौर्णमासीविषयमतिदेशमाह-एवं खलु'इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-४२२प्राभूत निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्ता तामनन्तरा-II प्राभूते मनन्तरां पौर्णमासी तस्मात् तस्मात् पाश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन | | पूर्णिमामा|शतेन छित्वा परतस्तद्गतान चतुर्नवतिभागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः परिसमापयति, स चैवं, बास्याः |परिसमापयन् तायडू वेदितव्यों यावत् भूयोऽपि चरमा द्वापष्टि-द्वापष्टितमा पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापयति | यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धिी घरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापितवान, एतधावसीयते गणितक्रमवशात्, तथाहि पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशत-18 प्रविभक्तस्य सरकानां चतुर्नवतिचतुर्नवतिभागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चतुर्नवतिद्वषिष्या गुण्यते, जातान्यष्टापश्चाशच्छतानि अष्टाविंशत्यधिकानि ५८२८, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः | सप्तचत्वारिंशत्सकलमण्डलपरावर्ताः, न च तैः प्रयोजनं, केवलं राशेनिलपीभवनादागतं यस्मिन् देशे स्थितः सन् पाश्चात्ययुगसम्बन्धिचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकस्तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि युगस्य चरमा द्वाषष्टितमा पौर्णमासी X ॥१८॥ परिसमापयतीति, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-ता एएसि 'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता जंबुदीवस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीनापाचीनायतया ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१०], ...................---- प्राभूतप्राभूत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत kkkkkkkkk सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९५-९७] अत्रापि प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा दिक् गृह्यते अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा, ततोऽयमर्थः-उत्तरपूर्वदक्षिणापरायतया एवमुदीच्यदक्षिणायतया-उत्तरापरदक्षिणपूर्वायतया जीवया-दवरिकया मण्डल चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छिवा-विभज्य भूयश्चतुभिर्भक्त्वा 'पुरस्थिमिल्लसित्ति पूर्वदिग्पत्तिनि चतुभागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तद्गतानष्टादश भागानुपादाय शेषैत्रिभिर्भागेश्चतुर्थस्य च भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां लाविंशतितमाभ्यामित्यर्थः दाक्षिणात्य व चतुर्भागमण्डलमसंप्राप्तः सन् तत्र प्रदेशे स सूर्यश्वरमां द्वापष्टिं-द्वापष्टितमां पौर्ण-15 मासी परिसमापयति । तदेवं सूर्याचन्द्रमसोः पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः, सम्पति तयोरेवामावास्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः चन्द्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चाना संवत्सराणां मध्ये प्रथमाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे स्थितः परिसमापयति , भगवानाह–ता जंसिण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रश्चरमां द्वापष्टि-द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, ततोऽमावास्यास्थानाद्-अमावास्यापरिसमाप्तिस्थानात्परतो मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागान् उपादायात्र प्रदेशे स चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति एवं मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलपिन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्तेनिवाभिलापेनामावास्या अपि भणितव्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी च, ताश्चैवम्-'ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं दो अमावासं चंदे कसि देसंमि जोएइ ?, ता जसिणं देसंसि चंदे पदम अमावासं जोएइ ताओ णं अमावासहाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता दुबत्तीसभागे उवायिणावेत्ता एत्थ णं से चंदे दोचं अमावासं जोपद, ता एएसि ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयमज्ञ प्रत सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९५-९७] णं पंचण्ह संवच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ !, ता जंसि णं देसंसि चंदे दोच्च अमावासं जोएइ ताओ १० प्राभृते सिवृत्तिः अमावासद्वाणाओ मंडलं चउधीसएणं सएणं छित्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेचा एत्थ णं से चंदे तच्चं अमावासं जोएइ, २२ प्राभृत ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराण दुवालसमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ, ता जंसि णं देसंसि चंदे तचं अमा- प्राभृते वासं जोएइ ताओ णं अमावासाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता दोन्नि अहासीए भागसए उवाइणावेत्ता एस्थ णं पूर्णिमामा॥१८४॥ चंदे दुवालसमं अमावासं जोएई सम्प्रति शेषासु अमावास्यास्वतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि, एतत् प्रागवल्या-15 वास्या ख्येय, सम्प्रति चरमदापष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिवन्धनं देशं पृच्छति-'ता एएसि 'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-1 'ता जसि ण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रो द्वापष्टिं-द्वाषष्टितमा चरमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमाटूपयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य पूर्व पोडशभागानववष्क्य चरमद्वापष्टितमामावास्यायाः चरमद्वापष्टितमपौर्णमास्याः पक्षण-पश्चात्पक्षेण च विवक्षितप्रदेशात् चन्द्रः षोडशभिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागैः परतः प्ररूप्यते, मासेन द्वात्रिंशता भागैः परतो वर्तमानस्य उभ्यमानत्वात् , ततः षोडश भागान् पूर्वमवष्वक्येत्युक्तं अत्र-अस्मिन् प्रदेशे स्थितः सन् चन्द्रश्चरमां द्वापष्टितमाममावास्यां | परिसमापयति । सम्पति सूर्यस्यामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पिपृच्छिषुराह-ता एएसि ॥'मित्यादि, पतत्माग्व ।॥१८४॥ व्याख्येयं, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उकास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि वक्तव्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी च, ताश्चैवम्-एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्च अमावासं सूरे कसि ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] SAARC दीप अनुक्रम [९५-९७] संसि जोएड, ता जसिणं देसंसि सूरे पढम अमावासं जोएइ ताओ अमावासट्टाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता. चषणाई भागे उवाइणावेत्ता पत्थ णं से सूरे दोच्च अमावासं जोएइ, ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं तचं अमावासं सरे कसि देसंसि जोएइ, ता जंसिणं देसंसि दोच्चं अमावासं जोएइ ताओ अमावासहाणाओ मंडलं चउषीसेणं सएण छेत्ता चरणउहभागे उवाइणावेत्ता तच्चं अमावासं जोपड, ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं दुवालसं अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएड, ता सि णं देसंसि सूरे तच्चं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासाणाओ मंडलं चउवीसेर्ण सएणं छेत्ता अहछत्ताले भागसए उवाइणावेत्ता एस्थ णं से सूरे दुवालसमं अमावासं जोएई' सम्पति शेषास्वमावास्यासु अतिदेशमाह-४ एवं खल्वि'त्यादि, एतत् प्राग्वव्याख्येयं, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-ता |एएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-ता जंसि 'मित्यादि, यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्वरमां-द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति तस्मात्पौर्णमासीस्थानात्-पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् देशात् मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्याक् सप्तचत्वारिंशतं भागान अवष्वक्य अत्र प्रदेशे स्थितः सन् सूर्यश्चरमां द्वापष्टितमाममावास्यां युनकि-परिसमापयति । अथ को पीर्णमासी केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः सूर्यो बा परिसमापयतीति प्रष्टकाम आह ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणंजोएति ?, ता धणिवाहिं, धणिलाहाणं तिणि मुटुसा एकूणवीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा ऐसा पण्णट्टि चुपिण याभागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुवाफग्गुणीणं अट्ठावीस मुहूत्ता अह ECEBOOK AREauratonintentharana ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: F प्रत सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम सूयंप्रज्ञतीसं च वावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता दुबत्तीसं चुणिया भागा सेसा, ता. एएसि १० प्राभृते प्तिवृत्तिःण पंचण्ह संवच्छराणं दोचं पुण्णमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता उत्तराहिं पोहवताहि, उत्त-२२प्राभूत(मल०) राणं पोहवताणं सत्तावीसं मुहत्ता चोइस य बावहिभागे मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता बावहि- प्राभृते घुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं उत्तराफग्गु- पूर्णिमामा॥१८५॥ पणीणं सत्त मुहुत्ता तेत्तीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता एकवीसं चुपिणया भागा31 वास्याः सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संबच्छराणं तचं पुण्णिमासिणी चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता अस्सिणीहिं। अस्सिणीणं एकवीसं मुहुत्ता णव य एगट्टिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेवढि चुण्णिया: साभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण पक्वत्तेणं जोएति ?, ता चित्ताहिं, चित्ताणं एको मुहत्तो अट्ठावीसं च बावहि भागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तीसं चुण्णिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुबालसमं पुषिणमासिणि चंदे केणं णक्खत्तणं जोएति ?. ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं च । आसाढाणं छदुवीसं मुहत्ता छदुवीसं च बावविभागा मुहत्तस्स बार्टि भागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउपणं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं च R ॥१८५॥ आसाढाणं छदुधीसं च यावढि भागा मुहत्तस्स पावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउपपणं चुपिणया भागा मसेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा पुणवसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ट य बावट्टि %*ॐ*- [९८] *% % ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: E प्रत सूत्रांक -5-% [६७] |भागा मुहत्तस्स पावद्विभागं च सत्तहिया छेत्ता वीसं चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं| चरम बावहिं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, उत्तराहि आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता पुस्सेणं, पुस्सस्स एकूणवीसं मुहत्ता तेतालीसं च धावट्टि भागा मुहुत्तस्स बावडिभागं च सत्तहिधा छेत्ता तेत्तीसं चुपिणया भागा सेसा (सूत्रं ६७)॥ । 'ता एएसि ण'मित्यादि, 'ता' इति तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी चन्द्र उपलक्षणमेतत् सूर्यो वा केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् युनक्ति-परिसमापयति ?, भगवानाह–ता धणिहाहिं'इत्यादि, ता इति-तत्र सेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति धनिष्ठाभिः, धनिष्ठानक्षत्रस्य पश्चतारत्वात्तदपेक्षया बहुवचनं अन्यथा त्वेकवचनं द्रष्टव्यं, तासां च धनिष्ठानां यो मुहूर्ताः एकस्य च मुहू स्य एकोनविंशतिषिष्टिभागा एकंच द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टिश्चर्णिका भागाः दोषाः, तथाहि-पौर्णमासीविषयस्य चन्द्रनक्षत्रयोगस्य परिज्ञानार्थ करणं प्रागेवोतं, तत्र पट्पष्टिमहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पश्च द्वाषष्टिभागा एकः सप्तषष्टिभागः ६६।। इत्येवंरूपो ध्रुवराशिधियते, धृत्वा च प्रथमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगो ज्ञातुमिष्ट इत्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति तावानेव जातः, तस्मादभिजितो नव' मुहर्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य | चतुर्विशति षष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोधनकं शोध्यते, तत्र षट्पष्टेनव मुहतोः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् सक्षपश्चाशत् , तेभ्य एको मुहूत्तों गृही वा द्वापष्टिभागीकृतस्ते च द्वाषष्टिरपि भागार CE% दीप अनुक्रम [९८] ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- ------- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) ॥१८॥ सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम ***55555 बापष्टिभागराशी पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिषष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्रिचत्वारि ४१० प्राभृते शत्, एक रूपमादाय सप्तषष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तपष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिर्भागमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः अष्टषष्टिः २२माभृतसप्तपष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः स्थिती द्वौ पश्चात्सप्तषष्टिभागौ, ततविंशता मुदः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्मु- प्राभृते हाः षडूविंशतिः, तत इदमागत-धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसक्षेषु द्वाषष्टिभागे-| पूर्णिमामावेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसाधेषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपयाति, सम्पति सूर्यनक्ष वास्याः सू ६७ योग पृच्छन्नाह-'तं समयं च ण'मित्यादि तं समयमित्यत्र 'कालावनोाता वित्यधिकरणत्वेऽपि द्वितीया, ततोज्यमर्थः तस्मिन् समये यस्मिन् समये धनिष्ठानक्षत्र चन्द्रेण युक्तं यथोक्तशेष परिसमापयति तस्मिन् क्षणे इत्यर्थः, सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तः सन् तां प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, भगवानाह-'ता पुषाहिं'इत्यादि, ता इति तदा | पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां, पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वितारस्वात्तदपेक्षया द्विवचनं, द्विवचने च प्राप्ते प्राकृते बहुवचनं, तयोश्च पूर्वफाल्गुन्योस्तदानीमष्टाविंशतिर्मुहुर्ता अष्टात्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का द्वात्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव षट्पष्टिर्मुहुर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंप्रमाणो ध्रुवराशिर्धियते ६६।५ ।। धृत्वा च एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं | ॥१८६॥ तदेव भवतीति तावानेव जातः, ततस्तस्मात् पुष्यशोधनकं एकोनविंशतिर्मद्वा एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद्वाप|ष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयखिंशत्सप्तपष्टिभागाः १९ । ४३ । ३३ । इत्येवंप्रमाणे शोभ्यते, अर्थतावत्प्रमाणस्य [९८] ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: CACAR प्रत सूत्रांक [६७]] दीप अनुक्रम पुष्यशोधनकस्य कथमुस्पत्तिरिति, उच्यते, इह पूर्वयुगपरिसमाप्तिवेलायां पुष्यस्य प्रयोविंशतिः सप्तपष्टिभागाः परिसमाधाश्चत्वारिंशदवतिष्ठन्ति, ततस्ते चतुश्चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागा मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १५२०, तेषां सप्तपट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत् ४७, ते (च) द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वापल्या गुण्यन्ते, जातानि एकोनत्रिंशच्छतानि चतुर्दशोत्तराणि २९१४, तेषां सक्षषष्या भागो |हियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः३, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागार, एतद् ध्रुवराशेः शोध्यते, तद्यथा-पटूपटेर्मुहर्तेभ्यः एकोनविंशतिर्मुहर्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत्तेभ्य एको मुहतों गृह्यते । स्थिताः षट्चत्वारिंशद्, गृहीतस्य च मुहर्तस्य द्वापष्टिभागाः कृत्वा द्वापष्टिभागराशौ पश्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्वापटिभागाः सप्तषष्टिस्तेभ्यस्त्रिचत्वारिंशत् शोभ्यन्ते स्थिताः पश्चाच्चतुर्विशतिस्तेभ्यः एकरूपमुपादीयते जाता त्रयोविंशतिः गृहीतस्य च रूपस्य सप्तपष्टिभागाः क्रियन्ते कृत्वा च सप्तषष्टिभागेकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागास्तेभ्यस्त्रयस्त्रिंशत् शुद्धाः स्थिताः पश्चत्रिंशत् , ततः पञ्चदशमुहू रश्लेषा त्रिंशता च मुहूर्तर्मघा शुद्धा, स्थितः पश्चादेको मुहूर्त एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः । १।२३ ॥ ३५ ॥ तत आगतं-पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्याष्टाविंशती मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्याष्टात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभा गस्य द्वात्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, एते च सूर्यमुहूर्ताः, एवंभूतैश्च सूर्यमुहूप्रशिता त्रयोदश रात्रिन्दिवानि एकस्य च रानिन्दिवस्य द्वादश व्यावहारिका मुहूर्ता भवन्ति, तत एतदनुसारेण गते **50* [९८] 4-90055 ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], --------------- मूल [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [७] दीप कदिवसभागगणना पस्थितदिवसगणना च पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य स्वयं कर्तव्या, एवमुत्तरसूत्रेष्वपि सूर्यनक्षत्रयोगे परि- १० प्राभृते तिवृत्तिः तिभावनीयं । 'ता एएसि 'मित्यावि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्त-४२२प्राभूत (मल०) भराभ्यां प्रोष्ठपदाभ्यामत्रापि द्विवचनं उत्तरप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य द्वितारकत्वात् , बहुवचनं च सूत्रे प्राकृतत्वात् , तयोश्च प्रोष्ठ-10 प्राभृते पूर्णिमामा॥१८७॥ पदयोः सप्तविंशतिर्मुहूर्ताश्चतुर्दश च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सस्काश्च वास्याः लातुःषष्टिः चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। द्वितीयपौर्णमासीचिन्तायां द्वाभ्यां गुण्यते, सू६७ मुहूर्तानां जातं द्वात्रिंशतं पातं १३२, एकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागाः १० एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ २, ततः पूर्वरीत्या अभिजितो नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य |सत्काः षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः शोभ्यनो जातं द्वाविंशं शतं मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशताषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य वयः सप्तषष्टिभागाः १२२ । ४७ ॥ ३ ततत्रिंशता मुहूतैः श्रवणस्त्रिंशता धनिष्ठा पञ्चदशभिः शतभिषक् त्रिंशता पूर्वभभाद्रपदा शुद्धति स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूत्तोः शेषं तथैव १७॥ ४७।३। तत आगतं उत्तरभद्रपदानक्षत्रस्य सझवि शती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःषष्टी सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीया पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपैति, सम्प्रत्यस्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि, सुगर्म, ॥१८७॥ भगवामाह-'ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्तराभ्यां फाल्गुनीभ्यो, तयोश्च उत्तरयोः फाल्गुन्योस्तदानीं द्वितीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां सप्त मुहूर्तात्रयविंशश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च एक सप्तष SEX555 अनुक्रम [९८] ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१०], .............--- प्राभतप्राभूत [२२], ...........- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७]] दीप ष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का एकत्रिशर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिर्धियते ६।५।१ धृत्वा च द्वितीयस्याः पौर्णमास्याः सम्प्रति चिन्तेति द्वाभ्यां गुण्यते जातं द्वात्रिंशं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ १३२ । १०।२। तत एतस्मात् पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहत्तो, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः १९ । ४३ । ३३ । इत्येवंपरिमाणं पूर्वरीत्या शोध्यते, स्थितं पश्चाद् द्वादशोत्तरं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्चस्याष्टाविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः ११२ । २८ । ३६ । ततः पश्चदशभिर्मुहूत्तैरश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ताः सप्तत्रिंशपछेषं तथैव, तत आगतं सूर्येण युक्तमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्र सप्तसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयविंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु। द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति, अधुना तृतीयपौर्णमासीविषयं चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति-ता एएसि 'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह–'अस्सिणीहि इत्यादि, अश्विनीनक्षत्रं त्रितारमिति तदपेक्षया बहुवचनं, तदानीं 'च-तृतीयपोर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां अश्विनीनक्षत्रस्य एकविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य नव द्वापष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभार्ग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काविषष्टिवर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव धुवराशिः ६० ।५।१तृतीयपौर्णमासी| अचिन्त्यमाना वर्त्तत इति विभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शतं मुहर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५। ३तत 'उगुण8 पोट्टवया' इति वचनात् एकोनषष्ठ्यधिकेन मुह अनुक्रम [९८] ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ----------------- मूल [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: २२प्राभृत प्रत (मल) सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञसंशतेन चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि ना१०प्राभूते विवृत्तिः षट् नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टात्रिंशन्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टि | भागस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः ३८ । ५२॥ ४, ततत्रिंशता मुहूर्त रेवतीनक्षत्रं शुद्ध तिष्ठत्यष्टौ मुहूर्तास्तत आगतं चन्द्र॥१८॥ युक्तमश्विनीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तपष्टि- पूर्णिमामाभागेषु शेषेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव तृतीयस्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समपं च ण'मित्यादि लावास्याः सुगर्म, भगवानाह-ता चित्ताहि'इत्यादि, चित्रया युक्तः सूर्यः परिसमापयति, तदानीं च-तृतीय पौर्णमासीपरिसमा सू६७ तिवेलायो चित्रायामेको मुहर्स एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशतिषष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का त्रिंशत् चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६९।५।१। सम्पति तृतीयपौर्णमासी चिन्तितेति विभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिक शातं मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५ । ३ तत एतस्मात्पुष्यशोधनकं १९ । ४३ । ३३ । पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितं पश्चादष्टसप्तत्यधिकं मुहूर्तानां शतमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत्सप्तप-2 & ष्टिभागाः १७८ । ३३ । ३७ ॥ ततः पञ्चाशदधिकेन मुहर्तशतेनाश्लेषादीनि हस्तपर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, ॥१८॥ शेषास्तिष्ठन्ति अष्टाविंशतिर्मुहर्चाः शेषं तथैव २८ ॥ ३३ ॥ ३७॥ तत आगतं सूर्येण सह सम्पयुकं चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् । मुहूर्ते एकस्य च मुहूर्चस्याष्टाविंशती द्वापष्टिभागेम्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां पौर्ण-४ [९८] ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः मासीं परिसमापयति । सम्प्रति द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति 'ता एएसि ण'मित्यादि सुगमं, भगवानाह- 'ता उत्तराहिं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्तराभ्यामापादाभ्यां द्वादशी पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति, तदानी च तयोरुत्तरयोराषाढयोः पविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य षड्रविंशतिद्वषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिभा छित्त्वा तस्य सरकाश्चतुःपञ्चाशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-- स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । द्वादशी किल पौर्ण मासी चिन्त्यते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य षष्टिद्वष|ष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७९२ । ६० । १२ । तत एतस्मात् 'मूले सत्तेव बायाला' इत्यादिवचनात् सप्तभिश्च द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहर्त्तानां शतैरेकस्य व मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि ततत्रिंशता मुहूर्त्तेः पूर्वाषाढा, शेषं तिष्ठन्ति अष्टादश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः १८ । ३५ । १३ तत आगतं चन्द्रेण युक्तमुत्तराषाढा नक्षत्रं द्वादशीं पौर्णमासीं पविंशती मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहर्त्तस्य षडविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव द्वादश्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति - 'तं समयं च णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता पुणवसुणा' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, पुनर्वसुना युक्तः सूर्यः परिसमापयति, तदानीं च द्वादशीपौर्णमा सीपरिसमाधिवेलायां पुनर्वसु नक्षत्रस्य षोडश मुहर्त्ता अष्टौ च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छिश्वा तस्य सत्का विंशतिश्चूर्णिका भागाः Education International For Penal Use Only ~384~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: समर्श सिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक ॥१८९॥ [६७] शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ ॥ ५ ॥ १। द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि विनवत्यधिकानि मुहूर्ताना- १० प्राभृतेमेकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिर्ड्सषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७९२ । ६० । १२, तत पतमा-४२२प्राभूतस्पुष्यशोधनकं १९ । ४३ ॥३३ पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितानि पश्चात्सप्त शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च माभृते मुहर्तस्य पोडश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ७७३ । १५॥ ४६, ततः एतस्मा-IPINT पूर्णिमामासप्तभिः शनैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुह नामकस्य च मुहूर्सस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पध्या वास्याः सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीनि आर्द्रापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुर्तस्य। सू ६७ त्रिपश्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः २८ । ५३ । ४७ । तत आगतं पुन-12 सुनक्षत्रं सूर्येण सह योगमुपागतं पोडशसु मुहूर्वेषु शेषेषु एकस्य च मुहूर्तस्याष्टसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य। विशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयति, (साम्प्रतमस्यामेव द्वापष्टितमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्र योगं पृच्छति )-'ता एएसिप'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह-ता उत्तराहिं'इत्यादि, ता (इति प्राग्वत् ) उत्तराभ्यामाषा-12 X ढाभ्यां युक्तश्वगनश्चरमां द्वापष्टितमां पौर्णमासी परिणमयति, तदानी च-परमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलाया-1 मुत्तरयोराषाढयोश्वरमसमयः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः १६५।१ । चरमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी सम्मति चिन्त्यमाना ४ ॥१८॥ वत्तेते इति द्वापल्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुर्तव द्वापष्टिभागामा ४ात्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य चद्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः४०९२।३१०। ६२ तत एतस्माद्, 'अवसयाउगु दीप अनुक्रम [९८] ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७]] दीप अनुक्रम जाणवीसा सोहणणं उत्तराण साढाणं । चवीस खलु भागा छावडी चुणियाओ य॥१॥इत्येवंप्रमाणमेकं सकलनक्षत्रपर्यायशो धनकं पञ्चभिर्गुणयित्वा मोध्यते, तच्च पूर्वोकेन प्रकारेण शोध्यमान परिपूर्णी शुद्धिमासादयतीति न किश्चित्पश्चादवतिष्ठते, तत आगतं उत्तराषाढानक्षत्रं चन्द्रेण सह युक्तं चरमसमये चरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव द्वाषष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समयं चण'मित्यादि सुगमम्, भगवानाह-'ता पुस्सेण मित्यादि, पुष्येण युक्तः सूर्यश्वरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति, तदानीं च-द्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तियेलामामेकोनविंशतिर्महानिचत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाःशेषाः, तथाहिस एव ध्रुवराशिः६६५श द्वाषष्ट्या गुण्यते,जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टि भागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तपष्टिभागाः४०९२ । ३१ । १२ । इह पुष्यस्य हैदशमुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्विंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु पाश्चात्य युग परिसमाप्तिमुपैति, तदनन्तरमन्यत् युग प्रवर्तते, पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद्भः योऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्वातिक्रम एतावत्प्रमाणः एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायः, तस्य च प्रमाणमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तषष्टिभागाः 1८१९ । २४ । १५।' तत एतत्पञ्चभिर्गुणयित्वा प्रागुक्तात् ध्रुवराशेषिष्टिगुणितात् शोध्यते, तथ परिपूर्ण शुद्ध्यति, पश्चाच्च राशिनिपो जायते, तत आगतं पुष्यस्य सूर्येण युक्तस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागे [९८] ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ----------------- मूल [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [६७]] सू६८ दीप सूर्यप्रज्ञ-8वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु एकोनविंशतौ च मुहूत्रेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिच- १.प्राभृते सिवृत्तिःलावारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चरमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी परि- २२प्राभृत(मल०) समाप्तिमगमदिति । तदेवं पौर्णमासीविषयश्चन्द्रनक्षत्रयोगः सूर्यनक्षत्रयोगश्चोक्तः, सम्प्रत्यमावास्याविषयं सूर्यनक्षत्रयोग। प्राभृते ॥१९॥ चन्द्रनक्षत्रयोगं च प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः प्रथमामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह अमावास्या एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति?,ता अस्सेसाहि, अस्सेसाणे एके || नक्षत्राणि मुलुत्ते चत्तालीसं च यावद्विभागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता बावडिंचुणिया सेसा, तं समय चणं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति,ता अस्सेसाहिं चेव,अस्सेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसं च वावहिभागामुहुत्तस्स बावट्ठिभागं सत्तद्विधा छेत्ता बावट्टि चुणिया भागा सेसा, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं अमावासंडू चंदे केणं णक्खतेणं जोएति?, ता उत्सराहिं फग्गुणीहिं, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहत्ता पणतीसंबावटि. |भागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पषणट्टि चुपिणयाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खातेणं जोएति?, ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं जहेव चंदुस्साता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं अमावासं चंदे केणं नकखत्तेणं जोएति, ता हत्थेणं, हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तीसं च पावविभागा मुहत्तस्स। ॥१९॥ पावहिभागंच सत्तद्विधा छेत्ता वावढि चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता हत्थेणं चेव, हत्थस्स जहा चंदस्स, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्ख अनुक्रम SABA [९८] ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] 556456-15515 दीप तेणं जोएति ?, अदाहि, अहाणं चत्तारि मुहत्ता दस य बावविभागा मुहुत्तस्स वाचटिं च सत्तविया ऐसा चपण्णं चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएति ?, ता अबाहिं चेव, अदाणं जहा चंदस्स । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावढि अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेण जोएति ?, ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स बावीसं मुहुत्ता पायालीसं च बासहिभागा मुहत्तस्स सेसा । तं समय चणं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता पुणधसुणा चेब, पुणवसुस्स ां जहा चंदस्स (सूत्रं १८)॥ 'ता एएसि ण'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह–ता असिलेसाहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , अश्लेषाभिः सह युक्तश्चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति, अश्लेषानक्षत्रस्य पट्तारत्वात्तदपेक्षया बहुवचनं, तदानीं च-प्रथमामावास्यापरिसमाप्तिवेलायामश्लेषानक्षत्रस्य एको मुहूर्तश्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च सक्षषष्टिधा छित्त्वा षट्षष्टिश्यूणिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। प्रथमामावास्या किल सम्प्रति चिन्स्यमाना वर्त्तते इत्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति सावानेव जातः, तत एतस्मात् "बावीसं च मुहुत्ता छायालीसं बिसटिभागा य । एयं पुणषसुस्स य सोहेयवं हवह पुण्णं ॥१॥" इति वचनात् द्वाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं पुनर्वसुशोधनकै शोध्यते, तत्र षषष्टेर्मुहूर्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुहर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत् ४४, तेभ्य एकमुहूर्तमपेक्ष्य तस्य द्वापष्टिभागाः कृताः, ते द्वापष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः | सप्तषष्टिः, तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्ति एकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहर्तेभ्यस्त्रिंशता पुष्यः शुद्धः, अनुक्रम [९९] ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- ------- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत प्राभृते सूत्रांक [६८] दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ- स्थिताः पश्चाप्रयोदश मुहूर्ता, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहर्तप्रमाणं, तत इदमागत-अश्लेषानक्षत्रस्व एक- १० प्राभृते ठिवृत्तिःस्मिन् मुहूर्ते चत्वारिंशप्ति मुहर्तस्य द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिन्नस्य पट्पष्टिभागेषु शेषेषु प्रच-15/२२ प्राभृत(मलामामावास्या समाप्तिमुपगच्छति । सम्म त्यस्यामेव प्रथमायाममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति-'सं समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह–ता असिलेसाहिं चेवेत्यादि, इह य एवास्याममावास्यायां चन्द्रनक्षत्रयोगे ध्रुवराशियदेच शोध अमावास्या॥१९॥ नक स एव सूर्यनक्षत्रयोगविषयेऽपि ध्रुवराशिस्तदेव च शोधनकमिति तदेव सूर्यनक्षत्रयोगेऽपि नक्षत्रं तावदेव च'तख नक्षत्राणि सू६८ नक्षत्रस्य शेषमिति, तदेवाह-अश्लेषाभिर्युक्तः सूर्यः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति, तस्यां च परिसमाप्तियेलायामश्लेषाणा-IX मेको मुहर्त एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः शेषाः। द्विती यामावास्याधिषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि सुगम, भगवानाह-'ता उत्तराहिं'इत्यादि, उत्तराभ्यां । जाफाल्गुनीभ्यां युक्तः चन्द्रो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च-अमावास्यापरिसमाप्तिवेलायामुत्तरायाः फाल्गु-15 न्याश्चत्वारिंशन्मुहत्तोंः पञ्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागाः मुहर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तपटिया छित्त्वा तख सत्काः पचपष्टिकार्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।।द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्वात्रिंशदधिक मुहूत्तोंनो शत एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा दश एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिमस्य द्वौ चूर्णिकाभागी । १३२ । १०.२४ सत्र प्रथम पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, द्वात्रिंशदधिकमहर्जशतात् द्वाविंशतिर्मुहर्ताः शुद्धाः स्थितं पश्चादशोत्तर शतं, तेभ्योऽध्येको मुहतों गृहीत्वा द्वापष्टिभागीक्रियते, कृत्वा च ते द्वापष्टिभागा द्वाषष्टिभागराशी प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्विसप्तत्ति [९९] मा॥१९॥ ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ----------------- मूल [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] दीप मषिष्टिभागास्तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः स्थिताः पश्चात् षविंशतिः, नवोत्तराच्च मुहूर्सशतात् त्रिंशता पुण्यः शुद्धः, स्थिताः हपश्चादेकोनाशीतिः, ततोऽपि पश्चदशभिर्मुहूतैरश्लेषा शुद्धा, स्थित पश्चाच्चतुःषष्टिः, ततोऽपि विंशता मघाः शुद्धा, स्थिता चतुस्त्रिंशत्, ततोऽपि त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चात् चत्वारः, उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं व्यर्द्धक्षेत्रमिति पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तप्रमाणं, तत इदमागत-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चन्द्रयोगमुपागतस्य चत्वारिंशति मुहूर्तेचेकस्य च मुहूतस्य पश्चत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिन्नस्य पञ्चपष्टौ चूर्णिकाभागेषु शेषेषु द्वितीयामावास्या समाप्तिं याति । सम्प्रति अत्यामेव द्वितीयस्थाममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति-ते समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , उत्सराभ्यामेव फाल्गुनीभ्यां युक्तः सूर्यों द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति, तदानी -द्वितीयामावास्यापरिसमाप्तिवेलायामुत्तरायाः फाल्गुन्याः 'तहेव जहा चंदस्स'त्ति यथा चन्द्रस्य विषये उक्तं तथैवात्रापि विपये वक्कम, तद्यथा-'चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावहिभागा मुहुसस्स पावहिभागं च सत्तविहा छित्ता पण्णवि चुण्णिाभागा सेसा' इति, एतचोभयोरपि चन्द्रसूर्ययोर्नक्षत्रयोःपरिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वादवसेयम् । ४ तृतीयामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह-ता एएसि णमित्यादि, सुगम, भगवामाह-ता इत्येण इत्यादि, हस्तेन युक्तश्चन्द्रस्तृतीयामावास्यां परिसमापयति, तदानी हस्तस्य चत्वारो मुहूर्ताविंशच द्वापष्टिभागा मुर्तस्य द्वापष्टिभाग चैक सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सस्काश्चतुःषष्टिश्चर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः१५।५।१/तृतीयस्था अमावास्यायाः सम्प्रति चिन्तेति त्रिभिर्गुप्यते, जातमष्टानवत्यधिक शतं मुहर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य पश्चदश द्वापष्टि अनुक्रम [९९] ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], --------------- मूल [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यमन प्रत सूत्रांक [६८] भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५१३ तत एतस्माद् द्विसप्तत्यधिकेन मुहूर्तशतेन षट्च-४१.प्राभृते प्तिवृत्तिः त्वारिंशता च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागैरश्लेषादीनि उत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते पश्चर्षिश-1, २२माभूत(मल० तिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः २५ ॥ ३१॥३॥ तत आगतं हस्तनक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगमुपागतस्य चतुर्घ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेश्वेकस्य चराभमावास्या ॥१९॥ द्वाषष्ट्रिभागस्य चतुःषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । अत्रैव सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रमाह-तं नक्षत्राणि समयं च ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-ता हत्थेणं चेव'त्ति हस्तेनैव नक्षत्रेण युक्तः सूर्योऽप्यमावास्यां तृतीयां सू६० परिसमापयति, एतच्चोभयोरपि करणस्य समानार्थत्वादवसेयं, एवमुत्तरसूत्रयोरपि द्रष्टव्यं, शेषपाठविषयेऽतिदेशमाहहै हत्थस्स जं चेव चंदस्स' यथा चन्द्रस्य विषये हस्तस्य शेष उक्तः तथा सूर्यस्यापि विषये वक्तव्यः, स चैवम्-'हत्थस्स चत्वारि मुहुत्ता तीसं चेव चावद्विभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तहिहा छित्ता बावट्ठी चुणिया भागा सेसा' इति, सम्प्रति द्वादशामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह-ता एएसि ॥'मित्यादि सुगम, भगवानाह–ता अहाहि'इत्यादि, आर्द्रया युक्तश्चन्द्रो द्वादशीममावास्यां परिसमापयति, तदानीं चायाश्चत्वारो मुहूर्ता दश मुहर्तस्य द्वापष्टिभागा द्वापष्टिभार्ग च सप्तपष्टिधा छित्त्वा चतुपश्चाशर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशि:-६५।५।१। द्वाद M ॥१९२॥ श्यमावास्या चिन्त्यमाना वर्तते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुह नामेकस्य च मुह-1 हास्य पष्टिपिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ७९२ । ६०।१२। एतस्माच्चतुर्भिः शतैः ॐॐ दीप अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐ455 [९९] ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] दीप तिचत्वारिंशदधिकद्विर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यम्तानि नामणि शखानि स्थितानि पश्चात्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्दश द्वापष्टिभागा एकस्यचिद्वापछि भागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ३५०।१४।१२ ततखिभिः शतेनेवोत्तरहर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभा-1 गैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्थ षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाचत्वारिंशन्मुहर्चा एकस्य च मुहूत्स्य एकपञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ४० । ५९ ॥ १३॥ तकखिंशता मुहूतैर्मृगशिरः शुद्धः, स्थिताः पश्चाद्दश मुहर्ताः, शेषं तथैव १०। ५१११३ । तत आगतं आनक्षत्रस्य चन्द्रेण | सह संयुक्तस्य चतुएं मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पश्चाशति सप्तपछिमागेष्ठ ४।१०।५४ । शेषेषु द्वादशी अमावास्या परिसमाप्तिमियर्ति, सम्प्रति सूर्यविषये प्रक्षमाह-तं समयं चाण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-ता अहाए चेव' आर्द्रयैव युक्ता सूर्योऽपि द्वादशीममावास्यां परिसमापयति, शेषपाठविषयेऽतिदेशमाह-अदाए जहा चन्दस्स' यथा चन्द्रविषये आोयाः शेष उक्तस्तथा सूर्यविषयेऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'अहाए चतारि मुहत्ता दस य वावडिभागा मुहत्तस्स बावद्विभागं च सत्तविहा छेत्ता चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा' इति । परमद्वाषष्टितमामावास्याविषयं प्रश्नमाह-ता एएसि 'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता पुणवसुणा'इत्यादितार इति पूर्ववत्, पुनर्वसुना युक्तश्चन्द्रश्चरमा द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च-चरमद्वाषष्टितमामावास्थापरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वाविंशतिर्मुहर्ताः षट्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य शेषाः, तथाहि-सा एकला अनुक्रम [९९] ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- ------- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] दीप सूर्यप्रज्ञ-18 ध्रुवराशिः ६६।५।१। द्वाषट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुहर्चस्य १. प्राभृते द्विापष्टिभागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तपष्टिभागाः ४०९२ । ३१० । १२२२प्राभृत(मल) तत एतस्मात् चतुर्भिः शतैर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः प्रथम शोधनका प्राभृते ॥१९॥ शुद्ध, जातानि षटत्रिंशच्छतानि पश्चाशदधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य दे पाते चतुःषष्ठयधिके द्वाषष्टिभागानामेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वापष्टिः सप्तपष्टिभागाः ३६५० । २६४ । ६२ । ततोऽभिजिदाद्युत्तराषाढापर्यन्तसकलनक्षत्रप-12 नक्षत्राणि सू६८ यविषयं शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिर्दापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ । २४ । ६६ । इत्येवंप्रमाणं चतुर्भिर्गुणयित्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चा-12 त्रीणि शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुःषश्यधिक चातं द्वापष्टिभागानामेकस्य च द्वापष्टि-14 भाभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा: ३७४ । १६४ । ६६ । ततो भूयस्त्रिभिः शतैर्मुद्वानां नवोत्तरैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतु-1* विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य द्वाषष्टिभागस्य च षट्पट्या सप्तषष्टिभागैः ३०९।२४ । ६६ । अभिजिदादीनि रोहिणी-2 पर्यन्ताति शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तषष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः ६७ । १६ । ततत्रिंशता मुहूत्तैर्मृगशिरः पञ्चदशभिराी शुद्धा, स्थिताः शेषा द्वाविंशतिर्मुहुर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य षोडश द्वापष्टिभागाः २२, १९३॥ तत आगत चंद्रेण सह संयुक्तं पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पटूचरवारिंशति द्वापष्टिभागेषु शेषेषु । ट्रचरमा द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, सूर्यविषयं प्रश्नमाह-तं. समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह अनुक्रम [९९] GI For P OW ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------- -------- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] 'ता पुणवसुणा चेव' सूर्योऽपि पुनर्वसुना चैव सह योगमुपागतः चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिणमयति, शेषविषये-४ ऽतिदेशमाह-पुणवसुस्स ' यथा चन्द्रस्य विषये पुनर्वसोः शेष उक्त तथा सूर्यस्यापि विषये वक्तव्यः, स चैवम्|'पुणवसुस्स बावीसं मुहुत्ता छायालीसं च बावहिभागा मुहत्तस्स सेसा' इति । ता जेणं अज्ज णक्खतेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णे इमाणि अट्ठ एकूणवीसाणि मुहुत्तसताई चउबीसं च वावट्ठिभागे मुटुत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता बावहि धुपिणयाभागे उवायिणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेवणक्खत्तेणं जोयंजोएति अण्णंसि देसंसि, ताजेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं इमाई सोलस अट्टतीसे मुहुत्तसताई अउणापण्णं च बावट्ठिभागे मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पण्णढि चुण्णियामागे उवायिणावेत्ता पुणरवि से णं चंदे तेणं चेव णक्खतेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि, ता जेणं अजणक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं इमाई चउप्पण्णमुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसताई उवादिणावित्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएणं जोयंजोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अज्जणक्खत्तेणं चंदे जोयंजोएति जंसिरदेसंसि (सेणं इमाई एग लक्खं नव य सहस्से अह य मुहुत्तसए उचायिणावित्ता पुणरवि से चंदे तेण णक्खत्तेणं जोयं जोएइ तसि देसंसि )।ता जेणं अजणक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएति जसिं देसंसि से ण इमाई तिणि छावट्ठाईराईदियसताई उवादिणावेत्ता पुणरवि से सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चेव नक्खत्तेण जोयं जोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अज्जनक्खत्तेणं ॐ5554 दीप अनुक्रम [९९] 15456565459 ~ 394~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: O सूर्यप्रज्ञ- प्रत सूत्राक (मल) ॥१९४॥ [६९] दीप अनुक्रम [१००] सूरे जोयं जोएति तंसि देसंसि से णं इमाई सत्तदुबीसं राइंदियसताई उवाहणावेत्ता पुणरवि से सूरे तेणं १० प्राभृते चेव नक्वत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अज्जणक्खसेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि से २२ फ्राभूतइमाई अट्ठारस पीसाईराइंदियसताई उवादिणावेत्ता पुणरवि सूरे अण्णेणं चेव णक्खसेणं जोयं जोएति प्राभृते तंसि देसंसि, ता जेणं अजाणक्खसेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि तेण इमाई छत्तीसं सट्टाई राइंदियस- ताहगन्ययाई उवाइणाविप्ता पुणरवि से सूरे तेणं चेच णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि (सूत्रं ६९) नक्षत्रयोगः । सम्पति वनक्षत्रं तादृशनामकं तदेव वा तस्मिन्नेव देशेऽन्यस्मिन् वा यावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह योगमुपाग-1 च्छति तावन्तं कालं निर्दिदिक्षुराहता जेणं अज्ज नक्खत्तेणं' इत्यादि, ता.इति पूर्ववत्, येन नक्षत्रेण सह पन्द्रोउद्य-विवक्षिते दिने योग युनति-करोति यस्मिन् देशे स चन्द्रोणमिति वाक्यालकारे इमानि-वक्ष्यमाणसालाकानि तान्येवाह-अष्टी मुशतानि एकोनर्विशानि-एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वापष्टिभागान् एकस्य |च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिं सप्तपष्टिभागानुपादाय-गृहीत्वा अतिक्रम्येत्यर्थः पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन द्वितीयेन सहशनाना नक्षत्रेण योग युनक्ति अन्यस्मिन् देशे, इयमत्र भावना-इह चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां मध्ये नक्षत्राणि सर्वशीमाणि तेभ्यो ४ मन्दगतयः सूर्यास्तेभ्योऽपि मन्दगतयश्चन्द्रमसः, एतच्चाने स्वयमेव प्रपञ्चयिष्यति, पट्पञ्चाशनक्षत्राणि प्रतिनियतापा- १९४॥ न्तरालदेशानि चकवालमण्डलतया व्यवखितानि सदैव एकरूपतया परिश्रमन्ति, तत्र किल युगस्यादावभिजिता नक्षत्रेण सह योगमधिगच्छति पन्द्रमाः, स च योगमुपागतः सन्ः शनैः शनैः पश्चादववष्कते तस्य नक्षत्रेभ्योऽतीच मन्द-14 ~395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], --------------------- मूल [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: SAN प्रत सूत्रांक [६९] दीप अनुक्रम [१००] गतित्वात् , ततो नवानो मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतेषिष्टिभागानामेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पो ससा टिभागानामतिक्रमे पुरतः श्रवणेन सह योगमायाति, ततस्ततोऽपि शनैः शनैः पश्चादवष्वष्कमानविंशता मुइसे अब णेन सह योग समाप्य पुरतो धनिष्ठया संह योगमुपगच्छति, एवं स्वं खं कालमाचक्ष्य सर्वैरपि नक्षत्रैः सह योगस्ताच वक्तव्यो यावदुत्तराषाढानक्षत्रयोगपर्यन्ता, एतावता च कालेनाष्टौ मुहूर्तशतानि एकस्य च मुहर्चस्य चतुर्विंशति षष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा अभवन् , तथाहि-धतू नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशम्मुहूर्तानीति षट् पश्चचत्वारिंशता गुण्यंते, जाते द्वे शते सप्तत्यधिके २७०, षट् च नक्षत्राणि पश्चदशमहानीति भूयः पण्णां पदशभिर्गुणने जाता नवतिः ९०, पश्चदश त्रिंशन्मुहूर्तानीति पञ्चदश त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पक्षाशदधिकानि ४५०, अभिजितो नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिर्दोषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पक्षष्टिः । सप्तपष्टिभागा इति भवति सर्वेषामेका मीलने यथोक्ता मुहूर्तसमा, एष एतावान् नक्षत्रमासा, ततस्तदनन्तरं यदभिजिनक्षत्र अतिक्रान्तं तदपरेण द्वितीयेनाभिजिता नक्षत्रेण सह नव मुहूर्तादिकालं योगमुपागच्छति, ततः परमपरेण द्विती-14 याष्टाविंशतिसम्बन्धिना श्रवणेन सह योगमश्नुते, एवं पूर्ववत् तावद्वायं यावदुत्तराषाढा, तदनन्तरं भूयः प्रथमेनैवाभिजिता नक्षत्रेण सह योग याति, ततः प्रागुक्तक्रमेण श्रवणादिभिः, एवं सकल कालमपि, ततो विवक्षिते दिने यस्मिन् देशे येन नक्षत्रेण सह योगमममञ्चन्द्रमाः स यथोक्कमुहूर्चमझातिक्रमे भूयः तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन देशे योगमादत्ते न तेनैव नापि तस्मिन् देशे इति, तथा 'ता जेण'मित्यादि, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह *58 KARA ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [६९] दीप अनुक्रम [१००] सूर्यप्रज्ञ योग युनक्ति यस्मिन् यस्मिन् देशे चन्द्रमाः स इमानि वक्ष्यमाणसङ्ख्याकानि, तान्येवाह-पोडश मुहूर्तशतानि अष्टाविं-12 प्राभूतेहिवृत्तिः शिदधिकानि एकोनपश्चाशतं द्वापष्टिभागान् मुहूर्तस्य एक च द्वापष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कान् पश्चषष्टिं ४२२ प्राभृत(मल.) चूर्णिकाभागानुपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रस्तेनैव नक्षत्रेण सह योग युनक्ति, परमन्यस्मिन् देशे, न तु तस्मिन्नेव, प्राभृते कुत इति चेत्, उच्यते, इह भूयस्तस्मिन्नेव देशे तेनैव नक्षत्रेण सह योगो युगद्वयकालातिक्रमे यथा(थेः)केवलवेदसा ज्यो- 1 ताहगन्य॥१९५॥ प्रतिश्चक्रगतरुपलब्धः, जम्बूद्वीपे च पट्पश्चाशदेव नक्षत्राणि, ततो विवक्षितनक्षत्रयोगे सति तत आरभ्य षट्पश्चाशनक्षत्रा-1 नक्षत्रयोगः तिक्रमे तेन नक्षत्रेण सह योगमादत्ते, षट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमश्च प्रागुक्ताष्टाविंशतिनक्षत्रमुहूर्तसङ्ग्याद्विगुणसमया, तत उक्त-'सोलस अहतीस मुहत्ससा' इत्यादि । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे यावता कालेन भूयोऽपि योग उपजायते तावान् कालविशेष उक्तः, सम्प्रति तस्मिन्नेव देशे तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह भूयोऽपि ४॥ योगो यावता कालेन भवति तावन्तं कालविशेषमाह-'ता जेणं अन्न नक्खतेणं इत्यादि, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्ष त्रेण सह योगं चन्द्रो युनकि यस्मिन् देशे सः-चन्द्रमा इमानि वक्ष्यमाणसङ्ख्याकानि तान्येवाह-चतुष्पश्चाशन्मुहूर्तसहस्राणि मानव मुहत्तेशतान्युपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण सह योग युनक्ति तस्मिन्नेव देश, श्यमत्र भावना-विवक्षिते युगे विवक्षितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रमसो योगो जातो ॥१९५| भूयस्तस्मिन्नेव देशे तदैव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे, न तु द्वितीये; कुत इति चेत्, उच्यते, इह युगादित आरभ्य प्रथमे नक्षत्रमासे यान्येकान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि समतिकामति द्वितीयेन नक्षत्रमासेन *5695%25% ~397~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९] तेभ्योऽपराणि द्वितीयानि ततो भूयस्तृतीयेन नक्षत्रमासेन तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि चतुर्थेन भूयस्तान्येव दाद्वितीयानि एवं सकलकालं, युगे च नक्षत्रमासाः सप्तपष्टिः, सा च सप्तषष्टिसया विषमेति विवक्षितयुगपरिसमाप्तावन्यस्य युगस्य प्रारम्भे यानि विवक्षितयुगस्यादौ भुक्तानि नक्षत्राणि तेभ्योऽपराण्येव द्वितीयानि भोगमायान्ति, न तु तान्येव, युगद्वये च चतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतं भवति, सा च चतुर्विंशन्नक्षत्रमासशतसङ्ग्या समेति द्वितीययुगपरिसमाप्तौ पट्-४ पञ्चाशदपि नक्षत्राणि समाप्तिमुपयान्ति, ततो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव देशे तदा चन्द्रमसो योगः, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि एकैकस्मिंश्चाहोरात्रे मुह सिंशत्ततोऽष्टादशानां शतानां त्रिंशदधिकानां त्रिंशता गुणने भवति यथोक्ता मुहूर्त्तसङ्ख्या, यथोक्तमुहूर्तसङ्ख्यातिक्रमे च तादृशेनैव नक्षत्रेण सह योगः सचन्द्रमसस्तस्मिन्नेव देशे न तु तेन नक्षत्रेणान्यस्मिन् वा देशे इति, 'ता जेण'मित्यादि, इदं सूत्रमक्षरार्थमधिकृत्य सुगम, भावना तु प्रागेव कृता, नवरं युगद्वयकालः पत्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि अहोरात्राप्यामेकैकस्मिंश्चाहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता इति षट्त्रिंशच्छतानां पश्यधिकानां त्रिंशता गुणने यथोक्ता मुहूर्त्तसङ्ख्या भवति । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सहा न्यस्मिन् तस्मिन् [अन्यस्मिन् वा देशे चन्द्रमसो योगकालप्रमाणमुक्तम् , सम्प्रति सूर्यविषये तदाह-ता जेण'मित्यादि, Aता इति पूर्ववत् अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति स इमानि त्रीणि पट्पश्याधिकानि | राविन्दिवशतानि उपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे ताहशेनैवान्येन नक्षत्रेण योगं युनक्ति न तु तेनैव, कुत इति चेत्, उच्यते, इह चन्द्रो नक्षत्रमासेनैकेनाष्टाविंशतिं नक्षत्राणि भुङ्क्ते, सूर्यस्तु त्रिभिरहोरात्रशतैः षट्षध्यधिकः, 3555555575% दीप अनुक्रम [१००] ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ----------------- मूल [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [६९]] सू६९ दीप अनुक्रम [१००] सूर्यप्रज्ञ-त्रिीणि चाहोरात्रशतानि षट्पट्यधिकानि एकः सूर्यसंवत्सरः, ततोऽन्यस्त्रिभिरहोरात्रशतैः षषष्ट्यधिकैरन्यानि द्वितीया-१० प्राभूते तिवृत्तिः लान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि परिभुते, तदनन्तरं भूयस्तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि तावत्याहोरावसजाया क्रमेण २२प्राभृत(मल०) युनक्ति, ततः षट्षष्ट्यधिकरानिन्दिवशतत्रयातिक्रमेण सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह योगो न तु प्राभृते ॥१९६॥ तेनैव, 'ता जेण'मित्यादि, इदं सूत्रमक्षरार्धं प्रतीत्य सुगर्म, भावना तु प्रागेव कृता, ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति स इमानि अष्टादश रात्रिन्दिवशतानि त्रिंशतानि नक्षत्रयोगः त्रिंशदधिकानि उपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि तस्मिन्नेव देशेऽन्येनैव तादृशेन सह योगं युनक्ति, न तु तेनैव, कस्मादिति । चेत्, उच्यते, इह रात्रिन्दियानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि युगे भवन्ति, तत्र सूर्यो विवक्षितादिनादारभ्य तस्मिनेव देशे तदैव दिने तेनैव नक्षत्रेण सह योगमागच्छति तृतीयसंवत्सरे, युगे च सूर्यवर्षाणि पञ्च, ततस्तृतीये पश्चमे चा सूर्यसंवत्सरे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव काले योगमादत्ते न तु युगातिकमे षष्ठे वर्षे इति, 'ता जेण'मित्यादि, सुगम, नवरं पत्रिंशद्रात्रिन्दिवशतानि पश्यधिकानि युगद्वये भवन्ति, युगद्वये च दश सूर्यनक्षत्राणि (प्रथा ६०००), ततो युगद्वयातिकमे एकादशे वर्षे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिन्नेव देशे योग उत्पद्यते इति । इह जम्बूलीपे ही। चन्द्रमसी द्वौ सूर्यो, एकैकस्य चन्द्रमसो भिन्नो ग्रहादिकः परिवार इति श्रुत्वा कश्चिदेवमपि मन्येत यथा भिन्नकाल मण्ड-2 ला॥१९६॥ लेषु चन्द्रादीनां गतिभिन्नकालं च तेषां नक्षत्रादिभिः सह योग इति, सतस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह ता जया णं इमे चंदे. गतिसमावण्णए भवति तताणं इतरेवि चंदे गतिसमाषपणए भवति, जताणे इतरेवि. ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], --------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७०] चंदे गतिसमावण्णए भवति तता गं इमेवि चंदे गतिसमावण्णए भवति, ता जया णं इमे सूरिए गइसमावपणे भवति तया णं इतरे सूरिए गइसमावण्णे भवति जता णं इतरे सूरिए गतिसमावण्णे भवति तया गं इमेवि सूरिए गइसमावण्णे भवति, एवं गहेवि णक्खत्तेवि, ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति तता लणं इतरेवि चंदे जुत्ते जोगेणं भवति, जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोगेणं भवह तताणं इमेवि चंदे जुत्ते जोगे गं भवति, एवं सूरेवि गहेवि णक्खत्तेवि, सताविणं चंदा जुत्ता जोएहिं सतावि णं सूरा जुत्ता जोगेहिं सयावि णं गहा जुत्ता जोगेहिं सयाविणं नक्खत्ता जुसा जोगेहिं दुहतोवि णं चंदा जुत्ता जोगेहिं दुहतोदि णं सूरामा जुत्ता जोगेहिं दुहतोवि णं गहा जुत्ता जोगेहिं दुहतोवि णं णक्खत्ता जुत्ता जोगेहिं । मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउताए सतेहिं छेत्ता इस णवखत्ते खेत्तपरिभागे णक्खत्तविजए पाहुति आहितेत्तियेमि (सूत्र ७०) दसमस्स पाहुडस्स बावीसतिमं पाहुडपाहुई समत्तं ॥ दसमं च पाहुढं समत्तं ।।। 