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इस तप के प्रभाव से दृढ़प्रहारी जैसे हत्यारे भी पाप से सर्वथा मुक्त बनकर अजर-अमर पद को प्राप्त हो गए। ऐसे तप की महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं।
यथा सुवर्णस्य शुचिस्वरूपं ,
दीप्तः कृशानुः प्रकटीकरोति । तथात्मनः कर्मरजो निहत्य , ज्योतिस्तपस्तद् विशदीकरोति ॥ ११५ ॥
. (उपजाति) अर्थ-जिस प्रकार प्रदीप्त अग्नि स्वर्ण के शुद्ध स्वरूप को प्रगट करती है, उसी प्रकार तप भी आत्मा के कर्म-मैल का नाश कर, उसके ज्योतिर्मय स्वभाव को फैलाता है ।। ११५ ।।
विवेचन तप से आत्म-विशुद्धि
खान में रहा हुमा स्वर्ण कितना मलिन होता है ? मिट्टी से वह भरा हुआ होता है; किन्तु उसी स्वर्ण को जब आग में तपाया जाता है तब वह शुद्ध होने लगता है और धीरे-धीरे उसकी चमक-दमक बढ़ने लगती है, दुनिया उसका वास्तविक मूल्यांकन करती है, वह देवताओं के मस्तक का मुकुट बनकर सर्व सम्मान प्राप्त करता है।
स्वर्ण सभी का आदरणीय बना, क्यों ? क्योंकि उसने अग्नि के ताप को सहन किया।
शान्त सुधारस विवेचन-२८६