________________
उपासकाध्ययन
शिवं शक्तिविनाशेन ये वाम्छन्ति नराधमाः । ते भूमिरहिताद् बीजात् सन्तु नूनं फलोत्तमाः ॥"
-यशस्ति. भाग २ पृ. २५, "अद्वैतान परं तत्त्वं न देवः शंकरात् परः । शेवशासात् परं नास्ति भुक्तिमुक्तिप्रदं वचः ॥' २१९ ॥
-सो० उपासका। पहले श्लोकमें बतलाया है कि शास्त्र. गरु, ज्ञान और शिव, ये सब प्रपंच अर्थात् सांसारिक पदार्थोसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते। दूसरे श्लोकमें शिव और शक्तिके सम्बन्धपर जोर दिया गया है और बतलाया है कि शक्तिको स्वीकार किये बिना शिवको स्वीकार करना वैसा ही है जैसे बिना भूमिके बीजसे फलोत्पादन करना। तीसरे श्लोकमें बतलाया है कि अद्वैतसे श्रेष्ठ अन्य तत्व नहीं, शिवसे श्रेष्ठ दूसरा देव नहीं और शव शास्त्रसे श्रेष्ठ भुक्ति और मुक्तिको देनेवाला अन्य शास्त्र नहीं है।
ये तीनों श्लोक शैव धर्मके अद्वैत मतके सिद्धान्तोंको बतलाते हैं। शिवपुराण (कैलास संहिता १०-१६६ )में शैवमतके लिए 'अद्वैत शैववेद' शब्दका प्रयोग किया गया है और लिखा है कि वह द्वैतको सहन नहीं करता। एक अन्य शव ग्रन्थमें केवल अद्वतको ही स्वीकार किया है और प्रपंच तथा संसारको वास्तविकताको अस्वीकार किया है। स्वयं प्रकाशमान अद्धत चेतने और अचेतनके भेदको लिये हुए यह समस्त जगत् शिवमात्र ही है, शिवकी शक्तिसे ही उसकी रचना हुई है । शिवसे भिन्न कुछ भी नहीं है।
शिवकी शक्ति उसीको इच्छाके अनुसार सृष्टिको रचना करती है। उसी अनादि अनन्त शक्तिको माया कहते हैं, वही इस भौतिक विश्वका कारण है। जैसे प्रकाश और अन्धकारका कोई सम्बन्ध नहीं, वैसे ही प्रपंच और शिवका भी कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु जैसे फेर्न और लहरें समुद्रसे उत्पन्न होकर समुद्रमें ही लय हो जाती हैं वैसे ही यह जगत् भी शिवमें ही लोन हो जाता है।
प्रपंचरहित ज्ञान उस समाधिको बतलाता है जिसमें भक्त अधिक समय तक संसारका पात्र नहीं रहता और शिवमें लीन हो जाता है, प्रपञ्चरहित गुरु तो शिव स्वयं है । शिव और शक्तिका अभेद्यं सम्बन्ध भी शैव ग्रन्थोंमें बतलाया है और वह शैव धर्मका एक मौलिक सिद्धान्त है।
सोमदेवने 'वक्ता नैव सदाशिवः' ( सो० उ० पृ० २१ ) आदि श्लोकके द्वारा इस बातका खण्डन किया है कि आगमिक ज्ञान शिवसे प्रकट हुआ है।
१. “एकः स मिद्यते भ्रान्स्या मायया न स्वरूपतः । तस्मादद्वैतर्मवास्ति न प्रपन्चो न संसृतिः ।"
-सूतसंहिता (ज्ञानयोगखण्ड २०-४ ) । २ "प्रतश्च संक्षेपमिमं शृणुध्वं जगत्समस्तं चिदचित्प्रमिन्नम् ।।
स्वशक्तिक्लुप्तं शिवमात्रमेव न देवदेवात् पृथगस्ति किञ्चित् ॥" ३. "यथा प्रकाशतमसो सम्बन्धो नोपपद्यते। तद्वदेव न सम्बन्ध: प्रपत्रपरमात्मनोः ।। छायातपो यथा लोके परस्परविलक्षणौ । तद्वत् प्रपञ्चपुरुषो विमिन्नौ परमार्थतः ॥" ।
-ईश्वरगीता २, १०-११ । ४. “यथा फेनतरङ्गादि समुद्रादुस्थितं पुनः । समुद्रे लीयते तद्वजगन्मय्येव लीयते ॥"
-सूतसंहिता (ज्ञानयोग खण्ड २०-२० ) ५. “यदा सर्वाणि भूतानि समाधिस्थो न पश्यति । एकीभूतः परेणासौ तदा मवति केवलः ॥" ६. "गुणातीतः परशिवो गुरुरूपं समाश्रितः ।"-शिवपुराण (विद्येश्वरसंहिता १६-८४ ) ७. "न शिवेन विना शकिः न शक्तिरहितः शिवः। उमाशंकरयोरक्यं यः पश्यति स पश्यति ।"
-सूतसंहिता ( यज्ञवैभव खण्ड १३-३०)