Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्पष्टीकरण किया है । तथा थोडापन और बहुतपना संख्यात असंख्यातरूप संख्याओंके भेद अथवा विवक्षित गुणको छोड़कर पुनः उसकी प्राप्ति करनेतकका विरहकालरूप अन्तर या औपशमिक क्षायिक आदि भाव ये भी विरुद्ध नहीं पड़ते हैं । क्योंकि आत्माके श्रद्धानस्वरूप परिणामोंको नानापन, अल्पपन, कर्मोंके उपशमसे होनापन आदि अनेक धर्म सहितपना सिद्ध है । भावार्थ - भविष्य के सूत्रोंकी घटना श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन माननेसे ठीक बनजाती है तथा भविष्यसूत्रों के अनुसार भी सम्यग्दर्शनका श्रद्धान लक्षण करना अनुकूल पडता है ।
पुरुषरूपस्यैकत्वात् तत्र तद्विरोध एवेति चेन्न, दर्शनमोहोपशमादिभेदापेक्षस्य तस्यैकत्वायोगात् । अन्यथा सर्वस्यैकत्वापत्तिः कारणादिभेदस्याभेदकत्वात् । कचित्तस्य भेदकत्वे वासिद्धः पुरुषस्य स्वभावभेदः । इति जीवद्रव्याद्भेदेन निर्देशादयस्तत्र साधीयांसोल्पबहुत्वादिवदिति वक्ष्यते ।
किसीका कहना है कि सम्यग्दर्शन जब आत्माका स्वभाव मान लिया गया है और आत्माका स्वरूप एक ही है, ऐसी दशामें अल्पपना, बहुपना औपशमिकपना, क्षायिकपना, विरह होना आदि उन भावोंके होनेका उस श्रद्धानमें विरोध ही है । आचार्य समझाते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि हम स्याद्वादी सभी प्रकारोंसे आत्माको एकरूप नहीं मानते हैं । दर्शनमोहनीयके उपशम . या क्षय तथा चौथे गुणस्थान, सातवें गुणस्थान, देवपर्यायमें स्थिति, उपशम सम्यक्त्वमें स्थिति, आदि भेदोंकी अपेक्षासे उस आत्माको एकपना सिद्ध नहीं है । अन्यथा यानी भेदकोंके होने पर भी आत्माको सर्वथा एक मानलिया जावेगा । तब तो सर्व ही आस्मायें या जीव, पुद्गल, आकाश, काल, आदि अनेकद्रव्य भी एक हो जायेंगे, यह आपत्ति हुई। क्योंकि कारणोंका भेद, गुणोंका भेद, व्यक्तिभेद, आकारभेद आदिको तो आपने भेद करनेवाला इष्ट किया ही नहीं है । ऐसी दशा में तो ब्रह्माद्वैतवाद या जडका अद्वैत छा जायेगा । इस दोषका वारण करनेके लिये यदि कहीं उन कारण आदिके भेदोंको पदार्थोंका भेद करनेवाला मानोगे तब तो आत्माके भी औपशमिक आदि स्वभावोंका भेद हो जाना सिद्ध हो जाता है । यों सर्वथा भेद तो जड और चेतनमें भी नहीं है । सत्पनेसे, वस्तुपसे और द्रव्यपनेसे तथा संग्रहनयकी अपेक्षासे सभी अभिन्न है । सर्व पदार्थ सत्स्वरूप हैं आत्मा भेदाभेदरूप है | एकानेक स्वरूप है । इस प्रकार जीव द्रव्यसे श्रद्धान गुणकी भेदविवक्षा करनेपर उसमें निर्देश, स्वामित्व, आदिक बहुत अच्छे प्रकार से साधु सिद्ध हो जाते हैं । जैसे कि थोडापन, बहुतपना, साधन, अधिकरण आदि धर्म श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन में बन जाते हैं । इस बातको ग्रन्थकार आगे स्वयं कहेंगे ।
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कर्मरूपत्वेऽपि श्रद्धानस्य तदविरोध इति चेन्न, तस्य मोक्षकारणत्वाभावात् स्वपरिणामस्यैव तत्कारणत्वोपपत्तेः । कर्मणोऽपि मुक्तिकारणत्वमविरुद्धं स्वपरनिमित्तत्वान्मोक्षस्येति चेन्न, कर्मणोन्यस्यैव कालादेः परनिमित्तस्य सद्भावात् ।