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आगम
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चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभृत [६], ---------------------- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१७], उपांग सूत्र - [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३८]
जोएंति, ता तिन्नि नक्खत्ता जोयंति, तं०-सतिभिसया पुवासाढवती उत्तरापुट्टवता, ता आसोदिण्णं पुषिणमं ४ कति णक्खत्सा जोएंति , ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-रेवतीय अस्सिणी य, कत्तियणं पुण्णिम कति णक्वत्ता जोएंति !, ता दोणि णक्वत्ता जोएंति तं०-भरणी कत्तिया य, ता मागसिरीपुन्निम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोषिण णक्वत्ता जोएंति, तं०-रोहिणी मग्गसिरो य, ता पोसिपणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति , ता तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-अहा पुणवसू पुस्सो, ता माहिण्णं पुषिणम कति णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि नक्खत्ता जोयंति, तं०-अस्सेसा महा य, ता फग्गुणीण्णं पणिम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-पुषाफरगुणी उत्तराफग्गुणी य, ता चित्तिषणं पुषिणमं कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोणितं०-हत्थो चित्ता य, ता विसाहिणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति !, दोषिण णक्खत्ता जोएंति तं०-साती विसाहा य, ता जेट्ठामूलिण्णं पुण्णिमालासिपणं कति णक्खत्ता जोएंति , ता तिन्नि णक्खत्ताजोयंति, सं०-अणुराहा जेट्ठा मूलो, आसाढिपणं पुषिणम कति णक्खत्सा जोएंति , ता दो णक्खत्ता जोएंति, तं-पुवासाढा उत्तरासादा (सूत्रं ३८)॥
'ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं । केन प्रकारेण केन नक्षत्रेण परिसमाप्यमाना इत्यर्थः, पौर्णामास्य आख्याता, अन पोर्णामासीग्रहणममावास्योपलक्षणं, तेन कथममावास्या अभ्याख्याता इति वदेत् , एवमुक्ते भगवानाह'तस्थेत्यादि, तत्र-तासां पौर्णमासीनाममावास्यानां च मध्ये जातिभेदमधिकृत्य खस्विमा द्वादश पौर्णमास्यो द्वादश
दीप
अनुक्रम
SAREaratunnational
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