Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
गुण अभाव हो जानेका प्रसंग होगा । जब कि परिणमन करनेवाला कर्म ही नहीं रहा तो श्रद्धान रूप पर्याय भला मोक्षमें कैसे बन सकेगी ? अपने परिणाम के न होनेपर परिणामका होना नहीं घटित होता है । तथा आत्माके रत्नत्रयस्वरूप परिणामोंसे ही उस कर्मकी आत्माका विभावपरिणाम करनेवाली शक्तिका नाश कर दिया जाता है । तब ज्ञानावरण आदि में कर्मरूपपना ही नहीं रहता है, जैसे कि शाणके द्वारा मणिके मलका पृथक्करण कर देनेपर उसका मलपना ही नष्ट हो जाता है । अग्निद्वारा सुवर्णके कीट, कालिमाका मलपना नष्ट कर दिया जाता है । कालान्तर में दूसरे पदार्थोंके साथ संसर्ग होनेपर भले ही वह मल बन जावे, किंतु वर्तमानमें शुभभावोंके निर्जराको प्राप्त हुए कर्मोकी कर्मपनारूप पर्याय और कार्माणवर्गणारूप पर्यायका तो ध्वंस कर दिया जाता है । यों पुद्गलद्रव्य किसी न किसी पर्यायकी अवस्थामें तो रहेगा ही, प्रकृतमें जब आपका माना हुआ कर्मपर्यायी ही न रहा तो सम्यग्दर्शनको उस कर्मकी पर्याय कैसे कहते हो ? समझो तो सही । इस कारण अनुमान बनाकर आचार्य महाराज कहते हैं कि सम्यग्दर्शन गुण ( पक्ष ) पौद्गलिक कर्मरूप नहीं है ( साध्य ) मोक्षका प्रधानकारणपना होनेसे ( पहिला हेतु ) क्योंकि आत्माका स्वाभाविक परिणाम होने के कारण वह सम्यग्दर्शन गुण त्यागने योग्य नहीं है ( दूसरा हेतु ), जैसे कि सम्यज्ञान ( दृष्टान्त ) है अर्थात् सम्यग्ज्ञानके समान सम्यग्दर्शन मोक्षका प्रधान कारण है । आत्मीय भाव ही मोक्षके प्रधान कारण हो सकते हैं । सर्वथा विजातीय परद्रव्य नहीं, तथा ज्ञान, सम्यक्त्व, 1 चारित्र आदि गुणोंका पिण्डरूप ही आत्मद्रव्य है । यदि गुणोंको द्रव्य छोड देता होता तो मूलसे ही द्रव्य नष्ट हो चुका होता, किंतु ऐसा नहीं है । अतः तीनों कालोंमें इनको नहीं छोड सकता है । यहां कोई हेतु असिद्ध हो जानेकी सम्भावना न कर बैठे इसलिये उक्त अनुमानमें दिये गये हेतुको साध्य कोटि में लाकर सिद्ध कर देते हैं कि सम्यग्दर्शन ( पक्ष ) मोक्षका प्रधान कारण है ( साध्य ) आत्माका अन्य सर्वथा न पाया जावे ऐसा अपना असाधारण धर्म होनेसे ( हेतु ) जैसे कि वही सम्यग्ज्ञान ( दृष्टान्त ) है, इस अनुमानके हेतुको भी साध्य बनाकर पुष्ट करते हैं कि सम्यग्दर्शन गुण ( पक्ष ) असाधारण होकर आत्माका निजधर्म है ( साध्य ) क्योंकि मोक्षके सर्वथा योग्य उससे भिन्न कोई दूसरा कारण आत्मामें विद्यमान नहीं है ( हेतु ) जैसे कि वहीं सम्यग्ज्ञान ( दृष्टान्त ) । इस प्रकार यहांतक सम्यग्दर्शनका लक्षण जीवका स्वाभाविक परिणाम श्रद्धान है इसको सिद्ध कर दिया गया है । इस सम्यग्दर्शनके सर्वाङ्ग सुन्दर लक्षणमें कोई भी असम्भव, अतिव्याप्ति अथवा अव्याप्तिरूप दोष नहीं देखे जाते हैं । अतः सूत्रकारके द्वारा किया गया सम्यग्दर्शनका लक्षण निर्दोष है ।
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सरागे वीतरागे च तस्य सम्भवतोंजसा ।
प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्रा च चेतसः ॥ १२ ॥