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उपासकाध्ययन
यह श्लोक सांख्य दर्शनके महान् आचार्य बासुरिके मुखसे कहलाया गया है, इसमें कहा है-हंस, खा. पो, खेल कूद और निःशंक होकर विषयोंको भोग । यदि तूने कपिल मतको जान लिया तो तुझे मोक्षका सुस भी मिल जायेगा।
देवसेनने अपने भावसंग्रहमें भी (गाथा १७९-१८० ) सांस्यमतके विषयमें इसी तरहको बातें कही है और उसे दयाधर्मसे रहित बतलाया है; किन्तु माठर वृत्तिमें इस बातको सिद्ध किया है कि वैदिक हिंसा पापका कारण है। हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयको टोकामें गुणरत्न सूरिने भी लिखा है कि सांस्य वैदिक क्रियाकाण्डको नहीं मानता क्योंकि उसमें हिंसा होती है। किन्तु सोमदेवने बोडोंकी तरह सांख्योंको भी मांसभक्षी कहा है। शायद इसीसे देवसेनने उन्हें जीवदयासे रहित कहा है। बौद्ध दर्शन
सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें मोक्षके सम्बन्धमें बौद्ध दर्शनके तीन मन्तव्योंको उपस्थित किया है। पहला मन्तव्य यह है कि नैरात्म्य भावनाके अभ्याससे निर्वाण लाभ होता है। नैरात्म्यका अर्थ है आत्माका अभाव । बौद्धमतके अनुसार मनुष्य स्कन्धोंका एक सम्मिश्रण मात्र है। जैसे 'गाड़ी' शब्द धुर, पहिये तथा अन्य अवयवोंके संयोजनसे बनी एक वस्तुका वाचक मात्र है यदि हम उसके प्रत्येक अवयवकी परीक्षा करें तो हम इसी परिणामपर पहुँचते हैं कि गाड़ी स्वयं अपने में कोई एक वस्तु नहीं है। उसी तरहसे आत्मा भी स्कन्धोंका एक समुदाय मात्र है।
सोमदेवने यशस्तिलकके पांचवें आश्वास (पृ. २५२) में भी बौद्ध सुगतकीतिके द्वारा नैरात्म्यवादका कथन कराया है। सुगतकीर्ति कहता है कि आत्माका आग्रह हो प्राणियोंके महामोहरूपी अन्धकारका कारण है। उसके द्वारा उद्धृत दो कारिकाएं इस प्रकार हैं,
"यः पश्यत्यात्मानं तस्मात्मनि भवति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहास्सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषास्तिरकुरुते ।। भारमनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहहषौ।
भनयाः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ॥". जो मनुष्य आत्माको मानता है उसका आत्मामें शाश्वत स्नेह होता है। आत्मस्नेहसे सुखकी तृष्णा होती है, तृष्णा दोषोंकी उपेक्षा करती है। दूसरी बात यह है कि आत्माको माननेपर 'पर' यह संज्ञा होना अनिवार्य है और 'स्व' तथा 'पर'का भेद होनेसे राग और द्वेष होते हैं । ये दोनों ही सब दोषोंके मूल है। मोक्षके सम्बन्धमें भी सुगतकोति एक श्लोक उपस्थित करता है,
"यथा स्नेहमयादीपः प्रशाम्यति निरन्वयः।।
तथा क्लेशक्षयाज्जन्तुः प्रशाम्यति निरन्वयः ॥" जैसे तेलके समाप्त हो जानेपर दीपक शान्त हो जाता है और अपने पीछे कुछ भी नहीं छोड़ जाता, वैसे ही क्लेशोंका क्षय होनेपर यह मनुष्य भी निरन्वय शान्त हो जाता है।
सोमदेवने उपासकाध्ययनमें भी इसी आशयके अश्वघोषके सौन्दरनन्दकाम्यसे दो प्रसिद्ध श्लोक 'दिर्शन कांचिद्विदिश न कांचित' आदि उधत किये हैं।
प्राचीन बौद्ध ग्रन्थोंमें क्लेशक्षयको निर्वाण कहा है। मोह, राग और द्वेष क्लेश है। इन्हींके अन्तका नाम निर्वाण है। बौद्ध दृष्टिसे 'मुक्त होने के बाद मुक्त हुए प्राणीका क्या होता है' यह प्रश्न अनावश्यक है। इस प्रकारके प्रश्नके उत्तरमें बुद्धने प्रश्न करनेवालेसे पूछा, "क्या तुम बता सकते हो बुझ जानेपर दीपककी
1. "राम्यादिनिवेदितसंभावनातो भावनातो इति दाबलशिष्याः"-सो० उपा०, पृ० २