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इसी प्रकार प्रात्मा भी जब तप के आश्रय से तप कर शुद्ध बनती है, तब उसकी चमक बढ़ जाती है। तप के ताप से आत्मा पर लगा कर्ममल जलकर समाप्त हो जाता है। मल के जलने के साथ ही प्रात्मा का तेज प्रगट हो जाता है।
वह त्रिभुवन में पूज्य बन जाती है। देवता भी आकर उस आत्मा को प्रणाम करते हैं। बाह्य नाभ्यन्तरेण प्रथितबहुभिदा जीयते येन शत्रश्रेणी बाह्यान्तरङ्गा भरतनपतिवद् भावलब्धद्रढिम्ना । यस्मात् प्रादुर्भवेयुः प्रकटितविभवा लब्धयः सिद्धयश्च , वन्दे स्वर्गापवर्गार्पण पटु सततं तत्तपो विश्ववन्द्यम् ।११६।
(स्रग्धरा) अर्थ-बाह्य और अभ्यन्तर दृष्टि से यह तप बहुत भेद वाला . है, जिससे भरत महाराजा की तरह भावना से प्राप्त दृढ़ता से बाह्य
और अभ्यन्तर शत्रुओं की श्रेणी जीत ली जाती है, जिसमें से प्रगट वैभवशाली लब्धियाँ. और सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं, स्वर्ग
और अपवर्ग को देने में चतुर ऐसे विश्ववन्द्य तप को मैं वन्दन करता हूँ। ११६ ॥
विवेचन तप की महिमा अपरम्पार
तप का माहात्म्य वर्णनातीत है। तप के मुख्य दो भेद हैं-बाह्य तप और अभ्यन्तर तप। पुनः प्रत्येक के छह-छह भेद हैं, जिनका विस्तृत वर्णन आगे होने वाला है ।
शान्त सुधारस विवेचन-२८७