'ता जया 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यस्मिन् कालेऽयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो भरतक्षेत्र प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रो विवक्षिते मण्डले इति गम्यते गतिसमापनो-तियुक्तो भवति तदा-तस्मिन् काले इतरोऽपि-ऐरावतक्षेत्र प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रः तस्मिन्नेव विवक्षिते मंडले गतिसमापन्नो भवति, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं 'एवं गहेवि एवं नक्षत्रोषिसि एवं-उक्तप्रकारेण ग्रहेऽपि द्वावालापको वक्तव्यौ नक्षत्रेऽपि च, तद्यथा-'जया र्ण इमे गहे गहसमावन्ने हवा तयाणे इतरेवि गहे गइसमावन्ने भवइ, ताजयाणं इयरे गहे गइसमावस्ने भवइ तयाणं इमेवि गहे गतिसमावण्णे RSE दीप SHERSXSESIYAR अनुक्रम [१०१] ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [७०] सू७० दीप सूर्यमज भवई' एवं नक्षत्रेऽपि वाच्यं,'ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेण मित्यादि, सुगम, नवरं 'दुहतोवित्ति उभयतोऽपि दक्षिणो- १० प्राभृते तिवृत्तिः त्तरयोः पूर्वपश्चिमयो, 'मण्डलं सयसहस्सेण'मित्यादि, अस्मिन्नक्षत्रविचये-नक्षत्रविचयनाम्नि द्वाविंशतितमे प्राभृतप्राभृते २२ प्राभूत(मल.) इत्येष नक्षत्रक्षेत्रपरिभाग आख्यातो मण्डलं स्वेन स्वेन कालेन षट्पञ्चाशता नक्षत्रैर्यावन्मानं क्षेत्र व्याप्यमानं सम्भाव्यते ताव- प्राभृते न्मानं बुद्धिपरिकल्पितं शतसहस्रेण-लक्षेण अष्टनवत्या च शतैश्छित्वा-विभज्य ब्याख्यातः,एतच्च प्रागेव भावित, इति मि- चन्दादे: ॥१९७॥ त्ति' इति-एतत् अनन्तरोक्कं भगवदुपदेशेन वीमीति अन्धकारवचनमेतत् , यद्वा भगवद्वचनमिदं शिष्याणां प्रत्ययदायो-13 सर्वत्र समयोगिता लात्पादनार्थ यथा इति-एतत् अनन्तरोतमहं ब्रवीमीति, ततः सर्वं सत्यमिति प्रत्येतव्यमिति । . इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- २२ समाप्त तवमुकं दशर्म प्राभूत साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमथाधिकारी यथा 'संवत्सराणामादिवक्तव्य ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते संवच्छराणादी आहितेति वदेवा, तस्थ खलु इमे पंच संवच्छरे पं०२०-चंदे २ अभिवहिते चंदे अभिवहिते, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवकछरस्स के आदी आहितेति वदेजा, ता जेणं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पज्जवसाणं सेणं पढमस्स चंदस्स संबच्छरस्स आदी अर्णतरपुरक्खडे ॥१९॥ समए तीसेणं किंपज्जवसिते आहितेति वदेजा,ताजेणं दोचस्स आदी चंदसंवच्छरस्स सेणं पढमस्स चंदसंव अनुक्रम [१०१] *5*35*555** | अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २२ परिसमाप्तं तत्समाप्ते दशमं प्राभृतं अपि परिसमाप्तं • अथ एकादशं प्राभतं आरभ्यते । ~401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-, -------------------- मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 4% सूत्राक [७१] % दीप अनुक्रम [१०२] मच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खसेणं जोएति, ता उत्तराहि आसादाहि, उत्तराणं आसादाणं छदुवीसं मुहुत्ता छदुवीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स सोलस मुहत्ता अह य बावहिभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता वीसं चुणियाभागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंबच्छरस्स के आदी आहितेति वदेजा, ता जेणं पढमस्स चंदसंबच्छरस्स पञ्जवसाणे से णं दोचस्स णं चंदसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपज्जवसिते आहितेति बदेजा , ता जे णं तच्चस्स अभिवडियसंवच्छरस्स आदी से णं दोचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुचाहिं आसाढाहिं, पुवाणं आसाहाणं सत्त मुहुत्ता तेवणं च बावडिभागा मुहत्तस्स बावडिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीसं चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणअवसुस्स णं यायालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सत्त४ चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संचच्छराणं तच्चस्स अभिवहितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा, ता जे णं दोचस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं तच्चस्स अभिवहितसंबच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समए, ता से णं किंपज्जवसिते आहितति वदेज्जा ?, ता जे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी ॐॐ ॐॐ ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [७१] दीप अनुक्रम [१०२] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [११], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥१९८॥ ४ से णं तचस्स अभिवह्नितसंवच्छरस्स पजवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खसेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं तेरस मुहुत्ता तेरस य बावट्टिभागा मुद्दतस्स बावद्विभागं च सत्तद्विषा छेत्ता सत्तावीस चुष्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खन्तेणं जो एति ?, ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स दो मुहुत्ता छप्पण्णं बावट्टिभागा मुहुत्तस्स बाबट्टिभागं च सत्तद्विधा ऐसा सही चुण्णिया भागा सेसा, ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं उत्थस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी आहितेति वदेखा ?, ता जेणं तचस्स अभिवह्नितसंवच्छरस्स पज्जबसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी अनंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपजवसिते आहितेति वदेजा ?, ता जेणं चरिमस्स अभिवह्निय संवच्छरस्स आदी से णं चत्थस्स चंदसंबच्छररस पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खलेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चत्तालीसं मुहुत्ता चत्तालीसं च वासट्टिभागा मुहुत्तस्स वावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउसट्टी चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खते जोएति ?, ता पुणवसुणा, पुणबसुस्स अउणतीस मुहुत्ता एकवीस बाबद्विभागा मुत्तस्स बावट्टिभागं च सत्तद्विधा छत्ता सीतालीस चुण्णिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेज्जा ?, ता जेणं वउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पजवसाणे से णं पंचमस्स अभिवह्नितसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरखडे समये, ता से णं किंपज्ञ्जवसिते आहितेति बदेखा ?, सा Education International For Parts Only ४१० प्राभृते २२ प्राभृतप्राभूते युग५ संवत्सराणा मायान्तौ सू ७१ ~ 403~ ॥१९८॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [७१] दीप ४जेणं पढमस्स चंदसंबच्छरस्स आदी से णं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पजवसाणे अणंतरपच्छा कडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं चरमसमये, नातं समयं च णं सूरे केण णक्वत्तेणं जोएति ,ता पुस्सेणं, पुस्सस्स गं एकवीसं मुहत्ता तेतालीसं च बावट्टि-1 भागे मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं सत्सद्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा (सूत्रं ७१)॥ एकारसम पाहुडं समतं ॥ | 'ता कहं ते इत्यादि, सा इति पूर्ववत्, कधं-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया संवत्सराणामादिराख्यात इति वदेत्, भगवानाह-तत्थ खलु इत्यादि, तत्र-संवत्सरविचारविषये खल्विमे पश्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवतिः चन्द्रोऽभिवद्धितः, एतेषां च स्वरूपं प्रागेवोपदर्शितं, भूयः प्रश्नयति–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां द पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्य क आदिराख्यात इति वदेत् , भगवानाह-'ता जेण'मित्यादि, यत् पाश्चात्ययुगवर्तिनः पञ्चमस्याभिवतिसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः तस्मादनन्तरं पुरस्कृतो-भावी वः समयः स प्रथमस्य चन्द्रसंवत्सरस्यादिः, तदेवं प्रथमसंवत्सरस्यादिज्ञाता, सम्पति पर्यवसानसमयं पृच्छति–ता से - मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, स प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किंपर्यवसितः-किंपर्यवसान आख्यात इति वदेत् !, भगवानाह'ता जेण'मित्यादि, यो द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्यादि:-आदिसमयस्तस्मादनन्तरो यः पुरस्कृतः-अतीतसमयः स प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः, 'तं समयं च ण'मित्यादि, तस्मिंश्चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूते समये चन्द्रः अनुक्रम [१०२] 4%ANAS % ~ 404~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-, -------------------- मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- विवृत्तिः (मल.) प्रत ११ प्राभृते २२प्राभृतप्राभृते युगसंवत्सराणामादिपर्यवसाने सूत्राक [७१] ॥१९॥ दीप केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति-करोति !, भगवानाह–ता उत्तराहिं'इत्यादि, इह द्वादशभिः पौर्णमासीभिश्चान्द्रः संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं चोक्तं तदेवान्यू- नातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यं, तथैव गणितभावना कर्त्तव्या, एवं शेषसंवत्सरगतान्यादिपर्यवसानसूत्राणि भावनीयानि यावत्याभृतपरिसमाप्तिः, नवरं गणितभावना क्रियते तत्र द्वितीयसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विशतितमपौर्णमासीपरिसमाप्ती, तत्र ध्रुवराशिः षट्पष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पश्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः ६६ । ५।१ । इत्येवंप्रमाणश्चतुर्विंशत्या गुण्यते, जातानि पञ्चदश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एतस्मादटभिः मुहर्तशतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तपष्टिभागैरेकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यति, ततः स्थितानि पश्चात्सप्त मुहशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पञ्चनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ७६५ । ९५।२५ । ततो 'मूले सत्तेव | |चोयाला' इत्यादि वचनात् सप्तभिश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहर्तशतैरेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततः स्थिताः पश्चात् द्वाविंशतिमहत्तों एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टी द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पडूविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २२ । ८।२६।। तत आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये पूर्वाषाढानक्षत्रस्य सप्त मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य त्रिपश्चाशद् द्वाप अनुक्रम [१०२] ॥१९९॥ ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [११] ........---------- प्राभतप्राभत [-1, --- ---------- मलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - + प्रत सूत्रांक 11 -54-2- Mष्टिभागा एकस्य द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तदानी च सूर्येण युक्तस्य पुनर्वसोचत्वारिंशत: मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पश्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-स एव | ध्रुवराशिः। ६६ । ५।१। चतुर्विंशत्या गुणितो जातानि पञ्चदश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्त्तगतानां च ६ द्वापष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एत-| स्मादष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकमुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तपष्टिभागः ८१९ । २४ । ६५ एकः परिपूर्णी नक्षत्रपोयः शुद्धः, स्थितानि पश्चात् सप्त मुहर्त्तशतानि पञ्चषध्यधि-IN कानि मुहूर्तानामेकमुहूर्तगताश्च द्वाषष्टिभागाः पञ्चनवतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७६५ । ९५ १२५ । तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तषष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनषष्टिः सप्तषष्टिभागाः ७४६।५१ । ५९ । ततो भूयोऽप्येतस्मात सप्तभिर्मुहूर्तशतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैरेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तषराष्टिभागैरश्लेषादीनि आर्द्रापर्यन्तानि शुद्धानि, स्थितौ पश्चाद् द्वौ मुहूर्तावेकस्य च मुहूर्तस्य षविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः २ । २६ । ६० । आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य | द्वाचत्वारिंशन्मुहुर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेषाः, दीप अनुक्रम [१०२] -2-% wwwjanaitaram.org ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत | माभृते सूत्राक [७१] ॥२०॥ दीप अनुक्रम [१०२] सूर्यप्रज्ञ तथा तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपरिसमाप्तिः सप्तत्रिंशता पौर्णमासीभिस्ततो ध्रुवराशिः ६६ । ५ ।१ । सप्तत्रिंशता ११प्राभृते तिवृत्तिः गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि द्वाषष्टिभागानां च पञ्चाशीत्यधिक शतं सप्तपष्टि-1 २२ प्राभृत(मल.) भागाः सप्तत्रिंशत् २४४२ । १८५ । ३७ । तत एतेभ्योऽष्टी मुहूर्तशतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येकनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा | युगसंवत्सशोध्यते, ततः स्थितानि पश्चादष्टी मुहर्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां पञ्चत्रिंशदधिकं शतापर्यवसाने राणामादिहै एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः८०४।१३५ ॥३९॥ तत एतेभ्यः सप्तभिमुहूर्तशतैश्चतुःसप्तत्यधि-लासू ७१ कैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तपष्ठिभागैरभिजिदादीनि पूर्वाषाढा-11 पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चादेकत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशत्सतषष्टिभागाः ३१ । ४८१४० । तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहतों एकस्य च मुहूर्सस्य त्रयोदश द्वापष्ठिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तप|ष्टिभागाः शेषाः, तदानी च सूर्येण सम्प्रयुक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वौ मुहूत्तौं एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः एक च द्वापष्टिभार्ग सतषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः पष्टिश्थूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५। ॥२०॥ P१ सप्तत्रिंशता गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वापष्टिभा गानां पश्चाशी त्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः २४४२ । १८५ । ३७। तत एतेभ्यः ~ 407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [७१] SMSAROGROCCASEASEASOSTS दीप अनुक्रम [१०२] पूर्ववत सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाण द्विगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चादष्टौ मुहूर्त्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहर्तसत्कानां द्वापष्टिभागानां पश्चत्रिंशदधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः ८०४ । १३५ । ३९॥ ततो काभय एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहतरेकस्य च मुहर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य प्रयस्त्रिंशता सप्त पष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां विनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः ७८५ । ९२ । ६ । ततो भूयोऽप्येतेभ्यः सप्तभिर्मुहर्तशतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पध्या सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीनि आपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाम्मुहर्ता द्वाचत्वारिंशत्, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः ४२।५।७। तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये सूर्येण सह संयुक्तस्य पुनर्वसोद्वौं मुहूर्तावेकस्य च मुहूर्तस्य पट्पश्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथा चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानमेकोनपञ्चाशत्तमपौर्णमासीपरिसमाप्तौ ततः स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१।एकोनपञ्चाशता गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां द्वात्रिंशच्छतानि चतुर्विंशदधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ३२३४ । २४५ । ४९ । तत एतस्मात् प्रागुक्त सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुणयित्वा शोध्यते, ततः स्थितानि सप्त शतानि सप्तसतत्यधिकानि मुहर्तानां | मुहर्त्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ७७७ । १७० । 555453 ~ 408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [७१] दीप अनुक्रम [१०२] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [११], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥२०१॥ ५२ । ततः सप्तभिः शतैः चतुःसप्तत्यधिकैर्मुहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य २ षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैर्भूयोऽभिजिदादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः पश्चात्पञ्च मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकविंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः ५ । २१ । ५३ । तत आगतं चतुर्थचान्द्र संवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढा नक्षत्रस्य चन्द्रयुक्तस्य एकोनचत्वारिंशन्मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तदानीं च सूर्येण सह युक्तस्य पुनर्वसु नक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकविंशतिद्वषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सरका सप्तचत्वारिंशच्चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि - स एव ध्रुवराशिरेकोनपञ्चाशता गुण्यते, गुणयित्वा च ततः प्रागुक्तं सकलनक्षत्रपर्याय परिमाणं त्रिभिर्गुजयित्वा शोध्यते, स्थितानि सप्त मुहूर्त्तशतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः ७७७ । १७० । ५२, तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहूर्तेरेकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तषष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ७५८ । १२७ । १९ । ततः सप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतु विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीन्याद्रपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् पञ्चदश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतिः सप्तषष्टिभागाः १५।४०। Jan Eucation International For Parts Only ~409~ ११ प्राभूते २२ प्राभृत प्रभू युगसंवत्सराणामादिपर्यवसाने सू ७१ ॥२०१॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-, -------------------- मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [७१] दीप २०,तत आगतं चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषष्टि-14 भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः शेषा इति, पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरपर्यवसानं च द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये,ततो यदेव प्राक् द्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं | चोक्तं तदेवान्यूनातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां एकादशम-प्राभुतं समाप्तं तदेवमुक्कमेकादशं प्राभूतम् , सम्पति द्वादशमुच्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति संवत्सरा भवन्ति' तद्विषय प्रश्नसूत्रमाह ता कति णं संवच्छरा आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पं० सं०-णक्खत्ते चंदे उडू आदिचे अभिवहिते, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स नक्वत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसतिमुहुत्तेणं २ अहोरत्तेणं मिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता सत्ताधीसं राईदिदाई एक चीसं च सत्तहिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति शवदेवा, ता अट्ठसए एकूणवीसे मुहत्ताणं सत्ताबीसं च' सत्तट्ठिभागे मुटुत्तस्स मुहत्तग्गेणं आहितेतिवदेवा, ता एएसि णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संघच्छरे, ता से णं केवतिए राईदियग्गेणं आहितातिवदेजा ?, ता तिणि सत्तावीसे राइंदियसते एकावन्नं च सत्सहिभागे राईदियस्स राइंदि-1 यग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तगण आहितेति चदेज्जा, ता णव मुहूत्तसहस्सा 55 अनुक्रम [१०२] + % अत्र एकादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ द्वादशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२ सू ७२ दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ- अह य बत्तीसे मुहत्तसए छप्पन्नं च सत्तविभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेण आहितेतिबदेज्जा । ता एएसिणं १२ प्राभृते विवृत्तिःला पंचण्हं संवच्छराणं दोचस्स चंदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसतिमुहुत्तेणं २अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राई-४२२प्राभृत(मल०) दियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एगूणतीसं राइंदियाई बत्तीसं बावट्ठिभागा राईदियस्स राइदियग्गेणं प्राभूते ॥२०२॥ आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता अट्ठपंचासते मुटुत्ते तेत्तीसंचनक्षत्रादिवछावहिभागे मुहत्तग्गेणं आहितेतिवदेजा, ता एस णं अद्धा दुचालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता से पं सा राविन्दि वमुहूर्तमान केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति बदेजा ?, ता तिन्नि चउत्पन्ने राइंदियसते दुवालस य चावविभागा| राइंदियग्गेणं आहितेति वदेवा?, तीसे णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता दस मुहत्तसहस्साई छच्च पणुषीसे मुदत्तसए पण्णासं च बावडिभागे मुहुत्तेणं आहितेति वदेज्जा । ता एएसि गं पंचण्डं संवच्छ-14 राणं तच्चस्स उडुसंवच्छरस्स उडमासे तीसतीसमुहुत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहियाति वदेजा, ता तीसं राइंदियाणं राइंदियग्गेणं आहितेतिवदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा , ता णव मुहुत्तसताई मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेवा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा उडू संवच्छरे, २०२॥ ता से णं केवतिए राइदियम्गेणं आहितेति वदेजारी, ता तिणि सट्टे राइंदियसते राइदियग्गेणं आहितेति वदेवा, ता से णं केवतिए मुहुत्सग्गेणं आहिपतिवदेजा, तादस मुहुत्तसहस्साई अट्टय सयाई मुहुत्सग्गेणं आहितेति वदेजा। ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स आदिचसंवच्छरस्स आइच्चे मासे तीसतिमुहुत्तेणं [१०३] ~ 411~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२ दीप अहोरसेणं गणिजमाणे केवइए राइंदियग्गेण आहितेति वदेजा ?, ता तीसं राईदियाई अवद्धभागं च राई-1 दियस्स राइदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा , ता णव पण्ण-| रस मुहुत्तसए मुहत्तग्गेणं आहितेति बदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आदिचे संवच्छरे, ता से णं केवतिए राईदियग्गेणं आहितेति बदेजा, ता तिनि छाबडे राइंदियसए राइंदियग्गेणं आहियत्तिवइज्जा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहियत्ति वइज्जा,ता दस मुहत्तस्स सहस्साई णव असीते मुहत्तसते मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स अभि-13 वहिते मासे तीसतिमुहुत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एकतीस राइंदियाई एगूणतीसं च मुहुत्ता सत्तरस बायटिभागे मुहुत्तस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता णव एगूणसहे मुहुत्तसते सत्तरस बावट्ठिभागे मुहुरास्स मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवहितसंवच्छरे, ता से णं केवतिए राइंदियग्गेणं| आहितेति घदेजा ?, तिपिण तेसीते राइंदियसते एकवीसं च मुहुत्ता अट्ठारस थावहिभागे मुहुत्तस्स राइंदिमायग्गेणं आहितेतिवदेजा, तिपिण तेसीते राइंदियसते एकवीसं च मुहत्ता अट्ठारस बावट्ठिभागे मुहत्तस्स राई. दियग्गेणं आहितेति घदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेण आहितेति वदेजा ?, ता एकारस मुहत्तसहस्साई। पंच य एकारस मुहत्तसते अट्ठारस वावहिभागे मुहुत्तस्स मुहत्तग्गेणं आहितेतिवदेज्जा (सूत्रं ७२)॥ अनुक्रम [१०३] Intenditurary.com ~ 412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञठिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [७२] ॥२०॥ दीप 'ता कइ संबच्छरा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति संवत्सरा भगवन् ! त्वया आख्याता इति वदेत् !, भगवानाह- १२ प्राभृते 'तत्रेत्यादि, तन-संवत्सरविचारविषये खल्विमे पञ्च संवत्सरा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'नक्वत्ते'त्यादि, पदैकदेशे पदसमु- २२ प्राभूतदायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरश्चन्द्रसंवत्सर ऋतुसंवत्सर आदित्यसंवत्सरोऽभिवतिसंवत्सरः, एतेषां च पश्चानामपि संव- प्राभृते रसराणां स्वरूप प्रागेवोपवर्णितं, 'ता एएसि णमित्यादि प्रश्नसूत्रं, 'ता' इति पूर्ववत्, एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये नक्षत्रादिवप्रथमस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य सत्को यो नक्षत्रमासः स त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणेनाहोरात्रेण गण्यमानः कियान् रात्रिन्दिवाण-M रात्रिन्दिवपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानिएक सू विंशतिश्च सप्तपष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-युगे नक्षत्रमासाः सप्तपष्टिरेतच प्रागेव भावितं, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, ततस्तेषां सप्तपट्या भागे हुते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २७।।'ता से ण'मित्यादि, स नक्षत्रमासः कियान, मुहाग्रेण-मुहूर्तपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् !, भगवानाह-ता अट्ठसए'इत्यादि, अष्टोत्तरशतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ८१९ । । मुहूर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहिनक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, ततः सवर्णनार्थ सप्तविंशति-19 रप्यहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तषष्टिभागा- IN ॥२० ॥ नामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तानि मुहूर्त्तानयनार्थे त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि अनुक्रम [१०३] ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२ दीप नव शतानि मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां ५४९००, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति ८१९ । ३७,'ता एस 'मित्यादि, एषाअनन्तरमुक्ता नक्षत्रमासरूपा अद्धा द्वादशकृत्वः कृता, द्वादशभिवारगुणिता इत्यर्थः, नक्षत्रसंवत्सरो भवति, सम्प्रति सकलनक्षत्रसंवत्सरगतरात्रिन्दिवपरिमाणमुहूर्त्तपरिमाणविषयप्रश्ननिवेचनसूत्राण्याह-ता से 'मित्यादि, सुगम, नवरं रात्रिन्दिवचिन्तायां नक्षत्रमासरात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्त्तचिन्तायां नक्षत्रमासमुहुर्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितव्य ततो यथोका रात्रिदिवसङ्ग्या मुहूर्तसङ्ख्या च भवति, 'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता एगूणतीसमित्यादि, एकोनत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासो रात्रिन्दिवानेणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासाः, एतच्च प्रागपि भावितं, ततो युगसत्कानामष्टादशानामहोरात्रशतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः २९ । ३३ । 'ता से णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह–ता अट्टे'त्यादि, अष्टौ मुहर्तशतानि पञ्चाशीत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासो मुहर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, तत्र सवर्णनार्थमेकोनत्रिंशदप्यहोरात्रा द्वापश्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च उपरितना द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि द्वापष्टिभागानां १८३०, तत एतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि मुहूर्तगतद्वापष्टि अनुक्रम [१०३] ~414~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] सू ७२ ट्राभागानां ५४९००, तत एतेषां द्वापट्या भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतानि पशाशीत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य १२ प्राभूते तिवृत्तिः मुहर्तस्य त्रिंशद् द्वापष्टिभागाः ८८५ । १३, 'ता एस णं अद्धा इत्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, 'ता एएसि 'मित्यादि, २२माभृत(मल०) तृतीयऋतुसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवान् प्रतिवचनमाह-ता तीसे 'मित्यादि ता इति पूर्ववत् त्रिंशताप्राभूते रात्रिन्दिवाग्रेण ऋतुमास आख्यात इति वदेत्, तथाहि-ऋतुमासाः युगे एकषष्टिः, ततो युगसत्कानामष्टादशशतस- नक्षत्रादिक ॥२०४॥ स्यानां त्रिंशदधिकानामहोरात्राणामेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धात्रिंशदहोरात्राः ३०, 'ता से ण'मित्यादि, मुहर्त्तविषयं मुहूर्त्तमानं सावन्द प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता नव मुहुत्तसया'इत्यादि, नव मुहूर्तशतानि मुहूर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहित्रिंशद्रात्रिन्दिवानि ऋतुमासपरिमाणमेकैकस्मिंश्च रात्रिन्दिये त्रिंशन्मुहूर्तास्ततत्रिंशतस्त्रिंशता गुणने नव शतानि भव-४ Mन्तीति, 'ता एएसि ण'मित्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, 'ता एएसि णमित्यादि चतुर्थसूर्यसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्र, तच & | सुगर्म, भगवानाह–ता तीस'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य रानिन्दिवरय एकमपार्बभाग, एकमर्द्धमित्यर्थः, एतावत्प्रमाणः सूर्यमासो रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत् , तथाहि-सूर्यमासा युगे पष्टिस्ततो युगसरकानामहोरात्राणां त्रिंशदधिकाष्टादशशतसयानां पध्या भागो ह्रियते, लब्धाः सा खिंशदहोरात्राः, 'ता से ण-18 मित्यादि, मुहर्त्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् , भगवानाह-नवपण्णरे' इत्यादि नव मुहूर्तशतानि पञ्चदशाधिकानि मुहूर्त-1 H ॥२०४॥ परिमाणेनाख्यात इति वदेत्, तथाहि-सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशत् रानिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्या, तच्च | त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि, रात्रिन्दिवा. च पश्चदश मुहर्ता इति, 'ता एएसि ण'मित्यादि, प्राग्वद् भाव दीप अनुक्रम [१०३] 545425 mitaram.org ~ 415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२ मनीयं । 'ता एएसिण'मित्यादि, पञ्चमाभिवद्धितसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता एकतीस'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकोनविंशच्च मुहूर्ता एकस्य न मुहूर्तस्य सप्तदश द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिबाणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैरभिवतिसंवत्सरः, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशत् रात्रिमान्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः २९॥ ३, एतत्रयोदशभिर्गुण्यते, ततो यथासम्भव द्वापष्टि भागै रात्रिन्दिवेषु जातेषु जातमिदं त्रीण्यहोरात्रशतानि व्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशश्च द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य IS/२८३, एतदभिवतिसंवत्सरपरिमाण, तत एतस्य द्वादशभिर्भागो हियते, तत्र त्रयाणामहोरात्रशतानां त्र्यशील्यमाधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति एकादश, ते च मुहर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि ३२०, येऽपि च चतुश्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहःकरणार्थे । | त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकविंशतिमुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश, तत्रैकविंशतिर्मुहर्ता मुहूर्चराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानां त्रीणि शतान्येकपश्चाशद-181 धिकानि ३५१, तेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातं पडशीत्यधिकं शतं १८६, ततः प्रागुताः शेषीभूता मुहूर्तस्याष्टादश द्वापष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते वे शते चतुरुत्तरे २०४, तयोदशभिर्भागो हियते, लब्धा मुहूर्तस्य सप्तदश द्वापष्टिभागाः, 'ता से ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , सोऽभिवदितमासः कियान मुहूर्ताप्रेणाख्यात इति वदेव, भगवानाह-नवे'त्यादि, नव मुहर्त्तश % दीप * अनुक्रम 5 [१०३] 5 % % ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत तिवृत्तिः सूत्रांक [७२ दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ-18 तान्येकोनषष्ठयधिकानि ९५९ सप्तदश च मुहूर्तद्वाषष्टिभागाः, तथाहि एकत्रिंशदप्यहोरात्रास्त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि १२ प्रामृत नव शतानि त्रिंशदधिकानि मुहूर्तानां, तत उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानामेकोनपाय २२ प्राभृत(मल.) धिकानि नव शतानि । 'ता एस णमित्यादि, प्राग्वद् व्याख्येयं, 'ता से ण'मित्यादि, रात्रिन्दियविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, IKIME प्राभृते पावषय मनसूत्र सुगमनक्षत्रादिव ॥२०५|| भगवानाह-'ता तिपणी त्यादि, त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहूता एकस्य च मुहूत्तेस्या- रात्रिन्दिटादश द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवाणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-एकत्रिंशदहोरात्रा द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि श्रीणि मुहर्तमान शतानि द्विसप्तत्यधिकानि अहोरात्राणां ३७२, तत एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतान्यष्टा- सू ७२ 18 चत्वारिंशदधिकानि ३८५, तेषामहोरात्रकरणा) त्रिंशता भागो ह्रियते, लब्धा एकादश अहोरात्राः, अष्टादश तिष्ठन्ति, THIयेऽपि च सप्तदश द्वापष्टिभागाः मुहूर्त्तस्य तेऽपि द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे २०४, तयोषिष्ट्या भागो माहियते, लब्धास्त्रयो मुहर्तास्ते प्राक्तनेष्वष्टादशसु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकविंशतिर्मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश द्वाप ष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'ता से णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह–'एक्कारसे'त्यादि, एकादश मुहूर्तसहस्राणि पश्च मुहूर्तशतान्येकादशाधिकानि अष्टादश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्येति मुहूर्ताग्रेणाभिवतिसंवत्सर आख्यात इति वदेत , IA तथाहि-अभिवद्धिंतसंवत्सरपरिमाणं त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य ॥२५॥ अष्टादश द्वापष्टिभागाः, तत्रैकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ता इति वीण्यहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि त्रिंशता 14 गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिर्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्ता मुहूर्तसङ्ख्या भवतीति । सम्प्रत्येते पश्च-11 [१०३] ~ 417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 6*40*86 सूत्रांक [७२ * दीप संवत्सरा एकत्र मीलिता यावत्प्रमाणा रात्रिन्दिवपरिमाणेन भवन्ति तावतो निर्दिदिक्षुः प्रथमतः प्रश्नसूत्रमाह-1 MIता केवतिय ते नोजुगे राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता सत्तरस एकाणउते राईदियसते एगणनवीसं च मुहुतं च सत्तावणे यावद्विभागे मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पणपण्णं चुण्णियामागे राईदियग्गेणं आहितेति यदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा , ता तेपपण मुहुत्तसहस्साई सत्त प उणापन्ने मुहूससते सत्तावणं बावविभागे मुहुत्तस्स पावद्विभागं च सत्तद्विधा छत्ता पणपणं चुणिया भागा मुटुसग्गेणं आहितेति वदेवा, ता केवतिए णं ते. जुगप्पत्ते राईदियग्गेणं आहितेति विदेजा, ता अट्टतीसं राईदियाई दस य मुहुत्ता चत्तारि य यावविभागे मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा ऐसा दुवालस चुण्णिया भागे राइंदियग्गेणं आहिताति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति। वदेजा ?, ता एकारस पण्णासे मुहत्तसए चत्तारि य पावद्विभागे यावद्विभागं च सत्तहिहा छेत्ता दुवालस लाचुपिणया भागे मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता केवतियं जुगे राइंदियग्गेणं आहितेति यदेजा, ता अट्ठा रसतीसे राइदियसते राईदियग्गेणं आहियाति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहसग्गेणं आहियाति वदेजा, |ता चउप्पणं मुहत्तसहस्साई णव य मुहत्तसताई मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेवा, ता से णं केवतिए थावहिभागमुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा!, ता चउत्तीसं सतसहस्साई अट्टतीसं च वाचविभागमुष्टुत्तसते यावद्विभागमुहुत्तग्गे आहितेति वदेवा (सूत्रं ७३)॥ 5 अनुक्रम [१०३] ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७३] साइति पर्ववत, कियत्-किंप्रमाणे ते-खया भगवन् ! 'नोयुगं' नोशब्दो देशनिषेधवचनः किश्चिदनं युगमित्यर्थःTPlasma तित्तिः। रात्रिन्दिवानेण-रात्रिन्दिवपरिमाणेनाख्यात इति वदेत्?, भगवानाह-'ता सत्तरसे त्यादि, नोयुगं हि किशिदूनं युगं, माभत. (मल तच्च नक्षत्रादिपञ्चसंवत्सरपरिमाणमतो नक्षत्रादिपश्चसंवत्सरपरिमाणानामेकत्र मीलने भवति यथोक्ता रात्रिन्दिवसङ्ख्या, प्राभूते .... तथाहि-नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिदिवशतानि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च रात्रिन्दिषस्य एकपश्चाशरस-12 नोयुगयुग षष्टिभागाः, चन्द्रसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रिम्दिवस्य, रात्रिन्दिवलातसंवत्सरस्य त्रीणि रानिन्दिवशतानि पश्यधिकानि, सूर्यसंवत्सरस्य श्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि रात्रिन्दिवाना. मुत्तेमान अभिवद्धिंतसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि ज्यशीत्यधिकानि एकविंशतिश्च मुहर्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादश द्वाप-10 टिभागाः, तत्र सर्वेषां रात्रिन्दिवानामेकत्र मीलने जातानि सप्तदश शतानि नवत्यधिकानि, ये च एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पश्चदश शतानि त्रिंशदधिकानि १५३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः २२॥ मुहूर्ताश्च लब्धा एकविंशती मुद्रत्र्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जातात्रिचत्वारिंशन्मुहूर्तास्तत्र त्रिंशता अहोरात्रो लब्ध इति जातान्यहोरात्राणां सप्तदश शतान्येकनवत्यधिकानि १७९१, शेषास्तिष्ठन्ति मुहूर्तास्त्रयोदश १३, येऽपि च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य द्वादश तेऽपि मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि पश्यधिकानि ३६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः ॥२०६॥ पञ्च मुहूर्तास्ते प्रागुक्तेषु त्रयोदशसु मुहूर्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टादश, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चाशत् द्वापष्टिभागा दीप अनुक्रम [१०४] %%95335 ~419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ****** प्रत सूत्रांक [७३] समुहूर्तस्य, येऽपि च षट्पश्चाशत्सप्तपष्टिभागा मुहर्तस्य ते त्रैराशिकेन द्वापष्टिभागा एवं क्रियन्ते-पदि सप्तषष्ट्या द्वाषराष्टिभागा लम्यन्ते ततः पदपञ्चाशता सप्तपष्टिभागैः कियन्तो द्वापष्टिभागा लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना ६७ ॥ १२॥५६॥ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि चतुर्विंशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि ३४७२, तेपामादिराशिना सप्तपष्ट्या |भागो प्रियते, लब्धा एकपञ्चाशदू द्वाषष्टिभागाः, ते च प्रागुकेषु पश्चाशति द्वापष्टिभागेष्यन्तः प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोत्तरं शतं | | १०१, ततस्तन्मध्येऽभिवतिसंवत्सरसत्का उपरितना अष्टादश द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोनविंशत्यधिक शतं द्वाषष्टिभागानां ११९, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चपञ्चाशत् द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः , द्वाषष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेको मुदत्तों लब्धः, स प्रागुक्तेष्वष्टादशसु मुद्दषु मध्ये प्रक्षिष्यते, जाता एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः १९, शेषाः सप्तपश्चाशत् द्वापष्टि- भागा अवतिष्ठन्ते इति, 'ता से णमित्यादि, मुहर्तपरिमाणविषयप्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगर्म, रात्रिन्दिवपरिमाणप त्रिंशता गुणने तदुपरि शेषमुहूर्तप्रक्षेपे च यथोक्तमुहूर्तपरिमाणसमागमात्, ता केवइए ण ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कियता रात्रिन्दिवपरिमाणेन तदेव नोयुग युगप्राप्तमाख्यातमिति यदेव!, कियत्सु रानिन्दिवेषु प्रक्षिप्तेषु तदेव नोयुगं| परिपूर्ण युगं भवतीति भावः, भगवानाह-'ता अहत्तीसमित्यादि, अष्टात्रिंशद् रात्रिन्दिषानि दश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारो द्वापष्टिभागा एक च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्वा तस्य सरका द्वादश चूर्णिका भागा इत्येता-1 यता रानिन्दिवपरिमाणेन युगप्राप्तमाख्यातमिति घदेत् , एतावत्सु रात्रिन्दिवादिषु प्रक्षिप्तेषु तत् नोयुग परिपूर्ण युगं भवति इति भावः । सम्पति तदेव नोयुगं मुहूर्तपरिमाणात्मकं यावता मुहूर्तपरिमाणेन प्रक्षिप्तेन परिपूर्ण युगं भवति तद्वि * दीप अनुक्रम [१०४] ** Fan Penaamwan unoon ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: . रेल प्रत सूत्रांक [७३] दीप सूर्यप्रज्ञा शाषर्य प्रश्नसूत्रमाह-'ता से णमित्यादि सुगम, भगवानाह-सा इकारसे'त्यादि, इदं चाष्टात्रिंशतो रात्रिन्दिवानां १२ प्राभृतेप्तिवृत्तिः त्रिंशता गुणने शेषमुहर्रादिप्रक्षेपे च यथोक्तं भवति, भावार्थश्चार्य-एतायति मुहूर्तपरिमाणे प्रक्षिप्ते प्रागुक्त नोयुगमहर्तपरि-1:२२माभूत(मल०) IPIमाण परिपूर्णयुगमुहुर्तपरिमाणं भवतीति । सम्प्रति युगस्यैव रात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्तपरिमाणं च प्रतिपिपादयिषुः प्रश्न सूर्यादीना॥२०७॥ निर्वचनसूत्राण्याह-'ता केवइयं तें'इत्यादि सुगर्म, अधुना समस्तयुगविषये एव मुहूर्तगतद्वापष्टिभागपरिज्ञानार्थी माधनूसाप्रश्नसूत्रमाह-'ता से णमित्यादि सुगम, भगवानाह-'ता चोत्तीसमित्यादि, इदमक्षरार्थमधिकृत्य सुगम, भावार्थ | |स्वयम्-चतुष्पश्चाशन्मुहर्तसहस्राणां नवशताधिकानां द्वापल्या गुणनं क्रियते ततो यथोक्का द्वाषष्टिभागसशया भवतीति।स-& म्पति कदाऽसौ चन्द्र(द्रादि)संवत्सरः सूर्य(र्यादि)संवत्सरेण सह समादिः समपर्यवसानो भवतीति जिज्ञासिषुः प्रश्नं करोति| ता कता णं एते आदिवचंदसंवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेला?, ता सहि एए| आदिश्चमासा पावहि एतेए चंदनासा, एस णं अद्धा उखुत्तकडा दुवालसभयिता तीसं एते आदिचसंघ रा एकतीसं एते चंदसंवकछरा, तता णं एते आदिचर्चदसंबच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहिताति विदेजा । ता कता णं एते आदिवउडुचंदणक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपञ्जवसिया आहितेति वदेज्जा ? २०७॥ ता सहि एते आदिचा मासा एगर्टि एते उडमासा बावहि एते चंदमासा सत्सट्टि एते नक्खत्ता मासा एस णं अद्धा दुवालस खुत्तकडा दुवालसभयिता सहि एते आदिचा संवच्छरा एगहि एते उडुसंवच्छ वावडिं। एते चंदा संवच्छरा सत्तहि एते नक्खत्ता संवच्छरा तता णं एते आदिचउडुचंदणक्वत्ता संवच्छरा समा अनुक्रम [१०४] ~421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] दीया समपजवसिया आहितेति वदेला । ता कता णं एते अभिवहिआदिच्चपदुदपाक्सत्ता संवच्छरा समादीया समपञ्जवसिता आहितेति वदेजा , ता सत्तावणं मासा सत्त य अहोरत्ता एकारस य मुहुत्ता तेवीस वावविभागा मुहत्तस्स एते अभिवहिता मासा सदि एते आदिच मासा एगडि एते उडूमासा बावट्ठी एते चंदमासा सत्तट्ठी एते नकखत्तमासा एस गं अद्धा छप्पण्णसत्तखुत्तकडा दुवालसभपिता सत्त सता चोत्ताला एते णं अभिवहिता संवच्छरा, सत्त सता असीता एते णं आदिचा संवच्छरा, सस सता तेणउता एते णं उडूसंवरुछरा, अट्ठसत्ता उलुत्तरा एते णं चंदा संवच्छरा, एकसत्तरी अट्ठसया एए णं नक्षत्ता संव रा, तता णं एते अभिवहितआदिवउद्दचंदनक्खत्ता संबच्छरा समादीया समपजवसिया आहितेति विदेला, ता गयट्ठताए णं चंदे संवच्छरे तिणि चउप्पण्णे राईदियसते वालस य चावविभागे राइंदियस्स IA आहितेति वदेवा, ता अहातशेणं चंदे संवच्छरे तिण्णि घउप्पपणे राईदियसते पंच य मुहुत्ते पण्णासं च यावविभागे मुहुत्तस्स आहितेति वदेजा (सूत्रं ७४) । | 'ता कया णमित्यादि, सुगम, भगवानाह–ता सहिमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एते-एकयुगवर्तिनः षष्टिः सूर्यमासाः एते च एकयुगान्तत्र्तिन एव द्वापष्टिश्चन्द्रमासाः, एतावती अद्धा पटुकृत्वः क्रियते-पहिर्गुण्यते, ततो द्वाददाभिर्भग्यते, द्वादशभिश्च भागे हते त्रिंशदेते सूर्यसंवत्सरा भवन्ति एकत्रिंशदेते चन्द्रसंवत्सराः, तदा एतावति कालेऽतिकान्ते एते आदित्य चन्द्रसंवत्सराः समादयः-समप्रारम्भाः समपर्यवसिताः समपर्यवसाना आख्याता इति वदेत्, समपर्य दीप अनुक्रम [१०५] For P OW ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: ॐॐ का प्राभूते प्रत सूत्रांक [७४] दीप सूर्यप्रज्ञ- 1वसाने किमुक्त भवति: एते चन्द्रसूर्यसंवत्सरा विवक्षितस्यादौ समाः समप्रारम्भप्रारब्धाः सन्तस्तत आरभ्य पष्टियुगपर्यवसाने १२ प्राभृते निवृत्तिः समपर्यवसाना भवन्ति, तथाहि-एकस्मिन् युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरी, तौ च प्रत्येक त्रयोदश-1|२२ प्राभृत(मल.) चन्द्रमासात्मकी, ततः प्रथमयुगे पश चन्द्रसंवत्सरा दौ च चन्द्रमासौ, द्वितीये युगे दश चन्द्रसंवत्सराश्चत्वारश्चन्द्रमासाः सूर्यादीना॥२०॥ मानसा एवं प्रतियुग मासद्विकवृद्ध्या षष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिंशचन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, 'ता कया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कदा णमिति वाक्यालकारे आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेवयंस ७५ भगवानाह-ता सट्ठी'इत्यादि, षष्टिरेते एकयुगान्तवर्तिनः आदित्यमासा एकपष्टिरेते ऋतुमासाः द्वापष्टिरेते चन्द्रमासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्येकमद्धा द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभिर्गुणिता इत्यर्थः तदनन्तरं संवत्सरा-12 नयनाय द्वादशभिर्भक्ता तत एवमेते पष्टिरादित्यसंवत्सरा एकपष्टिरेते ऋतुसंवत्सरा' द्वाषष्टिरेते चन्द्रसंवत्सरा सप्तपष्टि-15 बरते नक्षत्रसंवत्सरास्तदा-द्वादशयुगातिकमे इत्यर्थः एते आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत् , एतदुक्तं भवति-विवक्षितयुगस्यादाषेते चत्वारोऽपि समाः समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत आरभ्य बादशयुगपर्यन्ते समपर्यवसाना भवन्ति, अर्वाक् चतुर्णामन्यतमस्यावश्यंभावेन कतिपयमासानामधिकतया युगपत् सर्वेषां समपर्यवसानत्वासम्भवात्, 'ता कोणमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता सत्तावण्ण'मित्यादि, सप्तपञ्चाशन्मासाः सप्त अहोरात्रा एकादश मुहर्ता एकस्य प मुहर्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागा एतावत्प्रमाणा एते एकयुगान्तर्वर्तिनोऽभि-IAN वर्जितमासाः पष्टिरेते सूर्यमासाः एकषष्टिरेते ऋतुमासा द्वाषष्टिरते चन्द्रमासाः सप्तपष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्ये-15 अनुक्रम [१०५] SARERatininemarana ~ 423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] 59 दीप कमद्धा षट्पञ्चाशदधिकशतकृत्वः क्रियते, कृत्वा च द्वादशभिर्भग्यते, द्वादशभिश्च भागे हते चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तश-11 तसङ्ख्याः ७४४ एतेऽभिवतिसंवत्सराः, अशीत्यधिकसप्तशतसङ्ख्याः ७८० एते आदित्यसंवत्सराः, त्रिनवत्यधिकसप्तश-TRI | तसङ्ग्याः ७९३ एते ऋतुसंवत्सराः, पदुत्तराष्टशतसङ्ख्या ८०६ एते चन्द्रसंवत्सराः, एकसप्तत्यधिकाष्टशतसक्या ८७१ नक्ष-12 संवत्सराः, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे एतेऽभिवर्द्धितादित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आ-1 ख्याता इति वदेत, अर्वाक कस्यापि कतिपयमासाधिकत्वेन युगपत्सर्वेषां समपर्यवसानस्थासम्भवात् । सम्पति यथोकमेव चन्द्रसंवत्सरपरिमाणं गणितभेदमधिकृत्य प्रकारद्वयेनाह-ता नयनाए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , नयार्थतया-121 | परतीथिकानामपि सम्मतस्य नयस्य चिन्तया चन्द्रसंवत्सरस्त्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टि-13 भागा अहोरात्रस्येत्यादिराख्यात इति वदेत् , याथातथ्येन पुनश्चिन्त्यमानश्चन्द्रसंवत्सरस्त्रीणि रात्रिदिवशतानि चतुष्प-14 शाशदधिकानि पञ्च च मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशद्वापष्टिभागा इत्येवंप्रमाण आख्यात इति वदेत, तत्राहोरात्र-18 परिमाणमुभयत्रापि तावदेकरूपं, ये तूपरितना द्वादश द्वाषष्ट्रिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहर्तकरणाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, Kजातानि त्रीणि शतानि षष्पधिकानि ३६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो दियते, लग्धाः पञ्च मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति पश्चाशन्मु-11 हूर्तस्य द्वापष्टिभागा इति । तदेवं संवत्सरवक्तव्यता सप्रपञ्चमुक्ता, साम्प्रतं ऋतुवक्तव्यतामाह तत्व खलु इमे छ खडू पं० त०-पाउसे वरिसारत्ते सरते हेमंते वसंते गिम्हे, ता सवेवि णं एते चंदउहू दुवे M२ मासाति चप्पण्णेणं २ आदाणेणं गणिजमाणा सातिरेगाई एगूणसहि २ राइंदियाई राइंदियग्गेणं आहि अनुक्रम [१०५] ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा मज्ञ- तेति वदेजा, तत्थ खलु इमे छ ओमरत्ता पं० त०-ततिए पव्वे सत्तमे पञ्चे एक्कारसमे पवे पन्नरसमे पवे एग- १२ माइते प्तिवृत्तिः णवीसतिमे पवे तेवीसतिमे पधे, तत्थ खलु इमे छ अतिरत्ता पं०२०-चउत्थे पथे अट्ठमे पधे वारसमे पवे २२ प्राभृत(मल.) सोलसमे पधे वीसतिमे पवे चाउधीसतिमे पड़े । छच्चेव य अइरत्ता आइचाओहवंति माणाई । छच्चेच ओमरत्ता प्राभृते ॥२०॥ चंदाहि हवंति माणाहिं ॥१॥(सूत्र ७२) ऋतुन्यूना| 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्रास्मिन् मनुष्यलोके प्रतिसूर्यायनं प्रतिचन्द्रायनं च खल्विमे षट् ऋतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा धिकराय धिकारः हामावृटू वर्षारानः शरत् हेमन्तो वसन्तो ग्रीष्मः, इह लोकेऽन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिद्धास्तद्यथा-प्रावृद्ध शरद् हेमन्तः सू७५ शिशिरो वसन्तो ग्रीष्मति, जिनमते तु यथोक्ताभिधाना एव ऋतवः, तथा चोक्तम्-"पाउस वासारत्तो सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य । एए खलु छप्पि उऊ जिणवरदिहा मए सिट्टा ॥१॥" इह ऋतको द्विधा, तद्यथा-सूर्यषिश्चन्द्र-II वश्व, तत्र प्रथमतः सूर्य वक्तव्यता प्रस्तूयते, तत्रैकैकस्य सूर्यत्ततॊः परिमाणं द्वौ सूर्यमासावेकषष्टिरहोरात्रा इत्यर्थः, एकैकस्य सूर्यमासस्य सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणत्वात् , उक्तं चैतदन्यत्रापि-"वे आइचा मासा एगढी ते भवंतहोरत्ता । एयं उपरिमाणं अवगयमाणा जिणा बिति ॥ १॥" इह पूर्वाचारीप्सितसूर्यनियने करणमुक्त तद्विनेयजनानुग्रहायोपद-12 &ीते-सूरउउस्साणयणे पर्व परससंगुणं नियमा । तहिं सखित संत बावद्वीभागपरिहोणं ॥२॥ दगुणेकही जुयं ॥२०॥ बावीससएण भाइए नियमा । जं लद्धं तस्स पुणो इहि हियसेस उऊ होइ ॥२॥ सेसाणं असाणं वेहि उ भागेहि | तेसिं जं लद्धं । ते दिवसा नायचा होंति पवत्तस्स अयणस्स" ॥१॥ आसां व्याख्या-सूर्यस्य-सूर्यसम्बन्धिन ऋतोरानयने | दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - - ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ུདྡྷཡྻོཡཱ ཡྻཱ + ཊྛཡྻཱ ཡྻ -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः पर्व - पर्वसपानं नियमात् पञ्चदशगुणं कर्त्तव्यं, पर्वणां पञ्चदशतिथ्यात्मकत्वात् इयमत्र भावना - यद्यपि ऋतवः आषाढादिप्रभवास्तथापि युगं प्रवर्त्तते श्रावणबहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य ततो युगादितः प्रवृत्तानि यानि पर्वाणि तत्सङ्ख्या पश्चदशगुणा क्रियते, कृत्वा च पर्वणामुपरि या विवक्षितं दिनमभिव्याप्य तिथयस्तास्तत्र सङ्गिप्यन्ते इत्यर्थः, ततो 'बावट्टीभागपरिहीणं ति प्रत्यहोरात्रमेकैकेन द्वाषष्टिभागेन परिहीयमाणेन ये निष्पन्ना अवमरात्रास्तेऽप्युपचारात् द्वाषष्टिभागास्तैः परिहीनं पर्वसङ्ख्यानं कर्त्तव्यं, ततो 'दुगुणे' ति द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा च एकषष्ठ्या युतं क्रियते, ततो द्वाविंशेन शतेन भाजिते सति यच्धं तस्य षङ्गिर्भागे हते यच्छेषं स ऋतुरनन्तरातीतो भवति, येऽपि चांशाः शेषा उद्धरितास्तेषां द्वाभ्यां भागे हृते यलब्धं ते दिवसाः प्रवर्त्तमानस्य ऋतोर्ज्ञातव्याः, एष करणगाथाक्षरार्थः । सम्प्रति करणभावना क्रियते, तत्र युगे प्रथमे दीपोत्सवे केनापि पृष्टं कः सूर्यसुरनन्तरमतीतः १ को वा सम्प्रति वर्त्तते १ तत्र युगादितः सप्त पर्वाण्यभिकान्तानीति सप्त भियंते, तानि पश्चादशभिर्गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं शतं एतावति च काले द्वाववमराश्रावभूतामिति द्वौ ततः पात्येते स्थितं पश्चायुत्तरं शतं १०३, तत् द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे शते पडुसरे २०६, तत्रैकषष्टिः प्रक्षिप्यते, जाते द्वे शते सप्तपथ्यधिके २६७, तयोर्द्वाविंशेन शतेन भागो हियते, लब्धौ द्वौ तौ पनिर्भागं न सहेते इति न तयोः पक्किचर्भागहारः, शेपास्त्वंशा उद्धरन्ति त्रयोविंशतिः तेषाम जाता एकादश अर्ज च, सूर्यर्जुश्वाषाढादिकस्ततः आगतंद्वादृतू अतिक्रान्तौ तृतीयश्च ऋतुः सम्प्रति वर्त्तते तस्य च प्रवर्त्तमानस्य एकादश दिवसा अतिक्रान्ता द्वादशो वर्त्तते इति, तथा युगे प्रथमायामक्षयतृतीयायां केनापि पृष्टं के ऋतवः पूर्वमतिक्रान्ताः को वा सम्प्रति वर्त्तते १ तत्र प्रथ For Pal Use Only ~426~ wor Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा सूर्यप्रज्ञ- माया अक्षयतृतीयायाः प्राक् युगस्यादित आरभ्य पर्वाण्यतिक्रान्तानि एकोनविंशतिः, ततः एकोनविंशतिधृत्वा पञ्चद- १२ प्राभूते शभिर्गुण्यते, जाते द्वे शते पञ्चाशीत्यधिके २८५, अक्षयतृतीयायां किल पृष्टमिति पर्वणामुपरि तिम्रस्तिथयः प्रक्षिप्यन्ते, १२प्राभृतमल)MAIजाते द्वे शते अष्टाशीत्यधिक २८८, तावति च काले भवमरात्राः पश्च भवन्ति, ततः पत्र पात्यन्ते, जाते द्वे शते भारत यशीत्यधिक २८३, ते द्वाभ्यां गुण्येते, जातानि पश्च शतानि षषष्ट्यधिकानि ५६५, तान्येकषष्टिसहितानि क्रियन्ते, ॥२१॥ धिकराव्यजातानि पट् शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ६२७, तेषां द्वाविंशेन शतेन भागहरण, लब्धाः पञ्च, ते च पनिभोग न सहन्तेलाधिकार Pइति न तेषां पद्धिर्भागहारः, शेषास्वंशा उद्धरम्ति सप्तदश, तेषामढ़े जाताः साड़ी अष्टौ, आगतं-पञ्च ऋतवोऽति- सू ७५ कारताः षष्ठस्य च ऋतोः प्रवर्त्तमानस्याष्टौ दिवसा गता नवमो वर्त्तते, तथा युगे द्वितीये दीपोत्सवे केनापि पृष्टं-11 कियन्त ऋतयोऽतिकान्ताः, को वा सम्प्रति वर्तते । तत्रैतावति काले पर्वाण्यतिक्रान्तान्येकत्रिंशत् , तानि पशदशभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पशषध्याधिकानि ४६५, अवमरावाश्चैतावति काले व्यत्यकामन्नष्टी, ततोऽष्टी पात्यन्ते, स्थितानि घोषाणि चत्वारि शतानि सप्तपशाशदधिकानि ४५७, तानि द्विगुणीक्रियन्ते, जातानि नव शतानि चतुर्दशोत्तराणि ९१४, तेष्वेकषष्टिभागप्रक्षेपे जातानि पश्चसप्तत्यधिकानि नव शतानि ९७५, तेषां द्वाविंशेन शतेन भागो दियते, लब्धाः सप्त, उपरिष्टादशा उद्धरन्ति एकविंशं शतं १२१, तस्य द्वाभ्यां भागे हृते लब्धाः पटिIIMon सार्हाः, सप्तानां च ऋतूनां पतिर्भागे हते लब्ध एक एकः उपरिष्टात्तिष्ठति, आगत-एका संवत्सरोऽतिक्रान्त एकस्य च संवत्सरस्थोपरि प्रथम ऋतुः प्रावृड्रामाऽतिगतो, द्वितीयस्य च षष्टिदिनान्यतिक्रान्तानि, एकषष्टितमं वर्तते इति, एक दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - FarPranaimwan uncom ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा मन्यत्रापि भावना कार्या । अथैतेषां ऋतूनां मध्ये क ऋतुः कस्यां तिथी समाप्तिमुपयातीति परस्य प्रश्नावकाशमाशय तत्परिज्ञानाय पूर्वाचायरिद करणमभाणि-"इच्छाउऊ विगुणिओ रूयूणो विगुणिओ उपवाणि । तस्सद्ध होइ तिही |जस्थ समत्ता उऊ तीस ॥१॥" अस्था गाथाया व्याख्या-यस्मिन् ऋतौ ज्ञातुमिच्छा (स इच्छत्तः)स ऋतुर्भियते इत्यर्थः, ततः स द्विगुणितः क्रियते, द्वाभ्यां गुण्यते इति भावः, द्विगुणितः सन् रूपोनः क्रियते, ततः पुनरपि स द्वाभ्यां गुण्यते, गुण-18 यित्वा च प्रतिराश्यते, द्विगुणितश्च सन् यावान् भवति तावन्ति पर्वाणि द्रष्टव्यानि, तस्य च द्विगुणीकृतस्य प्रतिरा-II शितस्यार्द्ध क्रियते, तथाई यायगवति तावत्यस्तिथयः प्रतिपत्तच्याः, यासु युगभाविनखिंधादपि ऋतवः समाप्ताः, समा-IM प्तिमैयरुरिति करणगाथाक्षरार्थः । सम्पति भावना क्रियते-किल प्रथम ऋतुर्तातुमिष्टो यथा युगे कस्यो तिधौ प्रथमः | ४ामावलक्षण ऋतुः समाप्तिमुपयातीति !, तत्र एको धियते, स द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे रूपे, ते रूपोने कियेते, जात एकका, स एव च भूयोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे रूपे, ते प्रतिराश्येते, नयोरः जातमेकं रूपं, आगत-युगादौ | पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथी प्रतिपदि प्रथमऋतुः प्रावृहनामा समाप्तिमगमत् , तथा द्वितीये प्रती ज्ञातुमिच्छति द्वी स्थाप्येते तयोर्दाभ्यां गुणने जाताश्चत्वारस्ते रूपोनाः क्रियन्ते जातात्रयस्ते भूयो द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षट् ते प्रतिराश्यन्ते प्रतिराशितानां चार्द्ध क्रियते जातात्रयः, आगत-युगादितः षटू पर्वाण्यतिक्रम्य तृतीयायां तिथी द्वितीय ऋतुः समाप्तिमुपायात्, तथा तृतीये ऋतौ ज्ञातुमिच्छेति त्रयो प्रियन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षटू ते रूपोनाः क्रियन्ते | जाताः पश्च ते भूयो द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता दश ते प्रतिराश्यन्ते प्रतिराशितानां चाबें लब्धाः पश, आगत-युगादित दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] (मळाला गाथा सूर्यप्रज्ञ- आरभ्य दशानां पर्वणामतिक्रमे पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमियाय, तथा षष्ठे ऋतौ ज्ञातुमिष्यमाणे षट् स्थाप्य-१२ प्राभूते वित्तिन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता द्वादश ते रूपोनाः क्रियन्ते जाता एकादश ते द्विगुण्यन्ते जाता द्वाविंशतिः सा प्रति- ऋतुसमाप्ति राश्यते प्रतिराशिताया अर्द्ध क्रियते जाता एकादश, आगतं-युगादित आरभ्य द्वाविंशतिपर्वणामतिक्रमे एकादश्यां तिधिकरणं तिथी पष्ठ ऋतुः समाप्तिमियाय, तथा युगे नवमे ऋतौ ज्ञातुमिच्छति ततो नव स्थाप्यन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता अष्टा-11 Mदश ते रूपोनाः क्रियन्ते जाताः सप्तदश ते भूयो द्विगुण्यन्ते जाता चस्त्रिंशत् सा प्रतिराश्यते प्रतिराश्य च तस्या क्रियते जाताः सप्तदश, आगतं-युगादितः चतुस्त्रिंशत् पण्वितिक्रम्य द्वितीये संवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे द्वित्तीयस्यां तिथी नवम ऋतुः परिसमाप्तिं गच्छति, तथा त्रिंशत्तमे ऋतौ जिज्ञासिते त्रिंशद् प्रियते सा द्विगुणीक्रियते जाता पष्टिः सा रूपोना क्रियते जाता एकोनषष्टिः सा भूयो द्वाभ्यां गुण्यते जातमष्टादशोत्तर शतं तत प्रतिराश्यते प्रतिराश्यप तस्या मा क्रियते जाता एकोनषष्टिः, आगतं-युगादितोऽष्टादशोत्तरं पर्वशतमतिक्रम्य एकोनषष्टितमायां तिधौ, किमुक्तं भवति ।पामे संवत्सरे प्रथमे आपादमासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां त्रिंशत्तम ऋतुः समाप्तिमुपायासीत् , व्यवहारतः प्रथमाषाढपर्यन्ते | इत्यर्थः, एतस्यैवार्थस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमियं पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा-"एकंतरिया मासा तिही य जामु ता उऊ सम-12 पंति । आसाढाई मासा भइवयाई तिही नेया ॥१॥" अस्या व्याख्या-इह सूर्यचिन्तायां मासा आषाढादयो द्रष्टव्याः, आषाढमासादारभ्य ऋतूनां प्रथमतः प्रवर्त्तमानत्वात्, तिथयः सर्वा अपि भाद्रपदाद्याः, भाद्रपदादिषु मासेषु प्रथमादी | ॥२११॥ नामृतूनां परिसमाप्तस्वात् , तत्र येषु मासेषु यासु च तिथिषु ऋतवः प्रावृद्धादय सूर्यसरकाः परिसमामुवन्ति ते आषा-| दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - SARERatininemarana Fone ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा दादयो मासास्ताश्च तिथयो भाद्रपदाचा-भाद्रपदादिमासानुगताः सर्वा अप्येकान्तरिता वेदितव्याः, तथाहि-प्रथम ऋतुर्भाद्रपदमासे समाप्तिमुपयाति, तत एक मासमश्वयुग्लक्षणमपान्तराले मुक्त्वा कार्तिके मासे द्वितीय ऋतुः परिसमाधि६ मियति, एवं तृतीयः पौषमासे चतुर्थः फाल्गुने मासे पञ्चमो वैशाखे मासे षष्ठ आषाढे, एवं शेषा अपि ऋतव एष्वेव षट्सुमा-12 MIसेषु एकान्तरितेषु व्यवहारतः परिसमाप्तिमाप्नुवन्ति, न शेपेषु मासेषु, तथा प्रथम ऋतः प्रतिपदि समाप्तिमेति द्वितीयस्तृती-1 |यायां तृतीयः पञ्चम्यां चतुर्थः सप्तम्यां पश्चमो नषम्यां पष्ठ एकादश्यां सप्तमस्त्रयोदश्यां अष्टमः पादश्यां, एते सर्वेऽपि ऋतवो बहुलपक्षे, ततो नवम ऋतुः शुक्लपक्षे द्वितीयायां दशमश्चतुर्थ्यामेकादशः पठ्या द्वादशोऽटम्यां त्रयोदशो दशम्यां चतुर्दशो| द्वादश्यां पञ्चदशश्चतुर्दश्या, एते सप्त ऋतवः शुक्लपक्षे, एते कृष्णशुक्लपक्षभाविनः पञ्चदशापि ऋतयो युगस्याः भवन्ति, तत उक्तकमेणैव शेषा अपि पञ्चदश ऋतको युगस्याङ्के भवन्ति, तद्यथा-पोडश ऋतुर्बहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तदशः तृती-11 यायामष्टादशः एखाम्यामेकोनविंशतितमः सप्तम्यां विंशतितमो नवम्यामेकविंशतितमः एकादश्यां द्वाविंशतितमः त्रयोदश्यां त्रयोविंशतितमः पादश्यां एते षोडशादयत्रयोविंशतिपर्यन्ता अष्टौ बहुलपक्षे, ततः शुक्लपक्षे द्वितीयायां चतुर्विंश|तितमः पञ्चविंशतितमश्चतुर्थी षड्विंशतितमः षष्ठ्यां सप्तविंशतितमोऽष्टम्यां अष्टाविंशतितमो दशम्या एकोनत्रिंशतमो द्वादश्यां त्रिंशत्तमश्चतुर्दश्या, तदेवमेते सर्वेऽपि तयो युगे मासेवेकान्तरितेषु तिथिष्वपि कान्तरितासु भवन्ति, एतेषां च ऋतूनां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ सूर्यनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ च पूर्वाचार्यैः करणमुक्तं, ततस्तदपि विनेयजनानुग्रहाय दयते-"तिमि सया पंचहिगा अंसा छेओ सयं च चोत्तीसं । एगाइविउत्तरगुणो धुवरासी होइ नाययो ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] सूर्यप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल०) ॥