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चाहिये। माया के फल अत्यन्त कटु होते हैं। मायावी व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता है। माया के कारण ही मल्लिनाथ भगवान को स्त्री-अवतार प्राप्त हुआ था। अतः माया का त्याग कर सरलता धारण करनी चाहिये।
लोभ के निवारण के लिए सन्तोष गुण को आत्मसात् करना चाहिये। लोभी व्यक्ति सदैव अतृप्त रहता है। छह खण्ड का राज्य मिलने पर भी सुभौम चक्रवर्ती तृप्त नहीं हुआ। मगध का राज्य मिलने पर भी कोणिक को चक्रवर्ती बनने का मनोरथ हुआ था और इस कारण उसे बेमौत मरना पड़ा।
स्त्रीसंग के लोभ के कारण रावण को मौत के घाट उतरना पड़ा।
धन के लोभ में आसक्त मम्मण सेठ सातवीं नरकभूमि का अतिथि (?) बन गया।
इस प्रकार चारों कषायों की भयंकरता का विचार कर उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिये ।
गुप्तिभिस्तिसृभिरेवमजय्यान् , . त्रीन् विजित्य तरसाधमयोगान् । साधुसंवरपथे प्रयतेथा , लप्स्यसे हितमनीहितमिद्धम् ॥१०॥
(स्वागता) अर्थ-अत्यन्त दुर्जेय मन, वचन और काया के योगों को तीन गुप्ति द्वारा जल्दो जीत लो और पवित्र संवर के पथ पर
शान्त सुधारस विवेचन-२५६