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________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [२०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१७], उपांग सूत्र [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल०) 'जाब राजा जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए' इति, अत्र यावच्छब्दादिदमोपपातिकप्रन्थोक्तं द्रष्टव्यं-'तए णं सा महइमहालिया परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हडतुडा समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आंयाहिणपयाहिणं करेइ करिता बंदर नर्मसह वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी- सुयक्खाए णं भंते ! निम्गंथे २ पावयणे, नत्थि य केइ अने समणे वा माहणे वा परिसं धम्ममा इक्खिसए, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउथ्भूया तामेव ॥३॥ * दिसं पडिगया, तए णं से जियसत्तू राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सुच्चा निसम्म हडतुडे जाव हयहि* यए समणं भगवं महावीरं बंदर नर्मसह वंदित्ता नर्मसित्ता पसिणाई पुच्छइ पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएइ परिवाइत्ता * उठाए उडाइ उठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव एरिसं धम्ममाइक्लित्तए, एवं वइत्ता हत्थि दुरूहर दुरूहित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाओ माणिभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए' (सू. ३५० ३६-३७) इति इदं च सकलमपि सुगमं, नवरं यामेव दिशमवलम्ब्य किमुक्तं भवति ? - यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतःसमवसरणे समागतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । समणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती णामे (मं) अणगारे गोतमे गोणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसंघयणे जाव एवं बयासी (सूत्रं "ते काले णं तेणं समए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामे अणगारे गोयमे Education International For Park Use Only ~ 19~ प्रस्तावना. ॥ ३ ॥
SR No.004117
Book TitleAagam 17 CHANDRA PRAGYAPTI Moolam evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDeepratnasagar
Publication Year2014
Total Pages602
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandrapragnapti
File Size129 MB
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