SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ['चन्द्रप्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा प्रवर्तमान काळमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति आगम बहुलतया एक सामान ही प्राप्त होते है. नंदीसूत्र एवं पक्खिसूत्रमें ये दोनों आगम अलगअलग ही गिनवाए है, ये दोनों आगमो को उत्तराध्ययन सूत्र की वृत्तिमे अलग-अलग अंगसूत्रो के उपांग बताये है, फिरभी कौनसे काल में ये दोनों आगम एक सामान जैसे हो गए, इसका मुझे पता नहीं है। मैंने तो L. D.Institute of indology में से 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' की मलयगिरीजी रचित वृत्ति की हस्तप्रतमें से इस आगम का संकलन किया है, फिर इसकी तुलना 'सूर्यप्रज्ञप्ति' से की, तब मुझे पता चला की 'चन्द्रप्रज्ञप्ति में मलयगिरिजी ने आरम्भमें चार गाथा । लिखी है जो 'सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्तिमें नहीं देखी, जबकी सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रशस्तिमें एक ऐसी गाथा है, जो चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्रमे नहीं है । इसके अलावा प्रत्येक प्राभृत, प्रतिपत्ति आदि विषयवास्तु दोनों आगमो मे सामान ही है, हा, दोनों में किंचित पाठांतर मिले थे, हमने इसको इस संकलनमें स्थान दे दिया है। [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रम् के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति दवारा प्रकाशित हई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | [२] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" सूत्र की हस्तप्रत २२ x ९ से.मि. थी, जो 'मुनि माणेक की प्रेरणा से संवत १८५६ में कार्तिक वद-७ को 'बोरसद में पटेल नाथाभाई सनाभाई नामक लहिया ने पूर्ण की थी. हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो का प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे परिवर्तित गाथा एवं पातः के अलावा पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर प्राभत, प्राभतप्राभूत और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा प्राभूत, प्राभूतप्राभूत एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्राभूत, प्राभृतप्राभूत और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~
SR No.004117
Book TitleAagam 17 CHANDRA PRAGYAPTI Moolam evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDeepratnasagar
Publication Year2014
Total Pages602
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandrapragnapti
File Size129 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy