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प्रस्तावना
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कहे हैं, किन्तु लगभग दसवीं शताब्दीसे वैशेषिक दर्शनपर लिखनेवाले श्रीधर और उदयन-जैसे ग्रन्थकारोंने अभावकी महत्तापर जोर दिया है और दूसरे ग्रन्थकारोंने अभावको पदार्थों में सम्मिलित कर लिया है।
सोमदेवने वैशेषिकोंके द्वारा मान्य मुक्तिका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि कणादके अनुयायी आत्माके ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नौ विशेष गुणोंके नष्ट हो जानेको मुक्ति कहते हैं। सोमदेवने अपने कथनके समर्थन में एक श्लोक भी उद्धृत किया है, जिसमें बतलाया है कि शरीरसे बाहर आत्माके जिस रूपको प्रतीति होती है, कणाद मुनिने वही मुक्तिका स्वरूप कहा है।
श्रीधराचार्यने लिखा है "आत्मामें नित्य सुख नहीं है अतः मोक्षावस्थामें सुखानुभव न होनेसे सुखानुभवका नाम मोक्षावस्था नहीं है किन्तु आत्माके समस्त विशेष गुणोंका विनाश हो जानेसे उसको स्वरूपमें स्थितिका नाम मोक्ष है।" मण्डन मिश्रने मुक्तिके इस रूपपर यह आपत्ति की थी कि विशेषगुणोंकी निवृत्तिरूप मुक्ति तो उच्छेद पक्षसे भिन्न नहीं है। इसका उत्तर देते हए श्रीधरने कहा है कि विशेषगुणोंका उच्छेद होनेपर आत्मा अपने स्वरूपसे अवस्थित रहता है, उसका उच्छेद नहीं होता क्योंकि वह नित्य है
सोमदेवने भी मुक्तिके उक्त स्वरूपकी समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि मक्तिमें सांसारिक ज्ञान और सांसारिक सुख नहीं है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है, हमें यह इष्ट ही है, किन्तु यदि मुक्तावस्थामें आत्माके स्वाभाविक ज्ञान और सुख-गुण भी नष्ट हो जाते हैं तो फिर मुक्तात्माका लक्षण क्या रहेगा । अग्निमें से यदि उष्णता नष्ट हो जाये तो अग्निका अस्तित्व कैसे रह सकता है।
मुक्तिके कारणको आलोचना करते हुए सोमदेवने कहा है कि ज्ञानसे हमें वस्तुका बोध होता है, प्राप्ति नहीं होती। पानीको जान लेनेसे प्यास नहीं बुझती। अतः ज्ञानमात्रसे मुक्ति नहीं हो सकती। इसी तरह सैद्धान्त वैशेषिकोंको आलोचना करते हुए सोमदेवने कहा है कि केवल श्रद्धामात्रसे मुक्तिलाभ नहीं हो सकता। क्या भूख लगनेसे ही उदुम्बर फल पक सकता है।
___ कणाद मुनि वैशेषिक दर्शनके आद्य प्रवर्तक माने जाते हैं । उनके दर्शनको औलूक्य दर्शन भी कहते हैं । उसके ऊपरसे ऐसी कल्पना की गयो है कि शिवजीने उल्लका रूप धारण करके उन्हें परमाणुवादका उपदेश दिया था इससे उनके दर्शनको औलूक्य दर्शन करते हैं । कणादमुनि शैव अथवा पाशुपत थे। पाशुपत-दर्शन
सोमदेवके कथनानुसार पाशुपत दर्शनमें केवल क्रियाकाण्डसे मुक्ति मानी गयी है। वे क्रियाएँ इस प्रकार है-प्रातः दोपहर और सन्ध्याके समय शरीरमें भस्म लगाना, शिवलिंगकी पूजा करना, जलपात्रका अर्पण, प्रदक्षिणा और आत्मविडम्बना । सोमदेवने इनमें से किसी भी क्रियाका खुलासा नहीं किया। किन्तु भासर्वज्ञकी गणकारिकाको टीकासे उन्हें बहुत कुछ समझा जा सकता है। भासर्वज्ञ सम्भवतया सोमदेवका समकालीन था।
गणकारिकाकी रत्नटीकामें केवल दिनमें तीन बार शरीरमें भस्म रमानेका ही निर्देश नहीं है किन्तु
१. सो० उपा०, पृ०३।। २. सो० उपा०, पृ० ३ श्लो०९ । ३. "नास्यात्मनो नित्यं सख तदभावान्न तदनुभवो मोक्षावस्था किन्तु समस्तात्मविशेषगुणोच्छेदोप-लक्षिता स्वरूपस्थितिरेव । “यदुक्त मण्डनेन विशेषगुणनिवृत्तिलक्षणा मुक्तिरुच्छेदपक्षास भिद्यते
इति विशेषगुणोच्छेदे हि सति आत्मनः स्वरूपेणावस्थानं नोच्छेदो नित्यत्वात्।" ४. सो० उपा०, श्लो०३२-३३।। ५. सो. उ० ५-६ । ६. सो० उपा० पृ. ५, इलो०१७। ७. "भगवन्तं प्रणम्य स्वदाज्ञां करोमीत्यमिसंधाय जपन्नेवापादतलमस्तकं यावत् प्रभूतेन भस्मनाऽङ्गं
प्रत्यङ्गं च प्रयत्नातिशयेन निघृष्य निघृष्य स्नानमाचरेदित्येवं मध्याहापराह्नसन्ध्ययोरपीति'... निष्क्रम्येशं प्रणम्य प्रणामान्तं प्रदक्षिणत्रयं"कुर्यात् ।"