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उपासकाध्ययन
देवालयमें भस्मपर आदतन सोनेका भी निर्देश है। तथा तीन प्रदक्षिणा करमेका भो उल्लेख है। इज्या से शिवलिंगको पूजा ली गयी है । आत्मविडम्बनामें कुछ विचित्र क्रियाएं बतायी गयी हैं जिनका उद्देश्य भक्तको अपमानित अनुभव कराना है।
टीकामें लिखा है कि ये क्रियाएं भक्तको अपमानका अनुभव कराने के लिए बतलायी है जिससे वह अपमानको सहन कर सके । अपमानको जंगलको आगके तुल्य बतलाया है और उसे इष्टतम कहा है । तथा लिखा है कि जैसे रंगमंचपर नट अपनी कलाएं दिखाकर जनताको प्रसन्न करता है उसी तरह शिवभक्तको जनसमुदायमें विचित्र क्रियाएं दिखाकर प्रसन्न करना चाहिए !
सोमदेवने पाशुपतोंके द्वारा मुक्तिके उपाय रूपसे बताये गये क्रियाकाण्डका तो उल्लेख करके उसको आलोचना की है, किन्तु पाशुपतोंने मुक्तिका स्वरूप कैसा माना है इस विषयमें कुछ भी नहीं कहा। कुछ ग्रन्थकारोंके अनुसार पाशुपतोंको मुक्तिका स्वरूप न्याय-वैशेषिक दर्शनसे भिन्न नहीं है ।
__भास्करने ब्रह्मसूत्रभाष्यमें लिखा है कि पाशुपत और कापालिक मुक्तिका स्वरूप वही मानते थे जो नैयायिकों और वैशेषिकोंने माना है । और शवोंकी मुक्तिका स्वरूप सांख्यके समान है। उसने लिखा है कि पाशुपत, वैशेषिक, नैयायिक और कापालिकोंके मतानुसार मुक्ति अवस्थामें आत्माएं पत्थरके तुल्य हो जाती हैं । किन्तु सांख्य और शैवमतमें चैतन्यविशिष्ट रहती हैं।
यमुनाचार्यने अपने आगमप्रामाण्यमें शैव सम्प्रदायका विवरण दिया है। उसने भी पाशुपताक मक्तिके स्वरूपके विषयमें वही लिखा है जो भास्करने लिखा है। पाशुपतदर्शनका एक मूल सिद्धान्त दुःखान्त है। इसका खुलासा करते हुए यमुनाचार्यने लिखा है कि दुःखान्तका अर्थ है, दुःखको आत्यन्तिकी निवृत्ति, इसीको समस्त विशिष्ट आत्मगुणोंका विनाशरूप मुक्ति मानते हैं ।
गणकारिकाको रत्नटीकामें दुःखान्तकी निषेधपरक व्याख्या तो उक्त प्रकार ही है। विधिपरक व्याख्या दुःखान्तका अर्थ सिद्धि अर्थात् शिवकी तरह सर्वोच्च शक्तिको प्राप्ति किया है।
ऐमा प्रतीत होता है कि पाशुपतमत दार्शनिक होने की अपेक्षा एक धार्मिक आचाररूप रहा है । पाशुपत सूत्रोंको कौण्डिन्यरचित टोकामें पाशुपतोंके आचारकी पूरी रूप-रेखा दी है। उसके मूल अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, असमव्यवहार, शौच, आहारलाघव और अप्रमाद आदि पांच यम हैं । अहिंसा जैनोंकी तरह ही व्यवहारात्मक है । जीवोंकी सुरक्षाके विचारसे आग जलानेतकका निषेध किया है । वस्त्रसे छानकर पानीका उपयोग करना बतलाया है। तथा वनस्पतिकी जड़, कन्दमूल और पके बीजोंको खाने का निषेध किया है। किन्तु जो मारा गया न हो ऐसे. पशुके मांस खानेकी आज्ञा है।
ब्रह्मचर्य तो स्पष्ट हो है। सत्यके विषयमें कौण्डिन्यने एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें बतलाया है कि सब प्राणियोंपर दया करने के लिए बोले गये झूठसे स्वर्ग मिल सकता है। किन्तु सज्जनोंके विनाशके लिए बोले गये सत्यसे भी स्वर्ग नहीं मिल सकता ।
१. "मूर्तिशब्देन यदुपहारसत्रे महादेवेज्यास्थानमूर्ध्वलिङ्गादि लक्षणं व्याख्यातम् ।" २. "येन परिभवं गच्छेदित्युपदेशाहवाग्नितुल्यत्वेनापमानादेरिष्टतमत्वादिति ।" ३ "रणवदवस्थितेषु जनेषु मध्ये नटवदवस्थितो विवेच्य विवेच्य क्राथनादीनि कुर्यात् ।" ४. "पाशुपतवैशेषिकनैयायिककापालिकानामविशिष्टा मुक्तयवस्थायां पाषाणकल्पा आत्मानो __भवन्तीति । सांख्यशैवयोश्च विशिष्टा प्रारमानश्चैतन्यस्वभावास्तिष्ठन्तीति ।" ५. "प्रात्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिर्दुःखान्तशब्देनोक्ता तामेव निःशेषवैशेषिकात्मगुणोच्छेदलक्षणां मुक्ति
मन्यन्ते।" ६. "स्वर्गमनृतेन गच्छति दयार्थमुक्त न सर्वभूतानाम् । सत्येनापि न गच्छति सतां विनाशार्थमुक्तेन॥"