________________
प्रवेश करता है, जिससे आत्मा रूपी नाव संकट में गिर जाती है। उस समय संवर के द्वारा उन कर्म के आगमन के द्वारों को बन्द किया जाता है और निर्जरा के द्वारा आत्मनाव में पाए कर्म रूपी पानी को बाहर फेंका जाता है ।
आत्मा पर से कर्म का क्षय दो प्रकार से होता है(१) उदय से और (२) निर्जरा से ।
कर्म के उदय से भी प्रांशिक कर्मों का क्षय होता है, परन्तु इसके द्वारा आत्मा कर्म से मुक्त नहीं बन सकती है क्योंकि उदय के साथ ही कर्म का बंध भी तो प्रतिसमय चाल है। अतः सम्पूर्ण कर्मों का क्षय तो एकमात्र निर्जरा से ही सम्भव है।
निर्जरा के दो भेद हैं
(१) प्रकामनिर्जरा-अनिच्छा से कर्म के उदय से जन्य दुःख, पीड़ा प्रादि को सहन करना। इसमें निर्जरा अति अल्प होती है।
(२) सकामनिर्जरा-इच्छापूर्वक कर्म के उदय से पाए हुए दुःख को सहन करने से सकामनिर्जरा होती है तथा इच्छापूर्वक नये-नये कष्टों को खड़ा कर, उन्हें सहन करने से भी सकामनिर्जरा होती है। इसमें थोड़ा कष्ट हो तो भी निर्जरा अधिक होती है।
इच्छापूर्वक कष्ट सहन करने में अत्यधिक निर्जरा होती है ।
नरक का जीव अनिच्छा से सौ वर्षों तक भयंकर कष्टों को सहन कर जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्मों की
शान्त सुधारस विवेचन-२७५