२१२॥ गाथा + सत्तहि अद्धखित्ते दुगतिगगुणिया समे बिदढखेत्ते । अहासीई पुस्सो सोज्झा अभिइम्मि बायाला ॥ २ ॥ एवाणि सोह-IA१२माभते इत्ता जं सेस तं तु होइ नक्खत्तं । रविसोमाणं नियमा तीसाइ उऊसमत्तीसु ॥ ३॥" आसां व्याख्या-त्रीणि शतानि तुषु चन्द्र पश्चोत्तराणि अंशा-विभागाः, किंरूपच्छेदकृता इति चेत्, अत आह-छेदश्चतुर्विंशं शतं, किमुक्त भवति । चतुर्विंश- सूर्यनक्षत्रदधिकशतच्छेदेन छिन्नं यदहोरात्रं तस्य सत्कानि त्रीणि शतानि पञ्चोचराणि अंशानामिति, अयं धुवराशिबोंद्धन्यः, एष योगः च ध्रुवराशिः 'एकादियुत्तरगुण' इति ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशत्पर्यन्तेन व्युत्तरेण एकस्मादारभ्य तत ऊ_XI व्युत्तरवृद्धेन गुण्यते मेति गुणो-गुणितः क्रियते, तत एतस्माच्छोधनकानि शोधयितव्यानि, तत्र शोधनकप्रतिपादनार्थ द्वितीया गाथा-'सत्तट्ठी'त्यादि, इह यन्नक्षत्रमद्धक्षेत्रं तत् सप्तपट्या शोध्यते, यच्च नक्षत्रं समक्षेत्रं तत् द्विगुणया| | सप्तपट्या चतुर्विंशेन शतेनेत्यर्थः शोध्यते, यत्पुनर्नक्षत्रं धड़ क्षेत्रं तत् त्रिगुणया सप्तपथ्या एकोत्तराभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां शोध्यत इत्यर्थः, इह सूर्यस्य पुष्यादीनि नक्षत्राणि शोध्यानि चन्द्रस्याभिजिदादीनि, तत्र सूर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां पुष्येपुष्यविषयाऽष्टाशीतिः शोध्या, चन्द्रनक्षत्रयोगचिन्तायामभिजिति द्वाचत्वारिंशत् । 'एयाणी त्यादि, एतानि अर्द्धक्षेत्र-11 समक्षेत्रसद्धक्षेत्रविपयाणि शोधनकानि शोधयित्वा यदुक्तप्रकारेण नक्षत्रदोषं भवति-न सर्वात्मना शुद्धिमश्नुते तत् नक्षत्रं ॥२१२॥ | रविसोमयोः-सूर्यस्य चन्द्रमसश्च नियमात् ज्ञातव्यं, क्व इत्याह-त्रिंशत्यपि ऋतुसमाप्तिषु । एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः, सम्पति करणभावना क्रियते-तत्र प्रथम ऋतुः कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमुपैति इति जिज्ञासायामनन्तरोदितः पश्चो-12 त्तरत्रिशतीप्रमाणो ध्रुवराशिधियते, स 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति तावानेष ध्रुवराशिः जातः, तत्राभिजितो द्वाचत्वा % % दीप अनुक्रम [१०६ %% % [اه ؟ - *5% RE EarPranaamwan unconm ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------- ------------ प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा रिंशत् शुद्धा, स्थिते पश्चाद् द्वे शते त्रिषष्ट्यधिक २६३, ततश्चतुर्विंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः, शेष जातमेकोनत्रिंशं शतं 81 १२९. तेभ्यश्च धनिष्ठा न शुपति, तत आगतं-एकोनत्रिंश शतं चतुर्विंशदधिकशतभागानां धनिष्ठासत्कमवगाह्य चन्द्रा प्रथमं सूर्यर्तुं परिसमापयति, यदि द्वितीयसूर्य जिज्ञासा तदा स ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणखिभिर्गुण्यते, जातानि। नव शतानि पश्चदशोत्तराणि ९१५, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धा, स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि Cl८७३, ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धिमुपगतः, स्थितानि शेषाणि सप्त शतान्येकोनचत्वारिंशदधिकानि ७३९, ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा, जातानि षट् शतानि पश्चोतराणि ६०५, ततोऽपि सप्तषष्ट्या शतभिषक् । शुद्धा, स्थितानि पश्च शतान्यष्टात्रिंशदधिकानि ५३८, तेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्वभद्रपदा शुद्धा, स्थितानि चत्वारि शतानि चतुरधिकानि ४०४, तेभ्योऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा, स्थिते शेपे व्युत्तरे द्वे शते २०३, ताभ्यामपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन रेवती शुद्धा, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः १९, आगतमश्विनीनक्षत्रस्यैकोन-12 सप्ततिं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामवगाह्य द्वितीयं सूर्य चन्द्रः परिसमापयति, एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीय, त्रिंशतमसूर्य जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पश्नोत्तरशतत्रयसव एकोनपश्या गुण्यते, जातानि सप्तदश सहस्राणि नव शतानि पञ्चनवत्यधिकानि १७९९५, तत्र पत्रिंशता शतैः पश्यधिकैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्धयति, ततः पत्रिंशच्छतानि पश्यधिकानि चतुर्भिर्गुणयित्वा ततः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात्रयस्त्रिंशच्छतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि ३३५५ ताभ्यां द्वात्रिंशता शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि शुद्धानि स्थितं पश्चात्रिंशदधिक शतं १३० तेन च पूर्वा दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - REaurainintamarana ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཎྞཾཏྟཡྻོཝཱ ཝཱ + ༦ལླཱཡྻ -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रशशिवृति: ( मल० ) ॥२१३॥ Education internat पाढा न शुद्धयति, तत आगतं त्रिंशदधिकं शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां पूर्वाषाढा सत्कमवगा चन्द्रस्त्रिंशत्तमं सूर्य परिसमापयति । सम्प्रति सूर्यनक्षत्रयोगभावना क्रियते, स एव पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिः प्रथमसूर्यर्त्तजिज्ञासा | यामेकेन गुण्यते 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव ततः पुष्यसत्का अष्टाशीतिः शुद्धा स्थिते शेषे द्वे शते | सप्तदशोत्तरे २१७ ततः सप्तषष्ठ्या अश्लेषा शुद्धा स्थितं शेषं सार्द्ध शतं १५० ततोऽपि चतुखिंशच्छतेन मघा शुद्धा स्थिताः पश्चात् षोडश, आगतं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य षोडश चतुस्त्रिंशदधिकशत भागानवगाह्य सूर्यः प्रथमं स्वमृतुं परिसमापयति, तथा द्वितीयसूर्यसु जिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ ततोऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धिमगमत् स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ८२७ तेभ्यः सप्तषष्ट्या अश्लेषा शुद्धा स्थितानि शेषाणि सप्त शतानि षष्यधिकानि ७६० तेभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन मघा शुद्धा स्थितानि शेषाणि पट् | शतानि षविंशत्यधिकानि ६२६ तेभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन पूर्वफाल्गुनी शुद्धा स्थितानि पश्चाच्चत्वारि शतानि द्विनवत्यधिकानि ४९२ ततोऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरफाल्गुनी शुद्धा स्थिते द्वे शते एकनवत्यधिके २९१ ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन हस्तः शुद्धः स्थितं पश्चात् सप्तपञ्चाशदधिकं शतं १५७ ततोऽपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन चित्रा शुद्धा स्थिता शेषास्त्रयोविंशतिः २३, आगतं स्वातंत्रयोविंशतिं सप्तषष्टिभागानवगाह्य सूर्यो द्वितीयं स्वमृतुं परिसमापयति, एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीय, त्रिंशत्तमसूर्य सुजिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः, पश्चोत्तरशतत्रयपरिमाण एकोनषष्ट्या गुण्यते जातानि सप्तदश सहस्राणि नव शतानि पञ्चनवत्यधिकानि १७९९५ तत्र चतुर्दशभिः सहस्रैः पह्निः For Penal Use Only ~ 433~ १२ प्राभृते : ऋतुषु चन्द्र सूर्यनक्षत्रयोगः सू ७५ ॥२१३॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा शतैश्चत्वारिंशदधिः १४६४० चत्वारः परिपूर्णा नक्षवपर्यायाः शुद्धाः स्थितानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि पञ्च पश्चाशद-12 [धिकानि ३३५५ तेभ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः स्थितानि पश्चात् द्वात्रिंशच्छतानि सप्तपश्यन्यधिकानि ३२६७ तेभ्यो । द्वात्रिंशता शरष्टापमापदधिक ३२५८ अश्लेषादीनि मृगशिरापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः शेषा नव ९ तेन |चार्दा न शुद्धपति, तत आगतं नव चतुर्विंशदधिकशतभागान् आसत्कानवगाह्य सूर्यस्त्रिंशत्तमं स्वमूतुं परिसमापयति । तदेवमुक्ताः सूर्यर्तवः, सम्पति चन्द्र 'नां चत्वारि शतानि युत्तराणि ४०२, तथाहि-एकस्मिन्नक्षत्रपर्याये चन्द्रस्य षट् ऋतको |भवन्ति चन्द्रस्य च नक्षत्रपाया युगे भवन्ति सप्तषष्टिसयास्ततः सप्तर्षष्टिः पहिर्गण्यते जातानि चत्वारि शतानि | व्युत्तराणि ४०२ एतावन्तो युगे चन्द्रस्य ऋतवः, उक्तं च-"चत्तारि उउसयाई विउत्तराई जुगंमि चंदस्स । एकैकस्प चंद्रोंः परिमाणं परिपूर्णाश्चत्वारोऽहोरात्राः पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य सप्तत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, तथा चोक्तम्-"चंदस्सुस-1 परिमाण पत्तारि अ केवला अहोरसा । सत्तत्तीस अंसा सत्तहिक एण छेएणं ॥१॥" कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, 41 सहकस्मिनक्षत्रपये पटू ऋतव इति प्रागेवानन्तरमुक्तम् , नक्षत्रपर्यायस्य चन्द्रविषयस्य परिमाण सप्तविंशतिरहोरात्राः एकस्ख चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः तत्राहोरात्राणां पविभागो हियते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्ति यस्ते सप्तषष्टिभागकरणाथै सप्तपट्या गुण्यन्ते जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१ तत उपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते वे शते द्वाविंशत्यधिक २२२ तेषां पविर्भागे हते लब्धाः सप्तत्रिंशत् ३७ सप्तषष्टिभागाइति, तेषां च चन्द्रनामानयनाय पूर्वाचायरिदं करणमुक्त-"चंदऊऊआणयणे पर्व पन्नरससंगुणं नियमा। तिहिसखित्तं संत चावट्ठीभागपरिहीणं ॥१॥चोत्तीस दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཎྞཾཏྟཡྻོཝཱ ཝཱ + ༦ལླཱཡྻ -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सूर्यमज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ २१४॥ सयाभिहयं पंचुतर तिसयसंजुयं विभए । छहिं उदमुत्तरेहिय सएहिं लद्धा उऊ होइ ॥ २ ॥” अनयोर्व्याख्या विवक्षितस्यचन्द्रत्तरानयने कर्त्तव्ये युगादितो यत् पर्व - पर्वसङ्ख्यानमतिसङ्क्रान्तं तत्पश्चदशगुणं नियमात् कर्त्तव्यम्, ततस्तिथिसङ्क्षिसमिति - यास्तिथयः पर्वणामुपरि विवक्षितात् दिनात् प्रागतिक्रान्तास्तास्तत्र सङ्क्षिप्यन्ते ततो द्वापष्टिभाग:- द्वापष्टिभागनिष्पन्नैरवमरात्रैः परिहीनं विधेयम्, तत एवंभूतं सच्चतुस्त्रिंशेन शतेनाभिहतं -गुणितं कर्त्तव्यम्, तदनन्तरं च पञ्चोतरैस्त्रिभिः शतैः संयुक्तं सत् षङ्गिर्दशोत्तरैः शतैर्विभजेत्, विभक्ते सति ये लब्धा अङ्कास्ते ऋतवो विज्ञातव्याः । एष करणगाधाद्वयाक्षरार्थः सम्प्रति करणभावना क्रियते, कोऽपि पृच्छति युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कश्चन्द्रतुर्वर्त्तते इति, तत्रैकमपि पर्व परिपूर्णमत्र नाद्याप्यभूदिति युगादितो दिवसा रूपोना प्रियन्ते, ते च चत्वारस्ततस्ते चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतानि षटूत्रिंशदधिकानि ५३६ ततः भूयस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि ३०५ प्रक्षिप्यन्ते जातान्यष्टौ शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि ८४१ तेषां पङ्गिः शतैर्दशोत्तरैर्भागो हियते लब्धः प्रथम ऋतुः अंशा उद्धरन्ति द्वे शते एकत्रिंशदधिके २३१ तेषां चतुखिंशेन शतेन भागहरणं लब्ध एकः, अंशानां चतुखिंशेन शतेन भागो हियते यलभ्यते ते दिवसा ज्ञातव्याः, शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति सप्तनवतिः तेषां द्विकेनापवर्त्तनायां लब्धाः सार्द्धा अष्टाचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः आगतं युगादितः पञ्चम्यां प्रथमः प्रावृलक्षणः ऋतुरतिक्रान्तो द्वितीयस्य ऋतोः एको दिवसो गतो द्वितीयस्य च दिवसस्य सार्द्धा अष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः, तथा कोऽपि पृच्छति युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां For Parts Only ~ 435~ १२ प्राभृते चन्द्रयानयनकरणं सू ७५ | ॥ २१४॥ wor Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], ------- ---------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा कश्चन्द्ररिति, तत्रैक पर्व अतिक्रान्तमित्येको धियते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश एकादश्यां किल पृष्टमिति । | तस्याः पाश्चात्या दश ये दिवसास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाताः पञ्चविंशतिः २५ सा चतुस्त्रिंशेन शतेन गुण्यते जातानि प्रयस्त्रिं-12 शच्छतानि पञ्चाशदधिकानि ३३५० तेषु त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते जातानि षत्रिंशच्छतानि पञ्चपञ्चाश-12 दधिकानि ३६५५ तेषां पह्निः शतैर्दशोत्तरैर्भागो हियते लब्धाः पञ्च अंशा अवतिष्ठन्ते पटू शतानि पञ्चोत्तराणि ६०५ तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागे हृते लब्धाश्चत्वारो दिवसाः ४ शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति एकोनसप्ततिः ६९ तस्या द्विकेना-11 पवर्तनायां लब्धाः सा श्चितुस्विंशरसप्तपष्टिभागाः, आगतं पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य च ऋतोश्चत्वारो दिवसाः पञ्चमस्य दिवसस्य सार्दाश्चतुर्विंशत्सप्तपष्टिभागाः, एवमन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्र रवगन्तव्यः। सम्प्रति चन्द्र परिसमाप्तिदि-13 वसानयनाय यत्पूर्वाचार्यैः करणमुक्तं तदभिधीयते-"पुर्वपिव धुवरासी गुणिए भइए सगेण छेएणं । जं लद्धं सो दिवसो सोमस्स उऊ समत्तीए॥१॥ अस्या व्याख्या-इह यः पूर्व सूर्यप्रतिपादने भवराशिरभिहितः पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशदधिकशतभागानां तस्मिन् पूर्वमिव गुणिते, किमुक्त भवति-ईप्सितेन एकादिना व्युत्तरचतुःशततमप-12 कार्यन्तेन-झुत्तरवृद्धेन एकस्मादारभ्य तत ऊर्व व्युत्तरवृझ्या प्रवर्द्धमानेन गुणिते स्वकेन-आत्मीयेन छेदेन चतुर्विंशदधिक-II शतरूपेण भक्ते सति यहम् स सोमस्य-चन्द्रस्य ऋतो समाप्ती वेदितव्यः, यथा केनापि पृष्टं चन्द्रस्य ऋतुः प्रथमः। करयां तिथी परिसमाप्तिं गत इप्ति, तत्र प्रवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो प्रियते ३०५ स एकेन गुण्यते जातस्तावा-II नेय ध्रुवराशिः तस्य स्वकीयेन चतुर्विंशदधिकशतप्रमाणेन छेदेन भागो हियते, लब्धी द्वी शेषास्तिष्ठति सप्तत्रिंशत् दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - REaurainintamaranaMI ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] प्तिवृत्तिः (मल.) ॥२१॥ गाथा तस्या द्विकेनापवर्तना जाताः सार्धष्टादश सप्तषष्टिभागाः, आगतं युगादितो द्वौ दिवसौ तृतीयस्य च दिवसस्य सार्धन प्राभते अष्टादश सप्तषष्टिभागानतिक्रम्य प्रथमश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिमुपयाति, द्वितीयश्चन्द्र तुजिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पश्चोत्तर- चन्द्रतसशतत्रयप्रमाणसिभिर्गुण्यते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाःमाधितिथषट् शेषमुद्धरति एकादवोत्तरक शतं १११ तस्य द्विकेनापवर्तनायां लब्धाः सार्दाः पञ्चपञ्चाशत् ५५ सप्तपष्टिभागा: यासू ७५ |आगतं युगादितः षट्सु दिवसेष्वतिक्रान्तेषु सप्तमस्य च दिवसस्य सार्वेषु पञ्चपश्चाशत्सङ्गोषु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु द्विती| यश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिं गछति, शुत्तरचतुःशततम जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पञ्चोचरशतत्रयप्रमाणोऽष्टभिः शतैरूयुतरैगुण्यते-गुत्तरवसा व्युत्तरपसा हि व्युत्तरचतु शततमस्य उयुत्तराष्टशतप्रमाण पर राशिर्भवति, तथाहि-यस्य । एकस्मादू शुत्तरपूज्या राशिश्चिन्त्यते तस्य द्विगुणो रूपोनो भवति यथा द्विषस्य त्रीणि त्रिकस्य पश्च चतुष्कस्य सप्त, |अत्रापि युत्तरचतुःशतप्रमाणस्य राशेर्पातरवृया राशिश्चिन्त्यते ततोऽष्टौ शतानि त्र्युत्तराणि भवन्ति, पर्वभूतेन च | राशिना गुणने जाते हे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि पश्चदशोत्तराणि २४४९१५ तेषां चतुर्विंशेन शतेन भागो द्रियते लब्धान्यष्टादश शतानि सप्तविंशत्यधिकानि १८२७ अंशाश्चोद्धरन्ति सप्तनवतिः तस्या द्विकेनापयर्सना लग्धाः सार्दा अष्टाचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः आगतं युगादितोऽष्टादशसु दिवसशतेषु सप्तविंशत्यधिकेष्वतिकान्तेषु | ततः परस्य च दिवसस्य सार्बेष्वष्टाचत्वारिंशत्सङ्ख्येषु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु युत्तरचतुम्शततमस्य चन्द्रोंः परिसमाप्ति| रिति । एतेषु च चन्द्रपुषु चन्द्र नक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ एष पूर्वाचार्योपदेशः,"सो घेच धुवो रासी गुणरासीवि अ हर्वति दीप अनुक्रम [१०६ *ॐ*55535 [اه ؟ - ~ 437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] %*962 गाथा ते चेव । नक्खत्तसोहणाणि अपरिजाणसु पुषभणियाणि ॥१॥" अस्या गाथाया व्याख्या-चन्द्रनां चन्द्रनक्षत्रयोगाथै स एव पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिर्वेदितव्यः, गुणराशयोऽपि-गुणकारराशयोऽपि एकादिका श्युत्तरवृद्धास्त एव | भवन्ति ज्ञातच्या ये पूर्वमुपदिष्टा नक्षत्रशोधनान्यपि च परिजानीहि तान्येव यानि पूर्वभणितानि द्वाचत्वारिंशत्प्रभृतीनि, IC) ततः पूर्वप्रकारेण विवक्षिते चन्द्रत्तौं नियतो नक्षत्रयोग आगच्छति, तत्र प्रथमे चन्द्रतौं कश्चन्द्रनक्षत्रयोग इति जिज्ञासायां | स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिर्धियते ३०५ स एकेन गुण्यते एकेन चगुणितः सन् तावानेव भवति ततोऽभिजितो | दाचत्वारिंशत् शुद्धा शेषे तिष्ठते द्वे शते विषयधिकरपरततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः स्थितं पश्चादेकोनत्रिंशतं शतं१२९ तस्य विकेनापवर्तना जाता सार्दाश्चतुःषष्टिः सप्तषष्टिभागाः, आगतं धनिष्ठायाः सार्नी चतुःषष्टिं सप्तषष्टिभागानवगाह्य चन्द्रः जप्रथम स्वमूतुं परिसमापयति, द्वितीयचन्द्र जिज्ञासायां स एव चवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणनिभिर्गुण्यते जातानि नव शतानि पशदशोत्तराणि ९१५ तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा स्थितानि शेषाणि भष्टी दातानि त्रिसप्तत्यधि-11 कानि ८७३ ततश्चतुर्विंशदधिकेन शतेन श्रवणः शुद्धिमुपगतः स्थितानि शेषाणि सप्त शतान्येकोनचत्वारिंशदधिकानि 181७३९ ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा जातानि षट् शतानि पश्चोत्तराणि ६०५ ततोऽपि सप्तषश्या शतभिषक् शुद्धा IMIस्थितानि पश्चात्पश्च शताम्यष्टात्रिंशदधिकानि ५३८ एतेभ्योऽपि चतस्त्रिंशेन शतेन पर्वभद्रपदाशद्धा स्थित्तानि चतरधिकानि चत्वारि शतानि ४०४ तेभ्योऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा स्थिते शेषे द्वेशते व्युत्तरे २०३ ताभ्यामपि चतुर्विंशेन शतेन रेवती शुद्धा स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः ६९ आगतमश्विनीनक्षत्रस्यैकोनसप्ततिं चतुर्विंशदधिका-1 दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा सूर्यप्रज्ञ तभागानामवगाह्य द्वितीय स्वमृतु चन्द्रः परिसमापयति, तथा ट्युत्तरचतुःशततमचन्द्र जिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पञ्च- १२माभूते सिवृत्तिः तरशत्ययप्रमाणो धियते, धृत्वा चाष्टभिः शतैः व्युत्तरैगुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि | चन्द्रपु (मल०) | पञ्चदशोत्तराणि २४४९१५, तत्र सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं षट्त्रिंशच्छतानि षट्यधिकानि, तथाहि-पट्स अर्द्धक्षेत्रेषु । चन्द्रनक्षत्र | नक्षत्रेषु प्रत्येक सप्तपष्टिरंशा व्यर्द्धक्षेत्रेषु नक्षत्रेषु प्रत्येक द्वे शते एकोत्तरे अंशानां पञ्चदशसु समक्षेत्रेषु प्रत्येकं चतुविश करण ||२१६॥ शितमिति षट् सप्तपष्टया गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि वृत्तराणि ४०२ तथा पटू एकोत्तरेण शतब्येन गुण्यन्ते जातानि द्वादश शतानि पदुसराणि १२०६ तथा चतुर्विंशं शतं पश्चदशभिर्गुण्यते जातानि विंशतिः शतानि दशोत्सराणि २०१० एते च त्रयोऽपि राशयः एकत्र मील्यन्ते मीलयित्वा च तेष्वभिजितो द्वाचत्वारिंशत्प्रक्षिप्यन्ते, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि, एतावता एकनक्षत्रपर्यायपरिमाणेन पूर्वराशेः २४४९१५ भागो हियते, लब्धाः पट्षष्टिर्नक्षत्रपययाः पश्चादयतिष्ठन्ते पञ्चपञ्चाशदधिकानि वयखिंशच्छतानि ३३५५, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धा स्थितानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि त्रयोदशाधिकानि ३३१३ एतेभ्यस्त्रिभिः सहस्रशीत्यधिकैरनुराधान्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि शेषे तिष्ठतों द्वे शते एकत्रिंशदधिके २३१ ततः सप्तषष्ट्या ज्येष्ठा शुद्धा स्थितं चतुःषष्ट्यधिक शतं १६४ ततोऽपि चतुत्रिंशेन शतेन मूलनक्षत्र शुद्ध स्थिता पश्चात् त्रिंशत् ३०, आगतं पूर्वाषाढानक्षत्रस्य त्रिंशतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागाना-IPI २१६॥ रामवगाह्य चन्द्रो व्युत्तरचतुःशततम स्वमूतुं परिनिष्ठापयति। तदेवमुक्तं सूर्य परिमाणं चन्द्रर्तुपरिमाणं च, सम्पति लोक-II ट्या यावदेकैकस्य चन्दौः परिमाणं तावदाह-ता सवेवि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सर्वेऽप्येते षट्सङ्ग्याः। दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~ 439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] 594 गाथा का प्रावृद्धादय ऋतयः प्रत्येकं चन्द्रवः सन्तो द्वौ द्वौ मासी वेदितव्यौ, तीच किंप्रमाणावित्याह-तिचउप्पण'मित्यादि. श्रीणि शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि रात्रिंदिवानां द्वादशं च द्वापष्टिभागा रात्रिंदिवस्येति शेषः, इत्येवंरूपेणादानेन | इत्येवरूप संवत्सरममाणमादायेत्यर्थः गण्यमानौ द्वौ मासौ सातिरेकाणि-मनागधिकानि द्वाभ्यां रात्रिंदिवस्य द्वापष्टिभागाभ्यामधिकानीति भावः एकोनषष्टिरेकोनषष्टिः रात्रिंदिवानि रात्रिंदिवाण-रात्रिदिवपरिमाणेनाख्यातापिति वदेत् । तथाहि-द्विद्विमासप्रमाणाः पट् ऋतव इति त्रयाणां चतुःपञ्चाशदधिकानां रात्रिंदिवशतानां पद्दभिर्भागे हते लम्धा एकोनिषष्टिरहोरात्रा द्वादशानां च द्वाषष्टिभागानां षभिर्भागहारे द्वौ द्वाषष्टिभागौ इति, एवं च सति कर्ममासापेक्षया | एकैकस्मिन् ऋतौ लौकिकमेककं चन्द्र मधिकृत्य व्यवहारत एकैकोऽयमरात्रो भवति, सकले तु कर्मसंवत्सरे| पाट अवमराबाः, तथा चाह-'तत्थे"त्यादि, तब-कर्मसंवत्सरे चन्द्रसंवत्सरमधिकृत्य व्यवहारतः खस्विमे यक्ष्यमा क्रमाः षट् अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तइए पवे'इत्यादि सुगमम् , इयमत्र भावना-इह कालस्य सूर्यादिक्रियोपलक्षितस्यानादिप्रवाहपतितप्रतिनियतस्वभावस्य न स्वरूपतः कापि हानि पि कश्चिदपि स्वरूपोपचयो यरिवदमवमरात्रातिरात्रप्रतिपादनं तत्परस्परं मासचिन्तापेक्षया, तथाहि-कर्ममासमपेक्ष्य चन्द्रमासस्य चिन्तायामवमराबसम्भवः । कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्तायामतिरात्र कल्पना, तथा चोक्तम्-"कालस्स नेव हाणी नवियुही या अवडिओ कालो। |जायइ बहोवही मासाणं एकमेकाओ ॥१॥" तत्रावमरात्रभाधनाकरणार्थमिदं पूर्वाचार्योपदर्शितं गाथाद्वयं-"चंदऊऊमासाणं भंसा जे दिस्सए बिसेसमि । ते भोमरत्तभागा भवंति मासस्स नायबा ॥ १ ॥ बावद्विभागमेग दिवसे | दीप अनुक्रम [१०६ -45-45 [اه ؟ - -5 ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा सूर्यमश-18| संजाइ ओमरत्तस्स । बावडीए दिवसेहिं ओमरत्तं तओ हवइ ॥२॥" अनयोाख्या-कर्ममासः परिपूर्णत्रिंशदहो- १२ पाभुते तिवृत्तिःस रात्रप्रमाणश्चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, ततश्चन्द्रमासस्य-चन्द्रमासपरिमा- चन्द्र षु (मला सणस्य ऋतुमासस्य च-कर्ममासपरिमाणस्य च इत्यर्थः, परस्परविश्लेषः क्रियते, विश्लेषे च कृते सति ये अंशा उद्ध- चन्द्रन क्षत्र ॥२१७॥ |रिता दृश्यन्ते त्रिंशत् द्वापष्टिभागरूपाः ते अवमरात्रस्य भागाः तयपमरात्रंस्य परिपूर्ण मासद्वयपर्यन्ते भवति, सू७५ ततस्तस्य सरकारले भागा मासस्थावसाने द्रष्टव्याः, यदि त्रिंशति दिवसेषु त्रिंशद् द्वापष्टिभागा अधमरात्रस्य प्राप्यन्ते तत अवमरात्रिएकस्मिन् दिवसे कतिभागाः प्राप्यन्ते, राशित्रयस्थापना-३०।३०।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य | NTकरण राशेविंशद्रूपस्य गुणनं, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातास्त्रिंशदेव, तस्या आदिराशिना त्रिंशता भागे हते लब्ध लाएका, आगतं प्रतिदिवसमेकैको द्वापष्टिभागो लभ्यते, तथा चाह-यावढि'त्यादि, द्वापष्टिभाग एकैको दिवसे दिवसे संजा-II यते अवमरावस्य, गाथायामेकशब्दो दिवसशब्दश्चागृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति नपुंसकनिर्देशश्च प्राकृत-IN लक्षणवशात् , तदेवं यत एकैकस्मिन् दिवसे एकैको द्वापष्टिभागोऽवमरात्रस्य सम्बन्धी प्राप्यते ततो द्वापण्या दिवसैरेकोऽ-| Mवमरात्रो भवति, किमुक्तं भवति ?-दिवसे दिवसे अवमरात्रसत्कैकैकद्वापष्टिभागवड्या द्वापष्टितमो भागः सञ्जायमानो द्वाषष्टितमदिवसे मूलत एव त्रिषष्टितमा तिथिः प्रवर्तते इति, एवं च सति य एकषष्टितमोऽहोरात्रस्तस्मिन्नेकपष्टितमाT ॥२१७३ द्वाषष्टितमा च तिथिनिधनमुपगतेति द्वापष्टितमा तिथिलोंके पतितेति व्यवहियते, उक्त च-"एकसि अहोरसे दोवि तिही जत्थ निहणमेजासु । सोरथ तिही परिहायइ" इति वर्षाकालस्य-चतुर्मासप्रमाणस्य श्रावणादेः तृतीये पर्वणि सति प्रथमोऽ दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] - 2 8 -0 गाथा शिवरात्रः,तस्यैव वर्षाकालस्य सम्बन्धिनि सप्तमे पर्वणि सति द्वितीयोऽवमरात्रस्तदनन्तरं शीतकालस्य तृतीये पर्वणि मूलापेक्षया एकादशे तृतीयोऽवमरात्रः तस्यैव शीतकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलापेक्षया पञ्चदशे चतुर्धः तदनन्तरं ग्रीष्मकालस्य तृतीये पर्वणि | मूलापेक्षया एकोनविंशतितमे पञ्चमस्तस्यैव ग्रीष्मकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलापेक्षया त्रयोविंशतितमे पष्ठः, तथा चोक्तम्"तइयम्मि ओमरतं कायर्ष सत्तमंमि पर्वमि । वासहिमगिम्हकाले चाउम्मासे विधीयते ॥ १॥" इह आषाढाद्या ऋतवो लोके प्रसिद्धिमैया, ततो लौकिकन्यवहारमपेक्ष्यापाढादारभ्य प्रतिदिवसमेकैकद्वापष्टिभागहान्या वर्षाकालादिगतेषु तृतीयादिषु पर्वसु यथोक्ता अवमरात्राः प्रतिपाद्यन्ते, परमार्थतः पुनः श्रावणबहुलपक्षप्रतिपल्लक्षणात् युगादित आरभ्य चतुचतुःपातिक्रमे वेदितव्याः, अथ युगादितः कतिपर्वातिकमे कस्यां तिथाववमरात्रीभूतायां तया सह का तिथिः परिसमाप्तिं यास्यतीति चिन्तायामिमाः पर्वाचायोपदर्शिताः प्रश्ननिर्वचनरूपा गाथा:-"पाडिवयओमरते कइया विदया समप्पिहीइ तिही। विइयाए वा तइया तइयाए वा चउत्थी उ॥१॥ सेसासु चेव काहिइ तिहीसु बबहारगणियदिवासु ।। सुहुमेण परिलतिही संजायइ कमि पर्वमि ॥२॥ रूवाहिगा ऊऊया बिगुणा पवा हवंति कायबा । एमेव हवइ जुम्मे एक-11 तीसा जुया पबा ॥ ३॥” एतासां व्याख्या-इह प्रतिपद आरभ्य यावत्पञ्चदशी एतावत्यस्तिथयस्तासां च मध्ये प्रति|पद्यवमरात्रीभूतायां सत्यां कस्मिन् पर्वणि-पक्षे द्वितीया तिथिः समाप्स्यति-प्रतिपदा सह एकस्मिन्नहोरात्रे समाप्तिमुप-18 | यास्यतीति !, द्वितीयायां वा तिथाववमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि तृतीया समाप्तिमेष्यति, तृतीयायां वा तिथाववम-11 रात्रीसम्पन्नायां कस्मिन् पर्वणि चतुर्थी निधनमुपयास्यति !, एवं शेषास्वपि तिथिषु व्यवहारगणितदृष्टासु-लोकप्रसिद्ध-11 - दीप अनुक्रम [१०६ -- - [اه ؟ - - ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཎྞཾབྷཱཝོལཱ ཡྻཱ + ཊྛཡྻཱཡྻ -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ व्यवहारगणितपरिभावितासु पञ्चमी षष्ठी सप्तम्यष्टमी नवमी दशमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशीरूपासु तिवृत्तिः ४ शिष्यः प्रश्नं करिष्यति, यथा-सूक्ष्मेण - प्रतिदिवस में कैकेन द्वापष्टिभागरूपेण श्लक्ष्णेन भागेन परिहीयमानायां तिथौ पूर्वस्याः ( मल० ) 2 पूर्वस्या अमवमरात्रीभूतायास्तिथेरानन्तर्येण परापरा तिथिः कस्मिन् पर्वणि सञ्जायते समाप्तिः १, पतदुक्तं भवति चतुर्थ्या ॥२१८॥ तिथायवमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि पञ्चमी समाप्तिमुपैति पञ्चम्यांचा षष्ठी एवं यावत्पञ्चदश्यां तिथायवमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि प्रतिपद्रूपा तिथिः समाप्नोतीति शिष्यस्य प्रश्नमवधार्य निर्वचनमाचार्य आह-'स्वाहिगाउ' इत्यादि इह याः शिष्येण प्रश्नं कुर्वता तिथय उद्दिष्टास्ता द्विविधास्तद्यथा-ओजोरूपा युग्मरूपाश्च, ओजो विषमं युग्मं समं तत्र या ओजोरू पास्ताः प्रथमतो रूपाधिकाः क्रियन्ते ततो द्विगुणास्तथा च सति तस्यास्तस्यास्तिथेर्युग्मपर्वाणि निर्वाचन रूपाणि समागतान भवन्ति, 'एमेव हवइ जुम्भे' इति या अपि युग्मरूपास्तिथयस्तास्वपि एवमेव पूर्वोक्तेनैव प्रकारण करणं प्रवर्त्तनीयम् नवरं द्विगुणीकरणानन्तरं एकत्रिंशद्युताः सत्यः पर्वाणि निर्वचनरूपाणि भवन्ति, इयमत्र भावना - यदाज्यं प्रश्नः कस्मिन् पर्वणि प्रतिपदि अवमरात्रीभूतायां द्वितीया समापयतीति, तदा प्रतिपत् किलोद्दिष्टा, सा च प्रथमा तिथिरित्येको प्रियते, स रूपाधिकः क्रियते, जाते द्वे रूपे ते अपि द्विगुणीक्रियेते जाताश्चत्वार आगतानि चत्वारि पर्वाणि ततोऽयमर्थः- युगादितश्चतुर्थे पर्वणि प्रतिपद्यवम रात्रीभूतायां द्वितीयासमाप्तिमुपयातीति युक्तं चैतत् तथाहि प्रतिपद्युद्दिष्टायां चत्वारि पर्याणि | समागतानि पर्व च पञ्चदशतिथ्यात्मकं ततः पञ्चदश चतुर्भिर्गुण्यन्ते जाता षष्टिः ६०, प्रतिपदि द्वितीया समापयतीति द्विरूपे तत्राधिके प्रक्षिसे जाता द्वाषष्टिः, सा च द्वापट्या भज्यमाना निरंशं भागं प्रयच्छति, लब्ध एकक इत्यागतः प्रथमोऽवमरात्र For Parts Only ~443~ १२ प्राभूते अवमरात्रिकरणं सू ७५ ॥२१८॥ wor Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा इत्यविसंवादिकरणं, यदा तु कस्मिन् पर्वणि द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समाप्नोतीति प्रश्नस्तदा द्वितीया किल परेणोद्दिष्टेति द्विको भियते, सरूपाधिकः कृतो जातानि त्रीणि रूपाणि तानि द्विगुणीक्रियन्ते जाताः पटू द्वितीयाच तिथि समेति षट् एकत्रिंशद्युताः क्रियन्ते जाताः सप्तत्रिंशत् आगतानि निर्वचनरूपाणि सप्तत्रिंशत् पर्वाणि, किमुक्त भवति ?-युगा-121 ४ादितः सप्तत्रिंशत्तम पर्वणि गते द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समामोति, इदमपि करणं समीचीनं, तथाहि-द्वितीयाया| मुद्दिष्टायां सप्तत्रिंशत्पाणि समागतानि, ततः पञ्चदश सप्तत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि | ५५५ द्वितीया नष्टा तृतीया जातेति त्रीणि रूपाणि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्च शतानि अष्टापश्चाशदधिकानि ५५८, एषोऽपि राशिपिया भग्यमानो निरंशं भागं प्रयच्छति, लब्धाच नवेत्यागतो नवमोऽवमरात्र इति समीचीनं करणं, एवं सर्वास्वपि तिथिषु करणभावना करणसमीचीनत्वभावना अवमरात्रसङ्ख्या च स्वयं भावनीया, पर्यनिर्देशमात्रं तु क्रियते, तत्र तृतीयायां चतुर्थी समापयतत्यष्टमे पर्वणि गते 'चतुर्थ्यां पचमी एकचत्वारिंशत्तमे पर्वणि पञ्चम्यां षष्ठी द्वादशे पर्वणि षष्ट्या सप्तमी पञ्चचत्वारिंशत्तमे सप्तम्यामष्टमी षोडशे अष्टम्यां नवमी एकोनपञ्चाशत्तमे | नयम्यां दशमी विंशतितमे दशम्यामेकादशी त्रिपञ्चाशत्तमे एकादश्यां द्वादशी चतुर्विंशतितमे द्वादश्यां त्रयोदशी सप्तपञ्चाशत्तमे त्रयोदश्यां चतुर्दशी अष्टाविंशतितमे चतुर्दश्यां पञ्चदशी एकषष्टितमे पञ्चदश्यां प्रतिपत् द्वात्रिंशत्तमे इति, एवमेता युगपूर्वा, एवं युगोत्तराद्धेऽपि द्रष्टव्याः। तदेवमुका अवमरात्राः, सम्पत्यतिरात्रप्रतिपादनार्थमाह-'तत्धे'त्यादि, तत्रैकस्मिन संवत्सरे खल्विमे पट् अतिरात्राः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-'चउत्थे पञ्चे'इत्यादि, इह कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्ता दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - SAREaratininamaran ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] ॥२१॥ गाथा सूर्यप्रज्ञ- यामेकैकसूर्य परिसमाप्तावेकैकोऽधिकोऽहोरात्रः प्राप्यते, तथाहि-त्रिंशताऽहोरात्रैरेकः कर्ममासः सात्रिंशताऽहोरात्रैरेकः१२प्राभूतप्तिवृत्तिःलासूर्यमासो मासध्यात्मकच ऋतुस्तत एकसूर्य परिसमाप्ती कर्ममासद्धयमपेक्ष्यकोऽधिकोऽहोरात्र प्राप्यते, सूर्यतचापाढा-प्रातिराना (मल०) दिकस्तत आपाढादारभ्य चतुर्थे पर्वणि गते एकोऽधिकोऽहोरात्रो भवत्यष्टमे पर्वणि गते द्वितीयस्तृतीयो द्वादशे पर्वणि| चतुर्थ: पोडशे पशमो विंशतितमे पष्ठश्चतुर्विंशतितमे इति, अवमरात्रश्च कर्ममासद्वयमपेक्ष्य चन्द्रमासचिन्तायां, चन्द्र-11 आवृत्तयः मासाश्च श्रावणाद्यास्ततो वर्षाकालस्य श्रावणादेरित्युक्तं प्राग, सम्प्रति यमपेक्ष्यातिरात्रो यं चापेक्ष्यावमरात्रा भवन्ति तदेतत्प्रतिपादयति-"छचेव व अइरत्ता आइचाउ हवंति माणाहि । छच्चेव ओमरत्ता चंदाउ हवंति माणाहि ॥१॥" अतिरात्रा भवन्त्यादित्यात्-आदित्यमपेक्ष्य, किमुक्तं भवति !-आदित्यमपेक्ष्य कर्ममासचिन्तायां प्रतिवर्ष पद अतिरात्रा भवंति || इति माणाहि-जानीहि, तथा षट् अवमरात्रा भवन्ति चन्द्रात्-चन्द्रमपेक्ष्य चन्द्रमासानधिकृत्य कर्ममासचिन्तायां प्रतिस-13 वत्सरं पटू अवमराना भवन्तीत्यर्थः इति माणाहि-जानीहि । तदेवमुक्ता अवमरात्रा अतिरात्राथ, संप्रत्यावृत्तीविक्षुरिदमाह-1& | तत्व खलु इमाओ पंच वासिकीओ पंच हेमंताओ आउट्टिओ पण्णत्ताओ, ता एएसिणं |पंचण्हं संवच्छराणं पढमं वासिकी आजहि चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति ?, ता अभीयिणा, अभी-| बिस्स पढमसमएणं, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पूसेणं, पूसस्स एगूणवीसं | ॥२१९॥ मुहत्ता तेत्तालीसं च यावद्विभागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीस चुण्णिपा भागा| |सेसा, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं वासिक्किं आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ! ता दीप अनुक्रम [१०६ [اه ؟ - ~445~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-], ---------- ------ मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप संठाणाहिं संठाणाणं एफारस मुहत्ते ऊतालीसं च वावविभागा मुहत्तस्स बाबविभागं च सत्तद्विधा छत्ता तेपणं चुणिया भागा सेसा, तं समय सूरे केणं णक्वत्तेणं जोएति ? ता पूसेणं, पूसस्स गं तं य ज पढमया, | एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तथं चासिक्किं आउदि चंदे केणं णक्खसेणं जोएइ, ता विसाहाहिं विसा| हाणं तेरस मुहुत्ता चप्पणं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स पावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चत्तालीस चुणिया &भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता प्रसेणं, प्रसस्स तं चेव, ता एतेसि णं पंचहर |संबच्छराणं चउत्थं वासिकं आउदि चंदे केणं णक्णत्तेणं जोएति ?, ता रेवतीहि, रेवतीणं पणवीसं मुहुसायासटिभागा मुहत्तस्स चावहि भागं च सत्तद्विधा छत्ता बत्तीस चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण णक्खत्तेणं जोएति !, ता पूसेणं पूसस्स संचेव, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं चासिफि आउट्टि चंदे केणं पक्वत्तेणं जोएति !, ता पुबाहि फग्गुणीहिं पुवाफग्गुणीणं बारस मुहसा सत्तालीसं च बावहिसभागा मुहत्तस्स यावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेरस चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणंणक्ख तेणं जोएति ?, ता पूसेणं, पूसस्स तं चेव (सूत्रं ७६) का तत्र-युगे खस्विमा:-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पाश वापिक्यः-वर्षाकालभाविन्यः पञ्च हेमन्त्यः-शीतकालभाविन्यः सर्वसङ्लया। दश आवृत्तयः सूर्यस्य प्रज्ञप्ताः,इयमत्र भायना-आवृत्तयो नाम भूयो भूयो दक्षिणोत्तरगमनरूपास्ताश्च द्विविधाः, तद्यथा-एका सूर्यस्यावृत्तयोऽपराश्चन्द्रमसः, तत्र युगे सूर्यस्यावृत्तयो दश भवन्ति, चतुस्त्रिंशं च शतमावृत्तीनां चन्द्रमसः, उक्त च-"सूर-19 अनुक्रम [१०८] ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रश वृित्तिः ( मल० ) ||२२० ॥ रस य अयणसमा आउट्टीओ जुगंमि दस होंति । चंदस्स य आउट्टी सयं च चोत्तीसयं चैव ॥१॥” अथ कथमवसीयते सूर्यस्यावृत्तयो युगे दश भवन्ति चन्द्रमसश्चावृत्तीनां चतुस्त्रिंशं शतमिति, उच्यते, उक्तं नाम आवृत्तयो भूयो भूयो दक्षिणोत्तर* गमनरूपास्ततः सूर्यस्य चन्द्रमसो वा यावन्त्ययनानि तावत्य आवृत्तयः, सूर्यस्य चायनानि दश, एतच्चावसीयते त्रैराशि४५ कबलात् तथाहि यदि व्यशीत्यधिकेन शतेन दिवसानामेकमयनं भवति ततोऽष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकः कति अयनानि लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना १८३ । १ । १८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यमस्य राशेर्गुणनं एकस्य च गुणने * तदेव भवतीति जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तेषामाद्येन राशिना व्यशीत्यधिकशतप्रमाणेन भागहरणं ॐ लक्ष्धा दश, आगतं युगमध्ये सूर्यस्य दश अयनानि भवन्तीत्यावृत्तयोऽपि दश, तथा यदि त्रयोदशभिर्दिवसैश्चतुश्चत्वारिंशता च सप्तषष्टिभागैरेकं चन्द्रस्यायनं भवति ततोऽष्टादशभिर्दिवसशतैस्त्रिंशदधिकैः कति चन्द्राययनानि भवन्ति । । १ । * १८३० । तत्राद्ये राशौ सवर्णनाकरणार्थं त्रयोदशापि दिनानि सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, यानि चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि तान्यपि सवर्णनार्थं सप्तपश्या गुण्यन्ते, जातानि द्वादश लक्षाणि द्वे सहस्रे पटू शतानि दशोत्तराणि १२०२६१० तश्चैवंरूपेणान्त्येन राशिना मध्यमस्य राशेरेककरूपस्य गुणनं, एकस्य च गुणने तदेव भवतीत्येतावानेव राशिर्जातस्तस्य नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्भागो हियते लब्धं चतुस्त्रिंशं शर्त १३४ एतावन्ति चन्द्रायणानि युगमध्ये भव न्तीत्येतावत्यश्चन्द्रमस आवृत्तयः । सम्प्रति का सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथी भवतीति चिन्तायां यत्पूर्वाचार्यैरुपदर्शितं For Parts Only ~ 447~ १२ प्राभृते आवृत्तयः सू ७६ ॥२२०॥ wor Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 0528 सूत्रांक - [७६] दीप करणं तदुपदश्यते-"आउट्टीहिं एगूणियाहिं गुणियं सयं तु तेसीयं । जेण गुणं तं तिगुणं रूवहियं पक्खिये तस्थ ॥१॥ पण्णरस भाइयमि उजं लद्धं तं तइसु होइ पवेसु । जे अंसा ते दिवसा आउट्टी तत्व बोद्धया ॥२॥" अनयोाख्या-आवृत्तिभिरेकोनकाभिर्गुणितं शतं त्र्यशीत्यधिकं, किमुकं भवति ।-या आवृत्तिविशिष्टतिथियुक्ता ज्ञातुमिष्यते | तत्सङ्ख्या एकोना क्रियते, ततस्तया व्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, गुणयित्वा च येनाङ्केन गुणितं व्यशीत्यधिकं शतं | तदङ्कस्थानं त्रिगुणं कृत्वा रूपाधिकं सत् तत्र पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, ततः पञ्चदशभिर्भागो हियते, हते च भागे यल्लब्ध तितिषु-तावत्सङ्ख्याकेषु पर्वस्वतिक्रान्तेषु सा विवक्षिता आवृत्तिर्भवति, ये त्वंशाः पश्चादुद्धरितास्ते दिवसा ज्ञातव्याः, तत्र-16 तेषु दिवसेषु मध्ये चरमदिवसे आवृत्तिर्भवतीति भावः, इहावृत्तीनामेवं क्रमो-युगे प्रधमा आवृत्तिः श्रावणे मासे द्वितीया माघमासे तृतीया भूयः श्रावणे मासे चतुर्थी माघमासे पुनरपि पञ्चमी श्रावणे षष्ठी माघमासे भूयः सप्तमी श्रावणे अष्टमी माघे नवमी श्रावणे दशमी माघमासे इति, तत्र प्रथमा किल आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति यदि जिज्ञासा तदा प्रथमावृत्तिस्थाने एकको ध्रियते स रूपोनः क्रियते इति न किमपि पश्चाद्रूपं प्राप्यते, ततः पाश्चात्ययुगभाविनी या द शमी आवृत्तिस्तत्सङ्ख्या दशकरूपा ध्रियते तया व्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, दशकिन किल गुणितं व्यशीत्यधिकं शतमिति ते दश त्रिगुणाः क्रियन्ते जाता त्रिंशत् सा रूपाधिका विधेया जाता एकत्रिंशत् सा पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते जातान्यष्टादश शतान्येकपट्यधिकानि १८६१ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धं चतुर्विंशत्यधिक शतं शेष तिष्ठति एक रूपं, आगतं चतुर्विंशत्यधिकपर्वशतात्मके पाश्चात्ये युगेऽतिक्रान्ते अभिनवे युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमा | %25-%25% अनुक्रम [१०८] ~ 448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-], ---------- ------ मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: विवृत्तिः प्रत म सूत्रांक [७६] दीप सूर्यमज्ञ- आवृत्तिः प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि भवतीति, तथा कस्यां तिथौ द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिर्भवतीति यदि जिज्ञासा प्राभने ततो द्विको भियते, स रूपोनः कृत इति जात एककस्तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति | (मल०) पतातिआवृत्तयः जातं ज्यशीत्यधिकमेव शतं, एकेन गुणितं किल त्र्यशीत्यधिक शतमिति एकत्रिगुणीक्रियते, जातत्रिकः स रूपाधिको ॥२२॥ विधीयते, जाताश्चत्वारः ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातं सप्ताशीत्यधिक शतं १८७, तस्य पश्चदशभिर्भागो हियते, लब्धा द्वादश शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, आगतं युगे द्वादशसु पर्वस्वतिक्रान्तेषु माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्यां तिथौ द्वितीया माघमासभाविनीनां तु मध्ये प्रथमा आवृत्तिरिति, तथा तृतीया आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति जिज्ञासायां त्रिको ध्रियते, स स्पोनः कर्तव्य इति जातो द्विकः तेन व्यशीत्यधिक शतं गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि ३६६, द्विकेन 1 किल गुणितं त्र्यशीत्यधिक शतं ततो द्विकस्त्रिगुणीक्रियते जाताः षट् ते रूपाधिकाः क्रियन्ते जाताः सप्त ते पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जातानि नीणि शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ३७३ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धा चतुर्विंशतिः २४ शेषा-1 स्तिष्ठन्ति त्रयोदशांशाः, आगतं युगे तृतीया आवृत्तिः श्रावणमासभाविनीनां तु मध्ये द्वितीया चतुर्विंशतिपर्वात्मके प्रथमे | संवत्सरेऽतिक्रान्ते श्रावणमासे बहुलपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ भवतीति, एवमन्यास्वप्यावृत्तिषु करणवशाद्विवक्षितास्तिथयः। आनेतन्याः, ताश्चेमा युगे चतुर्था माघमासभाविनीनां तु मध्ये द्वितीया शुक्लपक्षे चतुथ्यो पञ्चमी श्रावणमासभाविनीनां तु ॥२२॥ मध्ये तृतीया शुकुपक्षे दशा षष्ठी माघमासभाविनीनां तु मध्ये तृतीया माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तमी श्रावण-| मासभाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तम्यां अष्टमी माघमासभाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी माघमासे बहु अनुक्रम [१०८] ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-1, ---------- ------ मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप लपक्षे त्रयोदश्यां नवमी श्रावणमासभाविनीनां तु मध्ये पञ्चमी श्रावणमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां दशमी माघमासभावनीनां दातु मध्ये पञ्चमी माघमासे शवपक्षे दशम्या, तथा चैता एवं पञ्चानां श्रावणमासभाविनीनां पश्चानां तु माघमासभाविनीनां : तिथयोऽन्यत्राप्युक्ताः-"पढमा बहुलपडिबए विइया बहुलप्स तेरसी दिवसे । सुद्धस्स य दसमीए बहुलस्स य सत्तमीए छ IP॥१॥ सुद्धस्स चउत्थीए पयत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सबाओ साधणे मासे ॥२॥ बहुलस्स सत्तमीए| पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए । बलस्स य पाडिवए बहुलस्स य तेरसीदिवसे ॥३॥ सुद्धस्स य दसमीए पवत्तए पंच-18 मी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सबाभो भाहमासंमि ॥ ४॥ एतासु सूर्यावृत्तिषु च चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थमिदं & करण-"पंच सया पडिपुष्णा तिसत्तरा नियमसो मुहुत्ताण । छत्तीस बिसद्विभागा छच्चेव य चुणिया भागा ॥१॥ आउद्दीहिं एगूणियाहि गुणिओ हविज धुवरासी । एयं मुहुत्तगणियं एत्तो वोच्छामि सोहणगं ॥ २ ॥ अभिइस्स नय मुहत्ता विसहि भागा य होति चउवीसं । छावठ्ठी य समग्गा भागा सत्तहिछेयकया ॥ ३ ॥ उगुणडं पोढवया तिसु चेव न वोत्तरेसु रोहिणिया । तिमु नवनउइएसु भवे पुणबसू उत्तरा फग्गू ॥ ४॥ पंचेव अउणपना समाई उगुणत्तराई छोय ।। ४ सोज्झाहि बिसाहासुं मूले सत्तेव वायाला ॥ ५ ॥ अट्टसय मुगुणवीसा सोहणगं उत्तरा असाढाणं । चउवीसं खलु भागा छावडी चुणिया भागा॥ ६॥ एयाई सोहइत्ता जं सेसं ते हवेज नक्खत्तं । चंदेण समाउत्तं आउट्टीए उ बोद्धयं ॥७॥" एतासां व्याख्या-पञ्च शतानि त्रिसप्ततानि-त्रिसप्तत्यधिकानि परिपूर्णानि मुहूर्तानां भवन्ति पत्रिंशच द्वापष्टिभागाः पट् चैव चूर्णिका भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तषष्टिभागाः एतावान् विवक्षितकरणे ध्रुवराशिः, कथम अनुक्रम [१०८] 55*5*१६-525 ~450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] ॥२२२॥ दीप सूर्यप्रज्ञ-शस्योत्पत्तिरिति चेत् , उच्यते, इह यदि दशभिः सूर्यायनैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन सूर्यायनेन किं १२माभृते प्तिवृत्तिःलभामहे !, राशित्रयस्थापना-१० । ६७।१। अत्रान्त्येन राशिना एककेन मध्यस्य राशेः सप्तषष्टिलक्षणस्य गुणना आवृत्तयः (मल.) एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता सप्तषष्टिः ६७ तस्य दशभिर्भागहारे लन्धाः षट् पर्यायाः एकस्य च पर्योथस्य || सू७६ सप्त दशभागास्तद्गतमुहर्तपरिमाणमधिकृतगाथायामुपन्यस्त, कथमेतदवसीयते अर्थतावन्तस्तत्र मुहर्ता इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिककर्मावतारबलात् , तथाहियदि दशभिर्भागः सप्तविंशतिदिनानि एकस्य च दिनस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागा लभ्यन्ते ततः सप्तभिर्भागः किं लभामहे !, राशिवयस्थापना-१० ॥ २७-२८-७ । अत्रान्त्येन राशिना सप्त-IM कलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तविंशतिर्दिनानि गुण्यन्ते, जातं नवाशीत्यधिक शतं १८९, तस्यायेन राशिना दशकलक्ष-181 णेन भागे हते लब्धाः अष्टादश दिवसाः, ते च मह नयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि पश शतानि || महर्शनां ५४०, शेषा उपरि तिष्ठन्ति नव, ते महर्तकरणार्धं त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे दाते सप्तत्यधिके २७०, ततो| दशभिर्भागे लब्धाः सप्तविंशतिर्मुहर्ताः २७, ते पूर्वस्मिन मुहूर्तराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पच शतानि सप्तषष्यधि-XI कानि ५६७, येऽपि च एकविंशतिः सप्तपष्टिभागा दिनस्य तेऽपि मुहूर्तभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधि-18| ॥२२२॥ कानि षट् शतानि ६३०, तानि सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्छतानि ४४१०, तेषां दशभिर्भागे। हते लब्धानि चत्वारि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि ४४१, तेषां सप्तपष्ट्या भागे हृते लब्धाः षट् मुहर्तास्ते पूर्वमुहर्तराशी 11 पक्षिष्यन्ते जातानि सर्वसझपया मुहूर्तानां पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ५७३, शेषा चोद्धरति एकोनचत्वारिंशत् सा अनुक्रम [१०८] MEncannimamatarak ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-1, ---------- ------ मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 19- 04 प्रत सूत्रांक [७६] दीप द्वाषष्ट्या गुण्यते जातानि चतुर्विंशतिः शतानि अष्टादशाधिकानि २४१८ तेषां सप्तषष्ट्या भागो दियते लब्धाः पत्रिंशत् | दापष्टिभागाः शेषासिष्ठन्ति पद से च एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः सप्तपष्टिभागाः एते चातिश्लक्ष्णरूपा भागा इति चूर्णिका भागा व्यपदिश्यन्ते, तदेयमुक्तो ध्रुवराशिः, सम्प्रति करणमाह-'आउद्दीहि'इत्यादि, यस्यां यस्यामागृती नक्ष बयोगो ज्ञातुमिप्यते तथा तया आवृत्त्या एकोनिकया-एकरूपहीनया गुणितोऽनम्तरोक्तस्वरूपो भवेत् थावान् एततिन्महगुणित-मुहूर्तपरिमाण, अत आय वक्ष्यामि शोधनकं, अत्र प्रथमतोऽभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकमाह-'अभिहस्से -1 त्यादि, अभिजितः-अभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनक नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिद्वापष्टिभागाः एकस्य च द्धप-1 प्टिभागस्य सत्काः सप्तपष्टिच्छेदकृताः समयाः-परिपूर्णाः षट्पष्टिभागाः, कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेत् , उच्यते, इहाभिजि-IN | तोऽहोरात्रसरका एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः चन्द्रेण योगः, ततोऽहोरात्रे त्रिंशन्मुहुर्ता इति मुहूर्तभागकरणा सा एक। विंशतिः त्रिंशता गुण्यत्ते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा नव मुहूर्त शेषास्तिष्ठन्ति सप्तविंशतिः, ते द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वापल्या गुण्यन्ते, जातानि पोडश शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि M|१६७४, तेषां सप्तपट्या भागे हते लब्धाश्चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति पदपष्टिः, ते च एकस्य द्वापष्टिभागस्य ।। सरकाः सप्तपष्टिभागाः, सम्पति शेषनक्षत्राणां शोधनकान्युच्यन्ते-'उगुणदृ'मित्यादि गाथात्रयं, एकोनषष्ठयधिक पर प्रोष्ठपदा-उत्तरभन्नपदा, किमुक्तं भवति !-एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदान्तानि नक्षत्र.गि शुद्धपन्ति, तथाहि-नय मुहर्ता अभिजितो नक्षत्रस्य त्रिंशत् श्रवणस्य त्रिंशत् धनिष्ठायाः पञ्चदश शतभिपजः त्रिंशत् पूर्वभद्रपदायाः || अनुक्रम [१०८] ~ 452~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः ( मल० ) ॥२२३॥ Education Intera पञ्चचत्वारिंशत् उत्तरभद्रपदाया इति शुध्यन्त्येकोनषष्ट्यधिकेन शतेनोत्तरभद्रपदान्तानि नक्षत्राणि, तथा त्रिषु नवोत्तरेषु शतेषु रोहिणिका - रोहिणिकान्तानि शुद्धयन्ति, तथाहि एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनोत्तरभद्रपदान्तानि शुद्धयन्ति, ततस्त्रिंशता मुहते रेवती त्रिंशताऽश्विनी पञ्चदशभिर्भरणी त्रिंशता कृत्तिका पञ्चचत्वारिंशता रोहिणिकेति, तथा त्रिषु नवनवत्यधिकेषु तेषु पुनर्वसुः - पुनर्वस्वन्तानि शुद्ध्यन्ति तत्र त्रिभिः शतैर्नवोत्तरै रोहिणिका - रोहिणिकांतानि शुद्धयन्ति, ततस्त्रिंशता मुद्द मृगशिरः पञ्चदशभिरार्द्रा पंचचत्वारिंशता पुनर्वसुरिति, तथा पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशानि - एकोनपञ्चाशदधिकानि उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि, किमुक्तं भवति ? - पञ्चभिः शतैरेको नपञ्चाशदधिकेरुत्तरफाल्गुन्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, तथाहि - त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिकैः पुनर्वस्वन्तानि शुद्धयन्ति, ततस्त्रिंशता मुहूः पुण्यः पञ्चदशभिरश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्व फाल्गुनी पञ्चचत्वारिंशता उत्तरफाल्गुनीति तथा पट् शतान्ये कोन सप्तानि - एकोनसप्तत्यधिकानि विशाखानां विशा खापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, तथाहि - उत्तरफाल्गुन्यन्तानां पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि शोध्यानि, ततस्त्रिंशन्मुहूर्त्ता हतस्य त्रिंशत् चित्रायाः पञ्चदश स्वातेः पञ्चचत्वारिंशद्विशाखाया इति, तथा मूले-मूलनक्षत्रे शोध्यानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४, तत्र पट् शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि ६६९ विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, ततः त्रिंशन्मुहूर्त्ता अनुराधायाः पञ्चदश ज्येष्ठायास्त्रिंशन्मूलस्येति, तथा अष्टौ शतानि समाहृतानि अष्टशतमेकोनविंशत्यधिकं किमुक्तं भवति-अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि उत्तराषाढानां - उत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकं, तथाहिमूलान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४ तत्र त्रिंशन्मुहूर्त्ताः पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य For Penal Use On ~453~ १२ प्राभृते आवृत्तयः सू ७६ ॥२२३॥ wor Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education International पञ्चचत्वारिंशदुत्तराषाढानामिति, तथा सर्वेषामपि चामूनां शोधनकानामुपरि अभिजितः सम्बन्धिनश्चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागाः शोध्याः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः षट्षष्टिचूर्णिका भागाः । 'एयाई' इत्यादि एतानि - अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथासम्भवं शोधयित्वा यत् शेषमुद्धरति तत्र यथायोगमपान्तरालवर्त्तिषु नक्षत्रेषु शोधितेषु यनक्षत्रं न शुद्ध्यति तन्नक्षत्रं चन्द्रेग समायुक्तं विवक्षितायामावृत्तौ वेदितव्यं तत्र प्रथमायामावृत्ती प्रथमतः प्रवर्त्त मानायां केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्र इति यदि जिज्ञासा ततः प्रथमावृत्तिस्थाने एकको प्रियते, सरूपोनः क्रियत इति न किमपि पश्चाद्रूपमवतिष्ठते, ततः पाश्चात्ययुगभाविनीनामावृत्तीनां मध्ये या दशमी आवृत्तिस्तत्सङ्ख्या दशकरूपा प्रियते, तथा प्राचीनः समस्तोऽपि ध्रुवराशिः पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य च पत्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट् सप्तषष्टिभागाः । ५७३ । ३६ । इत्येवंप्रमाणे दशभिर्गुण्यते, तत्र मुहूर्त्तराशौ दशभिर्गुणिते जातानि सप्तपञ्चाशच्छतानि त्रिंशदधिकानि ५७३०, येऽपि च पटूत्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः तेऽपि दशभिर्गुणिता जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ३६० तेषां द्वापट्या भागो हियते लब्धाः पञ्च मुहूर्त्तास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिष्यन्ते जातः पूर्वराशिः सप्तपञ्चाशच्छतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ५७३५, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वापष्टि भागाः पञ्चाशत् ५०, येऽपि षट् चूर्णिका भागास्तेऽपि दशभिर्गुणिता जाता षष्टिस्तत एतस्माच्छोधनकानि शोध्यन्ते, तत्रोत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, तानि किल यथोदितराशौ सप्तकृत्वः शुद्धिमानुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तपञ्चाशच्छतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि ५७३३, तानि सप्तपञ्चाशच्छतेभ्यः For Par Use Only ~ 454 ~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रशशिवृत्तिः ( मल० ॥२२४॥ Education International | पञ्चत्रिंशदधिकेभ्यः पात्यन्ते स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहत्तौ, ती द्वापष्टिभागीकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्येते, जातं चतुत्रिंशं शतं द्वाप - ११२ प्राभृते | ष्टिभागानां १२४ तस्मारूने पञ्चाशलक्षणे द्वापष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यते जातं चतुःसप्तत्यधिकं शतं द्वापष्टिभागानां १७४ तथा येऽभिजितः सम्बन्धिनः चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागाः शोध्याः ते सप्तभिर्गुण्यन्ते जातमष्टषष्यधिकं शतं १६८, तत् चतुःसप्तत्यधिकात् शतात् शोध्यते स्थिताः शेषाः पटू द्वाषष्टिभागाः, ते चूर्णिकाभागकरणार्थे सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च ये प्राक्तनाः पष्टिः सप्तपष्टिभागास्ते तत्र प्रक्षिष्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि द्वापश्यधिकानि ४६२, ततो येऽभिजितः सम्बन्धिनः पट्पष्टिचूर्णिका भागाः शोध्याः ते सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि द्वाषष्ट्यधि कानि ४६२ तान्यनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् शून्यं तत आगतं साकल्येनोत्तराषाढा नक्षत्रे चन्द्रेण भुक्ते सति तदनन्तरस्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युगे प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्त्तते एतदेव प्रश्ननिर्वचनरीत्या प्रतिपादयति'एएसि णमित्यादि एतेषां अनम्सरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथम वार्षिक वर्षाकालसम्ब| न्धिनीं श्रावणमास भाविनीमित्यर्थः आवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?-केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयति है, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता अभिहणा' इत्यादि, अभिजिता नक्षत्रेण युनक्ति, एतदेव विशेषतः आचष्टे अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युनक्ति, तदेवं चन्द्रनक्षत्रमवबुध्य सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नमाह-'तं समयं च ण ेमित्यादि, तस्मिंश्च समये णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् तां प्रथमाऽऽवृत्तिं प्रवर्त्तयतीति ?, भगवानाह 'ता पूसेण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् पुष्येण युक्तस्तां प्रथमामावृतिं युनक्ति, For Pernal Use Only ~455~ आवृत्तयः सू ७६ ॥ २२४ ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] एतदेव सविशेषमाचष्टे-तदानीं पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहर्तास्त्रिचत्वारिंशश्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभाग | सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, त्रैराशिकवलात् | तथाहि-यदि दशभिरयनैः पञ्च सूर्यकृतानक्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकेनायनेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना 1१०1५। १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः पञ्चकरूपस्य गुणनं जाताः पञ्चव तेषां दशभिर्भागे हते लब्धमर्द्ध पर्यायस्थ, तत्र नक्षत्रपर्यायः सप्तपष्टिभागरूपोऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८५०, तथाहि-पट नक्षत्राणि शतभिषमभृतीनि अर्बनक्षत्राणि ततस्तेषां प्रत्येक सास्त्रियस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, ते सा स्त्रयस्त्रिंशत् पङ्गि-1 गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, षट् नक्षत्राणि उत्तरभद्रपदादीनि ब्यक्षेत्राणि, ततस्तेषां प्रत्येकमेकं शतं सप्तषष्टि-४ भागानामेकस्य च सप्तपष्टिभागस्यार्ड, एतत् पद्भिर्गुण्यते, जातानि षट् शतानि ज्युसराणि ६०३, शेषाणि पश्चदश नक्ष त्राणि समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येक सप्तपष्टिभागाः ततः सप्तषष्टिः पचदशभिर्गुण्यते, जातं पश्चोत्तरं सहनं १००५, एक४विंशतिश्चाभिजितः सप्तपष्टिभागाः, सर्वसङ्ख्यया सप्तषष्टिभागानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एष परिपूर्णः४ सप्तपष्टिभागात्मको नक्षत्रपर्यायः, एतस्याओं नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तेभ्य एकविंशतिरभिजितः सम्बन्धिनी शुद्धा शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि ८९४, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धात्रयोदश १३, पास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिः, त्रयोदशभिश्च पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ये च शेषास्तिष्ठन्ति बयोविंशतिर्भागास्ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पटू शतानि नवत्यधिकानि ६९०, तेषां सप्तपष्टया भागो हियते ( मं० ७०००) SAREaratunintamational ~456~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप सूर्यप्रज्ञ- लब्धा दश मुहूर्ताः १०, शेपास्तिष्ठन्ति विंशतिः, सा द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वापट्या गुण्यते, जातानि द्वादश शतानि चत्वारि- १२माम विवृत्तिः शदधिकानि १२५०, तेषां सप्तपट्या भागो हियते, लब्धा अष्टादश द्वाषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशत् द्वापष्टिभागस्य आवृत्तयः (मल०)| सप्तपष्टिभागाः, तत आगतं पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतु-II सू७६ ॥२२५ स्विंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु एकोनविंशतौ च मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभालागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु प्रथमाश्रावणमासभाविन्याऽऽवृत्तिः प्रवर्तते इति । (अथ द्वितीयश्रावणमासभाब्या-141 है वृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह) ता एएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषां-अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पश्चानां संवत्सराणां मामध्ये द्वितीयां वार्षिकी श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रो द्वितीयामा-1 वत्ति प्रारम्भयति', एवं प्रश्ने कृते सति भगवानाह-"ता संठाणाहि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , संस्थानाभि:-संस्थानाशPाब्देन मृगशिरोनक्षत्रमभिधीयते, तथा प्रवचने प्रसिद्धः, ततो मृगशिरोनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रमा द्वितीयां श्रावणमासभाविनी-1 |मावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च मृगशिरोनक्षत्रस्य एकादश मुहूत्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य | च द्वापष्टिभागस्य त्रिपश्चाशत् सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-इह या द्वितीया श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः सा माक्पद-13 KIर्शितकमापेक्षया तृतीया ततस्तरस्थाने त्रिको प्रियते, स रूपोनः कार्य इति जातो द्विकस्तेन प्राक्तनो भुवराशिः पञ्च श-IC॥२२५।। मातानि त्रिसप्तत्यधिकानि महत्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पत्रिंशत द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तपष्टिभागाः ५७३ । । । इत्येवंप्रमाणो गुण्यते, जातान्येकादश शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तानां ११४६ द्वासप्तति अनुक्रम [१०८] REaratunintamature FaPanmumyam uncom ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप रेकस्य मुहूर्त्तस्य सत्का द्वापष्टिभागाः ७२ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः । । तत एतेभ्यो मुहूर्ता-21 नामष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुविशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां शतानि त्रीणि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूतस्य सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ३२७ । । तत एतेभ्यत्रिभिर्महशतनवोत्तरैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदूषष्ट्या सप्तषष्टिभाग-1 रभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, 'तेसु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया' इत्यादिप्रागुक्तवचनात् , ततः स्थिताः पश्चादष्टादश मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तपष्टिभागाः |१८ एतावता मृगशिरो न शुक्ष्यति, तत आगतं मृगशिरा नक्षत्रं एकादशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु द्वितीया श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति ( संप्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं चाह-) 'तं समय च णमित्यादि, तस्मिंश्च समये सूर्यः केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः तां द्वितीयां वार्षिकीमावृत्तिं युनक्ति !, भगवानाह-'ता पूसेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , पुष्येण युक्तः, 'तं चेय'ति वचनसामादिदं द्रष्टव्य'पुस्सस्स एगूणवीस मुत्ता तेयालीसं च वायहिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तहिहा छेत्ता तेत्तीस पुष्णिया भागातासेसा' इति, इह सूर्यस्य दशभिरयनैः पक्ष सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, द्वाभ्यां चायनाभ्यामेकः, तत्रोत्तरायणं कुर्वन सर्प-12 अनुक्रम [१०८] %Exce ERICAtuninternation ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२२६॥ [७६] ता विसाहाहिं' इत्यादि, ता इति 2 दीप सूर्यप्रज्ञ- देवाभिजिता नक्षत्रेण सह योगमुपागच्छति, दक्षिणायनं कुर्वन् पुष्येण, तस्य च पुष्यस्य एकोनविंशती मुहूर्तेषु एकस्य १२ प्राभृते विवृत्तिः च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तथा चोक्तम्- आवृत्तयः (मल०) "अभितराहिं नितो आइच्चो पुस्सजोगमुक्गयस्स । सबा आउट्टीओ करेइ से साधणे मासे ॥ १॥" इत्यादि, ततः | 'पुस्सेण मित्यादि उक्त, सम्प्रति तृतीयश्श्रावणमासभाब्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि गमित्यादि, सुगम, भग-1 IIवानाह-'ता विसाहाहिं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत , विशाखाभिः-विशाखानक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रमास्तुतीयां श्राव-18 णमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानीं च-तृतीयावृत्तिप्रवर्तनसमये विशाखाना-विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काश्चत्वारिंशशूर्णिका भागाः दोषाः, तथाहि-तृतीया श्रावणमासमाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया पश्चमी, ततस्तत्स्थाने पञ्चको धियते, स रूपोनः कार्य इति जातश्चतुष्कस्तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३३ ।। गुण्यते, जातानि द्वाविंशतिः शतानि | द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानां चतुश्चत्वारिंशं शतं मुहूर्त्तगतानां द्वापष्टिभागानामेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तषष्टिभागाः २२९२ । १४४ । । तत एतेभ्यः षोडशभिर्मुहूर्तशतैरष्टात्रिंशदधिकरष्टाचत्वारिंशता च द्वापष्टिभा-14 Mil२२६॥ गर्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागगतानां च सप्तपष्टिभागानां द्वात्रिंशेन शतेन द्वौ परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायौ शुद्धी, स्थितानि पश्चात् पटू शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां चतुर्नवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ६५४।९।२६, तत एतेभ्यः पञ्चभिः शतैरेकोनपश्चाशदधिकर्मुह नामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतु-[४ अनुक्रम [१०८] -25605645 %A5% ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Educator विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पच्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि नक्षत्राणि शु द्धानि स्थितं पश्चात्पचोत्तरं मुहर्त्तशतं मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामेकोनसप्ततिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, तत्र द्वापष्ट्या द्वाषष्टिभागैरेको मुहत्तों लब्धः स्थिताः पश्चात् सप्त द्वापष्टिभागाः, लब्धश्च मुहत्तों मुहूर्त्तॐ राशी प्रक्षिप्यते, जातं षडुत्तरं मुहूर्त्ततं १०६३, ततः पञ्चसप्तत्या मुहूर्त्तेर्हस्तादीनि स्वातिपर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः शेषा एकत्रिंशत् मुहूर्त्ताः आगतं विशाखा नक्षत्रस्य त्रयोदशसु मुहर्त्तध्येकस्य च मुहूर्त्तस्य चतु:पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चन्द्रस्तृतीयां श्रावणमास भाविनी| मावृत्तिं प्रवर्त्तयति । सम्प्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं चाह - 'तं समयं च णमित्यादि, सुगमं । अधुना चतुर्थ्यावृत्तिविषये प्रश्नसूत्रमाह- 'ता एएसि णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता रेवईहिं' इत्यादि, रेवत्या युक्तश्चन्द्रचतुर्थी श्रावणमास भाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च रेवती नक्षत्रस्य पञ्चविंशतिर्मुहूर्त्ता द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा मुह र्त्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छिया तस्य सत्का पविंशतिचूर्णिका भागाः शेषाः तथाहि प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया श्रावणमासभाविनी चतुर्थ्यावृत्तिः सप्तमी ततः सप्तको प्रियते स रूपोनः कार्य इति जातः पङ्कः तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । २६ । ६ । गुण्यते, जातानि चतुस्त्रिंशच्छतानि अष्टात्रिंशदधिकानि ३४३८ मुहूर्तानां, मुहूर्त्तगतानां च द्वापष्टिभागानां द्वे शते पोडशोत्तरे २१६, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ३६, तत एतेभ्यो द्वात्रिंशता शतैः षट्सप्तत्यधिकर्मुहूर्त्तानां मुहर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां पण्णवत्या द्वापष्टिभाग सरकानां च सप्तषष्टिभा For Par Lise Only ~460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत 'निवृत्तिः (मल.) ॥२२७॥ सूत्रांक [७६] दीप सूर्यप्रज्ञ- गानां द्वाभ्यां शताभ्यां चतुःषष्टिसहिताभ्यां चत्वारी नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितं पश्चादेक द्वापश्यधिक मुहर्तशतं १२ प्राभृते मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागागा पोडशोत्तरं शतं एकस्य च द्वापप्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः १५२ । ११५ । आवृत्तयः ४४० । तत एकोनषध्यधिकेन मुहूर्त्तशतेन एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पटूपया सू७६ सप्तपष्टिभागैः १५९ । २४ । ६६ । अभिजिदादीनि उत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि भूयः शुद्धानि, स्थिताः पश्चायो मुहर्ताः मुहर्जगतानां च द्वापष्टिभागानामेकनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः, द्वापाट्या च द्वापष्टिभागैरेको मुहत्तों लब्धः, स मुहूर्चराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चत्वारो मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशद् द्वापष्टिभागाः (एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः ) ४ । २९ ।। ४४१ । तत आगत-रेवतीनक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेबेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पडूविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति, 'तं समयं च 'मित्यादि सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद् भावनीय, साम्प्रतं पञ्चमं श्रावणमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता पुचाहि फग्गुणीहिं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां युक्तश्चन्द्रः पञ्चमी श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानी च तस्य पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादश ॥२२७॥ | मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सरकाखयोदश चूर्णिका भागाः शेपास्तथाहि-पञ्चमी श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया नयमी ततस्तत्स्थाने नवको प्रियते अनुक्रम [१०८] - -2 44 REaratinintamaran ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-1, ---------- ------ मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] स रूपोनः कार्य इति जाता अष्टौ, तैः प्रागुक्तो ध्रुवराशिः ५७३ । । । गुण्यते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि चतु-12 दारशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्वेशते अष्टाशीत्यधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः ४५८४ । २८८ । ४८ ॥ तत एतेभ्यश्चत्वारिंशता मुहूर्तशतैः पश्चनवत्यधिकमद्वर्तगतानां च द्वापष्टि भागानां विंशत्यधिकेन शतेन एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कानां सप्तषष्टिभागानां त्रिंशदधिकैत्रिभिः शतैः पञ्च नक्षलावपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चान्मुहुर्तानां चत्वारि शतानि एकोननवत्यधिकानि मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां शत त्रिपश्यधिकं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ४८९ । १६३ १५३ । तत एतेभ्यो भूयखिभिः शतैनवत्यधिकैर्मुह नामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिता पश्चान्मुहूर्तानां नवतिः मुहूर्तगतानां द्वापष्टिभागानामष्टात्रिंशद धिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः ९० । १३८ । ५४ । तत्र चतुर्विंशत्यधिकेन द्वापष्टिभामृगशतेन द्वौ मुहूत्तौ लब्धौ पश्चात् स्थिता द्वापष्टिभागाः चतुर्दश, लब्धौ च मुहूत्ती मुहूर्तराशी प्रक्षिप्येते, जाता मुह नां द्विनवतिः ९२ । १४ । ५४ । तत्र पञ्चसप्तत्या मुहूत्तैः पुष्यादीनि मघापर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः १७ । १४ । ५४ । न चैतावता पूर्वकाल्गुनी शुक्ष्यति, तत आगत-पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादशसु महतेष्वेकस्य च मुहर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते, सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं च प्राग्वदू भावनीयं, तदेवं चन्द्रनक्षत्रयोग P4 दीप अनुक्रम [१०८] -24x7 ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप सूर्यप्रज्ञ- विषये सूर्यनक्षत्रयोगविषये च पञ्चापि वार्षिकीरावृत्तीः प्रतिपाद्य सम्प्रति हेमन्तीः प्रतिपिपादयिषुस्तद्गतमधमावृत्ति-१२माभूते प्ठिवृत्तिः विषयं प्रश्नसूत्रमाह हमन्त्य आवृत्तयः II ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं पदमं हेमंत आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता हत्थेणं, हत्थII सू७७ ॥२२॥ सणं पंच मुहत्ता पण्णासं च पावद्विभागा मुहत्तस्स पावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सहि चुणिया भागा बसेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णवत्तेणं जोएति ?, उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्सराणं आसाढाणं चरिम-14 समए, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोषं हेमंतिं आउदि चंदे केणं णवत्तणं जोएति !, ता सतभिसपाहि, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बाबविभागा मुहत्तस्स चावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता उत्तालीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णवत्तेणं जोएति !, ता उत्तराहिं आसादाहिं. उत्तराणं आसाहाणं चरिमसमए, तेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं हेमति आउहि चंदे केणं णक्वत्तेणं | जोएति !, ता पूसेणं, पूसस्स एकूणवीसं मुहत्ता तेतालीस च बावद्विभागा मुहत्तस्स यावहिभागं च सत्त-14 विधा छेत्ता तेत्तीसं चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्वत्तेणं जोएति, ता उत्सराहि आसादाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए, ता एतेसि णं पंचण्डं संवच्छराणं चस्थि हेमति आउहि चंदे | ॥२२८॥ ४किणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता मूलेणं, मूलस्स छ मुहुत्ता अट्ठावन्नं च बावद्विभागा मुहत्तस्स घावहिभाग ४ च सत्तद्विधा छेत्ता वीसं चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खरोणं जोएति , ता उत्त-13 अनुक्रम [१०८] REauratantnimation ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] %AE25 दीप राहिं आसाहाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए, ता पतेसि णं पंचण्हं संबच्छराणं पंचमं हेमंतिं आउहि चंदे केणं णक्खसेणं जोएति ?, कत्तियाहिं, कत्तिपाणं अट्ठारस मुहत्ता छत्तीसं च वावद्विभागा मुहत्तस्स पाव-II द्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छ चुण्णिपा भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता| | उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए । ( सूत्रं ७७ ) | 'ता एएसि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषा-अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा देमन्तीमापुत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयतीति भायः, भगवानाह-ता हत्धेणं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , हस्तेन-हस्तनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः प्रवर्तयति, तदानी च हस्तनक्षत्रस्य पश्च मुहतों | एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशत् द्वापष्टिभागाः एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षष्टिश्चूर्णिका भागाः। शेषाः, तथाहि-हेमन्ती प्रथमा आवृत्तिः प्रागुक्तकमापेक्षया द्वितीया ततस्तत्स्थाने द्विको ध्रियते, स रूपोनः कार्य इति || | जात एककस्तेन प्रागुतो ध्रुवराशिः ५७३ । । । । गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव भुवराशिः, सतत एतस्मात् पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधिकर्महानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभा गस्य पदपया सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाचतुर्विशतिर्मुहार |एकस्य च मुहूर्तस्य एकादश द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः २४ ॥ ११ ॥ ७ ॥ तत आगत-| | हस्तनक्षत्रस्य पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहुर्तस्य पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु। अनुक्रम [१०९] FRENCE २८-- ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप सूर्यप्रज्ञ-1ोपेषु प्रथमा हेमन्तीमावृत्तिं चन्द्रः प्रयतैयतीति । सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-तं समयं च णमित्यादि, तस्मिंश्च समये १२ प्राभृते प्तिवृत्तिः सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तस्तां प्रथमा हेमन्तीमावृत्तिं युनक्ति-प्रवर्त्तयति ?, भगवानाह'ता उत्तराहिं'इत्यादि, उत्तराभ्या-1| हेमन्त्य (मल०)। |माषाहाभ्यां, तदानीं चोत्तराषाढायाश्चरमसमयः, समकालमुत्तराषाढानक्षत्रमुपभुज्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये प्रथा आवृत्तमा ॥२२९॥ हमन्तीमावृत्ति सूर्यः प्रवर्तयतीति भावः, तथाहि-यदि दशभिरयनैः पश्च सूर्यकृतान्नक्षवपर्यायान् लभामहे तत एकेनालायनेन किं लभामहे 1, राशित्रयस्थापना १०।५।१। अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य पक्षकरूपस्य राशे-14 गुणनं जाताः पञ्चैव तेषां दशभिर्भागे हते लब्धमेकमाई पर्यायस्य, अर्द्ध च पर्यायस्य सप्तषष्टिभागरूपं नव शतानि पञ्चद४शोत्तराणि ११५, तत्र ये विंशतिः सप्तपष्टिभागाः पाश्चात्ये अयने पुण्यस्य गताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः स्थिताः ते साम्प्रतमितो राशेः शोध्यन्ते स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि ८७१ तेषां सप्तषट्या भागे हते लब्धास्त्रयोदश पश्चान्न किमपि तिष्ठति, त्रयोदशभिश्चाश्लेषादीन्युत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, तत आगत-अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये माघमासभाविनी प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्तते, एवं सर्वा अपि माघमासभाविन्य आवृत्तयः सूर्यनक्षत्रयोगमधिकृत्य येदितव्याः, उक्तं च-"बाहिरओ पविसंतो आइचो अभिइजोगमुवगम्म । सबा आउट्टीओ करेइ सो माप-1|| मासंमि ॥१॥" द्वितीयहेमन्तावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसिण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता सयभिसपाहि ||२३९॥ इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, शतभिषजा युक्तश्चन्द्रो द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानीं च शतभिषजो नक्षत्रस्य | पद्वी मुहविकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतिषष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षट्चत्वारिंश अनुक्रम [१०९] 85SSS C Santosaman ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-1, ---------- ------ मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिश्चतुर्थी ततस्तस्याः स्थाने चतुष्को *ध्रियते स रूपोनः कार्य इति जातखिकः तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३६ । ६ । गुण्यते जातानि सप्तदश शतान्ये81 कोनविंशत्यधिकानि मुहर्तानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानामष्टोत्तर शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टादश सप्तपष्टिदाभागाः १७१९ । १०८ । १८ । तत एतेभ्यः पोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिकैमहानामेकस्य च मुहर्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकदापष्टिभागसत्कानां च सप्तपष्टिभागानां द्वात्रिंशदधिकेन शतेन द्वौ नक्षत्रपर्यायौ शुद्धौ, स्थिताः पश्चादेकाशीतिर्मुहूत्तोनामेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापश्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य बिधातिः सप्तषष्टिभागाः ८१ ॥ ५८ । २० । ततो भूयो नवभिर्मुहूत्रेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिनक्षत्रं शुद्ध, स्थिताः पश्चाद् द्वासप्ततिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयविंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य कविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७२ । ३३ । २१ । ततस्त्रिंशता मुदत्तः श्रवणः शुद्धस्त्रिंशता धनिष्ठा पश्चादव-13 |तिष्ठन्ते द्वादश मुहूर्ताः, शतभिषक्नक्षत्रं चार्द्धनक्षत्रं, तत आगतं शतभिषजो नक्षत्रस्य द्वयोर्मुहर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्यासाविंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सधषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीया हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्तते । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगम, प्रागेव भावितत्वात् । अधुना तृतीयमाघमासभाव्यावृत्तिविषय | प्रश्नसूत्रमाह-'ता पएसि 'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता पूसेण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् पुष्येण युक्तश्चन्द्रस्तृतीयां माघमासभाविनीमावृत्ति प्रवयति, तदानी च पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुडा एकस्य च मुहत्तेस्य त्रिचत्वारिंशद् अनुक्रम [१०९] CCCCES 250-54-5 ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] सूर्यप्रज्ञ-II द्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिमार्ग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशञ्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-मागुपदर्शित-1 १२ प्राभूत विवृत्तिः क्रमापेक्षया तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः षष्ठी ततस्तस्याः स्थाने षटो धियते स रूपोनः कार्य इति जातः पञ्चकस्तेन हेमन्त्य (मल) स प्राक्तनो भूवराशिः ५७३ ॥ ३६॥ ५। गुण्यते जातान्यष्टाविंशतिः शतानि पश्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्ताना मुहूर्तगताना आवृत्तया च द्वापष्टिभागानामशीत्यधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः २८६५।१८० । ३० । तत एतेभ्यः सू ७७ ॥२३०11 सप्तपञ्चाशदधिकः चतुर्विंशतिशतैर्मुहानामेकमुहूर्तंगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्विसप्तत्या एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कानां सप्तषष्टिभागानामष्टानयत्यधिकेन तेन २४५७ ॥ ७२ | १९८ ॥ त्रयो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चात् चत्वारि महतशतान्यष्टोत्तराणि महतंगतानां च द्वापष्टिभागानां पश्चोत्तर बातमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः।। ४०८1१०५। ३४ । तत एतेभ्यस्त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिकमुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशल्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चान्नव मुहूर्ता मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानामशीतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्विंशरसप्तषष्टिभागाः द्वापट्या च द्वापष्टिभागैरेको महत्तों लब्धः स मुहर्तराशी प्रक्षिप्यते जाता दश मुहूर्ताः शेषास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिभागा अष्टादश १० । १८ । ३४ । तत आगत-पथ्यस्य एकोनविंशती महतेंव्येकस्य च मुहर्जस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेच्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य प्रयखिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्र च सुगम। | चतुर्थमाघमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगम, भगवानाह-ता मूलेण'मित्यादि, ता] CRICROG दीप अनुक्रम [१०९] F % E5% SCACa P २३०॥ % SAREmaininamaranKI ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक GROG [७७] दीप इति प्राग्वत् मूलेन युक्तश्चन्द्रः चतुर्थी हेमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयति, तदानी च मूलस्य-मूलनक्षत्रस्य पद मुहर्ता एकस्य । च मुहर्तस्यापश्चाशत् द्वापष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिश्चणिका भागाः शेषाः, तथाहि-चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया अष्टमी तस्याः स्थानेऽष्टको प्रियते स रूपोनः कार्य इति । जातः सप्तकस्तेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ गुण्यते जातान्येकादशोत्तराणि चत्वारिंशन्मुहुर्त शतानि मुहूर्त-18 गतानां च द्वापष्टिभागानां द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः ४०११।२५२।४२। सतत एतेभ्यः पट्सप्तत्यधिकत्रिंशच्छतैहानां मुहुर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां षण्णवत्या द्वापष्टिभागसत्कानां च। सप्तषष्टिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यामष्टषषधिकाभ्यां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मुहानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां द्विपञ्चाशदधिक शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशसप्तष्टिभागाः ७३५ । १५२ । ४६। तत एतेभ्यो भूयः षद्भिः शतैः मुहूर्तानामे कोनसप्तत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि विशाखापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः | पश्चात् षट्पष्ठिर्मुह मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सतपष्टिभागाः, चतुर्विशत्यधिकेन च द्वापष्टिभागशतेन द्वौ मुहत्तौं लब्धौ तौ मुर्तराशी प्रक्षिप्येते जाताः अष्टपष्टिर्मुइत्तोंः शेषास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिभागास्त्रयः ६८॥ ३ ॥ ४७ । ततः पञ्चचत्वारिंशता मुहूत्रनुराधाज्येष्ठे शुद्धे शेषाः स्थितास्त्रयोविंशतिर्मुहर्ताः २३ । ३ । ४७ । नत आगतं मूलस्य षट्सु मुद्गर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याप्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य अनुक्रम [१०९] 5-25744560 ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4 [७७] % दीप सूर्यप्रज्ञ- च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्र १२ प्राभृते निर्वचनसूत्र च सुगम, पचममाघमासभाब्यावृत्तिविषय प्रश्नसूत्रमाह-ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-IX हेमन्त्य (मल.) ता कत्तियाहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कृत्तिकाभियुक्तश्चन्द्रः पश्चमी हेमन्ती (माघ) मासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्तयति, आवृत्तयः ॥२३शा तदानीं च कृत्तिकानक्षत्रस्य अष्टादश मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभार्ग सप्तषष्टिधा छिया तस्य सत्का पटू चूर्णिकाभागाः दोषाः, तथाहि-पञ्चमी माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया दशमी ततस्तस्याः। स्थाने दशको ध्रियते, स रूपोनः कार्य इति जातो नवका, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३६ । ६ । गुण्यते, जातान्येमाकपाशच्छतानि सप्तपश्चाशदधिकानि मुहूर्तानां मुहर्जगतानां च द्वापष्टिभागानां त्रीणि शतानि चतुषिशत्यधिकानि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपश्चाशत् सप्तपष्टिभागाः । ५१५७ । ३२४ । ५४ । तत एतेभ्य एकोनपश्चाशच्छतमहतIX चतर्दशाधिकहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां चतुश्चत्वारिंशदधिकेन शतेन द्वापष्टिभागगतानां च सप्तपष्टिभागानां त्रिभिः। शतैः षण्णवत्यधिकैः पट् नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थिते पश्चान्मुहूर्तानां द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिके मुहूर्तगतानां च द्वाप टिभागानां चतुःसप्तत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टिः सप्तपष्टिभागाः २४३ । १७४ । ६० । तत एकोनष-| Kाधिकेन महर्तशतेन एकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तपष्टिभागरभि-IC जिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चतुरशीतिर्मुहुर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां || शतमेकोनपञ्चाशदधिकं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकषष्टिः सप्तषष्टिभागाः । ८४ । १४९ । ६१ । ततो द्वापष्टिभागानां 3 अनुक्रम [१०९] SANERatinimumationAL ~469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप चतुधिशल्यधिकेन शतेन द्वौ मुहूत्तौं लब्धौ पश्चात् स्थिताः पञ्चविंशतिषिष्टिभागाः, लब्धौ च मुहूत्तौं मुहूर्तराशौ प्रक्षि|प्येते, जाता पडशीतिर्मुहाना, ततः पञ्चसप्तत्या मुहूर्तानां रेवत्यश्विनीभरण्यः शुद्धाः, स्थिताः पश्चादेकादश मुहूर्ताः, |शेष तथैव ११ ॥ २५ । ६१ तत आगत-कृत्तिकानक्षत्रस्याष्टादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागे| वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्स सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्त्तते, सूर्यनक्षत्रयोगविषये च प्रश्ननिर्वचनसूत्रे सुगमे । तदेवमुक्ता दशापि नक्षत्रयोगमधिकृत्य सूर्यस्यावृत्तयः, सम्प्रति चन्द्रस्य वक्तव्यास्तत्र यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानः सूर्यो दक्षिणा उत्तरा या आवृत्तीः करोति तस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानश्चन्द्रोऽपि दक्षिणा उत्तराश्चावृत्ती KIकुरुते, ततो या उत्तराभिमुखा आवृत्तयो युगे चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिता नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्याः | यास्तु दक्षिणाभिर्मुखास्ताः पुष्येण योगे, उक्त च-"चंदस्सवि नायबा आउट्टीओ जगमि जा दिवा । अभिपणं पुस्सेण य नियम नक्खत्तसेसेणं ॥१॥" अन 'नक्खससेसेणं ति नक्षत्रार्द्धमासेन, शेष सुगर्म, तत्राभिजित्युत्तराभिमुखा आवृत्तयो भाव्यन्ते, यदि चतुर्विंशदधिकेनायनशतेन चन्द्रस्य सप्तपष्टिनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततः प्रथमेऽयने किं लभ्यते ?, राशित्रयस्थापना-१३४ । ६७ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणनं जाता सप्तषपटिरेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तस्याश्च सप्तषष्टेश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागे हृते लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य, तस्मिंश्चानव शतानि पञ्चदशोत्तराणि सप्तपष्टिभागानां भवन्ति, तत्र त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु पुष्यनक्षत्रस्य भुक्केषु दक्षिणायनं चन्द्रः कृतवान् , ततः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागा अनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि अनुक्रम [१०९] ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१२], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-], --------- ------ मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप सूर्यप्रज्ञ-12 अष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि ८७१, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, इह कानिचिन्नक्षत्राणि अर्द्धक्षेत्राणि तानि च सार्द्धन-1| १२ प्राभूते निवृत्तिः यस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागप्रमाणानि कानिचित्समक्षेत्राणि तानि परिपूर्णसप्तषष्टिभागप्रमाणानि कानिचिच्च न्यर्द्धक्षेत्राणि हेमन्त्य (मल तान्यर्द्धभागाधिकशतसबसप्तपष्टिभागप्रमाणानि, गात्रं स्वधिकृत्य सप्तषट्या शुभयन्तीति सप्तपछया भागहरणं, लब्धास्त्र- आवृत्तयः ॥२३२॥ योदश, राशिश्चोपरितनो निलेपतः शुद्धः, तैश्च त्रयोदशभिरश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, तत सू ७७ आगतमभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये चन्द्र उत्तरायणं करोति, एवं सर्वाण्यपि चन्द्रस्योत्तरायणानि बेदितव्यानि, उक्तं । |च-"पन्नरसे उ मुहुत्ते जोइत्ता उत्तरा असाढाओ। एकं च अहोरत्तं पविसइ अभितरे चंदो ॥१॥" अधुना पुष्ये । प्रदक्षिणा आवृत्तयो भाब्यन्ते, यदि चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन सप्तपष्टिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना-१३५ । ६७।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तपष्टिरूपस्य गुणनं | जाताः सप्तपष्टिरेव तस्याश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागहरणं लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य, तच्च सप्तपष्टिभागरूपाणि नव शतानि । पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तत एकविंशतिरभिजितः सम्बन्धिनः सप्तपष्टिभागाः शोभ्यन्ते, स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि | | चतुर्नवत्यधिकानि ८९४, तेषां सप्तपण्या भागो हियते, लब्धाखयोदश, तेश्च त्रयोदशभिः पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषा तिष्ठति त्रयोविंशतिः, एते च किल सप्तपष्टिभागा अहोरात्रस्य ततो मुहूर्तभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, २३२॥ जातानि षट् शतानि नवत्यधिकानि ६९०, तेषां सप्तपणा भागे हते लब्धा दश मुहूर्चाः, शेषास्तिष्ठन्ति विंशतिः सप्तप[टिभागाः, तत इदमागतं-पुनर्वसुनक्षत्रे सर्वात्ममा भुक्ते पुष्यस्य च दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य विंशती सप्तपष्टि मरट % अनुक्रम [१०९] 8 ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप भागेषु भुक्तेषु सर्वाभ्यन्तरामण्डलाहिनिष्कामति चन्द्रः, एवं सर्वाण्यपि दक्षिणायनानि भावनीयानि, उक्त च-"दस | राय मुहुत्ते सगले मुहुत्तभागे य वीसई चेव । पुस्सविसयमभिगओ बहिया अभिनिक्खमइ चंदो ॥१॥" तदेवमुक्ता नक्षत्र-II योगमधिकृत्य चन्द्रस्याप्यावृत्तयः, सम्प्रति योगमेव सामान्यतः प्ररूपयति तस्थ खलु इमे दसविधे जोए पं०, तं०-वसभाणुजोए वेणुयाणुजोते मंचे मंचाइमंचे छत्ते छत्तातिच्छत्से || जुअणद्वे घणसंमदे पीणिते मंडकप्पुते णामं दसमे, एतासि णं पंचण्हं संवच्छराणं उत्तातिच्छसं जोपं चंदे कसि देसंसि जोएति !, ता जंयुद्दीवस्स २ पाईणपडिणीआयताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चवीXसेणं सतेणं छित्ता दाहिणपुरच्छिमिर्हसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवादिणावेत्ता अट्ठावीसति-II भागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवादिणावेत्ता तिहि भागेहिं दोहि कलाहिं दाहिणपुरच्छिमिल्लं चउम्भाग मंडलं असंपत्ते एत्थ णं से चंदे छसातिच्छत्तं जोयं जोएति, उप्पि चंदो मझे णक्खत्ते हेटा आदिचे, तं समयं | प्रचणं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता चित्ताहिं चरमसमए ॥ (सूत्रं ७८) वारसमं पाहुई समत्तं ॥ | 'तस्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खल्ययं वक्ष्यमाणो दशविधो योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वृषभानुजातः, अत्र अनुजातशब्दः सरशवचनो, वृषभस्यानुजात:-सदृशो वृपभानुजातः, वृषभाकारेण चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् योगेऽवतिष्ठन्ते स| वृषभानुजात इति भावना, एवं सर्वत्रापि भावयितव्यं, वेणुः-वंशस्तदनुजातः-तत्सदृशो वेणुकानुजातो मञ्चो-मश्वसदृशः।' मश्चात्-व्यवहारप्रसिद्धात् द्विवादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चातिमञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मचातिमञ्चः, छत्र अनुक्रम [१०९] ~472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] दीप सूर्यप्रज्ञ- प्रसिद्धं तदाकारो योगोऽपि छत्र, छत्रात्-सामान्यरूपात् उपर्यन्यान्यच्छत्रभावतोऽतिशायि छत्रं छत्रातिच्छत्रं तदा- १ माइते निवृत्तिःकारो योगोऽपि छत्रातिच्छत्रं, युगमिव नद्धो युगनद्धः, यथा युगं वृषभस्कन्धयोरारोपित्तं वर्तते तद्वत् योगोऽपि यः प्रति-वृषभानुजा (मल भाति स युगनद्ध इत्युच्यते, घनसम्मई रूपः यत्र चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति, प्रीणितः-उपचयाताया यो॥२३॥ नीतः यः प्रथमतश्चन्द्रमसः सूर्यस्य वा एकतरस्य ग्रहेण नक्षत्रेण वा एकतरेण जातस्तदनन्तरं द्वितीयेन सूर्यादिना राहो- गाःसू ७४ पचयं गतः स प्रीणित इति भावः, माण्डूकप्लुतो नाम दशमः, तत्र माण्डूकप्लुत्या यो जातो योगः स माण्डूकप्लुतः, स पाच ग्रहेण सह वेदितव्यः, अन्यस्य माण्डूकप्टुतिगमनासम्भवात् , उक्तं च-"चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि प्रतिनियतगतानि प्रहा-IX स्यनियतगतय"इति, तदित्थं यथावबोध दशानामपि योगानां स्वरूपमात्रभावना कृता यथासम्पदायमन्यथा वा वाच्या, तत्र युगे छत्रातिच्छन्त्रवर्जाः शेषा नवापि योगाः प्रायो बहुझो बहुषु च देशेषु भवन्ति, छत्रातिच्छत्रयोगस्तु कदाचित् कस्मिंश्चिदेव देशे ततस्तद्विपयं प्रश्नसूत्रमाह-ता एएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानां | चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये छत्रातिच्छत्र योगं चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-करोति ?, भगवानाह-'ता'इत्यादि, मता इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनायतया उदग्दक्षिणायतया अत्र चशब्दोऽनुक्को द्रष्टव्यः यदिवा चित्रविभक्तिनिर्देशादेव समुच्चयो लब्ध इति चशब्दो नोक्तः, यथा 'अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुष पशु-वैवश्वतो न तृष्यति | सुराया इव दुर्मदी' इत्यन, चादयो हि पदान्तराभिहितमेवार्थ स्पष्टयति न पुनः स्वातन्त्र्येण कमप्यर्थमभिदधति इति ॥२२॥ निणीतमेतत् स्वशब्दानुशासने, जीवया-प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छिया-विभज्य, अनुक्रम [११०] ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] दीप | इयमन भावना-एकया दवरिकया वुझ्या कल्पितया पूर्वापरायतया एकया च दक्षिणोत्तरायतया मंडल समकालं विभ व्यते, विभक्तं च सच्चतुर्भागतया जातं, तद्यथा-एको भाग उत्तरपूर्वस्यामेको दक्षिणपूर्वस्यामेको दक्षिणापरस्यामेकोऽपरो|त्तरस्यामिति, तत्र दक्षिणपौरस्त्ये-दक्षिणपूर्वं चतुर्भागमण्डले-चतुर्भागमात्रे मण्डले मण्डलचतुर्भाग इत्यर्थः, एकत्रिंशदागप्रमाणे सप्तविंशति भागानुपादाय-गृहीत्वा आक्रम्येत्यर्थः, अष्टाविंशतितमं च भाग विंशतिधा छिच्या तस्य सत्कानष्टादश भागानुपादाय-आक्रम्य दोपैखिभिरेकत्रिंशत्सत्कर्भागाभ्यां च कलाभ्यामेकस्य एकत्रिंशत्सत्कस्य भागस्य सत्काभ्यां|| द्वाभ्यां विंशतितमाभ्यां भागाभ्यां दक्षिणपश्चिमं चतुर्भागमण्डलं मण्डलचतुर्भागमसम्प्राप्तोऽस्मिन् प्रदेशे स चन्द्रश्चनातिछत्ररूपं योगं युनति करोति, एनमेव 'तद्यथेत्यादिना भावयति, उपरि चन्द्रो मध्ये नक्षत्रमधस्ताचादित्य इति, इह मध्ये नक्षत्रमित्युक्त ततो नक्षत्रविशेषप्रतिपयर्थ प्रश्नं करोति-तं समयं च णमित्यादि, तस्मिन् समये चन्द्रः केन| नक्षत्रेण युनक्ति-योगं करोति !, भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , तस्मिन् समये चित्रया सह योगं करोति, तदानीं च चित्रायाश्चरमसमयः॥ " इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां द्वादशम-प्राभूतं समाप्त तदेवमुक्तं द्वादशं प्राभृतं, सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते-तस्य चायमाधिकारो यथा-'चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी वक्तव्ये इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते चंदमसो बहोवही आहितेति वदेजा?, ता अट्ठ पंचासीते मुहत्तसते तीसं च बाबहिभागे मुहु-1 अनुक्रम [११०] अत्र द्वादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ त्रयोदशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक 1॥२३४॥ [७९] दीप सूर्यप्रज्ञ- तस्स, ता दोसिणापक्खाओ अन्धगारपकखमयमाणे चंदे चत्तारि यायालसते छत्तालीसं च वावविभागे मु. १३माभृते तिवृत्तिः सरस जाई चंदे रज्जति तं०-पढमाए पढमं भागं वितियाए मितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग, चन्द्रमसो (मल) चरिमसमए चंदे रत्ते भवति, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरसे य भवति, इयणं अमावासा, एस्थ ण परमेाजपपवृद्धी पवे अमावासे, ता अंधारपक्खो, तो णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारे बाताले मुहुत्तासते छातालीस सू ७९ च बावविभागा मुहत्तस्स जाई चंदे विरजति, तं०-पढमाए पढम भार्ग वितियाए वितिय भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग चरिमे समये चंदे विरते भवति, अवसेससमए चंदे रसे य विरस्ते व भवति, इयण्णं पुषिणमासिणी, एत्य णं दोचे पवे पुषिणमासिणी (सूत्रं ७९) M. ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण त्वया भगवन् । चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धी आख्याते इति || मावदेत् ।, किमुक्तं भवति ।-कियन्तं कालं यावत् चन्द्रमसो वृद्धिः कियन्तं च कालं यावदपवृद्धिस्त्वया भगवन्नाख्याता इति वदेत् , एवमुक्ते भगवानाह'ता अट्टे' त्यादि, ता इति पूर्ववत् अष्टौ मुहर्चशतानि पञ्चाशीतानि-पञ्चाशीत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशतं द्वापष्टिभागान यावत् वृद्ध्यपवृद्धी समुदायेनाख्याते इति वदेत , यथा एकस्य चन्द्रमासस्य मध्ये एकस्मिन् पक्षे चन्द्रमासो वृद्धिरेकस्मिन् पक्षे चापवृद्धिः, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशत् राबिन्दियानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः,रात्रिन्दिवं च त्रिंशन्मुहर्तकरणार्थमेकोनत्रिंशत् (त्रिंश)ता गुण्यते जाताम्यष्टौ शतानि BI ||२३४॥ सप्तत्यधिकानि ८७० मुहूर्तानां येऽपि च द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा रात्रिंदिवस्य ते मुहूर्तसत्कभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, अनुक्रम [१११] ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [९] दीप अनुक्रम [१११] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१३], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः जातानि नव शतानि षष्ट्यधिकानि ९६०, तेषां द्वापट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्त्ताः १५, ते मुहर्त्तराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्त्तानामष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि ८८५, शेषाश्चोद्धरन्ति त्रिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, एतदेव प्रतिविशेषावबोधार्थं वैविक्त्येन स्पष्टयति- 'ता दोसिणाओं' इत्यादि, ता इति पूर्वयत्, ज्योत्स्नाप्रधानः पक्षो ज्योत्स्नापक्ष: शुक्लपक्ष इत्यर्थः तस्मात् अन्धकारपक्षमयमानो - गच्छन् चन्द्रः चत्वारि मुहर्त्तशतानि द्विचत्वारिंशानि -द्विचत्वारिंशदधिकानि पचत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य यावदपवृद्धिं गच्छतीति वाक्यशेषः, यानि यथोक्तसङ्ख्याकानि मुहूर्त्तशतानि यावच्चन्द्रो राहुविमानप्रभया रज्यते, कथं रज्यते । इति तमेव रागप्रकारं तद्यथेत्यादिना प्रकटयति, प्रथ मायां प्रतिपलक्षणायां तिथी परिसमामुवत्यां प्रथमं परिपूर्ण पञ्चदशं भागं यावद्दण्यते द्वितीयायां परिसमाप्नुवत्यां तिथौ परिपूर्ण द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् एवं यावत्पञ्चदश्यां तिथौ परिसमामुवत्यां परिपूर्ण पञ्चदशं भागं यावद्रज्यते, तस्याश्च पञ्चदश्यास्तिथेश्वरमसमये चन्द्रः सर्वात्मना राहुविमानप्रभया रक्तो भवति, तिरोहितो भवतीति तात्पर्यार्थः, यस्तु षोडशो भागो द्वापष्टिभागद्वयात्मकोऽनावृतस्तिष्ठति स स्तोकस्वादस्यत्वाच्च न गण्यते, 'अबसेसे' इत्यादि, तं च पञ्चदश्यास्तिथेश्वरमसमयं मुक्त्वा अन्धकारपक्षप्रथमसमयादारभ्य शेषेषु सर्वेष्वपि समयेषु चन्द्रो रक्तो भवति विरक्तश्च, कियानंशस्तस्य राहुणा आवृतो भवति कियांश्चानावृत इति भावः, अन्धकारपक्षवक्तव्यतोपसंहारमाह-'इयण्ण' मित्यादि, | इयमन्धकारपक्षे पञ्चदशी तिथिः णमिति वाक्यालङ्कारे जमावास्या - अमावास्या नाम्नी अत्र युगे प्रथमं पर्व अमावास्या, इह मुख्यवृत्त्या पर्वशब्दस्याभिधेयममावास्या पौर्णमासी च, उपचारात् पक्षे पर्वशब्दस्य प्रवृत्तिस्तत उक्तम्- "एल्थ णं For Par Use Only ~476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७९] दीप अनुक्रम [१११] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१३], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ७९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥२३५॥ Education Internati १३ प्राभृते चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी पढमे पत्रे अमावासे" इति । अथ कथं चत्वारि मुहूर्त्तशतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य १, उच्यते, इह शुक्लपक्षः कृष्णपक्षो वा चन्द्रमासस्यार्द्ध, ततः पक्षस्य प्रमाणं चतुर्दश रात्रिन्दिवं सप्तचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः, रात्रिन्दिवस्य परिमाणं त्रिंशन्मुहूर्त्ता इति चतुर्द्दश त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि मुहूर्त्तानां चत्वारि शतानि विंशत्यधिकानि ४२०, येऽपि च सप्तचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य तेऽपि मुहूर्त्तभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, ॐ सू७९ जातानि चतुर्दश शतानि दशोत्तराणि १४१० तेषां द्वापष्ट्या भागो हियते लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्त्ताः ते मुहूर्त्तराशी प्रक्षिप्यन्ते जातानि चत्वारि मुहूर्त्तानां शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि ४४२, शेषास्तिष्ठन्ति षट्चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य तदेवं यावन्तं कालं चन्द्रमसोऽपवृद्धिस्तावत्कालप्रतिपादनं कृतं अथ यावन्तं कालं वृद्धिस्तावन्तमभिधित्सु - राह-'ता अंधकारपक्खातो ण' भित्यादि, ता इति पूर्ववत् अन्धकारपक्षात् णमिति वाक्यालङ्कारे ज्योत्स्नापक्ष - शुक्ल | पक्षमयमानश्चन्द्रश्चत्वारि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्त्तशतानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य यावद्वद्धिमुपगच्छतीति वाक्यशेषः, यानि यथोक्तसङ्ख्याकानि मुहूर्त्तशतानि यावचन्द्रः शनैः शनैर्विरक्को - राहुविमानेनानावृतो भवतीति, विरागप्रकारमेवाह- 'तंज' स्यादि, तद्यथेति विरागप्रकारोपदर्शने प्रथमावां प्रतिपलक्षणायां तिथौ प्रथमं पञ्चदशभागं यावत् चन्द्रो विरज्यते, द्वितीयायां द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् एवं पञ्चदश्यां पञ्चदर्श भागं यावत् तस्याश्च | पश्चदश्याः पौर्णमासी रुपायास्तिधेश्वरमसमये चन्द्रो बिरक्तो भवति, सर्वात्मना राहुविमानेनानावृतो भवतीति भावः, तं च पञ्चदश्याश्चरमसमयं मुक्त्वा शुक्लपक्षप्रथमसमयादारभ्य शेषेषु समयेषु चन्द्रो रक्तश्च भवति विरक्तश्च, देशतो रक्तो For Parts Only ~ 477 ~ ||२३५|| Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: * प्रत सूत्रांक * [७९] दीप भवति देशतो विरक्तश्चेति भावः, मुहूर्तसङ्ख्या भावना च प्राग्वत्कर्त्तव्या, शुक्लपक्षवक्तव्यतोपसंहारमाह-इयण्ण'मित्यादि। | इयमनन्तरोदिता पञ्चदशी तिथिः पौर्णमासीनामा अत्र च युगे णमिति पूर्ववत् द्वितीय पर्व पौर्णमासी । अथैवरूपा युगे |कियत्यो अमावास्याः कियन्त्यश्च पौर्णमास्य इति तद्गतां सर्वसमामाह| तस्थ खलु इमाओ यावदि पुषिणमासिणीओ पावढि अमावासाओ पण्णताओ, वावडिं एते कसिणारागा पावढि एते कसिणा विरागा, एते चउच्चीसे पवसते पते चाबीसे कसिणरागविरागसते, जावतियाणं पंचण्ठं संवकछराणं समया एगेणं चञ्चीसेणं समयसतेणूणका एबतिया परित्ता असंखेजा देसरागविरागसता भवंतीतिमक्खाता, अमावासातो पुषिणमासिणी चत्तारि वाताले मुहत्तसते छत्तालीसं वावविभागे मुहूत्तस्स आहिति वदेजा, ता पुण्णिमासिणीतो णं अमावासा पत्तारि वायाले मुहप्ससते छत्तालीसं यावद्विभागे ममुहुत्तस्स आहितेति वदेजा, ता अमावासातोणं अमावासा अट्टपंचासीते महत्तसते तीसं च बावहिभागे। मुहूसस्स आहितेति बढेजा, ता पुषिणमासिणीतो गं पुषिणमासिणी अट्टपंचासीते मुहुत्तसेत तीसं बावहि|भागे मुहत्तस्स आहितेति वदेज्जा, एस णं एवतिए चंदे मासे एस णं एवतिए सगले जुगे ॥ (सूत्रं ८०) । | 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खल्विमा:-एवंस्वरूपा द्वाषष्टिः पौर्णमास्यो द्वाषष्टिश्चामावास्याः प्रज्ञप्ताः, तथा युगे। ४चन्द्रमस एते-अनन्तरोदित स्वरूपाः कृत्वाः परिपूर्णा रागा द्वापष्टिरमावास्यानां युगे द्वाषष्टिसक्याप्रमाणत्वात् तास्वेव च चन्द्रमसः परिपूर्णरागसम्भवात्, एते-अनन्तरोदितस्वरूपा युगे चन्द्रमसः कृत्स्ना विरागा:-सस्मिना रागाभावा द्वापष्टिः अनुक्रम [१११] % % % ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८०] ॥२३६॥ दीप युगे पौर्णमासीनां द्वापष्टिसझ्याकत्वात् तास्वेव च चन्द्रमसः परिपूर्णविरागभावात् , तथा युगे सर्वसङ्ख्यया एक चतुर्विशत्य SIA १३माभृते सित्तिःधिक पर्वशतं अमावास्यापौर्णमासीनामेय पर्वशब्दवाच्यत्वात् तासां च पृथक् पृथक् द्वापष्टिसलयानामेकत्र मीलने चतुर्वि- पूर्णिमावा(मल.) त्यधिकशतभावात, एवमेव च युगमध्ये सर्वसङ्कलनया चतुर्विशत्यधिक कृत्स्नरागविरागतं, 'जावइयाण'मित्यादि स्थान्तर यावन्तः पञ्चानां चन्द्रचन्द्राभिवद्धितचन्द्राभिवर्धितरूपाणां समया एकेन चतुर्विशत्यधिकेन समयशतेनोना एतावन्तः ४परीताः-परिमिताः असङ्ख्याता देशरागविरागसमया भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि चन्द्रमसो देशतोरागविरागभावात् , यत्तु चतु-13 विंशत्यधिक समयशतं तत्र द्वापष्टिसमयेषु कृत्स्नो रागो द्वापष्टौ च समयेषु कृत्स्नो विरागस्तेन तद्वर्जनं इत्याख्यातं, मयेति । गम्यते, एतच भगवचनमतः सम्यक् श्रद्धेयमिति, सम्पति कियत्सु महत्तेषु गतेष्वमावास्यातोऽनन्तरं पौर्णमासी कियत्स। रीवा महतंप गतेषु पौर्णमास्या अनन्तरममावास्या इत्यादि निरूपयति-ता अमावासातो ण'मित्यादि, सुगम, नवरं | अमावास्याया अनन्तरं चन्द्रमासस्थार्डेन पौर्णमासी पौर्णमास्या अनन्तरमई मासेन चन्द्रमासस्थामावास्या अमावास्याया शामावास्या परिपूर्णेन चन्द्रमासेन पौर्णमास्या अपि पौर्णमासी परिपूर्णेन चन्द्रमासेनेति भवति यथोक्का मुरसल्या ४|उपसंहारमाह-एस ण'मित्यादि, एषः-अष्टी मुहूर्तशतानि पश्चाशीत्यधिकानि द्वात्रिंशच द्वापटिभागा मुहूर्तस्येत्येता&वान-एतावत्प्रमाणश्चन्द्रमासः, एतत्-एतावत्प्रमाणं शकलं-खण्डरूपं युगं चन्द्रमासप्रमितं युगशकलमेतदित्यर्थः ॥ सम्पति चन्द्रो यावन्ति मण्डलानि चन्द्रार्द्धमासेन चरति तन्निरूपणार्थ प्रश्नसूत्रमाह P२३६॥ ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता चोइस चउम्भागमंडलाई चरति एगं च पञ्चीस अनुक्रम [११२] *6644 ~479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [११३] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१३], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education International सतभाग मंडलस्स, (ता) आइचेणं अद्धमा सेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, (ता) सोलस मंडलाई चरति सोलसमंडलचारी तदा अवराई खलु दुबे अट्टकाई जाई चंदे केणइ असामण्णकाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, कतराई खलु दुवे अट्टकाई जाई चंदे केणइ असामण्णकाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति १, इमाई खलु ते वे अट्टगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सघमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, तंजहा - निक्खममाणे चेव अमावास्तेणं पविसमाणे चेव पुष्णिमासिंतेणं, एताई खलु दुबे अट्टगाई जाएं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चर, ता पढमायणगते चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाए पविसमाणे चारं चरति, कतराई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे चारं चरति ?, इमाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागात पवि| समाणे चारं चरति, सं०-विदिए अद्धमंडले चउत्थे अद्धमंडले हे अमंडले असे अद्धमंडले दसमे असमडले यारसमे अडमंडले चउदसमे अजमंडले एताई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे चारं चरति, ता पढमायणगते चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे छ अजमंडलाई तेरस य सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाए पविसमाणे चारं चरति, कतराई खलु ताई छ अमंडलाई तेरस य सत्तट्टिभागाई अनुमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे चारं चरति १, इमाई खलु ताई छ अडमंडलाई तेरस य सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागात पविसमाणे चार For Parts Only ~ 480~ wor Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [११३] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१३], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ॥२३७॥ चरति, तंजहा-तईए अद्धमंदले पंचमे अमंडले सत्तमे अमंडले नवमे अमंडले एक्कारसमे अमंडले तेरसमे अद्धमंडले पन्नरसमंडलस्स तेरस सत्तट्टिभागाई, एताई खलु ताई छ अद्धमंडलाई तेरस य सत्तट्ठि ( मल०) २ भागाई अमंडलस जाई चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे चारं चरति, एतावया च पढमे चंदायणे समत्ते भवति, ता णक्खसे अद्धमासे नो चंदे अदमासे नो चन्दे अद्धमासे णक्खत्ते अदमासे, ता नक्खत्ताओ अद्धमासातो ते चंदे चंदेणं अद्धमासेणं किमधियं चरति १, एवं अडमंडलं चरति चत्तारि य सत्तद्विभागाई अकर्म| डलरस सत्तद्विभागं एकतीसाए छेत्ता णव भागाई, ता दोबायणगते चंदे पुरच्छिमाते भागाते णिक्खममाणे सचउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चित्रं पडिचरति सप्त तेरसकाई जाई चंदे अप्पणा चिण्णं चरति, ता दोचायणगते चंदे पचत्थिमाए भागाए निक्खममाणे चउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चिष्णं पडिचरति छ तेरसगाई चंदे अप्पणो चिण्णं पचिचरति अवरगाई खलु दुबे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असमन्नगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, कतराई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणह असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति १, इमाई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदो केणह असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति सङ्घभंतरे चैव मंडले सङ्घवाहिरे चैव मंडले, एयाणि खलु ताणि दुबे तेरसगाई जाएं चंदे केणइ जाव चारं चरह, एतावता दोचे चंदायणे समत्ते भवति, ता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे चंदे मासे णो णक्खते मासे, ता पक्खताते मासाए चंदेणं मासेणं किमधियं चरति १, ता दो अद्धमंहलाई चरति अट्ट प सत्तट्ठिभागाई Jin Eucator For Plata Lise Only ~ 481~ १३ प्राभृते चन्द्रायनम ण्डलचारः सू ८१ ॥२३७|| Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] 462525-25% दीप अनुक्रम [११३] अद्धमंडलस्स सत्तविभागं च एकतीसधा छेत्ता अट्ठारस भागाई, ता तच्चायणगते चंदे पञ्चस्थिमाते भागाए पषिसमाणे पाहिराणतरस्स पचत्धिमिल्लरस अचमंडलस्स ईतालीसं सत्तविभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्सXI पचिपणं पहिचरति, तेरस सत्सद्विभागाइं जाई चंदे परस्स चिपणं पडिचरति, तेरस सत्तविभागाई चंदे अप्पजो परस्स चिपणं पडिचरति, एतावयाव बाहिराणंतरे पञ्चस्थिमिल्ले अद्धमंडले सम्मत्ते भवति, तचायणगते । चंदे पुरच्छिमाए भागाए पविसमाणे बाहिरतचस्स पुरच्छिमिल्लस्स अमंडलस्स ईतालीसं सत्तविभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स चिणं पडियरति, तेरस सत्तद्विभागाई जाई चंदे परस्स चिणं पहिचरति, तेरस सत्तविभागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स प चिपणं पडियरति, एतावताव बाहिरतचे पुरच्छिमिल्ले अद्धमंडले सम्मत्ते भवति, ता तचायणगते चंदे पश्चस्थिमाते भागाते पविसमाणे माहिरचउत्थस्स पचस्थिमिल्लस्स अद्धमं-| उलस्स अरससटिभागाई सत्तविभागं च एकतीसधा छेत्सा अट्ठारस भागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य[// चिपणं पहियरति, एतावताच बाहिरचउत्थपचत्धिमिल्ले अनमंडले सम्मत्ते भवद । एवं खलु चंदेणं मासेणं चंदे तेरस चप्पण्णगाई दुवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिपणं पडिचरति, तेरस २ गाई जाई चंदे अप्पणो |चिपणं परियरति, दुषे ईतालीसगाई अट्ट सत्तविभागाई सत्तविभागं च एकतीसधा ऐत्ता अट्ठारसभागाई |जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिणं पहिचरति, अवराई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ अस्सामन्नगाई * ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत (मल०) सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] सूर्यग्रज- सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, इच्चेसो चंदमासोऽभिगमणणिक्खमणहिणियुड्डिअणवहितसंठाणसंठितीवि- १३प्राभृते तिवृत्तिः18|उवणगिढिपत्ते रूवी चंदे देवे २ आहितेति वदेज्जा (सूत्र ८१)॥ ॥ तेरसमं पाहुडं समत्तं ॥ चन्द्रायनम | 'ता चंदेण अदमासेण'मित्यादि ता इति' पूर्ववत् चान्द्रेण अर्द्धमासेन प्रागुक्तस्वरूपेण चन्द्रः कति मण्डलानि Nण्डलचा चरति !, भगवानाह-'ता चोइसे'त्यादि चतुर्दश सचतुर्भागमण्डलानि-पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्भागसहितानि मण्ड-IN सू८१ ॥२३८॥ लानि चरति, एकं च चतुर्विंशशतभागं मण्डलस्य, किमुक्तं भवति ?-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्ड-18 लस्प चतुर्भाग-चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कै कत्रिंशद्भागप्रमाणमेकं च चतुर्विशशतभागं मण्डलस्य, सर्वसझपया द्वात्रिंशत पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरतीति, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, त्रैराशिकवलात, तथाहि-15 यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तदशा शतान्यष्टपश्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभ्यते । राशित्रयस्थापना १२४ । १७६८ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते स च तावानेव जातः, तत्रायेन राशिना || भागहरणं लब्धाश्चतुर्दश शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशत् १४१३४ तत्र छेद्यच्छेदकराश्योकेिनापवर्त्तना क्रियते, तत इदमाग-12 अच्छति-चतर्दश मण्डलानि पश्चदशस्य मण्डलस्य षोडश द्वापष्टिभागाः १४ । उक्त चैतदन्यत्रापि-"चोइस य मंडलाई विसहिभागा य सोलस हविज्जा । मासद्धेण उडुबई एत्तियमित्तं चरइ खित्तं ॥१॥"ता आइयेण'मित्यादि, आदित्येनार्द्धमासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह-'ता सोलसे'त्यादि, षोडश मण्डलानि चरति, पोडशमण्डल चारीची ॥२३८॥ ४ तदा अपरे खलु द्वे अष्टके-चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कभागाष्टकप्रमाणे ये केनाप्यसामान्ये-केनाप्यनाचीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव | । ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] प्रविश्य चारं चरति, कयराई खल्लु'दुवे इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-इमाई खल्लु'एते खलु द्वे अष्टके ये केनाप्यना-1 चीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरामण्डलादहिनिकामन्नेवामावास्यान्ते एकमष्टकं केनाप्यसनाचीर्ण चन्द्रः प्रविश्व चार चरति, सर्ववाह्यात् मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्नेव पौर्णमास्यन्ते द्वितीयमष्टकं केनाप्यनाचीण | चन्द्रः प्रविश्य चारं चरति, 'एपाई खलु दुवे अदगाई इत्यादि उपसंहारवाक्यं सुगम, इह परमार्थतो द्वौ चन्द्री एकेन चान्द्रेणार्द्धमासेन चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान भ्रमणेन पूरयतः परं लोकरूढ्या व्यक्तिभेदमनपेक्ष्य जातिभेदमेव केवलमाश्रित्य चन्द्रश्चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरतीत्युकं । अधुना एकश्चन्द्रमा एकस्मिन्नयने कति अर्द्धमण्डलानि दक्षिणभागे कत्युचरभागे चम्या पूरयतीति प्रतिपिपादयिषुभंगवानाह-'ता पढमायणगए चंदे'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, प्रथमायन-IN गते-प्रथममयनं प्रविष्टे चन्द्रे दक्षिणस्मादागादभ्यन्तरं प्रविशति सप्त अर्द्धमण्डलानि भवन्ति यानि चन्द्रो दक्षिणस्माद् । भागादभ्यन्तरं प्रविशनाकम्य चार चरति, कयराइं खलु इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह'इमाई खलु'इत्यादि इमानि खलु सप्तार्द्धमण्डलानि यानि चन्द्रो दक्षिणमाभागादभ्यन्तरं प्रविशन्नाक्रम्य चारं चरति, तथथा-द्वितीयमद्धमण्डलमित्यादि, सुगम, नवरमियमत्र भावना-सर्वबाह्ये पञ्चदशे मण्डले परिभ्रमणेन पूरणमधिकृत्य परिपूर्णे पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिर्भवति, ततोऽपरयुगप्रथमायनप्रवृत्ती प्रथमेऽहोरात्रे एकश्चन्द्रमा दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयमण्डलमाक्रम्ब चार चरति, स च पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिदिवसे उत्तरस्यां दिशि चारं चरति-चारं चरितवान् स वेदितव्यः, ततः स । OCTOCAKC RELIGunintentTATASE ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत दाचारः सुत्रांक [८१] सूर्यप्रज्ञ-12 तस्मात् द्वितीयात् मण्डलात् शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं १३ प्राभूते तृतीयमर्द्धमण्डलमाक्रम्य चार चरति, तृतीये अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डल चतुर्थे अहोरात्रे उत्तरस्यां चन्द्रायनम (मल०) दिशि पञ्चममर्द्धमण्डलं पञ्चमे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि षष्ठमर्द्धमण्डलं पठे अहोरात्र उत्तरस्यां दिशि सप्तममर्द्धमण्डल ॥२३९॥ सप्तमे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि अष्टममर्द्धमण्डलमष्टमेऽहोरात्र उत्तरस्यां दिशि नवममर्द्धभण्डलं नवमे अहोरात्रे दक्षि-11 प्रणयां दिशि दशममीमण्डलं दशमे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि एकादशममर्द्धमण्डलमेकादशे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि द्वादशमब्रमण्डलं द्वादशे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशमर्द्धमण्डलं त्रयोदशेऽहोराने दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशमर्जमण्डलं चतुर्दशे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदशसक्षषष्टिभागानाक्रम्य चारं परति, एतावता च कालेन चन्द्रस्यायनं परिसमाप्तं । चन्द्रायनं हि नक्षत्रार्द्धमासप्रमाणं, तेन च नक्षत्रार्द्धमासेन चन्द्रधारे सामान्यतस्त्र-16 योदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा लभ्यन्ते, तथाहि-यदि चतुर्विंशदधिकेनायनशतेन | सप्तदश शतान्यष्टषष्टिसहितानि मण्डलानो लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभामहे ।, राशित्रयस्थापना १३४ ॥ १७६८।१। ४ अत्राम्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशि ण्यते जातः स तावानेव ततस्तस्यायेन राशिना धतुलिंदादधिकशातरूपेण भागहरणं लब्धास्त्रयोदश शेषास्तिष्ठन्ति षड्विंशतिः तत्र छेद्यच्छेदकराश्योकेिनापवर्तना लम्धास्त्रयोदशा सप्तपष्टिभागा| इति, उक्तं च-"तेरस य मंडलाणि य तेरस सत्तहि चेव भागा य । अयणेण चरह सोमो नक्खत्तेणद्धमासेणे ॥१॥" एतच सामान्यत उक्त, विशेषचिन्तायां त्वेकस्य चन्द्रमसो युगस्य प्रथमे अयने यथोक्तेन प्रकारेण दक्षिणभागादभ्यन्तरं RESॐॐ दीप अनुक्रम [११३] ~485~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१३], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] मा प्रवेशे द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तामण्डलानि लभ्यन्ते, उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशो तृतीयादीन्ये कान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि पटू परिपूर्णान्यर्द्धमण्डलानि सप्तमस्य तु पञ्चदशमण्डलगतस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्त-[ प्राष्टिभागाः, एतावता च यद्वक्ष्यति उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां 'तईए अद्धमंडले'इत्यादि सूत्रं तदपि भावितमेव, सम्मति दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे यानि सप्तार्धमण्डलान्युक्तानि तदुपसंहारमाह-एयाई'इत्यादि सुगर्म । अधुना तस्यैव चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे यावन्त्यर्द्धमण्डलानि भवन्ति तावन्ति विवक्षुराह-ता परमाय-18 णगए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, प्रथमायनगते-युगस्यादौ प्रथममयनं प्रविष्टे चन्द्रे उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविशति पद अर्द्धमण्डलानि भवन्ति सप्तमस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा यानि चन्द्र उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविशन् | आक्रम्य चारं चरति, 'कयराई खलु'इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम 'इमाई खलु' इत्यादि निर्वचनसूत्र एतच्च प्रागेष भावितं, 'एयाई खलु'इत्यादि, निगमनवाक्यं निगदसिद्धं, 'एतावता इत्यादि एतावता कालेन प्रथमं चन्द्रस्यायनं समाप्तं भवति, एतदपि प्राम्भावितं, तदेवं पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे य उत्तरस्यां दिशि चारं चरितवान् तस्याभिनवयुगपक्षे प्रथमेMऽयने यावन्ति दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशेऽर्द्धमण्डलानि यावन्ति चोत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशेऽर्धमण्डलानि तापन्ति साक्षा-12 |दुक्तानि, एतदनुसारेण द्वितीयस्यापि चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव प्रथमे चन्द्रायणेऽर्द्धमण्डलानि वक्तव्यानि, तानि चैवम् स पाश्च-| त्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे दक्षिणदिग्भागे सर्वबाह्यमण्डले चार चरिस्वा अभिनवस्य युगस्य प्रथमेऽयने प्रथमेऽहोरात्रे | उत्तरस्यां दिशि द्वितीयमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चारं चरति, द्वितीयेऽहोराने दक्षिणस्यां दिशि सर्वबाह्यात् तृतीयमर्द्धमण्डल FaPranaamvam ucom ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] सूर्यप्रज्ञ- पविश्य चारं चरति तृतीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलमित्यादि प्रागुक्तानुसारेण सकलमपि वक्तव्यं, तदेव-||१३प्राभते प्तिवृत्ति &ामस्य चन्द्रमसः प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्ताईम- चन्द्रायनम (मल.) ण्डलानि भवन्ति, दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षट् अर्द्धमण्डलानि । मण्डलचारः सू८१ ॥२४॥ भवन्ति, पञ्चदशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः, एवं च सति यावान् चन्द्रस्यामासस्तावान् नक्षत्रस्यार्द्ध-18 मासो न भवन्ति, किन्तु ततो न्यून इति सामर्थ्यात् द्रष्टव्य, तथा चाहता नक्ख से इत्यादि, यद्येवमेकस्मिन्नयने नक्ष-| त्रार्द्धमासरूपे सामान्यतश्चन्द्रमसस्त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः 'ता'इति ततो नाक्षत्रोऽर्द्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवति, चान्द्रेऽर्द्धमासे चतुर्दशानां मण्डलानां पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतश्चतुलिविंशत्यधिकशतभागानां प्राप्यमाणत्वात् , इह नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवतीत्युक्तौ नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्ध12मासो न भवति, यस्तु चान्द्रोऽर्धमासः स कदाचित् नाक्षत्रोऽप्यमासः स्यात् , यथा ‘परमाणुरप्रदेश' इत्युक्ती परमा-17 गुरप्रदेश एवं यस्तु अप्रदेशः स परमाणुरपि भवत्यपरमाणुश्च क्षेत्रप्रदेशादिरिति शङ्का स्यात् ततस्तदपनोदार्थमाह-चान्द्रोदमासो नाक्षत्रोऽर्धमासो न भवति, एवमुक्के भगवान् गौतमो नाक्षत्रार्द्धमासचान्द्रार्द्धमासयोविशेषपरिज्ञानार्थमाह-'ता नक्षत्ताओ अद्धमासाओ'इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, नाक्षत्रात् अर्द्धमासात ते-तय मतेन भगवन् । चन्द्रश्चान्द्रे-18 ॥२४॥ Kणार्द्धमासेन किमधिकं चरति !, भगवानाह-ता एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं द्वितीयस्य चार्द्धमण्डलस्य चतुरः सप्तप-18" टिभागानेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद्धा विभक्तस्य सत्कान् नय भागानधिकं चरति, कथमेतदवसीयते इति चेत् !, 16 SAREnaturinamaany ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१३], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-], --------- ------ मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] उच्यते, त्रैराशिकवलात्, तथाहि-यदि चतुविशत्यधिकेन तेन सप्तदश शतानि अष्टपश्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन पणा किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना १२४ । १७६८ ॥ १। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते जातः स ताबानेव तत आधेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण राशिना भागहरणं ठेवच्छेदकराश्योश्चतुष्केनापवर्तना लब्धानि चतु-14 Pाईश मण्डलानि अष्टी च एकत्रिंशद् भागाः, एतस्मानक्षत्रार्द्धमासगम्यं क्षेत्रं त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य प्रयो-11 ४ दश सप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, तत्र चतुर्दशभ्यस्त्रयोदश मण्डलानि शुद्धानि एकमवशिष्ट सम्प्रत्यष्टभ्य एकत्रिं भागेभ्यखयोदश सप्तपष्टिभागाः शोध्याः, तत्र सप्तपष्टिरष्टभिगुणिता जातानि पञ्च शतानि पत्रिंशदधिकानि ५३६।। एकत्रिंशता त्रयोदश गुणिता जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि ४०३ एतानि पञ्चभ्यः शतेभ्यः पत्रिंशदधिकेभ्यः । शोध्यन्ते स्थितं शेपं त्रयस्त्रिंशदधिक शतं १३३ तत एतत् सप्तषष्टिभागानयनार्थ सप्तषष्पा गुण्यते जातानि नबाशीतिः । शतान्येकादशाधिकानि ८९११ छेदराशिमौल एकत्रिंशत् सा सप्तपश्या गुण्यते जाते वे सहस्रे सप्तसप्तत्यधिके २०७७ जाताभ्यां भागो हियते लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागाः शेषाणि तिष्ठन्ति पट् शतानि व्युत्तराणि ६०३ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः सप्तपश्याऽपवर्तना जाता उपरि नव अधस्तादेकत्रिंशत् लब्धा एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नव एकत्रिंशच्छेदकृता भागा: उक्कं च-"एगं च मंडल मंडलस्स सत्तद्विभाग चत्तारि । नब चेव चुणियातो इगतीसकरण छेएण ॥१॥" इह भावनांना कुर्वता मण्डलं मण्डलमिति यदुक्तं तत्सामान्यतो ग्रन्थान्तरे या प्रसिद्धा भावना तदुपरोधादवसेयं, परमार्थतः पुनरर्ब-12 मण्डलमवसातव्यं, ततो न कश्चित् सूत्रभावनिकयोविरोधः, तदेवमेकचन्द्रायणवक्तव्यतोक्का, सम्पति द्वितीयचन्द्राय-14 ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१३], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-], ---------- ------ मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: % सूर्यमज्ञ- भिवृत्तिः (मल.) प्रत C-2-% सुत्रांक सासू८१ ॥२४॥ [८१] दीप अनुक्रम [११३] RACIACOBC-SCANCPSC- वक्तव्यताभिधीयते, तत्र यः प्रथमे चन्द्रायणे दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् सप्तार्द्धमण्डलानि उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रवि- १३माभृते शन् षट् अर्द्धमण्डलानि सप्तमस्य चाईमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् चरितवान् तमधिकृत्य द्वितीयायनभावना र चन्द्रायन क्रियते, तत्रायनस्य मण्डलक्षेत्रपरिमाणं त्रयोदश अर्द्धमण्डलानि चतुर्दशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः, तत्र पडलचार प्राक्तनमयनमुत्तरस्यां दिशि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रयोदश सप्तपष्टिभागपर्यन्ते परिसमाप्त, तदनन्तरं द्वितीयायनप्रवेशे चतुःपञ्चाशता सप्तपष्टिभागः सर्वाभ्यन्तरं मण्डल परिसमाप्य ततो द्वितीये मण्डले चार चरति, तत्र प्रयोदशभागपर्यन्ते । एकमद्धमण्डलं द्वितीयस्यायनस्य परिसमाप्त, द्वितीयमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां सर्वाभ्यन्तरात्तृतीये अर्द्धमण्डले त्रयोदशभागपर्यन्ते तृतीयमर्द्धमण्डल दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थेऽर्द्धमण्डले चतुर्धमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि परमेऽर्द्धमण्डले पश्चममद्धे-12 मण्डल दक्षिणस्यां दिशि षष्ठे अर्द्धमण्डले षष्ठमर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि सप्तमेऽर्द्धमण्डले सप्तममब्रमण्डलं दक्षिणयां: दिशि अष्टमेऽर्द्धमण्डलेऽष्टममर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि नवमे अर्द्धमण्डले नवममर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि दशमे अर्द्धमण्डले दशममईमण्डलं उत्तरस्यां दिशि एकादशेऽर्द्धमण्डले एकादशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि द्वादशे अर्द्धमण्डले द्वादशमद्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशे अर्द्धमण्डले त्रयोदशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले चतुर्दश मर्द्धमण्डलं तच त्रयोदशभागपर्यन्ते परिसमाप्त, तदनन्तरं त्रयोदश सप्तपष्टिभागान अन्यान् चरति, एतायता द्वितीय-INTan ४ामवन परिसमाप्त, चतुर्दशे च मण्डले सङ्कान्तः सन् प्रथमक्षणाय सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं चारं चरति, ततः परमार्थतः कतिपयभागातिक्रमे पश्चदश एव सर्ववाह्यमण्डले वेदितव्यः, तदेवमस्मिन्नयने पूर्वभागेन द्वितीयादीन्येकान्तरितानि | ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: - प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] चतुर्दशपर्यन्तानि सप्ताद्धमण्डलानि चीर्णानि, पश्चिमभागे च तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि पडीमण्ड-18 लानि, तन्त्र पूर्वभागे पश्चिमभागे वा यत् प्रतिमण्डलं स्वयं चीर्णमन्यचीर्ण वा चरति तन्निरूपयति-ता दोच्चायणगए। 18| इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वितीयायनगते चन्द्रे पौरस्त्यात् भागान्निष्कामति, किमुक्तं भवति ?-पौरस्त्ये भागे चार चरति, सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि भवन्ति यानि चन्द्रः परस्वेति तृतीयार्थे षष्ठी परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचरति, सप्त 18च त्रयोदशकानि भवन्ति यानि चन्द्र आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति, इयमन भावना-मेरोः पूर्वस्यां दिशि यो भागः। स पूर्वभागो यश्चापरस्यां दिशि स पश्चिमभागः, तत्र पूर्वभागे सप्तस्वपि द्वितीयादिवेकान्तरितेषु चतुर्दशपर्यन्तेषु सप्तप-121 ष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक चतुःपञ्चाशतं सप्तपष्टिभागान् चन्द्रः परेण सूर्यादिना चीर्णोन प्रतिचरति, त्रयोदश त्रयोदशा, सप्तपष्ठिभागान स्वयंचीर्णानिति, 'ता दोचायणगए'इत्यादि, तस्मिन्नेय चन्द्रमसि द्वितीयायनगते पश्चिमभागानिष्का मति-पश्चिमभागे चारं चरति, पटु चतुःपञ्चाशत्कानि भवन्ति यानि चन्द्रः 'परस्मेति परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचिरति, षट् त्रयोदशकानि यानि चन्द्रः स्वयंचीर्णानि प्रतिचरति, अत्रापीय भावना-पश्चिमे भागे षट्स्वपि तृतीयादिवे कान्तरितेषु प्रयोदशपर्यन्तेषु अर्बमण्डलेषु सप्तपष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक चतुःपञ्चाशतं चतुःपञ्चाशतं - सप्तपष्टिभागान पर चीर्णान् चरति, त्रयोदश सप्तपष्टिभागान स्वयंचीणानिति, 'अबराई खलु दुवे'इत्यादि, अपरे खलु त्रयोदशके 181 तस्मिन्नयने तो ये चन्द्रः फेनाध्यसामान्ये-केनाप्यनाचीर्णपूर्वे स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति, 'कयराई खलु'इत्यादि [प्रश्नसूत्रं सुगम, इमाई खल्लु' इत्यादि निर्वचनवाक्यमे तद्, एतच्च प्रायो निगदसिद्धम् , नवरमेकं यत् त्रयोदशकं सर्वाभ्य 6--05 ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] सूर्यप्रज्ञ- Kान्तरे मण्डले तत् पाश्चात्यायनगतत्रयोदशकादूई वेदितव्यं, तस्यैव सम्भवास्पदत्वात् , द्वितीयं सर्यबाह्ये मण्डले तय विवृत्तिः पर्यन्तयत्ति प्रतिपत्तव्यं, 'एयाई खलु ताणि इत्यादि निगमनवाक्यं सुगम, तदेवमेकं चन्द्रमसमधिकृत्य द्वितीयायन चन्द्रायनम (मल०) वक्तव्यतोक्ता, एतदनुसारेण च द्वितीयमपि चन्द्रमसमधिकृत्य द्वितीयायनवक्तव्यता भावनीया, एवं तस्य पश्चिमभागेष्टलचार सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि परचीर्णाचरणीयानि सप्त त्रयोदशकानि स्वयंचीर्णाचरणीयानि वक्तव्यानि, पूर्वभागे पटू चतुःपश्चा- सू८१ ॥२४२|| शत्कानि परचीर्णाचरणीयानि पटू त्रयोदशकानि स्वयंचीर्णप्रतिचरणीयानि, 'एतावता इत्यादि, एतावता कालेन द्वितीय चन्द्रायणं समाप्तं भवति, 'ता नक्खत्ते त्यादि, यवं द्वितीयमप्ययनमेतावत्प्रमाणं ता इति-ततो नाक्षत्रो मासो न चान्द्रो मासो भवति नापि चान्द्रो मासो नाक्षत्रो मासः, सम्प्रति नक्षत्रमासात् कियता चन्द्रमासोऽधिक इति जिज्ञासुः | पनं करोति-ता नक्वत्ताओ मासाओ'इत्यादि, ता इति-तत्र नाक्षात्रात् मासात् चन्द्रः चन्द्रेण मासेन किमधिक चरति 1, एवं प्रक्षे कृते भगवानाह-'ता दो अद्धमंडलाई इत्यादि, द्वे अर्द्धमण्डले तृतीयस्थार्जुमण्डलस्याष्टी सप्तपष्टि*भागान् एकं च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य सत्कानष्टादश भागान अधिकं चरति, एतच प्रागुक्तमेकायनेऽधि-12 | कमेकमण्डलमित्यादि द्विगुणं कृत्वा परिभाषनीयं, सम्पति यावता चन्द्रमासः परिपूर्णो भवति तावन्मावतृतीयायनयक्तव्यतामाह-'तातचायणगए चंदे'इत्यादि, इह द्वितीयायनपर्यन्ते चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले पड्विंशतिसमासप्तपष्टिभागमात्रमाक्रान्तं, तच्च परमार्थतः पञ्चदशमीमण्डलं वेदितव्यं, बहु तदभिमुखं गतत्वात् , तदनन्तरं नीलवत्पर्वतप्रदेशे साक्षात् ॥२४२।। पाखदशमीमण्डलं प्रविष्टस्तत्प्रविष्टश्च प्रथमक्षणादूचं सर्वबाह्यानन्तरातिनद्वितीयमण्डलाभिमुखं चरति, ततस्तस्मिन्नेव ! SHAREnicatininaima ~491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१३], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-1, ---------- ------ मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८१] दीप अनुक्रम [११३] सर्वबाह्यानन्तरेऽक्तिने द्वितीयमण्डले चारं चरन् विवक्षितः, ततोऽधिकृतसूत्रोपनिपातः, तृतीयायनगते चन्द्रे पश्चिमे || ट्रभागे प्रविशति बाह्यानन्तरस्यार्वाग्भागवर्तिनः पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागास्ते वर्तन्ते यान चन्द्रः आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति त्रयोदश च सप्तपष्टिभागास्ते यान् चन्द्रः परेणैव चीर्णान् प्रतिचरति अन्ये | च त्रयोदश सप्तपष्टिभागास्ते यान् चन्द्रः स्वयं परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावता परिभ्रमणेन बाद्यानन्तरमा तनं ५ दूपाश्चात्यमर्द्धमण्डलं परिसमाप्तं भवति, तदनन्तरं च तस्मिन्नेव तृतीयायनगते चन्द्रे पौरस्त्यभागे प्रविशति सर्वबाह्याद किनस्य तृतीयस्य पौरस्त्यार्द्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा यान् चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, ततः परमन्ये ते त्रयोदश भागा यान् चन्द्रः परेणैव चीर्णान् प्रतिचरति, अन्ये च ते त्रयोदश भागा थान् चन्द्र आत्मना परेण च वीर्णान् प्रतिचरति, एतावता सर्यवाह्यान्मण्डलादाक्तनं तृतीयं पौरस्त्यमर्चमण्डलं परिसमाप्तं भवति, सप्तप-IR टेरपि भागानां परिपूर्णतया जातत्वात् , 'ता'इत्यादि, ततस्तस्मिन्नेव तृतीयायनगते चन्द्रे पश्चिमे भागे प्रविशति सर्व बाह्यान्मण्डलादाकनस्य चतुर्थस्य पाक्षात्यस्वार्द्धमण्डलस्याप्टौ सप्तषष्टिभागा एक च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य | ४ पूसत्का अष्टादश भागास्ते वर्तन्ते यान् चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावता च परिभ्रमणेन चान्द्रो मासः परिपूर्णो जातः । सम्प्रति पूर्वोक्तमेव स्मरयन चन्द्रमासगतमुपसंहारमाह-एवं खलु चंदेणं मासेण'मित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितं चान्द्रेण मासेन चन्द्रे त्रयोदश चतुष्पश्चाशत्कानि जातानि द्वे च त्रयोदशके यानि चन्द्रः परेणैव चीर्णानि प्रतिचरति, वर्तमानकालनिर्देशः सकलकालयुगस्य प्रथमे चान्द्रे मासे एवमेव द्रष्टव्यमिति ज्ञापनार्थः, ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूथमज्ञ-मार प्रत प्तिवृत्तिः (मल०) सुत्रांक ॥२४३|| [८१] दीप अनुक्रम [११३] तत्र त्रयोदशापि चतुःपञ्चाशरकानि द्वितीयेऽयने, तत्रापि सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि पूर्वभागे षट् पाश्चात्ये भागे, ये च द्वे त्रयो- १३ माभूतेदशके ते द्वितीयस्यायनस्योपरि चन्द्रमासावधेराक द्रष्टव्ये, तत्रैक त्रयोदशक सर्ववाह्यादवाक्कने द्वितीये पाश्चात्येऽद्ध- चन्द्रायनम मण्डले द्वितीय पौरस्त्ये तृतीयेऽर्घमण्डले, तथा 'तेरसे'त्यादि, त्रयोदश त्रयोदशकानि यानि चन्द्र आत्मनैव चीर्णानि मण्डलचारः प्रतिचरति, एतानि च सर्वाण्यपि द्वितीयेऽयने बेदितव्यानि, तत्रापि सप्त पूर्वभागे षट् पश्चिमभागे, तथा 'दुचे'इत्यादि, दे सू ८१ एकचत्वारिंशत्के द्वे च त्रयोदशके अष्टी सप्तपष्टिभागा एक च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशदा छित्त्वा तस्य सका अष्टादश | भागा यान्येतानि चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णानि प्रतिचरति, तन्त्र एकमेकचत्वारिंशत्कमेकं च त्रयोदशकं द्वितीयायनोपरि सर्वबाह्यात मण्डलादतने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले द्वितीयमेकचत्वारिंशत्क द्वितीयं च प्रयोदशकं सर्वपाह्यात् । मण्डलादतिने तृतीये पौरस्त्ये शेष पाश्चात्ये सर्वचाह्यादतिने चतुर्थेऽर्द्धमण्डले, अधुनोपसंहारमाह-इचेसा'इत्यादि। इत्येपा चन्द्रमसः संस्थितिरिति योगः, किंविशिष्टेत्याह-'अभिगमननिष्क्रमणबृद्धिनिवृद्धानबस्थितसंस्थाना' अभिगमनंसर्ववाद्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रवेशनं, निष्क्रमण-सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलाहिर्गमनं वृद्धि:-चन्द्रमसः प्रकटताया उपचयो| निवद्धिः-यथोक्तस्वरूपवृद्धाभावः, एताभिरनवस्थित-संस्थानं, अभिगमननिष्क्रमणे अधिकृत्यानवस्थानं वृद्धिनिवृद्धी अपेक्ष्य संस्थान-आकारो यस्याः सा तथारूपा संस्थितिः, तथा परिदृश्यमानचन्द्रविमानस्याधिष्ठाता विकुर्यगचिप्राप्तो रूपी-रूपवान् अत्रातिशयने मत्वीयोऽतिशयरूपयान् चन्द्रो देव आख्यातो नतु परिदृश्यमानविमानमात्रश्चन्द्रो देव ॥२४॥ इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः॥ ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां त्रयोदशम-प्राभूतं समाप्त -960-40-95-96 REaratinintamarohi अत्र त्रयोदशं प्राभृतं परिसमाप्तं ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཡྻ सूत्रांक [८२] अनुक्रम [११४] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१४], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... ..आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तदेवमुक्तं त्रयोदशं प्राभृतं सम्प्रति चतुर्दशं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा- 'कदा ज्योत्स्ना प्रभूता भवती 'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ताकता ने दोसिणा बहू आहितेति वदेखा ?, ता दोसिणापक्खे णं दोसिणा वह आहितेति वदेजा, ता कहं ते दोसिणापत्रखे दोसिणा यह आहितेति वदेजा ?, ता अंधकारपक्खओ णं दोसिणा बहू आहियाति वदेजा, ता कहं ते अंधकारपक्खानो दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेखा ?, ता अंधकार| पक्खातो णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चसारि बाबाले मुत्तसते छसालीसं च बावद्विभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे विरजति, तं०-पढमाए पढमं भागं विदियाए विदियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसं भागे, एवं खलु अंधकारपक्खतो दोसिणापक्खे दोसिणा यह आहितातिवदेजा, ता केवतिया णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेजा ?, ता परित्ता असंखेला भागा। ता कता ते अंधकारे यह आहितेति वदेखा ?, ता अंधयारपवस्त्रे णं बहू अंधकारे आहिताति वदेजा, ता कहं ते अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहिताति वदेखा ?, ता दोसिणापक्खातो अंधकारपक्खे अंधकारे यह आहितेति वदेखा, ता कह ते दोसिणापक्खातो अंधकारपक्वे अंधकारे बहू आहिताति वदेज्जा ?, ता दोसिणापक्खातो णं अंधकारपक्वं अयमाणे चंदे चत्तारि बाताले मुहुससते बापालीसं च बावद्विभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे रजति, सं०-पढमाए पढमं भागं विदियाए विदियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, एवं खलु दोसिणापक्खातो अंधकारपक्खे अंधकारे बहू For Para Lise Only अथ चतुर्द्दशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 494 ~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१४], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्ठिवृत्तिः प्रत सूत्रांक [८२] सू८२ दीप आहिताति बवेजा, ता केवतिएणं अंधकारपक्खे अंधकारे घर आहियाति वदेवा ? परित्ता असंखेल्या भागा॥ १४ पाभूते (सूत्रं ८२)| चोदसमं पाहुडं समतं ॥ ज्योत्स्वान्ध (मलाल 'ता कया ते दोसिणा'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् 'कदा'कस्मिन् काले भगवन ! त्वया ज्योत्स्ना प्रभूता आख्याता कारबहुत्वं इति वदेत !, भगवानाह'ला दोसिणे'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् । ॥२४॥ "पता कहते'इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् ?, भग-1 वानाह-'ता अंधकारल्यादि, सुगर्म, पुनरपिता कहते'इत्यादि प्रश्नसूत्रं निगदसिद्धं, निर्वाचनमाह-'ता अंधकारप क्खातो'इत्यादि, सुगर्म, पुनरपि 'ता कहं ते इत्यादि प्रश्नसूत्र, निर्वचनमाह-'ता अंधकारपक्वाओ'इत्यादि, ता ४ इति पूर्वपत् , अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्नापक्षमयमानश्चन्द्रश्चत्वारि मुहुर्तशतानि द्वाचत्वारिंशानि-द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान मुहूर्त्तस्य यावत् ज्योत्स्ना निरन्तर प्रवर्द्धते, तथा चाह-यानि यावत् चन्द्रो विरन्यते-11 शनैः शनै राहुविमानेनानावृतस्वरूपो भवति, मुहूर्त्तसयागणितभावना पाग्यकर्त्तव्या, कथमनावृतो भवतीत्यत आहतद्यथा-प्रथमायां प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रथमं पञ्चदर्श द्वापष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणं यावदनावृतो भवति, द्वितीयस्यां तिथौ द्वितीय भागं यावत् एवं तावद् द्रष्टव्यं यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशमपि भागं यावदनावृतो भवति, सर्वात्मना | M २४४॥ राहुविमानेनानावतो भवतीति भावः, उपसंहारमाह-एवं खलु'इत्यादि, तत एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमन्ध-| कारपक्षात् ज्योत्स्नापले ग्योरक्षा बहुराख्याता इति वदेव, इयमत्र भावना-इइ शुक्लपक्षे यथा प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य अनुक्रम [११४] %A5 ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१४], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] दीप पतिमुहूर्त यावन्मात्रं यावन्मात्रं शनैः शनैश्चन्द्रः प्रकटो भवति तथा अन्धकारपक्षे प्रतिपत्मथमक्षणादारभ्य प्रतिमुहूर्त | तावन्मात्रं तावन्मानं शनैः शनैश्चन्द्र आवृत उपजायते, तत एवं सति यावत्येवान्धकारपक्षे ज्योत्स्ना सावत्येव शुक्लपक्षेऽपि प्राप्ता, परं शुक्लपक्षे या पञ्चदश्यां ज्योत्स्ना साऽधकारपक्षादधिकेति अंधकारपक्षात् शुक्लपक्षे ज्योत्स्ना प्रभूता आख्यातेति,15 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कियती ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना आख्याता इति वदेत् !, भगवानाह-परीत्ताःपरिमिताश्च असोया भागा निर्विभागाः। एवमन्धकारसूत्राण्यप्युक्तानुसारेण भावनीयानि, नवरमन्धकारपक्षेमावास्थायां योऽन्धकारः स ज्योत्स्नापक्षादधिक इति ज्योत्स्नापक्षादन्धकारपक्षेऽन्धकार प्रभूत आख्यात इति वदेत् ॥ इति 81 इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां चतुर्दशम-प्राभृतं समाप्त तदेवमुक्त चतुर्दशं प्राभृतं, सम्पति पञ्चदशमारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकारो यथा'कः शीघ्रगतिर्भगवन् ! आख्यात' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहMIता कह ने सिग्घगती वत्थू आहितेति षदेना ?, ता एतेसि णं चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं| चंदेहितो सरे सिग्घगती सूरहितो गहा सिग्धगती गहेहिंतो गक्खत्ता सिग्घगती णक्खत्तेहितो तारा सिग्घगती, सबप्पगती चंदा सबसिग्घगती तारा, ता एगमेगेणं मुहुसेणं चंदे केवतियाई भागसताई। गच्छति !, ताजं जं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तस्स २ मंडलपरिक्खेवरस सत्तरस अडसहि अनुक्रम [११४] अत्र चतुर्दशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ पञ्चदशं प्राभृतं आरभ्यते ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३] दीप अनुक्रम [११५] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. .. आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥२४५॥ Education International भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउतीसतेर्हि छेसा, ता एगमेगेणं मुहुसेणं सूरिए केवतिया भागसयाई गच्छति, ता जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तस्स २ मंडलपरिक्खेवरस अट्ठारस तीसे भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्टाणउतीसतेहिं छेत्ता, ता एगमेगेणं मुहुतेणं णक्खत्ते केवतियाई भागसताई गच्छति ?, ता जं जं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तस्स २ मंडलस्म परिक्लेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसते गच्छति, मंडलं सतसहरसेणं अट्ठाणउतीसतेहिं छेत्ता । (सूत्रं ८३ ) 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्वयत् कथं भगवन् ! त्वया चन्द्रसूर्यादिकं वस्तु शीघ्रगति आख्यातं इति वदेत् १ भगवानाह 'ता एएसि णमित्यादि, एतेषां चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाणां पञ्चानां मध्ये चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतय, सूर्येभ्योऽपि ग्रहाः शीघ्रगतयो ग्रहेभ्योऽपि नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि नक्षत्रेभ्योऽपि ताराः शीघ्रगतयः, अत एवैतेषां पञ्चानां मध्ये सर्वाल्पगतयञ्चन्द्राः सर्व शीघ्रगतयस्ताराः । एतस्यैवार्थस्य सविशेषपरिज्ञानाय प्रश्नं करोति-'ता एगमेगेणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् एकैकेन मुहूर्त्तेन चन्द्रः कियन्ति मण्डलस्य भागशतानि गच्छति ?, भगवानाह - 'ताजं जमित्यादि, ४ यत् यत् मण्डलमुपसङ्गम्य चन्द्रश्चारं चरति तस्य तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः सप्तदश शतान्यष्टषष्ट्यॐ धिकानि भागानां गच्छति, मण्डल - मण्डड परिक्षेपमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या शतैरिया विभज्य, इयमत्र भावनाइह प्रथमतश्चन्द्रमसो मण्डलकालो निरूपणीयः तदनन्तरं तद्नुसारेण मुहूर्त्तगतिपरिमाणं परिभावनीयं तत्र मण्डलकालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिक - यदि सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकैः सकलयुगवर्त्तिभिरर्द्ध मण्डलैर टादश शतानि त्रिंशदधिकानि For Park Lise Only ~ 497~ २१५ प्राभूते चन्द्रादीनां गतितारत ४ भ्यं सू ८३ ॥२४५॥ wor Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३] दीप अनुक्रम [११५] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८३] .. आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... Education Internationa रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यां एकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते १, राशित्रयस्थापना- १७६८ । १८३० । २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं, जातानि पत्रिंशत्सहस्राणि षष्ट्यधिकानि ३६०६०, तेषामाद्येन राशिना भागहरणं, लब्धे द्वे रात्रिन्दिवे, शेषं तिष्ठति चतुर्विंशत्यधिकं शतं १२४, तत्रैकेकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्त्ता इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि ३७२० तेषां सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकैः भागे हृते लब्धौ द्वौ मुहतों, ततः शेषच्छेद्यराशिच्छेदकराश्योर एकेनापवर्त्तना जातभ्छेद्यो राशि स्त्रयोविंशतिः छेदकराशिर्दे शते एकविंशत्यधिके, आगतं मुहर्त्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयभागांस्त्रयोविंशतिः, एतावता | कालेन द्वे अर्द्धमण्डले परिपूर्ण चरति, किमुक्तं भवति ? - तावता कालेन परिपूर्णमेकं मण्डलं चन्द्रश्चरति, तदेवं मण्डलकालपरिज्ञानं कृतं साम्प्रतमेतदनुसारेण मुहूर्त्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते तत्र ये द्वे रात्रिन्दिये ते मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिर्मुहूर्त्ताः ६०, तत उपरितनौ द्वौ मुहूर्ती प्रक्षिप्तौं जाता द्वाषष्टिः ६२, एपा सवर्णनार्थं द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा चोपरितना त्रयोविंशतिः क्षिप्यते जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि | पञ्चविंशत्यधिकानि १३७२५, एतत् एकमण्डलकालगत मुहूर्त्तसत्कै कविंशत्यधिकशतद्वयभागानां परिमाणं, ततस्त्रैराशिककम्मविसरो - यदि त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां मण्डलभागा एक | शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्त्तेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना । १३७२५ । १०९८०० । १ । । इहाद्यो राशिर्मुहूर्त्तगतैकविंशत्यधिकशतद्वयभागरूपस्ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशिरेककलक्षणो द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंश For Penal Use Only ~ 498~ wor Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयप्रज्ञ प्रत सूत्राक [८३] दीप त्यधिकाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे शते एकविंशत्यधिक २२१, ताभ्यां मध्यो राशिर्गुण्यते, जाते द्वे कोव्यी द्विचत्वारिंशल्लक्षामाभृते तिवृत्तिःला पञ्चषष्टिः सहन्नाण्यष्टौ शतानि २४२६५८००, तेषां त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागो हियते लब्धानि चन्द्रादीनां (मल०) सप्तदश शतानि अष्टपश्यधिकानि १७६८, एतावतो भागान् यत्र तत्र या मण्डले चन्द्रो मुहूर्तेन गच्छति, 'ता एगमे- गतितारत |गणे'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकेन मुहूर्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति ?, भगवानाह-'ताजं ज'मित्यादि, म्य सूद ॥२४६॥ यत् यत् मण्डलमुपसङ्कग्य सूर्यश्चारं चरति तस्य तस्य मण्डलसम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेरष्टादश भागशतानि त्रिंशदमाधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैश्छित्त्वा, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिकबलात्, तथाहि-यदि षष्ट्या मुहत्तरेक शतसहनमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन कति भागान लभामहे !, राशित्रयस्थापना ६०1१०९८०० ११ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं जातः स तावानेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , ततस्तस्यायेन राशिना पष्टिलक्षणेन भागो हियते, लब्धान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, 'ता एगमेगेण मित्यादि, |ता इति पूर्ववत्, एकैकेन मुहूत्र्तेन कियतो भागान् मण्डलस्य नक्षत्रं गच्छति ।, भगवानाह-'ताज जमित्यादि, यत् यत् आत्मीयमाकालप्रतिनियतं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तस्य तस्यात्मीयस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परि-II २४६॥ | धेरष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानयत्या च शतैश्छित्वा, इहापि प्रथमतो मण्डलकालो निरूपणीयः यतस्तदनुसारेणैव मुहूर्त्तगतिपरिमाणभावना, तन्त्र मण्डलकालप्रमाणचिन्तायामिदं त्रैराशिक अनुक्रम [११५] RECE ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत RECOR सूत्राक [८३] दीप सायद्यष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकः सकलयुगभाविभिरर्द्धमण्डलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यां एकैकन परिपूर्णेन मण्डलेनेति भावः किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १८३५ । १८३०॥ अवान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि पत्रिंशच्छतानि पश्यधिकानि ३६६० तत आयेन राशिना १८३५ ।। |भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं १ शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पश्चविंशत्यधिकानि १८२५, ततो मुहू नयनार्थमेतानि | त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि ५४७५०, तेपामष्टादशभिः शतैः पश्चत्रिंशदधिर्भागे हुते लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः २२, ततः शेषच्छेद्यच्छेदकराश्योः पञ्चकेनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिः त्रीणि दातानि सप्तोत्तराणि ३०७ छेदकराशिस्त्रीणि शतानि सप्तपश्चाधिकानि ३६७, तत आगतमेकं रात्रिन्दिमेकस्य च रात्रिन्दिवस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तषष्यधिकत्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्त राणि १ ॥ २९॥ ३४ ॥ इदानीमेतदनुसारेण मुहुर्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते, तत्र रात्रिन्दिये त्रिंशन्मुहूर्ताः ३० तेषु उपरितना 13एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनषष्टिर्मुहूर्ताना, ततः सा सवर्णनाथ त्रिभिः शतैः सप्तपश्यधिकैर्गुण्यते, गुण-| यित्वा चोपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि पश्यधिकानि | २१९६०, ततखराशिक-यदि मुहूर्त्तगतसप्तपश्यधिकत्रिशतभागानामेकविंशत्या सहौनयभिः शतैः षष्पधिकैरेकं शतस-14 हस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यते तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना।२१९६०।१०९८००। 14। अत्राघो राशिर्मुहुर्तगतसप्तपश्यधिकत्रिशतभागरूपस्ततोऽन्त्योऽपि राशिस्त्रिभिः शतैः सप्तषष्पधिकैगुण्यते जातानि | अनुक्रम [११५] XEX ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३] दीप अनुक्रम [११५] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥२४७॥ ॐ श्रीण्येव शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि १६७, तैर्मध्यो राशिर्गुण्यते जाताश्चतस्रः कोटयो द्वे लक्षे षण्णवतिः सहस्राणि पट् शतानि ४०२९६६०० तेपामाद्येन राशिना एकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि षष्ठ्यधिकानीत्येवंरूपेण भागो हियते लब्धान न्यष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि १८३५ एतावतो भागान्नक्षत्रं प्रतिमुहूर्तं गच्छति । तदेवं यतञ्चन्द्रो यत्र तत्र वा मण्डले एकैकेन मुहूर्त्तेन मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि भागानां गच्छति सूर्योऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि नक्षत्रमष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ततश्चन्द्रेभ्यः शीघ्रगतयः सूर्याः सूर्येभ्यः शीघ्रगतीनि नक्षत्राणि, प्रहास्तु वक्रा३ नुवक्रा दिगतिभावतोऽनियतनतिप्रस्थानास्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणप्ररूपणा कृता, उक्तं च- "चंदेहिं सिधयरा सूरा सूरेहिं होंति नक्खत्ता | अणिययगइपत्थाणा हवंति सेसा गहा सवे || १ || अहारस पणती से भागसए गच्छई मुहु| तेणं । नक्खत्तं चंदो] पुण सत्तरस सए उ अडसठे ॥ २ ॥ अट्ठारस भागसए तीसे गच्छइ रवी मुहुत्तेण । नक्खत्तसी मछेदो सो चेव इहंपिं नायबो || ३ ||" इदं गाधात्रयमपि सुगमं, नवरं नक्षत्रसीमाछेदः स एव अत्रापि ज्ञातव्य इति किमुक्तं भवति । अत्रापि मण्डलमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तव्यमिति ॥ सम्प्रत्युक्त स्वरूपमेव चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविषयं विशेषं निर्द्धारयति- सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः ( मल० ) Education International ता जया णं चंद गतिसमावणं सूरे गतिसमावण्णे भवति, से णं गतिमाताएं केवतियं विसेसेति ?, याच ट्टिभागे विसेसेति, ता जया णं चंद गतिसमावण्णं णक्खसे गतिसमावण्णे भवइ से णं गतिमाताए केव तियं विसेसेह ?, ता सत्तट्ठि भागे विसेसेति, ता जता णं सूरं गतिसमावणं यखत्ते गतिसमावण्णे भवति For Penal Use Only ~ 501~ १५ प्राभृते चन्द्रादीनां गवितारत म्यं सू ८४ ॥२४७॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१५], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-], ---------- ------ मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८४] - से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति ?, तापंच भागे विसेसेति, ता जना णं चंदं गतिसमावणं अभीयी-1 णक्खत्ते णं गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादित्ता णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तविभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोएति, जो जोपत्ता जोयं अणुपरिपट्टति, जो ६२ सा विप्पजहाति विगतजोई यावि भवति, ता जता ण चंदं गतिसमावणं सवणे णक्खो गतिसमावणे &|पुरच्छिमाति भागादे समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धिं जो जोएति १२ जोयं अणुपरियति जो० २ त्ता विप्पजहति विगतजोई यावि भवइ, एवं एएणं अभिलावणं णेतवं, पण्णसरसमुहत्ताई तीसतिमुहत्ताई पणयालीसमुहत्ताई भाणितबाई जाब उत्तरासादा। ता जता णं चंदं । गतिसमावणं गहे गतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति पुर०२त्ता चंदेणं सद्धिं जोग जुजति हा सा जोगं अणुपरिषदृति त्ता विष्पजह ति विगतजोई यावि भवति । ता जया णं सूरं गतिसमावणं अभीगीणक्खत्ते गतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुर०२ सा चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते &ारेणं सद्धिं जोपं जोएति २ जोयं अणुपरियति २त्ता विजेते विगतजोगी यावि भवति, एवं अहोरत्ता छ एकवीसं मुहत्ता य तेरस अहोरत्ता बारस मुहुत्ता य वीसं अहोरत्ता तिष्णि मुहुत्ता य सधे भणितबा। जाय जता णं सरं गतिसमावणं उत्तरासाढाणक्खत्ते गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति। पु० २ सा वीसं अहोरत्ते तिपिण यमुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएति जो० २ ता जोयं अणुपरियति जो०२/ दीप अनुक्रम [११६] --- - - - ~502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [११६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रश मिवृत्तिः ( मल० १२४८ ॥ Education Internatio त्ता विजेति विजहति विष्वजति विगतजोगी यावि भवति, ता जता णं सूरं गतिसमावणं णक्खत्ते (ग) २ १५ प्राभृते गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पु० २ ता नरेण सद्धिं जोये जुंजति २ सा जोयं अनुपरि यहति २ ता जाव विजेति विगतजोगी यावि भवति । (सूत्रं० ८४ ) चन्द्रादीनां गतितारत वं सू. ८४. 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् यदा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापनमपेक्ष्य सूर्यो गतिसमापन्नो विवक्षितो भवति, किमुक्तं भवति ? - प्रतिमुहूर्त्त चन्द्रगतिमपेक्ष्य सूर्यगतिश्चिन्त्यते तदा सूर्यो गतिमात्रया एक मुहूर्त्तगतगतिपरिमाणेन कियतो भागान् विशेषयति ?, एकेन मुहूर्त्तेन चन्द्राक्रमितेभ्यो भागेभ्यः कियतोऽधिकतरान् भागान् सूर्य आक्रामतीति भावः, भगवानाह - द्वापष्टिभागान् विशेषयति, तथाहि चन्द्र एकेन मुहूर्तेन सप्तदश भागशतान्यष्टपयधिकानि गच्छति १७६८ सूर्योऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० ततो भवति द्वापष्टिभागकृतः परस्परं विशेषः, 'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राग्वत्, यदा चन्द्रं गतिसमापनमपेक्ष्य नक्षत्रं गतिसमापनं विवक्षितं भवति तदा नक्षत्रं गतिमात्रया - एक मुहूर्त्तगतपरिमाणेन कियन्तं विशेषयति ?, चन्द्राक्रमितभ्यो भागेभ्यः कियतो भागानधिकान् आक्रामतीति भावः, भगवानाह सप्तपष्टिभागान्, नक्षत्रं ह्येकेन मुहूर्त्तेनाष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति | चन्द्रस्तु सप्तदश भागशतानि अष्टषष्यधिकानि तत उपपद्यते सप्तषष्टिभागकृतो विशेषः, 'ता जया णमित्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वद् भावनीयं भगवानाह - 'ता पंचे त्यादि, पञ्च भागान् विशेषयति--सूर्याक्रान्तभागेभ्यो नक्षत्राक्रान्तभागानां पञ्चभिरधिकत्वात् तथाहि सूर्यः एकेन मुहर्त्तेनाष्टादश भागशतानि त्रिंशदधिकानि गच्छति नक्षत्रमष्टादश भागशतानि For Parata Use Only ~ 503~ ॥२४८॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८४] cre-CSCLACOCCALC दीप मापश्चत्रिंशदधिकानि ततो भवति परस्परं पञ्चभागकृतो विशेषः, 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यदा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तदा पौरस्त्याद् भागात् प्रथमतोऽभिजिन्नक्षत्र चन्द्रमसं समासादयति एतच प्रागेव भावितं समासाद्य च नव मुहूनि दशमस्य च मुहर्तस्य सप्तविशति सप्तपष्टिभा-1 गान् चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति-करोति, एतदपि प्रागेव भावित, एवंप्रमाणं कालं योगं युक्त्या पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्त्तयति, श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः, योगं च परावर्त्य स्वेन सह योग विजहाति, किंबहुना ?, विगत योगी चापि भवति, 'ता जया 'मित्यादि, ता इति प्राग्यत् , यदा चन्द्रं गतिसमापनमपेक्ष्य श्रवणनक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तदा तत् श्रवणनक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद् भागात-पूर्वेण भागेन चन्द्रमसं समासादयति,13 समासाद्य चन्द्रेण साई त्रिंशतं मुहान यावत् योगं युनक्ति, एवंप्रमाणं च कालं यावत् योगं युक्त्वा सापर्यन्तसमये योगभनुपरिवर्तयति, धनिष्ठानक्षत्रस्य योगं समर्पयितमारभते इत्यर्थः, योगमनुपरिवर्य च। स्वेन सह योगं विप्रजहाति, किंबहुना , विगतयोगी चापि भवति, 'एच'मित्यादि एवमुक्केन प्रकारेण|| एतेनानन्तरोपदर्शितेनाभिलापेन यानि पञ्चदश मुहूर्तानि शतभिषाप्रभृतीनि नक्षत्राणि यानि त्रिंशन्मुहूतानि धनिष्ठाप्रभृतीनि यानि च पश्चचत्वारिंशन्महानि उत्तरभद्रपदादीनि तानि सर्वाण्यपि क्रमेण तावद् भणितव्यानि याव-II दुत्तरापाढा, तत्राभिलाषः सुगमत्यात् स्वयं भावनीयो ग्रन्थगौरवभयात् नाख्यायते इति । सम्प्रति प्रहमधिकृत्य योगचिन्तां करोति-'ता जया ण'मित्यादि ता इति पूर्ववत् चदा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापनमपेक्ष्य ग्रहो गति अनुक्रम [११६] CRORSCONGS SAREairatan intamational ~ 504~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८४] दीप IM सूर्यप्रज्ञ- समपन्नो भवति तदा स ग्रहः पौरस्त्याद् भागातु-पूर्वेण भागेन प्रथमतश्चन्द्रमसं समासादयति समासाद्य च यथास- १३ मामृते प्तिवृत्तिःम्भवं योगं युनक्ति, यथासम्भवं योग युक्त्वा पर्यन्तसमये यथासम्भवं योगमनुपरिवर्तयति, यथासम्भवमन्यस्य ग्रहस्य चन्द्रादीनां ( म लायोग समर्पयितुमारभते इति भावः, योगमनुवर्त्य च खेन सह योग विप्रजहाति, किंबहुना !, विगतयोगी चापि भवति। गांततारतअधुना सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तां करोति-'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राग्यत् , यदा सूर्य गतिसमापन्नम-11 मंसू ८४ ॥२४९॥ पक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन भवति तदा तदभिजिन्नक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद् भागात सूर्य समासादयति समासाद्य । चतुरः परिपूर्णान् अहोरात्रान् पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य घडू मुहान यावत् सूर्येण सह योगं युनक्ति, एवंप्रमाणं च कालं यावत् I योगं युक्त्या पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्तयति, श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्पयितुमारभते इति भावः, अनुपरिवर्त्य च ॥ स्वेन सह योग विजहाति विप्रजहाति, किंबहुना ?, विगतयोगी चापि भवति, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण पश्चदशमुहूर्तानां शतभिषमभृतीनां षट् अहोरात्राः सप्तमस्य अहोरात्रस्य एकविंशतिर्मुहर्ताः त्रिंशन्मुहानां श्रवणादीनां त्रयोदश अहोरात्राश्चतुर्दशस्य अहोरात्रस्य द्वादश मुहूत्तोः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानामुत्तरभद्रपदादीनां विंशतिरहोरात्रा एकविंशतितमस्य चाहोरात्ररय त्रयो मुहर्ताः क्रमेण सर्वे तावद् भणितच्याः यावदुत्तरापाढानक्षत्र, तत्रोत्तराषाढानक्षत्रगतमभिलापं साक्षादर्शयति-ता जया णमित्यादि, सुगर्म, एतदनुसारेण शेषा अप्यालापाः स्वयं वक्तव्या, सुगमत्वानु २४९॥ नोपदपर्यन्ते । सम्पति सूर्येण सह ग्रहस्य योगचिन्तां करोति-'ता जया ण'मित्यादि सुगर्म । अधुना चन्द्रादयो नक्ष-II वण मासेन कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपयितुकाम आह अनुक्रम [११६] ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-, -------------------- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८४] दीप अनुक्रम [११६] ताणक्खत्तेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता तेरस मंडलाई चरति, तेरस य सत्तविभागे मंडलालस्स, ता णक्खत्तणं मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति ?, तेरस मंडलाई चरति, चोत्सालीसं च सत्तविभागे| मंडलस्स, ता णक्खत्तेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति ?.ता तेरस मंडलाई चरति अद्धसीतालीस मच सत्तट्ठिभागे मंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति, चोइस चउभागाइं मंडलाई चरति एगं च पञ्चीससतं भागं मंडलस्स,ता चंदेणं मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति , ता पपणरस चउभागूणाई मंडलाई चरति, एमं च चवीससयभागं मंडलस्स, ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति , ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाई चरति उच्च चउचीससतभागे मंडलस्स, ता उडणा मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता चोइस मंडलाई चरति तीसं च एगट्ठिभागे मंडलस्स, ता उडणार मासेणं सरे कति मंडलाइं चरति ?, ता पण्णरस मंडलाई चरति, ता उडणा मासेणं णक्वते कति मंडलाई। काचरति !, ता पण्णरस मंडलाइं चरति पंच य बाबीससतभागे मंडलस्स, ता आदिचेणं मासेणं चंदे कति हामंडलाई चरति !,ता चोइस मंडलाई चरति, एकारस भागे मंडलस्स. ता आदिच्चेणं मासेणं सरे कति मंड लाई चरति !, ता पपणरस चउभागाहिगाई मंडलाई चरति, ता आदिघेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई। शाचरति !, तापण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाइं चरति पंचतीसं च चउवीससतभागमंडलाई चरति, ता अभिदावहिएण मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति !, ता पणरस मंडलाई तेसीर्ति छलसीयसतभागे मंडलस्स, ताN ~5064 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], .... ......---- प्राभूतप्राभृत [-1, ------------------- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत दीनां चारः सूत्रांक [८५]] दीप सूर्यप्रज्ञ- अभिवहितेणं मासेणं सूरे कति मंडलाइं चरति ?, ता सोलस मंडलाई चरति तिहिं भागेहिं ऊणगाई दोहि १५ प्राभूत विवृत्तिःअडयालेहिं सएहिं मंडलं छित्ता, अभिवहितेणं मासेणं नक्खत्ते कति मंडलाई चरति ?, ता सोलस मंडलाईनक्षत्र नक्षत्रादि(मल) चरति सीतालीसएहिं भागेहि अहियाई चोद्दसहिं अट्ठासीएहिं मंडलं छेत्ता (सूत्रं ८५) मासैश्चन्द्राII ता नक्खत्ते णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , नक्षत्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवा- स् ८५ नाह-'तेरसे'त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागान , कथमेतदवसीयते इति चेत, उच्यते, त्रैराशिकबलात् , तथाहि-यदि सप्तपट्या नक्षत्रमासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन नक्षत्रमासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-६७१८८४।१। अत्रान्त्येन राशिना गुणनं जातः स ताबानेव तस्य सप्तपश्या भागहरणं लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः १३ ।।ता नक्खत्तेण-12 मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह–ता तेरसे'त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य मचतुश्चत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् , तथाहि-यदि सप्तषट्या नाक्षत्रैर्मासनव शतानि पश्चदशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते तत एकेन नाक्षत्रेण मासेन कति मण्डलानि लभामहे !, राशित्रयस्थापना ६७ । ९१५ । १ । अत्रान्त्येन| २५०॥ राशिना मध्यराशेर्गुणनं तत आयेन राशिना भागहारो लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य चतुश्च-11 त्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः १३ ।। 'ता नक्खत्ते'त्यादि नक्षत्रविपर्य प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-'ता तेरसे'|त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य अर्द्धसप्तचत्वारिंशत-सार्द्धपटूचत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् चरति, अनुक्रम [११७] ~507~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [५] दीप अनुक्रम [११७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ ८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः तथाहि - यदि सप्तषष्ट्या नाक्षत्रैमीसेरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्डलानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन - नाक्षत्रेण मासेन किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना -- ६७ । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, तत | आद्येन राशिना भागहारो लब्धानि सप्तविंशतिरर्द्धमण्डलानि अष्टाविंशतितमस्य चार्द्ध मण्डलस्य पविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७ । । ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकं मण्डलमित्यस्य राशेरर्द्धकरणे लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्द * शस्य मण्डलस्य सार्द्धाः षट्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः । १३ १६ । सम्प्रति चन्द्रमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणां करोति- 'ता चंद्रेण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चान्द्रेण मासेन प्रागुक्तस्वरूपेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति, भगवानाह- 'ता चोहसे त्यादि, चतुर्द्दश सचतुर्भागमण्डलानि चतुर्भागसहितानि मण्डलानि चरति एकं च चतुर्विंशशतभागं मण्डलस्य, किमुक्तं भवति ?- परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भागं चतुर्विंशत्यधिकश तसत्कमेकत्रिंशद्भागप्रमाणमेकं च चतुर्विंशत्यधिकशतस्य भागं द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरति, तथाहि--यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते ततो * द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना - १२४ । ८८४ । २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातानि सप्तदश शतान्यष्टपथ्यधिकानि १७६८, तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशत् चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः १४ । । 'ता चंद्रेण' मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, 'ता पन्नरसे'त्यादि, पञ्चदश चतुर्भागन्यूनानि मण्डलानि चरति एकं च चतुर्विंशत्यधिकशतभागं मण्डलस्य, For Penal Use Only ~508~ wor Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [५] दीप अनुक्रम [११७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], मूलं [ ८५] प्राभृतप्राभृत [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ( मल०) ॥२५१॥ सूर्यप्रज्ञ । किमुक्तं भवति ? - चतुर्द्दश परिपूर्णानि मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरति, विवृत्तिः तथाहि--यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १२४ । ९१५।२ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतेषामायेन राशिना चतुर्थिशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नयतिश्चतुविशत्यधिकशतभागाः । ४ । इति, 'ता चन्द्रेण मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह ता पण्णरसेत्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागन्यूनानि चरति पटू च चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् मण्डलस्य, किमुक्तं * भवति ? - परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान्, तथाहियदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्ध मण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १२४ । १८३५ । २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातानि पत्रि शच्छतानि सप्तत्यधिकानि ३६७०, एतेषामाद्येन राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं, लब्धा एकोनविंशत् शेषा तिष्ठति चतुःसप्ततिः, इदं चार्द्धमण्डलगतं परिमाणं, द्वाभ्यां चार्द्धमण्डलाभ्यामेकं परिपूर्ण मण्डलं ततोऽस्य राशे - द्विकेन भागहारो लब्धानि चतुर्द्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिश्चतुर्विंशत्यधिकशत भागाः १४ । १२४ । साम्प्रतं ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणां करोति- 'ता उउमासेण नंदे' इत्यादि ऋतुमासेन - कर्ममासेन ॥ २५९ ॥ चन्द्रः कति मण्डलानि चरति १, भगवानाह - 'ता चोदसे त्यादि चतुर्द्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य मण्ड | For Para Use Only ~509~ १५ प्राभूते नक्षत्रादिमासैश्चन्द्रादीनां चारः सू ८५ wor Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [५] दीप अनुक्रम [११७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Jin Eucator लस्य त्रिंशतमेकपष्टिभागान् तथाहि यदि एकपट्या कर्म्ममासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना । ६१ । ८८४ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य एकपट्या भागहरणं लब्धानि परिपूर्णानि चतुर्द्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य चिमण्डलस्य त्रिंशदेकपष्टिभागाः । १४ । । 'ता उमासेण' मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता पन्नरसेत्यादि, पञ्चदश परिपूर्णानि मण्डलानि चरति, तथाहि यद्येकपट्या कर्ममासैर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि सूर्यमण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन कर्म्ममानेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना । ६१ । ९१५ | १| अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते जातः स तावानेव तस्य एकपट्या भागहरणं रब्धानि परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि १५, ५ 'ता उमासेण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - ता पन्नरसे त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चरति, ॐ पोडशस्य च मण्डलस्य पश्च द्वाविंशशतभागान् तथाहि यदि द्वाविंशेन कर्ममासशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना १२२ । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्याद्येन राशिना द्वाविंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि पोडशस्य च पञ्च द्वाविंशशतभागाः १५ । १२२ । सम्प्रति सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि निरूपयति- 'ता आइचेण 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, आदित्येन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ?, भगवानाह-चतुर्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य च मण्डलस्य एकादश पञ्चभागान् तथाहि--यदि पष्ट्या सूर्यमासैरष्टौ For Par Use Only ~510~ wor Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१५], ----------- प्राभृतप्राभृत [-1, ---------------- मूल [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] दीप सूर्यप्रज्ञ- शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते तत एकन सूर्यमासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना- १५प्राभृते तिवृत्तिः ६०1८८४ ॥ १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य पश्या भागहरणं लब्धानि चतुर्दशनक्षत्रादि(मल मण्डलानि शेषास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् ४४ तत छेद्यच्छेदकराश्योश्चतुष्केनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिरेकादश-मासचन्द्रारूपोऽधस्तनः पश्चदशरूपः लम्धाः पञ्चदशमण्डलस्य एकादशभागाः १४ ।। 'ता आइमोण'मित्यादि सूर्यविषयं दीनां चारः ॥२५२ दान प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-पादश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि चरति, तथाहि-यदि पट्या सूर्यमासनेय शतानि पञ्च-11 वादशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते तत एकेन मासेन किं लभामहे , राशिवयस्थापना ६० ॥ ९१५ । १ । अत्रा-11 सत्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य पछया भागहरणं लब्धानि पञ्चदश भण्डलानि पोडशस्य च पष्टिभागविभक्तस्य पञ्चदशभागात्मकश्चतुर्भागः । १५ ।'ता आइचेण मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र |सुगमम् , भगवानाह–ता पण्णरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागाधिकानि पञ्चविंशतं विंशत्यधिकशतभागान मण्डलस्य चरति, किमुक्तं भवति !-पोडशस्य च मण्डलस्य पचत्रिंशतं विंशत्यधिकशतभागान चरति, तथाहि-यदि पिं-18 शेन सूर्यमासातेनाष्टादश दातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन सूर्यमासेन किं लभ्यते । राशित्रयस्थापना-१२० । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुणितो जासस्तावानेव तस्य विंशत्यधिकेन । शतेन भागहरणं लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि पञ्चत्रिंशच विंशत्यधिकशतभागाः षोडशस्य १५ । ३५. अधुना अभिव-४॥२५ डितमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि निरूपयन्नाह-'ता अभिवहिएण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अभिवर्द्धि अनुक्रम [११७] ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [५] दीप अनुक्रम [११७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१५], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internationa तेन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति १, भगवानाह - 'ता पण्णरसेत्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चरति षोडशस्य च मण्डलस्य व्यशीतिः चतुरशीत्यधिकशतभागान् तथाहि - अत्रैवं त्रैराशिक इह युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् सप्त चाहोरात्रा एकादश मुहूर्त्तास्त्रयोविंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, एष च राशिः सांश इति न त्रैराशिककर्म्मविषयस्ततः परिपूर्णमासप्रतिपत्त्यर्थमयं राशिः षट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि परिपूर्णानि नवाशीतिः शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि अभिवर्द्धितमासानां, किमुक्तं भवति ! पपश्चाशदधिकशत सत्येषु युगेषु एतावन्तः परिपूर्णा अभि वर्द्धितमासाः लभ्यन्ते, एतच्च द्वादशमाभृते सूत्रकृतैव साक्षादभिहितं ततखैराशिककर्म्मावतारः- यद्यष्टाविंशत्यधिकैरभिवद्धितमासैर्नवाशीतिशतैः पट्पञ्चाशदधिकशत सपयुगभाविभिश्चन्द्रमण्डलानामेकं लक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि चतुरुत्तराणि लभ्यन्ते तत एकेनाभिवर्द्धितमासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - ८९२८ । १३७९०४ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेस्ताडनाखातः स तावानेव तस्याद्येन राशिना ८९२८ भागहरणं लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि १५ शेषमुद्धरति एकोनचत्वारिंशत् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ३९८४, ततः छेद्यच्छेदकराश्योरष्टाचत्वारिंशताऽपवर्त्तना जात उपरितनो राशिख्यशीतिरधस्तनः षडशीत्यधिकं शतं आगतं षोडशमण्डलस्य व्यशीतिः पडशीत्यधिकशतभागाः । 'ता अभिवह्निएण' मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'सोलसे' त्यादि, षोडश मण्डलानि त्रिभिर्भागैर्म्यूनानि चरति, मण्डलं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां छित्त्वा तथाहि यदि पटूपवाशदधिकशतसवयुगभाविभिरष्टाविंशत्यधिकैरभिवर्द्धितमा सैर्नवाशीतिशतैः सूर्यमण्डलानामेकं लक्षं द्विचत्वारिंशत्स For Parata Use Only ~ 512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] दीप सूर्यम- हस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि लम्यन्ते तत एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे 1, राशिनयस्थापना ८९२८ ।। १५ प्राभूते तिवृत्तिः | १४२७४०।। अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिदृष्यते जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ नक्षत्रादि(मळ०) भागो हियते लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि १५ शेषमुद्धरन्ति अष्टाशीतिः शतानि विंशत्यधिकानि ८८२० ततश्छेद्य- मा च्छेदकराश्योः पशिताऽपवर्त्तना जात उपरितनो राशिः द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके २४५ अधस्तनो द्वे शते अष्टाच॥२५३|| त्वारिंशदधिके २४८ आगतं पोड मण्डलं विभिभागैन्यूँनं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां प्रविभक्तं २४८ ।। सू ८५ 'ता अभिवहिएण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता सोलसे'त्यादि, पोडश मण्डलानि सप्तच-14 Xत्वारिंशता भागैरधिकानि चतुवाभिः शतैरष्टाशीत्यधिकर्मण्डलं छित्त्या, तथाहि-यदि पट्पनाशदधिकशतसङ्ग्य युगभा-15 विभिरभिवतिमानवाशीतिशारष्टाविंशत्यधिक क्षत्रमण्डलानामेकं लक्ष त्रिचत्वारिंशत् सहस्राणि शतमेकं त्रिंशद-15 आधिकं लभ्यते ततः एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे 1, राशित्रयस्थापना । ८९२८ । १४३१३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ भागो झियते लब्धानि षोडश मण्डलानि शेषमुद्धरति द्वे शते यशोत्यधिक २८२ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः पदेनापवर्तना जाता उपरि सप्तचत्वारिंशत् |४७ अधस्तु चतुर्दश शतान्यष्टाशीत्यधिकानि १४८८ आगताः सप्तचत्वारिंशत् अष्टाशीत्यधिकचतुर्दशशतभागाः । सम्प- ॥२५॥ प्रत्येकैकेनाहोरात्रेण चन्द्रादयः प्रत्येकं कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह ता एगमेगेणं अहोरतेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता एगं अद्धमंडलं चरति एकतीसाए भागेहिं ऊणं! अनुक्रम [११७] Forum ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८६] दीप अनुक्रम [११८] दाणवहिं पण्णरसेहिं अद्धमंडलं छेत्ता, ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं सूरिए कति मंडलाई चरति ?, ता एगं अद्धम-18 डलं चरति, ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति.ता एग अद्धमंडलं चरति वोहिं भागे । अधियं सत्तहिं बत्तीसेहिं सरहिंषद्धमंडलं छेत्ता । ता एगमेग मंडलं चंदे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति !, ता| दोहिं अहोरत्तेहिं चरति एकतीसाए भागेहिं अधितेहिं चउहिं चोतालेहिं सतेहिं राईदिएहि छेत्ता, ता एगमेगं मंडलं सूरे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति ?, ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति, ता एगमेगं मंडलं णकूखत्ते कतिहिं| अहोरत्तेहिं चरति !, ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति दोहिं ऊणेहिं तिहिं सत्तसद्धेहिं सतेहिं राईदिएहि | लाछेत्ता । ता जुगेणं चंदे कति मंडलाई चरति !, ता अट्ट चुल्लसीते मंडलसते चरति, ता जुगेणं सरे। कति मंडलाई चरति !, ता णवपण्णारमंडलसते चरति, ता जुगेणं णक्खत्ते कति मंडलाई परति P.IN माता अट्ठारस पणतीसे दुभागमंडलसते चरति । इच्चेसा मुहुत्तगती रिक्खातिमासराईदियजुगमंडलपविभत्ता सिग्घगती वत्थु आहितेत्ति बेमि ।। (सूत्र० ८६ ) पन्नरसमं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता एगमेगेणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकेनाहोरात्रेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह--'ता| एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डल चरति एकत्रिंशता भागैन्यूंनं नवभिः पञ्चदशोत्तरै! शतरर्द्धमण्डलं छित्त्या, तथाहिरात्रिन्दिवानामष्टादशभिः शतस्त्रिंशदधिकैः सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि अर्द्धमण्डलानां चन्द्रख लभ्यन्ते तत एकेन रात्रिन्दिवेन किं लभ्यते !, राशित्रयस्थापना १८३० । १७६८ ॥ १। अत्रान्त्येन राशिना, एककलक्षणेन मध्य ~ 514~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], --------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- मिवृत्तिः (मल. सूत्राक [८६] ॥