Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वहितकालमें इच्छाकी उत्पत्ति हुयी । यह द्वितीयपक्षका ग्रहण किया । अस्तु. वह द्रव्यकर्म तो मोहनीय नामक कर्म है, आत्माका गुण नहीं हैं । जैसा कि वैशेषिक वादी अदृष्टको आत्माका गुण मानते हैं, आत्माका गुण स्वयं आत्माको पराधीन करनेका हेतु नहीं हो सकता है। अतः अनुमान करते हैं कि वह आत्मासे बंधा हुआ मोहनीय कर्म पुद्गल द्रव्यका बना हुआ है। क्योंकि आत्माको पराधीन करनेका कारण है जैसे कि उन्माद करानेवाले धतूरेका रस, अहि-फेन, मद्य, भंग आदि पौद्गलिक हैं । इस कारण इच्छा करना मोहनीय कर्मका ही कार्य सिद्ध हुआ । ऐसी इच्छा उन मोहरहित साधुओंके भला कैसे उत्पन्न हो सकेगी ? भला तुम ही विचारो, जिससे कि इच्छास्वरूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शनका लक्षण हो सके, और वह वीतरागोंके पाया जा सके । अर्थात् ग्यारहवें बारहवें या तेरहवें गुणस्थानोंमें इच्छारूप सम्यग्दर्शन नहीं पाया जा सकेगा, और जब सम्यग्दर्शन ही न होगा तो उसको पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न होनेवाले सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रगुण भी वहां नहीं पाये जायेंगे । इस प्रकार मोहको क्षय करनेवाले बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती मुनि महाराजोंके रत्नत्रय न होनेके कारण मुक्तिके अभाव होनेका प्रसंग हो जावेगा । जिनके रत्नत्रयरूप कारण नहीं है उनके मोक्षरूपी कार्य भला कैसे हो सकता है ? तिस कारण उन मोहरहित जीवोंके उस रत्नत्रयकी व्यवस्थाको चाहनेवाले विद्वानोंकरके इच्छाको श्रद्धान नहीं कहना चाहिये । किन्तु श्रद्धान करना आत्माका विशेष गुण है । प्रतिपक्षी कर्मोके दूर होजानेपर विभाव परिणाम हटते हुये आत्मामें स्वभावरूपसे स्वयं उत्पन्न हो जाता है । अतः सूत्रकारको सम्यग्दर्शनका पारिभाषिक लक्षण करना न्याय्य मार्ग है। यही धर्म है।
निर्देशाल्पबहुत्वादिचिन्तनस्याविरोधतः ।
श्रद्धाने जीवरूपेशस्मिन्न दोषः कश्चिदीक्ष्यते ॥ ११॥ . .
तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना आत्माका स्वभाविक स्वरूप है । ऐसा माननेपर भविष्यमें कहे जानेवाले निर्देश स्वामित्व, सत्संख्या आदि सूत्रोंके अनुसार नामकथन करना, थोडा बहुतपन बतलाना, साधन, स्वामी, अधिकरण आदिके विचार करनेका कोई विरोध नहीं पड़ता है। और सम्यग्दर्शनके इस लक्षणमें अव्याप्ति आदि कोई लक्षणका दोष भी नहीं दीखता है तथा लक्षणवाक्यको ज्ञापकहेतु बनानेपर हेतुके व्यभिचार आदि दोषोंकी भी सम्भावना नहीं है ।
न हि निर्देशादयो दर्शनमोहरहितजीवखरूपे श्रद्धाने विरुध्धन्ते तथैव निर्देशादिसूत्र विवरणात, नाप्यल्पबहुत्वसंख्याभेदान्तरभावाः पुरुषपरिणामस्य नानात्वसिद्धेः।
सम्यग्दर्शनके प्रतिपक्षी होरहे दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे रहित जीवका स्वाभाविकरूप श्रद्धानको माननेपर निर्देश, स्थिति, भाव, अन्तर आदि द्वारा श्रद्धानका निरूपण करना विरुद्ध नहीं होता है। क्योंकि इस प्रकारसे ही भविष्यके निर्देश, स्वामित्व, और सत्संख्या आदि सूत्रोंमें श्रद्धानका