________________
संसार भावना
इतो लोभः क्षोभं जनयति दुरन्तो दव इवोल्लसंल्लाभाम्भोभिः कथमपि न शक्यः शमयितुम् । इतस्तृष्णाऽक्षाणां तुदति मृगतृष्णेव विफला , कथं स्वस्थैः स्थेयं विविधभयभीमे भववने ॥ ३२ ॥
(शिखरिणी) __ अर्थ-एक अोर लोभ का भयंकर दावानल सुलगा हुआ है, जिसे बढ़ते हुए जलरूपी लाभ से किसी भी तरह से शान्त नहीं किया जा सकता है तथा दूसरी ओर इन्द्रियों की तृष्णा मृगतृष्णा की भाँति परेशान कर रही है। इस प्रकार विविध प्रकार के भयों से भयंकर इस संसार रूपी वन में स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है ? ॥ ३२ ॥
विवेचन लोभ और तृष्णा का आतंक
___ संसार एक नाटक की रंग-भूमि है, जहाँ जीवात्मा कर्म के नेतृत्व में विविध प्रकार के पात्र भजती है। कभी आत्मा मानव के रूप में जन्म लेती है तो कभी पशु के रूप में। एक ही आत्मा
शान्त सुधारस विवेचन-८२