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जिसने वेद और कषाय के उदय को शान्त किया है और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि पर जिसने विजय प्राप्त करली है, वह आत्मा जिस सुख का अनुभव करती है, वह सुख अन्य आत्माओं के नसीब में कहाँ से ?
कविवर ने इन सद्भावनामों को कल्पलतानों की उपमा दी है, कल्पलता से समस्त इष्ट - सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार इन भावनात्रों के नित्य भावन से लोकोत्तर प्रशम रूप सुख की प्राप्ति होती है।
अनित्यत्वाशरणते, भवमेकत्वमन्यताम् । अशौचमाञवं चात्मन् ! संवरं परिभावय ॥७॥ कर्मणो निर्जरां धर्म-सूक्ततां लोकपद्धतिम् ।। बोधिदुर्लभतामेता, भावयन्मुच्यसे भवात् ॥ ८ ॥
(अनुष्टुप् ) अर्थ-अनित्यता, अशरणता, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोकस्वरूप और बोधिदुर्लभता रूप इन भावनाओं का भावन करने से हे आत्मन् ! तू इस संसार से मुक्त हो जाएगी ।। ७-८॥ .
विवेचन बारह भावनाएँ
अन्तिम दो गाथाओं में इन बारह भावनाओं का नाम-निर्देश किया गया है।
(1) अनित्य भावना-संसार का प्रत्येक पदार्थ, संसार के सभी संयोग-संबंध आदि अनित्य-नाशवन्त हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-१२