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प्रस्तावना
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असमव्यवहारका मतलब है-व्याजादि देन-लेनके व्यवहारसे तथा कोटसे दूर रहना। अस्तेयमें अनधिकार प्रतिग्रह और अनपालम्भको भी लिया है। शौचका मतलब है शारीरिक, मानसिक और आदि पवित्रता। शारीरिक अपवित्रता भस्म लगानेसे दूर हो जाती है। भावशौच विशेष आवश्यक है । अपमान, तिरस्कार वगैरहसे आत्मशौच होता है । आहार लाघवसे मतलब है, भिक्षावृत्तिसे भोजन करना।
प्राचीन पाशुपत कठोर-जीवन बिताते थे ऐसा प्रकट होता है। पाशुपत सूत्रोंके अनुसार पाशुपत भिक्षक किसी उजडे हए घरमें अथवा गफामें या श्मशानमें रहता है, एक वस्त्रखण्ड रखता है और यह हो तो सर्वस्वत्यागके चिह्नस्वरूप वस्त्रोंसे सर्वथा दूर रहता है । भिक्षावृत्तिसे भोजन करता है, यहाँ तक कि भस्म भी भिक्षासे प्राप्त करता है और वैदिक यज्ञोंसे घृणा करता है।
वेदान्तसूत्र ( २-२--३७ ) के भाष्यमें शंकराचार्यने पाशुपतोंका खण्डन किया है किन्तु माहेश्वरशिवके अनुयायो नामसे उनका उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि पाशुपत भी एक शैव सम्प्रदाय था। नौवीं शताब्दीके ग्रन्थकार वाचस्पतिने भामतीमें और भास्करने ब्रह्मसूत्र भाष्यमें चार शैव सम्प्रदायोंका निर्देश किया है-पाशपत, कापालिक, शैव और कारुणिक सिद्धान्ती। यमुनाचायने अपने आगमप्रामाण्यम उनके नाम शैव, पाशुपत, कापालिक और कालमुख दिये हैं । रामानुजके श्रीभाष्यमें भी ये ही नाम हैं।
पाशुपत मतमें पांच पदार्थ है-दुःखान्त, कार्य, कारण, विधि और योग। इनका प्रवर्तक नकुलीश पाशुपत था। इन पांच पदार्थों को जानना जरूरी है। न्यायवैशेषिक दर्शनमें दुःखकी निवृत्तिका नाम दुःखान्त है, किन्तु पाशुपत दर्शनमें पारमैश्वर्यको प्राप्ति भी सम्मिलित है। न्यायवैशेषिक दर्शन असत्कार्यवादो है, किन्तु इस दर्शनमें पशु आदि कार्य नित्य है। अन्य दर्शनोंमें सृष्टिके कारण प्रधान परमाणु वगैरह हैं जो परतन्त्र हैं, किन्तु इस दर्शनमें स्वतन्त्र शिव हो सृष्टिका मूल कारण है। अन्य दर्शनाम योग कैवल्य और अभ्युदयको देनेवाला है, किन्तु इस दर्शनमें परमदुःखको अवधिका भानरूप योग है। अन्य दर्शनों में स्वर्गादि फलको देनेवालो विधि है, जहांसे पुनरावर्तन होता है, किन्तु पाशुपत दर्शनमें पुनरावृत्ति नहीं करानेवाली किन्तु रुद्रसायुज्य करानेवाली विधि है ।
तत्त्वज्ञानके पांच लाभ हैं । इन लाभपंचक, मलपंचक, उपायपंचक, देशपंचक, विशुद्धिपंचक, अवस्थापंचक, दीक्षापंचक और बलपंचक, ये आठ पंचक जान लेनेसे पाशपतोंके आचारप्रधान मार्गका बोध हो जाता है। मिथ्याज्ञान, पाप, विषयासक्तिरूप दोष, परमेश्वरपदको विस्मृति, पशुत्व अर्थात् बद्ध जीवका स्वरूप ये मलपंचक हैं। इनको पांच शुद्धियाँ हैं जो इन पांच मलोंको निवृत्तिरूप हैं। पशुभावकी निवृत्तिवाली पांच अवस्थाएं हैं। उन अवस्थाओम ले जानेवाली पाँच दोक्षाए हैं। ये दोक्षा पाशुपत गुरु देते हैं। उक्त आठ पंचकोंसे युक्त शिवभक्त कैसे जीवननिर्वाह करता है यह ऊपर लिख आये हैं।
शैव धर्ममें तीन मल चीज है-पति, पशु और पाश । पति स्वयं शिव है, और पश जगतके प्राणी हैं जो पाशसे बंधे हए हैं। शिवमें बांधन और मुक्त करनेकी शक्ति है। किन्तु अपने कर्मोके फलको भोगे बिना पाशसे छुटकारा नहीं मिल सकता। जो अपने कर्मोको नष्ट कर देते हैं उनकी मुक्तिके लिए शिव दयाल होकर आचार्यका पद ग्रहण करते हैं और उन्हें प्राथमिक दीक्षा देते हैं। शैवधर्म
सोमदेवने शवधर्म के दो मुख्य भेद बतलाये हैं-दक्षिणमार्ग और वाममार्ग। इनमें से वाममार्ग शवधर्मका विकृत रूप है, किन्तु दक्षिणमार्गको शैवधर्मका ठीक रूप कहा जा सकता है। इसके सिद्धान्तोंको बतलाने के लिए सोमदेवने तीन श्लोक उद्धृत किये हैं जो इस प्रकार हैं,
"प्रपञ्चरहितं शास्त्रं प्रपञ्चरहितो गुरुः । प्रपन्चरहितं ज्ञानं प्रपञ्चरहितः शिवः ॥