२५४॥ दीप राशिगुण्यते जातः स ताबानेव तस्यायेन राशिना १८३० भागहरणं, स चोपरितनस्य राशेः स्तोकत्वाद् भागं न लभते प्राभले ततश्छेद्यच्छेदकराश्योति केनापवर्तना जातः उपरितनो राशिरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि अधस्तनो नव शतानि चन्द्रादीना पञ्चदशोचराणि । तत आगतमेकत्रिंशता भागैन्यूनमे कमद्धमण्डलं नवभिः पञ्चदशोत्तरैः प्रविभक्तमिति । 'ता एग महोरात्रममेगणमित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह–ता एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं चरति, एतच सुप्रतीत मेव, Pण्डलयुगगता एगमेगेण'मित्यादि नक्षत्रविषय प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता एगमेगेण मित्यादि, एकमर्द्धमण्डल द्वाभ्यातयः सू८६ भागाभ्यामधिक चरति द्वात्रिंशदधिकः सप्तभिः शतैरर्द्धमण्डलं छित्त्वा, तथाहि-यद्यहोरात्राणामष्टादशभिः शत त्रिंशद-1 [धिकरष्टादश शतानि पचत्रिंशदधिकानि नक्षत्राणामर्द्धभण्डलानि लभ्यन्ते तत एकेनाहोरात्रेण किं लभ्यते !, राशि | यस्थापना १८३० । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककरूपेण मध्यराशेर्गुणना जातः स तावानेव तस्यायेन | राशिना १८३० भागहरणं लब्धमेकमर्द्धमण्डलं शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च ततश्छे यच्छेदकराश्योरर्बतनीयरपवर्सना जातावुपरि द्वी अपस्तात् ससंशतानि द्वात्रिंशदधिकानि, लब्धौ वो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागौ । अधुना एकै परिपूर्ण मण्डलं चन्द्रादयः प्रत्येक कतिभिरहोरात्रैश्चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह-'ता एग'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकं मण्डलं चन्द्रः कतिभिरहोरात्रश्चरति !, भगवानाह-ता दोहिं'इत्यादि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति एकत्रिंशता भागैरधि-IMIn काभ्यां चतुर्भिश्चत्वारिंशदधिकैः शतैः राबिन्दिवं छित्त्वा, तथाहि-यादे चन्द्रस्य मण्डलानामष्टभिः दाश्चतुरशीत्यधि-IN किरहोरात्राणामष्टादश दातानि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते तत एकेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभामहे !, राशित्रय-1 अनुक्रम [११८] CARKRAM ~ 515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१५], -------------------- प्राभूतप्राभृत [-1, ---------- ------ मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८६] दीप स्थापना ८८४ । १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना चतुरशीत्य|धिकाष्टशतप्रमाणेन भागहरण लब्धौ द्वावहोरात्री शेषास्तिष्ठति द्वाषष्टिः ६२ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योदिकेनापवर्चना जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशद्रूपोऽधस्तनश्चत्वारि शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि आगतं एकत्रिंशत् द्विचत्वारिंशद-18 अधिकचतुःशतभागाः । 'ता एगमेग'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकं मण्डलं सूर्यः कतिभिरहोरात्रैश्चरति !, भगयानाह-'ता दोहिं'इत्यादि, द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, तथाहि-यदि सूर्यस्य मण्डलानां नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तररष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणां लभ्यन्ते तत एकेन मण्डलेन कति अहोरात्रान् लभामहे !, राशित्रयस्थापना-९१५ । १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ९१५ भागहरणं | |लब्धौ द्वायहोरात्राविति । 'ता एगमेग'मित्यादि ता इति पूर्ववत् एकैकमात्मीयं मण्डल नक्षत्र कतिभिरहोरात्रैश्चरतिी, भग-1 यानाह-'ता दोहिं'इत्यादि, द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां द्वाभ्यां भागाभ्यां हीनाभ्यां त्रिभिः सप्तपष्टः-सप्तपश्यधिक शतै रात्रिन्दिवं| छित्त्या, तथाहि-यदि नक्षत्रस्य मण्डलानामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकैः पट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि राबिन्दियानां 13 दालभामहे तत एकेन मण्डलेन किं लभामहे!,राशित्रयस्थापना १८३५ । ३६६० । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेस्ताडनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना १८३५ भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५ तत छेघच्छेदकराश्योकेिनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिः त्रीणि शतानि पञ्चषध्यधिकानि छेद-15 राशिस्त्रीणि शतानि सप्तषष्ठयधिकानि १७तत आगतं द्वाभ्यां सप्तषष्टपधिकत्रिशतभागाभ्यां हीनं द्वितीयं रात्रिन्दि-| अनुक्रम [११८] 360-70-54 ~516~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 22 प्रत 2 % सूत्राक [८६] % दीप सूर्यप्रज्ञ- वमिति । सम्प्रति चन्द्रादयः प्रत्येकं कति मण्डलानि युगे चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह-ता जुगे णमित्यादि, ता इति १५ प्राभृते सिवृत्तिः पूर्ववत् , युगेन कति मण्डलानि चरति ?, भगयानाह–ता अडे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् , अष्टौ मण्डल शतानि चतुर- चन्द्रादीना (मन शीत्यधिकानि चरति, चन्द्रः एकेन शतसहस्रेणाटानवत्या शतैः प्रविभक्तस्य मण्डलस्याष्ट्रपश्यधिकसप्तदशशतसमयान महारात्रम मण्डलयुगग॥२५५॥ भागान एकेन मुहूर्तेन गच्छति, युगे च मुहूत्ताः सर्वसङ्ख्यया चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि, ततः सप्तदश दातानि Mअष्टषष्ट्यधिकानि चतुःपञ्चाशता सहस्रैर्नषभिश्च शतैर्गुण्यन्ते जाता नव कोटयः सप्ततिक्षारिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते || W१९७०६३२०० ततोऽस्य राशेरेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः १०९८०० मण्डलानयनाथ भागो हियते, लब्धानि अष्टौ । शतानि चसुरशीत्यधिकानि मण्डलानामिति, ता जुगेण मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'तानचपण्णरसे'-11 त्यादि, ता इति पूर्ववत् , नव मण्डलशतानि पञ्चदशाधिकानि चरति, तथाहि-यदि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं सूर्य मण्डलं लभ्यते ततः सकलयुगभाविभिरटादशभिरहोरात्रशतैत्रिंशदधिकैः कति मण्डलानि लभ्यन्ते ।, राशित्रयस्थापना ४ ।१।१८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८५० तेषामायेन| | राशिना द्विकरूपेण भागहरणं लब्धानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ । 'ता जुगेण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र || सुगम, भगवानाह-'ता अट्ठारसे त्यादि, अष्टादश द्विभागमण्डलशतानि-अर्द्धमण्डलशतानि पश्चत्रिंशानि-पश्चत्रिंश-। ॥२५५॥ दधिकानि चरति, तथाहि-नक्षत्रमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तस्य मण्डलस्य सत्कान् पश्चत्रिंशदधि-II काष्टादशशतसश्यान भागान् एकेन मुहून गच्छति, युगे च मुहूर्ताः सर्वसङ्ख्यया चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि, % अनुक्रम [११८] ~517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्राक [८६] ततस्तैश्चतुःपञ्चाशता सहस्रनवभिः शतैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गुण्यन्ते, जाता दहा कोटयः सप्त लक्षा एकचत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्च शतानि १००७४ १५००, अर्द्धमण्डलानि चेह ज्ञातुमिष्टानि तत एकस्य शतसहस्रस्याष्टानवतेश्च शतानामढ़ें यानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि तैर्भागो हियते, लब्धानि अष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि । | अर्द्धमण्डलानामिति । सम्मति सकलनाभृतगतमुपसंहारमाह-इचेसा मुहुत्तगई'इत्यादि, इति-एवमुक्तेन प्रकारेण एषाअनन्तरोदिता मुहर्तगतिः-प्रतिमुहर्त चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां गतिपरिमाण तथा ऋक्षादिमासान्-नक्षत्रमासं चन्द्रमासं सूर्यमास-1 मभिवतिमास तथा रानिन्दिवं तथा युगं चाधिकृत्य मण्डलपविभक्तिः-मण्डलपविभागो वैयिकत्येन मण्डलसमामरूपणा ४ इत्यर्थः तथा शीघ्रगतिरूपं वस्तु आख्यातमित्येतद् ब्रवीमि अहं, इदं च भगवदचनमतः सम्यक्त्वेन पूर्वोक्तं श्रद्धेयं ।। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां पञ्चदशम-प्राभतं समाप्त तदेवमुक्तं पञ्चदर्श प्राभृतं, सम्प्रति षोडशमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो यथा 'कथं ज्योत्स्नालक्षणमाख्यात'मिति तत एवंरूपमेव प्रश्नसूत्रमाहIMI ता कहं ते दोसिणालक्खणे आहितेति वदेला ? ता चंदलेसादी य दोसिणादी य दोसिणाई य चंदले सादी य के अट्टे किंलक्खणे !, ता एकटे एगलक्खणे, ता सूरलेस्सादी य आयवेइ घ आतवेतिय सूरले सादी य के अट्टे किलक्खणे !, ता एगढे एगलक्खणे, ता अंधकारेति य छापाइ य छायाति य अंधकारेति। |य के अटे किंलक्खणे, ता एगढे एगलक्खणे ॥ (सूत्र०८७) सोलसमं पाहुढं समत्तं ॥ दीप Cockr RSSC अनुक्रम [११८] अत्र पञ्चदशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ षोडशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१६], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः प्रत (मल) सूत्राक [८७] ॥२५६॥ दीप 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-त्वया ज्योत्स्नालक्षणमाख्यात इति वदेत् !, १६प्राभूत एवं सामान्यतः पृष्ट्वा विवक्षितप्रष्ट व्यार्थप्रकटनाय विशेषमश्नं करोति, ता चंदलेसाई'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , चन्द्र-प्यार (ग्रंथ ८००० ) लेश्या इति ज्योत्स्ना इति अनयोः पदयोरथवा ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेश्या इत्यनयोः पदयोः, इहाक्षरा-1 णामानुपूर्वीभेदेनार्थभेदो दृष्टः, यथा वेदो देव इति, पदानामपि चानुपूर्वीभेददर्शनादर्थभेददर्शनं यथा-पुत्रस्य गुरुः |गुरोः पुत्र इति, तत इहापि कदाचिदानुपूर्वीभेदादर्थभेदो भविष्यतीत्याशङ्कायशाचन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्युक्त्या ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेच्या इत्युक्तं, अनयोः पदयोरानुपूा अनानुपूा या व्यवस्थितयोः कोऽर्थः, किं परस्परं भिन्न उता-IN |भिन्न इति , स च किंलक्षणः-किस्वरूपो लक्ष्यते-तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन तल्लक्षणं-असाधारण स्वरूपं किं लक्षणं-12 असाधारणं स्वरूपं यस्य स तथा, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एगट्टे एगलक्खणे' इति, ता इति पूर्ववत्, चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्यनयोः पदयोरानुपूा अनानुपूर्ध्या वा व्यवस्थितयोरेक एव-अभिन्न एवार्थः, य एव एकस्य | पदस्य वाच्योऽर्थः स एव द्वितीयस्यापि पदस्येति भावः, एगलक्खणे' इति एक-अभिन्नमसाधारणस्वरूपं लक्षणं | | यस्य स तथा, किमुक्कं भवति ?-यदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेन पदेन वाच्यस्यासाधारणं स्वरूप प्रतीयते तदेव ज्योत्स्ना| * ॥२५॥ इत्यनेनापि पदेन, यदेव च ज्योत्स्ना इत्यनेन पदेन तदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेनापि पदेनेति, एवं आतप इति सूर्यलेश्या इति यदिवा सूर्यलेश्या इति आतप इति, तथा अन्धकार इति छाया इति अथवा छाया इति अन्धकार इति, ते पदेषु विषये प्रश्ननिवेचनसूत्राणि भावनीयानि ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां षोडशमं-प्राभूतं समाप्तं । पता अनुक्रम [११९] -950-6065804 ~519~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] दीप अनुक्रम [१२०] तदेवमुक्तं पोडर्श प्राभृतं सम्प्रति सप्तदशमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारः-'ययनोपपातौ वक्तव्यापिति सतरत-18 द्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहते चरणोववाता आहितेति बदेजा, तस्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पपणासाओ, तत्व एगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव चंदिमसूरिया अपणे चयंति अण्णे उववजंति एगे एवमासु १, एगे। पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उवववति २ एवं जव हेडा तहेच जाय |ता एगे पुण एषमाहंसु ता अणुओसप्पिणी उस्सपिपणीमेव चंदिमसूरिया अण्णे चपंति अण्णे उवयानं ति एगे | डीएवमाहंस, वयं पुण एवं बदामो-ता चंदिमसूरियाणं देवा महिहीआ महाजुतीया महाबला महाजसा |महासोक्खा महाणुभावा चरवत्थधरा वरमल्लधरा वरगन्धधरा बराभरणधरा अघोछित्तिणयट्ठताए काले| 13 अण्णे चयंति अण्णे उपवजंति ॥ सूत्र ८८) सत्तरसमं पारडं समत्तं ॥ | 'ता कहं तें'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया चन्द्रादीनां च्यवनोपपाती व्याख्याता-1४॥ साविति वदेत् , सूत्रे च द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् , उक्तं च-"बहुधयणेण दुवयण"मिति प्रश्ने कृते भगवानेत द्विपये यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति तावतीरुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-च्यवनोपपातविषये खस्विमा-वक्ष्यमाणस्वरूपाः |पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तया-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्धेगे' इत्यादि, तत्र-तेषां पचविंशतेः परती-1 लार्थिकानां मध्ये एके-परतीथिका एवमाहुः, ता इति तेषां प्रथम स्वशिध्यं प्रत्यनेकवकन्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, अनुसम्य FarPranaamwam umom | अत्र षोडशं प्राभूतं परिसमाप्तं अथ सप्तदशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यपज्ञ- तिवृत्तिः प्रत (मल.) २५ सूत्रांक AMSC-25 [८८] दीप मेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्च्यवन्ते-च्यवमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते-उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् , अत्रोपसं- १७प्राभूते हारः-एके एवमाहुः, एके पुनरेयमाहुः अनुमुहूर्तमेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्यवन्ते-व्ययमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते च्यवनोपउत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् , उपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु एवं जहा हिट्ठा तहेव जावे'त्यादि, एवं उक्तेन प्र- पाती सू८८ कारण यथा अपस्तात् षष्ठे प्राभृते ओजःसंस्थिती चिन्त्यमानायां पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तय उक्तास्तथैवात्रापि वक्तव्या. यायद 'अणुओसप्पिणिउत्सप्पिणिमेवे स्यादि चरमसूत्र, ताश्चैवं भणितज्या:-'एगे पुण एवमाहंसु ता अणुराईदियमेव चंदि| मसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उववर्जति आहियाति वएज्जा, एगे एवमाईसु ३, एगे पुण एचमाहंसु ता एव अणुपक्खमेव चंदिमसू-15 रिया अन्ने चयंति अन्ने उबवज्जति आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाइंसु ४ एगे पुण एवमासु ता अणुमासमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उवयजति आहियत्ति घएज्जा एगे एवमाहंसु ५ एगे पुण एषमाइंसु ता अणुउउमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयति अन्ने उववजति आहियति वएज्जा एगे एवमाईसु ६ एवं ता अणुअयणमेव ७ ता अणुसंवच्छरमेव ८ ताल अणुजुगमेव ९ ता अणुवाससयमेव १० ता अणुवाससहस्समेव ११ ता अणुवाससयसहस्समेघ १२ ता अणुपुवमेव १३|| |ता अणुपुषसयमेव १४ सा अणुपुषसहस्समेष १५ ता अणुपुइसयसहस्समेव १५ ता अणुपलिओवममेव १७ ता अणुप-15 लिओषमसयमेव १८ ता अणुपलिओवमसहस्समेव १९ ता अणुपलिओवमसयसहस्समेय २० ता अणुसागरोयममेव २१|| मा॥२५७॥ ता अणुसागरोवमसयमेव २२ ता अणुसागरोवमसहस्समेव २३ ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव २४" पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादेव सूत्रकृता दर्शितं, तदेवमुक्ताः परतीधिकातिपत्तयः, एताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपास्तत एताभ्यः अनुक्रम [१२०] 34SC Saintaintunintamature ~521~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] दीप पृथग्भूतं स्वमतं भगवानुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञाना एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव द्राकारमाह-ता चंदित्यादि, ता इति पूर्ववत् चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे देवा 'महर्टिका' महती ऋद्धिर्विINमानपरिवारादिका येषां ते तथा, तथा महती द्युतिः-शरीराभरणाश्रिता येषां ते महाद्युतयः, तथा महत् बलं-शारीरः। माणो येषां ते महाबलाः, तथा महत्-विस्तीर्ण सर्वस्मिन्नपि जगति विस्तृतत्वात् यशः-लाघा येषां ते महायशसः, तथा महान अनुभावो-क्रियकरणादिविषयोऽचिन्त्यः शक्तिविशेषो येषां ते महानुभावाः, तथा महत्-भवनपतिव्यन्तरेभ्योऽतिप्रभूतं तदपेक्षया तेषां प्रशान्तत्वात् सौख्यं येषां ते महासौख्याः, वरयखधरा माल्यधरा वरगन्धधरा वराभरणधरा अव्यवच्छिन्ननयार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन काले-वक्ष्यमाणप्रमाणस्वस्वायुयंवच्छेदे अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्यवन्तेच्यवमानाः अन्ये तथाजगत्स्वाभाव्यात्षण्मासादारतो नियमतः उत्पद्यन्तेतत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् स्वझिाष्येभ्यः।।। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां सप्तदशम-प्राभूतं समाप्तं तदेवमुक्त सप्तदर्श प्राभूत, साम्प्रतमष्टादशमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारः यथा-'चन्द्रसूयादाना भूमरूवपामुञ्चत्वप्रमाणं वक्तव्य मिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति बदेला, तत्व खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता पगं जोपणसहस्सं सूरे उहुं उच्चत्तेणं दिवहुं चंदे एगे एवमासु १ एगे पुण एवमाहंसु ता दो जोयणसह|स्साई सूरे उर्दु उचत्तेणं अहातिजाई चंदे एगे एवमाहंसु २ एगे पुण एवमासु ता तिन्नि जोपणसहस्साई अनुक्रम [१२०] RASAN अत्र सप्तदशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ अष्टादशं प्राभृतं आरभ्यते ~522~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] सू८e गाथा सूर्यप्रज्ञ- सूरे उडे उच्चत्तेणं अडुट्ठाई चंदे एगे एवमाहंसु ३ एगे पुण एवमाहंसु ता धत्तारि जोयणसहस्साई सूरे उ९१८ प्राभूत तिवृत्तः उच्चत्तेणं अपंचमाई चंदे एगे एवमाहंसु४एगे पुण एवमाहंसु ता पंच जोपणसहस्साई सूरे उर्दु उच्चत्तेणं अजू- चन्द्रस्या(मल०) बछडाई चंदे एगे एवमासु ५ एगे पुण एवमाहंसु ता छ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अहसत्तमाई चंदे ॥२५८|| एगे एषमाहंसु ६ एगे पुण एवमाहंसु ता सत्त जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्रोणं अट्टमाई चंदे एगे एव-| Fमाहंसु ७ एगे पुण एचमाहंसु ता अट्ठ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धनबमाई चंदे एगे एवमाहंसु ८ एगे पुण एवमाहंसु ता नव जोयणसहस्साई सूरे उई उच्चसेणं अखदसमाई चंदे एगे एवमाहंसु ९ एगे। पुण एवमाहंसु ता दस जोयणसहस्साई सूरे उई उच्चत्तेणं अद्धएकारस चंदे एगे एवमाहंसु १० एगे पुण एवमा-1 हंसु एकारस जोयणसहस्साई सूरे उतुं उच्चत्तेणं अख़बारस चंदे ११ एतेणं अभिलावेणं णेत चारस सूरे अद्धतेरस चंदे १२ तेरस सूरे अद्धचोद्दस चंदे १३ चोद्दस सूरे अद्धपण्णरस चंदे १४ पण्णरस सूरे अद्धसोलस चंदे १५ सोलस सूरे अद्धसत्तरस चंदे १६ सत्तरस सूरे अद्धअट्ठारस चंदे १७ अट्ठारस सूरे अदएकूणवीस दाचंदे १८ एकोणवीसं सरे अदबीसं चंदे १९ वीसं सूरे अद्धएकवीसं चंदे २० एकवीसं सूरे अदयावीसं चंदे || |२१ बावीसं सूरे अद्धतेवीसं चंदे २२ तेवीसं सूरे अडचउचीसं चंदे २३ चउवीसं सूरे अद्धपणवीसं चंदे २४ एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमासु पणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उहं उच्चत्तेणं अडच्चीसं चंदे एगे एवमाहंसु २५ । वयं पुण एवं वदामोता इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्त दीप अनुक्रम [१२१ -१२६] ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा दीप अनुक्रम [१२१ -१२६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [८९-९३] + गाथा आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Education Internationa उ जोगणसए उहु उप्पतित्ता हेहिले ताराविमाणे चारं चरति अट्ठजोयणसते उहूं उत्पतित्ता सुरविमाणे चारं चरति अट्ठअसीए जोयणसए उ उपइसा चंदविमाणे चारं चरति णव जोयणसताई उहं उप्पतिता उचरिं ताराविमाणे चारं चरति हेहिलातो ताराविमाणातो दसजोयणाई उहुं उप्पतित्ता सूरविमाणा चारं चरंति नउति जोयणाई उ उप्पतित्ता चंदविमाणा चारं चरंति दमोत्तरं जोयणसतं उहुं उप्पतित्ता उबरिले तारारूवे चारं चरति, सूरविमाणातो असीर्ति जोयणाई उहूं उप्पतित्ता चंदद्विमाणे चारं चरति जोयणसतं उहूं उच्पतित्ता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति, ता चंदविमाणातो णं वीसं जोषणाई उहूं उप्पतित्ता उबरिल्लते ताराख्वे चारं चरति, एवामेव सपुवावरेणं दसुत्तरजोयणसतं बाहले तिरियमसंखेने जोतिसबिसए जोतिसं चारं परति आहितेति षदेखा । (सूत्रं ८९ ) ता अस्थि णं चंदिमसूरियाणं देवाणं हिद्वंपि तारारूवा अणुपितुल्लावि समपि ताराख्वा अपितुल्लावि उम्पिपि ताराख्वा अणुषि तुला वि?, ता अस्थि, ता कहं ते चंदिमसूरियाणं देवाणं हिट्ठपि तारास्वा अणुषि तुल्लावि समपि ताराख्वा अणुपि तुलाबि उपिपि तारारूवा अणुपि तुह्यावि १, ता जहा जहा णं तेसि णं देवाणं तवणिद्यमयभचेराई उस्सिलाई भवति तहा तहा णं तेसिं देषाणं एवं भवति, तं०-अणुते वातुल्लसे वा, ता एवं खलु चंदिमसूरियाणं देवाण हिद्वंपि तारारूवा अणुपि तुलावि तहेब जाब उपिपि ताराख्वा अणुपि तुलावि (सूत्रं ९० ) ता एगमेगस्स णं चंद्स्स देवस्स केवतिया गहा परिवारो पं० केवतिया णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो केवतिया तारा परिवारो पण्णत्तो?, For Penal Use On ~ 524~ wor Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ""चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत तिवृत्तिः * सूत्रांक प (मल०) ॥२५९॥ [८९-९३] *50- गाथा %- ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स अट्ठासीतिगहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णखत्ता परिवारो पण्णतो, १८ प्राभृते 'छावहिसहस्साई णव चेव सताई पंचुत्तराई (पंचसयराई)। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥ चन्द्रादेरुपरिवारो पं० (सूत्र९१) ता मंदरस्स णं पवतस्स केवतियं अयाधाए (जोइसे)चारं चरति ?, ता एकारस एकवीसेचव तारक जोयणसते अबाधाए जोइसे चारं चरति, ता लोअंतातोणं केवतिय अबाधाए जोतिसे पं०१.ताएकारस एकारे मायागुताद परिवारः जोयणसते असाधाए जोइसे पं० (सूत्र९२) ता जंबुद्दीवे णं दीवे कतरे णक्खत्ते सबम्भंतरिलं चार चरति कतरे|| काअबाधा अणक्खत्ते सबबाहिरिल्लं चारं चरति कयरे णक्खत्ते सब्बुवरिलं चारं चरति कयरे णक्खत्ते सबहिटिलं चार चाचर, अभीयी णक्खत्ते सबम्भितरिलं चारं चरति, मूले णक्खत्ते सवबाहिरिल्लं चारं चरति, साती ण-IA राः सू &खते सम्बुपरिलं चार चरति, भरणी णक्खत्ते सबहेडिल्लं चारं चरति (सूत्रं ९३) |८९-९३ | 'सा कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया भूमेरुदै चन्द्रादीनामुन्थत्वमाख्या तमिति वदेत् , एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-उच्चत्वविषये &खल्यिमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, ता एवं 'तत्थेगे' इत्यादिना ४ दर्शयति, तत्र-तेषां पञ्चविंशतेः परतीर्धिकानां मध्ये एके परतीथिका एवमाहुर, ता इति पूर्ववत् एकं योजनसहनं सूर्योIC॥२५९॥ | भूमेरुर्ध्वमुश्वरपेन व्यवस्थितो बर्द्ध-सार्द्ध योजनसहस्र भूमेरू चन्द्रः, किमुक्तं भवति ?-भूमेरूष योजनसहने गते | |अत्रान्तरे सूर्यो व्यवस्थितः, सार्दै च योजनसहस्र गते चन्द्रः, सूत्रे च योजनसङ्ख्यापदस्य सूर्यादिपदस्य च तुल्याधिकर 5 दीप अनुक्रम [१२१ -5 -१२६] REatinintaman ~ 525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा ताणत्वनिर्देशोऽभेदोपचारात् , यथा पाटलिपुत्रात् राजगृह नव योजनानी त्यादौ, एवमुत्तरेष्वपि सूत्रेषु भावनीय, अत्रोपसंहा|रमाह-'एगे एवमासु' १, एके पुनरेवमाहुः ता इति पूर्ववत् , द्वे योजनसहने भूमेरूर्व सूर्यो व्यवस्थितः अर्द्धतृतीयानि यो|जनसहस्राणि चन्द्रः अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु'२,एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, एएण'मित्यादि, एतेन-अन्त-| रोदितेनाभिलापेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्रजातं नेतन्यं, तचैवम्-'तिपणी'त्यादि, एगे पुण एवमासु तिण्णि जोअण-| सहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अडुडाई चंदे एगे एवमासु ३, 'ता चत्तारी'त्यादि एगे पुण एवमासु ता चत्तारि जोय-IM माणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अपंचमाई चंदे एगे एवमाहेसु ४, 'ता पंचे'त्यादि, एगे पुण एवमासु ता पंच जो-| यणसहस्साई सूरे उर्दु उच्चत्तेणं अद्धछटाई दे एगे एवमासु ५ 'एवं छ सूरे अद्धसत्तमाई चंदे' एगे पुण एव-131 मासु ता छ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धसत्तमाई चंदे एगे एवमाहंसु ६ 'सत्त सूरे अट्ठमाई चंदे' इति एगे मापुण एवमासु ता सत्त जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अद्भहमाई चंदे एगे एवमाहंसु ७ 'अट्ठसूरे अद्धनवमाइं चंदे'। इति एगे पुण एवमासु ता अट्ट जोयणाई सूरे उहुँ उच्चत्तेणं अद्धनयमाई चंदे एगे एवमाहंसु ८ 'नव सूरे अद्धदसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाहंसु ता नव जोयणसहस्साई सूरे उडे उच्चत्तेणं अद्धदसमाई चंदे एगे एवमासु ९ 'दस सूरे अद्धएकारसाई चंदे' इति, एगे पुण एवमासु ता दस जोयणसहस्साई सूरे उहुँ उपत्तेणे अद्धएकारसाई चंदे एगे एवमासु १० 'एकारस सूरे अयारस चंदे' इति, एगे पुण एवमाईसु ता इका-15|| रस जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अद्धबारस चंदे एगे एवमाहंसु ११ 'पारस सूरे अद्भुतेरसमाई। दीप अनुक्रम [१२१ -१२६] ~526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] अबाधा अ गाथा सूर्यप्रज्ञ- चंदे' इति एगे पुण एबमाईसु ता पारस जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अद्धतेरसमाई चंदे एो पुण एबमाईस मिवृत्तिः१२, 'तेरस सूरे अद्धचउपसमाई चंदें इति, एगे पुण एवमासु ता तेरस जोयणसहस्साई सूरे उहं उच्चत्तेणं अद्ध-81 R१८माभूते (मल चोहसमाई चंदे पगे एवमासु १३, 'चोइस सूरे अपंचदसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाइंस वा चोदस जोय- Iचत्वं तारक REO णसहस्साई सूरे उहुँ उपत्तेणं अपंचदसमाई चंदे एगे एवमाहंसु १४, पनरस सूरे अद्धसोलसमाई चंदे' इति एगे पाणुतादि पुण एवमाहंसु ता पण्णरस जोयणसहस्साई सूरे उहं उच्चत्तेणं असोलसमाई चंदे एगे एवमाहंसु १५, 'सोलस सूरे परिवारः असत्सरसाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता सोलस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्भसत्तरसमाई चंदे एगे |एबमासु १६, 'सत्तरस पूरे अदद्वारसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता सत्तरस जोयणसहस्साई सूरे उही भ्यन्तरचा रासू उच्चनेणं अद्धद्वारसमाई चंदे एगे एयमाहंसु १७, 'अट्ठारस सूरे अद्धएगूणवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाहंसा ता अट्ठारस जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चतेणं अद्धएगूणवीसमाई चंदे एगे एबमासु १८ 'एगूणवीस सूरे अद्भवी-1 समाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता एगूणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उडे उच्चत्तेणं अद्भवीसमाई चंदे एगे एबमाइंसु 11१९, 'बीस सूरे अद्धएकवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाहंसु ता वीस जोयणसहस्साई सूरे उहं उपत्रेण अद्धपकपीसमाहं चंदे एगे एबमाईसु २०, एकवीसं सूरे अदयावीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाईस वा इकवीसं जोप ॥२६॥ |णसहस्साई सूरे उह उच्चत्तेणं अद्भबावीसमाई चंदे एगे एबमाईसु २१, 'यावीसं सूरे अहतेवीसाईचं' इति एगे| पुण एवमासु ता चाची जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अद्भतेवीसमाई हे एगे एवमासु २२ 'तेवीसं सूरे दीप अनुक्रम KeechCCA [१२१ -१२६] ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा अपचीसमाई चंद्र' इति एगे पुण एवमाईसु ता तेवीसं जोयणसहस्माई सूरे उहं उच्च तेषी अबचावीचमाई पद पापा एवमासु २३ 'चञ्चीम सूरे अपंचवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु चरबीस जोयणसहस्सा सो बाहुं उच्चचेण अद्धपंचवीसमाई चंदे एगे एवमासु २४, पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादर्शयति-'एगे पुण एव-| माहंसु-ता पणचीसमित्यादि, एतानि च सूत्राणि सुगमत्वात् स्वयं भावनीयानि, तदेवमुक्ताः परमतिपतयः सम्पति स्वमत भगवानुपदर्शयति-'वयं पुणा एवं वदामो' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलवेदसः एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदा- मखमेव प्रकारमाह-ता इमीसे' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , अस्या रसप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभा-1 गादूर्य सन योजनशतानि नवतानि-नवत्यधिकानि उत्प्लुत्य गत्वा अत्रान्तरे अधस्तनं ताराविमान चारं पाति-मण्डलगल्या परिचमणं प्रतिपद्यते, तथा अस्या एव रक्षप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्वमष्टौ प्रोजनशतान्युप्लुत्यात्रान्तरे सूर्यविमानं चार चरति, तथा अस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्व परिपूर्णानि IN नव योजनशतान्युत्प्लुत्यानान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं चारं चरति । अधस्तनाचाराविमानादूर्व दश योजनान्युप्लुत्यात्रान्तरे सूर्यविमानं चार चरति, तत एवाधस्तनातू ताराविमानान्नवति योजनान्यूर्ध्वमुत्प्लुत्यानान्तरे चन्द्रविमानं | चार चरति, तत एव सर्वाधस्तनात् ताराविमानाद्दशोत्तरं योजनशतमूर्ध्वमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं वाराविमानं चारं| चरति, 'ता सूरविमाणाओं इत्यादि, ता इति पूर्ववत् सूर्यविमानादूर्वमशीति योजनान्युत्प्लुल्यावान्तरे चन्द्रविमानं चारं परति, तस्मादेव सूर्यविमानादूर्य योजनशतमुत्प्लुयात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चकं चार चरति, 'ता दीप अनुक्रम [१२१ -१२६] For P OW ~528~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) ॥२६॥ [८९-९३] गाथा चंदविमाणाओं' इत्यादि ता इति पूर्ववत् चन्द्रविमानादूर्व विंशति योजनानि उत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं १८ प्राभृते ज्योतिश्चक्रं चार चरति, एचमेवे'त्यादि एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण सपुत्वावरेण ति सह पूर्वेण वर्तन्ते इति सपूर्व सपूर्व च चन्द्रादेरु. तत् अपरं च सपूर्वापरं तेन पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः, दशोत्तरयोजनशतवाहल्येन, तथाहि-सर्वाधस्तनात्तारारूपात् ज्यो- चरखं तारक तिश्चक्रादूर्ध्वं दशभियोजनैः सूर्यविमानं ततोऽप्यशीत्या योजनैश्चन्द्रविमानं ततो विंशत्या सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योति-साताद परिवारः |श्चक्रमिति भवति ज्योतिश्चक्रचारविषयस्य दशोत्तरं योजनशतं बाहल्यं, तस्मिन् दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये, पुनः कथं-15 अबाधा अभूते इत्याह-तिर्यगसङ्ख्येये-असङ्घययोजनकोटीकोटीप्रमाणे ज्योतिर्विषये मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्योतिश्चक्र चार चरति भ्यन्तरचा|चार चरत् मनुष्यक्षेत्राहिः पुनरवस्थितमाख्यातं इति वदेत् ॥ 'ता अस्थि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अस्त्ये रासू तत् भगवन्! यदुत चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिदिपित्ति क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा ८९-९३ तिविभवलेश्यादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि-लघवोऽपि भवन्ति, हीना अपि भवन्तीत्यर्थः, केचित्तुल्या अपि भवन्ति, तथा सममपि-चन्द्रविमानैः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षया समनेण्यापि व्यवस्थितास्तारारूपाः-ताराविमानाधिष्ठातारो देवा-1 |स्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि, तथा चन्द्रविमानानां 31 सूर्यविमानानां चोपर्यपि ये व्यवस्थितास्तारारूपाः-तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिवि-|| भवादिकमपेक्ष्य केचिदणयोऽपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि !, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता अत्यि'त्ति यदे-II तत्त्वया पृष्टं तत्सर्वं तथैवास्ति, एवमुक्ते पुनः प्रश्नयति-'ता कहं ते' इत्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता जह जहे त्यादि, दीप अनुक्रम [१२१ -१२६] ॥२६॥ ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा 20- 09-2 ता इति पूर्ववत् यथा यथा णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां देवानां तारारूपविमानाधिष्ठावणां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि उच्छ्रितानि-उत्कटानि भवन्ति तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन्-तारारूपविमानाधिष्ठातृभवे एवं भवति यथा अणुत्वं या तुल्यत्वं वा, किमुक्त भवति :-यैः प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृदेवभवमनुप्राप्ताश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य हीना भवन्ति, यैस्तु भवान्तरे तपोनियमब्रह्मचर्याणि अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृरूपदेवत्वमनुप्राप्ता द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य चन्द्रसूर्यैर्देवैः सह स-11 माना भवन्ति, न चैतदनुपपन्न, दृश्यन्ते हि मनुष्यलोकेऽपि केचिजन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्राम्भारा राजत्वम-2 |प्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्ययुतिविभवा इति, 'ता एवं खलु' इत्यादि निगमनवाक्यं सुगमं । 'ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ग्रहादिपरिवारविषयाणि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि, 'ता मदरस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , मन्दरस्य पर्वतस्य जम्बूद्वीपगतस्य सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः कियत्क्षेत्रमवाधया सर्वतः कृत्वा चारं परति !, भगवानाह-'ता एकारसे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् एकादश योजनशतानि एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि अबाधया कृत्वा चार चरति, किमुक्तं भवति ?-मेरोः सर्वत एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि मुक्त्वा तदनन्तरं चक्रवालतया ज्योतिश्चक्रं चार चरति, 'ता लोयंताओणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् लोकान्तादाकणमिति वाक्यालङ्कारे कियत् क्षेत्रमवाधया कृत्वा अपान्तरालं कृत्वा ज्योतिष प्रज्ञप्तम् !, भगवानाह–'एकारसे त्यादि, एकादश योजनशतान्येकादशानि-एका दीप अनुक्रम -ORP) [१२१ -१२६] RELIGunintentmatha ~ 530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) [८९-९३] ཎྞཾཏྟསྒྲོཝཱ ཟླ + -१२६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८९-९३] + गाथा आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सूर्यप्रज्ञ| दशाधिकानि अबाधया कृत्वा - अपान्तरालं विधाय ज्योतिषं प्रज्ञधं, 'ता जंबुद्दीवे णंदीवे कपरे नक्खत्ते' इत्यादि सुगमं तिवृत्तिः ४ नवरमभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलिकामपेक्ष्य एवं मूलादीनि सर्वना ह्यादीनि वेदितव्यानि । ( मल०) ॥२६२॥ ता चंद विमाणेणं किंसंठिते पं० १, ता अडकविहगसंठाणसंठिते सबफालियामए अध्भुग्गय मूसित पहसिते विविधमणि रयणभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे एवं सुरविमाणे गहविमाणे णक्खसविमाणे ताराविमाणे । ता चंदविमाणे णं केवतियं आयाम विक्खंभेणं केवतियं परिवखेवेणं केवतियं बाहल्लेणं मं०१, ता छप्पण्णं एगट्टिभागे जोयणस्स आयाममिक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरयेणं अट्ठावीसं एगद्विभागे जोषणस्स बाइलेणं पण्णत्ते, ता सूरविमाणे णं केवतियं आयामविस्तंभेणं पुच्छा, ता अडपालीसं एगद्विभागे जोयणस्स आयाम विक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं चडवीसं एगट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पं०, ता णक्खत्तविमाणे णं केव तियं पुच्छा, ता कोर्स आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं अद्धकोर्स बाहल्लेणं पं०, ता ताराविमाणे णं केवलियं पुच्छा, ता अद्धको आयामविक्वं भेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं पंचधणुसयाई बाहलेणं पं० ॥ ता चंदविमाणं णं कति देवसाहस्सीओ परिवर्हतिः, सोलस देवसाहस्सीओ परिवर्हति सं०-पुरच्छिमेणं सीहरूवधारणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवति, दाहिणे णं गयरूवधारणं बसारि देवसाहसीओ परिवति, पञ्चत्थिमेणं समरूपधारीणं चत्तारि देवसाहसीओ परिवहंति, उत्तरेणं तुरगख्वधारणं चत्तारि देवसाहसीओ परिवहंति एवं सूरविमापि, ता गहविमाणे णं कति साहसीओ परिच For Pale Onl ~531~ २८ प्राभृते चन्द्रादे:संस्थानमायामादिवाहि | नश्च सू९४ अल्पेतरगतिष्ठद्धी सू ९५ ॥२६२॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], ------------ प्राभृतप्राभृत-1, -------------------- मूलं [९४-९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा लिहति ?, ता अट्ठ देवसाहस्सीओ परिवहति, तं०-पुरच्छिमेण सिंहरूषधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परि वहंति, एवं जाव उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं, ता नक्खत्तविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति?, ता चत्तारि मादेवसाहस्सीओ परिवहति, तं०-पुरच्छिमेणं सीहरूवधारीणं देवाणं एका देवसाहस्सी परिवहति एवं जाब उत्तरेणं तुरगरूबधारीणं देवाणं, ता ताराविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति ?,ता दो देवसाहस्सीओ परिवहति तं०-पुरच्छिमेणं सीहरूबधारीणं देवाणं पंच देवसता परिवहंति, एवं जावुत्तरेणं तुरगरूवधारीणं (सूत्रं ९४ ) एतेसि णं चंदिमसरियगहणक्वत्तताराख्वाणं कयरेरहितो सिग्धगती वा मंदगती वा ?, ता चंदेहितो सूरा सिग्घगती सूरेहितो गहा सिग्धगती गहहितोणक्खत्ता सिग्घगतीणक्खत्तेहितोतारा सिग्धगती, सबप्पगती चंदा सबसिग्धगती तारा । ता एएसिणं चंदिममूरियगहगणणक्णत्ततारारूवाणं कपरेशहितो।। अप्पिहिया वा महिहिया वा?, ताराहिंतो महिहिया णक्खत्ता णक्खत्तेहितो गहा महिडिया गहेहितो सूरा महिहिया सूरेहिंतो चंदा महिहिया सबप्पविया तारा सबमहिहिया चंदा (सूत्रं ९५) 'ता चंदविमाणे णमित्यादि संस्थानविषयं प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-'ता अद्धकविद्वगे'त्यादि, उत्तानीकृत-1 मर्द्धमात्रं कपित्थं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं, आह-यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्द्धमाकपित्थफलसंस्थानसंस्थितं तत उदयकाले अस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिश्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धकपित्थफलोकारं नोपलभ्यन्ते, काम शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, अर्द्धकपित्थस्य उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागाद दीप अनुक्रम *35*554 [१२१ -१२६] ~532~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], ---------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [९४-९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५] ॥२६॥ दीप अनुक्रम [१२७-१२८] सूर्यप्रज्ञ- र्शनतो वर्नुलतया दृश्यमानत्वात् , उच्यते, इहार्द्धकपित्थफलाकार चन्द्र विमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं किन्तु तस्य १८प्रामृते तिवृत्तिः चन्द्रविमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथंचनापि व्यव-चन्द्रादेःसं(मल स्थितो यथा पीठेन सह भूयान व लाकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते, ततो न स्थानमाया कश्चिदोषः, न चैतत्स्वमनीपिकाया विजृम्भितं, यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेपपुरस्सर मादिवाहिउक्तम्-"अद्धकविहागारा उदयधमणमि कह न दीसंति । ससिसूराण विमाणा तिरियक्खेत्तहियाणं च ॥१॥ आ०11 नश्चसू ९४ IN अल्पेतरग| उत्ताणकविठ्ठागार पीढं तदुवरिं च पासाओ । वहालेखेण तओ समवट्ट दूरभाषाओ ॥२॥" तथा सर्व-निरवशेष |स्फटिकमयं-स्फटिकविशेषमणिमयं तथा अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिनुIRTH सू ९५ ४ाप्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सितं-शुक्लं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं तथा विविधा-अनेकप्रकारा मणय:-चन्द्रकान्तादयो| रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रं-अनेकरूपबत् आश्चर्यवदा विविधमणिरत्नचित्रं यावत्शब्दात् 'वाउडुयविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयण पंजरुम्मीलियब । मणिकणगथूभियागे वियसियसयवत्तपुंडरीयतिलयरयणगुचंदचित्ते अंतो बहिं च सण्हे तवणिजबालुगापत्थडे सुहफासे |AI सस्सिरीयरूपे पासाईए दरिसणिजे" इति, तत्र वातोअता-चायुकम्पिता विजयः--अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधाना ॥२६॥ या पताका अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताका:ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्रातिरछत्राणि च-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलितं वातो तविजयवैजयन्तीपता ~533~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [९४-९५] दीप अनुक्रम [१२७ -१२८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१८], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [९४-९५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education in | काछत्रातिच्छत्रकलितं तुझं उच्चमत एव 'गगणतलमणुलिहंत सिहरे' त्ति गगनतलं - अम्बरतलमनु लिखत्-अभिलक्ष्यत् शिखरं यस्य तत् गगनतलानुलिखत् शिखरं, तथा जालानि - जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु | विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तत् जालान्तररनं, सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा पञ्जरात् उन्मीलितमित्र- बहिष्कृतमिव पङ्गरोन्मीलितं यथा हि किल किमपि वस्तु पञ्जरात्-वंशादिमयप्रच्छ । दनविशेषादू बहिष्कृतमत्यतमविनष्टच्छायत्वात् शोभते एवं तदपि विमानमिति भावः तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिकाशिखरं यस्य तत् मणिकनकस्तूपिकाकं, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्च भित्त्यादिषु पुण्याणि रत्नमयाश्चार्द्धचन्द्रा द्वाराप्रादिषु तैश्चित्रं विकसितशत पत्रपुण्डरीकतिलकार्द्धचन्द्र चित्रं, तथा अन्तविक्ष्णं मसृणमित्यर्थः तथा तपनीयं सुवर्णविशेषस्तन्मय्याः बालुकायाः सिकतायाः प्रस्तरः- प्रतरो यत्र तत्तथा, तथा सुखस्पर्शे शुभस्पर्श वा तथा सश्रीकाणि-सशोभानि रूपाणि - नरयुग्मादीनि यत्र तत् सश्रीकरूपं तथा प्रसादीयंमनःप्रसादहेतुः अत एव दर्शनीयं द्रष्टुं योग्यं तद्दर्शनेन तृप्तेरसम्भवात् तथा प्रतिविशिष्टं - असाधारणं रूपं यस्य तत्तथा, 'एवं सूरविमाणेवी' त्यादि, यथा चन्द्रविमानस्वरूपमुक्तमेवं सूर्यविमानं ताराविमानं च वक्तव्यं, प्रायः सर्वेपामपि ज्योतिर्विमानानामेकरूपत्वात्, तथा चोक्तं समवायाने- "केवइयाणं भंते । जोइसियावासा पण्णत्ता १, गोयमा ! | इमी से रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सतनवाई जोयणसयाई उहूं उप्पइत्ता दसुत्तरजोयणसयवाहले तिरियमसंखेज्जे जोइसविसए जोड़सियाणं देवाणं असंखेजा जोइसियविमाणायासा पन्नत्ता, ते णं जोइसिय For Parts Only ~ 534~ wor Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-1, ---------- ---- मूलं [९४-९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५]] दीप अनुक्रम [१२७-१२८] बिमाणावासा अब्भुम्गयसमूसियपहसिया विविहमणिरयणभित्तिचित्ता तं चेव जाव पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा प-1४|१८प्राभृते प्तिवृत्तिः डिरूबा' इति, 'ता चंदविमाणे ण'मित्यादीनि आयामविष्कम्भादिविषयाणि सर्वाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि. चन्द्रादेःसं नवरं सर्वत्रापि परिधिपरिमाणं 'विखंभवग्गदगुणकरणी वट्टरस परिरओ होइ" [विष्कम्भवर्गदशगुणकरणिवृत्तस्य स्थानमाया परिरयो भवति ] इति करणवशात् स्वयमेव नेतन्यं, तथा यत्ताराविमानस्यायामविष्कम्भपरिमाणमुक्तमर्द्धगम्यूतमुच्चय- मदिवाल ॥२६४।। नश्च सू९४ परिमाणं क्रोशचतुर्भागः तदुरस्कृष्टस्थितिकस्य तारादेवस्य सम्बन्धिनो विमानस्यावसेयं, यत्पुनर्जघन्य स्थितिकस्य तारा- अल्पेतरगबादेवस्य सम्बन्धि विमानं तस्याऽऽयामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चधनु शतानि उच्चत्वपरिमाणमझेतृतीयानि धनुशतानि, तथातिऋद्धी चोक्तं तत्त्वार्थभाष्ये-'अष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः चन्द्रमसः षट्पञ्चाशद् ग्रहाणामयो-13 सू ९६ जनं गव्यूतं नक्षत्राणां सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्बक्रोशो जघन्यायाः पश धनुःशतानि, विष्कम्भार्द्धबाहल्याश्च भवन्ति | सर्वे सूर्यादयोऽत्र लोक" इति, 'ता चंदविमाणं कह देवसाहस्सीओ परिवहति' इत्यादीन्यपि वाहनविषयाणि प्रश्ननिर्यचनसूत्राणि सुगमानि, नवरमियमत्र भावना-इह चन्द्रादीनां विमानानि तथाजगरस्वाभाव्यानिरालम्बानि वहन्त्यय-12 तिधन्ते, केवल ये आभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानां निजस्फातिविशेपदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमानाः प्रसादभृतः सततवहनशीलेषु विमानेषु अधः स्थित्वा २ केचित् सिंह- २६४॥ रूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचित् वपभरूपाणि केचित्तुरगरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनुपपन्न, तथाहि-यह कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां वा पूर्व-11 FFICE ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-1, ---------- ---- मूलं [९४-९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५] -- परिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य सम्मत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थं सर्वमपि खोचितं कर्म नायक-15 समक्ष प्रमुदितः करोति, तथाऽऽभियोगिका अपि देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीन-12 जातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समुद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इत्येवं निजस्फा-11 जातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्तीति, तेषां च चन्द्रादिविमानयहनशीला-131 नामाभियोगिकदेवानामिमे सपासवाहिके जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे-“सोलस देवसहस्सा बहंति चंदेसु चेव सूरेस। A अद्वेव सहस्साई एकेकमी गहबिमाणे ॥१॥ चत्तारि सहस्साई नक्खत्तमि य हवंति एकेके । दो चेव सहस्साई तारा-1 स्वेकमेकमि ॥ २॥" "ता एएसि ण'मित्यादि, शीघ्रगतिविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगर्म, एतच पश्चादप्युक्त परं भूयो विमानवहनप्रस्तावादुक्तमित्यदोषः, अन्यद्वा कारण बहुश्रुतेभ्योऽत्रगन्तव्यं । है ता जंबुरीवे गंदीवे तारारुवस्स य २ एस णं केवतिए अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, दुविहे अंतरे पं०, ०-याघातिमे य णिवाघातिमे य, तत्थ णं जे से वाघातिमे से णं जहण्णेणं दोण्णि थापट्टे जोयणसले उक्कोसेणं यारस जोयणसहस्साई दोषिण बाताले जोयणसते तारारूवस्स २ य अयाधाए अंतरे पण्णत्ते, तत्य जे से निवाघातिमे से जहण्णेणं पंच धणुसताई उकोसेणं अद्धजोपणं तारास्वस्स य २ अवाधाए अंतरे में पं० (सूत्र ९६)ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो कति अग्गमहिसीओ पपणत्ताओ , ता चत्तारित [४ अग्गामहिमीभो पण्णसाओ, तं०-चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमालीपभंकरा, तत्थ गंएगमेगाए देवीए पत्तारि || दीप अनुक्रम [१२७-१२८] -- - ~ 536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१२९ -१३२] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [९६-९९ ] आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सूर्यप्रज्ञ - सिवृत्तिः ( मल०) ||२६५|| देवी साहसी परियारो पण्णत्तो, पणं तातो एगमेगा देवी अण्णाई चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवारं विवित्तए, एवामेव सपुचावरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए, ता पभू णं चंदे जोतिंसिंदे जोतिसराया. चंदवसिए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं दिवाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरितए ?, णो इणट्टे ७ समझे, ता कहं ते णो पभू जोतिर्सिदे जोतिसराया चंदवसिए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं दिवाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरितए ?, ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो चंदवडिसए विमाणे सभाए सुधम्माए माणवएस चेतियखंभेसु बइरामएस गोलबहसमुग्गएसु वहवे जिणसकथा संणिक्खित्ता चिट्ठति, ताओ णं चंदस्स जोतिसिंदस्स जोइसरण्णो अण्णसिं च बहूणं जोतिसियाणं देवाण य देवीण य अञ्चणिजाओ बंदणिज्जाओ पूपणिखाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासणिज्जाओ एवं खलु णो पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंद्रवसिए विमाणे सभाए सुम्माए तुडिएणं सद्धिं दिवाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए । पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए बिमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासांसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं | तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवतीहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहि य बहूहिं जोतिसिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे महताहतणगीयवायततीतलताल तुडियघणमुई| गपदुप्पवाइतरवेणं दिवाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरितए केवलं परियारणिहीए णो चेव णं मेहुणवत्तियाए।। For Parts Only ~ 537 ~ ९८ प्राभूते तारान्तरं चन्द्रादिदेवी सू ९६-९७ ॥२६५॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१२९ -१३२] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१८], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [९६-९९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः Education Internatio ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पं० १, ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पं०, |तं०-सूरप्पभा आतवा अचिमाला पभंकरा, सेसं जहा चंदस्स, णवरं सूरवडेंसए बिमाणे जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियताए (सूत्रं ९७ ) जोतिसियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता, जपणेणं अडभागव लितोयमं उक्कोसेणं पलितोवमं वाससतसहस्समम्भहियं, ता जोतिसिणीणं देवीणं केवतियं कालं ठिती पं० १, ता जहक्षेणं अट्ठभागपलितोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओचमं पन्नासाए वाससहस्सेहिं अन्भहियं, चंदविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? जनेणं चउम्भागपलितोवमं उकोसेणं पलितोवमं वाससयसहस्समम्भद्दियं, ता चंदविमाणे णं देवीणं केवतियं कालं ठिती पं० १, जहण्णेणं चउभागपलितोवमं उक्को सेणं अडपलितोयमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहियं, सुरविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?, जहणणेणं चउन्भागपलितोवमं उक्कोसेणं पलिभवमं वाससहरसमन्भहियं, ता सूरविमाणे णं | देवाणं केवतिथं कालं ठिती पं० १, जहणणेणं चउन्भागपलितोवमं उकोसेणं अद्धपलितोवमं पंचहिं वासस एहिं अम्भहियं, ता गहविमाणे णं देवाणं केवलियं कालं ठिती पं० १, जहणणेणं चउभागपलितोवमं उक्कोसेणं पलितोयमं, ता गहविमाणे णं देवीणं केवतियं कालं ठिती पं० १, जहणेणं चउभागपलितोयमं उकोसेणं अडपलितोयमं, ता णक्खत्तविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं दिती पं० १, जहणणेणं च उन्भाग पलितोवमं उकोसेणं अद्धपलिओवमं, ता णक्खत्तविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिती पं० ?, जहणणेणं अट्ठभागपति For Penal Use Only ~538~ wor Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], --------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२९ तोवमं पकोसेणं चउम्भागपलितोवर्म, ता ताराधिमाणे णं देवाणं पुच्छा, जहपणेणं अट्ठभागपलितोयम भने मिवत्तिः।उकोसणं चउभागपलियोवम, ता ताराविमाणे णं देवीणं पुच्छा, ता जहणणं अट्ठभागपलितोवम उकोसेणंशयोकि (मल) साइरेगअहभागपलिओवर्म (सूत्रं ९८) ता एएसि णं चंदिममूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं कतरे २ हितो स्थितिः अ अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, ता चंदा य सूरा य एसे णं दोवि तुल्ला सबथोवा णक्खत्ताल्पबहुत्वं ||२६६|| |संखिजगुणा गहा संखिनगुणा तारा संखिजगुणा ॥ (सूत्रं ९९) अट्ठारसं पाहुडं समत्तं ।। ९८-९९ 'ता जंबुरीवेणं भंते ! दीवे' इत्यादि ताराविमानान्सरविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-ता दुविहे'इत्यादि, लाद्विविधमन्तरं प्रज्ञप्त, तद्यथा-व्याघातिम निर्व्यापातिमंच, तन्न व्याहननं व्याघात:-पर्वतादिस्खलनं तेन निवृत्त व्याघातिम 'भाषादिम' इति इमप्रत्ययः, निळपातिम-व्यापातिमानिर्गतं स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यत् व्यापातिमं| तत् जपन्यतो वे योजनशते पषध्यधिके, एतच्च निषधकूटादिकमपेक्ष्य वेदितव्य, तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतोऽकायुश्चत्वारि योजनशतानि तस्य चोपरि पञ्च योजनशतोच्चानि कूटानि, तानि च मूठे पश्चयोजनशतान्यायामविष्क भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पश्चसप्तत्यधिकानि उपरि अर्द्धतृतीये हे योजनशते, तेषां चोपरितनभागसमवेणि-18 I प्रदेश तथाजगत्स्वाभाच्यादष्टावष्टौ योजनान्युभयतोऽवाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जपन्यतो व्यापा तिममन्तरं द्वे योजनशते षषष्ट्यधिके भवतः, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहनाणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, ॥२६॥ एतन मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, तथाहि-मेरी दश योजनसहस्राणि मेरोश्चोभयतोऽवाधया एकादश योजनशतान्येकर्षिशल्य-18/ -१३२]] ~539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], ---------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२९-१३२] |धिकानि, ततः सर्वसङ्ख्यामीलने भवन्ति द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके । निर्व्याघाति-13 मान्तरबिषयं सूत्र सुगमं । 'ता चंदस्स ण'मित्यादि अग्रमहिषीविषयं सूत्र सुगम, नवरमेकैकस्या देव्याश्चत्वारि देवीसहमाणि परिवार इति किमुकं भवति ?-एकैका अग्रमहिषी चतुर्णी चतुणौ चन्द्रसत्कदेवीसहस्राणां पट्टराज्ञी, एकैका च सा | इत्थंभूता अग्रमहिषी परिचारणावसरे तथाविधां ज्योतिष्फराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आत्मसमानरूपाणि ४ | चत्वारि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुवितुं, इह सिद्धान्तप्रसिद्धो विकुर्व इति धातुरस्ति, यस्य विकुणा इति प्रयोगः, ततो विकुर्षितुमित्युक्त, एवमेवेति एवमेव-उकप्रकारेणैव 'सपुवावरेणीति सह पूर्वेणेति सपूर्व सपूर्व च अपरं च सपूर्वापरं तेन सपूर्वापरेण-पूर्वापरमीलनेन स्वाभाविकानि पोडश देवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, तथाहि-चतम्रोऽयमहिष्यः एकैका चात्मना सह चतुश्चतर्देवीसहस्रपरिवारा ततः सर्वसङ्कलनेन भवंति पोडश देवीसहस्राणि 'सेतं तडिए' इति तदेतावत् चन्द्रदेवस्थ तुटिक-अन्तःपुरं, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णी-"तुटिकमन्तःपुरमिति" 'पभू णं चंदे'इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'नो इणढे समढे'नायमर्थः समर्थः-उपपन्नो, न युक्कोऽयम इति भावः, यथा चन्द्रावत-| सके विमाने या सुधर्मा सभा तस्यामन्तःपुरेण सार्द्ध दिल्यान् भोगभोगान् भुजानो बिहरतीति, 'ता कहं ते नो पभू। इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता चंदस्स णमित्यादि, चन्द्रावतंसके विमाने सुधर्मायां सभायां माणवको नाम | ४/चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तस्मिंश्च माणवके स्तम्भे ये वज्रमयेषु सिक्केषु वज्रमया गोलाकारा वृत्ताः समुहकास्तेषु बहूनि जिन-1 सक्धीनि निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'ताओण'मित्यादि, तानि जिनसक्थीनि, इह सूत्रे स्त्रीत्यनिर्देशः प्राकृतत्वात् , चन्द्रस्य SARERatininemarana ~540~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], --------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------------- मूलं [९६-९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२९-१३२] सूर्यमज्ञ- ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्यान्येषां च बहूनां ज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि-2१८ प्राभृते सिवृत्तिः स्तोतव्यानि विशिष्टैः स्तोत्रैः पूजनीयानि वस्त्रादिभिः सत्कारणीयानि आदरपतिपत्या सम्माननीयानि जिनोचितप्रति ग्यातिका (मल०) पच्या कल्याण-कल्याणहेतुर्मनल-दुरितोपशमहेतुर्दैवतं-परमदेवता चैत्यं-इष्टदेवताप्रतिमा इत्येवं पर्युपासनीयानि त पुसाद तत एवं-अनेन कारणेन खलु-निश्चितं न प्रभुरित्यादि सुगम, 'ता पभू णं चंदे' इत्यादि, केवलं परिचारणा -परिचा 12 लारणसमृद्ध्या, एते सर्वेऽपि मम परिचारका अहं खेतेषां स्वामीत्येवं निजस्फातिविशेषदर्शनाभिप्रायेणेति भावः, प्रभुश्चन्द्रो ४ ज्योतिषेन्द्रो पयोतिषराजश्चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्राभिधानसिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्रैश्चतसभिरममहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिसृभिरभ्यन्तरमध्यमवाह्यरूपाभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोड-II शभिरात्मरक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिज्योतिष्कदवेदेवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृतो महता रवेणेति योगः, 'आय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः अथवा अहतानि-अव्याहतानि नाट्यगीतवादित्राणि तथा तन्त्रीवीणा तलतालाहस्ततालाः त्रुटितानि-शेषतूर्याणि तधा घनो-घनाकारो वनिसाधात् यो मृदङ्गो-मर्दलः पटुना-दक्षपुरुषेण प्रवा-1 |दितस्तत एतेषां पदानां द्वन्द्वस्तेषां यो रवस्तेन दिव्यान-दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्थः भोगार्हा ये भोगा:-शब्दा-I लादयस्तान् भुजानो विहर्नु प्रभुरिति योगः, न पुनमैथुनप्रत्यय-मैथुननिमित्तं स्पादिभोगं भजानो विहरी प्रभारिति. ॥२६७॥ ता सूरस्स 'मित्यादीन्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि, 'ता जोइसियाणं देवाण'मित्यादि, सर्व सुगमं यावत् प्राभूतपरिसमाप्तिः, नवरं चन्द्रविमाने चन्द्रदेव उत्पद्यते तत्सामानिकात्मरक्षकादयश्च, तत्रात्मरक्षकादीनां यथोक्का जप-1 FaPranaamvam ucom ~541~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१२९ -१३२] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [९६-९९ ] आगमसूत्र - [१७] उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित न्या स्थितिरुत्कृष्टा तु चन्द्रदेवस्य तत्सामानिकादीनां च एवं सूर्यविमानादिष्वपि भावनीयम् ॥ ६....... इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां अष्टादशमं प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तमष्टादशं प्राभृतं सम्प्रति एकोनविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति चन्द्रसूर्याः सर्वलोके आख्याता' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कति णं चंदिमसूरिया सबलोयं ओभासंति उज्जोएंति तवेंति पभासेति आहितेति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमाओ दुबालस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता एगे चंदे एगे सूरे सबलोयं ओभासति उज्जोएति तवेति पभासति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता तिष्णि चंदा तिणि सुरा सबलोयं ओभाति ४ एगे एवंमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु ता आउहिं चंदा आउहिं सूरा सबलोयं ओभासेति उज्जोवैति तवेंति पगासिंति एगे एवमाहंसु ३ एगे पुण एवमाहंसु एतेणं अभिलावेणं तवं सत्त चंदा सत्त सूरा दस चंदा सूरा बारस चंदा २ बाातालीस चंदा २ बावन्तरिं चंदा २ वातालीसं चंदसतं २ बावन्तरं चंदसयं बावन्तरि सूरसयं पापालीसं चंदसहस्सं बातालीसं सूरसहस्सं यावत्तरं चन्दसहस्सं बाबत्तरं सुरसहस्सं सबलोयं ओभासंति उज्जोवंति तवेंति पगासंति, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता अयणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जंबुद्दीवे २ केवलिया चंदा पभासिंसु वा पभासिंति अत्र अष्टादशं प्राभूतं परिसमाप्तं For Parts Only अथ एकोनविंशति प्राभृतं आरभ्यते ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: सर्यप्रथा पभासिस्संति चा?, केवतिया सूरा तविंसु वा तवेंति वातबिस्संति वा?, केवतिया णवत्ता जो जोइंस १९प्राभूते विवृत्तिःलवा जोएंति वा जोइस्संति वा? केवतिया गहा चारं चरिसुवा चरंति वा चरिस्संति वा? केवतिया तारागणको- चन्द्रसूयो(मला) डिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वारी, ता जंबुद्दीवे २ दो चंदा पभासेंसु वा ४ दो सूरियादिपरिमाणं तिवसु वा ३, पप्पपर्ण पक्वत्ता जोयं जोएंसु वा ३ यावत्तरि गहसतं चार चरिंसु वा ३ एर्ग सपसहस्सा १०० तेसीसं च सहस्सा णव सपा पपणासा तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा ३ । “दो चंदा दो|| सूरा पक्वत्ता खलु हवंति छप्पण्णा । वाचत्तरं महसतं जंबुद्दीवे विचारीणं ॥ १॥ एगं च सयसहस्सं| तित्तीसं खलु भवे सहस्साई । णव य सता पण्णासा तारागण कोडिकोडीणं ॥२॥" ता जंबुद्दीव णं दी । लवणे नामं समुद्दे बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सवतो समता संपरिक्खिताणं चिद्वति, ता लवणे समाज IIकिं समचकवालसंठिते विसमचकवालसंठिते ?, ता लवणसमुदे समचकवालसंठिते नो विसमचकवालसंठित, ता लवणसमुरे केवइयं चकवालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा , ता दो जोषणसतस-121 हस्साई चकचालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसतसहस्साई एक्कासीयं च सहस्साई सतं च ऊतालं किंचिविसे-2 सूर्ण परिक्खयेणं आहितेति वदेजा, ता लवणसमुरे केवतियं चंदा पभासु वा ३१, एवं पुच्छा जाय केव |२६८॥ तियाउ तारागणकोष्ठिकोडीओ सोभिंसु वा ३१, ता लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासेंसु वा ३ चत्तारि मरिया तवइंसु वा ३ पारस पक्वत्तसतं जोयं जोएंसु वा ३ तिषिण थावण्णा महग्गहसता चारं चरिंसु। दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~543~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० ACAKC गाथा: वा ३ दो सतसहस्सा सत्तद्धिं च सहस्सा णव प सता तारागणकोडीणं सोभिंसु वा ३ । पण्णरस सतसहस्सा एक्कासीतं सतं च ऊतालं । किंचिविसेसेणूणो लवणोदधिणो परिक्खेवो ॥