Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
जो लक्षण अपने लक्ष्योंमें व्यापकरके घटित हो जाता है वह समीचीन लक्षण है । प्रकृतमें उस सम्यग्दर्शनका निर्दोष लक्षण भी सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्वमें शीघ्र स्पष्ट रूपसे संभवता है । प्रशम आदि यानी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा. और आस्तिक्यसे शुभरागसहित जीवोंमें रहनेवाले सराग सम्यग्दर्शनकी प्रकटता हो जाती है और रागरहित जीवोंमें -आत्माकी केवल चित्तविशुद्धिसे ही वह वीतरागसम्यग्दर्शन लक्षित हो जाता है।
यथैव हि विशिष्टात्मस्वरूपं श्रद्धानं सरागेषु संभवति तथा वीतरागेष्वपीति तस्याव्याप्तिरपि दोषो न शंकनीयः। ...
जैसे ही दर्शन मोहनीयके उदयरहित विशिष्ट आत्माका स्वाभाविकस्वरूप श्रद्धान ठीक सराग सम्यग्दृष्टियोंमें सम्भवता है, इसी प्रकार वीतरागजीवोंमें भी स्वाभाविकपरिणामरूप श्रद्धान विद्यमान है । इस कारण उस सम्यग्दर्शनके लक्षणमें अव्याप्ति दोष होनेकी भी शंका नहीं करनी चाहिये । लक्ष्यके पूरे भेद प्रभेदोंमें जो लक्षण व्यापता है वह अव्याप्त नामका लक्षणाभास नहीं है । जिस शंकाकारने अव्याप्तिदोष देनेका ही प्रकरण उठाया है, उसके यहां अतिव्याप्ति और असम्भव दोषकी सम्भावना तो पहिलेसे ही नष्ट हुई समझना चाहिये । अतः यह लक्षण निर्दोष है ।
कुतस्तत्र तस्याभिव्यक्तिरिति चेत्, प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्येभ्यः सरागेषु सद्दर्शनस्य वीतरागेष्वात्मविशुद्धिमात्रादित्याचक्षते । .. अब आप जैन जन यह बतलाइये कि उन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें उस सम्यग्दर्शनका प्रगटपना कसे जाना जाता है ?, इस प्रकार प्रश्न होनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य स्पष्टरूसे यह कथनः करते हैं कि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चार स्वभावोंसे रागी जीवोंमें सम्यग्दर्शनकी ज्ञप्ति हो जाती है और वीतराग जीवोंमें केवल आत्माकी विशुद्धिसे ही सम्यग्दर्शन व्यक्त हो जाता है।
तत्रानन्तानुबन्धिनां रागादीनां मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोश्चानुद्रेकः प्रशमः।
उन चार भावोंमेंसे पहिले प्रशमका लक्षण यह है कि अनन्तनुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियोंके उदयसे होनेवाले रागद्वेष स्वरूप. अचारित्र आदिकोंका उद्भव न होवे,
और मिथ्यात्व तथा सम्यङ्मिथ्यात्व प्रकृतियोंका उदय न होवे तथा उदीरणा भी न होवे, ऐसी दशा में होनेवाली आत्माकी उत्कृष्ट शांतिको प्रशम कहते हैं । यह प्रशमका लक्षण चौथे गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकके सम्यग्दृष्टियोंमें घट जाता है और पहिले, दूसरे, तीसरे गुणस्थानोंमें अतिव्याप्ति भी नहीं हो पाती है। क्योंकि अनंतानुबंधीके उदय एवं उदीरणाका निषेध हो जानेसे दूसरे गुणस्थानके और मिथ्यात्वका उदय रोकदेनेसे पहिलेके तथा सम्यमिथ्यात्वके उदयको रोकदेनेसे तीसरे गुणत्थानके भावोंको प्रशमफ्नेका निवारण कर दिया गया है, ऐसा प्रशम तो अभव्य, दूरभव्य, और द्रव्यलिङ्गीके नहीं पाया जाता है।