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अपने प्राण-प्रिय माता-पिता के मृत कलेवर को देखकर सभी बालक भयंकर चीत्कार करने लगे।
बालकों का करुण विलाप सुनकर पत्थर दिल दृढ़प्रहारी का हृदय भी द्रवित हो उठा....उसका हृदय पिघल गया और उसे अपनी भूल का घोर पश्चाताप होने लगा।
उसने सोचा-'ब्राह्मण, स्त्री, गाय और गर्भ की हत्या करने वाले मुझे जीने का अधिकार नहीं है।" अतः वह आत्महत्या के लिए नगर से निकल पड़ा।
नगर के बाहर आते ही उसने एक महात्मा को कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े देखा। महात्मा की शान्त-प्रशान्त व गम्भीर मुद्रा ने दृढ़प्रहारी को आकर्षित कर लिया और उसने महात्मा के चरणों में जाकर नमस्कार किया।
महात्मा ने उसे 'धर्मलाभ' का महान् आशीर्वाद दिया।
दृढ़प्रहारी ने कहा-'प्रभु ! मैंने जीवन में भयंकर पाप किए हैं। मैं जीने का....अधिकारी नहीं हूँ....अतः आत्महत्या के लिए जा रहा हूँ....मौत ही मेरे पापों की शुद्धि....।'
महात्मा ने कहा-'महानुभाव! धैर्य रखो। धीरज का फल मीठा होता है, आत्महत्या करने से....देह को समाप्त कर देने से पापों का नाश नहीं होता है। पापमुक्त बनने का एक मात्र उपाय है-सर्वविरति धर्म का स्वीकार ।'
दृढ़प्रहारी ने कहा-'प्रभु ! मुझे पाप से मुक्त बनना चाहिये....मुझे यही उपाय चाहिये और यह पाप ही बता सकोगे।'
शान्त सुधारस विवेचन-२८४