१॥ चत्तारि चेव चंदा चत्तारिप सूरिया लवणतोये । बारस णक्खत्तसयं गहाण तिपणेव पावणा ॥१॥ दोघेव सतसहस्सा ससहि लखलु भवे सहस्साई । पाव व सता लवणजले तारागणकोडिकोडीणं ॥ २॥ ता लवणसमुई धातईसंडे णाम दीवे बट्टे वलयाकारसंठिते तहेव जाव णो विसमचउकबालसंठिते, धाईसंडे णं दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा,ता चत्तारि जोषणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं | ईतालीस जोपणसतसहस्साई दस य सहस्साई णव य एकटे जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं आहि-1 तेति वदेजा, धातईसंडे दीवे केवतिया चंदा पभासु वा ३ पुच्छा तहेव धातईसंडे णं दीवे वारस चंदा पभासेंसु वा ३ पारस सूरिया तवेंसु वा ३ तिषिण उत्तीसाणक्खत्तसताजोअंजोएंसु वा ३ एगं छप्पणं महग्गह-IA सहस्सं चार चरिसुवा३-'अद्वेव सतसहस्सा तिण्णि सहस्साई सत्तय सयाई । (एगससीपरिवारो) तारागणको[डिकोडीओ॥१॥सोभ सोभसुधा३-धातईसंहपरिरओईताल दसुत्तरा सतसहस्सा। णव घ सता एगट्ठा किंचि[विसेसेण परिहीणा ॥१॥ चउचीसं ससिरविणो णक्खत्तसता य तिणि छत्सीसा । एगं च गहसहस्सं छप्पणं पधातईसंडे ॥२॥ अद्वैव सतसहस्सा तिपिण सहस्साई सत्त यसलाई । धायइसंडे दीये तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३॥ ता धायईसंडं दीवं कालोपणे णाम समुद्दे बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते जाव णो विसभचकवाल दीप अनुक्रम [१३३-१९६] *OGA% ~ 544~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० सू१०० गाथा: सूर्थमज्ञ- संठाणसंठिते, ता कालोयणे णं समुद्दे केवतियं चक्कवालविखंभेणं केवतियं परिक्खेवणं आहितेति ११९माभूते निवृत्तिःबदेज्जा ?, ता कालोयणे णं समुद्दे अजोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पन्नत्ते एकाणउति जोयणसयसह-| (मळ०) स्साई सत्तरं च सहस्साई छच्च पंचुत्तरे जोषणसते किंचिबिसेसाधिए परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, तादपरिमाण enकालोयणे णं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा, ता कालोयणे समुद्दे बातालीसं चंदा पभासेंसु वा ३ थायालीसं सूरिया तवेंसु वा ३ एकारस बावत्तरा णक्खत्तसता जोयं जोइंसु वा ३, तिन्नि सहस्सा छच छन्नज्या महगहसया चारं चरिंसु वा ३ अट्ठावीसं च सहस्साई पारस सयसहस्साई नच य सपाई पपणासा तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोहंति वा सोभिस्संति वा "एकाणउई सतराई। सहस्साई परिरतो तस्स । अहियाई उच पंचुत्तराई कालोदधिवरस्स ॥१॥ वातालीसं चंदा बातालीसं| &च दिणकरा दित्ता । कालोदधिमि एते चरंति संबद्धलेसागा ॥२॥णक्खत्तसहस्सं एगमेव वत्तरं चा |सतमण्णं । उच्च सया छपणउया महग्गहा तिपिण य सहस्सा ॥३॥ अट्ठावीस कालोदहिमि बारस य सह-| |स्साई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४॥" ता कालोयं णं समुई पुक्खरवरे णामं दीचे बढे वलयाकारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टति, ता पुक्खरचरे णं दीवे किं समचक-| म ॥२६९॥ वालसंठिए विसमचकवालसंठिए !, ता समचक्कवालसंठिए नो सिमचकवालसंठिए, ता पुक्खरवरे नणं दीवे केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं ?, केवइअं परिखेवेणं !, ता सोलस जोयणसयसहस्साई दीप अनुक्रम [१३३-१९६] REacanninml ~545~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१००] + गाथा: दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०० ] + गाथा: आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित चकवालविकखंभेणं एगा जोयणकोडी बाणउतिं च सतसहस्साई अउणावनं च सहस्साई अ चडणडते जोअणसते परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा, ता पुक्खरबरे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा तधेव ता चोलालचंदसदं पभासु वा ३ चोत्तालं सूरियाणं सतं तवसु वा ३ चत्तारि सहस्साई बत्तीसं च नक्खत्ता जोअं जोएंसु वाश्यारस सहस्साई उच्च पावतरा महग्गहसता चारं चरिंसु वा ३ छपणउतिसयसहस्साई चोयालीसं सहस्साई चत्तारि व सपाई तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभैंसु वा ३ 'कोडी बाणउती खलु अडणाणउति भवे सहस्साई । अहसता चडणउता य परिरओ पोक्खरवरस्स || १ || चोत्तालं चंदसतं चत्तालं चैव सूरियाण सतं । पोक्खरवर दीवम्मिच चरंति एते पभासंता || २ || चारि सहस्साई छत्तीसं चेव हुंति णक्खत्ता । छच्च सता बावसर महग्गहा बारह सहस्सा || ३ || छष्णउति सयसहस्सा चोत्तालीसं खलु भवे सहस्साई । चत्तारि य सता खलु तारागणकोडिकोटीणं ॥ ४ ॥ ता पुक्खरवरस्स णं दीवस्त यहुमज्झदेसभाए माणुसुत्तरे णामं पवए वलयाकारसंठाणसंठिते जे णं पुक्खरवरं दीवं दुधा विभयमाणे २ चिङ्गति, तंजहा - अभितरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धं च ता अभितरपुक्खरदे णं किं समचकवालसंठिए विसमचकवालसंठिए ?, ता समचकवालसंढिए णो विसमचकवालसंटिते, ता. अभितरपुक्खरदे णं केवतियं चक्रवालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति पदेखा ?, ता अट्ठ जोयणसतसहस्साई चकवालविकखंभेणं एका जोयणकोडी बाधालीसं च सपसहस्साई तीसं च सहस्साई दो अडणापणे जोयणसते For Parts Only ~ 546~ wor Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: परिक्खवेणं आहितेति वदेजा, ता अम्भितरपुक्खरद्धे णं केवतिया चंदा पभासेंसु बा ३ केवतिया सूरा १९ प्राभूते विवृत्तिः सर्विसु वा ३ पुच्छा, बावत्तरि चंदा पभासिंसु वा ३ बावसरि सूरिया तवइंसु वा ३ दोणि सोला णक्खत्त- चन्द्रसूर्या(मल.) सहस्सा जोभं जोएंसु वा३७ महग्गहसहस्सा तिन्नि य बत्तीसा चारं चरेसु वा३अडतालीससतसहस्सावायीसं मादपारमाण चि सहस्सा दोपिण य सता तारागण कोडिकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३। ता समयक्खेत्ते णं केवतियं आयाम-13 ॥२७॥ विकखंभेण केवइयं परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा,ता पणतालीसंजोयणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं एका जोयणकोडी यायालीसं च सतसहस्साई। दोणि य अउणापपणे जोयणसते परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, ता |समयक्वेसे णं केवतिया चंदा पभासेंसुवापुच्छा लधेच, ता बत्तीसं चंदसतं पभासु वाश्यत्तीसं सूरियाण &सतं तवइंसु वा ३ तिषिण सहस्सा उच छपणउता णक्खत्तसता जोयं जोएंसु वा ३ एकारस सहस्सा छच सोलस महग्गहसता चारं चरिंसु वा ३ अट्ठासीति सतसहस्साई चत्तालीसं च सहस्सा सत्त व सया। तारागणकोडीकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३ । अद्वेव सतसहस्सा अम्भितरपुक्खरस्स विक्खंभो। पणतालसय-18 सहस्सा माणुसखे तस्स विक्खंभो ॥१॥ कोडी यातालीसं सहस्स दुसया य अउणपण्णासा । माणुसखे-& सपरिरओ एमेव प पुक्खरद्धस्स ॥२॥ यावत्तरिंच चंदा चावत्सरिमेव दिपणकरा दित्ता। पुक्खरवरदीवहे। २७०॥ |चरंति एते पभासेंता ॥ ३॥ तिणि सता छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । णक्खत्ताणं तु भये सोलाई दुवे सहस्साई ॥ ४ ॥ अडयालसपसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई । दो त सय पुक्खरन्डे तारागणकोडि-IN दीप अनुक्रम [१३३-१९६] 4%95 ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: कोडीणं ॥ ५॥ पत्तीसं चंदसतं यत्तीसं चेव सूरियाण सतं । सयलं माणुसलोअंचरंति एते पभासेंता॥६॥13 एकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महन्गहाणं तु । छच्च सता छण्णउया णवत्ता तिणि य सहस्सा W॥७॥ अट्ठासीद थत्ताई सतसहस्साई मणुषलोगमि । सत्त य सता अणूणा तारागण कोडिकोडीणं ॥ ८॥ एसो तारापिंडो सबसमासेण मणुयलोयंमि । बहिता पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेजाओ ॥९॥ एवतियं तारगंज भणियं माणुसंमि लोगमि । चारं कलंबुयापुष्फसंठित जोतिसं चरति ॥ १० ॥ रविससि-1 गहणक्खत्ता एवतिया आहिता मणुयलोए । जेसि णामामोत्तं न पागता पण्णवेहति ।। ११ ।। छावढि पिडगाई चंदादिचाण मणुलोमि । दो चंदा दो सूरा य हुंति एकेकए पिडए ॥ १२ ॥ छाबलुि पिडगाई णक्खत्ताणं तु लामणुयलोयंमि । छप्पणं णक्खता हुंति एकेका पिडए ॥१३॥ छावहि पिडगाई महागहाणं तु मणुघलोमि ।। छावत्तरं गहसतं होइ एककए पिडए ॥१४॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइचाण मणुयलोयम्मि। छावट्टि २ च। होइ एकिकिया पन्ती ॥ १५ ॥ छप्पन्न पंतीओ णवत्ताणं तु मणुपलोयंमि । छाबहिँ २ हवंति एक्वेकिया पती॥१६॥णवत्तरं गहाणं पतिसयं हवति मणुयलोमि । छावहि २ हवइ य एफेकिया पंती ॥१७॥ ते मेरुयणुचरंता पदाहिणावत्तमंडला सत्वे । अणववियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ १८॥णक्खत्ततार-12 गाणं अवविता मंडला मुणेयवा । तेऽविय पदाहिणावत्तमेव मेरु अणुचरंति ॥ १९ ॥ रयणिकरदिणकराणं उद्धं च अहे व संकमो नस्थि । मंडलसंकमणं पुण सम्भंतरवाहिरं तिरिए ॥ २० ॥ रयणिकरदिणकराणं णक्ख दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९]. .. .... .....-- प्राभतप्राभत [-], ------------...-...- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक [१०० (मल०) ॥२७॥ गाथा: ताणं महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविधी मणुस्साणं ॥ २१॥ तेसिं पविसंताणं तावक्खेतं तु १९प्राभूते ताबडते णिययं । तेणेव कमेण पुणो परिहायति निक्खमंताणं ॥ २२ ॥ तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिता हुँति ताव- चन्द्रसूर्या| खेसपहा । अंतो य संकुडा बाहि वित्थडा चंदसूराणं ॥२३॥ दिपरिमाणं 'ता कइ णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति-किंप्रमाणा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रसूर्याः सर्वलोकेऽबभासन्ते-अव- सू १०० भासमाना उद्योतयन्तः तापयन्त:-प्रकाशयन्तः प्रभासयन्त आख्याता इति वदेत् !, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्त्यः तावतीरुपदर्शयति-'तस्थे'त्यादि, तत्र-सर्वलोकविषय चन्द्रसूर्यास्तिस्वविषये खखिमा:-वक्ष्यमाणखरूपा ४ाद्वादश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्ताः, तत्र-तेषां द्वादशाना परतीथिकानां मध्ये एके परतीथिका एव माहुः, ता इति तेषां परतीपिकानां प्रथम स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थी, एकश्चन्द्रः एकः सूर्यः सर्वलोकमवभासयति, अवभासयन् उद्योतयन तापयन् प्रभासयन् आख्यात इति वदेत् , अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे। एक्माईसु' १, एके पुनरेवमाहुः-जयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्तः आख्याता इति वदेत् , उपसंहारवाक्य 'एगे एवमासु' २, एके पुनरेवमाहुरीचतुर्थाश्चन्द्रा अर्द्धचतुर्थाः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्त आख्याता इति वदेत् ॥ अत्राप्युपसंहारः 'एगे एबमाईसु' ३, 'एव'मित्यादि एवं-उक्केन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन तृतीयप्राभूतप्राभृतोक्तप्रकारेण द्वादशप्रतिपत्तिविषय सकलमपि सूत्र नेतव्यं, तञ्चैवम्-'सत्त 'चंदा सत्त सूरा' इति, एगे पुण एषमाइंस |सा सत्त चंदा सत्त सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु ४, एगे पुण एवमाइंसु-ता दस चंदा दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~549~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९], ...................---- प्राभूतप्राभूत [-1, ------------------- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: दस सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति यएजा, एगे एवमासु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता वारस चंदा वारस सूरा सबलोय ओभासंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु ६, एगे पुग एवमाहंसु ता बायालीसं चंदा बायालीस सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति बएज्जा एगे एबमाईसु ७, एगे पुण एवमासु-वावत्तरि चंदा बावत्तरि सूरा सब-| | लोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु ८, एगे पुण एवमाहंसु-बायालीसं चंदसर्थ यायालीसं सूरसयं सबलोयं ओभासेंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु ९, एगे पुण एवमासु ता बावत्तर चंदसयं वायत्तरं सूरसयं सबलोयं भोभासेंति ४ आहियत्ति वएना, एगे एवमासु १०, एगे पुण एवमाईसु ता वाचालीस नंदसहस्सं वायालीसं सूरसहस्स सबलोयं भोभासेन्ति ४ आहियत्ति वएना एगे एवमाहंसु ११, एगे पुण एबमाइंसु ता बावतरं चंदसहस्सं बावत्तरं सूरसहस्सं सबलोयं ओभासेंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु १२, एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः तथा च भगवान् स्वमतमताभ्यः पृथग्भूतमाह-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञाना एवं-यक्ष्यमाणाप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता अयण्णमित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं ब्याख्यानीयं च, 'ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते द्रव्यास्तिकनयमतेन | सकलकालमेवंविधाया एवं जगस्थितेः सद्भावात् , तथा द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ तापयतस्तापयिष्यतः, तथा एकैकस्य शशिनोऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवारो जम्बूद्वीपे च द्वौ शशिनौ ततः षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि जम्बूद्वीपे चन्द्रसूर्याभ्यां सह योग युक्तवन्ति युञ्जन्ति योश्यन्ति वा, तथा एकैकस्य शशिनोऽष्टाशीतिग्रहाः परिवारः ततः शशिद्वयसत्कग्रहमीलने SSC दीप अनुक्रम [१३३-१९६] 5 ~550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० इ गाथा: प्रज्ञ- सर्वसङ्क्षपया पट्सप्तत्यधिक प्रहशतं भवति, तत् जम्बूद्वीपे चारं चरितवत् चरति चरिष्यति च, तथा एकैकस्य शशि-Ple सिवृत्तिःनस्तारापरिवारः कोटीकोटीनां पटूपष्टिः सहस्राणि नब शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि जम्बूद्वीपे प दी शशिनी तत चन्द्रसर्या(मलाल एतत्ताराप्रमाणं द्वाभ्यां गुण्यते, तत एक शतसहस्रं त्रयस्त्रिंशसहस्राणि नव शतानि पञ्चाशदधिकानि तारागण-दिपरिमाण कोटिकोटीनां भवन्ति, एतावत्प्रमाणास्तारा जम्बूद्वीपे शोभितवत्यः शोभन्ते शोभिप्यन्ते । सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय सू १०० ॥२७२॥ यथोक्तजम्बूद्वीपगतचन्द्रादिसल्यासङ्घाहिके द्वे गाणे आह–'दो चंदा इत्यादि, एते च द्वे अपि सुगमे, नवरं 'जंबुद्दीवे [वियारी ण' तब णमिति वाक्यालकारे, ततो वियारीति विभक्तिपरिणामेन चन्द्रादिभिः सह सामानाधिकरण्येन योजसनीयमिति । 'ता जंबुद्दीये णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपं द्वीपं णमितिवाक्यालङ्कारे लवणो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः संपरिक्षिष्य-वेष्टयित्या तिष्ठति, एवं उक्ते भगवान गौतमः प्रश्नयति-'ता लवणे णं समुद्दे'इत्यादि सुगम, भगवानाह-'ता समचकवाले'त्यादि सुगमं, पुनः प्रश्नयति-'ता लवणे ण'मित्यादि सुगम, भगवानाह-'ता दो जोयणे'त्यादि, द्वे योजनशतसहस्रे चक्रबालविष्कम्भेन | पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशदधिक किश्चिद्विशेषोन परिक्षेपेण, तथाहि-लव-RI समुद्र एकतोऽपि दे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भोऽपरतोऽपि द्वे योजनशतसहस्रे मध्ये च जम्बूद्वीपो योजनशतसहस्रमिति सर्वसम्मीलने पञ्च लक्षा भवन्ति ५००००० एतेषां वर्गे जाताः पञ्चविंशतिर्दश च शून्यानि 2 | २५०००००००००० दशभिर्गुणने जातान्येकादश शून्यानि २५००००००००००० एतस्य राशेवर्गमूलानयने लब्धानि । दीप अनुक्रम [१३३-१९६] REatininanational ~5514 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: पञ्चदश लक्षाणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकमष्टात्रिंशदधिकं १५८११३८, शेषमुद्धरति पविंशतिर्लक्षाश्चतुर्विंशतिः सहस्राणि नव शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि छेदराशिरेकत्रिंशल्लक्षा द्वाषष्टिः सहस्राणि द्वे शते षट्सप्तत्यधिक ३१२१२० एतदिपेक्षया योजनमेकं किश्चिदनं लभ्यते, तत उक्त-"सयं च ऊयालं किंचिविसेमणमिति. 'तालवणे ममा इत्यादि सुगम, लबणसमुद्रे चत्वारः शशिन इत्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि चतुर्भिर्गुण्यन्ते, ततो द्वादशोत्तरं नक्षत्राणां शतं 8 तन्त्र भवति, अष्टाशीतिश्च ग्रहाश्चतुर्भिर्गुण्यन्ते ततस्त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि तेषां भवन्ति, ताराकोटीकोटीनां पट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि चतुभिर्गुण्यन्ते ततो यथोकं ताराप्रमाणं भवति, 'ता लवणं णं समुद'मित्यादि सकलमपि सुगर्म, नवरं परिधिगणितपरिभावना एवं कर्तव्या-जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भे योजनलक्ष लयण-1 &स्योभयतो द्वे द्वे योजनलक्षे मिलिते इति ताश्चतम्रो लक्षाः धातकीखण्डस्योभयतश्चतम्रो २ लक्षा मिलिता अष्टौ सर्वसषया जाताखयोदश लक्षाणि १३००००० ततोऽस्य राशेचंगों जात एकका पदो नवकः शून्यानि च दश ४|१६९०००००००००० भूयो दशभिर्गुणने जातान्येकादश शून्यानि १६९००००००००००० एतेषां वर्गमूलानयने || लब्धानि एकचत्वारिंशच्छतसहस्राणि दश सहस्राणि नव शतानि एकषयधिकानि ४११०९६१ नक्षत्रादिपरिमाणमप्य टाविंशत्यादिसयानि नक्षत्रादीनि द्वादशभिर्गुणयित्वा स्वयमानेतव्यं । 'ता धायइखंडण्ण'मित्यादि, एतदपि सकलं ४. सुगर्म, 'ता कालोए णं समुद्दे इत्यादि, एतदपि सुगम, नवरं परिक्षेपगणितभावना इयं-कालोदसमुद्रस्य एकतोऽपि चक्रवालतया विष्कम्भोऽष्टौ योजनलक्षा अपरतोऽपीति पोडश धातकीखण्डस्य एकतोऽपि चतम्रो लक्षा अपरतोऽपी-1 दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~552~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९], ...................---- प्राभूतप्राभूत [-1, ------------------- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल) ॥२७॥ ससू१०० गाथा: त्यष्टौ लवणसमुद्रस्य एकतोऽपि द्वे लक्षे अपरतोऽपीति चतन्नः एका लक्षा जम्बूद्वीपस्येति सर्वसङ्ख्यया एकोनत्रिंशल्लक्षाः १९प्राभूते २९००००० एतेषां वर्गों विधीयते जातोऽष्टकश्चतुष्क एककः शून्यानि दश ८४१०००००००००० ततो दशभिर्गुणने चन्द्रसूर्याजातान्येकादश शून्यानि ८४१००००००००००० तेषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक्त परिधिपरिमाण ९१७०६०५, शेष दिपरिमाणं त्रिको नवकस्त्रिकखिको नवकः सप्तकः पञ्चकः ३९३३९७५ इति वदवतिष्ठते तदपेक्षया विशेषाधिकत्वमुक्त, 'एकाण-12 उई सपराई सपसहस्साईति एकनवतिः शतसहस्राणि सप्ततानि-सप्ततिसहस्राधिकानि, नक्षत्रादिपरिमाणं च अष्टा-18 विंशत्यादिसपानि नक्षवादीनि द्वाचत्वारिंशता गुणयित्वा भावनीय, 'ता कालोयं णं समुदं पुक्खरवरेण मित्यादि। सुगम, गणितभावना त्वियं-पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वतः षोडश लक्षा अपरतोऽपीति द्वात्रिंशत् लक्षाः कालोदधेः पूर्वतोऽष्टौ अपरतोऽप्यष्टाविति पोडश धातकीखण्डत्य एकतोऽपि चतम्रो लक्षा अपरतोऽपि चतन इत्यष्टौ लवणसमुद्रे एकतोऽपि वेलक्षे अपरतोऽपि द्वे इति चतम्रो जम्बूद्वीपो लक्षमिति सर्वसङ्कलनया जाता एकपष्टिलक्षाः ६१००००० एतस्य राशेर्वगों विधीयते जातखिकः सप्तको द्विक एकका दश च शून्यानि ३७२१०००००००००० ता दशभिर्गुणने जासानि शून्यान्ये-12 कादश ३७२१००००००००००० एतेषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक परिधिपरिमाणं, नक्षत्रादिपरिमाणं चाष्टाविंश-४ त्यादिसयानि नक्षत्रादीनि चतुश्चत्वारिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयं परिभावनीयं । 'ता पुक्खरवरस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , पुष्करवरस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, स च वृत्तो, वृत्तं च मध्यपूर्णमपि भवति यथा कौमुदीक्षणे शशांकमण्डलं ततस्तद्रूपताब्यवच्छेदार्थमाह-वलयाकारसंस्थानसंस्थितो यः पुष्करवरद्वीपं द्विधा दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च विभजमानो विभजमान स्तिष्ठति, केनोल्लेखेन द्विधा विभजमानस्तिष्ठति अत आह-तद्यथा-अभ्य. &ान्तरपुष्कराद्धं च बाह्यपुष्करा च, पशब्दः समुच्चये, किमुक्तं भवति ?-मानुपोत्तरात्पर्वतादाक् यत् पुकराई तदभ्य-II तरपुष्कराझै यत्पुनस्तस्मान्मानुषोत्तरात्पर्वतात्परतः पुष्करार्द्ध तद्बाह्यपुष्कराद्धमिति, 'ता अम्भितरपुक्खरद्धे ण-16 मित्यादि सर्वमपि सुगम, नवरं परिधिगणितभावना प्राग्वत्कर्चव्या, नक्षत्रादिपरिमाणं चाष्टाविंशत्यादिसपानि नक्षत्रा-18 दीनि द्वासप्तत्या गुणयित्वा परिभायनीयं ॥ सम्पति मनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतामाह-'ता माणुसखेत्ते णं केवइय'मित्यादि। सुगम, नवरं मानुषक्षेत्रस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पश्चचत्वारिंशलक्षा एवं-एका लक्षा जम्बूद्वीपे ततो लवणसमुद्रे एकतोऽपि दे लक्षे अपरतोऽपि द्वे लक्षे इति चतन्त्रः धातकीखण्डे एकतोऽपि घतम्रो लक्षा अपरतोऽपीत्यष्टौ कालोदसमुद्रे एक-121 तोऽपि अष्टावपरतोऽप्यष्टाविति पोडश अभ्यन्तरपुष्कराद्देऽप्येकतोऽप्यष्टौ लक्षा अपरतोऽपीति पोडशेति सर्वसङ्ख्यया पञ्चचत्वारिंशतक्षाः, परिधिगणितपरिभावना तु 'विक्खम्भवम्गदहगुणे त्यादिकरणवशात् स्वयं कर्तव्या, नक्षत्रादिप४रिमाणं तु अष्टाविंशत्यादिसलपानि नक्षत्रादीन्येकशशिपरिवारभूतानि द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयमानेतन्यं, 'अद्वेच सपसहस्सा' इत्यादि, अत्र गाधापूर्वार्द्धनाभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्य विष्कम्भपरिमाणमुकं, उत्तराद्धेन मानुपक्षेत्रस्य । 'कोटी-1 त्यादि, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंदात्-द्विचत्वारिंशच्छतसहस्राधिका त्रिंशत् सहस्राणि द्वे शते एकोनपश्चाशदधिके | |२४२३०२४९ एतावत्ममाणो मानुषक्षेत्रस्य परिरयः, एष एतावत्प्रमाण एव पुष्करार्द्धस्य-अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध स्थापि परि-15 रया, 'पावसरि च चंदा' इत्यादिगाथात्रयमभ्यन्तरपुष्करागतचन्द्रादिसङ्ग्याप्रतिपादकं सुगम, यदपि च 'पतीस चंद-14 दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९]. .. .... .....-- प्राभतप्राभत [-], ------------...-...- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: १९प्राभूते प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: सूर्यप्रज्ञ-14 सय'मित्यादि गाथात्रयं सकलमनुष्यलोकगतचन्द्रादिसङ्ख्याप्रतिपादक तदपि सुगम, 'अहासीई चत्ता'इति अष्टाशीतिः ।। विवृत्तिः शतसहस्राणि चत्वारिंशानि-चत्वारिंशत्सहस्राधिकानि शेषं गताध, सम्प्रति सकलमनुष्यलोकगततारागणस्यैवोपसंहा- चन्द्रसूर्या(मल०) रमाह-एसो'इत्यादि, एषः-अनन्तरगाथोक्तसङ्ग्याकस्तारापिण्डः सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके आख्यात इति गम्यते, बहिः दिपरिमाणं पुनर्मनुष्यलोकात् यास्तारास्ता जिनैः-सर्वज्ञेस्तीर्धकृर्भिणिता असङ्ख्याताः, द्वीपसमुद्राणामसवातत्वात् , प्रतिद्वीपंसू १०० ॥२७४॥ प्रतिसमुद्रं च यथायोगे सोयानामसङ्ख्येयानां च ताराणां सद्भावात् , 'एचइय'मित्यादि, एतावत्सङ्ग्याक तारापरिमाणं || यदनन्तरं भणित मानुषे लोके तत् ज्योतिष्क-ज्योतिष्कदेवधिमानरूपं 'कदम्बापुष्पसंस्थित'कदम्बपुष्पयत् अधः सङ्कचितं उपरि विस्तीर्णमुत्तानीकृतार्द्धकपित्यसंस्थानसंस्थितमित्यर्थः चारं चरति चार प्रतिपद्यते, तथाजगत्स्वाभाव्यात्, ताराग्रहणं चोपलक्षणं तेन सूर्यादयोऽपि यथोक्कसयाका मनुष्यलोके तथाजगत्स्वाभाब्याचार प्रतिपद्यन्ते इति द्रष्टव्यं ।। सम्पत्येतद्गतमेवोपसंहारमाह-रवी'त्यादि, रविशशिग्रहनक्षत्राणि उपलक्षणमेतत् तारकाणि च एतावन्ति-एतावत्सयानि आख्यातानि सर्वज्ञर्मनुष्यलोके, येषां किमित्याह-येषां सूर्यादीनां यथोक्तसङ्ख्याकानां सकलमनुष्यलोकभाविना प्रत्येकं 'नामगोत्राणि'इहान्वर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थः-नामगोत्राणि-अन्वर्थयुक्तानि नामानि यदिवा नामानि च गोत्राणि च नामगोत्राणि प्राकृता-अनतिशयिनः पुरुषा न कदाचनापि प्रज्ञापविष्यन्ति, केपलं यदा तदा या सर्वज्ञा एव, तत इदमपि सूर्यादिसञ्जयानं प्राकृतपुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिष्टमिति सम्यक ॥२७॥ श्रद्धेयमिति । 'छावट्ठी पिडगाई'इत्यादि, इह द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूयौं चैकं पिटकमुच्यते, इत्यम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० **+CONCC-CRACK गाथा: पिटकानि सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके भवन्ति षट्षष्टिः-षट्पष्टिसङ्ख्याकानि । अथ किंप्रमाणे पिटकमिति पिटकप्रमाणमाह-एकैकस्मिन्नपि पिटके द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो भवतः, किमुक्कं भवति ?-द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यायित्येतावत्प्रमाणमेकैकं । चन्द्रादित्यानां पिटकमिति, एवंप्रमाणं च पिटकै जम्बूद्वीये, एकं जम्बूद्वीपे द्वयोरेव चन्द्रमसोईयोरेव च सूर्ययोर्भावात् । ला पिटके लवणसमुढे तत्र चतुर्णा चन्द्रमसा चतुर्णा च सूर्याणां भावात् , एवं पद पिटकानि धातकीखण्डे एकविंशतिः। कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराढ़ें इति भवन्ति सर्वमीलने चन्द्रादित्यानां षट्पष्टिः पिटकानि । 'छावट्ठी'त्यादि, सर्वस्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसङपया नक्षत्राणां पिटकानि भवन्ति षट्षष्टिः, नक्षत्रपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिनक्षत्र-| सङ्ख्यापरिमाण, तथा चाह-एकैकस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति षट्पश्चादात्सवानि, किमुक्तं भवति ?-पट्पश्चाशनक्षत्र-13 सङ्ख्याकमेकैक नक्षत्रपिटक, अत्रापि पट्षष्टिसमाभावना एवं-एक नक्षत्रपिटकं जम्बूद्वीपे दे लवणसमुद्रे षट् धातकी खण्डे एकविंशतिः कालोदे षत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराचें इति । 'छावट्ठी'त्यादि, महाग्रहाणामपि सर्वस्मिन् मनुष्यलोके सर्वट्रासपया पिटकानि भवन्ति पट्पष्टिः, महपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिग्रहसङ्घषापरिमाण, तथा चाह-एकैकस्मिन् | ग्रहपिटके भवति पटूसप्तत्यधिकं ग्रहशतं, सप्तत्यधिकमहशतपरिमाणमेकैकं ग्रहपिटकमिति भावः, पदूषष्टिसयाभावना |च प्राग्वत्कर्त्तव्या। चत्तारिय' इत्यादि, इह मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां पतयश्चतस्रो भवन्ति, तद्यथा-वे पती चन्द्राणां द्वे सूर्याणां, एकका च पतिर्भवति पटवष्टिः-पक्षष्टिसूर्यादिसङ्ख्या, तद्भावना चैवं-एकः किल सूर्यो जम्बूद्वीपे मेरौ दक्षिभागे चारं चरन् वर्तते एक उत्तरभागे एकश्चन्द्रमा मेरोः पूर्वभागे एकोऽपरभागे, तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चारं | दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~556~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९]. .. .... .....-- प्राभतप्राभत [-], ------------...-...- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० सूर्यमज्ञ- तिवृत्तिः (मल ॥२७५॥ -8 गाथा: -* चरन् वर्चते तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ दक्षिणभागे सूयौं लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशत् १९प्राभूते अभ्यन्तरपुष्कराइँ इत्यस्यां सूर्यपती पक्षष्टिः सूर्याः, योऽपि च मेरोरुत्तरभागे व्यवस्थितः सूर्यश्चारं चरन् वर्तते अस्यापि चन्द्रसूया: समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वावुत्तरभागे सूर्यों लवणसमुद्रे धातकीखण्डे षट् एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्धे दिपरिमाण इत्यस्यामपि पङ्गौ सर्वसङ्ख्यया पट्पष्टिः सूर्याः, तथा यो मेरोः किल पूर्वभागे चारं चरन् वचते चन्द्रमा तत्समश्रेणिय- सूर वस्थितौ द्वौ पूर्वभाग एवं चन्द्रमसौ लवणसमुद्दे पट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्धे इत्यस्यां | चन्द्रपती सर्वसङ्ख्यया पट्षष्टिश्चन्द्रमसः, एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रमास्तन्मूलायामपि पकौ पट्षष्टिश्चन्द्रमसो वेदितव्याः।। 'छावट्ठी' इत्यादि, नक्षत्राणां मनुष्यलोके सर्वसङ्ख्यया पतयो भवन्ति षट्पञ्चाशत् , एकैका च पतिर्भवति पट्पष्टिः-11 षट्षष्टिनक्षत्रप्रमाणा इत्यर्थः, तथाहि-अस्मिन् किल जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिनः परिवारभूतानि अभिजिदादीन्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चार चरन्ति उत्तरतोऽर्द्रभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूतानि अष्टाविंशतिसङ्ख्याकान्यभिजिदादीन्येव नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि, तब दक्षिणतोऽर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रं तस्स-17 मश्रेणिव्यवस्थिते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराइँ इति | सर्वसङ्मया पक्षष्टिरभिजिनक्षत्राणि पङ्क्त्या व्यवस्थितानि, एवं श्रवणादीन्यपि दक्षिणतोऽर्द्धभागे पङ्क्त्या व्यवस्थितानि 141 पट्पटिसङ्ख्याकानि भावनीयानि, उत्तरतोऽप्यर्द्धभागे यदभिजिनक्षत्र तत्समश्रेणिव्यवस्थिते उत्तरभागे एव वे अभिजि-श नक्षत्रे लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशत् पुष्कराड़े, एवं श्रवणादिपङ्क्तयोऽपि प्रत्येकं षट् * दीप अनुक्रम [१३३-१९६] Forme ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९], ...................---- प्राभूतप्राभूत [-1, ------------------- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: पष्टिसङ्ख्याका वेदितव्या इति भवन्ति सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणां पतयः, एकैका च पलिः षट्षष्टिसङ्खयेति ।। 'छावट्ठी'त्यादि, ग्रहाणामङ्गारकप्रभृतीनां सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके षट्सप्तत्यधिक पतिशतं एकैका च परिभवति पद-11 पष्टिः-पट्पष्टिग्रहसङ्ख्या, अचापीय भावना-इह जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृ-k तयोऽष्टाशीतिर्ग्रहाः, उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतय एवाटाशीतिः, तत्र दक्षिण-2 तोऽर्द्धभागे योऽङ्गारकनामा ग्रहस्तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ दक्षिणभागे एव द्वावारको लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एक-TA पाविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्करार्दै इति पट्षष्टिः एवं शेषा अपि सप्ताशीतिम्रहाः पङ्क्त्या व्यवस्थिताः प्रत्येक पटूपष्टिवेदितव्याः, एवमुत्तरतोऽप्यर्द्धभागे अनारकप्रभृतीनामष्टाशीतर्पहाणां पतयः प्रत्येकं पट्पष्टिसयाका भावनीया | इति भयति सर्वसङ्ख्यया ग्रहाणां पट्सप्ततं पतिशतमेकैका च पतिः षट्षष्टिसझ्याकेति । ते मेरुमणुचरंती'त्यादि, ते-13 मनुष्यलोकवासिनः सर्वे चन्द्राः सर्वे सूर्याः सर्वे च ग्रहगणा अनवस्थितैः-यथायोगमन्यैरन्यनक्षत्रेण सह योगैरुपलक्षिताः मापयाहिणावचमंडला' इति प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नाव-12 |तने-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः प्रदक्षिण आवर्तों येषां मण्डलाना तानि तथा प्रदक्षिणावर्तानि मण्डलानि येषां : ते तथा, मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतेनैतदुक्कं भवति-सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकवर्तिनः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डल-11 गत्या परिभ्रमन्तीति, इह चन्द्रादित्यग्रहाणां मण्डलानि अनवस्थितानि, यथायोगमन्यस्मिन् अन्यस्मिन् मण्डले तेषां सञ्चारित्वात् , नक्षत्रताराणां तु मण्डलान्यवस्थितान्येव, तथा चाह-निक्खत्ते'त्यादि, नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डला दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~ 558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० (मल०) गाथा: II न्यवस्थितानि ज्ञातव्यानि, किमुक्तं भवति ?-आकालं प्रतिनियतमेकैकं नक्षत्राणां तारकाणां च प्रत्येक मण्डलमिति, न||१९ प्राभृते तिवृत्तिः पत्थमयस्थितमण्डलत्योक्तावमाशङ्कनीयं यथतेषां गतिरेव न भवतीति, यत आह-तेऽविय'इत्यादि, तान्यपि-नक्ष- चन्द्रसूर्यात्राणि तारकाणि च, सूत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्रदक्षिणावर्त्तमेव, इदै क्रियाविशेषणं, मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतच दिपरिमाण मेरे लक्षीकृत्य प्रदक्षिणावर्त तेषां चरणं प्रत्यक्षत एवोपलक्ष्यत इति संवादि । 'रमणिपरे'त्यादि, रजनिकरदिनकराणां-18 सू१०० ॥२७६॥ | चन्द्रादित्यानामूर्यमधश्च सङ्कामो न भवति, तथाजगत्स्वाभाच्यात् , तिर्यक् पुनर्मण्डलघु सङ्क्रमण भवति, किंविशिष्टमित्याह-1 साभ्यन्तरवाय-अभ्यन्तरं च बाह्यं च अभ्यन्तरवाह्यं सहाभ्यन्तरबाह्येन वर्तते इति साभ्यन्तरबार्हा, एतदुक्तं भवति-I सर्वाभ्यन्तरामण्डलात्परतः तावन्मण्डलेषु सङ्घमणं यावत् सर्वबाह्य मण्डलं सर्ववाह्याच मण्डलार्वाक् तायन्मण्डलेषु सङ्कमणं यावत् सर्वाभ्यन्तरमिति। रपणियरे'त्यादि, रजनिकरदिनकराणां--चन्द्रादित्यानां नक्षत्राणां च महाग्रहाणां च चारविशेषेण-तेन तेन चारेण सुखदुःखविधयो मनुष्याणां भवन्ति, तथाहि-द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कम्मोणि, तद्यथा-शुभवेद्यानि अशुभवेद्यानि च, कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतयः पत्र, तद्यथा-द्रव्य क्षेत्र कालो भायो भवश्व, उक्तं च-“उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जं च कन्मुणो भणिया। दवं च खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ १॥ |शुभकर्मणां प्रायः शुभवेद्यानां च कर्मणां शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री विपाकहेतुरशुभवेद्यानामशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ततो यदा येषां जन्मनक्षत्रादिविरोधी चन्द्रसूर्यादीनां चारो भवति तदा तेषां प्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि तानि तो तथाविर्धा विपाकसामग्रीमवाप्य विपाकमायान्ति, विपाकमागतानि च शरीररोगोत्पादनेन धनहानिकरणतो वा दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~ 559~ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: प्रियविप्रयोगजननेन वा कलहसंपादनतो वा दुःखमुत्पादयन्ति, यदा च येषां जन्मनक्षत्राद्यनुकूलः चन्द्रादीनां चारस्तदा । तषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तां तधाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य विपार्क प्रतिपद्यन्ते, प्रपन्नविषाकानि च | तानि शरीरनीरोगतासम्पादनतो धनवृद्धिकरणेन वा वैरोपशमनतः प्रियसम्प्रयोगसम्पादनतो वा यदिवा प्रारब्धाभीष्टप्रयो-11 जननिष्पत्तिकरणतः सुखमुपजनयन्ति, अत एव महीयांसः परमविवेकिनोऽल्पमपि प्रयोजन शुभतिथिनक्षत्रादावारभन्ते दिन तु यथाकथंचन, अत एव जिनानामप्याज्ञा पत्राजनादिकमधिकृत्येत्थमवतिष्ट यथा शुभक्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखी-13 कृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादौ प्रनाजनव्रतारोपणादि कर्त्तव्यं, नान्यथा, तथा चोकं पञ्चवस्तुके-"एसा जिणाणPIमाणा खित्ताईया य कम्मुणो भणिया । उदयाइकारणं जं तम्हा सबस्थ जइयर्थ ॥ १॥" अस्या अक्षरगमनिका-13 एषा जिनानामाज्ञा शुभे क्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रजाजनव्रतारोपणादि कर्तव्य, नान्य-IA था, अपिच-क्षेत्रादयोऽपि कर्मणामुदयादिकारणं भगवद्भिक्ताः, ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री प्राप्य कदाचिदशुभविद्यानि कर्माणि विपाकं गत्वोदयमासादयेयुः, तदुदये च गृहीतव्रतभङ्गादिदोषप्रसङ्गः, शुभद्रध्यक्षेत्रादिसामग्यां तु प्रायो| नाशुभकर्मविपाकसम्भव इति निर्विघ्नं सामायिकपरिपालनादि, तस्मादयश्य छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ यतितव्यं ।। ये तु भगवन्तोऽतिशयिनस्ते अतिशयवलादेव सविघ्नं निर्विघ्नं वा सम्यगधिगच्छन्ति ते न शुभतिथिमुह दिकमपेक्षन्ते | इति न तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न्याय्यं, तेन ये परममुनिपर्युपासितप्रवचनविडम्बका अपरिमलितजिनशासनोपनि-11 पद्भूतशास्त्रा गुरुपरम्परायातनिरवद्यविशदकालोचितसामाचारीप्रतिपन्धिनः स्वमतिकल्पितसामाचारीका अभिदधति दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~ 560~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९], ...................---- प्राभूतप्राभूत [-1, ------------------- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: पायथा-न प्रजाजनादिषु शुभतिथिनक्षत्रादिनिरीक्षणं कर्तव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी प्रजाजनायोपस्थितेषु शुभ-||१९प्राभते तिवृत्तिः तिथ्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति ते अपास्ता द्रष्टव्याः । 'तेसिमित्यादि, तेषां-सूर्यचन्द्रमसां सर्ववाह्यात् मण्डलादभ्यन्तरं चन्द्रसूर्या(मळ०) प्रविशतां तापक्षेत्र प्रतिदिवस क्रमेण नियमादायामतो वर्द्धते, येन च क्रमेण परिवर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यतरान्म- दिपरिमाणं ॥२७७॥ मण्डला बहिः निष्क्रमतां परिहीयते, तथाहि सर्ववाह्ये मण्डले चार घरता सूर्याचन्द्रमसा प्रत्येक जम्पद्वीपचक्रघासू १०० लालस्य दशधापविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रं, ततः सूर्यस्याभ्यन्तरं प्रविशतः प्रतिमण्डलं पट्यधिकषत्रिंशच्छतप्रधि भक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रस्य वर्द्धते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येक पौर्णमासीसम्भये क्रमेण प्रतिमण्डलं पविंशतिः | पडूविंशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च एकः सप्तभाग इति बर्द्धते, एवं च क्रमेण प्रतिमण्डलमभिवृद्धौ यदा सर्वाभ्यन्तरे | & मण्डले चार घरतः तदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य त्रयः परिपूर्णा दशभागास्तापक्षेत्र, ततः पुनरपि साभ्यन्तरा-14 मण्डलाहिर्निष्क्रमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डलं पश्यधिकषट्त्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वीपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येक पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं षविंशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भाग-15 &स्य एकः सप्तभाग इति । 'तेसिमित्यादि, तेषां चन्द्रसूर्यादीनां तापक्षेत्रपथाः फलम्बुकापुष्पसंस्थिता-मालिकापुष्पाकारा || भवन्ति, एतदेय ब्याचष्टे-अन्ता-मेहदिशि सङ्कुचिता, बहिः-उवणदिशि विस्तृता, एतच्च प्रागेव चतुर्थे प्राभृते भावित-14 ४ा मिति न भूयो भाव्यते । सम्पति चन्द्रमसमधिकृत्य गौतमः प्रश्नयति ॥२७७|| CI केणं बहुति चंदो ? परिहाणी फेण हुंति चंदस्स ? । कालो वा जोहो पा केणऽणुभावेण चंदस्स ? ॥ २४ ॥11 दीप अनुक्रम [१३३-१९६] Sapnaaman unconm ~ 561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९]. .. .... .....-- प्राभतप्राभत [-], ------------...-...- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: किण्हं राहुविमाणं णिचं चंदेण होइ अधिरहितं । चतुरंगुलमसंपत्तं हिचा चंदस्स तं चरति ॥ २५ ॥ चावहिं २ दिवसे २ तु सुकपक्वस्स । जं परिवहति चंदो खवेइ तं चेव कालेणं ॥ २६ ॥ पण्णरसहभागेण य चंदं । पण्णरसमेव तं चरति । पण्णरसतिभागेण य पुणोवि तं चेव वक्कमति ॥ २७ ॥ एवं वहति चंदो परिहाणी नाएव होइ चंदस्स । कालो वा जुराहो वा एवष्णुभावेण चंदस्स ॥ २८ ॥ अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा तु उववण्णा । पंचविहा जोतिसिया चंदा सूरा गहगणा य॥२९॥ तेण परंजे सेसा चंदादिश्चगहतारण खत्ता । णधि गती णवि चारो अवहिता ते मुणेयवा ॥ ३० ॥ एवं जंबुद्दीये दुगुणा लवणे चउग्गुणा हुंति। लावणगा य तिगुणिता ससिसूरा धायइसंडे ।। ३१ ॥ दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सायरे लषणतोए। धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य ॥ ३२ ॥ धातइसंडप्पभितिसु उद्दिट्टा तिगुणिता भवे चंदा । आदिल्लचंद्सहिता अणंतराणतरे खेते ॥ ३३ ॥ रिक्खग्गहतारगं दीवसमुद्दे जहिच्छसी गाउं । तस्ससीहिं। तग्गुणितं रिक्खागहतारगग्गं तु ॥३४॥ वहिता तु माणुसनगरस चंदसूराणऽवद्विता जोपहा । चंदा अभीयीजुत्ता सूरा पुण हंति पुस्सेहिं ॥ ३५॥ चंदातो सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ । पण्णाससहस्साई तु । जोयणाणं अणूणाई ॥ ३६ ॥ सरस्स य २ ससिणो २ य अंतरं होइ । बाहिं तु माणुसनगस्स जोयणाणं सतसहस्सं ॥ ३७॥ सरसरिया चंदा चंदतरिया य दियरा दित्ता । चितंतरलेसागा सहलेसा मंदलेसा यश ॥ ३८ ॥ अट्ठासीर्ति च गहा अट्ठावीसं च हुति नक्वत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण योच्छामि ॥ ३९ ॥ दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~562~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० ॐ-05-%2525 गाथा: * सूर्यप्रज्ञ- छावद्विसहस्साई णच चेव सताई पंचसतराई । एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४० ॥ अंतो १९प्राभते सिवृत्तिःमणुस्सखेत्ते जे चंदिमसूरिया गहगणणखत्ततारारूवा ते णं देवा किं उद्दोववगा कप्पोववण्णगा चन्द्रवृक्षा (मला विमाणोववण्णगा चारोबवण्णगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा !, ता ते ण देवा णो उहोवव- चन्द्रा, पणगा नो कप्पोचवणगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा नो चारठितीया गइरझ्या गतिसमावण्णगा ॥२७८|| त्पन्नत्व दि उहामुहकलंयुअपुष्फसंटाणसंठितेहिं जोअणसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सिएहि बाहिराहि य चेउधि-II मसू १०० याहिं परिसाहिं महताहतणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं महता उफडिसीहणादकलकलरवेणं अच्छं पचतरायं पदाहिणावत्तमंडलचारं मेलं अणुपरियटृति, ता तेसि णं देवाणं जाधे ईद चियति से कथमिदाणि पकरेंति ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उबसंपजित्ताणं विहरति जाव अण्णे इत्थ इंदे उधवपणे भवति, ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहियं पन्नत्तं , ता जहणेण इक समय उक्कोसेणं छम्मासे, ता पहिता णं माणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगह जाव तारारूवा ते णं देवा किं उहो-|| ववष्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णगा चारद्वितीया गतिरतीया गतिसमावण्णगा?, ता ते ण देवा: द्रिाणो उहोववण्णगा नो कप्पोववरणगा विमाणोववपणगा णो चारोचवण्णमा चारठितीया नो गइरहया णो गतिसमावण्णगा पफिगसंठाणसंठितेहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तायक्वेत्तेहिं सयसाहस्सियाहिं याहि-II राहिं वेउवियाहिं परिसाहि महताहतनहगीयवाइयजावरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ARC4.3625 SAREnaturinaman ~ 563~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९], ...................---- प्राभूतप्राभूत [-1, ------------------- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: सुहलेसा मंदलेसा मंदायथलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडा इव ठाणठिता ते |पदेसे सबतो समंता ओभासंति उज्जोति तवेंलि पभाति, ता तेसिणं देवाणं जाहे इंदे चयति से कहमिदाणि पकरेंति , ता जाव चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं तहेव जाव छम्मासे (सूत्रं १००)॥ | 'केण'मित्यादि, केन कारणेन शुक्लपक्षे चन्द्रो बर्द्धते ?, केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपक्षे परिहानिर्भवति, केन | Mवा अनुभावेन-प्रभावेन चन्द्रस्य एका पक्षः कृष्णो भवति एको ज्योत्स्न:-शुक्ल इति !, एवमुक्त भगवानाह-'किण्ह'मि-II त्यादि, इह द्विविधो राहुस्तद्यथा-पराहुः नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं च अन्तरितं करोति, अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्भिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्य-131 राहुस्तस्य विमानं कृष्णं, तच्च तथाजगत्स्वाभाब्यात् चन्द्रेण सह नित्य-सर्वकालमविरहितं तथा चतुरङ्गुलेन-चतुर्भिरङ्गलरमाप्तं सत् चन्द्रविमानस्याधस्ताचरति, तश्चैवं चरत् शुक्लपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह-यावहिमित्यादि, इह द्वापष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वी भागायुपरितनावपाकृत्य | शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वापष्टिशब्देनोच्यन्ते, 'अवयवे समुदायोपचारात्', एतच व्याख्यानं जीवाभिगमर्यादिदर्शनतः कृतं, न पुनः स्वमनीषिकया, तथा चास्या एव गाथाया व्याख्याने जीवा-12 भिगमचूर्णिः-"चन्द्रविमानं द्वापष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिभांगो हियते, तत्र चत्वारो भागा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, शेपौ द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते” इत्यादि, एवं च सति यत् समया दीप अनुक्रम [१३३-१९६] 262 ~564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूयप्रज्ञा निवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१०० (मल.) ॥२७॥ गाथा: 05% याङ्गसूत्र-'सुकपक्खस्स दिवसे २ चंदो बावहिं भागे परिवहुइति तदप्येवमेव व्याख्येयं, सम्प्रदायवशाद्धि सूत्र ||१९प्राभृते व्याख्येयं, न स्वमनीपिकया, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यत्-वस्मात्कारणात् चन्द्रो द्वापष्टिं चन्द्रवृक्ष्या २ भागान-द्वापष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत्परिवर्द्धते, 'कालेन' कृष्णपक्षेन पुनर्दिवसे दिवसे तानेवदि चन्द्रादापष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान क्षपयति-परिहापयति । एतदेव ब्याचष्टे-'परस'इत्यादि, कृष्णपक्षे प्रतिदि- दानामूवा वसं राहुविमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति-आच्छादयति, शुक्लपक्षे तु पुनस्तमेव | स्पन्नत्वादि सू१०० |मतिदिवस पञ्चदशभागं आत्मीयेन पञ्चदशभागेन व्यतिक्रामति-मुञ्चति, किमुक्कं भवति ।-कृष्णपक्षे प्रतिपद आर-| भ्यात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य 2 |तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलवृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपतः । पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव । तथा चाह–एवं वहुई'इत्यादि, एवं-राहुविमानेन प्रतिदिवस क्रमेणानावरणकरणतो वर्द्धते-बर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं-राहुविमानेन प्रतिदिवस क्रमेणावरणकरणतः प्रतिहानिः-प्रतिहानिप्रतिभासो | भवति चन्द्रस्य विषये, एतेनैवानुभावेन-कारणेन एकः पक्षः कालः-कृष्णो भवति, यत्र चन्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते, एकस्तु ज्योत्स्न:-शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः । 'अंतो'इत्यादि, अन्तः-मध्ये मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यस्य । क्षेत्रस्य पञ्चविधा ज्योतिष्कार, तद्यथा-चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाश्चशब्दान्नक्षत्राणि तारकाश्च भवन्ति, चारोपगा:-चार-18 युक्ताः, 'तेण पर'मित्यादि, तेनेति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यथें तृतीया, ततो मनुष्यक्षेत्रात् परं यानि शेषाणि चन्द्रादित्यग्र दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~5654 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: हतारानक्षत्राणि-चन्द्रादित्यग्रहतारानक्षत्रविमानानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , तेषां नास्ति गतिः-न स्वस्मात् || | स्थानाञ्चलनं नापि चारो-मण्डलगत्या परिधमणं किन्त्ववस्थितान्येव तानि ज्ञातव्यानि । एवं जंबुद्दीये इत्यादि, एवं | सति एकैको चन्द्रसूयौं जम्बूद्वीपे द्विगुणौ भवतः, किमुक्तं भवति ?-द्वौ चन्द्रमसौ द्वौ सूयौँ जम्बूद्वीपे, लवणसमुद्र तावेको सूर्याचन्द्रमसौ चतुर्गुगौ भवतः, चत्वारश्चन्द्राश्चत्वारश्च सूर्या लवणसमुद्रे भवन्तीति भावः, लावणिका-लव|णसमुद्रभवा शशिसूरास्विगुणिता धातकीखण्डे भवन्ति, द्वादश चन्द्रा द्वादश सूर्या धातकीखण्डे भवन्तीत्यर्थः । 'दो। चंदा इत्यादि सुगम, । 'धायइसंडे'इत्यादि, धातकीखण्डः प्रभृतिः-आदियेषां ते धातकीखण्डप्रभृतयस्तेषु धातकीखण्डमभृतिषु दीपेषु समुद्रेषु च य उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादशादय उपलक्षणमेतत् सूर्यो वा ते त्रिगुणिता:-त्रिगुणीकृताः सन्तः 'आइल्लचंदसहिय'त्ति उद्दिष्टचन्द्रयुक्तात् द्वीपात् समुद्राद्वा प्राक् जम्बूद्वीपमादिं कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्द्रास्ने आदिमचन्द्रास्तेरा दिमचन्द्ररुपलक्षणमेतदादिमसूयश्च सहिता यावन्तो भवन्ति एतावत्प्रमाणा अनन्तरे-कालोदादी भवन्ति, तत्र धातकीखण्डे द्वीपे उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादश ते त्रिगुणाः क्रियन्ते जाताः पत्रिंशत् , आदिमचन्द्राः षट्, तद्यथा-द्वी चन्द्री जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे, एतैरादिमैश्चन्द्रैः सहिता द्वाचत्वारिंशद् भवन्ति, एतावन्तः कालोदे समुद्रे चन्द्रा एप एव करणविधिः सूर्याणामपि, तेन सूर्या अपि तत्रैतावन्तो वेदितव्याः, तथा कालोदसमुद्रे द्विचत्वारिंशचन्द्रमस ला उद्दिष्टास्ते त्रिगुणाः क्रियन्ते, जात पडविंशं शतं, आदिमचन्द्रा अष्टादश, तद्यथा-द्वी जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रेती द्वादश धातकीखण्डे एतरादिमचन्द्रः सहित परिशं शतं जातं चतुश्चत्वारिंशं शतं, एतावन्तः पुष्करवरद्वीपे चन्द्रा दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभूत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक [१०० धिवृत्तिः (मल०) २८०|| गाथा: -COL तावन्त एव सूर्याः, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु एतत्करणवशाच्चन्द्रसङ्ख्या प्रतिपत्तव्या । सम्प्रति प्रतिद्वीप प्रतिसमुद्रं १९प्राभृते च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणपरिज्ञानोपाथमाह-'रिक्खग्गहतारग्ग'मित्यादि, अत्रापशब्दः परिणामवाची यन्त्र द्वीपे समुदचन्द्रप्रसा वा नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं वा ज्ञातुमिच्छसि तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा सम्बन्धिभिः शशिभिरेकस्य दा-दिचन्द्राशिनः परिवारभूतं नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणितं सत् यावद् भवति तावत्प्रमाणं तत्र द्वीपे समुद्रे वाचा ट्रानिक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणमिति, यथा-लवणसमुद्रे किल नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्टं लवणसमुद्रे च शशि त्पन्नत्वाद्रि |सू १०० नश्चत्वारस्तत एकस्य शशिनः परिधारभूतानि यान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतंग एतावन्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि, तथा अष्टाशीतिहा एकस्य माशिनः परिवारभूतास्ते चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि 2 शतानि द्विपश्चाशदधिकानि ३५२ एतावन्तो लवणसमुद्रे ग्रहाः, तथा एकस्य शशिनः परिवारभूतानि तारागणकोटी-1 कोटीनां पटूपष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि कोटिकोटीना द्वे लक्षे सप्तपष्टिः सहस्राणि नव शतानि २६७९०००००००००००००००० एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणकोटीकोटयः, एवरूपा| च नक्षत्रादीनां सङ्ख्या प्रागेवोक्ता, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्षत्रादिसङ्ख्यापरिमाणं परिभावनीयं । 'बहिया'इत्यादि मानुपनगस्य-मानुपोत्तरस्य पर्वतस्य बहिश्चन्द्रसूर्याणां तेजांसि अवस्थितानि भवन्ति, किमुक्तं भवति ?-सूर्याः सदैवान-14 ॥२०॥ त्युष्णतेजसो नतु जातुचिदपि मनुष्यलोके ग्रीष्मकाल इवात्युष्णतेजसः, चन्द्रमसोऽपि सर्वदैवानतिशीतलेश्याका नतु | कदाचनाप्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य शिशिरकाल इवातिशीततेजसः, तथा मनुष्यक्षेत्राहिः सर्वेऽपि चन्द्राः सर्वदेवाभिजिता - दीप अनुक्रम [१३३-१९६] - -- Santaraininimation For P OW ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) सूत्रांक [१००] - गाथा: अनुक्रम [१३३ -१९६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०० ] + गाथा: आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [१९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित नक्षत्रेण युक्ताः सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्यैर्युक्ता इति । 'चंदाओ' इत्यादि, मनुष्यक्षेत्राद्वहिश्चन्द्रात् सूर्यस्य सूर्याच्च चन्द्रस्यान्तरं भवति अन्यूनानि परिपूर्णानि योजनानां पञ्चाशत्सहस्राणि । तदेवं सूर्यस्य चन्द्रस्य च परस्परमन्तरमुकं, सम्प्रति चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य' इत्यादि, मानुषनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिः सूर्यस्य २ परस्परं चन्द्रस्य २ च परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहस्रं लक्षं, तथाहि - चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरि ताश्चन्द्राः व्यवस्थिताः चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि ५००००, ततश्चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्प रमन्तरं योजनानां लक्षं भवतीति । सम्प्रति बहिश्चन्द्रसूर्याणां पङ्काववस्थानमाह--'सूरतरिया' इत्यादि, नृलोकाइ हिः पङ्कया स्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तरिता दिनकरा दीता - दीप्यन्ते स्म दीप्ता भास्क (स्व) रा इत्यर्थः, कथंभूतास्ते चन्द्रसूर्या इत्याह- 'चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या च प्रकाशरूपा येषां ते तथा तत्र चित्रमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरितत्वात् सूर्याणां च चन्द्रान्तरितत्वात्, चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरमित्वात् सूर्याणामुष्णश्मित्वात् । लेश्याविशेषप्रदर्श नार्थमेवाह-'सुहलेसा मंदलेसा य' सुखलेश्याश्चन्द्रमसो न शीतकाले मनुष्यलोक इवात्यन्तशीतरश्मय इत्यर्थः, मन्दलेश्याः सूर्याः न तु मनुष्यलोके निदाघसमये इव एकान्तोष्णरश्मय इत्यर्थः, आह च तत्त्वार्थटीकाकारो हरिभद्रसूरिः"नात्यन्तशीताश्चन्द्रमसो नाप्यत्यन्तोष्णाः सूर्याः, किन्तु साधारणा द्वयोरपीति । इहेदमुक्तं यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्यंते तत्र एकशशिपरिवारभूतं नक्षत्रादिपरिमाणं तावद्भिः शशिभिर्गुणयितव्यमिति तत एकशशिपरिवारभूतानां ग्रहादीनां सामाह- 'अट्ठासीई गहा' इत्यादि, गाधाद्वयं निगदसिद्धं । 'अंतो माणुसखे से' इ For Pasta Use Only ~ 568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९]. .. .... .....-- प्राभतप्राभत [-], ------------...-...- मूलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: सूर्यप्रज्ञ-पत्यादि, अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रसारारूपा देवास्ते किं ऊोपपन्नाः-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ||१९सामने विवृत्तिः। ऊर्धमपपन्ना ऊोपपन्नाः कल्पेषु-सौधर्मादिषु उपपन्नाः कल्योपपन्नाः विमानेषु-सामान्येषूपपन्ना विमानोपपन्नाः चारो- चन्द्रवृक्षा (मल०) मण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्ना-आश्रिताश्वारोपपन्नाः चारस्य-यथोक्तरूपस्य स्थितिः-अभावो येषां ते चारस्थितिका दिचन्द्रा२८ अपगतचारा इत्यर्थेः, गती रतिः-आसक्तिः प्रीतियेषां ते गतिरतिकाः, एतेन गती रतिमात्रमुक, सम्पति साक्षाद् गति दीनामूवी प्रश्नयति-गतिसमापना' गतियुक्ताः, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-ता ते णं देवा इत्यादि, ता इति पूर्ववत् ते चन्द्रा- सन्नत्वादि सू१०० दयो देवा नोोपपन्नाः नापि कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नाः चारोपपन्नाः-चारसहिता नो चारस्थितिकाः, तथा स्वभा-11 वतोऽपि गतिरतिकाः साक्षाद् गतियुक्ताश्च, ऊर्ध्वमुखीकृतकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थितैर्योजनसाहनिका-अनेकयोजनसहन प्रमाणैस्तापक्षेत्रैः साहनिकाभिः-अनेकसहस्रसङ्ख्याभिर्वाह्याभिः पर्षद्भिः, अत्र बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, वैकुर्विकाभिःविकुक्तिनानारूपधारिणीभिः, महता रवेगेति योगः अहतानि-अक्षतानि अनघानीत्यर्थः यानि नाव्यानि गीतानि वादि-1 वाणि च याश्च तन्यो-वीणा ये च तलताला-हस्तताला यानि च त्रुटितानि-शेषाणि तूर्याणि ये च धना-घनाकारा ध्वनिसाधात् पटुप्रवादिता-निपुणपुरुषप्रवादिता मृदङ्गास्तेषां रखेण तथा स्वभावतो गतिरतिकर्याह्यपर्षदन्तर्गतैर्देववेगेन गच्छत्सु विमानेषु उत्कृष्टितः-उत्कर्षवशेन ये मुच्यन्ते सिंहनादा यश्च क्रियते वोलो, बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा ॥२८॥ महता शब्देन पूरकरणं, यश्च कलकलो-व्याकुल: शब्दसमूहस्तद्रवेण, मेरुमिति योगः, किंविशिष्टमित्याह-अच्छ-अतीव । अस्वच्छमतिनिर्मल जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् पर्वतराज-पर्वतेन्द्र प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलचारं यथा भवति तथा मेरुमनुलक्षी-1 दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~ 569~ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: कृत्य परियति-पर्यटन्ति । पुनः प्रश्नयति-ता तेसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, तेपां-ज्योतिष्काणां देवानां शायदा इन्द्रश्च्यवते तदा ते देवा इदानी-इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति !, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः समुदितीभूय तत् शून्यमिन्द्रस्थानमुपसम्पद्य विहरन्ति-तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, सञ्जातौ शुक्लस्थानादिकं पञ्चकुलवत् , कियन्तं कालं यावत्तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्तीति चेदत आह-यावदन्यस्तत्रेन्द्र || उपपन्नो भवति, 'ता इंदठाणे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् इन्द्रस्थान कियत्कालमुपपातेन विरहितं प्रज्ञप्तं ?, भगवा-XI नाह-'ता'इत्यादि, जघन्येन एक समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान् । 'ता बहिया ण'मित्यादि प्रश्नसूत्रमिदं प्राग्वत व्याख्येयं, भगवानाह-ता ते ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् ते मनुष्यक्षेत्रादहिवर्तिनश्चन्द्रादयो देवा नोवोपपन्ना नापि| कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नास्तथा नो चारोपपन्ना:-चारयुक्ताः किन्तु चारस्थितिकाः, अत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापनकाः, पक्केष्टकासंस्थानसंस्थितर्योजनशतसाहनिकैरातपक्षेत्रः, यथा पक्का इष्टका आयामतो दीर्घा भवति बिस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च तथा तेपामपि मनुष्यक्षेत्राहियवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यायामतो अनेकयोजनशतसहनप्रमाणानि विस्तरत एकयोजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति, तैरित्थंभूतैरातपक्षेत्रैः साहनिकाभिः-अनेकस-3 हनसयाभिर्वाह्याभिः पर्पभिः, अत्रापि बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, 'महये त्यादि पूर्ववत् , दिवि भवान् दिव्यान भोगभोगान्-भोगार्हान् शब्दादीन भोगान् भुञ्जाना विहरन्ति, कथंभूता इत्याह-शुभलेश्याः, एतश्च विशेषणं चन्द्रमसः प्रति, तेन नातिशीततेजसः किन्तु सुखोत्पादहेतुपरमलेश्याका इत्यर्थः, मन्दलेश्याः, एतच विशेषण सूर्यान् प्रति, तथा च एत कर55555- दीप अनुक्रम [१३३-१९६] ~570~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभृत [१९], ..................... प्राभूतप्राभत [-], -------------------- मुलं [१००] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० गाथा: देव व्याचष्टे-'मन्दातपलेश्याः' मन्दा-अनत्युष्णस्वभावा आतपरूपा लेश्या-रश्मिसातो येषां ते तथा, पुनः कथंभूता-18/१९ पाभृते प्तिवृत्तिःश्चन्द्रादित्या इत्याह-चित्रान्तरलेश्याः चित्रमन्तरं-अन्तराल लेश्या च येषां ते तथा, भावार्थश्चास्य पदस्य प्रागेवोपद-पुष्करोदाद (मल०)शर्शितः, ते इत्थंभूताश्चन्द्रादित्याः परस्परमयगाढाभिलेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसा सूर्याणां च प्रत्येक लेश्या योजनशत-IPायः सू१०१ ॥२८॥ सहस्रममाणविस्ताराचन्द्रसूर्याणां च सूचीपतचा व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभा-18 सम्मिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्राश्चन्द्रमभाः, इत्थं परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थितशिखराणीव स्थानस्थिता:-सदैव एकत्र स्थाने स्थिताः तान् प्रदेशान्-स्वस्वप्रत्यासन्नान उद्योतयन्ति अवभासयन्ति ताप-IPL यन्ति प्रकाशयन्ति, 'ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयईत्यादि प्राग्यद् व्याख्येयं । | ता पुक्खरचरं णं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे चट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सबजाव चिट्ठति, ता पुक्खरोदे णं समुरे किं समचलवालसंठिते जाव णो विसमचक्कचालसंठिते, ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवतियं चकवालवि-IN क्खंभेणं केवइयं परिक्षेवेणं आहितेति वदेज्जा ?, ता संखेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं संखे. जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति बदेजा, ता पुक्खरवरोदे गं समुदे केवतिया चंदा पभासेंस वा ३ पुच्छा तहेब, तहेव ता पुक्खरोदे णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासें सु वा ३ जाव संखेजाओ तारागणकोडाकोडीओ सोभं सोभेसु वा ३ । एतेणं अभिलावेणं वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे ४ खीरवरे दीवे खीर-18 चरे समुदे ५ घतवरे दीवे चतोदे समुद्दे ६ खोतवरे दीवे खोतोदे समुदे ७ णंदिस्सरवरे दीवे शंदिस्सवरे दीप अनुक्रम [१३३-१९६] RELIGunintentATE | अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं, ~571~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९], ...................-- प्राभूतप्राभत -1, ------------- मूल [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [१०३] %A समुद्दे ८ अरुणोदे दीये अरुणोदे समुद्दे ९ अरुणवरे दीवे अरुणवरे समुद्दे १० अरुणवरोभासे दीवे अरुणबरोभासे समुद्दे ११ कुंडले दीवे कंडलोदे समुद्दे १२ कुंडलवरे दीवे कुंडलवरोदे समुद१३ कुंडलवरोभासे दीचे कुंडलधरोभासे समुरे १४ सवेसि विक्वंभपरिक्खेवो जोतिसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई। ता कुंडलघरोभासणं समुदं रुपए दीवे बढे वलयाकारसंठाणसंठिए २ सघतो जाव चिट्ठति, ता रुपए ण दीवे किं समचकवालजाब णो विसमचकवालसंठिते,तारुपए गंदीवे केवइयं समचकचालविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेवणं| आहितेति वदेजा !, ता असंखेजाई जोपणसहस्साई चक्कवालविखंभेण असंखेलाई जोषणसहस्साई परिक्खेवणं आहितेति वदेजा,ता रुपगे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुरुछा, तास्यगे णं दीवे असंखे-- जा चंदा पभासु वा ३ जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोमेंसु वा ३, एवं रुपगे समुदे। रुयगचरे दीवे रुयगवरोदे समुद्दे रुयगवरोभासे दीवे रुयगवरोभासे समुदे, एवं तिपडोयारा तथा जाव सूरे दीवे सूरोदे समुद्दे सूरवरे दीवे सूरवरे समुद्दे सूरबरोभासे दीवे सूरवराभासे समुरे, सवेसि विक्खंभपरिक्वेवजोतिसाई रुयगवरदीवसरिसाई, ता सूरवरोभासोदपणं समुदं देवे णाम दीवे वहे वलयाकारसंठाणसंठिते सघतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति जाव णो विसमचक्कवालसंठिते, ता देवे गं दीवे केवतियं चाकबालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितति बदेजा, असंखेजाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा, ता देवे पे दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा दीप 4 अनुक्रम - [१९७] % %9 RE .. ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९], .................-- प्राभूतप्राभत -1, ---------- मूल [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: (मल०) क प्रत सूत्रांक [१०३] दीप सूर्यप्रज्ञ-II पुच्छा तधेच, ता देवे णं दीवे असंखेजा चंदा पभासेंसु वा ३ जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ||१९प्राभूत प्तिवृत्ति. सोभेसु वा ३ एवं देवोदे समुद्दे णागे दीचे णागोदे समुद्दे जक्खे दीवे जक्खोदे समुद्दे भूते दीवे भूतोदे पुष्करोदा समुरे सर्पभुरमणे दीवे सयंभुरमणे समुद्दे सधे देवदीवसरिसा (सू१०३) ॥ एकूणवीसतिम पाहुढं समत्त घासू१०३ ॥२८॥ || 'ता पुक्खरवरण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् पुष्करवरं णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपं पुष्करोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, पुष्करोदे च समुद्रे जलमतिस्वच्छ पथ्यं जात्य तथ्यपरिणाम स्फटिकवर्णाभं प्रकृल्या उदकरसं, द्वौ च तत्र देवावाधिपत्यं परिपालयतस्तद्यथा-श्रीधरः श्रीप्रभश्च, सत्र श्रीधरः पूर्वा-1 धिपतिः श्रीप्रभोऽपरार्द्धाधिपतिः, विष्कम्भादिपरिमाणं च सुगर्म । 'एएण'मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन | वरुणवरो द्वीपो वक्तव्यः, तदनन्तरं वरुणोदः समुद्रः ततः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्र इत्यादि, सूत्रपाठश्चैवम्-ता पुक्खरोदण्णं समुदं वरुणवरे दीधे बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सबओ समता संपरिक्खित्ताणं चिद इत्यादि, वरुणद्वीपेश च वरुणवरुणप्रभी द्वौ देवौ स्वामिनौ नवरमाद्यः पूर्वाद्धाधिपतिरपरोऽपराधिपतिरेवं सर्वत्र भावनीय, वरुणोदे समुद्रे परमसुजातमृद्वीकारसनिष्पन्नरसादपीष्टतरास्वादं तोयं वारुणिरप्रभौ च द्वौ तत्र देवी, क्षीरवरे द्वीपे पण्डरसुप्रदन्तौ । देवी, क्षीरोदे समुद्रे जात्यपुण्ड्रेक्षुचारिणीनां गवां यत् क्षीर तदन्याभ्यो गोभ्यो दीयते तासामपि क्षीरमन्याभ्यस्तासामप्य का २८३॥ न्याभ्यः एवं चतुर्थस्थानपर्यवसितस्य क्षीरस्य प्रयत्नतो मन्दाग्निना कधितस्य जात्येन खण्डेन मत्स्यण्डिकया सम्मिश्रस्य यादृशो रसस्ततोऽपीटतरास्वादं [तत्कालविकसितकर्णिकारपुष्पवर्णाभं] तोयं विमलविमलप्रभौ च तत्र देवी, घृतवरे द्वीप अनुक्रम [१९७] | अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~ 573~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१९], ........ ..--- प्राभतप्राभूत [-1, ... .................. मूलं [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] %2564 १960 दीप कनककनकप्रभा देवी, घृतोदे समुद्रे सद्यो विस्थन्दितगोघृतास्वाद तत्कालपविकसितकर्णिकारपुष्पवर्णाभ तोयं कान्तसुकान्ती तत्र देवी, इक्षुवरे द्वीपे सुप्रभमहाप्रभी देवी, इक्षुवरे समुद्रे जाल्यवरपुण्ड्राणामिक्षूणामपनीतालोपरित्रिभागानां विशिष्टगन्धद्रव्यपरियासिताना यो रसः श्लक्ष्णवस्त्रपरिपूतस्तस्मादपीष्टतरास्वादं तोयं पूर्णपूर्णप्रभौ च तत्र देवी, नन्दी-12 |श्वरे द्वीपे कैलाशाहस्तिवाहनौ देवी, नन्दीश्वरे समुद्रे इक्षुरसास्वाद तोयं सुमनःसौमनसी देवौ, एते अष्टायपि च द्वीपा[४] | अष्टायपि समुद्रा एकमत्यवताराः, एकैकरूपा इत्यर्थः, अत ऊर्दू तु द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवतारास्तद्यथा-अरुणः| | अरुणवरोऽरुणवरावभासः कुण्डलः कुण्डलवरः कुण्डलवरावभास इत्यादि, तत्रारुणे द्वीपे अशोकवीतशोकी देवी, अरु| णोदे समुद्रे सुभद्रमनोभद्रौ, अरुणवरे द्वीपे अरुणवरभद्रअरुणवरमहाभद्रौ, अरुणवरे समुद्रे अरुणवरभद्रारुणयरमहाभद्रौ अरुणवरावभासे द्वीपे अरुणवरावभासभद्रअरुणवरावभासमहाभद्री अरुणवरावभासे समुद्रे अरुणवरावभासवरारुणवरा-1 |वभासमहावरी, कुण्डले द्वीपे कुण्डलकुण्डभद्रौ देवी कुण्डलसमुद्रे चक्षु शुभचक्षुकान्ती कुण्डलघरे द्वीपे कुण्डलवरभद्रकुण्डलबरमहाभद्री कुण्डबरे समुद्रे कुण्डलवरकुण्डलमहावरौ कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्रकुण्डलवरावभासमहाभद्री कुण्डलवरावभासे समुद्र कुण्डलबरायभासवरकुण्डलवरावभासमहावरी, एते सूत्रोपाचा द्वीपसमुद्रा, अत अवै तु सूत्रानुपाता दयन्ते, कुण्डलवरावभाससमुद्रानन्तरं रुचको द्वीपः रुचकः समुद्रः, ततो रुचकवरो द्वीपो रुचकवरः समुद्रः तदनन्तरं रुचकवरावभासो द्वीपो रुचकवरावभासः समुद्रः, तत्र रुचके द्वीपे सर्वार्थमनोरमी देवौ रुषकसमुद्रे सुमनःसीमनसौ रुचकवरे द्वीपे रुचकवरभद्ररुचकवरमहाभद्री रुचकवरे समुद्रे रुचकवररुचकमहावरौ रुचकवराव अनुक्रम [१९७] ~574~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१९], ........ ..--- प्राभतप्राभूत [-1, ... .................. मूलं [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- विवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [१०३] ॥२८॥ दीप भासे द्वीपे रुचकवरावभासभद्ररुचकवरावभासमहाभद्रौ रुचकवरावभासे समुद्र रुचकवरावभासवररुचकवरावभास- १९प्राभूत महावरी, कियन्तो नाम नामग्रह द्वीपसमुद्रा वक्तुं शक्यन्ते । ततो यानि कानिचिदाभरणनामानि-हाराहारकनका- पुष्करोदाबलिरत्नावलिप्रभृतीनि यानि च वखनामानि यानि च गन्धनामानि कोष्टपुटादीनि यानि चोत्पलनामानि-जलरुहपन्द्रो-यासू१०३ योतप्रमुखाणि यानि च तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि यानि च पद्मनामानि शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि-पृथिवीशर्करावालुके त्यादीनि यानि च नवानां निधीनां चतुर्दशानां चक्रवर्तिरलानां क्षुल्लहिमवदादीनां वर्ष-11 धरपर्वतानां पद्मादीनां इदानां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छादीनां विजयानो माल्यवदादीनां यक्षस्कारपर्वताना सौध-1 मोदीनां कल्पानां शक्रादीनामिन्द्राणां देवकुरूत्तरमन्दराणामावासानां शकादिसम्वन्धिना मेरुभत्यासन्नानां गजदन्ताना कूटादीनां क्षुलहिमवदादिसम्बन्धिना नक्षत्राणां-कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि, तद्यथा-हारो द्वीपो हारः समुद्रो हारबरो द्वीपो हारवरः समुद्री हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्र इत्यादि, एतेषु समस्तद्वीपसमुद्रेषु सङ्ख्येययोजमशतसहस्रप्रमाणो विष्कम्भः सङ्ख्येययोजनशतसहस्रप-14 माणः परिक्षेपः सङ्घयेयाश्च चन्द्रादयस्ताव वक्तव्याः यावदन्यः कुण्डलवरावभासः समुद्र तथा चाह-सबेसि'मित्यादि. सर्वेषामुक्तस्वरूपाणां द्वीपसमुद्राणामन्यकुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्तामा विष्कम्भपरिक्षेपम्योतिषाणि पुष्करोदसागरसहशानि वक्तव्यानि-सोययोजनप्रमाणो विष्कम्भः सोययोजनप्रमाणः परिक्षेपः सायोश्चन्द्रादयो यतच्या इत्यर्थः, ततस्तदनन्तरं योऽन्यो चकनामा द्वीपस्तत्प्रभृतिषु रुचकसमुद्ररुचकवरद्वीपरुषकवरसमुद्ररुचकवरावभासद्वीपरुचक अनुक्रम [१९७] | अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~ 575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------------------- मूलं [१०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] वरावभाससमुद्रादिष्वपि सङ्घषेययोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसङ्ग्येययोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसयेयाश्चन्द्रादयो वक्तव्याः, तथा चाह-'ता कुंडलवरावभासण्णं इत्यादि, 'एवं रुयगे समुहे' इत्यादि, 'एवं तिपडोयारा'इत्यादि, एवमुक्तेन |प्रकारेण रुचकवरावभासात्समुद्रात्परतो द्वीपसमुद्राश्च त्रिप्रत्यवतारास्तावत् ज्ञातव्या यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्यः समुद्र | सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरः समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासः समुद्रः, उक्त च जीवाभिगमचूणौं-"अरुणाई | दीवसमुद्दा तिपडोयारा यावत्सूर्यवरावभासः समुद्रः"इति, 'सोसि'मित्यादि, सर्वेषां रुचकसमुद्रादीनां सूर्यवरावभास समुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपज्योतिपाणि रुचकद्वीपसदृशानि वक्तव्यानि असङ्ख्येययोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसङ्घषेयपायोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसोयाः प्रत्येकं चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारका वक्तव्या इति भावा, 'सूरवरावभासोदपर्ण समुई। KI इत्यादि मुगर्भ, नवरमेते पञ्च देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः प्रत्येकमेकरूपा म पुनरेषां त्रिप्रत्यवतारः, उक्तं चx जीवाभिगमचूर्णी-"अंते पंच द्वीपा पंच समुद्दो एकप्रकारा" इति, जीवाभिगमसूत्रेऽप्युक्तम्-"देवे नागे जक्खे भूये सय सयंभुरमणे य । एकेके चेव भाणियचे, तिपडोवार नत्वि"त्ति, तत्र देवे द्वीपे द्वौ देवी देवभद्रदेवमहाभद्री देवे समुद्रे देववरदेवमहावरी नागे द्वीपे नागभद्रनागमहाभद्री नागे समुद्रे नागवरनागमहावरी यक्षे द्वीपे यक्षभद्रयक्षमहाभद्री यक्षे समुद्रे यक्षवरयक्षमहावरौ भूते द्वीपे भूतभद्रभूतमहाभद्रगौ भूते समुद्रे भूतवरभूतमहावरौ स्वयंभूरमणे द्वीपे स्वयम्भूभद्र स्वयम्भूमहाभद्रौ स्वम्भूरमणे समुद्रे स्वम्भूवर स्वयम्भूमहावरो, इह नन्दीश्वरादयः सर्वे समुद्रा भूतसमुद्रपर्यवसाना इक्षुर-IP Mसोदसमुद्रसदृशोदकाः प्रतिपत्तव्याः, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य तूदकं पुष्करोदसमुद्रोदकसदृशं, तथा जम्बूद्वीप इति नाम्ना 45RXX दीप अनुक्रम [१९७] - - SANERatinimumational ~576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ १०३ ] दीप अनुक्रम [१९७ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१९], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१७] उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ ठिवृत्तिः ( मल० ) ॥२८५॥ Ja Eratury in २० प्राभृते असलेया द्वीपा लवण इति नाम्ना असलेयाः समुद्राः एवं तावत् वाच्यं यावत्सूर्यवरावभास इति नाम्ना असलेयाः समुद्राः, ये तु पथ देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्रास्ते एकैका एक प्रतिपत्तव्याः नैतेषां नामभिरन्ये द्वीपसमुद्राः, उक्तं च जीवाभिगमे 'केबइया णं भंते ! जंबुद्दीवा दीवा पन्नता ? गोयमा ! असंखेज्जा पन्नत्ता, केवइया णं भंते देव- * मनुभावः ४ दीवा पन्नत्ता १, गोयमा ! एगे देवदीये पण्णत्ते, दसवि एगागारा" इति ॥ ॥ चन्द्रादीना सू १०४ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां एकोनविंशतितमं प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तमेकोनविंशतितमं प्राभूतं सम्प्रति विंशतितममारभ्यते तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'कीदृशचन्द्रादीनामनुभाव' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहते अणुभावे आहितेति वदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तस्थेगे एवमा हंसुता चंदिमसूरिया णं णो जीवा अजीवा णो घणा झुसिरा णो बादरोंदिधरा कलेवरा नत्थि णं तेसिं उहाणेति वा कम्मेति वा बलेति वा विरिएति वा पुरिसकारपरकमेति वा ते णो विज्जु लवंति णो असणि लवंति णो थणितं लवंति, अहे य णं बादरे वाडकाए संमुच्छति अहे य णं बादरे वाउकाए समुच्छित्ता विपि | लवंति असणिपि लवंति धणितंपि लवंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता चंदिमसूरियाणं जीवा णो अजीवा घणा णो झुसिरा बादरबुंदिधरा नो कलेवरा अस्थि णं तेसिं उट्ठाणेति वा० ते विजुंपि लवंति ३ अत्र एकोनविंशति प्राभृतं परिसमाप्तं For Parts Only अथ विंशति प्राभृतं आरभ्यते ~577~ ॥ २८५॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [२०], ... .... .....-- प्राभतप्राभूत [-], --- ..- मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१९८] माएगे एबमाइंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता चंदिमसूरिया णं देवाणं महिहिया जाव महाणुभागा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वराभरणधारी अवोच्छित्तिणयदृताए अन्ने चयंति अपणे उच वजंति (सूत्रं १०४)। IPI 'ता कहं तें'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण चन्द्रादीनामनुभावः-स्वरूपविशेष आख्यात इति | सावदेत , एवमुक्त भगवानेतद्विपये ये द्वे प्रतिपत्ती ते उपदर्शयति-तत्व खलु'इत्यादि, तत्र-चन्द्रादीनामनुभावविषये | खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती-परतीथिकाभ्युपगमरूपे प्रज्ञप्ते, तद्यथा-'तत्थेगे'इत्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये || एके परतीर्थिका एवमाहुः, 'ता' इति तेषां परतीथिकानां प्रधर्म स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे नो जीया-जीवरूपाः किन्त्यजीवाः, तथा नो घना-निविडप्रदेशोपचयाः किन्तु शूषिराः, तथा न बरबोन्दिधरा:-प्रधानसजीव सुव्यक्तावयवशरीरोपेताः किन्तु कलेवरा:-कलेवरमात्राः तथा नास्ति णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां चन्द्रादीनामुत्थान-उचीभवनमितिरुपदर्शने वाशब्दो विकल्पे समुच्चये वा कर्म-उत्क्षेपणावक्षेपणादि बलंशारीरः प्राणो वीर्य-आन्तरोत्साहः 'पुरिसकारपरकमे' इति पुरुषकार:-पौरुषाभिमानः पराक्रमः स एव साधिताभि-| मतप्रयोजनः पुरुषकारश्च पराक्रमश्च पुरुषकारपराक्रममिति वाशब्दः सर्वत्रापि पूर्ववत्, तथा ते चन्द्रादित्याः 'नो विजुयं लवंति'त्ति नो विद्युत प्रवर्तयन्ति नाप्यशनि-विद्युद्विशेषरूपं नापि गर्जितं-मेपनि किन्तु 'अहो णमित्यादि | चन्द्रादित्यानामधो णमिति पूर्ववत् वादरो वायुकायिकः सम्मूर्छति अधश्च बादरी वायुकायिका सम्मूच्छर्य 'विजुपि लवई'इति विद्युतमपि प्रधयति, अशनिमपि प्रवर्त्तयति, विद्युदादिरूपेण परिणमते इति भावः, अत्रोपसंहारमाह-18 REnatininimaTRI ~578~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१०४ ] दीप अनुक्रम [१९८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [२०]. प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यमज्ञ धिवृत्तिः ( मल० ) PROFI 'एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, ता इति प्राग्वत्, चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे जीवा - जीवरूपा न पुनरजीवाः यथाऽऽहुः पूर्वापरतीर्थिकाः तथा घना-न शुपिरा तथा बरबोन्दिधरा न कलेवरमात्रा तथा अस्ति तेषां उडाणे इति वा इत्यादि पूर्ववत् व्याख्येयं, 'ते विजुंपि लवंति'त्ति विद्युतमपि प्रवर्त्तयन्ति अशनिमपि प्रवर्त्तयन्ति गर्जितमपि, किमुक्तं भवति ?- विद्युदादिकं सर्वे चन्द्रादित्यप्रवर्त्तितमिति, अत्रोपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंसु' २, एवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयमुपदर्श्य सम्प्रति भगवान् स्वमतं कथयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः कथं वदथ इत्याह-ता इति पूर्वयत् चन्द्रसूर्याः णमिति वाक्यालङ्कारे देवा देवस्वरूपा न सामान्यतो जीवमात्राः, कथंभूताः ते देवा इत्याह'महर्दिका:' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका येषां ते तथा 'जाब महाणुभावा' इति यावत्करणात् 'महज्जुइया महबला. महाजसा महेसक्खा' इति द्रष्टव्यं तत्र महती द्युतिः शरीराभरणविषया येषां ते महाद्युतयः, तथा महत् बलेशारीरः प्राणो येषां ते महाबलाः, तथा महदू यशः ख्यातिर्येषां ते महायशसः, तथा महेश इति महान् ईशः-ईश्वर इत्याख्या येषां ते महेशाख्याः, क्वचित् महासोक्खा इति पाठः, तत्र महत् सौख्यं येषां ते महासौख्याः, तथा महान नुभावो विशिष्टवैक्रियकरणादिविषया अचिन्त्या शक्तिर्येषां ते महानुभावाः वरवस्त्रधरा वरमाल्यधरा वराभरणधारिणः, अव्युच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यास्तिकनयमतेन अन्ये पूर्वोत्पन्नाः स्वायुःक्षये च्यवन्ते अन्ये उत्पद्यन्ते ॥ ता कहते राहुकम्मे आहितेति बदेखा है, तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु, अस्थि से राहू देवे जेणं बंदं वा सूरं वर गिण्हति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु नत्थि णं For Parts Only ~579~ २० प्राभूते चन्द्रादीना मनुभावः स १०४ ॥२८६ ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९९] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [२०]. प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः से राहू देवे जेणं चंदं वा सूरं वा गिण्हद, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता अस्थि णं से राहू देवे जेणं चंदं वा सूरं वागिति से एवमाहंसु-ता राहू णं देवे चंदं वा सूरं वा गेव्हमाणे बुद्धतेणं गिव्हित्ता बुद्धतेणं मुयति बुद्धतेणं गिण्हित्ता मुद्धतेणं मुयइ मुद्धतेन गिव्हित्ता मुद्धतेणं मुयति, वामभुयन्तेणं गिव्हिसा वामभुयंतेणं मुयति वामभुयंतेणं गिव्हिसा दाहिणभुपतेणं मुयति दाहिणभुतेणं गिण्हिता यामनुयंतेणं मुयति दाहिणभुतेणं गिव्हित्ता दाहिणभुयंतेणं मुयति, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता नत्थि णं से राहू देवे जेणं चंदं वा सूरं वा गेहति ते एवमाहंसु-तत्थ णं इमे पण्णरसकसिणपोग्गला पं० सं०-सिंघाणए जडिलए खरए खतए अंजणे खंजणे सीतले हिमसीयले केलासे अरुणाभे परिजए णभसूरए कविलिए पिंगलए राहू, ता जया णं एते | पण्णरस कसिणा २ पोग्गला सदा चंदरस वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवंति तता णं माणुसलोयंसि माणुसा एवं वदंति एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा गेण्हति एवं० २, ता जता णं एते पण्णरस कसिणा २ पोन्गला णो सदा चंदस्स वा सूररस वा लेसाणुबद्धचारिणो खस्तु तदा माणुसलोयम्मि मणुस्सा एवं वदंति एवं खलु राहू चंदं सूरं वा मेण्हति एते एवमाहंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता राहू णं देवे महिहीए महाणुभावे वरवत्धधरे वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स णव णामधेया पं० [सं० सिंघाडए जडिलए खरए खेतए उहुरे मगरे मच्छे कच्छ कण्णसप्पे, ता राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पं० तं०- किण्हा नीला लोहिता हालिदा सुकिल्ला, अस्थि काल राहुविमाणे खंजणवण्णाभे अस्थि नीलए राहुविमाणे For Para Lise Only ~ 580~ wor Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत २०].....................--- प्राभतप्राभूत [-1, .....................-- मूल [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम सूर्यप्रज्ञ- लाउयवपणाभे पण्णत्ते, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्ठावण्णाभे पण्णते, अस्थि हालिद्दए राहुविमाणे २० प्राभूते निवृत्तिःशहलिद्दावण्णाभे पं०, अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पं०, ता जया णं राहुदेचे आगच्छ- राहुक्रिया माणे वा गच्छमाणे वा विज्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं पुरच्छिमेणं आवरित्ता सू १०५ ॥२८॥ पचत्थिमेणं वीतीवतति, तया णं पुरच्छिमेणं चंदे सूरे वा उपदंसेति पञ्चस्थिमेणं राहू, जदा णं राहुदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्चमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणेणं आवरित्ता उत्तरेणं बीतीवतति, तदा णं दाहिणणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेति उत्तरेणं राह, एतेणं अभिलावेणं पचस्थिमेणं आवरित्ता पुरच्छिमेणं बीतीवतति उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणेणं वीतिवतति, जया णं राह देवे। आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउचमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपुरच्छिमेणं आवरित्ता उत्तरपञ्चत्थिमेणं बीईवयइ तयाणे दाहिणपुरच्छिमेणं चंदे चा सूरे वा उवदंसेइ उत्तरपञ्चस्टिमेणं राह, जया कराह देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्चमाणे चा परियारेमाणे या चंदस्स वा सूरस्स |वा लेसं दाहिणपञ्चत्थिमेणं आवरित्ता उत्तर पुरच्छिमेणं बीतीवतति तदा णं दाहिणपस्थिमेणं चंदे वा सूरे वा | उवदंसेति उत्तरपुरच्छिमेणं राह, एतेणं अभिलावेणं उत्तरपञ्चस्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरछिमेणं बीतीव-IR तति, उत्तरपुरच्छिमेणं आवरेत्ता दाहिणपचत्थिमेणं वीतीवयइ, ता जता णं राहू देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स | या सरस्स वा लेसं आवरेत्ता बीतीव० तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदति-राहुणा चंदे सूरे वा गहिते, *CE6- 45 [१९९] R२८७॥ JAMERatininamarana ~581~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत २०].....................--- प्राभतप्राभूत [-1, .....................-- मूल [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: R प्रत सूत्रांक [१०५] दीप ताजपा राह देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स या सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पासेणं बीतीवतति तता गं मणुस्सलोअंमि मणुस्सा वदंति-देण वा सूरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा, ता जता णं राह देवे आगच्छमाणे |RI वा चंदस्स वा सूरस्स चा लेसं आवरेत्ता पचोसकति तता गं मणुस्सलोए मणुस्सा एवं वदंति-राहणा चंदे वा सूरे या वंते राहुणा० २, ता जता णं राह देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता मझ मझेणं वीतिवतति तता णं मणुस्सलोयंसि मणुस्सा वदति-राहुणा चंदे वा सूरे बा बिइयरिए राहुणा०२४ ता जता णं राहू देवे आगच्छमाणे चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता णं अधे सपक्खिं सपडिदिसि | चिट्ठति तता गं मणुस्सलोअंसि मणुस्सा वदंति-राहुणा चंदे वाघधे राहणा०२॥ कतिविधे णं राह पं02.12 विहे पं० त०-ता धुवराष्टू य पचराह य, तत्थ णं जे से धुवराह से गं बहुलपक्खस्स पाडिवए पण्णरसइ-2 भागेणं भाग चंदस्स लेसं आवरेमाणे चिवति, तं०-पढमाए पढम भागं जाव पन्नरसम भाग, चरमे समए चंदे । रत्ते भवति अबसेसे समए चंदे र य विरत्ते य भवइ, तमेव मुक्तपक्खे उपदंसेमाणे २ चिट्ठति, तं०-पढ-1 Mमाए पदम भागं जाव चंदे विरते य भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते विरते य भवति, तस्थ णं जे ते पव रात से जहण्णेणं छह मासाणं, उक्कोसेणं यायालीसाए मासाणं चंदस्स अडतालीसाए संवच्छराणं सूरस्स (सूत्रं १०५)॥ | 'ता कह ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कध-केन प्रकारेण भगवान् ! त्वया राहुकर्म-राहुक्रिया आख्यातमिति | अनुक्रम [१९९] % २-०२-% ~582~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], --------- ----- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप सूर्यप्रज्ञ-विदेत्!, एवमुक्त भगवानेतद्विषये ये द्वे परतीर्थिकप्रतिपत्ती ते उपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-राहुकर्मविषये खल्विम २० प्राभूते प्तिवृत्तिःल प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, 'तत्धेगे'इत्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः–ता इति पूर्व राहुक्रिया बत् अस्ति णमिति वाक्यालङ्कारे स राहुनामा देवो चश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णाति, अनोपसंहारमाह-एगे एवमाईस. सू १०५ ॥२८८ एके पुण एवमाहंसु' एके पुनरेवमाहुः, ता इति पूर्ववत् , नास्ति स राहुनामा देयो यश्चन्द्र सूर्यं वा गृह्णाति, तदेयं प्रतिपत्तिद्वयमुपदर्य सम्मत्येतद्भावनार्थमाह-तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते यादिनः एयमाहुः-अस्ति स राहुनामा देयो। यश्चन्द्रं सूर्य वा गृह्णातीति त एवमाहुः-त एवं स्वमतभावनिका कुर्वन्ति, 'ता राहू णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् राहुर्दे वश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णन् कदाचित बुधान्तेनैव गृहीत्वा वुध्नान्तेनैव मुञ्चति, अधोभागे गृहीत्वा अधोभागेनैव मुञ्चतीति भावः कदाचित् बुनान्तेन गृहीत्या मूर्द्धान्तेन मुञ्चति, अधोभागेन गृहीत्या उपरितनेन भागेन मुञ्चतीत्यर्थः, अथवा कदाचित नामूर्द्धान्तेन गृहीत्या बुधान्तेन मुखति, यदिया मूर्द्धान्तेन गृहीत्वा मूर्धान्तेनैव मुथति, भावार्थः प्राग्यद् भावनीयः, अथवा कदाचित् वामभुजान्तेन गृहीत्वा वामभुजान्तेन मुवति, किमुक्त भवति ?-चामपार्थेन गृहीत्या धामपार्थेनैव | मुञ्चति, यदिया वामभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेन मुञ्चति, अथवा कदाचित् दक्षिणभुजाम्तेन गृहीत्वा वामभुजा|न्तेन मुश्चति, यद्वा दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेनैव मुञ्चति, भावार्थः सुगमः, 'तत्य जे ते इत्यादि, तत्र-IN " ॥२८ तेषां द्वयाना परतीथिकानां मध्ये ये ते एवमाहुः यथा नास्ति स राहुर्देवो यश्चन्द्रं सूर्य वा गृह्णातीति ते एवमाहुः । 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र जगति णमिति बाक्यालङ्कारे इमे वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चदशभेदाः कृष्णाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ता:MI अनुक्रम [१९९] ~ 583~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत २०].....................--- प्राभतप्राभूत [-1, .....................-- मूल [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: *5%* S प्रत सूत्रांक [१०५] दीप तद्यथे'त्यादिना तानेव दर्शयति, एते यथासम्प्रदायं वैविक्त्येन प्रतिपत्तव्याः, 'ता जया णमित्यादि, ततो यदा लोणमिति वाक्यालङ्कारे एते अनन्तरोदिताः पञ्चदशभेदाः कृष्णाः पुद्गलाः कृत्स्नाः समस्ताः 'सता'इति सदा सातत्ये-11 नेत्यर्थः चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबन्धचारिणः-चन्द्रसूर्यबिम्बगतप्रभानुचारिणो भवन्ति तदा मनुष्यलोके मनुष्या माएवं वदन्ति, यथा एवं खलु राहुश्चन्द्र सूर्य या गृह्णातीति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यदा णमिति || पुनरर्थे निपातस्थानेकार्थत्वात् यदा पुनरेते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः समस्ताः नो सदा-न सातत्येन चन्द्रस्य सूर्यस्य लाया लेश्यानुवन्धचारिणो भवन्ति, न खलु तदा मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति-यथा एवं खलु राहुश्चन्द्र सूर्य या गृहातीति, तेषामेवोपसंहारवाक्यमाह-एवं खलु'इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण राहश्चन्द्र सूर्य वा गृहातीति लौकिकं 151 वाक्यं प्रतिपत्तव्यं, न पुनः प्रागुक्तपरतीधिकाभिप्रायेण, भगवानाह-एते'इत्यादि, एते परतीथिंका एवमाहः, 'वयं Mपुण इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवला: केवलविदोपलभ्य एवं वदामो, यथा-राहण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , राहः ण-IN मिति वाक्यालङ्कारे, न देवो न परपरिकल्पितपुद्गलमात्रं स च देवो महर्द्धिको महाद्युतिः महाबलो महायशा महासौख्यो महानुभावः, एतेषां पदानामर्थः प्राग्यद् भावनीयः, वरवस्त्रधरो वरमाल्यधरो वराभरणधारी, राहुस्स ण'मित्यादि, तस्य । |च राहोर्देवस्य नव नामधेयानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-'सिंघाडए इत्यादि सुगर्म, 'ता राहुस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्व-12 यत्, राहोदेवस्य विमानानि पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि, किमुक्तं भवति ?-पञ्च विमानानि पृधगेकैकवर्णयुक्तानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'किण्हे नीले'इत्यादि, सुगम, नवरं खञ्जनं-दीपमल्लिकामल: 'लाउयवण्णाभे'इति आईतुम्बवर्णाभ, 'ता अनुक्रम [१९९] RKA SARERatininemarana ~584~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९९] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [२०]. प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यमज्ञ •ष्ठिवृत्तिः ( मल० ) ॥२८९॥ जया णमित्यादि, ता इति तत्र यदा राहुदेव आगच्छन् कुतश्चित्स्थानात् गच्छन् वा कापि स्थाने विकुर्वन् वा स्वेच्छ- ३२० प्राभृते या तां तां विक्रियां कुर्वन् वा परिचरणबुद्ध्या इतस्ततो गच्छन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य या लेश्यां विमानगतधवलि मानं 'पुरच्छ्रिमेणं'ति पौरस्त्येनावृत्याग्रभागेनावृत्त्येत्यर्थः, पाश्चात्यभागेन व्यतित्रजति व्यतिक्रामति तदा णमिति प्राग्वत् पौरस्त्येन चन्द्रः सूर्यो वाऽऽस्मानं दर्शयति पश्चिमभागेन राहुः किमुक्तं भवति !- तदा मोक्षकाले चन्द्रः सूर्यो वा पूर्वदिग्भागे प्रकटं उपलभ्यते अधस्ताच्च पश्चिमभागे राहुरिति, 'एवं जया णं राहू' इत्याद्यपि दक्षिणोत्तरविषयं सूत्रं भावनीयं, 'एएण' मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन 'पञ्चस्थिमेणं आवरेत्ता पुरच्छिमेणं वीइवयइ उत्तरेणं आयरिता दाहिणेणं बीईयर' इत्येतद्विषये अपि द्वे सूत्रे वक्तव्ये, ते चैवम्- 'ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे० विउद्यमाणे वा० चंदरस वा सूरस्स वा लेसं पञ्चत्थिमेणं आवरिता पुरच्छिमेणं बीइययइ तथा णं पञ्चत्थिमेणं चंदे सूरे वा उबदंसेइ पुरच्छिमे णं राहू, एवं द्वितीयसूत्रेऽपि वक्तव्यं, 'एवं जया ण'मित्यादीनि दक्षिणपूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणपश्चिमो तरपूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणपूर्वोत्तरपूर्वदक्षिणपश्चिमविषयाण्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, 'ता जया ण'मित्यादि, सुगम, नवरमयं भावार्थः यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य वा लेश्यामावृत्य स्थितो भवति राहुस्तदा लोके एवमुक्तिर्यथा राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा गृहीत इति, यदा तु राहुर्लेश्यामावृत्य पार्श्वेन व्यतिक्रामति तदैवं मनुष्याणामुक्तिः यथा चन्द्रेण सूर्येण वा राहोः कुक्षिभिन्ना, राहोः कुक्षिं भित्त्वा चन्द्रः सूर्यो वा निर्गत इति भावः, यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य वा लेश्या| मावृत्य प्रत्ययष्वष्कते --- पश्चादवसति तदैवं मनुष्यलोके मनुष्याः प्रवदन्ति, यथा-राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा वान्त इति, For Parts Only ~ 585~ राहुक्रियाधिकारः सू १०४ ||२८९ ॥ wor Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत २०].....................--- प्राभतप्राभूत [-1, .....................-- मूल [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य वा मध्यभागेन लेश्यामावृण्वन् व्यतित्रजति गच्छति तदैवं मनुष्यलोके प्रवादो, यथा-चन्द्रः सूर्यो वा राहुणा व्यतिचरित इति, किमुक्तं भवति ?-मध्यभागेन विभिन्न इति, यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य या 'सपविखमिति सह पक्षरिति सपक्षं सर्वेषु पायेषु पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेध्यित्यर्थः, सह प्रतिदिग्भिः सप्रतिदिक, सास्वपि विदिक्षु इत्यर्थः, लेश्यामावृत्याधस्तिष्ठति तदेवं मनुष्यलोकोक्तिर्यथा राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा सर्वात्मना गृहीत इति । आह चन्द्रविमानस्य पञ्चैकपष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्येनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात् कथं राहु|विमानस्य सर्वात्मना चन्द्रविमानावरणसम्भवः ?, उच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजन मिति प्रमाणं तत्प्रायिकम-| बसेय, ततो राहोर्यहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं सम्भाव्यते इति न कदा(का)चिदनुपपत्तिः, अन्ये पुनरेवमाहुः-राहुवि-|| मानस्य महान् बहलस्ति मिश्ररश्मिसमूहस्ततो लघीयसाऽपि राहुविमानेन महता बहलेन तमिश्नरविमजालेन प्रसरमधिरोहता सकलमपि चन्द्रमण्डलमात्रियते ततो न कश्चिद्दोषः । अथ राहोभेदं जिज्ञासिषुः प्रश्नयति–ता कइविहे ण'-4 मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह--'दुविहे 'इत्यादि, द्विविधो राहुः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ध्रुवराहुः पर्वराहुश्च, तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति स ध्रुवराहुः, यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्यां अमावास्यायां वा यथाक्रम चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उप-| कारागं करोति स पर्वराहः, तत्र योऽसौ वराहुः स बहुलपक्षस्य कृष्णपक्षस्य-सम्बन्धिन्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथि | आत्मीयेन पञ्चदशेन भागेन पञ्चदशभाग २ चन्द्रस्य लेश्यामावृण्वन् तिष्ठति, तद्यथा-प्रथमाया-प्रतिपल्लक्षणायां तिथी प्रथम पञ्चदशभागं द्वितीयस्यां द्वितीय तृतीयस्यां तृतीयं यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदर्श, ततः पञ्चदश्यां तिथी चरम [१९९] SAMEauratan intamaturTNI ~586~ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत २०].....................--- प्राभतप्राभूत [-1, .....................-- मूल [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] समये रक्तो भवति-राहविमानेनोपरक्तो भवति, सर्वात्मना राहविमानेनापछादितो भवतीत्यर्थः, अवशेषे समये प्रति-IN 18 पद द्वितीयातृतीयादिकाले चन्द्रो रक्तश्च भवति विरक्तश्च भवति, देशेन राहुविमानेनाच्छादितो भवति देशतश्चानाच्छा-|राक्रिया (मल0) दित इत्यर्थः, शुक्लपक्षस्य प्रतिपद आरभ्य पुनस्तमेव पञ्चदशं २ भागं प्रतितिथि उपदर्शयन्-प्रकटीकुर्वन् तिष्ठति, धिकारः तद्यथा-प्रथमायां प्रतिपक्षणायां तिधौ प्रथम पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति द्वितीयायां- द्वितीयं एवं यावत् पञ्चदश्यां सू१०४ ॥२९॥ पौर्णमास्यां पञ्चदशं पञ्चदशभाग, चरमसमये-पौर्णमासीचरमसमये चन्द्रः सर्वात्मना विरक्तो भवति, सर्वात्मना प्रक-४ &ीटीभवतीत्यर्थः, लेशतोऽपि राहुविमानेनानाच्छादितत्यात, आह-शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे वा कतिपयान दिवसान यावत् 15 राहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते, यथा ग्रहणकाले पर्वराहुः , कतिपयांश्च दिवसान यावन्न तथा, ततः किमत्र कारणमिति । उच्यते, इह येषु दिवसेप्चतिशयेन तमसाऽभिभूयते शशी तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति, चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन प्रसरा-3 भावतो राहुविमानस्य यथावस्थिततयोपलम्भात् , येषु पुनश्चन्द्रो भूयान प्रकटो भवति तेषु न चन्द्रप्रभा राहुविमानेना-12 भिभूयते, किन्त्यतिबहुलतया चन्द्रप्रभयैव स्तोकं २ राहुविमानप्रभाया अभिभवस्ततो न वृत्ततोपलम्भः, पर्वराहुविमानं 2 च धूवराहविमानादतीव तमोबहुलं ततस्तस्य स्तोकस्यापि न चन्द्रस्य प्रभयाऽभिभवसम्भव इति तस्य स्तोकरूपस्यापि लवृत्तत्वेनोपलब्धिः, तथा चाह विशेषणवत्यां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-"वदृच्छेओ कइवयदिवसे धुवराहुणो| ॥२९॥ बिमाणरस । दीसह परं न दीसइ जह गहणे पबराहुस्स ॥१॥" आचार्य आह-अञ्चत्थं नहि तमसाऽभिभूयते जं ससी विमुचंतो । तेणं बट्टच्छेओ गहणे उ तमो तमोबहुलो ॥२॥" 'तत्व णं जे से'इत्यादि, तत्र योऽसौ पर्वराहुः स जघन्येन दीप अनुक्रम [१९९] SAREnatininamaran ~587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९९] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [२०], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [ १०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः पण मासानामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति, उत्कर्षतो द्वाचत्वारिंशतो मासानामुपरि चन्द्रस्य अष्टाचत्वारिं| शतः संवत्सराणामुपरि सूर्यस्य । सम्प्रति चन्द्रस्य लोके शशीति यदभिधानं प्रसिद्धं तस्यान्वर्थतावगमनिमित्तं प्रश्नं करोतिता कहं ते चंदे ससी आहितेति वदेजा ?, ता चंदस्स णं जोतिर्सिदस्स जोतिसरण्णो मियंके वि माणे कंता देवा कंताओ देवीओ कंताई आसणस पण खंभभंड मत्तो वगरणाई अप्पणाविणं चंदे देवे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कंते सुभे पिपदंसणे सुरू ता एवं खलु चंदे ससी चंदे ससी आहितेति वदेजा। ता कहं ते सूरिए आदिवे सूरे २ आहितेति वदेना?, ता सुरादीपा सभयाति वा आवलियाति वा आणापाशूति वा धोवेति वा जाव उस्सप्पिणिओसप्पिणीति वा, एवं खलु सूरे आदिचे २ आहितेति वदेजा। (सू०१०५) ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, ता चंद्र०चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, चंदप्पभा दोसिणाभा अधिमाली पभंकरा, जहा हेट्ठा तं चैव जाव णो वेव णं मेहुण वतियं, एवं सूरस्सवि णेतवं, ता चंदिमसूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणो केरिसगा कामभोगे पञ्चशुभवमाणा विहरंति?, ता से जहा णामते केई पुरिसे पढमजोद्दणुट्ठाणचलसमत्थे पढमजोबणुद्वाणबलसमत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तबीबाहे अत्थत्थी अत्थगवेसणताएं सोलसवासविप्पवसिते से णं ततो लद्धट्ठे कलकले अणहसमग्गे पुणरवि णियगघरं हवमागते पहाते कतबलिकम्मे कयको उपमंगलपायच्छिते सुद्धप्यावेसाई मंगलाई बस्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे मणुणं धालीपाकसुद्धं अट्ठारस For Parts Only अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-दोषस्य स्खलनाजन्य एका स्खलना वर्तते सूत्र क्रमांक १०५ द्वि-वारान् लिखितं ~588~ wor Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ १०५R - १०६ ] दीप अनुक्रम [२०० -२०१] प्राभृत [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [१०५२-१०६] आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ॥२९१ ॥ बंजणावलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे बाहिरतो दूतिघट्टम विचित्तउल्लो अचिल्लियतले बहुसमसुविभत्तभूमिभाए मणिरयणपणासितंधयारे कालागुरुपवर कुंदुरुका तु रुकधूवमघम घेतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूते तंसि तारिसगंसि सयणिसि दुहतो उष्णते मज्झेतगंभीरे सालिंगण वट्टिए पण्णत्तगंडविबोयणे सुरम्मे गंगापुलिनवालुया उद्दालसालिसए सुविरइयरयत्ताणे ओयवियखोमिय खोमदुगूलपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुयसंबुडे सुरम्मे आई गरूतचूरणवणीत तूलफासे सुगंध वर* कुसुमखुण्णसपणोवयारकलिते ताए तारिसाए भारियाए सद्धिं सिंगाराकार चारुवेसाए संगतहसितभणितचिट्टितसं लावविलास णिउणजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ताविरत्ताए मणाणुकूलाए एगंतरतिपसत्ते अण्णत्थ कच्छ मणं अकुवमाणे इहे सहकरिसरसरूवगंधे पंचविधे माणुस्सर कामभोगे पचणुभवमाणे विहरिजा, ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसए सातासोक्खं पचणुन्भवमाणे विहरति ?, उरालं समणाउसो !, ता तस्स णं पुरिसहस कामभोगेहिंतो एत्तो अनंतगुणविसिद्वतराए चेव वाणमंतराणं देवाणं कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहिंतो अनंतगुणविसिद्धतराए चेव असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं कामभोगा, असुरिंदवज्जियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो एत्तो अनंतगुणविसिद्धतरा चैव असुरकुमाराणं इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहिंतो. गहणक्खन्तता वाणं कामभोगा, गगणकख सतारारूवाणं कामभोगेहिंतो अनंतगुणविसितरा चेव चंदिमसूरियाणं देवाणं कामभोगा, For Parts Only ~589~ २० प्राभूतै चन्द्रादित्यान्वर्थेः सू १०५ कामभोगाः सू १०६ ॥२९१॥ wor Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२०], ... ......-- प्राभूतप्राभूत [-1, -------............... मलं [१०५R-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक -2 [१०५R -१०६] ता एरसिए णं चंदिमसूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो कामभोगे पञ्चणुभवमाणा विहरंति (सूत्र १०६) 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण केनान्वर्थेनेति भावः चन्द्रः शाशीत्याख्यात इति वदेता भगवानाह-'ता चंदस्स 'मिल्गादि, ता इति पूर्ववत् , चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य मृगाङ्क-मृगचिहे विमाने | अधिकरणभूते कान्ता:-कमनीयरूपा देवाः कान्ता देव्यः कान्तानि च आसनशयनस्तम्भभाण्डमात्रोपकरणानि भात्मनाऽपि | चन्द्रो देवो ज्योतिपेन्द्रो ज्योतिषराजः सौम्यः-अरौद्राकारः कान्त:-कान्तिमान् सुभगः सौभाग्ययुक्तस्यात् वल्लभो जनस्य प्रियं-प्रेमकारि दर्शनं यस्य स प्रियदर्शनः शोभनमतिशायि रूपं-अङ्गप्रत्यङ्कावयवसन्निवेशविशेषो यस्य स सुरूपः,ता-ततः एवं | खलु अनेन कारणेन चन्द्रः शशी चन्द्रः शशीत्याख्यात इति वदेत् , किमुक्तं भवति?-सर्वात्मना कमनीयस्यलक्षणमन्यर्थमा-18 |श्रित्य चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते, कथा व्युत्पत्त्येति, उच्यते, इह 'शश कान्ताविति धातुरदन्तश्चौरादिकोऽस्ति, चुरादयो हि | धातवोऽपरिमिता न तेषामियत्ताऽस्ति, केवलं यथालक्ष्यमनुसर्तव्याः, अत एव चन्द्रगोमी चुरादिगणस्यापरिमिततया पर-| मार्थतो यथालक्ष्यमनुसरणमवगम्य द्विवानेव चुरादिधातून पठितवान् न भूयसः, ततो णिगन्तस्य शशनं शश इति पञ्प्रत्यये पाश इति भवति, शशोऽस्यास्तीति शशी, स्वविमानवास्तव्यदेवदेवीशयनासनादिभिः सह कमनीयकान्तिकलित | इति भावः, अन्ये तु व्याचक्षते-शशीति सह श्रिया वर्तते इति सश्रीः प्राकृतत्वाच शशीतिरूपं, 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण केनान्वर्थेनेति भावः सूर आदित्यः २ इत्याख्यायते इति वदेत् 1, भगवानाह-'ता: | सूराइया'इत्यादि, सूर आदि:-प्रथमो येषां ते सूरादिकाः, के इत्याह-'समयाइति वा' समया-अहोरात्रादिकालस्य - दीप अनुक्रम - C- [२०० -२०१] SAREnatininamarani ~590~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूल [१०५R-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R -१०६] सूर्यप्रज्ञ- निविभागा भागाः, ते सूरादिकाः-सूरकारणाः, तथाहि-सूर्योदयमवधिं कृत्वा अहोरात्रारम्भका समयो गण्यते, नान्यथा, २० प्राभृते विवृत्तिः एवमावलिकादयोऽपि सूरादिका भावनीयाः, नवरमसोयसमयसमुदायात्मिका आवलिका असोया आवलिका एक चन्द्रादि(मल०) आनप्राणः, द्विपश्चाशदधिकत्रिचत्वारिंशच्छतसङ्ख्याबलिकाप्रमाण एक आनमाण इति वृद्धसम्पदायः, तथा चोक्तम्-"एगो कात्यान्यथा | आणापाणू तेयालीसं सया उ चायना । आवलियपमाणेणं अर्थतनाणीहि निद्दिडो ॥१॥" सप्तानप्राणप्रमाणः स्तोकः. सू१०५ २९२| कामभोगाः यावच्छब्दान्मुहूर्तादयो द्रष्टव्याः, ते च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयाः, एवं स्खलु' इत्यादि,एयमनेन कारणेन खलु-निश्चितः सू१०६ सूर आदित्यः२इत्याख्यात इति वदेत् , आदी भव आदि त्यो बहुलवचनात् त्यप्रत्यय इति व्युत्पत्तेः। ता चंदस्स ण'मित्यादि। सूत्रमग्रमहिपीविषयं पूर्ववद्वेदितव्यं, प्रस्तावानुरोधाच भूय उक्तमित्यदोषः। 'ता चंदित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चंद्रसूर्या Mणमिति वाक्यालङ्कारे ज्योतिपेन्द्रा ज्योतिपराजाः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-अवतिष्ठन्ते?, भगवानाहIMI'ता से जहे त्यादि, ता इति पूर्ववत् से इत्यनिर्दिष्टस्वरूपो नाम यथा कोऽपि पुरुषः प्रथमयीयनोद्गमे यदल-शारीरः प्राणस्तेन समर्थः, प्रथमयौवनोत्थानबलसमर्थया भार्यया सह अचिरवृत्तवीवाहा सन् अथ अर्थाथी अर्थगवेषणया-अर्थगयेपणनिमित्तं पोडश वर्षाणि यावत् विप्रोषितो-देशान्तरे प्रयास कृतवान् , ततः पोडशवर्षानन्तरं स पुरुषो लब्धार्थः-IA प्रभूतविढपितार्थः (कृतकार्य-निष्ठिताखिलप्रयोजनः) 'अणहसमग्ग'त्ति अनपं-अक्षतं न पुनरपान्तराले केनापि ॥२९॥ कचौरादिना विलुप्तं समग्रं-द्रव्यभाण्डोपकरणादि यस्य स तथा, स च पुनरपि निजकं गृहं शीघ्रमागतः, ततः सातः कृत बलिकम्मो कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धात्मा वेष्याणि-वेषोचितानि प्रयराणि वस्त्राणि परिहितो-निवसितः, 'अप्प-1 दीप अनुक्रम [२०० CASNA -२०१] ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूल [१०५R-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R ॐॐॐॐॐ2- 05-%25% -१०६] महग्याभरणालंकियसरीरे'इति अल्पैः-स्तोकैर्महाः महामूल्यैराभरणैरलङ्कृतशरीरो मनोज्ञं कलमौदनादि स्थाली-पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कं न सुपक्कं भवति तत इदं विशेषण, शुद्ध-भक्तदोषविवर्जितं, स्थालीपाकं च तत्त शुद्ध च स्थालीपाकशुद्धं, 'अट्ठारसर्वजणाउल मिति अष्टादशभिलोकप्रतीतैर्यजनैः-शालनकतकादिभिराकुलं अष्टादशव्यञ्जनाकुलं,अथवा अष्टादशभेदं च तत् व्यञ्जनाकुलं च अष्टादशव्यञ्जनाकुले, शाकपार्थिवादिदर्शनादू भेदशब्दलोपः, अष्टादश भेदा इमे-"सूओ १ यणो २ जवण्णं ३ तिण्णि य मंसाइ ६ गोरसो ७ जूसो ८। भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला हरियगं १२ डागो १३ ॥१॥ होइ रसालू य तहा १४ पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ । अट्ठारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥२॥” इदं गाथाद्वयमपि सुगम, नवरं मांसत्रयं जलजादिसत्कं यूपो-मुद्गतण्डुलजीरककड-18 भाण्डादिरसः भक्ष्याणि-खण्डखाद्यानि गुडलावणिका लोकप्रसिद्धा गुडपपटिका गुडधाना वा मूलफलानीत्येकमेव पदं । का द्वन्द्वसमासरूप हरितक-जीरकादि शाको-वस्तुलादिभर्जिका रसालू-मर्जिका तापक्षणमिदम्-"दो घयपला महुपलं दहिस्सी अद्धाढयं मिरिय बीसा । दस खंडगुल पलाई एस रसालू निवइजोग्गो ॥१॥” इति, पान-सुरादि पानीयं-जलं पानक-18| द्राक्षापानकादि शाकः-तक्रसिद्धः, एवंभूतं भोजनं भुक्तः सन् तस्मिन् तादृशे वासगृहे, किंविशिष्टे इत्याह-अन्तः सचिन कर्मणि 'बही दमियघट्टमट्टे'त्ति इमिए-सुधापाधवलिते घृष्टे पाषाणादिना उपरि घर्पिते ततो मृष्टे-मसणीकृते,IR तथा विचित्रेण-विविधचित्रयुक्नोलोचेन-चन्द्रोदयेन 'चिल्लिय'ति दीप्यमानं गृहमध्यभागे उपरितनं तलं यस्य | |तत्तथा तस्मिन् , तथा बहुसमा-प्रभूतसमः सुविभक्त:-सुविच्छित्तिको भूमिभागो यत्र तस्मिन् , तथा मणिरतमणाशिता-IN दीप अनुक्रम [२००-२०१] ~592~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], ----- --------- प्राभूतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मळ ॥२९३।। [१०५R -१०६] न्धकारे तथा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुकतुरुष्कधूपस्य यो गन्धो मघमघायमानः उद्भूतः-इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिराम- २० प्राभृते रमणीयं तस्मिन् , तत्र कुंदुरुक-सिल्हकं, तथा शोभनो गन्धः तेन कृत्वा (ग्रं०९०००) वरगन्धिक-वरो गन्धो वर-४ चन्द्रादिन गन्धः सोऽस्यास्तीति यरगन्धिक, 'अतोऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः, तस्मिन् , अत एव गन्धवर्तिभूते तस्मिन् , तारशे शय- त्यावर नीये 'उभयतः' उभयोः पार्श्वयोरन्नते मध्येन च-मध्यभागेन गम्भीरे 'सालिंगणवहिए'त्ति सहालिङ्गनवा-शरीर- सू १०५ प्रमाणेनोपधानेन वर्तते यत्तत्तथा, तथा 'उभयो बिन्योयणे'इति उभयोः प्रदेशयोः-शिरोऽन्तपादान्तलक्षणयोविंशो- कामभागा यणे-उपधानके यत्र तत्तथा, तत्र क्वचित् 'पण्णत्तगंडविब्योयणेत्ति पाठः तत्रैवं व्युत्पत्तिः-प्रज्ञया-विशिष्टकर्मविष सू १०६ यबुद्ध्या आप्ते-प्राप्ते अतीव सुप्तु परिकम्मिते इति भावः गण्डोपधानके यत्र तत्तथा तत्र, ओयवियखोमियदुगुल्लपट्टप-| माडिच्छायणे' ओयवियं-सुपरिकम्मितं क्षौमिक दुकूल-कापर्णासिकमतसीमयं वा वखं तस्य युगलरूपो यः पट्टशाटकः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र, 'रत्तंसुयसंखुडे' रक्तांशुकेन-मशकगृहाभिधानेन वस्त्रविशेषेण संवृते-समसन्तत आवृते 'आईणगरूयचूरनवणीयतूलफासे' आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भव- ति रुतं च-कापासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं च-म्रक्षणं तूलश्च-अर्कतूल इति द्वन्द्वः अत एतेपामिव स्पर्टी यस्य तत्तथा तस्मिन् , 'सुगन्धवरकुसुमचुण्णसपणोवयारकलिए' सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि ये च सुगन्धयभूर्णा:-M॥२९॥ पटवासादयो ये च एतद्व्यतिरिकास्तथाविधाः शयनोपचारास्तैः कलिते, तथा तादृशया वक्तुमशक्यस्वरूपतया पुण्यवतां | अयोग्यया 'सिंगारागारचारवेसाए'त्ति शृङ्गार:-शृङ्गाररसपोषकः आकार:-सन्निवेशविशेषो यस्य स शाराकारः इत्थं-13 दीप अनुक्रम [२०० -२०१] ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१०५R - १०६ ] दीप अनुक्रम [२०० -२०१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [२०], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [१०५२-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः भूतश्चारुः-शोभनो वेषो यस्याः सा तथाभूता तथा 'संगत हसियभणिय चिट्ठिय संलावविलासनिउणजुत्तोवयारकुसलाए' संगतं मैत्रीगतं गमनं सविलासं चङ्कमणमित्यर्थः हसितं सप्रमोदं कपोलसूचितं हसनं भणितं मन्मथोद्दीपिका विचित्रा भणितिश्चेष्टितं सकाममङ्गप्रत्यङ्गावयवप्रदर्शन पुरस्सरं प्रियस्य पुरतोऽवस्थानं संलापः प्रियेण सह सप्रमोदं सकामं परस्परं सङ्कथा एतेषु विलासेन - शुभलीलया यो निपुणः सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्त कामविषयपरमनैपुण्योपेत इत्यर्थः युक्तो देशकालोपपन्न उपचारस्तत्कुशलया अनुरक्तया कदाचिदप्यविरक्तया मनोऽनुकूलया भार्यया सार्द्ध मेकान्तेन रतिप्रसक्तो - रमण. प्रसक्तोऽन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन्, अन्यत्र मनःकरणे हि न यथावस्थितमिष्टभार्यागतं कामसुखमनुभवति, इष्टान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धरूपान् पञ्चविधान् मानुषान् - मनुष्यभवसम्बन्धिनः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्-प्रतिशब्द आभिमुख्ये संवेदयमानो विहरेद्-अवतिष्ठेत्, 'ता से ण' मित्यादि, तावच्छन्दः क्रमार्थः, आस्तामन्यदप्रेतनं वक्तव्यमिदं तावत्कध्यतां, स पुरुषः तस्मिन् 'कालसमये' कालेन तथाविधेनोपलक्षितः समयः अवसरः कालसमयस्तस्मिन् कीदृशं सातरूपं - आल्हादरूपं सौख्यं प्रत्यनुभवन् बिहरति १, एवमुक्ते गौतम आह- 'ओरालं समणाउसो' हे भगवन् ! श्रमण। आयुष्मन् ! उदारं-अत्यद्भुतं सातसौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति, भगवानाह - 'तस्स ण'मित्यादि, 'एसो' एतेभ्यस्तस्य पुरुषस्य सम्बन्धिभ्यः कामभोगेभ्य 'अनंतगुणविसिद्वतरा चैवत्ति अनन्तगुणा - अनन्तगुणतया विशिष्टतरा एव व्यन्तरदेवानां कामभोगाः, व्यन्तरदेव कामभोगेभ्योऽप्यसुरेन्द्रवर्णानां देवानां कामभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः, तेभ्योऽनन्तगुणविशिष्टतरा इन्द्रभूतानां असुरकुमाराणां देवानां कामभोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतरा ग्रहनक्षत्र For Park Use Only ~594~ wor Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----- --------- प्राभूतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रजप्तिवृत्तिः (मल०) ॥२९॥ [१०५R - -१०६] तारारूपाणां देवानां कामभोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्ट तराः कामभोगाः चन्द्रसूर्याणां, एतादृशान् चन्द्रसूर्या ज्योति- २० प्राभूते पन्द्रा ज्योतिपराजाः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति । सम्मति पूर्वमष्टाशीतिसशक्षाग्रहा उक्तास्तान् नाममाहमुप- अष्ट्राशीतिदिदर्शयिषुराह गुहा तस्य स्खलु इमे अट्ठासीती महम्गहा पं०, तं०-इंगालए वियालए लोहितके सणिकछरे आहणिए पाहणिए १०७ कणो कणए कणकणए कणविताणए १०कणगसंताणे सोमे सहिते अस्सासणो कजोवए कवरए अपकरए दुईभए संखे संखणाभे २० संखवणाभे कसे कसणाभे कंसवण्णाभे गीले णीलोभासे रुप्पे रुप्पोभासे भासे । |भासरासी ३० तिले तिलपुष्पवणे दगे दगवणे काये बंधे इंदग्गी धूमकेतू हरी पिंगलए ४० बुधे सुके यह-1।। |स्सती राह अगस्थी माणवए कामफासे धुरे पमुहे वियडे५० विसंधिकप्पेल्लए पहले जडियालए अरुणे अग्गिल्लए। काले महाकाले सोस्थिए सोवस्थिए बदमाणगे ६० पलंबे णिचालोए णिचजोते सयंपभे ओभासे सेयंकरे खेमकरे। आभंकरे पभंकरे अरए ७० विरए भसोगे वीतसोगे य विमले विवसे विवत्थे विसाल साले सुपते अणियट्टी एगजडी८०नुजडी कर करिए राषऽग्गले पुप्फकेतू भाव केतू, संगहणी-इंगालए विद्यालए लोहितके सणिकछरे । चेव । आहुणिए पाहुणिए कणकसणामावि पंचेच ॥१॥ सोमे सहिते अस्सासणे य कजोबए य कबरए। २९४॥ |अयकरए दुंदुभए संलसणामावि तिण्णेव ॥ २॥ तिनेव कंसणामा णीले रुप्पी य हुंति चत्तारि। भास तिल पुष्करपणे दगवणे काल बंधे य ॥ ३ ॥ इंदग्गी धूमकेतू हरि पिंगलए बुधे य सुके य । वहसति राहु अगस्थी - दीप अनुक्रम [२००-२०१] OCO-NCC-- ~595~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [२०], .... -- प्राभतप्राभत [-1, ............... .. मूलं [१०७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: E प्रत k25-- सूत्रांक [१०७ -१०८] गाथा: |माणवए कामफासे य ।। ४ ।। धुरण पमुहे विपडे विसंधिकप्पे तहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अ-11 ग्गिल काले महाकाले ॥५॥ सोस्थिय सोवत्थिय बद्धमाणगे तथा पलंघे य । णिचालोए णिमुजोए सयंपभे|| चेव ओभासे ॥ ६॥ सेयंकर खेमंकर आभंकर पभंकरे य बोद्धछ । अरए विरए य तहा असोग तह बीतसोगे। य॥ ७॥ विमले वितत विवत्थे विसाल तह साल मुवते चेव । अणियट्टी एगजडी य होह बिजडी य बोद्धयो ॥ ८॥ कर करिए रायऽग्गल योद्धचे पुष्फ भाव केतू या अट्टासीति गहा खलु णेयवा आणुपुधीए ॥९॥(सूत्रं १०७) इति एस पार उत्था अभवजणहिययदुल्लहा इणमो । उकित्तिता भगवता जोतिसरायस्त पण्णत्ती ॥१॥ एस गहिताबि संता थवे गारवियमाणिपडिणीए । अबहुस्सुए पदेया तधिवरीते भवे देवा ॥२॥ सद्धाचितिउट्टाणुकछाहकम्मबलविरियपुरिसकारहि । जो सिक्खिओघि संतो अभायणे परिकहेकाहि ॥ ३॥ सो पवयणकुलगणसंघबाहिरो गाणविणपपरिहीणो । अरहतधेरगणहरमेरं फिर होति बोलीणो ॥ ४॥ तम्हास घिति उवाणुच्छाहकम्मपलविरियसिक्खिणाणं । धारेयचं णियमा ण य अधिणएस दायचं ॥५॥ .. इइ संगहणि गाहा |१०८] चन्द्रप्रज्ञप्ति संपूर्ण || ग्रन्थाग्रं २२०० दीप अनुक्रम [२०२-२१६] | • अत्र विंशति प्राभृतं परिसमाप्तं ~596~ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभत [२०], .... -- प्राभतप्राभत [-1, ............... .. मूलं [१०७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ i सूत्रांक [१06 -१०८] गाथा: 'तत्थ खलु इत्यादि, तत्र-तेषु चन्द्रसूर्यनक्षत्रतारारूपेषु मध्ये ये पूर्वमष्टाशीतिसङ्ख्या ग्रहाः प्रज्ञप्ताः ते इमे, तद्यथा- २० प्राभृते प्तिवृत्तिः दा'इंगालए'इत्यादि सुगम, एतेषामेव नाम्नां सुखप्रतिपत्त्यर्थं सहणिगाधाषटमाह-"इंगालए वियालए लोहियके सणि- अष्ट्राशीतिः (मल) छरे पेव । आहुणिए पाहुणिए कणगसनामावि पंचेव ॥१॥ सोमे सहिए अस्सासणे या कजोगए य कवरए । अयकर गुहार पादुंदुभए वि य संखसनामावि तिन्नेव ॥२॥ तिन्नेव कंसनामा नीले रुप्पी य हुँति चत्तारि । भासतिलपुष्फवन्ने दगवन्ने सू१०५ काय बंधे य ॥ ३ ॥ इंदग्गि धूमकेऊ हरि पिंगलए बुधे य सुक्के य । वहसइ राह अगरछी माणयगे कामफासे य ॥४॥121 धुरए पमुहे वियडे विसंधिकप्पे तहा पहले य । जडियालए य अरुणे अग्गिल काले महाकाले॥५॥ सोस्थिय सोबमास्थियए वद्धमाणग तहा पलंवे य । निच्चालोए निच्चुलोए सर्यपभे चेव ओभासे ॥ ६ ॥ सेयंकर खेमकर आभंकर प*-- लाकरे य धोद्धये । अरए विरए य तहा असोग तह बीयसोगे य॥७॥ विमले वितत विवरथे विसाल तह साल सुथए। चेव । अनियट्टी एगजडी य होइ थियडी य बोद्धये ॥ ८॥कर करिए रायऽग्गल बोजवे पुष्फ भाव केऊ य । अहासीइ गहा खलु नायबा आणुपुबीए ॥९॥" आसां व्याख्या-अङ्गारकः १ विकालकः २ लोहित्यकः ३ शनैश्चरः ४ आधु-12 निकः ५ प्राधुनिकः ६ 'कणगसनामावि पंचेव'त्ति कनकेन सह एकदेशेन समानं नाम येषां ते कनकसमाननामा-1 |नस्ते- पश्चैव प्रागुक्तक्रमेण द्रष्टव्याः, तद्यथा-कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानका १० कणसन्तानका ११ ॥२९५।। का'सोमे'त्यादि सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कर्वटकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः १८ शंख-12 समाननामस्त्रयस्तद्यथा-शः १९ शहनाभः २० शडवर्णाभः २१ । 'तिन्नेबे त्यादि त्रयः कंसनामाना, तद्यथा-सः। दीप अनुक्रम [२०२-२१६] ~597~ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१०७ - १०८] गाथा: दीप अनुक्रम [२०२ -२१६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२०], प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [१०७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीत वृत्तिः Jale Etication intemation | २२ कंसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ 'नीले रुप्पी य हवंति चत्तारि'त्ति नीले रुप्पे च शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसम्भवात् सर्वसङ्ख्यया चत्वारः, तद्यथा - नीलः २५ नीलावभासः २६ रूप्पी २७ रूप्यवभासः २८ भासेति नामद्वयोपलक्षणं तद्यथा - भस्म २९ भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णकः २२ दकः ३३ दकवर्णः २४ कायः ३५ वन्ध्य ३६ इन्द्राग्निः ३७ धूमकेतुः ३८ हरिः ३९ पिङ्गलः ४० बुधः ४१ शुक्रः ४२ बृहस्पतिः ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७ घुरः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसंधिकल्पः ५१ प्रकल्पः ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७ स्वस्तिका ५८ सौवस्तिकः ५९ वर्द्धमानकः ६० प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयंप्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ खेमंकरः ६७ आभंकरः ६८ प्रभङ्करः ६९ अरजा ७० विरजा ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ विवर्त्तः ७४ त्रिवस्त्रः ७५ विशालः ७६ शालः ७७ सुत्रतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० द्विजटी ८१ करः ८२ करिकः ८३ राजः ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतुः ८८ सम्प्रति सकलशास्त्रो उपसंहारमाह-- "इय एस पागडत्था अभवजणहिययदुल्लभा इणमो उक्कित्तिया भगवई जोइसरायस्स पन्नत्ती ॥ १ ॥" इति, एवं उच्केन प्रकारेण अनन्तरमुद्दिष्टस्वरूपा प्रकटार्था-जिनवचनतत्त्ववेदिनामुत्तानार्थी, इयं चेत्थं प्रकटार्थापि सती अभव्यजनानां हृदयेन पारमार्थिकाभिप्रायेण दुर्लभा, भावार्थमधिकृत्या भव्यजनानां दुर्लभेत्यर्थः अभव्यत्वादेव तेषां सम्यग् जिनवचन परिणतेरभावात् उत्कीर्त्तिता-कथिता भगवती-ज्ञानैश्वर्या देवता ज्योतिपराजस्य - सूर्यस्य प्रज्ञप्तिः । एषा च स्वयंगृहीता सती यस्मै न दातव्या तत्प्रतिपादनार्थमाह-- 'एसा गहियावि' इत्यादि गाथाद्वयं, एषा-सूर्यप्रज्ञप्तिः PornPrice Use Only ★ अत्र विंशति प्राभृतं परिसमाप्तं तत् पश्चात् उपसंहार-गाथा: आरम्भाः ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभत [२०], .....---- प्राभूतप्राभूत [-], ------ ---- मूलं [१०७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७-१०८] गाथा: सूर्यप्रज्ञ- ज्ञ- स्वयं सम्यक्करणेन गृहीतापि सती "व्यत्ययोऽप्यासा"मिति वचनाच्चतुर्थ्यथें सप्तमी, ततोऽयमर्थः-धद्धे इति स्तब्धाय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयभ्रंशकारिणे, 'गारविय'त्ति, ऋयादि गौरवं सञ्जातमस्येति गौरवितस्तस्मै ऋद्धिरस- भाभूत सातानामन्यतमेन गौरवण गुरुतरायेति भावः, ऋदयादिमदोपेतो ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पमपीदं सूर्यप्रज्ञप्तिप्रकीर्णक- योग्यो माचार्यादिकं च तद्वेत्तारमवज्ञया पश्यति, सा चावज्ञा दुरन्तनरकादिप्रपातहेतुरतस्तदुपकारायैव तस्मै दानप्रतिषेधः, ॥२९६॥ इयं च भावना स्तब्धमान्यादिष्वपि भावनीवा, तथा मानिने-जात्यादिभदोपेताय प्रत्यनीकाय-दूरभन्यतया अभय तया वा सिद्धान्तबचननिकुट्टनपराय, तथा अल्पश्रुताय-अवगाढस्तोकशास्त्राय, स हि जिनवचनेषु (अ)सम्यग्भावितत्वात शब्दार्थपर्यालोचनायामक्षुण्णत्वाच्च यथावत्कथ्यमानमपि न सम्यगभिरोचयते इति न देया, किन्तु तद्विपरीताय दात५व्या भवेत् , भवेदिति क्रियापदस्य सामर्थ्यलब्धावप्युपादानं दातव्यत्वावधारणार्थ, तद्विपरीताय दातम्यैव नादातव्या. अदाने शास्त्रव्यवच्छेदप्रसक्त्या तीर्थव्यवच्छेदप्रसक्तेः, एतदेव व्यक्ती कुर्वन्नाह-'सत्यादि, श्रद्धा-श्रवणं प्रति बाच्छा धृतिः-विवक्षितं जिनवचनं सत्यमेव नान्यथेति मनसोऽवष्टम्भः उत्थान-श्रषगाय गुरु प्रत्यभिमुखगमनं उत्साहःश्रवणविषये मनसः उत्कलिकाविशेषः यद्वशादिदानीमेव यदि मे पुण्यवशात सामग्री सम्पद्यते शृणोमि च ततः शोभनं I भवतीति परिणाम उपजायते कर्म-वन्दनादिलक्षणं बलं-शारीरो वाचनादिविषयः प्राणः वीर्य-अनुप्रेक्षायां । X२९॥ सूक्ष्मसूक्ष्माथोंहनशक्तिः पुरुषकारः-तदेव वीर्य साधिताभिमतप्रयोजन, एतैः कारणैः यः स्वयं शिक्षितोऽपि-10 गृहीतसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रार्थोभयोऽपि सन् यो दाक्षिण्यादिना अन्तेवासिनि अभाजने-अयोग्ये प्रतिक्षिपेत्-सूत्रतो दीप अनुक्रम [२०२-२१६] ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१०७ - १०८] गाथा: दीप अनुक्रम [२०२ -२१६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [१०७] + गाथा: ..आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः प्राभृत [२०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. अर्थत उभयतो वा न्यसेत् 'सो पयवणेत्यादि स प्रवचनकुलगणसङ्घबाह्यो ज्ञानविनयपरिहीणो- ज्ञानाचारपरिहीणो भगवदर्हत्स्थविरगणधरमर्यादां-भगवदर्हदादिकृतां व्यवस्थां भवति किल व्यतिक्रान्तः, किलेत्याप्तवादसूचकं, इत्थमाप्तवचनं व्ययस्थितं यथा स नूनं भगवदर्हदादिव्यवस्थामतिक्रान्त इति, तदतिक्रमे च दीर्घसंसारिता । 'तम्हे 'त्यादि, तस्माद् धृत्युत्थानोत्साहक र्म्मबलवीर्यैर्यत् ज्ञानं सूर्यप्रज्ञत्यादि स्वयं मुमुक्षुणा सता शिक्षितं तन्नियमादात्मन्येव धर्त्तव्यं, न तु जातुचिदप्यविनीतेषु दातव्यं, उक्तप्रकारेण तद्दाने आत्मपरदीर्घसंसारित्वप्रसक्तेः, तदेवमुक्तः प्रदानविधिः । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां विंशतितमं प्राभृतं समाप्तं मुनिश्री दीपरत्नसागरेण संकलितः (आगमसूत्र १७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” परिसमाप्तः For Park Use Only ~600~ andrary org Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [20], --- --------- प्राभृतप्राभृत -], --------------- मूलं [107] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [17], उपांग सूत्र - [6] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति: / प्रत सूर्यप्रज्ञd सूत्रांक [108] प्तिवृत्तिः (मल०) वृत्तिकारेण कृता अंतिम मंगल-आदि गाथा: // 297|| दीप अनुक्रम [217] वन्दे यथास्थिताशेषपदार्थप्रतिभासकम् / नित्योदितं तमोऽस्पृश्य, जैनसिद्धान्तभास्करम् // 1 // विजयन्तां गुणगुरवो गुरवो जिनतीर्थ भासनैकपराः / यद्वचनगुणादहमपि जातो लेशेन पटुबुद्धिः // 2 // चंद्र विज्ञप्तिमिमामतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् / यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु कृती // 3 // PORRIER2ERICARDAMADRAMANARADHET इति श्रीमलयगिरिविरचिता टीकायुक्ता चन्द्रप्रज्ञप्ति: समाप्ता // SARERatanimamENT मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र 17) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” परिसमाप्त: ~601~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 17 “चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्र” |मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्तिः] | हस्तप्रत एवं सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मुद्रित प्रत आधारेण। (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~602 ~