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नियम का उल्लंघन करने की उसमें लेश भी शक्ति नहीं है । कर्म उसे जहाँ ले जाता है, उसे वहीं जाना पड़ता है। कभी चौदह राजलोक के एक कोने में एकेन्द्रिय के रूप में जन्म लेता है तो कभी दूसरे कोने में। कभी नारक बनकर परमाधामी की भयंकर यातनाओं को सहन करता है तो कभी तिर्यंच में पराधीन अवस्थाएँ प्राप्त करता है ।
कभी-कभी कर्म ही उसे सुख के साधन देता है और फिर उसे दुःख के भयंकर गर्त में डाल देता है।
इस प्रकार सोचेंगे तो ख्याल में आएगा कि दुनिया में जो कुछ भी जीवों की हल्की अवस्थाएं देखने को मिलती हैं, उन सब अवस्थाओं में से अपनी प्रात्मा गुजरी हुई है। ऐसी स्थिति होने के बावजूद भी थोड़े से शुभकर्म के उदय से जीवात्मा को अनुकूल सामग्रियाँ मिलती हैं, तो वह उसमें पागलसा हो जाता है। वह यह मान लेता है कि मुझे प्राप्त हुई अनुकूल सामग्री तो सदा रहने वाली है। इस भ्रम के कारण वह नाना प्रकार की कल्पनाएँ कर लेता है।
शेखचिल्ली को बात याद आ जाती है। अत्यन्त गरीबी में वह अपने दिन गुजार रहा था। उसके घर पर एक बकरी थी। एक दिन वह अपने सिर पर मिट्टी की हांडी में बकरी का दूध भरकर उसे बेचने के लिए बाजार जा रहा था। रास्ता कुछ ऊबड़-खाबड़ था। शहर का मागे कुछ लंबा था, अतः शेखचिल्ली विचारों में डूब गया और सोचने लगा
"इस दूध को बेचूंगा....एक रुपया मिलेगा....बाजार से चने खरीद लूगा और उन्हें पाठशाला के बच्चों में बेच दूगा....फिर
शान्त सुधारस विवेचन-१०५