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उपासकाध्ययन
और देवसेनके भावसंग्रहमें भी यही कहा है। सोमदेवने त्रिकमतको भी कुलाचार्यके समान ही बतलाया है । त्रिकमतके अनुसार मुखको मदिरासे सुवासित करके और मांससे हृदयको प्रसन्न करके, तथा बायीं ओर एक स्त्रोको बैठाकर मदिरासे शिवको पूजा करे और स्वयं शिव-पार्वती बनकर योनिमुद्राका प्रदर्शन करे। यह तान्त्रिक पद्धतिका यथार्थ चित्रण है। कुलार्णवतन्त्र और कुलचूडामणितन्त्रमें ऐसा ही लिखा है। शराब और मांसका सेवन इस मतका उत्कृष्ट रूप है । अन्य स्त्रीके सम्बन्धमें कुलचूडामणितन्त्र में लिखा है कि पूजक रात्रिके समय जब पूजाके लिए किसी स्त्रीके साथ बैठे तो वह स्त्री लाल वस्त्र धारण किये हो और बहुमूल्य स्वर्णालंकारोंसे सज्जित हो। वह स्त्री पूजकके बायों ओर एक गद्दीपर बैठे और पूजक दोनों हाथोंसे वेष्टित करके उसका आलिंगन करे। यह बात स्मरणीय है कि बिना किसी भेदभावके किसी भी जातिकी स्त्रोकी पूजा तान्त्रिक पद्धतिका एक मुख्य लक्षण है। किन्तु धार्मिक विधिमें मद्य और मांसका सेवन तथा स्त्री सहवासकी स्वच्छन्दता अवश्य ही दुराचारकी ओर ले जाती है। अतः सोमदेवने कोलमतके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसका आधार वही है जो उन्होंने अपने समयमें देखा और सुना होगा । कुलार्णवतन्त्र (अध्याय ९) में सोमदेवकी तरह लिखा है "कोलिकोंके मतमें अपेय भी पेय, अभक्ष्य भी भक्ष्य और असेव्य भी सेव्य हो जाता है। तथा कौलिकोंके मतमें न कोई विधि है और न कोई निषेध है, न पुण्य है और न पाप है, न स्वर्ग है और न नरक है।" इसीसे सोमदेवने कौलिक मतकी आलोचना करते हए लिखा है कि यदि इस प्रकारको स्वच्छन्द प्रवृत्तिसे मोक्ष प्राप्त हो सकता है तो कौलिकोंसे भी पहले ठगों और पापियोंको मोक्ष मिलना चाहिए ।
यशस्तिलकके प्रथम आश्वासमें भी त्रिकमतका निर्देश है । टीकाकार श्रुतसागरने त्रिकमतका अर्थ शव मत किया है। स्कन्दपुराण प्रभासखण्ड ( अध्याय ११९) में कहा है कि जब प्रभास क्षेत्रकी महादेवोने बल और अतिबल नामक असुरोंकी सेनाका संहार किया तो बचे हए असुरोंमें से कुछ कौल हो गये और मांस, मदिरा तथा स्त्रीसेवनमें रत हो गये। कापालिक
सोमदेवने अपने उपासकाचारके आरम्भमें लिखा है कि यदि कोई जैन मुनि किसी कापालिकसे छ जाये तो उसे स्नान करना चाहिए। यमुनाचार्यके आगमप्रामाण्य ( ई० १०५० के लगभग ) में कापालिकोंकी छह मुद्राएँ (चिह्न) बतलायी है-'कर्णिका', 'कुण्डल','माला', 'शिखामणि', 'यज्ञोपवीत' और 'शरीरमें भस्म।' तथा दो उपमुद्राएं बतलायी है-'कपाल' और 'खट्वांग ।' तथा लिखा है कि जो इन छह मुद्राओंके तत्त्वको जानता है और परमुद्रामें विशारद होता है वह भगासनसे स्थित आत्माका ध्यान करके निर्वाणको प्राप्त करता है।
कृष्णमिश्रके प्रबोधचन्द्रोदय नाटकके तीसरे अंकसे भी कापालिकोंके सम्बन्धमें कुछ जानकारी प्राप्त होती है। उसमें जो कापालिक उपस्थित किया गया है, वह मनुष्यकी अस्थियोंकी माला पहने हए है, श्मशान भूमिमें रहता है, खप्परका पात्र रखता है। अपने धर्मका वर्णन करते हुए वह कहता है कि नरमेध यज्ञके साथ शिवके महाभैरव रूपको पूजना चाहिए तथा खप्परसे मदिरापान करना चाहिए । और रुधिरसे महाभैरवीको पूजा भी करनी चाहिए। जगत्के विषयमें वह कहता है कि आपसमें भिन्न होते हुए भी यह जगत शिवसे भिन्न नहीं है। मुक्तिके विषयमै उसका कहना है कि केवल जीवकी स्थितिरूप मक्ति तो पाषाणके तुल्य है। उसे कौन चाहेगा। बिना विषयके सुख नहीं देखा जाता। अतः मुक्त जीव शिवकी तरह
१. "अपेयमपि पेयं स्यादमक्ष्यं भक्ष्यमेव च । अगम्यमपि गम्यं स्यात् कौलिकानां कुलेश्वरि ।"
"न विधिन निषेधः स्यान पुण्यं न च पातकम् । न स्वर्गों नैव नरकः कौलिकानां कुलेश्वरि ॥" २. सो० उ० श्लोक २४ । ३. "तथाहुः–मुद्रिकाषटकतत्त्वज्ञः परमुद्राविशारदः। मगासनस्थमात्मानं ध्यात्वा निर्वाणमृच्छति ॥"
तथा-"कर्णिकारुचकं चैव कुण्डलं च शिखामणिम् । भस्मयज्ञोपवीतं च मुद्राषटकं प्रचक्षते ॥ कपालमथ खट्वाङ्गमुपमुद्रे प्रकीर्तिते। आभिर्मुद्रितदेहस्तु न भूय इह जायते ।"